Book Title: Kalyan Kalika Part 1
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਦੀ ਹਿਬ ਦਾ ਨੂੰ ਬਿਹਤਰ ਬਣ ਹੀਦ ਦਾਰੀ ਚ ਈ ਕਰ ਹੀਦਾ ਹnt ਯੂਬ ਜਹਾ (ਬਰ ਵਵਵਰਣਨ ਮੀਥੇਨ ਨੇ ਸਲੀ ਸਰ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनाय नमः * पं. श्री कल्याणविजयगणि-विरचिता स्वोपज्ञ गुजराती भाषा टीका सहित श्री कल्याण कलिका प्रथमो भागः (प्रथम खण्डात्मकः) प्रकाशकः श्री क. वि. शास्त्र संग्रह समिति जालोर (राजस्थान) द्वितीयावृत्ति प्रतयः १००० वौर संवत २५१३ वि. स. २०४३ इस्वी सन १९८७ 索迷迷迷迷来来来来来来迷迷迷蒙蒙德谈谈深基地 ain Education International Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान १ नदीश्वर तीर्थ कार्यालय वर्धमान जैन विद्याभवन जालोर (राजस्थान) २ सोनमल रमेशचन्द्र कोठारी A/४० मस्कती मार्कीट, अहमदाबाद-१ मुद्रक : पंडित मफतलाल झबेरचन्द गांधी मुद्रणस्थान : नयन प्रिन्टींग प्रेस ढी कवावाडी, फर्नान्डीझ पुल के पास, अहमदावाद-१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार प्रदर्शन पू. पं. कल्याणविजयजी गणिवरना शिष्य मुनिश्री मुक्तिविजयजी महाराज साहेब पाताना पू. गुरुमहाराज द्वारा निर्मित थयेल बधां कार्यानी सारस भार अने प्रगति करी रह्या छे. __ पू. पन्यासजी महाराजे आर भेल कार्य तेमणे तेमना नदीश्वर तीर्थ निर्वाण बाद पुरेपुरी दीर्घ दृष्टि राखी गुरु महाराजनी योजना मुजब पूर्ण करावेल छे. तेमज सुंदर अनुपम तीर्थस्तभ आजे जे जालोरमां दिगतकीर्ति फेलावे छे ते तेमना परिश्रमनु परिणाम छे. नदीश्वर तीर्थमां महा सुद ६ ना रोज दरवर्षे सुदर मेळो भराय छे. राजस्थानना गामे गामथी अढारे ज्ञाति आ मेळामां धर्मबुद्धिले भाग ले छे. ते बधे। प्रताप पू. वयोवृद्ध मुनिश्री मुक्तिविजयजी महाराजनी प्रेरणाने आभारी छे. नदीश्वर तीर्थ कार्यालय, श्री वर्धमान जैन विद्याभवन, श्री नेमिनाथ भगवाननु तथा श्री सीमधर स्वामिनु भव्य मंदिर, श्री महावीर स्वामिनु मदिर तेमज कीर्तिस्तंभ आ बधाथी जालोर तीर्थ जेवुभव्य बन्युछे. अने ज्यां दूरदूरथी यात्रिओ आवे छे. आ स्थान आजे तीर्थभूमि स्वरुप छे. पू पं. कल्याणविजयजी म. ना स्वर्गवास बाद गुरुभक्त पू. मुक्तिविजयजी महाराजे पू. प. म. श्रीना जे जे अधुरा कार्य हतां ते सर्वने तेमणे पुरा कर्या छे, विकसाव्यां छे. अने साथे साथे जैनशासननी प्रभावना वधारी छे. आ ग्रंथ प्रकाशन पण तेमना गुरुप्रत्येनी भक्तिनु परिणाम छे. अमे तेमनो खुब-खुब आभार मानीए छीए. प्रकाशक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. पन्यास कल्याणविजयजी म. प्रकाशित ग्रंथावली १ निबंधनिचय प्रबन्ध पारिजात ३ पट्टावली प्रतिक्रमण विधि संग्रह श्री श्रमण भगवान महावीर ६ सर्वोदय शास्त्र श्री जिनपूजा पद्धति ८ श्री जैन विवाह विधि ९ श्री मंत्रकल्प संग्रह १० श्री तीर्थमाला ११ पंडित माघ मानवभाज्यमिमांसा १२ १३ श्री गोल नगरीय प्रतिष्ठा विधि १४ जैन ज्ञानगुण संग्रह १५ पर्व तिथि चर्चा संग्रह १६ श्री जिनगुण कुसुमांजलि ९७ श्री कल्याण कलिका भाग - १ श्री कल्याण कलिका भाग-२ १८ १९ त्रिस्तुतिकमीमांसा २० रत्नाकर २१ तित्थेोगालिय पयन्ना २२ चालु चर्चामा सारांश केटला य३ वीरनिर्वाण सवत और कालगणना २४ नागरिक प्रचारिणी पत्रिका लिखित तथा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मरणांजलि पू, प, कल्याणविजयजी गणि. जैन शासनमां प्राचीन प्रोना संशोधक, आगम-व्याकरण न्याय आदि ग्रंथोना प्रकांड विद्वान, इतिहासना समर्थज्ञाता, विधिविधान ग्रंथोना विशिष्ट ज्ञाता, ज्योतिष शास्त्रना समर्थ विद्वान तथा प्राचीन शिल्पविज्ञानना उडा अभ्यासी हता. आ बधाय विषयोमां ते अजोड अने समर्थ हता. जैन जगत सिवाय समस्त भारतमां इतिहासवेत्ता तरीके तेमनी विशिष्ट ख्याति हती अने तेमना अभिप्राय इतिहासना विषयमां गणनापात्र गणातो. प्राचीन इतिहास संबंधमां आपणा जैन शासनमां त्रण व्यकितओनी गणना हती १. पू. आ. इन्द्रसूरिजी म. २. पू. प. कल्याणविजयजी गणि. ३. पू. मुनिश्री दर्शनविजयजी त्रिपुटी. आ त्रणेमां विशिष्ट स्थान पू. पं. कल्याणविजयजी गणिनु हतु. तेमणे जैन इतिहासना संशोधन साथे केटलीक एवी विशिष्ट वातो संशोधन द्वारा रजु करी हती के जेने लइ भारतभरना विद्वानो तेमना अभिप्रायने बहुमुल्य गणता. तेनी साक्षिरुपे तेमना लखेला वीरनिर्वाण संवत अने महाबीर कालगणना पुस्तक छे. एमणे अमना जीवनकाळ दरमियान लगभग त्रीस प्रथा लख्या छे. आ तीसे ग्रथा तेमना स्वयं सर्जन अने चितनमूलक छे. तेमना जन्म वि. सं. १९४४ मां राजस्थानना लास गाममां, १९ वर्षनी उमरे वि सं. १९६३ वै सु. ६ ना Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीबसे जालोरमां दीक्षा, वि. स. १९९४ ना मागसर सुद ११ ना दीवसे अमदावाद विद्याशालामां गणिपद अने पन्यास पद अने वि. स. २०३१ ना अपाड सुद १३ ना दीवसे जालोरमां कालधर्म. आयुष्य ८७ वर्ष दीक्षा पर्याय ६८ वर्ष. आपणे त्यां पू. पुण्यविजयजी महाराज साहेबने प्राचीन ग्रंथोना सशोधकना विषयमा विशिष्ट मानबामां आवे छे. परतु तेमने में हठीभाइनी वाडी अमदावादमां कलाकाना कलाका सुधी पू. पन्यासजी म. नी प्रेरणा लेता जोया छे. आगमादि ग्रथोनु तेओ विशिष्ट ज्ञान धरावता हता. तेना पुरावारुपे प्रबन्धपारिजात ग्रंथ के जे प्रथमां निशीथ महानिशीथ जेवा छेद ग्रंथानु तेमना हाथे खुबज अन्वेषण थयुछे. सेंकडो वर्ष थी जैन समाजने के तेना विद्वान मुनिओने पण माहीति न होय तेवी विगतो तेमणे पट्टावली अने निबंध निचयग्रथ द्वारा पुरी पाडी छे. कल्याण कलिका भाग १-२ विधिविधान, ज्योतिष अने प्राचीनशिल्पनु अनेक ग्रंथी द्वारा तेमां दोहन छे. आ उपरांत मानव भोज्य मिमांसा पंडित माघ विगेरे घणा ग्रथा एवा लया छे के भारतभरना विशिष्ट विद्वानाने तेमणे तेमना ज्ञान द्वारा आकर्ष्या छे श्रमण भगवान महावीर अने वीरनिर्वाणसवत और जैन काल गणना आ ग्रंथनु निर्माण तो भारतभरना इतिहासज्ञोने नतमस्तक बनावे तेवो तेनी पोछळना तेमना परिश्रम छे. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमग्रथो, शिलालेखा अने विविधसाहित्यना निरीक्षण मनन अने चिंतनद्वारा तेमणे श्रमण भगवान महावीरना क्रमबद्ध चौमासां तेमां थयेला उपसा विगेरेनु जे तारण कर्यु छे तेवू आज सुधी काइए पण कयु नथी. वीरनिर्वाण और जैन काल गणना ग्रथ तो एटला वो आधारभुत ग्रंथ मनायो छे के तेने आधाररुप गणी इतिहासविदाए पातान संशोधन कयु छे. तेमणे लखेला लगभग ३० प्रथा पाछळ प्राचीन अर्वाचीन विविध प्रथानु वांचन निरीक्षण मनन अने संकलन सविशेष जोवा मळे छे. तेमना हाथे मुद्रित थयेल . एकेक ग्रथनी सविस्तर आलोचना करवामां आवे तो तेमना विशाळ ज्ञान अनुभव अने निरीक्षण प्रत्ये अहोभाव प्रगटावी दरेकने नतमस्तक चनावे तेम छे. पू. पन्यास कल्याणविजयजी म. साहेबने आचार्य पद लेवा माटे खुवज आग्रह करवामां आव्या हतो परतु कोइना पण आग्रहने वश न थतां हमेशां जे पद उपर हु छु ते वरावर छे तेम कही आचार्य पदवी लेवानु टाळयु हतु. पू. ५. कल्याणविजयजी गणिमां विशिष्ट अन्वेषण शक्ति ऐवी आत्मसात् हती के विहारमा काइपण गाममांथी पसार थाय तो ते गामने पादरे उभेला पाळीयो पछी ते गमे तेनो होय तो पण तेनो लेख तेनो इतिहास अने तेनी पाछळ रहेलु रहस्य आ बधार्नु तेओ अन्वेषण करता. नानामां नाना गाममां जाय तो ते गामनु दहेरासर.. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाश्रय अने त्यां पडी रहेला जुना चोपडा पानां के चापानीयां बधानु बारीकरीते निरीक्षण करता अने तेमांथी जेने लोको नकामु कही फेकी देवा जेवु मानता तेमाथी ते इतिहास परंपरा अने तत्त्वज्ञाननु नवनीत शेाधी काढता. पू. प. कल्याणविजयजी गणि. सिंहनी पेठे निडर प्रकृतिना हता. ते काइनी षण आभा प्रतिभा लागवग आडंबर के खाटा तेजथी अंजाता न हता. तेमने जे साचु लागे ते कहेतां जे काइ सहन करवु पडे ते सहन करवा हमेशा तत्पर रहेता. वधुमां पोते मानेल विचारेल अने प्रचारेल वात बराबर नथी, नुकशान करता छे ते ख्याल आवे तो तेना स्वीकार करवामां कीर्ति यश के महत्ता जरापण आडे लाब्या वगर स्पष्टपणे कहेता के में कयुछे, विचार्यु छे पण हवे मने लागे छे के आ करवा जेवु नथी तो तुर्त ते करवामां अचकाता नहाता पू. प. कल्याणविजयजी गणिनु नाम में घणा वर्षाथी समर्थ विद्वान इतिहासज्ञ तरीके सांभळेलु पण तेमनो प्रत्यक्ष परिचय तो तेओ ज्यारे वि. सं. १९९४ मां विद्याशालाए आव्या त्यारे थयो. परंतु गाढ परिचय तो तेमना कल्याणकलिका भाग १-२ ना प्रकाशनमां थयो अने ते परिचय तेमना कालधर्म सुधी सतत रह्यो एटलुज नहि पण तेमनी पासे तेमणे एकठा करेल प्राचीन साहित्यना आंखनी तकलीफना कारणे अणशाधेल अने अणप्रकाशित पाटलां मारे त्यां मोकल्यां अने प्रकाशित करवानुकात्यारे हुतेमना अति विश्वसनीय वन्यो. पाछळना Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षामां तो एक बे वर्प मां जो तेमने न मळाय तो मने चेन न पडतु. एटलुज नहि पण हु जालोर जात्यारे गमे तेवु काम होय पण तेमना सानिध्यमां ऐक वे दीवस रहेवानु राखतो. जैन संघमां पू प. कल्याणविजयजी गणिनु स्थान पुरे तेवी इतिहासना विषयमा काइ व्यक्ति नथी ते कहेवामां काइ अतिशयोक्ति नथी आजथी ३१ वर्ष पहेलां आ कल्याणकलिका पुस्तकनु संपादन मारे त्यां पू. आ. देवश्री विजय भद्रकरसूरिजी महाराजनी निश्रामां थयु हतु. आना पुनर्मुद्रण माटे पू. मुनिराजश्री वत्रसेनविजयजी म. द्वारा आ काम सोपायु. आजे ओफसेटनी सुविधा होवाथी छपायेल कल्याणकलिकामां जे शुद्धिपत्रक हतु ते प्रथमां सुधारी पुनर्मुद्रण करेल छे. आ ग्रंथने यथावत् काइपण सुधारा-वधारा विना मुद्रित करवामां आव्यो छे केमके आ ग्रंथ निर्माण पाछळ जे परिश्रम व पू. प. श्री कल्याणविजयजीऐ को छे, तेथी सविशेष परिश्रम करवानु रहेतु नथी. मदिरोना शिल्प, विधिविधान अने मुहुर्तादि माटे आ ग्रंथ सविशेष उपयोगी होवाथी अने तेनी खुब मागणी होवाथी तेमना शिष्य पू. मुनिराज मुक्तिविजयजी म. तथा पू मुनिराज मित्रविजयजीनी प्रेरथाथी प्रकाशित करवामां आब्यो छे Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अते विधिविधानकारका तथा मुहूर्तादिना अर्थी ओने आ ग्रंथ सुलभ थतां खुबज उपयोगी नीवडशे तेवी आशा साथे आ ग्रंथ फरी प्रकाशित करेल छ पू. प. कल्याणविजयजी गणिवरनु योगदान श्री सघ उपर सविशेष छे. ते महापुरुषना आ ग्रथना पुनर्मुद्रण प्रसगे मने तेओने स्मरणाञ्जलि आपवानु आपवा बदल पू. गुरुदेव मुक्तिविजयजी म. पू. मुनिराजश्री वनसेनविजयजी म. सा. तथा श्री भंवरलाल सोनमलजी कोठारी जालोरवालाना आभार मानी विरमुछु.. प. मफतलाल झवेरचंद गांधी ४, सिद्धार्थ सोसायटी, पालडी, अमदावाद-७ १५-३-८७ (१) श्री जैन संघ गोल उमेदाबाद की तर्फ से प्रति १०० (२) मुथा मोहनलाल चंपालाल दीपचन्द , १०० (३) श्री पार्श्वनाथ आहार श्री जैन संघ आहोर की तरफ से श्री जैन संघ सरत (अमरसर) की तरफसे ,, १ श्री जैन संघ बालबाडा की तरफ से , १ (६) श्री जैन संघ मांडवलावालों की तरफसे ,, १०० (७) शा. गुणेशमल मुनीलाल बाबुलाल बेटापोता ताराजी निवासी बालवाडावालों की तरफ से (८) श्री जालोर जैन श्राविका चारथुइ संघ जालोर की तरफ से (९) मुथा रुपचन्द हरखचन्दजी सोनवाडीया निवासी मांडवलावालों की तरफ से , २५ ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्ती स्थम्भ हिमालान्तेवासि पन्यास श्री विद्यानन्दविजयजी महाराज एवं मुनिराज श्री नेमविजयजी हीरावन, के सद उपदेश द्वारा 'भगवान महावीर के २५०० वे निर्वाण स्मृति में जालोरस्थित कीर्तिस्त भ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासवेत्ता समर्थ विद्वान प. पू. पं. कल्याणविजयजी गणिवर Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमपूज्य मुनिराजश्री सौभाग्यविजयजी म. सा. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण कलिकानी प्रस्तावना. नामप्रदान. लगभग २५ वर्षथी शिल्प, ज्योतिष अने प्रतिष्ठाविधिनुं मार्गदर्शक पुस्तक लखवानी मित्रो तथा भाविकोनी प्रेरणा हती, पण अन्यान्य कार्योने लीधे ए विषयोमां बहु लक्ष जतुं न हतुं. चालु कार्योनो भार ओछो थतां थोडा वर्षो उपर ध्यान खेंचीने थोड थोडुं लखवा मांडयुं. ज्योतिष तथा शिल्पनां केटलांक प्रकरणो हिन्दीमां लख्यां पण खरां, परन्तु ए बने विषयो एटला विस्तृत अने साहित्यसंपन्न छे के तेमां शुं लेवं अने शुं छोडवुं ए एक समस्या थइ पडी, शारीरिक प्रकृति प्राय अस्वस्थ, आंखोमां मोतीयानी शरुआत अने अन्यान्य प्रवृत्तिओना कारणे अवकाशनी अल्पता, वली निजस्वभावनी विस्ताररुचिता इत्यादि वातोनो विचार करतां शिल्प अने ज्योतिषना स्वतन्त्र ग्रन्थोना निर्माणनी भावना कुंठित थइ गइ, छतां ए विषयोमां अत्यावश्यक विषयो उपर मुद्दासर लखवानो निर्णय अफर रह्यो. ए विषयमां टांचणो करवानुं चालु कर्यु अने प्रथम शिल्पनां केलांक आवश्यकीय प्रकरणो लखी नाख्यां अने शिल्पसंहिताओमां ज्योतिषनो विषय पण अवश्य होय ज छे एटले शिल्पना ज अनुसंधान रूपे धारणागति अने मुहूर्त लक्षण नामना परिच्छेदो लखीने तेनी साथे जोडी दीधा हवे मुद्रा विषयक एक ज एवो परिच्छेद रह्यो हतो के जेनो उपयोग विधिविधानोमां थतो होवा छतां विधिरूपे तेनुं विधिखंडमां स्थान न हतुं, तेथी मुद्रा परिच्छेदने ज्योतिषना अंतमां आपीने एकंदर १७ परिच्छेदोनो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे प्रथम भाग पूरो कर्यो, पण आ संदर्भनुं नाम शुं आपq एनो कोइ मार्ग जडयो नहि. शिल्प विषयक नाम करण करवामां आवे तो ज्योतिषनो विषय अलक्षित रही जाय जे विस्तारमा शिल्पनी अपेक्षाए कंइक ज उतरतो छे, बंने विषयने स्पर्शतुं नाम आपवामां पण कंइक ग्राम्यता जेवू लाग्युं एटले आ ग्रन्थने निर्नामक ज राखीने विधिविषयक ग्रन्थने पूर्ण करवानो निर्णय को अने एभाग पण बनते प्रयासे पूरो करी दीधो. त्रीजो भाग बीजा भागना एक परिच्छेद जेवो ज छे पण अधिक विस्तृत भिन्न भिन्न विषयात्मक होवाथी पांच परिच्छेदमां वहेंची एनो एक स्वतंत्र खंड बनान्यो छे. बीजा त्रीजा खंडनी योजना अने काचो खरडो तैयार थइ गया पछी पाछी एना नामनी विचारणा उभी थइ, बीजा भागना नामने अंगे तो बहु विचारवानुं न हतुं, प्रतिष्ठाकल्प अथवा एने मलतुं बीजुं कोइ नाम आपवाथी समस्या पती जाय तेम हतुं, पण खास मुंजवण प्रथम खंडने अंगे हती, अमारे आ पहेलो भाग स्वतंत्र ग्रन्थरूपे नहि पण कोइ ग्रन्थना एक विभाग रूपे गोठववो हतो, जो विधिखंडनी प्रधानता गणी तेने अनुसरतुं कोइ नाम आपीये तो प्रथम खंड तद्दन ज अनिर्दिष्ट रही जाय तेम हतुं एटले अमुक विषय मूचक नामने पडतुं मूकी फलमूचक नामनी तरफ लक्ष्य दोयु अने तरत ज " कल्याणकलिका" नाम उपस्थित थयुं अने ए ज नामकरण नियत थयुं. ___ साइजने अंगे-आखो ग्रन्थ एकलो छपाववानो निश्चय हतो पण साइजनी बावतमा विचार करतां जणायु के कोइ पण एक साइजमां छपावतां बधाने अनुकूल नहिं पडे, बुक साइजमा होय तो विधि करावनारने अगवडता जनक थाय अने पोथी साइजमां होय तो शिल्प तथा ज्योतिषना अभ्यासीओने अनुकूल पडे नहि, ए कारणे Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना] प्रथम खंड बुक अने बीजो, त्रीजो खंड भेगा पोथी रूपे छपाववानुं निश्चित करायु. मुद्रण कामनी व्यवस्थामुद्रण कार्य जल्दी थइने पुस्तक वहेलुं वहार पडे एवी अमारी इच्छा होय ए तो स्वाभाविक गणाय, पण द्रव्य सहायकोनी उतावल अमारा करतांये अधिक हती, पण आटलं दलदार पुस्तक भावनगर के अमदावाद प्रेसमां छपाय अने अमे मारवाडमां मुफ मंगावीने सुधारीये तो पुस्तक क्यारे छपाइने बहार पडे ? लेखक अने आर्थिक सहायको केटली धीरज राखे ? अने एकला प्रेसवाला अने मुफरीडर पंडितने भरोसे पण काम केम छोडाय १, भावनगर वा अमदावादमां एवा कोइ विद्वान् साधुनुं चोमासु होय के जे आ काम करवामां योग्य अंने करवानी भावनावाला होय तो पुस्तक अमदावाद छपाव, ए विचारणा चालती हती एटलामा तपस्वी पं० श्रीकान्तिविजयजी गणिनो पत्र मल्यो, तेमणे जणाव्यु के " अम्हारं चोमासुं बीजे नक्की थइ गयुं हतुं पण शारीरिक कारणे डाक्टरनी सलाहथी अमदावाद आव्या छीये." अमने प्रसन्नता थइ अने पूछयु के " जो शारीरिक अडचण न होय अने कलिकानुं मुद्रण कार्य संभाली शकाय तेम होय तो ए कार्य हुं तमने सोंपवा इच्छु छु" अमारा आ पत्रनो उत्तर पं० कान्तिविजयजीए स्वीकृतिना रूपमा आप्यो एटले प्रथम खंडना केटलाक परिच्छेदो तेमने मोकली आप्या अने आर्थिक सहायकोने सूचना पहोचतां खर्च माटे रकम पण अमदावाद श्रीविद्याशालानी पेढीमां पहोंची गइ. कार्य चालु थयुं अने गत वर्षना कार्तिक उतरतां १० फर्मा छपाया, पण एटलामां पं० श्रीकांतिविजयजीने विहार करवानो प्रसंग आव्यो एटले अमारी सूचना प्रमाणे संपादननु कार्य तपस्वीपवर मुनि श्रीभद्रंकरविजयजीने सोंपायुं अने ते पछी आनुं बधुं ज संपादकीय कार्य उक्त मुनिराजे ज कयु छे. आ. बंने विद्वान् मुनिवरोए Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण - कलिका - प्रथमखण्डे कलिका प्रति श्रद्धा अने सेवाभाव बताव्यो छे तेथी अमने पूर्ण संतोष छे. अग्रसहायको - ' कलिका 'नुं कार्य हजी पूरुं नहोतुं थयुं ते पहेलांथी लोको एना मुद्रणमां सहायक थवा माटे अमुक नकलोनी लागत किम्मत आपी ग्राहक रूपे पोतानां नामो लखावत्रा मांगता हता, परन्तु ए काम ग्रन्थनुं मेटर पूरुं थया पहेला थइ शके तेम न हतुं. ज्यारे बने भागोनी प्रेसकोपी थवा मांडी, प्रेसथी मुद्रण विषयमां पूछपरछ करी लोधी, ते पछी अनुमानथी जणायुं के प्रथम तथा द्वितीय भागनी पांच पांचसो कोपीओ कढावतां अनुक्रमे एक पुस्तकनी रु० ५) तथा रु० १०) नी लागत किम्मत आवशे, प्रथम भागनो पूरो खर्च श्रीगोदण (मारवाड) ना जैन संघे आपवानी इच्छा व्यक्त करेल होवाथी आ भागमां बीजा कोहनी सहायता स्वीकारी नथी, ज्यारे बीजा भाग माटे दशथी ओछी नकलोनी सहायता स्वीकावामां आवी नथी, मात्र पांच पांचसो कोपीथी लोक मांगणीने पहोंचाशे नहि एम जणातां प्रकाशक समितिए वधारानी पांच पांचसो नकलो कढावी छे, जे अधिकारिओने लागत किम्मते ज अपाशे एवो निर्धार करेल छे. जेटली नकलोनी किम्मत संघो तथा सद्गृहस्थो तरफथी मळेली छे तेटली नकलो एना अधिकारिओने विना मूल्ये आपत्रानो निर्णय थयो छे पण अधिकारी- अनधि कारीनो निर्णय ए माटे नियुक्त थयेल समिति द्वारा थशे अने ए निर्णय प्रकाशक समिति उपर जतां पुस्तको मार्गखर्च लेइने तेमने मोकलाशे. पुस्तकना संपादनमां उपर्युक्त विद्वान् मुनिवरोए यथाशक्य परिश्रम कर्यो छे, छतां शरतचूक, दृष्टिदोष के प्रेसकर्मचारीओनी बेदरकारीथी जे कोइ अशुद्धिओ रही जवा पामी छे तेनुं शुद्धिपत्रक आपेल छे, जे जोहने वाचकगण रहेल अशुद्धिओने सुधारी लेशे. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खंडनो उपोद्घात कलिकाने अंगेनी प्रास्ताविक वातो प्रस्तावनामां कहेवाइ गइ छे हवे उपोद्घातरूपे प्रथम खंडना विषयोने स्पर्शता केटलाक सिद्धान्तोनी अहियां चर्चा करीशुं. १-भारतीय प्रासादशिल्प कलिकाना प्रथम खंडनो प्रमुख विषय 'प्रासादशिल्प' छे, शिल्प शब्द नीचे गमे तेटला विषयो आवता होय पण 'प्रासादशिरूप'ने अंगे भारतीय विद्वानोए जे विषय जेटलो खेडयो छे तेटलो बीजो कोइ नहि, भारतना जे जे विभागोमां आर्य लोको पहोंच्या छे ते प्रत्येक देश खंडमां पोता प्रासादशिल्प निश्चित करी ते पद्धतिए पोताना पूज्य देवोनां धामो निर्मित कयाँ छे. प्रासादोनी पौराणिक जातिओ तथा कुलो गमे तेटला होय पण वास्तुशिल्प मुख्य त्रण भागोमां वहेचायेलं छे नागर १ वेसर २ अने द्राविड ३. नागर शिल्प उत्तर भारतव्यापक शिल्पy नाम छे, गोदावरीना दक्षिण तट बाजु- द्राविड शिल्प कहेवाय छे त्यारे जे नागरी तथा द्राविडी पद्धतियोना संमिश्रणथी उत्पन्न थयेल शिल्प पद्धतिने 'वेसरपद्धति' ए नाम अपायेल छे अने एनो प्रचार विन्ध्याचलथी दक्षिणे अने गोदावरीथी उत्तरे आ वचला प्रदेशमां थयो, आ त्रण शिल्पपद्धतियो उपरथी प्रासादोनी मुख्य नीचे प्रमाणेनी छ जातियो उत्पन्न थई " कालिंगा नागरा लाटा, वाराटा द्राविडास्तथा। गौडा इति च षडेते, प्रासादाश्च सरेखकाः॥" Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे _अर्थ-कालिंगो (कलिंग देशभवो), नागरो, लाटो (लाटदेश जात-उत्तर गुजरात देशीय), वाराटो (वराट-जयपुरथी उत्तर प्रदेशोत्पन्न), द्राविडो (द्रविड-मदुरा कांजीवरंतरना देशना) अने गोडदेशीय (पूर्व-उत्तर बंगाल, आसाम देशना) आ प्रमाणे शिखरबद्ध प्रासादो ६ नामोथी ओलखाय छे, रेखा विनानां व्यंतरभूतादिनां चैत्योनो आमा समावेश थतो नथी. उक्त षविध प्रासादोना छंद भेदे तेमज रेखा भेदे हजारो प्रकार निष्पन्न थाय छ जे नीचेना उल्लेखथी ज्ञात थशे"द्वात्रिंशच्च सहस्राणि, चतुःशतयुतानि च। उक्तानि भेदभिन्नानि, धाम्नां वै (परमेश्वरैः) पारामप्यरे?॥" अर्थ-एकंदर ३२४०० बत्रीश हजार अने चारसो देवमंदिरोना निश्चित भेदो समर्थ ज्ञानीओए कह्या छे अने कलाभेदे तो बीजा पण उपजे छे. (१) देवभेदे प्रासादच्छंद भेद" चतुर्वक्त्रस्य देवस्य, चतुरस्रश्चतुर्मुखः । प्रासादो ब्रह्मणा प्युक्तो, नत्वन्येषां कदाचन ।। सर्वेषां विवुधानां च, लिंगस्य च (भवस्य हि) एकद्वारो युगास्रश्च, प्रासादः परिकीर्तितः ॥ एकवक्त्रस्य लिंगस्य, प्रतिमाया भवस्य च । वृत्तो महेश्वरस्योक्त, प्रासादो यन्न कस्यचित् ॥ चतुर्मुखस्य लिंगस्य, चतुर्झरस्तथा ऽपरः। प्रासादो वर्तुलः प्रोक्तो, हीश्वरस्य न कस्यचित् ।। एकवक्त्रस्तथाऽष्टास्रो, विष्णाश्चैव भवस्य च । चतुर्दारः पुनरयं, भवस्य ब्रह्मणस्तथा ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना] चतुरस्रायता ये च. तथा वृत्तायतास्तु ये । एकद्वाराः स्मृताः सर्वे, प्रासादा लक्षणान्विताः॥ मुक्त्वा लिंगं महेशस्य, तथा च कमलासनम् । सर्वासां प्रतिमानां तु, प्रासादाः समुदाहृताः॥" अर्थ-ब्रह्माजीए चतुरस्र अने चतुर प्रासाद ब्रह्माजीने माटे कह्यो छे, बीजा कोइने माटे नहिं. चतुरस्र अने एकद्वार प्रासाद सर्व देवो तथा शिवलिंगने माटे कहेल छे. एक मुखलिंग, शिवनी प्रतिमा तथा शिवने माटे वृत्तच्छंदनो प्रासाद कहेलो छे बीजा कोइ देवने माटे नहिं. चतुर्मुख लिंगने माटे वृत्त चतुर्मुख प्रासाद कह्यो छे, आ प्रासाद पण शिवने माटे ज बने छे बाजा कोइने माटे नहिं, एकद्वार अष्ठात्र प्रासाद विष्णु तथा शिवने होय छे अने चतुर्मुख अष्टास्त्र प्रासाद शिवने तथा ब्रह्माजीने करी शकाय छे. लंब चतुरस्र प्रासादो तथा वृत्तायत छंदना एकद्वारना लक्षणयुक्त प्रासादो शिवलिंग तथा ब्रह्मागे प्रतिमाने छोडीने सर्वदेव प्रतिमाओने माटे शुभदायक कहेल छे. (२) देशदेशनी वर्तनाओ आजकालना आ तरफना शिल्पिओ दक्षिण, पूर्व आदि दरेक देशमा जइने जिन प्रासादो बनावी आवे छे, पण तेओ वर्तना एक ज नागरी जाणे छे अने तेज वर्तना प्रमाणे प्रासादोनुं शिल्पकाम करे छ जे बराबर नथी, जे देशमा जे वर्तना चालती होय ते देशमा तेज वर्तना प्रमाणे काम करवू जोइये, शिल्पनी कुल छ वर्तनाओ छे कई वर्तना कया देशमा वर्तवी जोइये ए विषयमां लक्षणसमुच्चय कार कहे छे" मेर्वादिगरूडान्तेषु, नागरी वर्तनोदिता। नागरी सदृशी लाटी, किन्तु सा दारुनिर्मिता ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे अधिकैः कर्मभिर्जेया, चन्द्रशाला धरा शुभा॥ प्रमाणं नागरी कृत्वा, वराटी कीर्तिता बुधैः ॥ सपत्रवल्लिकास्तंभ-पंक्तिहृद्यत्र जंघिका ॥ मेग्वलान्तरपात्राणि, द्राविडी सा निगद्यते ॥ कालिंगी गौडिका तुल्या, मश्चिकापादचन्द्रिका॥ इत्युक्ता किश्चिदुद्देशात्, स्थूलरूपेण शास्त्रतः॥ नागरी मध्यदेशे तु, सौख्यदा वर्तना मता। वाराट्याद्याः, स्वदेशेषु, अन्येष्वन्याश्च दुषिताः॥" ___ अर्थ-मेरुथी गरुडपर्यन्तना प्रासादोमां नागरी वर्तना कहेली छे, लाटी वर्तना नागरी सरखी ज होय छे, पण लाटी वर्तना लाकडाना काममां वर्ताय छे. नागरी करतांये आ वर्तनाथी काष्ठनां चैत्योमा बहु ज जी' कोतर काम कराय छे अने आ वर्तना प्रमाणे बनावाता काष्ठनिर्मित चैत्योनी आगल चंद्रशाला मूकाय छे. नागरीने ज प्रमाण करीने विद्वानोए वाराटी वर्तना कही छे, अर्थात् वाराटी पण नागरीथी बहु जुदी नथी पण आटली विशेषता होय छे के-आमां स्तंभो उपर तथा जांघमां पल्लव युक्त वेलडीओ खोदाय छे, अने ज्यां मेखलाओमां अंतर पत्रो होय ते वर्तना द्राविडी कहेवाय छे, कालिंगी तथा गौडी ए बने वर्तनाओ मलती ज होय छे, फरक मात्र ए छे के कालिंगीना मंची थरमा एक चतुर्थांश भागे चंद्रिका होय छे, आम संक्षेपमा स्थूलरुपे वर्तनाओगें शास्त्र थकी निरूपण कयु, नागरी वर्तना मध्यदेशमां हिमालय विन्ध्याचल बच्चेनो प्रदेशमा वर्ताय छे, अने उक्त देशमां ते सुखदायक मनाय छे वाराटी आदि पोतपोताना देशमां शुभ गणाय छे ज्यारे बीजा देशोमां ते दृषित गणाय छे. आ उपरथी शिल्पकारोए समजी लेवू घटे के नागरी वर्तना ज Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ] सर्वत्र चालती नथी पण तेनो प्रदेश उत्तरभारत छ, लाटी वर्तना नागरी जेवी ज हती, पण ते पूर्व (लाट गुजरात-काठियावाड-कोकण आदि) देशोमां लाकडाना प्रासादोमां चालती हती, आजे उक्त देशोमां पाषाणना प्रासादोमां ए वर्ताय तो वांधो नथी. वाराटी उत्तर तथा पूर्व राजस्थानना प्रदेशोमां चालती हती, आजे पण ए देशोमां वाराटी प्रमाणे ज शिल्पकाम वर्तवु जोइये, द्राविडी मद्रास तरफ पांडय अने आन्ध्र प्रदेशोमां, कालिंगी दक्षिण बंगाल, उडीशा, दक्षिण विहार तथा दक्षिण कोशल अने गौडी उत्तर बंगाल, आसाम, उत्तर विहार, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर कोशल इत्यादि देशोमां वर्तवी जोइये एवो शास्त्रादेश छे, (३) वेधदोषो" अग्रतः पृष्टतश्चैव, वामदक्षिणतोऽपि वा। प्रासादं कारयेदन्यं, नाभिवेधविवर्जितम् ॥" अर्थ-प्रासादनी सामे, पूठे, डाबे वा जमणे भागे बीजो प्रासाद कराववो, पण नवा प्रासादनो नाभिवेध टालवो जोइये. "शिवस्याग्रे शिवं कुर्याद , ब्रह्माणं ब्रह्मणस्तथा। विष्णोरग्रे भवेद्विष्णु, जैने जिनं रवे रविम् ॥" अर्थ-शिवने आगे शिव, ब्रह्माने आगे ब्रह्मा विष्णुने आगे विष्णु जिननी आगे जिन अने सूर्यनी आगे सूर्यनी प्रतिमा प्रतिष्ठित करवी जोइये, पण एकनी आगे बीजा देवनी प्रतिमा बेसाडवी नहिं, भिन्ननाभिक देवो एक बीजाने सामे बेसाडवाथी परस्पर नाभिवेध दोष उपजे . " चण्डिकाग्रे भवेन्माता, यक्षः क्षेत्रादिभैरवः। ज्ञेयास्तेषामभिमुखे, ये येषां च हितैषिणः॥" Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे __ अर्थ-चंडिकादेवीने सामे माता यक्ष के क्षेत्रपाल भैरवने बेसाडवा. तात्पर्यार्थ ए छे के जे जे देवो जेना हितैपिओ होय ते तेनी सामे बेसाडवा सारा छे. " जिनेन्द्रस्य तथा यक्ष-देवाश्च जिनमातृकाः। आश्रयंति जिनं सर्वे, ये चोक्ता जिनशासने ॥" अर्थ-जिनेन्द्रना यक्षदेवो, जिनमाताओ अने बीजा जे कोइ जिनशासनमा जैन देवो कहेला छे ते सर्व जिनना आश्रयमा रही शके छे. "वर्जयेदहतः पृष्ठ-मग्रं तु शिवसूर्ययोः। पाच तु ब्रह्म-विष्ण्वोच, चण्ड्याः सर्वत्र वर्जयेत् ॥" अर्थ-जिननो पृष्ठ वेध, शिव सूर्यनो अग्रवेध, ब्रह्मा विष्णुनो पार्श्व वेध अने चंडीनो सर्व वेध वर्जयो. "प्रसिद्धराजमार्गस्य, प्राकारस्यान्तरे पि वा। ___ स्थापयेदन्यदेवांश्च, बहिर्वास्तुकवर्जितम् ॥" अर्थ-जो बे प्रासादो वच्चे प्रसिद्ध राजमार्ग पडतो होय अथवा तो एक वास्तुना कोटने आंतरे बाह्य भागमां बीजं वास्तु होय तो त्यां बीजा देवनी प्रतिमा स्थापन करी शकाय छे. "वेध्याधकयोर्वास्त्वोस्त्यत्तवा द्विगुणमन्तरम् । यथेष्ट सकलं कार्य, कृतं तच्छुभशान्तिकृत् ॥” अर्थ-वेध्य अने वेधक वास्तुओनी बच्चे वास्तुथी बमणी भूमिनु अंतर होय तो त्यां वेध उपजतो नथी, त्यां इच्छानुसार सर्व कार्य थइ शके छे अने त्यां करेल कार्य शुभ अने शांतिदायक थाय छे. (४) भिन्न दोषो" मंडलं जालकं चैव, कीलकं शुषिरं तथा । छिद्रं संधिश्च काराश्च (कारस्य),महादोषा इति स्मृताः॥" Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना] "अर्थ-मंडल (हवा तथा प्रकाश माटे गभारामां गोल बकाएं राखवू, जालियुं गखवू, लोहनो खीलो दीवारमा देवो, भित्तिओमां पोलाण राखg, छिद्र राखवा. चणतरमा प्रत्येक थरनी संधि उपरा उपरि राखवी ए प्रासाद निर्माणना महादोषो कह्या छे. " ब्रह्मविष्णुरवीनां च, शंभोः कार्या यदृच्छया। गिरिजायाजिनादीनां, मन्वतरभुवां तथा । एतेषां च सुराणां च, प्रासादा भिन्नवर्जिताः। प्रासादमठवेश्मानि ह्यभिन्नानि शुभानि हि ॥" अर्थ-ब्रह्मा विष्णु सूर्य अने शिवना प्रासादो इच्छानुसार करवां आ देवोना प्रासादोमां भिन्न दोष गणातो नथी, पण पार्वती, जिन, गणेशादि देवो तथा मन्वंतरमा थयेला अवतारादीनां प्रासादोमां 'भिन्न दोष वयो छे, प्रासाद मठ तथा घरो अभिन्न होय तेज शुभ गणाय छे. भिन्न दोषनुं स्पष्टीकरण" मूषाभिर्जालकैरै-गो यत्र न भेदितः । अभिन्नं कथ्यते तच्च, प्रासादो वैश्म वा मठः॥ कुक्षिद्वारैस्तथाजालै-मूषाभी रश्मिभेदिताः। भिन्नस्तत्र स विज्ञेय, आलयः सिद्धिकामदः ।। पुरतः पृष्ठतो द्वारा-वुभौ कुक्ष्योः प्रभेदितम् । मारतः स्पृश्यते यत्र, भिन्नं नाम तदुच्यते ॥" अर्थ-जालिओ, जालियांओ अने द्वारो वडे जेनो गर्भ-भेदायेलो नथी होतो एवो प्रासाद घर वा मठ 'अभिन्न ' कहेवाय छे, एथी विपरीत कुक्षि भागमा खोलेल द्वारो, जालको अने जालिओ द्वारा अंदर प्रवेशता सूर्य किरणो वडे जेनो गर्भ भेदायो छे एवो सिद्धियो Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे तथा कामनाओने आपनारो प्रासाद भिन्न गणाय छे. आगल पाछल बे द्वारो होय अथवा बंने कुक्षिओमां बे द्वारो वडे गर्भ भेदायेल होय अने ते द्वारोथी अंदर आवता पवनो वडे देव प्रतिमानो स्पर्श थतो होय ते वास्तु भिन्न दोषदूषित कहेवाय छे. (५) दिग्मूढतादि महादोषो" दिग्मूढो नष्टछन्दश्च, ह्यायहीनं शिरोगुरुः । ज्ञेया दोषास्तु चत्वारः प्रामादे कर्मदारुणाः ॥" अर्थ-दिग्मूढ, नष्टछंद, आयहीन, शिरोगुरु, आ चार दोषो पासादकर्ममा महाभयंकर जाणवा. विवरण-दिग्मूढ एटले दिशाचूक, दिशाने बदले कोणमां द्वार आवे ते दिग्मूढ १, नष्टछंद एटले तल छंद होय ते प्रमाणे शिखर पर्यन्त काम न करतां शिखरमां. छंद बदलवो ते नष्टछंद २, शुभ आय न उपजतो होय ते आयहीन ३, शिरोगुरु-एटले नीचे करतां उपरना भागे दीवालो जाडी करवी अथवा भौमज प्रासादोमां नीचे करतां उपरि भूमिओनी दीवालो जाडी अथवा उंची करवी ते शिरो गुरु ४, आ चार वास्तुगत दोषो भयंकर मानेला छे. " स्तंभवेधे यथा वास्तुः, वास्तुवेधे तथा सुरः। देववेधे भवेन्मृत्युः, शिल्पिकारापकादिषु ॥" अर्थ-जेम स्तंभवेधे वास्तुवेध थाय के तेम वास्तुवेधथी पदगत देवनो वेध थाय छे अने देवनो वेध थवाथी शिल्पी करावनार आदिमांथी कोइन मरण थाय छे. (६) जातिभेद दोष" तलछन्दानुसारेण, तदङ्गं शिखरं भवेत् । ऊवं तु फांसनाकारं, जातिभेदोऽत्र जायते ॥" Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ] १३ अर्थ - प्रासादनुं तल आठ-दश आदि जेवा भागनुं होय तेवाज अंगोवालुं तेना उपर शिखर होय छे, छतां न्यूनाधिक अंगोबालु अथवा फांसाना आकारे शिखर करे त्यां ' जातिभेद ' दोष उत्पन्न थाय छे. (७) हीनता दोष फल " होनमाने तु ये दोषाः, कथये तान् समासतः । आयुहनिर्धारहीने, नालिहीने धनक्षयः ॥ अपदस्थापितैः स्तंभैर्महारोगं विनिर्दिशेत् । स्तंभव्यासोदये हीने, कान्ता तत्र विनश्यति ॥ प्रासादें पीठहीने तु, नश्यन्ति गजवाजिनः । रथोपरथहीने तु, प्रजापीडां विनिर्दिशेत् ॥ कर्णहीनो यदा वास्तुर-युक्तफलमादिशेत् । क्रीडन्तिराक्षसास्तत्र, फलं क्वापि न विद्यते ॥ जंघाहीने भवेद् बन्धु - कर्तृकावरनाशनम् । शिखरे हीनमाने तु, नश्यन्ति पुत्रपौत्रकाः ॥ अतिदीर्घे कुलोच्छेदो- हूस्वे व्याधिसमुद्भवः । स्थपुटस्थापने पीडा, कर्ता तत्र विनश्यति ॥ स्कन्धहीनः कबन्धश्च समसंधिः शिरोगुरुः । अप्रसारितपादश्च पञ्चैते धननाशकाः ॥ 55 अर्थ - प्रासादना अंगोपांगोनी हीनतामां जे दोषो होय छे ते संक्षेपथी कहुँ छु, द्वारनी हीनता आयुष्यनी हानि करे छे, नालनी etariat urat नाश थाय छे अपदमां स्तंभो स्थापवाथी (श्रेणिभंगथी) महारोगनी उत्पत्ति कहेवी, स्तंभोनो व्यास अथवा उदय हीन होय तो स्त्रीनो नाश थाय प्रासादनी पीठ हीनतामां हाथी घोडाओ नाश पामे अने रथ उपरथनी हीनतावाला प्रासादथी प्रजाने पीडा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे उपजे छे. जो कर्णहीन वास्तु होय तो अयोग्य कल कहेवू, तेवा वास्तुमा राक्षसो क्रीडा करे छे, तेवा वास्तुथी शुभ फल कांइ पण होतुं नथी, जंघाहीन प्रासादथी बन्धुनो तथा कर्तानो करावनारनो नाश थाय छे, शिखरहीन होतां पुत्रपौत्रोनो नाश थाय छ, प्रासाद शिखरनो उदय तेना मान करता अतिशय वधारे करे तो कुल नाश थाय तेम प्रमाण करतां पण घणुं हीन (ठींगणुं) करे तो रोगनी उत्पत्ति थाय, ढाबानी माफक शिखरने चोडं अने खडकेला देखावर्नु करे तो पीडा उपजावे अने कर्तानो नाश थाय. स्कंध वगरनु १ आंवल सारा वगरनुं २ समान सांधावालुं ३ उपर वधारे बोजवालुं ४ अने पग भागे सांकडं ५ आ पांच जातना शिखरो धननो नाश करनारा थाय छे. (८) सत्वरविनाशी वास्तु" अल्पलेपं बहुलेपं, समसन्धि शिरोगुरु । अप्रतिष्ठं पादहीनं, तच्च वास्तु विनश्यति ।" अर्थ-थोडा लेपवालु घणा लेपवालं, सम सांधावाल्लु उपर अधिक भारवालुं पीठ विनानु, पाया विनानुं वास्तु जल्दी नाश पामे छे. (९) जीर्णोद्धारविषये विशेषः" अधिकं वा समं होनं, पूर्वधामादि बाधकम् । प्रासादादि न कर्त्तव्यं, कुर्याच्चेन्मृत्युमाप्नुयात् ॥ अभिन्नानां विधिश्चायं, दोषो भिन्ने न विद्यते॥" अर्थ-प्रथमना बनेल अने प्रतिष्ठित थयेल प्रासाद आदिने पाडीने ते स्थाने नवीन प्रासादादि न बनाव. प्रथम करतां हीन ज नहिं समान अथवा तेना करतां अधिक पण बनावयु होय छतां Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना] अखंड प्रासादादिने ताडीने नवु बनाववामा दोष छे. एम छतां जो शिल्पी बनावशे तो ते मृत्यु पामशे, आ विधि अभिन्न (जिन गौरी गणेशादिनां) प्रासादोने विषे छ भिन्न (जेने विषे भिन्न दोष गणातो नथी आवा शिव सूर्यादिना) प्रासादोने विषे उक्त दोष होतो नथी. (१०) दण्ड-ध्वजविषये मतान्तरो“जीवदैऱ्यासमोदण्डः, स्थौल्यं तद्वजितांशतः। __चूलकान्तरदेवानां, स्थापनीयः प्रमाणतः॥" . अर्थ-प्रासाद पुरुषना हृदय भाग जेटलो लंबो अने ते उपर छुटैला आंवलसारा नीचेना भाग जेटलो जाडो आंवलसारानी बहारनी फरके देवमंदिरो उपर प्रमाणोपेत दंड स्थापवो विवरण-तात्पर्यार्थ ए छे के मंडोवराना प्रहार थर उपरथी बांधणीना तलांचा सुधीनुं शिखरन जे प्रमाण होय ते प्रमाणनो ते प्रासोदनो दंड करवो अने तेनी जाडाई शिखरनो जेटलो भाग ग्रीवा स्थाने छोड्यो छे तेटली करवी दंड जेना आधारे राखवो छे ते स्थान आंवलसाराथी सहेज बहारना भागे होय. ध्वजाधारनो. स्पष्ट स्थान निर्देश" शिखरस्य शरांशेन, चतुर्थेन गुणेन वा। उत्तमादिध्वजाधारं, मस्तकार्थेन वा क्वचित् ॥" अर्थ-आंवलसारा नीचेना शिखरनो उंचाइना एकपंचमांश एक चतुर्थाश अने एक तृतीयांश नीचे ध्वजदंड रोपवानु स्थान करवं कनिष्ठ दंडनु स्थान पंचमांशे मध्यदंडनु स्थान चतुर्थीशे अने जेष्ठ दंडन स्थान एक तृतीयांश नीचे करवू, कोइना मतमा मस्तक सुधीना शिखरना अर्धा भागे, एक तृतीयांशे तथा एक चतुर्थाशे Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे पण ध्वजदंडनु स्थान उत्तमादि दंडोने माटे करवानुं विधान मानेलं छे. (११) शिल्पविषयक केटलाक अप्रसिद्ध नियमो आजना समयमां मारवाड गुजरात देशीय प्रासाद शिल्पियोमां प्रचलित नियमो तो प्रासाद लक्षणमां आवी ज गया छे, पण केटलाक अप्रसिद्ध नियमो जे लक्षणसमुच्चादि ग्रन्थोमां प्रतिपादन करेला छे तेमांथी केटलाक अहींयां आपीये छीये ए वांचीने शिल्पी गण जाणी शकशे के तेओ जे कइ जाणे छे एटलं ज शिल्प नथी पण घणु छे, अमारो आशय ए नथी के बधाये आ नया नियमोने अनुसरे, पण आ नियमो उपरथी शिल्पीगणे एटलो तो धडो लेवो ज जोइये के प्राचीन प्रासादोमां ज्यां क्याइ पण आ नियमो प्रमाणे कार्य थयेलं होय तेने अशुद्ध कहीने पोतानी विद्वत्तानुं प्रदर्शन न करावे पण “ बहुरत्ना वसुन्धरा" ए वचनने प्रमाण मानीने नQ नवू जाणवा अने शीखवानो उद्यम करे. कूर्म शिलामान-लक्षणममुच्चये"गर्भकर्णायतं मूत्रं, कृत्वा भागचतुष्टयम् । तदेकांशप्रमाणेन, मध्ये कूर्मशिलास्थितिः ।। तन्मध्ये स्थापयेल्लिंग, मध्यं नैव परित्यजेत् । मध्यस्थं हन्ति कर्तारं, ब्रह्मवेधान्न संशयः ।। तस्मादीशं समाश्रित्य तत्स्थितिः सूत्रमानतः।" अर्थात्- गभारामां बे कोणो बच्चे सूत्र लंबावीने तेना ४ भाग करवा तेवा १ भाग माननी कूर्मशिला मध्यभागमा स्थापवी अने बराबर कूर्मशिलाना मध्यभागे शिवालग स्थापg पण शिला मध्यनो त्याग करवो नहिं गर्भ मध्यमां स्थित लिंग ब्रह्मवेध थवाथी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ] १७ तेना करनारनो नाश करे छे माटे कूर्मशिलाने एक सूत्र प्रमाण ईशान दिशानी तरफ स्थापवी. उक्त विधान शिवालय ने आश्रित छे, प्रचलित कूर्मशिलाना मान करतां आमां जणावेल शिलामान घणुं अधिक छे ए वात ध्यानमा लेवा जेवी छे. लिंगमाने प्रासादमान अन्धीश्वतुर्गुणाश्च स्युः, प्रासादा लिंगमानतः । अर्धेन लिंगदैर्मेण भित्तया विस्तृताः क्रमात् ॥” अर्थात् — शिव प्रासादो लिंगना उदयमानथी चतुर्गुणा, पांच गुणा अने छ गुणा माननां होय छे, अने लिंगनी लंबाईना अर्धा भागनी विस्तारमां भींतो करवी. 46 द्वारमानना विशेषप्रकारो आज काल प्रासादनुं द्वारमान शिल्पीओ प्रासादमंडन, क्षीराणैव, अपराजित वगेरेमां लख्या प्रमाणे " एकहस्ते तु प्रासादे, द्वारं स्यात् षोडशांगुलम् ।" इत्यादिना क्रम प्रमाणे करे छे, पण आमां ज्येष्ठ कनिष्ठादिनो विचार करतो नथी, उक्त द्वारोदयना मानमां एक वे आंगल न्यूनाधिक करी आय मेलवी द्वारमान निश्चित करी ले छे, कया देवना प्रासादना द्वारनो उदय - विस्तार केटलो होवो जोइये ए प्रायः जोवातुं नथी अने शिवद्वारनी जेम ज कोइ पण देवना प्रासादनो द्वारोदय बनायी दे छे. खरी रीते जिनद्वार उदयार्थ प्रमाणे नहि पण विस्तामां ते अधिक हो जोइये, केमके शिवद्वार उदयार्ध विस्तृत होवामां कशी हरकत नथी. शिवलिंग अथवा शिवमूर्तिने माटे शिवद्वारनो ते विस्तार ओछो नथी पण जिनप्रतिमा तो मूलनायक रूपे बेठी ज होय, वली तेने परिकर पण साथे होय तेथी जिनप्रतिमा माटे उदया Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे विस्तार पर्याप्त थइ शकतो नथी. क्षीरार्णवमा जिनद्वार कनिष्ठ बतावेल छे पण क्षीराणवनो ज्येष्ठ-कनिष्ठ विषयक लेख कंइक अशुद्ध थइ गयो लामे छे, गमे तेम होय पण जिनद्वार विस्तारमा अधिक होवू जोइये एम अमारं मानवु छ, प्रचलित रीति प्रमाणे ४-१३" (च्यार गज तेर इंच)ना प्रासादन मध्यम द्वारमान २-१९" (बे गज ओगणीश इंच) आवे छे, एनुं मध्यमान २-१३" उदयमा अने १-९" विस्तारमां थाय पण आज काल आवां कनिष्ठ मानना जिनद्वारो बनतां नथी. प्राचीन जिनचैत्योनां प्रायः जिनद्वारो कनिष्ठमाननां विस्ताराधिक दृष्टिगोचर थाय छे ए निराधार तो न ज होवां जोइये, अमारी पासे लगभग त्रणसो वर्षनी जुनी एक हाथपोथीनो उतारो छे तेमां द्वारमानना प्रकारो नीचे प्रमाणे लख्या छे १- “अथ द्वारलक्षणं प्रासादचतुर्थीशद्वारविस्तार विस्ताराद द्विगुणोदयं द्वारमान। २-पुनर्भेदं द्वारमानमिह-प्रासाद पंचमांश द्वार विस्तार. ३-प्रासाद तृतीयांश द्वारविस्तारप्रमाण तििद्वगुणोदयद्वार ।" ( पत्र ५-६ ) उपरना नियम प्रमाणे ४'-१३" ना प्रासादनुं द्वार विस्तारे १-१३" अने उदये ३'-१"नुं थइ शके छ, आ विषयमां लक्षणसमुजयकार वैरोचनि कहे छे. "धाममानाविधानार, जंघाविस्तरभारातः । तुर्यरसादिभागेन, ज्येष्मयाऽध कमाल । अर्थात-वास्तुना मानने आसरीने द्वार त्रण प्रकारचें होय छे, जे प्रासादनी जंघाना अर्धमां तेनो चतुर्थांश षडंश, सप्तमांश उमेरतां Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ] १९ जे मान थाय ते माननुं ते प्रासादनुं अनुक्रमे ज्येष्ठ मध्यम कनिष्ठ द्वार थाय छे. कन्यसं चोत्तमे धाग्नि, मध्यमे मध्यमं सदा । उत्तमं कन्यसे द्वारं, गर्भमानादयोच्यते ॥ त्रि- चतुर्भूतभागेन, ज्येष्ठ- मध्यम-कन्यसम् । हानाद् हानं भवेद्द्वारं, गर्भे कर्णविराजिते ॥ " अर्थ — कनिष्ठ प्रासादने द्वार उत्तम, मध्यमने मध्यम अने उत्तमने कनिष्ठ माननुं करवुं, हवे गर्भमाने द्वारमान कहेवाय छे, गर्भगृहना विस्तारमां तेनो एक तृतीयांश एक चतुर्थाश एक पंचमांश उमेरतां जे मान थाय ते मानना अनुक्रमे ज्येष्ठ मध्यम कनिष्ठ द्वारो attrai अने हीनमां पण द्वारमानगर्भगृहना विस्तार तुल्य होय छे. उपरना विधान प्रमाणे ४ - १३" ना दशायतलना प्रासादना द्वारनो उदय ३ - ५" नो आवे छे. चळी लक्षण समुच्चयकार कहे छे " पिण्डिका कोणविस्तारं, क्षुरि ( शौरि ) धाम्नि क्वचिन्मतम् उधो द्विगुणो द्वारा - दन्यथा वा स उच्यते ॥ " अर्थ - क्वचित् विष्णुना मंदिरमां तेनी पिंडिका ( आसन ) ना कोण विस्तार समान द्वार विस्तार मानेल छे अने विस्तारथी तेनी उंचाइ बमणी कही छे अथवा द्वारोदय बीजी रीते कहे छे" कराङ्गलैः शतष्ठयाद्यैदेशहानिक्रमेण तु । द्वाराणि दश सिद्धानि, चत्वार्यंग्राणि तेषु च ॥ त्रीणि तन्मध्यशस्तान्येवं त्रीणि कन्यसान्यनु । उछ्रयो वा त्रिधाविको (नव) दिग्नाडथंगुलैः । उक्त ज्येष्ठ कनिष्ठादि, द्वारं शुभकरं क्रमात् । उछ्रयार्धेन विस्तीर्ण, शाखाविषम संख्यया ॥ " Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे अर्थ-१६०आंगल१, १५० आंगल२, १४० आंगल ३, १३५ आंगलना उदयवाला ४ द्वारो ज्येष्ठ, १३० आंगल, १२० आंगल अने ११० आंगलना उदयनां ३ द्वारी मध्यम अने १०० आंगल ९० आंगल तथा ८० आंगलना उदयनां त्रण द्वारो कनिष्ठ कहेवाय छ, आ ज्येष्ठ मध्यम कनिष्ठ द्वारोना उदयमा अनुक्रमे ९-१०-१० आंगलो उमेरता द्वार विशेष शुभकारक बने छे, उदयथो अर्धमाने द्वारविस्तार करवो अने शारवाओ संख्यामां विषम करवी. एकंदर ४ ज्येष्ठ, ३ मध्यम, ३ कनिष्ठ आम १० द्वारो निष्पन्न थाय छे. (लक्षणसमुच्चये २९ मो विधिः) उपर्युक्त द्वारना अनेक भेदभेदान्तरोनो विचार करी द्वार विषयक भूलो काढनार शिल्पिओ अने स्वयंभू निरीक्षकोए हीनाधिक्यनी अशुद्धिओ बतावतां पहेलो पोतानी योग्यता उपर लक्ष्य आप. उत्तमादिदंडोनुं परिमाणइन्द्र १४ ग्रह ९ तुदहस्तो वा, क्रमाज्ज्येष्ठादिको भवेत् । बंशवृद्धिकरो वांश्यो, धर्मायौँ शालपौंदरौ ॥" अर्थ-चौद हाथनो दंड ज्येष्ठ, नव हाथनो मध्यम अने छ हाथ सुधीनो होय ते कनिष्ठ दंड कहेवाय छ, अर्थात् १ थी ६ हाथ सुधीनो होय ते कनिष्ठ, ७ थी ९ हाथ सुधीनो मध्यम अने १० थी १४ सुधीनो ज्येष्ठ दंड होय छे. एथी फलित थयुं के १४ हाथथी वधारे कोइ दंड होतो नथी. वांसनो दंड वंशनी वृधि करनार अने शाल तथा पोंदर वृक्षना दंडो ए धर्म अर्थने आपनार थाय छे. ____ध्वजाद्वारनी दिशा विषे मतो"प्रासादपृष्ठदेशे च, ऊचुः केचिद् ध्वजालयम् । ऐशाने वा प्रदेशे च, मारुते च तथापरे ॥" अर्थ-केटलाको प्रासादना पृष्ठ भागमां ध्वजदंडनो आधार Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना] करवान कहे छै, कोई इशानकोणमां, ज्यारे बीजानो वायव्यकोणमां ध्वज घर करवानो मत प्रदर्शित करे छे. ध्वजदैर्घ्य-विस्तार--- प्रासादपादविस्तार--स्तदर्धाय॑शितः क्वचित् । धाम्नो द्विगुणदीर्घः स्यात् ,सार्थो वा तत्समो ध्वजः॥ द्विहस्तविस्तरो वा स्व-भूमि माष्टिं यथापि वा। क्वचिन् मते तदर्थों वा, यथा प्राप्त्याऽथवोदितः॥ स्वदैय॑षोडशांशेन, क्वचिदुक्तः स विस्तरात् । सर्वार्थशान्तये शुक्लः, काम्याथै दिक्पतिप्रभः । स्ववाहनांकितश्चो, वे किंकणीचामरैयुतः । स्वदेवरूपकैश्चित्रः स्वशक्त्या शोभितः क्वचित् ॥” अर्थ-वजानो विस्तार प्रासाइभानना चतुर्थीशे मानेलो छ, ज्यारे कोइ मतमां तेनो अर्ध अर्थात् प्रासादना अष्टमांश प्रमाणे ध्वजानो विस्तार कह्यो छे, ध्वजनी लंबाई प्रासादथी बमणी, दोही अथवा प्रासाद समान पण कोइना मतमा मानेली छे. वली बीजी रीते ध्वजनो विस्तार बे हाथनो अने लंबाई दंडने नीचे पहोंचे एवडी करवी. कोइनो मत छे के लंबाई पहोलाई उक्त लंबाईपहोलाईथी अडधी करवी. अथवा तो जेवो मले एवो ज ध्वज चढाववो. ज्यारे कोइना मते ध्वज विस्तार पोतानी लंबाइना सोलमा भागनो पण कहेल छे __सर्व कामसाधक तथा शांतिकारक श्वेत ध्वज कहेल छे, अमुक कामनी सिद्धिने माटे ते दिशाना दिक्पालना वर्णनो ध्वज चढाववो, ध्वजना उपरना भागमां ते देवना वाहन बडे लांछित करवो के जे देवना प्रासाद उपर ते चढवानो होय, वली तेना छेडाने घूघरीओथी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे युक्त करवो, ते उपर देवनां रुपको चित्राववां अने पोतानी शक्ति प्रमाणे तेने सुशोभित करवो. (१२) दंड अने दंडनुं सालआजकाल दंडना विषयमा गुजराती तथा मारवाडी शिल्पिओमां मतभेद चाले छे, मारवाडी शिल्पिओ दंडनुं मान शिलाशा स्त्रोक्त करे छे, ज्यारे गुजराती शिल्पियो दंडना नीचला भागने तेना साल रूपे मानीने दंडमानमा सामेल गणता नथी, पण उपरनी नरजुना उपरना भागने ज दंड माने छे अने नरजु बजाधार (कोलाबा) वच्चेना सालने मानमांथी बाद करे छे एटले दंड बहुज लंबो-मानाधिक थइ जाय छे, अमारी मान्यतानुसार आमां गुजराती शिल्पियो भूलमां छे, दंड अने दंडनुं साल क्याँइ पण जुदां बताव्यां नथी नरजुमां थई दंडनो जे भाग ध्वजालयमां जाय.छे ते वास्तवमां जुदो होतो नथी पण दंडनो ज निम्न भाग होय छे अने एनुं मान दंडमानथी भिन्न होवू जोइये नहि, पूर्व कालमां वासना दंडो हता अने ते ध्वजाद्वारमा रोपाता त्यांथी ज एना माननी अने ग्रंथीपर्वनी गणना थती हती ते निकली न जाय एटला माटे तेनी जोडे वीजा वांसडाओने अंदर फसावी ध्वजदंडने सज्जन करवामां आवतो हतो अने वासनी लीली चीपटीओथी बांधीने मजबूत करवामां आवतो, ज्यारथी वासना दंडनी परम्परा उठीने लाकडाना दंडो बनवा मांडया त्यारथी दंडोने विषम पर्व अने समगांठो देखाडवामाटे लोहनी अगर पीतलनी बंगडीओ (चूडीओ) चढाववानी आवश्यकता पडी, शिल्पिओए जोयु के दंडना नीचेना छेडामां बंगडी लगाडतां ते नरजुमा तेम ज ध्वजाधारना खाडामां दंडनो छेडो आवशे नहि अने ते भाग गांठवालो न बनावीने त्यांथी दंडनुं मान गमशुं तो दंड 'समग्रंथि अने विषमपर्व' बनशे नहि. ए Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ प्रस्तावना ] आपत्तिमांथी उगरवा माटे गुर्जर शिल्पिओए सालने जुदुं पाडी उपरना दंडने : समग्रंथि विषमपर्व ' बनाव्यो पण आम करतां दंड प्रमाणमां घणो लांच थइने शास्त्रविरुद्ध बनी जशे एनो विचार न कर्यो, आ देशना विद्वान शिल्पिओने मारी सलाह छे के तमारी आ पद्धति बदलवी जोइये, आम करवाथी दण्ड लाक्षणिक नहिं बने एवी चिन्ता करवानी कंह ज जरूर नथी, आजे जेवा प्रकारनी दंडने बंगडीओ जडाय छे एवी ज होवी जोइये एवो कंड शास्त्रलेख नथी, दंडना विषभ पर्यो स्पष्ट देखाय एटलं ज मात्र गांठोनुं कर्तव्य छे अने ए काम दंडना सालने नीचे चूडीना आकारे वे आनी जाडी पातळी जडवाथी पण थह शके छे, नवजुनुं छेद तथा ध्वजाधारनो खाडीएवी रीते तैयार करो के तेमां दंडनुं साल आवी जाय अने दंड पण 'समग्रंथि विषमपर्वा ' बनी रहे अने दंडनुं प्रमाण पण न वधे. (१३) देवासन विषे भ्रमणा आजकालना केटलाक स्वयंभू शिल्पिओ जिनदेवना आसन स्थान विषे भ्रमणामां पढया छे, छतां तेओ ए विषयमा पोताने निर्भ्रान्त गणीने पोतानी ते मान्यतानी पुष्टि करे छे अने पोताना स्तनां चैत्योमां शिल्पिओ उपर दवाण करीने ते प्रकारे भूलभरेल' आसन तैयार करावी तेना मध्यभागे जिनप्रतिमाने बेसाडावे छे एप्रमाणे कराववामां तेओ आचार दिनकरना नीचेना श्लोको प्रमाण रूपे बतावे छे. 46 " प्रासादगर्भगेहार्थे, भित्तितः पंचधा कृते । यक्षाद्याः प्रथमे भागे, देव्यः सर्वा द्वितीयके ॥ जिनार्कस्कन्दकृष्णानां प्रतिमाः स्युस्तुतोयके । ब्रह्मा तु तुर्य भागेऽस्य, लिङ्गमीशस्य पञ्चमे ॥" Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे __अर्थ-प्रासादगर्भना बे भाग करी द्वार तरफनु गर्भाध छोडी सामेनी भीत तरफना गर्भाधना ५ भाग करवा, भीत तरफथी गणतां गर्भाधरेखानी पासेनो पांचमो भाग गणाशे, आ पांच भागो पैकीना १ लामा यक्षादि, २ जामां सर्व देवीओ ३ जामां जिन सूर्य स्कंद कृष्णनी प्रतिमाओ, ४ था भागे ब्रह्मा अने ५ मा भागमा शिवलिंगनी स्थापना करवी, श्लोकोनो आ सामान्य अर्थ मानीने जीजा भागना मध्यमां जिनप्रतिमा मध्य आवे एवी रीते प्रतिमा बेसाडे छे अने प्रतिमा मध्य पण पलांठीनो नहिं पण मस्तकनी शिरवानो अर्धभाग माने छे एन परिणाम ए आवे छे के पलांठी ४ भागमा पहोंचे छे अने आसन (पवासन) नीचे आखो पांचमो भाग लेवो पडे छे आम आवो अर्थ लगाडतां जिनासन नीचे अर्ध गभारो पहोंची जाय छे. त्रीजा मध्यना हिमायती महानुभावोने हुं पूछवा इच्छंछु के आम जीजा भागना गर्ने प्रतिमानी शिखानु मध्य राखशो त्यारे सपरिकर. प्रतिमार्नु परिकर शा आधारे शखशो ? त्रीजा भाग सुधी जिनासननो कोण राखतां तो परिकरनी स्थिति पाछली भीतने आधारे रही शके छे पण तमारी कल्पना प्रमाणे तो लगभग गभारानो एक चतुर्थांश पाछल खाली रहे छे | ए बधा भागमां नीमण देइने तेने आधारे परिकर उभुं राखशो ? अने ए केवु सुंदर लागशे ? भाइओ शिल्पशास्त्रनो मर्म समज्या विना ए शास्त्रनी मश्करी न करो, अपराजित पृच्छामां ए वस्तु सारी रीते स्पष्ट करीने समजावी छ जेने समजो अने पकडेल भ्रमणात्मक मार्गथी दूर थाओ, तमारी भ्रमणामां वास्तुसारर्नु भाषान्तर पण होइ शके पण आवां अशुद्धि पूर्ण भाषान्तरो उपरथी कोइ निश्चित धारणा न बांधो! (१४) शिल्पिओए सामान्य-विशेष नियमो समजीने चालवू जोइये Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ प्रस्तावना अन्यान्य शास्त्रोमां जेम सामान्य-विशेष नियमो होय छे तेम शिल्पशास्त्रमा पण आवा नियमो होय छे. सामान्य नियम त्यां सुधी ज लागु पडे छे ज्यां सुधी विशेष नियम न आवे, पण ज्यां विशेष निय पर्नु विधान आवे छे त्यां सामान्य नियम उभो रहेतो नथी आ वातने अमो दृष्टान्तथी समजावीशु. "कुंभकेन समा कुंभी, स्तंभप्रान्तेन तूद्गमः।” इत्यादि श्लोकोमा बतावेल वाढसंबन्धी सामान्य नियम छ अंने सामान्य रीते लघु प्रासादोमां चाल्या करे छे पण ज्या ज्येष्ठ प्रासादोमां उदुम्बर गालवानो नियम लागु कराय छे त्यां " कुंभकेन समा कुंभी" इत्यादि नियम रद थाय छे अने ए माटे नवो नियम घडाय छे जे आ प्रमाणे" उदुम्बरोनितां कुंभी, कुर्यात् स्तंभं च पूर्वकम् । निरन्धारे च सान्धारे, कुंभिकान्तमुदुम्बरम् ॥" अर्थात्-कुंभीने उंबरा जेटली ओछी करवी अने स्तंमर्नु मथारुं पूर्ववत् दोढीया बरोबर ज करवू, निरंधार तेमज सांधार प्रासादमा कुंभी-उंबरानुं मथारुं बरोबर करवू" क्षीरार्णवना उपरोक्त नवा विशेष नियमथी 'कुंभकेन समाकुंभी ' वालो सामान्य नियम लोपाय छे. वृक्षार्णव पण प्रचलित नियमने अंगे कहे छे" उदुम्बरसमा कार्या, कुंभिका सर्वतो बुधैः" अर्थात्-‘विद्वान् शिल्पिओए सर्वत्र कुंभी उंबरा जेटली ज उंची करवी जोइए; क्षीरार्णव तथा वृक्षार्णवना उक्त लेखोथी उंबरो गालवा छतां " कुंभकेन समा कुंभी" ए बाधित नियमानुसारे जेओ कुंभीने उंबराथी उंची करे छे तेमने बोध लेवो घटे छे. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण-कलिका-अयमबडे (१५) धातु प्रतिमा निर्माणविधिकलिकाना प्रथम खंडना १२ मा परिच्छेदमा मूर्तिनिर्माणना विषयमां अमोए विस्तारपूर्वक लखेल छे जे धातु पाषाण-रत्नादिनिर्मित सर्व जातनी प्रतिमाओने लागु पडे छे, पण धातु प्रतिमाओ केवी रीते पनावकी ए संबन्धमा अमने कोइ शिल्पग्रन्थमां मार्गदर्शन न मल्यु, पण “ अभिलषितार्थचिन्तामणि " नामक एक सार्व विषयिक उपयोगी ग्रन्थमा ए विषयर्नु निरुपण दृष्टिगोचर ययु जे मूर्तिकारोना उपयोगनी चीज जाणी अत्र लखीये छीये. " नवताल प्रमाणेन, लक्षणेन समन्विताम् । प्रतिमा कारयेत् पूर्व, मदनेन विचक्षणः।। सर्वावयवसंपूर्णां, किंचित् प्रीतां दृशोः प्रियाम् । यथोक्तैरायुधैर्युक्तां, बाहुभिश्च यथोदितैः ॥ " अर्थ--प्रथम चतुर मूर्तिकारे शास्त्रोक्त लक्षणयुक्त नवतालना प्रमाणवाली, सर्वावयव संपूर्ण, कंडक प्रसन्न मुखवाली आंखोने गमती शास्त्रोक्त आयुधो तथा हाथोवाली एयी मीणनी प्रतिमा पनायवी. " तत्पृष्टस्कन्धदेशे च, कृकाटयां मुकुटेऽथवा । हेमपुष्पनिभं दी, नालकं मदनोद्भवम् । स्थापयित्वा ततश्चार्ची,लिम्पेत्संस्कृतया मृदा । मषों तुषमयों कृत्वा, कार्पासं शतशः क्षतम् । लवणं चूर्णितं श्लक्षगं, तथा संयोजयेद् मृदा। पेषयेत्सर्वमेकत्र, सुलक्षणे तु शिलातले ॥ वारत्रयं तदाय, तेन लिम्पेत् समन्ततः । स्वच्छ: स्यात् प्रथमो लेपः छायायां कृतशोषणः॥" अर्थ--ते मेणनी प्रतिमाना पाछलना स्कंध भागमा हडपधीना Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना] २७ स्थानमा अथवा मस्तक उपर मुकुटना स्थाने धतूराना फूलना आका रवाल एक लाई मेणचें नाल लगाडवू अने ते पछी प्रतिमाने संस्कृत माटीना लेपो करवा, फोतरांनी मेप बनाववी, कपासने सेंकडोवार कसरीने झीणो करवो. लवण (खावाना मीठा) ने झीणुं वाटीने मेदा जैवं कन्वु पछी ए त्रणे चीजो माटीमां मेलवची अने ए मर्वने चीकणी शिलाडी उपर पाणी नाखीने लसोटवां एक रस थइने लेप योग्य बने त्यारे त्रणवार एना पिंडने उपर नीचे करी प्रतिपाना सर्व भागोमां तेनो पातलो लेप करवो अने छायामां मुकवयो. " दिनद्वये व्यतीते तु, छितीयः स्यात्ततः पुनः । तस्मिन् शुष्के तृतीयस्तु, निबिडो लेप इष्यते ।। नालकस्य मुखं त्यक्त्वा, सर्वमालेपयेद् मृदा! शोषयेत्तत्प्रयत्नेन, युक्तिभिर्बुद्धिमान्नरः॥ अर्थ-वे दिवस वीत्या पछी बली बीजो लेप करको, अने सुक्या पछी त्रीजो जाडो लेप करवो, मात्र नालीनुं मुख छोडीने उपर नीचे च्यारे बाजु प्रतिमाने माटीना जाडा लेप वडे ढांकी देवी चतुर शिल्पिए वायु वगेरेना प्रयोगथी लिप्त प्रतिमाने बिलकुल सूकावी देवी. "सिक्थक तोलयेदादावालग्नं विचक्षणः । रीत्या ताम्रण रौप्येण, हेम्ना वा कारयेत्ततः ।। सिक्थादशगुणं तानं, रीतिद्रव्यं च कल्पयेत् । रजतं द्वादशगुणं, हेम स्यात्षोडशोत्तरम् ॥" अर्थ-मेणनी बनेली प्रतिमामा लागेल मेण पहेला तोलोने तेनुं वजन नकी करी लेवु ते पछी ते उपर पूर्वोक्त प्रकारे माटीनुं पलास्तर कर, अने प्रतिमा त्रांबानी अगर पित्तलनी बनाववी होय तो मेण थकी त्रांबुं पीतल दशगणुं लेवु, रूपानी बनाववी होय तो Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे रूपु बारगणुं अने सोनानी होय तो सोनुं सोलगणुं लेबु कारण के मणना वजन करतां त्रांनो पित्तलनु दशगणुं रूपानुं बारगणुं अने सोनानुं सोलगणुं वजन होवाथी आटल गुणी ए धातु गालीने मांहि भळे तो ज मेणे रोकेली खाली जगा भराइने पूर्ण मूर्ति बनी शके (एटले के जो सोल तोला सोनानी प्रतिमा बनाववी होय तो १ तोला मीणनी प्रतिमा बनावीने ते उपरथी संचो तैयार करवो, एवी जरीते दश सेर पीतलनी प्रतिमा बनाववी होय तो एक सेर मेणनी प्रतिमा उपर माटीनो संचो तैयार करवो.) "मृदा संवेष्टयेद्दव्यं, यदिष्टं कनकादिकम् । नालिकेराकृतिं मूषां, पूर्ववत् परिशोषयेत् ॥" अर्थ-प्रतिमा माटे सुवर्णादि द्रव्य लेवू इष्ट होय तेने पूर्वोक्त संस्कृत मृत्तिका बडे च्यारे बाजु लीपीने वींटी देवु अने नालिएरना आकारनी धातुगी मषा तैयार करवी अने पहेलांनी जेम सूकावी देवी. " वह्नौ प्रताप्य तामचों, सिक्थं निस्सारयेत्ततः । मूषां प्रतापयेत्पश्चात्, पावकोच्छिष्टवहिना ।। रीतिस्तानं च रसतां, नवाङ्गारैर्बजेद्धृवम् । सप्ताङ्गारैर्विनिक्षिप्तै, रजतं रसतां व्रजेत् ॥ सुवर्ण रसतां याति, पञ्चकृत्वः प्रदीपितैः । मूषामूर्धनि निर्माय रन्ध्र लोहशलाकया ॥" अर्थ ते मृत्तिकालिप्त मेणनी प्रतिमाने अग्निमां तपावीने तेमाथी बधुं मेण काढी नाख, ते पछी धातुगर्भा मूषाने कोलसानी अग्निमां तपाववी, त्रांबु तथा पीतल नववार कोलसा नाखीने प्रज्ज्वलित करवाथी अवश्य ओगलीने रस बने छे रू' सात बार कोलसा बालवाथी ओगले छे अने सोनु कोलसानी पांच वार आंच लागवाथी ओगलीने रस बनी जाय छे, धातु रस रूप धारण करे ते पछी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ! २९ लोहनी सलीवडे मृषाना उपरना भागमां छेद पाडी नाखनुं ते पछी 66 संदेशेन दृढं धृत्वा ततां मूषां समुद्धरेत् । तसाचनालकस्यास्ये, वर्ति प्रज्वालितां न्यसेत् । संदंशेन घृतां मूषां, नामयित्वा प्रयत्नतः । रसं तु नालकस्यास्ये, क्षिपेदच्छिन्नधारया । नालकाननपर्यन्तं, संपूर्य विरमेत्ततः । स्फेटयेत्तु समीपस्थं, पावकं तापशान्तये ॥ शीतलत्वं च पातायां, प्रतिमायां स्वभावतः । स्फेटयेन्मृत्तिकां दग्धां विदग्धो लघुहस्तकः । ततो द्रव्यमयी सार्चा, यथा मदननिर्मिता । जायते तादृशी साक्षादङ्गोपाङ्गोपशोभिता ॥ अर्थ -सांडसीथी मजबूत पकडीने तपेल मूपाने अग्निमांथी उपाडवी अने तपेल प्रतिमाना नालना मुखमां प्रज्ज्वलित करेली बत्ती राखवी ते पछी सांडसीमां पकडेल मूपाने यतनापूर्वक नमावीने नालकना मुखमां अखंड धाराए रस नांखवो, संचो भराइने नालाना मुख सुधी रस भराय त्यारे धारा बंध करवी. अने ते पछी पासेनी कोलसानी आग वगेरेने दूर करी देवी के जेथी तापनी शांति थतां संचाए भरेल रस जल्दी ठरी जाय, ज्यारे प्रतिमा पोतानी मेले ठरी जाय त्यारे ते उपरनी माटी संचो फोडीने दूर करवी आ धुं कार्य चतुर शिल्पी घणी ज सावचेतीथी कर माटी दूर थतां जेवी मीणनी प्रतिमा हती तेवी अंगोपांग सहित धातु द्रव्यमयी प्रतिमा तैयार थशे, यत्र वाप्यधिकं पश्येच्चारणैस्तत्प्रशान्तये । नालकं छेदयेच्चापि, पश्चादुज्ज्वलतां नयेत् ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे अनेन विधिना सम्यग, विधायार्चा शुभे तिथौ । विधिवत्ता प्रतिष्ठाप्य, पूजयेत् प्रत्यहं नृपः ॥" अर्थ-ज्यां कहिं धातुरस अधिक देखाय ते कानस पडे बराबर करी नाखे, नालकने पण छीणी बडे कापीने ते स्थल कानसथी ठीक करीने पछी प्रतिमाने उजालवी आ विधिथी चन्द्रबल पहोचतुं होय तेवा शुभ समयमा प्रतिमा तैयार करावी तथा विधि पूर्वक प्रतिष्ठा करावी राजा पूजा करे. (१६) जिनचैत्यनिर्माणविषयक धार्मिकमर्यादा कलिकाना प्रथम खंडमां जिनचैत्यनिर्माणने अंगे भूमि परीसाथी कलशलक्षण पर्यन्तनां सर्व आवश्यक अंगोनुं अने प्रतिमा निर्माण- निरूपण कयु छ पण ए बधुं शिल्पशास्त्रने अनुसरतुं छे, धर्मशास्त्रनी ए विषयमां शी मर्यादाओ छे ए पण जाणवू आवश्यक तो छ ज, एटले ए विषयर्नु शास्त्रीय निरूपण संक्षेपमां जणावीने ए विषयनो उपसंहार करीशं. छल्ला श्रुतधर तरीके प्रसिद्धि पामेल आचार्य प्रवर श्रीहरिभद्र सरिजीए पोताना षोडश ग्रन्थमां जिनभवन निर्माण विषयक मर्यादा नीचे प्रमाणे बांधेल छे जे एमनाज शब्दोमां नीचे उद्धृत करीये छोये"न्यायार्जितवित्तेशो, मतिमान् स्फीताशयः सदाचारः। गुर्वादिमतो जिनभवन-कारणस्याधिकारीति ॥" अर्थात्-न्यायोपार्जित धननो स्वामी, बुद्धिमान्, उदाराशय, सदाचारी अने गुर्वादिसंभत होय ते जिनभवन करावधानो अधिकारी थाय छे. " कारणविधानमेत-च्छुडाभूमिदलं च दार्वादि। भृतकानतिसंधानं, स्वाशयवृद्धिः समासेन ॥" अर्थ-शुद्धभूमि, शुद्धदल, भृतकानतिसंधान अने शुभाशय Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३१ नी वृद्धि ए चैत्य कराववानी संक्षेपमा विधि छे, हवे प्रत्येक विध्यगोने समजावे छे. “शुद्धातु वास्तुविद्या-विहितासन्यायतश्च योपाता। न परोपतापहेतुश्च, सा जिनेन्द्रैः समाख्याता ॥" अर्थ--जे भूमि शिल्पशास्त्रे ग्राह्य कही होय, जे उत्तमन्यायथी मेलवेली होय, अने जे कोइने संताप कारणी न होय तेवी भूमिने जिनेश्वरोए शुद्ध कही छे. "शास्त्रबहुमानतः खलु, सच्चेष्टातश्च धर्मनिष्पत्तिः। परपीडात्यागेन च, विपर्ययात् पापसिद्धिरिव ।।" अर्थशास्त्रबहुमानथी, शुभ प्रवृत्तिथी अने परपीडाना परि. हारंथी ज धर्मनी सिद्वि थाय छे, जेम एथो विपरीत वर्तवाथी वापनी सिद्धि थाय छे. “तत्रासन्नोपि जनोऽसंबन्ध्यपि दानमानसत्कारैः। कुशलाशयवान् कार्यों, नियमाद् बोध्यंगमयमस्य॥" अर्थ---जमीन साथे संबन्ध न होय एवा तेनी नजीकमा रहेनारा मनुष्यने पण दान मान सत्कारो वडे शुभ परिणामी बनाववो, आ निमित्ते शुभाशय उत्पन्न थवो एज तेनी धर्मप्राप्तिनुं अंग बने छे. " दलमिष्टकादितदपिच, शुद्ध तत्कारिवगतः क्रीतम् । उचितक्रयेण यत् स्या-दानीतं चैव विधिना तु ॥ दार्वपि च शुद्धमिह यत्नानीतं देवताद्युपवनादेः । प्रगुणं सारवभिनव-मुच्चैयन्थ्यादिरहितं च ॥" " सर्वत्र शकुनपूर्व, ग्रहणादावत्र वर्तितव्यमिति । पूर्णकलशादरुप-श्चित्तोत्साहानुगः शकुनः ॥" अर्थ-'दल' एटले इंट. पत्थर वगेरे पण तेना मालेक, पासेथी याग्य मूल्य आपीने लोधेल अने विधि पूर्वक लावेल होय ते शुद्ध Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे गणाय छे. लाकडं पण देवता आदिना उपवनथी जयणापूर्वक लावेल होय, सीधु-सरल, नकर तथा गांठ-वेढादि रहित अने नवं होय ते वास्तुमां वापरवा योग्य 'शुद्ध' गणाय भूमी-दल-काष्ठादि ग्रहणमा सर्वत्र शुभ शकुनपूर्वक प्रवृत्ति करवी. कार्य निमित्ते जतां जल पूर्ण कलशादि संमुख मलवो जेथी के प्रारब्ध कार्यनी तरफ मानसोत्साह वधे ते शुभ शकुन कहेवाय छे. " भृतका अपि कर्तव्या, य इह विशिष्ठाः स्वभावतः केचित् । यूयमपि गोष्ठिका इह, वचनेन सुखं तु ते स्थाप्याः ॥ अतिसंघानं चैषां, कर्तव्यं न खलु धर्ममित्राणाम् । न व्याजादिह धर्मो, भवति तु शुद्धाशयादेव ॥" अर्थ-जिनभवननिर्माण कार्यमां पगारदार नोकरो-कडिया मजूरो पण विशिष्ट स्वभावना जोइने ज नियत करवा अने 'तमे पण गौष्ठिको ( चैत्य सभाना सम्यो) छो' आवा वचन द्वारा तेमने संतुष्ट करीने राखवा, वली तेमना उपर अधिक कामनो बोजो न मूकबो, केमके ते धर्म मित्रो छे; धर्म कपटथी सिद्ध थतो नथी पण शुद्ध अध्यवसायथी ज धर्म साध्य थइ शके छे. "देवोद्देशेनैतद्, गृहिणां कर्तव्यमित्यलं शुद्धः। अनिदानः खलु भावः, स्वाशय इति गीयते तज्झैः॥ प्रतिदिवसस्य वृद्धिः, कृताऽकृतप्रत्युपेक्षणविधानात्। एवमिदं क्रियमाणं, शस्तमिह निदर्शितं समये ॥ एतदिह भावयज्ञः, सद्गृहिणां जन्मफलमिदं परम् । अभ्युदयाऽन्युच्छित्या, नियमादपवर्गबीजमिदम् ॥" अर्थ-देवने उद्देशीने आ सद्गृहस्थोनुं कर्तव्य छ आवा विचास्थी करावनारनो आशय अति शुद्ध होय छे, कारण के 'अनिदान' Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ प्रस्तावना (निष्काम) भावने ज ज्ञानीओ, 'स्वाशय' कहे छे. थयेल-थता कार्यना निरीक्षणथी प्रतिदिन 'स्वाशय' नी वृद्धि थाय छे, आ प्रमाणे करातुं आ जिनभवन निर्माण शास्त्रमा शुद्ध कहेल्लु छे. सद्गृहस्थोने माटे ए ज भावयज्ञ अने ए ज जन्मनु श्रेष्ठ फल छ, आ चैत्यविधान ज अभ्युदयनी परम्परा द्वारा निश्चितपणे मोक्षनुं बीज बने छे. "देयं तु न साधुभ्य-स्तिष्ठन्ति यथा च ते तथा कार्यम् । अक्षयनीव्या ह्येवं, ज्ञेयमिदं वंशतरकाण्डम् ॥" अर्थ-जिन चैत्य साधुओने न आप, पण तेओ तेमां ठरे एवो प्रबन्ध करवो, आम मूलधन अक्षय थतां ते चैत्य बनावनारना वंशजोने संसार समुद्र तरवार्नु साधन बने छे. " यतनातो न च हिंसा, यस्मादेषैव तन्निवृत्तिफला । तदधिकनिवृत्तिभावाद् , विहितमिदमदुष्टमेवेति ॥" अर्थ-जिनभवन कराववामां जयणा राखतां हिंसा नथी, जे कंइ आमां हिंसा थाय छे ते हिंसानिवृत्ति करनारी छ जे परिमाणमां हिंसा थाय छे तेथी अधिक हिंसाने ते निवृत्त करे छे तेथी जिनचैत्यनुं निर्माण गृहस्थ धर्मिने माटे निर्दोष ज छ, (१७) जिनबिम्बनिर्माणनी धार्मिक विधि उक्त श्रुतधर आचार्य श्रीहरिभद्रसरिजी जिन बिम्ब निर्माणनी विधि आ प्रमाणे लखे छे" जिनभवने तबिम्बं, कारयितव्यं-द्रुतं तु बुद्धिमता। साधिष्ठानं ह्येवं, तद्भवनं वृद्धिमद् भवति ॥" अर्थ-बुद्धिमाने जिनभवनमा स्थापवा माटे जल्दी जिनविम्ब करावq के जेथी ते भवन साधिष्ठान थइ वृद्विकारी थाय. “ जिनबिम्बकारणविधिः, काले पूजापुरस्सरं कर्तुः। विभवोचितमूल्यार्पण-मनघस्य शुभेन भावेन ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे नार्पणमितरस्य तथा, युक्त्या वक्तव्यमेव मूल्यमिति । काले च धनमुचितं शुभभावेनैव विधिपूर्वम् ।। चित्तविनाशो नैवं, प्रायः संजायते द्वयोरपि हि । अस्मिन् व्यतिकर एष, प्रतिषिद्धो धर्मतत्त्वज्ञः॥" अर्थ-हवे जिनबिम्ब कराववानी विधि कहे छे-शुभ समयमां सदाचारवान् बिम्ब बनावनार शिल्पीनी पूजा-सत्कार करी शुभ परि णामे स्वविभवानुसार तेने मूल्य आपQ, बिम्बकार जो पापाचारवालो होय तो तेने विंब निर्माण माटे मोल आपq नहिं, मूल्य पण बजार चीजोनी जेम नहिं पण युक्तिपूर्वक कहेवु, वली बिम्ब लावती वेलाए पण यथाविधि शुभभावथी बिम्ब बनावनारने उचितधन-पारितोषिक रुपे आपq जोइये, जेथी बिम्ब करनार करावनारमाथी कोइनुं मन खिन्न थाय नहिं, आ बाबतमा मनःखेद याने चित्तभंग धर्मशास्त्रकारोए निषेध्यो छे. "एष द्वयोरपि महान् , विशिष्टकार्यप्रसाधकत्वेन । संबन्धमिह क्षुण्णं, न मिथः सन्तः प्रशंसन्ति ॥ यावन्तः परितोषाः, कारयितुस्तत्समुद्भवाः केचित् । तविम्वकारणानीह, तस्य तावन्ति तत्त्वेन ॥ अप्रीतिरपि च तस्मिन्, भगवति परमार्थनीतितो ज्ञेया। सर्वांपायनिमित्तं, ह्येषा पापा न कर्तव्या ॥ अधिकगुणस्थानयमात् कारयितव्यं स्वदौहृदैर्युक्तम् । न्यायाजितवित्तेन तु, जिनबिम्बं भावशुद्धेन ॥" ___ अर्थ-ए मानसिक प्रसन्नता वालो संबन्ध बिम्बकार-बिम्बकारकने माटे महान् छे, एज विशिष्टकार्य साधक थाय छे तेथी बने वच्चेनो ए संबन्ध बगडवो एने सज्जनो सारूं कहेता नथी, बिम्बकारकने ए कार्यमा जेटला परितोषो (भावोल्लासो) थाय छे ते Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना] परमार्थथी सर्व ते बिम्ब निर्माणनां कारणो छे. बिम्बकार उपर अप्रति ए परमार्थथी भगवद् उपरनी अप्रीति छे अने ए सर्व विघ्नोनुं मूल छे. माटे पापी अप्रीति न करवी, वली, अधिक गुणवाला पोताना मनोरथो युक्त न्यायोपार्जित अने भावशुद्ध धन बडे जिन बिम्ब तैयार कराव, " अनावस्थात्रयगामिनो बुधैदौ«दाः समाख्याताः॥ बाल्याद्याश्चैता यत् क्रीडनकादि देयमिति।।" अर्थ-विम्बनिर्माणमा विद्वानोए बाल्यादि अवस्थानुगामी त्रण मानसिक मनोरथे. कह्या छ, अवस्थानुसारे मनोरथोभावी रमकडां आदि देवू (बाल्यावस्थाना मनोरथमां बालशिल्पीने बिम्वकायमा जोडीने रमकडां आदि भेट करे ए ज रीते कुमार तथा युवावस्थाना मनोरथोमां कुमार तथा युवा शिल्पीने निर्माण काममां बेसाडी कुमारोचित-युवोचित पदार्थों अर्पण करवा ए 'दौहृद' चिन्तवन छे.) " यद् यस्य सत्कमनुचित-मिह वित्त तस्यतजमिह पुण्यम्। भवतु शुभाशयकरणा-दित्येतद् भावशुद्धमिह ॥" अर्थ-'आ महारा धनमां जेनो जेटलो द्रव्यांश अयोग्य रीने मलेलो होय तेनाथी उत्पन्न पुण्य तेना मूलधणीने थाओ' आवो शुभ परिणाम करवाथी ते धन 'भावशुद्ध' थाय छे. "मन्त्रन्यासश्च तथा, प्रणवनमः पूर्वकं च तन्नाम । मन्त्रः परमो ज्ञेयो, मननत्राणे ह्यतो नियमात् ॥ अर्थ-विम्बनिर्माणना प्रारंभमां जे द्रव्यमांथी बिंब निपजावईं होय तेमां जिननाम मंत्रन्यास करवो, नामनी आदिमां 'ॐ नमो' जोडीने चतुर्थ्यन्त नाम बोलवू ते नाममंत्रनो न्यास कहेवाय छे केम के आथी निश्चितपणे मनन-त्राण थाय छे. