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जलाल
विशेषार्थ :
श्लोक ३६. एसणीयं-एषणीय-लेने योग्य या निर्दोष। एषणीय शब्द बड़े व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है-सभी नियमों के अनुसार सब प्रकार से निर्दोष वस्तु को एषणीय कहते हैं। आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज इसका महत्त्व समझाते हुए कहते हैं-“साधु यदि इस बात का निश्चय कर लेवे कि यह अन्न-पानी तथा भोजनादि सर्वथा निर्दोष है, पश्चात्-कर्म या पूर्व-कर्म दोष की संभावना नहीं की जा सकती। अतः यह अन्न-पानी ग्राह्य है, तब उस निर्दोष अन्न-पानी को ले लेवे। कारण कि जब साधु के नवकोटि प्रत्याख्यान है तब उसको प्रत्येक पदार्थ की ओर अत्यन्त विवेक रखने की आवश्यकता है; तभी वह दोषों से बच सकता है।"
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ELABORATION:
(36) Esaniyam-acceptable (conforming to the codes) or faultless. This term is used in its all enveloping meaning and not just in a specific context. Eshaniya is a thing that conforms to the codes from every possible angle and is thus acceptable, Acharya Shri Atmaram ji M. explains its importance—“An ascetic should first ensure that the food he is inspecting is absolutely faultless and there is no chance of some preceding or consequent fault if he accepts it; such food is acceptable. Only then should he accept such faultless food. The reason for so much precaution is that an ascetic has an iron clad commitment to the nine rules of abstinence, and he can avoid straying into faults only if he is alert and choosy about each and every thing."
३७ : दुण्हं तु भुंजमाणाणं एगो तत्थ निमंतए।
दिज्जमाणं न इच्छिज्जा छंदं से पडिलेहए॥ __ यदि एक ही वस्तु को दो व्यक्ति भोगने वाले हों तब उनमें से यदि कोई एक व्यक्ति साधु को निमन्त्रण करे, तब साधु न देने वाले व्यक्ति का अभिप्राय अवश्य जाने॥३७॥
37. If there are two owners or consumers of a thing and only one of them invites the ascetic, then before accepting he must inquire about the intention of the other.
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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा (प्रथम उद्देशक) Fifth Chapter : Pindaishana (Ist Section)
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