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आचार्यों का कथन है कि सामान्यतः भिक्षा का समय देशकाल की परिस्थिति के अनुसार होता है। जिस प्रदेश में जो समय लोगों के भोजन का होता है, मुनि उस समय भिक्षाचर्या करता है। उससे पहले या बाद में भिक्षा के लिए जाने में तो वह 'अकालचर्या' हो सकती है और अकालचर्या का भी निषेध है। अतः 'भिक्षाकाल' प्रदेश की परिस्थिति सापेक्ष है। ( आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज दशवै.,
पृ. १४३)
असंभंतो- असंभ्रान्त- भिक्षा के लिए जाते हुए किसी भी प्रकार की आतुरता का न होना । 'देर हो गई, अब भोजन मिले न मिले,' 'अन्य भिक्षुओं के ले जाने पर कुछ बचे या न बचे।' ऐसे अनेक भाव, विकल्प मन में उठ सकते हैं और इससे जो आकुलता होती है वह असावधानी को जन्म देती है। अतः शान्त चित्त से प्रस्थान करें ।
अमुच्छिओ-अमूर्च्छित - मोह, लालसा या आसक्ति का अभाव । भिक्षा के लिए जाते समय मन में किसी विशिष्ट अथवा सुस्वादु भोजन ग्रहण करने की अभिलाषा का होना मूर्च्छा है। साथ ही भिक्षा ग्रहण करते समय अन्य किसी आकर्षण के प्रति आसक्त होना निषिद्ध है। अमूर्च्छा भाव को समझाने के लिए एक दृष्टान्त दिया गया है
एक सजी-धजी नवेली सुन्दर दुल्हन गाय के बछड़े को घास, चारा, पानी देती है । बछड़ा उसके हाथ से यह सब खाता है पर खाते समय उस दुल्हन के मोहक रूप, सुन्दर वस्त्र, चमचमाते गहने, लुभावनी गंध और स्नेहिल स्पर्श आदि किसी पर भी वह ध्यान नहीं देता । बस एकाग्रचित्त हो अपना चारा चबाता रहता है। ठीक इसी प्रकार साधु का चित्त दाता के रूप, वैभव, ऐश्वर्य व भोज्य-सामग्री के प्रति आकर्षित या मूर्च्छित न हो, केवल आहार की गवेषणा के प्रति सावधान रहे यही अमूर्च्छा भाव है।
(जिनदास चूर्णि, पृ. १६७ / चित्र १० / १ देखें)
Note: The term generally used in this and following chapters for eatables is ahar-pani or bhojan-pani, or simply ahar or bhojan. In fact it means the four types of food-ashan, paan, khadya and svadya (details in chapter 4, para 16). As this term is oft repeated, to avoid clumsy reading, we have just used food' for this in the English rendering. Therefore, wherever the word 'food' occurs in this and the following chapters it includes all the four types of food.
ELABORATION:
Bhikkhakalammi-In the code of conduct are included directions for procedures to be followed in every situation, at every place, at every time. In the code book for the Jain shraman the
पंचम अध्ययन : पिण्डेषणा (प्रथम उद्देशक) Fifth Chapter: Pindaishana (Ist Section)
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