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे "बिम्बं महत् सुरूपं, कनकादिमयं यः खलु विशेषं । नाऽस्मात् फलं विशिष्टं, भवति तुतदिहाशयविशेषात् ।। आगमतन्त्रः सततं, तद्वद् भक्त्यादिलिंगसंसिद्धः। चेष्टायां तत्स्मृतिमान् , शस्तः खल्वाशयविशेषः । एवंविधेन यबिम्ब-कारणं, तद्वदन्ति समयविदः । लोकोत्तरमन्यदतो, लौकिकमभ्युदयसारं च ॥" __ अर्थ-बिंब म्होर्से छे के न्हा, ते रूपवान छे के साधारण, ते सोनानुं छे के अन्य द्रव्यनिष्पन्न इत्यादि जे विशेषो होय छे तेथी फल विशिष्ट थतुं नथी परन्तु आशय विशेषथी फलमां विशिष्टता आवे छे, जे आगमनी आज्ञाने अनुसरनार होय, भक्त्यादि लक्षणो वडे सिद्ध थतो होय, प्रत्येक प्रवृत्तिमां तेना स्मरणवालो होय ते आशय विशेष गाय छे के जेथी फलनी विशिष्टता सिद्ध करे छे. आवा आशयथी बिंब कराव ते लोकोत्तर बिम्ब होय छे अने आथी बीजी रीते बिंब बनावाय छे ते लौकिक होय छे लौकिक बिंब अभ्युदयसार एटले करावनारनी उन्नति करनारुं होय छे. "कृषिकरण इव पलालं, नियमादत्रानुषङ्गिकोभ्युदयः । फलमिह धान्यावाप्तिः, परमं निर्वाणमिव बिम्बात् ॥” अर्थ-कृषि करवामां चारानी जेम विम्बनिर्माणमां अभ्युदय ए अवश्यभावी प्रासंगिक फल छे, अने कृषिनु मुख्य फल धान्यनी प्राप्ति होय छे तेम विम्ब कराववानुं उत्कृष्ट-मुख्य फल मोक्ष प्राप्ति छे. ग्रन्थना संबन्धमांउपर शिल्पना संबन्धमां थोडीक चर्चा कर्या बाद हवे आ ग्रन्थने लगती बे वातो चर्चीने उपोद्यातनी समाप्ति करीशुं. शिल्प शास्त्र जेटलं उपयोगी छे तेटलं ज दुर्बोध छ साथे ज ए विषयगें उपलब्ध साहित्य एटलं बधुं अशुद्ध छे के जेने लीधे विषय Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना] दुर्बोधनो अबोध बनी जाय छे, गवर्मेंटनी सिरीजोमां अने सारी संस्थाओ तरफथी बहार पडेला शिल्पग्रन्थो पण एटला बधा अशुद्ध होय के तेनी ज्ञात अशुद्धिओन शुद्धिपत्रक बनावीये तोये हजारोथी गणाय एटली अशुद्धिओनी संख्या तो सहजे थइ ज जाय, प्रासादादिवास्तु शिल्पिओ परम्परा प्राप्त आम्नायथी भले काम करी ले छे पण तेमनी पासे ए विषयना जे ग्रन्थो होय छे अथवा तेमने ए विषयना जे कोइ संस्कृत श्लोको कंठाग्र होय छे तेने तो अशुद्धिओना ढगला कहीये तोये कंइ अजुगतुं नथी, जे विषयना साहित्यनी आवी दशा होय ते विषयमा कंइ पण लखवू ए केटलुं मुश्केल होय छे एनो खरो अनुभव तो भुक्तभोगी ज जाणी शके. . प्रस्तुत खण्डान्तर्गत शिल्पना परिच्छेदो लखवामां अमे जे ग्रन्थोनो उपयोग कर्यों छे तेमां प्रमुख ग्रन्थो ए छे-अपराजितपृच्छा १, प्रासादमंडन २, वास्तुमंजरी ३, वास्तुसार ४, समरांगणसूत्रधार५, वास्तुविद्या ६, शिल्परत्न ७, काश्यपशिल्प ८, मयमत ९, रूपमंडन १०, देवतामूर्तिप्रकरण ११, राजवल्लभवास्तुक १२, शिल्परत्नाकार १३, विश्वकर्मविद्याप्रकाश १४, वृहत्संहिता १५, प्रतिमालक्षण १६, निर्वाणकलिका १७ इत्यादि. १पुनरुक्तिप्रासाद लक्षणमां अमने बे स्थले पुनरूक्ति करवी पडी छे, दंड लक्षण अने कलश लक्षण लखाइ गया पछी प्रासादलक्षण लखतां जणायुं के प्रासाद लक्षणमां ज्यारे बधा अंगोनुं निरुपण थयुं छे तो दंड कलशोनुं स्थान शून्य रहे ए ठीक नहिं, जो कलश लक्षण अने दंड लक्षण आमां आवी जाय तो 'प्रासाद लक्षण' एक स्वतंत्र ग्रन्थ बनी जाय, आ विचारणा युक्ति संगत जणातां अमोए उक्त बे विषयो प्रासादलक्षणमा दाखल कर्या छे आ एक प्रकारनी Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे पुनरुक्तियो छ ज पण स्वतंत्र परिच्छेदो सविस्तर होइ विशेष उपयोगी जाणी कायम राख्या छे, २ ज्योतिषप्रथम खंडमां शिल्प पछी ज्योतिषनो विषय छ, शिल्पथी पण ज्योतिषनो विषय अधिक व्यापक छे एनुं साहित्य विशाल छे अने शुद्ध पण छे, ए विषयमा अनेक विद्वानोए ग्रन्थो अने निबन्धो लखी आ विषयनी मीमांसा करी छे एटले अमने ए विषयमा बहु लखवा जेवू लागतुं नथी, वली अमे आमां ज्योतिषनो सर्वांग स्पर्श पण कों नथी, केवल मुहूर्त जोवामा उपयोगी थतो वर्षशुद्धि, अयनशुद्धि मासशुद्धि, पक्षशुद्धि, अने दिनशुद्धिनो ज प्रधानपणे विचार को छे जे सर्व मुहूर्तोमा काम आवे एवो मौलिक विषय छे, बाकी विशेष मुहूर्ता मात्र जिनचैत्य संबन्धी ज आपेला छे. खातमुहूर्तथी आरंभीने प्रतिष्ठा पर्यन्तमा जेटलां मुहूर्तो जिनचैत्यने अंगे आवे छे ते सर्व लगशुद्धिनी साथे आपेलां छे. ज्योतिषने लगता मात्र बेज परिच्छेदो छे-धारणागतिलक्षण अने मुहूर्त लक्षण, धारणागति पूर्वाचार्यरचित संस्कृत धारणागति यंत्रकनो गुजराती अनुवाद मात्र छ ज्यारे मुहूर्त लक्षण अनेक ज्योतिषग्रन्थोना आधारे तैयार करेल छे आमां सहायक बनेला ग्रन्थोमां प्रमुख ग्रन्थोनां नामो आ प्रमाणे छे- आरंभसिद्धिसकार्तिक १, नारचंद्र ज्योतिष सटिप्पणक २, मुहूर्तचिन्तामणिपीयूषधाराटीकासहित ३, वसिष्ठसंहिता ४, नारदसंहिता ५, बृहदैवज्ञरञ्जन ६, ज्योतिनिबन्ध ७, रत्नमालासभाष्या ८, दैवज्ञकामधेनु ९, मुहूर्तमार्तण्ड१०. पाकश्रीसवृत्ति ११, इत्यादि । ज्योतिषना विषयने लगती एक वातनुं सूचन करवू अत्र प्रासंगिक गणीये छाये अने ते रवियोग,-राजयोग, कुमारयोग-स्थविर Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ] योग संबंधी आजनो प्रत्येक ज्योतिषी कोइ पण शुभ कार्यना मुहूर्तमा रवियोग राजयोग अथवा कुमारयोग जेवो कोइ बलवान् शुभ योग मुहर्तना समयमा आवतो होय तो ते मुहूर्तने सारु गणे छे. आ योगो प्राचीन ज्योतिष संहिताओमा नथी, त्यां कोइमां ९ मा अने कोइमां १० मा रवियोगने उपग्रहरूपे जगावेल छे, अमने ज्यां सुधी स्मरण छे सोलमा सैका पूर्वना कोइ ब्राह्मण विद्वाने रचेला ग्रन्थमा उक्त ख्यादि योगोना उल्लेख मलतो नथी, एथी विपरीत जैनाचार्ये रचेल जुनामां जुना ग्रन्थोमा उक्त ४ योगोनो निर्देश मले छे, मध्यकालीन ज नहि सातमा सैकानो पाकश्री जेवा प्राचीन ग्रन्थमां पण उक्तपैकीना केटलाक योगो मली आवे छे, आरंभसिद्धि, नार चन्द्रादि मध्यकालीन जैन ग्रन्थोमां तो उक्त योगो योगप्रकरणना प्रसिद्ध योगो थइ पड्या छे, कुमारयोगने अंगे तो एवो उल्लेख पण मले छे के आ योग बंगाल देशथी आवेल मुनिओ लेइ आव्या छे. ब्राह्मण ग्रंथो पैकीना मुहूर्तचिन्तामणिमा वियोग तो नजरे पडे छे, पण तेमांये कुमारादियोगोनो उल्लेख सुधां नथी त्यारे शुं आ च्यारे योगो मूलमां ब्राह्मण सृष्ट नथी ? शुं आ योगो जैन साधुओथी ज प्रचलित थया छ ? विद्वान ज्योतिषीओए ए विषयमां ऊहापोह करवो घटे छे. ३-मुद्रालक्षणप्रथमखंडनो छेल्लो परिच्छेद 'मुद्रालक्षण' विषयक छ, 'मुद्राए, वास्तवमां तांत्रिकमतनी वस्तु छे पण तांत्रिक कालमां बनेल प्रतिष्ठाकल्पोमां अमारा पूर्वाचार्योए ए वस्तुनो स्वीकार कर्यो छे एटले विधिमां प्रयुक्त कराती केटलीक मुद्राओ निर्वाणकलिका, सकलचंद्रीय प्रतिष्ठाकल्पने आधारे आ परिच्छेदमां आपेली छे. आ मुद्राओने विष्णुसंहिता, नारदपंचरात्र आदि पौराणिक ग्रन्थोने आधारे तपासी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० (कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे जोइ छ अने आमां चालती भूलो सुधारी छे. तांत्रिकोनी मान्यता छे के जे देवताने जे मुद्रा प्रिय होय तेनी पूजा ते मुद्रादर्शनपूर्वक करवाथी ते प्रसन्न थाय छे. गमे तेम पण अमारा पूर्व प्रतिष्ठा कल्पकारोए विधिमां मुद्राओनो स्वीकार कर्यो छे तेथी आजना प्रतिष्ठाचार्योए तथा स्नात्रकारोए मुद्राओ शिखवी आवश्यक छ, आम आ प्रथमखंड शिल्पीओ ज्योतिषीओ अने प्रतिष्ठाकारोने उपयोगी थइ पडशे एवी आशा छ. छेवटे आ खंडमां-खास करीने शिल्प परिच्छेदोमा आधार ग्रन्थोनी अचोकसताने लेइने कोइ समज फेरनी भूल दृष्टिगोचर थाय तो सुधारीने वांचवानी वांचकगणने प्रार्थना छे. माधवपुरा-अमदावाद, माघशुक्ल ५ गुरु, ता० १६-२-१९५६. कल्याणविजय. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाक :विषयानुक्रम: प्रस्तावना पृ. १ थी ४ सुधी प्रस्तावनानो उपोद्घात पृष्ठ ५ थी ४. सुधी ग्रन्थविषय समंगल ग्रन्थोपोद्घात प्रथम खंड परिच्छेदसूची १-भूमिलक्षण-शुभाशुभभूमि भूमिनी विशेष परीक्षा २-शल्योद्धार लक्षण चेष्टा-पशुपद-शब्द-प्रश्नवर्ण लग्नथी शल्यज्ञान भूमिगत शल्य फल शल्योद्धारमाटे केटलं खोदवू ? ३-दिक्साधन लक्षण पांच प्रकारे पूर्व दिशाज्ञान प्रकारान्तरे दिशाज्ञान ४-कीलिकासूत्र लक्षण वर्ण परक की लिका निरूपण वर्णपरक सूत्रनुं निरूपण ५-कूर्मशिला लक्षण कूर्मशिलामान पाषाण तथा इष्टका शिलामा विशेषता प्रकारान्तरे शिलामान कूर्मनुं स्वरूप अने मान कूर्मशिला लक्षण-दाक्षिणात्यपद्धति Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ग्रन्थविषय पृष्टाङ्क कलश, कमल, कूर्म अने योगनालनु भान ३२ आधारशिला उपर कलश आदिनो स्थापनाक्रम कूर्म प्रमाण ६--शिला लक्षण शिलोआनी संख्या शिलाओर्नु स्वरूप शिलानी लंबाई-पहोलाई-जाडाई देवालयनी नन्दादि ८ शिलाओ शिलाओ उपरनां चिन्हो शिलाओनां नामोमा मतभेद उपशिलाओ निधिकलशोनी संख्या अने परिमाण निधिकलशोने अंगे शास्त्राधार ७-वास्तुमपिमर्मादि लक्षण शिराओमहावंशो वंशो अने अनुवंशो मर्म अने उपमर्म देवासनो, द्वारमध्यो अने पदमध्यो संधिओ ग्रन्थान्तरमा सन्धि अने मर्म मर्मोपमर्मादि चक्रम् ६४ पदे मर्मोपमर्मादि चक्रम् ८१ पदे वास्तुपुरुषनां अंग प्रत्यंगो वास्तुपुरुषना शयन प्रकारो Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाक ५८ विषयानुक्रमणिका] ग्रन्थविषय ८. वास्तुमण्डल विन्यास लक्षण मासादवास्तु मण्डल-- वास्तु मण्डल चक्रम् ६४ पदे निर्वाणकलिकोक्त गृहवास्तु मण्डल वास्तुमण्डल चक्रम् ८१ पदे-निर्वाणकलिकोक्त वास्तुमंण्डलचक्रम् ६४ पदे-बृहत्संहितोक्त वास्तुमण्डल चक्रम् ८१ पदे-बृहत्संहितोक्त वास्तुमण्डलचक्रम् ८१ पदे-शिल्पशास्त्रोक्त ९-प्रासाद लक्षण प्रासंगिकं प्रासादोत्पत्तिनो इतिहास हस्तलक्षण मानपरिभाषा-कोष्टकम् वास्तुक्षेत्र विचार वास्तुपद देवता ४९ पदात्मक मरीचिगणवास्तु (जीर्णोद्धारे) ६४ पद भद्रक वास्तु--(नगर निवेशेपू०) ८१ पद कामद वास्तु (गृहादि निवेशे) १०० पद भद्रवास्तु (प्रासाद-मण्डपादिनिवेशे) वास्तुममोपमम निर्णय वास्तुपरिभ्रमण वास्तुदोष बायाधङ्ग विचार वास्तु भूमि कोना हाथे मापवी ? ७७ ७८ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ग्रन्थविषय पृष्टाङ्क आय लाववानी रीति अने नामादि देवालयोमा अने अधमालयोमा शुभ आय काल परक आयोनी श्रेष्ठता वर्ण विशेषने आय विशेषनी श्रेष्ठता आयोनुं फल कार्यविशेषे आय विशेष ध्वज प्रतिनिधि आयो आयोना मुखनी दिशाओ आय ज्ञानार्थक कोष्टक नक्षत्रत्रिविध नक्षत्रगण अंगुलात्मक क्षेत्रा नक्षत्र ज्ञानार्थक कोष्टक ९६-९७ হহি चातुर्वर्ण्य राशि राशिकूट ९९ चन्द्र चन्द्रनो वासो जाणवानी रीति व्यय आयस्थाने व्यय प्रदान कोष्टक অন্ধ अंशक प्रदान स्थान तारा अधिपति १०८ मतांतरे अधिपति ९५ ९८ १०७ १०९ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाङ्क ११० विषयानुक्रमणिका] प्रन्थविषय भासाद अधिपति ज्ञानार्थक कोष्टक वास्तु जन्मतिथि शुभअंगोनी अधिकताथी वास्तुनी स्थिरता केटलां अंगो शुभ होय तो सारां ? वास्तुमां शुं शुं न लेवू ? वास्तुनुं जीवन अने विनाश प्रसादांग निरूपण जगतीनो आकार अने परिमाण ठक्कुर फेरुना मते जगतीनुं मान जगतीनी उंचाई १०८ भागनो मंडोवरो जगतीनी उंचाईनो बीजो प्रकार खरशिला भीट पीठ पीठनो उदय नवपीठोनां नामो अने अंगुलात्मक मान लनिनादि ५ मासादोनां पीठोनो उदय पीठोदयना भागो अपराजितपृच्छामा निर्गमन प्रमाण प्रासादनो उदय पहेला प्रकारनो उदय वीजा प्रकारनो उदय त्रीजा प्रकारनो उदय ११८ १२० १२१ १२२ १२५ १२७ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ग्रन्थविषय पृष्टाङ्क चोथा प्रकारे प्रासादोदय १२८ पांचमा प्रकारे प्रासादोदय छठा प्रकारनो प्रासादोदय-फेरु ठक्कुर मतमां उदयमानमां मतभेद १२९ मंडोवराना थरोनी भागसंख्या-प्रासादमण्डने १३१ १०८ भागनो मंडोवरो २७ भागनो मण्डोवरो-प्रासादमण्डने ठक्कुर फेरुना मते २५ भागनो मंडोवरो गर्भगृहोच्छ्रय:- अपराजितपृच्छायाम् गर्भगृहोच्छय जाणवानी बीजी रीति उंबरो-अपराजितपृच्छामां अर्धचन्द्र अने उदुम्बर क्या मूकवा ? उंबराना अंग विभागो अर्धचन्द्रक-प्रासादमण्डने १३६ नागरप्रासाद द्वारोदय-अपराजितपृच्छायाम् क्षीरार्णवर्नु नागर द्वारमान १३७ भूमिज प्रासाद द्वारमान-अपराजितपृच्छायाम् १३८ द्राविड द्वारमान-अपराजिलपृच्छायाम् द्वारमानोनो उपयोग १४. द्वारशाखाओए विषयमा अपराजितपृच्छानुं निरूपण १४१ अपराजितपृच्छामां शाखाओनी वर्तना विशाखानी वर्तना पंचशाखानी वर्तना ora १३५ १३९ १४२ १४४ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ पृष्टाङ्क १४५ ६ १४८ विषयानुक्रमणिका] ग्रन्थविषय सप्तशाखा द्वारनी वर्तना द्वारशाखाना विस्तारनुं मान उत्तरंग जिनेन्द्रायतनना ८ प्रतिहारो आयुधो प्रतिमाओनां पदस्थानो मण्डलोमां देवोना स्थानोनो अतिदेश स्पष्टीकरण अपराजितपृच्छानुं विधान समरांगण सूत्रधारनां देवतापद स्थानो उपरोक्त ग्रंथमा ए विषय बीजा प्रकारे प्रासादमंडननां देवतापद स्थानो आज काल प्रचलित देवता पद स्थानो दृष्टिस्थान ए विषयमा अपराजित० विधान वाहनदृष्टि ठकुर फेरुनु दृष्टि विधान आचार्य वसुनन्दिनी दृष्टिस्थान विषयक मान्यता प्रणाल मूकवानी दिशा प्रतिमामान द्वारोदय माने ( ऊर्ध्वस्थिति) ऊर्चस्थित तथा आसीन गर्भमाने प्रतिमामान प्रासादमाने प्रतिमामान शिखरश्रृङ्गो अने उरुशङ्गो (प्रासादमण्डने) १५३ १५४ १५५ १५६ १५७ १५७ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ १७२ ४८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ग्रन्थविषय पृष्टाक रेखा अने रेखाना भेदो १६० कोलीना भेदो १६३ चन्द्रकला रेखाओ १६४ नागरी रेखाओ.उदय रेखाओ १६५ कला रेखाओ कलारेखाओथी भेदातो स्कंध १६७ २५ स्कंधोना नाम १६८ अपराजितमा चन्द्रकला रेखाओगें निरूपण १६ मूल चन्द्रकला रेखाओना नाम चारविधि कलाविधि २५६ रेखाओनां नामो १६ कलारेखाओ भेद खंडकला सहित त्रिखण्डायाः १६ भेदाः चतुष्खण्डायोः १६ भेदाः पञ्चखण्डायाः १६ भेदाः षट्खण्डायाः १६ भेदाः सप्तखण्डायाः १६ रेखाभेदाः अष्टखण्डायाः १६ रेखाभेदाः नवखण्डायाः १६ रेखाभेदाः दशखण्डायाः १६ रेखाभेदाः एकादशखण्डायाः १६ रेखाभेदाः १८० द्वादश खण्डायाः १६ रेखाभेदाः त्रयोदशखण्डायाः १६ रेखाभेदाः १८२ चतुर्दशखण्डायाः १६ रेखाभेदाः १८३ १८१ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाह १८४ १८५ १८६ १८७ १८८ विषयानुक्रमणिका ग्रन्थविषय पंचदश खण्डायाः १६ रेखा भेदाः षोडश खण्डायाः १६ भेदाः कलासहिताः सप्तदश खण्डायाः १६ भेदा: अष्टादश खण्डायाः १६ रेखाभेदाः कलासहिताः आमलसारकना आकारो आमलसारानी अंगविभक्ति प्रासाद-पुरुष-निवेशनकलश प्रासादमाने कलशमान पराटादि प्रासादोनो कलश कलशनी अंगविभक्ति प्रकारान्तरे कलशमा अंगविभागो ध्वजदंड दण्डमान पहेला प्रकारदण्डमान वीजा प्रकारचं दण्डमोन श्रीजा प्रकारचें दण्डनी जाडाई दण्डनी पाटली पाटलीनुं स्वरूप दण्ड शानो बनायो ? ध्वजानुं मान ध्वजावती (स्तंभिका ) रोपण. जिनेन्द्र प्रासाद पंचक तलविभक्ति २२ भाग Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० प्रथविषय शिखरनी रचना केसरी आदि २५ नागरप्रासाद मण्डप शुकनासनी उंचाई स्पष्टीकरण पुष्पकादि २७ मण्डपो पुष्पकोदि २७ मण्डपोना तलना नकशाओ. द्वादशत्रिकमण्डपो नकशासहित स्तंभोना प्रकाशे अने जाडाइ मकारान्तरे स्तंभोनी जाडाई स्तंभनी जातिओ [ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे मण्डप भद्रविस्तार पाटस्तंभ अने शराना विस्तार द्वादशत्रिकमंडपोनु शास्त्रीय निरूपण मण्डपाना सम्बन्धमां प्रकीर्णकवातोगूढ मण्डपनी मींत अने द्वार विषे वारी अने जाली परिच्छेदनो उपसंहार परिशिष्ट नं ३ द्वारे दृष्टिस्थानज्ञापक काष्टकम् परिशिष्ट नं ४ २५ नागरी रेखाओ ( खण्डकला सहित ) १० कलश लक्षण आजकाल कलशमानमां चालती भूल पृष्टाक २०१. २०२ २१२ २१४ २१८ २१९ २२६ २२९ २३१ २३२ २३३ " २३४ " २३६ २३७ २३९ २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाङ्क २४५ २४६ २४८ २५० २५३ २५४ विषयानुक्रमणिका] प्रविषय कलशनी उंचाई एज ६ अंगानुं विस्तारमान ११ ध्वजदण्ड लक्षण दण्डनी लम्बाईना प्रकारो दण्डनां उपादान काष्ठो दण्डनो जाडाई दण्डनी पाटली ध्वजा परिमाण १२ जिनप्रतिमा लक्षण प्रतिमालक्षणनी दुर्बोधता ऊर्ध्व स्थित प्रतिमानुं स्वरूप आसनस्थित प्रतिमानी-चतुरस्रता जिनप्रतिमानी उंचाई नवतालनी उभीप्रतिमामानना ११ अंकस्थानो आसनस्थप्रतिमानां अंगो तथा अंका अंग प्रत्यंगना विभागे प्रतिमानो उदय आसनस्थप्रतिमानो विस्तार विवेक आसनस्थ प्रतिमानी जाडाई प्रतिमामानांक कोष्ठक कोष्ठकोना सम्बन्धमा कंइक स्पष्टता प्रतिमामानांक परिशिष्ट समरांगणसूत्रधारोक्त प्रतिमाना मानांक अंगुली नखाः हीनाधिक माननी प्रतिमा न करवी २५७ २५८ . rur २६४ २७६ २८० Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ग्रन्थविषय भग्न प्रतिमाना सस्कार विषे अलाक्षणिक प्रतिमाथी हानि लक्षणहीन प्रतिमाना विषयमा समरांगणसूत्रधार प्रतिष्ठाकल्पोक्त प्रतिमालक्षणहीनता अलाक्षणिक प्रतिमा विषे वास्तुसारनुं विधान शिल्प रत्नाकराक्त प्रतिमागत शुभाशुभ रेखाओ प्रतिमा भंगनु फल. खंडित प्रतिमा विषे अपराजित० नुं मन्तव्य एज ग्रन्थना मते त्याज्य प्रतिमा अपराजितनो ए विषयमां अपवाद [ कल्याण - कलिका - प्रथमखण्डे खंडित प्रतिमा सम्बन्धि ठकुर फेरुनी मान्यता घर अने प्रासादमां स्थापनीय प्रतिमानुं मान घरमां पूजवानी प्रतिमा विषेनो विवेक प्रासादमानथी प्रतिमामान प्रासादमां प्रतिमानुं स्थान द्रष्टिस्थाननो विवेक उपसंहार १३. परिकरलक्षण कस्तुसारोक्त परिकर परिमाण १४ जैन शासनदेव लक्षणम् क्षयक्षिणी कोष्टक निर्वाणकलिकाना आधारे यक्षयक्षिणी कोष्टक शिल्पना आधारे दशदिक्पाल यन्त्रकम् नवग्रह यन्त्रकम् पृष्ठाङ्क २८२ 95 २८४ २८५ २८६ २८७ २८८ ૨૮થ " २९० २९१ " " २९२ , २९३ २९४ ३.५ ३०८ ३१३ ३२१ ३३० ३३१ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाङ्क ३३२ ३३४ mr mr m ३३७ ३४० ३४२ mr ३५२ ३५४ विषयानुक्रमणिका] अन्यविषय षोडश विद्यादेवी लक्षणज्ञापर्क यन्त्रम् श्रुतदेवता-शान्तिदेवता-ब्रह्मशांति-क्षेत्रपाललक्षण १५ धारणागति लक्षण संज्ञाविवरण जिननाम वर्ण लांछन नक्षत्र राशिओर्नु कोष्टक. धारणागति कोष्टको २४ तीर्थंकरोना नक्षत्रादि छअंगोन कोष्टक १६ मुहूर्त लक्षणम् मुहूर्तमान अने तेओनो कार्य प्रदेश दिवस विभागनां शुभाशुभ मुहूर्ता रात्रि विभागनां शुभाशुभ मुहूतों वार परत्वे वर्जनीय मुहूर्तो नक्षत्र स्वामिओनि क्रमिक नामावलि वास्तु कर्ममा शुभ मुहूर्तो मुहूर्ताना सम्बन्धमा लल्लाचार्यनो मत मुहूर्त यंत्रक वर्षशुद्धि अयनशुद्धि मासशुद्धि अधिकमास क्षयमास पक्षशुद्धि गुरुशुक्रचन्द्रास्त शुद्धि मुरुशुक्रनापाल्य ३५५ ३५७ ३५८ ३५९ . . . w 10 سر سه به سه w ३६६ ३६७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ३७० م س [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ग्रन्थविषय पृष्टाङ्क गुरुशुक्रस्तापवादे गर्ग गुरु वक्रत्व दोष वक्री ग्रह बलवान के निर्बल नाग वास्तु चक्र मुञ्जादित्यनिवन्धे शिल्पशास्त्रानुसारी शेषस्थिति चक्रम् ३७४ अर्वाचीन ज्योतिष ग्रन्थानुसारी शेषस्थितिच दिशाओमां खात करवानो प्राचीन क्रम ३७५ १ थी सात प्रकारना ऋषभवास्तुचक्रो ३७६ निशान्तचक्र कूर्मचक्र जल-कूर्मचक्र कोष्टक गृहद्वारशाखा चक्र प्राकार- देवतायतनद्वार वत्सचक्र देवालयद्वारचक्र वत्सने अंगे विशेष विधान वत्सस्थितियन्त्रकम् राहुढं निरूपण चक्रसहित ३८७ स्तंभचक्र ३८८ मोभचक्र ३८९ आमलसारास्थापनचक्र कलशचक्र १ थी ४ प्रकारनां तिथि ३९३ तिथिविधेयक कार्यो ३९४ कुलोपाल तिथिओ ३९९ د س ه : ३८६ ३८९ ३९० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाङ्क ४०० ४०१ ४०३ ४०४ : ४०५ ४०७ ४०९ विषयानुक्रमणिका] प्रन्थविषय तिथिद्धि तिथिक्षय सूर्यदग्धा तिथिओ जाणवानो उपाय क्रूरग्रहाक्रान्तराशिस्वामिकतिथिओ विषघटिका-तिथिविषघटि सयंत्रकमासपरत्वे शून्यतिथिओ क्षणतिथि तिथिविषयक अपवाद वार वारपवृत्ति जाणवानुं प्रयोजन वारभोग सम्बन्धि एक नवी परम्परा ग्रहोनो स्वाभाव प्रकृति ग्रहोर्नु वर्णाधिपत्य वारविधेय कार्या वारदोषो वारदोषविषयक मतभेद प्राचीनसंहितोक्त वारदोषज्ञापकयन्त्रकम्ः वारदोषोनी दिवसे प्रबलता वारदोषोनो परिहार वारगत शुभसमय नव्यमतानुसारी मुहूर्तचिन्तामण्युक्त वारदोषज्ञापक यन्त्रकम् आधुनिक चोघाडयां क्याथी आव्यां ? नक्षत्र नक्षत्रोना अक्षरो ४११ ४१४ ४१६ ہ ccccccccccc م له سه ४२६ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ४३४ ४३९ [कल्याण-कलिका प्रवनखण्डे प्रन्थविषय पृष्टाक नक्षत्रोना स्वामियो ४२७ नक्षत्रतारासंख्या ४२८ मक्षत्रमुहूता ४२९ पूर्वयोगी आदि नक्षत्रो नक्षत्रोना भ्रमण मार्ग ४२९ मुखपरक नक्षत्रगणो अने विधेयकार्यो स्थिरादि नक्षत्रगणो अने विहित कार्यो ४३१ प्रत्येकनक्षत्रविधेय कार्योनक्षत्रोनी कुलादि संज्ञा ४३८ नक्षत्रोनी अन्धादि संज्ञानक्षत्रोना देव-मानवादि गणनक्षत्रयोनि " नक्षत्रनाडी ४४१ नाडीदोषापवादनक्षत्रोनी राशिओशूलनक्षत्रो ४४४ सर्वद्वारिक नक्षत्रोसमय विशेषे गमनाऽयोग्य नक्षत्रोसर्वकाले गमनयोग्य नक्षत्रो ४४५ पुष्यनी विशिष्टताज्यातिपतत्त्वकार पुण्यने अंगे- कहे छे ४४६ वशिष्ठ पुष्यने अंगे यात्रा विषे कहेछेनक्षत्र पचकध्यवहारसारमा पंचकनुं फल ४ ४४३ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाङ्क ४४८ ४४९ ४५० ४५१ ४५२ ४५३ ४५६ विषयानुक्रमणिका] ग्रन्थविषय आरंभसिद्धिमां पंचक विषे मतान्तरनक्षत्रविषघटी-वशिष्ठ ज्योतिःसागरमा विषघटीतुं फलविषघटी दोषापवाददक्षित नक्षत्रोकश्यपना मते पीडित नक्षत्रोदुपितनक्षत्र वा पीडितनक्षत्रनी शुद्धिपीडित नक्षत्रापवादग्रहण तथा उत्पात दृषित नक्षत्रनी शुद्धिनक्षत्रसंधि अने नक्षत्रगण्डान्त नक्षत्रयोग,तिथिसंधिविषेभसंधि-भगंडान्तनु फलगंडान्तदोषनो परिहारउपग्रह उपग्रहनो विषय अने फलउपग्रहोनो परिहार-- नक्षत्र-ग्रहकूट-- लत्तादोष शुभाशुभलत्तानां फल-- लत्तानो परिहार-- पातदोषपातनो अपवादसप्तशलाकाचक्र-- पंचशलाका वेधचक्र-- ४५७ ४५९ ४६० ४६२ ४६४ ४६५ ४६७ ४६९ ४७० ४७१ ४७२ ४७४ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे प्रन्थविषय पृष्टाङ्क वेधफलम् ४७५ वैधनो अपवाद ४७६ एकार्गलयोग दोष-- ४७७ एकार्गलयोगनुंफल दशयोग दोष ४८१ दशयोगर्नु फल दशयोगनो परिहार-- ४८२ महापातर्नु स्पष्टीकरण ४८३ वज्रपंचक ४८६ वाणपंचक ४८७ पाणनो परिहार-- ४८९ नाग अने मृत्युषाणनो परिहार-. ४८९ योगोविष्कंभादियोगानयनोपायविष्कंभादि २७ योगोअशुभयोगोनी वयं घडिओयोगेशविश्कंभादि विधेय कार्योंक्षणयोगो ४९७ आनंदादि २८ उप-योगो आनंदादि योगो जाणवानो उपायआनंदादि अशुभयोगोनी वय॑घड़ी-- ४९९ अशुभयोगोनो परिहार • प्रकीर्ण शुभयोगो-रवियोग ४९० ४९१ ४९२ ४९३ ४९८ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाङ्क ५०० ५००-५०१ ५०१-५०२ ५०२ ५०३ ५०४ ५०४ ५०५ ५०६ विषयानुक्रमणिका ग्रन्थविषय रवियोग फल-- कुमारयोग--कुमारयोग फलराजयोग- राजयोग फल अमृतसिद्धियोग -अमृतसिद्धिनुं बलसिद्धियोग-स्थिरयोगस्थिरयोगनो विषयप्रकीर्ण अशुभयोगोउत्पात-मृत्यु-काणयोगोयमघंटयोग-वज्रमुशलयोग-क्रकच योगवज्रपातयोगसंवर्तकयोगकालमुखी तिथिज्वालामुखी तथा दग्धयोगशुभयोग कोष्ठक-अशुभयोग कोष्टकअशुभयोगनो परिहार शुभयोगा:तिथि-नक्षत्रजन्य शुभयोगवार-नक्षत्रजन्य शुभयोगतिथिवारजन्य शुभयोगतिथिनक्षत्रजन्य शुभयोगकोष्ठकवारनक्षत्रजन्य शुभयोगकोष्ठकतिथि-चारजन्य शुभयोगकोष्ठकग्रहकृत शुभयोगवारनक्षत्रजन्य अशुभयोग ५०७-५०४ ५०९ ५११ ५१२ ५१४ ५१६ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१९ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे प्रन्थविषय पृष्टाक तिथि वार नक्षत्रजन्य अशुभयोग ५१७ तिथिवारजन्य अशुभयोग ५१८ ग्रहजन्मनक्षत्र-अशुभयोगअचिकित्स्य-गदयोगग्रहकृत मृत्युयोगअग्निजिह्व-विष-महाशूलयोगा ५२० अशनियोग ५२१ हालाहलयोगनक्षत्रलाञ्छितयोग-तिथिनक्षत्रोत्थवारनक्षत्रसमुत्थ अशुभयोग ५२२ दिवा मृत्युदायक तथा रोगदायक नक्षत्र चरणो- ५२५ वारनक्षत्रजन्य अशुपयोग कोष्ठक ५२६ तिथि वार नक्षत्रजन्य अशुभयोग कोष्ठक तिथिवारजन्य अशुभयोगतिथिवारजन्य अशुभयोगअशनियोगवार-तिनिक्षत्र-हालाहलयोगानक्षत्रलाञ्छित योग ५२७ वार-नक्षत्रसमुत्थ अशुभयोगा: ५२८ प्रकारान्तरेण वार-नक्षत्र समुत्थ अशुभयोगागुणापवाददोषापवादाकरण ५३५ करणसंबन्धी निरूपण ५२७ ५२९ ५३१ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाङ्क ५३६ ५३७ ५३८ ५३९ ५४० विषयानुक्रमणिका] ग्रन्थविषय करणेशकरणविधेयकार्याभद्राना अंगविभांगोभद्राना तिथि संबन्धविषे आरंभसिद्धिदिशाकालपरत्वे भद्रानुं संमुखत्वतिथिपरत्वे भद्राना पुच्छभागनो समयभद्राना पुच्छर्नु महत्त्वभद्रामा सिद्ध थयेल कार्य अंते नाश पामे छेभद्रामा करवानां कार्योभद्राना परिहारना अनेक प्रकारोकालपरक भद्रानां वे स्वरुपोकरणो विषे आरंभसिद्धिकारनो उपसंहारलग्नबल प्रकरणलग्नविधेयेकार्योलग्नप्रकृतिलग्नगशिपतिओराशिपतिओना शत्रुओ अने मित्रोअतिवैर तथा अतिमैत्री ग्रहोनी निसर्गमैत्री-मध्यस्थ-शत्रुताज्ञापक कोष्ठकग्रहमैत्री-शत्रुता विषयक प्राचीन मतप्राचीन मतानुसारि मैत्री-शात्रकोष्ठकग्रहोनी दृष्टिमर्यादाताजिकोक्ता ग्रहदृष्टियहोर्नु बलाबल ५४२ ५४२ ५४३ ५४३ ५४५ ५४६ ५४७ ५४८ ५४९ ५० Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाङ्क ५५५ " ५५९ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ग्रन्थविषय चद्रबलनी श्रेष्ठता ५५१ लग्नषड्वर्ग:-- ५५२ षड्वर्गमां नवमांशनी विशिष्टतालग्नबल ५५३ लग्नबलनो सारांशउदयास्तशुद्धि ५५५ उदयास्त शुद्धौ आरंभसिद्धि ५५६ उदयास्त शुद्धि विष व्यवहारप्रकाशनिर्बल अने त्याज्य लग्न ५५७ कया ग्रहो कया स्थानोमां न जोइयेक्ररकतरा दोषक्रूरकर्तरीस्थित लग्न तथा चन्द्र अने अनो परिहारसापवाद क्रूरयुतिजामित्र नामक लग्नदोषशुभग्रहकृत लग्नगत दोषभंगचंद्रतारा बलचंद्रबल-ताराबलनो समयविभागअशुभतारानो परिहार ५६८ दुष्टताराना अपवादघोतचंद्र ए शुं छे ? ५६९ प्रासादादि वास्तु मुहूर्ती ५७३ गृहारंभ मुहूतभूम्यारंभ मुहूर्त ५७४ वास्त्वारंभना सौरमासौ ५७४ गृहनिर्माणना महीना ५७५ w w w w ५६४ N ५७३ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ पृष्टाङ्क ५७५ . ५७६ ५७६ . . . ५७७ ५७८ . . विषयानुक्रमणिका) ग्रन्थविषय गृहनिर्माणमां सौरमासोवास्त्वारंभनां नक्षत्रो-- देवालयआरंभमां मासोनो अतिदेशगृहारंभना वारोगृहारंभनी तिथिओ-- तिथिवारने अंगे भृगुनो मत-- दिनशुद्धिगृहनिर्माणमा चन्द्रनी दिशा-- चंद्रदिशानुं फल-- प्रमोच्चये गृहारंभ नक्षत्रो-- भूमिशयन-- गृहारंभमां पंचांगशुद्धि-- वास्तुनिर्माणनां लग्नवास्तुकार्यारंभनी उत्तम लग्नकुंडलीगृहारंभलग्ने आयुर्दायकयोगा-- गृहारंभमां उत्तम-मध्यम-अधमग्रहस्थितिगृह अने देवालयना निर्माणमुहूर्तमां भेद नथी-- कूर्मन्यास मुहूर्त मूत्रपात-शिलान्यास-खुरानां मुहूर्ता-- द्वारागेपण मुहूर्त-- स्तभोच्च्छाय मुहूर्तपट्टकागेपण मुहूर्त - पद्मशिला-शुकनास-पुरुषनिवेशन-मुही आमलसाग्कस्थापन मुहर्त.. कलश अने ध्वजारोपना मुहूर्ता-- ५७९ ५८० . ५८३ ५८४ . ५८६ ५८७ ५८७ ५८८ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ग्रन्थविषय प्रतिष्ठा मुहूर्त-पंचांगशुद्धितिथिविषे नारदमत-, प्रतिष्ठामां वार- नारदसंहिता प्रतिष्ठामां वारफल - प्रतिष्ठामां नक्षत्र जैनप्रतिष्ठामां नक्षत्रो, आरंभसिद्धौप्रतिष्ठायां वर्जितनक्षत्रो - प्रतिष्ठामां योगो वसिष्ठः प्रतिष्ठामां करणो आरंसिद्धिना मते प्रतिष्ठामां लग्नशुद्धि- प्रतिष्ठाना लग्नने अंगे वशिष्ठ कहे छे-प्रतिष्ठानी लग्मशुद्धि विषे नारदजी -- प्रतिष्ठामां लग्नव्यवस्था - आरंभ सिद्धौ-लग्नकुण्डलीमां ग्रहव्यवस्था नारदमते-प्रतिष्ठा लग्ननो ग्रहव्यवस्था - आरंभसिद्धिना मते प्रतिष्ठा लग्नग्रहस्थिति फल - पूर्णभद्रमते लग्नकुंडली ग्रहस्थिति कोष्ठकोलग्नमां उत्तम - मध्यम नवमांशा लग्नमां शुभनवमांशकोष्ठक-प्रतिष्ठादि लग्नगत दोषभंग - १७ मुद्रालक्षण [ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे पृष्ठाङ्क - मुद्राओनुं महत्व-मुद्रावस्तु तांत्रिकोनी छे प्रतिष्ठोपयोगी मुद्राओ ५८९ ५९० ५९१ " " ५९२ 19 39 ५९३ ५९४ *" ५९५ 27 ५९६ ५९७ ५९९ ६०२ ६०२ ६०४-५ ६०६ ६०८ "7 ६०९ ६११ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं०श्रीकल्याणविजयगणिविरचिता कल्याण-कलिका प्रथम-खण्डः -: मङ्गलम् :वर्धमानं जिनं नत्वा, बुद्ध्वा विधिपरम्पराम् । प्रतिष्ठापद्धति वक्ष्ये, कल्याणकलिकाभिधाम् ॥१॥ भाषाटीका-श्रीवर्धमानजिनने नमन करीने अने विधिपरंपराने समझीने 'कल्याणकलिका' नामक प्रतिष्ठापद्धतिने हुं कहीश. उपोद्घात:प्रतिष्ठाविधयोऽनेके, प्राक्तना विस्तरोज्झिताः। केऽपि विस्तवाहुल्या, न सर्वेषां समा गतिः ॥२॥ न विस्तरात् ममामाद्वा, ये विधानं चिकीर्षवः । न तत्कृते हितार्थास्त, सदाम्नायविवर्जिताः ॥३॥ ___ भादी०-प्राचीन प्रतिष्ठा विधिओ अनेक विद्यमान छे, पण ते मर्वनो मार्ग एक मनग्या नथी. केटलीक संक्षिप्त छे त्यारे केटलीक अति विस्तारवाली छ, आ कारणथी जेओ अति विस्तार अने संक्षेपने छोटीन मध्यम प्रकाग्नुं प्रविष्टाविधान करवानी रुचिवाला छे, तेमने अनि मंभित अने अनि बिस्तनु ने विधिओ हितकारक नथी, कारण के ते प्रमाण कग्वानो वनमानमा कोइ सारो आम्नाय प्रचलित नथी. पादलिमप्रभोः प्रज्ञा-प्रकपरिपाकजाम् । निर्वाणलिकां दृष्ट्वा. मुह्यन्ति विधिकोविदाः ॥४॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका श्रीचन्द्रसूरिसंदृब्धां, प्रतिष्ठापद्धति लघुम् ।। अनुसृत्य विधानाय, कः क्षमश्चतुरोऽपि सन् ॥५॥ विधिमार्गप्रपायां या, प्रतिष्ठापद्धतिलघुः। साऽपि कार्यक्षमा नैवातिसंक्षेपविधानतः ॥६॥ गुणरत्नमुनीन्द्रोक्ता, विशालराजशिष्यजा। प्रतिष्ठापद्धतिनैव, साम्प्रतं व्यवहारगा ॥७॥ __ भाण्टी-आचार्यश्रीपादलिप्तसरिनी बुद्धिना प्रकर्षवडे उत्पन्न थयेली 'निर्वाणकलिका' नामक प्रतिष्ठापद्धतिने देखीने विधिज्ञ विद्वानो मुंझाइ जाय छे. श्रीचन्द्रसूरिविरचित अतिलघु प्रतिष्ठापद्धतिने अनुसारे कयो चतुर विधिकार पण आजे विधान कराववाने समर्थ थइ शके तेम छे ? वली 'विधिमार्गप्रपा' नामक सामाचारीमा जे लघुप्रतिष्ठापद्धति कहेली छे, ते पण अति संक्षिप्त होवाना कारणे आ विषयमा बहु उपयोगी थइ पडे तेम नथी. श्रीगुणरत्नसूरिकथित प्रतिष्ठापद्धति तेमज श्रीविशालराजशिष्य प्रणीत प्रतिष्ठापद्धति पण आजकाल विधिकारोना व्यवहारमार्गमा प्रचलित नथी. वाचकैः सकलाचन्द्र-निर्मितो विस्तरोर्जितः। प्रतिष्ठाकल्प एषोऽपि, विधिसांकर्यदूषितः ॥८॥ अशुद्धिबहुलश्चापि, न तत्र विदुषां रतिः। प्रार्थयन्ते बुधास्तेन, स्पष्टां विधिपरम्पराम् ॥९॥ मत्वा कारणसद्धावं, ज्ञात्वा प्राचां परम्पराम् । कल्याणविजयेनेयं, क्रियते पद्धतिर्नवा ॥१०॥ भा०टी०-सकलचन्द्रोपाध्यायजीए रचेलो एक सविस्तर Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-खण्डः ] प्रतिष्ठाकल्प आजे अवश्य उपलब्ध थाय छे. छतां ए प्रतिष्ठाकल्पमां पण केलांक विधिविधानो एक बीजामां प्रविष्ट थइने सम्बन्धविहीन थइ गयां छे. वली आ ' प्रतिष्ठाकल्प' बीजी पण घणी अशुद्धिओवालो थइ जवाथी विधिज्ञ विद्वानोनुं एमां मन लागतुं नथी. तेथी तेओ आ विषयनी स्पष्ट विधिपरम्परानी मांगणी करे छे. आ मांगणीना कारणोनी वास्तविकतानुं मनन करीने प्रतिष्ठापद्धतिविषयक प्राचीन परम्पराना ज्ञानपूर्वक पं. कल्याणविजय द्वारा आ नव्य प्रतिष्ठापद्धतिनुं निर्माण कराय छे. ग्रन्थस्वरूपनिर्देश: आयो लक्षणखण्डच, विधिखण्डो द्वितीयकः । साधनाssख्यस्तृतीयश्च, कलिकायां प्रकल्पितः ॥ ११॥ आधे सप्तदशच्छेदा, द्वितीये चैकविंशतिः । अन्त्ये खण्डे परिच्छेदाः, पञ्चैव परिकीर्तिताः ॥१२॥ भा०टी० - कल्याणकलिकामां त्रण खंडोनी कल्पना करेली छे. पहेलो लक्षणखंड, बीजो विधिखंड अने त्रीजो साधनखंड. पहेला लक्षणखंडमां १७ परिच्छेद, बीजा विधिखंडमां २१ परिच्छेद अने त्रीजा साधनखंडमां ५ परिच्छेदो पाडेला छे. प्रथमखण्डपरिच्छेदसूची ૧ भूमि-लक्षणमस्थ्यादि-लक्षणं दिग्विशोधनम् । ४ ૬ चतुर्थे कीलिका-सूत्र-लक्षणं परिकीर्तितम् ॥१३॥ कूर्म - तच्छिलयोर्लक्ष्म, शिलानां लक्षणं तथा । वास्तुममेपमर्मादि-लक्षणं वास्तुमण्डलम् ||१४|| Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર १० १२ ૧ ૧ ૩ प्रासाद-लक्षणं कुम्भ-लक्षणं दण्ड-लक्षणम् । प्रतिमा-लक्षणं परि, -कर-लक्षणमेव च जैनशासनदेवानां, लक्षणं धारणागतिः । ॥१५॥ ૧૪ ૧૫ १७ मुहूर्त - लक्षणं मुद्रा लक्षणं परिकीर्तितम् ||१६|| आद्यखण्डपरिच्छेद - सूचिकेयं निदर्शिता । मध्यखण्डता सूची, निम्नवता परिगीयते ॥१७॥ भा०टी० - पहेला खंडनी विषयसूची नीचे प्रमाणे छेभृमिलक्षण १ शल्योद्वारलक्षण २ दिकसाधन ३ चों कीलिका-सूत्रलक्षण ४ कूर्म तथा कूर्मशिलालक्षण ५ शिलालक्षण ६ वास्तुमपमर्मलक्षण ७ वास्तुमण्डललक्षण ८ प्रासादलक्षण ९ कलशलक्षण १० ध्वजदण्डलक्षण ११ प्रतिमालक्षण १२ परिकरलक्षण १३ जैनशासनदेवलक्षण १४ धारणागतिलक्षण १५ मुहूर्तलक्षण १६ मुद्रालक्षण १७ आ प्रमाणे पहेला खंडना परिच्छेदनी सूचीनो निर्देश कर्यो, हवे मध्यखंडनी विषयसूची नीचे तेना अधिकारमां कहेवाशे. १. भूमि - लक्षण भूमिं सुलक्षणां ज्ञात्वा तत्र वास्तुं निवेशयेत् । येन कारक कर्तॄणां भवेदुदयसिद्धये ||१८|| [ कल्याण- कलिका भा०टी० - उत्तम सुलाक्षणिक भूमि जाणीने त्यां वास्तुनो विन्यास करवो के जेथी करनार अने करावनारने अभ्युदयजनक थाय. देवालय बनाववानी इच्छावाला गृहस्थे प्रथम तेने योग्य भूमिनी परीक्षापूर्वक प्राप्ति करवी जोइये. भृमिपरीक्षाना अनेक प्रकारो शास्त्रकारोए वर्णव्या छे. जेमांथी केटलाक सर्वसाधारण उपायो अत्र आपीये छीये. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम - खण्डः ] प्राथमिकदर्शने शुभभूमि- शुभ - जे भूमि समतल होय अथवा तो दक्षिण पश्चिमनी तरफ ऊंची होय, जे मधुरस्वादवाली होय, वर्णमां जे सफेद अने एकवर्णवाली होय, सर्प, नोलियो अथवा उंदर बिलाडी जेवा जातिवैरवाला जीवो ज्यां स्नेहभावधी साथ रहेता होय, ते भूमि उपर प्रहार करवाथी हाथी, घोडा, वीणा, वांसली, समुद्र अने नगाराना शब्द जेवो अवाज अंदरथी आवतो होय, ज्यां सुगंधि पुष्पनां वृक्षो ऊगेला होय, ज्यां बिल्ली, निंब, निर्गुडी, आंबो अने सेवन आदि शुभ वृक्षो ऊगेला होय, ज्यां जल घणुं ऊंतुं होय, फूटेल बर्तनोना ठीब, कांठला, हाडकां, पथरा, उधेड़ना राफडा, कोलसा, सुकायेला वृक्षोनां ठूंठा, भस्म, झीणी रेती के नदीनी वेल जेवी बेल ज्यां न होय ते भूमि सर्व वर्णना मनुष्योना घरो तथा देवमन्दिरोने माटे शुभ जाणवी. अशुभभूमि राखोडी, कोलसा, फुटेल माटीना ठामना ककडा, हाडकां, धाननां फोतरां, केश, विष, पथरा, उंदरनां दरो, उधेइना राफडा, वेकरथी भरपूर होय, अथवा ज्यां खोदवाथी पूर्वोक्त पदार्थों पैकी कोइ पदार्थ नीकळतो होय, जे भूमि खारी होय, बीज के घास ज्यां न ऊगतां होय, फाटनारी, रूखी, सूखी अने नीचेथी पोकल होय, कांटाला अने फलहीन झांखरोवाली, मांसभक्षी पक्षिओनां रहेठाणवाली, कृमिकीटकाकुल, ज्यां वादित्रादिना जेवा अव्यक्त शब्दो संभलाया करता होय अने जे भूमिमां सारी रीते पकावेल भोज्यान्न पाणी जल्दी बगडी जतां होय, ते भूमि कोहने पण निवास योग्य होती नथी. त्यां को घर के देवालयादि बनाववां जोइये नहि. विशेषपरीक्षा उपर्युक्त दार्शनिक परीक्षा उपरान्त भूमिनी विशेष परीक्षा पण Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ [ कल्याण - कलिका होय छे. ब्राह्मणादि वर्णोने अनुसारे केवा प्रकारनी भूमि ग्राह्य अने har प्रकारनी भूमि अग्राह्य होय छे, एनुं शास्त्रोमा विस्तृत वर्णन छे. जेनो सार आ प्रमाणे छे. (१) श्वेत, घृतगंधी अने मधुररसवाली भूमि ब्राह्मण वर्णने निवास योग्य होय छे. (२) राती, लोहित गंधी अने कषायरसवाली भूमि क्षत्रिय वर्णने निवास योग्य गणाय छे. (३) पीळी, तीखा स्वादवाली अने अन्नगंधी भूमि वैश्यने निवास योग्य होय छे. (४) काली, कडवी, निर्गन्धा, अथवा मत्स्यगन्धी भूमि शूद्र वर्णने निवास योग्य गणाय छे. वर्णोचित भूमिपरीक्षाना अन्य प्रकारो परीक्षणीय भूमिमां एक हाथ समचोरस ऊंडो खाडो खोदी तेमां माटीनो काचो घडो मूकवो, घडामां चावलजव आदि धान्य भर, ते उपर माटीनुं काचुं शरावलुं घृतथी भरीने मूकवुं, तेमां धोली, राती, पीली तथा काली ए ४ वाटो, उत्तर, पूर्व, दक्षिण अने पश्चिम संमुख मूकीने संध्या समयमां ते चेतावी दीपक प्रकटाववा, पवन वधारे ओछो न लागे ते माटे आडी त्राटी ऊभी करवी. दीपक बळे त्यां सुधी त्यां ऊभा रही जोवुं. घृत रहे त्यां सुधी चार वाटो बळती रहे तो ते भूमि चारे वर्णने योग्य छे एम जाणवुं अने घी होवा छत उत्तरादि जे दिशानो दीपक बूझाय ते दिशानां वर्णवालाने ते भूमि योग्य नथी, एम जाणवुं. उत्तर दिशाथी ब्राह्मणादि वर्णो अनुक्रमे समजवाना छे. २ परीक्षणीय भूमिमां उपर जणाव्यो तेत्रो खाडो खोदीने तेमां धोळां, रातां, पीळां अने श्यामरंगनां पुष्पो सांजे वेरवां अने सवारमां Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-खण्डः ] जोवां जे जे रंगना पुप्पो सवार सुधी ताजां म्हे ते ते वर्णना मनुष्योने माटे ते भूमि योग्य अने जे जे वर्णनां पुष्पो करमायेला अथवा सकायेला जणाय ते ते वर्ण माटे ते भूमि अयोग्य छे. एम समजवु. बधां पुष्पो ताजां रहे तो बधां वर्णने योग्य अने बघां पुष्पो सूकाय तो बधाने माटे ते भूमि अयोग्य समजवी. वर्णोचित भूमिना उत्तम मध्यम अने कनिष्ठ प्रकारो___ (१) ते भूमिमा एक हाथ समचोरस ऊंडो खाडो खोदीने तेमाथी निकलेली माटी बडे पाछो भरखो. जो माटी वधे तो ते भूमि उत्तम, माटी बधी अंदर समाई जाय तो मध्यम अने ने माटी वडे खाडो पूरो न भराय तो ते भूमि कनिष्ठ प्रकारनी जाणवी. (२) उक्त प्रकारनो खाडो पाणी वडे भरीने त्यांथी १०० पगला दूर जइने पाछा पासे आवीने जोवं, खाडो तेवोज भर्यो जणाय तो उत्तम, एक आंगळ पाणी नीचे : तरे तो मध्यम अने घणां आंगळ पाणी ओछु थइ जाय तो ते भूमि जघन्य प्रकारनी जाणवी. बीज-वापथी भूमिपरिक्षा फालकृष्टेऽथवा देशे, सर्वबीजानि वापयेत् । त्रि-पञ्च-सप्त-रात्रेण, यत्र रोहन्ति तान्यपि ॥१॥ ज्येष्टोत्तमकनिष्ठाभू-वर्जयेदितरां सदा। पञ्चगव्यौषधीजलैः, परीक्षित्वाऽथ सेचयेत् ॥२॥ भा०टी०-अथवा वास्तुभूमिना प्रदेशमां हलवडे खेडीने त्यां बधी जातनां बीजो वाववां, जो त्रण पांच अने सात दिवसमां बीज ऊगी नीकळे तो अनुक्रमे उत्तम मध्यम अने कनिष्ठ प्रकारनी भूमि जाणवी, एटला काले पण जो तेमां बीजांकुर न नीकले तो ते भूमिनो सदा त्याग करवो. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका जलप्लवथी भूमिपरीक्षा पूर्व, ईशान अने उत्तर दिशामां जे भूमिर्नु जल जतुं होय ते भूमि सर्वजातिने माटे सुखदायक होय छे अने वर्ण परत्वे उत्तर, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम--जलवाहिनी भूमि अनुक्रमे ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य अने शूद्रने माटे हितकारिणी होय छे. अग्निकोणप्लवाभूमिमा अग्निभय, दक्षिणप्लवामां वैश्य सिवायनानुं मरण, नैर्ऋत्यप्लवामां चोरभय, पश्चिमप्लवामां शूद्र सिवायनां वर्णोने शोक अने वायव्यप्लवामां धान्यनो नाश थाय छे. आ विषयमा आचार्यवराहमिहिरनी व्यवस्था उदगादिप्लवमिष्टं, विप्रादीनां प्रदक्षिणेनैव । विप्रः सर्वत्र वसेद-नुवर्णमथेष्टमन्येषाम् ।।३।। भाटी-ब्राह्मणादिवोंने माटे अनुक्रमे उत्तर, पूर्व, दक्षिणपश्चिमप्लवभूमि निवासने योग्य होय छे, छतां ब्राह्मण सर्व निवासयोग्य भूमिमां वास करी शके, क्षत्रिय क्षत्रियादि त्रिवर्णोचित भूमिमां, वैश्य वैश्यादि द्विवर्णोचितमां अने शूद्र केवल शूद्रोचित भूमिमांज रही शके. वर्णोचित भूमि ज तेमना देवालयोने पण उचित होय छे. आ विषयमा वराहमिहिरनुं मन्तव्य भूमयो ब्राह्मणादीनां, याः प्रोक्ता वास्तुकर्मणि । ता एव तेषां शस्यन्ते, देवतायतनेष्वपि ॥४॥ भाल्टी-ब्राह्मणादिवर्णोना घरो माटे जे प्रकारनी भूमिओ योग्य कही छे, तेज भूमिओतेमना देवमन्दिरोने माटे पण प्रशस्त जाणवी. योग्य भूमि ज अभ्युदयजनक थाय छे नगरनिवेश, गृहनिवेश के देवालयनिवेश करतां पहेलां तेना स्थान-भूमिनी परीक्षा अवश्य करवी जोइये. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शल्योद्धार-लक्षणम् ] __ जे भूमि समतल समचोरस, लंबचोरस, खाडा खांचा विनानी, मजबूत, स्वच्छ अने निःशल्य होय, ज्यां जेनुं चित्त प्रसन्न थतुं होय तेज भूमि अभ्युदयकारिणी होय छे. त्रिकोण, पंचकोण अने षट्कोणआदि आकारवाली, दिग्मूढ, पोची, उद्वसित अने उद्वेगकारिणीभूमिमां घर के देवमन्दिर बनावनारने शान्ति प्राप्त थती नथी.. २. शल्योद्धार-लक्षण सुलक्षणेऽपि भूभागे, शल्यादिदोषदृषिते । नोदयस्तत्र तेनादौ, शल्यमुद्धियते बुधैः ॥१९॥ भा०टी०-भूमिभाग सुलक्षणवान् होवा छतां ते शल्यादिदोषयुक्त होय तो त्यां वसवाथी अभ्युदय थतो नथी, ते कारणथी विद्वानो प्रथम भूमिगत शल्यनो उद्धार करे छे.. विधिथी भूमिपरिग्रह अने खातविधि कर्या पछी ते वास्तुभूमि सशल्य छे के निःशल्य छे तेनी तपास करवी. शल्यज्ञानना अनेक प्रकारो छे, पण ते सर्वनी चर्चा करवा जतां ए विषय जटिल बनवानो भय छे. एटले मात्र ६ प्रकारो वडे ज शल्यनो विचार करवो योग्य धारिये छीये. (१) वास्तुभूमिमां ६४, ८१ के १०० पदोनी कल्पना करी ते ते पदस्थित चैत्यकारक गृहपतिनी शारीरिक चेष्टाद्वारा, (२) परिगृहीत भूमिमां शियाल, कूतरा आदिना प्रवेश उपरथी, (३) प्रश्नकालमा प्राणियोना शब्दश्रवणद्वारा, (४) अ, क, च, ट, त, प्रमुख प्रश्नोत्तरवर्णोद्वारा, (५) प्रश्नांकद्वारा अने (६) प्रश्नलग्नद्वारा. १ चैत्यकरावनार गृहस्थ परिगृहीत भूमिर्मा वास्तुपूजन आदि कार्यों करतांशुं शुं शारीरिक प्रवृत्तियो-चेष्टाओ करे छे, तेनुं सूत्रधारे Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे खास ध्यान राखवु अने ते उपरथी शल्यनो निर्णय करवो. ते आ रीते १-गृहपति खाज खणवा निमित्ते के स्वाभाविक रीते पोताना जे अंगनो स्पर्श करे वास्तुना ते स्थानमां ते अंगनी ऊंचाइ जेटलं नीचे तेज अंगनुं शल्य छे एम समजवं, जो ते पोताना मस्तकने खंजवालतो जणाय तो एक माथोडुं नीचे वास्तुना ते पदमां मनुष्यना मस्तकनुं हाडकुं सूचित करे छे. बीजा अंगमां खाज आदि विकृति दृष्टिगोचर थाय तो तेटला उंडाणमां वास्तुना ते स्थानमा ते अंगर्नु हाडकुं आदि शल्य होवानो संभव जाणवो. जो बे अंगोमां विकार जणाय तो बे अंगो अने सर्व अंगोनी विकृतिथी सर्व अंगोना अस्थि आदि शल्यो छे, एवो निर्णय करवो. ए सम्बन्धमा गर्गाचार्य- निरूपण प्रश्नकाले गृहपतिः, कस्मिन्नङ्गे समास्थितः। किमङ्ग संस्पृशेधाऽपि, व्याहरेद्वा शुभाशुभम् ॥१॥ विलोक्य स्थपतिः पूर्व, पश्चाच्छल्यं विचारयेत् । शङ्खभेरीमृदङ्गानां, पटहानां च निस्स्वनाः ॥२॥ ध्यक्षतानां पुष्पाणां, फलानां दर्शनानि च । स्पृष्टाङ्गसदृशं शल्यं, तस्य स्थाने विनिर्दिशेत् ॥३॥ निलेवनि तत्र, तदङ्ग ब्रुडते यथा । गृहनाथस्य तत्राधः, शल्यं निःसंशयं वदेत् ॥४॥ भाटी०-प्रश्न समये गृहस्वामी कया अंग उपर ऊभो छे, कया अंगनो स्पर्श करे छे, अथवा शुभाशुभ केवु वचन बोले छे, ते सूत्रधार प्रथम जुए अने पछी शल्यनो विचार करे. जो ते समयमां शंख, नगारा, मृदंग के ढोलनो शब्द कर्णगोचर थाय, अथवा दही, अक्षत, पुष्प के फल दृष्टिगोचर थाय तो शुभदायक छे. प्रायः ते वास्तुभूमिमां शल्यनो अभाव सूचवे छे, पण Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शल्योद्धार-लक्षणम् ] शल्यविषयक प्रश्नकाले गृहस्वामी कोइ अंग विशेषने खंजवालतो के स्पर्श करतो जणाय तो स्पर्शल अंग संबन्धी शल्य ते स्थानमा बतावq. त्यां एटली भूमि खोदवी के जेमां गृहपतिनुं स्पृष्ट अंग डुबी जाय, तेटला नीचेना भूमिगर्भमां शल्य छ, एम निःसंशयपणे कहेवू. बृहत्संहितामां आचार्यवराहमिहिरनुं प्रतिपादनकण्डूयते यदङ्ग, गृहपतिना यत्र वाऽमराहुत्या । अशुभं भवेन्निमित्तं, विकृतिर्वाग्नेः सशल्यं तत् ॥५॥ भा०टी०-वास्तुभूमिमां गृहस्वामी ज्यां ऊभेलो पोताना अंगने खणे, जे पदना देवने आहुति आपतां अशुभ निमित्त दृष्टिगत थाय के अग्नि बुझाई जाय, ते स्थान सशल्य होय छे. (२) खात करवाना पूर्व दिवसे वास्तुभूमिने प्रमार्जीने साफ करी राखवी अने खातना दिवसे जइने जोवी, जो तेमां शशला, शियाल अने कूतरा आदिनो पग पडेलो नजरे पडे तो समजवू के तेमां ते प्राणी, हाडकुं छे. __(३) शल्यविषयक प्रश्नकालमां जो हाथी, घोडा, गाय के गधेडानो शब्द काने पडे तो बोलनार प्राणीनुं शल्य त्यां छे, एम कहेवु अने तेना स्थान तथा ऊंडाणनो निर्णय पूर्वोक्तविधि प्रमाणे गृहपतिनी अंग विकृति उपरथी करवो. ए संबन्धमा गर्गाचार्य कहे छेप्रश्नकाले गजो गौर्वा, तुरगो गर्दभोऽपि वा। यः प्राणी व्याहरेत्तत्र, तद्भवं शल्यमादिशेत् ॥ प्रमाणं तत्र वक्तव्यं, पूर्वोक्तविधिना ततः ॥ ६॥ (४) प्रश्नमां आवेल आदिवर्णों उपरथी शल्य जाणवानी पद्धति अधिक प्रसिद्ध छे, आ पद्धति जेम अधिक व्यापक छे तेम अधिक मतभेदवाली पण छे, आ मतोमांना बधा मतो सामान्य रीते बे भागमां वहेचाय छे. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे विवेकविलास, प्रश्नविद्या अने राजवल्लभ आदि ग्रन्थकारो वास्तुभूमिना ९ भागो पाडीने पूर्वादि मध्यान्त कोठाओमां अनुक्रमे ब. क. च. त. ए. ह. स. प. य. आ नव वर्णोनो न्यास बतावे छे. जो के एमनी वच्चे पण ट-त-अ-ए-च-च-इत्यादि साधारण मतभेदो तो छ ज, छतां आ बधा ग्रन्थकारोनी मान्यतानुं उद्गम स्थान एक छ, एमां शंका नथी. आ मान्यता घणा खरा उत्तर भारतना ग्रन्थोमा प्रतिपादित थयेली छे. निर्वाणकलिका, विश्वकर्मप्रकाश, मुहूर्तमार्तण्डज्योतिर्निबन्धादि कतिपय ग्रन्थोना मते ९ कोष्टकोमा लखवाना वर्णो 'अ-क-च-टत-प-य-श-ह-पया.' आ क्रमथी जणावेल छे. आ मतमा पूर्वादि ८ कोष्टकोमा अनुक्रमे ८ वर्गाक्षरो अने मध्य कोष्टकमां 'ह-प-य' आ त्रण अक्षरो होय छे. आ बन्ने मान्यताने आधारे नीचे एक नकशो आपीये छीये. १ मान्यता विवेकविलास आदिनी अने २ मान्यता निर्वाणकलिका अने ज्योतिर्निबन्धादिनी छे. ऐशानी पौर्वी आग्नेयी (१) प | (२) श (१) बव (२) अ (१) क (२) क (१) व-च उत्तरा (१) य (२) हपय (२) य (१) ए-अ (२) त | (१) त-ट (२) ट (२) प वायवी पश्चिमा नैऋति Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ शल्योद्धार-लक्षणम् ] ___उपर प्रमाणे वास्तुभूमिना ९ भाग पाडी ते प्रत्येकमां लखवाना वर्णों आलेखीने शल्याशल्यनो विचार करवो. ए विषयमा राजवल्लभकार लखे छे.--- "प्रश्नत्रयं चापि गृहाधिपेन, देवस्य वृक्षस्य फलस्य चाऽपि । वाच्यं हि कोष्ठेऽक्षरसंस्थिते च शल्यं विलोक्यं भवनेषु सृष्टया ॥७॥ भा०टी०-शिल्पिए गृहस्वामीना मुखे कोइ पण देव, वृक्ष अने फलनुं नाम कहेवरावq अने ते त्रणे नामोना आद्यअक्षरो ध्यानमा राखी, कोष्टकगत अक्षरोनी साथे मेलवयां. वास्तुभूमिना जे कोष्टकमां बोलेल त्रण नामो पैकीना कोइ पण नामनो आद्यअक्षर मली आवे तो ते कोष्टकना भागमां शल्य जाणी तेने दूर करवु. ज्योतिर्निबन्धमा प्रश्न करवानी रीति नीचे प्रमाणे छेस्मृत्वेष्टदेवतां प्रष्टु-वचनस्याद्यमक्षरम् । गृहीत्वा तु ततः शल्याऽशल्यं सम्यग विचार्यते ॥८॥ भाटी०-पोताना इष्ट देवनुं स्मरण करी, 'गृहपतिए शिल्पिने शल्यविषयक प्रश्न करवो अने शिल्पिए पण स्वेष्ट देवताना स्मरणपूर्वक प्रष्टाना मुखथी नीकळेल वचननो आद्यअक्षर ध्यानमां राखी, नव कोठाओमां लखेल अक्षरोनी साथे मेलवीने शल्य अशल्यनो विचार करवो. प्रश्ननो आद्यअक्षर कोइ कोठामा मली आवे तो ते भूमिभागमां शल्य कहे अने प्रश्नवर्ण कोष्टकोमा न मले तो भूमि शल्यरहित छे, एम कहेवू. प्रश्नवर्णद्वारा शल्यज्ञान अने फल वास्तुभूमिना ९ भाग करी पूछेल प्रश्नवर्ण जो कोष्टकमा मली आवे तो त्यां शल्य छ एम जाण्या पछी ते शल्य कोर्नु छ, केटलुं Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे नीचे छ अने तेनुं फल शुं छे, ए वातोनुं निरूपण घणा ग्रंथोमां कहेलं छ. बधार्नु निरूपण घणे भागे सरखुंज होवाथी अमो प्रश्नविद्यानुं निरूपण नीचे आपीये छीये(ब) विद्ध्यैन्द्रयां बः प्रश्ने, मानुषशल्यं हि साईकरमाने। विद्धाति मनुजमरणं, तद्भवनस्थं न सन्देहः ॥९॥ ___ भाटी०-प्रश्नमा 'ब' अक्षर होय तो वास्तुभूमिना पूर्वखंडमां दोढ हाथ नीचे मनुष्यनुं शल्य जाणवू. घर अथवा प्रासादमां रहेल ते शल्य मनुष्यनुं (घर स्वामी अथवा प्रासाद करावनारनुं ) मरण निपजावे छे. (क) आग्नेय्यां 'कः' प्रश्ने, खरशल्यं तु करद्वये भवति । कुरुते नृपदण्डभयं, भयमतुलं संस्थितं भवने ॥१०॥ भा०टी०-प्रश्नमां 'क' अक्षर होय तो अग्नि कोणना भागमां बे हाथना ऊंडाणमां गधेडानुं शल्य जाणवू. मकानमा रहेलं ए शल्य राजदण्डनो भय अने बीजो भय उत्पन्न करनार निवडे छे. (च) दक्षिणदिशि 'चः' प्रश्ने, नरशल्यं जायते च कटिमात्रे। जनयति तद् भवनस्थं, मृत्युं गृहनायकस्यैव ॥११॥ भा०टी०-प्रश्नमा 'च' अक्षर होय तो वास्तुभूमिना दक्षिणखंडमां केड सुधी नीचे पुरुषतुं शल्य होय छे. घरमा रहेलं ते शल्य गृहस्वामीनुं मरण निपजावे छे. (त)राक्षसदिशि 'त' प्रश्ने, खरशल्यं साईहस्तमात्रेतु। तद् भवनगतं नित्यं, करोति डिम्भक्षयं नियतम् ॥१२॥ भा टी०-प्रश्नमां 'त' अक्षर आवे तो नैऋत्य कोणना भूमिभागमा दोढ हाथ नीचे गधेडानुं शल्य कहे. घरमा रहेलं ते शल्य त्यां रहेनारनां बालकोनो नाश करनारं थाय छे. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शल्योद्धार-लक्षणम् ] (अ.ए) वारुण्यां शिशुशल्यं 'अ' प्रश्ने भवतिसार्द्धहस्तेन । पत्युः प्रवासमनिशं, शून्यं च करोति तद् गेहम् ॥१३॥ भा० टी०-प्रश्नमा 'अ' अक्षर होय तो पश्चिम तरफना भूमिखण्डमां दोढ हाथ नीचे बालकनुं शल्य होय छे. ते शल्य घरधणीने नित्य प्रवास करावनारं अने घरने शून्य करनारं थाय छे. (ह) वायव्यां 'हः प्रश्ने, तुषमङ्गारसहितं चतुष्करे विद्धि। दुःस्वप्नदर्शनं तद् , मित्रविनाशं च कुर्वीत ॥१४॥ भा० टी०-प्रश्नमा 'ह' अक्षर होय तो वायव्यकोणना भूमिखंडमां चार हाथ नीचे फोतरां अने कोलसा जाणवां. आशल्यो घरमां रहेनारने दुष्टस्वप्न देनारां अने मित्रोनो विनाश करनारां निवडे छे. (स) द्विजशल्यं कौबेयो, दिशि 'स' प्रश्ने भवति कटिमात्रे। धनदमपि तद् गृहस्थं, कुरुतेऽप्यथ निर्धनं शीघ्रम् ॥१५॥ भा० टी०-प्रश्नमा 'स' अक्षर आवे तो ते भूमिनां उत्तर खंडमां केड सुधी नीचे ब्राह्मणना शरीरनुं शल्य होय छे. ते शल्य घरमा रहेनार धनकुबेरने पण थोडा ज समयमां निर्धन बनावी दे छे. (प) ऐशान्यां 'प:' प्रश्ने गोशल्यं विद्धि साईहस्ते तु । भवनगतं तत् कुरुते, गोधननाशं न सन्देहः ॥१६॥ भा टी०-प्रश्नमा 'प' अक्षर होय तो ईशान दिशाना भागमा दोढ हाथ नीचे गायन शल्य होय छे. मकानमा रहेलं ते शल्य घरधणीना गोधननो नाश करे छ एमां संदेह नथी. (य) 'यः' प्रश्ने गृहमध्ये, शल्यं च नरकपालभस्मसमम् । वक्षोमानं कुरुते, कुलक्षयं तद् गृहस्थस्य ॥१७॥ भा० टी०-प्रश्नमां 'य' अक्षर होय तो वास्तुभूमिना मध्य Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे खण्डमां छाती सुधी नीचे माणसना माथानी खोपरी अने भस्मरूप शल्य होय छे. ते शल्य गृहस्वामीना कुलनो नाश करे छे. नव पैकीनो कोइ अक्षर होय तो ज शल्य--- नवाक्षरस्य मध्ये चेत् , प्रश्नस्याद्याक्षरं भवेत् । तदा शल्यं वदेद्विद्वा-नन्यथा शून्यमादिशेत् ॥१८॥ भा० टी०-प्रश्नवचननो आद्यअक्षर पूर्वोक्त ९ अक्षरोमां होय तोज विद्वाने त्यां शल्य कहे. अन्यथा ते भूमिने शल्यरहित कहेवी. नवमा भागना नव भाग प्रश्न वचनथी जे नवमो भाग सशल्य जणाय ते भाग जो घणो म्होटो होय तो तेना फरी ९ भाग करीने पूर्वोक्त प्रकारे शल्यनी तपास करवी, एवं पण विधान छे. "नवभागविभक्तं यद् , गृहक्षेत्रं महद् यदा ! पुनः प्रश्नस्तदा कार्यः, पूर्ववद् विभजेत्तदा ॥१९॥" भा० टी०-नवभागे करेल ते (मशल्य) गृहक्षेत्र जो म्हो? होय तो पूर्व रीतिए ते सशल्य भागना नव भाग करीने शल्यवाला स्थाननो पत्तो लगाडवो. (५) प्रश्नवर्णांक अने प्रश्नमात्रांकद्वारा शल्यज्ञान प्रश्नविद्या प्रश्नाक्षर वाँक अने मात्रांकद्वारा शल्य जाणवानो एक बीजो प्रकार पण जणाव्यो छे, ते आ प्रमाणे अक्षरं द्विगुणं कार्य, मात्रा कार्या चतुर्गुणा। ग्रहैर्भागः समाहत्य, ओजे शल्यं ममे नहि ॥२०॥ भा० टी०---प्रश्नाक्षरना वर्गाकने वमणी अने मात्रांकने चार गुणो करी बन्ने अंकोने एकत्र करी ते अंकराशिने ९थी भांगको, शेष विषमांक (१-३-५-७ ) रहे तो भूमि सशल्य अने समांक रहे तो Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शल्योद्धार - लक्षणम् ] शल्यरहित जाणवी. आ वस्तु नीचेना उदाहरणथी समजाशे. शल्यप्रश्नमां कोइए 'संतरा' फलनुं नाम कां, संतरानो 'स' वर्गनो त्रीजो वर्ण अने एनी 'अं' मात्रा, वर्गनो १५ पंदरमो स्वर होइ, वर्णोंक ३ नो बमणो ६ अने मात्रांक १५ नो चार गुणो ६० थयो. बन्नेने जोडतां थयेल अंक ६६ ने ९ नो भाग आपतां शेष ३ ए विषमांक रह्यो. आथी जणायुं के भूमिमां शल्य छे अने उत्तर दिशाना खण्डमा छे, केमके 'स' नुं स्थान उत्तर खण्ड छे, एज प्रमाणे कोइ पण प्रश्नअक्षरनां वर्णो अने मात्रांक उपरथी शल्य स्थाननो निर्देश करवो. (६) प्रश्न लग्नद्वारा शल्यज्ञानप्रश्नविद्यामां लखे छे , चतुष्कोणं गृहं कल्प्यं, त्रिरावृत्तं लिखेच भम् । यत्र चन्द्र निधिस्तत्र शल्यं यत्र रविर्मतम् ॥ २१ ॥ शुभदृष्टियुतश्चन्द्रो, निधिः प्राप्यः पुरातनः । सूर्येऽप्येवं सदा वाच्यं, चण्डेश्वरनृपोदितम् ॥ २२ ॥ भा० टी० - चोरस घरने चार खूणामां कापी चार भाग करवा. लग्नराशिथी मांडीने त्रण आवृत्तिओथी १२ राशिओ ४ भागोमां लखवी अने जे ग्रह जे राशिमां होय ते ते राशिवाला कोठामां लखवा अने जोवु . शुभयुक्त अने शुभदृष्ट चन्द्र जे कोठामां होय त्यां धन छे एम कहे तथा अशुभयुत अने अशुभदृष्ट सूर्य ज्यां होय त्यां शल्य छे एम कहेवुं. ए विषय नीचेना उदाहरणथी समजी शकाशे , सं. २००३ ना आसो शुदि १० ना दिवसे कोइए पोतानी वास्तुभूमिमां धन अथवा शल्य होवा विषे प्रश्न कर्यो. सूर्योदयात् प्रश्नेष्टकाल ३ घडी ३३ पलनो हतो. एटले वर्तमान लग्न 'तुला आव्युं, चोखंडा घरमां तुलाथी मांडी राशिओ अने ग्रहो लखतां लग्नकुंडली अढारमा पृष्ठनी शरुआतमां आपी छे ते प्रमाणे बनी, 3 - Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे मं. बु. गु. शु. १२ ४ श उपरना लग्ननी ग्रहव्यवस्था आ प्रमाणे छे मकरनो चन्द्र दक्षिणना भागमां पडयो छे. ते उपर बुध, गुरु अने शुक्रनी त्रिपाद दृष्टि छे, पण साथे ज मंगल अने शनि एने पूर्णदृष्टिथी जुए छे एथी वास्तुभूमिमां धन निधान तो नथी. हवे ए वास्तुक्षेत्रमा शल्यनो विचार करीये. सूर्य राहुनी साथे छे अने मंगलथी शनि पूर्णदृष्ट छे. आ स्थिति शल्यनो संभव सूचवे छे अने ते पण दक्षिण दिशाना भागमां होवानो संभव छे. एम छतां सूर्य ए बुध, गुरु अने शुक्रवडे पण त्रिपाददृष्टिए दृष्ट छे, एथी आ भूमिमा शल्यनो निश्चित संभव तो नथी. छतां शंकितस्थानमां शल्यनी तपास करवी योग्य गणाय। प्रश्नलग्नद्वारा धन अथवा शल्य जाणवानी रीति ज्योतिर्निबन्धकारे पण एज आपी छे, छतां एमां भूमिना ४ भाग पाडी राशिओ लखवानी वात नथी, पण प्रचलित लग्नकुंडलीने ग्रहो उपरथी जोवानुं विधान छे. ते आ प्रमाणेयस्मिन् भागे सौम्या, गृहस्य तद्रव्यमादिशेत् तत्र । पापा यस्मिन् भागे, तस्मिन् शल्यं विनिर्देश्यम् ॥२३॥ भा०टी०-कुंडलीना जे दिशाभागमां सौम्यग्रहो पडया होय, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शल्योद्धार-लक्षणम् ] १९ घरना ते दिशाभागमां ग्रहस्वामिक द्रव्य कहेतुं अने जे भागमां पापग्रहोपडया होय, घरना ते दिशाभागमां शल्य कहेवुं. आ ग्रन्थना मते पूर्वोक्त लग्नकुंडली नीचे प्रमाणे बनावीने परिणाम कही शकाय । प्रश्नेष्ट ३-३३ ११ १२ लग्नचक्र शु. गु. मं. बु. ६ सू. ४ श २ रा. आ कुंडलीमा सौम्यग्रहनी स्थिति पूर्वदिशा तेमज उत्तरदिशामां दृष्टिगोचर थाय छे. एटले ए दिशाओमां शल्य तो संभवतुं नथी छताँ द्रव्यनुं अस्तित्व पण संभवित नथी. केमके चन्द्र उपर शनि मंगलनी पूर्ण अने सूर्य राहुनी द्विपाद दृष्टि छे. बुध, गुरु अने शुक्र पण मंगलयुक्त छे अने शनि, राहुद्वारा द्विपाद दृष्टिए दृष्ट छे. एथी जणायुं के पूर्व उत्तर दिशाओमां शल्य नथी, तेम द्रव्य पण नथी. हवे पश्चिम दक्षिण दिशाओनो विचार करीये. सूर्य पूर्वाग्नेयकोणमां छे. शनि दक्षिणमा छे अने राहु पश्चिमनैर्ऋत्य भागमां छे. आ ग्रहस्थिति दक्षिणभागमां शल्यनुं सूचन करे छे. मध्यदक्षिणमां बेठेल शनिने चन्द्र पूर्णदृष्टिथी देखे छे अने बुध गुरु शुक्रनी पण एना उपर एकपाद दृष्टि छे, एथी दक्षिणमां शल्यनो संभव जणातो नथी. राहु उपर मंगलनी पूर्णदृष्टि छे खरी पण साथै ज बुध गुरु शुक्र एने त्रिपाद - ७ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे दृष्टिथी अने चन्द्रमा द्विपाददृष्टिए देखतो होवाथी राहुनी भूमिमां पण शल्य जणातुं नथी. सूर्य पूर्वसमीपवर्ती आग्नेयकोणमा छे अने शनिनी पूर्णदृष्टिमां छे. चन्द्रनी द्विपाद दृष्टि सिवाय बीजा सौम्यग्रहनी एना उपर दृष्टि पण नथी, एटले आग्नेयकोणमां शल्यनी तपास करवी जोइए, एम ए प्रश्नलग्ननी कुंडली उपरथी फलित थाय छे. भूमिगत कोइ पण शल्य हानिकारक छे ए विषयमां बृहत्संहिताकारनी मान्यताधनहानिर्दारुमये, पशुपीडारुग्भयानि चास्थिकृते । लोहमये शस्त्रभयं, कपालकेशेषु मृत्युः स्यात् ॥२४॥ अङ्गारे स्तेनभयं, भस्मनि च विनिर्दिशेत् सदाग्निभयम् । शल्यं हि मर्मसंस्थं, सुवर्णरजतादृतेऽत्यशुभम् ॥२५॥ मर्मण्यमर्मगो वा, रुणद्ध्यर्थाममं तुषसमूहः । अपि नागदन्तको मर्म-संस्थितो दोषकृद् भवति॥२६॥ . भाण्टी०-गृहगत शल्य काष्ठरूप होय तो धनहानि, हाडकारूप होय तो पशुपीडा, रोग अने भयजनक होय छे. लोहरूप शल्यमां शस्त्रभय अने माणसनी खोपरी के बालरूप शल्यमां मृत्यु थाय छे. शल्य कोलसारूप होय तो चोरभय अने भस्मरूप होय तो सदाने माटे अग्निभयजनक होय छे. मर्मस्थानोनी नीचे रहेल सोना रूपा सिवायर्नु कोइ पण शल्य अत्यन्त अशुभ फलदायक होय छे. तुषसमूह (धान्यना फोतरानो ढगलो) मर्मगत होय के अमर्मगत होय पण ते धनप्राप्तिने रोके छे अने मर्मस्थानमा रहेल तो एक खींटी पण दोषदायक निवडे छे. शल्याडार निमित्ते केटलुं ऊंडे खोदबुं जोइए ? जानुमात्रं खनेद् भूमि-मथवा पुरुषोन्मिताम् । अधः पुरुषमात्रात्तु, न शल्यं दोषदं गृहे ॥२७॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक्साधन-लक्षणम् ] जलान्तकस्थितं शल्यं, प्रासादे दोषदं नृणाम् । तस्मात् प्रासादिकी भूमि, खनेद्यावज्जलान्तिकम् ॥२८॥ भा०टी०-गृहनिर्माण करतां भूमिने ढींचण सुधी 'भूमि जो नव्य-पूर्व नहि वसेली होय तो' अथवा तो पुरुष-परिमाण ऊंडी खोदवी, एथी नीचे शल्य होय तो गृहने विषे दोषरूप नथी. प्रासाद 'देवालय 'मां नीचे जलपर्यन्त ऊंडु शल्य होय तो पण बनावनार मनुष्य माटे दोषकारक होय छे. तेथी प्रासादनी भूमि जल नीकले त्यां सुधी खोदीने शल्यने दूर करवू जोइये. माण्डव्यनुं कथन पण एने मलतुंज छ जलान्तं प्रस्तरान्तं वा, पुरुषान्तमथापि वा । क्षेत्रं संशोध्य चोद्धृल, शल्यं सदनमारभेत् ॥२९॥ भा०टी०-जलपर्यन्त, प्रसर (पत्थर) पर्यन्त अथवा पुरुषपरिमित वास्तुक्षेत्रनुं संशोधन करी शाहा होय तो दूर करीने घरना कार्यनो आरम्भ करवो जोइये. उपरना प्रमाणोथी सिद्ध थाय छे के ज्यां घर अथवा देवमन्दिर बनावq होय ते भूमिमुं प्रथम विधिपूर्वक शोधन करी तेमां हाडकुं, लोह, काष्ठ, तुषसमूह, राखोडी अथवा बीजी कोइ अपवित्र वस्तु होय तो ते दूर करावीने ते पछी वास्तुनो पायो भरवो. घर-मकाननी भूमि ४ हाथ सुधी खोदीने शल्य दूर करवू जोइये अने देवालयनी भूमि जल नीकले त्यां सुधीमां शल्य होय तो पण दूर करवू. जो नीचे पत्थर अथवा कांकरील भूमि आवी जाय तो ते उपरथी पायो नाखवो, कारणके त्यां जलपर्यन्त खोदवानी आवश्यकता रहेती नथी. ३. दिक्साधन-लक्षण शल्यादिरहिते वास्तौ, यदि दिग्मूढता भवेत् । वासे तत्र शुभं नैव, तस्माद् दिक्साधनं वरम् ॥२०॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भाटी०-शल्यादिरहित वास्तुभूमिमां पण जो दिग्मूढपणुं होय तो त्यां वसवू शुभदायक नथी, माटे दिक्साधन करवू जोइये. प्रासाद, मठ, मन्दिर, घर, सभागृह अने कुण्ड आदिना निर्माणमा पूर्वादि दिशाशुद्धि अवश्य जोवी जोइए. कोइ पण दिग्मूढ (दिशाशून्य) वास्तु शुभ गणातुं नथी. तेमां रहेनारनो अभ्युदय थतो नथी. ए संबन्धमां वृद्ध नारदजी कहे छे प्रासादे सदनेऽलिन्दे, द्वारे कुण्डे विशेषतः। दिग्मूढे कुलनाशः स्यात् , तस्मात्संसाधयेद्दिशः ॥१॥ __ भा०टी०-देवालय, घर, ओसरी, द्वार अने कुंड जो दिग्मूढ होय तो कुलनो नाश थाय छे, माटे सारी रीते दिशासाधन करवू. दिशाज्ञानना उपायो प्राचीन ग्रन्थोमां पूर्वादि दिशाओने जाणवाना अनेक उपायोर्नु वर्णन कयु छे, जे पैकीना केटलाक नीचे प्रमाणे छे. राजवल्लभकार लखे छेप्राची मेषतुलारवावुदयति स्याद् वैष्णवे वह्निभे, चित्रास्वातिभमध्यगा हि गदिता प्राची वुधैः पञ्चधा। प्रासादं भवनं करोति नगरं दिग्मूढमर्थक्षयं, हम्य देवगृहे पुरे च नितरामायुर्धनं दिग्मुखे ॥२॥ भा०टी०-१ मेपराशि उपर आवीने सूर्य पहेले दिवसे जे दिशाभागमां उदय थाय ते दिशा शुद्ध पूर्वा समजवी. एज प्रमाणे २ तुलाना सूर्यनु उदयस्थान पण शुद्ध पूर्वाज होय छे.' : अहीं सूर्य सायन मेष भने तुलानो समजवो. प्रायः अंग्रेजी ३ जा माहेनानी २१ मी तारीखे सायन मेषनो अने ९ मा महिनानी २४ मी तारीखे सायन तुलानो सूर्य थाय छे. चंडूपंचांगोमां आनी सूचना 'मेषे भानुः' 'तुले भानः' आवा शब्दोमां आपवामां आवे छे. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक्साधन-लक्षणम् ] ३ जे स्थानमा 'श्रवण' नक्षत्रनो उदय थाय अने ४ जे स्थाने 'कृत्तिका' नक्षत्र उदय पामे ते भागो पण शुद्ध पूर्वदिशा होय छे. ५ चित्रा ज्या उदय पामे अने स्वाति ज्यां उदय पामे ते बन्ने स्थानोमां निशान करी ते बेनो मध्यभाग नकी करो. ए मध्यभाग ते शुद्ध पूर्वदिशा छ एम समजी लो. उपर प्रमाणे जाणकारोए पांच प्रकारे पूर्वदिशा ओळखावी छे. दिग्मूढ देवालय, घर अने नगर धनहानि करे छे. शुद्धदिशा संमुख द्वारवाळा महेल देवमन्दिर अने नगर आयुष्य तथा धननी वृद्धि करनारा थाय छे. दिशाज्ञानना प्रकारान्तरोतारे मार्कटिके ध्रुवस्य समतां नीतेऽवलम्बन ते, दीपाग्रेण तदैक्यतश्च कथिता सूत्रेण सौम्या दिशा। शङ्कोर्युग्मगुणे तु मण्डलवरे छापाऽत्र यामद्रयोर्जाता यत्र युतिस्तु शकुंतलतो याम्योत्तरे सुस्फुटे ॥३॥ भा०टी०-(१) ध्रुवमांकडीनो तारो (लघुसप्तर्षिनो ध्रुव तरफनो तारो) अने ध्रुवनो तारो, आ बन्नेने ओळंबे लइने वास्तुभूमिना दक्षिण कांठे राखेल दीपकनी शिखानी साथे मेळवो. पछी ध्रुव अने दीपकशिवानी सीधमां वास्तुक्षेत्रमा दक्षिणोत्तर लांबु सूत्र खेची रेखा दोरो सूत्रनो सामेनो छेडो उत्तर अने दीपक तरफनो छेडो दक्षिण दिशाने जणावशे. __(२) वास्तुक्षेत्रना मध्यभागे समतल भूमिमा एक गजनुं गोळ मण्डल बनावी तेमां वच्चे एक फुट लांबो सीधो शंकु ऊभो करो अने तेनी छाया घटती घटती मण्डलनी पश्चिम रेखा उपर ज्यां स्पर्श करे त्यां निशान करोः शंकुने तेज स्थितिमा ऊभो रहेवा दो, ज्यारे जीजा पहोरना समये शंकुछाया मंडलनी पूर्व रेखाने कापीने बहार Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे नीकळे त्यारे त्यां पण निशान करो अने पछी बन्ने निशानो वच्चे लीटी दोरी तेनी उपर दक्षिणोत्तर लंब रेखा दोरो, एटले उत्तर दक्षिण दिशा सिद्ध थशे. स्फुटकरण ग्रन्थन दिशासाधन. ध्रुवओळंबानी रेखामा उत्तर दक्षिण दिशा अने ते रेखाथी थता मत्स्यना मुख अने पुच्छना स्थाने अनुक्रमे पूर्व पश्चिम दिशा सिद्ध थशे. आ विषयनें नीचेना पद्यमा प्रतिपादन छेध्रुवलम्बकरेखाया, रेखान्तः सौम्ययाम्यहरितौ स्तः। तन्मत्स्यपुच्छमुखतः, पश्चिमपूर्वाभिधे विद्यात् ॥४॥ ४. कीलिकासूत्र-लक्षण चतुर्वर्णविभागानां, यद् हितं कीलिकादिकम् । तदेव वेश्म-चैत्यादि-निवेशादौ नियोजयेत् ॥२१॥ भाटी-चार वर्णों पैकीना जे जे वर्णने जे जे प्रकारनी कीलिका (खीली-खूटी) अने सूत्र हितकारक जणावेल छे, ते प्रकारनी कीलिका-सूत्रनो घर तथा चैत्य आदिना प्रारंभमां उपयोग करवो. भूमिना परिग्रह प्रसंगे ग्राह्यभूमिना चार खूणाओमां खीलियो ठोकी सूत्रो बांधीने भूमिनी चतुस्सीमा निश्चित करवा जणाव्यु छे. त्यां ए प्रश्न उपस्थित थवो संभवित छे के ते खीलियो शानी होवी जोइये ? ते लंबाईमां केटली अने आकारमां केवी होवी जोइये? वळी तेमां बांधवानी दोरी केवा प्रकारनी होय तो सारी गणाय ? आ बधी वातोनो शास्त्रमा खुलासो करेल छे. जिज्ञासुगणनी जिज्ञासापूर्ति करवाना हेतुथी अमो तेनो सारांश नीचे आपीये छीये. ए विषयमा सूत्रधारमंडन नीचे प्रमाणे प्रतिपादन करे छे. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीलिकासूत्र-लक्षणम् ] अग्नौ राक्षसवायुशङ्करदिशि स्थाप्याः क्रमाकीलिकाः, अश्वत्थः खदिरः शिरीषककुभौ वृक्षाः क्रमेण द्विजात् । वर्णानां कुशमुञ्जकाशशणजे सूत्रं क्रमात्सत्रणे ॥ भाटी०-अग्निकोण, नैर्ऋत्यकोण, वायव्यकोण अने ईशानकोण आ चार कोणोमां अनुक्रमे खीलियो ठोकवी. ते खीलियो ब्राह्मणादि ४ वर्णना लोकोने माटे अनुक्रमे पीपको, खेर, शरेष अने अर्जुन वृक्षनी होय तो ते उत्तम कही छे अने खीलियोनी वच्चे बांधवानी दोरी डाभनी, मुंजनी, काशनी अने शणनी होय तो ब्राह्मणादि जातियोने माटे श्रेष्ठ गणाय छे. ___ ग्रन्थान्तरमा खेर, अर्जुन, शाल, पींपळ, रक्तचंदन, पलाश, रक्तशाल, विशाल, नीप, करंज, कुटज, वांस अने बिल्ववृक्ष, आ वृक्षो पैकीना कोइ पण एक वृक्षनो शंकु (खीली) बनाववानुं विधान कयु छे. ज्योतिर्निबन्धमा लखे छेचतुर्विशत् त्रयोविंशत् षोडशद्वादशाङ्गुलैः। विप्रादीनां शङ्मानं, स्वर्णवस्त्राद्यलकृतम् ॥१॥ भा०टी०-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अने शूद्रवर्णोंने योग्य खीलियो अनुक्रमे २४-२३-१६-१२ आंगळ लांबी बनाववी अने · सुवर्ण तथा वस्त्रादिवडे ते सुशोभित करवी. खीलियोनो उपरनो एक तृतीयांश चोरस करवो. मध्य तृतीयांश अष्टास्र अने नीचेनो एक तृतीयांश गोळ करी क्रमे पातळो करवो. खीली बेढ के व्रण वगरनी शुभलक्षणयुक्त शुभदिवसे कराववी. सूत्रधारोना सांप्रदायिक टिप्पणमां ब्राह्मणादियोग्य खी लियोनुं मान अनुक्रमे ३२-२८-२४-२० आंगळy बताव्यु छे. ब्राह्मणनी चोखंडी, क्षत्रियनी अष्टास्त्र, वैश्यनी षोडशास्त्र अने Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे शूद्रनी गोळ खीली होवी जोइये. खीली उपर सर्व प्रथम सूत्रधारे घन प्रहार करवो. प्रथम प्रहारे खीली एक चतुर्थांश जेटली जमीनमां उतरे तो ते जमीन उत्तम जाणवी, एक तृतीयांश जेटली अंदर जाय तो मध्यम अने अडधी अंदर उतरी जाय तो वास्तुभूमि कनिष्ठ प्रकारनी जाणवी अने खीली अडधा उपरांत जमीनमां उतरी जाय तो ते भूमि वासने योग्य नथी एयो निर्णय करी लेवो. खीली उपर प्रहार करतां ते सीधी जमीनमां उतरे अथवा पूर्व उत्तर ईशानादि दिशा तरफ जराक नमे तो ते शुभसूचक गणाय छे. ___ खोली ठोकतां ते भागी जाय अथवा वांकी थइने दक्षिणादि अशुभ दिशामां नमी जाय तो अशुष निमित्त जाणीने ते मुहूर्ते भूमिग्रहण करवानू मांडी वाळवू जोइये. दोरडी वर्णानुसार कुशआदिनी बतावी छे, छतां सूतरनी दोरडी सर्ववर्णने माटे उत्तम छे, एवं ग्रंथांतरमां विधान करेलुं छे अने खीलीनी जेम दोरी बांधती वखते पण शुभाशुभ निमित्त ध्यानमा राखQ जोइये. दोरी बांधतां खीली न नमे, दोरी बराबर बंधाई जाय, बांधती वखते मंगलध्वनि अथवा मंगलशब्द काने पडे तो कार्यसिद्धिसूचक शुभनिमित्त समजबुं अने एथी उल्टुं जो दोरी बांधतां खीली ऊखडी जाय के अशुभदिशामां नमी जाय, दोरी तूटी जाय अथवा तत्काल कोइ रुदन आदिनो अशुभ शब्द कर्णगोचर थाय तो निमित्त शुभ नथी, एम जाणी मुहूर्त आगळ उपर राखg. ५. कूर्मशिला-लक्षण (१) यत्र संस्थाप्यते कूर्मः, कर्मरू पयुतापि वा। ब्रह्मस्थाने निवेश्याऽसौ, शिला कूर्मशिला हि सा॥२२॥ __ भा टो०-जे शिला उपर सोना, रूपा अथवा त्रांबानो कूर्म Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ कूर्मशिला-लक्षणम् ] स्थापन कराय अथवा जे शिला उपर कूर्मर्नु रूपक करेल होय अने जे गर्भगृहना मध्यभागे स्थापवामां आवे छे ते शिलाने 'कूर्मशिला' मानेली छे, कूर्मशिलानु मान एक हाथना देवालयनी कूर्मशिला ४ आंगळनी समचोरस करवी अने ते पछी १० हाथ सुधीना देवालयमा प्रतिहाथे २-२ आंगळनी वृद्धि करवी.११ थी २० हाथ सुधी १-१ आंगळ अने २१ थी ५० हाथ सुधी हाथ दीठ अर्ध आंगळनी वृद्धि करवी, अर्थात् १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १० हाथना देवालयनी कूर्मशिलानुं मान ४, ६, ८, १०, १२, १४, १६, १८, २०, २२ आंगळy ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २० हाथना देवालयनी धरणीशिलानुं मान २३-२४-२५-२६-२७-२८-२९-३०-३१-३२ आंगळy अने २१-२२-२३-२४-२५-२६-२७-२८-२९-३० -३१-३२-३३-३४-३५-३६-३७-३८-३९-४०-४१-४२४३-४४-४५-४६-४७-४८-४९-५०-हाथना प्रासादनी कूर्मशिलानुं मान अनुक्रमे ३२।।-३३-३३॥-३४-३४।।३५-३५॥३६-३६॥-३७--३७-३८-३८॥-३९-३९॥-४०-४०।-४१४१।।-४२-४२।।-४३-४३।।-४४-४४-४५-४५//-४६-४६॥ -४७ आंगळy राखg जोइये. पत्थरनी कूर्मशिलानी जाडाइ तेनी लंबाई पहोळाइना श्रीजा भाग जेटली राखवी अने तेना उपर रूपकोनी खोदाइ शिलानी जाडाइथी अर्धी करवी. कूर्मशिला जो इंटनी होय तो तेनी जाडाई पहोळाइथी अर्थी राखवी. शिलानी निचली बाजुना मध्य भागमा कमलनुं रूपक शिलानी जाडाइना आठमा भाग जेटलं खोद. प्रकारान्तरे कूर्मशिलाप्रमाण Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे एकहस्ते तु प्रासादे, शिला वेदाङ्गुला भवेत् । षडङ्गुला द्विहस्ते च, निहस्ते च ग्रहागुला ॥१॥ चतुर्हस्ते च प्रासादे, शिला स्याद् द्वादशाङ्गुला । तृतीयांशोदयः कार्यः, हस्ताये च युगान्तके ॥२॥ वेदोपर्यष्टहस्तान्तं, वृद्धिस्यङ्गुलतो भवेत् । पुनर्थगुलतो वृद्धिः, पञ्चाशद्धस्तकावधि ॥३॥ पादेन चोछितां स्वस्थां, तां कुर्यात् पङ्कजान्विताम् । कर्तृकारापका राजा, प्रजाद्या नन्दते चिरम् ॥४॥ अष्टाङ्गुलोच्छ्रिता स्वस्था, चतुरस्रा करोन्मिता। शैलजा स्वस्थमानोक्ता, इष्टकानां तर्धतः ॥५॥ शैलजे शैलजा कार्या, ऐष्टिके चेष्टिकामयी। तत्पिण्डाग्रे भवे स , शिलापिण्डाष्टमांशकम् ॥६॥ पद्मपत्रयुता चैर., नन्द्यावर्ता सस्वस्तिका । तद्देवायुधसंज्ञा च, पीठबन्धवशानुगा ॥७॥ भा०टी० १ हाथना प्रासादनी आधारशिला-( कूर्मशिला ) ४ आंगळनी होय, २ हाथना प्रासादमां ६ आंगळनी, ३ हाथना प्रासादे ९.शांगळनी अने ४ हाथना प्रासादे पादशिला १२ आंगळनी होय छे. थी ४ हाथ सुधीना प्रासादनी शिला विस्तारना त्रीजा भागे जाडी करवी. चारथी ८ हाथ सुधीना प्रासादनी पादशिलामां प्रति हस्त ३ आंगळनी वृद्धि करवी अने ९ थी५० हाथ सुधीना प्रासादमां प्रति हाथे शिलाना विस्तारमा २-२ आंगळनी वृद्धि करवी. ४ हाथ उपरना प्रासादनी पादशिलानो उच्छ्य (जाडाई ) शिलाना १ चतुर्थांश जेटलो करवो. शिलाने कमलना चिन्हे चिन्हित करवी के जेथी करनार करावनार राजा प्रजा वगेरेने घणा कालपर्यन्त समृद्धिनुं कारण बने. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूर्मशिला - लक्षणम् ] २९ चोरस १ हाथ पादशिलानी ऊंचाइ ८ आंगळनी करवी ते शैलजशिलानुं स्वस्थमान छे अने इंटनी शिलानी जाडाइ पोताना विस्तारथी अर्धा माननी करवी ए एनुं स्वस्थमान छे. पत्थरना प्रासादनी पादशिला पत्थरनी अने इंटना प्रासादनी पादशिला इंटनी करवी. ते शिलानी जाडाइमां जाडाइना अष्टमांशे कमलनो आकार खोदवो, शिला उपर कमल, नन्द्यावर्त अने स्वस्तिक आदिना मांगलिक आकाशे खोदवा अने ते ते दिशाभागनी शिलाओ उपर ते ते दिशाना देवोना आयुधोनां चिन्हो पीठबंधने अनुरूप खोदावा. कूर्मनुं स्वरूप अने मान मध्यशिला उपर प्रतिष्ठाप्य कूर्म सोनानो अथवा रूपानो बनाववो अने तेने रत्न तथा आभूषणोथी अलंकृत करवो. प्रमाणमां कूर्म कूर्म - शिलाना पंचमांश जेटलो करवो ए कूर्मनुं उत्तम मान छे, एवं क्षीरावग्रन्थनुं विधान छे. - वास्तुमंजरी आदि अर्वाचीन ग्रन्थोमां कूर्मनुं परिमाण १ थी १५ हाथ सुधीनां प्रासादोमां प्रतिहस्त अर्ध अंगुल, १६ थी ३१ हाथना प्रासादोमां प्रतिहस्त पाव अंगुल अने ३२ हाथथी ५० हाथ सुधीना प्रासादोमां प्रतिहस्त वे आनी अंगुलना हिसाबे कूर्मना मानमां वृद्धि करी जे आवे तेटलं राखवानुं विधान कयुं छे अने म्होटामां म्होटो कूर्म १४ आंगळनो बताव्यो छे. अपराजितपृच्छामां आ विषयमा कंइक भूल थर होय एम लागे छे, मुद्रित पुस्तकमां" एकहस्ते तु प्रासादे कूर्मः स्याच्चतुरङ्गुलः । " पाठ छे अने " अनेन क्रमयोगेन मन्वङ्गुलः शतार्द्धके । " आमां एक हाथना प्रासादमां ४ आंगळना कूर्मनुं विधान भूल भरेलुं लागे छे तेमज ५० हाथना प्रासादनो कूर्म १४ आंगळनो होवानुं कथन पण अर्वाचीन ग्रन्थोनी साथे मेळ मेळववा खातर • Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० [ कल्याण - कलिका - प्रथमखण्डे संशोधके कर्यु लागे छे. अमारी पासेनी अपराजित पृच्छानी हस्तलिखितप्रतिमां " - " एकहस्ते तु प्रासादे कूर्मश्चार्धाङ्गुलः स्मृतः । एवो पाठ छे अने अन्तमां-" अनेन क्रमयोगेन सप्ताङ्गुलाः शतार्धके ।" 55 ए पाठ स्वीकारीने कूर्मनुं अन्तिम मान ७ आंगळनुं बतान्युं छे, ए मध्यमान छे, आ मानने चतुर्थीशहीन करवाथी कनिष्ठमान आवे छे अने चतुर्थांशाधिक करवाथी उत्तममान आवे छे. क्षीरार्णवमां कूर्मनुं उत्तममान शिलाना पंचमांश जेटलं बतान्युं छे, ५० हाथना प्रासादोनी कूर्मशिलानुं मान ४७ आंगळनुं छे, तो एनो पंचमांश ९ || कंडक न्यून साडानव आंगळ आवे छे, अपराजितना अमारा पाठ प्रमाणे कूर्मनुं चोकस मध्यमान ७||| आवे छे, एने चतुर्थीश युक्त करी उत्तम बनावतां ९॥ = नव आंगळ अग्यार आनी आवे छे, जे क्षीरार्णवना मानने लगभग मळतुं आवे छे. वास्तुमंजरी आदिमां कहेल कूर्ममान निश्चितरूपे १३|| आंगळ आवे छे, आ साडा त्रणथी पोणाचार आंगळनो फरक कोड़ पण अशुद्ध पाठने आभारी छे. कूर्मना उपादानो सोनुं रूपुं अने त्रां आ त्रण धातुओ छे. आ त्रणमांथी शक्ति अनुसारे कोइ पण एक धातुनो कूर्म बनाववो, कूर्मशिलालक्षण (२) ( दाक्षिणात्यपद्धति) - शिल्पशास्त्रोमा लखायेला देशपरक भेदो पण शिल्पिओए ध्यानमा राखवानी घणी आवश्यकता छे. एक देशमां चालति कोइ पण वास्तुकर्मविषयक प्रणाली बीजा देश माटे शास्त्रदृष्टिए ग्राह्य छे के afe वातो निर्णय कर्या पछी ज ते प्रणाली ग्रहण करवी जोइए. ए आज काल घणा गुजराती शिल्पिओ अने तेमनी देखा देखीए Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूर्मशिला लक्षणम् ] केटलाक मारवाडी मिस्त्रीओ पण प्रासादनी कूर्मशिला उपर योगनाल मूकावे छे अने तेने देवी बेठक उपर लावीन छोडे छे, आ पद्धति उत्तरभारतीयशिल्पनी नहि पण दाक्षिणान्य छे. आ प्रणालिका मौलिक केवी छ अन एन अपनावनागओए केवी विकृत करी नांखी छे, ए वस्तुने जणाववा माटे अमो अत्र में लक, पट्टनिन तेना खरा रूपमा आपर्वा योन्य धार्ग ईचे. प्रमाण है युगास्ने तृत्तमानं तु. मानमुत्रं विधाय? तदन्याकृतिगेहानां. तनन्नमंभवभयान ! ८ । मात्वा विधाय मृत्राणि, बंदानं वानमाचरेत् । अथाधारशिलां न्यस्य. गर्ने म्मिन कलहां न्यसेन । पद्मानि कूर्मयुक्तानि, योगनानं ननो पनि । भा०टी०-उक्त मानवाळा चोन्म बास्त्रमा बीजा आकारवाला गृहवास्तुओमां ते वास्तुभृमिना नविन आकारने मृत्रवडे मापीने तेमां चोरस खान कर. ने बाहामां आधारभिला स्थापित करवी. शिला उपर कलश, कलम उपर कमल अने कमल उपर योगनालनो न्यास करवो. आधार शिलानुं मापपीठस्य तारार्धततां तदर्ध-विस्तारयुक्तां प्रकरोतु मन्त्री। वा पादपद्मस्य ततां तदर्ध-तुङ्गामथाधारशिलां सुलग्ने॥१०॥ भावि प्रासादपीठादि-मानेन परिकल्पयेत् । आधाराख्यशिलाकुम्भ-पद्मकूर्मादिमानकम् ॥११॥ भा०टी०-" सारा लग्नमां शिल्पिए आधारशिला तैयार करवी. आधारशिलानी लंबाइ, पीठनी ऊंचाइथी अडधी अने पहोलाइ तेथी अडधी राखवी अथवा आधारशिलानी लंबाइ पायाना विस्तार जेटली अने पहोळाइ तेनाथी अडधी राखवी अने तेनी Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे जाडाइ लंबाइना चतुर्थांश जेटली राखवी. वस्तुतः आधारशिला, कलश, कमल अने कूर्म आ सर्वनुं मान भाविप्रासादना पीठ आदिना मानने अनुसारे निश्चित करवू जोइए. कलश, कमल, कूर्म अने योगनालनुं मानस्तम्भोच्चस्य षडंशविस्तृततदष्टांशाधिकोच्छो घटः, पद्मोऽष्टांशसमुच्छ्योच्छ्यनवांशोनप्रथोऽष्टच्छदः । अष्टांशायततद्धिपांशरहितव्यासायता|च्छ्रयः, कूर्मो नागयवाग्रतो द्विगुणमूला योगनालप्रथा ॥ १२ ॥ भा०टी०-प्रासादना स्तंभनी ऊंचाइना छट्ठा भाग जेटलो कलशनो विस्तार अने विस्तारथी एक अष्टमांश अधिक तेनी ऊंचाइ होय छे. कमलनी ऊंचाइ स्तंभनी ऊंचाइना एक अष्टमांश जेटली अने ऊंचाइथी एक नवमांशहीन तेनो विस्तार जाणवो. कमल आठ पत्र अने कर्णिकासहित बनावQ. कूर्मने स्तंभनी ऊंचाइना आठमा भामे लांबो अने तेथी एक अष्टमांशहीन पहोळो अने पहोळाइथी अडधो ऊंचो करवो. योगनालनो विस्तार उपर आठ जवनो एटले एक आंगळनो अने मूलमा तेथी बमणो एटले बे आंगळनो होय छे. आधारशिला उपर कलश आदिनो स्थापनाक्रम आधारस्य शिलामध्ये, निधिकुम्भं शिलाकृतम् । ताम्रजं वाऽथ विन्यस्य, नानारत्नादिपूरितम् ॥१३॥ तदृर्श्वे दृषदम्भोज, कर्णिकायां तदस्य तु। भाविदेवमुखं कूर्म, विन्यसेद् विधिना निशि ॥१४॥ तर्ध्वं रजताम्भोज-गतं रजतकच्छपम् । तर्ध्वदेशे स्वर्णाजे, स्वर्णकूर्म निधापयेत् ॥१५॥ तत्पाददृषदोर्मध्य-समायामं प्रणालकम् । कूर्मस्योपरि संस्थाप्य, कारयेत् गर्तपूरणम् ॥१६॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूर्मशिला - लक्षणम् ] सशर्करैर्वालुकैश्व, मृद्भिश्च दृषदादिभिः । दृढं प्रपूरयेच्छुद्वै-जैलैराप्लाव्य मुद्गरैः ॥१७॥ मुसलैर्बृहच्छिरस्कैस्तु, निहत्य दृढतां नयेत् । गजसंचारणं तत्र, बहुशः कारयेत् पुनः ॥ १८॥ एवं दृढतरं कृत्वा, समीकृत्य जलादिभिः । दिग्ज्ञानप्रक्रियादक्षः, स तत्कर्म समाचरेत् ॥१९॥ भा०टी० - आधारशिलाना मध्यभागमां पत्थरनो अथवा बानो कलश स्थापवो. कलशमां अनेक प्रकारनां रत्नो मूकवा ते कलश उपर पत्थरनुं कमल स्थाप अने तेनी कर्णिकामां भावीदेवनुं मुख जे दिशामां आववानुं होय ते दिशामां मुख राखी पापाणनो कर्म विधिपूर्वक रात्रिना समये प्रतिष्ठित करवो. ते कूर्म उपर रूपानुं कमल स्थापी तेनां मध्यभागे रूपानो कर्म स्थापवो, ते कूर्म उपर सुवर्ण कमल ने कमल उपर सुवर्णनो कच्छप प्रतिष्ठित करवो अने ते उपर योगनालनी स्थापना करवी. योगनालनी लंबाई प्रासादना पायामां स्थापेल वे शिलाओना अन्तर जेटली एटले प्रासादना गर्भना व्यास जेटली राखवी. आम १ कलश, ३ कमल, ३ कूर्म अने १ योगनाल स्थापीने ते खाडो शुद्ध रेती, बजरी, माटी अने पत्थर आदि नाखी उपरथी पाणी नाखी मोगरो अने मुसलो बडे कूटीने मजबूत करतां भरो. उपर अनेक बार हाथीओ चलावीने ते वास्ततलने अति दृढ करं वास्तुभूमिने दृढ अने समतल कर्या पछी दिशाज्ञाननी प्रक्रिया जाणनार चतुर शिल्पिए वास्तुभूमिमां पूर्वादि दिशाओ निश्चित करवानुं काम शरु करने. • ३३ उपर्युक्त कर्मन्यास विधि दाक्षिणात्यपद्धतिना शिल्पशास्त्रोना आधारे लखेल छे. आज काल ते प्रदेशना विद्वानो आ विधियो प्रमाणे ज करावे छे के बीजी रीते ते आपणे जाणता नथी, पण एक पे Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ [ कल्याण-कालका-प्रथमखडे वात तो निश्चित छ के गुजरात तरफना शिल्पिओ कूर्म उपर जे नामि मूकावे छे ते उक्तविधिमांना योगनालनु ज अनुकरण छे. उत्तरभारतनी शिल्पसंहिताओमां आ योगनालन विधान दृष्टिगोचर थतुं नथी. मारवाड तरफना शिल्पिओमां ए पद्धति प्रचलित पण नथी. अपवादरूपे गुजरातमा रही आवेला कोइ शिल्पिओ करावता होय तो ते वात जुदी छे. अमोए सेंकडो वर्षोंना प्राचीन प्रासादोना जीर्णोद्धारोना प्रसंगोमां आ योगनालो कहींथी नीकले छे के नहि एनी तपास करावी छतां कोइ पण प्राचीनदेवालयोना भूमिभागमां आ योगनाल अथवा एने मळती आवे एवी कोइ पण वस्तु नीकळी नथी. आ उपरथी निर्विवादपणे सिद्ध थाय छे के कूर्म उपर नाभि अथवा योगनाल मूकवानी पद्धति आ प्रदेश-गोदावरीथी उत्तर तरफना प्रदेशमाटे विहित न होवाथी चलाववी योग्य नथी एम अमो मानीये छीये। कूर्म प्रमाण एकहस्ते तु प्रासादे, कूर्मश्चार्धाङ्गुलः स्मृतः । अर्धवृद्धिः प्रकर्तव्या, पञ्चदशहस्तावधि ॥२०॥ द्वात्रिंशहस्तपर्यन्तं, पादवृद्धिः प्रकीर्तिता। तदर्धन पुनर्वृद्धि-ढिसप्ताङ्गुलः शताधके ॥२१॥ एतन्मानं मध्यमुक्तं, कनिष्ठं पादवर्जितम् । पादाधिकं भवे ज्येष्ठं, कूर्म मानं त्रिधोदितम् ॥२२॥ हैमो रौप्यश्च कर्तव्यः, सर्वपापप्रणाशनः । करोति य इमं कूर्म, स यज्ञफलमाप्नुयात् ॥२३॥ स्नानं पञ्चामृतं कार्य, कूर्मस्य तु यथाविधि । अर्चयित्वा प्रयत्नेन, सुधूपामोदपुष्पकैः ॥२४॥ तिलैर्यवैस्तथा होम, पूर्णाहुतिं प्रदापयेत् । निवेशयेत्ततः कूर्म, वेदवादित्रमङ्गलैः ॥२५॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिला-लक्षणम् ] मा०टी०-१ हाथना प्रासादे अर्धा आंगळनो कूर्म कह्यो छ, १ थी १५ हाथ सुधी प्रति हाथ अर्धा आंगळनी वृद्धि करवी. १६ थी ३२ हाथ सुधी प्रति हाथे पाव आंगळनी अने ३३ थी ५० हाथ सुधी हाथ दीठ बे आनी आंगळनी वृद्धि करवी. आ प्रमाणे वृद्धि करतां ५० हाथना प्रासादे १४ आंगळनो कूर्म थशे. आ कूर्मनुं मध्यमान कर्तुं छे. आमांथी चतुर्थाशहीन करतां कनिष्ठ अने आमां चतुर्थीश वधारतां कूर्मनुं ज्येष्ठमान थशे. आ प्रकारे कूर्मनुं मान त्रण प्रकारर्नु फयुं छे. सोनानो अथवा रूपानो कूर्म सर्वपापोनो नाश करनारो छे. आवा उत्तम कूमने करावीने प्रतिष्ठित करनार यज्ञना फलने प्राप्त करे छे. कूर्मने प्रतिष्ठित करतां पहेलां विधिपूर्वक पञ्चामृतवडे तेने स्नान करावयु, श्रेष्ठधूप अने सुगंधीपुष्पोथी पूजवो. तथा तल अने जवोना होमनी पूर्णाहुति देवराबवी. शुभ मुहूर्ते वेदध्वनि तथा वादिलोना मांगलिक शब्दपूर्वक कूर्मने वास्तु नीचे स्थापन करवो. ६. शिला-लक्षण चैत्यपादात्मिकाः प्रोक्ताः, शिलाः पञ्चाऽथवा नव । तासां लक्षण-मानादि, निरूप्य स्थापनं शुभम् ॥२३॥ भा०टी०-शिलाओ प्रासादना पगरूपे गणाय छे. संख्यामां ते ५ अथवा तो ९ कही छे. आ शिलाओनुं लक्षण-प्रमाणआदि तपासीने शुभलक्षणान्वित अने मानोपेत शिलाओ स्थापवी शुभ छे. 'शिला' शब्दनो अर्थ कोइ पण घर अथवा देवालयना पायामां चणातो प्रथम पत्थर एवो थाय छे. ए प्रथम पत्थरने विधिपूर्वक शुभ समये यथास्थान स्थापन करवो ते शिलान्यास' छे, 'दाक्षिणात्य शिल्प-पद्धति'मा आ 'शिला'नुं नाम 'प्रथमेष्टका' आपेलुं छे. शिलाओनी संख्या आ शिलाओनी संख्याना विषयमा पूर्वग्रन्थकारोनी एकवाक्यता Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे नथी, कोइ ४, कोइ ५, कोइ ८ अने कोइ ९ शिलाओनी स्थापनानुं विधान करे छे. जेओ ४ अथवा ८ शिलाओनुं विधान करे छे, तेमनो आशय कूर्मने प्रथम नीचे स्थापी पछी वास्तुभूमिनो खाडो शुद्ध माटी अने अणघड पत्थराओ वडे पूरी लगभग एक चतुर्थांश जेटलो ते खाली रहे त्यां चार विदिशाओमा ४ अथवा चार दिशाओ अने चार विदिशाओमा मली ८ शिलाओ प्रतिष्ठित करवी एवो छे. जेओ ५ अथवा ९ शिलाओ प्रतिष्ठित करवानो मत धरावे छे तेमनी मान्यता कूर्मशिलानी साथे ज ४ अथवा ८ शिलाओ पण प्रतिष्ठित करवानो छे. आम शिलासंख्यानी वाचतमा मुख्य पक्ष बे छे ५ शिलावादी अने ९ शिलावादी. चार तथा ५ शिलाओनी बावतमा विश्वकर्मप्रकाशकार नीचे प्रमाणे व्यवस्था आपे छे यो विधिगृहनिर्माणे, शिलान्यासस्य कर्मणि प्रासादेषु स विज्ञेय-श्चतस्रस्तु शिलास्तथा ।। १ ।। भा०टी०-गृहनिर्माणमा शिलान्यासविषयक जे विधि छे, तेज विधि प्रासादो 'देवालयो' मां पण होय छे. मात्र भेद एटलोज होय छे के प्रासादवास्तुमा शिलाओ ८ होय छे. शिलाओगें स्वरूप-. जे शिला विधिपूर्वक प्रतिष्ठित करवानी होय ते देखावडी, रंग रूपमा आंखने सुन्दर लागे एवी, डाघ, अंग, पीलक के कालक विनानी अने जे जातिना पत्थरखें घर अथवा देवालय बनावधानो निर्णय को होय तेज जातिनी अथवा तेथी उच्च जातिनी होवी जोइये. कदापि घर के देवालय इंटोन बनायवु होय तो ' इष्टकारूपशिला स्थापन करी शकाय छे. छतां ते इंट पण सारी पाकेली, राती प्रमाणयुक्त अने सुन्दर होवी जोइये. घाणी जूनी, काळी, काळा डाघ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिला-लक्षणम् ] ३७ वाळी, रेतीवाळी, भागेली, प्रमाणमां न्हानी के म्होटी इंट शिलारूपे स्थापवाना काममा लेवी नहि. शिलानी लंबाई-पहोलाई-जाडाई__ गृहवास्तुना निर्माणमा प्रतिष्ठित कराती शिलानुं परिमाण वर्णपरत्वे भिन्न भिन्न छे. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अने शूद्रना गृहवास्तुनी शिलानी लंबाई अनुक्रमे २१, १७, १३, ९ आंगळनी होय छे, तेनी पहोळाई लंबाईथी अडधी अने जाडाई पहोळाईथी अडधी होवी जोइये. देवालयनी शिला सामान्य रीते एक हाथनी लंबाई पहोळाईनी होवी जोइये. देवालयनी नन्दादि ८ शिलाओ देवालयना मानानुसार तेनी शिलाओगें मान होय छे. देवालयतुं मान १ हाथथी ५० हाथ सुधीर्नु होय छे, तेथी शिलाओगें मान पण तदनुसार भिन्न भिन्न होय छे. तेमां पण नन्दादि ८ शिलाओर्नु मान अने मध्यमां प्रतिष्ठाप्य 'धरणीशिला' नुं मान जुहूं पडे छे. १-२-३-४-५ हाथना देवालयोनी नन्दादि ८ शिलाओ ७-९-११-१३-१५ आंगळना माननी, ६-७-८-९-१० हाथना देवालयनी नन्दादि शिलाओ १६-१७-१८-१९-२० आंगळनी, ११-१२-१३-१४-१५-१६-१७-१८-१९-२० हाथना देवालयोनी शिलाओ २०-२१॥-२२-२३-२३॥-२४॥-२५/-२६ -२६-२७।।-आंगळनी अने २१-२२-२३-२४-२५-२६-२७ -२८-२९-३०-३१-३२-३३-३४-३५-३६-३७-३८-३९-४० -४१-४२-४३-४४-४५-४६-४७-४८-४९ अने ५० हाथना देवालयनी नन्दादिशिलाओ अनुक्रमे २८-२८॥-२९-२९॥-३० -३०॥-३१-३१॥-३२-३२॥-३३-३३॥-३४-३४॥--३५३५॥-३६-३६॥-३७-३७॥-३८-३८-३९-३९॥-४०-४०॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे -४१-४१॥-४२-४२॥-आंगळनी समचोरस बनाववी. आ शिलाओनी जाडाई लंबाई-पहोळाईना एकचतुर्थीश जेटली राखवी जोइये. शिलाओ उपरना चिन्हो__नन्दादि ८ शिलाओ उपर अनुक्रमे शक्ति, दण्ड, खड्ग, पाश, अंकुश, गदा, त्रिशूल अने वज्रना रूपको खोदवां अने कूर्मशिला उपर नीचे प्रमाणे ९ रूपको खोदवा. कूर्मशिलाना मध्यभागे कूर्म, अग्निकोणमा जलतरंग, दक्षिणमा मत्स्य, नैर्ऋत्यमां दर्दुर, पश्चिममा मकर, वायव्य मां ग्राह (ग्रासडो) उत्तरमा शंख, ईशानमां सर्प अने पूर्वदिशामां कलश. आप्रमाणे रूपको खोदीने शिलाने सुशोभित करवी. सामान्यरीते कलश, अंकुश, ध्वज, छत्र, चामर, मत्स्य, तोरण, दूर्वा, नाग, फल, मुकुट, पुष्प, स्वस्तिक, नंद्यावर्त, वेदिका, कूर्म, कमल, चन्द्र, वज्र अने प्राकार आदिना रूपको शिलाओ उपर होय तो हितकारक निवडे छे. ए उपरान्त मनुष्य, वृषभादि पशु. अने अश्व आदिना पदो वडे चिह्नित शिलाओ पण कल्याणनी वृद्धि करनारी होय छे. राक्षस, हरिण अने पक्षी आदिना पदचिन्होवाली शिलाओ अशुभ छे अने वास्तुनी पादप्रतिष्ठामां वर्जवी जोइये. शिलाओना नामोमां मतभेद प्रतिष्ठाप्य शिलाओना नामोमां पण थोडोक मतभेद छे. चार शिलावादियोना मतमां शिलाओना नन्दा, भद्रा, जया अने पूर्णा ए नामो छ अने वासिष्ठी, काश्यपी, भार्गवी तथा आंगिरसी ए एना गोत्रो छे. पांचशिलावादियोना मतमां शिलाओना नामो नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता अने पूर्णा ए प्रमाणे छे, पण प्रतिष्ठाकल्पोमां चोथु नाम 'विजया' लखेलु मले छे. अष्ट शिलापक्षमा शिलाओना नामो क्याइ उपलब्ध थयां नथी. रुतां संभवतः नन्दा, भद्रा, जया, पूर्णा, अजिता, अपराजिता, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा-लक्षणम् ] विजया अने मंगला ए प्रमाणे होवां जोइये. भवशिलापक्षमा आग्नेयपुराणोक्त शिलाओना नामोनन्दा, भद्रा, जया, पूर्णा, अजिता, अपराजिता, विजया, मंगला अने धरणी ए प्रमाणे छे, ज्यारे शिल्पशास्त्रोक्त नामो आ प्रमाणे छेनन्दा भद्रा जया विजया, पूर्णा च पञ्चमी शिला । मङ्गला ह्यजिताऽपरा-जिता च धरणी भवा ॥२॥ शिलां निवेशयेत् पूर्य, पश्चात्पीठस्य बन्धनम् । जवायां शिखरे चैव, वेदिका कलशान्तिके ॥३॥ शिलोपरि समस्तं तत् , जिलाधश्चोपपीठकम् । इति युक्तिर्विधातव्या, शिलानां लक्षणं शुभम् ॥ ४॥ १ नन्दा, २ भद्रा, ३ ज ४ विजया, ५ पूर्णा, ६ मंगला, ७ अजिता, ८ अपराजिता अने, धरणी ए प्रमाणे पादशिलाओनां आ ९ नामो छे. प्रथम शिलान्यास करवो अने प.ते उपर पीठबंध करवो. जंघा, शिखर, वेदी अने कलश आ बधे स्साले प्रथम शिला स्थापीने पछी उपर चणतर करवं. कारण के उपरनुं बधु मंडाण शिला उपर ज होय छे. मात्र उपपीठ ज शिलानी नीचे होय छे. माटे एवी युक्ति करवी के जेथी शिला शुभलक्षणवाली बने. उपशिलाओ उपशिला एटले 'शिलानी नीचे रखाती आधारशिला जेमना मतमां जेटली शिलाओ तेटली ज उपशिलाओ पण होय छे. शिलाओ करतां उपशिलाओ लंबाई पहोळाई अने जाडाईमा कईक वधारे होवी जोइये. तेमना मध्यभागे निधिकलशो स्थापवा माटे खाडा करवा जोइये. खाडा निधिकलशोना प्रमाणानुसार ऊंडा अने लांबा-चोडा करवा. कदापि निधिकलशो उपशिला उपर न Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे थापीने शिलासंपुटो नीचे खाडाओमां स्थापवा होय तो उपशिलाओ उपर खाडा करवानी आवश्यकता रहेती नथी. शास्त्रमा निधिकलशो उपशिलाओ उपर खाडा करीने तेमां स्थापवानुं विधान छे अने उपशिलाओ शिलाना संपुटो नीचेना खाडाओमां स्थापवानुं पण विधान छे. निधिकलशोनी संख्या अने परिमाण निधिकलशोनी संख्या पण उपशिलाओनी जेम शिलाओ जेटली ज छे. ४ शिलावादियोना मतमां निधिकलशो ४, पांचशिलावादियोना मतमां ५ अने नवशिलावादियोना मते निधिकलशो ९ होय छे. ८ शिलावादियोना पक्षमां कलशो केटला होय ए क्याइ लख्यु नथी, छतां एमना मतमां कलशोनी संख्या ४ अथवा ८ नी होवी जोइये. जेओ वास्तुना आग्नेयादि ४ कोणोमां बे बे शिलाओ एक साथे स्थापवानुं विधान करे छे, तेमना मते निधिकलशो ४ अने जेओ पूर्वथी ईशानपर्यन्तनी दिशाविदिशाओमा ८ शिलाओनो न्यास करवानुं कहे छे, तेमना मतमां कलशो ८ ज होइ शके. चारशिलापक्षमा १ पद्म, २ महापद्म, ३ शंख अने ४ सुभद्र आ नामना चार निधिकलशो मान्या छे. पांचशिलापक्षमां कलशोना नामो-१ पद्म, २ महापद्म, ३ शंख, ४ मकर अने ५ सुभद्र ए प्रमाणे छे, पण विश्वकर्मप्रकाशना कथनानुसार आ कलशोना नामो १ पद्म, २ महापद्म, ३ शंकु, ४ विजय अने ५ सर्वतोभद्र ए प्रमाणे छे. आठशिलापक्षमा निधिकलशोनु निरूपण जोवामां आवतुं नथी. नवशिलावादियोना मतमां निधिकलशोनां पौराणिक नामो १ सुभद्र, २ विभद्र, ३ सुनन्द, ४ पुष्पनन्द, ५ जय, ६ विजय, ७ कुंभ, ८ पूर्ण अने ९ उत्तर ए प्रमाणे छे. ज्यारे शिल्पशास्त्रोक्त नामो Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिला-लक्षणम् ] १ पद्म, २ महापद्म, ३ शंख, ४ मकर, ५ कुन्द, ६ नील, ७ कच्छप, ८ मुकुन्द अनं ९ खर्व ए प्रमाणे छे. __ ब्राह्मणादिवर्णपरक निधिकलशोनी ऊंचाई अनुक्रमे ५-२॥११-01--आंगळनी राखवी जोइए. आ कथन गृहविषयक छे. वास्तु राजमहेल होय अथवा देवालय होय तो निधिकलशो एथीये प्रमाणमां म्होटा होइ शके छे. पंचरात्रना मते आवा कलशो विस्तारमा १२ आंगळथी २४ आंगळ सुधीना होइ शके छे. कलश सोनानां, पत्थरनां अने तेना अभावे माटीना सारा आकारवाला अने पाकेला लाल होवा जोइये. कलशोमां घी, पंचरत्न अने अक्षत भरी तेओ उपर पोतानी नाममुद्रा देइ स्थापतां पहेलां बंध करी देवां. कलश धातुना होय तो धांतुना, पत्थरना होय तो पत्थरना अने माटीना होय तो माटीना ढांकणाथी ढांकीने बंध करवा. निधिकलशोने अंगे शास्त्राधार अधःखाते सम्पुटेषु, निधिकुम्भांश्च योजयेत् । पद्मश्चाथ महापद्मः, शवो मकर-कच्छपौ ॥५॥ मुकुन्द-कुन्द-नीलाश्च, खर्वश्च निधयो नव । सुभद्रश्च विभद्रश्च, सुनन्दः पुष्पदन्तकः ॥ ६॥ जयोऽथ विजयश्चैव, कुम्भः पूर्णस्तथोत्तरः। इत्येवं नव कुम्भाश्च, नियोज्यास्तत्र वै क्रमाद ७॥ भाटी०-शिलाओ स्थापवा माले करल खाडाओमां बीजा खाडा करी संपुटोनी नीले निधिकलशो स्थापवा. १ पद्म, २ महापद्म, ३ शेख, ४ मकर, ५ कच्छप, ६ मुकुन्द, ७ कुन्द, ८ नील अने ९ खर्व आ नव निधिओनां नामो छे अने निधिकलशोनां १ सुभद्र, २ विभद्र, ३ सुनन्द, ४ पुष्पदन्त, ५ जय, ६ विजय, ७ कुंभ, ८ पूर्ण अने ९ उत्तर ए नव कलशोनां नामो जाणवां. आ नामना ९ कलशो निधिस्थापनना उपयोगमा लेवा. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ७. वास्तुमर्मोपमर्मादि-लक्षण वास्तुभूमिगता मर्मो, पमर्म-सन्धि-रज्जवः । तासां निरूप्य पातादि, स्तम्भभित्त्यादिकं न्यसेत् ॥२४॥ भा०टी०-वास्तुभूमिमां उत्पन्न थता मर्मो, उपमर्मो, सन्धिओ अने रज्जुओ जोइने ज्या ज्यां मर्मादि न होय त्यां त्यां स्तंभ मित्ति आदिनो न्यास करवो अर्थात् मर्मादि स्थानोमा स्तंभ-भित्ति आदि चणवां नहि. निर्वाणकलिकामां का छे के-"मर्माणि ज्ञात्वाxx मर्माणि परिहृत्य शिला-प्रतिष्ठादिकं विदध्यात्।” अर्थात्-" वास्तुनां मर्मस्थानो जाणीने ते ते टाळीने शिलान्यास आदि कार्यो करवां." आ वचनो वडे देवालयो अने मनुष्योना 'घरो' बनावतां पहेला ते भूमिमां ६४ अने ८१ पदो पाडी तेना मढे जाणीने टाळवानो उपदेश कर्यो छे. पण आजकाल मर्मो टाळवानी प्रवृत्ति सारामां सारा कारीगरोमां पा जोवाती नथी अने एनुं कारण मात्र ए विषयर्नु तेमनुं अज्ञान छे. आ स्थिति सुधरे अने देवालयादिक शुद्ध बने ए भावनाथी मोए ए विपयनुं विवेचन करवू योग्य धार्यु छे. शि शास्त्रमा एने अंगे प्रत्येक ग्रन्थकारे थोई धणुं लख्यु ज छे. एविष मां शास्त्र कहे - शिरा वंशानुवंशाश्व, सन्धयः मानुसन्धयः । मर्माण्यथ महावंशा, लक्ष्या वास्तुशरीरगाः ॥९॥ भा०टी०-शिराओ, वंशो, अनुवंशो, सन्धिओ, अनुसन्धिओ मों अने महावंशो वास्तुना शरीरमां क्या क्या छ, ते जाणी लेवां जोइये. आ श्लोकमा बनावेल ‘शिरा' आदिनुं स्वरूप अने परिमाण आदि आ प्रमाणे छे. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिला-लक्षणम् ] शिराओशिराः कर्णगता याः स्यु-स्ता नाडयः परिकीर्तिताः। पदस्य षोडशो भाग-स्तत्प्रमाणं प्रकीर्तितम् ॥२॥ भा०टी०-कोणगत जे रेखाओ छे. ते 'शिरा' आ नामे ओळखाय छे. आ शिराओना व्यासर्नु परिमाण 'पद' ना सोलमा भाग जेटलं कर्तुं छे. महावंशो महावंशो प्राक्प्रतीच्यौ, याम्योदीच्यौ च मध्यमौ । प्रमाणं पञ्चमो भागः, पदस्योदाहृतं तयोः ।।३।। भा टी०-मध्यनी पूर्व पश्चिम तथा दक्षिण उत्तर लंबी बेबे रेखाओगें नाम 'महावंश' छे. आ महावंशोनो व्यास वास्तुना एक पदना पांचमा भाग जेटलो होय छे. वंशो अने अनुवंशो वंशास्तेऽस्मिन्समुद्दिष्टा, रेखा याः स्युर्मुखायताः। यास्तिर्यगायता रेखा-स्तेऽनुवंशाः प्रकीर्तिताः॥४॥ भा०टी०-मुखनी दिशा तरफ लांबी रेखाओने अहीं 'वंश' कहे छे अने तिर्यक् लांबी रेखाओ ' अनुवंश' ए नामथी प्रसिद्ध छे. मर्म अने उपमर्म संपाता ये स्युरेतेषां, मर्म त-संप्रचक्षते । उपमर्माणि तान्याहुः, पदमध्यानि यानि च ॥५॥ भा०टी०-शिरा, महावंश, वंश अने अनुवंश ए पैकीना बेनो त्रणनो अथवा चारनो ज्यां संपात (संगम ) थाय ते स्थानने 'मर्म' अने ‘पद 'ना जे मध्य भागो छे तेने ' उपमर्म' कहे छे. वंश आदिन विस्तारमान भागोऽष्टमोऽथ दशमो, द्वादशः षोडशोऽपि च । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे पदतो मानमिष्टं स्या-वंशादीनामनुक्रमात् ॥६॥ भा टी--पदना आठमा, दशमा, बारमा अने सोलमा भाग जेटलं वंश, अनुवंश, मर्म अने उपमर्मर्नु अनुक्रमे व्यासमान होय छे. बृहत्संहितोक्त वंश अने शिरानुं व्यासमानपदहस्तसंख्यया संमितानि वंशोऽङ्गुलानि विस्तीर्णः। वंशव्यासोऽध्यर्धः, शिराप्रमाणं विनिर्दिष्टम् ॥७॥ __ भा०टी०-जेटला हाथर्नु पद होय तेटला आंगळनो वंशनो विस्तार होय अने वंशना विस्तारथी शिरानो विस्तार दोढो बताव्यो छे. बृहत्संहिताकार मर्मना परिमाणमां पण प्रस्तुत ग्रंथथी मतभेद धरावे छे. ते आ प्रमाणे तसंपाता नव ये, तान्यतिमर्माणि संप्रदिष्टानि । यश्च पदस्याष्ठांशस्तत्प्रोक्तं मर्मपरिमाणम् ॥८॥ भाटी-ते वंश, अनुवंश, शिरा-रज्जुओना नव संपातो (संगमस्थानो) ने 'अतिमर्म' एटले 'महामम' कह्या छे अने पदना अष्टमांश जेटलं ते 'अतिमर्म'नुं परिमाण कमु छे. उपयुक्त वराहमिहिरन कथन 'महामर्म' विषयक छे. ज्यारे पूर्वोक्त पदनो बारमो भाग 'मर्मपरिमाण' सामान्य मर्मने अंगे छे, एम समजवानुं छे. वास्तुविद्यामां पण 'मम' अने 'महामर्म'मां भेद छे. जेम केअष्टाभिः संगतियंत्र, नाडीरज्जुविमिश्रितः । सूत्रैस्तत्र महामर्म, ब्रह्मस्थानस्य कोणतः ॥१॥ भा०टी०-नाडीरज्जुविमिश्रित आठ सूत्रोनो ज्यां संगम थाय त्यां 'महामर्म' उत्पन्न थाय छे. आ महामर्मस्थान ब्रह्माना चारे कोणोमां होय छे. आ कथन ८१ पदना वास्तुपदने अनुसरीने छे. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिला-लक्षणम् ६४ पदना वास्तुमंडलमां आ महामर्मस्थानो मध्यमां अने चारे दिशाविदिशाओमां होय छे. जुओ६४ पदवास्तुमंडलनो नकशो. (पृ. ४९) ___ ए सिवाय वास्तुपुरुषना मस्तक, मुख, हृदय, बे स्तनो अने नाभि ए छ स्थानोने पण · महामर्म' कह्या छे. जुओ नीचेनो श्लोक मुखे हृदि च नाभौ च, मूनि च स्तनयोस्तथा । मर्माणि वास्तुपुंसोऽस्य, षण महान्ति प्रचक्षते ॥१०॥ भा०टी०-वास्तुपुरुषना मुख, हृदय, नाभि, मस्तक अने बन्ने स्तनो आ ६ स्थानोमा ‘महामर्म' कहे छे. वास्तुविद्यामां वंश, अनुवंश, शिरा-रज्जुना सूत्रोनो विस्तार भिन्नभिन्न वास्तुपदोने अंगे भिन्न भिन्न प्रकारनो बताव्यो छे, जेर्नु विधान नीचे प्रमाणे छे पदस्य गृहकृत्यंशः, सूत्रं स्याद् वेदपष्टिके । एकाशीतिपदेऽौशो, वस्वंशः शतके पदे ॥११॥ सूत्रवेधं तु सर्वेषां, स्तम्भमध्यादिषु त्यजेत् । मर्मादीनि निषिद्धानि, वास्तुकर्मण्यनेकधा ॥१२॥ भा०टी०-६४ पदना वास्तुमां पदनो सोलमो भाग, ८१ पदना वास्तुमा पदनो १२ बारमो अने १०० पदना वास्तुमा पदनो आठमो भाग सूत्रवेध होय छे ते वेध सर्ववास्तुओमां टाळवो. एटले के सूत्रने थोडं पूर्व अथवा उत्तरमा राखीने स्तंभ रोपवो, जेथी वेध न थाय. ए सिवाय वास्तुकर्ममां मम आदि अनेक वस्तुओ वर्जित छे. महामर्मो-उपर कहेवायुं छे के दिशाविदिशामा आठ सूत्रो ज्या मळे छे, त्यां महामर्म उपजे छे. निर्वाणकलिकाकारना मते आ 'महामम' ६४ पदना वास्तुमा १३ अने ८१ पदना वास्तुमा ८ होय छे. ब्रह्माना पदमां ब्रह्मानी चार दिशाओमा ४ अने ब्रह्माना अभ्य. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमस डे न्तर अने कोणोना ४-४ मली ८ तथा सर्व मली १३ महामों निर्वाणकलिकोक्त ६४ पदना वास्तुमां उपजे छे. ब्रह्माना स्थानथी ईशानादि अभ्यन्तर अने बाह्य कोणोमांना ४-४ थइ ८ महामों निर्वाणकलिकाना मते ८१ पदना वास्तुपदमां उपजे छे. मर्मो-पसूत्रो, पंचसूत्रो अने चारसूत्रोना समागम स्थान 'मम' नामथी ओळखाय छे. निर्वाणकलिकाना ६४ पदना वास्तुमां षट्सूत्रसंपातो १२, पंचसूत्रसंपातो ८ अने चतुःसूत्रसंपातो २४ होय छे. आ मर्मोने शास्त्रमा षट्क, पंचक अने चतुष्कना नामोथी उल्लेख्या छे. त्रिसूत्रसंधियोने शिल्पशास्त्रो त्रिक कहे छे अने आनो उपमर्मोमा समावेश करे छे. निर्वाणकलिकाना ६४ पदवास्तुमां आवा उपमर्मो २० होय छे. उपमर्मान्तको-वास्तुविद्यामां बाह्यकोणगत ४ त्रिकोने उपमर्मान्तक ए नामथी उल्लेख्या छे. जे वास्तवमा उपमर्मों ज छे. निर्वाणकलिकाना ६४ पदना वास्तुमां आ उपमर्मान्तको ४ उपजे छे. निर्वाणकलिकोक्त ८१ पदना वास्तुमा 'षट्कमर्मो' २४ छे. पंचकर्मों आमां नथी. 'चतुष्कमर्मों' ३२, उपमर्म त्रिको १६ अने उपमर्मान्तक त्रिको २० होय छे. ए उपरान्त निर्वाणकलिकाना ८१ पदना वास्तुमां ५ 'चतुष्कमर्मों' केवल रज्जुजनित छे. जे अशुभ गणाता नथी. एवं वास्तुविद्यामां कथन छे. देवासनो, द्वारमध्यो अने पद्मध्यो दरेक वास्तुपदना देवासनो तथा द्वारमध्योने मर्म अने पदमध्योने उपमर्म गणवामां आवे छे. पण पदमध्यने षोडशपदवास्तुमा विशेष महत्त्व अपाय छे. कारणके ते वास्तुमा पदमध्यने 'देवासन' गण्डे छे. ए विषयमां नीचेना लोको प्रकाश पाडे छे. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिला-लक्षणम् ] वंशानुवंशसंपाताः, पदमध्यानि यानि च । देवस्थानानि तान्याये, पदषोडशकाश्चिते ॥१३॥ भाण्टी-वंशो, अनुवंशोना संपातो अने पदोना मध्यभागो षोडशपदवास्तुमां 'देवस्थानो' गणाय छे. देवस्थानानि संपाता-श्चतुःषष्टिपदे पुनः । तथैकाशीतिपदके, पदान्तशतिकेपि च ॥१४॥ चतुलपि विभागेषु, शिरा याः स्युश्चतुर्दिशम् । मर्माणि तानि प्रोक्तानि, द्वारमध्यानि यानि च ॥१५॥ भा०टी०-६४ पद ८१ पद अने १०० पदवास्तुमा वंशानुंवंशोना संपातो 'देवस्थानो' गणाय छे. ज्यारे ' द्वारमध्यो' तथा चारे दिशानी शिराओ 'षोडशपद' 'चतुःषष्टिपद ' ' एकाशीतिपद' अने 'शतपद' आ वास्तुपदोमां 'मम' कहेवाय छे. सन्धिओ-"तिस्रो रेखाश्चतुर्दिक्षु, बाह्यस्थाः सन्धयः स्मृताः।" ___अर्थात्-" चारे दिशाओमां बाह्यभागमां मळेली त्रण रेखाओ 'संधि' कहेवाय छे.वाचको ध्यानमा राखे के पूर्वे जे 'त्रिक' नामना 'उपमर्मों' बताव्या छे, तेज आ 'संधिओ' छे. वास्तुविद्याकारे 'एकाशीतिपदवास्तु 'मां आ त्रिकोने 'उपमर्म' अने 'चतुःषष्टिपद 'मां 'संधि' नाम आप्युं छे.. ग्रन्थान्तरमा सन्धि अने मर्म नीचे प्रमाणे वर्णवेल छे द्विरेखासंगमस्थानं, सन्धिरित्यभिधीयते । त्रिरेखासंगमस्थानं, मर्म मर्मविदो विदुः ॥१६॥ भाण्टी-बे रेखाओना मीलनस्थानने 'सन्धि' अने त्रण रेखाओना मीलनस्थानने मर्मज्ञो ‘मर्म' ए नामथी ओळखावे छे. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे लांगलो-वास्तुविद्यामां लांगलर्नु लक्षण नीचे प्रमाणे जणाव्युं छ “अनुवंशद्वयस्याऽपि सन्धिाङ्गलमुच्यते।" भा०टी०-'वे अनुवंशोनी संधि ‘लांगल' कहेवाय छे. ग्रंथान्तरमा संधि अनुसंधिनुं लक्षण नीचे प्रमाणे आप्युं छे वंशाष्टकस्य यः सन्धिः, स सन्धिरिति कीर्तिताः । ये पुनः स्युस्तदङ्गानां, प्रोक्तारते चानुसन्धयः ॥१७॥ वालाग्रतुल्यं सन्धीनां, प्रमाणं समुदीरितम् । यलेनैतानि संत्यज्य, वास्तुविद्याविशारदः। द्रव्याणि प्रयतो नित्यं, स्थपतिर्विनिवेशयेत् ॥१८॥ भाष्टी०--'आठ वंशोना समागमन नाम संधि कहेवाय छे अने तेना अंगोनो 'आठ पैकीना केटलाक वंशादिकनो' समागम ते 'अनुसंधि' होय छ, आ संधियोर्नु परिमाण 'वालान' जेटलं मूक्ष्म का छ, माटे वास्तुविद्यामा प्रवीण स्थपति नित्य प्रयत्नवान् थड ते टाळीने स्तंभादि द्रव्योनो न्यास करे. आ स्थले कंटलीक वस्तु खुलासो मांगे छे. पूर्वे 'त्रिको ने संधि नाम आपी ‘उपमर्म मा गण्युं छे. ज्यारे अहीं समस्त सूत्र. संयोगात्मक महाममने संधि कही एर्नु परिमाण वालाग्रमात्र कहीं एर्नु कारण ए छ के आ ग्रंथकार प्रत्येक वंशरज्जुओना संपातने संधि अने अनुसंधि माने छे. भले ते महामम मम के उपमर्मरूप होय. महामर्मादिनां परिमाणो जे कह्या छे. तेनु ज मध्यगत वालाग्रभाग जेटलुं सूक्ष्म परिमाण महाममरूप अति भयंकर गणीने जुएं बता छे. केमके महाममनो वेध गृहस्वामीने अनि घातक गण्यो छे. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुमर्मोपमर्मादि-लक्षणम् ] श्रीनिर्वाणकलिकोक्तं चतुःषष्ठिपदवास्तुमण्डले मर्मोपमर्मादिचक्रम् th G6656 १ प ७ ७ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे निर्वाणकलिकोक्त ६४ पदवास्तुमंडलमां मर्मोपमर्मादिअंकविवरण समजण संख्या वादि अंक | नाम कर्णसूत्ररजु - कर्णसूत्र | वय - | महामर्म | अष्टसूत्रसंपात । ममें षट्सूत्रसंपात मर्म पंचसूत्रसंपान मर्म चतुःसूत्रसंपात त्रिसूत्रसंपात - - ७ । उपमर्म उपमर्म निर्वाणकलिकामा ७-८ आंकवाला त्रिसूत्रसंपातजनित उपमर्मोने उपमर्मसंज्ञक गणावी तेमनी संख्या २४ वतावी छे. वास्तुविद्यामा ८ नंबरवाला उपमर्मोने ते कोणगत होवाथी उपमर्मान्तक एवी संज्ञा आपी जूदा पाड्या छे. तेथी तेमां त्रिसूत्रसंपातजनित उपमहे २० कह्या छे. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुमर्मोपमर्मादि-लक्षणम् ] श्रीनिर्माणकलिकोक्त पदक्षास्तुमंडलम पनादि 710 - ANN ए ५ ५ ५ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्म उपमर्म | रज्जुजनितचतुः [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे निर्वाणकलिकोक्त ८१ पदवास्तुमंडलमां मर्मोपमर्मादिअंकविवरण अंक नाम | समजण संख्या वादि महामर्म अष्टसूत्रसंपात ८ ! वर्ण्य मर्म षट्सूत्रसंपात चतुःसूत्रसंपात उपमर्म त्रिसूत्रसंपात उपमर्म त्रिसूत्रसंपात निर्दोष । सूत्रसंपात *आ उपमर्मोमां वास्तुविद्यामां कोणोमां आवेला ४ ने उपमर्मान्तक कह्या छे. नोटः-आमां पंचसूत्रजनित मर्म बनता नथी. वास्तुपुरुषनां अंगप्रत्यंगो जेम वंशरज्जुना मर्मों अने सूत्रोनो वेध वर्जित छे तेज प्रमाणे वास्तुभूमिमां वास्तुपुरुषना अंगप्रत्यंगोनो वेध पण वर्जवो जोइये, वास्तुपुरुपनो शयनप्रकार जाणवाथी ज तेनां अंगप्रत्यंगो जाणी शकाय तेम होवाथी प्रथम तेने जणावीये. वास्तुपुरुषना शयनप्रकारो वास्तुपदो ३२ होवा छतां तेनां मुख्य भेदो बे छे. एक विषमपद अने बीजो समपद. १-९-२५-४९-८१-१२१-१६९-२२५ २८९-३६१-४४१-५२९-६२५-७२९-८४१-अने ९६१ पदना आ १६ विषमपक्ष्यास्तुओमां ईशाने मस्तक अने नैर्ऋत्यमा बन्ने पग राखीने वास्तुपुरुष- शयन थयेलुं छे. वायव्यमां अने आग्नेयकोणमा अनुक्रमे एना वामदक्षिण हाथोनी कोमिओ आवेली Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुमर्मोपमर्मादि-लक्षणम् ] छे, एणे बन्ने हाथोनी हथेलिओ पोतानी छाती नीचे दबावेली छे. आम वास्तुपुरुष नीचे मुखे छातीना बळे सूतेलो छे. एना अंग अने प्रत्यंगो उपर नीचे प्रमाणे देवो रहेला छे-- वास्तुपुरुषनां मस्तके 'ईश' जमणा कान उपर 'जय' डाबा कान उपर ‘दिति' जमणा खांधा उपर 'जय' अने डावा खांधा उपर 'अदिति' नी स्थिति छे. वास्तुपुरुषना गळामां 'आप' हृदयमां 'आपवत्स' जमणा स्तन उपर ' मरीचि' अने डाबा स्तन उपर 'धराधर' रहेल छे. वास्तु-नाभिना मध्यभागे 'ब्रह्मा' जमणी कुक्षि उपर 'सावित्र' अने डाबी कुक्षि उपर 'रुद्रदास' आरूढ थयेल छे. वास्तुना श्रोणिभाग ( कटिमध्यभाग) उपर इन्द्र अने इन्द्रजय रहेला छे. वास्तुपुरुषना पगोना अंगूठाओ उपर 'पितर' जमणा पगना गुल्फ उपर 'मृग' अने डाबा पगना गुल्फ र 'दौवारिक ' बेठेल छे. वास्तुपुरुषना जमणा हाथनी कोणिना अग्रग उपर 'व्योम' अने डाबी कोणिना अग्रभागे 'नाग' बेठेल छे. वास्तुपुरुषना जमणा ढोंचण उपर 'पावक' अने डाबा ढींचण उपर 'रोग' रहेला छे. वास्तुपुरुपनी जमणी भुजा उपर 'माहेन्द्र, सूर्य, सत्य अने भृश' ए चार अने डाबी भुजा उपर “मुख्य, भल्लाट, सोम अने शेष ए चार देवोनो वास छे. जमणा बाहु उपर 'सविता' अने डाबा बाहु उपर 'रुद्र' वसे के. जमणी साथळ उपर 'विवस्वान्' अने डावी साथळ उपर 'मित्र' छे. 'पूषा, वितथ, गृहक्षत, यम, गंधर्व अने भुंग ए ६ देवो जमणा पगनी पिंडी (जांघ) उपर अने 'सुग्रीव, पुष्पदन्त, वरुण, असुर, शोष अने रोग' ए ६ देवो डावा पगनी पिंडी उपर रहेला छे. शिल्पसंहिताओमां विषमपदवास्तुपदोमां वास्तुपुरुषतुं शयन अने तेना अंगो उपरना देवोनां स्थानो उपर प्रमाणे बतावेल छे. ___ दाक्षिणात्यपद्धतिना 'वास्तुविद्या' शिल्पग्रन्थ ए विषयमां Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे केटलोक मतभेद धरावे छे. लगभग बधा शिल्पशास्त्रो वास्तुपुरुषने 'अधोमुख' पडेलो पाने छे. ज्यारे उक्त ग्रंथ तेने 'उत्तान' एटले के चत्तो पडेलो माने छे. आना परिणामे आपणे एना जे जे पदोमां जमणा अंगो मानीये छीये, ते ते पदोमां आ ग्रंथनी मान्यता प्रमाणे डाबा अंगो आवे छे अने डाबाना स्थाने जमणा अंगो आवे छे. ए सिवाय बीजा पण मतभेदो उक्त ग्रंथमां दृष्टिगोचर थाय छे, पण तेनी चर्चानुं आ उपयुक्त स्थल नथी. वर्तमानमां प्राचीन अने आधारभूत मनाता बृहत्संहिता तथा वास्तुराजवल्लभ आग्रंथोमां वास्तुशयनप्रकार नीचे प्रमाणे बतावेलोछे. बृहत्संहिताकारना मत मुजब वास्तुशयनप्रकार. शिल्पी पर्जय जय इन्द्र सूर्य सत्य श तात सत्य भुजंगाअदिति विति बलाबला तथा क्षत | यम नया वृक्षता यम गया ब्रह्मा ब्रह्मा बा . Boomen Relian S www Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुमर्मोपमर्मादि-लक्षणम् ] राजवल्लभना मत मुजब वास्तुशयनप्रकार. - women T जय इन्द्र सूर्य सत्य भृश आकारा आप चत्म सावित्रअनेसविता X असरानाकरुण पर __आ बे चित्रोमा जोतां देवताओना नामोमां थोडोक भेद छे. तेमज अर्यमा, विवस्वान् , मैत्र अने पृथ्वीधरने राजवल्लभमा छ छ पद आपेलां छे. ज्यारे बृहत्संहितामां परिधिमा रहेला जयादि देवोने बे बे पद आपेलां छे, तेथी आकृतिमां थोडोक भेद पडे छे. समपद वास्तुओनी संख्या पण १६ नी छे. ते नीचे प्रमाणे ४-१६-३६-६४-१००-१४४-१९६-२५६-३२४-४०८ - ४८४-५५६-६७६-७८४-९००-अने १०२४ पदवास्तु आ जातिना समपदवास्तुपदोमां वास्तुपुरुषर्नु शयन. पूर्वमां मम्लक उने पश्चिममां पगवालं होय छे. एम दाक्षिणात्यपद्धतिना ग्रंथो ऽभियान Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे करे छे. एना फलितार्थरूपे ज नीचे प्रमाणेना उल्लेखो दृष्टिगोचर थाय छे. जेमके एकाशीतिपदस्येश-दिग्विभागाश्रितं शिरः। माहेन्द्रीसंश्रितं विद्यात् , चतुःषष्टिपदस्य तु ॥११॥ भाटी०-एकाशीतिपदवास्तुमा ईशानमा वास्तुपुरुषर्नु मस्तक रहे छे. ज्यारे चतुःषष्टिपदात्मकवास्तुमा पूर्वदिशामां वास्तुपुरुषर्नु मस्तक रहे छे, एम जाणवू. उत्तरभारतीयशलीना शिल्पग्रंथोमां आ मान्यतानुं निरूपण अमारी नजरे पडयं नथी. नेम उपर जण वेल वास्तुपदोनी संख्या पण ही उत्तरपद्धविना योनां अमने उपलब्ध थइ नथी. अपराजितपृच्छामा मात्र १० वास्तु दोनां नामोनो उल्लेख मळे छे. पाछळना ग्रंथो पंकी वास्तुमंडनआदिमा १ पद थी १००० पद सुधीना वास्तुपदो होवानो निर्देश छ, एक विशेष निरूपण नथी. एथी समपढ़वास्तुमा वान्पुरुपना मस्तकला स्थान विषे उत्तरभारतीयपद्धतिनी भी मान्यता छ, एनो खुलासो मलतो नथी. आवी स्थितिमा आविषयमा अधिक लखg असामयिक गणाशे. निर्वाणकलिकामां आदेशल मर्मपरिज्ञान' ने अंगे अमारे महावंशो, वंशो, अनुवंशो, सिंगो, रज्जुओ, नाडिओ, म अने वास्तुपुरुपना अंगप्रत्यंगोनो परिचय आपको पड्यो छे. निर्वाणकलिकामा जे तिर्यकको रेखाओने 'उर्ध्ववंश' नाम आप्यु छे, तेने बीजा ग्रंथोमां' सिग' कहींने ओळवावी छे. निर्वाणकलिकानी रज्जुओने ग्रंथांतरोमां — अनुवंश' ए नाम आप्युं छे. कोष्टको पाडवा माटे दोरायली उभी आडी रेवाओने 'वंश' अने तिर्य रेखाओने 'नाडि ' ए नामोए उल्लेखी छे. उभी आडी रेखाओ पैकीनी मध्यनी ३-३ रेखाओने ६४ पदवास्तुमां अने २-२ रेखाओने ८१ पदमा ‘महावंशो' तरीके ओळखावेल छे. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुमर्मोपमर्मादि-लक्षणम् ] वंश, रज्जु, सिरा अने मर्मआदिनी उपर स्तंभमध्य अने भित्तिमध्य न आवq जोइये. जो ते प्रमाणे स्तंभमध्यादि आवे तो वेध थयो गणाय छे अने तेनुं फल अशुभ गणाय छे. __'वास्तुविद्या' मां आ वेधोनां फल निम्न प्रकारे जणाव्यां छेमानि वक्त्रे च कण्टे च, हृदये मरणं भवेत् । विद्धे चोरसि हृद्रोगः, पादयोः कलहो भवेत् ॥२०॥ ललाटे भ्रागृहानिः स्यात् , वित्तघ्नोऽङ्गुलिपृष्ठयोः । ऊर्वोमृत्युश्च बन्धूनां, पत्नीनाशश्च वा भवेत् ॥२१॥ गुह्यस्थे सुतनाशः स्यात् "__ भाण्टी०-वास्तुपुरुषना मस्तक, मुख, कंठ अने हृदय आ पैकी कोइनो वेध थतां वास्तुस्वामी, मृत्यु थाय छे. उरस्थलना वेधथी हृदयनो रोग अने चरणोना वेधथी कलह-झगडो थाय छे. ललाटना वेधमां भाइनी हानि, अंगुलि तथा पृष्ठना वेधमां धनहानि थाय छे. उरुवेधमां बंधुओर्नु मरण अथवा स्त्रीन मरण अने गुह्यस्थानना वेधमां पुत्रनो नाश थाय छे. ...............अष्टके गर्भविच्युतिः। पटके च वृद्धिः शक गां, चतुष्के स्वजनक्षयः ॥२२॥ पश्चके व्याधिद्दिष्ट-स्तस्करेभ्यस्त्रिके भयम् । वर्जयेत् कुडयमध्ये च, नाडीरज्ज्वादिसंगमम् ॥२३॥ भान्टी०-'अष्टकमहामर्म 'ना वेधमा गर्भपात 'षट्कमर्म' वेधमां शत्रुवृद्वि 'चतुष्कमर्म' वेधमां स्वजनक्षय 'पंचकमर्म' वेधमां रोगोत्पत्ति अने 'त्रिकउपमर्म' वेधमां चोरोनो भय उत्पन्न थाय छे. माटे भीतना मध्यभागे नाडीरज्ज्वादिनो संगम टाळवो जोइये. गवां नाशः सिरावेधे, वंशवेधे मृतिर्भवेत् । प्रवासः सन्धिवेधे स्यात् , अनुवंशे भयं भवेत् ॥२४॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे त्रिशूले गर्भनाशः स्यात्, लाङ्गले च शिरोरुजा । चतुष्के वाहनोच्छित्तिः, षट्के तु बहुवैरिता || २५ || स्वामिनो मरणं विद्वे, महामर्मणि जायते । उपमर्मणि विहे तु, भ्रातृपुत्रक्षयो भवेत् ॥ २३ ॥ कर्तुर्वशस्य नाशश्च, मर्मवेधे ध्रुवं भवेत् । शास्त्रान्तरनिषिडांश्च दोषान् सर्वान् विवर्जयेत् ॥ २७॥ ५८ 5 भा०टी० - सिराना वेधथी गायोनो नाश, वंशवेघथी मृत्यु, संधिवेधी प्रवास अने अनुवंशना वेधथी भय उपजे छे. त्रिशूलवेधथी गर्भनाश, लांगलवेधथी मस्तकरोग, चतुष्कमर्मवेधथी वाहनविच्छेद, पट्कमर्मवेधथी अतिशत्रुता, महामर्मना वेrथी स्वामीं मरण ने उपमर्मना वेधथी भाइपुत्रोनी हानि थाय छे अने मर्म - aart करावारना वंशनो विच्छेद थाय छे. ए सिवाय शास्त्रान्तरोक्त अनेक प्रकारना दोषो छे जे वास्तुनिर्माणमां वर्जवा जोइये. ८. वास्तुमण्डलविन्यास - लक्षण वास्तुमण्डलविन्यास - लक्षणं लक्ष्मवेदिना । विज्ञाय मण्डलाssलेखः, कार्यो मर्माभिव्यक्तये ॥२५॥ भा०टी० - लक्षण जाणनार विद्वाने वास्तु मण्डल विन्यासं लक्षण जाणीने वास्तुभूमिमां वास्तुमंडलनो आलेख करवो के जेथी वास्तुना मर्मस्थानी स्पष्ट रीते जाणी शकाय. वास्तुभूमि बनतां सुधी चोरस अथवा लंबचोरस लेवी, तेमां कोह खुणो ओछो होय तो ते पूरो करवो, तेमज वत्तो होय तो काढी नांवो अने भूमिने समचोरस या लंबचोरस बनावी लेवी जोइये के जेथी वास्तु निर्दोष बनी शके. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुमण्डलविन्यास-लक्षणम् ] क्षेत्राकृतिर्वास्तुरिहार्चनीयः शास्त्रना आ नियम प्रमाणे वास्तुभूमिनो जेवो आकार हशे तेवोज आकार वास्तुमण्डलनो थशे. वास्तुमण्डल आलेखतां अनुक्रमे ६४ पदमां ९ अने ८१ पदमा १० ऊभी आडी समानान्तर रेखाओ खंचवी. तेमां पूर्वपश्चिमायत रेखाओ पश्चिमथी पूर्व तरफ अने दक्षिणोतरायत रेखाओ दक्षिणथी उत्तर तरफ लइ जवी. जो के वास्तुमण्डल बीजा पण अनेक छे, पण निर्वाणकलिकाकारे प्रासादवास्तु ६४ पदनो अने गृहवास्तु ८१ पदनो पूजवानुं विधान कर्तुं छे. एटले अमो आबे वास्तुमण्डलोनी ज विन्यासविधि अहींयां जणावीशुं. FC 35 ( १ ) प्रासादवास्तुमण्डल प्रासादवास्तुनी भूमिमां पूर्वाग्र उत्तराय ९-९ रेखाओ खचीने तेना ६४ विभागो कोष्टकात्मक करवा. तेना ईशानकोणथी नैऋत्य अने आग्नेयकोणथी वायव्य पर्यन्त तिरछी लीटियो चवी. आ तिर्यक रेखाओ 'ऊर्ध्ववंश' कहेवाय छे. एपछी ४ द्विपदगामी अने ४ षट्पदगामी एम ८ रज्जुओनो मां विन्यास करो. मर्मस्थानो जागी बाह्य अभ्यन्तर कोष्टकोमां नीचे लख्या प्रमाणे देवताओनो विन्यास करवो. ईशानकोणार्धमा 'ईश' लखीने पछीना ६ कोष्टको पैकीना प्रत्येकमां अनुक्रमे 'पर्जन्य, जय, माहेन्द्र, रवि, सत्य, अने भृश ए ६ नामो आलेखवा. " अग्निकोणना वे कोष्टकार्थोमां क्रमशः 'व्योम' अने 'पावक ' लखी ते पछीना ६ कोटकोमां अनुक्रमे 'पूपा, वितथ, गृहक्षत, यम, गन्धर्व अने भृंग' ए ६ देवोनो विन्यास करवो. , Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे नैर्ऋत्यकोणमां कोष्टकना बे भागोमां अनुक्रमे 'मृग' तथा 'पितर' लखी ते पछीना ६ पदोमा क्रमशः 'दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदन्त, वरुण, असुर अने शोष' ए छ देवोनां नामो लखवां वायव्यकोणना कोष्टकना बे विभागोमां 'रोग' अने 'वायु' आ ये नामो लखी ते पछीना ६ कोष्टकोमा 'नाग, मुख्य, भल्लाट, सोम, शेष अने अदिति ए छ नामो आलेखी ईशानकोणना अर्धकोष्टकमां 'दिति' ए प्रमाणे लखवू. मध्यना ४ पदोमा 'ब्रह्मा' ब्रह्मानः ईशानकोणना बे कोष्टकोमा 'आप' अने 'आपवन्स' ब्रह्माथी पूर्वना ६ पदोमां ' मरीचि' ब्रह्माना आग्नेयकोणना बे कोटकोमा 'सविता' अने 'सावित्र' ब्रह्माथी दक्षिण तरफना ६ पदोमां 'विवस्वान्' ब्रह्माथी नैऋत्यकोणना बे स्थानोमां ' इन्द्र ' अने — इन्द्रजय ' ब्रह्माथी पश्चिमना ६ पदोमां 'मित्र' अने ब्रह्माथी वायव्यकोणना २ कोष्टकोमा अनुक्रमे 'रुद्र' तथा 'रुद्रदास' लखीने ब्रह्माथी उत्तर तरफना ६ पदोमां 'धराधर'नो विन्यास करवो. मण्डलनी बहार ईशानकोणमां 'चरकी' पूर्वमां स्कन्दा, आग्नेयकोणमा 'विदारी' दक्षिणमा 'अर्यमा' नैऋत्यमा ' ललना' पश्चिममा ‘जम्मा' वायव्यकोणमा ‘पूतनापापराक्षसी' उत्तरमा 'पिलिपिच्छा' ए नामनी ८ अनुचरी देविओनां नामो लवीने ६४ पदना वास्तुमण्डलनी रचना करवी अने पूजा करवी. १ प्रासादधास्तुसंबन्धी पृष्ट ६१ उपरनो चतुःषष्टिवास्तुमंडलनो नकशो जुओ. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाणकालिकोक्तं ५५५ भास्नुमण्डलम् . चरण पर्जन्य जय माहेन्द्र रवि सत्यं मृत व्योम, पानका पूर्ण आप मरीचि मरीचि मरीचि मरीचि सविता आपकस मरीचि मरीचि साविक मुरम्य मल्लाट मोम | रोष | अदिनि दिति धरा लिलिपिच्छा पर धराधरधारापर वान विवस्वान् विवस्वान विवस्वान अर्यमा पर वितव सहकात यम | गन्धर्ष भृङ्ग नाग bubble besley H y Kay Mave A e ladke nahatai sare susta - जम्मा (२) गृहवास्तुमण्डलगृहवास्तुमा ८१ पदना वास्तुमंडलनी रचना करवी तेमां मध्यभागना ९ पदोमां 'ब्रह्मा' पूर्व, दक्षिण, पश्चिम अने उत्तर तरफना ६-६ पदोमां अनुक्रमे ' मरीचि, विवस्वान् , मित्र अने धराधर' आ ४ देवोनो आलेख करवो. ईशानादि ४ कोणगत १६ कोष्टकोमां आप अने आपवत्सादि ८ अभ्यन्तर देवो बे बे पदमां अने बाह्यप्राकारगत ३२ देवो बाह्यप्राकारगत ३२ पदोमां आलेखवा. वंश अने रज्जु आदि चतुःषष्टिपदमां जणाव्या प्रमाणे लखवा. मंडलबाह्यस्थ अनुचर देविओ पण पूर्वनी पेठेज 'लखवी. आ ८१ पदमंडलमा पूर्वाग्र उत्तराग्र १०-१० रेखाओ खेचीने ८१ विभागो पाडवा अने पदगत देवोने पूजवा. १ चतुःषष्टिपदवास्तुमंडल जुमो. २ पृष्ठ ६२ उपरनो एकाशीतिपदवास्तुमंडल जुमो. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દર [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे चतुःषष्टिपद के एकाशीतिपदनी रचना तो सर्व ग्रन्यकाग एज प्रकारे ९ + ९ अने १० + १० ऊभी आडी रेखाओ चीन बनाववानुं कथन कर्यु छे, छतां वंशो, उपवंशो, रज्जुओ, शिराओ. अने तज्जन्यवेधोने अंगे मतभेदो छे, पण ते सर्वनुं वर्णन करवानुं आ उपयुक्त स्थल नथी तेथी भिन्नभिन्न ग्रन्थोना अभिप्रायदर्शक से चार अन्य नकशाओ आपीने ए परिच्छेदने समाप्त करीये छीये. निर्वाणकलिकानुसारी ६४ पद तथा ८१ पदना नकशाओ पृष्ठ ६१ - ६२ उपर आप्या छे, एज बने नकशाओ बृहत्संहितानुसारे पृष्ठ ६३ अने ६४ उपर आप्या प्रमाणे बने छे. अपराजितपृच्छा अने समरांगणसूत्रधारमा थीये भिन्नता छे, जे नकशाओ उपरथी स्पष्ट जणाशे. २ निर्वाणकलिकोक्त - १ पद, वास्तूमण्डल चरकी पिलिपिच्छा ctur पं दिं । आ भ अ आ-/ आ व व शे ध् सो मु in h Lyhyes व्रा रो धं आ ज् मा ध स्कन्दा ELF ध म म G ध ब्र ब सू स भ ॐ ほ शो असुर व स जम्भा ऋ सा r ब्र भृ ह 14 वि मि मि इ रु रु इ रु.दी रुदा भिं मि मि इ. ज इज मृ पु.द सु द्रों व्या सा वि स वि वि पा विवि गृ po पू विं य गं भृ 124 سول 3 अर्थमा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धास्तुमण्डलविन्यास-लक्षणम् ] ३ बृहत्संहितोन ६४ पदवास्तु पूर्जा P4 ल सविता आप सावित्र ma सो सो पृ55 विव बृक्ष बृक्ष उत्तरा 1108 | भ पृघब्र 5 विव य अहि अहि असुर व पु र सु दौर या शो | असुर व पु.द सु दो पिर पाश्चमा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखडे ॥ वृहत्संहितोक्त ८१ पद वास्तु ।। प|ज | इ सू स भू अं दिनि आ जइ. सू स | भृ सा अदि-अदि आब अ अ अ स वि| भुज भुज पृ-धबबब विव वृक्ष | सो प्रधान बब विव. य भधबबब विव गंध गंध: मु राय मि | मि मि|इ , ।, रुद्र शो| असुव पु.द| सुज उत्तरा दक्षिणा पश्विमा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुमण्डलविन्यास-लक्षणम् ] ८१ पदवास्तुमण्डलं (शिल्पशास्त्रोक्तम् ) ज म यू स / (A ५/ सरितार सावित्री वि विवि वि यक्ष य मं / म पि/ शिल्पशास्त्रोक्त-८१ पदवास्तुमंडलनी समजुतीउपरना चित्रमा लखेला अक्षरोनी व्याख्या नीचे प्रमाणे छ, सि = सिरा - वास्तुक्षेत्रमा सिरा २ होय छे. ना = नाडीवंश , नाडीवंश १६ ,, मवं = महावंश ,, महावंश ४ ,, अवं = अनुवंश , अनुवंश ८, आ सिरा, नाडीवंश, महावंश अने अनुवंशना संपातोयी मर्म महामर्म अने उपमर्म आदि बने छे. वचमां ई-प-ज आदि अक्षरो Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ _[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ईश, पर्जन्य अने जय आदि देवताओना नामोना प्रथमाक्षरो छे. देवताओना संपूर्ण नाम माटे पृ. ६१ उपर आपेल निर्वाणकलिकोक्त ६४ पदवास्तुना नकशामां जोवु. ९. प्रासाद-लक्षण प्रासादलक्षणं साङ्गो-पाङ्गं, ज्ञात्वा सविस्तरम् । प्रासादं कारयेत् शिल्प-चेदिना मार्गवेदिना ॥२६॥ हस्त-लक्ष्मस्वस्तिकादि-वास्तुपदविवेचनम् । आयाद्यङ्गविचारं च, विधाय प्रथमं ततः ॥२७॥ प्रासादाङ्गकलापस्य, निरूपणपुरस्सरम् । प्रासादा मण्डपोपेता, निरूप्यन्ते सुलक्षणाः ॥२८॥ भा०टी०-विस्तारपूर्वक प्रासादर्नु सांगोपांग लक्षण समजीने शिल्पशास्त्र तथा तेना मार्गना जाणकार शिल्पिना हाथे प्रासाद करायवो. हस्तलक्षण, स्वस्तिकादिवास्तुपदोनुं विवरण अने आयव्ययादिअंगोनो विचार प्रथम कर्या पछी प्रासादना जगतीआदि अंग-समुदायना निरूपणपूर्वक उत्तमलक्षणोवाळा प्रासादो अने मण्डपोर्नु आ परिच्छेदमां निरूपण कराय छे. प्रासंगिक शिल्पशास्त्रमा 'प्रासाद' शब्द राजाना महेलो अने देवोना मन्दिरोना अर्थमां प्रयुक्त थयो छे, छतां ए शब्द 'देवालय 'ना अर्थमा विशेष प्रचलित छे. 'राजमहेल' ना अर्थमां एनो प्रयोग प्रायः 'राजप्रासाद' 'नृपतिप्रासाद' इत्यादि राजार्थकशब्दनी साथे ज थाय छे, एथी अमोए आ स्थले देवालयना अर्थमा 'प्रासाद' शब्दनो उपयोग कर्यों छे. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] जो के जैनसूत्रोमा 'प्रासाद' करतां 'चैत्य' शब्दनो ज विशेष प्रयोग थयेलो जोवाय छे. कोशकारोए पण " चैत्यं जिनौकस्तबिम्बं, चैत्यो जिनसभातरुः' इत्यादि वचनोद्वारा जिनगृह, जिनप्रतिमा अने जिननी धर्मसभाना वृक्षना अर्थनो वाचक चैत्य शब्द बतान्यो छे, एटलंज नहि पण शिल्पना ग्रन्थोमांये देवधिष्ण्यं सुरस्थानं, चैत्यमर्चागृहं च तत् । देवतायतनं प्राहु-विषुधागारमित्यपि ॥१॥ इत्यादि देवालयना नामो गणावतां 'चैत्य' शब्दनी तेमां परिगणना करी छे, छतां अमोए 'चैत्य' शब्दनो प्रयोग न करतां 'प्रासाद' शब्दनी पसंदगी करी छे तेनुं मुख्य कारण एज छे के अमो जे ग्रन्थोना प्रमाणोथी आ विषयर्नु निरूपण करवा मांगीये छीये ते ग्रन्थोमा सर्वत्र प्रासाद' शब्दनो ज उल्लेख थयो छे. प्रासादोत्पत्तिनो इतिहासप्रासादोनी उत्पत्तिनो इतिहास घणो जूनो छे. जैन आगमो पैकीना व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) उपासकदशा, आचारांग-नियुक्ति अने आवश्यक-नियुक्ति आदि अनेक मौलिक आगमोमां अशाश्वत (कृत्रिम ) जिन-चैत्योना उल्लेखो मले छे, एटलं ज नहि पण मथुरानो देवनिर्मितस्तूप, तक्षशिलानो धर्मचक्रांकितस्तूप तथा अन्य जैनपूजास्थानो अने विदिशा-भिलसानो रथावर्तगिरिनो स्तूप इत्यादि स्तूपोर्नु अस्तित्व अने त्यो मलता हजारो वर्षपूर्व ब्राह्मी लिपिमां लखायेला अनेक शिलालेखो जैनसूत्रोक्त चैत्यविषयक उल्लेखोनी ऐतिहासिकता सिद्ध करे छे. शिल्पशास्त्रना मौलिक ग्रन्थोमां ते प्रासादोनी उत्पत्तिनो पौराणिक इतिहास पण लखी दीधो छे. आ इतिहास भले आपणे खरो इतिहास न मानीये पण एथी एटलुं तो सिद्ध थाय छ के भारतवर्षतुं Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ [ कल्याण- कलिका - प्रथमान्ते मा प्रासादशिल्प घणुं प्राचीन छे. प्रासादोना नागर, द्राविड अने बेसर ए ऋण कुलो, नागर- लतिनादि १४ जातियो, ए जातियोमांथी प्रारंभमा ५-५ अने २५-२५ उत्पन्न थयेल प्रासादो अने अन्ते घणी स्वरी जातियोना मूल प्रासादोना विकासरूपे तलभेदथी उत्पन्न थयेल चारलाखथी पण अधिक प्रासादोनी संख्या रेखाभेदे उत्पन्न थती एथीये अधिक प्रासाद संख्या बतावे छे के ' प्रासादशिल्प ' ए कांइ बसो पांचसो वर्षोनी वस्तु नथी पण हजारो वर्षोथी चाली आवती ए लौकिक विद्या छे. रोमन शिल्प करतांये प्राचीन भारतवर्षं आ शिल्प भारतना प्राचीन तीर्थों तथा नगरोना खंडेरोमां दृष्टिगोचर थाय छे अने हजारो श्लोकोमा आनुं निरूपण करता संख्याबन्ध प्राचीन ग्रन्थो उपलब्ध थाय छे. मत्रमतं, काश्यपशिल्पम्, शिल्परत्नम्, अपराजित पृच्छा, प्रासादमण्डनम् आदि अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थो छपाइ पण गया है. विषय घणो गहन ने विशाल छे एटले एने सांगोपांग समजावा माटे एक ' प्रकरण ' अथवा ' निबन्ध ' कोइ रीते पर्याप्त मथी पण एक सारो जेवो ग्रन्थ ज आ विजयने समजावी शके. असो प्रस्तुत 'प्रासादलक्षण' मा मात्र तेज वातोनी चर्चा करशुं के जे मनाती कारीगरी उपरांत विधिकारो अने प्रतिष्ठाकारोने पण जाणानो आवश्यकता होय छे. जगती १ शिला २ पीठ ३ मंडोवरो ४ प्रासादोदय ५ शिखर ६ द्वार ७ दृष्टिस्थान ८ स्तंभ ९ गर्भगृह १० आसन ११ शुकनास १२ आमलसारी १३ कलश १४ अने मंड १५ आदि प्रसिद्ध अने उपयोगी प्रासादांगोनो परिचय करावी तेना अंगे थती भूलों दिग्दर्शन करावशुं के जेथी निरीक्षको भूलोना संघ उत्तरदायित्वपूर्ण पोतानो अभिप्राय आपी शके. आजै श्रासादोमां भूलो काढनारा अधिकांश अजाण होय छे अने वास्तविक भूलो न होबा छतां ए विषयमा कंह ने कह हांकी मारीने लोकोने Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद लक्षणम् ] ६९ खोटी भ्रमणामां नांखे छे. आ स्थिति सुधारवाना उद्देशथी ज अमोए 4 प्रासादलक्षण 'ना संबन्धमां कांइक लखवु आवश्यक मान्युं छे. (१) हस्तलक्षण इदानीं तस्य हस्तस्य, सम्यनिश्चयसंयुतम् । कथ्यते त्रिविधस्यापि, लक्षणं शास्त्रदर्शितम् ॥ १॥ tvaष्टकेन वालाग्रं, लिक्षा स्यादष्टभिस्तु तैः । भवेद् यूकाष्टभिस्ताभि-र्यवमध्यं तदष्टकात् ॥२॥ अष्टभिः सप्तभिः षडूभि - रङ्गुलानि यवोदरैः । ज्येष्ठ - मध्य-कनिष्ठानि तच्चतुर्विंशतिः करः ॥ ३॥ भा०टी० - हवे त्रणे प्रकारना हस्तनुं यथार्थ निश्रय सहित शास्त्रमां बतावेल लक्षण कहेवाय छे. ८ रेणुनुं १ वालाग्र, ८ वालाग्रनी १ लिक्षा ( लीख ) ८ लीखनी १ यूका ( जू) ८ जूनुं १ यवमध्य, ८ यवमध्य ७ यवमध्य अने ६ यवमध्यनो अनुक्रमे ज्येष्ठ, मध्य अने कनिष्ठ १ आंगळ अने ते २४ - २४ आंगळोनो अनुक्रमे ज्येष्ठ, मध्य अने कनिष्ठ १ हाथ थाय छे. " यच्च येन भवेद् द्रव्यं, मेयं तदपि कीर्त्यते । यवाष्टकाङ्गुलैः क्लृप्तः, प्रकर्षेणायतः किल ॥|४|| ज्येष्ठो हस्तः स विद्वद्भिः प्रोक्तः प्राशयसंज्ञितः । यः पुनः कल्पितः सप्त - यवक्लसैरिहाङ्गुलैः ॥५॥ तज्ज्ञैः स मध्यमो हस्तः, साधारण इति स्मृतः । मात्रेत्यल्पं यतः प्रोक्तं, हस्तश्च शय उच्यते ॥६॥ सेन मात्राशयः स स्यात्, हस्तो यः षड्यवाङ्गुलः । भा०टी० - जे हाथ वडे जे द्रव्य मपाय छे ते पण कहेवाय छे. ८ यबोबडे करपेला आंगळोनो सहुथी लांबो जे ज्येष्ठ हस्त छे, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे तेने विद्वानोए 'प्राशय ' एवं नाम आपेलुं छे. वली ७ यवो वडे कल्पेला आंगळोना मध्यम हस्तनी शिल्पशास्त्रज्ञोए 'साधारण' एवी संज्ञा पाडी छे ' मात्रा' शब्दनो अर्थ 'थोडु' अने 'शय' शब्दनो अर्थ हस्त थाय छे आथी ६ यवना अंगुलोनो कनिष्ठ हस्त जे साधारण पण कहेवाय छे तेनुं नाम ' मात्राशय' पाडयुं छे. विभागायामविस्ताराः, खेट-ग्राम-पुरादिषु ॥७॥ प्रासाद-वेश्म-परिखा,-द्वार-रथ्या-सभादिषु । मार्गाश्च निर्गमाश्चैषां, सीम-क्षेत्रान्तराणि च ॥८॥ वनोपवनभागाश्च, देशान्तरविभक्तयः। योजन-क्रोश-गव्यूति, प्रमाणमपि चाध्वनः । प्राशयेन प्रमातव्याः, खातक्रकचराशयः ॥९॥ भा०टी०-ग्राम, नगर, खेडा आदिना विभागोनी लंबाइ पहोलाइ, प्रासाद, घर, खाइ, (परिखा) द्वार, शेरी, सभाभवनो, मार्गों अने निर्गमस्थानो आ बधानी सीमानां क्षेत्रान्तरो, वनो अने उपवनोना भागो, देशान्तरना विभागो, योजनो, कोशो, गाउओ अने मार्गोनुं प्रमाण, खात (खाडा) क्रकच (करवत ) अने राशिओ आ बधा 'प्राशयहस्त' वडे मापवा. तलोच्छ्यान् मूलपादान् , जलोद्देशानधः क्षितेः । तथा दोलाम्खुशस्त्रादि-पातमानविनिर्णयम् ॥१०॥ शैल-खात-निकेतानि, सुरङ्गमानमान्तरम् । साधारणेन वाटयध्व-मानं च परिकल्पयेत् ॥११॥ भा०टी०-तलनी ऊंचाइओ, मूलपाया, भूमिनीचेनां जलस्थानो हिंडाला (हिंचका ) जल, शस्त्रपातना प्रमाणनो निर्णय, पर्वत तोडीने बनावेल गुफागृहो, सुरंगनी अंदरनुं माप, वाडीनुं अने मार्गर्नु माप ए बधार्नु माप साधारण (मध्यम) हस्तवडे करवु. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम्। आयुधानि धनुर्दण्डान् , यानं शयन-मासनम् । प्रमाणं कूपवापीनां, गजानां वाजिनां नृणाम् ॥१२॥ अरघट्टेक्षुयन्त्राणि, युगयूपहलानि च । शिल्प्युपस्करनौछन,-ध्वजातोद्यानि यानि च ॥१३॥ बृसी धर्मोपकरण-पटवानादिकं च यत् । नल्वदण्डांस्तथा मात्रा-शयहस्तेन मापयेत् ॥१४॥ भा०टी०-आयुधो, धनुष्य, दण्ड, यान, शयन, ( शय्या) आसन अर्थात् बेसवार्नु उपकरण, कूवा तथा वावडी आदिनुं प्रमाण, हाथी, घोडा अने मनुष्यना शरीरनु प्रमाण, अरहटनां उपकरणो, कोल्हू ( शेलडी पीलवानी घाणी ) धुंसरी, यूप ( यज्ञस्तंभ ) हल, शिल्पिनां उपकरणो, नाव, छत्र, "त्रजा, वादित्रो, खुरसी-बांकडाओ, धार्मिक क्रियाना उपकरणो, वस्त्रन ताकाओ आदि अने नल्व तथा दण्ड आ बधाने ' मात्राशय ' ना. 'क हाथवडे मापवां. भेदत्रयान्वितमपि, प्रोक्तं हस्य लक्षणम् । संज्ञाभेदोऽथ सामान्य-मानानां प्रतिपाद्यते ॥१५॥ भा०टी०-३ भेदवाला हस्तनुं लक्षण कयु. हवे सामान्य मानोनो संज्ञाभेद-परिभाषाओनो भेद कहेवाय छे. स्यादेकमगुलं मात्रा, कला प्रोक्ताङ्गुलद्वयम् । पर्व त्रीण्यङ्गुलान्याहु-र्मुष्टिः स्याच्चतुरनुला ॥१६॥ तलं स्यात् पञ्चभिः षभिः , करे पादेऽङ्गुलैर्भवेत् । सप्तभिदृष्टिरष्टाभिरगुलैस्तुणिरिष्यते ॥१७॥ प्रादेशो नवभिस्तैः स्यात् , शयतालो दशाङ्गुलः। गोकर्ण एकादशभि,-वितस्तिदशाङ्गुला ॥१८॥ चतुर्दशभिरुद्दिष्टः, पादो नाम तथाङ्गुलैः । रत्निः स्यादेकविंशत्या, स्यादरत्निः करोन्मितः ॥१९॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे द्वाचत्वारिंशता किष्कु-रगुलैः परिकीर्तितः । चतुरुत्तरयाऽशीत्या, व्यामः स्यात्पुरुषस्तथा ॥२०॥ षण्णवत्यगुलैश्चापं, भवेन्नाडी युगं तथा। शतं षड्डुत्तरं दण्डो, नल्वस्त्रिंशद्धनुर्मितः ॥२१॥ क्रोशो धनुःसहस्रं तु, गव्यूतं तवयं विदुः । चतुर्गन्यूतमिच्छन्ति, योजनं मानवेदिनः ॥२२॥ भा०टी०-१ आंगळनी १ मात्रा, २ आंगळनी १ कला, ३ आंगळy १ पर्व, ४ आंगळनी १ मुष्टि, ५ आंगळy १ करतल, ६ आंगळy १ पादतल, ७ आंगलनी ? दृष्टि, ८ आंगळनी १ तूणि, ९ आंगळनो १ प्रादेश, १० आंगळनो १ शयताल, ११ आंगळनो १ गोकर्ण, १२ आंगळनी १ वहेत (वितस्ति ) १४ आंगळनो १ पाद, २१ आंगळनी १ रत्नि, २४ आंगळनी १ अरत्नि, ४२ आंगळनो १ किष्कु, ८४ आंगळनो १ वाम अथवा पुरुष, ९६ आंगळनो १ धनुष्य, नाडी अथवा युग (धुंसलं) १०६ आंगळनो १ दण्ड, ३० धनुष्यनो ? नल्ब, १००० धनुष्यनो १ कोश, २ कोशनो १ गाउ अने ४ गाउनो १ योजन थाय एम मानना ज्ञाताओ माने छे. मानपरिभाषा-कोष्टकम् ८ छाया (अणुछाया)=१ अणु, ६ यव१ कनिष्ठांगुल, ८ अणु-१ रेणु, १ अंगुल=१ मात्रा, ८ रेणु-१ केशान, २ अंगुल-१ कला, ८ केशाग्र-१ लिक्षा, ३ अंगुल-१ पर्व, ८ लिक्षा-१ यूका, ४ अंगुल=१ मुष्टि, ८ यका-१ यव, ५ अंगुल-करतल, ८ यव-१ उत्तमांगुल, ६ अंगुल=१ पादतल ७ यव१ मध्यमांगुल, ७ अंगुल १ दृष्टि, Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद - लक्षणम् ] ८ अंगुल = १ तृणि, ९ अंगुल = १ प्रादेश, १० अंगुल = १ शयताल, ११ अंगुल = १ गोकर्ण, १२ अंगुल - १ वितस्ति, १४ अंगुल = १ अनाहपद, २१ अंगुल = १ रत्नि, २४ अंगुल = १ अरत्नि, (२) वास्तुक्षेत्रविचार स्वस्तिकं पुष्पकं नन्दं, षोडशाख्यं चतुर्थकम् । पञ्चमं कुलतिलकं, सुभद्रं षष्टमेव च ||२३|| सप्तमं मरीचिगणं, भद्रकं स्यात्तथाष्टकम् | नवमं कामदं प्रोक्तं, दशमं भद्रमुच्यते ॥ २४ ॥ सर्वतोभद्रनामाख्य, -मत ऊर्ध्वं न विद्यते । वास्तुन्येकादशैव स्युः प्रोक्तानि परमेश्वरैः ||२५|| 3 ४२ अंगुल = १ किष्कु, ८४ अंगुल = १ पुरुष, ९६ अंगुल = १ धनुष्य, १०६ अंगुल = १ दंड, १००० धनुष्य = १ कोश, २ कोश = १ गव्यूति, २ गव्यूति = १ योजन | भा०टी० – परमेश्वरे वास्तुपद ११ प्रकारनां ज कह्यां छे. ए उपरांत कां नथी, ते वास्तुनां नामो अनुक्रमे १ स्वस्तिक २ पुष्पक ३ नन्द ४ पोडश ५ कुलतिलक ६ सुभद्र ७ मरीचिगण ८ भद्रक ९ कामद १० भद्र अने ११ सर्वतोभद्र ए प्रमाणे छे. ७३ स्वस्तिक १ पद, पुष्पक ४ पद, नन्द ९ पद, षोडश १६ पद, कुलतिलक २५ पद, सुभद्र ३६ पद, मरीचिगण ४९ पद, भद्रक ६४ पद, कामद ८१ पद, भद्र १०० पद अने सर्वतोभद्र १००० पदवाळु वास्तु होय छे. २० आ ११ वास्तुओ पैकीनुं भिन्न भिन्न वास्तु भिन्न भिन्न कार्यना प्रसंगे पूजाय छे. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे १ पदस्थापनामां, राजमहेलना प्रारंभमां, लक्ष्मीना भंडारना प्रारंभमां, देवनी आगे चोकी स्थापवामां अने विद्यारंभमां 'स्वस्तिक' नामक वास्तु पूजq. २ दिक्षाना प्रसंगमां, यात्राना प्रारंभमां अने कन्याना लग्न प्रसंगे 'पुष्पक' वास्तुनी पूजा करवी. ३ वनयात्रामा (गृहनिमित्ते काष्ट लेवा जती वखते) 'नन्द' वास्तुनुं पूजन करवु शुभदायक छे. ४ लतिन अने रुचकादि प्रासादोना मंडपोमां घरोमां अने जगतीनी भूमिना आरंभमा 'षोडशपद ' वास्तुनुं पूजन करवू. ५. सूर्यना दक्षिणायन अने उत्तरायण थवाना समये, इन्द्रमहोत्सवना प्रारंभे, लक्ष्मी अने श्रीमाता आदिना यात्रोत्सव प्रसंगे अने दिक्षाओमां 'कुलतिलक' वास्तुनी पूजा करवी. ६ कोइ पण शुभ कामना तथा प्रयाण करवाना प्रसंगे 'सुभद्र' वास्तु पूजq वखाणाय छे. ७ सर्व कारना जीर्णोद्धारना समयमां ' मरीचिगण' नामर्नु वास्तु पूज ८ ग्राम नगर के खेडु नवं वसावतां, कूओ खोदावतां अने राजाओना अभिषेक प्रसंगे 'भद्रक ' वास्तुने पूजq. ९ सर्व प्रकारना घरोना आरंभ अने प्रवेशमां, गजशालाओमां अने अश्वशालाओभा 'कामद' वास्तु पूजवु. १० अनेकविध प्रासादो ( देवमंदिरो) अनेकविध मंडपो अने जगती, लिंग, पीठ, अने राजप्रासादोनी प्रतिष्ठामा ‘भद्र' नामना वास्तुनुं पूजन करवू. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] ७५ १९ मेरुजातिना प्रासादो अने ६ हाथथी म्होटा लिंगोनी प्रतिष्ठाओमां अने म्होटो देश अने नवं राष्ट्र आबाद करवामां सर्वतोभद्र' वास्तुनुं पूजन करवुं. 6 अधस्तात् सर्वतोभद्रात् भद्राख्योपरि वास्तुकम् । मध्ये च द्वाविंशतिभिर्गुणिता पदकल्पना ||२६|| भा०टी० – सर्वतोभद्रयां नीचे अने भद्रवास्तुथी उपर आ २२ वास्तुपदोनी कल्पना पण करी लेवी. षट् क्षेत्राणि प्रवक्ष्यामि, वास्तुपदनिवासिनाम् । संस्थानोन्मानसूत्रं च, वास्तुवेदसमुद्भवम् ||२७|| चतुरस्र-मायतं च वृत्तं वृत्तायतं तथा । अष्टा चार्धचन्द्रं च, वास्तुसूत्रं च षड्विधम् ||२८|| भा०टी० - वास्तुभूमिना ६ क्षेत्रो तेना आकाशे अने मानसूत्रो वास्तुशास्त्रमां जे वर्णित छे ते कहीश. चोरस, लंबचोरस, गोळ, लंबगोळ, अष्टकोण अने अर्धचन्द्राकार आम वास्तुसूत्र छ प्रकारनुं छे. प्रासादेषु गृहाद्येषु, पुरग्राम निवेशने । क्षेत्राणि चतुरस्राणि चतुरस्रं समर्चयेत् ॥ २९ ॥ तथायताश्च प्रासादाः, पुष्पाख्यकुलसंभवाः । यथायतानिक्षेत्राणि, पूजयेच्च तथायतम् ||३०|| वापीकूपक्षेत्रकाणि, वृत्तानि प्रतिमास्तथा । कैलासछन्दोद्भवाश्च सर्वे वृत्ताः प्रकीर्तिताः । ३१ ॥ वृत्तायताश्च मणिका, अष्टशाला अष्टास्रकाः । तडागेषु समस्तेषु, अर्धचन्द्रं प्रपूजयेत् ॥ ३२ ॥ क्षेत्रषटकात्मके वास्तौ, बाणवेदाश्च देवताः । त्रयोदश स्थिता मध्ये, द्वात्रिंशद् बाह्यतस्तथा ||३३|| , Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे सूत्रबाहोऽष्टदेवाश्च, ईशादिषु प्रदक्षिणम् । तासां पदविधिर्नास्ति, केवलं पूजनं स्मृतम् ॥३४॥ भा०टी०-प्रासादोमां, घर आदिमां, पुर तथा ग्रामनी आबादी करवामां चोरस क्षेत्र होइ चोरस वास्तु पूज. पुष्पकजातिना प्रासादो लंबचोरस होय छे, माटे जेवू लंबचोरस प्रासादतल होय तेवूज लंबचोरस वास्तु पूजq. वावडी, कूप, क्षेत्रो, प्रतिमाओ अने कैलासजातिना सर्व प्रासादो ए गोळ क्षेत्रो छे, ए गोळ क्षेत्रोमां गोळ वास्तुनुं पूजन करवू. मणिकजातिना प्रासादो लंबगोळ तलना होइ तेओमां लंबगोळ वास्तु पूजq. अष्टभद्री अने अष्टकोणी प्रासादोमां अष्टास्त्र अने सर्व तलावोमां अर्धचन्द्राकार वास्तु पूजवू. उपर्युक्त छ प्रकारना वास्तुक्षेत्रोमा ४५ देवताओ होय छे. १३ देवता वास्तुपदनी अंदर अने ३२ देवताओ वास्तुसूत्रनी बहार ईशानकोणथी बाह्यभागमा मांडीने ८ दिशाओमां अनुक्रमे ८ देविओ होय छे. आ बाह्यस्थ देविओने माटे पदविधान नथी, पण केवल पूजाविधान ज कहेल छे. वास्तुपददेवता वास्तुपदो सर्व मलीने ३२ प्रकारनां होय छे. १थी १० सुधीनां अनुक्रमे अने ३२ मुं सर्वतोभद्र आम ११ वास्तुओनो नामनिर्देश अने कया काममां कयुं वास्तु पूजg, ए बधुं उपर कहेवाइ गयु छे, पण आ बधा वास्तुओमां देवतापद भोग अने तेमनी विन्यास-विधि लखवा जेटलो अवकाश लइ शकाय तेम नथी तेथी जीर्णोद्धार, नगरनिवेश, मंडपनिवेश अने प्रासादनिवेशमां जेमनी खास पूजा करवी आवश्यक होय छे एवा ७ थी १० पर्यन्तना ४ वास्तुओनी ज विशेष चर्चा करवी उपयोगी समजीये छीये. ४९ पदात्मक मरीचिगण वास्तु (जीर्णोडारे पूजनीय) चतुष्पदो भवेद् ब्रह्मा, त्रिपदा अर्यमादयः । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् कर्णाः सपादाश्चैकोना, कर्ण बाह्येऽधंपादकाः ॥३५॥ षडंशोनपदाः शेषा-श्चतुर्विंशतिसंख्यया । मरीचिगणमित्युक्तं, सप्तसप्तपदात्मकम् ॥३६॥ भा०टी०-ब्रह्मानो पदभोग ४ नो अर्यमादिनो ३-३ नो अभ्यन्तर कर्णदेवताभोग ११-१॥ पदनो, मध्यकर्णदेवतानो पदभोग १-१-नो बाघकोण देवताभोग ०१-०॥ पदनो अने शेष बाह्य २४ देवताओनो भोग षडंशहीन पदनो जाणवो. आम ७-७ पदोथी बनेल ४९ पदात्मक ' मरीचिगण' नामक वास्तु का. ६४ पद भद्रकवास्तु-(नगरनिवेशे पूजनीय) चतुःषष्टिपदं वक्ष्ये, वास्तु पुरनिवेशने । विभक्तिपदसंस्थानं, देवतानामनुक्रमात् ॥३७॥ चतुष्पदो भवेद् ब्रह्मा, तत्समा अर्थमादयः । अर्यमार्धे कर्णगाश्च, कर्णार्ध चतुर्विशतिः ॥३८॥ बाह्यकर्ण स्थिताश्चाष्टौ, लागले पदमर्धकम् । ईदृशं भद्रकं प्रोक्तं, चतुःषष्ठिपदस्थितम् ॥३९।। भा०टी०-नगरनिवेशनमां चोसटपदनुं वास्तु अने तेमा देवताओना पदविभागनां संस्थानो अनुक्रमे कहुं हुं, ब्रह्मानां ४ पद, ब्रह्मानी परिधिना अर्यमादि ४ देवोनां ४-४ पदो, मध्यकोणस्थ आप आपवत्सादि ८ देवोनां २-२ पदो, बाह्य २४ देवोर्नु १-१ अने बाह्यकोणस्थ लांगलना ८ देवोनुं ॥-०!! पदोनुं संस्थान गणतां आ भद्रक नामर्नु ६४ पदोनुं वास्तु तैयार थाय छे. ८१ पद-कामदवास्तु-(गृहादिनिवेशे) ब्रह्मा नवपदो मध्ये, षट्पदा अर्यमादयः । द्विपदाः मध्यकर्णाद्या, द्वात्रिशदेकपादकाः ॥४०॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भा०टी०-कामदवास्तुमां मध्ये ९ पदो ब्रह्मानां, पूनादि ६-६ पदो अर्यमादि चारनां, मध्यकर्ण विभागस्थित आठ देतोनां २-२ पदो अने बाह्य बत्रीश देवोर्नु १-१ पद राखg. १०० पद-भद्रवास्तु (प्रासाद-मण्डपादिनिवेशे) ततः शतपदं वक्ष्ये, पूज्यं प्रासाद-मण्डपे । ब्रह्माद्याः सकलाश्चैवा-ऽष्टपदाश्चार्यमादयः ॥४१॥ द्विपदा ब्रह्मकर्णेऽष्टौ, बाह्येऽष्टौ सार्धपादकाः। शेषाश्चैकपदाः ज्ञेया-श्चतुर्विशतिसंख्यया ॥४२॥ भा०टी०-हवे प्रासादमंडपमा पूजवायोग्य शतपदवास्तु कहुं . ब्रह्माने १६ पदनो, अर्यमादिने ८-८ पदोना, ब्रह्मानी पासेना कोणना आठ देवोने २-२ पदोना, बाह्यकोण निकटवर्ती आठ देवोने १॥-१॥ पदना अने बाकीना चोवीश बाह्य देवोने १-१ पदना अधिकारी बनाववा. ___ उक्त चार वास्तुओर्नु निरूपण अपराजितमां उपर प्रमाणे छे. पण निर्वाणकलिका, वास्तुविद्या आदि ग्रन्थोमां आ विषयमा केटलोक मतभेद दृष्टिगोचर थाय छे. जे नकशाओ जोवाथी जणाइ आवशे. वास्तु-मर्मोपममनिर्णयचतुःषष्टिपदे क्षेत्रे, पुरवास्तुं प्रकल्पयेत् । मर्मोपमर्मसन्धीश्च, वास्तुवेदसमुद्भवान् ॥४३॥ भा०टी०-६४ पदना क्षेत्रमा पुरवास्तुनी कल्पना करवी अने वास्तुशास्त्रमा बतावेल मर्म, उपमर्म अने संधिस्थानोनो निर्णय करवो. पूर्वापरायता वंशा, उपवंशाः प्रभिन्नगाः । मर्माणि वंशसंपाता, उपमर्माः पदमध्यगाः ॥४४॥ माहेन्द्रादित्यनिरेखा, वरुणपुष्पदन्तगाः। एते वंशा समाख्याता, उपवंशा यमोत्सराः ॥४५॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] गृहक्षतयमजोक्ताः, सोमभल्लाटादित्रये । पूर्वाऽपरायता रेखाः, पुनर्भिन्नाश्च तिसृभिः ॥४६॥ ईशब्रह्मपितृतश्च, शिरा रोगाग्निमध्यतः । शिरास्वेवं कर्णस्यान्ते, ईशाग्निपितृरोमतः ॥४७॥ जयगन्धर्वसुग्रीव-गिरौ चैव प्रभिन्नगाः। सत्य-मुख्यायता रेखा, वितथे चाऽसुरे तथा ॥४८॥ भाटी०-पूर्व पश्चिम लांबी रेखाओ 'वंश' अने दक्षिणोत्तर लांबी रेखाओ 'उपवंश' कहेवाय छे, वंशोपवंशना संपातस्थानोने 'मर्म' अने पदमध्यने 'उपमर्म' कहे छे. वरुण तथा पुष्पदंतथी नीकळेली रेखाओ माहेन्द्र अने आदित्यनी पासे जाय छे ते 'वंश' कहेवाय छे अने एज प्रकारे गृहक्षत तथा यमपासेथी नीकळेली दक्षिणोत्तरायत सोम अने भल्लाट पासे जती ३ रेखाओ 'उपवंश' नामथी ओळखाय छे. वळी १ पितृपदथी नीकळी ब्रह्मा पासे थइ ईश पदे जती शिरा, २ गंधर्वथी नीकळी जयपदने स्पर्शती शिरा अने ३ सुग्रीवपदथी नीकळी गिरि पदे जती शिरा, एज रीते १ अग्निपदथी रोगपदे जती कोणगत शिरा, २ मुख्यपदथी नीकळी सत्यपर्यन्त लंबायेली शिरा अने ३ वितथपदथी नीकळी असुरपदे जती शिरा आ बधी तिर्यग जती ३-३शिराओ पूर्वापरायत अने दक्षिणोत्तरायत वंश अने उपवंशोनो वेध करे छे. एते च सूत्रसम्पाता, महामर्माणि कीर्तिताः । सूत्रसंपाताग्रपङ्क्तो , लाङ्गुलं षट्कमेव च ॥४९॥ शिरासूत्रसंपातेषु, लागुलषट्कमेव च। चतुर्विशतिलाङ्गलानि, पदार्धेषु त्रिकर्णगा ॥५०॥ ब्रह्मणश्च चतुःपार्श्व-ज्वष्टसूत्राणि पद्मकम् । पक्षेषु लाङ्गलबन्दं, षरेखाभिर्विधीयते ॥५१॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे चतुःकर्णेषु शूलानि, षड्रेग्वाभिश्च वज्रकम् । त्रिशूल-लाङ्गलपद्म-शिरा-नाडीर्विवर्जयेत् ॥५२॥ भा०टी०-या सूत्रसंपातो (वंश-उपवंश-शिरा-संगमस्थानो)ने • महामर्म' कह्या छे. सूत्रसंपातोना अग्रभागो ज्यां मळे छे ते छ स्थानोने लांगल कहे छे. सूत्र अने शिराना अग्रभागो मळीने पण छ लांगलो थाय छे. बधां मळीने २४ लांगलो अर्धपदोमां अने कोग विभागोमां उत्पन्न थाय छे. _ब्रह्माजीनी चारे दिशाओमा आठ सूत्रोवडे ४ पद्म बने छे अने पद्मोनी पासे ६-६ रेखाओवडे वे बे लांगलो बने छे. चार बाह्यकोणोमां ४ शूलो अने ६-६ रेखाओरडे वज्रो उत्पन्न थाय छे. वास्तुगत त्रिशूल, लांगल, पद्म, शिरा अने नाडीओ टाळीने स्तंभादिने स्थापया जोइए. बन्धूच्छेदश्वोपवंशे, मर्मणि स्यात्कुलक्षयः। वज्रे च बज्रपाताः स्यु-स्त्रिशुले च रिपोभयम् ॥५शी पद्मे पतिविनाशश्च, लागलेषु प्रजाक्षयः । कर्णशिरायां स्त्रीनाशः, सम्पाते चाग्रजातकम् ॥५४॥ चतुर्पु ब्रह्मकर्णेषु, महामर्म सुकीर्तितः । धन-धान्य--विनाशश्च, सर्वनाशस्तथैव च ।। ५५ ।। भा०टी०-स्तंभआदिवडे उपवंशनो वेध थाय तो बन्धुओनी नाश, मर्मनो वेध कुलनो क्षय, वज्रनो वेध वज्रनो पात अने त्रिशूलनो वेध शत्रुनो भय करनार छे, पद्मनो वेध गृहस्वामीनो नाश, लांगलनो वेध संताननो क्षय, कोणनी शिरानो वेध स्त्रीनो विनाश करे छ अने संपातवेध आद्य संताननो नाश करे छे. ब्रह्माना ४ खूणाओर्मा महामर्म कह्यो छे. तेनो वेध धनधान्यनो नाश करे छे एटलं ज नहि पण आ महाममनो वेध सर्वनाशकारी छे. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् पदव्यासषोडशांशो, भागो द्वादशकः पुनः । वालाग्रं सन्धिसम्पाते, वय॑ते मर्म शिल्पिभिः ॥५६॥ अष्टवर्गः समाख्यातः, कर्णपाश्चि कीर्तिताः। ब्रह्मकर्णे त्रिपमान्ते, महामर्मचतुष्टयम् ॥७॥ मर्मोपसर्मणी रक्ष्ये, महादोषभयावहे । वंशोपवंशसन्धींश्च, रेखाषट्कं च लाङ्गलम् ॥८॥ भा०टी०--पदविस्तारनो सोलमो भाग उपवंशना उपमर्ममां अने बारमो भाग मर्मवेधमा टाळयो अने संधिसंपातमां शिल्पिओए वालाग्रमात्र मर्मस्थान छोडीने स्तंभादिनो न्यास करवो. आ प्रमाणे अष्टवर्ग ( अष्ट सूत्र संपात ) बतान्यो अने कोगो तथा पार्श्वभागो कह्या, ब्रह्माना कोण भागोमां पद्मोना अंतमां चार महामर्मस्थानो छे. मर्म तथा उपमर्म महादोषदायक अने महा भयंकर छे माटे ए बेने अवश्य बचाववा. वली वंश, उपवंश, संधि वज्र अने लांगलना वेधने पण वर्जवो. भूपरिग्रहो वास्तोश्च, मर्मादि कथितं तव । पित्रोर्घातो भवेच्चैवं, कृते शिरसि खातके ॥१९॥ भुजे स्कन्धे बन्धुनाशो, हृदये च महाभयम् । धन-धान्य-समृद्धिश्च, जायते कुक्षिखातके ॥६॥ भा टी०-विश्वकर्माजी अपराजितने कहे छे के तने भूमि परिग्रह, वास्तु संस्थान अने मर्मोपमर्मादि का. मस्तक उपर खात करे तो माता-पितानो नाश, भुज उपर के स्कंध उपर खात करे तो भाईनो नाश करे, हृदयभागमां खात करे तो महाभय उपजे अने कुक्षिमां स्वात करे तो धन धान्यनी समृद्धि थाय. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे वास्तु परिभ्रमणरवी कन्यातुलालिस्थे, पूर्वा शिरःसमाश्रिता । धनौ च मकरे कुम्भे, दक्षिणेन व्यवस्थितः ॥६१॥ मीने मेषे वृषे चैव, पश्चिमेन समाश्रितः । मिथुने सिंहे कर्के च, युत्तरेण व्यवस्थितः ॥६२॥ सर्वकालक्रमोऽयं च, राशिमध्ये ह्यतः शृणु । देवताक्रमयोगेन, स वास्तुः सरते महीम् ॥६३॥ यत्र भानुस्तत्र शिरो, लक्षितव्यं रविक्रमात् । अन्यथा कुरुते दुःग्वं, शिरो वास्तोरलक्षितम् ॥६४॥ देवागारं गृहं यत्र, प्रकुर्यात् शिरःसम्मुम्बम् । मृत्यु रोग भया नित्यं, शस्तं च कुक्षिसम्मुखम् ॥६॥ भा०टी०-कन्या, तुला अने वृश्चिकना सूर्यमा वास्तुपुरुष पूर्वमा मस्तक करीने रहे छे. धन, मकर अने कुंभना मूर्यमां वास्तु दक्षिणमा रहे छे. मीन, मेप अने वृषभना सूर्यमां वास्तु पश्चिमाश्रित होय छे तथा मिथुन, कर्क अने सिंहना सूर्यमा वास्तुनु मस्तक उत्तरे होय छ, वास्तुना राशिभ्रमणनो सावकारलेक एज क्रम छ, असं न्धमा विशेष सांभल-- वास्तु स्वगत देवताओनी साथे अनुक्रम पृी उपर फरे छ. जे दिशामां मरी होय तेनो निर्णय काग कर दिशाम वास्नुर्ने मस्तक आवे तन्नो निर्णय करी लेश, सूप क्रमयी वास्तुना मस्तकने जाण्या विना तना वर्जित अंग भागम खात आदि करनारने दुःखदायक पाय वास्तुना मस्तक सनरक द्वारवाला देवालय, वर आदि करे त म मरण, रोमा अन थया को छे.ज काले जे दिशामा वास्तुनी कुक्षि होय ते काले दिशाना मुरववाला देवालय अने घर आदिना आरंभ करवात श्रध. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ प्रासाद-लक्षणम् ] 3 कन्या तुला वृश्चिके च, भास्करो यदि संस्थितः । पूर्वामुखं न कर्तव्यं गृहं भवति निष्फलम् ||३६|| धनौ च मकरे चैव, कुम्भे वाऽथ दिवाकरः । न याम्यदिग्मुखं कुर्याद्, राजचौराग्निभिर्भयम् ||६७ || मीने मेषे वृषे चैव, पश्चिमा दिक् च दूषिता । स्त्री भी रोगो महाघोरो भवेच्च रौद्रदारुणः ||३८|| मिथुने कर्क सिंहेच, वेश्म नैवोत्तराननम् । दोष - शोकमयं तत्तु, न कुर्याच्च विचक्षणः ||३९|| तत्र ना सर्पते वास्तु:, क्रमेण गृहमध्यतः । पूर्व-दक्षिणतश्चैव, पश्चिमोत्तरतो मुखम् ॥७०॥ " भा०टी० - कन्या, तुला अने वृश्चिक राशिमां सूर्य रह्यो होय त्यारे पूर्व दिशाना द्वारवाले घर न करं. केमके ते घर नका जाय छे, धनु, मकर अने कुंभनो सूर्य होय ते काले दक्षिणना द्वारा घर न बनाव, केमके तेम राज, चौर अने अग्निनो भय थया करे छे. मीन, मेष अने वृष राशिमां सूर्य होय त्यारे पश्चिम दिशा दूषित होय छे, ए कालमा पश्चिम द्वावालुं घर न बनाव, ते घरमा स्त्री निमित्त महा भयंकर रोगोत्पत्ति थाय छे. मिथुन, कर्क अने सिंह राशिनो सूर्य होय त्याने चतुर-शिल्पिए उत्तराभिमुखनुं घर न बनाव, कारणके ते दोषप्रचुर अने शोकमय होस् छे. आ प्रमाणे वास्तुपुरुष अनुक्रमे घरमा फर हे अन पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर आ प्रत्येक दिशामां तेनुं मुख अत्रे छे, माटे जे दिशामां तेनुं मुख होय से दिशाना द्वारवाले परत काले बनाववान आरंभ न करवो. 9 शिरो नेत्र चाह च उदरं कटिजन्या । बेधयन्ते यंत्रे मर्म पूजाहानि - महाभयम् ॥ ७१ ॥ भा०टी० - वास्तुपुरुषनुं मस्तक, नेत्र, भुजा, पेट, कटि अने Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे जंघानो वेध थाय तेवी रीते खात न करवुं, केमके घरमा वास्तुना मनो वेध थतां पूजानी हानि अने महाभयनी उत्पत्ति थाय छे. कन्यादिसंक्रान्ति योगे, प्राच्यादिषु क्रमाद् दिशि । न कुर्वीत शिरो वास्तो, -र्न कार्य तन्मुखं गृहं ॥७२॥ क्षपाकरे नैव गृहं पुरस्तात् कुर्यान्नरो वास्तुनयानुकर्ता । पतन्ति कन्या न च पृष्ठसंस्थे, तस्मात् प्रयत्नेन विदिग् विचिन्त्या ||७३ || ८४ " भा०टी० - कन्यादि ३ - ३ संक्रान्तिना योगे अनुक्रमे पूर्वादि दिशामां वास्तुनुं मुख न करखुं अने ते दिशाना द्वारवाउं घर न बनावj. चन्द्रमा द्वार संमुख होय तो शिल्पशास्त्रज्ञे घरनो आरंभ न करवो, न पाछल चन्द्र राखीने गृहारंभ करवो, कारणके ते रीते बनावेल घरो रहेनाराओने कन्याओनी ज प्राप्ति थाय छे. माटे यत्नपूर्वक विदिशानो विचार करखो. वास्तुदोष - " " दिशायां विदिशायां च वास्तुवेधविशोधनम् । जीर्णे नवतरे वा पि, वेधदोषं विवर्जयेत् ॥७४ || वेधास्ते कथिताः पूर्व दोषांश्चैव ततः शृणु । एकपदादिकं वास्तु, पर्यन्तसहस्रान्तिकम् ॥ ७५ ॥ सरस्थानं सदा पूज्यं, पदं पूजां विना यदा । विनोत्कटं महाघोरं कुरुते भयदारुणम् ॥७६॥ वीथिकान्तरबाह्येषु, पदमेकं सुरैर्विना । विरोधं गोत्रकलहं, मुक्तकोणस्य तत्फलम् ||७७|| भा०टी० -- दिशामां अने विदिशामां वास्तुवेध अवश्य टाळवी, भले वास्तु जीर्ण होय के साथ नवुं होय पण वेध दोष तो वर्जवो ज Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] जोइये, तने वेधो कह्या, हवे दोषोने सांभळ. एक पदथी मांडीने छेक हजारपदना वास्तुपर्यन्त जे वास्तुमा जेटला देवपदो होय ते बघां देवपदोनी पूजा करवी जोइये. कोइ पण पद पूजा विनानुं रही जाय तो ते पदनो देव उत्कट भयप्रद विघ्न उत्पन्न करे छे. वीथीनी अंदर अथवा बहार एक पण पद देव विनानुं के पूजा विनानुं न राखवू. पद छोडवाथी विरोध अने कुटुंब-कलहरूप फल थाय छे. अन्यपृष्ठे यदा चान्यत्, प्रासादपुरमन्दिरम् । खादकं नाम तद्वास्तु, परस्परविरोधकम् ।।७८॥ भाटी०-एक प्रासाद नगर के मन्दिरनी पूंठमा एकज सूत्रे बीजुं प्रासाद नगर के मंदिर होय तो ते वास्तु 'खादक' कहेवाय छे. आ वास्तु रहेनाराओने आपसमा विरोधभाव उत्पन्न करे छे. कुक्षिद्वारं गृहे वापि, कुया त्रा सुरसद्मनि । विभ्रमं नाम तद् वास्तु, विभ्रन गृहाधिपः ॥७९॥ कुक्षिभागे यदा चान्यद् , गृहं वा सुरसम वा । कुक्षिदं नाम तद् गेह, विभ्रमन्नेव दृश्यताम् ॥८॥ अग्रे द्वारोन्नतं गेहं, निम्नगं मध्यसंस्थितम् । उच्छ्रितं नाम तद् वास्तु, वृद्धि-पूजादिकं हनेत् ॥८॥ गृहव्यासकायतं, त्रिपश्चहस्ततलोच्छ्रयम् । बहुकाष्ठद्रव्यादिकं, न भवेद् गृहं शाश्वतम् ॥८२।। भा०टी०-घर अथवा देव मंदिरना कुक्षिभागमा जेने द्वार होय ते 'विभ्रम' नामनुं वास्तु कहेवाय छे, ते वास्तुनो स्वामी सदा भमतो ज रहे छे. जे घरना कुक्षिभागे बीजुं घर अथवा देवमंदिर होय ते वास्तु 'कुक्षिद' कहेवाय. तेनुं फल विभ्रम वास्तुना जेवू ज जाणवु. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण - कलिका - प्रथमखण्डे आगळ द्वार भागे ऊंचं अने मध्य भागमां नीचुं होय ते वास्तु 'उच्छ्रित' नामथी ओलखाय छे, जे विस्तार अने संतति आदिनी हानि करनारुं होय छे. जे घरना विस्तारमां कोणभागे लंबाई होय, ३ अथवा ५ हाथ तलनी ऊंचाईवाळु होय, अनेक काष्ठो अने अनेक द्रव्यवडे जे बनेलुं होय, ते घर लांबा काल सुधी रहेतुं नथी. ८६ कर्णशाला यदा लग्ना, आग्नेयां दिशमाश्रिता । अग्निदं नाम तद्वास्तु, कुरुतेऽग्निभयं ध्रुवम् ॥८३॥ 0 भा०टी० - जेने अग्निकोणमां 'शाला' ( ओरडो ) लागेलो होय ते घर 'अग्निद' कहेवाय अने ते अवश्य अग्निनो भय करे छे. नैर्ऋत्ये च यदा लग्ना, शाला च वास्तुबाह्यतः । नैर्ऋत्यं नाम तद्वास्तु, मृत्यु - व्याध्यन्तिकोद्भवम् ॥ ८४ ॥ भा०टी० - जेना नैर्ऋत्य खूणामां वास्तुनी बहार शाला लागी होय ते वास्तु ' नैर्ऋत्य ' नामथी ओळखाय छे, आबुं वास्तु मृत्युदायक व्याधिने उत्पन्न करे छे. वायव्ये तु यदा लग्ना, शाला च गृहबाह्यतः । वायव्यं नाम तद् वास्तु, गृहे वायुभयं भवेत् ॥ ८५ ॥ भा०टी० - घरनी बहार जेना वायव्य खूणामां शाला लागेली होय ते 'वायव्य वास्तु' कहेवाय छे अने ते घरमां वायुनो भय रहे छे. ईशाने तु यदा लग्ना, शाला च गृहबाह्यतः । देवकं नाम तद् वास्तु, देवदोषः सदा भवेत् ॥८६॥ भा०ठी० - जेने घरनी बहार ईशान भागमां शाला लागी होय ते वास्तु 'देवक वास्तु' कहेवाय छे अने ते वास्तुमा रहेनारने देवदोष थाय छे. अधोभूम्यां च ये दोषा, - स्तथैव चोर्ध्वमादिशेत् । ऊर्ध्वभूमी दिशाश्रं चैतद् गुणं दोषमादहेत् ॥८७॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् । भा०टी०-नीचेनी भूमिमां जे जे दोषो कह्या छे तेज ऊर्ध्व भूमिमां (मेडी उपर ) पण कहेवा. पण जो ऊर्श्वभूमिमां दोष न होय तो नीचेना दोषो पण हलका पडी जाय छे. (३) आयाद्यग-विचारआय-व्ययांशका ऋक्ष, तारा-चन्द्रबलं गृहे । जीवितं मरणं ज्ञेयं, वास्तु-विज्ञान-पूर्वकम् ।।८८॥ नगरे वा पुरे ग्रामे, इण्डमानं विधीयते । 'वास्तुदण्ड' इति प्रोक्त-"चतुर्भिर्हस्तसंख्यया ||८९॥ दस्रहस्तं च यत् क्षेत्र,-मगुलैच फलप्रदम् । वस्वंगुले च क्षेत्रे तु, पादैर्वा प्रति शोधयेत् ॥९॥ तत् क्षेत्रं च यथाकारं, यवैरेव विशोधयेत् । शतहस्तमिते क्षेत्रे, तद्ग्रहस्तसंख्यया ॥९१।। क्षेत्रालाभे च तत्रैव, गृहं स्यात्तदिहाङ्गुलम् । अङ्गुलमात्रक्षेत्रे च, अङ्गुलैस्तदलाभतः ॥९२।। पादैर्वापि यवैर्वापि, गृहक्षेत्रानुसारतः। भा०टी०-आय, व्यय, अंशक, नक्षत्र, तारा अने चन्द्रबल, आटली बारतो घरमा जोवी अने वास्तुनुं विशेष ज्ञान प्राप्त करीने तेना जीवन अने मरण काल (विनाश)नो पण पत्तो लगाडी लेवो. नगर, पुर अने ग्रामनुं माप दण्डवडे करवू. आ दण्ड ते वास्तुदण्ड कहेवाय छे अने हाथसंख्याए ए ४ हाथनो कह्यो छे. बे हस्तमित क्षेत्रनुं क्षेत्रफल आंगलोवडे काढीने आयादिनो निर्णय करवो. जे क्षेत्र आठ आंगलनु ज होय तेनुं क्षेत्रफल पाव आंगुलो वडे काढवु अथवा तेवा लघुक्षेत्रने यवोबडे मापीने क्षेत्रफलादि काढवू. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे सो अथवा एथी अधिक हाथना क्षेत्रमाथी १०० हाथ बाद करीने बाकी रहेला हाथोवडे क्षेत्रफल काढवू, उपरनी हस्तसंख्या पर्याप्त न होय तो तेना आंगल करी ते गृहक्षेत्रना आय-व्यय नक्षत्रादि काढवां. अंगुलोबडे मापेल क्षेत्रनुं क्षेत्रफल आंगलोवडे काढवू. आंगलो वडे न नीकळे तो गृह क्षेत्रानुसारे पाव आंगलो वडे अथवा यवो वडे गणीने आयादि काढवा. वास्तुभूमि कोना हाथे मापवी ? तृणच्छन्दे (न्ने) स्वामिहस्तैः, कर्मिहस्सैहादिके ।।९३॥ राजवेश्म-पुरादीनां, वापि-कूपादिसंभवे । देवानां (च) प्रासादेषु, शास्त्रहस्तेन केवलम् ॥१४॥ भा०टी०-तृणवडे ढांकेल झुपडान माप घरधणीना हाथे करावयु. काचां पाकां मकानो अने मेडीबंध महेलोनुं माप कारीगरना हाथवडे करवं. राजमहेल अने नगर आदिनु, वावडी कूपादिकनु अने देवमंदिरोनुं माप केवल शास्त्रोक्तहस्तवडे करवु. ८-७-६ जवोनो अनुक्रमे ज्येष्ठ, मध्यम अने कनिष्ठ १ आंगल, आवा २४ ज्येष्ठ, मध्यम अने कनिष्ठ आंगलोनो अनुक्रमे ज्येष्ठ, मध्यम अने कनिष्ठ हाथ ते शास्त्रीय 'हस्त' कहेवाय छे. आय लाववानी रीति अने नामादिदैर्ध्य हन्यात् पृथुत्वेन, हरेद् भागं ततोऽष्टभिः । यच्छेषमायं तं विद्यात्, शास्त्रदृष्टं ध्वजादिकम् ।।१५।। ध्वजो धूमश्च सिंहश्च, श्वानो वृषः खरो गजः । ध्वाक्षश्चेति समुद्दिष्टाः, प्राच्यादिषु प्रदक्षिणाः॥९६॥ अन्योन्याभिमुखास्ते च, क्रमच्छन्दानुसारतः । पूर्वाद्या ये समुद्दिष्टा, आयुर्वृद्धिविधायकाः ॥९७॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] भा०टी०-वास्तुक्षेत्रनी लंबाईने पहोळाईवडे गुणवी, पछी जे आंकडो आवे तेने आठनो भाग देवो, भाग लागतां जे आंक बाकी रहे ते प्रमाणे शास्त्रोक्त ध्वजादि आय जाणवो, १ शेष रहे तो ध्वज, २ रहे तो धूम, ३ रहे तो सिंह, ४ रहे तो श्वान, ५ रहे तो वृषभ, ६ रहे तो खर, ७ रहे तो गज अने शेष आंक जो शून्य आवे तो ध्वांक्ष आय जाणवो. आ आठे आयो पूर्वादि दिशाओमां अनुक्रमे रहेला छे. अने पोतानी संमुख दिशाना आयने अभिमुग्व रहेला छे, ते पोतानी दिशासंमुख द्वारवाला वास्तुनी आयुवृद्धि करनारा छे. - देवालयोमां अने अधमालयोमा शुभ आयध्वजः सिंहो वृषगजौ, शस्यन्ते सुरवेश्मनि! अधमानां खर-ध्वाक्ष-धूम-श्वानाः सुखावहाः ॥९८॥ भा०टी०-वल, सिंह, वृषभ अने गज, आ विषम आयो देवालयोमा आफ्ना प्रशंसनीय छे. अने खर, ध्वांक्ष, धूम तथा श्वान, आ चार सम आयो अधमजातिना मनुष्योनां घरोमां सुखदायक होय छे. कालपरक आयोनी श्रेष्ठताध्वजः प्रायः कृतयुगे, त्रेतायां सिंह एव च ।। द्वापरे वृषबाहुल्यं, गज एव कलौ युगे ॥९९॥ भा०टी०-ध्वज कृतयुगमां, सिह त्रेतामां, वृष द्वापरमां अने गज कलियुगमा प्रायः विशेष प्रवल 'होय छे. वर्णविशेषने आयविशेषनी श्रेष्ठताकल्याणं कुरुते सिंहो, नृपाणां च विशेषतः । ध्वजः प्रशस्यते विप्रे, वृषो वैश्ये उदाहृतः ॥१०॥ भा०टी०-सिंह आय क्षत्रिओने विशेषतः राजाओने कल्याणकारी छे, ध्वजाय ब्राह्मणने अने वृषाय वैश्य जातिने माटे प्रशंसनीय छे. १ आ श्लोक हस्तलिखित पुस्तकमां छे. ૧૨ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे आयोगें फलउत्तरोत्तरमाख्याता-श्चतुर्वर्णफलप्रदाः । ध्वजे चैवार्थलाभः स्याद्, धूमे संताप एव च ॥१०१॥ सिंहे च विपुला भोगाः, कलिः श्वाने सदा भवेत् । धनं धान्यं वृषे चैव, स्त्रीदृषणं च रासभे ॥१०२।। गजे भद्राणि पश्यन्ति, ध्याक्षे च मरण ध्रुवम् । भाण्टी०-चतुर्वर्णने जे आयो उत्तरोत्तर फलदायक छ ते कह्या, हवे प्रत्येक आयर्नु सर्व सामान्य फल कहे छ ध्वज आयथी धन प्राप्ति, धूम आयथी संताप, सिंह आयथी विशालभोग प्राप्ति, श्वान आयथी क्लेश, वृष आयथी धन धान्य प्राप्ति, खर आयथी स्त्रीदोष, गज आयथी मंगल दर्शन अने ध्वाक्ष आयथी निश्चितरूपे मरण थाय छे. कार्य विशेष आय विशेष ध्वजप्रासाद-प्रतिमा-लिङ्ग,-जगती-पीठ-मण्डपे । वेदी-कलश-मूर्तीनां, पताका-छत्र-चामरे ॥१०३।। वापी कूप-तडागानां, कुण्डे रम्यजलाश्रये । ध्वजोच्छ्य-संस्थानेषु, ध्वजसूत्रं निवेशयेत् ॥१०४।। आसने देवपीठेषु, वस्त्रालङ्कारयुक्तिषु । भूषणे मुकुटाद्ये च, निवेशयेद् ध्वजं शुभम् ॥१०५॥ भा०टी०-देवमंदिर, देवप्रतिमा, शिवलिंग, जगती, पीठ, मंडप, वेदी, कलश, मूर्ति, ( मनुष्यनुं बावलं) ध्वजा, छत्र, चामर, वाव, कूवो, तलाव, कुण्ड, सुन्दर जलाशय अने ध्वजदण्ड; आ बधा स्थानोमां ध्वजसूत्र देवू अर्थात् ध्वज आय आपवो. सिंहासन-भद्रासन, देवने स्थापवा योग्य भद्रपीठ, वस्त्र, अलंकार अने मुकुट प्रमुख आभूषणो; आ सर्वमां पण ध्वज आय शुभ छे. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद - लक्षणम् ] धूम अग्निकर्मसु सर्वेषु, होमशाला - महानसे । धूमोऽग्निकुण्डसंस्थाने, होमकर्मगृहेऽपि वा ॥ १०६ ॥ भा०टी० - सर्व प्रकारनां अग्निकार्यो, होमशालादि यज्ञस्थानो, रसोइघरो, अग्निकुण्डो अने होमक्रिया स्थानो; आ बधे स्थले धूम आय देवो. सिंह आयुधानां समस्तानां नृपाणां भवनेषु च । नृपासने सिंहद्वारे, सिंहसत्रं निवेशयेत् ॥१०७॥ भा०टी० - सर्व प्रकारनी आयुधशालाओ, राजानां मकानो, राजानुं सिंहासन अने राजभवननुं सिंहद्वार: आधे सिंह आये एवं सूत्र देवु. २१ श्वान ད श्वानं च म्लेच्छजातीनां गृहे श्वानोपजीविनाम् । तथा च शूद्रसंज्ञेषु प्रशस्तः श्वानको मतः ॥ १०८ ॥ भा०टी० - म्लेच्छोना घरोमां, धानोवडे आजीविका चलावनाराओना घरोमां श्वान आय देवो तथा शूद्र जातिना लोकोने माटे पण श्वान आय शुभ मानेलो छे. वृष - वणिकर्मसु सर्वेषु, भोज्यपात्रेषु मण्डपे । वृषस्तुरङ्गशालायां, गोशाला- गोकुलेषु च ॥ १०९ ॥ भा०टी० -- सर्व व्यापारिक कार्योंमां, भोजनपात्रोमां, भोजन मण्डपमा, अश्वशालामां, गौशालामां अने गोकुलोमां वृप आय शुभ छे. खरतत वितत घनाख्ये, वादित्रे विविधे खरः । वेश्या कुलाल रजका - दीनां गर्दभजीविनाम् ॥ ११० ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भा०टी०-तत-वितत-धनादि वादित्रा तथा बीजा अनेक जातिनां वाजित्रो, वेश्या, कुंभार, धोबी आदिनां घरो अने गधेडाओथी आजीविका चलावनाराओनों घरोमां खर आय देवो. गजगजश्च गजशालायां, यानझम्पानयो रथे। शय्यायां शिबिकायां च, मजमुद्रास्वातुरके ॥११॥ अन्तःपुरगृहे चोक्तः, पण्डावासादिकोद्भवः । अन्योपस्करस्थाने च, नागादिकगृहे गजः ॥११२॥ भा०टी०-हस्तिशालामां, यान, मियानो, रथ, पलंग, पालखी, गजमुद्राओ (गजबन्धनालयो)मां, रुग्णालयोमां, अन्तपुरमां, पण्डावास (क्लीबगृहो)मां, अन्य उपस्कर (सामान ) राखवानां स्थानोमां अने नागदेव आदिना चैत्योमां पण गज आय देवो. ध्वांक्षअहट्टयन्त्रशालासु, जीर्ण(जैन)शालादिसंभवे । शिल्पकर्मोपजीविना, ध्वांक्षः कल्याणकारकः ॥११३॥ भा०टी०-रहेटिया शालामा, जीर्ण (जैन)शालामां अने वणकर आदि शिल्पकर्मोपजीविओना घरोमांध्यांक्ष आय कल्याणकारी छे. प्रतिनिधि आयोस्वकस्वकेषु स्थानेषु, सर्वे कल्याणकारकाः । स्नेहानुगाऽनुमैत्रे च, ते सर्वे हितकामदाः ।।११४॥ वृषस्थाने गजं दद्यात् , सिंहं वृषभ-हस्तिनोः । ध्वजः सर्वेषु दातव्यो, वृषो नाऽन्यत्र दीयते ॥११५।। भा०टी०पोतपोताना स्थानोमां सर्व आयो कल्याणने करनारा छे, जे जेना तरफ स्नेहवालो छे ते पोताना ते मित्रना स्थानमा पण हितकारक अने इच्छित फल आपनार थाय छे. वृषना स्थाने Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] गज आपवो, वृष अने गजना स्थाने सिंह आपवो, ध्वज सर्वमा आपवो, ज्यारे वृष पोताना स्थान सिवाय बीजे न आपो. आयोना मुखनी दिशावारुण्याभिमुखो ध्वजः, सिंहो गजाभिदृष्टिकः । वृषभः प्राच्यभिमुखो, गजो याम्यामुखस्तथा ॥११६॥ संमुखा याम्योत्तराः शस्ता, अशस्ताः पृष्टतोमुखाः। स्वके स्वके वै स्थाने च, प्रशस्तास्त्रिषु दिक्षु च ॥११७॥ भा०टी०-ध्वज आय पश्चिमाभिमुख, सिंहाय उत्तराभिमुख, वृष आय पूर्वाभिमुख अने गज आय दक्षिणाभिमुख रहेल छे. आय सामो, डाबो अने जमणो शुभ छे, पण तेनी पूंठ शुभ नथी. आम पोतपोताना स्थानथी प्रत्येक आय व्रण त्रण दिशामां शुभ छे. उदाहरण तरीके ध्वज आय पश्चिमाभिमुख छे तो पूर्वाभिमुख वास्तुने संमुख, उत्तराभिमुखने जमणो अने दक्षिणाभिमुख द्वारने डाबो थाय जे शुभ छे, पण पश्चिमाभिमुखने ते पृष्ठतोमुख होइ शुभ नथी, एम दरेकना संबन्धमां जाणg. महागणेश्वराः प्रोक्ता, अष्टदिक्क्षेत्रपालकाः। वास्तुकर्मसु सर्वेषु, आया दिपतयोऽष्ट हि ॥११८॥ पूजिताः पूजयन्त्येव, निघ्नन्ति चाऽपदस्थिताः। साध्यक्षेत्रं च त्रिपुटं, प्रभिन्नं च नवांशकैः ॥११९॥ अष्टावाऽऽयसंस्थानानि, मध्ये स्यात् कुलदेवता। गृहस्याभिमुखाः शस्ता, मध्यमाश्च पराङ्मुखाः ॥१२०॥ भा०टी०-आयोने महागणेश्वरो अने आठ दिशाना क्षेत्रपालो कथा छे. सर्व वास्तुकर्मोमा आयो आठ दिशापालो छे. ए यथास्थाने राखेला सुख देनारा छे अने वयं-स्थाने रहेला हानिकारक थाय छे. वास्तुक्षेत्रमा ऊभी आडी चार चार लीटी खंचीने तेना नव भागो, पाडवा, आठ दिशाना आठ भागो आयोनां स्थानो अने Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे मध्यभाग कुलदेवतार्नु जाणवू. आयो घर तरफ मुखवाला श्रेष्ठ अने पूंठवाला मध्यम जाणवा. साध्यक्षेत्रगुणाकारै-रायाश्चैव प्रतिष्ठिताः।। यावत्तु क्षेत्रभक्तिः स्यात् , तावदायः प्रपालयेत् ॥१२१।। भा०टी०-साध्यक्षेत्रनी लंबाई पहोळाईना गुणाकारवडे आयो स्थापित कराय छे, तेथी ज्यां सुधी क्षेत्रनी ते रचना कायम होय छे त्यां सुधी तेनो आय पोतानी शुभ असर बतावे छे. आय ज्ञानार्थकोष्टक २१२२ २३२४|१७/१८/१९/२० दैलुंगुल ५६ ७ ८ १ २ ३ ४ ३८५ ه ه م م ه ع M2222 cow on GM प्रथत्वांगुल مه سه م لہ م سه ۸ م ه م ه | duce Accnm marvwr ه م م م م ع ه ه م له سه ه| م ه alam Inccccccccco com.m an A अष्टौ आयाः Maror नक्षत्रआयामो यश्च क्षेत्रस्य, गुणितव्यः प्रविस्तरः। तत्क्षेत्रस्य फलं साध्यं, गुणित्वा दैय-विस्तरैः॥१२२॥ फले चाष्टगुणे तस्मिन् , सप्तविंशतिभाजिते । यच्छेषं लभ्यते तत्र, नक्षत्रं तद्गृहस्य तत् ॥१२३॥ भा०टी०-प्रथम वास्तुक्षेत्रनी लंबाई अने पहोलाई मापवी, ते पछी ते लंबाईना अने पहोलाईना अंकथी गुणीने तेनु क्षेक्षफल साधq. अने फलना अंकनो ८ थी गुणाकार करी आवेल गुणित Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] अंकने २७ मो भाग देवो, माग लागतां जे अंक शेष रहे तेटला, ते घरनु नक्षत्र जाणवु. त्रिविध नक्षण गणदेव-मयं-राक्षसानां, नक्षत्राणां त्रिधा गणः । यस्य यस्याऽनुगा मैत्री, वैरं स्याच परस्परम् ॥१२४॥ स्वगणे परमा प्रीति-मंध्या देवे च मानुषे । राक्षसे कलहं विन्द्यात्, मृत्युं मनुष्य-रक्षसोः ॥१२५॥ भा०टी०-नक्षत्रगण ३ प्रकारनो छे. देवगण, मानवगण अने राक्षसगण; जेनी जे साथे मैत्री अथवा परस्पर वैर होय, एमां स्वस्व गणने परम प्रीति, देव मनुष्यने मध्यम प्रीति, देव राक्षसने कलह अने मनुष्य राक्षसना योगे मरण जाणवू. ते तपासीने गृहस्वामीना नक्षत्र साथे प्रीतिवालंदेवालयनु अथवा घरनुं नक्षत्र लेवु अने परस्पर वैरवाला गणनुं नक्षत्र टाळg. नव देवगणाः प्रोक्ता, मनुष्या नव कीतिताः । नव रक्षोगणाश्चैव, नक्षत्राणां त्रिधा गणः ॥१२६।। कृत्तिका मघा विशाखा, अश्लेषा शततारका । चित्रायुक्ता धनिष्ठा च, ज्येष्ठा मूलं तु राक्षसाः ॥१२७॥ मृगोऽश्विनी रेवती च, हस्त-स्वाती पुनर्वसू । पुष्यानुराधा श्रवण-मेते देवगणाः स्मृताः ॥१२८॥ भरणी (च) तिस्रः पूर्वा-श्चार्द्रा च रोहिणी तथा । उत्तरात्रयसंयुक्ता, मनुष्याश्च प्रकीर्तिताः ॥१२९।। भा०टी०-९ नक्षत्रो देवगणा, ९ मानवगणा, अने ९ राक्षसगणा; आम नक्षत्रगणो त्रण प्रकारना छः ___ कृत्तिका, मघा, विशाखा, आश्लेषा, शतभिषा, चित्रा, धनिष्ठा, ज्येष्ठा अने मूल ए राक्षसगण; मृगशिर, अश्विनी, रेवती, हस्त, स्वाति, पुनर्वसु, पुष्य, अनुराधा अने श्रवण ए देवगण अने भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपद, आर्द्रा, रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा अने उत्तराभाद्रपद ए मानवगणनां नक्षत्रो कह्यां छे. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | s : r et syะะะะะะ” ” ” * * * [ natuT-GET-aragะ अंगुलात्मकक्षेत्राद् नक्षत्र * * แ: : : : * * * * * * * * * * * อ: * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *** * * * * * * * * * * * * * * * & : * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * eable - " * * * * * * * * * * * * Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] ज्ञानार्थक कोष्टक ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ त्राणि ७ | १५ | २३ | १४ ३ १९ २१ १८ १५ ६ १ | १५ २२ our or २१ vo २४।२६ २ | १२ | २२ २७ १८ ४ १२ २० ८ | २४ | १३ १२ ९ ६ १६ | २१ | २६ २० ६ | १९ ३ | २४ | १८ १२ १९ |२६ | १६ | १५ | १४ २३ ३ १० २ १७ २१ / २५ २४ ९ / २१ ४ २४ १७ ११ १२ १३ १८ २७ २५ org २४ ६ २० २१ | १६ MY M sw9 ९ / ११ / २५ | २३ | १२ १८ २७ २४ | २१ | १८ | १५ ९ | १४ | १९ २४ २ १८ ४ १७ १६ ३ ७ २१ ६ २७ | २१ | १५ ९ | ११ | १३ ८ १८ १ ११ ९ १ ३ ५ ५/१५ २५ ९ २७ | १८ १३ | १२ | ११ | १० १७ २४ ४ ११ १८ २५ १५ ९ २७ | १८ ८ २१ ९ २४ १२ २७ १७ १३ ९ २५ २१ २ ६ १० | १४ १८ | ६ १८ ३ १५ २७ ३ | २३ | १६९ १४ १५ १६ १७ १८ १८ २७ ९ १८ २७ २२ १२ २ १९ ९ २६ २४ २२ २० १८ २२ | २६ १२ २४ २६ १६ ९ | १५ | २१ २७ ८ २२ । ९ २३ १ | २३ | १८ | १३ ६ | १४ | २२| १ | १७ १ ३ a ९ ३ | २४ १५ | १७ | १९ २१ ४ २७ १८ ६ १२ १९ | २६ १८ २४ २० N ९२१ a ६ । २१ २ | २२ | १५ १९ २० २१ २२ २३ ९ १८ |२७ ९ a was wor १६ ६ | २३ | १३ १४ १२ १० ६ १२ १८ २४ १० २४ ११ २५ ८ ३ | २५ | २० umum Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ [ कल्याण- कलिका-प्रथमण्डे राशि अथ राशीन् प्रवक्ष्यामि, लब्धाः क्षेत्रफलेषु ये । तदनुक्रमयुक्तं च कथये तव सांप्रतम् ॥ १३० ॥ " भा०टी० - हवे क्षेत्रफल उपरथी निर्णीत थयेल नक्षत्रो वडे प्राप्त थती राशिओ अने तेओनो अनुक्रम तने कहुँ छु. गृहक्षेत्रेषु यदृक्षं, षष्टया संघातयेद् बुधः । पञ्चत्रिंशच्छत भक्ते, शेषा भुक्तिघटिको (टयु) समाः ॥ १३१ ऋक्षभुक्तिक्रमभुक्ताः, स्वस्वराशिक संस्थिताः । स्युर्मेषाद्या राशयश्च, अश्विन्यादिक्रमेषु च ॥१३२॥ भा०टी० - घरनु जे नक्षत्र आव्युं होय तेने ६० थी गुणवु, पछी ते गणित अंकने १३५ नो भाग देवो, जे लाभे ते मुक्त राशि अने जे शेष रहे ते वर्तमान राशिनी भोग्य घडिओ जाणवी, अश्विन्यादि क्रमथी नक्षत्र भुक्तिना क्रमानुसार मेषादि राशिओ आवशे. उदाहरण - गृह नक्षत्र ८ मुं पुष्य आव्युं छे, एने ६० थी गुणतां ४८० घडी थइ, एने १३५ नो भाग देतां ३ आव्या, एटले श्रीजी मिथुन राशि मुक्त थइ, वर्तमान भोग्य चोथी कर्क राशि आवी, एज प्रमाणे सर्वत्र गृहनक्षत्रना अंकने ६० थी गुणी १३५ नो भाग देतां गृहनी राशि आवशे. चातुर्वर्ण्य राशि " चातुर्वर्ण्यप्रशस्तांश्च राशीनथ वदाम्यहम् । तत्र त्रयस्त्रयः प्रोक्ता, विप्रशूद्रान्तमार्गतः ॥१३३॥ वृश्चिकः कर्कटो मीनो, ब्राह्मणाः परिकीर्तिताः । धनुर्मेषस्तथा सिंहो, राजन्याश्च शुभाः स्मृताः ॥ १३४॥ वृषः कन्या च मकर, एते वैश्या उदाहृताः । मिथुनं च तुला कुम्भ-स्त्रयः शूद्राः प्रकीर्तिताः ॥ १३५ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] भवेद् द्वादशभिर्विप्रः, क्षत्रियो नवभिस्तथा। षडाशिभिर्भवेद् वैश्य,-स्त्रिभिः शूद्रः प्रशस्यते ॥१३॥ भाण्टी-हवे चार वर्णने योग्य राशिओ कहुं छु. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अने शूद्र; आ चार वर्णों पैकीना प्रत्येक वर्ण माटे ३-३ राशि श्रेष्ठ कहेल छे. कर्क वृश्चिक मीन राशिमो ब्राह्मणने श्रेष्ठ छे, मेष सिंह धनु क्षत्रियने शुभ, वृष कन्या मकर वैश्यने श्रेष्ठ अने मिथुन तुला कुंभ ए त्रण शूद्रने श्रेष्ठ छे. ब्राह्मण बारेय राशिओथी श्रेष्ठ छे, क्षत्रिय नव राशिओथी, वैश्य छ राशिओथी अने शूद्र पोतानी त्रण राशिओथी ज श्रेष्ठ छे. आशय ए छे के उच्च वर्णवालाने नीच वर्णनी राशिवाला घरो शुभ छे पण नीच वर्णवालाने उच्चवर्णनी राशिवालां घरो सारां नथी. राशिकूटषडष्टके ध्रुवं मृत्युः, प्रीतिः स्यात् समसप्तमे। अनिष्टं पञ्च-नवमे, पुष्टिदश-चतुर्थके ।। १३७॥ तृतीयैकादशे मैत्री, द्वितीय-द्वादशे रिपुः । राशयः षइविधा एव,-मन्योन्यं पति-वेश्मनोः ॥१३८॥ भा०टी०-घर अने घर स्वामीनी राशि परस्पर छठी आठमी होयतो गृहस्वामीन मृत्यु थाय, परस्पर सातमी होय तो प्रीतिकारक, परस्पर नवमी पांचमी होय तो.अनिष्टकारक, परस्पर चोथी दशमी होय तो पुष्टिकारक, परस्पर त्रीजी अग्यारमी होय तो मैत्रीकारक अने परस्पर बीजी बारमी होय तो शत्रुताकारक जाणवी. आम घर अने घरस्वामिनी राशियोना छ संबन्धो बने छे, ते पैकीना त्रण अशुभ संबन्धवाली घरनी राशि वर्जनीय छे. वेश्मपत्योर्भवेच्चैव, ग्रहमैत्री परस्परम् । . न पीडयन्त्यात्मक्षेत्रं, स्नेहिनः क्षेत्रपालकाः ॥१३९॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखरे - भा०टी०-गृह अने गृहस्वामीनी राशिना स्वामीग्रहो परस्पर मित्र होय अथवा एक होय तो षडष्टक नवपंचम अथवा वीजी बारमी राशिनो दोष नथी, कारण के ग्रहो पोताना अथवा मित्रना क्षेत्रना पालक होवाथी पीडा करता नथी. चन्द्रगृहाग्रे च यदा चन्द्रः, कुरुते वेश्मनः क्षयम् । राट्चौराग्निभयं घोरं, चन्द्रो वै पृष्टिमागतः ॥१४०॥ धनं धान्यं क्षमारोग्यं, कुरुते दक्षिणे स्थितः। श्री-स्त्री-पुत्रानुत्तमांश्च, चन्द्रो वै उत्तरे स्थितः ॥१४१॥ भा०टी०-जो चन्द्रमा घरने सामे आवे तो घरनो नाश करे, घरनी पाछल आवे तो राजभय, चोरभय अने अग्निभय आदि घोर भय उत्पन्न करे, जो घरनी दक्षिण दिशामा रह्यो होय तो धन, धान्य, पृथिवी अने आरोग्यनो करनारो थाय अने जो उत्तरदिशामा रह्यो होय तो लक्ष्मी, स्त्री अने उत्तम पुत्रोनी प्राप्ति करावे. चन्द्रनो वासो जाणवानी रीतिसप्तोर्ध्वाः स्थापयेद्रेखाः, पुनर्भिन्नाश्च सप्तभिः। रेखा प्रोतानि साभिजिन्नक्षत्राण्यष्टविंशतिः॥१४२॥ कृत्तिकां दद्यादेशान्यां, शेषाणि प्रदक्षिणे। गृहक्षेत्रोक्तमृक्षं च, तत्र चन्द्रमुदीरयेत् ॥१४३॥ भा०टी०-७ रेखाओ ऊभी खेचवी, पछी आडी ७ रेखाओ बडे भेदवी, आम ७ ऊभी अने ७ आडी रेखाओ खेंची सप्तशलाका चक्र बनावq, ए पछी ईशान खूगानी ऊभी रेखा उपर 'कृत्तिका' नक्षत्र लखवू अने ते पछी बाकीनी रेखाओ उपर अनुक्रमे रोहिण्या Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] दि शेष अभिजित सहित २८ नक्षत्रो लखवां, जाणे के रेखाओना छेडाओमां परोव्यां होय तेम लखीने जोवु. निश्चित करेल घरनुं नक्षत्र ज्यां हशे त्यां चन्द्रनो वासो हशे. गृहनक्षत्र अने गृहारंभर्नु दिन नक्षत्र ए बंने नक्षत्रो घरद्वारने सामे अथवा पाछळ आवतां होय तो ते दिवसे घर बनाववानो कार्यारंभ कदापि न करवो. गृहनक्षत्र डावू-जमणुं होय छतां दिननक्षत्र पण सामे-पाछळ आवतुं होय तो ते दिवसे बनतां सुधी काम न करवू. देवालयमां वास्तुचन्द्र नेमज दिनचन्द्र सामे होय तो श्रेष्ठ गणाय छे. . व्ययनक्षत्रे वसुभिर्भक्ते, यच्छेषं व्ययमादिशेत् । अष्टौ व्ययास्तथा प्रोक्ता, आयेष्वष्टसु योजिताः॥१४४॥ आयाश्च कथिताः पूर्व, व्ययानां लक्षणं शृणु । एकैकस्यायसंस्थाने, व्ययोऽत्र त्रिविधः स्मृतः ॥१४॥ समो व्ययः पिशाचश्च, राक्षसस्तु व्ययोऽधिकः । व्ययो न्यूनो यक्षश्चैव, धन-धान्यकरः स्मृतः ॥१४६॥ भा०टी०-नक्षत्रनी संख्याना अंकने ८ नो भाग देतां जे अंक शेष रहे तेटलामो व्यय कह्यो छे. कुल आठ व्ययो कह्या छे, जे आठ आयोनी साथे योजायेला छे. आयो पूर्व कया छ एटले व्ययना संबन्धमा हवे सांभळ ! एक एक आयनी साथे व्यय त्रण प्रकारनो बने छे, आय समान व्यय ते पिशाच व्यय' कहेवाय छे, आयथी अधिक व्यय होय ते 'राक्षस व्यय' कहेवाय छे अने आयथी ओछो व्यय ते 'यक्ष व्यय' गणाय छे, ए यक्षव्यय धनधान्यनो करनारो छे. अनायव्ययकर्तार, आयहीना व्ययाऽधिकाः । व्ययाधिका विनश्यन्ति, अधिरेणैव सांप्रतम् ॥१४७॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ [कल्याण-कलिका-प्रथमवणे __ भाण्टी -आय वगर खर्च करनारा, ओछी आवक ने घणो खर्च करनारा अने आवक वाला पण अधिक खर्च करनारा थोडा ज समयमां विनाश पामे छे, तेम वास्तुने विषे पण जाणवु. ध्वजादिकेष्वष्टायेषु, अष्टौ शान्तादिका व्ययाः। प्रत्येकव्ययसंस्थाने, आयो न्यूनेतर : स्मृतः ॥१४८॥ शान्तः पौरश्चप्रद्योतः, श्रियानन्दो मनोहरः। श्रीवत्सो विभवश्चैव, चिन्तात्माच व्ययाः स्मृताः॥१४९।। आयस्थाने व्ययो योज्यो, ह्यऽप्रशस्तो व्ययोऽधिकः। व्ययो न्यूनस्तथा श्रेष्ठो, धन-धान्यकरः स्मृतः ॥१५०॥ भा०टी०-ध्वजादि ८ आयोनी साथे शान्तादिक ८ व्ययो आपवा, पण प्रत्येक व्ययना स्थाने आयर्नु स्थान अधिक होवु शुभ कर्तुं छे. १ शान्त, २ पौर, ३ प्रद्योत, ४ श्रियानन्द, ५ मनोहर. ६ श्रीवत्स, ७ विभव अने ८ चिन्तात्मा; ए आठ व्ययो छे. ज्यां आयनी योजना होय त्यां व्ययनी योजना होय ज, पण आय करतां व्यय अधिक होय तो अशुभ जाणवो. आयना नंबरथी व्ययनो नंबर नीचेनो होय तो ते श्रेष्ठ अने धन-धान्यने कग्नारो जाणवो. ध्वजे शुभः स्मृतो शान्तो, नित्यं कल्याणकारकः । भोगः पूजा बलिः शान्ति-नृत्यं गीतं सुरालये ॥१५१॥ धूमस्थाने यदा शान्तो, हेम-रत्नादि-संभवः । अग्न्युपजीविकानां च, धातु-द्रव्य-फलप्रदः ॥१५२॥ सिंहस्थाने च पौरश्चेत्, सिंहवच्च पराक्रमैः। निहन्ति रिपुसैन्यानि, यात्मस्थाने महोत्सवाः॥१५॥ प्रद्योतः श्वानसंस्थाने, नित्यं भोगसुखावहः । अनेकभोगशय्यादि-वेश्मादिहितकामदः ॥१५॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] श्रियानन्दो वृषस्थाने, नित्यं श्री-सुखशान्तिदः । व्यवहारोपस्कर द्रव्य, गुरुदेवार्चने रतिः ॥१५५|| मनोहरः खरे योग्यः, सर्वमनोरथप्रदः । समस्तभोगयुक्तानां, तीर्थयात्राप्रकाशकः ॥१५६॥ श्रीवत्सो गजसंस्थाने, स्त्रिया क्रीडात्मनः स्मृतः । शृङ्गारभोगयुक्तानां, बलपुष्टिप्रदायकः ॥१५७॥ विभवो ध्वाङ्क्ष-संस्थाने, शिल्पिनां हितकामदः । सूत्र-शस्त्रादि-सम्पन्न-भोगशृङ्गारनिश्चलः ॥१५८।। भा०टी०-'वजआय' स्थाने 'शान्त' व्यय शुभ अने सदा कल्याणकारी कह्यो छे. जो देवालयमां ध्वजायना स्थाने शान्त व्यय होय तो त्यां नित्य भोग नढे, पूजा थाय, नैवेद्य चढे, गीत नृत्य थया करे अने शान्तिकारक था. 'धूमाय ' स्थाने 'शान्तिव्यय' आपवामां आवे तो सुवर्ण-रत्नादिनी प्रमि थाय अने अग्निजीवीओने धातु-द्रव्यादिनो लाभ करावे. 'सिंह' । स्थाने 'पौर' व्यय होय तो ते वास्तुमा सिंह जेवा पराक्रमी पुरुषो पाके, जे शत्रुओनी सेनाने मारी पोताना घरे महोत्सव प्रवर्तावे. 'श्वान'ना स्थाने 'प्रद्योत" व्यय होय तो नित्य भोग सुखने आपे, अनेक भोग शय्यादि आफ्नार अने वेश्मादिने हित इच्छित देनार थाय. 'वृष 'ना स्थाने 'श्रियानन्द ' व्यय होय तो लक्ष्मी, सुख अने शान्ति देनारो थाय, व्यापारोपयोगी सामानथी घर भयु रहे अने ते वास्तुमा रहेनारने गुरु-देवनी पूजामां प्रीति रहे. 'खर' आयस्थाने मनोहर' व्यय देवो योग्य छ कारण के ए सर्व मनोरथ पूरनार छे, सर्व भोग संपन्न मनुष्योने पण ए तीर्थयात्रानी भावना करावे छे. 'गजआय'ना स्थाने 'श्रीवत्स' व्यय आवतां घरस्वामीने स्त्रीसुखनी प्राप्ति अने शृङ्गार भोगमा प्रवृत्तिमान् मनुष्योने बल अने पुष्टि आपे छे. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमलण्डे 'स्वाक्ष'ना स्थाने 'विभव' व्यय होय तो शिल्पकमिओने हित इच्छित आपे छे अने सूत्र-शस्त्रादिना शिल्पने जाणनारने भोग शृङ्गारमा निश्चल बनावे छे. सर्वेषु शान्तआयेषु, प्रशस्तः सर्वकामदः। षट्सु सिंहादिषु शुभः, पौरो धूमध्वजौ विना ॥१५९।। ध्वजे धूमे तथा सिंहे, प्रद्यो तादीन् विवर्जयेत् । शेषेषु ते प्रशस्ताश्च, ज्ञेयाः श्वानादिपञ्चसु ॥१६०॥ खरे वृषे श्रियानन्दो, गजे ध्वाक्षे च शोभनः । मनोहरं त्यजेत् सोऽथ, खरे ध्वाक्षे गजे शुभः ॥१६१।। श्रीवत्सश्च गजे ध्वाक्षे, विभवो ध्वाक्षके शुभः। व्ययो न्यूनतरः श्रेष्ठो, ह्यधिकश्चैव राक्षसः ॥१६२॥ चिन्तात्मकं व्ययं चापि, आयेष्वष्टसु वर्जयेत् । पिशाचकमायसम, न कुर्याच्छुभकर्मसु ॥१६३॥ भा०टी०-सर्व आय स्थानोमां 'शान्त व्यय' शुभ सर्व कामित फल आपनार छ भने सिंहादि छ स्थानोमां 'पौर' शुभ छे मात्र ध्वज. अने धूम शुभ नथी. ध्वज धूम अने सिंहस्थानमां प्रद्योतादि व्ययो वर्जवा, शेष श्वानादि ५ आयस्थानोमां प्रद्योतादि शुभ गणेला छे. खर, वृष, गज अने ध्वाङ्ग स्थानोमां श्रियानन्द व्यय श्रेष्ठ छे, पण मनोहरने टाळवो. मनोहर व्यय खर, गज अने बांक्षमा शुभ छे, श्रीवत्स व्यय गज अने ध्वाक्ष स्थानमा अने विभव केवल ध्वाक्ष स्थाने शुभ छे. जेम व्यय आयथकी न्यून अने न्यूनतर होय तेम श्रेष्ठ छे, अधिक व्यय राक्षस थाय छे. 'चिन्तात्मक' नामना छल्ला व्ययने आठेय आयस्थानोमां वर्जयो अने आयसम व्यय जे पिशाच थाय छे तेनो पण शुभकार्योमा त्याग करवो. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] आयस्थाने व्ययप्रदानकोष्ठक आयाः अष्टो व्ययाःध्वजे | १ शान्त. धूमे १ शान्त. सिंहे | १ शान्त, २ पौर. | श्वाने | १ शान्त, २ पौर, ३ प्रद्योत. वृषे | १ शान्त, २ पौर, ३ प्रद्योत, ४ श्रीयानंद. खरे | १ शान्त, २ पौर, ३ प्रद्योत, ४ श्रियानंद, ५ मनोहर. गजे | १ शान्त, २ पौर, ३ प्रद्योत, ४ श्रियानंद, ५ मनोहर, ६ श्रीवत्स. ध्वाक्षे, १ शान्त, २ पौर, ३.प्रद्योत, ४ श्रियानंद, ५ मनाहर, ६ श्रीवत्स, ७ विभव'. अंशकशृणु वत्स ! यथा चांशो, वास्तुवेदे त्रिधा स्मृतः। एकैकस्य क्रमस्थानं, शुभाशुभं प्रचक्षते । १६५।। यदुक्तो मूलराशिश्च, आयार्थाय फलीकृतः । तत्र राशौ व्ययो मिश्री, गृहनामाक्षराणि च ॥१६६।। गुणैभक्ते च यच्छेष-मंशकं त्रिविधं विदुः । इन्द्रो यमश्च राजा च, त्रिभिर्नामभिरंशकाः॥१६७॥ भा०टी०-हे अपराजित ! हवे वास्तुशास्त्रमा कहेल त्रण प्रकारना अंशकने सांभळ, अंशकोनु एक एक क्रमिक स्थान १ शुभ, २ अशुभ अने ३ शुभ; आ प्रमाणे कहेवाय छे. पूर्व आयने माटे दैयनो १ आठमो चिन्तात्मक व्यय सर्ववर्जित छे. ૧૪ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे विस्तारथी गुणाकार करीने क्षेत्र फलात्मक जे मूलराशि कह्यो छे. तेमां व्ययनो आंक मेळववो अने घर अथवा प्रासादना नामाक्षरोनो आंक मेळववो, पछी ते क्षेत्रफलनी अंक राशिने ३ नो भाग देवो, भाग लागतां जे शेष रहे ते त्रण पैकीनो एक अंशक जाणवो, १ शेष रहे तो पहेलो इन्द्रांशक, २ शेष रहे तो बीजो यमांशक अने ० शेष रहे तो बीजो राजांशक जाणवो, इन्द्र, यम अने राजा; आ त्रण नामोवडे त्रण अंशको ओळखाय छे. अंशकप्रदानस्थान-- प्रासाद-प्रतिमा-लिङ्ग, जगती-पीठ-मण्डपे । वेदी-कुण्ड-श्रुक्षु चैवे-न्द्रो ध्वजपताकादिके ॥१६८॥ क्षेत्राधीशे च नागेन्द्र, गणाध्यक्षे च भैरवे। ग्रहे मातृगुणे देव्यां, यमांशको धुरादिके ॥१६९॥ पुरप्राकार-नगर,-खेटे कूटे च कर्बटे। हर्म्य-राजवेश्मादीनां, शस्तो राजांशको मतः॥१७०॥ भा टी०-देवमन्दिर, देवप्रतिमा, शिवलिङ्ग, जगती, पीठ, मण्डप, वेदी, कुण्ड, श्रुचा, अने ध्वजापताका आदि; आ बधामां इन्द्रांशक ने यो श्रेष्ठ छे. क्षेत्रपाल, नागेन्द्र, गणाध्यक्ष, भैरव, ग्रहो, मातृकाओ अने देवी; आ बधाना स्थानोमां अने धुरा (स्थ-गाडा) आदिमा यमांशक लेवो. नगरनो कोट, नगर, खेड्डु, छावणी शाखानगर-महेल, राजमहालय आदि स्थानोमा राजांशक राखवो शुभ छे. स्वर्गादिभोगयुक्तानां, नृत्यगीतमहोत्सवे । प्रवरे पाण्डित्ये चेन्द्रां-शकः प्राज्ञोत्तमैमतः ॥१७१॥ वणिकर्मविधौ चैव, मद्यमांसादिकोद्भवे । इत्युक्तकमणि चैव, प्रशस्तः स्याद् यमांशक ॥१७२॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ प्रासाद-लक्षणम्] गजाश्वरथक्रीडायां, यानजम्पानकादिके । स्वर्गतुल्यभोगभुक्तो, राजांशकः शुभो मतः ॥१७३॥ भा टी-स्वर्गादितुल्य भोगयुक्त गृहस्थोनां घरो, गीतनृत्यादि उत्सव स्थानो अने श्रेष्ठ विद्याविलासनां स्थानोमां विद्वानोए इन्द्रांशकने उत्तम मान्यो छे. मद्य-मांसादिनां विक्रयस्थानो अने एज प्रकारना बीजा व्यवसायनां स्थानोमांज यमांशकने शुभ मानेलो छे. हाथी घोडा अने स्थवडे क्रीडनाराओनां क्रीडास्थानो, यान-वाहनोने विषे, अने स्वर्गोपम भोग भोगववानां स्थानोमां रांजांशक शुभ मानेल छे. तारागणयेत्स्वामिनक्षत्राद्, यावदृक्षं गृहस्य च । नवभिस्तु हरेद् भाग, शेषास्ताराः प्रकीर्तिताः ॥१७४॥ शान्ता मनोहरा क्रूरा, विजया कलिका तथा। पद्मिनी राक्षसी वीरा, ह्यानन्दा नवमी मता ॥१७५।। शान्ता शान्तिकरी नित्यं, मनोल्हादा मनोहरा । क्रूरा विवर्जिता प्राज्ञै,-चौराग्न्यादिभयंकरी ॥१७६॥ विजया जयकल्याणा, कलिका कलहप्रदा । पद्मिन्या प्राप्यते सौख्यं, महातीर्थफलं तथा ॥१७७॥ राक्षसी च तथा घोरा, निशायां भयदायिनी। वीरा सौम्या भोगदा च ह्यानन्दानन्दकारिणी ॥१७८॥ एवं नवविधाऽऽकारा, निराकारा हि तारकाः । क्षीणश्चन्द्रो यदा चारे, भवेत्तारा बलप्रदा ॥१७९॥ क्रूरा च कलिका चैव, राक्षसी तु तृतीयका । फ्राद्या इति वै तिस्रो, वर्जयेत् शुभकर्मसु ॥१८॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे शान्ता मनोहरा चैव, विजया पद्मिनी तथा । वीराऽऽनन्देति षट्तारा, नित्यं कल्याणकारिकाः ॥१८१॥ भा०टी०-गृहस्वामीना नक्षत्रथी गृहनक्षत्रपर्यंत गणीने नक्षत्र संख्याने ९ थी भागवी, शेष रहे ते गृहस्वामीनी तारा कही छे. शेष ? रहे तो शान्ता, २ रहे तो मनोहरा, ३ रहे तो क्रूरा, ४ रहे तो विजया, ५ रहे तो कलिका, ६ रहे तो पद्मिनी, ७ रहे तो राक्षसी, ८ रहे तो वीरा अने ९ रहे तो नवमी आनन्दा नामनी तारा जाणवी. १ 'शान्ता' नित्य शान्ति करनारी, २ 'मनोहरा' मनने प्रसन्नता देनारी छे. ३ 'क्रूरा' चौर अग्नि आदिनो भय करनारी होइ विद्वानोए वर्जित करी छे. ४ 'विजया' जय कल्याण करनारी, ५ 'कलिका क्लेश देनारी, ६ पद्मिनी' सुख अने महान तीर्थना फलने देनारी छे. ७ 'राक्षसी तारा नाम प्रमाणे ज घोर राक्षसी छे अने रात्रिना सनयमां भय देनारी छे, ८ 'वीरा' सौम्य अने भोग सुख देनारी छे, ज्यारे ९ 'आनन्दा' आनन्द करावनारी छे. आम नव प्रकारना आकारनी ताराओ कही, ज्यारे चन्द्रमा क्षीणबली होय त्यारे तारा बल देनारी होय छे. क्रूरा कलिका अने राक्षसी आ त्रण ताराओ शुभ कामोमां वर्जवी जोइये. शान्ता, मनोहरा, विजया, पद्मिनी, वीरा अने आनन्दा; आ ६ ताराओ नित्य कल्याण करनारी छे. अधिपतिकरराशिहतोच्छाये, भागैर्हते ततोऽष्टभिः । अधिपतिर्भवेच्छेषं, नाम्ना च सदृशं फलम् ॥१८॥ वितथः कनकश्चव, धूम्रकोऽवितथस्वरः । बिडालविजयौ चैव, दान्तः कान्तस्तथा मृगः ॥१८३॥ विषमायो भवेच्छस्त, आयहीना व्ययाः शुभाः। आधिपत्यं समं शान्तं, शुभदं सवेदा नृणाम् ॥१८४॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १०९ भा०टी०-क्षेत्रफलनी राशिवडे गुणेल गृहना उदयने ८ भागे भांगवाथी जे शेष रहे ते घरनो अधिपति जाणवो, अधिपति नाम प्रमाणे फल देनारो होय छे. १ वधे तो वितथ१, २ वधे तो कनक, ३ वधे तो धूम्रक, ४ वधे तो अवितथस्वर, ५ वधे तो बिडाल, ६ वधे तो विजय, ७ वधे तो दान्तमृग अने • वधे तो कान्तमृग नामनो अधिपति जाणवो. विषम आय शुभ होय, आयथी हीन व्यय होय ते शुभ होय अने अधिपतिपणुं सम संख्यावालं होय ते पण मनुष्योने माटे सदा शुभदायक होय छे. मतान्तरे अधिपतियद्वाऽऽयव्ययसंयोगे, यदैक्यं वसुभिर्भजेत् । शेषस्त्वधिपतिः केचिद्, विषमः स भयावहः ॥१८५॥ भा०टी०-अथवा आय तथा व्ययना आंकने जोडी आठे भागवाथी जे शेष रहे ते अधिपति, एम केटलाक आचार्यों कहे छे. अघिपति विषम होय तो ते भयकारक छे, अर्थात् पहेलो, त्रीजो, पांचमो अने सातमो ए ४ अधिपतिओ अशुभ छे, ज्यारे बीजो, चोथो, छटो अने आठमो ए ४ शुभ होय छे. १ ग्रन्थान्तरमा विकृत नाम छे. २ ग्रन्थान्तरमा कणक नाम छे. ३ ग्रन्थान्तरे धूम्रद नाम छे. ४ अन्यान्तरमां दुन्दुभि नाम छे. ५ ग्रन्थान्तरमां दान्त तथा कान्त नाम छे. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMAJ ११० [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे प्रासाद-अधिपति ज्ञानार्थक कोष्टक |१ वितथ | २ कनक | गृहोदयांगुलानि३ धूम्रक ४ अवितथ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ स्वर | ५ बिडाल ६ विजय ९/१० ११ १२ १३ १४ १५ १६ ७ दान्तमृग ० कान्त मृग (१७ ९ १ | १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ |१८ १०२ | २४६८२४६८ ४ ५ क्षेत्रफलांगुलानि २० १२ ४ | ४८४ ८ २१ १३ ५ | ५, २७४१६ "|२२ १४ ६ ६ ४ २८६४ |२३ १५ ७ |७६ ५४ ३ २ १ २४ १६ ८ ८८८८८८८ वास्तु जन्मतिथिआयव्ययतारांशा,-धिपान क्षेत्रफले क्षिपेत् । अर्भक्ते भवेल्लग्न,-मथ लग्नेऽष्टसंगुणे ॥१८६॥ हृते शरैकैः शेषं तु, तिथिर्नामसमं फलम् । तिथौ नवघ्ने वारः स्या-दौद्यो मुनिभिहते ॥१८७॥ भा०टी०-आय नक्षत्र, व्यय अंशक अने अधिपति ए बधानो आंक क्षेत्रफलमा जोडी १२नो भाग आपतां शेष रहे ते लग्न, ते लमना आंकने ८ थी गुणी १५नो भाग देवो, शेष रहे ते प्रतिप Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] दादि वास्तुनी जन्मतिथि जाणवी, आ तिथिओनां नामसमान फल होय छे, वास्तुमां बीज, आठम, बारस वर्जित छ, तिथिना आंकने ९ थी गुणी ने ७ नो भाग देवाथी वास्तुनो सूर्य आदि जन्मवार आवे छे. शुभ अङ्गोनी अधिकताथी वास्तुनी स्थिरताआय-व्ययांश-नक्षत्र,-तारा-चन्द्र-मैत्र्यादिकम् । प्रीतिरायुश्च मृत्युश्च, चिरं नन्दति चेच्छुभाः ॥१८८॥ भा०टी०-आय, व्यय, अंशक, नक्षत्र, तारा, चन्द्र, राशिमैत्री, ग्रहमैत्री, आयुष्य अने मृत्युकारी तत्व; आ सर्व वस्तुओ शुभ होय तो ते घर घणा काल पर्यन्त स्थिर रहे छे. केटलां अङ्गो शुभ होय तो सारांत्रिभिः श्रेष्ठैस्तु श्रेष्ठं स्यात्, पञ्चभिश्चोत्तमोत्तमम् । सप्तभिः सर्वकल्याणं, नवभिर्जयसंपदः ॥१८९॥ भान्टी०-३ श्रेष्ठ अंगो वडे वास्तु श्रेष्ठ गणाय छे, ५ श्रेष्ठ अंगो होय तो उत्तमोत्तम, ७ उत्तम अंगो बडे सर्वने कल्याणकारक अने ९ उत्तम अंगोवालं वास्तु होय तो तेना स्वामीने जय अने संपत्ति आफ्नारं थाय छे. वास्तुमा शुं शुं न लेवु ?न षट्काष्टकं त्रिकोणं, द्वादशी द्वितीयाष्टमी । न चाष्टवादशश्चन्द्र-स्तारा त्रि-पञ्च-सप्तमी ॥१९॥ न द्वितीयांशकं कुर्याद् , न वा चाष्टममायकम् । न चन्द्रोऽग्रे च पृष्टौ च, नववास्तुककर्मणि ॥१९॥ भा०टी०-नविन वास्तु निर्माण कार्यभां षडष्टक तथा नवपंचम राशिफूट न लेवू; बीज, आठम, बारस तिथि न लेवी; आठमो, Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे बारमो चन्द्र न लेवो; त्रीजी, पांचमी, सातमी तारा न लेवी; बीजो अंशक न लेवो; आठमो आय न लेवो अने सामो अने पाछल चन्द्रमा न लेवो. वास्तुनुं जीवन अने विनाशअष्टभिश्च हते क्षेत्रे, फले षष्ठिविभाजिते । लब्धे दशगुणे जीवो, मृत्यु भूतभाजिते ॥१९२।। पृथिव्यापस्तथा तेजो, वायुराकाशमेव च। पञ्चतत्त्वानि प्रोक्तानि, विभक्तानि स्युरन्तके ॥१९३।। अप्सु चाभिर्भवेन्मृत्यु,-स्तेजस्यग्निबलं भवेत्। वायुर्वायुको देहे, त्वाकाशे शून्यता भवेत् ॥१९४॥ धन-धान्येषु नष्टेषु, देहः पतति जर्जरः । इत्थं मृत्युः प्रभवेद्धि, पञ्चतत्वविनाशतः ॥१९५॥ भा०टी०-क्षेत्रफलने ८ गुणुं करी ६० थी भागवू, लब्ध फलने १० गणुं करतां जे आवे ते वास्तुना आयुष्यनो आंक जाणवो, ते जीवितना अंकने ५ नो भाग देतां जे शेष रहे तेटलामा भूतथी ते वास्तु नाश थशे एम जाणवु. १ रहे तो पृथ्वी, २ रहे तो पाणी, ३ रहे तो अग्नि, ४ रहे तो वायु अने ५ अर्थात् • रहे तो आकाशतत्त्वना कोप वडे ते वास्तुनो नाश जाणवो. अथवा जेम धन धान्यना नाशथी शरीर जर्जरित थइने पडी जाय छे, एज रीते पांच तत्त्वना विनाशथी वास्तु जीर्ण थइने पडी जाय छे. (४) प्रासादांग निरूपण जगतीमूल प्रासाद, एना मंडपो अने आ बधानी आगल पाछल डाबी जमणी कोटनी अंदरनी तमाम भूमिने शिल्पशास्त्रकारोए 'जगती'ना नामथी ओळखावी छे. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] जगतीनो आकार अने परिमाणआ जगतीनो छंद (आकार) एनी लंबाइ-पहोलाइ अने एनी उंचाइनु शास्त्रमा विस्तृत वर्णन थयेलुं छे. अपराजितपृच्छामां को छ के-- जगत्या लक्षणं वत्स, गणु वक्ष्यामि सांप्रतम् । सा चाऽमूढदिशाभागा, मनोज्ञा सर्वतः प्लवा ॥१९६॥ चतुरस्रा तथायता, वृत्ता वृत्तायता तथा। अष्टास्रा च तथा कार्या, प्रासादस्यानुरूपतः ॥१९॥ ज्येष्ठा कनिष्ठप्रासादे, मध्यमे मध्यसा तथा । ज्येष्ठे कनिष्ठा व्याख्याता, जगतीमानसंख्यया ॥१९८॥ कनिष्ठे भ्रमणी चैका, मध्यमे भ्रमणी-दयम् । ज्येष्ठे तिस्रो भ्रमण्यश्च, सांगोपांगिकसंख्यया ॥१९९।। प्रासादपृथुमानेन, द्विगुणा चोत्तमा तथा। मध्यमा चतुगुणा या,ऽधमा पञ्चगुणोच्यते ॥२०॥ भा०टी०-(विश्वकर्माजी कहे छ) हे पुत्र ! हवे जगतीन लक्षण कहुं छं, ते तुं सांभल. जगती अदिग्मूह, मनोहर अने सर्व दिशा तरफ जलवहनवाली जोइए; चोरस, लंबचोरस, गोल, लंबगोल अथवा अष्टास्त्र; जेवा छन्दनो प्रासाद दोय तेवा ज छन्दनी तेने अनुरूप जगतो करवी, कनिष्ठ प्रासादने ज्येष्ठ, मध्यम प्रासादने मध्यम तने ज्येष्ठ प्रासादने कनिष्ठमाननी जगती बनावी. कनिष्ठ प्रासादनी जगतीमां एक, मध्यम प्रासादनी जगतीमां बे अने ज्येष्ठमानना प्रासादनी जगतीमा सांगोपांग त्रण भ्रमणीओ करवी. उत्तममानना प्रासादने तेना विस्तारथी बे गुणी, मध्यममानना प्रासादने चार गुणी अने कनिष्ठमानना प्रासादने पांच गुणी जगती Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे राखवी; कनिष्ठादि प्रासादोना योगे आ जगतीओ पण उत्तमा, मध्यमा अने कनिष्ठा; ए नामोथी ओळखाय छे. ठक्कुर फेरुना मते जगतीन मानजगई पासायंतरि, रसगुणा पच्छा नवगुणा पुरओ। दाहिणवामे तिउणा, इअ भणियं खित्तमज्जायं ॥२०१। भा०टी०-जगति प्रासादने आंतरे पाछल छ गुणी, आगल नवगुणी, अने डाबी-जमणी तरफ त्रण-त्रणगुणी राखयी. आ प्रमाणे प्रासादभूमिनी मर्यादा प्रथम निश्चित करीने कार्यारंभ करवो. जगतीनी उंचाईएकहस्ते तु प्रासादे, जगत्या उच्छ्यः समः। द्विहस्ते हस्तः सार्धस्तु, त्रिहस्ते तु द्विहस्तकः ॥२०२॥ साधद्विकर उत्सेधः, प्रासादे वेदहस्तके । चतुर्हस्तस्योपरिष्टाद्, यावद् द्वादशहस्तकम् ॥२०३॥ प्रासादस्यार्धमानेन, त्रिभागेन ततः परम् । चतुर्विशतिहस्तान्तं, कारयेत्तद्विचक्षणः ॥२०४॥ पादेनैवोच्छ्यं तावद् , यायापच्चाशहस्तकम् । एवमन्यश्च कर्तव्यो, जगतीनां समुच्छ्रयः ॥२०५॥ भा टी०-एक हाथना प्रासादनी जगती एक हाथ उंची करवी, बे हाथना प्रासादनी दोह हाथ, त्रण हाथना प्रसादनी बे हाथ अने चार हाथना प्रासादनी जगती अढी हाथ उंची करवी. चार हाथ पछीथी बार हाथ सुधीना कोइ पण माननो प्रासाद होय तो प्रासादना अर्धमाननी ऊंचाईवाली जगती करवी, पांच हाथे अढी, छ हाथे त्रण, सात हाथे साढी त्रण, आठ हाथे चार, नवहाथे साढीचार, दशहाथे पांच, अग्यारहाथे साढीपांच, अने बारहाथना प्रासादे जगती छ हाथनी उंचाईमां करवी. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ प्रासाद-लक्षणम् ] १०८ भागनो मंडोवरो-० ते पछी बुद्धिमान शील्पीए १३ थी २४ हाथ पर्यन्त ऊंचा प्रासादनी जगती त्रीजाभागे अने २५ थी ५० हाथपर्यन्तनी ऊंचाईवाला प्रासादनी जगती प्रासादमानथी चोथा भागनी ऊंचाईए करवी, उक्त प्रकारे तथा एथी जुदा प्रकारनी पण जगतीओनी ऊंचाई करी शकाय छे. जगतीनी ऊंचाईनो बीजो प्रकारप्रासादार्धाऽर्कहस्तान्ते, व्यंशा द्वाविंशतिकरे । द्वात्रिंशदन्ते तुर्यांशा, भूतांशा च शतार्धके ॥२०६।। भाण्टी०-१ थी १२ हाथ सुधीना मानना प्रासादोनी जगती प्रासादना विस्तारथी अर्धमाननी, १३ थी २२ हाथ सुधीना प्रासादोनी प्रासादना त्रीजा भागनी, २३ थी ३२ हाथ सुधीना प्रासादोनी प्रासादना चोथा भागनी अने ३३ थी ५० हाथ सुधीना प्रासादोनी जगती प्रासादमानना पांचमा भाग जेटली ऊंची करवी, १२ हाथ सुधी प्रतिहाथे १२ आंगलनी, २२ हाथ सुधी ८ आंगलनी, ३२ हाथ सुधी ६ आंगलनी अने ५० हाथ सुधी पोगा पांच आंगलनी हाथप्रति वृद्धि करवी. खरशिलाजगती जेटली ऊंची लेवी होय तेटली लईने तेनो उपरनो भाग पत्थरो वडें अथवा इंट चूना वगेरेथी अत्यंत दृढ बनाववो, आ उपस्तिन भागने अतिशय कठोर होवाना कारणे शिल्पशास्त्रकारोए 'खरशिला' ए नामथी वर्णव्यो छे, ए संबन्धमा प्रासाद मंडनकार लखे छे अतिस्थूला सुविस्तीर्णा, प्रासाद्धारिणी शिला । अतीव सुदृढा कार्या, इष्टका-चूर्ण-वारिभिः ॥२०७॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भा०टी०-प्रासादने धारण करनारी खरशिला घणी जाडी अने विस्तारवाली करवी, इंट चूना अने जल वडे एने अत्यंत मजबूत बनाववी. आ खरशिलानुं दल प्रासादना प्रमाणमां ओळुवतु जाडं करवू, सामान्य रीते १६ आंगलनी आडाईमां आ शिला करवी. पण प्रासाद बहुज न्हानो होय तो एथीये ओछी जाडी करवी, जेमके प्रासाद १ हाथनो होय तो खरशिला ६ आंगल जाडी करवी, पण ते पछी ५ हाथ पाछल १-१ आंगलनी वृद्धि करबी, अर्थात् २ हाथनो होय तो ७ आंगल, ३ हाथे ८ आंगल, ४ हाथे ९ आंगल अने ५ हाथे १० आंगल जेटली खरशिला जाडी करवी, ६ थी ९ हाथ सुधीना प्रासादनी खरशिलानी जाडाईमां हाथ प्रति अर्ध अर्ध आंगलनो वधारो करवो, १० थी २. हाथ सुधी पाव आंगलनी अने २१ थी ५० हाथ सुधीमां हाथ दीठ १-१ जवनी (शिलाना पिंडमां) वृद्धि करवी. आ प्रमाणे करतां ५० हाथना प्रासादनी खरशिला २० आंगल जाडी थशे. __ जगतीनी आसपासना प्रदेशनी भूमि जो नीची होय अने भविष्यमां जलभयनी संभावना होय तो जगती उपर मूलप्रासादना स्थाने प्रथम उपपीठ चणावq. ___ उपपीठनो विस्तार अने छन्द तो पीठना जेबोज कराववो, पण एनो उंचाईनो नियम नथो, जेटली आवश्यकता होय तेटली उंचाईमां करवी; उपपीठ होय तो तेनी उपर अने तेना अभावमां जगती उपर प्रासादना मूलस्थाने सूत्र छांटीने ९ अथवा ५, जेटली शिलाओ प्रतिष्ठित करवी होय तेटला खाडाओ प्रथमथी ज राखवा, निधिकलशो राखवा माटे खाडाओमां बीजा न्हाना खाडाओ राखवा, अथवा नीचे न्हाना खाडावाली उपशिलाओ गोठववी, शुभ मुहूर्त निधिकलशो अने शिलाओनी प्रतिष्ठा करीने उपपीठ अथवा जगती Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] ११७ उपरना ते खाडाओ घराबर करी देवा अने पछी प्रासादनुं चणतर शरु करतां प्रथम भीटनो थर चणवो. भीटपीठ नीचे अने खरशिला उपर बच्चे जे थर आवे छे तेने शिल्पशास्त्रो 'भिट्ट' ए नामथी उल्लेखे छे. भीटनो पिंड (जाडाई) प्रासादना मानानुसारे ओछोवत्तो होय छे. शास्त्र कहे छे शिलोपरि भवेद् भिट्ट,-मेकहस्ते युगागुला। अर्धाङ्गुला भवेद् , वृद्धिर्यावद्धस्तशतार्धकम् ।।२०८।। अगुलेनांशहीनेन, अर्धेनाऽर्धेन च क्रमात् । पञ्चदिक्-विशतिर्यावच्छताधं च विवर्धयेत् ।।२०९।। भाण्टी-खरशिला उपर भीट होय छे, के जेनी जाडाई एक हाथना प्रासादे ४ आंगलनी होय छे अने ते पछी ५० हाथ सुधी हाथ प्रति अर्ध आंगलनी वृद्धिए पिंड रचाय छे, बीजी रीते १ हाथथी ५ हाथ सुधी एक आंगलनी, ६ थी १० सुधी पोणाआंगलनी ११ थी २० सुधी अर्ध आंगलनी अने २१ थी ५० सुधी पाव आंगलनी वृद्धिए भीटनो पिड राखतो. भीट एक बे अने त्रण पर्यन्त होइ शके छे, पहेलाथी बीजं अने बीजाथी त्रीजें भीट उंचाईमा ओर्छ करवु, तेमज जे भीटनी जेटली उंचाई होय तेना चोथा भाग जेटलो तेनो निर्गम (निकालो) करवो, भीट उपर पीठनुं चणतर कम्वु. पीठपीठ अनेक प्रकारनां होय छे. प्रासादना मानने अनुसारे पीठनी मांडणी कराय छे, प्रासाद म्होटा माननो होय तो तेनी उंचाई अधिक होवाथी पीठना सामान्य थरो उपर गजथर-अश्वथर आदि बीजा थरो देइने तेने महापीठ बनावाय छे, पण प्रासादमान कनिष्ठ होय अने थोडा खर्चभां काम पतावq होय तो पीठ पण प्रण अथव! पांच साधारण थरोवालं बनावाय छे. शास्त्रमा कयुं छे के Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे गजाश्वनर पीठाद्य-मल्पद्रव्ये न संभवेत् । जाडयकुम्भश्च कर्णाली, प्रशस्ता सर्वकामदा ॥२१० ॥ जाडयकुम्भः कर्णकश्च, ऊर्ध्वं वै शीर्षपत्रिका | शिरःपाली विना त्वेवं, कर्णपीठं तु कारयेत् ॥ २११ ॥ भा०टी० - थोडा धनमां गजथर अश्वथर नरथरादि रूपवालुं पीठ बनवुं संभवित नथी, माटे एवी स्थितिमां जाडंवो अने कणी पण तेवा अल्प द्रव्यवाला भक्तोनी इच्छा पूर्ण करी शके छे, अर्थात् जाऊंचा अने कणीना थरो वडे पण पीठ बनावी शकाय छे. जाडंबो कणी अने उपर ग्रासपट्टी; आ थरोवालुं अथवा केवल जाऊंगा-कणीथो बनेलं पीठ 'कर्णपीठ' नामथी ओलखाय छे. ११८ पोठनो उदय पीठनो उदय प्रासादना मान प्रमाणे अधिक ओछो होय छे, कनिष्ठ मानना प्रासादे पीठनो उदय तेना प्रमाणमां अधिक होय छे, पण जेमजेम प्रासादनुं मान अधिक होय तेम तेम पीठनुं मान ओछु थतुं जाय छे. अपराजित पृच्छामां कहां छे के एकहस्ते तु प्रासादे, पीठं वै द्वादशांगुलम् | , द्वयष्टांगुलं द्विहस्ते च त्रिहस्तेऽष्टादशांगुलम् ॥ २१२ ॥ अर्धं पादं त्रिभागं वा, त्रिविधं परिकल्पयेत् । त्र्यंशोनार्धेन पादेन, चतुर्हस्ते सुरालये ॥ २१३ ॥ पादः पीठोच्छ्रयः कार्यः, प्रासादे पञ्चहस्तके | पञ्चोर्ध्व दशपर्यन्तं, रसांशो हस्तवृद्धये ॥ २१४ ॥ ततो हस्ते चाष्टमांशो, वृद्धिः स्याद् विंशत्यवधि । त्रिंशदन्ता वृद्धिस्तु, हस्ते वै द्वादशांशिका ||२१५|| चतुर्विंशत्यंशिका त, - दूर्ध्वं यावच्छतार्धकम् । मध्ये न्यूनेऽधिके पञ्च-मांशे ज्येष्ठं कनिष्ठकम् ॥ २१६ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] त्रिज्येष्ठमिति च ख्यातं, त्रिमध्यं त्रिकनिष्ठकम् । तस्याभिधानं वक्ष्येह-मुदितं नवधोच्छूयात् ॥२१७॥ भाण्टी०-१ हाथना प्रासादने पीठ १२ आंगलन करवू, २ हाथे १६ अने ३ हाथे १८ आंगलचं पीठ करवू, अर्थात् आ त्रणे प्रासादोने अनुक्रमे पोताना अर्धा भागे, श्रीजा भागे अने चोथा भागे पीठ करवु, ४ हाथना प्रासादने एना मानथी एक तृतीयांश हीन, अर्धमाने, अथवा चोथा भागे उंचं पीठ करवु; पांच हाथना प्रासादने तेना चोथा भागे अर्थात् ३० आंगलर्नु पीठ करवु, ६ थी १० हाथ सुधीना प्रासादोना पीठोमा ४ आंगलनी वृद्धि करवी, ११ थी २० हाथ सुधी प्रतिहस्ते ३नी, २१ थी ३६ हाथ सुधी प्रतिहस्ते २ नी अने ३७ थी ५० हाथ सुधी प्रतिहस्ते १ आंगलनी पीठना उदयमा वृद्धि करवी. पीठर्नु उक्त मध्यमान छे, आमांथी पोतानो पञ्चमांश ओछो करवायी ज्येष्ठ (कनिष्ठ) अने उमेरवाथो कनिष्ठ (ज्येष्ठ) पीठ बने छे. ___ उपर्युक्त ज्येष्ठ, मध्यम अने कनिष्ठ; आ प्रत्येकना ज्येष्ठज्येष्ठ, ज्येष्ठमध्यम अने ज्येष्ठकनिष्ठ; मध्यमज्येष्ठ, मध्यममध्यम अने मध्यमकनिष्ठ तथा कनिष्ठज्येष्ठ, कनिष्ठमध्यम अने कनिष्ठकनिष्ठ; आम ३-३ भेद पाडतां उदय ९ प्रकारनो थाय छे. अने उदयना मेदे पीठ पण ९ प्रकारनां बने छे, जेनां नामो आ प्रमाणे छे शुभदं सर्वतोभद्रं, पद्मकं च वसुन्धरम् । सिंहपोठं तथा व्योम, गरुडं हंसमेव च ॥ २१८ ॥ वृषभं यत् भवेत्पीठं, मेरोराधारकारणम् । पीठमानमिदं ख्यातं, प्रासादे आदिसीमया ॥२१९॥ भा०टी०-१ शुभदपीठ, २ सर्वतोभद्रपीठ, ३ पनपीठ, ४ वसुन्धरपीठ, ५ सिंहपीठ, ६ व्योमपीठ, ७ गरूडपीठ, ८ हंसपीठ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे अने ९ घृपभपीठ; आ छल्लं वृषभपीठ मेरु प्रासादने होय छे, आम प्रासादनी आदि सीमा, एटले तेना विस्तारने अनुसारे पीठोनुं मान कपु. नवपीठोनां नामो अने अंगुलात्मक मान १ हाथना प्रासादना ज्येष्ठज्येष्ठ पीठy नाम 'शुभद' अने मान १२ आंगलनु. २ हाथना प्रासादना ज्येष्ठमध्यम पीठy नाम 'सर्वतोभद्र' अने मान १६ आंगलमुं. ३ हाथना प्रासादना ज्येष्ठकनिष्ठ पीठy नाम 'पद्मपीठ' अने मान १८ आंगलमुं. ४ हाथना प्रासादना मध्यमज्येष्ठ पीठy नाम 'वसुन्धर' अने मान २४ आंगलमुं. ५ हाथना प्रासादना मध्यममध्यम पीठy नाम 'सिंहपीठ' अने मान ३० आंगलनु. ६ थी १० हाथना प्रासादोना मध्यमकनिष्ठ पीठy नाम 'व्योमपीठ' अने मान ६ हाथे ३४, ७ हाथे ३८, ८ हाथे ४२, ९ हाथे ४६ अने १० हाथे ५० आंगलनु होय छे. ११ थी २० हाथ सुधीना प्रासादोना कनिष्ठज्येष्ठ पीठy नाम 'गरुडपीठ' अने मान ११ हाथे ५३, १२ हाथे ५६, १३ हाथे ५९, १४ हाथे ६२, १५ हाथे ६५, १६ हाथे ६८, १७ हाथे ७१, १८ हाथे ७४, १९ हाथे ७७, अने २० हाथे ८० आंगलनु राखg. ___ २१ थी ३६ हाथना प्रासादोना कनिष्ठमध्यम पीठनुं नाम 'हंसपीठ' छे अने मान २१ हाथे ८२, २२ हाथे ८४, २३ हाथे ८६, २४ हाथे ८८, २५ हाथे ९०, २६ हाथे ९२, २७ हाथे ९४, २८ हाथे ९६, २९ हाथे ९८, ३० हाथे १००, ३१ हाथे १०२, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ प्रासाद-लक्षणम्] ३२ हाथे १०४, ३३ हाथे १०६, ३४ हाथे १०८, ३५ हाथे ११०, अने ३६ हाथना प्रासादे ११२ आंगलनी ऊंचाईनुं पीठ जाणवु. ३७ थी ५० हाथ सुधीना प्रासादोना कनिष्ठकनिष्ठ पीठy नाम 'वृषभपीठ' अने मान ३७ हाथे ११३, ३८ हाथे ११४, ३९ हाथे ११५, ४० हाथे ११६, ४१ हाथे ११७, ४२ हाथे ११८, ४३ हाथे ११९, ४४ हाथे १२०, ४५ हाथे १२१, ४६ हाथे १२२, ४७ हाथे १२३, ४८ हाथे १२४, ४९ हाथे १२५ अने ५० हाथना प्रासादे पीठमान १२६ आंगलर्नु होय. लतिनादि ५ प्रासादोनां पीठोनो उदय अपराजित पृच्छाविभक्ते चैकविंशत्या, प्रासादस्य समुच्छये । पीठानि पञ्च पश्चादे-नवान्तं भागवृद्धितः ॥२२०॥ लतिने वाथ मान्धारे, नागरे मिश्रके पि वा। विमाने पि समाख्यातः, पोठमानसमुच्छ्रयः ।।२२१॥ भा०टी०-प्रासादना उदयना २१ भाग करवा, ते एकविंशिया ५ भागथी ९ भाग सुधीना उदयवाला अनुक्रमे लतिन आदि ५ प्रासादोने माटे ५ पीठो करवां, लतिनने ५ भाग, सान्धारने ६ भाग, नागरने ७ भाग, मिश्रकने ८ भाग अने विमानने ९ भाग जेटली पीठनो उदय करवो. पीठोदयना भागोत्रिपञ्चाशत्समुत्सेधे, द्वाविंशत्यंशनिर्गमे । नाशो जाडयकुम्भश्च, सप्तांश कर्णकं भवेत् ॥२२२॥ सान्तरं छजिका युक्ता,सप्तांशा ग्रासपदि(हि)का। सूर्यदिग्वसुभागाश्व, गजवाजिनराःक्रमात् ॥२२३॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे वाजिस्थानेऽथवा कार्य, स्वस्वदेवस्य वाहनम् । भा०टी०-उदयमा ५३ भाग अने निर्गममा २२ भागवाला पीठमा जाडंबो ९ भागनो, अंत्रोट सहित कणी ७ भागनी, छाजली सहित ग्रास पट्टि ७ भागनी, गजथर १२ भागनो, अश्वथर १० भागनो अने नरथर ८ भागनो उचो करवो, अथवा अश्वथरना स्थाने पोतपोताना देवना वाहननो थर करवो. अपराजितपृच्छामा निर्गमन प्रमाणजाडयकुम्भः पञ्चभागः, कर्णाली चाष्टभागिका। गजपीठं चतुर्भागं, त्रिभागं वाजिपीठकम् ।।२२४॥ नरपीठं द्विभागं च, कर्तव्य शुभलक्षणम् ।। खुरकाज्जाडयकुम्भान्तं, द्वाविंशभागनिर्गतम् ॥२२५।। भा०टी०-जायो ५ भाग, कणी ८ भाग, गजपीठ ४ भाग, अश्वपीठ ३ भाग अने नरपीठ २ भाग जेटलुं निर्गमे करवू, आम पीठ उपरना खुराथी जाडंबो २२ भाग जेटला निर्गमे करवो. गजथरादि विनानुं पीठ होय तो तेना उदयना २३ भाग करीने जाडंबो ९ भाग, कणी ७ भाग अने ग्रासपट्टी ७ भाग उदयमा करवी. एज प्रमाणे निर्गमना २२ भागोमांथी गजादि थरोना ९ भागो ओछा करी निर्गम १३ भागनो करबो, तेमा जाडंबो ५ भागनो अने कणी ८ भागनी निर्गमे करवी, जो ग्रासपट्टी थरमां हाय तो पण निर्गम तो १३ भागनो ज करवो, जाडंबो ५ भागना निर्गमे करी कणी अने ग्रासपट्टी बने समसूत्रे ८ भाग जेटली निर्गमे करवी. प्रासादनो उदय-- १ ला प्रकारनो उदयपीठ उपरथी प्रासादनां चणतरनो प्रारंभ थाय छे, प्रासादना Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १२३ मानने अनुसारे तेनो उदय अधिक ओछो करवानुं विधान के, १ हाथथी मांडीने ५० हाथ सुधीना मानना प्रासादो होय छे, एमा ओछा माननां प्रासादोनो उदय अधिक अने अधिकमानना प्रासादोनो उदय ओछो करवामां आवे छे, छेल्ला ५० हाथना प्रासादनो उदय मात्र २५ अथवा तो २६ हाथनो होय छे, ज्यारेकनिष्ठमां कनिष्ठ २५ आंगलना प्रासादनो ३३ अने ज्येष्ठमाने ३८ आंगलनो उदय थइ शके छे, ए विषे अपराजित पृच्छानुं विधान एकहस्ते तु प्रासादे, त्रयस्त्रिंशद्भिरगुलेः । द्विहस्ते तु प्रकर्तव्यः, पञ्चपञ्चाशदंगुलैः ॥२२६॥ सप्तसप्तत्यंगुलैश्च, प्रासादे तु चिहस्तकें । चतुर्हस्ते तु प्रासादे, एकोनशतसंख्यकैः ॥२२७॥ प्रासादे पश्चहस्ते सै-कविंशतिशतांगुलैः । पञ्चहस्तान्ततो वृद्धि,-ईस्वं कुर्यात्तदृवंतः ॥२२८॥ पञ्चहस्तादूर्वतश्च, यावत्स्यान्नवहस्तकम् । हूस्वं हस्तार्धभागेन, पञ्चोर्ध्व च नवान्तकम् ॥२२९॥ ता त्रयोदशान्त, पादभागं परित्यजेत् । अष्टमांशं ततो हूस्वं, यावद्विशतिहस्तकम् ॥२३०॥ ततो द्वात्रिंशदंश च, हस्वं यावच्छताधकम् । प्रहारान्तं कुंभकादे,-रुच्छ्रयो नागरे मतः ॥२३१॥ भाटी-एक हाथना प्रासादनो उदय १ हाथ ९ आंगलनो करवो, २ हाथना प्रासादे २ हाथ ७ आंगल, ३ हाथे ३ हाथ ५ आंगल, ४ हाथे ४ हाथ ३ आंगल, अने ५ हाथे ५ हाथ १ आंगलनो प्रासादनो उदय करवो, आम पांच हाथ सुधी तो व्यास थकी उदय अधिक छे, पण पांच हाथ उपरना मानना प्रासादोमां व्यासनी अपेक्षाए उदयमान ओछु थतुं जाय छ, ६ हाथथी ९ हाथ सुधीना प्रासा Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे दोना उदयमा प्रत्येक हाथे १२-१२ आंगलनो हास करवो, एटले ६ हाथे ५ हाथ १३ आंगल, ७ हाथे ६ हाथ १ आंगल, ८ हाथे ६ हाथ १३ आंगल, ९ हाथे ७ हाथ १ आंगलनो उदय थाय. १० थी १३ हाथ सुधीना प्रासादोनो उदय प्रतिहस्ते ९ आंगल वधारीने करवो, अर्थात् १० हाथे ७ हाथ १० आंगल, ११ हाथे ७ हाथ १९ आंगल, १२ हाथे ८ हाथ ४ आंगल अने १३ हाथे ८ हाथ १३ आंगलनो उदय करवो. १४ थी २० हाथ सुधीना प्रासादोनो उदय प्रतिहस्ते ७ आंगल ७ जवनी वृद्धिए करवो, एटले के १४ हाथे ८ हाथ २० आंगल ७ जव, १५ हाथे ९ हाथ ४ आंगल ६ जव, १६ हाथे ९ हाथ १२ आंगल ५ जव, १७ हाथे ९ हाथ २० आंगल ४ जव, १८ हाथे । १० हाथ ४ आंगल २ जव, १९ हाथे १० हाथ १२ आंगल २ जव, २० हाथे १० हाथ २० आंगल १ जवनो उदय करवो. २१ थी ५० हाथ सुधीना प्रासादोना उदयमां प्रतिहस्ते ७ आंगल १ जवनी वृद्धि करवी. २१ हाथे ११ हाथ ३ आंगल २ जव, २२ हाथे ११ हाथ १० आंगल. ३ जव, २३ हाथे ११ हाथ १७ आंगल ४ जव, २४ हाथे १२ हाथ ५ जव, २५ हाथे १२ हाथ ७ आंगल ६ जव, २६ हाथे १२ हाथ १४ आंगल ७ जब, २७ हाथे १२ हाथ २२ आंगल, २८ हाथे १३ हाथ ५ आंगल १ जब, २९ हाथे १३ हाथ १२ आंगल २ जव, ३० हाथे १३ हाथ १९ आंगल ३ जव, ३१ हाथे १४ हाथ २ आंगल ४ जव, ३२ हाथे १४ हाथ ९ आंगल ५ जव, ३३ हाथे १४ हाथ १६ आंगल ६ जव, ३४ हाथे १४ हाथ २३ आंगल ७ जव, ३५ हाथे १५ हाथ ७ आंगल, ३६ हाथे १५ हाथ १४ आंगल १ जब, ३७ हाथे १५ हाथ २१ आंगल २ जव, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १२५ ३८ हाथे १६ हाथ ४ आंगल २ जव, ३९ हाथे १६ हाथ ११ आंगल ४ जव, ४० हाथे १६ हाथ १८ आंगल ५ जव, ४१ हाथे १७ हाथ १ आंगल ६ जव, ४२ हाथे १७ हाथ ८ आंगल ७ जव, ४३ हाथे १७ हाथ १६ आंगल, ४४ हाथे १७ हाथ २३ आंगल १ जव, ४५ हाथे १८ हाथ ६ आंगल २ जव, ४६ हाथे १८ हाथ १३ आंगल ३ जव, ४७ हाथे १८ हाथ २० आंगल ४ जव, ४८ हाथे १९ हाथ ३ आंगल ५ जव, ४९ हाथे १९ हाथ १० आंगल ६ जव, अने ५० हाथे १९ हाथ १७ आंगल ७ जव. ___ नागर जातिना प्रासादोनुं उदयमान कुंभक थरथी आरंभीने प्रहार थर यर्यन्तनुं मानेलं छे, ते उपर प्रमाणे जाणवू. __अपराजितकारे पांच जातना पीठोनो उदय काढवा माटे उपयुक्त कनिष्ठमान बताव्यु छे, ए वस्तु कही, पण पीठोदयना अधिकारमां ज छ एटले एनो उपयोग पीठ पूरतो ज हशे एम लागे छे. केमके एज ग्रन्थकार आगळ जइने नागरादि प्रासादोर्नु उत्तम उदयमान जुदं बतावे छे. जे नीचे प्रमाणे छे २ जा प्रकारनो उदयएकहस्ते चोदयस्तु, स्यात्त्रयस्त्रिंशदंगुलैः। प्रासादे च द्विहस्ते तु, पञ्चपञ्चाशदंगुलैः ॥२३२॥ सप्सप्तत्यंगुलानि, प्रासादे तु त्रिहस्तके । एकोनशतागुलैश्च, वेदहस्ते सुरालये ॥२३३ ॥ प्रासादे पंचहस्ते चै,-कविंशत्युत्तरं शतम् । हास-वृद्धी पञ्च यावद् , इस्वं कुर्यात्तदूलतः ॥२३४।। पश्चोय नवपर्यन्तं, वृद्धिर्मन्वंगुलैर्भवेत् । अष्टहस्तोदयश्चैवं, प्रासादे दशहस्तके ॥२३५॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे विंशत्यन्तं दशोज़ च, वृद्धिः सूर्यांगुलैर्भवेत् । प्रयोदशकराः सप्ता-गुलं विंशतिहस्तके ॥२३६॥ अत ऊर्ध्वं पुनर्वृद्धि-हस्ते हस्ते करार्धतः। त्रिंशद्धस्ते सप्तांगुलं, हस्ता अष्टादशैव च ।।२३७॥ ऊर्ध्वं पश्चाशदन्तं च, हस्ते हस्ते नवांगुलाः। कराणां वै सार्धपश्च-विंशतिश्च शताधके ।।२३८॥ एकोनविंशत्यंगुला, कामदा च तदग्रतः। एषा युक्तिर्विधातव्या, प्रासादस्योत्तमोदये ॥२३९॥ नागरे लतिने चैव, सान्धारे चैव मिश्रके। विमान-नागर-छन्दे, कुर्याद्विमानपुष्यके ॥२४०॥ कुंभकादि-प्रहारान्तं, प्रयुक्तं वास्तुवेदिभिः। तद्धस्तात्तु पीठं स्या-दूर्ध्वं च शिखरोदयः ॥२४१।। विस्तारसम उत्सेधे, यावत् प्रथमभूमिका । शृंगं कूटोदयं त्यक्त्वा , शेषं मंडोवरो भवेत् ॥२४२॥ भा०टी०-१ हाथना प्रासादे ३३ आंगलनो उदय, २ हाथे ५५, ३ हाथे ७७, ४ हाथे ९९ अने ५ हाथे १२१ आंगलनो उदय जाणवो. आम ५ हाथ सुधी हास करवा छतां प्रासादना विस्तारथी उदय कंइक अधिक होय, पण ते पछी प्रत्येक विस्तारना हाथप्रति उदयमा हास ज थतो जाय, पांच पछी ६ थी ९ पर्यन्त प्रतिहाथे उदयमा १४-१४ आंगलनी वृद्धि करवी, अर्थात् १०-१० आंगलनो हास करवो. १० हाथना प्रासादनो उदय ८ हाथनो करवो, दश उपरान्त २० हाथ सुधी प्रतिहस्ते १२-१२ आंगलनी वृद्धि करवी, एटले के १२-१२ आंगलनो हास करवा, २० हाथना प्रासादने १३ हाथ अने ७ आंगलनो उदय करवो. ए पछी ३० हाथ सुधी फरि १२-१२ आंगलनी प्रतिहस्त Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨૭ प्रासाद-लक्षणम् ] वृद्धि करवी, अर्थात् १२-१२ आंगलनो हास करवो, ३० हाथना पासादनो उदय १८ हाथ अने ७ ऑगलनो करवो, त्रीस पछी ५० हाथ सुधीना विस्तारना प्रासादोमां प्रति हस्ते उदय ९-९ आंगलनो वधारवो, अर्थात् १५-१५ आंगलनो हास करवो, आम करतां ५० हाथना प्रासादनो उदय २५!! हाथनो थशे. उक्त उदयमानमा १९ आंगलनो उमेरो करवाथी २६ हाथ ७ आंगलनो उत्तमोदय थशे, नागर, लतिन, सांधार, मिश्रक, विमान. नागर अने विमानपुष्यक जातिना प्रासादोने उपर प्रमाणे उदय करवो, __ वास्तुशास्त्रना जाणकारोए आ उदय कुंभक थरना प्रारंभथी प्रहार थर पर्यन्तनो करवान का छे, केमके कुंभकने नीचे पीठ अने प्रहारने उपर शिवरनो उदय होय छे जे प्रासादना विस्तारनो जेटलो उदय होय त्यां सुधी ते प्रासादनी पहेली भूमिका जाणवी, उपरना शंगो अने कूटोनो उदय बाद करतां नीचेनुं मंडाण ‘मंडोवर'ना नामथी ओलखाय छे. त्रीजा प्रकारनो उदयएकादिपञ्चहस्तान्तं, पृथुत्वेनोदयः समः । हस्ते सूर्योगुला वृद्धिावत् त्रिंशत्करावधि ॥२४३॥ नवांगुला करे वृद्धिावस्तशतार्धकम् । पीठोकूँ उदयश्चैव, छाद्यान्तो नागरादिषु ॥२४४॥ भा०टी०-१ थी ५ हाथ पर्यन्त विस्तारना जेटलो उदय होय, ए पछी ३० हाथ सुधीना प्रासादोमा विस्तारना प्रतिहाथे उदयमां १२-१२ आंगलनी वृद्धि करवी, आ मत प्रमाणे ३० हाथना प्रासादे १७ हाथ १२ आंगलनो उदय थशे, ३१ थी ५० हाथ सुधी प्रतिहस्ते उदयमां ९-९ आंगलनी वृद्धि करवी, आम करतां ५० हाथना प्रासादनो उदय २५ हाथनो थशे, नागरादि प्रासादोनो उदय पीठ उपरथी छाजा पर्यन्तनो गणाय छे, Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ [ कल्याण-कलिका - प्रथमखण्डे चोथा प्रकारे प्रासादोदय आ उदयमानने ३ जा प्रकारना उदयमाननी साथे थोडोक मतभेद छे, १ थी ३ हाथ सुधीनुं मान १ ला २जा मानने मलतुं छे, ४ हाथथी एनुं मान जुदुं पडे छे. ४ हाथे४ हाथ १ आंगल, ५ हाथे ५ हाथ, ६ हाथे ५ हाथ २२ आंगल, ७ हाथे ६ हाथ १७ आंगल, ८ हाथे ७ हाथ ८ आंगल, ९ हाथे ७ हाथ १९ आंगल, १० हाथे ८ हाथ, १५ हाथे १० हाथ ६ आंगल, २० हाथे १२ हाथ १२ आंगल, २५ हाथे १४ हाथ १८ आंगल, ३० हाथे १७ हाथ, ३५ हाथे १९ हाथ ६ आंगल, ४० हाथे २१ हाथ १२ आंगल, ४५ हाथे २३ हाथ १८ आंगल, अने ५० हाथे २५ हाथनो उदय थाय छे. पांचमा प्रकारे प्रासादोदय १ थी ५ सुधी विस्तार अने उदय समान होय छे, ६ थी १३ हाथ सुधी १२ आंगलनी वृद्धि करवी, १४ थी २१ हाथ सुधी ११ आंगलनी अने २२ थी ५० सुधी हाथ प्रति १०-१० आंगलनी वृद्धि करवी. आ मत प्रमाणे १३ हाथना प्रासादे ९ हाथनुं, २१ हाथे १२ हाथ १६ आंगलनुं अने ५० हाथे २५ हाथ २ आंगलनु प्रासादे उदयमान थाय छे. छठ्ठा प्रकारनो प्रासादोदयफेरु ठक्कुरना मते इगदुतिच उपण हत्थे, पासाइ खुराउ जा पहारथरो । नवसन्त्तपणतिएगं, अंगुलजन्तं कमेणुदयं ॥ २४५ ॥ इच्वाइ खबाणते, पडिहत्थे चउदसंगुलविहीणा । इअ उदयमाण भणिअं, अओ य उडूढं भवे सिहरं ॥ २४६ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] भा०टी०-१, २, ३, ४, ५, हाथना प्रासादोनो उदय अनुक्रमे ९, ७, ५, ३, १ आंगल सहित १, २, ३, ४, ५ हाथनो जाणवो, अर्थात् १ हाथे ? हाथ ९ आंगल, र हाथे २ हाथ ७ आंगल, ३ हाथे ३ हाथ ५ आंगल, ४ हाथे ४ हाथ ३ आंगल अने ५ हाथे ५ हाथ १ आंगल, प्रासादनो उदय करवो. आ मान्यता अपराजितनी साथे अक्षरशः मले छे पण ए पछीनी हस्तवृद्धिनो नियम अपराजितनी मान्यतानी साथे मेल खातो नथी. फेरुना मते ६ थी ५० हाथ सुधीना प्रासादोना उदयनी वृद्धिनो एक ज नियम छे के प्रतिहस्ते १४ अंगुलनो हास करवो, एटले केप्रतिहाथे १० आंगलनी ज उदयमा वृद्धि करवी, आ नियमानुसारे ६ थी २० हाथ सुधीना प्रासादोनुं उदयमान २. ३, ४, ५, मा प्रकारना उदय मानथी ओठं आवे छे, ठक्कुर फेरुए आ उदयमां विराट अने प्रहार थरोनो उदय संमिलित कर्यो छे, ए मूचक वस्तु छे, अपराजितकार स्थले स्थले 'प्रहारान्तं ' ए शब्द लखीने एम सूचित करे छे के पूर्व नागरजातिना प्रासादोनो उदय प्रहार थरना मथाळा सुधी गणातो हतो अने तेनो आरंभ कुंभाथी कगतो हतो.' फेसए खुराथी प्रारंभ कर्यो ए विचारणीय छे. आ उपरथी अनुमान थाय छे के ते वरखते खुरानी उंचाई मंडोवरामां ज नहि पण प्रासादना उदयमां पण प्रविष्ट थवा मांडी चुकी हशे. ___उदयमानमा मतभेदअपराजित पृच्छाना मते आ उदय कुंभाथरथी छाजानी उपर आवता प्रहारथर सुधाना गण्या छ, पातुसारमा ठक्कुर फरुए ‘खुरकुंभ' इत्यादिथी शरु करी ‘वइराड पहार तेर थर' अहियां सुधीनो मंडोवरो मान्यो छे, फेरुए 'खुरा'ने मंडोवरामां गण्यो छे १७ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ज्यारे अपराजितकारे मंडोवराना १४४ भागोमां खुराना पण ५ भागो सामेल गण्या छे, छतां ज्यां ज्यां उदयनो प्रसंग आव्यो छे, खुराने तेमां गण्यो नथी, पण वैराट, प्रहार थरोने गण्या छे. प्रासादमंडनमां खुराथी छाजा पर्यन्तनोज मंडोवरो अने तेनी उंचाईने ज उदय मान्यो छे, एटले खुराने ग्रहण करीने छाजा उपरना पूर्वोक्त २ थरोने छोडी दीधा छ, आजना शिल्पिओ पण उदय अने मंडोवरानो हिसाब प्रासादमंडन प्रमाणे ज गणे छे, जे अपराजितथी विरुद्ध जाय छे. भूमिजप्रासादना मंडोवरामां अपराजित पृच्छाकार कुंभाथी छाधान्त 'शीर्षोदय' करवानुं विधान करे छे, अने त्यां खुराना थरने पीठमां गणवानो स्पष्ट निर्देश पण करे छे, जुओ भूमिजे चैव प्रासादे, वराटे च विमानके । विस्ताराच समुत्सेध-पर्यन्तं चाद्यभूमिका ॥२४७॥ शंगकूटोदयं त्यक्त्वा, तन्मध्ये तु विचक्षणैः । शीर्षादयो विधातव्य-श्छाद्यान्तं कुंभकादितः ॥२४८।। भा०टी०-भूमिज, वराट, अने विमान जातिना प्रासादना विस्तार जेटला उदयमां प्रथम भूमिका पूरी थाय छे, शृंग अने कूटोदयने उपर छोडीने विचक्षण शिल्पिए कुंभाथी छाजा सुधीना मध्यभागमां शीर्षोदय (प्रासादना मस्तकनी उंचाई ) करवो. ए पछी थरवालाओना भागांक लखता ग्रन्थकार कहे छे " खुरकं पीठ मध्ये तु,” अर्थात् 'खुराने पीठमां गणी कुंभादि स्तरोमां उदयना भागांक गणवा' ____ उपरना विवेचनथी समजाशे के अपराजित नागर जातिना मंडोवरानी उंचाईमां खुराने गणनामां लेता हता पण प्रासादनो उदय तो ते कुंभाथी ज आरंभ करता अने प्रहार सुधीना थरोने उदयमां गणी लेता भूमिजादि प्रासादोना मंडोवरामां ते खुराने तेम छाजा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद - लक्षणम् ] १३९ उपरना थरोने संमिलित होता करता, आधुनिक शिल्पि गणे एनी उपर विचार करखो घटे, मंडोवराना धरोनी भाग संख्या-प्रासादमण्डने वेदवेदेन्दुभक्ते तु छाद्यान्ते पीठमस्तकात् । खुरकः पञ्चभागः स्याद्विंशतिः कुंभकस्तथा ॥ २४९ ॥ कलशोset द्विसार्धं तु, कर्तव्यमन्तरालकम् । कपोतिकाष्ठौ मची स्यात्, कर्तव्या नवभागिका ॥ २५० ॥ पञ्चत्रिंशत्पदा जंघा, तिथ्यंशैरुद्गमो भवेत् । वसुभिर्भरणी कार्या, शिरःपट्टी दशांशिका ॥ २५९ ॥ अष्टांशाऽथ कपोतालि - हिंसार्धमन्तरालकम् । छाद्यं त्रयोदशांशोचं, दशभागविनिर्गमः ॥ २५२ ॥ भा०टी० - पीठना मथाळाथी छाजा सुधीनी ऊंचाईना १४४ भाग कल्पी, खुरो भाग ५, कुंभो २०, कलश ८, अंतराल २ 11, के बाल ८, मांची ९, जंघा ३५, दोढियो १५, भरणी ८, शरावटी १०. मालाकेवाल ८ अंतराल २ || अने छानुं १३ भागनुं ऊंच कर, छाजानो निर्गम १० भागनो करवो. १०८ भागनो मंडोवरो खुरकं च चतुर्भागं कुंभकं दशपञ्चकम् । कलशं चापि षड्भागं, त्रिभागाऽन्तरपत्रकम् ॥ २५३॥ कपोतालीं च षड्भागां, मचिकामपि तादृशीम् । द्वात्रिंशत्पदिकोच्छ्रायां, जंघां कुर्याद् विचक्षणः ॥ २५४ ॥ उद्गमं रुद्रभागं च, कपि-त्रासैरलंकृतम् । भरणी चैव षड्भागा, कपोताली षडेव तु ॥ २५५ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे त्रिभागान्तरपत्रं च, कर्तव्यं तु विचक्षणैः । खूटछाद्यं च दिग्भागं, सप्तभागविनिर्गमम् ॥२५६॥ भाटी०-(१८८ भागना मंडोवरामा) विद्वान् शिल्पीए खुरक ४ भाग, कुंभक १५ भाग, कलश ६ भाग, अंतरोट ३ भाग, के वाल ६ भाग, मांची पण ६ भाग, अने जंघा ३२ भागनी ऊंची करवी, ११ भागनो मकरमुखोथी शोभतो दोढियो, भरणी ६ भाग, मालाके वाल ६ भाग, अंतराल ३ भाग, अने छाजु १० भाग ऊंचं अने ७ भागना निकाले करवु. २७ भागनो मंडोवरो-प्रासादमण्डनेपीठतश्छाद्यपर्यन्ते, सप्तविंशतिभाजिते । द्वादशानां खुरादीनां, भागसंख्या क्रमेण तु ॥२५॥ १ ४ १॥ ॥ १॥ १॥ ८ ३ स्यादेक वेद सार्धाध-सार्ध सार्धाष्टभिस्त्रिभिः । साधसार्धाऽर्धभागः,स्याद् , द्विसाधैर्थशनिर्गमः॥२५८ भा०टी०-पीठथी छाजा पर्यन्तना मंडोवराना २७ भागो कल्पीने खुरादि १२ थरोनी भागसंख्या अनुक्रमे आप्रमाणे राखवी, खुरो १, कुंभो ४, कलशो १॥, अंतराल०, केवाल १॥, मांची १॥, जंघा ८, दोढियो ३, भरणी १॥, मालाकेवाल १॥, अंतराल०॥, अने छाजु २॥ भागर्नु उंचुं करवू, छाजानो निकालो २ भागनो करवो. ठक्कुर फेरुना मते २५ भागनो मंडोवरोबुर-कुंभ-कलस-कट्वालि,-मञ्चीजंघा य छज्जि उरजंघा। भरणि-सिरवटि-छजय, वइराड पहार तेर थरा ॥२५९॥ इगतिय दिवड्दुतिसु कमि, पण सड्ढा इगदु दिवदु दिवढोअ दो दिवढु दिवढु भाया, पणवीसं तेर थरमाणं ॥२६०॥ भा०टी०-खुरो, कुंभो, कलसो, केवाल, मांची, जंघा, Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १३३ छाजली, उरजंघा (दोढिओ), भरणी, शरावटी, छाजु, विराट अने प्रहार; आ १३ थरी प्रासादोना मंडोवरोमा होय छे. आ थरोनी भाग संख्या अनुक्रमे नीचे प्रमाणे राखवी-१,+३+१+१+१+ ५il,+१+२,+१+१+२+१||,+१=२५. ए उपरांत मेरुमंडोवरो, चतुर्मुख मंडोवरो, आदि अनेक प्रकारना मंडोवराओनु शास्त्रमा निरूपण छे पण ते सर्वनुं वर्णन करवाने अत्र अवकाश नथी. गर्भगृहोच्छ्यः -अपराजितच्छायाम्कुंभी तु कुंभके ज्ञेया, स्तंभो ज्ञेयस्तथोद्गमे । भरणं भरण्यां ज्ञेयं, कपोताल्यां तथा शिरः ॥२६॥ अधस्तात्कूटछाद्यस्य, कुर्यात् पदृस्य पेटकम् । अर्धोदयं करोटं च, कर्तव्य विधिपूर्वकम् ॥२६२।। भा०टी०-कुंभाने मथाळे कुंभीन, दोढियाने मथाळे स्तंभy, भरणीने मथाळे भरणानु, अने मालाकेवालने मथाळे शिरानुं मथालं मेलवg. शिरा उपर पाटान पेटक छाजानी निचली फरके गोठवq अने विस्तारना अर्धा उदयमा विधिपूर्वक करोटक करवू. गर्भगृहोच्छ्य जाणवानी बीजी रीतिअथान्यत्संप्रवक्ष्यामि, मानं गर्भगृहस्य च । प्रासादानां बृहन्मानं, वत्स ! विज्ञायते यतः ॥२६३॥ गर्भव्यासः सषडंशः, सपादः साध एव च । पादोनांशाधिको वा पि, ज्येष्ठ मध्य कनिष्ठकः ॥२६४॥ तत्रोदयेऽष्टभिभक्ते, भागेनैकेन कुंभिका । स्तंभः सार्धचतुष्कांशो, भागस्तु थालको भवेत् ॥२६५।। शीर्षकं भागमेकं तु, अर्धः पट्टसमुच्छ्यः । गर्भव्यासाधमानेन, कुर्यात् पद्मशिलोदयम ॥२६६।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे न कर्तव्या ददरिका, पञ्च-सप्तमथोचिते। अनेनैव प्रकारेण, कुर्याद् गर्भगृहोच्छ्रयम् ॥२६७।। भा०टी०-हे अपराजित ! हवे गर्भगृहनी ऊंचाईचें बीजें मान कहुं छं ते सांभल, जेथी बृहत् प्रासादोना गर्भगृहनो उदय जाणी शकाय. ___ गर्भगृहना विस्तारने स्वषड्भाग युक्त करवाथी अथवा सवायो, दोढो, पोणबमणो करतां जे प्रमाण थाय तेटला प्रमाणनो उदय ज्येष्ठमध्यम-कनिष्ठ-प्रासादोना गर्भगृहनो जाणवो, अर्थात् ज्येष्ठ प्रासादोना गर्भ विस्तारथी तेनो उदय षडंश युक्त अथवा चतुर्थांश युक्त करवो, मध्यम मानना प्रासादोना गर्भ विस्तारथी तेओनो उदय दोढो करवो अने कनिष्ठ मानना प्रासादोना गर्भ विस्तारथी तेनो गर्भगृहोच्छ्य पोणबमणो करवो. उक्त गर्भोदयने ८ थी भांगी १ भागनी कुंभी, ४॥ भागनो थांभलो, १ भागनो थालक, १ भागनुं शरुं अने ०॥ भागनो पाट ऊंचो करवो, अने ते पछी पाटो उपर खूणिया नाखीने गर्भगृहना विस्तारना अर्ध भाग जेटली ऊंची जाय एवी रीते पद्मशिला ढांकी करोटक करवू, पण गर्भगृह उपर पांच सात के गमे तेटला थरनी पण दादरी न करवी, उक्त प्रकारे गर्भगृहनो उच्छ्य करवो. उंबरो-अपराजितपृच्छामांउदुम्बरं तथा वक्ष्ये, कुंभिकान्तसमुच्छ्यम् । तस्यार्धन त्रिभागेन, पादेन रहितं तथा ॥२६८॥ उक्तं चतुविधं शस्तं, कुर्याच्चैवमुदुम्बरम् । अत्युत्तमाश्च चत्वारो, न्यून्या दृष्या स्तथाधिकाः॥२६९।। भा०टी०-हवे उंबराने कहुं छु, उंबरानी ऊंचाई कुंभीना मथाळा सुधी, तेना अर्धभागे, बे तृतीयांशे अथवा पोणा भागे होय Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् १३५ छे, ऊंबरानुं उक्त ४ प्रकारचें मान अत्युत्तम छे, एथो ओछु अथवा अधिक मान करवाथी ते दृषित थाय छे. अर्धचन्द्र अने उदुम्बर क्यां मूकवा ? खुरकोऽर्धचन्द्रः स्यात् , तदूधै स्यादुदुम्बरः । उदुम्बरार्धे त्र्यंशे वा, पादे वा गर्भभूमिका ॥२७०॥ मण्डपेषु च सर्वेषु, पीठान्ते रंगभूमिका । एषा युक्तिर्विधातव्या, सर्वकामफलोदया ॥२७॥ भा०टी०-खुरा उपर अर्धचन्द्र शिला मूकी तेना उपर ऊंबरो स्थापन करवो, वली ऊबराना अर्धभागे, एक तृतीयांशे अथवा चतुर्थ भागे गभारानी भूमि ऊंची लेवी, सर्व मंडपोमां पीठने मथाळे ज रंगभूमि राखवी, पण ऊंची लेवा नहि, आ प्रकारनी युक्ति करवाथी सर्व इच्छाओ पूर्ण करनार प्रासाद शे. उंबराना अंग विभागोद्वाविस्तारत्रिभागेन, मध्ये मन्दारको भवेत् । वृत्तं मन्दारकं कुर्यात्, युतं पद्ममृणालकैः ॥२७२।। मूल-नासिकयोर्मध्ये, स्थाप्यचोदुम्बरस्तथा । सिंहशाखा मूलनासा-समसूत्रे विचक्षणैः ॥२७३॥ जाड्यकुंभः कर्णमाला, चोर्चे वृत्तं मृणालकम् । मन्दारोभयपक्षे तु, कीर्तिवक्त्रद्वयं भवेत् ॥२७४॥ भृकुटया कुटिलाक्षं च, दंष्ट्राभिः समलंकृतम् । कर्णोपशृंगैस्तदधः, शाखापत्रैरलंकृतम् ॥२७५।। तलच्छन्दे च शाखा तु, स्यादुदुम्बरपक्षयोः । तद्पा क्रियते प्राज्ञै-निर्गमे पीठसंयुता ॥ २७६ ।। भा०टी०-उंबराना मध्यभागे द्वार विस्तारना त्रीजा भाग Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे जेटलो मन्दारक बनाववो. मंदारकने गोल अने कमलतंतुओ वडे सुशोभित करवो. चतुर शिल्पिओए बने मूल नासिकोना मध्य भागमा मूल नासिक तथा सिंह शाखाना समसूत्रे उंबराने स्थापनो, तेना निचला भागमां जाडंबो ने कणी (कर्णमाला) बनाववी, उपरनी गोलाईमां कमलमृणाल करवा, अने मन्दारनी बंने बाजु कीर्तिमुखो करवां, कीर्तिमुखो भृकुटिए कुटिलनेत्रवालां, दाढाओ बडे युक्त, नीचे कर्ण -उपकर्ण शूगोए शोभित, शाखापत्रोए अलंकृत करवां, बुद्धिमानोए उदुम्बरना बंने छेडाओ पासे तलछंदमां पीठ निर्गमवाली तेवी ज दलविभक्तिवाली शाखा करवी. अर्धचन्द्र क-प्रासादमण्डनेखुरकेण समंकुर्या-दर्धचन्द्रस्य चोच्छितिम् । द्वारव्याससमं कुर्या-निर्गमं च तदर्धतः ॥२७७॥ द्विभागमर्धचन्द्रश्च, भागेन द्रो गकारको । शंखपत्रसमायुक्तं, पद्माकारैरलंकृतम् ॥ २७८ ।। भा०टी०-अर्धचन्द्रनी उंचाई खुरा जेटली, लंबाई द्वारना विस्तार जेटली अने तेनो निर्गम लंबाईथी अर्थो करवो, अर्धचन्द्रशिलानी लंबाइना बे भागमा वच्चे अर्धचन्द्र करवो, अने एक भाग जेटली जगामा बने बाजुए बे गगारा करवा; गगारा, शंखो अने पद्मपत्रोए अलंकृत करवा. नागर-प्रासाददारोदय अपराजितपृच्छायाम्एकहस्ते तु प्रासादे, द्वारं स्यात् षोडशांगुलम् । कार्या षोडशतो वृद्धिः, पर्यन्ते च चतुष्करम् ॥२७९।। गुणांगुलाष्टहस्तान्तं, तत्परं द्वयंगुला करे । पश्चाशहस्तपर्यन्तं, प्रयुक्ता वास्तुवेदिभिः ॥२८०॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] यान-वाहन-पर्यके, द्वारे-प्रासादसमनाम् । दैधेिन पृथुत्वं स्या-च्छोभनं तत्कलाधिकम् ॥२८१।। भा०टी०-१ हाथना प्रासादनुं द्वार १६ आंगलनु थाय, आ प्रमाणे ज ४ हाथ सुधी द्वारनी ऊंचाईमा ? हाथे १६ आंगलनी वृद्धि, च्यार हाथ पछी ८ हाथ सुधी प्रत्येक हाथे अथवा तेना विभागे ३ आंगलना हिसाबे वृद्धि करवी अने आठ पछी ५० हाथ पर्यन्त प्रतिहस्ते २-२ आंगलना हिसावे द्वारनी ऊंचाईमां वृद्धि करवी. यान, वाहन, पलंगो, अने प्रासाद तथा घरना द्वारोमां लंबाईथी विस्तार अर्ध करवो, विस्तार दैय॑ना अर्धथी बे आंगल 'वधु होयतो पण शुभ छे, पण दैर्ध्य विस्तारथी बमणा उपर न होवु जोइये. क्षीरार्णवन नागर-द्वारमानएकहस्ते तु प्रासादे, द्वारं च षोडशांगुलम् । इयं वृद्धिः प्रकर्तव्या, चतुर्हस्तं यदा भवेत् ।।२८२॥ वेदांगुला भवेद्वृद्धिावच्च दशहस्तकम् । हस्तविंशतिमाने च, हस्ते हस्ते इयांगुलम् ॥२८३।। द्वयंगुला च भवेद्यावत् , प्रासादं त्रिंशहस्तकम् । अंगुलैका ततो वृद्वि-वित्पश्चाशहस्तकम् ।।२८४॥ नागराख्यमिदं द्वार-मुक्तं क्षीरार्णवे मुने ! । दशांशेन यदा हीनं, द्वारं स्वर्ग मनोरमे ॥२८५।। अधिकं च दशांशेन, प्रासादे पर्वताश्रिते। तावत् क्षेत्रान्तरे प्रोक्त-मह चादि मुनीश्वर ! ॥२८६।। १ आजकालना शिल्पिओ मूलमां आवेल 'कला' शब्दनो अर्थ 'सोलमो भाग' एम करे छे, पण: ते बराबर जणातो नथी, शिल्पशास्त्रमा बीजा पारिभाषिक शब्दोनी जेम 'कला' पग पारिभाषिक शब्द छे अने तेनो अर्थ बे आंगल एवो थाय छे, जेमके " स्यादेकमंगुलं मात्रा, कला प्रोक्ताऽगुलद्वयम्" इत्यादि । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे शिवद्वारं भवेज्ज्येष्ठं, कनीयश्च जिनालये। मध्यस्थं सर्वदेवानां, सर्वकल्याणकारकम् ॥२८७॥ उत्तमं तूदयार्धन, पादोनं मध्यमानकम् । कनीयस्तत्र हीनं च, विस्तृतं द्वारमेव च ॥२८८॥ भा०टी०-१ हाथना प्रासादे द्वार आंगल १६, आ १६ आंगलनी वृद्धि ४ हाथना प्रासाद सुधी करवी; ५ थी १० हाथ सुधी ४ आंगलनी वृद्धि करवी, ११ थी २० अने २१ थी ३० हाथ सुधीना बंने दशकना प्रासादोना द्वारना उदयमा प्रतिहस्त २-२ आंगलनो वधारो करवो, ३१ थी ५० हाथ सुधीना प्रासादोना द्वारोदयमा प्रतिहस्ते १-१ आंगलनी वृद्धि करवी, हे मुनि ! क्षीरार्णवमां आ प्रकारना द्वारोने 'नागरद्वार' कर्तुं छे. ____ आ द्वारमानने दशांशहीन कनिष्ठमान करवाथी स्वर्गना मनोहर चैत्योर्नु द्वारमान थाप छे, अने दशांशयुक्त ज्येष्ठमान करवाथी पर्वताश्रित प्रासादोनुं द्वारमान थाय छे, हे मुनीश्वर ! प्रासाद माने आवेल मध्यममान स्थानान्तरनां सर्व प्रासादोनुं द्वारमान करवू योग्य छे. शिवप्राप्तादनुं द्वार ज्येष्ठ, जिन प्रासादनुं द्वार कनिष्ठ अने बीजा सन्देवोना देवालयन द्वार मध्यम माननुं करवू सर्व प्रकारे कल्याणकारी छे, विस्तारमा द्वार पोताना उदयथी अर्धमाननु होय तो उत्तम गणाय, उत्तमने चतुर्थांश हीन करवाथी विस्तार- मध्यमान थाय छे अने तेथी पण हीन करतां कनिष्ठ बने छे. भूमिजप्रासादद्वारमान-अपराजितपृच्छायाम्-.. एकहस्ते तु प्रासादे, द्वारं सूर्यांगुलोदयम् । हस्ते हस्ते सूर्यवृद्धिावत् स्यात्पञ्चहस्तकम् ॥२८९॥ त्रि तुर्यांशाच्च सप्तान्तं, नवान्तं च तदर्धतः। तवं शतार्धान्तं च, वर्धयेद् व्यंगुलैः पुनः॥२९०।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] उच्छ्यार्धन विस्तारं, शुभं स्यात्तु कलाधिकम् । भूमिजे द्वारमानं च, प्रयुक्तं वास्तुवेदिभिः ॥२९१॥ भाटी०-एक हाथना भूमिज प्रासादने १२ आंगल उंचुं द्वार होय, पांच हाथ सुधीना प्रासादोने एज प्रमाणे प्रतिहस्ते १२-१२ आंगलनी उदयमा वृद्धि करवी, ए पछी ७ हाथ सुधो प्रतिहस्ते ९-९ आंगलनी, ९ हाथ सुधी ६-६ आंगलनी अने ९ पछी ५० हाथ सुधीना प्रासादोना द्वारोदयमा प्रतिहस्ते २-२ आंगलनी वृद्धि करवी. द्वारनी उंचाईना अर्धभागे तेनो विस्तार करवो शुभ छ, विस्तास्मां १ कला अधिक होय तो पण श्रेष्ठ छ; भूमिज प्रासादनु द्वारमान वास्तुवेदि विद्वानोए उपर प्रमाणे जणाव्युं छे. द्राविडद्वारमान-अपराजित पृच्छायाम्एकहस्ते तु प्रासादे, द्वारं विद्याद्दशांगुलम् । दशांगुलं प्रतिकरं, यावत् षड्हस्तकं भवेत् ॥२०२॥ अत उर्ध्व दिक्करान्तं, वृद्धिः पञ्चांगुला भवेत् । द्वयंगुला च ततो वृद्धिः, पञ्चाशडस्तकावधि ।।२९३॥ पृथुत्वं च तदर्धेन, शुभं स्यात्तु कलाधिकम् । द्राविडे द्वारविस्तारः, प्रयुक्तो वास्तुवेदिभिः ॥२०४॥ भा०टी०-एक हाथना द्राविड प्रासादk द्वार १० आंगलना उदयवालं करवु अने ६ हाथ सुधीना प्रासादोना द्वारोनुं मान ए ज रीते प्रतिहस्ते १०-१० आंगलनी वृद्धिए करवू, ए पछी १० हाथ सुधी प्रतिहाथे ५ आंगलनी अने ११ थी ५० हाथ सुधी प्रतिहाथे २ आंगलनी वृद्धि करवी. द्वारनो विस्तार एना उदयथी अर्ध प्रमाणमा राखवो, १ कला-अधिक विस्तार होय तो शुभ छ, वास्तुशास्त्रना विद्वानोए द्राविडद्वार विस्तार उपर प्रमाणे कह्यो छे. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे द्वारमानोनो उपयोगविमाने भूमिज मान, वराटेषु तथैव च । मिश्रके लतिने चैव, मानं शस्तं च नागरम् ॥२९५॥ दशहस्तात्परं चैव, सान्धारे कामदं तथा । विमाने नागरच्छन्द, कुर्याद्विमान-पुष्यके ॥२९६॥ नागरं शोभनं द्वारं, तथा सिंहावलोकने। वलभ्यां भूमिजं मानं, द्राविडं फांसनाकृतौ ॥२९॥ धातुजे रत्नजे चैव, दारुजे च रथारहे। यश्छन्दश्चैव प्रासादो, द्वारं तन्मानकं भवेत् ॥२९८॥ भाल्टी०-विमान तेमज वराट जातिना प्रासादोनां द्वारो भूमिज माननां करवां, मिश्रक तथा लतिन जातिना प्रासादोर्नु द्वारमान नागर जातिना मानन करवू सारुं छे, तथा दश हाथथी अधिक मानना सान्धार-प्रासादो, नागरछन्दना विमानो, विमानपुष्यको, तथा सिंहावलोकनो; आ बधा प्रासादोनां द्वारो नागर माननां करवां ए शोभास्पद छे. बलभी प्रासादk द्वार भूमिज माननुं करवु, फांस आकारना शिखरोवाला नपुंसक प्रासादो, धातुना प्रासादो, रत्नना प्रासादो, काष्ठना प्रासादो अने रथारुह प्रासादो; आ बधाने द्राविडमानने द्वार करवू जोइये. जे प्रासाद जे छन्द उपर बनेल होय तेज जाति माननुं द्वार ते प्रासादने करवु योग्य गणाय छे. द्वार शाखाओकोइ पण घर के प्रासादना द्वारने अमुक संख्यामां शाखा होवी जोइये एवो शास्त्रमा नियम छ, १ थी ९ शाखाओ वालां द्वारो होय Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ प्रासाद-लक्षणम्] छे, ब्राह्मण, वैश्य अने शूद्रनां गृहद्वारो एक शाखी होय तो शुभ, होमशाला अने अग्निथी चालतां लोह आदिनां कारखानानां द्वारो द्विशाख, मंडलेश्वर (एक देशना राजा) ने त्रिशाख, कारुजातिना लोकोनां घरोने चतुःशाख, चक्रवर्तीना प्रासादने पंच शाख, धोबी आदिने षट्शाख, सर्वदेवोना प्रासादोने सप्तशाख, पक्षिगृहोने अष्ट. शाख अने महादेवना प्रासादने नवशाख द्वार कर. एक शाख तथा नवशाखना द्वारमा ध्वजाय आपवो, द्विशाखमां धूम्राय, त्रिशाखमां सिंहाय, चतुःशाखमां श्वानाय, पंचशाखमां वृषभाय, षट्शाखमां खराय, सप्तशाखमां गजाय अने अष्टशाखना द्वारमा ध्वांक्षाय देवो. ए विषयमा अपराजितपृच्छानुं निरूपणदेवेशानां नवशाख, सप्तशाखं दिवौकसाम् । सार्वभौमे पञ्चशाख, विशाग्वं मंडलेश्वरे ॥२९९॥ एकशाख तु कर्तव्यं, शूद्र-वैश्यद्विजन्मनाम् । नवान्त एकशाखादा-वायदोषं विशोधयेत् ॥३००॥ यथाशास्त्र तथा मानं, तथा युक्तिर्विधीयते । तथा द्वाराणि सर्वाणि, कर्तव्यान्येव शिल्पिभिः॥३०१।। अंगुलं सार्धमध वा, कुर्याडीनं तथाधिकम् । आयदोषविशुद्धयर्थ, हास-वृद्धी न दूषिते ॥३०२॥ प्रासादजातिरूपैश्च, तद्विधां द्वार सूत्रणाम् । तलच्छन्दानुसारेण, द्वारशाखां विभाजयेत् ॥३०३।। त्रयांगादि विभेदेन, नवांगस्यानुसारतः। शाखात्रयं त्रयांगेषु, पञ्चांगेषु च पञ्चकम् ॥३०४॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ [ कल्याण-कालेका-प्रथमखण्डे सप्तशाखाश्च सप्तांगे, नवशाखा नवांगके । हीनशाखं न कर्तव्यं, अधिकं नैव दूषयेत् ॥३०॥ भा०टी०-शिवना प्रासादनुं द्वार नवशाख, बीजा देवोर्नु प्रासादद्वार सप्तशाख, चक्रवर्तीना प्रासादनुं द्वार पांचशाख, मंडलिक राजाना प्रासादनुं द्वार त्रिशाख अने शूद्र, वैश्य तथा ब्राह्मणना घरोनां द्वार एक शाखनां करवां. एक शाखथी नव शाख सुधीना प्रत्येक द्वारमा आय शुद्धि करवी, जे शास्त्रमा छे तेज युक्तिपूर्वक शाखा मान करवु अने शिल्पिओए सर्व द्वारो पण तेज रीते शास्त्रानुसारे करवां. __ आयने माटे एक, दोढ अथवा अडधो आंगल मानथी ओछो अथवा वधतो करवो पडे तो करवो पण शुद्ध आय उपजाववो, केमके आय दोषनी शुद्धि माटे आटली हानि-वृद्धि करवी दूषित नथी. प्रासादनी जाति अने रूपोने अनुरूप द्वार रचना पण तेवी करवी अने शाखाना निचला भागमां प्रासादना तलच्छंदने अनुरूप अंग विभागो पाडवा. त्रण अंग, पांच अंग, सात अंग अने नव अंग; आ पैकीना जेटला अंगोनो प्रासाद होय तेटली ज द्वार शाखाओ तेना द्वारे करवी, अर्थात् त्रण अंगना प्रासादे त्रण, पांच अंगनाने पांच, सात अंगवालाने सात अने नव अंगना प्रासादने नव शाख द्वार करQ. प्रासादना अंगथी ओछी शाखार्नु द्वार न करवू, अधिक शाखार्नु करे तो दोष नथी. अपराजितपृच्छामां शाखाओनी वर्तना त्रिशाखानी वर्तनाचतुर्भागांऽकितं कृत्वा, त्रिशाख वर्तयेत्ततः। मध्ये द्विभागिकं कुर्यात्, स्तंभं पुरुषसंज्ञकम् ॥३०६॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] पत्रशाखा च कर्तव्या, खल्वशाखा तथैव च । स्त्रीसंज्ञा च भवेच्छाखा, पार्श्वयोः पृथुभागिका ॥३०७॥ निर्गमश्चैकभागेन, रूपस्तंभे प्रशस्यते । पेटके विस्तरः कार्यः, प्रवेशचतुर्थांशकः ॥३०८॥ कोणिका स्तंभमध्ये तु, भूषणार्थाय पार्श्वतः । शाखोत्सेधचतुर्थांशे. द्वारपालौ निवेशयेत् ॥३०९॥ कालिन्दी वामशाखायां, दक्षिणे चैव जाह्नवी। गंगाकतनयायुग्म-मुभयोमदक्षिणे ॥३१०॥ गन्धर्वा निर्गमे कार्या, एकभागा विचक्षणैः । नन्दी च वामशाखायां, महाकालश्च दक्षिणे ॥३११॥ इति त्रिशाख संप्रोक्तं, पञ्चशाखमथ शृणु । भाण्टी-द्वार शाखाना विस्तारमा ४ भागोपाडीने त्रिशाख द्वारनी रचना करवी, भध्यमां २ भागनो पुरुषसंज्ञावालो रूपस्तंभ करवो, स्तंभनी बंने बाजुमां १-१ भागना विस्तार वाली स्त्रीसंज्ञा वाली पत्रशाखा तथा खल्वशाखा, आ बे शाखाओ करवी, रूपस्तंभनो निर्गम १ भागनो राखयो प्रशंसनीय गणाय छे, रूपस्तंभना पेटानो विस्तार प्रवेशना चोथा भाग जेटलो करवो, रूपस्तंभमां बने तरफ शोभा माटे कोणिओ काढवी. ___द्वार शाखनी उंचाइना चोथा भागमां नीचे बे प्रतिहारो करवा, डाबी शाखामां जमना अने जमणी शाखार्मा गंगानी मूर्तिओ बनावी, ज्यां गंगा छे त्यां गंगानुं युग्म अने जमनाना स्थाने जमनार्नु युग्म प्रतिहारनी डाबी अने जमणी बाजुमा करवं. निर्गम भागमा बुद्धिमान शिल्पिओए १ भागना गन्धर्षों बनाववा, डाबी शाखामां नन्दी अने जमणीमां महाकालने आलेखवा, आ प्रमाणे त्रिशाखद्वारनी वर्तना कही हवे पश्चशाखने सांभल ! Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे पंचशाखनी वर्तनाशाखाविस्तारमानं च, षड्भिर्भागैर्विभाजयेत् । एकभागा भवेच्छाखा, रूपस्तंभो द्वि भागिकः ॥३१२॥ निर्गमश्चैकभागेन, रूपस्तंभे प्रशस्यते । कोणिका स्तंभमध्ये च, उभयो,मदक्षिणे ॥३१३॥ गन्धर्वा निर्गमे कार्या, एकभागा विचक्षणैः । तत्सूत्रे खल्वशाखा च, सिंहशाखा च भागिका ॥३१४॥ सपादः सार्धभागो वा, रूपस्तंभः प्रशस्यते । उत्सेधस्याष्टमांशेन, शस्तं शाखोदयं मतम् ॥३१५।। पत्रशाखा च गन्धर्वा, रूपस्तंभस्तृतीयकः । चतुर्थी खल्वशाखा च, सिंहशाखा ततः परम् ॥३१६॥ पञ्चशाखमितिख्यातं, संक्षेपात्कथितं मया। भा०टी०-शाखा विस्तार मानना ६ भागो कल्पी १-१ भागनी शाखाओ अने २ भागनो बच्चे रूपस्तंभ करवो, रूपस्तंभ निर्गममां १ भागनो करवो प्रशस्त छे, रूपस्तंभमां डाबी जमणी कोणिओ करवी अने तेना निर्गममां चतुर शिल्पिओए एक भागनी गन्धर्वशाखा करवी, तेना समसूत्रे स्तंभनी वीजी तरफ खल्व शाखा अने सिंह शाखा १-१ भागनी करवी, रूपस्तंभना २ भागोमांथी १॥ अथवा १॥ भागनो रूपस्तंभ विस्तारमा राखवो योग्य गणाय, द्वार शाखानी उंचाइना ८ भागो करी तेना एक अष्टमांश जेटलो शारखानो विस्तार राखवो श्रेष्ठ छे. १ पत्रशाखा, २ गन्धर्व शाखा, ३ रूपस्तंभ, ४ खल्ब शाखा, अने ५ मी सिंह शाखा; ए प्रमाणे पंच शाखद्वारनी शाखाओ होय छे, जेथी ए द्वार 'पंचशाख' ए नामथी प्रसिद्ध छे, जेनुं में संक्षेपमां निरूपण कर्यु. हे अपराजित ! हवे सप्तशाखद्वारने कहुं ते सांभल । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] सप्तशाखद्वारनी वर्तना शाखाविस्तारमानं तु, वसुभागविभाजितम् । भाग-भागाश्च शाखाः स्युः, मध्ये स्तंभो द्विभागिकः॥३१७॥ कोणिका भागपादेन, विस्तारे निर्गमे तथा । निर्गमः सार्धभागेन, रूपस्तंभे प्रशस्यते ॥३१८॥ गन्धर्वा सिंहशाखा च निर्गमे भाग एव च । निर्गमश्च तदर्धेन, शेषशाखासु शस्यते ॥ ३१९ ॥ पत्रशाखा च गन्धर्वा, रूपशाखा तृतीयका । स्तंभशाखा भवेन्मध्ये, रूपशाखा तु पञ्चमी ॥ ३२० ॥ षष्ठी स्यात् स्वल्वशाखा च, सिंहशाखा च सप्तमी । प्रासादकर्णसहिता, सिंहशाखाऽग्रसूत्रतः || ३२१|| भा०टी० - शाखाविस्तारना आठ भाग पाडी बाजुमां एक एक भागनी ६ शाखाओ करवी अंने मध्यभां २ भागविस्तारनो १ रूपस्तंभ चनाववो, रूपस्तंभमां बने तरफ विस्तार अने निर्गममां पा. पा. भागनी कोणिओ करवी. रूपस्तंभनो निर्गम दोढ भागनो करवो प्रशंसनीय छे. गन्धर्वा अने सिंहशाखानो निर्गम १-१ भागो करवो अने बाकीनी शाखाओ निर्गमे अर्धा अर्धा भागनी करवी सारी छे, ९ पत्रशाखा, २ गन्धर्वशाखा, ३ रूपशाखा, ४ मध्यमां रूपस्तंभशाखा, रूपशाखा, ६ खल्वशाखा अने ७ सिंहशाखा सप्तशाख द्वारनी आ ७ शाखाओ छे; आमां सिंहशाखा अने प्रासादनो मूल कर्ण, आवेने समसूत्रमां लेवां, नवशाखद्वारनुं निरूपण पण शिल्पशास्त्रमां करेलुं छे छतां आजे तेनो विशेष उपयोग न starrt अहों आप आवश्यक जणातुं नथी. द्वारशाखाना विस्तारनुं मानद्वारोच्छ्रयप्रमाणेन, शाखां विस्तारयेत्सुधीः । ૧૯ १४५ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे षडंशेन त्रिशाखां तु, पञ्चशाखां तु पञ्चमिः ॥३२२।। सप्तशाखां युगांशेन, नवशाखां त्रिभिस्तथा । इदं मानं च ज्ञातव्य, शाखानां विस्तरे शुभम् ॥३२३॥ भा०टी०-द्वारनी उंचाइने अनुसारे बुद्धिमाने शाखानो विस्तार करवो, विशाखानी शाखानो विस्तार द्वारनी उंचाईना छट्ठा भाग जेटलो राखवो, पंचशाखनी शाखानो विस्तार द्वारोदयना पंचमांशे राखवो, सप्तशाखद्वारनी शाखानो विस्तार द्वारोदयना चतुर्थी राखवो अने नवशाखनी शाखानो विस्तार उंचाइना श्रीजा भाग जेटलो करवो, आ प्रमाणे शाखाओनो विस्तार शुभ जाणवो. उत्तरंगद्वारना उत्तरंगना मध्यगागे ते देवनी मूर्ति करवी के जे देवनी मूर्ति तेमां प्रतिष्ठित करवी होय, तेमज ते देवना परिवारनां रूपको उत्तरंगमां पण करवां के जे शाखाओमां कर्यां होय, सामान्य देवमंदिरना उत्तरंगमां कलश, स्वस्तिक, आदि मंगल चिह्नो करवानो रिवाज पण छे, छतां वैदिक देवोना देवालयोना द्वारोना उत्तरंगोमां गणपति करवानो रिवाज विशेष छे. जिनेन्द्रायतनना ८ प्रतीहारोइन्द्रश्चन्द्रजयश्चैव, महेन्द्रो विजयस्तथा । धरणेन्द्रः पद्मकश्च, सुनाभः सुरदुन्दुभिः ॥३२४॥ इत्यष्टौ प्रतिहाराश्च, वीतरागेऽतिशान्तिदाः । अनुक्रमेण संस्थाप्याः प्राच्यादिषु प्रदक्षिणाः ॥३२५॥ भा०टी०-जैन प्रासादोमा पूर्वमुख प्रासादना द्वारपालो, १ इन्द्र, २ इन्द्रजय करवा, दक्षिणमुख प्रासादना द्वारपालो १ महेन्द्र, २ विजय नामना करवा, पश्चिममुख प्रासादोना द्वारपालो १ धरणेन्द्र, २ पद्मक करवा अने उत्तरमुख प्रासादना द्वारपालो १ सुनाभ, २ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १४७ सुरदुन्दुभि नामना करवा. द्वारमा प्रवेश करतां १ लो जमणा हाथे अने २ नंबरनो प्रतिहार डाबा हाथे आवे एवी रीते प्रदक्षिणा क्रमे बनाववा. आयुधो आ वीतरागना प्रतिहारो अतिशय शांति आपनारा छे, माटे पूर्वादि दिशाओमां एमने अनुक्रमे प्रदक्षिणा क्रमथी स्थापवा, इन्द्रना जमणा हाथोमां फल अने वज्र, डावा हाथोमां अंकुश अने दण्ड; आ ४ आयुधो आपवां, अने एज जमणा हाथनां डाबामां अने डाबा हाथनां जमणा हाथोमां आपवाथी इन्द्रजयनुं रूप बनशे. एज रीते महेन्द्रना जमणा बे हाथोमां बे वज्रो तथा डावा वे हाथोमां फल अने दण्ड आपको, अने विजयना हाथोमां महेन्द्रथी अपसव्य क्रमथी एज आपयां. धरणेन्द्रना जमणा हाथोमां वज्र तथा अभय अने डावा हाथोमां सर्प अने दण्ड आपको, तथा एज आयुधो पद्मकना हाथोमां अपसव्य क्रमथी आपवां. सुनाभना जमणा हाथोमां फल अने वांसली तथा डावा हाथोमां वांसली अने दण्ड आपवो; एज आयुधो सुर दुंदुभिना हाथोमां अपसव्य क्रमथी आपवां. (१) प्रतिमाओनां पदस्थानो प्रासादना छन्दानुसारे चोरस, लंबचोरसादि गर्भगृह बनावीने तेना मध्यभागथी प्रारंभ करी २८ मंडलो बनाववा, इत्यादि आकारे गर्भगृहनी च्यारे भींतो तरक एकथी आगे वीजुं आम छेल्लुं २८ मंडल भींतोने अडकतुं आवशे, आ २८ मंडलो पैकीना सर्वना वचला १ ला मंडलमां शिव, २ जा मंडलमां हेमगर्भ, ३ जामां नकुलीश ४थामा सावित्री, ५मामां रुद्र, ६ठामां कार्तिकेय, ७मामां पितामह, मामां वसुदेव, ९मामां जनार्दन, १०मामां विश्वेदेव, ११ मे अग्नि, १२ मे सूर्य, १३ मे दुर्गा, १४ मे गणेश, १५ मे ग्रहो, १६ मे मातृकाओ, १७ मे गणो, १८ मे भैरव, १९ मे क्षेत्रपाल, M Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे २० मे यक्षराज, २१ मे हनुमान, २२ मे भृगु, २३ मे घोर, २४ मे दैत्य, २५ मे राक्षस, २६ मे पिशाच अने २७ मे पदे भूतोने स्थापन करवा. २८ मुं पद शून्य छे, त्यां कोई स्थापित थतुं नथी. मंडलोमां देवोना स्थानोनो अतिदेशविष्णुना स्थाने उमादेवीने, ब्रह्माना स्थाने सरस्वतिने, मध्यमंडलमां सावित्रीने, अने सर्वमंडलोमां लक्ष्मीने स्थापित करी शकाय छे. वीतराग (जिन) ने विघ्नराजना १४ मा मंडलमा स्थापवा, एम जिनशासनमां कहेल छे. मातृमंडलना स्थाने सर्वदेवीओ, बेठी अने उभी विष्णुनी मूर्तिओ, जलशायी विष्णु अने वाराह; ए सर्वने विष्णुना मंडलमा स्थापवा. विष्णुनां सर्व रूपोने ९मा मंडलमा स्थापवां, कल्की अने गमने वाराहना पदमां स्थापवा, अर्ध नारीश्वरने रूद्रना स्थाने, हरिहर उमानी मूर्तिने विष्णुना पदमां स्थापवी. मिश्रमूर्तिने (त्रि पुरुष-हरिहर-ब्रह्मानी मूर्तिने ) ७मा ब्रह्माना स्थानमां, चंद्रसूर्य-पितामहनी मिश्रमूर्तिने भास्करपदमां, वेदोने ब्रह्माना पदमां अने ऋषिओने भास्करपदमां स्थापन करवा, आ उपरांत प्रन्थोमां जे देवो कहेला छे ते जेना सानिध्यमां होय तेना परिकर रूपे सर्वकाले तेना ज पदमां स्थापित करवा. स्पष्टीकरणमंडलोनु तात्पर्य प्रासादना गर्भगृहमा देवप्रतिमाने स्थापन करवा योग्य स्थाननो निर्देश करवानुं छे, जे देवालयना गर्भगृहनो जेवो आकार होय तेज आकारनां मध्यथी कल्पी एकने फरतुं बीजें, बीजाने घेरतुं त्रीजु, त्रीजाने चोमेर वींटतुं चोथुः आम २८ मंडलो कल्पवां अने मध्यमंडलथी द्वार सामेनी भोंत तरफ बीजा जीजा चोथा यावत् २८मा मंडल सुधी निशानो करवां, पछी स्थापनीय देवर्नु मंडल ज्यां आवतुं होय त्यां तेना गर्ने लीटी खेची ते लीटी Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] देवप्रतिमाना पगना गुल्फना गर्ने राखीने ते प्रतिमाने बेसाडवानुं पीठ अथवा पद्मासन बनाव, पछीत तरफनो गभारानो भाग पीठ नीचे लेवो, डावी-जमणी तरफनो भाग पण पदना गर्भसूत्रमा आवतो होय एटलो पीठमा मेलववो, द्वार तरफ गुल्फ आगेनो पग बहार नीकले एटलो भद्रनो दासो बहार काढवो, उर्ध्व प्रतिमाओ तेमज आसनस्थ प्रतिमाओना आसनो आ रीते ते ते देवना मंडल मध्यथी उठायवां, आसननो निकालो गर्भमध्यथी द्वार तरफना मंडलार्धमां काढवो. ए विषयमां, (१) अपराजितपृच्छानुं विधान नीचे प्रमाणे छेप्रासादानां समस्ताना, विभक्तिर्गर्भभित्तितः । गर्भमध्ये सर्वतश्च, देवता क्रमतः स्थिताः ॥३२६॥ चतुरस्रे आयते च, वृत्ते वृहायते तथा । अष्टाने च तथा प्रोक्तो, गर्भपासादरूपतः ॥३२७।। ब्रह्मस्थानादिकं गर्भ, भितिपर्यन्तमेखलम् । मण्डलं भवनाकारं, विभक्तिकभछन्दतः ॥३२८॥ अष्टाविंशतिसंख्याकं, मध्यगर्भानुरूपतः । क्रमादेकैकदेवानां, निवासो मंडले स्थितः ॥३२९॥ प्रथमं मंडलं चैव, यद् भवेद् गर्भमध्यतः।। शिवस्य परमं स्थानं, तन्मेरुरिव मध्यतः॥३३०॥ यवैर्यवार्धेस्तु किश्चित् , कुयादीशानमाश्रितम् । समस्ते च मण्डलाघे, ततसूत्रेषु देवताः ॥३३१॥ पादपद्माग्रसंस्थाने, स्वकीयपदमध्यतः । पदस्य गर्भसंस्थाने, पार्श्वगर्भाद्यादिकम् ॥३३२॥ कर्णपिप्पलिका सूत्रं, भुजगर्भ तु संस्थितम् । पादगुल्फगर्भसूत्रे, पदसूत्रेषु देवताः ॥३३३॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० [ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे आ श्लोकोनो भावार्थ स्पष्टीकरणमां आवी गयो छे. (२) समरांगणसूत्रधारनां देवतापदस्थानोभक्ते प्रासादगर्भा, दशधा पृष्टभागतः । पिशाच रक्षो- दनुजाः, स्थाप्या गन्धर्व-गुह्यकाः ||३३४| आदित्य- चण्डि (द्रि)का विष्णु-ब्रह्मेशानाः पदक्रमात् । भा०टी० -- पछीत तरफना अर्धगर्भगृहने दशे भांगी क्रमशः भीत तरफना १लामां पिशाचो, २जामां राक्षसो, ३जामां दैत्यो, ४थामा गन्धर्वी, ५ मामां यक्षो, छट्ठामां सूर्य, उमामां चन्द्रिका ( चण्डिका) देवी, ८मामां विष्णु, ९मामां ब्रह्मा अने १० मा भागमां शिवनी स्थापना करवी. (३) समरांगण सूत्रधारना देवतापदस्थानो ( बीजा प्रकारे ) - गर्भे षड्भागभक्ते वा त्यक्त्वैकं पृष्टोऽशकम् । स्थापनं सर्वदेवानां पञ्चमेऽशे प्रशस्यते ||३३५|| , भा०टी० - अथवा गर्भगृहना ६ भाग करी पछीत तरफनो छट्टो भाग छोडीने पांचमा भागमां सर्व देवोनी स्थापना करवी प्रशंसनीय छे. (४) प्रासादमंडननां देवतापदस्थानोपट्टाधो यक्ष-भूताद्याः, पट्टा ग्रे सर्वदेवताः । तदग्रे वैष्णवं ब्राह्मं मध्ये लिंगं शिवस्य च ॥ ३३६ ॥ 9 भा०टी० - यक्ष, भूत, आदिने पाट नीचे अने सर्व जातिनी देवीओने पाटनी आगे बेसाडवी; देवीओनी आगे विष्णुनुं अने विष्णु आगे ब्रह्मानुं आसन स्थापं अने शिवलिङ्गने गर्भगृहना मध्यभागे स्थापj. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद - लक्षणम् ] (५) आज काल प्रचलित देवता पदस्थानोप्रासादगर्भस्य दले विधेये, द्वाराग्रखण्डं परिवर्ज नियम् । अन्ये दले पञ्चविभागभक्ते, तस्मिन्विधेयानि निजासनानि ॥ ३३७ ॥ यक्षादयश्च प्रथमे विभागे, द्वितीयभागेऽखिलदेवताश्च । ब्रह्मा च विष्णुश्च जिनस्तृतीये, चतुर्थभागादधिके हरश्च ॥ ॥ ३३८ ॥ भा०टी० - गर्भगृहना २ भाग करी द्वार तरफनो १ भाग छोडी देवो, बीजा भागना ५ भागो करी तेम देवताओनां आसनो निश्चित करवां. ( भींत तरफथी गणतां ) पहेला भागमां यक्ष आदि पुरुषदेवोनुं, २जा भागमां सर्व देवीओनं, ३जा भागमां ब्रह्मा विष्णु तथा जिननुं, अने ४था भागनी बहार शिवनुं आसन स्थापन कर. दृष्टिस्थान १५१ जेम जुदा जुदा देवानां पदस्थानो गर्भगृहमां जुदां जुदां होय छे तेज प्रकारे द्वारमां देवानां दृष्टिस्थानो पण जुदां जुदां होय छे, उंबराथी उत्तरंग सुधीनी द्वारनी उंचाई मापीने तेना ६४ भागो करवा, आ ६४ भागो पैकीना नीचेथी ११३५७९ |११|१३|१५|१७|१९|२१|२३| ।२५।२७|२९|३१|३३|३५|३७|३९|४१ |४३|४५|१७|४९१५११५३ 1५५/५७/५९/६१।६३ : आ ३२ विषमभागो दृष्टिपदो छे, ज्यारे २ थी ६४ पर्यन्तना तमाम समभागो शून्य स्थानो छे, आ समपदोमां कोइ पण देवनी दृष्टि रखाती नथी, विषम पदो पैकीना १|३| ५।७।९।११।१३।१५।१७; आ नत्र पदोमां शिव तत्त्वोनो दृष्टिन्यास थाय छे, ए पछी १९।२१।२३ : आ पदोमां व्यक्ताव्यक्तादि पदोनी स्थापना करवी, ए पछी २५मां सधैं, २७ मां शेषशायी विष्णु, २९मां गरुड, ३१मां मातृकाओ, ३३मां यक्ष, ३५मां भृंगशुकर Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ [ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे ( वाराह ), ३७मां उमा-महेश्वर, ३९मां बुध, ४१मां ब्रह्मयुग्म ( ब्रह्मा अने सावित्री ! ) ४३ मां दुर्वासा - अगस्त्य - अने नारदऋषि, ४५ मां लक्ष्मीनारायण, ४७मां विधाता, ४९मां गणेश तथा सरस्वती, ५१ लक्ष्मी, ५३ मां हरसिद्धि, ५५ मां ब्रह्मा विष्णु सूर्य तथा वीतराग (जिन ), ५७मां रुद्र, ५९मां चण्डिका, ६१मां भैरव अने ६३ मा स्थानमां वेतालनी मूर्तिनी दृष्टि राखवी, ए पछीना ६४मा पदमा कोइनी दृष्टि न राखवी, तेने दृष्टिशून्य रहेवा देवु. ए विषयमा अपराजित नुं विधान - " द्वारोच्छ्रयस्य मध्यं तु वसुभागविभाजितम् । शुभाशुभ दृष्टिस्थानं, हिताऽहितफलप्रदम् ॥ ३३९॥ पदमेकैककं भूयो ह्यष्ठधा प्रविभाजितम् । चतुःषष्टयंशोच्छ्रितं स्था- दुदुम्बरदशान्तकम् ||३४०|| विषमांशेषु सर्वेषु, देवतादृष्टियोजनम् । दृष्टिस्थानानि द्वात्रिंशद्, द्वात्रिंशच्च विलोमतः ॥ ३४१॥ विषमस्था शुभा चैवं, विलोमे चाऽशुभोद्गमः । दृष्टिदोषविपाकेन, स्थाननाशो धनक्षयः || ३४२ || नगरे च पुरे ग्रामे, राष्ट्रे तीर्थे तपोवने । दृष्टिवातहतं यच्च न पुनस्तत् प्ररोहति ॥३४३॥ पादेऽचयाः कटिं यावत्, कार्या वाहनदृक् तथा । भा०टी० - द्वार मध्यनी उंचाईना ८ भाग करवाथी शुभ अशुभ दृष्टिस्थानो के जे हितकर अने अहितकर छे ते जणाय, एक एक अष्टमांशना फरी ८-८ भागो करी उंबराथी उत्तरंग पर्यन्त द्वारनी उंचाइना ६४ भाग करो, आमां जे विषम भागो छे ते बधामां देवताओनी दृष्टि रहेती होवाथी ते ३२ दृष्टिस्थानो कहेवाय Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १५३ के अने ३२ समभागो विपरीत स्थानो छे, बधां विषम स्थानो शुभ अने विपरीत स्थानो अशुभ होय छे, दृष्टिदोषना विपाकथी स्थानभ्रष्टता अने धनहानि थाय छे। नगरमां, पुरमां ग्राममां, देशमां, तीर्थमां के तपोवनमां दृष्टिदोषरूप प्रचण्ड वायुथी जे उखडी जाय छे ते फरीने उगतुं नथी, माटे दृष्टि शुभ स्थानमां राखत्री. वाहनदृष्टि वली देवना वाहननी दृष्टि प्रतिमाना पगथी कटिभाग सुधी उंची राखवी, एथी ऊंची न राखवी. ठक्कुर फेरुनुं दृष्टिविधान दृष्टिस्थानना संबन्धमा वास्तुसारकर्ता ठक्कुर फेरुनो मत उपयुक्त मान्यताथी जुदो पडे छे, फेरु द्वारोदयना १० भाग करीने दृष्टस्थान निश्चित करे छे. जे नीचेनी गाथाओथी जणाशे. दस भाग कयदुवारं, उद्देवर - उत्तरंगमज्झेणं । पढमंसि सिवदिट्ठी, बीए सिवसन्ति जाणेह ||३४४ || सयणासणसुर तइए, लच्छीनारायणं उत्थे य । वाराहं पंचमए, छसे लेवचित्तस्स || ३४५ ॥ सासणसुर सत्तमए, सत्तमसत्तंसि वीयरागस्स । चंडिय भइरव अडमे, नवमिंदा चमरछत्तधरा ॥ ३४६ ॥ दसमे भाए सुन्नं, अहवा गंधव्वरक्खसा चेव । हिडाउ कमि विजह, सयलसुराणं च दिट्ठी' अ ||३४७ || भा०टी० - उंबरा - उत्तरंग बच्चेना द्वारोदयना १० भाग करीने सर्व देवानां दृष्टिस्थानो निश्चित करवां, नीचेथी अनुक्रमे १ ला भागे शिवनी दृष्टि, २जामां शिवशक्तिनी, ३जाम शेषशायी देवनी, २० Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ४थामां लक्ष्मी नारायणनी, ५मामां वाराहनी, ६ट्ठामा लेपचित्रनी, ७मामां शासनदेवोनी, ७माना ७मा भागमां वीतराग देवनी, ८मामां चंडिका तथा भैरवनी, ९मामां चमरधर-छत्रधर देवोनी दृष्टि स्थापकी अने दशमा भागने दृष्टि रहित राखवो अथवा १०मा भागमां गंधों अने राक्षसोनी दृष्टि स्थापन करवी. ठक्कुर फेरुनी दृष्टिस्थान संबन्धी आ मान्यताने कोइ प्राचीन ग्रन्थनो आधार छे के केम ? ए विचारणीय वस्तु छ, आ विषयमां अपराजितनी मान्यता फेरुना ध्यानमां न होय एम पण कही शकाय तेम नथी, कारण के फेरु पोते ज आगल चालीने ८ भागनी चर्चा करे छे, ते लखे छ के भागट्ठ भणंतेगे, सत्तम-सत्तंसि वीयरागस्स । गिहदेवालि पुणेवं, कीरइ जह होइ वुढिकरं ॥३४८॥ भा टो०-कोइ द्वारना ८ भाग करीने सातमाना सातमा भागमां वीतरागनी दृष्टि स्थापवानुं कहे छे, पण आम घर दहेगसरमा करवु जोइये के जेथी वृद्धिकारक थाय. आचार्य वसुनन्दिनी दृष्टिस्थान विषयक मान्यता दिगम्बराचार्य वसुनन्दीनी दृष्टिस्थान विषयक मान्यता उपर्युक्त बंने मतोथी जुदी पडे छे, तेओ द्वारना ९ भाग करी सातमाना ७मा भागमां दृष्टिस्थान माने छ; जुओविभज्य नवधाद्वारं, तत्षड्भागानधस्त्यजेत् । उर्ध्व द्वौ सप्तमं तद्वद्, विभज्य स्थापयेद् दृशम् ॥३४९॥ भा०टी०-द्वारना ९ भाग करी ६ नीचे अने २ ऊपर छोडवा पछी ७माना एज रीते ९ भाग करीने (सातमा भागमां) दृष्टिने स्थापन करवी. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम्] १५५ ठक्कुर फेरुनो दश भागनो अने वसुनन्दिनो नव भागनो दृष्टिस्थान विषयक सिद्धान्त कया प्रामाणिक शिल्पग्रन्थना आधारे निर्णीत थयो हशे ? ए कहेवं मुश्केल छे, बंने विद्वानोना सिद्धान्त कोइ आधार तो राखता हशे ज, एमां शंका नथी, छतां वर्तमान कालीन सर्वमान्य ८ भागना सिद्धान्तना मुकाबलामां ए बे अप्रसिद्ध सिद्धान्तोने अनुसरवानी अमे सलाह आपी शकता नथी. प्रणाल मूकवानी दिशाअर्चानां तु मुखं पूर्व, प्रणालं वामतः शुभम् । उत्तरायां न विज्ञेया, ह्य रूपेण देवता ॥ ३५० ।। जैनयुक्तसमस्ताश्च, याम्योत्तर क्रमैः स्थिताः । वाम-दक्षिण-योगेन, कर्तव्यं सर्वकामदम् ॥ ३५१ ॥ वामे वामं प्रकर्तव्यं, दक्षिणे दक्षिणं शुभम् । मण्डपादिप्रतिमानां, तथा युक्त्या विधीयते ॥३५२॥ मण्डपे ये स्थिता देवा-स्तेषां वामे च दक्षिणे । प्रणालं कारयेद्धीमान , जगत्यां वै चतुर्दिशम् ||३५३॥ __ भाटी०-जे प्रतिमाओ पूर्वसंमुख बेठी होय त्यां तेमना डावा हाथनी तरफ सिंहासनमा प्रणाल मूकवी शुभ छे, उत्तरमुखी कोइ देवीनी मूर्ति तो जाणवी ज नहि, बाकी जैन प्रतिमा तेमज बीजी सर्व प्रतिमाओ जे दक्षिण-उत्तर दिशाना क्रमे बेसाडेली होय तेमना डाबा तथा जमणा हाथनी तरफ प्रणाल राखवी, दक्षिण संमुख होय तेना डावा हाथे, उत्तराभिमुख होय तेना जमणा हाथे प्रणाल मूकवी, पण विपरीत न मूकवी. उपलक्षणथी जेम पूर्वमुखने डाबा हाथे मूकवी शुभ छे तेम पश्चिमाभिमुखने जमणा हाथे मूकवी शुभ छे. मंडपादिकमां प्रतिमाओ बेठेली होय तो त्यां नीचेनी युक्तिए प्रणाल मूकवी, मंडपमां बेठेल देवोना आसने पण डावा Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे जमणा हाथना क्रमे प्रणाल मूकवी अने जगतीमां च्यारे दिशाओमां प्रणालो मूकवी, पूर्व-दक्षिणामुख बेठेल प्रतिमाओने त्यां डावा हाथनी तरफ अने पश्चिम-उत्तरमुख देवोने त्यां जमणा हाथे प्रणाल मूकवी शुभ गणाय छे, प्रासादोने अंगे पण एज नियम जाणवो. प्रतिमामान-दारोदयमाने (ऊर्ध्वस्थित-) द्वारोच्छ्यश्च नवधा, भागमेकं परित्यजेत् । शेषत्र्यंशे द्विभागार्चा, व्यंशोना द्वारतोऽथवा ॥३५४॥ भा०टी०-द्वारना उदयना ९ भाग करी एक भाग छोडी देवो, शेष रहेल ८ भागात्मक द्वारना ३ भाग पाडी १ भाग जेटलं ऊंचुं आसन बनावQ अने २ भागनी प्रतिमा स्थापवी, अथवा द्वारनी ऊंचाईना बे भाग जेटली ऊंची प्रतिमा स्थापवी. (ऊ स्थित तथा आसीन-) द्वारदैये तु द्वात्रिंशे, तिथि-शक्र-कलांशकैः । ऊर्ध्वार्चा आसनस्था च, मनुविश्वार्कभागतः ॥३५॥ भा०टी०-द्धारनी ऊंचाईना ३२ भाग पाडी, ते वत्रीसमांना १६-१५ वा १४ भाग जेटली उभी प्रतिमा ते द्वारवाला गभारामां ज्येष्ट, मध्यम अथवा जघन्यमाने राखवी अने बेठी प्रतिमा तेज बत्रीज्ञा १४-१३-१२ भाग जेटली ऊंची ज्येष्ठ, मध्यम अने कनिष्ठ माने राखवी. गर्भमाने प्रतिमामानचतुरस्रीकृते क्षेत्रे, दशभागविभाजिते । भित्तिढिभागा कर्तव्या, षड्भागं गर्भमन्दिरम् ॥३५६॥ तृतीयांशेन गर्भस्य, प्रासादे प्रतिमोत्तमा। मध्यमा स्वदशांशोना, पञ्चांशोना कनीयसी ॥३५७।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ प्रासाद-लक्षणम् ] भा०टी०-प्रासादनी चोरस भूमिना दश भाग करी बे पे भागनी भीतो करी ४ भाग भीतोमा रोकवा अने ६ भागनो गभारो करवो, ए गमारानु जे मान होय तेना त्रीजा भागना माननी प्रतिमा बेसाडवी ते उत्तम गणाय, उत्तम मानमांथी दशमांश हीन करबाथी मध्यम अने पञ्चमांश हीन करवाथी कनिष्ठ माननी प्रतिमा कहेवाय छे. प्रासादमाने प्रतिमामान१ हाथना प्रासादे प्रतिमा ६ आंगलनी, २ हाथना प्रासादे प्रतिमा १२ आंगलनी, ३ हाथना प्रासादे प्रतिमा १८ आंगलनी अने ४ हाथना प्रासादे प्रतिमा १ हाथना उदयनी वेसाडवी, आम "प्रासाद तुर्यभागस्य, समाना प्रतिमोत्तमा" आ वचनानुसारे प्रासादनुं जे मान होय तेना चोथा भागनी ऊंची प्रतिमा उत्तम माननी गणाय छे, प्रतिमानुं मान द्वारोदय, गर्भविस्तार अने प्रासादविस्तार आदि अनेक उपायो वडे निर्णीत कराय छे, छतां आ छेल्ली प्रासाद विस्तारना चोथा भागे प्रतिमामान राखवानी रीति अधिक प्रचलित छ, प्रतिमा विषम अंगुलनी होय तेज श्रेष्ठ गणाय छे, माटे प्रासादमाने तेनुं जे मान आवतुं होय तेमां १ आंगल वधारीने अथवा घटाडीने विषमांगुलनी प्रतिमा बेसाडवी, विषमांगुल माटे ६ ने बदले ७, १२ ने बदले १३ अथवा ११ नी प्रतिमा ज राखवी योग्य गणाय, कदापि तैयार प्रतिमा प्रमाणोपेत न मलतां ओछा माननी मले तो ते चाली शके पण उत्तम मानथी १ आंगलथी अधिक उंची तो न ज चाले. शिखरशृंगो अने उरू शृंगो (प्रासाद मण्डने) छायस्योद्धर्वे प्रहारः स्यात्, शंगे शंगे तथैव च। प्रासाद-शृंग-शृंगेषु, अधोभागे तु छाद्यकम् ॥३५८॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे मूलकणे रथादौ वा, एक-द्वि-त्रीन् क्रमान्न्यसेत् । निरन्धारे मूलभित्तौ, सान्धारे भ्रमभित्तिषु ॥३५९॥ ऊरुशंगाणि भद्रेषु, ह्येकादिग्रहसंख्यया । प्रयोदशोद्धर्वे सप्ताघो, लुप्तानि चोरुशृंगकैः ॥३६०॥ भा०टी०-मंडोवरो ढंकाया पछी छाजा उपर प्रहारनो थर देवो, ज्या ज्या शंगो लगाडवानां होय त्यां पण सर्वत्र प्रहार देवो. प्रासादना प्रत्येक शंगने नीचे छाद्य लगाडीने उपर प्रहार देवो अने पछी शंग उठाक्वू, मूलकोण, पडरा आदि उपर एक, बे या त्रण शंगो क्रमे चढाववां, ३ थी अधिक शृंगो चढाववां नहि. निरंधार प्रासादनी मूल भींत उपर अने सांधार प्रासादनी भ्रमणीनी भींतो उपर शंगो चढाववां, शृंगो भीतमा समाववां पण गभारामां के भ्रमणीनी अंदर पडवा न देवां. भद्रो उपर १ थी मांडीने ९ सुधीनी संख्यामां उरुशृंगो चढाववां, उरुशंगोनी उंचाईना १३ भाग कल्पीने निचला ७ भागो नीचेना बीजा उरुशंगवडे दबाववा, तेना नीचेना ७ भागो ते पछीना त्रीजा उरुशृंगवडे लोपवा; एम प्रत्येक पछीना उरुशृंगवडे पहेला उरुशृंगना ७ भागो लोपवा अने उपरना ६ भाग उघाडा राखवा. जेम शृंगो कोइ पण अंगविभाग उपर ३ थी अधिक चढतां नथी, तेम उरुशंगो पण ९ थी अधिक चढतां नथी. अपराजितपृच्छायाम्निरंधारेषु सर्वेषु, नागरे मिश्रके पि वा। विमान-नागरच्छन्दे, कुर्याद विमान-पुष्यके ॥३६॥ भित्तेः पृथुत्वे यन्मानं, तच्छंगक्रम ऊर्ध्वतः । गर्भमध्ये यदारेखा, महामर्मक्षयावहा ॥३६२॥ एक-द्वि-त्रिक्रमा उक्ता, भित्तिमध्ये यथोसरम् । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ प्रासाद-लक्षणम् ] अधिका नैव कर्तव्या, पीडिते च कुलक्षयः ॥३६३॥ एकादिग्रहसंख्यान्त-मुरःशृंगं क्रमोद्गतम् । अधःस्थेन भवेल्लुप्त-मुरःशृंगं तु पश्चिमम् ॥३६४॥ सप्त सप्त ह्यधो लुप्ता, ऊर्ध्वस्थांशास्त्रयोदश । एकविधं घंटाबाह्य, स्कन्धे स्कन्धं तु कारयेत् ॥३६५।। एकैकं युक्तिसूत्रं तु, कर्तव्यं सर्वकामदम् । मूत्रयित्वा क्रमयोगं, मूलसूत्रानुसारतः ॥३६६॥ छन्दभेदो न कर्तव्यो, जातिभेदो न वा पुनः । उद्भवेच्च महामर्म, जातिभेदे कृते ननु ॥३६७॥ यदि छन्दे छन्दो नास्ति, नाद्यमाद्ये प्रतिष्ठितम् । तत्प्रासादफलं नास्ति, मोक्षकारो न विद्यते ॥३६८॥ भा०टी०-सर्वे जातिना निरंधार प्रासादो, नागरो, मिश्रको, विमाननागर-छन्दो अने विमानपुष्यको; आ सर्व प्रासादोमां भीतना विस्तारनुं जे मान होय ते माननां शंगो बनाववां, गर्भमा रेखा न पाडवी, केमके रेखानुं गर्भमां पडवू महामर्मरूप क्षयकारक गणाय छे, भित्ति उपर एक बे अथवा त्रण क्रमो अनुक्रमे चढावयां अधिक न चढाववां, अधिक क्रमो चढाववाथी रेखा अंदर पडवाथी गर्भ पीडाय छे अने गर्भने पीडित करवाथी कुलनो क्षय थाय छे, भद्रविभागमां १ थी ९ सुधी उरःशंगो क्रमे चढाववां, नीचेना बीजा उरःशंग वडे पहेला उःशंगने लोपq ( ढाकवु ) एम प्रत्येक उरःशंगनी उंचाईना १३-१३ भाग करी नीचेना ७-७ भागो बीजा बीजा उरःशंगो वडे लोपवा, आमलसारानी बहारनो भाग एक प्रका. रनो करवो, उंचाईमां विस्तारमा एक सूत्रे क्रमो चढाववा, स्कंधे स्कन्ध मेलववो, सूत्रवड़े तमाम क्रमोनी दलविभक्ति करवी, क्रमो Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमल मूल प्रासादना छंद अने जातिना ज करवा, छंदभेद अथवा जातेभेद न करवो, केमके तेम थतां 'महामर्म' उत्पन्न थाय छे. जो छंदे छंद न मले, नीचेनी रचना प्रमाणे उपरनी प्रतिष्ठित न थाय तो ते प्रासाद शुभफल दायक थतो नथी अने तेनाथी मोक्षफलनी प्राप्ति थती नथी. प्रासादस्य पुरो भागे, निर्वाणमुरःशृंगकम् । तस्याग्रे शुकका प्रोक्ता, उरःशंगाद्यनुक्रमात् ॥३६९॥ एक-त्रि-पञ्च-सप्ताङ्क-सिंहस्थानानि कल्पयेत् । . तस्यादिभक्ति मूत्रं तु, कोलिकायामसूत्रतः ॥३७०॥ भान्टी-प्रासादना आगला भागे जे 'निर्वाण' नामक उरःशंग छे, तेनी आगे शुकनास करवानुं विधान छै. ते शुकनासनी रचनानु सूत्र कोलिनी लंबाईना सूत्रे करवू, एटले के कोली जेटली उंचाईमां होय तेटली ज शुकनासिका लंबाईमां बहार निकालवी. कोलीना भेदोअञ्चिता कुञ्चिता शस्या, त्रिधोदितक्रमागता । मध्यस्था-भ्रमा-संभ्रमाख्याः, कपिलाः परिकीर्तिताः॥३७१॥ प्रासादे दशधा भक्ते, भूमिसीमाविचक्षणः । अश्चिता च द्विभागा स्यात् , त्रिभागा कुञ्चिता तथा ॥३७२।। शस्या चैव चतुर्भागा, त्रिधा चोक्तक्रमागता । मध्यस्था प्रासादपादे, भ्रमा सद्मत्रिभागतः ॥३७३।। अर्धे तु संभ्रमा कार्या, प्रासादस्य प्रमाणतः ॥३७४॥ भा०टी०-१ अंचिता, २ कुंचिता, ३ शस्या; आ त्रण कोलिओ अनुक्रमे कही छे, बीजी त्रण कोलिओ-१ मध्यस्था, २ भ्रमा, ३ संभ्रमा नामनी पण छे. प्रासाद-कोण सीमाविस्तारना १० भागोमाथी २ भागनी Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १६१ अंचिता, ३ भागनी कुंचिता अने ४ भागनी शस्या नामनी कोली करवी. प्रासाद विस्तारना चोथा भागनी १ मध्यस्था कोली, त्रीजा भागनी २ जी भ्रमा अने प्रासादना प्रमाणथी अर्धा भागनी ३ जी संभ्रमा नामनी कोली करवी. अग्रे कोली कपोलं तु, शुकनासस्तु नासिका । सान्धारे स्तंभरेखा च कर्तव्या मध्यकोष्ठ के ॥ ३७५ ॥ भ्रमणी बाह्याभित्तिश्च क्रमात्संख्या प्रकल्पयेत् । शृंगोरुशृंगप्रत्यंगै - गणयेदण्डकानि च ॥ ३७६ ॥ कर्णे तवांगं तिलकं कुर्यात् प्रासादभूषणम् । कर्ण रथं प्रतिरथं, सुभद्रं प्रतिभद्रकम् ॥ ३७७ ॥ सलिलान्तरमार्गेषु, शुद्धान्येवांगसंख्यया । इहैवांगप्रमाणेन, सपादं शृंगमुच्छ्रये ॥ ३७८ ॥ स्कन्धस्यादये घण्टा, सर्वकामफलप्रदा । " भा०टी० - प्रासादने आगे कोलं, ते प्रासादना 'कपोल' रूप अने शुकनास 'नासिका रूप होय छे. सांधार प्रासादोमां मध्यकोष्ठकना स्तंभथी रेखा उठाववी, अने भ्रमणी तथा बाह्यभींतने प्रासादनी मानसंख्यामां परिगणित करवी. ܕ शृंगो, उरुशृंगो अने प्रत्यंगोथी अंडको गणत्रा अने कणी, तर्वांग, तिलक; ए बधां प्रासादना भूषण रूपे करवां, कोण, रथ, प्रतिरथ, सुभद्र, प्रतिभद्र; आ बधां प्रासादनां अंगो गणाय छे, जलमार्गों बच्चे आ अंगोनी संख्या स्पष्ट जणाय छे, अर्थात् प्रत्येक बे अंगो वच्चे पाणीतार छोडवाथी उक्त अंगो एक बीजाथी जुद जणाइ आवे छे, आ अंगोना मानानुसारे उपर शंगो बनावत्रां, अने प्रत्येक शृंग पोताना विस्तारथी सवायुं उंचुं करवुं. स्कंधना विस्तारना अर्धा भाग जेटलो आमलसारानो उदय करवो शुभ फलदायक छे, ૨૧ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे प्रहाराशं पुनर्दद्यात्, पुनः शृंगाणि कारयेत् । शंगे शृंगे च प्रासाद, विभक्तमिव कारयेत् ॥३७९॥ समस्तानामधोभाग, कुर्याच्छाद्यविभूषितम् । अधःशृंगपक्षभागे, ऊर्वशृंगव रोद्गमः ॥ ३८० ।। उरुशृंगं यदा लुप्तं, रेखा-कर्ण-जलान्तरैः। तत्र कारयितुः पीडा, कर्तुश्चापि महद् भयम् ॥३८१॥ भा०टी०-जे अंगो उपर शंगो उठावयां होय तेनी उपर प्रथम प्रहार थरो देवा अने पछी शृंगो करवा, फरि प्रहार देवा अने फरि शंगो करवां भिन्न भिन्न शृंगोमां प्रासादने वहेंची देवु, समस्त शंगोनो निचलो भाग प्रथम छाजाओथी विभूषित करी उपर प्रहार लगाडी ते उपर शंगो बनावबां. नीचेना शंगोनी एक बाजुथी उपरनां शृंगो उठावयां. रेखा, कर्ण अने जलमार्गोथी जो उरुशंग लोपाय तो करावनारने पीडा अने करनारने पण भयर्नु कारण बने छे. मूलशिलात उदये, पर्यन्तकलशान्तके। विभक्ते विंशतिभाग-रध ऊर्व प्रकल्पयेत् ॥३८२॥ अष्टभिर्भागैयेष्ठः, साधैरष्टभिर्मध्यमः। कनिष्ठो नवभिर्भागै-स्त्रिधा मण्डोवरो मतः ॥३८३॥ शेषा ये ऊर्ध्वभागास्तैः, कर्तव्यः शिखरोदयः । इदं मानं समुद्दिष्ठं, प्रोक्तं वै वास्तुवेदिमिः ॥३८४॥ भा०टी०-खरशिलाथी कलश पर्यन्तना प्रासादना उदयना २० भागो करी नीचे उंचना विभागो कल्पवा, नीचेना भागमा ८-८॥ अने ९ भाग ऊंचो अनुक्रमे ज्येष्ठ, मध्यम, अने कनिष्ठ मंडोवरी करवो, उपर जे भागो रहे तेटलो ऊंचो शिखरनो उदय Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम्] करवो, वास्तुशास्त्रना ज्ञाताओए कहेल मंडोवरानुं अने शिखरर्नु मान आ प्रमाणे कडं. रेखाशिल्पशास्त्रमा शिखरनी रेखा महत्त्वनुं स्थान धरावे छे. अपराजितपृच्छामां रेखाना निरूपणमा ३ सूत्रो (अध्यायो) अने १०१ श्लोको रोकायेला छे, कोइ पण जातना प्रासादना शिखर, निर्माण रेखा ज्ञान विना निर्दोषपणे थइ शकतुं नथी, शिखरनी ऊंचाई अने तेना वलन (नमन)नुं परिमाण नक्की करवा सूत्रनी दोरी बडे लीटीओ खंचवामां आवती, तेओने शिल्पशास्त्रोमां 'रेखा' ए नाम अपायुं छे. . रेखाना भेदोशिल्पशास्त्रमा रेखाओ वे प्रकारनी बतावी छे, एक 'नागरी रेखाओ अने बीजी 'चन्द्रकला ' रेखाओ. नागरी रेखाओनी बे पच्चीसीओ होय छे, एक पच्चीसी 'उदयभेदोद्भवा' अने बीजी 'कलाभेदोद्भवा.' बने पच्चीसीओनो अनुक्रमे शिखरना उदय अने वलनमा उपयोग थाय छे, बीजी पच्चीसीनी रेखाओने खंड अने कलाओ लागती होवाथी 'कलाभेदोद्भवा' ए नाम पडयुं छे.. नागरी रेखाओ पैकीनी ए बीजी पच्चीसीनी पहेली रेखा पंचखंडी, बीजी षट्खंडी, आम एक एक खंडनी वृद्धिए २५ मी रेखा २९ खंडी थाय छ, आ जातिनी रेखाओमाँ ५ थी ओछा अने २९ थी अधिक खंडो होता नथी. - आ रेखाओना प्रतिखंडे एक एकनी वृद्धिए कलाओ लागे छे, आ पच्चीसीनी पहेली पंच खंडी रेखा के जेनु नाम 'चन्द्रकला'छे, एना पहेला खंडमां १, बीजामां २, एम वधारतां पांचमामा ५ कलाभो उपजे छे, एकंदर एना ५ खंडोमां १५ कलाओ लगाडाय Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे छे, ए नियमानुसार आनी पच्चीसमी त्रैलोक्यविजया' रेखाना २९ खंडोमां ४३५ कलाओ उपजे छे अने आखी पच्चीसीनी ४४७५) च्यारहजार च्यारसौ पंचोतेर कलाओ उपजे छ, शिखरना वलनमां आ कलाओ पैकीनी कोई पण १-१ कलानी हानि वृद्धिए कलाओ जेटलां शिखरो उपजे छे. चन्द्रकला रेखाओसाधारण रेखाओगें 'चन्द्रकला' ए नाम एनी सोलनी संख्याने लीधे पडयुं लागे छे, केमके मूलमां ए रेखाओ १६ छे अने बधी समचार' खडो वाली छे, पण आ सोल पैकीनी प्रत्येकनी पाछल बीजी १५-१५ रेखाओ विषमचारिणी पण छे, तेथी ए २५६ नी संख्याए पहोंचे छे. 'चन्द्रकला' रेखाओमांत्रण खंडो अने चोवीश कलाओथी ओछा खंडो के कलाओवाली कोइ रेखा होती नथी. पहेली चन्द्रकला रेखा के जेनुं नाम 'शशिनी' छे ते त्रिखंडा छे अने एने चोवीस कलाओ होय छे, ए पछीनी १५ रेखाओ पण एनीज जातिनी होवाथी ते छे तो त्रिखंडा, पण ए बधीमां प्रथमखंड सिवायना खंडोमां कलाओनी वृद्धि थती जाय छे, बीजा त्रिखंडाना बीजी खंडमां ९ अने त्रीजामा १० कलाओ लागे छे, पहेला खंड करतां त्रीजामा एक चतुर्थांश कलाओ वधु होवाथी ए रेखा 'सपादचार' वाली कहेवाय छे, एज प्रमाणे जेम जेम रेखाओनो नंबर वधे छे तेम तेम तेना खंडो वधे छे अने तेनी साथे चार पण वधे छे. सोलमी त्रिखंडाना पहेला खंडनी ८ कलाओ करतां त्रीजा खंडनी ३८ कलाओ पोणा पांचगणी थइ जाय छे अने तेथी ए रेखाओनो चार पोणापांच गगो गणाय छे. चन्द्रकलारेखाओ पैकीनी बीजी मूल रेखा 'शान्तिनी' गणाय Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] छे, आ चतुष्खण्डा छे, एना च्यारे खंडोमां १२-१२ कलाओ लागे छ, अर्थात् ए पण समचार वाली छे, त्रिखंडानी जेम एनी पाछल पण बीजी १५ चतुखंडाओ छे, जे अनुक्रमे सपाद, सार्थ, पादोनद्वय आदि चार वाली छे; आ प्रमाणे प्रत्येक मूल रेखामा एक एक खंडनी वृद्धि थतां १६ मी 'अमृता' रेखा अढार खंडवाली बने छे. मूल रेखाओमा जेम जेम नंबर वधे छे तेम तेम एमना पहेला खंडोमां ४-४ कलाओनी वृद्धि थाय छे, पहेली मूलरेखा अने एनी अनुवर्तिनी १५ रेखाओना पहेला खंडमां ८-८ कलाओ छे तो बीजी मूलरेखा अने तेनी जातिनी १५ रेखाओना पहेला खंडमां १२-१२ कलाओ छ, आम ४-४ नी वृद्धि थतां सोलमी 'अमृता' अने एनी जातनी १५ रेखाओना पहेला खंडामा ६८-६८ कलाओ उपजे छे अने अमृता वर्गनी छेल्ली रेखाना छेल्ला खंडमां ३२३ कलाओ उपजे छ, आ सोलमीनी सोलमी अर्थात् २५६ मी रेखाना बधा खंडोनी कलासंख्या ३५१९ नी थाय छे, आम आ बधी रेखाओनो कलाविस्तार अनेक लाखोनो संख्यामां छे, अने जेटला रेखाओना कला भेदो तेटला ज समच्छंदे शिखरना भेदो उपजे छे. नागरी रेखाओ उदय रेखाओसूत्ररेखोत्थिता रेखा, संख्यायां पञ्चविंशतिः । नामानि कथयिष्यामि, सव्यासादेर्यथाक्रमम् ॥३८५॥ सव्यासा शोभना भद्रा, सुरूपा सुमनोरमा। शुभा चैव तथा शान्ता, कौबेरी च सरस्वती ॥३८६॥ कौला च करवीरा च, कुमुदा पद्मिनी तथा । कनका विकटा चैव, रम्या च रमणी तथा ॥३८७॥ वसुन्धरा तथा हंसी, विशाखा नन्दिनी तथा । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे जया च विजया चैव, सुमुखा च प्रियानना ॥३८८॥ इत्येताः कीर्तिता रेखाः, संख्यायां पञ्चविंशतिः। उदयभेदोद्भवाः ख्याताः, सपादकर्णमध्यतः ॥३८९॥ भा०टी०-सूत्रनी रेखाथी जे आकार उत्पन्न थाय छे तेनुं नाम रेखा छे अने संख्यामां ते पच्चीस छे, ते 'सव्यासा'दि २५ रेखाओनां अनुक्रमे नामो कहीश. १ सव्यासा, २ शोभना, ३ भद्रा, ४ सुरूपा, ५ सुमनोरमा, ६ शुभा, ७ शान्ता, ८ कोबेरी, ९ सरस्वती, १० कौला, ११ करवीरा, १२ कुमुदा, १३ पद्मिनी, १४ कनका, १५ विकटा, १६ रमा, १७ रमणी, १८ वसुन्धरा, १९ हंसी, २० विशाखा, २१ नन्दिनी, २२ जया, २३ विजया, २४ सुमुखा अने २५ प्रियानना; आ २५ नागरी रेखाओनां नामो कह्यां; आ रेखाओ उदयभेदे उत्पन्न थनारी होवाथी आ नामथी प्रसिद्ध छे, आ रेखाओ सवाया रेखा विस्तार तुल्य उदय अने कोण विस्तार तुल्य उदय कच्चेना अंतरमा उत्पन्न थाय छे.. कला रेखाओपञ्च-खण्डादि-खण्डा , एकोनत्रिंशकावधि । खंडचारे कला ज्ञेया, अंकवृद्धिक्रमेण तु ॥३९०॥ एक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्च,-षट्-सप्ताष्ट क्रमोद्गताः । अनेन क्रमयोगेन, एकोनत्रिंशकावधि ॥३९१।। पश्चखण्डे कलाश्चैव, संख्यया दश पञ्च च । एकोनत्रिशे पश्चत्रि-शदुत्तरं चतुःशतम् ॥३९२॥ भा०टी०-पांच खंडथी मांडीने १-१ खंडने वधारता २५ रेखाना २९ खंडो थशे, प्रत्येक खंडे नंबरवृद्धिनी साथे कलावृद्धि Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ प्रासाद-लक्षणम् ] करवी. एक, बे, त्रण, च्यार, पांच, छ, सात, आठ इत्यादि क्रमे प्रत्येक खंडे एक एक कलानो आंक वधारवो, पंच खंडीना पहेला खंडे १, बीजा खंडे २, त्रीजा खंडे ३, चोथा खंडे ४, पांचमा खंडे ५ कलाओ लगाडतां पांच खंडे १५ कलाओ थशे, एज प्रमाणे २५ मी रेखाना २९ खंडोनी सर्व कलाओ ४३५) च्यारसो पांत्रीश थशे. चन्द्रकला कलावती, कलधौता च रुधिरा । नलिनी मालिनी मूला, दुन्दुभिर्वनवल्लिका ॥३९३॥ रत्नचूला वृन्दारका, त्रिशिखा नन्दकौमुदी। नयना चक्रोन्मत्ता च, विशाला विभ्रमा लता ॥३९४॥ मृगा च दीपशिला च, कुमुदमंजरी तथा । पूर्णरम्या च माहेन्द्री, कीर्तिपताका तत्परा ॥३९५।। त्रैलोक्यविजया चैव, नामभिः प्रञ्चविंशतिः। कलारेखाः समाख्याताः, सर्वकामफलप्रदाः ॥३९६॥ भा०टी०-१ चन्द्रकल्पा, २ कलावती, ३ कलधौता, ४ रुधिरा, ५ नलिनी, ६ मालिनी, ७ मूला, ८ दुंदुभि, ९ वनवल्लिका, १० रत्नचूला, ११ खंदारका, १२ त्रिशिखा, १३ नन्दकौमुदी, १४ नयना, १५ चक्रोन्मता, १६ विशाला, १७ विभ्रमा, १८ लता, १९ मृगा, २० दीपशिखा, २१ कुमुदमंजरी, २२ पूर्णरम्या, २३ माहेन्द्री, २४ कीर्तिपताका अने २५ त्रैलोक्यविजया; आ २५ कलारेखाओ नामपूर्वक कही, शिखरना वलनमां आ रेखाओनो उपयोग करवाथी इच्छानुसारे शिखरो बनावी शकाय छे. कला रेखाओथी भेदातो स्कंधदशधा मूलपृथुत्वं, षड्भागः स्कन्ध उच्यते । पञ्चभागो भवेत् स्कन्धो, भागो वामे च दक्षिणे ॥३९७।। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे बाह्ये दोषदः प्रोक्तः, पञ्चमध्ये न शस्यते । षट्पञ्चमध्यगे स्कन्धो ऽर्धभागे च जिनांकितः ॥ ३९८ ॥ विभक्तिसूत्रैः स्कन्धाः क्रमेण पञ्चविंशतिः । नामान्यनुक्रमात्तेषां कथये तव साम्प्रतम् ॥ ३९९ ॥ भा०टी० - रेखा मूले विस्तार दश भागनो अने स्कंन्ध विभागे छ भागनो करवो, आ छ भागना स्कन्धमांथी डाबी अने जमणी बाजुथी अर्ध- अर्ध भाग ओछो करीने ५ भागनो स्कन्ध पण करी शकाय छे. ६ भागथी अधिक विस्तारनो स्कन्ध दोषयुक्त गणाय छे अने पांच भागथी ओछा विस्तारनो स्कंध शोभानी दृष्टिए वखाणातो नथी, पांच भागना स्कंघनी डाबी जमणी तरफ अर्धी अर्धी भाग छोड्यो, ते प्रत्येकना विस्तारने २४ - २४ विभागसूत्रो वडे चिन्हित करीने ते अर्ध भागोना २५-२५ भागो करो, आथी स्क न्धना २५ भेदो उत्पन्न थशे, जेनां नामो तने अनुक्रमे कहुं छु. २५ स्कन्धोनां नाम १६८ S शमः शान्तः शुभः सौम्यो, गन्धर्वः शंखषर्धनः । कीर्तिनन्दो महाभोगः, संभ्रमो दिशिनायकः ||४००|| रुद्रतेजाः सदाभ्यासो, जनानन्दस्तथोदकः । यक्षो दक्षः क्षितिधरः, समात्रः संयुतस्तथा ॥ ४०१ || शेखरश्च प्रजापूर्णः, प्रवर्तश्च प्रधानकः । रेखाविभूषणश्चैव, विजयानन्द इत्यमी ॥ ४०२ ॥ स्कन्धास्तु नामतो ज्ञेयाः, संख्यातः पञ्चविंशतिः । १ शम, २ शांत, ३ शुभ, ४ सौम्य, ५ गन्धर्व, ६ शंखवर्धन, ७ कीर्तिनन्द, ८ महाभोग, ९ संभ्रम, १० दिशिनायक, ११ रुद्रतेज, १२ सदाभ्यास, १३ जनानन्द, १४ उदक, १५ यक्ष, १६ दक्ष, Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १६९ १७ क्षितिघर, १८ समात्र, १९ संयुत, २० शेखर, २१ प्रनापूर्ण, २२ प्रवर्त, २३ प्रधान, २४ रेखाविभूषण अने २५ विजयानन्द; ए २५ प्रकारना स्कंधो नामथी जाणवा. चन्द्रकला रेखाओअथातः संप्रवक्ष्यामि, रेखाभेदं पृथग विधम् । चन्द्रकलादि-समुत्पत्तिः, षोडशैव प्रकीर्तिता ॥४०३॥ त्रिखण्डादौ खण्डवृद्धिावत्खण्डान्यष्टादश। षोडशैव समाचारा-श्चन्द्रकलादौ कीर्तिताः ॥४०४॥ अष्टादावष्टषष्टयन्तं, चतुर्वृद्धिक्रमेण तु। रेखाणां च प्रयोक्तव्यं, षट्पञ्चाशच्छतद्वयम् ॥४०५।। भा०टी०-हवे जुदा प्रकारना रेखाभेदने कहुं छु, चन्द्रकला रेखाओनी मूल उत्पत्ति १६ प्रकारनी कही छे, एमां पहेली चन्द्रकला रेखा त्रिखंडा छे, ते पछी १-१ खंडनी वृद्धि थतां १६ मी चन्द्रकला सुधी १८ खण्ड थाय छे, आ १६ मूलरेखाओ समचारवाली छे, जेम पहेलीथी बीजीमां १-१ खंड वधे छे तेम एमना खंडोमां ४-४ कलाओनी पण वृद्धि थाय छे, पहेली त्रिखंडाना प्रत्येक खंडमां ८-८ कलाओ लागे छे, तेम बीजी चतुष्खंडाने च्यारे खंडोमां १२-१२ कलाओ लागे छे, आ नियम प्रमाणे १६ मी १८ खंडाना तमाम खंडोमा ६८-६८ कलाओ लागे छे, आ १६ रेखाओ अने तेमां ए प्रत्येकनी जातिनी १५-१५ रेखाओ शामेल करीने २५६ चन्द्रकला रेखाओनो शिखर निर्माणमां उपयोग करवो. १६ मूलचन्द्रकला रेखाओनां नामशशिनी शान्तिनी चैव, लक्ष्मिणी कामिनी तथा। पुष्पिणीच शुभा शान्ता, आल्हादाकुमुदा तथा ।४०६। २२. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे सुखासनी शंखिनीच, विद्याशोधनिका तथा । नाहिनी दीपिनी सौम्या, अमृता षोडशी तथा ॥४०७॥ एकैकस्याः स्वच्छन्देषु, षोडशैव प्रकीर्तिताः । रेखाश्चैवं प्रयोक्तव्याः, षट्पञ्चाशच्छतद्वयम् । ॥४०॥ __ भाण्टी०-१ शशिनी, २ शान्तिनी,३ लक्ष्मिणी, ४ कामिनी, ५ पुष्पिणी, ६ शुभा, ७ शान्ता, ८ आल्हादा, ९ कुमुदा, १० सुखासनी, ११ शंखिनी, १२ विद्याशोधनी, १३ नाहिनी, १४ दीपिनी, १५ सौम्या अने १६ अमृता; ए मूलरेखाओ पैकीनी एक एकना स्वच्छंदे १६-१६ रेखाओ कही छे, जे सर्व मलीने २५६ थाय छे ते आ प्रमाणे१ शशिनीआदित्रिखंडा १६, ९ कुमुदाआदिअग्यारखंडा १६, २ शान्तिनीआदिचतुष्खंडा १६, १० सुखासनीआदिबारखंडा १६, ३ लक्ष्मिणीआदिपञ्चखंडा १६, ११ शंखिनीआदितेरखंडा १६, ४ कामिनीआदिषट्खंडा १६, १२विद्याशोधिनीआदिचउदखंडा १६ ५ पुष्पिणीआदिसप्तखंडा १६, १३ नाहिनीआदिपंदरखंडा १६, ६ शुभाआदिअष्टखंडा १६, १४ दीपिनीआदिसोलखंडा १६, ७ शान्ताआदिनवखंडा १६, १५ सौम्याआदिसत्तरखंडा १६, ८ आह्लादाआदिदशखंडा १६, १६ अमृताआदिअढारखंडा १६, आम १६ने १६थी गुणीने २५६ बसो छण्पन्न रेखाओ वास्तुशास्त्रिओए कही छे, तेनो शिखर निर्माणमां उपयोग करवो. - चारविधिरेखापृथुत्ववन्मानं, सपादं वा कर्णोदयम् । दिग्भक्ते च तलच्छंदे, स्कन्धे कुर्यात् षडंशकम् ॥४०९।। स्कन्धस्थाने कलाचारो, रेखानामन्तसिद्धये । समः सपादः साईश्च, पादोनद्विगुणस्तथा ॥४१०॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] विगुणश्च सपादौ द्रौ, साधौं पादोनकास्त्रयः । त्रिगुणोऽथ सपादोऽसौ, सार्धः पादोनवेदकः ॥४११।। चतुर्गुणः सपादश्च, सार्घः पादोनपश्चकः। इति षोडशधा चारं, त्रिखंडाद्यासु लक्षयेत् ॥४१२॥ भा०टी०-रेखा विस्तार तुल्य वा रेखा विस्तारथी सवायो अथवा कर्णव्यासतुल्य रेखानो उदय करवो, रेखाने तलछन्दे १० विभाग जेटली विस्तृत करीने स्कन्धविभागे तेने अंदर वाली ६ भाग जेटली राखवी, कलाचार स्कन्धविभागमा जइने रेखाओनो अंत करे छे अर्थात् स्कन्ध सुधी रेखा उंची जइने समाप्त थाय छे. कलाओनो चार समान, सवायो, दोढो, पोणा वे गणो, बेगणो, सवाबेगणो, अढीगणो, पोणात्रणगणो, जणगणो, सवात्रणगणो, साढाप्रणगणो, पोणाच्यारगणो, च्यारगणो, सवाच्यारगणो, साढाच्यारगणो अने पोणापांचगणो; आम त्रिखंडादि १६-१६ रेखाओनी कलाओनो चार (चढाव) १६ प्रकारनो जाणवो जोईये. प्रत्येक मूलरेखा समचारी होय छे, त्यारे ते पछीनी १५ रेखाओमां एक पछी एकमां ४-४ कलाओ वधती होवाथी ४ कलानी वृद्धिवाली 'सपादचारी' ८ नी वृद्धिवाली 'सार्धचारी, आदि नामो प्राप्त करे छे. प्रथमा त्रिखंडाना प्रथम खंडमां ८, बीजा खंडमां ८ अने जीजा खंडमां पण ८ कलाओ लागे छे; आम १६ त्रिखंडाओना प्रथम खंडमां ८-८ कलाओ लागे छे. प्रथमा त्रिखंडाना ३ खंडोनी २४ कलाओ वडे स्कन्ध २४ ठेकाणे भेदाय छ, द्वितीया त्रिखंडानी २७ कलाओ वडे २७ ठेकाणे, त्रीजीनी ३० कलाओथी ३० ठेकाणे स्कन्ध छेदाय छे, आम जे जे रेखाओना सर्व खंडोनी जेटली कलाओ होय तेटले Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ठेकाणे ते स्कन्धने चिन्हित करे छे अने तेटला प्रकारनां शिखरोनी उत्पत्ति थाय छे. अधःखण्डे तु यश्चार, उर्ध्वखण्डेऽप्यसो भवेत् । समं सा लभते चारं, सपादं वा पदाधिकम् । ४१३॥ समं सपादं साधं वा, यावत्पादोनपश्चकम् । त्रिखंडादौ खंडवृद्धया-ऽष्टादशखण्डकावधि ॥४१४॥ भाण्टी०-नीचेना रेखा खण्डमां जे चार होय छे तेज उपरना खंडमां पण होय छे, सम, सपाद के साध, जे चार निचला खंडमां होय छे, ते चारने रेखा प्रत्येक खंडमां मेलवे छ, त्रिखंडाथी मांडीने अष्टादशखंडी रेखा सुधीनी प्रत्येक रेखाने माटे एज नियम लागु करवो, भले ते समचारी होय, सपादचारी होय अथवा तो पादोनपञ्चचारी होय, पण तेना पोताना प्रत्येक खंडमां तो चार सरखोज पामे. कलाविधि आदिखंडे चतुर्वृद्वि-रूवखण्डेषु तद्गुणा । षोडशादिद्वि-रष्टोक्ता, षट्पञ्चाशच्छतद्वयम् ॥४१५।। स्कन्धस्थाने कलासंख्या, रेखाणां तु गुणोदिता। सिद्धाश्चयत्कृतारेखा-स्ता चामलसारकम् ॥४१६॥ विषमा भूमिकाः कार्या, न शस्यन्ते समास्तु ताः। भा० टी०-पूर्व रेखाना आदिखंडनी कलाओथी बीजा छंदनी अग्रेतन रेखाना आदिखंडमां ४ कलाओनी वृद्धि थाय छे. ते अग्रेतन प्रथम प्रथम रेखा समचारी होवाथी तेना बधा खंडोमां कलासंख्या तेज रहे छे अने समानछंदनी पोतानी बीजी १५ विषमचारी रेखाओना द्वितीयादि खंडोमो रेखाना नंबर प्रमाणे कला संख्या वधे छे, प्रथम विषमचारी रेखाना प्रथम खंडे ८ कलाओ हशे तो Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १७३ बीजे ९ अने त्रीजे १० कलाओ लागशे, जो तेज छंदनी विषमचारी १६मी रेखा हशे तो तेना प्रथमखंडे ८, बीजे २३ अने त्रीजे ३८; आम रेखाना नंबर अनुसारे उपला प्रतिखंडे १५-१५ नी वृद्धि थशे; केमके आ १६मी रेखानो विषमचारिणी तरीके १५मो नंबर छे, एज प्रमाणे तमाम रेखाओना पोताना प्रथम खंडथी द्वितीयादि खंडोनी कलासंख्या पोतपोताना नंबर प्रमाणे प्रथमखंडनी कलाओथी द्वितीयादि खंडोमां तत्तद्गुणी वृद्धि करीने कलाओ लगाडवी, आम १६ ने १६ गुणा करीने बनावेली २५६ रेखाभोने विष जाणवू. स्कन्धविभागे प्रथम करतां बीजीनी ३ कलाओ वधारवी, बीजी करतां त्रीजीनी ३ वधारवी, सर्वथी पहेली 'शशिनी' रेखानी २४ कलाओ स्कंधविभागे लागे छे त्यारे बीजीनी २७, त्रीजीनी ३०, चोथीनी ३३, इत्यादि एक एक रेखानी वृद्धिए स्कंधविभागे ३-३ कलाओनी वृद्धि करता जवं, ज्यां ज्यां कलाओ वडे रेखाओनी समाप्ति थाय त्यां उपर आमलसारो मूकवो. रेखासमाप्ति विषम भूमिकाए करवी, समभूमिए करवी प्रशस्त नथी, अर्थात् उदयरेखा अने वलनरेखाओनी विषम कलाओ ज्यां एकत्र थती होय त्या प्रासादनी रेखा छोडवी उत्तम गणाय छे. २५६ रेखाओना नाम१६ त्रिखण्डा-शशिनी, शीतला, सौम्या, शान्ता, मनोरमा, शुभा, मनोभवा, वीरा, कुमुदा, पद्मशेखरा, ललिता, लीलावती, त्रिदशा, पूर्णमण्डला, पूर्णभद्रा, भद्रांगी. १६ चतुष्खण्डा-शान्तिनी, शुभा, शांता, त्रिदिवा, देवदुर्लभा, बीभत्सा, शिवा, सौम्या, वीरभद्रा, नारायणी, सुषिरा, शेखरा, रम्या, पूर्णा, पूर्णभद्रा, विजया. १६ पञ्चखण्डा-लक्ष्मिणी, श्री, शंभवा, विदुरा, पूर्णमण्डला, Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७४ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे सुगन्धा, मानसी, शैला, नन्दा, मन्दाक्षी, कौतुका, शांति, लाभा, कल्याणी, सुभद्रा, भद्रेश्वरी. १६ षट्खण्डा-कामिनी, कमला, पद्मा, संभ्रमा, भ्रमशेखरा, शुभा, सारसंभूता, वैदेवी, गान्धारी, गन्धर्वा, ता, तिलका, लोकसुंदरी, भद्रा, महाभद्रा, ऐन्द्री. १६ सप्तखण्डा-पुष्पिणी, पुष्पिका, चम्पा, समहा, तिलका, अद्भुता, सिद्धा, सिद्धांगी, स्वरूपा, क्रीडामणि, नरनारा, नरेश्वरी, विरूपाक्षा, महोद्भवा, सिद्धांशा, सर्वमंडला. १६ अष्टखण्डा-शुभा, शीतला, गन्धा, मालती, हर्म्यसंयुता, मेघा, मेघपदा, अनुजा, कृष्णा, निर्मला, परा, तेजा, प्रतापतेजा, कीर्ति, आनन्दा, संभूता. १६ नवखण्डा-शान्ता, मुकुला, नन्दा, श्रिया, भद्रा, नन्दना, शोभना, सुभद्रा, सुता, कुलनंदिनी, गंभीरा, मधुरा, शेखरा, शिखरोनता, महानीला, रत्नाचला. १६ दशखण्डा-आह्लादा, श्रिया, नन्दा, गोमती, नामसुन्दरी, सुभद्रा, भद्रिका, भद्रा, भद्रांगा, भद्रमालिनी, संभूता, भूतशरदा, पताका, कीर्तिवर्द्धिनी, माहेन्द्री, सुन्दरी. - १६ एकादशखण्डा-कुमुदा, भद्रका, ध्वजा, ध्वजाक्षी, मकरध्वजा, सुपताका, वीरभद्रा, रूपभद्रा, विनायका, वीरा, विक्रमा, रम्या, मन्मथा, देवसुन्दरी, उग्रा, कनकेशी. १६ द्वादशखण्डा-सुखासनी, वरदा, रम्या, सुन्दरा, मोदा, मोदकी, शिवा, सर्वलंभा, विशाला, कुलनायका, शिंभा, शिवतमा, दिव्या, शिवांगना, विश्वेश्वरी, विश्वरुपा. १६ त्रयोदशखण्डा-शान्तिकी, विमला, सूर्या, वर्धना, Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ प्रासाद-लक्षणम् ] विजया, वांछिता, वंशोद्भवा, वंशभूता, रेखिता, वंशतारा, अधिवास्या, वश्या, माना, शिवोद्भवा, वांस्या, वसंतोद्भवा. १६ चतुर्दशखण्डा-विद्याशोधनी, रम्या, गौरी, हंसी, सरस्वती, सारंगी, सौरम्या, शुकाना, अशोका, शौचकी, कनका, कनकावती, कंदी, कंदर्पाश्रिता, कमला, कलहंसी. १६ पञ्चदशखण्डा-नाहिनी, हस्तिनी, कुंभिका, गजमालिनी, गजी, गजांगा, शेखरी, राज्ञी, गजेश्वरी, रत्ना, रत्नगर्भा, माला, जया, उग्रतेजा,प्रिया, आसक्ता. १६ षोडशखण्डा-द्वीपिनी, सिंहिनी, सिंही, सिंहरूपा, सिंहोमता, सिंहग्रीवा, सिंहा, सिंहास्या, सिंहेश्वरी, महानादा, नादवती, सिंहनादा, नादोद्भवा, सिंहांगना, सिद्धा, सकलेश्वरी. ___ १६ सप्तदशखण्डा-सौम्या, नारायणी रम्या, नरा, नरोत्तमा, नरेश्वरी, नराह्वा, नरांगा, नृत्येश्वरी, वीरमती, वीरांगी, महावीरा, वीरनायका, बीभत्सा, सती, शान्ता. १६ अष्टादशखण्डा-अमृता, रम्या, गंगा, ककुदा, कुमुदशेखरी, बीभत्सा, पार्थिवी, कान्ता, मनोहरी, स्वरूपा, विक्रमा, शान्ता, मनोज्ञा, सर्वतोमुखी, यज्ञभद्रा, सुखासीना. ___अपराजितपृच्छाना मूलश्लोकोमा उपर्युक्त २५६ चन्द्रकला रेखाओनां नामो छे, अमोए विस्तार भयथी श्लोको न लखतां नामोनोज निर्देश कर्यो छे. नागरे लतिने रेखा, सान्धारे मिश्रके तथा। लाञ्छना-सूत्र-योगेन, रेखा भवति नागरी ४१७॥ कथिता गर्भमाधार्य, विमाने भूमिजे तथा। वराटे द्राविडे चैव, प्रशस्ता गर्भमार्गतः ॥४१४॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे स्तंभाद्याश्चैव गर्भाद्याः, प्रासादभित्तिमानतः । चतुर्विधा भवेद्रेखा, विमाने चैव भूमिजे ॥४१९॥ वराटे द्राविडे कार्या छन्दे विमाननागरे । विमान-पुष्यके तद्वद्, वल्लभीष्वपि कामदा ॥४२०॥ लाञ्छना-सूत्रयोगेन, रेखा सूत्रद्वयाङ्किता। वेणिकोशोद्भवा रेखा, कलाभेदक्रमादपि ॥४२१॥ नागरे लतिने कार्या, सान्धारेऽप्यथ मिश्रके। दारूजे च रथारोहे, प्रशस्ता सर्वकामदा ॥४२२॥ शिखान्ता वा भवेद्रेखा, घण्टान्ता चाप्यथोच्यते । स्कन्धान्ता च तथा प्रोक्ता, अन्यथा दोषकारणम् ॥४२३॥ भा०टी०-नागर, लतिन, सांधार अने मिश्रक प्रासादाना शिखरोमा नागरी रेखा प्रयोग करवो, नागरी रेखा चिह्नमाटे तैयार करेला सूत्रना योगथी उत्पन्न थाय छे. विमान प्रासाद तथा भूमिज प्रासादनी रेखा गर्भमर्यादाए विस्तृत करवानुं कथन छे. तथा वराट अने द्राविड जातिना प्रासादोमां रेखा विस्तारगर्भथी कंइक बाहर राखवी श्रेष्ठ छे. ___ स्तंभ मर्यादाए, गर्भ मर्यादाए भित्ति मर्यादाए, भित्ति मर्यादाए अने उक्त गर्भनी बाहरनी मर्यादाए; आम विस्तारमा रेखा च्यार प्रकारनी होय छे. आ च्यारे प्रकारनी रेखा विमान अने भूमिज प्रासादमा लेवाय छे, वली वराट, द्राविड, विमाननागर, विमानपुष्यक अने वल्लभी; आ बधी जातिना प्रासादोमां पूर्वोक्त च्यारप्रकारनी रेखाओ यथायोग्य उपयोगमा लेवी शुभ फलदायक छ.. नागर, लतिन, सांधार, मिश्रक, दारुज (सिंहावलोकन ) अने रथारोह; आ सर्व प्रासादोमां वेणिकोशना योगथी लाञ्छना सूत्रद्वयवडे Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Innnni ७२ ७८ पश्चखण्डायाः १६ भेदाः १६ १६ १६ १६ । १२ १२ | १२ | १२ | १८ | १७ १८ १९ २० १६ १८ २० २२ २४ | १६ १९ २२ २५ २८ १२ १५ १८ २१ ६६ १६ २० २४ १२ १६ २० | २४ २१ २६ | १२ १७ २२ | २७ २२ २८ ३४ १८ २४ | ३० १९ | २६ ३३ ९० २४ ३२ ४० २० २८ | ३६ १६ २५ ३४ ४३ २१ ३० ३९ १०२ २२ ३२ | ४२ १०८ १६ २७ ३८ ४९ ६० १२ २३ ३४ ४५ ११४ | १६ २८ ४० ५२ ६४ १२ | २४ | ३६ | ४८ १२० । १६ २९ ४२ ५५ ६८ |.१२ २५ ३८ ५१ १२६ १६ ३० ४४ ५८ ७२ | १२ | २६ ४० ५४ १३२ १६ ३१ ४६ ६१ ७६ | | १२ | २७ ४२ | ५७ १३८ चतुष्खण्डायाः १६ भेदाः प्रासाद-लक्षणम्] त्रिखण्डायाः १६ भेदाः (भेद-खंड-कलासहित) १६ कलारेखाओ प्रकारनो होय छे, एथी ओछो अधिक उदय करे तो दोषकारक छे. रेखानो उदय शिखान्त, घण्टान्त, अने स्कन्धान्त; आम त्रण चन्द्रकलादि रेखाओ सर्वशुभफलने आपनारी छे. उत्पन्न थती नागरी रेखा अथवा फलामेदना क्रमथी उत्पन्न थती રર ર૬ ૮ રરૂ રૂટ દર્શ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२४ २४॥ २८ २८२८२८ २९ ३० ३१ ३२/ ३३/ ३० ३२ ३४ ३६ ३८ २८ | ३१/ ३४ ३७ ४० ४३ २० २०२० २०२० २० । २१ २२ २३ २४ २५ २४ २६ २८ ३० 22a aa oat ะะะะะะะะะะะะะะะะ अष्टवण्डायाः १६ रेखाभेदाः सप्तखण्डायाः १६ रेखा भेदाः षट्खण्डायाः १६ भेदाः [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे । ४४५४६७ २४ ३८ ५२ ६६ ८० ९४ | ३९ ५४ ६९ ८४ ९९ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बामा ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६। | ४५] ५५ १०/ ४२४४४६४८५० ४८ ५१ ५४ ।३२ | ३२/ ३२ ३२ ३२ / ३२] ३२ ३२ ३२ | | ३२ / ३३ | ३४ | ३५ | ३६ | ३७ | ३८ ३९ ४० ३२ / ३४ | ३६ ३८४०४२ ४४ | ४६ | ४८ | ३२ | ३५ / ३८ ४१ / ४४ | ४७ ५०५३ | ५६ ३२ | ३६ | ४०४४ ४८ / ५२ | ५६ / ६० ६४ ३२ / ३७ / ४२/४७/ ५२ | ५७ / ६२ | ६७ / ७२ | ३२ | ३८ | ४४/५० | ५६ / ६२ | ६८७४/८० ३२ | ३९ | ४६ | ५३ / ६० | ६७ ७४/८१ / ८८ ३२ | ४०४८/५६ ६४ | ७२ | ८०८८ ९६ प्रासाद-लक्षणम्] नव खण्डायाः १६ रेखा भेदाः ४३/ ५० ५७ दश खण्डायाः १६ रेखा भेदाः ४२ ५४ ६३/ ७२ ८१ ९० ४६ ५६ ६६ ७६ ८६ ३६ ४८ ६० ७२ ८४ ३६ ४२ ६२/७५ ८८१०१/११४ ३६ ५०६४/७८/ ९२/१०६/१२०१३४ ४२ | ५२ | ६२ | ७२ | ८२ / ९२ १०२ ११२ ३२ | ४३ | ५४ | ६५ | ७६ | ८७ / ९८ १०९ १२० । | ३२ ४४ / ५६ / ६८ | ८० ९२ १०४ ११६ १२८ ३२४५५८७१ ८४ | ९७ ११० १२३ १३६ | ३२४६/६० / ७४८८ १०२ ११६ १३० १४४ ३२४७६२ | ७७ / ९२ १०७ १२२ १३७ १५२ | Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ४० ४० ४० | ४०/४०४० | ४० | ४० । ४० | ४० ४० ४१ | ४२ | ४३ | ४४ | ४५ ४६/४७/४८ ४९ ५० ४० | ४२ | ४४ | ४६ | ४८५०५२ ५४ | ५६ ५८ ६० ४० | ४३ | ४६ | ४९ / ५२ ४० | ४४ | ४८ | ५२ | ५६ / ६० | ६४ | ६८ | ७२ | ७६ ७ । ७० एकादश खण्डायाः १६ भेदाः . ४० ४६ | ५२ | ५८ | ६४ | ७० / ७६ | ८२ | ८८ ९४ ४० ४७ ५४ | ६१ | ६८ | ७५ | ८२ ४० | ४८ | ५६ | ६४ | ७२ | ८० | ८८ | ९६ १०४ ११२ ४० | ४९ ५८ | ६७ ७६ | ८५ | ९४ | १०३ ११२ १२१ ४० | ५० ६०/७० | ८० | ९० १०० | ११० १२० १३० ४० | ५१६२७३ ११७ १२८ १३९ १५० ४० | ५२ | ६४ | ७६ / ८८ |१०० ११२ १२४ १३६ १४८ १६० ४० | ५३ | ६६ | ७९ ९२ १०५ ११८ १३१ १४४ १५७ १७० ४० | ५४ | ६८ | ८२ / ९६ ११० १२४ १३८ १५२ १६६ १८० ४० ५५ ७० ८५ १०० ११५ १३० १४५ १६० १७५ १९०, . [कल्याण-कलिका-प्रथमसडे Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ ४४ ४४ ४६ | ४८ ४४ ૩ ક ૪ ४५ | ४६ | ४७ ܘܟ ४४ ४८ ५२ ४४ ४४ ४२ ५० ५४ ५६ ५६ ६० ६४ ४४ ५१ ५८ ६२ ६५ ६८ | ७२ ७४ ७९ મ ५२ ६० ४४ ५३ ६२ ७१ ४७ ५० ५३ ५९ ६८ ४४ ४८ | ५२ | ५६ ६४ ७६ ८० ८४ ८८ ४४ | ४९ ५४ ५९ ६९ ८४ ८९ ९४ ९९ ४४ ५० ५६ ६२ ६८ ७४ ८० ८६ ९२ ९८ १०४ ११० ४४ ५१ ५८ ६५ ७२ ७९ ८६ ९३ १०० १०७ ११४ १२१ ४४ ५२ ६० ६८ ७६ ८४ ९२ १०० १०८ ११६ १२४ १३२ ४४ | ५३ ६२ ७१ ८० ८९ ९८ १०७ ११६ १२५ १३४ १४३ ४४ ५४ ६४ ७४ ८४ ९४ १०४ ११४ १२४ १३४ १४४ १५४ ૩ ५५ ६६ ७७ ८८ ९९ ११० १२१ १३२ १४३ १५४ १६५ ४४ ५६ ६८ ८० १५२ १६४ १७६ ९२ १०४ ११६ १२८ १४० ९६ १०९ १२२ १३५ १४८ १६१ १७४ १८७ ४४ ५७ ७० ८३ ४४ | ५८ | ७२ | ८६ १०० ११४ १२८ १४२ १५६ १७० १८४ १९८ ४४ | ५९ ७४ ८९ १०४ ११९ १३४ २४९ १६४ १७९ १९४ २०९ ૪ ક ५४ ५५ ६४ ६६ e ७७ द्वादश खण्डायाः १६ भेदाः कला सहिताः प्रासाद - लक्षणम् ] १८१ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 | 28 | 28 28 | 78 | 78 78 | 78 ] 78 781781 2828 ४८ ५०५२ ५४/५६/५८६०६२ ६४ ६६ ६८ | ७० / ७२ ४८ ५१ ५४ ५७ | ६० | ६३ ६६ ६९, ७२ ७५ / ७८ | ८१ / ८४ | ५२ ५६ ६०६४ | ६८ | ७२|७६ | ८०८४ ८८ | ९२ ९६ ४८ | ५३ ५८ ६३ ६८ ७३/७८ ८३ ८८ ९३ ९८ १०३ १०८ ४८ | ५४ | ६०/६६ / ७२ | ७८ / ८४ / ९० / ९६ १०२ १०८ ११४ १२० ४८ ५५ ६२ | ६९ ७६ | ८३ / ९० | ९७ १०४ १११ ११८ १२५ १३२ ४८५६६४ | ७२ ८० ८८ / ९६ १०४ ११२ १२० १२८ १३६ १४५ ४८ | ५७ | ६६ | ७२ / ८४ / ९३ १०२ १११ १२० १२९ १३८ १४७ १५६ ४८/५८/६८ | ७८ | ८८ / ९८ १०८ ११८ १२८ १३८ १४८ १५८ १६८ ४८ २९ | ७० ८१ ९२ १०३ १.४ १२६ १३६ १४७ १५८ १६९ १८० ४८६०७२ / ८४ | ९६ १०८ १२० १३२ १४४ १५६ /१६८ १८० १९२ ४८ ६१ / ७४ | ८७ २०० ११३ १२६ १३९ १५२ १६५ १७८ १९१ २०४ | ४८ | ६२ | ७६ / ९० १०४ ११८ १३२ १४६ /१६० १७४ /१८८ २०२ २१६ | | ૮ | દુરૂ | ૭૮ ૧૩ ૧૦૮ ૨૨રૂ શરૂટ શરૂ ૨૬૮ ૧૮રૂ ૨૨૮ ૨૯૩ ૨૨૮ ! त्रयोदश खण्डायाः १६ भेदाः [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ | ५२ | ५२ / ५२ | ५२ | १२ | २२ / ५२ | ५२ | २२२२२२२२/१२ प्रालाद-लक्षणम् ] . . . ५२ | ५४ | ५६ ५८६०६२ | ६४ | ६६ / ६८ | ७० | ७२ | ७४ | ७६ / ७८ | ५८ | ६१६४६७/७० ७३ | ७६ | ७९ | ८२ | ८५८८ / ९१ ५६ / ६० | ६४ | ६८ | ७२ ७६ ८० ८४ | ८८ | ९२ / ९६ १०० १०४ ५२/५७ | ६२ ६७ | ७२ | ७७ / ८२८७ / ९२ / ९७ १०२ १०७ ११२ ११७ | ५८ ६४ ७० | ७६ ८२८८ ९४ १०० १०६ ११२ ११८ १२४ १३० ५२ ५९ | ६६ ७३ | ८०८७ | ९४ १०१ १०८ ११५ १२२ १२९ १३६ ६० ६८ | ७६ | ८४ | ९२ १०० १०८ १११६ १२४ १३२ १४० १४८ ६१ ७० ७९ / ८८ | ९७ १०६ १९५ १२४ १३३ १४२ १५१ १६० १६९ ६२/७२ ८२ | ९२ १०२ ११२ १२२ १३२ १४२ १५२ १६२ १७२ १८२ ५२ | ६३ | ७४ | ८५ / ९६ १०७ ११८ १२९ १४० १५१ १६२ १७३ १८४ १९९ ५२ ६४ | ७६ / ८८ ११०० ११२ १२४ १३६ १४८ १६० १७२ १८४ १९६ २०८ ५२ | ६५ ७८ / ९१ १०४ ११७ १३० १४३ १५६ /१६९ १८२ १९५ २०८ २२१ ५२ ६६८० ९४ १०८ १२२ १३६ १५० १६४ १७८ १९२ २०६ २२० २३४ | ५२ | ६७ ८२ ९७ ११२ १२७ १४२ १५७ १७२ १८७ २०२ २१७ २३२ २४७, ५२ ] चतुर्दश खण्डायाः १६ मेदाः ५२ १८३ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ५७ | ५८/५९ | ६०६१ | ६२ ६३ ६४ | ६५ ६६ | ६७ | ६८ ६९ / ६ ५८ । ५६ | ५९ ६२ ६५ ६८ ७१ / ७४ ७७ ८० ८३ | ८६ | ८९ / ९२ / ९५ | ५६ ६०६४ ६८ ७२ ७६ | ८० ८४ | ८८ ९२ ९६ १०० १०४ १०८ ५६ ६१ ६६ | ७१ ७६ ८१ / ९१ ९६ १०१ १०६ १११ ११६ १२१ ५६ ६२ ६८ ७४८०८६ ९२ | ९८ १०४ ११० ११६ १२२ १२८ १३४ ६३ | ७० / ७७ ८४ / ९१ ९८ १०५ ११२ ११९ १२६ १३३ १४० १४७ ६४ | ७२ ८० ८८ | २६ १०४ ११२ १२० १२८ १३६ १४४ २५२ । ६५ ७४ ८३ / ९२ १०१ १ ० १.१९ १२८ १३७ १४६ १५५ १६४ ५६ | ६६ | ७६ | ८६ / ९६ १०६ ११६ १२६ १३६ १४६ १५६ १६६ १७६ १८६ १९६ ५६ ६७ | ७८ ८९ १०० १११ १२२ १३३ १४४ १५५ १६६ १७७ १८८ १९९ २१० ५६ / ६८ ८० / ९२ १०४ ११६ १२८ १४० १५२ १६४ १७६ १८८ २०० २१२ ६९ ८२ ९५ १०८ १२१ १३४ १४७ १६० १७३ १८६ १९९ २१२ २२५ २३८ ५६ | ७० / ८४ ९८ ११२ १२६ १४० १५४ १६८ १८२ १९६ २१० २२४ २३८ २५२ | ५६ । ७१ । ८६ १०१ ११६ १३१ १४६ १६१ १७६ १९१ २०६ २२१ २३६ २५१ २६६ । पश्चदश खण्डायाः १६ भेदाः कला सहिताः द [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडश खण्डायाः १६ भेदाः कला सहिताः ६०। ६० ६० ६० ६० ६० ६० ६० ६० ६० ६०१ ६० ६० ६०। ६० | ६१ ६२/ ६३ ६४ ६५ ६६, ६७ ६८ ६९ ७० ७१/७२ ७३ ७४/७५ ६६ ६८ ७० ७२ ७४ ७६, ७८ ८० ८२ ८४ ८६ ८८ ९० ६९ ७२ ७९ ७८ ८१ ८४ ८७ ९० ९३/ ९६, ९९१०२/१०५ ७६ ८० ८४ ८८ ९२ ९६१००१०४.१०८११२,११६/२२० ८० ८०/९० ९५.१००१०५११०११५१२० १२५ १३०१३० | ८४, ९० ९६१०२ १०८ ११४ १२०/१२६१३२ १३८/१४४/१५० ८ २५/१०२१८९११६ १२३/१३०१३७१४४१५१३५८१६६ । ९२१००/१०८११६/१२४१३२/१४०१४८/१५६१६४१७२१८० ८७ ९६१०५.११४ १२३ १३२१४११५० १५९१६८/१७७१८६.१९६५ ९०१००११० १२० १३० १४०/१५० १६०१७० १८० १९०२००२१० ९३/१०४११५१२६१३७१४८१५९/१७०।१८ ११९२२०३/२१४२२५ ९६१०८/१२०/१३२/१४४१५६१६८३८०९२२०४/२१६२२८/२४० ८६.९९११२१२५ १३८१५.४१६४१७७१९०/२०३२१६२२९२४२२५५ । ८८१०२११६/१३० १४४१५८ १७२ १८६/२००२१४२२८२४२२६६।२७० ६० / ७२. ९०१०२१२०/१३५१५० १६५१८० १९५२१०२२५२४०२५५।२७०२८२ प्रासाद-लक्षणम् ] Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ પાપ-ત્રિ-મંથન सप्त दश खण्डायाः १६ भेदाः ६४/६५ ६५ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४६४ ६४ ६४४ ६४ ६४ ६४ દક દવ હ૬ ૬૭ ૬૮ ૬૯ ૭૦ ૭૨ ૭૨ ૭૨ ૭૭ ૭૮ ૬ ૭૭ ૭૮ ૭૨ ૮૦ | દ૬ ૬૮ ૦૦ ૭૨ ૭૭ ૭૬ % ૮૧ ૮૨ ૮૫ ૮૬ ૮૮ ૧૦ ૧ ૨૬ દષ્ટ ૨૭ ૭ ૭૨ ૭૬ ૭૧ ૮૨ ૮૧ ૮૮ ૨૨ ૨૪ ૧ ૦ ૨૦૩૦૬૦૧૨ ૬૮ ૭ર ક૬ ૮૦ ૮૪ ૮૮ ૨૨ ૨૦૦ ૨૦૦૨૨૨૬રર૪ર૮ દર ૭ ૮ ૮૧ ૨૪ ૨૧૦૪૨૦૨૨૨કા૨કરકરર૬૨૨૪૩૨/૪ ૭૬ ૮૨ ૮૮ ૨૪૨૦૦૨૬૨૨૨૨૩૮ર૪૩૦ ૩૬૪૨૪૮૦૬૦ ८५, ९२ ९९१०६११३१२०१२७१३४१४१/१४८३५५/१६२, १६९/१७६ | ૨ ૮ ૮ ૧૬૨૦૪ ૨૨૨૨૨૦૨૨૮ ૨૩૬ છકકર૦ર૬૮૨૦૬૮૧૨ ૭૩ ૮૨ ૨૦૦૨૦૧૨૨૮૨૭૩૬૪૧ કદરૂ૭ર૮ ૨૦૧૨ ૨૮ | દઇ ૩૪ ૮૪ ૨૭૨૭૨૪૧૨૪ રૂકા કકારકકદકર૭૪ ૨૮કારકરાર છારક ૭૯ ૮૬ ૧૦૯૧ ૨૩૦૪૨ કરશદરૂ કર૮૧૨૦૦ ૨૨૮રરરર૪૦ | દર હદ ૮૮૨૦૨૨૨૨૨૨૩૨૪૮૪૬૨૭૨ ૨૮ર૧ર૦૦રરરરર રર૬ | દઇ ૭ ૨૦૦૨૨૨૬૨૬ ૨૪૨૨૬૮૨૮૨૨૧૪ર૭રરરર૪૬૦૬૭ર | ૮ ૧૨૧૦૬૪૨૧૨૩૪૪૮) ૬૨ ૦૬ ૧૦ ર૦ર૭૮ ૨૨રોર૪૬ર૬૦ર૭૪ર૮૮ I ૬૪ ૭૨ ૨૪૦૧ર૭રરૂઠ્ઠા હ૮૪ર૬રકારરર રરર૭૪ર૮૧૩ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ १०२ अष्टादश खण्डायाः १६ रेखा भेदाः कला सहिताः । ६८) ६८ ६८ ६८) ६८ ६८६८ ६८ ६८ ६८ ६८ ६८. ६८ ७०/ ७१ ७२ ७३ ७४ ७२ ७६/७७/७८/ ७९ | ८० ८१ ८२ | ८३ | ७२/७४/ ७३ ७८ ८० ८२ ८४ ८६/ ८८/ ९० ९२ ९४ ९६ ९८ ७४/ ७७ ८० ८३ ८६ ८९ ९२, ९२, ९८१०१ १०४ १०७ ११० ११३ ७६ ८० ८४ ८८ ९२ ९६१०० १०४/१०८११२ ११६ १२० १२४ १२८ ७८ ८३ ८८ ९३ ९८१०३१०८११३/११८/१२३ १२८ १३३ १३८ ८६/ ९२ ९८१०४११०११६१२२,१२८/१३४ १४० १४६ ८९ ९६१०३/११०/११७१२४१३१ १३८/१४५ १५२ १५९ ८४ ९२१००१०८११६१२४१३२/१४० १४८१५६ १६४ १७२ ८६ ९५१०४११३/१२२१३११४०१४२१५८१६७ १७६ १८५ . १९४ २०३ २१२ २२१ ८८ ९८१०८/११८१२८ १३८ १४८१५८/१६८/१७८ १८८ १९८ ७९/ ९०१०२/११२/१२३/१३४१४५१५६/१६७१७८.१८९ २०० २११ ८० ९२/१०४११६/१२८१४०१५२१६४१७६ १८८/२०० २१२ २२४ ८१ ९४ १०७१२०१३३/१४६/१५९१७२/१८५ १९८२११ २२४ २३७ ६८ ८२ ९६११०१२४१३८१५२ १६६/१८०१९४२०८२२२ २३६ २५० | ६८/ ८३ ९८११३१२८१४३/१५८१७३/१८८/२०३२१८२३३ २४८ २६३ २७८ २९३ २०४ २०८ प्रासाद-लक्षणम् ] Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ___ वास्तुसार प्रकरणमा ठक्कुर फेरुए शिखरोना उदयने अंगे नीचे प्रमाणे जणाव्युं छेदृणु पाऊणु भूमजु, नागरू सतिहाउ दिवदु सप्पाउ । दाविडसिहरो दिवढो, सिरिवच्छो पऊणदूणो अ॥४२४॥ ___भा०टी०-भूमिज प्रासादनुं शिखर बे गणुं अथवा पोणा वे गणुं करवू, नागर प्रासादनु शिखर दोढे, सवायु, अथवा एकतृतीयांश सहित उंचं करवू, द्राविडप्रासादने शिखर दोढुं उचुं करवू अने श्रीवत्स जातिना शिखरनी उंचाई पोणा बे गणी करवी. आ शिखरोनी उंचाईना वैविध्यन कारण रेखा वैविध्य ज होइ शके, नागर जातिना प्रासादोनां शिखरो दोढां उपरांत उंचां लेइ जवान विधान नथी, केमके आ जातिना प्रासादोमां रेखा स्कन्धान्त मानवामां आवती होइ ते अपेक्षाए शिखरो व्यासतुल्य, सवायां अने दोढां उवां गणवामां आवे छे, जे प्रासादोनां शिखरो पोणा बमणां गणाय छे ते जातिने अंगे रेखा स्कन्धान्त अने बमणां उंचां शिखगेमा रेखा शिखान्त मनाती होगी जोइये. आमलसारकना आकारोदयोः प्ररथयोर्मध्ये, वृत्तमामलसारकम् ॥ नागरे लतिने कुर्यात् , सान्धारे चैव मिश्रके। विमान-नागरच्छन्दे, विमान-पुष्पके तथा ॥४२५॥ विमाने भूमिजे चैव, वृत्तं च कर्णिकान्सकम् । द्राविडे तु तथा चैव, तं तु रेखानुरूपकम् ॥४२६।। वराटे तु भवेद् घण्टा, यादृग् मन्दारपुष्यकम् । वलभीषु च सर्वासु, गजपृष्ठाकृतिस्तथा ।।४२७|| नागरे घण्टाकृत्तिका, कुर्यात् सिंहावलोकने । घण्टा चैवमुपाख्याता, प्रयुक्ता वास्तुवेदिभिः ॥४२८।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद - लक्षणम् ] १८९ भा०टी० - बने प्रतिरथो वच्चे गोलाकार आमलसारक करवो. नागर, लतिन, सान्धार, मिश्रक, विमाननागर, विमानपुष्यक, विमान अने भूमिज; आ वधा प्रासादोनो आमलसारो गोल अने फरती कणीओ काढेलो बनाववो. द्राविड प्रासादनो आमलसारो तेनी रेखाने अनुरूप होय तेवो, वराट प्रासादनो आमलसारो मंदारवृक्षना पुष्पने आकारे, सर्व वलभी प्रासादोमां आमलसारो हस्तिनी पीठना आकारे लंबगोल, तथा नागर अने सिंहावलोकन प्रासादोनो आमलसारो घंटना आकारनो बनाववो. आ प्रमाणे वास्तुशास्त्रिओए प्रयोजेल आमलसारानुं निरूपण कर्यु. आमलसारानी अंगविभक्ति उदये च तदर्धे नु, विभक्ते चतुर्भागिके | ग्रीवा पादोन भागा स्यात्, सपादं च तथाऽण्डकम् ॥ ४२९| चन्द्रिका चैकभागेन, भागा चामलसारिका । भा०टो० - आमलसारो विस्तारमां वे प्रतिरथोना मध्य बराबर करी तेनो उदय विस्तारथी अर्धमाननो करवो अने ते उदयने ४ भागे वर्हेची ||| भागनी ग्रीवा (गलं ), १| भागनुं आमलसारानुं अंडक, १ भागनी चंद्रिका ( गलत ) अने १ भागनी आमलसारी ( झांजरी ) करवी. प्रासाद- पुरुष - निवेशन अथातः संप्रवक्ष्यामि, पुरुषस्य निवेशनम् । न्यसेदेवालयेष्वेवं, जीवस्थाने फलं लभेत् ॥४३०॥ छादनोपप्रवेशेषु, शृंगमध्येऽथवोपरि । शुकनासावसानेषु, वेधूर्ध्वे भूमिकान्तरे ||४३१ ॥ गर्भमध्ये विधातव्या, हृदयवर्णको विधिः । हंसतुलों ततः कुर्यात्, ताम्रपर्यकसंस्थिताम् ॥४३२॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० [ कल्याण - कलिका - प्रथमखण्डे शयनं चापि निर्दिष्ट, पद्मं च दक्षिणे करे । त्रिपताकं करं वामं, कारयेद् हृदि संस्थितम् ॥४३३|| प्रमाणं तस्य वक्ष्यामि, प्रासादादौ समस्तके | हस्तादिशता यावत्, प्रकल्पयेदनुक्रमम् ॥४३४|| वृद्धिमधगुलां हस्ते, यावन्मेरुं प्रकल्पयेत् । एवंविधः प्रकर्तव्यः, सर्वकामफलप्रदः ॥४३५ ॥ हेमजे तारजे वापि, ताम्रजे वापि भागशः । कलशे आज्यपूर्णे तु, सौवर्णपुरुषं न्यसेत् ॥४३६॥ पर्यकचतुष्पादेषु, कुम्भाँश्चतुर एव च । हिरण्यनिधिसंयुक्तान्, आत्ममुद्राभिमुद्रितान् ॥४३७॥ एवं च रोपयेद् जीवं, यथोक्तं वास्तुशासने । तस्य न संभवेद् दौस्थ्यं यावदाभूत संप्लवम् ||४३८|| भा०टी० - विश्वकर्माजी अपराजितने कहे छे-हवे हुं पुरुषप्रवेशनी विधि कहुं छं, सर्व देवालयोमां जीवस्थाने पुरुषनो प्रवेश कराववो के जेथी फल मले. शिखरने बांधणे, शिखर मध्यभागे, अथवा तेना उपला भागमा, शुकनासना अन्ते अने वेदीनी उपरि भूमिकामां गर्भना मध्यभागे हृदय प्रतिष्ठानी विधि करवी. प्रथम त्रांबानो पलंग करावी ते उपर रेशमी तलाइ ( गादी ) बिछाववी अने ते उपर प्रासाद पुरुषने सुवडाववो. पुरुषना जमणा हाथमां कमल अने डाबा हाथमां ३ पताकावाली ध्वजा आपवी ने डाबो हाथ पोतानी छातीथे अडकेलो राखवो. हवे पुरुषं प्रमाण कहुं हुं, १ हाथथी ५० हाथना फेरु प्रासाद पर्यन्तना तमाम प्रासादोमां पुरुषनुं प्रमाण १ हाथे अर्ध आंगलना Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] हिसाबे करवू, ५० हाथ सुधी प्रतिहस्ते अर्ध अर्ध आंगलनी वृद्धिए प्रासाद पुरुषतुं निर्माण करवू. आम प्रमाणोपेत पुरुष करवो के जेथी सर्व इष्ट फल देनारोथाय, सुवर्ण पुरुषने सोनाना, रूपाना, त्रांबाना, अथवा त्रणे धातुओना बनेला अने घृतथी भरेला कलश उपर स्थापित करवो. पलंगना ४ पायाओ नीचे उपर पोतपोताना लखेला नामो वालां ढांकणां वडे मुद्रित करीने सुवर्णादि रत्नगर्मित ४ निधि कलशो स्थापन करवा. __ आ प्रमाणे वास्तुशास्त्रमा कहेल विधिथी प्रासादना जीवस्थानमा जे. जीवनी (पुरुषनी ) स्थापना करे छे तेने सृष्टिना अंतपर्यन्त दुःख-दौर्भाग्य प्राप्त थतुं नथी. कलश देवागारेषु सर्वेषु, नृपाणां भवने तथा । संस्थाप्यो दिव्यः कलशो, विश्वकर्मवचो यथा ॥४३९॥ शैलजे शैलजं कुर्याद् , दारुजे दारुजं तथा । धातुजे धातुजं चैव-चैष्टिके चैष्टिकं शुभम् ॥४४०॥ चित्रे चित्रो विधातव्यो, हेमजः सर्वकामदः । श्रेष्ठौ सर्वत्र श्रेष्ठानां, सुवर्णकलशध्वजौ ॥४४१॥ भाटीसर्व देवमंदिरो उपर अने राजमहेलो उपर दिव्य कलश स्थापन करवो एवं विश्वकर्मानुं वचन छे, पत्थरना प्रासाद उपर पत्थरनो, काष्ठना मंदिर उपर काष्ठनो, धातुना प्रासादे धातुनो अने इंटना प्रासादे इंटनो कलश शुभ होय छे, चित्रविचित्र द्रव्यथी बनेल प्रासाद उपर तेवा चित्र पदार्थनो बनेलो कलश करवो. अने सुवर्णनो कलश सर्वप्रकारना प्रासादो उपर चढाववो ते इच्छित फलदायक छ. सुवर्णनो कलश अने ध्वज सर्वत्र श्रेष्ठमां श्रेष्ठ छे. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२२ [ कल्याण-कलिका - प्रथमखण्डे प्रासादमाने कलशमान प्रासादस्याष्टमांशेन, पृथुत्वं कलशाण्डके । षोडशांशैर्युतं श्रेष्ठं, मध्यं द्वात्रिंशदंशतः ॥ ४४२॥ मूलरेखापञ्चमांशे, पृथुत्वं तस्य कारयेत् । घण्टाविस्तारपादेन, तत्पादेन युतं पुनः ॥४४३ ॥ इत्थं कलशविस्तार, उच्छ्रयस्तस्य सार्धतः । नागरे लतिने शस्तः, सांधारे मिश्रके तथा ॥ ४४४ ॥ विमाननागरच्छन्दे, विमान- पुष्यके तथा । धातुजे रत्नजे चैव, रथारोहे च दारुजे ॥ ४४५ ॥ शैलजे स चतुर्थांश, ऐष्टिकादौ समस्त । इत्युक्तः कलशश्चैवं, सर्वकामफलप्रदः ॥४४६॥ भा०टी० - १ प्रासादमानना आठमा भाग जेटलो कलशना अंडक (पेटा) नो विस्तार करवो ए कलशनुं कनिष्ठ मान छे, ए मानमा एनो ९६मो भाग उमेरवाथी कलशनुं उत्तममान अने ३२ मो भाग वधावाथी मध्यम माननो कलश गणाय छे. २ - रेखा मूलना विस्तारना पञ्चमांशे विस्तृत पण कलश करी शकाय छे. ३ - आमलसाराना सवायां चतुर्थांश जेटलो विस्तृत पण कलश होड़ शके छे. आ कलशनो विस्तार कह्यो, एनो उदय विस्तारथी दोढो करवो. नागर, लतिन, सांधार, मिश्रक, विमाननागर, विमानपुष्यक; आ बधा प्रासादोनो कलश उक्त अष्टमांशे करवो अने धातुज, रत्नज, रथारोह, दारुज ( सिंहावलोकन ), शैलज अने सर्वप्रकारना ऐष्टिक: आ बधी जातना प्रासादोना कलशो उक्त मानथी सवाया मानना ( चतुर्थांशाधिक ) बनाचवा. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १९३ ए प्रमाणे सर्व इष्टफल आपनारो कलश कहो. आज मानानुसारे बनेलो कलश सर्व इच्छाओने सफल करे छे. बराटादि प्रासादोनो कलशवराटे द्राविडे चैव, भूमिजे विमानोद्भवे । वलभीषु समस्तासु, प्रासादस्य षडशके ॥४४७॥ तत्षडंशयुतः श्रेष्ठः, कनिष्ठस्तविहीनकः । इत्थं मानं समुद्दिष्टं, कर्तव्यं सर्वकामदम् ॥४४८॥ भाण्टी-वराट, द्राविड, भूमिज, विमान अने सर्वप्रकारनी वलभीओमां प्रासादना षष्ठांश जेटलो कलशनो विस्तार करवो. कलशर्नु आ मध्यम मान जाणवू, आमां १ षष्ठांश वधारतां उत्तम अने १ षष्ठांश घटाडतां कनिष्ठ मान आवे छे, आ प्रकारचें कलशन मान करवु ते सर्व शुभ फलदायक छे. .. _ कलशनी अंगविभक्तिउच्छयो नवभागः स्यात्, षड्भागा विस्तृतिस्तथा । अण्डकं तु त्रिपादं च, पादं च पद्मपत्रिका ।।४४९॥ ग्रीवा पादोनभागा च, सपादे दे च कर्णिके । मातुलिंगं त्रिभिर्भागैः, कर्तव्यं सर्वकामदम् ॥४५०॥ उच्छ्रयः कथितश्चैवं, विस्तारं शणु सांप्रतम् । पद्मपत्रं त्रिभिर्भागैस्तत्कन्दं दिविभागकम् ॥४५१॥ अण्डकं च घटाकारं, कुर्यात् षड्भागविस्तृतम् । ग्रीवा मध्ये द्विभागा स्यात्, चतुर्भिः कर्णिकान्तरे॥४५२॥ सार्धदयशं बीजपूर-मग्रे निम्नं सुलक्षणम् । प्रमाणसूत्रमाख्यातं, कलशे सर्वकामदे ।।४५३॥ भा०टी०-कलशनी ऊंचाईना ९ अने विस्तारना ६ भाग करवा, ते नव भागमांथी ३ भागनुं अंडक, १ भागनी पद्मपत्री, Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखने ०॥ भागनी ग्रीवा (गलं), १३ भागनी बे कणिओ अने ३ भागनुं ऊंचं बीजोरं (डोडलो) करवु ए शुभदायक छे, ए कलशनी ऊंचाईना अंगविभागो कह्या. हवे विस्तारने सांभल ! पद्मपत्रनो विस्तार ३ भागनो करवो, तेना कंदनो विस्तार २ भागनो अने अंडक (पेट) घडाना आकारर्नु ६ भागे विस्तृत करवू, ग्रीवा मध्यमां २ भागना विस्तारे अने कणिओ ४ भागे विस्तारमा करवी 'बीजो नीचेथी २ भागे अने उपर १॥ भागे विस्तारमा करवु, आ प्रमाणे सर्व अंगो पोतपोताना माने ऊंचा अने विस्तृत उत्तम लक्षण युक्त करवां, आ प्रमाणे सर्वेच्छापूरक कलशनुं प्रमाण सूत्र कह्यु, आ लक्षण नागर प्रासादना कलशनुं छे. प्रकारान्तरे कलशना अंग विभागो-(१) अत ऊर्ध्व पुनश्चान्य, प्रवक्ष्येऽहमनुक्रमम् । पूर्ववच समुत्सेधो, विस्तरः पूर्वकल्पितः ॥४५४॥ पद्मपत्रनिभाकारा, त्रिपदा पद्मपत्रिका। कर्णिका पदमेकं तु, सपादः पद्मसंभवः ॥४५५॥ द्विभागं चाण्डकं कुर्याद् , वृत्ताकारं सुलक्षणम् । ग्रीवा पादोनभागा स्याद्, भागाध चार्कपट्टिका ॥४५६।। लतिने चैव कर्तव्या, अर्धाशे पद्मपत्रिका। त्रिभागं बोजपूरं स्याद्, विकसितपद्माकृति ॥४५७।। उच्छ्यः कथितश्चैत्थं, विस्तरं शृणु सांप्रतम् । भाण्टी-आ पछी वली कलशना संबंधमां अंगोनो बीजा क्रम कहुं छु, कलशनी ऊंचाईना अने विस्तारना प्रथमनी जेम ज अनुक्रमे ९ अने ६ भागो कल्पवा. ऊंचाईना नव भागोमांथी नीचे ३ भागनी पद्मपत्रिका कमलपत्रना आकारनी करवी, १ भागनी कर्णिका अने ११ भागनो कमल संभव (पत्र) करवो, ते पछी २ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] मागर्नु गोल आकार- सुलक्षण अंडक कर. ०॥ भागनी ग्रीवा अने ०॥ भागनी अर्कपट्टी करवी. लतिन प्रासादना कलशमां इनपत्रिका अर्धागनी करवी. ३ भागनुं बीजोरु (डाडलो) करवु, बीजपूरनो आकार विकाशी कमलना डोडा जेवो करवो, आम ऊंचाईना भागो कह्या हवे विस्तारना विषयमा सांभल ! पद्मपत्रं त्रिभिर्भाग-बिभागा कर्णिका वृता ॥४५८॥ पद्माग्रे पत्रि(हि)का चैव, चतुर्भागा च विस्तरे। षड्भागमण्डकं चैव, ग्रीवा मध्ये द्विभागिका ॥४५९॥ अर्कपट्टी चतुर्भागा, सार्धत्र्यंशा च पत्रि(हि)का। सार्धद्वयं बीजपूरं, निम्नाग्रे पद्मकाकृति ॥४६०॥ पद्मनिबन्धतिलकं, मुक्तरत्नां सुवृत्तकाम् । अर्केऽकंपटिकां कुर्यात्, पद्मपत्राऽग्र उन्नताम् ॥४६१॥ भाटी०-पद्मपत्रनो विस्तार ३ भागनो, कर्णिकानो २ भागनो, पद्मपत्र पछी पट्टिकानो विस्तार ४ भागनो, अंडक विस्तार ६ भागनो, ग्रीवा मध्यमां बे भागनी, अर्कपट्टी ४ भागनी, ३॥ भागनी पट्टिका अने २॥ भागनो बीजोरानो विस्तार करवो, बीजपूरनो आकार कमलना डोडाना जेवो करवो. सूर्यना मंदिरे पद्मपत्रनी आगे ऊंची अर्कषट्टी गोल पमना तिलक जेवी रत्नजडित करवी. ध्वज-दण्डध्वजाधरस्तंभिका च, कलशैश्च विभूषिता। वंशाधारा वज्रबन्धा, वंशानां वेष्टनादिकैः ॥४६२॥ भा०टी०-ध्वजाधार थांभली (दंड) कलशोवडे शोभित Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे करवी, वंश (दंड ) आधार जेवी ते थांभलीने बीजा वाशना आधारे वांश वेष्टनादि के वज्रबन्धो वडे बांधीने सज्जड करवी. (१) दण्डमानआदिशिलोद्भवं मानं, ऊर्ध्वं च कलशान्तिकम् । तृतीयांशे प्रकर्तव्यो, ध्वजादण्डः प्रमाणतः ॥४६३।। अष्टमांशेन हीनोऽसौ, मध्यमः शुभलक्षणः । कनिष्ठः स भवेद् दण्डो, ज्येष्ठतः पादवर्जितः ॥४६॥ भा०टी०-खरशिलाथी कलशना मारा सुधीनी प्रासादनी ऊंचाईना त्रीजा भाग जेटलो लंबो दण्ड उत्तम गणाय, आने अष्टमांश हीन करतां मध्यम अने चतुर्थांश हीन करतां कनिष्ठमाननो दंड थाय छे. (२) दण्डमानप्रासादपृथुमानेन, ध्वजादण्डं तु कारयेत् । मध्यमं दशमांशोनं, कनिष्ठं चोन पञ्चमम् ॥४६५।। भा०दी०-प्रासादना विस्तारमाने ध्वजा दण्ड कराववो, ते दशमांश हीन करीने मध्यम अने पञ्चमांश हीन करीने कनिष्ठमाननो दण्ड कराववो. (३) दण्डमानमूल रेखाप्रमाणेन, ज्येष्ठः स्याद् दण्डसंभवः । मध्यमो द्वादशांशोनः, षडंशोनः कनिष्ठकः ॥४६६।। ___ मा० टी०-- रेखा मूलना विस्तारमाने ज्येष्ठमानना दण्डनी उत्पत्ति थाय छे, तेमांथी १ द्वादशांश हीन करता मध्यम अने १ षष्ठांश होन करतां कनिष्ठमाननो दण्ड बने छे. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १९७ दण्डनी जाडाईएकहस्ते तु प्रासादे, दण्डो पादोनमंगुलम् । अर्धाङ्गुला भवेद् वृद्धिः, पञ्चाशद्धस्तकावधि ॥४६७॥ पृथुत्वं च प्रकर्तव्यं, सुवृत्तं, पर्वकान्वितम् । एकादिपर्वतः कार्यः, पञ्चविशतिकावधिः ॥४६८॥ विषम पर्वोद्गमाश्च, शस्ताः स्वस्वाभिधानतः । त्रयोदश स्युदण्डा वै, पर्वभेदैस्तथोत्तमाः ॥४६९॥ भाण्टी०-१ हाथना दण्डमां जाडाईजें मान पोणा आंगलर्नु, अने ए पछी ५० हाथ सुधीना मानना प्रासादे दण्डनी जाडाईमां प्रतिहस्ते ॥ आंगलनी वृद्धि करवी; आ प्रमाणे दंडनो व्यास पर्वसहित गोलाकारनो करवो, १ थी २५ पर्यन्तना एकपर्वा, त्रिपर्वा, पञ्चपर्वा आदि विषम पर्ववाला १३ प्रकारना दंडो बने छ अने आ बधानां पर्वानुसार जुदां जुदां नामो उत्पन्न थाय छे. १ जयन्त, २ शत्रुमर्दन, ३ पिंगल, ४ शंभव, ५ श्रीमुख, ६ आनन्द, ७ त्रिदेव, ८ दिव्यशेखर, ९ कालदण्ड, १० महोत्कट, ११ सूर्य, १२ कमल अने १३ विश्वकर्मा, ए एक पर्वादि १३ प्रकारना दंडोनां अनुक्रमे नामो छ, आ बधा विषमपर्वदंडो स्वनाम प्रमाणे गुण करनारा छे. ___ दण्डनी पाटलीमण्डूकी तस्य कर्तव्या, अर्धचन्द्राकृतिस्तथा । पृथुदण्डसप्तगुणा, हस्तादिपञ्चकावधि ॥४७०॥ षड्गुणा च द्वादशान्ते, शेषा पञ्चगुणा तथा । तथा त्रिभागविस्तारा, कर्तव्या सर्वकामदा ॥४७॥ ૨૫ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण - कलिका - प्रथमखण्डे भा०टी० - दण्डनी पाटली अर्धचन्द्राकारनी करवी, तेनुं मान १ थी ५ हाथ सुधीना दंडे विस्तारथी ७ गणी, ६ थी १२ हाथ पर्यन्तना दंडे विस्तारथी ६ गणी अने ते उपरना मानवाला दंडे विस्तारथी ५ गणी लांबी करवी तथा विस्तारमां लंबाईना ३ जा भागनी करवी, उक्तमाने लांबी-पहोली पाटली सर्व इच्छाओने पूर्ण करनारी होय छे. १९८ पाटलीनुं स्वरूप अर्धचन्द्राकृतेश्चैव, पक्षे कुर्याद् गगारकम् । वंशो कलशं चैव, पक्षे घण्टा प्रलम्बनम् ||४७२ || चामरैर्भूषितं कुर्याद्, घंटापक्षे विचक्षणः । पताका पापहारी च, शत्रुपक्षक्षयंकरी ||४७३ ॥ भा०टी० - पाटलीना मध्यभागे अर्धचन्द्राकार करी तेनी बेने बाजुमां गगारा करवा, पाटलीना मध्यभागे दंड उपर कलश करवो, अने बने तरफ घंटडिओ लटकाववी, बुद्धिमाने घंटडीओनी तरफना भागोने चामरो वडे शुशोभित करवा, अने पाटली उपर पापने हरनारी तथा शत्रुना पक्षनो नाश करनारी पताका-ध्वजा चढाववी. दण्ड शानो बनाववो ? वंशमयस्तु कर्तव्यः, सारदारुसमन्वितः । निर्व्रणः सुदृढः कार्यः (दण्डः), प्राञ्जलो दोषवर्जितः || ४७४ || समग्रन्धिर्विधातव्यो, विषमैः पर्वभिर्युतः । भा०टी० - दंड वांशनो करवो अथवा श्रेष्ठ जातिनी लाकडीनो करवो. ते दंड घा वागेलो, पोचो, के वांको चुको न होय एवो निर्दोष, समगांठोवालो अने विषम पर्वोवालो बनाववो जोईए. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] ध्वजानुं मानध्वजादण्डप्रमाणेन, पताकां च प्रलंबयेत् । पृथुत्वमष्टमांशेन, त्रिशिखाग्रविभूषिताम् ||४७५ || शिखाः पञ्च प्रकर्तव्या, ध्वजाग्रे तद् विचक्षणैः । दिव्यवस्त्रपताका चार्धचन्द्रश्चैव किंकिणी ॥ ४७६ ॥ १९९ भा०डी० - ध्वजादंडना माने दंड उपर पताका लंबाववी, पताकानो विस्तार लंबाईना आठमा भागनो करवो, ३ शिखाओ वडे पताकाने भूषित करवी अथवा तेने ५ शिखाओ करवी. पताका दिव्यवनी बनाववी, ते उपर अर्धचन्द्रनो आकार करवो, निचले छेडे शिखाओ उपर घुघरीओ लटकाववी. ध्वजावती (तंत्रिका) रोपण - रेखा त्रिभागो वा, सूत्रांशे पादवर्जिते । ध्वजावती तु कर्तव्या, ईशानं नैर्ऋतेऽपि वा ||४७७ || प्रासादवृष्ठिदेशे तु दक्षिणे च प्रतिरथे । स्तंभवेधस्तु कर्तव्यो, भित्तेरस्याष्टमांशके ||४७८ || भा०टी० - रेखाना अर्ध भागे, वे तृतीयांशे, अथवा पोणा भागे उपर ध्वजावती स्तंभिका ईशान अथवा नैर्ऋत्य तरफ करवी, प्रासादनी पूठली तरफना जमणा पडरामां प्रासादनी भींतना ८ मा भाग जेटलो स्तंभिका रोपवा माटे खाडो करवो. शैलजे चैव प्रासादे, कलशस्य पदानुगम् । स्वादिरमिन्द्रकीलं तु, प्रवेश्य कलशान्तिके || ४७९ || चतुरस्रमष्टास्त्रं वा, वृत्तं वाऽग्राग्रवर्तुलम् । सुदृढं निर्वणं कुर्याद्, गर्भशुद्धं प्रमाणतः ॥ ४८० || ध्वजावती स्तंभिका च, चतुरस्त्रा चाष्टांशका | . वृत्तोर्ध्वे चतुरत्रिका ॥ ४८१ ॥ ... Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे तदूर्वे कलशं कुर्यात् , सुरूपलक्षणान्वितम् । निकुञ्चवलिके कार्ये, वंशाधारस्य बाह्यतः ॥४८२॥ वंशबन्धास्तु कर्तव्या, हस्ते हस्ते तथा पुनः । हस्ते सपादे सार्धे वा, द्विहस्ते वाऽप्यथोचिते ॥४८३॥ भाण्टी-पत्थरना प्रासादमां कलशस्थाने खेरनो 'इन्द्रकील' नीचे लोसीने कलश पर्यन्त उंचो राखवो. इन्द्रकील नीचे चोरस, मध्यमा अष्टात्र अने उपर गोल करवो, मजबूत, खाडा-खांचा वगरनो, नकर अने प्रमाणयुक्त करवो. ध्वजावती स्तंभिकाने पण नीचेथी अनुक्रमे चतुरस्र, अष्टास्त्र, षोडशास्त्र करी उपर गोल अने अन्त भागमां पाछी चोरस करवी, तेना उपर सुन्दर अने सुलक्षणवालो कलश करवो. थांभलीने दवा वीने स्थिर राखवा माटे खाडानी बहार बे वलिओ (मजबूत लाकडिओ) टेका रूपे उभी करवी, आम स्तंभिकाने मजबूत स्थिर करी पछी तेनी साथे ध्वजदंडने मजबूत बंधोवडे बांधवो, आ बन्धो हाथे हाथे, सवा सवा हाथे, दोढ दोढ हाथे, अथवा बेबे हाथे दंडनी लंबाईनो विचार करीने देवा, बन्धो बच्चे बे हाथथी अधिक अंतर न राखq. जिनेन्द्र प्रासाद पश्चकपद्मरागो विशालाख्यो, विभवो रत्नसंभवः । लक्ष्मीकोटर इत्येवं, पश्चैते तु जिनालयाः ४८४॥ भाटी०-१ पद्मराग, २ विशाल, ३ विभव, ४ रत्नसंभव अने ५ लक्ष्मी कोटर; ए पांच जिनप्रासादोनां नामो छे. तलविभक्ति २२ भागकर्णीनन्दी-प्रतिरथः, पूर्ववञ्च सुसंस्थितः। नन्दिका भागनिष्कासा, द्विभागा पार्श्वक्षोभणा ॥४८५॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ प्रासाद-लक्षणम् ] भागनन्दी पुनः कार्या, वेदांशो भद्रविस्तरः। निष्कासश्चैकभागस्तु, कर्तव्यः शुभलक्षणः ॥४८६॥ चतुर्भागा भवेद् भित्तिः, शेषं गर्भगृहं भवेत्। ___ भाटी-कर्ण, कर्णनी नन्दी, अने प्रतिरथ, ए पूर्वनी जेम ज अनुक्रमे ३, ३, १ भागनां बनाववां, नन्दीनो निर्गम १ भागनो करबो, आ कर्णनन्दी अने प्रतिस्थनी बच्चे १-१ भागनी क्षोभणा करवी, वली १ भागनी भद्रनी पासे नन्दी करवी, ४ भागनो भद्रनो विस्तार करवो, आम तलना ३-१-१-३-१-४-१-३-१ -१-३-२२ भागनी दल विभक्ति करवी, आम करता ४ भागनी भोंत थशे अने बाकीनो गभारो रहेशे, अर्थात् बे भित्तिओमा ८ भागनुं तल रोकाशे अने १४ भागनो गभारो थशे, पांचे जिनेन्द्र प्रासादो ए ज प्रमाणे २२ भाग विराडनां वनावां. शिखरनी रचनाकर्णे शंगत्रयं काय, क्रमोत्तरभागनिर्गतम् ॥४८७॥ षोडशांशं च शिखर-मुरशृंगं तदर्धतः ।। तत्पदोनं तदनं च, तस्याग्रं च युगांशकम् ॥४८८॥ कर्णतुल्यः प्रतिरथो, विक्रमा चैव नन्दिका । कर्णे प्रतिरथे भद्रे, शंगाणि त्रीणि त्रीणि च ॥४८९॥ द्वौ छौ कूटौ नन्दिकायां, प्रत्यंगाणि ततोऽष्टभिः । भद्रनन्येककूटं च, पद्मरागः स उच्यते ॥४९०॥ भद्रशृंगे विशालाख्यो, विभवं च तथा शृणु। कर्णकूटं नन्दि शृंगं, नाम्ना च विभवस्तथा ॥४९१।। भद्रशृंगे कामदस्तु, कर्तव्यो रत्नसंभवः । भद्रं त्यक्तनन्दिकं कुर्यात् , संभवेल्लक्ष्मीकोटरः ॥४९२॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भा०टी०-१ कोण उपर अनुक्रमे ३ शंगो निर्गमे १-१ भागनां करवां, रेखाना मूल भागमां शिखर १६ भाग जेटलं विस्तृत करवू. उरःशंग शिखरना अर्ध भागे अर्थात् आठ भागे विस्तारमां कर. बीजुं उरःशंग पहेलाना पोणा भागर्नु अर्थात् ६ भागनुं अने तेथी आगेर्नु उरःशृंग विस्तारे ४ भाग जेटलुं करवं. कर्णे अने प्रतिरथे सरखा क्रमो करवा. नंदिए २ क्रमो चढाववा अने कर्ण प्रतिरथ तथा भद्र उपर ३-३ शंगो चढावा, कर्णनी नन्दिओए २-२ कूटडा चढाक्वा अने ८ प्रत्यंगो चढाववां, भद्रनी नन्दिए १-१ कूटडो चढाववो. आ प्रकारना तल तथा शिखरवालो प्रासाद 'पद्मराग' ए नामथी ओलखाय छे. अंडक संख्या ७३. २ पद्मरागना भद्रे चोथु उरःशंग लगाडतां ":विशाल " नामनो बोजा प्रकारनो जिनप्रासाद बने छे. अंडक ७७. ३ कोण उपर १-१ कूटडो अने नन्दिओ उपर १-१ शंग वधारतां " विभव" नामनो प्रासाद बने छे. अंडक ९३. ४ उपरनी रचनामां भद्रे १-१ शृंग वधारतां "रत्नसंभव" प्रासाद तैयार थाय छे. अंडक ९७. ५ उपरना प्रासादनी भद्रनन्दी अक्रमी करतां " लक्ष्मीकोटर" प्रासादनुं निर्माण थाय छे. अंडक ८१. ___अपराजित पृच्छाना १६४ मा सूत्रमा जिनेन्द्रप्रासाद-पञ्चकनी निर्माणविधि उपर प्रमाणे बतावेल छे, आजना समयमां आवा प्रासादोनुं निर्माण दोढथी बे लाख द्रव्यना व्ययथी थई शके छे. - केसरी आदि २५ नागर प्रासाद अपराजित पृच्छामां आ प्रासादोनुं सांधार प्रासादरूपे सवि. स्तर वर्णन छे पण त्यांज लखे छ के Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] २०३ दशहस्तादधो नास्ति, प्रासादो भ्रमसंयुतः । षट्त्रिंशांतं निरन्धाराः, कार्या वेदादि हस्ततः ॥४९३।। भा०टी०-१० हाथना मानथी ओछा माननो कोइ प्रासाद 'भ्रमदार' होतो नथी. ४ हाथथी ३६ हाथ सुधीना माननो प्रासाद निरन्धार (भ्रमहीन) करी शकाय छे, पण भ्रमवालो (सांधार) करवो ज होय तो तेनुं मान दश हाथ नीचे न होवु जोइए. पञ्चविंशतिः सांधाराः, प्रयुक्ता वास्तुवेदिभिः। भ्रमहीनास्तु ये कार्याः, शुद्धच्छन्देषु नागराः ॥४९४॥ भा०टी०-वास्तुशास्त्रना ज्ञाताओए प्रयोजेल जे २५ सांधार प्रासादो छे ते शुद्ध नागर छंदोमां भ्रमहीन पण करवा, आ उपरथी सिद्ध थाय छ के केसरी आदि प्रासादो भ्रमहीन पण करी शकाय छे, आधुनिक कारीगरो पण घणे भागे कनिष्ठ प्रासादो केसरी आदिमांना ज करे छे तेथी अमो पण अपराजितोक्त भ्रमदार पासादोना वर्णनने छोडीने वास्तुमरी आदिना निरूपणने अत्र उद्धृत करीये छीए. १ केसरीक्षेत्रेऽष्टभक्त द्वौ की, भद्रं वेदांशविस्तरम् । भागार्धनिर्गमः पश्चा-डकोऽयं केसरी मतः ॥४९५॥ । भाण्टी--प्रासाद भूमिने ८ भागे वहेंचीने २-२ भागना कोण अने ४ भागना विस्तारवालुं भद्र करवु. १ भागनो निर्गम करतो, आ प्रकारना पश्चांडक प्रासादने 'केसरी' ए नामथी मान्यो छे. आने अंडक ५ छे, कोणे ४, शिखरे १. ए पछीना सर्वतोभद्रा Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૪ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे दिसां ४-४ अंडकोनी वृद्धि थतां २५ मा मेरु प्रासादने १०१ अंडको लागशे' २ सर्वतोभद्रदशभक्त द्वयं कर्णः, साधै भद्रार्धकं रथः। श्रीवत्सशिखरः सर्व-तोभद्रो वसुशृंगवान् ॥४९६॥ भा०टी०-प्रासाद तलने १० थी मांगी २ भागनो कोण, १॥ भागनो पडरो, १॥ भागर्नु भद्रार्ध करवाथी श्रीवत्स जातिना शिखेरवालो अने ८ शंगरालो भद्रो उपर रथिका उद्गमवालो "सर्वतोभद्र" प्रासाद बने छे', अंडक संख्या ९, कोणे ४, भरे ४, शिखरे १. ३ नन्दन- अने ४ नन्दिशालकभद्रे श्रीवत्ससहितो, रथिकादयश्च नन्दनः । शृंगं तवं भद्रं तत्-सदृशं नन्दिशालकः ॥४९७॥ भा०टी०-भद्रे श्रीवत्स सहित अने शंगवालो रथिकाओथी युक्त होय ते 'नन्दन' प्रासाद कहेवाय छे, अंडक १३, कर्णे ८, भद्रे ४, शिखरे १ अने कर्णे, प्रतिरथे, भद्रे १-१ शृंगालो, भद्रे रथिका उद्गमोए सहित श्रीवत्स शिखरवालो 'नन्दिशालक' प्रासाद १७ अंडकनो होय छे, कर्णे ४, प्रतिरथे ८, भद्रे ४, शिखरे १ अपराजितमा केशरीना कोणोए ४ श्रीवत्सशिखरो (शंगो) भने भद्रोमा रथिका उद्गम करवानुं विधान छे. २ जे शिखरना भद्रविभागे श्रीवरसना आकारो करेला होय भने शिखरना मंग प्रत्यंगो वचे पाणीतार छोडेला होय ते 'श्री वत्स शिखर' कहेवाय छे. ३ अपराजितमा सर्वतोमदनी भद्र विस्तार ६ भागनो मानी भद्रमांथी ०॥०॥ भागनी बे कोणिमओ काढवानु, भद्र उपर ३ भागना विस्तारर्नु मुखभद्र बनाववानुं अने भद्रे ५ उद्गमो भने कर्णे ८ शृंगों बनाववानुं विधान करेल के. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] २०५ .५ नन्दीश अने ६ मंदरकणे शंगव्यं त्वेकं, रथे नन्दीश ईरितः । सूर्याशे प्ररथः कर्णों, भद्रार्ध वि द्वि-भागतः ॥४९८। कणे भद्रे च शंगे हे, रथे त्वेकं स मन्दरः। भा०टी०-कोणो उपर २-२, पडराओ उपर १-१ अने भद्रो उपर १-१ शृंग चढाववाथी 'नन्दीश' प्रासाद बने छ, अंडक संख्या २१; कोणे ८, पडराओए ८, भदोए ४, शिखरे १. प्रासाद तलना १२ भागो करी पडरो, कर्ण अने भदाध; ए त्रणे २-२ भागनां करवां अने शिखर विभागे, कर्णे तथा भद्रे २-२ तथा पडरे १-१ श्रृंग चहावयां, आधी रचनावाला प्रासादने 'मन्दर' ए नाम आय छे. अंडक संख्या २५; कोणे ८, पडरे ८, भद्रे ८, शिखरे १. ७ श्रीवृक्ष अने ८ अमृतोद्भवमनुभक्ते रथः कों, भद्रार्धे द्वि-द्विभागतः ॥४९९॥ भद्रपार्श्वद्वये कुर्याद् , भाग-भागेन नन्दिके । कर्णे शृंगद्वयं शंगो-परिष्ठात् तिलकं रथे ॥५००॥ नन्द्यामेकैकतिलकं, भद्रे शृंगत्रयं न्यसेत् । श्रीवृक्षस्तत्र कर्णे त्रि-शृंगैः स्यादमृतोद्भवः ।।५०१॥ भाण्टी-प्रासादतलने १४ भागे बहेंची पडरो, कोण अने भद्रार्ध ए त्रणने २-२ भागना करवा, भद्रनी बने पासे १-१ भागनी नन्दी करवी, कोणे २-२, भरे ३-३, अने पडरे १-१ शंग चढावी पडराना शंग उपर तिलकडो चढाववो अने नन्दी उपर १-१ तिलक चढाववो आथी 'श्रीवृक्ष' प्रासादनी रचना थाय छे, अंडक संख्या २९; कर्णे ८, पडरे ८, भई १२, शिखरे १. तिलक १६; पडरे ८, नंदीए ८. आ श्रीवृक्षना कोण उपर १-१ शंग वधारी Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ३-३ शृंगो करवाथी तेनुं नाम “ अमृतोद्भव" पडे छे, अंडक संख्या ३३; कर्णे १२, भद्रे १२, पडरे ८, शिखरे १ तिलक १६, पडरे ८, नंदीए ८. ९ हिमवान तथा १० हेमकूटवे वे प्रतिरथे दे दे, भद्रे च हिमवान् मतः। भद्रे तृतीयं नन्द्या तु, तिलकं हेमकूटकः ॥५०२॥ भाण्टी -कोणे ३-३, पडरे २-२ अने भद्रे २-२ शंगो तथा नंदि उपर १-१ तिलक चढाववाथी अमृतोद्भधनुं नाम 'हिमवान' पडे छे, अंडक संख्या ३७. कोणे १२, पडरे १६, भद्रे ८, शिखरे १. तिलक ८ नंदीए. भद्र उपर त्रीजुं शंग अने नन्दीए तिलक चहावता उपरतुं हिमवान् नाम मटीने 'हेमकूट' नाम पडे छे. अंडक ४१; कोणे १२, पडरे १६, भद्रे १२, शिखरे १. तिलक १६, प्रतिनन्दी २-२. ११ कैलास तथा १२ पृथिवीजयरेखाधस्तिलकं नन्यां, शृंगं कैलाससंज्ञकः। रेखायास्तिलकस्थाने, शृंगं पृथ्वीजयस्तदा ॥५०३॥ भा०टी०-कोणना त्रीजा शंगने कमी करी तेना स्थाने तिलक अने नन्दीना नीचेना १ तिलकना स्थाने शंग चढाववाथी 'कैलास' प्रासाद बने छ, अंडक ४५; कोणे ८, पडरे १६, भद्रे १२, नन्दीए ८, शिखरे १. तिलक १२; कोणे ४, नन्दीए ८. रेखा नीचेना तिलकने स्थाने त्रीजु शंग लगाडवाथी 'पृधिवीजय' नामनो प्रासाद निष्पन्न थाय छे, अंडक ४९; कोणे १२, पहरे १६, मे १२, नन्दीए ८, शिखरे १. तिलक ८. नन्दीए Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ प्रासाद-लक्षणम् ] १३ इन्द्रनीलषोडशांशे भागमाना, कोणी कर्ण-रथान्तरे। शेष मन्वंशवद् भद्रे, निगमोऽशः परे समाः ॥५०४॥ कणे शंगद्वयं नन्द्यां, तिलकं च प्रत्यंगकम् । द्वयं रथे त्रयं भद्रे, नन्दी सैकेन्द्रनीलकः ॥ ५०५ ॥ भा टो०-तलना १६ भाग करीने कोण तथा पडरा बच्चे १ भागनी कोणी (नन्दी) करवी, बाकी दल विभक्ति १४ भागनी. जेम २-२ भागना कोण, पडरो, भद्रार्ध अने १-१ भागनी भद्रनन्दी करवी, भद्रनो निकालो १ भागनो करवो, बीजा अंगो निकाले समदल करवा. कोणे २-२ शंगो, नन्दी उपर तिलक अने प्रत्यंगो ८-८. पडरे २-२ शूगो, भरे ३-३ शूगो, भद्रनन्दीए १-१ शंग चढाववाथी — इन्द्रनील ' प्रासाद बनशे, अंडक संख्या ५३; कोणे ८, प्रत्यंगे ८, पडरे १६, भद्रे १२, भद्रनन्दीए ८, शिखरे १. तिलक ८ नन्दीए. १४ महानील तथा १५ भूधरनन्द्यां शृंगे महानीलो, रेखाधस्तिलके सति । रेखाधस्तिलकस्थाने, शृंगं यदि स भूधरः ॥५०६ ॥ भा०टी०-नन्दी उपर ( कोण पडरा बच्चेनी कोणी उपर ) तिलकना स्थाने शंग अने कोण उपर शंगना स्थाने तिलक करवाथी ' महानील' प्रासादनी रचना थाय छे, अंडक ५७; कोणे ४, प्रत्यंगे ८, पडरे १६, भद्रे १२, भद्रनन्दीए ८, कर्णनन्दीए ८ अने शिखरे १. तिलक ४ कोणे. ए ' महानील 'ना कोणे तिलकना स्थाने शंग चढाववाथी भूधर प्रासाद बने छे, अंडक ६१; कोणे ८, Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे प्रत्यंगे ८, पडरे १६, भद्रे १२, भद्रनन्दीए ८, कर्णनन्दीए ८, अने शिखरे १. १६ रत्नकूटअष्टादशांशे भद्रस्य, पाश्चयोनन्दिकाद्वयम् । शेषं कलांशवत् कणे, वे शंगे तिलकं तथा ॥ ५०७ ॥ नन्द्यां दे दे तु तिलके, प्रत्यंगं युग्मभागिकम् । नन्यां तु तिलकं भद्रे, युगं शृंगत्रयं रथे ॥ ५०८ ॥ रत्नकूटस्तदा नाम, शिवलिंगेषु कामदः । प्रशस्तः सर्वदेवेषु, राज्ञां तु जयकारणम् ।।५०९॥ भा०टी०-तलना १८ भागोमां भद्रना बंने पार्श्वभागोमां १-१ नन्दी वधारवी, बाकी दलविभागो १६ भागना तलनी जेमज करवा, कोण उपर २ शृंगो तथा तिलक करवा, २ नन्दीओ उपर २-२ तिलको करवा, बाजुमा २-२ भागना प्रत्यंगो करवा, नन्दीए १-१ शंग, १-१ तिलक करवा, भद्रे ४-४ शंगो अने पडरे ३-३ शंगो करवा, आवी रचनावालो प्रासाद 'रत्नकूट ए नामथी ओलखाय छे, शिवलिंगोने माटे इच्छापूरक छे, छतां सर्व देवोने माटे प्रशस्त छे अने राजाओने जयतुं कारण छे. अंडक ६५; कोणे ८, प्रत्यंगे ८, प्रतिरथे २४, प्रतिस्थनन्दीओए ८, भद्रे १६ अने शिखरे १. तिलक ४४; कर्णनंदीए १६, भद्रनन्दीए १६, प्रतिरथनन्दीए ८ अने कोणे ४. ___ १७ वैडूर्यशंगं तृतीय रेखाधः, कर्तव्यं सर्वशोभनम् । वैडूर्यश्च तदा नाम, कर्तव्यः सर्वदैवतः ॥ ५१० ॥ भाटी०-कोण उपर त्रीजुं शृंग चढाववाथी ए रत्नकूटनो ज Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] "वैडूर्य' नामनो प्रासाद बने छ, सर्व देवोने योग्य आ वैडूर्य करवो जाईये. अंडक ६९; कोणे १२, प्रत्यंगे ८, प्रतिस्थे २४, प्रतिरथनन्दीए ८, भद्रे १६, अने शिखरे १. तिलको ४०; कर्णनन्दीए १६, भद्रनन्दीए १६ अने प्रतिरथनन्दीए ८. १८ पद्मराग अने १९ वज्रतत्र नन्द्यां तु तिलकं, वे शंगे पद्मरागकः । रेखाधस्तात् पुनः शृंगं, कारयेद्वजकस्तदा ॥ ५११ ॥ भा०टी०-कोणना त्रीजा शंगने बदले तिलक करवा, प्रतिस्थ नन्दीए २-२ शंगो अने कर्ण तथा भद्रनन्दीए २-२ तिलक करवाथी 'पद्मराग' प्रासाद बनशे. अंडक ७३; कोणे ८, प्रतिस्थनंदीए १६, पडरे २४, प्रत्यंगे ८, भद्रे १६ अने शिखरे १. तिलको ३६; कोणे ४, कर्णनन्दीए "६ अने भद्रनन्दीए १६. रेखा नीचे वली त्रीजुं शंग देवाथी ए दरागप्रासाद ज 'वज्र' एवं नाम धारण करे छे, अंडको ७७; कोणे १२, प्र.नदीए १६, प्रत्यंगे ८, पडरे २४, भद्रे १६ अने शिखरे १. तिलको ३२; कर्णनन्दीए १६ अने भद्रनन्दीए १६. . २० मुकुटोज्ज्वल अने २१ ऐरावतनखभक्ते इयं कर्णः, सार्धा कोणी दयं रथः । साङ्खनन्दी भद्रनन्दी, भागो भद्रं युगांशकम् ॥५१२॥ कणे दिशंगे तिलकं, रेखा मन्वंशविस्तरा । नन्यां शृंगं च तिलकं, प्रत्यंगं स्यादथोरथे ॥५१३ ॥ द्वयं भद्रं चतुःशृंगं, नन्यां शृंगं च तैलकम् । भद्रनन्यां तथा शृंगं, प्रासादो मुकुटोज्वलः ॥५१४ ।। तत्र रेखाधस्तत्शंगे, विहिते गजराजकः । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भा टी-२० भागना तलमां २ भागनो कर्ण, ११॥ भागनी कोणी (नन्दी), २ भागनो प्रतिस्थ, १॥ भागनी नन्दी, १ भागनी भद्रनन्दी अने २ भागर्नु भद्रार्ध करवू, शिखरमां कोणे २ शंग तथा तिलक करवा, रेखानो विस्तार १४ भागनो करवो, नन्दी उपर शंग तथा तिलक करवा, प्रतिरथे प्रत्यंग चहावयां, पडरे २ शंगो अने भद्रे ४ शंगो करवा, नन्दीप शंग तथा तिलक कस्वा अने भद्रनन्दीए शृंग करवा, आथी 'मुकुटोज्वल' नामक प्रासाद बने छे. अंडको ८१; कोणे ८, कोणनन्दीए ८, प्रत्यंगे ८, प्र. नंदोए ८, भद्रनन्दीए ८, पडरे २४, भद्रे १६ अने शिखरे १. तिलको २०; कर्णनन्दीए ८, प्र. नन्दीए ८ अने कोणे ४. आ मुकुटोज्ज्वलना कोणे त्रीजु शंग चढाववाथी 'ऐरावत' प्रासादनी उत्पत्ति थाय छे. अंडको ८५; कोणे १२, कोणनन्दीए ८, प्रत्यंगे ८, प्रतिस्थे २४, प्र.नन्दीए ८, भद्रनन्दीए ८, भरे १६ अने शिखरे १. तिलको २४; कर्णनन्दीए ८, भद्रनन्दीए ८ अने प्र. नन्दी ८. २२ राजहंसतथैव तिलकं कुर्यात्, भद्रकणे तु शंगकम् । राजहंसः समाख्यातः, कर्तव्यो ब्रह्ममंदिरे ॥५१५॥ भा टी-तेज रीते कर्णना वीजा शूगने स्थाने तिलक अने भद्रनन्दीए वीलु शंग करवाथी 'राजहंस' नामनो प्रासाद बने के, आ प्रासाद ब्रह्माजीने माटे बनाययो, अंडको ८९; कोणे ८, कोणनन्दीए ८, प्रत्यंगे ८, प्रतिरथे २४, प्र. नन्दीए ८, भद्रनन्दीए १६, भद्रे १६ अने शिखरे १. तिलको ४ कोणे. २३ गरुडतथैव तिलकं कुर्यात् , भद्रं कर्णं च शंगकम् । गरुडः स समाख्यातः, कर्तव्यश्च श्रियःपतेः ॥५१६॥ तथेच तिलक कृपयात, भात को क अंगकः ॥१६॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] भा०टी०-तथा भद्रनन्दीए तिलक करवो अने कोण उपर प्रोजु शंग करवं. आ प्रकारे बनावेल प्रासाद 'गरुड ' ए मामथी प्रख्यात छे, आ प्रासाद विष्णुने माटे खास करवा जेवो छे, अंडको ९३; कोणे १२, कोणनन्दीए ८, प्रत्यंगे ८, प्रतिरथे २४, प्र. नन्दीए ८, भद्वनन्दीए १६, भद्रे १६ अने शिखरे १. तिलको भद्रनन्दीए ८. २४ वृषभद्वाविंशत्यंशके नन्दी, भागेन भद्रपार्श्वयोः । त्रयः प्रतिरथाः कर्णो, भद्रार्घ च द्विभागिकम् ॥५१७॥ कण द्विशृंगे तिलकं, भद्रे शृंगचतुष्टयम् । शंगद्वयं प्रतिरथे, प्रत्यंगानि त्रिभागतः ॥५१८ ॥ रथे शृंगत्रयं कृर्यात्, दे उपरथे तथा । भद्रनन्द्यां ततः शृंगं, वृषभोऽयं हरप्रियः ।।५१९।। भा०टी०-२२ भागे वहचेला तलमां भद्रनी बंने बाजुए १ भागनी नन्दी, प्रतिस्थ-रथ-उपरथ-कर्ण अने भद्रार्ध ए पांचे २-२ भागना करवा, शिखर विभागे कर्णे २ शंगो तथा तिलक, भद्रे ४ उरःशृंग, पडरे २ शृंग, तथा विस्तारे त्रण भागना प्रत्यंग, रथे ३ शंग, उपरथे २ शंग, अने भद्रनन्दीए १ शंग. आ प्रकारनी रचनावालो शिवप्रिय ' वृषभ' नामनो प्रासाद बने छे, अंडक ९७; कोणे ८, भद्रे १६, पडरे १६, प्रत्यो ८, रथे २४, उपरथे १६, भद्र. नन्दीए ८ अने शिखरे १. तिलको ४ कोणे. २५ मेरुप्रासादकणे शंगं तृतीयं स्यान्मेरुः सिद्धिप्रदा इमे । सान्धारा वा निरन्धाराः, प्रासादाः पञ्चविशतिः ॥५२०॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भाण्टो०-वृषभ प्रासादना कोणे त्रीजु शंग वधारवाथी ते प्रासाद ' मेरु' नामे ओलखाय छे, अंडको १०१; कोणे १२, भद्रे १६, पडरे १६, प्रत्यंगे ८, रथे २४, उपरथे १६, भद्रनन्दीए ८ अने शिखरे १; आ २५ प्रासादो सान्धार अथवा निरंधार होय, सर्व सिद्धिने आपनारा छे. मण्डप वास्तुमअरीकार लखे छेप्रासादाग्रे मण्डपः स्या-देक-त्रि-द्वारसंयुतः । जिने त्रिपुरुषे द्वार-कासु त्रिमण्डपाः क्रमात् ।।५२१॥ - भा०टी०-प्रासादने आगे एक द्वारनो अथवा त्रण द्वारनो मंडा होय छे. जिन, त्रिपुरा, (ब्रह्मा विष्णु महेश्वर) अने द्वारकाना प्रासाद आगल एक पछी एक एम त्रण मंडपो करवा. अपराजितमा मण्डपोर्नु निरूपण नीचे प्रमाणे छेअथाऽतः संप्रवक्ष्यामि, मण्डपानां तु लक्षणम् । प्रासादस्य प्रमाणेन, मण्डपं कारयेद् बुधः ॥५२२॥ समः सपादः सार्धश्च, सपादोनद्वय एव च । द्विगुगश्चापि कर्तव्यः, सपादय एव च ॥ ५२३ ॥ सार्धद्वयस्तु कर्तव्यो, ह्येतदूर्वा न कारयेत् ।। सप्तधा प्रमाणसूत्रं, वास्तुवेदैरुदाहृतम् ॥ ५२४ ॥ भा०टी०-हवे मण्डपोनुं लक्षण कहीश, विद्वान् स्थपतिए . प्रासादना मानने अनुसारे मंडपने करवो, १ प्रासाद-सम माननो, २ प्रासादथी सवाया, ३ दोढा, ४ पोणाबेगणा, ५ बे गणा, ६ सवाबेगणा, तथा ७ अढी गणा माननो मंडप बनाववो, एथी अधिक Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] २१३ प्रमाणनो न बनाववो, कारण के वास्तुशास्त्रज्ञाए मंडपर्नु प्रमाणसूत्र सात प्रकारे कयुं छे.१ प्रासादेषु च सर्वेषु, दशहस्ताधिकेषु च । उक्तः समः सपादश्च, मण्डपो वास्तुवेदिभिः ॥५२५॥ पञ्चहस्तात्परं चैव, यावत्स्याद् दशहस्तकम् । सार्धायामो मण्डपश्च, सृष्टो वै विश्वकर्मणा ॥५२६॥ चतुर्हस्ते च प्रासादे, पादोनद्वयविस्तरः। निहस्ते द्विगुणश्चैव, तद्विशेषा चतुष्किका ॥५२७॥ चतुष्कं चाष्टांशं चापि, शुक्स्तंभानुसारतः । वितानं संवरणोक्तं, सार्धमानेन मण्डपे ॥५२८॥ अलिन्दैद्विगुणे चात्र, द्विगुणं च प्रकल्पयेत् । द्वि-त्रि-चत्वारोऽलिन्दा, द्विगुणात्परे च मण्डपे ॥५२९।। वितानानि संवरणा, विभक्तानि चतुष्किका । स्वक-स्वकेषु स्थानेषु, पादाढया तद् भुक्तिभिः ॥५३०॥ स्वार्धमानेनोच्छ्यस्तु, मूलसंवरणोक्तिभिः । शुकनाससमा घण्टा, न न्यूना न ततोऽधिका ॥५३१॥ . भा०टी०-१० हाथथी अधिक मानना सर्व प्रासादोमां वास्तु ज्ञाताओए मण्डप प्रासादना सममाने अथवा प्रासादथी सवाया १ समरांगणसूत्रधारमा आ संबन्धे नीचे प्रमाणे विशेष छे: क्षुद्रप्रासादकेषु स्यु-मण्डपा बहवोऽपरे । क्षेत्राऽलाभे पुनरिमान् , सर्वान् सर्वेषु योजयेत् ॥१॥ भा०टी०---न्हाना न्हाना देवलोमां बीजा अनेक मानना (अढी गणाथी पण अधिक मानना) मंडपो होय छे, वली वास्तुभूमिनी कमीना कारणे बधां मानना मंडपो बधा प्रासादोमां करी शकाय छे, जेमके ३ हाथना प्रासादनो मंडप ६ हाथनो जोईये, पण भूमिना अभावे ओछो पण थइ शके छे. ૨૭ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे माने करवो कह्यो छे, ५ हाथथी मांडी १० हाथ सुधीना प्रासादोने दोढा माननो मण्डप करवान विश्वकर्माजीए विधान कयु छे, ४ हाथना प्रासादे पोणा बे गणा विस्तारनो अने ३ हायना प्रासादे बे गणा विस्तारनो मंडप करवो, त्रण हाथथी ओछा मानना लघुप्रासादमां मंडपना स्थाने तेनोज भेद चोकी करवी, चोकी चोरस वा अष्टास्र पण होय, तेनो विस्तार शुकनासना स्तंभोने अनुसारे करवो, मंडप वितानवालो अथवा संवरण वालो होय, उंचो तेना विस्तार मानथी दोढो करवो, प्रासादथी 'द्विगुणमानवाला मंडपने' फरतां अलिन्द्रो वडे तेना विस्तारथी बे गणा विस्तारवालो करी शकाय अने बमणा उपरना मानना मंडपोने २-२, ३-३ अथवा ४-४ अलिन्दो देइने विस्तृत करी शकाय छ, आ अलिन्दो (चोकियो)वाला मंडपोने वितानवाला अथवा संवरणवाला करो पण आने फरती चोकियोनी नीचेनी जे भूमि चोकिओए पोतपोताना पदना भोगवडे बहेंची नांखी छे, तेने मूल मंडपनो विस्तार समजीने ते उपर मंडपर्नु सामरण के मंडपनो घुमट लाववो नहि, पण मूल मंडपना विधान प्रमाणे ज ते अलिन्दनी चोकिओ उपर पोताना विस्ता. रना अर्धमाने उंची सामरणो अथवा घुमटीओ करवी अने मंडपना आमलसारानी उंचाई शुकनासना उदय जेटली करवी, तेथी ओछी न करवी अने अधिक पण न करवी. शुकनासनी उंचाईमूलप्रासादशिखर-मुच्छ्ये यत्प्रकल्पितम् । छाद्योवें स्कन्धपर्यन्त-मेकविंशतिभाजितम ।।३।। अङ्कदिशारुद्रसूर्य-त्रयोदशान्तमुत्सृजेत । शुकनासस्य संस्थानं, छाद्योचे पञ्चधोन्नतम् ॥३३॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा. प्रासाद-लक्षणम् ] २१५ तेन मानेन पटान्तं, मण्डपोर्ध्वमुत्सृजेत् । ता च न कर्तव्य-मधास्थं नैव दूषयेत् ॥५३४॥ भा०टी०-छाजाना मथाराथी स्कन्ध (बांधणा) पर्यन्त मूल प्रासादना शिखरनी ऊंचाइ जेटली करवा धारी होय तेना २१ भाग करी तेवा ९ भाग, १० भाग, ११ भाग, १२ भाग अथवा १३ भाग उपर, एम ५ प्रकारनी ऊंचाइए शुकनासर्नु संस्थान होइ शके, अने मंडप शुकनासनी ऊंचाइना माने पाटना मथाराथी ऊंचो ला जइने छोडवो, शुकनासथी मंडप ऊंचो न करवो, कदापि नीचो रहे तो दोष नथी. प्रासादा मण्डपाश्चैव, जगतीशालेऽतिक्रमात् । अन्योन्यं च यदा ग्रस्ता, महादोष इति स्मृतः॥५३५।। मण्डपेषु च प्रासादे, ग्रस्ते तु स्वामिविग्रहः । जगत्यां चैव प्रासादा, ग्रस्तास्तत्र प्रजाभयम् ॥५३६॥ शालाभिर्मूलप्रासादो, ग्रस्तः स्याद्दोषकारकः । तदग्रस्तस्तु कर्तव्यः, स्वगोत्रेऽकलहो रिपोः ॥५३७।। प्रजाग्रस्तो यथा राजा, प्रासादोऽथान्यपट्टकैः । जगती-शाला-विधिस्तत्र, मूलसूत्रानुसारतः॥५६८॥ मूले ग्रस्ते तदाग्रस्ती, जगतीप्रासादौ परस्परम् । कुरुतस्तावन्धकारं, यथा राहुर्दिवाकरे ॥५३९॥ भा०टी०-प्रासादो, मंडपो, जगती अने शाला, अनुक्रमे अथवा अन्योन्य (एकबीजाथी) ग्रस्त थाय तो आ प्रमाणे महादोष कह्यो छे मंडपोथी प्रासाद ग्रस्त थाय तो (लोपाय, नीचो रहे) तो बनापनारा, धणीने क्लेश करावनार थाय, जगतीधी प्रासाद प्रस्त थाय . Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ [ कल्याण कलिका-प्रथमखण्डे तो प्रजाने भयकारक बने, शालाओ (जगतीनी चोकियो) वडे मूल प्रासाद ग्रस्त थाय (दबाय) तो दोषकारक छे, माटे मूलपासाद अग्रस्त (कोइथी पण न दबायेलो) करवो, के जेथी पोताना कुटुंबमां स्वकृत अथवा शत्रुकृत क्लेश न थाय, प्रजाथी दबायेलो राजा जेम तेजो हीन गणाय छे तेज रीते बीजा पाटो वडे दबायेलो प्रासाद जाणवो, माटे जगतीनी शालानी विधि मूल प्रासादना सूत्रानुसारे करवी, मूल प्रासाद ग्रस्त थतां प्रासाद अने जगती बंने परस्पर ग्रस्त थाय छे अने ते सूर्यने विषे जेम राहु अन्धकार करे तेम अंधकार करे छे. ज्येष्ठ-मध्य-कनिष्ठाश्च, प्रासादा ये भवन्ति च । तद्ने मण्डपान् कुर्याज्येष्ठ-मध्य-कनिष्ठकान् ॥५४॥ भान्टो०-ज्येष्ठ मध्यम अने कनिष्ठ जे प्रासाजो जेवा होय 'तेमनी आगल तेवा ज्येष्ठ मध्यम अने कनिष्ठ प्रकारना ज मंडपो करवा. अपराजिते सूत्र १८४ मां एनुं स्पष्टीकरण नीचे प्रमाणे कयु छे मण्डपास्त्रिविधा वत्स!, ज्येष्ठ-मध्य-कनिष्ठकाः । प्रासादाद्विगुणायामः, कनिष्ठो मण्डपो भवेत् ॥५४१।। पादोनद्वितयो मध्यो, ज्येष्ठः सार्धस्तथैव च । एकैकास्त्रिविधा ज्ञेया, ज्येष्ठमध्यकनिष्ठकाः ॥५४२॥ त्रिज्येष्ठमिति च ख्यातं, त्रिमध्यं त्रिकनिष्ठकम् । नवधा पुनरेकैकं, सप्तविंशतिसंख्यया ॥५४३॥ भाण्टी-मंडपो त्रण प्रकारना कह्या छे, १ ज्येष्ठ, २ मध्य अने ३ कनिष्ठ, प्रासादथी वमणा प्रमाणनो मंडप कनिष्ठ गणाय छे, Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ प्रासाद-लक्षणम् ] पोणा वे गणा मानवालो मध्यम कहेवाय छे, अने प्रासादथी दोढा माननो ज्येष्ठ गणाय छे. आ त्रण मानना मंडपो पैकीना प्रत्येक मंडपना वली ३-३ भेदो पडे छे. १ ज्येष्ठज्येष्ठ, २ ज्येष्ठमध्यम, ३ ज्येष्ठकनिष्ठ. ४ मध्यमज्येष्ठ, ५ मध्यममध्यम, ६ मध्यमकनिष्ठ, ७ कनिष्ठज्येष्ठ, ८ कनिष्ठमध्यम अने ९ कनिष्ठकनिष्ठ, ___ आ ९ प्रकारना मंडयो पैकीनो एक एक मंडप २७ प्रकारनो बने छे. ___कनिष्ठ, मध्यम अने ज्येष्ठ मंडपो संबन्धी समरांगण सूत्रधारनुं निरूपण नीचे प्रमाणे छे. प्रासादाद् द्विगुणं कुर्यात्, कनिष्ठं तत्र मण्डपम् । पादोनद्विगुणं मध्यं, प्रासादे तु कनीयसि ॥५४४॥ तस्मिन्नेव कनीयांसं, विध्यात् सार्धमानतः । पादोनद्विगुणः सार्धः, सपादश्चेति मध्यमे ॥५४५॥ साधः सपादस्तुल्यश्चेत्युत्तमाद्याः स्युरुत्तमे । भा०टो०-प्रासादथी बे गणा विस्तारवालो कनिष्ठ प्रासादनो मंडप 'कनिष्ठ-कनिष्ठ.' मंडप कहेवाय छे, पोणा बे गणो विस्तृत कनिष्ठ प्रासादनो मंडप 'कनिष्ठ-मध्यम' मंडप कहेवाय छे, अने तेज कनिष्ठ प्रासादनो दोढा विस्तारवालो मंडप 'कनिष्ठ-ज्येष्ठ' मंडप कहेवाय छे. मध्यमप्रासादथी पोणा बे, दोढ अने सवा गणो विस्तृत मंडप अनुक्रमे ते प्रासादनो १. मध्यमकनिष्ठ, २. मध्यम मध्यम अने ३. मध्यम ज्येष्ठ कहेवाय छे अने उत्तम प्रासादना दोढा, सवाया Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमलाई अने तुल्यमानना मंडपने अनुक्रमे १. उत्समकनिष्ठ, २. उत्तममध्यम अने ३. उत्तमज्येष्ठ मंडप नाम अपाय छे. स्पष्टीकरणपूर्वोक्त मण्डपोना निरूपणमां कनिष्ठादि प्रासादोमां कनिष्ठादि मंडपोर्नु विधान करतां बमणो, पोणा बे गणो अने दोदो मंडप कनिष्ठ प्रासादोमां करवानुं सूचव्यु छे, ते पूर्व मंडपलक्षणमा ३ हाथे द्विगुण, ४ हाथे पादोनद्विगुण अने ५ थी १० हाथ पर्यन्ते साधमाननो मंडप करवानुं जणाव्यु छे तेनाथी जणाय छे. १ थी १० हाथ सुधीना प्रासादने कनिष्ठ मानी तेना ३ भाग कल्या छे, तेमां १ थी ३ हाथ सुधीना प्रासादने 'कनिष्ठ कनिष्ठ,' ४ हाथनाने 'कनिष्ठमध्यम' अने ५ थी १० सुधीनाने 'कनिष्ठज्येष्ठ' जाणवो. आ त्रण प्रकारना कनिष्ठ प्रासादोना मंडपो पण क्रमशः कनिष्ठ-कनिष्ठ, कनिष्ठ-मध्यम अने कनिष्ठ-ज्येष्ठ प्रकारना जाणवा. ४ हाथनो प्रासाद 'मध्यम-कनिष्ठ,' ५ थी १० सुधीनो ' मध्यम मध्यम' अने ११ थी २० मुधीनो 'मध्यम-ज्येष्ठ गमाय छे. ५ थी १० सुधीनो 'उत्तम कनिष्ठ,' ११ थी २० पर्यन्तनो 'उत्तम मध्यम' अने २१ थी ५० पर्यन्तना प्रासादने 'उत्तमोत्तम' जाणवो, आना दोढा, सवाया अने तुल्यमानना मंडपो पण अनुक्रमे १. उत्तम-कनिष्ठ, २. उत्तम-मध्यम अने उत्तमोचम जाणवा. समतलो विषमश्च, संघाटो मुखमण्डपे । भित्त्यन्तरे यदा नैव, दोषस्तंभ-पट्टादिके ॥५४६॥ क्षणमध्येषु सर्वेषु, पहमेकं न दापयेत् । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] २१९ युग्मं च दापयेत्तत्र, वेधदोषविवर्जितम् । ॥५४७॥ क्षणमध्येषु सर्वेषु, स्तंभमेकं न दापयेत् । युग्माकारमिमंदयाद् , मूलगर्भ न पीडयेत् ॥५४८॥ मण्डपानां समस्तानां, लक्षणं कथ्यतेऽधुना। गति स्तंभं च भित्तिंच, विभक्ति भागसंख्यया ।।५४९॥ भाण्टी-मुख मंडपनो संघाट (पीठ) समतल होय अथवा विषम तल होय, स्तंभ, पाट आदि समतल होय के विषमतल-जो बच्चे भीतनो आंतरो होय तो दोष गणातो नथी. क्षणोमां एक वधारयु नहि, कदापि वधारवानी आवश्यक्ता होय तो वेध टालीने समानान्तरे बे वधारवां. एज रीते एक स्तंभ कदापि न देवो. पण २-४-६ आम बेकी रुपे स्तंभो देवो, गर्भवेध न थाय ए वातनुं ध्यान राखq. ___ मंडपोना संबन्धमा सामान्य निरूपण करी सर्व मंडपोर्नु लक्षण, मंडपोनी रचना विधि, स्तभर्नु लक्षण, भींतनुं स्वरूप, भाग संख्यापूर्वक दल विभक्ति, आदि विषयोनुं स्वरूप हवे पछीना सूत्रमा पुष्पकादि २७ मंडपोअपराजित पृच्छाना १८६ मा सूत्रमा आ मंडपोनां नाम अने रचना विधि बतावेल छे, आ बधा गूढ मंडपो छे एटले भद्र, उपभद्र तेमज तेमनो निर्गम आदि पण जाणको आवश्यक तो छेज, छतां आ सूत्रमा ए विषयर्नु निरूपण नथी. आथी समरांगणसूत्रधार उपरथी आ प्रकारनी आवश्यक वातोनी चर्चा करी पछी मंडपोर्नु निरूपण करीशु. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० १ पुष्पक- मंडप " चतुरस्रीकृते क्षेत्रे, दशधा प्रविभाजिते । भागैश्चतुर्भिद्रं स्याद्, द्वौ भागौ प्रतिभद्रकम् । । ५५० ।। अग्रतः पृष्ठतो वापि निर्गमो भागिको भवेत । भद्राणां निर्गमो भागं, सार्वभागमथापि वा ॥ ५५१ ॥ प्रासादस्य त्रिभागेन, चतुर्भागेन वा भवेत् । अर्धेनाथ षडंशेन, चतुर्भागेन वा भवेत् ॥५५२॥ अर्धेनाथ षडंशेन, पञ्चांशेनाथ निर्गतिः । प्रासादानां समा कार्या, पादोना वा प्रमाणतः ॥ ५५३ ॥ कार्या विभागहीना वा, मण्डपास्तु समैः क्षणैः । स्वविस्तारसमं भद्रे मुखे चैषा प्रकीर्तिता ॥ ५५४॥ कर्णा द्विभागिका ज्ञेया स्तेषां कोणचतुष्टये । वाम - दक्षिण भागाभ्यां सहभद्रं षडंशकम् ।।५५५ ।। प्रतिभद्रे न चैतस्मिन् विदध्यादयपृष्ठयोः । चतुःषष्ठिधरोऽयं स्यात्, पुष्पको नाम मण्डपः ॥५५६॥ 5 [ कल्याण - कलिका - प्रथमखण्डे - भा०टी० - चोरस बनावेल मंडपभूमिना दश भाग करवा, ते पैकीना ४ भागनुं भद्र अने २ भागनुं प्रतिभद्र कर, आगल अने पाछल भद्रनो निर्गम १-१ भागनो करवो, सामान्य रीते मंडपना भद्रोनो निर्गम ९ भागनो १|| भागनो अथवा प्रासादना वीजा भागनो वा चोथा भागनो होइ शके, वली प्रासादमानथी अर्ध भागे, षष्ठ भागे, पंचम भागे, समान भागे, एक तृतीयांशहीन अथवा तो पोणा भागे पण मंडपनो निर्गम होय छे. मंडपो समक्षण करवा अने मुखभद्र विभागे एमनो निर्गम दलना विस्तारने अनुसरीने करवो. मंडपना चारे खुणे २-२ भागना कोणा अने डाबा Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] २२१ जमणा विभागो सहित ६ भागर्नु भद्र करवू, आ मंडपना आगलना तथा पाछलना भद्रोने प्रतिभद्रो न करवा, आवो ६४ स्तंभनो पुष्पक नामक मंडप बनाववो. २ पुष्पभद्र-. त्रण दिशाओनां भद्रोने प्रतिभद्रो लगाडवा अने प्रासादमुखे केवल प्राग्नीव लगाडवाथी पुष्पभद्र नामनो ६२ स्तंभनो मंडप बने छे. सुप्रभपुष्पकमांथी ४ स्तंभ ओछा करतां ६० स्तंभनो सुप्रभ नामनो मंडप बनावो. __ एज प्रमाणे २-२ स्तंभो ओछां करता उक्त दल विभक्तिना २० सुधीनां मंडयो बनाववा. सुग्रीव मंडपना भद्रो ४ भागनां अने कोणो ३-३ भागना करवा, भद्रोनो निर्गम पूर्व कह्या प्रमाणे ज करवो. __समरांगण सूत्रधारना उक्त वर्णनथी समजाय छे के पुष्पकथी विमानभद्रमुधीना मंडपोनी दल रचना पुष्पकनी रचनाने अनुसरीने करवानो छे ज्यारे सुग्रीव पछीना मंडपोनी दलविभक्ति सुग्रीवना जेवी करवी एवो उक्तग्रंथनो आशय समजाय छे. . हवे अपराजित पृच्छाना पाठ उपरथी पुष्पकादि २७ मंडपोर्नु वर्णन जोइये, आ ग्रन्थमां पण मंडपोनो नाम क्रम तो पुष्पकथी ज शरु थाय छ पुष्पकः पुष्पभद्रश्च, सुप्रभो मृगनन्दनः । कौशल्यो बुद्धिसंकीर्णो, गजभद्रो जयाह्वयः ॥५५७॥ श्रीवत्सो विजयश्चैव, वस्तुकीर्णश्च श्रीधरः । यज्ञभद्रो विशालाख्यः, सुश्रेष्ठः शत्रुमर्दनः ॥५५८॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરર [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भूजयो नन्दनश्चैव, तथा विमानभद्रकः । सुग्रीवो हर्षणश्चैव, कर्णिकारः पदाधिकः ॥५५९॥ सिंहश्च सिंहकोभद्रः, सुसूत्राख्यस्तथैव च । इत्येते मंडपाः प्रोक्ताः सप्तविंशतिसंख्यया ॥५६॥ भा०टी०-१ पुष्पक, २ पुष्पभद्र, ३ सुप्रभ, ४ मृगनन्दन, ५ कौशल्य, ६ बुद्धिसंकीर्ण, ७ गजभद्र, ८ जय, ९ श्रीवत्स, १० विजय, ११ वस्तुकीर्ण, १२ श्रीधर, १३ यज्ञभद्र, १४ विशाल, १५ सुश्रेष्ठ, १६ शत्रुमर्दन, १७ भूजय, १८ नन्दन, १९ विमानभद्र, २० सुग्रीव, २१ हर्षण, २२ कर्णिकार, २३ पदाधिक, २४ सिंह, २५ सिंहक, २६ भद्र अने २७ सुसूत्र; आ सत्तावीश मंडपोना नामो छे. ___ मण्डपोनां नामो तो अनुक्रमे जणाव्यां पण आनी रचना विधि विपरीतकमे लखी छे, कारण के छेल्ला मंडपथी बन्छ स्तंभो वधारतां पहेला मुधी आववाथी निरूपण थोडा शब्दोमां सुगमतापूर्वक करी शकायुं छे एवं प्रथमथो अंतिम सुधी जतां थवू अशक्य हतुं एटले ग्रन्थकारे आ विपर्यास स्वीकार्यों छे, आ वस्तुने न समजता केटलाक आधुनिक शिल्पिओ आ निरूपण क्रमिक गणी पुष्पकादि क्रमथी मंडपोने जोडे छे अने एज प्रकारना नकशा आपे छे जे खरा नथी. चतुरस्रीकृते क्षेत्रे, त्रिधा नवपदाङ्किते। कर्णे स्तम्भाश्च चत्वारो, हो हो भद्रे सुसूत्रके ॥५६१॥ अष्टांशपदयुक्ताश्च सूर्यस्तंभाः सुसूत्रके। प्राग्रीवाग्रे पदमेकं, स भवेद् भद्रसंज्ञकः ॥५६२॥ तद् भद्रं च परित्यज्य, सिंहः सोऽन्तश्चतुष्किकः । प्राग्रीवादग्रयुक्ताच, सिंहकाख्यः स उच्यते ॥५६३॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद - लक्षणम् ] २२३ चतुष्कों मध्यतस्त्यक्त्वा, प्राग्रीवाश्च चतुर्दिशम् | पदाधिको नामतोऽग्रे त्रिपदः कर्णिकारकः ||५६४ ॥ भा०टी० - चोरस बनावेला क्षेत्रने त्रण वार त्रण त्रण पदो पाडीने नवपदो बडे चिह्नित कर ते क्षेत्रना ४ कोण विभागोमां ४ स्तंभो अने तेना ४ भद्र विभागोमा २-२ स्तंभो देवाथी १२ स्तंभवालो 'सुसूत्र मण्डप' बने छे सुसूत्रमण्डपमां ८ पदयुक्त अर्थात् ८ पदोने स्पर्शता फरता १२ स्तंभो आवे छे. द्वारनी तरफ प्राग्रीवरूपे एक पद वधारीने १४ स्तंभनो " भद्रनामक मंडप बनाववो. 6 आगला भद्रभागनुं पद हटावी कोलीने आगे चोकी करवाथी ३ पदो पडी सिंह मंडप तैयार थशे. द्वार तरफ २ स्तंभोवडे प्राप्रीव aurant ए सिंहो ज ' सिंहक ' नामनो मंडप थाय छे. अंदरनी चोकी काढी नाखीने च्यारे दिशाओमां भद्रो मध्ये प्राग्रीवो करवाथी ' पदाधिक' मंडप बने छे. पदाधिकनी आगे त्रणपदो पाडवाथी 'कर्णिकार' नामनो मंडप बने छे. त्रिपदे पदमेकं च चतुष्कं हर्षणो मतः । सुग्रीवस्त्रपदाग्रे चाऽपरे विमान भद्रकः ॥५६५ ॥ दद्यात्पक्षेऽपरे त्यक्त्वा, नन्दनः सर्वकामदः तदाऽपरे भूजयः स, परित्यक्तचतुष्किकः ॥ ५६६ ॥ पदिका पूर्वभद्रे च कर्णेऽलिन्दश्चतुर्दिशम् । स शत्रुमर्दनः ख्यातः सुश्रेष्ठश्चाऽपरे यदि ॥ ५६७॥ भा०टी० - त्रिपदने आगे वे थांभला वधारी एक पदनी चोकी करवाथी ए मंडपनुं नाम ' हर्षल ' पड़े छे. हर्षणनी अग्र चोकीनी बने तरफ थांभला वधारी त्रिपद करवाथी ' सुग्रीव ' मण्डप बने छे. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे पाछल बे चोकीओ वधारी त्रिपद पाडवाथी एज मंडप 'विमानभद्र' एवं नाम धारण करे छे. पाछुलनां त्रिपदो हटावी डाबी जमणी तरफ त्रिपदो करवां एटले सवैच्छापूरक 'नन्दन' नामनो मंडप बनशे, ___नन्दनना पाछला भागे पण त्रिपद करवाथी 'भूजय' बने अने भूजयनी चोकीओ काढो नाखीने पूर्वभद्रमां एक पद राखी च्यारे खूणाओमा १-१ वोकी पाडवाथी ते 'शत्रुमर्दन' नामक मंडप बने छे, ए शत्रमर्दनना पाछला भागे १ पद वधारवाथी एज मंडपर्नु नाम 'सुश्रेष्ठ ' पडे छे.. कुर्यात् पक्षेऽपरे त्यक्त्वा, विशालाख्यः स उच्यते । तथाऽपरे यज्ञभद्रो, मण्डपः सर्वकामदः ।।५६८॥ त्रिपदाग्रे श्रीधराख्यो, वास्तुकीर्णस्तथाऽपरे । दद्यात् पक्षेऽपरे त्यक्त्वा, विजयो नाम नामतः ॥५६९।। भा०टी०-पाछखें पद हटावी चे बाजुए १-१ पद पाडवाथी सुश्रेष्ठनो 'विशाल' नामक मंडप वनशे अने पाछला भागे पद वधारवाथी 'यज्ञभद्र' नामनो मंडप सर्वकामना पुरनारो बनशे. यज्ञभद्र आगे त्रिपदो पाडवाथी ' श्रीधर' अने पाछल त्रिपदो पाडवाथी 'वास्तुकीर्ण' मंडप बने छे. ए वास्तुकीर्णनां पाछलां त्रिपदोना थांभला हटावी बगलमां त्रिपदो पाडवाथी 'विजय' नामनो मण्डप बने छे. तथाऽपरे च श्रीवत्सः, पदिकाग्रे जयाह्वयः। पदिकं त्यक्तमग्रे तु, चतुष्कं गजभद्रकः ॥५७०।। तथाऽग्रे बुद्धिसंकीर्णः, कौशल्यश्वाऽपरे तथा । दद्यात्पक्षेऽपरे त्यक्त्वा , स भवेन्मृगनन्दनः ॥५७१।। तथाऽपरे सुप्रभस्तु, कर्तव्यः सर्वकामदः । त्रिपदं चाऽग्रमदं च, स भवेत् पुष्पभद्रकः ॥५७२।। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] २२५ पुष्पकः सर्वत्रिपदः, परित्यक्तचतुष्किकः । एवं तु युक्ता विज्ञेया, मण्डपाः पुष्पकादयः ॥५७३॥ भा०टी०-विजयना पाछला भागे पण त्रणपदो पाडतो 'श्रीवत्स' अने श्रीवत्सने आगले भागे एक पद वधारता ते मंडपर्नु 'जय' एवं नाम निष्पन्न थाय छे, जयना आगला पदना २ थांभलाना ४ थांभला करवाथी 'गजभद्र' मंडप बने छे, गजभद्रनी आगल पद वधारवाथी बुद्धि संकीण' अने आगल पाछल एक एक पद वधारतां 'कौशल्य' मंडप बने छे, कौशल्यना पाछला पदने हटावी बने बाजुमां १-१ पद वधारवाथी ' मृगनन्दन' मंडप बने, मृगनन्दनना पाछला भागे पद वधारीए तो 'सुप्रभ' नामक सर्वेच्छापूरक मंडप बने, सुप्रभना आगला भद्रे त्रिपद पाडीने पुष्पभद्र अने सर्वदिशाओमां ३-३ पदो पाडीने 'पुष्पक ' मंडप करवो, एम उपर बतावेली युक्तिवडे पुष्पकादि मंडपो जाणवा. चतुःषष्टिस्तम्भयुक्तः, पुष्पको नाम विश्रुतः। द्वि-द्वि स्तम्भत्यागयुक्त्या, पुष्पाद्याःसप्तविंशतिः॥५७४॥ पुष्पकाद्याश्च युक्ताः स्युः, समैर्वा विषमैस्तलैः। अनुक्रमयुक्तमाये, सप्तविंशतिमण्डपाः ।।५७५॥ समैः क्षणैः समैः स्तम्भैः, समैश्चापि ह्यलिन्दकैः । विषमे तु तुलापट्टे, गृढे चन्द्रावलोकना ॥५७६॥ निगूढे नृत्ये आख्याताऽधस्ताद् भद्रावलोकना। चन्द्रावलोकना जालैः कार्याः कर्णानुगास्तथा ॥५७७॥ निःस्तम्भा भित्तिका भित्ते-रिष्टांशा च चतुष्किका। स्तम्भेषु युग्मस्तम्भाश्च, मूलसूत्रसमुद्भवाः ॥५७८॥ भा०टी०-६४ स्तंभ युक्त मंडप 'पुष्पक' नामथी प्रख्यात छे, बेबे स्तंभ ओछा करतां एकंदर पुष्पकादि २७ मंडपो बने छे. तेने स्पष्ट समजवा माटे निचेनी आकृतिओ उपयोगी बनशेः Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ स्तंभ પ स्तंभ ६४ 「 स्तंभ ६० १ पुष्पक ३. सुप्रभ “ कैलास स्तंभ ४ [ कल्याण- कलिका-प्रथमखण्डे ਕੰਮ ૬૨ स्तंभ ८८ ६. को बुद्धिसंकीर्ण 2 पुष्पभद्र मृगनंदन स्तंभ સર को गजभद्र Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम] २२७ स्तम ५० जय श्रीवत्स 10 विजय स्तम स्तंभ ४० Fat ४४ ११ वास्तुकीर्ण १२ श्रीधर १३ यज्ञभद्र स्म ३८ ૨૬ 32 १४ विशाल पष्ठ १६शत्रुमर्दन Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ३२ १७ भूजय १८ नंदन १७विमानभद्र स्तम २४ा सम २२ ।। २६ 20 सुग्रीव २१ हर्षण २२कर्णिकार स्तमस्तंभ १८ २० १४ २३ पदाधिक २४सिंहक ससिंह २६भन २७ सुसूत्र Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] १सुभद्र रकिरीरी दुभि प्रान्त एमनोहर शान्त सुदर्शन रम्यक १० सुनाभ ११सिंहमंडप १२ सोम मंडप Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे पुष्पकाद्याश्च युक्ताः स्युः, समैर्वा विषमैस्तलैः। अनुक्रमयुक्तमाये, सप्तविंशतिमण्डपाः ॥५७९।। समैः क्षणैः समैः स्तम्भैः, समैश्चापि ह्यलिन्दकैः । विषमे तु तुलापट्टे, गूढे चन्द्रावलोकना ।।५८०॥ निगूढे नृत्ये चाख्याताऽधस्ताद् भद्रावलोकना। चन्द्रावलोकना जालैः, कार्याः कर्णानुगास्तथा ॥५८१॥ निःस्तम्भा भित्तिका भित्ते-रिष्टांशा च चतुष्किका। स्तम्भेषु युग्मस्तम्भाश्च, मूलसुत्रसमुद्भवाः ॥५८२॥ __ भाटी०-पुष्पकादि मण्डपो समतल उपर होय अथवा विषमतल उपर होय; पुष्पक नामा प्रथम मण्डपना विधानमां बतावेल क्रम प्रमाणे मण्डपोर्नु निर्माण करवू; मण्डपोना क्षणो स्तंभो अने अलिन्दो सम राखवा, विषमतल उपर गूढ मण्डप करवो, तेमां चन्द्रनो प्रकाश पडी शके एवां भद्रविभागे चन्द्रावलोकनो (बारिओ) मूकवां. ___'गूढ मंडपे' अने 'नृत्य मंडपे' मंडपना निचला भागमा बारियो मूकवी. विशेष प्रकाशनी आवश्यकता होय तो बे कोण विभागोमां जालिओ मूकीने तेनी सगवड करवी, जगतीनी दीपालग स्तंभ देवा नहि, कदापि मंडा ने भों। कचे अवकाश अधिक होय तो सम संख्याए स्तंगो मारी तेना आधारे पदना विस्तार प्रमाणे चोकियो पाडवी, चोकियो माटेना स्तंभो समसंख्याक होवा जोइये अने चोकियोनो विस्तार मूल सूत्र अनुसारे करवो जोइए. क्षणमध्येषु सर्वेषु, स्तम्भमेकं न दापयेत् । युग्मं च दापयेत्तत्र, वेधदोषविवर्जितम् ॥५८३॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] २३१ मूलस्तंभे यथासूत्रं, स्तंभो देयश्च मण्डपे । तदा नगरनृपेन्द्र-यजमानजयः सदा ॥५८४॥ उत्पद्यते स्तंभवेधे, पद्मिनी नाम राक्षसी। पीडयेत् पुर-राजादीन् , वास्तुवेदैरुदाहृतम् ॥५८५॥ द्वि-द्वि-स्तंभहासयोगे, चतुः षष्टयाश्च द्वादश । पुष्पकाद्या इमे प्रोक्ताः, सप्तविंशतिमण्डपाः ॥५८६॥ भाण्टी०–कोइपण क्षणमा एक स्तंभ न देवो, पण बे चार इत्यादि समसंख्याए वेधदोष टालीने देवा. प्रासादना मूलमूत्रे जे स्तंभ होय तेज सूत्रे मंडपनो स्तंभ देवो, जेथी नगर, राजा अने यजमान सर्वनो सदाकाल जय थाय. स्तंभ देवामां क्यांइ पण वेधदोष उत्पन्न थवा न देवो, केमके स्तंभवेधदोषथी 'पद्मिनी' नामनी राक्षसी उत्पन्न थाय छे, जे नगरजन तथा राजा आदिने पीडा उत्पन्न करे छ, आम शिल्पशास्रना ज्ञार ओए कयुं छे. आम आ सूत्रमा बेबे थांभला घटाडीने ६४ थी १२ थांभला सुधीना पुष्पकादि २७ मंडपो कह्या. स्तंभोना प्रकारो अने जाडाइरुचका भद्रकाश्चैव, वर्धमानास्तृतीयकाः । अष्टास्रा:स्वस्तिकाश्चैव, स्तम्भाः प्रासादरूपिणः ॥५८७।। चतुरस्राश्च रूचका, भद्रका भद्रसंयुताः । वर्धमानाः प्रतिरथै-रष्टांशैश्चाष्टानकाः ॥५८८॥ आसन्धोर्वे भवेद् भद्र-मष्टकर्णैस्तु स्वस्तिकाः। प्रकर्तव्याः पञ्चविधाः, स्तम्भाः प्रासादरूपिणः ॥५८९॥ प्रासादस्य दशांशेन, स्तम्भानां विस्तरः पृथक् । एकादशांशः कर्तव्यो, द्वादशांशेरथोच्यते ॥५९०॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-क - कलिका - प्रथमखण्डे , त्रयोदशांशैः कर्तव्यः शक्रांशश्च तथोच्यते । एतन्मानं समुद्दिष्टं स्तंभानां विस्तरे पृथक् ॥ ५९१ ।। २३२ , भा०टी० - १ रुचक, २ भद्रक, ३ वर्धमान, ४ अष्टात्र अने ५ स्वस्तिक; आम पांच प्रकारना स्तंभो होय छे, प्रासादने अनुरूप स्तंभो करवा. चोरस स्तंभो 'रुचक, ' भद्रसहित होय ते 'भद्रक,' प्रतिरथ सहित होय ते 'वर्धमान, ' अष्टवांस होय ते ' अष्टास्र ' तथा पीठ उपर निचला भागमां भद्रवाला अने उपर जतां आठ कोणवाला होय ते स्तंभो ' स्वस्तिक ' कहेवाय छे; प्रासादना रूप प्रमाणे उपर्युक्त पांच प्रकारना स्तंभो करवा. स्तंभोनो विस्तार प्रासाद विस्तारना दशमा, अग्यारमा, बारमा, तेरमा, अथवा चौदमा भागे करवो, आम स्तंभोना विस्तारनुं भिन्न भिन्न मान शास्त्रमां जणावेलुं छे. (प्रासाद जेम विस्तारे अधिक होय तेम तेना स्तंभनो विस्तार उपरना माने करवो ए तात्पर्य छे. ) प्रकारान्तरे स्तंभोनी जाडाई प्रासादे एकहस्ते तु स्तंभो वा चतुरंगुलः । द्विहस्ते चांगुलाः सप्त, त्रिहस्ते नव एव च ॥५९२॥ ततो द्वादशहस्तान्तं, हस्ते हस्ते हयांगुला । सपादांगुल वृद्धि:स्याद् यावत्षोडशहस्तकम् ॥ ५९३ ॥ अंगुलैका ततो वृद्धि - चत्वारिंशत्करावधि । तदूर्ध्वे च शतार्धान्तं, पादोनांगुलिका भवेत् ॥ ५९४ ।। " भा०टी० - १ हाथना प्रासादना स्तंभनी जाडाई ४ आंगलनी, २ हाथना प्रासादना स्तंभनी जाडाई ७ आंगलनी अने ३ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] २३३ हाथना प्रासादना स्तंभनी जाडाई ९ आंगलनी करवी. ते पछी ४ थी १२ हाथ पर्यन्तना कोइ पण मापना प्रासादना स्तंभनी जाडाईमा प्रतिहस्त २-२ आंगलनी वृद्धि करवी, जेम के ४ हाथना प्रासादे स्तंभ ११ आंगलनो, ५ हाथना प्रासादे स्तंभ १३ आंगलनो करवो. इत्यादि; १२ पछी १३ थी १६ हाथ सुधीना प्रासादना स्तंभनी जाडाइमां हाथ प्रति १। आंगलनी वृद्धि अने १७ थी ४० हाथ सुधीना प्रासादना स्तंभनी जाडाइमां प्रतिहस्त १-१ आंगलनी वृद्धि करवी; ते पछीना ४१ थी ५० हाथ सुधीमा प्रतिहस्ते तंभनो विस्तार ०-०। (पोणो) आंगल वधारवो. स्तंभनी जातिओरुचकश्चतुरस्रः, स्यादष्टास्सिर्वज्र उच्यते । द्विवज्रः षोडशास्रिश्च, प्रतीतो द्विगुणस्ततः ।।५०५।। मध्यप्रदेशे यः स्तंभो, वृत्तो वृत्तः प्रकीर्तितः । भाण्टी -चोरस स्तंभ 'रुचक', अष्टकोण 'वज्र'. पोडशकोण 'द्विवन' अने बत्रीश कोणवालो स्तंभ 'प्रतीत' एवा नामे ओलखाय छे, जे स्तंभ मध्यभागमा गोल होय ते 'वृत्त' स्तंभ कहेवायो छे. __ मंडप-भद्र-विस्तारस्तंभसूत्रस्य मार्गेण, क्षणो मण्डपमध्यगः ॥५९६।। मूलप्रासादमार्गेण, कार्या वा भद्रविस्तृतिः । शेषाः क्षणा विधातव्याः, समसंख्याःक्षणैर्धरैः ॥५९७।। भा०टी०-मंडपनो मध्य क्षण स्तंभसूत्रानुसारे विस्तृत करवो, अथवा तो मूलप्रासादना माने मंडपना भद्रना क्षणनो विस्तार करवो, बीजाक्षणो-क्षणो अने स्तंभोवडे समसंख्याक करवा. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરૂક [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे - पाट, स्तंभ अने शरानो विस्तारपृथुत्वं स्यात् सषड्भाग-पिण्डतुल्यं तु पट्टके । स्तंभः पट्टसमः कार्य:, शीर्षकं त्रिगुणं ततः ॥५९८।। __ भा०टी०-पाटडानो विस्तार तेनी जाडाइना छट्ठाभाग जेटलो अधिक करवो, स्तंभनी जाडाई पाटडानी जाडाइ जेटली करवी, अने शरु स्तंभथी त्रणगणुं विस्तारे करवू. - द्वादश त्रिक मंडपोसुभद्रश्च किरीटी च, दुन्दुभिः प्रान्त एव च । मनोहरश्च शान्तश्च, नन्दाख्यश्च सुदर्शनः ॥५९९।। रम्यकश्व सुनाभश्च, सिंहः सूर्यात्मकस्तथा । निगूढाग्रे त्रिकाख्याना, द्वादश मुखमण्डपाः ॥६००॥ निगूढद्वारस्याग्रे तु, चतुष्किकैवमग्रतः । सुभद्रो नाम विज्ञेयो, मण्डपः सर्वकामदः ॥६०१॥ उभौ कक्षो पुनर्दद्यात् , किरीटी नाम संज्ञितः । दुन्दुभिरेकः पूर्वश्च, तथोभौ प्रान्त उच्यते ॥६०२।। पूर्वे चतुष्किकायां च, मनोहरश्च कामदः। शान्तश्चैतदुभोपेतः, स्तम्भैईयष्टभिरेव च ॥६०३॥ __ भाटी०-१ सुभद्र, २ किरीटी, ३ दुंदुभि, ४ प्रान्त, ५ भनोहर, ६ शान्त, ७ नन्द, ८ सुदर्शन, ९ रम्यक, १० सुनाम, ११ सिंह अने १२ सूर्यात्मक गूढमंडपनी आगल त्रिक नामथी ओलखाता आ १२ मुखमंडपो होय छे. गूढ मंडपना द्वारनी आगल मात्र एक चोकी बनाववी तेनुं नाम 'सुभद्र' नामक मंडप अने सुभद्रना बंने बगलमां चोकीयो पाडी Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] २३५ त्रिचोकियुं करवु ते 'किरीटी' मंडप जाणवो. त्रिचोकियानी आगल एक चोकी वधारवाथी चउचोकियु बने तेनुं नाम 'दुंदुभि' मंडप. दुंदुभिनी आगेनी चोकिनी बंने बाजु १-१ चोकी वधारी छचोकियुं बनावq तेनुं नाम 'प्रान्त' मंडप. प्रान्तनी आगे सातमी चोकी करवाथी पांचमो 'मनोहर' मंडप बनशे अने मनोहरनी अग्रचोकीनी बगलमां १-१ चोकी वधारी नव चोकियु बनाववाथी छट्ठो 'शान्त' मंडप बनशे; आ मंडपमां बधा मलीने १६ स्तंभो लागशे, मूलप्रासादथी त्रिमंडपोनो निर्गम विस्तारमा बेगणो करवो, आम आ छठा मंडपनी लंबाइ अने पहोलाइमा ३-३ चोकियो थशे. एवं त्रिकाः समाख्याताः, प्रासादपीठमस्तके । पुनरेव प्रवक्ष्यामि, तद्विधान् षट् च मण्डपान् ॥६०४॥ तस्य बाह्ये पुनर्दद्यात्, प्रत्यलिन्दाननुक्रमात् । चतुष्कीक्रमयोगेन, मण्डपान् षट् च लक्षयेत् ॥६०५।। । भा०टा०-आ प्रमाणे प्रासादनी पीठने मथारे थनारा छ त्रिक मंडपो कह्या, वली एज प्रकारना बाकीना छ मंडपो हवे कहुं छु. पूर्वोक्त शांतमंडपना बाह्य भागे अनुक्रमे अलिन्दो देवा, एटले चोकियो पडतां एक पछी एक छ मंडपो नीचे प्रमाणे बनशे. तस्याग्रे चतुष्किकायो, नन्दाख्यः सर्वकामदः । त्यक्त्वाग्रे चोदरे गर्ने, दद्याच्चैव सुदर्शनः ॥६०६।। उभौ कक्षौ पुनश्चाग्रे, रम्यक समुदाहृतः । अग्रे दि चतुष्किकाभ्यां, सुनाभो नाम संमतः ॥६०७॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे कुक्षी पक्षेऽलिन्दयुक्ते, सिंहनामा स उच्यते । मुक्तकोणाकृतिः स्थित्या, पूर्णकर्णः सूर्यात्मकः ॥६०८॥ पृथुत्वं च तलोद्भवं, चतुःक्षणाग्रनिर्गमः । क्षणे क्षणे चतुष्किकायां, वितानं संवरणोदय ॥६०९॥ भा०टी०-ते शान्तमंडपना नव चोकियाना अग्रभागे चोकी वधारवाथी ७ 'नन्द' नामनो मण्डप बने छे. आगेनी चोकी हटावी बच्चेना त्रण चोकियानी बने तरफ १-१ चोकी वधारवाथी ८ 'सुदर्शन' मंडप बने छे. बगलमा फरि बे चोकियो वधारी १ चोकी आगे वधारतां जे मण्डप बने छे तेनुं नाम ९ 'रम्यक' मण्डप छे. आगलनी चोकिना बगलमां बे चोकी वधारी त्रण चोकियुं करवाथी १० 'सुनाभ मण्डप बने छे. पाछलना त्रण चोकियानी बगलमां बे चोकियो पाडवाथी ११ 'सिंह' नामक मण्डप बने छे, आ मण्डपनी स्थिति आगलना भागे कोणहीन बने छे, ज्यारे आगलनी बगलनी चोकियो वधारी पूर्ण मण्डप करवो ते १२ 'सूर्यात्मक' मण्डप कहेवाय छे. आ त्रिक मण्डपोनो विस्तार नाल मण्डप जेटलो करको अने आगल-नृत्यमण्डपनी तरफ च्यार क्षणो वधारवा; प्रत्येक क्षणनी चोकियोमा वितान अने उपर सांमरण अथवा गुमटिओ करवी. मण्डपोना संबन्धमा प्रकीर्णक वातो-गूढ मण्डपनी भींत अने द्वार विषेभित्तिः प्रासादमानेन, पीठान्तोत्तानपट्टका । एकं वा त्रीणि वा कुर्यात्, द्वाराणि तत्र सर्वदा ॥६१०॥ भाण्टी०-गूढ मण्डपनी भींत प्रासादना माने करवी, पीठना मयाराथी उपरना पाटडा सुधी भींत ऊंची करवी, गूढमण्डपने द्वार Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] एक अथवा त्रण करवां. शुकस्तंभानुसूत्रेण, अष्टांशांभित्तिमाचरेत् । मध्यपीठोच्छ्योत्सेधा, मण्डपाद्याः समस्तकाः ॥६११॥ __ भा०टी०-शुकनासना स्तंभमध्यना अष्टमांश जेटली तेनी भीत विस्तारे करवी. प्रासादो, गूढ मण्डपो, त्रिकमण्डपो, आदि सर्वनी ऊंचाई प्रासाद पीठना मध्यपासाना मथाराथी गणवी. अष्टांशवृत्तोर्वतश्च, वितानान्ता समुच्छ्रितिः ।। चतुष्किका याम्योत्तरे, चाग्रेऽथ द्वारि सोच्यते ॥६१२।। भा०टी०-मण्डपनी ऊंचाई अष्टास्रथी वितान सुधी जाणवी, गूढ मण्डपना डावा जमणा अने सामेना द्वार उपर चोकियो करवी. प्रासादे द्वारशाखाया, तद्विधा मण्डपादिके । करोटकं तदूर्व, बुधा (वृत्त) बंधात्तु कारयेत् ॥६१३॥ __ भा०टी०-प्रासादना द्वारनी शाखा जेवी ज मण्डप आदिना द्वारनी पण शाखा करवी, अने उपर मण्डपना वृत बन्धथी करोटक करावq. बारी अने जालीवातायनाश्च कर्तव्याः, सह चन्द्रावलोकौ । प्रासाद्वारवद् द्वार-विस्तरो मंडपे भवेत् ॥६१४॥ भा०टी०-मण्डपोने हवा माटे बारीओ करवी अने प्रकाश माटे जालिओ (तावदानो) पण करवां, प्रासादना द्वार विस्तार जेटलो मण्डपद्वारनो विस्तार पण होय छे. सपादद्विगुणाः सार्ध-द्विगुणाः सान्तरोद्भवाः । क्षुद्रप्रासादकेषु स्यु-मण्डपा बहवोऽपरे ॥६१५॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे क्षेत्राऽलाभे तु पुन-रिमान् सर्वेषु योजयेत् ।। भा०टी०-न्हाना देवालयोमा सवा बे गणा, अढी गणा, अने एनी वच्चेना मानना, बीजा अनेक मण्डपो थाय छे अने स्थानना अभावे बीजा देवालयोमा पण आ वधा मण्डपो करी शकाय छे. द्विस्तंभः शुकनासाग्रे, विज्ञेयः पादमण्डपः । प्रासादभित्तिमानेन, मण्डये भित्तयः स्मृताः॥६१६॥ भा०टी०-शुकनोसनी आगल बे थांभला उभा करी चोकी पाडवी तेनुं नाम 'पोदमण्डप' कहेवाय छे, प्रासादनी भित्तिनी जाडाई प्रमाणे ज मण्डपनी भौंतोनी जाडाई कही छे. शतमष्टोत्तरं ज्येष्ठ-श्चतुःषष्ठिकरोऽवरः । कनिष्ठो मण्डप कार्यों, द्वात्रिंशत्करसंभितः ॥६१७।। __ भा०टी०-ज्येष्ठ मण्डप वधारेमां वधारे १०८ हाथनो करवो, मध्यम मण्डप वधुमां वधु ६४ हाथनो अने कनिष्ठ मण्डप अधिकमां अधिक ३२ हाथनो करवो. चतुःषष्टिपदे ज्येष्ठे, भद्रं कुर्यात् चतुष्पदम् । एकाशीतिपदे मध्ये, भद्रं स्यात् पञ्चभागिकम् ॥६१८॥ शतभागविभक्त तु, षडंशं स्यात् कनीयसि । कर्णा द्विभागिकाः कार्या, भित्तियुक्तश्च मण्डपः॥६१९॥ भा०टी०-ज्येष्ठ मण्डपनी भूमिमा ६४ पद पाडी ४ भागर्नु भद्र, मध्यमण्डपना क्षेत्रमा ८१ पद पाडी ५ भागर्नु भद्र अने कनिष्ठमण्डपना तलनां १०० पद पाडी ६ भागनुं भद्र करवू, पण कर्ण तो सर्वमा २-२ पदनाज करवा; आ प्रमाणे भित्तियुक्त गूढ मण्डप करवो. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] क्षुरकं कुंभकलशौ, कपोतं जंघया सह । प्रासादस्यानुरूपेण, मण्डपेष्वपि कारयेत् ॥६२०॥ भा०टी०-खुरो, कुंभो, कलशो, केवाल अने जांघ; आ थरो गूढ मण्डपोमां पण प्रासादना जेवा करवा. परिच्छेदनो उपसंहारप्रासाद-वास्तुने अंगे लखवानुं घणुं छे, अमोए समुद्रमांथी छांट जेटलं ज अत्र लख्यु छे, एक परिच्छेद के प्रकरणमा आथी अधिक लखवाने अवकाश पण न होय ए देखीती वात छे तेथी प्रासाद-लक्षण अहीं ज पूर्ण करीये छीये. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणे परिशिष्ट-नं. ३ द्वारे दृष्टिस्थान-ज्ञापक कोष्टकम् । द्विारोद- अधः उपरि छिपदम | आयः । आयस्थानम् यांगुल | ५४भागा| ९ भागा ४१ २४॥॥ ५॥ 1 ॥ सिंह आदि 111 भा० ४३ | ३६०॥ ६)॥ ॥ वृषभ संपूर्णे ४५ ३७॥॥ ६ ॥ गज आदि०॥ विना ४७ ३९॥ ॥ ६॥ ॥ ध्वज आदि । विना ४९ ४१-६ ० सिंह अन्त्ये | ५१ ४३)॥ ७) 0 ०॥ श्वान | संपूर्णे ५३ ४४॥ ॥ ७ = || वृषभ आदि ।- भा० ५५ ४६। | ७॥ ॥- गज आदि ॥॥ ५७ ४८- ८)। ॥ ध्वज संपूर्णे ५९ ४९॥ ०॥ ८ ॥ ॥ सिंह आ. = विना ६१ ५१॥ ॥ ८|| वृषभ अं.i n ६३ ५३ ॥ ८॥॥ ॥ गज अं. ६५ ५४॥ ९) १) । गज आ. मा ६७ ५६॥०॥ ९ ॥ १) ।। ध्वज आ. ६९ ५८ ॥ ९॥ १-1) सिंह आ. In ७१ ५९॥ ९॥ १-1) वृषभ आ. ७३ ६१॥ ॥ १०॥ 01 १०) आ. 1-11 __ ७५ ६३। ०॥ १०॥०॥ १०॥) ध्वज अं. - ७७ ६४॥ १०॥1- 1 १०1) ध्वज आ. ०।। ७९ ६६॥ ॥ ११)-।।। १ ) सिंह । आ.। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारे दृष्टिस्थान - ज्ञापक कोष्टकम् । उपरि ९ भागा ११ | अधः द्वारोदयांगुल ५४ भागा ८१ ६८| ० | ८३७० ) ।। ८५ ७१ ॥ = ॥ ११॥ ११॥ ८७ ७३ । । १२ = ॥ ८९ ७५ ।। १२॥ ०१ ९१ | ७६ | | | ० || १२ | | | ० ||| ९३ |७८| || १३ ९५ ८० ॥ १३ ९७ | ८१ ॥ ॥ - ॥ १३॥ ||| = | | ॥ च = | || ९९ |८३।। ० ।। १३ ।। १०१ ८५ = || १४ | १०३ ८६ ।। ८ । । १४८ ॥ १०५ ८८ || - || १०७ ९० । ० ।। १०९ ९१ ॥ ॥ ८ ॥ १५ १४ || | ० || १५) ॥ दृष्टिपदम् आयः १० १ | ० || ११ 1 १| || १। च १ | ८ || ११ च १८ ! || १|| | १ | | ० || १|| → 811-11 १|| | १|| = | | | १ ॥ | आयस्थानम् वृषभ आ. || || भागे गज आ. || || ध्वज आ. | ० || विना सिह आ. ॥ ॥ विना वृषभ आ. ||| || विना वृषभ आ. || गज आ. ॥ ०॥ ध्वज आ. ॥|| || सिंह आ. ऋषभ आ. | वृषभ आ. | ०॥ विना सं. अंगुले १११ ९३ ॥ = ॥ १५॥ || १||||| गज आ । ॥ विना सं. अंगुले ११३ ९५| || १५ ॥ १ || | ० | ध्वज आ. ॥ ॥ विना सं. अंगुले ११५ ९७ ) ॥ १६ ॥ ॥ १||०||| सिंह आ. || || विना विना || विना गज आ. ॥ | विना गज आ. - || अं. ॥ ० ध्वज आ. | | अं. सिंह आ. ॥ ॥ भागतका Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणे परिशिष्ट नं. ४पञ्च खण्डादयः-२५ रेखाः सकलाः | | | | ७ । ७ ८ ८ ८ ९ ९ ९ १० ११ १२ | ७८ FREECEEEEEEEE | | १० १४ | १ २ a la la أما ماما ماما امام ما | १२ | १६ । ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ |urur | ماماماما يامام | । १६ । २० । १ | १७ २१ | १ | १८ २२ १ २ २ २ ३/ ३ ३ ४ ४ ५ ५ ६ ६ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ alalalalala | २० २४ १ २ ३ | २१ २५ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ | २२ २६ | १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ | २३ | २७ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ २४ २८ | १ २ ३ ४ र ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ |२५| २९ । शश ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ । १३ १४ اما م ا م ا م ا م ا م vivivivivi Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ नागरी रेखाओ ( खंडकला सहित ) ૨૬ ૨૭ ૨૮ ૨૨ ૨૦ રરરર ! ૧ ૨૬ ૨૭ ૨૮ ૨૨ ૨૦ રર રર રરૂ | ૨૯ ૨૬ ૨૭ ૨૮ ૨૨ ૨૦ ૨૧ ૨૨ ૨૩ ૨૪ ૨૦૦ ૨૯ ૨૬ ૨૭ ૨૮ ૨૨ ૨૦ રર રર રરૂ ર રરરક | | ૨૬ / ૨૭ ૨૮ ૨૨ ૨૦ ર રર રર રર રજા રદ્દ રૂરી ૯) ૨૬ ૨૭ ૨૮ ૨૨ ૨૦ ર રર રર રર રરક રદ ર૭૩૭૮ ૨૬ ૨૬ ૨૭ ૨૮ ૨૨ ૨૦ ર રર રર ર ર ર૬ ૨૭ ૨૮૪૬ ૬૧ | ૨૬] ૨૭ | ૨૮ ૨૧ ૨૦ ર રર રરૂ ર ર ર ર૭ ૨૮ રાજરૂ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेद १० कलश-लक्षणप्रासादमस्तके मौलि-रूपः कुम्भो निगद्यते । तस्मात् सल्लक्षणं कुम्भं, कारयेद् विधिवित्तमः ॥२९॥ भा०टी०-कलश प्रासादना मस्तक उपर मुकुट रूप कहेवाय छे माटे विधिना जाणनारे कलश उत्तम लक्षणान्वित बनाववो. देहराना शिखर उपरना कलशनुं लक्षण अने परिमाण शिल्प शास्त्रोमां देहराना मान अने जानिने अनुसारे भिन्न भिन्न प्रकारचं कहेलुं छे. १-नागर, लतिन, सांधार, मिश्रक, विमाननागर, विमानपुष्पक अने धातुज, रत्नज, दारुज, रथारुह आदि, आ जातिना प्रासादोना कलशोनां परिमाण नीचे मुजब ३ प्रकारनां होय छे. (१) नागरादिनो प्रासादना विस्तारथी आठमा भागनो कलशनो विस्तार मध्य भागे करवो अने रत्ननादिनो एथी सवायो करवो, कलशनुं आ जघन्यमान गणाय छे. आमां सोलमो भाग उमेरवाथी तेनुं उत्तम मान अने बत्रीसमो भाग उमेरवाथी मध्यम मान थाय छे. (२) प्रासादनी मूलरेखाथी पांचमाभाग जेटलं पण कलशन मान होय छे; आ कलशनां माननो बीजो प्रकार छ जे बृहत्प्रासादोनां कलशोने माटे उपयोगी होय छे. (३) आंबलसारानो विस्तारना ४ भाग करी तेना १ भागने सवायो करतां जे मान आवे तेना बरोबर पण कलशनो विस्तार थाय छे. (४) वराट, द्राविड, भूमज, विमानोद्भव अने सर्व प्रकारना वलभीप्रासादोना कलशोनुं विस्तार मान प्रासादना व्यासना छट्ठा भाग जेटलु होय छे, आ मध्यम मान छे आने स्वषष्ठांश युक्त कर Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश-लक्षणम् ] वाथी उत्तम अने षष्ठांश हीन करवायी कनिष्ठ मान गणाय छे. आजकाल कलशमानमा चालती भूलउपर नागरादि जातिना प्रासादोना कलशोनां भिन्न भिन्न मानो अने ते प्रत्येकना उत्तम मध्यम कनिष्टादि भेदो लख्या छे छतां आज कालना कारीगरो तेनो कंड पण उपयोग करना नथी. अने सर्व मानना प्रासादोना कलशानुं मान एकज प्रकाग्नु गम्व छ. ग्वरी वस्तु तो ए छे के दण्डनी जेमज कलशोनुं मान पण कनिष्ठ प्रासादोमा उत्तम अने उत्तम प्रासादोमां कनिष्ट प्रकाग्नुं गवर्नु जोड्ये, बधा मानना प्रासादोना कलशो आठमे भागे विम्नार बालाजन राखवा जोइये, सांधार प्रासादोमां के ८-९ गनना निरन्धार प्रासादोनां कलशोमां कलशो कनिष्ठमानना अथवा वीजा प्रकाग्ना मानवाला बनाववा जोइये, वीजी पण कलशोना मानने अंगे कारीगगेमां एक भूल प्रचलित थयेली छे अने ते चवरियोना कलशोना मानमां. केटलांक मंदिरोना गभारामां चांदीनी अथवा सफेद पापाणनी ३ घुमटियोवाली चवरियो बनावे छे, अने ते उपर कलशिया चहावे छे, ए कलशोनुं मान पण कारीगरो चवरीना व्यासना अष्टमांश जेटलं नागर प्रासादोना कलशोना हिसावे राखे छे, जे खरी रीते भूलभरेलुं छे. चवरियो ए नागरादि जातिमां नहि पण वास्तवमां वलभी प्रासादोनुं लघुरूप छ, अने वलभी प्रासादोना कलशोनुं मान अपराजितपृच्छामां प्रासादनां षष्ठांश तुल्य राखवानुं विधान छः आथी स्पष्ट थाय छे के तेवी चवरियो उपरना कलशो तेना अष्टमांश तुल्य नहिं पण षष्ठांश तुल्य विस्तृत करवानुं कारीगरोए लक्ष्य राखवू जोइये. कलशनी उंचाईकलश विस्तारमा ६ भागनो अने उदयमां ९ भागनो होय छे, 31 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રદ્દ [कल्याण-कलिका-अयमसन्डे एटले के तेनी उंचाई विस्तारथी दोढ गुणी थाय छे. कलशनां बयां मलीने ६ अंगो होय छे. १ पीठ (पडघी), २ अंडक (पेट), ३ ग्रीवा, ४ पहेली कणी. ५ बीजी कणी अने ६ बीजोरं (डोडसो), आ ६ अंगोनुं उदयमान अनुक्रमे नीचे प्रमाणे होय छे. __पद्मपत्री (पीठ) भाग ०, अंडक भाग ३, (कूचित् भाग १ अने ३ लखेल छे ) ग्रीवा ०॥, बे कणियो भाग १ (कूचित् १-१ भागनी कणी लखेल छे ) अने बीजपूरक (सालू) भाग ३ उदयमां होय छे. एज ६ अंगोनुं विस्तारमानपद्मपत्री नीचे भाग ३ अने उपर कन्दमां भाग २, अंडक भाग ६, ग्रीवा मध्यमां भाग २, कणिकान्तरमा भाग ४, निचली कर्णिका ४ अने उपली कर्णिका भाग ३ नी, बीजपूर नीचे २ अने उपर १॥ भाग (कोइ स्थले १ भाग पण लखेल.छे.) विस्तारमा बनावq जोइये. उपर जे ४ प्रकार कलशना बताव्या छे तेनो मूलाधारग्रंथ अपराजितपृच्छा छ, जेनुं विधान नीचे प्रमाणे छै. प्रासादस्याष्टमांशेन, पृथुत्वं कलशांडके । षोडशांशैयुतं श्रेष्ठं, द्वात्रिंशांशैस्तु मध्यमम् ॥१॥ मूलरेखापश्चमांशे, पृथुत्वं तस्य कारयेत् । घण्टाविस्तारपादेन, तस्य पादयुतं पुनः ॥२॥ उक्तं कलशविस्तारं, उच्छ्यं तस्य सार्धकम् । नागरे लतिने स्वस्थं, सांधारेषु च मिश्रके ॥३॥ विमाने नागरच्छन्दे, कुर्यात् विमान-पुष्पके। धातुजे रत्नजे चैव, दारुजे च रथारुहे ॥४॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश- लक्षणम् ] शैलजे स चतुर्थांश, ऐष्टकादिसमस्तके | इत्युक्तः कलशचैवं, सर्वकामफलप्रदः ॥ ५ ॥ वराटे द्राविडे चैव, भूमजे विमानोद्भवे । वलभीनां समस्तानां प्रासादषष्टमांशके ॥ ६ ॥ तत्षडंशयुतं श्रेष्ठं, कन्यसं तद्विनाकृतम् । इत्युक्तं मानमुद्दिष्टं, कर्तव्यं सर्वकामदम् ||७|| उच्छ्रयं नवभागं च, विस्तारं रसं भागिकम् । अण्ड त्रिपादं च त्रिपदा ( पादोना) पद्मपत्रिका ॥८ ग्रीवा च भागपादूना, सपादे द्वे च कर्णिके । मातुलिंगं त्रिभिर्भागैः, कर्तव्यं सर्वकामदम् ॥९॥ " अपराजित पृच्छाना उपर्युक्त पाठनो तात्पर्यार्थ अमोए आ कलश लक्षणना निरूपणमां प्रारंभमां ज आपी दीधो ले. एटले पुनरुक्ति करता नथी. आ विषदना जाणकार कारीगरो आ विषयनं शास्त्रीय निरूपण समजीने कलशो बनावे एज आ लेखनुं प्रयोजन छे. २४७ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेद ११, ध्वजदण्ड लक्षणदण्डश्चैत्यध्वजाधार-स्तस्माल्लक्षणवेदिना । दण्डः सुलक्षणः कार्यः, समानो ग्रन्थि-पर्वभिः ॥३०॥ भाल्टी-दंड चैत्यनी ध्वजानो आधार छ, एटले लक्षणना जाणनारे दण्डने गांठो अने पर्वोना शास्त्रोक्तमान सहित लाक्षणिक बनाववो. दण्डनी लंबाईना प्रकारो(१) प्रासादनी खरशिलाथी कलशना अग्रभाग पर्यन्तनी उंचाईना एक तृतीयांश जेटली ध्वजदण्डनी लंबाई करवी ते दण्डनुं ज्येष्ठमान समजवू. जेष्ठमानने अष्टमांश हीन करवाथी मध्यममान अने चतुर्थांश हीन करवाथी कनिष्ठमाननो दण्ड थाय छे कोई ग्रंथकारे षडंशहीनने कनिष्ठमान कह्यो छे. प्रासादना विस्तार (व्यास) बरोबर दण्ड होय तेने पण ज्येष्ठमान दण्ड कहे छ, आ ज्येष्ठमानमां दशमांश हीन करवाथी मध्यम मान अने पंचमांश हीन होय ते दण्ड कनिष्ठमाननो गणाय छे. (३) प्रासादनी मूल रेखा परिमित दण्ड होय ते दण्ड पण कनिष्ठ माननो गणाय छे. आ कनिष्ठमानमांथी द्वादशांश ओछो करवाथी 'कनिष्ठ मध्यम' अने षडंश हीन करवाथी कनिष्ठ कनिष्ठ 'माननो दण्ड गणाय छे. कया मापना प्रासादने माटे कया मापनो दण्ड होवो जोइए ? ए विषयमा घणा शिल्पिओ विचार करता नथी, अने "प्रासाद व्यास मानेन" इत्यादि श्लोकोक्त मापना ज दण्डो करावे छे; पण Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वजदण्ड - लक्षणम् ] २४९ वास्तवमा सर्व मापना प्रासादो माटे एक ज प्रकारनं दण्डनुं माप आप योग्य नथी. उक्त ३ प्रकारनं दण्डोनुं मान अने तेना विवेकने अंगे अपराजितपृच्छामां नीचेना शब्दोमां निरूपण कयुं छे - आदिशिलोद्भवं मानं, तदूर्ध्वे कलशांतिकम् । तृतीयांशे प्रकर्तव्यो, ध्वजादण्डः प्रमाणतः ॥ १ ॥ अष्टमांशे ततो हीने, मध्यमः शुभलक्षणः । कनिष्ठो यो भवेद् दण्डो, ज्येष्ठतः पादवजतः || २ || प्रासाद पृथुमानेन, ध्वजादण्डं तु कारयेत् । मध्यमं दशमांशोनं, कनिष्ठं चोनपंचकम् ||३|| मूलरेखाप्रमाणेन, कनिष्ठो दण्डसंभवः । मध्यमो द्वादशांशोनः, षडंशोनः कनिष्ठकः ||४|| प्रासादकोणमर्यादा, सप्तहस्तान्तकं मता । गर्भमानं च कर्तव्यं, हस्ताः स्युः पञ्चविंशतिः ॥ रेखामानं च कर्तव्यं यावत् पंचाशहस्तकम् ||५|| , भा०टी० - प्रथम शिलाथी कलशना मथारा सुवीनी उंचाईना त्रीजा भाग जेटलो लंबो ध्वजादण्ड बनाववो ए उत्तम, एथी अष्टमांश ओछो ते मध्यम अने उत्तमथी चोथा भागे ओछो ते कनिष्ठ माननो दण्ड होय छे. वली प्रासादना विस्तार जेटलो लंबो ते उत्तम, तेथी दशमांश हीन ते मध्यम अने पञ्चमांश हीन ते कनिष्ठ माननो दण्ड होय छे. प्रासादनी मूलरेखा जेटलो लंबो दण्ड कनिष्ठोत्तम, द्वाद शांश हीन करतां कनिष्ठमध्यम, अने षडंशहीन करतां कनिष्ठकनिष्ठ माननो दण्ड होय छे. (१) १ थी ७ हाथ सुधीना प्रासादोनो ध्वजादण्ड प्रासादना कोणथी मापवो जोइये, एटले के जेटला हाथनो प्रासाद होय तेटला Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० [कल्याण-कलिका प्रथमखण्डे हाथनो दण्ड बनाववो, आ माप ७ हाथ सुधीना प्रासादना दण्डने माटे समजवू. (२) ८ था २५ हाथ सुधीना प्रासादोने माटे दण्डनुं मान ते प्रासा दना गर्भना मान जेटलं राखq. अने (३) २६ थी ५० हाथ सुधीना कोइ पण माननो प्रासाद होय तो तेना दण्डनु मान मूलरेखाना हिसाबे राखq, एटले के मंडोवरानी रेखानी उंचाई जेटलुं दण्डनुं मान गणवू. आ माननो दण्ड प्रासादना व्यासथी लगभग एक द्वितीयांश जेटलो लंबोथाय छे. दण्डना उपादान काष्ठोमुख्य रीते तो 'दण्ड' अन्दरथी पोकल न होय, कीट लागेल न होय अने काणा-कोतरवालो न होय. एवा वांसनो ज बनावको एवो शास्त्रादेश छे, पण तेवा प्रकारनो वांश न मले तो बीजा उत्तम वृक्षोना काष्ठनो पण बनावी शकाय छे. आ संबन्धमां अपराजितपृच्छामां नीचेनुं विधान दृष्टिगोचर थाय छे वंशमयस्तु कर्तव्यः, सारदारुमयस्तथा । समग्रन्थिविधातव्यः, पर्वभिविषमस्तथा ॥६॥ भाण्टी०-ध्वजदण्ड वांशनो बनाववो अथवा बीजा श्रेष्ठ लाकडानो पण बनावी शकाय छे. जो वांशनो होय तो ते समसंख्याक गांठो अने विषम संख्याक पर्वो (बे गांठो वच्चेना भारा) वालो होवो जोइए. (बीजा लाकडानो होय तो तेने समसंख्याक बंगडियो लगाडीने तेवो बनाक्वो.) ग्रंथान्तरमां दण्डना उपादान रूपे नीचे प्रमाणे पण केटलाक वृक्षोनो नाम निर्देश कर्यों छे. वंशमयोऽथ कर्तव्य, आंजनो मधुकस्तथा । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वजदण्ड-लक्षणम् ] २५१ शैशपः खादिरश्चैव, पिण्डं चैव तु कारयेत् ॥७॥ _ भा०टी०-दण्ड वांशनो करवो अथवा तो अंजननो, महुडानो, शीशमनो तथा खेरनो बनावका अन तन गोलरूप फरक ___ध्वजादण्डनी जाडाईध्वजादण्डनी जाडाईनो पण नियम होय छे. ए विषयमां लगभग बधा ग्रन्थकारो एकमत छे के एक हाथना दण्डनी जाडाई पोणा आंगलनी करवी अने ते पछी प्रत्येक हाथे अडवा आंगलनी वृद्धि करवी. कोई पण मानना दण्डने माटे एज नियम लागु पडे छे. ए नियमनुं प्रतिपादन नीचेना श्लोकमां कयु छ. एकहस्ते तु प्रासादे, दण्डः पादोनमङ्गुलम् । अझैगुला भवेद्वृद्धि-र्यावत् पंचाशहस्तकम् ॥८॥ भाण्टीः -१ हाथना प्रासाद उपरना दण्डनी जाडाई पोणा आंगलनी अने पछीना माप माटे प्रतिहस्त अडधा आंगलनी वृद्धि करवी. २ हाथथी ५० हाथना प्रासादे एज प्रमाणे दण्ड जाडो करवो. ए विषयमा एक मत एवो पण छे के दण्डना छट्ठा भाग जेटली लांची पाटली करवी अने पाटलीनी लंबाईथी छट्ठा भागे तेनी जाडाई करवी. पाटलीनी जाडाई अने दण्डनी जाडाई सरखी करवी. आ मान्यता रत्नकोषकारनी छे अने आ मान्यता प्रमाणे दण्डनी जाडाई राखवामां आवे तो ४-६ हाथना प्रासादोने अंगे योग्य गणी शकाय तेवी छे. दण्डनी पाटलीदंड उपरनी पाटलीनी लंबाई दंडनी लंबाईना छट्ठा भाग जेटली राखवानो नियम छे अने पाटलीनी जाडाई तेनी लंबाइना छट्ठा भाग जेटली होवी जोइए एवु विधान छे. पाटली पोतानी लंबाईथी Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રવર [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे अर्धी पहोली होय छे, पाटलीने शिल्पशास्त्रकारो 'मर्कटी, मंडूकी' इत्यादि नामोथी ओलखावे छे. अधिकांश ग्रंथकारोनी मान्यता पाटलीना विषयमा उपर जणाव्या प्रमाणे छे, छतां एने अंगे पण मतभेद तो छे ज. ए विषयमा अपराजितपृच्छानुं विधान नीचे प्रमाणे छ मण्डूकी तस्य कर्तव्या, अईचन्द्राकृतिस्तथा। पृथु दण्डसप्तगुणोक्ता, हस्ताद्वा पंचकोद्भवा ॥९॥ षड्गुणा च द्वादशान्ता, शेषा पंचगुणोच्यते । भागेन च सविस्तारा, कर्तव्या सर्वकामदा ॥१०॥ अर्डचन्द्राकृतिश्चैव, पक्षे कुर्यात् गगारकम् । वंशोधं कलशं चैव, पक्षे घण्टाप्रलंबनम् ॥११॥ भाण्टी-ते दण्डनी पाटली अर्धचन्द्र आकारे बनाववी अने तेनी लंबाई दण्डनी जाडाइथी सातगुणी करवी. आ मान १ थी ५ हाथ सुधीना दण्डनी पाटलीनुं छे; ६ थी १२ हाथ मुधीना दण्डनी पाटली दण्डनी जाडाइथी छ गुणी अने ते उपरान्तना दण्डनी पाटली दण्डनी जाडाइथी पांच गुणी लंबी करवी जोइए. पाटली पोतानी लंबाइथी अर्ध भागे विस्तृत करवी, तेनो वचलो भाग अर्ध चन्द्राकारे करवो, अने बन्ने बाजुमां गगारा बनाववा; वाशना उपरना भागे कलश अने पाटलोना बन्ने छेडाओ उपर घंटडियो लटकाववी. . अपराजितपृच्छामां दंड उपर कलश बनाववानुं विधान तो कयु, पण कलशनी उंचाईना संबन्धमां कोई जणाव्यु नथी, पण बीजा ग्रंथोमां आ संबन्धमां नीचे प्रमाणे उल्लेख मले छे. ___ कलशं कारयेत्तस्याः पंचमांशेन दैर्ध्यतः। भा०टी०-पाटलीना पंचमांश जेटलो लंबो ते ऊपर कलश कराववो. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ ध्वजदण्ड-लक्षणम् ] ध्वजा-परिमाणदण्ड उपर ध्वजा केवा मापनी जोइए एनो पण शिल्पशास्त्रोमां नियम बांधेलो छे, जो के ए विषयमां पण मतभेद तो छ ज, पण आजकाल ध्वजानी लंबाई दंड जेटली ज रखाय छे अने तेनी चोडाई लंबाईना आठमा भागनी होय छे. ए विषयमा अपराजितपृच्छानुं विधान नीचे प्रमाणे छे. ध्वजदण्डप्रमाणेन, पताकां च प्रलम्बयेत् । पृथुत्वमष्टमांशेन, त्रिशिखाग्रविभूषितां ॥१२॥ शिखाः पंच प्रकर्तव्या, ध्वजाग्रे तद्विचक्षणैः। दिव्यवस्त्र मय्यश्चैव , किंकिणीघुर्घरान्विताः ॥१३॥ भा टी०-ध्वजादण्ड प्रमाणवाली ते उपर पताका ( ध्वजा) लंबाववी, ध्वजानो विस्तार तेनी लंबाईना आठमा भाग जेटलो राखवो, तेना छेडाना अग्र भागमां ३ अथवा ५ शिखाओ बनावीने तेने सुशोभित करवी, ते दिव्य वस्त्र (रेशमी पट्टकूल )नी बनाववी अने घूघरियो वडे अलंकृत करवी. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेद - १२ जिनप्रतिमा लक्षणप्रतिमा हि द्विसंस्थाना, आसीनोर्ध्वस्थितात्मिकाः । तासां भागक्रमश्चैव प्रवेशा निर्गमास्तथा ॥ ३१ ॥ अङ्गलक्षणभेदाश्च, दोषाश्च विविधाः पुनः । सर्वमेतत् परिज्ञाय, प्रतिमाः कारयेन्नवाः ॥३२॥ | भा०टी० - जिन प्रतिमाओ वे प्रकारना आकारनी होय छे. बेठी जे पद्मासनस्थ कहेबाय छे. उभी जे कायोत्सर्गिक ए नामथी ओलखाय छे. आ प्रतिमाओना दैर्ध्य विस्तारना मानांकी, अंग विभागना प्रवेशो, निर्गमो, अंगगन लक्षणोना भेदो अने प्रतिमाना निर्माणमा थता अनेक दोषोः ए सर्व समजीने नवीन प्रतिमा कराaat जोईये. प्रतिमा - लक्षणनी दुर्बोधता - प्रतिमा - लक्षणनुं ' वर्णन ए कुशल मूर्तिशास्त्रज्ञनुं काम छे, प्रतिमा -निर्माताने प्रतिमाने अंगे जाणवानी महत्व पूर्ण वातो, जेवी केमूर्तिना अंगोपांगोनी लंबाई, पद्दोलाई, निर्गम-प्रवेश, पिंड, परिधि आदि विषयोना ज्ञाननी प्रथम जरुरत पडे छे. आज-कालमां बनती प्रतिमाओ प्राचीन प्रतिमाओनी बराबरी नथी करी शकती एनुं कारण ए विषयोनुं अज्ञान ज छे. उदयमानना १०८ अथवा ५६ आंगलोनो सरवालो मात्र भेलवी देवाथी ज प्रतिमामां लाक्षणिकपणुं आवी जतुं नथी पण एना अंग-प्रत्यंगोनां मानो, तेओनां एक वीजा वच्चेनां अंतरो, प्रत्येक अंग उपांगोना निर्गम-प्रवेशो आदिनुं यथार्थ ज्ञान होय तोज प्रतिमामां खरी लाक्षणिकता उत्पन्न करी शकाय छे, " Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम् ] २५५ ते पण प्रत्येक मनुष्यथी नहि पण एना अधिकारी विद्वान् मूर्तिकार द्वारा ज अमोए आवा मनुष्योना हितने लक्ष्यमां राखीने ज आ प्रकरण आलेखवानुं साहस कर्यु छे. मूर्ति निर्माण विषयने स्पर्शता अनेक मौलिक ग्रन्थो उपलब्ध छे, छतां अमो ते सर्वनी चर्चा नहि करीये, अमारी प्रस्तुत विषय 'जिन प्रतिमा लक्षण' सुधीज मर्यादित छे, तेमां उत्तर भारतमा पूर्व जे शिल्पने आधारे जिन प्रतिमाओ बनती हती, तेनाज आधारो लेवानो निर्णय होइ 'जयसंहिता'ने मूल आधार बनावी ' अपराजितपृच्छा, जिन प्रतिमा-विधान, वास्तुसार, बृहत्संहिता, प्रतिमामान-लक्षण अने नवताल मूर्ति विधान' आदि ग्रन्थोना आधारे अमो जिन प्रतिमा-लक्षणने अंगे मलती उपयोगी हकीकतोनुं वर्णन करशुं. प्रथम जयसंहिताना आ विषयना प्रकरणने अक्षरशः आपी अन्ते बीजा ग्रन्थोने आधारे मानांक कोष्ठको आपीने आ विषयने यथासंभव स्पष्ट करवानो प्रयास करशुं. ___उपयुक्त ग्रन्थो पैकीना पहेला बे ग्रन्थो शिल्पना प्राचीन आकर ग्रन्थो छे. आ बनेमां जिनप्रतिमाने उद्देशीने खास अध्यायो छे. ___'जिन-प्रतिमा-विधान 'नो उतारो शिल्परत्नाकरमा एना संग्राहके आप्यो छे, ए प्रकरणनो आधार ग्रन्थ जाणी शकायो नथी. चोथो ग्रन्थ ठक्कुर फेरु कृत वास्तुसार छे, आमां 'बिंब परीक्षा' नामर्नु जैन प्रतिमाने अंगे लखायेलं खास प्रकरण छे, बीजाओ करतां ठक्कुर फेरुए आमां घणी वातो स्पष्ट करी छे. बृहत्संहितामा 'प्रतिमा' निर्माण संबन्धी एक अध्याय छ, जे गुप्तकालीन शिल्पना निरुपणमां महत्त्वनो भाग भजवे छे. प्रतिमामान-लक्षण एक स्वतन्त्र प्राचीन निबन्ध छ, आमा बुद्ध प्रतिमाना शिल्पनुं प्रतिपादन छे. Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ___ नवताल-मूर्तिविधाननो पण शिल्प-रत्नाकरकारे पोताना संदर्भमां उतारो आप्यो छे, आ प्रकरणनो पण आधारग्रन्थ जाणी शकायो नथी. उपर्युक्त अंतिम प्रण ग्रन्थोमां खास जैन प्रतिमानुं निरुपण नथी, पण 'नवताल प्रतिमा 'नुं मान-परिमाण निरुपण करेलुं छे. 'जैनप्रतिमा'नी 'नवताल' रुपकोमा गणना छे, एथी आ प्रकरण- केटलुक निरुपण 'जैन प्रतिमा' माटे पण उपयोगी निवडशे ज, आम धारीने आ त्रण ग्रन्थोनो पण प्रस्तुत निरुपणमा उपयोग कर्यों छे. प्रस्तावना रुपे आटलु विवेचन करीने हवे आपणे मूल वस्तु " जिन प्रतिमा लक्षण' उपर आवीये, 'जयसंहिता'मां विश्वकर्माजीए “जिनप्रतिमा-लक्षण" नो प्रारंभ नीचेना शब्दोथी कर्यों छे. अरूपरूपमाकारं, विश्वरूपं जगत्प्रभुम् । केवलज्ञानमूर्ति च, वीतरागं जिनेश्वरम् ॥१॥ द्विभुज चैकवक्त्रं च, बद्धपद्मासनस्थितम् । लीयमानं परे ब्रह्म-ण्यजमूर्ति जगद्गुरुम् ॥२।। नाम-निर्गुण-मोक्षाय, प्रयुक्तं वास्तुवेदिभिः। ते चतुर्विशतिष-भादिवर्धमानान्तकाः ॥३॥ भाण्टो०-जे अरुपी छतां रुप (आकार )वान छे, विश्वमय छतां जगतनी समर्थशक्ति छ, केवलज्ञाननी साक्षात् मूर्ति छतां वीतराग छे, एवा जिनेश्वरदेवने वास्तुशास्त्रना विद्वानोए द्विभुज, एक मुख, बद्धपद्मासन-स्थित, परब्रह्ममां लयलीन, जगत्ना गुरुरुप, शाश्वत मर्तिरुपे मान्या छे. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम् ] त्रिगुणातीत मोक्षप्राप्तिने अर्थ शास्त्रकारोए आ जिनेश्वरदेवनां ऋषभथी वर्धमान पर्यन्तनां २४ नामो प्रयोगमां लीधां छे. ऋषभादि परिवारे, दृषदां वर्णसंकरम् । न समांगुल संख्या च, प्रतिमा मानकर्मणि ॥|४|| उपविष्टस्य देवस्य, ऊर्ध्वस्य प्रतिमा भवेत् । द्विविधा पादपीठस्था, पर्यकासनमास्थिता ||५|| भा०टी० - ऋषभादि तीर्थकरोनी प्रतिमाओना परिकरमां पाषाण संबन्धी वर्णसंकरता न होवी जोईये, अर्थात् मूल प्रतिमा जे वर्णना पाषाणनी होय ते ज वर्णना पाषाणनो बनेलो तेनो परिकर पण जोइये अने उंचाइमां सम आंगलनी संख्या प्रतिमाना मानमां शुभ नथी. उभादेवनी अने बेठेला देवनी आम वे प्रकारनी प्रतिमाओ होय छे, उभी प्रतिमा पादपीठस्थ अने बेठेली प्रतिमा पर्यकासनस्थ होय छे. वाम- दक्षिणजंघोर्वोरुपर्यङ्के करावपि । दक्षिणो वामजंघायां तत्पर्यकासनं शुभम् ॥६॥ २५७ " भा०टी० - डावी जमणी साथल उपर जमणो डाबो पग (जमणी साथल उपर डाबो अने तेनी उपर डाबी साथल उपर जमणो पग मूकवो), ए पछी जमणी जांघ उपर डाचो अने पछी डाबी जांघ उपर जमणो हाथ मुकवो. आम करवाथी जे आसन बने छे, ते पर्यैकासन नामनुं शुभ आसन कहेवाय छे. ऊर्ध्वस्थित प्रतिमानुं स्वरुप - देवस्योर्द्धस्थितस्यार्चा, जानुलंबिभुजद्वया । श्रीवत्सोष्णीवयुक्ता च, छत्रादिपरिवारिता ||७|| भा०टी०—– ऊर्ध्वस्थित देवनी प्रतिनुं रुप बे भुजाओ जानु Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका प्रथमखण्डे पर्यन्त लंबावेल, वक्षस्थलमां श्री वत्सयुक्त मस्तके उष्णीष (शिखा) अने छत्रादिके परिवृत बनावq. आसनस्थित प्रतिमानी चतुरस्रताअन्योन्यजानुस्कन्धान्त-स्तिर्यक्रसूत्रनिपातनात् । केशान्ताश्चलयोर्मध्ये, सूत्रैक्याच्चतुरस्त्रिका ॥८॥: भा०टी०-वे बाजुओ कच्चे आई, जमणा जानुथी डाबे खांधे, डामा जानुथी जमणे खांधे तिर्छ अने केशान्त तथा आंचलि वच्चे उभुं सूत्र मापवाथी जो सूत्रनी लंबाई बधे सरखी आवे तो प्रतिमा चतुरस्र समजची. जिन-प्रतिमानी उंचाई नवतालनीनवतालं भवेद्रूपं, तालं च द्वादशांगुलम् । अंगुलानि न कंबायाः, किन्तु रूपस्य तस्य हि ॥९॥ भा० टी०-प्रतिमा नवतालनी होय, ते एकताल १२ आंगलनो होय, ए आंगल कंधा (गज)ना नहि पण ते प्रतिमाना ज आंगल जाणवा. उक्तमष्टोत्तरशतं, श्रीजिने विश्वकर्मणा । ऊर्चािमानमखिल-मासीने च अथ शृणु ॥१०॥ भा०टी०-श्रीजिननी उभी प्रतिमा, मान विश्वकर्माए तेना १०८ आंगलनु कह्यु छे ते प्रमाणे जणाव्युं, हवे बेठी प्रतिमार्नु परिमाण सांभल ! पंचतालं समुत्सेधे, चतुस्तालं च विस्तरे । तालैकं च विभज्यादौ, अंगुलानां चतुर्दश ॥११॥ तेनांगुलप्रमाणेन, षट्पश्चाशत्समुच्छ्रितम् । विस्तरं तत्प्रमाणेन, विभजेच्च विचक्षणः॥१२॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ प्रतिमा-लक्षण] अथैषा मंगुलानां च, यन्मानं यत्र कारयेत् । आसीनप्रतिमामानं, षट्पञ्चाशद् विभाजितम् ॥१३॥ भाण्टी०-पर्यकासन विंच उंचाईमां पांच अने विस्तारमा चारताल प्रमाण करवु, प्रतिमानी उंचाईने ५ थी भांगीने १४ आंगलनो ताल बनाववो, आ आंगलना मापथी ५६ आंगल बेठी प्रतिमा बनाववी अने ए ज आंगलो वडे बुद्धिमाने एनो विस्तार मापवो.१ उभी प्रतिमा-माननां ११ अंकस्थानोभालं १ नासा २ हनु ३ ीवा ४, हृन् ५ नाभी ६ गुह्य ७ मूरुके ८। जानु९ जंवे १० तथा पादौ ११, स्थानान्येकादशानि च ॥१४ चतुः ४ पञ्च ५ चतु ४ वह्नि ३, दिश १० श्चैव चतुर्दश १४॥ सूर्या १२ जिना २४ श्चतु ४ जिना २४, वेदा ४ श्चेति ह्यनुक्रमात् ॥१५॥ भा०टी०-ललाट, नासिका, हडपची, गर्दन, हृदय, नाभि, गुह्य, साथल, ढींचण, जांघ अने पग आ ११ अंगोना उदयमानना अंको अनुक्रमे-४ +५+४+३+१० + १४ + १२ + २४ + ४ + २४ + ४ = १०८ छे. १.बेठी प्रतिमानी उंचाई जे ५६ आंगलनी कही छे; तेमां मसूरक (पलाठी नीचेनी गादी)ना ८ आंगल अने ललाट उपरना केशान्तमस्तक अने उष्णीषना मली ६ आंगलो, एम कुल ८+६=१४ आंगलनो १ आखो ताल उंचाईमा न गणीने उंचाई ५६ आंगलनी मानी छे, ज्यारे उपर बेठी प्रतिमानो उदय जे ५ तालनो कह्यो तेमां आ १ ताल सामेल गण्यो छे. अन्यथा ५६ आंगलना ४ ताल थाय. विस्तार ४ तालनो कह्यो छे ज. आ अपेक्षाए बेठी प्रतिमा उदय अने विस्तारमा सरखी कही छे. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे आसनस्थ प्रतिमाना अंगो तथा अंकोभालं-नासा-दन--ीवा, हृन्नाभी-गुह्य हस्तकौ । जान्वेतानि न छानि, ह्यंकस्थानान्यथ शणु ॥१६॥ चतुः पश्च चतुर्वहिदिशश्चैव चतुर्दश।। चतुश्चतुस्तथा ह्यष्टा-वासीनप्रतिमाङ्ककाः ॥१७॥ जिनादयश्चमानांका, उक्ता ऊर्चे स्वरुपंके । भा०टी०-ललाट, नासिका, हडपी, गर्दन, हृदय नाभि. गुह्य भाग, हाथो अने ढींचणो; आ ९ अंगस्थानकोना उदयना मानांको अनुक्रमे ४।५।४।३।१०।१४ । ४।४ । ८-५६ छे, आ बेठेली प्रतिमाना अंको छे. आमां २४। ४।२४। आदि अंको नथी कह्या केमके ते उभी प्रतिमा संबन्धी छे. __ अंग-प्रत्यंगना विभागे प्रतिमानो उदयवर्तनां कथयिष्यामि, अंगुलानां यथाक्रमम् । मुखं यक्षांगुलं चैव, विभजेच्च विचक्षणः ॥१८॥ वेदाङ्गुलं ललाटं च, नासिका पंचकाङ्गुला। हनुकाङ्गुलचत्वारि, ओष्टः सपाद एव च ॥१९॥ अधरश्च सपादश्व, सा(गुला बटी भवेत् । त्रयांगुला भवेद्ग्रीवा, हृदयं च दशांगुलम् ॥२०॥ चतुर्दश तथा नाभौ, चतुर्गुह्यं प्रकीर्तितम् । करौ चतुरंगुलानि, अष्ट पादौ प्रकीर्तितौ ॥२१॥ एतं ते कथितं चैव, षट्पञ्चाशत्ममुछितम् । तस्थाऽधश्च प्रकर्तव्य-मासनं चाष्टकांगुलम् ॥२२॥ उष्णीषं षडंगुलं च, केशान्तोपरितस्तथा। उच्छितं च समाख्यातं, विस्तरं च तथा शणु ॥२३॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम्] भा० टी०-हवे केटला आंगलो क्यां राखवा एनो विवेक कहीश. ____ आखा मुखनो उदय १३ आंगलनो राखयो, तेमां ललाट ४, नासिका ५ अने हनुविभाग ४ आंगलनो करवो. हनुविभागमां उपरनो होठ १। आंगलनो नीचेनो होठ १॥ आंगलनो अने हबटी || आंगलनी बनाववी. ___ गर्दननो उदय ३ आंगलनो अने तेनी नीचे स्तनमध्यपर्यन्त हृदय १० आंगल प्रमाण राखg. स्तनमध्यथी नाभिपर्यन्त उदरनो उदय १४ आंगल, नाभिथी गुह्यपर्यन्त ४ आंगल, तेनी नीचे हस्तयुगलनो ४ आंगल अने पादयुगलनो उदय ८ आंगलनो करवो आम पर्यकासन स्थित प्रतिमानी ५६ आंगलनी उंचाईनो विवेक कह्यो. ___ आ ५६ आंगलनी प्रतिमाने नीचे आठ आंगलर्नु आसन ( मसूरक-गादी) राखg अने केशांत उपर ६ आंगलर्नु उष्णीष राखवू, आम उंचाई कही हवे विस्तार कहुं छु ते सांभल ! आसनस्थप्रतिमानो विस्तारविवेकवक्त्रं विस्तारमानेनां-गुलानि दश पंच च । भालं चांगुलान्यष्टौ, नेत्रं चैवाष्टमांगुलम् ॥२४॥ नासिकाग्रमंगुलैकं, फेरणे त्रयमंगुलम् । नेत्रांगुलानि चत्वारि, द्वथंगुलमुदयं भवेत् ॥२५॥ व्यंगुलं च भ्रवोर्मध्ये, पुष्पबाण महोक्त (छ)ये। चिषुकांगुलं चत्वारि, बटी चत्वारि मेव च ॥२६॥ ग्रोवा दशांगुला ज्ञेया, क्षोभणा त्रयमंगुलम् । द्विसापर्धांगुलौ द्वावोष्टौ, सार्धांगुला बटी भवेत् ॥२७॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे कक्षा बाचं प्रकर्तव्यं, द्वाविंशमंगुलं बुधैः । कटी-विस्तारमानं च, अंगुलानि च षोडशः ॥२८॥ बाहु-कक्षाप्रमाणं च, अंगुलानां च विंशतिः। द्वादशांगुलं मध्ये च, स्तनगर्भो विधीयते ॥२९॥ अष्टांगुलं बाहु-विस्तारं, सप्तांगुलमधस्तथा। करतलमष्टांगुलं, दीर्घ तत्र च कारयेत् ॥३०॥ विस्तरेऽष्टांगुलं तत्र, झोलकं चतुरङ्गुलम् । बाह्वग्रं चतुरंगुलं, षडंगुलं तत्र मच्छकम् ॥३१॥ घसिका दयंगुला ज्ञेया, कटिश्च वामदक्षिणे । नवांगुला भवेद् हस्त-विस्तारं चाष्टमांगुलम् ॥३२॥ अष्टांगुलं भवेत् पादो दैर्घ्य च दश पंच च । विस्तरं देय कथितं, पिंडं चैवमथ शृणु ॥३३॥ भा टी०-मुख १५, ललाट ८ अने नेत्र ८ आंगल विस्तारमां करवां. नासिकानो अग्रभाग आंगल १, फरणां आंगल ३, नेत्र आंगल ४, नेत्रोनो उदय २ आंगल, वे भवांनो मध्यभाग २ ऑगल, चिबुक ४ आंगल अने हडबची ४ आंगलनी करवी. गर्दननो विस्तार १० आंगल, तेनो पेसारो ३ आंगल, बन्ने होठो २॥ आंगल अने हडबटी १॥ आंगल विस्तृत करवी. कक्षानो बाह्य विस्तार २२ आंगल, कटीनो विस्तार १६ आंगल, बाहु मध्यकक्षा प्रमाण २० आंगल अने वच्चे स्तनगर्भ १२ आंगल प्रमाण बनाववो. बाहु, विस्तारमा उपरना भागे ८ अने नीचे ७ आंगलनो करवो. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ प्रतिमा-लक्षणम् ] हस्ततल ८ आंगल दीर्घ अने ८ आंगल विस्तृत करवू. ४ आंगलनो झोलक (खोलो) करवो. बाहुनो अग्रभाग ४ आंगलनो अने मत्स्य ६ आंगलनो करवो. घसी २ आंगल, डाबी जमणी तरफ कटि ९-९ आंगल अने हाथनो विस्तार ८ आंगल करवो. ___ पग लंबो १५ आंगल अने विस्तारे ८ ऑगलनो करवो. उदय पछी आ विस्तारमान का, हवे एना अंगोनो पिंड (जाडाई) सांभलो. आसनस्थ प्रतिमानी जाडाईअष्टविंशतिरासने, षोडशांगुलमस्तके । कर्णपाचे प्रकर्तव्यं, पिंडं चैव दशांगुलम् ॥३४॥ चतुरंगुलं कर्णपिंड-मुर कुर्याद् द्वयांगुलम् । द्वादशांगुल शोध्यश्चो-दराग्रे चैव निर्गमः ॥३५॥ सुमांसलं प्रकर्तव्यं, सुरूपं लक्षणान्वितम् । युक्त्याऽनया प्रकर्तव्यं, प्रतिमामानमुत्तमम् ॥३६॥ एतत्ते कथितं चैव, कर्तव्यं शास्त्र पारगैः । पूर्वमानप्रमाणं च, कर्तव्यं विधिपूर्वकम् ॥३७॥ भा०टी०-आसन भागमा २८ आंगल अने मस्तक भागे १६ आंगल प्रतिमा जाडी करवी. कानोनी पासे प्रतिमानी जाडाई १० आंगलनी अने काननो जाडाई ४ आंगल करवी. छातीनो भाग बे आंगल तथा उदर मध्य वे आंगल बहार निकलतुं कर अने १२ आंगलना विस्तारमा तेने पूरे करवू. जैन प्रतिमा साधारण रीते मांसल सुरूप अने लक्षणोपेत बना Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ववी उपर जे मान-प्रमाण कयुं छे युक्तिथी बनावतां प्रतिमा उत्तम मानवाली वनशे. हे जय ! आ विषयमां शास्त्रझोनुं जे कर्तव्य हतुं ते तने कडं. आ अने पूर्व प्रतिमाना प्रमाण विषे जे कंई कहेवामां आव्यु, ते विधिथी प्रतिमार्नु निर्माण करवु जोईये. प्रतिमा-मानांक कोष्टकउपर जे प्रतिमाना मानांको जयसंहितामा आप्या छे ते अने बीजा ६ शिल्पप्रन्थोमां आपेला पानांकोनुं अमे अत्र एक कोष्टक आपीये छीये, तेनुं कारण ए छे के जयसंहितामां पूरा अंको आप्या नथी वली ए ग्रन्थना श्लोकोमां भरपूर अशुद्धिओ होवाथी केटलाक अंकोमा अशुद्धिओ होवानो पण विशेष संभव छ; एटले साथमां आपेल बीजा ग्रन्थोना मानांको वांचकगणने उपयोगी थइ पडशे. कोष्टकमां १ जयसंहिता, २ जिनप्रतिमा विधान, ३ वास्तुसार, ४ अपराजितपृच्छा, ५ बृहत्संहिता, ६ प्रतिमामान लक्षण अने ७ समरांगण सूत्रधार; आ ७ ग्रन्थोना मानांको आप्या छे. आ ग्रन्थो पैकीना पहेला ३ ग्रन्थोमांना अंको खास जिनप्रतिमाना मानांको छे, ज्यारे बाकीना ४ ग्रन्थोमां जे अंको मले छे ते ९ ताल प्रतिमा संबन्धि छे. जिन प्रतिमानो पण ९ ताल प्रतिमामा समावेश होवाथी आ चार ग्रन्थोना अंको पण जिनप्रतिमा माटे उपयोगी निवडशे ए निःसंदेह बात छे. ___लाघवार्थ अमोए कोष्टकमां ग्रन्थोना नामना आद्याक्षरनो ज 'ज' 'जि' इत्यादि उल्लेख कर्यों छे, वाचकगणे 'ज'नो अर्थ " जयसंहिता, 'जि'नो अर्थ जिनप्रतिमाविधान," इत्यादि समजवानो छे. विशेष स्पष्टीकरण कोष्टकोनी पछी आपीशु. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अंग उष्णीष केशांतमस्तक केशरेखा मस्तक पतिमामानाङ्क-कोष्टक मानांगुल अको उदयादि वा प्र० न उदय ६ १ . . . ८ .. उदय . ३ विस्तार . . . . ०॥ | आयाम |१६ . . . १४ . . विस्तार . . . . . . १८ . परिधि ३६ . . | ३२ ३६ . पिंड १६ . . . . . . उदय ४ ४ ४ ४ ४ ४॥ ४ विस्तार ८१ . ८ १० . प्रवेश उदय ललाट मध्य | अंतर धू-नेत्र भ्रूद्वयभ्रूलेखा नेत्र उदय उदय | . . २ . . . ८/४ . . १॥ . . . . ४ ४ । ४ २ . . . . | १ विस्तार । ४ । २ डोलक . . Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे - नेत्र | . . निष्कोश विकाश कृष्णतारा onal 01 यांश o द्वयान्तरं कर्णान्तरं अपांग करवीरक गुल्फद्वयं नेत्रान्ते अक्षि .o-||+10 नासिका उदय ३ १३॥ १॥ विस्तार पिंड मूलवृत्त नासाशिखा नासावंश o ||110x0 ॥४ ॥ नासापार्श्व | उत्व . . . . . . नासा फेरणा ३ .. चंपिका नासाग्र पिंड १ १-६ । . १ . १ . Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम् ] २६७ मुख उदय +सकेश मुख दीघेता . | १२ वदन मुख विस्तार | १५ . . . . द्राविडमुख विस्तार . . . . १२ . . मुखकर्णमध्ये | विस्तार दैर्घ्य वदन विस्तार . .. १॥ . . वदनमध्ये विस्तार . . . . ३ . . मुख निष्कोश . . . . . ४ . उत्तरौष्ठ नासाग्र अंतरं . . . . . . . उत्तरौष्ट दैर्घ्य .. ४ ६ . . . विस्तार ११-१०-०॥ मध्ये निष्काश अधरौष्ट दैथ्य ५ . . विस्तारः ॥ ॥ १ . . . . . . २॥ गोजिका . अवकाश . दैर्घ्य २॥ १॥ २ . २ १ विस्तार | १॥ २ . . . Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ "" हनु - चिबुक चिबुक कर्ण 97 " : "" ܐ " 5 35 "" 79 कर्णपालि कर्ण कर्णाधार अधःकर्ण कर्ण कर्ण पृष्ठे कर्णद्वय कर्णनासा प्रवेश विस्तार विस्तार दैर्ध्य विस्तार ४ उदय प्रवेश निर्गम पिंड उपान्त ककुदा त्रुटि विस्तार गुच्छ आयामे उदय विस्तार पिंड निष्काश अंतर अंतर ४ ४ २ २ १४ २ . • · १ • • २ • • १० • . |४| = • कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे • १२ ४। १० १० २ ३ ३ MY 20 ४ |(311) . १ . . " • • • २ ४ 20 ffy १० • 4 • . . • १ २॥ . . · ४ ॥ ४ २ ४ ४ २ . . • . " · • • . ४॥ o २ २ . • १ २ 이 19 |0) = 20 २ oll • Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम् ] कर्णाग्रे २ अंतरे | शेख ग्रीवा ग्रीवा - कर्णान्तरावकाश ग्रो० कर्णान्तर हृदय 99 " उर: प्रदेश वक्षः स्तन स्तन - कक्षा स्तनसूत्रापरि श्रीवत्स 19 उदय ३ विस्तार | १० क्षोभना प्रवेश परिधि उदय विस्तार उदय अंतर अंतर स्कन्ध उदय देयै विस्तार " श्रीवत्स - स्तननुं अंतर स्तनवृत्त स्तनवृत्त mr विस्तार निर्गम २ (१) विस्तार ३६ विस्तार • ३ ५ ३ ४ ३ ४ ८ | १० | १० १० + ३॥ =IV १०-१३. १०x२ · . २४ १४ • • . · १० · . ५ · ३ . w १॥ १३ | १२ | १२ • M ३६ S . ६ ५ ४ ६. १॥ . = . ६ ६ • . २१ २४ 4 ४ ३ ८ ८ . 4 २६९ • . ३६ ६ ६ 10/2 · १० १४ ५ . Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० स्तनान्तर स्तनअधो कक्षामध्य कक्षास्कन्ध बाह्यकक्षा बाहुकक्षा कक्षा ग्रोवोर्ध्वभागात् कक्षा ग्रीवाधोभागात् कक्षा कक्षा प्रकोष्ठान्तर भुजांतर अंतर प्रमाण बाहु बाहुबल विस्तार बाहुत्रांत विस्तार बाहु विस्तार बाहुमूल परिणाह बाहुअग्र परिणाह भुजोपरिभाग - प्रवेश भुजसंधि प्रवेश भुजस्कंध अंतर प्रबाहु द दैर्ध्य १२ १४ ∞ v २२ २२ २० · · 8 • • · • १८ • १८ ८ ७ ७ . · १-१ १२ ८ १६ • • 6) の कल्याण-कलिका - प्रथमखण्डे १२ • २२ ८ १८ • • . • ८ ७ . . · १२ . ८ ८ . . • の + . · . • • . ६ १६ १२ २० . 4 . • V १२ | १६ | १६ ६ ► १२ १२ । १८ · . ८ . 61. • Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम् ] प्रबाहु विस्तार कोहणी-कुक्षि अन्तर कटि-भुज अन्तर । ३ . कोहणी मध्य ७॥ अन्तर . . . . १६ . . प्रबाहु-अग्र मणिबंध | परिधि . १०॥) . नाभिहृदय अन्तर १४ | १२| . १ नाभिस्तन । अन्तर नाभिऊज़ नाभि गांमीर्य ... नाभिमध्ये परिधि नाभि कुक्षिमध्य विस्तार उदराग्रे निर्गम | ३ ४ . | कटि विस्तार | १६ . १६ १६ १८१८ | २४ कटिबामे । विस्तार कटिदक्षिणे । विस्तार कटि परिधि . . . . ४४ . . १२ १३ | . १२ १२ १२ १२ गुह्य-जघन | ४ | ४ | . . | ९ ४४ - Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ [कल्याण कलिका-प्रथमखण्डे गुह्य-मेंद्र गुह्य-वृषण गुह्यो गुह्यमूत्र अंचलि | मुखांशे | प्रवेश देश्य . . . , १८ . . . . . . +गादी मुग्वं यावन जलपथ आसन-गादी २८ विस्तार उदय विस्तार उदय दैर्घ्य दैर्ध्य विस्तार मूल विस्तार परिधि ऊरु २४ २४ २४ २४ २४ २४ । ऊरुमूल . २४ . . . . ऊरुमध्ये . . . २८ . प्रवेश जानु उदय । ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ८ . जानुमूल जानुसूत्र जंघा विस्तार प्रवेश | दैय . . . १४ . . . २४ २४ २४ २४ २४ २४, २४ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा - लक्षणम् ] जंघामुले जंघामध्ये जानु भागे जंघा पृष्ठे जंघा अग्रे जंघा जंघा मूले जंघामध्ये जंघाघः हस्तद्वय करतल(अंगुष्टरहित) कर कर करोष्टा ( ? ) करतलगर्भ कर-उदर पाद विस्तार विस्तार जंघा विस्तार २ विस्तार विस्तार विस्तार परिधि "" 17 दैर्ध्य उदय एष्ट (?) विस्तार उदय अंतर १२ | ११ उदय ■ • ४ • • • • . ४ ५ २४ २१ १४ करतल ८ ७ ६ ( करतलगर्भात दीर्घौगुला - दैर्घ्यं ९, पार्श्ववर्ति अंगुलिद्वय ८-८ वा०सार) | विस्तार ८ ७ ६ ५ • विस्तार ८ विस्तार •• ५ . १० · ३ ४ ६ • . १२ १२ १२ १२ . • · • . • . ४ ४ ४ • ८ • . • · • • ३ १ ४ の ७ ८ • • • • ४ • . • • • ४ • ४ · २७३ • ४ ऊर्ध्व प्रतिमासु Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ पाद " 25 पादतल पादोष्णी 59 झोलक घसी मच्छक करांगुष्ट 19 अंगुष्ट पाद पादकंकण प्रवेश मसूरात्पाद प्रवेश उत्संग अंगुष्ठ 95 हस्ततर्जनी उदय दैर्घ्यं विस्तार 35 परिणाह दैर्घ्यं विस्तार दै विस्तार दै विस्तार उत्सेध पिंड दैघ्यं ु १५ • ८ . (09 • သ 10 ६ २ • . ་ . • . • . 1 • a 81 = ||४|| . . . १५ | १६ | १२ | १० १४ ८ ७ • . • . . [ कल्याण - कलिका - प्रथम + • . ६ . ९ ? · . • ३ ་ ॐ مو · - ❤ • . · १। . . - " . . · • . ४ 811 + मध्यमा ५ ५ ६ "" + प्रदेशिनी अनामिके - मध्यमा नखार्ध हीने कनिष्ठा नखहीना प्र० . १ ) = ३ ४ ང་ " . . . . . . . . Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम् ] अनामिका दैर्घ्य अना मिका दैर्घ्यं विस्तार विस्तार विस्तार विस्तार कनिष्ठा तर्जनी मध्यमा अनामिका कनिष्टा पादांगुष्ट पेसारगर्भीरेखाथी अंगुष्ट पादांगुली तर्जनी दैर्घ्यं पादमध्यमा पादअनामिका पादकनिष्ठा दीर्घांगुली कनिष्ठा दैर्ध्य विस्तार निर्गम गुल्फमूल गुल्फमूल गुल्फ 77 "" ܕܕ 99 तर्जनी अंगुष्ठ अग्रे - अंतर पूर्वपाद तर्जनी | मूलांतर विस्तार निर्गम परिधि ४ |४|| = 181 = 1 •111 |o111=12) - oill ? > 11 = ३॥ ४ |१/ ४ 811 my ३ १५ ३ | ० || १ (१) - १ ||il ||| १६. १४ ३ १॥ ३ २॥॥८ |२||| |२॥ ०/८ ६ ४ १२ ૨૭૧ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे नख देध्ये । नख दैर्ध्य पर्वाधिपधिपधि अंगुष्ट नख प्रतिमा तनु । पिंड प्रतिमा आसने पिंड मस्तके प्रतिमा पिंड १६ कोष्ठकोना संबन्धमा-कंईक स्पष्टता१. उपर्युक्त कोष्ठकोमा जणावेल हकीकत अमो आना करतां घणां थोडां पृष्टोमां कही शकत, पण तेम करवा जतां भिन्नकालीन अने भिन्न देशज ग्रन्थोक्त विषयनो खीचडो थई जवानो भय हतो जे अमने इष्ट न हतो. वाचकगण जोशे के आ कोष्ठकोमा भर्या करतां खाली स्थलो वधारे छे, एनो अर्थ ए छे के प्रत्येक ग्रन्थमां प्रत्येक वस्तुनुं निरुपण नथी, एके एक वात लखी, तो बीजाए बीजी. एनो अर्थ एम करवानो नथी के पहेलामां जे वात नथी कहेवाइ ते वीजामांथी लेवी अने बीजामां न होय ते त्रीजामांथी; बधा ग्रन्थो सार्वदेशीय अने समकालीन न होवाथी आम करवा जतां प्रतिमामां लक्षण सांकर्य आवीने सुंदर बनवाने बदले विचित्र बनवानो संभव छे, माटे ज्यांसुधी एक ग्रन्योक्त अंगमान मले त्यांसुधी बीजामां कहेल लेवु न जोईये. जे ग्रन्थोक्त लक्षणानुसारी प्रतिमा बनाक्वी होय ते ग्रन्थमां कोई बात न ज होय तो ते वात बीजा ते ग्रन्थमांथी लेवी के जे अभीष्ट ग्रन्थनी साथे घणे भागे मलतो आवतो होय, दाखला तरीके जयसंहितामां जे वातनो खुलासो न मलतो होय ते जिनप्रतिमा विधान अथवा वास्तुसारमांथी लेवो योग्य गणाय. कारण के ते घणे भागे मलता आवे छे. एथी उलटुं बृहत्सं Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद-लक्षणम् ] २७७ हिता अने प्रतिमामान-लक्षण आपसमां कईक मले छे. के जे जयसंहितादिथी घणा जुदा पडे छे. केटलीक उपयोगी बाबतो निकटना ग्रन्थमां न होइ दूरना आधारे लेवी पडे तेवी होय तो ते बे ग्रन्थो वच्चेनुं तारतम्य विचारीने तेमां आवश्यक जणातुं परिवर्तन करीने तेनो स्वीकार करी शकाय. उदाहरण तरीके बृहत्संहितामां घणा खरा अंगोपांगोमां दैय ओछु माने छे. ज्यारे विस्तारमा महत्त्वनो भेद धरावती नथी. आपणे कोइ अंगप्रत्यंगना दैर्ध्यनो अंक लेवो हशे तो कंईक वधारीने ज लेवो पडशे जेथी आपणा अभीष्टग्रन्थनी साथे मली जाय. २. कोष्ठकोक्त मानांकोमा केटलाक मानांको एक बीजाथी एटला बधा भिन्न पडी जाय छे के जाणे बे वस्तुओ ज जुदी होय. बे चार उदाहरण जोईये. ____(१) सर्व प्रथम 'उष्णीष' कोष्ठकमां ज तमने गडबड मालम पडशे 'ज' ग्रंथ ६ अने 'अ' ग्रंथ १ नो ज निर्देश करे छे 'प्र' ग्रंथ ८ लखे छे, ज्यारे बाकीना ४ ग्रन्थो कई लखताज नथी. आ गडबडनुं समाधान ए छे के 'ज' ग्रन्थकारे 'केशान्तमस्तक 'नो ४ नो आंक अने उष्णीपनो २ नो आंक सामेल गणी 'उष्णीष' ६ आंगलनुं लखी दीधुं छे, जुओ तेनी नीचेनो 'ज' नो केशान्तमस्तकनो कोठो खाली छ, वास्तवमां तो '२ उष्णीष अने ४ केशान्तमस्तक' लखवू आवश्यक हतुं, कारणके आ ग्रन्थ श्वेताम्बर संप्रदाय मान्य प्रतिमार्नु निरुपण करे छे. ए संप्रदायनी प्रतिमाओने उष्णीष (शिखा) आंगल २ नुं अने केशान्तमस्तक ४ नुं मानेलं छे. बीजी वात 'अ' ग्रन्थे उष्णीष १ आंगलनुं लख्युं छे, दिगम्बर संप्रदायनी प्रतिमाओने प्रायः १ आंगलनु उष्णीष अने ३ आंगलन केशान्तमस्तक जोवामां आवे छे. आथी जणाय छे के दिगम्बर प्रतिमाओन निर्माण Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे आ 'अ' ग्रन्थना आधारे पूर्व थतुं हशे. '' ग्रन्थ ८ आंगल लखे छ तेनुं कारण के ते बौद्ध प्रतिमानो प्रतिपादक ग्रन्थ छे. बौद्ध प्रतिमाओना ४ आंगलना केशान्तमस्तक पर ८ आंगलनो 'जटामुकुट' मानेलो छे. _ 'जि' 'वा' ग्रन्थो उष्णीप विशे कई लखता नथी, कारणके आ ग्रन्थकारोए उष्णीषो सामेल गणीने अनुक्रमे केशान्तमस्तक ६ अने ५ आंगलनुं गण्युं छे. ' ग्रन्थमा उष्णीष अने केशान्तमस्तकनो आंक नथी ज्यारे 'न' ग्रन्थमां ३ आंगलर्नु केशान्तमस्तक तो बताव्यु छे पण उष्णीष विषे कंईज कह्यं नथी. आनुं कारण ए छे के ए बन्ने ग्रन्थो मुख्यत्वे नवताल प्रतिमाओर्नु निरुपण करे छे, जैनप्रतिमाओर्नु नहि. उष्णीषनो व्यवहार मुख्यत्वे जैनप्रतिमाओने अंगे छे. 'न' ग्रन्थे 'केशान्तमस्तक' विषे लख्युज छे अने '' ग्रन्थमां पण सकेश मुख दीर्घता १६ आंगलनुं लखीने सकेशमस्तकनुं निरुपण करी ज दीधुं छे. (२) 'नेत्रदै'नां कोष्ठकोमा ८।४ अने २ ना आंकडा नजरे पडशे. आमां ८ नो आंक बे नेत्रोनो संयुक्त छे, ४ ना एक एक नेत्रना छे, ज्यारे २ नो अंक पांपणो वच्चेना नेत्रनी लंबाईना समजवाना छे. (३) कर्ण दैयना कोष्ठकोमा ४० १० अने ४ ना आंकडा नजरे पडे छे. आमां ४/- अने ४ ना आंकडा दिगम्बर संप्रदायनी प्रतिमा तथा अन्य देवोनी प्रतिमाओना कानोनी दीर्घता सूचवनारा छे, ज्यारे १० नो आंक श्वेताम्बर संप्रदायनी जिनप्रतिमाना कानोनी लंबाई सूचवे छे. श्वेताम्बरो प्रतिमाना कानोनो संबन्ध ठेठ स्कंध सुधी जोडे छे. एटले नीचेनो भाग लंबावीने स्कंधथी १ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम् ] ર૭૨ आंगल उंचो राखे छे अने १ आंगलनो कर्णाधार बनावीने तेने खांधाथी जोडे छे. (४) 'ज' ग्रन्थ नीचेना कोइ कोइ कोष्ठकमां अमोए उपर नीचे बेबे आंकडा लख्या छे, तेमांनो उपरनो आंक ए ग्रन्थना मूल श्लोको उपरथी निष्पन्न थतो अंक छे, ज्यारे नीचेनो आंक ए ग्रन्थनी हस्तलिखित प्रतिना अन्तमां आपेला कोष्ठक उपरथी लीधेल छे. मूल श्लोको घणा खरा अशुद्ध होइ तेमाथी निकलतो अंक पण अशुद्ध होय अने कोष्टकनो आंक कदापि शुद्ध होय तो उपयोगमां लेइ शकाय एम धारी नीचे ए आंक पण आपी दीधो छे. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमामानांक परिशिष्ट'समरांगण सूत्रधारोक्त-प्रतिमा मानाङ्क १ श्रवणकर्णबन्ध-१॥ गोलक ॥ कर्णपिप्पली-दीर्घा द्विभागगोलकविस्तृता १ अं०॥ लकार-दीर्घ १॥, विस्तृत १ अं० पिप्पल्यार्धा (त्)तयोर्मध्ये ॥ लकार मध्ये निम्न०॥ अं०॥ पिप्पलीमूले श्रोत्र छिद्र०॥ अं०॥ स्तूतिका-दीर्घा०॥, विस्तार। अं०॥ पीयूषीदीर्घा २ अंक, वि० १॥ (लकारा वर्तयोर्मध्ये)॥ आवर्त-६ अं० ( वक्त्रो वृत्तायतश्वसः कर्णस्य बाह्यारेखा ) मूलांशविस्तार मूले०॥ अं०, मध्ये०। अं०, अंते ०)अं०॥ उद्घात-पीयुष्या अधोभागे विस्तार ०/- अं० (लकारा वर्तयोर्मध्ये )॥ ऊर्च कर्ण विस्तार-१ अं०, गोलक द्वियवान्वितः ॥ मध्ये कर्ण विस्तार-२ गोलक चतुर्यवान्वितः॥ मृले मात्रा १ यवा ६॥ पश्चिमनाल १ अं० वि०॥ पूर्वनाल०॥ अं०वि०॥ प०पू० नाले दीर्घ २ कला. ॥ २ चिबुकचिबुक आयाम २ अं०॥ अधर १ अं०॥ उत्तरोष्ट १ अं०॥ भाजी०॥ अं० उदय, ॥ नासापुटौ ओष्टचतुर्थभागौ ॥ नासा ४ अं०॥ पुटप्रान्ते नासाग्रविस्तार २ अं०॥ ललाट विस्तार ८ अंक, आयत ४ अं०॥ गंडान्त शिरसो यानं ३२ अं० ग्रीवा परिणाह २४ अं०॥ ग्रीवात उरः २ भा०॥ उरसोनाभिः २ भा०॥ नामे मण्द्रं २ भा०॥ ऊरु-जंघे समे ॥ जानु ४ अंगुल ॥ पादायाम १४ अं०॥ पद Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम् ] २८१ विस्तार ६ अं० ॥ पादोत्सेध ४ अं० ॥ अंगुष्टायाम ३ अं० ॥ अंगुष्ट परिणाह ५ अं० ॥ प्रदेशीनी अंगुष्ट समायामा ।। मध्यमा प्रदेशीनी षोडशांशोना || मध्यमाष्ट भागोनाऽनामिका || अनामिकाष्ट भागोना कनिष्ठा ॥ अंगुष्ट ० ॥ अं० ॥ अंगुलीनखाः अंगुष्ठकोत्सेध १ = अं०॥ प्रदेशीनी उत्सेध १ अं० ॥ शेषा यथाक्रमं हीनाः ॥ जंघामध्ये परीणाहः १८ अं० ॥ जानुमध्ये परीणाहः २१ अं० ।। जानुकपालं ३ अं ॥ ऊरुमध्ये परीणाहः ३२ अं० ।। वृषण अर्धभाग | मेंदू अर्धभाग | मेंदू परीणाह ६ अं० ॥ कोश: ( अंडकोश ? ) ४ अं० ॥ कटि विस्तार १८ अं० ॥ नाभिमध्ये परीणाह ४६ अं० ॥ स्तनयोरंतरं १२ अं० ॥ स्तनोपरि कक्षामान्तौ ६ अं० ॥ भुजायाम ४६ अं० ।। वाहोपरि पर्व १८ अं० ॥ द्वितियं पर्व १६ अं० ॥ बाहु मध्ये परीणाह १८ अं० | प्रबाहु परीणाह १२ अं०॥ कर आयाम १२ अं० ॥ अंगुलीरहितकरायाम ७ अं० ॥ करविस्तार ५ अं० ॥ मध्यमांगुली ५ अं० ॥ मध्यमातः पर्वार्धहीना प्रदेशीनी ॥ अनामिका प्रदेशीनीसमा । ततः पर्वार्ध मानहीन कनिष्ठा ॥ अंगुली नखाः पवर्धमानाः । अंगली परीणाहः ॥ अंगुष्ट दैर्ध्य ४ अं० ॥ अंगुष्ट परीणाह ५ अं० ॥ नखास्तुं गत्वात्किचिद्वीनाः ॥ अंगुष्ट - प्रदेशिवी - अंतर २ अं० ॥ होनाधिक माननी प्रतिमा न करवी - अन्यथा च न कर्तव्यं, यदीच्छेत् श्रियमात्मनः । मानाधिकं न कर्तव्यं, मानहीनं न कारयेत् ॥३८॥ ૩૬ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૮ર __ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे कृते च बहवो दोषाः, सिद्धिस्तत्र न जायते । अज्ञानात् कुरुते यस्तु, सशास्त्रं नैव जायते । न दोषो यजमानस्य, शिल्पिदोषो महान् ध्रुवम् ॥३९॥ भाल्टी-जो पोतानी शोभा चाहे तो शिल्पी प्रतिमा निर्माणमां शास्त्रथी विपरीत काम न करे. अर्थात् मानाधिक तथा मानहीन प्रतिमा न बनावे, एम करवामां घणा दोषो उत्पन्न थाय छे अने कारकनी कार्यसिद्धि अटके छे. जे शिल्पी अज्ञानवश मानाधिक अने मानहीन प्रतिमाओ बनावे छे ते शास्त्रनुं पालन करतो नथी, आमां यजमान (प्रतिमा करावनार )नो दोष नथी पण आमां खरेवर म्होटो दोष शिल्ीनो ज गणाय छे. भग्न प्रतिमाना संस्कार विषेधातुलेपादिप्रतिमा-अंगभंगे च संस्करेत् । काष्ठ-पाषाण-निष्पन्नाः,-संस्काराहींः पुनर्नहि ॥४०॥ भा०टी०-धातु, लेप आदिथी बनावेल प्रतिमानो अंग-भंग थाय तो फरी संस्कार करीने तेनो उपयोग करी शकाय पण काष्ठ तथा पाषाणनी प्रतिमा भागी जतां ते फरी संस्कार योग्य रहेती नथी. ___ अलाक्षणिक प्रतिमाथी हानिरौद्री निहन्ति कर्तार-मधिकाङ्गा च शिल्पिनम् । कृशा द्रव्य-विनाशाय, दुर्भिक्षाय कृशोदरी ॥४१॥ वक्रनासा च दुःखाय, इस्वगात्रा क्षयंकरी। अनेत्रा नेत्रनाशाय, स्थूला सौभाग्यवर्जिता ॥४२॥ दुःग्वाय स्तब्धदृष्टिः स्यात् ,-स्वल्पा भोगविनाशिनी । जायते प्रतिमाहीन-कटिराचार्यघातिनी ॥४३॥ जंघाहीना भवेद् भ्रातृ-पुत्र-मित्र-विनाशिनी । पाणि-पाद-विहीना तु, धनक्षयविधायिनी ॥४४॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम् ] ર૮રૂ चिपुटी यत्कृतार्थानां, प्राप्तानां च व्ययो भवेत् । जायते प्रतिमा निम्ना, चिन्ताहेतु-रधोमुखी ॥४५।। अथापदे तिरश्चीना, नीचोच्चा तु विदेशदा । अन्यायद्रव्यनिष्पन्ना, परवास्तु दलोद्भवा । न्यूनाधिकांगी प्रतिमा, सर्वस्य परिनाशिनी ॥४६॥ भाण्टी०-भयंकर आकारवाली करावनारने अने प्रमाणाधिक अंगवाली प्रतिमा शिल्पी (करनार कारीगर )ने हणे छे. दुबली द्रव्यनो नाश करनारी अने पातलपेटी दुर्भिक्षकारीणी थाय छे. वांका नाकवाली दुःख देनारी, ट्का शरीरवाली क्षय करनारी, नेत्र वगरनी नेत्रनाशिनी थाय छे अने प्रमाणथी जाडी प्रतिमा सौभाग्यहीन होय छे. स्तब्ध (अकड ) दृष्टिवाली दुःख देनारी, हीनांगी भोगनो नाश करनारी अने कटिहीना प्रतिमा आचार्यनो घात करनारी होवाथी त्याज्य छे. जंघाहीना भ्रातृ-पुत्र-मित्रनो विनाश करनारी अने हाथ-पगनी खोडवाली प्रतिमा धनक्षय करनारी थाय छे. चिपटी आंखवाली द्रव्य व्यय करावनारी अने नीची तथा नीचा मुखनी प्रतिमा चिन्ता करावनारी थाय छे. तिरछी नजरवाली आपत्ति लावनारी अने प्रमाणथी नीची वा उंची प्रतिमा प्रवास देनारी थाय छे. अन्यायोपार्जित द्रव्यथी तैयार थयेली बीजाना वास्तु द्रव्यथी बनेली अथवा तो न्यूनाधिक अंगोपांगवाली प्रतिमा सर्वनो नाश करनारी निवडे छे. उपर्युक्त प्रतिमानां अशुभ लक्षणो प्रायः प्रतिमानां घडनार शिल्पीना हाथे थयेलां होय छे, ते प्रतिष्ठा पहेलां प्रतिमा जोवाथी जणाई आवे छे अने तेवी अलाक्षणिक प्रतिमाओ वर्जी शकाय छे; वळी प्रतिष्ठा करनारनी असावधानीथी स्थापन करती वखते केटलीक भूलो थई जवा पामे छे ते पण न थवी जोइये ए संबन्धमां फल प्रति Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૪ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे पादनपूर्वक कहे छ के ऊर्ध्वदृष्टिव्यनाशा, तिर्यग्दृष्टिमहाधये । ...श्वश्रितादृष्टिश्वो-र्वमुखी कुलनाशिनी ॥४७॥ भा०टी०-प्रतिमानी दृष्टि द्वारना जे भागमां आववी जोईये तेथी उंची रहे तो द्रव्यनो नाश करे, द्वार मध्यने बदले दृष्टि डावीजमणी रहे तो मानसिक चिन्ताओने करे छे. प्रतिमा पाछलनी तरफ डगेली उंचा मुखवाली होय तो कुलनो नाश करे छे अने स्वस्थानस्थित समदृष्टि कल्याणकारी थाय छे. लक्षणहीन प्रतिमाना विषयमा समरांगण . सूत्रधारअशास्त्रज्ञेन घटितं, शिल्पिना दोषसंयुतम् । अपि माधुर्यसंपन्नं, न ग्राह्य शास्त्रवेदिभिः ॥४८॥ अश्लिष्ट संधि विभ्रान्तां, वक्रां चावनतां तथा । अस्थिता-मुन्नतां चैव, कांकजंघां तथैव च ॥४९।। प्रत्यंगहीनां विकटां, मध्येग्रन्थि नतां तथा । ईदृशीं देवतां प्राज्ञो, हितार्थ नैव कारयेत् ॥५०॥ अश्लिष्टसन्ध्या मरणं, भ्रान्तया स्थानविभ्रमम् । वक्रया कलहं विद्याद् , नतया [भिवसः] वयसःक्षयम् नित्यमस्थितया पुंसा-मर्थस्य क्षयमादिशेत् । भयमुन्नतया विद्याद् , हृदरोगं च न संशयः ॥५२॥ देशान्तरेषु गमनं, सततं काकजंघया। प्रत्यंगहीनया नित्यं, भर्तुः स्यादनपत्यता ॥५३॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम्] ૨૮૯ विकटाकारया ज्ञेयं, भयं दारुणमर्चया। अधोमुख्या शिरोरोग,-स्तथाधो नतयापि च ॥५४॥ भा०टी०-शास्त्रना ज्ञान विनाना शिल्पिए घडेलुं देखावमां सारं देखातुं पण दोषयुक्त एवं देवता, प्रतिबिंब शास्त्रना जाणकार पुरुषोए कदापि ग्रहण न करवू. जेना सांधा बरोबर मलेला न होय एथी, घबरायेल अथवा भयभ्रान्त चहेरावाली, वांकी वळेली, नीची धूनवाली, अस्थित अर्थात् जेनां अंगोपांग यथास्थान न होय एवी, प्रमाणथी अधिक उंची, कागडानी जंघा जेवी पातली जांघवाली, प्रत्यंगो जेना प्रमाणथी हीन होय एवी, भयंकर आकारवाली, छातीना भागमां गांठवाली एटले के प्रमाणथी अधिक बहार निकलेली छातीवाली अने मध्यभागमां नीची बलेली एवी दोषयुक्त देवप्रतिमाओ बुद्धिमाने न भराववी. 'अश्लिष्ट संधि'-प्रतिमा करावनारनुं मरण, 'विभ्रान्ता'स्थान च्युति, 'वक्रा'-कलह कंकाश, 'नता' अवस्थानी हानि, 'अस्थिता' द्रव्यनाश, 'उन्नता' भय तथा हृदयरोग, 'काकजंघा' नित्य विदेश भ्रमण, 'प्रत्यंगहीना' संतानहीनता, 'विकटा' दारुण भय, 'अधोमुखी' माथानो रोग अने 'मध्यग्रंथि' प्रतिमा पण मस्तक रोगने आपनारी होय छे. माटे उक्त दोपोवाली प्रतिमानो त्याग करवो. _प्रतिष्ठाकल्पोक्त प्रतिमा लक्षणहीनतासदोषार्चा न कर्तव्या, यतः स्यादशुभावहा । कुर्याद्रौद्री प्रभो शं, कृशांगी द्रव्यसंक्षयम् ॥५५॥ संक्षिप्ताङ्गी क्षयं कुर्या-चिपिटा दुःखदायिनी। विनेत्रा नेत्र विध्वंसं, हीन वक्त्रा च (त्व) भोगिनी ॥५६॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे व्याधि महोदरी कुर्याद् , हृद्रोगं हृदये कृशा। अंगहीना सुतं हन्यात् , शुष्कजंघा नरेन्द्रहा ॥५॥ पादहीना जनं हन्यात् , कटीहीना च वाहनम् । ज्ञात्वैवं कारयेज्जैनी, प्रतिमा दोषवर्जिताम् ॥१८॥ भा०टी०-प्रतिमा दोपयुक्त न बनाववी, केमके ते अशुभ फल आपनारी थाय छे. प्रतिमा जो रौद्राकृति-एटले भयंकर आकारनी होय तो प्रतिष्ठा करावनार गृहस्थनो नाश करे छे. दुर्बल अंगोवाली प्रतिमा द्रव्यनो क्षय करे छे. ढूंका अंगोवाली क्षय करे छे. चिपडी आंखोवाली दुःख देनारी होय छे. नेत्रहीना आंखोनो नाश करे छे अने हीनमुखवाली प्रतिमा अभोगिनी अर्थात् पूजाभोग प्राप्त करती नथी. ____ म्होटा पेटवाली प्रतिमा रोगने उत्पन्न करे छ, हृदयमां दुर्बल प्रतिमा हृदयना रोगो उत्पन्न करे छे. अंगहीन प्रतिमा पुत्रनो नाश करे छे अने शुष्क (गलेल) जांघवाली प्रतिमा देशना राजाने हणे छे. पग हीन प्रतिमा जन सामान्यने मारे छे अने कटिभागमा हीन प्रतिमा यान-वाहननी हानि करे छे. आ प्रमाणे दोषनुं फल जाणीने जैनप्रतिमाने दोष रहित बनाववी जोईये. अलाक्षणिक प्रतिमा विशे वास्तुसारनुं विधानउत्ताणा अत्थहरा, वंकग्गीवा सदेसभंगकरा । अहोमुहा य सचिंता, विदेसदा हवइ नीचुच्चा ॥५॥ विसमासण वाहिकरा, रोरकरऽण्णायदव्वनिप्फन्ना। हीणाहियंग पडिमा, सपक्खपरपक्खकट्टकरा ॥६॥ उड्ढमुही धणनासा, अपूइया तिरियदिट्टि नायव्वा। अइथडदिट्टि असुहा, हवइ अहोदिहि विग्घकरा ॥६१॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૭ प्रतिमा-लक्षणम् ] भाण्टी०-उंचा मुखवाली प्रतिमा धन हरे, वांकी गर्दननी स्वदेशनो भंग करे, नीचा मुखवाली अने नीची उंची अनुक्रमे चिन्ता अने भ्रमण करावे. विषम आसनवाली प्रतिमा व्याधि करनारी, अन्यायोपार्जित द्रव्यवडे बनेली दुर्भिक्ष करनारी अने प्रमाणथी हीन या अधिक अंगवाली प्रतिमा स्वपक्ष तथा परपक्षने कष्ट देनारी थाय छे, ऊर्ध्वमुखी धननो नाश करे छ, तिरछी नजरवाली पूजाने पामती नथी. अतिशय स्तब्धदृष्टि (अक्डदृष्टि)वाली अशुभ करनारी अने नीची दृष्टिवाली प्रतिमाने विघ्नकारिणी जाणवी. शिल्परत्नाकरोक्त प्रतिमागत शुभाशुभ रेखाओ शुभ रेखाओ-(शार्दूल०) नन्द्यावर्त-वसुन्धरा-धर-हय-श्रीवत्स-कूर्मोपमाः, शंख स्वस्तिक-हस्ति-गो-वृषनिभाः शक्रेन्दु-सूर्योपमाः। छत्र-स्रग्-ध्वज-लिंग-तोरण-मृग-प्रासाद-पद्मोप्रमाः वज्राभा गरुडोपमाश्च शुभदा रेखा कपर्दोपमाः॥२॥ भाण्टी०-पाषाण, काष्ठ आदि द्रव्योवडे बनावेली प्रतिमामां जो नन्द्यावर्त पृथ्वी, पर्वत, अश्व श्रीवत्स, कच्छप, शंख, स्वस्तिक, हाथी, वृषभ, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, छत्र, पुष्पमाला, वजा, शिवलिंग, तोरण, हरिण प्रासाद (देवमंदिर अथवा महेल ) कमल, वज्र, गरुड अने कपर्दी; आ पैकीना कोईपण पदार्थना जेवो आकार प्रतिमामां रेखाओ वडे बनेलो दृष्टिगोचर थतो होय तो शुभ फलदायक जाणवो. अशुभ रेखाओहृदये मस्तके भाले, ह्यसयोः कर्णयोर्मुखे । उदरे पृष्ठसंलग्ने, हस्तयोः पादयोरपि ॥६३॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे एतेष्वंगेषु सर्वेषु, रेखा लाञ्छन-नीलिका। बिम्बानां यत्र दृश्यन्ते, त्यजेत्तानि विचक्षणः ॥६४॥ अन्यस्थानेषु मध्यस्था, त्रासफाटविवर्जिता । निर्मला स्निग्धशान्ता च, वर्णसारूप्यशालिनी ॥६५।। भा०टी०-प्रतिमाओना हृदय, मस्तक, ललाट, खांधाओ, कानो, मुख, पेट, पीठ, हाथो अने पगो आ अंगो पैकीना कोइपण अंगमां अथवा अंगोमा आस्मानी के काला रंगर्नु चिह्न के रेखा होय तो चतुर मनुष्ये तेवी प्रतिमानो त्याग करवो जोईये. उक्त स्थानो सिवायनां स्थानोमां पूर्वोक्त प्रकारनी रेखा होय तो ते मध्यम प्रकारनी गणाय छतां चीराड-चीरा पडेला होय ते तो वर्जनीय ज गणाय. मात्र निर्मल स्निग्ध शान्त अने सरखा वर्णनी रेखाओ दोषरूप गणाती नथी. प्रतिमाभंगनुं फलनखांगुलीबाहुनासा-हीणां भङ्गे पुनः क्रमात् । जनभीर्देशभङ्गश्च, बन्धः कष्टं धनक्षयः ॥६६॥ पीठयानपरीवार-ध्वंसे सति यथाक्रमम् । जनवाहनभृत्यानां, नाशोभवति निश्चितम् ॥६७॥ भाल्टी०-प्रतिमा संबन्धी १ नख, २ आंगली, ३ बाहु, ४ नासिका, ५ चरण; आ पांच अवयवो पैकी कोइनो भंग थतां अनुक्रमे १ लोकभय, २ देश-भंग, ३ बन्धन, ४ कष्ट अने ५ धनक्षय, ए प्रमाणे फल थाय छे. तथा ? पीठ (आसन), २ वाहन (लांछन), अने ३ परिकरना भंगथी अनुक्रमे १ परिवार, २ वाहन अने ३ नोकर-चाकरोनो निश्चितपणे नाश थाय छे. खण्डित प्रतिमा विषे अपराजितपृच्छानुं मन्तव्यनखकेशाऽऽभूषणादि,-शस्त्रवस्त्राद्यलंकृतिः । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ प्रतिमा-लक्षणम् ] विषमा व्यंगिता नैव, दूषयेन्मूर्तिमंगकम् १६८॥ शान्ति-पुष्टयादिकृत्यैश्च, पुनः सा च समीकृता । पुना रथोत्सवं कृत्वा, प्रतिमा अर्चयेच्छुभा ॥६९॥ ___ भा०टी०-नख, केश, आभूषणादि अने शस्त्र, वस्त्रादि अलंकार विषम होय अथवा व्यंगित (खंडित) होय तो ते प्रतिमाने अथवा तेना अंगने दूषित करता नथी. शांतिक पौष्टिक कार्योवडे तेने पाछी सरखी करी रथयात्रानो उत्सव करीने ते प्रतिमाने शुभकारी जाणीने पूजवी. __ एज ग्रन्थना मते त्याज्य प्रतिमाअङ्गोपांगैश्च प्रत्यंगैः, कथंचिद् व्यंगषिताम् । विसर्जयेत्तां प्रतिमा-मन्यात प्रवेशयेत् ।।७।। याः खण्डिताश्च दग्धाश्च, विशीर्णाः स्फुटितास्तथा । न तासां मंत्रसंस्कारो, गतासुस्तत्र देवता ॥७॥ भा टी-अंग उपांग के प्रत्यंगमां कोई रीने खंडित होय तो ते प्रतिमाने उठाडीने त्यां अन्यमूर्तिनो प्रवेश करावबो. केमके खंडित थयेली, बलेली, शीर्ण विशीर्ण थयेली तथा तडकी थवेली प्रतिमामां जे मंत्र संस्कार ( प्रतिष्टा वखते करेल होय ते रहेता नथी, तेमांथी प्रतिष्ठादेवता, सांनिध्य मटी जाय छे. ____ अपराजितनो ए विषयमा अपवादपूर्वा वर्षशताद्देवाः, स्थापिताश्च महत्तरैः । सानिध्यं सर्वकालं तु, व्यंगितानपि न त्यजेत् ॥७२॥ पतनाद् व्यंगिता देवा-स्तेषां दुरितमुद्धरेत् । स्नपनोत्सवयात्रासु, पुना रूपाणि चाचरेत् ॥७३॥ नवैरेवापि जीर्णेवा, ह्यर्चा याऽस्थापि शोभना । परिष्कारेऽपरिष्कारे, तत्र दोषो न विद्यते ॥७४।। ३७ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भाण्टी-जे देवो सो वर्ष पहेलांना होय अने महापुरुषोना हाथे पतिष्ठित थयेला होय ते खंडित थई गया होय छतां प्रतिष्ठा देवता तेनुं सानिध्य छोडती नथी. जे प्रतिमा पडवाथी खंडित थई होय तेनुं स्नात्रोत्सव-स्थयात्रादि वडे प्रायश्चित करी तेनो संस्कार करी फरी तेनी पूजा चालु करवी. प्रतिमा नवा प्रतिष्ठापक पुरुषोए स्थापी होय अथवा जुनाओए, पण ए प्रतिमाओ जो लाक्षणिक अने सुन्दर होय तो संस्कार करीने अथवा वगर संस्कारे पण तेनी पूजा करवी एमां दोष नथी. खंडित प्रतिमा संबन्धी ठक्कुरफेरुनी मान्यतावरिससयाओ उड्ढं, जं बिंब उत्तमेहिं संठवियं । वियलंगुवि पूइज्जइ, तं बिंब निक्कलं न जओ ॥७५।। मुह-नक-नयण-नाहि-कडिभंगे मूलनायगं चयह। आहरण वत्थ परिगर-चिण्हाउहभंगि पूइज्जा ॥७६॥ पयपीठ चिण्ह परिगर-भंगे जणजाणभिच्चहाणिकमे। छत्तसिरिवच्छसवणे, लच्छी-सुह-बंधवाण खयं ॥७॥ भा०टी०-सो वर्ष पहेला उत्तम पुरुषोए प्रतिष्ठित करेल बिंब विकलांक (खंडित) थयुं होय तो पण पूजाय छ, केमके ते कलाहीन थतुं नथी. एटले के मंत्रोद्वारा तेमां उत्पन्न करेल कला-प्रभाव चाल्यो जतो नथी. मुख, नाक, नेत्र, नाभि, अथवा कटिभागमां खंडित थयेली मूलनायक प्रतिमानो त्याग करवो. पण आभूषण, वस्त्र, परिकर, लांछन अथवा आयुधनो भंग थयो होय तो तेने पूजवामां दोष नथी. पादपीठ (गादी-मसूरक) लांछन, परिकरना भंगमां अनुक्रमे Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम् ] २९१ स्वजन, यान, वाहन, अने नोकर-चाकरोनी हानि थाय छे. तथा छत्र, श्रीवत्स, कानना भंगथी अनुक्रमे लक्ष्मी, मुख अने भाईओनो क्षय थाय छे. घर अने प्रासादमा स्थापनीय प्रतिमान मानआरभ्यैकांगुलं बिवं, यावदेकादशांगुलम् । गृहेषु पूजयेद् बिंब-मूर्व प्रासादके पुनः ॥७८॥ भा०टी०-१ आंगलथी मांडीने ११ आंगल सुधीनी प्रतिमा घरमां पूजवी. एथी अधिक माननी प्रतिमा प्रासादमां (चैत्यमां) पूजा . घरमां पूजवानी प्रतिमा विषेनो विवेकप्रतिमा काष्ठ लेपाऽश्म-दन्तचित्रायसां गृहे । मानाधिका परीवार-रहितां नैव पूजयेत् ॥७९॥ भा० टी०-काष्ठनी, लेपनिर्मित, पाषाणनी हाथी दन्तनी बनेली, चित्ररुपी, लोहमयी प्रमाणमां ११ आंगलथी म्होटी अने परिकर विनानी प्रतिमा घरमा न पूजवी. प्रासादमानथी प्रतिमामानप्रासादतुर्यभागस्य, समाना प्रतिमा मता। उत्तमायकृते सा तु, कार्यकोनाऽधिकांगुला ॥८॥ अथवा स्वदशांशेन, हीनस्याप्यधिकस्य वा। कार्या प्रासादपादस्य, शिल्पिभिः प्रतिमा समा ॥८१॥ अतिहीना तु याऽर्चा स्यात् , प्रासादपंचमांशके। सर्वेषामपि धातूनां, रत्नस्फटिकयोरपि । प्रवालस्य च बिम्बेषु, चैत्यमानं यदृच्छया ॥२॥ भाटी०-प्रासादना एक चतुर्थांश जेटली उंचाईमा प्रतिमा Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे होय ते उत्तम गणाय छे. तेमां उत्तमआय लाक्वा माटे एक आंगल वधारयो अथवा ओछो करवो. ___ अथवा प्रासादना चतुर्थांशमा तेनो दशमांश जोडतां के हीन करतां जे मान आवे ते माननी ते प्रासादमां प्रतिमा स्थापवी. अर्थात् स्वदशमांश युक्त चतुर्थांश माननी उत्तम, स्वदशांशहीन चतुर्थांश माननी कनिष्ठ अने वचला माननी मध्यम प्रतिमा होय छे. प्रासादना पंचमांश जेटली प्रतिमा अतिहीनमाननी गणाय छे. सर्व धातुओनी, रत्ननी, स्फटिकनी, अने प्रवालनी प्रतिमाओने अंगे प्रासादमाननो नियम होतो नथी. गमे ते मानना चैत्यमा गमे ते माननी ए प्रतिमाओ प्रतिष्ठित करी शकाय छे. प्रासादमा प्रतिमान स्थानप्रासादगर्भगेहाधे, भित्तितः पञ्चधाकृते । यक्षाद्याः प्रथमे भागे, देव्यः सर्वा द्वितीयके ॥३॥ जिनाऽर्कस्कन्दकृष्णानां, प्रतिमाश्च तृतीयके । ब्रह्मा चतुर्थके भागे, लिङ्गमोशस्य पञ्चमे ॥८४॥ भा०टी०-प्रासाद गर्भगृहना भित्ति तरफना अर्धना ५ भाग करवा, तेमां भीत तरफना प्रथम भागमां यक्ष आदि देवो, बीजा भागमा सर्व देविओ, त्रीजामां जिन, सूर्य, स्कन्द तथा कृष्णनी प्रतिमाओ, चोथा भागमां ब्रह्मानी प्रतिमा अने पांचमा भागमा (गर्भ मध्यमां) शिवलिंगनी स्थापना करवी. दृष्टिस्थाननो विवेकबारशाखाष्टभिर्भाग-रध एकद्वितीयकैः । मुक्त्वैकमष्टमं भागं, यो भागः सप्तमः पुनः ॥८५।। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लक्षणम् ] २९३ तस्यापि सप्तमे भागे, 'गजत्वात्तत्र पातयेत्।। प्रासादे प्रतिमादृष्टिः, कर्तव्या तत्र शिल्पिभिः ॥८६॥ भा ०टी०-प्रासादना द्वारनी शाखाना एक, वे, आ क्रमे नीचेथी उपर सुधी ८ भागो करवा. तेमांथी उपरनो आठमो भाग छोडीने नीचेना सातमा भागना पण ८ भागो करी उपरनो आठमो छोडी मूल सातमाना सातमा भागमां गजाय होवाथी शिल्पिओए प्रासाद द्वारना ते स्थानमा प्रतिमानी दृष्टि पाडवी. उपसंहारप्रतिमा लक्षणना संबन्धमा जेटलं लखाय तेटलं थोडुं छे, ए विषय ज एवो छे के एने वधु चर्चीये तेम ए वधारे गहन धनतो जाय छे, एथी सामान्य वांचनार माटे ए दुर्बोध वस्तु बनी जाय एवो भय छ, माटे हवे ए लेख पूर्ण करवो ज सारो छे. प्रतिष्ठाकारक साधुओ, विधिकारक श्रावको अने मूर्तिकार शिल्पिओ; प्रतिमा संबन्धी शिल्पनो थोडो पण परिचय साधे अने नवी बनती प्रतिमाओमां एनो उपयोग करे एज आ प्रकरण लखवानो उद्देश छे. १ पुस्तकान्तरमां " गजायस्तत्र " एवो पाठ छे. बनेनो भाव एक ज छे के सातमा भागमा “गजाय” छे. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेद १३ परिकर लक्षणप्रातिहार्यमयः पुण्य-विभूतिदर्शनात्मकः । जिन-परिकरः कार्यः, स्वरूप-लक्षणान्वितः ॥३३॥ भा०टी०-जिनेश्वरनी पुण्य विभूतिनुं दर्शन करावनार, अष्ट प्रातिहार्य युक्त, पोताना रूप अने लक्षणे करीने युक्त एवो श्री जिनने परिकर कराववो जोइये. ___ 'परिकर' शब्दनो यौगिक अर्थ 'परिवार' एवो थाय छ, पण प्रस्तुत प्रकरणमां आ शब्द शुद्ध यौगिक रह्यो नथी, 'यौगिक मिश्र' बनी गयो छे. शास्त्रदृष्टिए कोई पण तीर्थकरना साधु-साध्वी समु. दायने ज तेमनो परिकर कही शकाय, पण शिल्पोक्त प्रस्तुत परिकरमां आ वस्तु नथी, अहिं परिकरनो रूढार्थ तीर्थंकरोने प्राप्त थयेल लोकोत्तर विशेषताओनो सूचक छे, आ लोकोत्तर विशेषताओर्नु पारिभाषिक नाम 'प्रातिहार्य' छे. का छे केअशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टि-दिव्यध्वनिश्चामर भासनं च। भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥१॥ __ भाटी०-आ पद्यमां सूचित अष्टप्रातिहार्योए तीर्थंकरोना अलोक भोग्य पुण्य परिपाकना फलरुपे वरेली सिद्धिओ छे, तेओ ज्यां जाय त्यां अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनी, चामर, सिंहासन भामंडल, देव दुन्दुभि, अने छत्र; ए आठ वस्तुओ हाजर ज होय, प्रस्तुत परिकर लक्षणमा एज आठ वस्तुओर्नु यथावस्थित मूर्तस्वरूप प्रदर्शित करायेलुं छे. जे नीचेना संक्षिप्त निरुपणथी समजाशे. १-परिकरमां सर्व प्रथम तीर्थंकर प्रतिमाना आसन नीचेना पीठ- 'सिंहासन' नामथी निरुपण कयुं छे. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ परिकर-लक्षणम् ] २. जिनप्रतिमानी बने बाजुमां चमर ढालता चामरधारिओर्नु स्वरुप बताव्युं छे. ३. मस्तक उपर रहेल छत्राकार छत्रत्रयर्नु निरुपण छे. ४. दुन्दुभि वाद्य वगाडता देवोनुं चित्र निरुपण कयुं छे. ५. जिनध्वनिमां पोतानी दिव्यध्वनीने पूरता वंशधरो, वीणाधरो अने शंखधरनुं स्थान निरुपण छे. ६. पुष्पवृष्टि करता देवो मालाधरो बताव्या छे. ७. मस्तक पाछळ एकत्र थयेल तेजःपुंजना प्रतीकसमा भामंडलनु निरुपण छे अने ८. सर्वोपरि जिनसभावृक्ष-अशोकवृक्षतुं स्वरुप चित्रित करीने पूर्वोक्त ८ प्रातिहार्योनो यथा स्थान समावेश एज 'परिकर' छे, ए वात सिद्ध करी छे, ए प्रमाणे 'परिकर नो पारिभाषिक अर्थ बतावीने हवे आपणे एना प्रत्येक अंगनुं निरूपण जयसंहिता शास्त्रमा करेलु छे ते जोइशं. त्यां जय पूछे छेसिंहासनं किं प्रमाणं, किं मानं बाहुयुग्मयो (कम् )। किं मानं छत्रवृत्तं च, शंखदुन्दुभिभागतः ? ॥२॥ एतत्सर्व प्रसादेन, कथयस्व जगत्पते? । विश्वकर्मा उवाचपूर्वोक्तमानतः कुर्या-दर्ती सर्वत्र शोभनाम् ॥३॥ यद्वर्णा मूलप्रतिमा, परिकरे तद्वर्णादयः । विवर्णादि महादोषाः, जायमानेषु सर्वतः ॥४॥ रत्नोद्भवा द्यायेषु, मरकतस्फटिकादिषु । न दोषो विवर्णताकीर्ण, अर्चापरिकरादिके ॥५॥ भा०टी०-जये पूछयु सिंहासन शा मापर्नु होय ? बाहुयुग्मनुं Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे मान शुं होय ? छत्रोटो कया प्रमाणनो होय ? अने शंख दुन्दुभि वगाडनाराओ माटे केटला आंगलनुं मान छे ? हे सृष्टिना स्वामी ! कृपा करीने ए सर्व हकीकत कहो ! जवाबमा विश्वकर्माजीए कह्यु पूर्व जणावेलां परिमाणोपेत प्रथम सुन्दर प्रतिमा तैयार करवी अने पछी जे वर्णना द्रव्यनी मूलप्रतिमा होय तेज वर्णना द्रव्यवडे तेनो परिकर बनाववो; प्रतिमाना वर्णथी विरुद्ध वर्णनो परिकर बनावतां सर्वत्र महादोषनी उत्पत्ति थाय छे. हां, जो प्रतिमा रत्ननी, मरकतमणिनी, अथवा तो स्फटिकनी होय तो प्रतिमाना परिकरमां विवर्णतानो दोष गणातो नथी. आसनं च अतो वक्ष्ये, भंगान् वक्ष्यामि त्वं शृणु। अर्चाऽर्धोदयकं कार्य, सिंहासनं त्रिदीर्घकम् ॥६।। सर्वतः कर्णा संयुक्त-मंगुलादिकमुच्छ्ये। निर्गतमर्योदयं चैव, उभयो ाम-दक्षिणे ॥७॥ द्वादशांगुलभवं रुपं, द्वयंगुला छाद्यकी तथा । वेदाङ्गुलमुपरिष्टात् , कर्णकं चषकैस्तथा ॥८॥ उदयश्च समाख्यातो, दैये वै कथ्यतेऽधुना। भा०टी०-हवे आसन अने तेनी रचनाना प्रकारो कहुं छु, ते सांभल ? प्रतिमाना उदय करतां सिंहासन उंचाईमा अधु राखg अने उंचाईथी त्रणगुणुं दीर्घ करवू, तेने सर्व तरफ कणीयुक्त करवु, कणीनो उदय आंगलनो करवो, डाबी-जमणी बाजुए सिंहासनना उदय थकी अर्ध निर्गम करवो, १२ आंगल परिमाणमा रुपक करवु, २ आंगलनी छाजली अने ते उपर ४ आंगलमा कणी १करवी, आम उदय कह्यो, हवे विस्तार कहेवाय छे. १ प्रत्येक ग्रन्थना विधान प्रमाणे सिंहासननी उंचाई बेठी प्रतिमानी ५६ भागनी उंचाईथी अडधी २८ भागनी कही छे, ४ भागनी कणी, २ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीकर-लक्षणम् ] आदिशक्तिर्जिनैदृष्टा, आसने गर्भसंस्थिता ॥९॥ सहजा कुलजाऽधीना, पद्महस्ता वरप्रदा । अकमानं विधातव्य-मुपागसहितं भवेत् ॥१०॥ गर्भमध्ये विधातव्यं, धर्मचक्रं च शोभनम् । चक्रं सुदर्शनं नाम, अधर्मक्षयकारकम् ॥११॥ सृगः सत्यं चरन् धर्म, दयादेवी मृगी मता। कुमुद-शंखवर्धाख्यौ, द्वौ गजौ वामदक्षिणे ॥१६॥ भद्रजात्युद्भवौ कार्या-वंगुलदिक्षु विस्तरौ। शिवौ रौद्रमहाकायौ, जीवत्क्रोधौ च रक्षणे ॥१३॥ द्वादशांगुलविस्तारौ, कर्तव्यो विवृताननौ। केवलज्ञान मूर्तीनां, सर्वेषां पादसेवकाः ॥१४॥ यक्षा श्चतुर्विशतिः प्रोक्ता, एकैकं परिकल्पयेत् । भूतयक्षान् गजसप-निधिहस्तान् वरप्रदान् ॥१५॥ स्तंभणालसंयुक्ता, मकासरूपकैः। शशिनिर्मल शोभायं, चतुर्दशांगुलान क्रमात् ॥१६।। पद्मासना वाहनयुक्ता-श्चतुर्विशतिः कुल शासनी। धर्माद्य शुभादेवी, अम्बिकाद्याः क्रमोद्भवाः ॥१७॥ स्तभैर्मणालसंयुक्त-पूर्णादिविरालिकैर्विदुः।। आसनं कथितं चैव, चामरधरानथ शृणु ॥१८॥ नी छाजली अने १२ भागना रुपकलां सिंहासननी उंचाईना १८ भागो रोकाय छे त्यारे १० भाग शेष रहे ले. आ १० भागोमां शुं करवू, एनो अहीं खुलासो. मलतो नथी. शिल्परत्नाकरमां आपेला परिकालक्षणमा सिंहासन ना नीचेना १० आंगलोमां पीठ बनाववानुं विधान छे, ज्यारे वास्तुसारमा ठक्कर के नीचेना १० भागोमांथी २ भागनी कणी अने ८ भागनी लेखपट्टी छोडवानुं विधान कयु छे अमने आ विधान योग्य लागे छे. ३८ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भा०टी०-सहज, कुलीन अने स्वाधीन एवी जे आदि शक्ति जिनोए पोताना आत्मामां जोई ते शक्तिने हाथोमां कमल अने वरद बतावीने आसनना मध्यगर्भमा स्थापन करवी. १ते आदि शक्तिनो विस्तार उपांग सहित १२ आंगलनो करवो, २आदि शक्तिनी नीचे आसनना गर्भमां सुन्दर धर्मचक्र बनावq, आ धर्मचक्र सुदर्शनचक्रनी जेम अधर्मनो क्षय करनारुं छे. ते धर्मचक्रनी एक तरफ सत्यरुपी ' मृग' अने वीजी तरफ दयारूपिणी 'मृगी' बनाववी, आ बंने जाणे धर्मचक्रनो आश्रय पामीने निर्भय थयां होय एम चित्रवां, ते पछी कुमुद अने शंखनिधिना प्रतिक समा बे हाथीओ डाबी-जमणी तरफ करवा. हाथी भद्रजातिना अने १०-१० आंगलना विस्तारमा बनाववा. हाथीओ पछी रौद्र रूपधारी अने महाकाय एवा २ ३शिवी १२-१२ आंगलनां बनाक्वा. आ शिवोना १ शिल्परत्नाकरना परिकरलक्षणमां आनो उल्लेख 'मंध्यदेवी' ए नामथी कर्यो छे, त्यारे वास्तुसारमा एने 'चक्रधरी' 'गरुडांका' आवां नाम विशेषगो आप्यां छे. ठक्कुरफेरुना आ कथननी अपेक्षा समजी शकाती नथी. चक्रधरी एटले चक्रेश्वरी देवी प्रथम तीर्थंकरनी शासन यक्षिणी छे, एर्नु रूपक दरेक तीर्थकरना सिंहासन उपर शा माटे होवू जोईए ? अम्हारा मन प्रमाणे ५ विषयमां 'जयसंहिता'- कयन युक्तियुक्त लागे छे. २ आदि शक्तिनुं विस्तारमान अहिंया उपांग सहित १२ भागनुं का छे, शिल्प रत्नाकरमा २-२ भागनी २ थांभलीओ अने ८ भागमा देवीनो विस्तार राखवार्नु विधान छे, त्यारे वास्तुसारमा ३-३ भागमां २ चमरधरो अने ६ भागनी देवी बनाववानुं विधान छे. आ देवीना रूपकनो निर्गम शिल्प रत्नाकरना परिकालक्षणमां ५ आंगलनो बताव्यो छे. ३ वास्तुसारमा आ रूपकोनां 'केसरी' अने शिल्परत्नाकरोक्त परिकर लझगमा 'सिंह' नामो कह्यां छे. जयसंहितामा 'शिव' कहेलो आ 'शिव' कोण? ए विचारणीय छे. ज्योतिषशास्त्रमा प्रयागमा 'शिव' कई दिशामां होय तो शुभ अने कइ दिशामां अशुभ ? आवा प्रसंगे “संमुखःस्थ शिवस्त्याज्यः" इत्यादि शब्दोमां 'शिव'नो उल्लेख छे. छतां "सर्वत्र भ्रमते रुद्रो, Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर-लक्षणम्] मुख फाडेलां एटले के विकृत करवां, जाणे के जीवोने एनाथी बचाववा माटे जिनेश्वरे पोताना आसन नीचे दबावी दीधेला क्रोधनां मूर्तरुपो. सर्व केवलीतीर्थकरोना चरण-सेवको जे २४ यक्षो कह्यां छे, तेमांथी १-१ यक्षनी मूर्ति बनाववी एटले के जे तीर्थकरनी प्रतिमा होय तेना यक्षनी प्रतिमा जिनना जमणा हाथनी तरफना आसनमां शिवनी आगे बनाववी, यक्षो प्राणियोना मित्रो होय, तेवा सौम्य अने गज, सर्प आदि स्व स्व वाहनयुक्त, हाथोमां निधानवाला अने वर मुद्रावाला बनाववा. तेमनी बने बाजु कमल युक्त स्तंभो बनाक्वा. स्तंभो मकरो अने ग्रासडाओना रूपको वडे शोभित करवा, अर्थात् आ वधी रचनावडे यक्षोने सुशोभित करवा. आ यक्षो विस्ता रमां १४ आंगलना करवा जोईये. वली २४ शासनदेवीओ, के जे पद्मासनादि वाहनो अने आयुधो धरावनारी छे, धर्मने निमित्ते प्रवृत्ति करनारी छे, एवी अंबिका आदि जे देवी जे तीर्थंकरनी शासनदेवी होय ते देवीनी शुभ मूर्ति ते तीर्थकरनी प्रतिमाना आसनना डाबे भागे शिवनी पछी बनाववी. एनो पण विस्तार १४ आंगलनो राखवो, अने एनी पण बंने बाजुमां कमलयुक्त स्तंभो बनाववा, उपर विरालिकाओनां मुखो करवां. आ प्रमाणे सिंहासननी रचना कही, हवे चामरधरोने सांभल ! चामरधरानतो वक्ष्ये, चामरेन्द्रा इति स्मृतान् । पृष्टपदोद्भवाः कार्या, बाहिकोभयमध्यतः।।१९।। दुर्बलतानां बलप्रदः" आवा शब्दोथी कदाच ज्योतिषनो 'शिव' 'महादेव' ना रुद्ररूपना अर्थमां पण होय, प्रस्तुतमां शिवनुं जे स्वरुप लख्यु छे एथी तो ए 'शिव' हस्तीथी पण अधिक 'महाकाय' कोई क्रूर हिंसक जीव होय एम ज जगाय छे. अमारी कल्पना प्रमाणे आ शिव ते रुद्रनुं मंहारक 'काल'रूप छे जेने श्री जिनेश्वरे आसन नीचे दबाव्यु छे. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे प्रतिमा-स्कन्धमुत्सेधाः, पृष्ठपादान्तबाहिका। स्तंभो मृगाल संयुक्तौ, पूर्वादिविरालैर्विदुः ॥२०॥ वरालंकार संयुक्ताः, सुरेन्द्रा गुणपर्वताः । प्रह्लादोवक्रमस्यास्य (वामतश्चास्य) चामराधार सौच्यते ॥२१॥ दक्षिणे बाहुसंस्थाने, अपीन्द्रो विष्णुनामतः उदयः स्तंभिकाभिश्च, तिलकं शंबव्यालके ॥२२॥ मकरौ च प्रक्षोभादयौ, कर्तव्यो विवृताननौ। उच्छ्यमंगुलाः पंचा-शद्विस्तारे द्वाविंशतिः ॥२३॥ व्याल उपांगसहितोंऽगुलानां पदकमेव च । मूलनायकस्तनगर्ने, दृष्टिमिन्द्रस्य कारयेत् ॥२४॥ नानाभरणशोभाढयं, नानारत्नोपशोभितम् । इन्द्रस्य लक्षणं चैव, चामरधारः प्रकथ्यते ॥२५।। भा०टी०-हवे चामरेन्द्र नामथी प्रसिद्ध चामरधरोने कहीश. चामरेन्द्रो मूलप्रतिमाना पगोनी पाछली फरके बने बाहीओना वचमां करवा, तेमनी उंचाई मूलप्रतिमाना स्कन्ध पर्यन्त करवी अने चामरेन्द्रोना पग पाछल बाहिका करवी. __चामरेन्द्रोनी बने तरफ बाहिकामां कमलयुक्त थांभलिओ करवी, ते उपर विरालिकाओ करवी, इन्द्रोने सुन्दर अलंकारो बडे शोभित गुणोना पुंज जेवा बनाववा, आमां प्रतिमाना डाबा हाथ तरफनो इन्द्र 'प्रह्लाद' अने दक्षिण विभागनो इन्द्र 'विष्णु' ए नामे ओलखाय छे. चामरेन्द्रोनो उदय थांभलिओ जेटलो करवो, थांभलिओ उपर तिलकडा, शंबर, हाथी अने उंडाणमां फाडेल मुखवाला मगरो करवा. Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर - लक्षणम् ] ३०१ वाहीओनो उदय ५० अने विस्तार २२ आंगलनो करवो. हाथी उपांग सहित ६ आंगलना करवा. चामरेन्द्रोनी दृष्टि मूलप्रतिमाना स्तन सूत्रे मूकवी. इन्द्रोने अनेक आभूषणोथी अलंकृत अने अनेक रत्नालंकारो बडे सुशोभित करवा, अलंकृतविभूषितच्च एज चामरधर इन्द्रोनुं लक्षण कहेवाय छे. दोलाख्यं तोरणं कार्य, मीनकाकाररूपिणम् । त्रिरथिकोद्भवं कार्य. छत्रत्रयसमन्वितम् । अशोकपत्रोद्भवं कार्य, छत्रं दण्डसमन्वितम् ||२३|| भा०टी० - वाहीओ उपर 'दोला' नामक तोरण करयुं, तोरण मत्स्याकारे व्रण रथिकाओवालुं अने ऋण छत्रो युक्त कर तोरणमां आसोपालवनां पत्रो देखाडवां अने छत्र दंड सहित करं. अतस्ते ( 2 ) फणमंडपाख्यं, मस्तकान्ते ततो भवेत् । त्रि-पंचफणः सुपार्श्वः, पार्श्वः सप्त नवस्तथा ||२७|| होनफणो न कर्तव्यो ऽधिको नैव प्रदुष्यते । छत्रत्रयं नासाग्रेणो-तारे, सर्वान्तिमं भवेत् ||२८|| नासा - भालान्तयोर्मध्ये, कपाले वेधतः पुनः । चतुरशीत्यंगुला दीर्घ, उदयं पंचाशदंगुलम् ||२९|| १ वास्तुसारमां बाहीओनो उदय ५१ आंगलनो बताव्यो छे. ज्यारे शिल्परत्नाकरोक्त परिकरलक्षणमा ४९ आंगलनो आवे छे. ८ गादी, ३१ काउस्पग्गिया अने १० तिलक मली ८ + ३१ + १० = ४९ थाय. शिल्परत्नाकरना लांबहुनो विस्तार पण १८ आंगल ज बतावेल छे पग एज वस्तु तेमां उभी प्रतिमानुं 'परिकर' ए शीर्षक नीचे जुदा रुपे उपस्थित करी छे. - " द्विताला विस्तरे कार्या बहिः परिकरस्यतु । आ श्लोकाधमां बानो विस्तार २ ताल एटले २४ आंगलनो जगावे छे. आधी जगाय छे के शिल्परत्नाकरोत 'परिकरलक्षण' मां कोई एक ज ग्रन्थनो आधार लीधो जगातो नथी. ए सिवाय वास्तुसारमां बाहीओनी जाडाई २६ आंगलनी बतावी छे जे बीजे क्यां लखी नथी. " Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ [ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे द्वंद्वास्तस्योsa कर्तव्याः सर्वलक्षणसंयुताः । 0 भा०टी० - मस्तकने अन्ते उपर फणा मण्डप करवो, सुपार्श्वनाथने ३ वा ५ अने पार्श्वनाथने ७ अथवा ९ फणवाला करवा, एथी ओछ फोन करां. अधिक करवामां दोष नथी. त्रण छत्रो पैकीना सर्वथी नीचेना छत्रनो उतार नाकना अग्रभागे होवो जोईये, जेथी अवलंब उतारतां नाक अने ललाटना अंतभागे कपालनो वेध थायः दोला तोरणनी लंबाई ८४ आंगलनी अने उदय ५० अंगलनो करवो. दोला - तोरण उपर जे जे रुपको करवानां होय ते सर्व द्वंद्वरूपे अर्थात् जे रुपक एक बाजुमां होय तेज तेनी सामे बीजी बाजुर पण कर, सर्व द्वंद्व लक्षणोपेत करवां. भामंडलं ततो मध्ये, तिलकं वाम-दक्षिणे ॥३०॥ अंगुलद्वादशं प्रोक्तं, तिलकं विस्तृतं भवेत् । उदये षोडशं प्रोक्तं, तिलके चात्र रूपकम् ||३१|| उपरि छायकी ज्ञेया, घंटा-कलशभूषिता । नासिके स्तंभिकादौ च मयूरं वाम दक्षिणे ||३२|| गायनस्तुबरुः श्रेष्ठो, वंशवाद्यो रत्नशेखरः । वीणा - वंशधराः प्रोक्ता, मध्यस्थाने इति स्मृताः ॥३३॥ 3 १ वास्तुसारना परिकरलक्षणमां दोलाना उदयना अने दैर्घ्यना अंको नीचे प्रमाणे आप्या छे, उदय दोलाना प्रारंभथी २४ भागे छत्रनो प्रारंभ, छत्रनो उदय १२ भागे, शंखधरनो उदय भाग ८, वेणु पत्रवल्ली भाग ६, एम २४+१२+८+६=५० थशे, तथा दैर्ध्यमां छत्रार्ध भाग १०, कमलनाल भाग १, मालाधर १३, थांभली भाग २, वंशवीणाधरभाग ८, मध्यमां घंटा भाग २, मकरमुखसहित थांभली भाग ६, एवं १०+१+१३+२+८÷२ +६= ४२ थशे. आ दोलार्धनुं दैर्ध्य थयुं, पूर्ण दोलानुं दैर्ध्य आधी बमणुं ८४ भागनुं जाणवुं; वास्तुसारमां दोलानी जाडाई प्रतिमानी जाडाईथी अर्धी बतावी छे. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिफर-लक्षणम् ] ३०३ तिलकवाम-दक्षिणे, वसंतराजो मालाधरः। अनुगो पारिजातश्च, दशांगुलप्रमाणतः ॥३४॥ भूलोक-भुवलोकांश-मग्रे छत्रं द्वितीयकम् । तृतीयं लिंगमाकारं, ग्रहा देवाश्चतुर्थकम् ॥३५॥ दोला कनकदण्डच्छत्र-वृत्तविंशांगुलम् । झल्लरी समौक्तिका चो-डर्वे कलशः सदीप्तिकः ॥३६॥ तत्पार्श्वयोगजद्वन्द्व-मुभयोम-दक्षिणे । कलशपल्लवैयुक्त-मिच्छापत्रं च कारयेत् ॥३७॥ हिरण्येन्द्रद्वयं कार्य, पुष्पाञ्जलिकलशे धृतम् । छत्रवृत्ते धरा इन्द्राः, शंख-पूर्णा महोद्भवाः । कुर्वन्ति मंगल स्वानं, दुन्दुभि शंखभालिकाः ॥३८॥ भा०टी०-मध्यभागे भामंडल करवू अने तेनो डाबी-जमणी बने बाजुए बाहीओने मयारे चामरघरो उपर तिल को करवां, आ तिलको विस्तारमा १२ अने उदयमा १६ आंगलना करवा अने तेमां १-१ रुपक करयु, तिलको उपर आंवलसारा अने कलशे करी युक्त सुशोभित एवी छाजली करवी अने नासिकमां स्तंभिकाओनी उपली तरफ डावी-जमणी बने तरफ मोरनुं रुपक करवू, मोरना पुछना निचला भागमां गायक, रत्नमुकुट धारी अने वांशली वगाडता श्रेष्ठ तुंबस्ने बनाववो अने वीजा वीणा अने वांशली वगाडनाराओने तिलकना मध्यस्थाने धनाववा. तिलकनी डावी-जमणी बाजुमां (जमणा तिलकनी डावी अने डाबा तिलकनी जमणी बाजुमां) ऋतुराज वसंतने मालाधररुपे आलेखयो, अने तेना अनुचररुपे पारिजातने पण त्यां बतायवो. आ मालाधर अने पारिजात विस्तारमा १० आंगलनो करवो. आगे वीजें Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे छत्र भूर्लोकना लोकांशरूपे, बीजु लिंगाकार छत्र ग्रहोरूपे अने चोथु ऊर्धलोक भव देवीशरूपे जाणवू. दोलाना सुवर्णमय दंडना छत्रनी गोलाई २० आंगलनी बनावबी. छत्रनी निचली तरफ मोतीनी झालरी बनावशी, उपर देदीप्यमान कलश बनाववो, छत्रनी बंने तरफ शुंढमां कलश अने पल्लवोयुक्त बे हाथिओ बनाववा, पल्लवो इच्छा होय ते प्रमाणे देखाडवां, (मालाधरोनी उपर अने छत्रनी बंने तरफ शुंहमां कलशोवाला हाथियो बनावीने तेमनी उपरनी तरफ) वे हिरण्येन्दो (हरिणैगमेपिओ) बनाववा, तेमना हाथोमां पुष्पाञ्जलि अने कलश धारण कराववां, छाना उपरना भागे एक शंखधर अने तेनी बने तरफ वे देवदुंदुभि वगाडनारा देवो बनावी तेओ शंख अने देवदुंदुभिना मांगलिक नादो करता होय तेम बताववा. भामंडलं ततः कार्य, छत्राधो द्वाविंशतिः । छत्रं दशांगुलं प्रोक्तं, द्वितीयं वसु चांगुलम् ॥३९॥ षडंगुलं तृतीयं च, चतुर्थ वेदमंगुलम् । एवं रथिकोभवं कार्य, छत्राकारं भवेत्नतः ॥४०॥ दिव्यदेहधराः सर्वे, जिनेन्द्रभक्तिवत्सलाः । वादित्रैश्च समुत्पन्ना, नित्यं भूष्यंति मालिकाः॥४१॥ भामंडलं किरणं दिव्यं, तेजो मस्तके भूषितम् । सिौ तीर्थकराः सर्व, ज्योतीच्या व्यवस्थिताः ॥४२॥ दोलामस्तके कलशं, मुद्गरेाल रूपकम् । गजशुढासुशोभाढयं, अशोकपल्लवाकृति ॥४३॥ ऊर्ध्वदेशे ग्रहाः सर्वे, आदित्याद्याश्च दक्षिणे । परे बृहस्पत्याद्याश्च, ग्रहा धर्म चयन्ति च ॥४४॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर-लक्षणम् ] भा०टी०-ते पछी छत्र नीचे २२ आंगलर्नु' भामंडल करवू. नीचेनुं छत्र निर्गमे १० आंगल, बीजु ८ आंगलनु, त्रीजु ६ आंगलनुं अने चोथु ४ आंगलन करवू. आम रथिकानी जेम उपस्थी उपरनो हास करवाथी छानो आकार बनशे, परिकरमा आवता वंशधर-वीणाधर-शंखधरादि सर्वे दिव्य देहधारी-देवो जिनेन्द्र भक्तिमा प्रीतिवंत होय छे, जाणे यादिवोनी साथे ज जन्म्या होय तेम वादित्रो युक्त अने पुष्पमालाओथी निन्य भूपित रहे छे, माटे एमना रूपको पण एज प्रकारनां करबां. भामंडल एटले दिव्य तेज किरणोनो समूह के जे जिनेन्द्रना मुखने प्रकाशित करतो तेमना मस्तक पाछल एकत्रित करायेलो चमझी रह्यो होय छे ते छे, आजे सर्व तीर्थकरो निर्वाण प्राप्त करी सिद्धिस्थानमां ज्योति स्वरूपी रहेला छे जाणे के ए वस्तुने ज सूचवतुं होय तेम भामंडल दिव्य तेजः किरणना प्रतीक समुं छे. दोलाना मस्तक भागमां कलश बना वो, तेने मुद्गरो (मयूरो) अने हाथिओना शुंडादंडो बडे भरपूर शोभायुक्त करवो, अशोकवृक्षना पत्रो देखाडवां अने तेना ऊर्ध्वदेशमा जमणी तरफ सूर्यादि अने डावा भागनी तरफ बृहस्पत्यादि सधैं ग्रहो देखाडवा, केमके ग्रहो पण तीर्थकरोना धर्मप्रचारमा वृद्धि करनारा छे. वास्तुसारोक्त परिकर-परिमाण सिंहासन१-विंबना विस्तारथी सिंहासन दोढुं, लंबु, अधु विस्तृत अने पाव भागनुं जाडु करी नेमां ९ अथवा ७ रूपको करवां, बे वाजु ---... १ भामंडलनो पेसारो वास्तुसारमा ८ आंगलनो जणाव्यो छे अने एनो उदय शिल्परत्नाकरना लक्षणमा २४ आंगलनो कह्यो छे. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे यक्ष-यक्षिणी, बे केसरि, बे हाथी, वे चमरधारी अने बच्चे चक्रधरी ते १४-१२-१०-३-६-३-१०-१२-१४=८४ भाग सिंहासननी लंबाईना करी तेमां उक्त रूपको करवा. २-चक्रधरी-गरुडांक देवीने नीचे धर्मचक्र, बंने बाजुमां २ हरिण अने गादीना मध्यभागे जिनलांछन. ३-सिंहासननी उंचाईना २८ भागमां कणी ४, छाजली २, हाथी १२, कणी २, अने अक्षरपट्टी ८, भाग प्रमाण उंची करवी. पखवाडा१ गादी जेटला ८ भाग नीचे छोडी ३१ भाग उंचा चमरधारी वा का उस्सग्गिया करवा, ते उपर १२ भाग उंचं तोरण-मस्तक करवू, आ प्रमाणे परववाडानी ऊंचाई ५१ भागनी करवी. २ पखवाडानो विस्तार २२ भागनो करवो, जेमा १६ भागमां रूपक अने ६ भाग वरालिका समेत थांभली करवी. ३ पखवाडानी जाडाई भाग १६ नी करवी. दोला१ अर्धछत्र १० भाग, कमलानाल १, मालाधर १३, थांभली २ भाग, वंश-वीणाधर ८ भाग, मध्यमां घंटा २ भाग अने मकरमुख सहित थांभली ६ भाग; एवं १०+१+१३+२+८+२+६=४२ भाग आ प्रमाणे दोलाधनी लंबाई ४२ भागनी अने पूर्ण दोलानुं दैर्ध्य ८४ भागनुं जाणवु. २ छत्रभाग २४ भाग उपर, ते छत्रनो उदय १२ भाग, शंखघर ८ नाग अने वेणुपत्रवल्ली ६ भाग; आम दोलानी ऊंचाई २४+१२+८+६=५० पचास भागनी करवी. ३ छत्रत्रयनो विस्तार २० आंगल (भाग)नो अने तेनो निर्गम १० भागनो करवो. Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर-लक्षणम् ] ३०७ ४ भामंडलनो विस्तार २२ भाग अने तेनो पेसारो ८ भागनो करवो. ५ मालाधर एक षोडशांशमां, ते उपर गजेन्द्र एक अष्टादशांशमां, बने दिशामां हरिणैगमेषी, ते पछी दुंदुभि अने शंखधर करवा, दोलानी जाडाई छत्रना निगम सहित विवथी (बिंबना विस्तारथी ?) अर्धी करवी. ६ चामरधारियोनी दृष्टि स्तन सूत्र बराबर करवी. जो पंचतीर्थी होय तो एज भागोथी २ काउस्सग्गिया, ते उपर २ विंब, अने १ मूल नायक, १+२+२=५ परिकरचें आ अर्वाचीन रूप छ, जे वास्तुसारमा संग्रहायेलं छे. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेद १४ जैनशासनदेव-लक्षणम् यक्षाश्च यक्षदेव्यश्व, ग्रहा दिक्पतयस्तथा । एतेषां वाहनं रूप-मायुधादि निरूप्यते ॥३४॥ भा०टी०-यक्षदेवो, यक्ष देविओ, ग्रहो तथा दिपालो; आ देवोनां वाहन, रूप, आयुध आदिनुं आ परिच्छेदमां निरूपण कराय छे. आ विषयमां १. यक्ष-यक्षिणीनो अर्थ. २. तीर्थंकरो साथे यक्ष-यक्षिणीनो संबन्ध. ३. तीर्थंकरोना मंदिरमा तेमने बेसाडवार्नु कारण. ४. देवालयमां यक्ष-यक्षिणीने वेसवाने योग्य स्थान. ५. यक्ष-यक्षिणीनुं स्वरुप इत्यादि वातो आजे स्पष्ठीकरण मागे छे. पूर्वकालमां गमे तेम होय पण वर्तमान समयमा यक्ष-यक्षिणीना संबन्धमां घणुं अज्ञान अने भ्रमणाओ चाली रही छे. एटला माटे आ विषयने लगतुं थोडुक स्पष्टीकरण करवू आ स्थले प्रासंगिक गणाशे. 9-यक्ष ए नाम व्यंतर जातिना देव पैकी एक वर्ग विशेषy छे. ए वर्गना पुरुषो ‘यक्ष अने स्त्रीयो 'यक्षिणों' कहेवाय छे. आ व्यंतर जाति यद्यपि हलकी देव जातिमां परिगणित छे, छतां एना पिशाच राक्षस आदि विभागना देवो क्रूर प्रकृतिना होय छे. ज्यारे 'यक्ष' बीजा व्यंतरोनी अपेक्षाए सात्विक अने भद्रप्रकृतिवाला होय छे. पृथ्वीगत धनभंडारो, अमूल्य रत्नो अने धातुनी खाणोना द्रष्टा होवाना कारणे पूर्वे तांत्रिक युगमा घणा धनार्थी लोको आ यक्षयक्षिणीयोनी साधना करता हता. कल्पसूत्रना वर्णन उपस्थी जणाय छे के भगवान वर्धमान स्वामी-महावीर, त्रिशला मातानी कूखे अव Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासनदेव-लक्षणम्] तर्या तेज दिवसथी यक्षोए राजा सिद्धार्थना घरे धन-रत्न आदिनी वृष्टि करवा मांडी हती. उत्तराध्ययन आदि सूत्रगत "जक्खाउत्तरउत्तरा" इत्यादि वर्णनोमां 'यक्ष' शब्दनो प्रयोग सर्वोत्तम जातिना देवोना अर्थमां करवामां आव्यो छे. ए वस्तु पण आपणुं ध्यान रखेंचे छे. शास्त्रना वर्णनोमां ए वातनुं पण निरुपण मले छे, के उत्तर दिशानो लोकपाल कुबेर के जे देवोनो भंडारी अने इन्द्रनो आज्ञापालक देव छे, अने “यक्षो" आ कुबेरनी आज्ञामां वर्तनारा देवो छे. ___ आ बधी वातोनो विचार करतां आपणा हृदयमा ए वात सहजे उतरी जाय छे, के 'यक्ष' एक परोपकारी-सात्विक-धनाढय-कारुणिक अने क्रीडाशील देवजातिविशेपर्नु नाम छे, आ यक्षोनी मुखाकृति, वाहन, आयुध आदिना निरुपण उपरथी पण जणाई आवे छे के आ देव जाति भली अने क्रीडाप्रिय होवी जोईये. २ जैनोनी मान्यता प्रमाणे कोईपण तीर्थंकर केवलज्ञान पामे त्यारे तेमना पुण्यप्रकर्षना बले क्रोडो देवो तेमनी सेवामां उपस्थित थाय छे, तेमना समवसरणनुं (उपदेश सभाना योग्य स्थान-) निर्माण करे छे, अने तीर्थकर भगवान् त्यां बेसी जगत हितकारक जिनप्रवचननो उपदेश करे छे, जे सांभलीने अनेक भव्यात्माओ प्रतिबोध पामी तेमना शासन- अनुकरण करे छे, सेंकडो स्त्री-पुरुषो संसारने त्यागी जिनेश्वर समुपदिष्ट त्यागमार्गनो स्वीकार करे छे, हजारो स्त्रीपुरुषो जिनोपदिष्ट गृहस्थ धर्मरुप त्यागमार्गमां दाखल थाय छे, ज्यारे लाखो देव मनुष्यो विरति परिणामना अभावे जिनदेवना प्रवचन उपर श्रद्धा विश्वास मात्र प्रगट करीने तेमना संघमां जोडाय छे. तीर्थकर देवोनी आ प्राथमिक संघ स्थापनामां एम तो क्रोडो देवो उपस्थित रहे छे. छतां कोई एक देवयुगलने भगवन्त उपर अने तेमना शासन उपर अतिशय भक्तिभाव उभरी जतां ते नित्य भग Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे वंतना चरण सामीप्यमांज रही तेमना मुखदर्शनथी, तेमनी सेवाथी, तेमना धर्मशासननु वैयावृत्य करीने अने तेमना अनुयायियोने सहायता करीने पोताना जीवनने कृतार्थ करे छे. विशेष भक्त बनेल आ देवयुगलने शास्त्रकारो यक्ष-यक्षिणीना नामथी उल्लेखे छे. प्रत्येक तीर्थकरना शासनमा आई यक्ष-यक्षिणीनुं युगल उत्पन्न थाय, आईं जैनग्रन्थकारोनुं मन्तव्य छे. ३ तीर्थंकरोनी विद्यमानतामां यक्ष-यक्षिणीनां आ युगलो तेमना चरणोमा रहेता हता. आथी तीर्थकरनी मूर्तिओमां पण ए युगल बनावधानुं विधान चालु थयु. १ अशोकवृक्ष, २ मुरपुष्पवृष्टि, ३ दिव्यध्वनि, ४ चामर, ५ सिहासन, ६ भामंडल, ७ देवदुन्दुभि, अने ८ छत्रः ए प्रातिहार्या तीर्थकरोना समवसरणमां देवो द्वारा निर्मित थतां हतां, ते मूनि निर्माणमां पण कायम रह्यो, एज प्रमाणे यक्ष-यक्षिणीओ पण मूर्तिरचनामां तेना अंगरुपे मूर्तिना चरणसमीप जमणी-डावी वाजुमा बनावधानी पद्धति प्रचलित थई. जिनमूर्तिओ मंदिरोमां प्रतिष्ठिा थई. न्याथी आ यक्ष-यक्षिणी युगलो पण तेना परिकरना एकभाग तरीके देवालयमा प्रतिष्ठित थयां अने ज्यांसुधी मृतिओ परिकरवाली स्थापित थती हती, त्यांमुधी यक्ष-यक्षिणी युगल पण तेमना चरणसेवी तरीके मूर्तिनी साथे गर्भगृहमांज रहेतुं. मुसलमानोना आक्रमण कालमा घणा स्थानोमा प्रतिमाओ जमीनमां भंडाराई हती, समयान्तरमा ठेकठेकाणे जमीनदोस्त थयेली ते प्रतिमाओ खोदकामो करतां वहार आवी पण त्यांसुधी मां भंडारनाराओ प्रायः परलोक पहोंची चुक्या हता. प्रतिमाओ निकले तो परिकर नहि अने काई स्थळे परिकर निकले तो ते योग्य प्रतिमा नहि, ते कालमा परिकर बनावनारा पण सारा रह्या नहि, वली परिकरना पखालमां पण मोर्टी महेनत; जो पुरूं ध्यान न रखाय तो Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन-दैव-लक्षणम्] पाणी रही जाय, मेल जामी जाय; ए बधी अगवडोनो विचार करी तत्कालीन गीतार्थ पुरुषोए परिकर वगरनी प्रतिमाओनी बंने तरफ १-१ तेथी न्हानी जिनप्रतिमा बेसाडीने परिकरनी अभाव पूर्ति करवा मांडी. घणा दीर्घकालथी ज्यां प्रतिमाओ प्रतिष्ठित थयेली छे, ते बधी परिकर युक्तज छे, पण लगभग सोलमा सैका पछीना समयमा प्रतिष्ठित थयेल देवालयोमा परिकरना स्थाने त्रिगडां (३ प्रतिमाओ) स्थापन थयेलां जोवाय छे, अने आज पर्यंत एज प्रथा प्रचलित छे. ___ ज्यारथी परिकरचें स्थान त्रिगडे लीधुं त्यारथी परिकरगत चमरधरादि अन्यदेवोनी साथे यक्ष-यक्षिणीनां युगलो पण जैनदेवालयोमांथी अदृश्य थयां. सोलमीथी ओगणीसमी शताब्दी सुधीमां प्रतिष्ठित थयेल देवालयोमां तमने यक्ष-यक्षिणी युगलो भाग्येज नजरे पडशे. छेल्ला लगभग १०० वर्षनी अंदर तपागच्छना श्रीपूज्योए; यतिओए अथवा साधुओए प्रतिष्ठित करेल जैनदेवालयोमां माणिभद्र अने चक्रेश्वरीनी स्थापना थवा मांडी छे. पछीथी धीरेधीरे मूलनायकना यक्ष-यक्षिणीनां युगलो पण जूदां स्थपावा मांडयां. खरतरगच्छीय प्रतिष्ठाकारकोए प्रथम क्षेत्रपाल अने भैरवने जिनालयमां स्थान आप्यु अने पछी तेमगे पण मूलनायकना यक्ष-यक्षिणीने देवालयोमा स्वतंत्र आसन आप्युं छे. ४ उपरना विवेचनथी जणाशे के जैनदेवालयोमा यक्ष-यक्षिणीनु स्थान तेमां प्रतिष्ठित मूलनायक तीर्थकरना सेवक तरीकेनुं छे, नहि के देवालयना अधिष्ठाता देव तरीकेर्नु, अथवा तो देवालयना रक्षक देव तरीकेनु; पण आजे आपणा समाजमां ए विषयर्नु घोर अज्ञान प्रवर्ती रघु छे. घणा खरा प्रतिष्ठाकारक पुरुषो पण आ देवयुगलनी वास्तविक स्थिति न समजतां एमने भगवन्त तीर्थकरना तेमज एमना देवगृहना रक्षक रुपे मानी भगवन्तना स्थानथी अति दूर गृढमंडपना Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे द्वारनी बहार बंने बाजुना आलाओमां बेसाडे छे. जाणे के भगवंतना द्वारपाल अने द्वारपालिका होय. जिनप्रनिमा परिकरनी साथे राखबानो रिवाज हतो; त्यांसुधी आ देवयुगल भगवंतना चरणसमीपमा रहेतुं हतुं, पण आजे परिकर उठी गयुं छे, त्रण मूर्तिओ गभारामां बेसाडाय छे अने यक्ष-यक्षिणी जुदा बेसाडाय छे. एटलं ज नहि, आ युगलनी मूर्तिो परिकरगत एमनी मूर्तिओ करता म्होटी होय छे. आ स्थितिमा एमने गभारामां बेसाडवा जेटलं स्थान रहेतुं नथी. तेथी गभारानी बहार कोलीना आलाओमां गूढ मंडपमां, अने छेवटे तेनी बहार चोकि मंडपना आलाओमां बेसाडवानी रीति चाली नीकली छे. पण आनो अर्थ ए नथी के यक्ष-यक्षिणीने भगवंतथी दूर ज बेसाडवा, खरी रीते तो एओ जेटला भगवन्तनी पासे होय तेटला सारा; भगवन्तना सामीप्यमांज ए प्रसन्न रहेनारों छे. ५ यक्ष-यक्षिणीना युगलोर्नु स्वरुप वर्णन तीर्थकरोना चरित्रोमां, प्रतिष्ठा पद्धतिओमां अने शिल्पना आक र ग्रन्थोमां पण दृष्टिगोचर थाय छे. तीर्थंकर चरित्रोक्त अने प्रतिष्ठा ग्रन्थोक यक्ष-युगलोर्नु वर्णन लगभग सरखं छे, पण शिल्पशास्त्रोक्त वर्णनमा घणो मतभेद छे, नामो आयुधो अने वाहनोने अंगे आ विषयमा प्रतिष्ठा कल्पो अने शिल्पग्रन्थो मौलिक मतभेद धरावे छे, तेथी अमो आ बने पद्धतिओने अनुसारे आ यक्ष-यक्षिणीयोनुं स्वरुप वर्णन करशुं. अत्र एक वातनो निर्देश करवो अत्यावश्यक छ के अमोए आ युगलोना स्वरुप वर्णनमा प्रतिष्ठा पद्धतिओ पैकी श्री पादलिप्तमूरिनी निर्वाण कलिकाने अने शिल्पग्रन्थो पैकी अपराजितपृच्छाने मुख्य आधार ग्रन्थ मान्यो छे. आ ग्रन्थोमां करेल वर्णनानुसारे अमो २४ यक्षो अने यक्षिणीओनुं स्वरूप बे यंत्रकोमा आपीए छीए. आमां १ लुं यंत्रक निर्वाणकलिकानुसारी अने बीजं यंत्रक अपराजित पृच्छानुसारी छे. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यक्ष-यक्षिणी यंत्रक १ जैनशासनदेव-लक्षणम् ] | नाम * * 44 4 0 & am ho ho ho १-आदिनाथ २ अजितनाथ ३ संभवनाथ यक्ष यक्षिणी ___ यक्ष यक्षिणी यक्ष यक्षिणी नाम गामुख अप्रतिचका महायक्ष अजिता नाम त्रिमुख हुरितारि (चक्रेश्वरी २) (अजितबला) मुख मुख वृषभ सदृश १ मुखः १ नेत्र सुवर्णतुल्य सुवर्णतुल्य वर्णः श्याम वणे श्याम वाहन | गन गरुड वाहनः हस्ती लोहासना वाहन मयूर मेष हस्त ४ (महिष १ दक्षिण- वरद वरद दक्षिण | वरद (मघवा २ हस्तयोः अक्षत्र बाण हस्तेषुः । मुद्गर ५ वरद हाथ । अक्षसूत्र | पाश नकुल पाश दि. ह. गदा | अक्षसूत्र । धनु बोजपूर । बीजपूर ( अभय हस्तयोः पाशवत्र वाम- अभय 11 अंकुश बीजपूर हस्तेषुः । अंकुश वा.ह. नाग अंकन शक्ति । अक्षसूत्र वरद म २११ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ नाम ४ अभिनन्दन - यक्ष यक्षिणी | कालिका | नाम (फाली १.२ श्याम श्याम पद्मासन ५ सुमतिनाथ । ६ पद्मप्रभ __ यक्ष | यक्षिणी __ यक्ष यक्षिणी तुंवरू । महाकाली नाम | कुसुम | अच्युता (श्यामा) सुवर्णमहरा वर्ण । नील श्याम (पद्मवाहना वाहन वाहन । मृग । नर गरुड पद्मासन २] हस्त वण गी वाहा हाय | मातुलिंग অম্বর। वरद पाश वरद पाश द. ह. फल अभय वरद |बाण [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे वा.ह. J नकुल अंकुश गदा नागपाश || मातुलिंग | वा. ह. नकुल ( अंकुश । अझसूत्र नाग अंकुश । धनुष्य || अभय Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. सुपार्श्वनाथ यक्ष यक्षिणी मातंग शान्ता नाम | नाम विजय नाम जैनशासन देव-लक्षणम्] गौर वर्ण हरित ८. चन्द्रप्रभ २. सुविधिनाथ यक्ष यक्षिणी यक्ष - यक्षिणी भृकुटि अजित । सुतारा (ज्वाला-२) वर्ण श्वत पीन । वाहन वृषभ हस्त वराह (हप) (विराल) (विडाल-१) | द. ह. मातुलिंग || वरद ( विगल | अक्षत्र অধমূৰ जीव-२) वाइन गज नील सुवर्णसम | वर्ण गज ४४ वाहन ( वित्त - द.ह. (ल्य-२) पाश वरद (अहिपाश-1 अवसूत्र फलश कुन्त || अंकुश वज । मुद्गर - वा.ह. नकुल || अंकुश (त्रिशु-१) अभय । वा.ह. मुद्गर परशु Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EERE प्रम १०. शीतलनाथ ११. श्रेयांसनाथ १२. वासुपूज्य यक्ष ! यक्षिणी यक्षिणी यक्ष | यक्षिणी ब्रह्मा अशोका | नाम मानवी | | नाम कुमार प्रचण्डा (मनुज-२)(मोमेधा-१) (प्रवरा-२) २ (श्रीवत्सा-२) वर्ण । श्याम धवल (नीलवर्णी-२) वर्ण धवल ____ गौर हस अश्व मुद्गवर्णी २ पद्मासन पद्मवाहना सिंह मातुलिंग हस्त द. ह.बाण ( मातुलिंग वरद मुद्गर | द. ह. मातुलिंग भकुश-१ मुद्गर पुष्प पाश गदा (वरद-१)| वा.ह. (नकुल (धनु-२) । नकुल कलश धनुप्य । गदा वा. ह. । (कलश-१) । (कुलिश-२) ((नाग-२) गदा फिल (कर) र अक्षसूत्र र मुद्गर-१ अंकुश 1 अंकुश (अंकुश-१) अंकुश अक्षसूत्र ((नकुल-१) सपा - वरद ह. पाश अभय [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्ड - (नकुल वा. है. - - Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किनर जैनशासन-दैव-लक्षणम् १३. विमलनाथ १४. अनन्तनाथ १५. धर्मनाथ यक्ष यक्षिणी यक्ष । यक्षिणी यक्ष । यक्षिणी नाम षण्मुख विदिता । नाम पाताल अंकुशा | नाम कन्दर्पा | (विजया २) मुख (पन्नगा-२) मुख वर्ण गौर मुख श्वेत हरितालवर्णा] वाहन मकर पद्मवाहना | वर्ण मयूर पद्मारुढा (पद्मासना-२) वाहन (पद्मासना-२) हस्त । ६ हस्त ।। पद्म बीजपूर द.ह. १ खग द. ह. गदा | बाण, खगर पाश । पाश । पाश पाश अभय | अंकुश ( अक्षसूत्र (नकुल, चक्र, | वा. ह. नकुल । पद्म वा. ह. || धनु, फलक | धनु वा.ह. { फलक || चर्मफलक पद्म || अभय (फल-१) नाग | अक्षसूत्र । ! अक्षमाला अंकुश | अभय- । ( फल, चक्रयाण खड्ग | उत्पल नकुल ३१७ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - न | धारणी M W. श्याम नत्र वर्ण १६. शान्तिनाथ १७. कुन्थुनाथ १८. अरनाथ यक्ष . यक्षिणी यक्ष यक्षिणी यक्ष यक्षिणी नाम गरुड निर्वाणा | नाम । गन्धर्व बला नाम यक्षेन्द्र (किडिवा-१)(निर्वाणी-१), (अच्युता-२) मुख | (धारिणी-२) वाहन वराह पद्मासना | वर्ण गौर वराह वाहन हंस मयूर . श्यामकृष्ण नीलवणी श्याम गौर हस्त वाहन शंबर (शंख- पद्मासन हस्त १-२) | बीजपूर पुस्तक || बीजपूर हस्त । १२४ ह.। पद्म || उत्पल ( मातुलिंग। बीजपूर । (त्रिशूल १) बाण, खङ्ग उत्पल कमंडलु मातुलिंग द. ह. मुद्गर, पाश वा.ह.|| नकुल कमल | भुषुण्डि । अभय पाश অসুখ (नकुल धनुष्य- (पद्म-१-२) | वा. ह. चर्मफलक ( अक्षमूत्र शूल, अंकुश असमूत्र वरद शूल वा.ह. अकुश । पद्म कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे - Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जनशासनदेव लक्षणम् ] । २ श्वेतवर्ण व - १९. मल्लिनाथ २०. मुनिसुव्रत २१. नमिनाथ यक्ष यक्षिणी यक्ष यक्षिणी यक्ष - यक्षिणी नाम कुबेर | वेरोटया |नाम | वरुण वरदत्ता (१-२) भृकुटि गान्धारी (नर-१) (कुमार-१) । (अच्छुप्ता २) (कचर-२) मुख जटामंडित ४ गरुडसदृश शिराः हेमवणे इन्द्रधनु व० कृष्णवर्णा वृषभ धवल वाहन गज पद्मासना पद्मासनारुहा वृषभ वाहन हस्त ८ । ४ (भद्रासनारुहा मातुलिंग वरद पाश वरद १-२) शक्ति (परशु १-२)। (मुक्ता- हस्त । ८ । ४ द. ह. | मुद्गा खङ्ग १.ह. चाप || माला) मातु लिंग अभय (शूल-१-२)|| अक्षसूत्र द. ह. गदा, बाण | वरद अभय (वरद) शक्ति अक्षसूत्र नकुल वा.इ. (वीजपूर मातुलिंग नकुल वा.ह. १ परशु शक्ति वा.ह. पद्म, धनु वीजपूर वज्र मुद्गर परशु अक्षमूत्र (पाश-१-२) (शूल-१.२) - वरद बीजपूर (कुंत-२) अक्षमूत्र - Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३२० २४. महावीर यक्ष | यक्षिणी मातंग सिद्धायिका श्याम । हरितवर्ण गज सिंह (हंस-१) (सिंह २) मुख ३ ho na (४-२-१) २२. नेमिनाथ २३. पार्श्वनाथ । यक्ष यक्षिणी यक्ष । यक्षिणी । गोमेध (कुष्माण्डा नाम पाव । पद्मावती नाम (अंबा-२) (वामन-२) वर्ण १ मुख गजसदृश वाहन श्याम कनकवर्णा (४ मु.२) पुरुष सिंह मस्तक सर्पकणा मंडित वर्ण श्याम कनकवर्णा -२ मातुलिंग ( मानलिंग (रक्तवर्णा-१) द. ह. द. ह. परशु (आम्रलंबिवाहन । कुर्कुटसर्प 1 -१-३) हस्त र पाश | वा. ह. नकुल पुत्र-(अं) - अंकुश (पु.) वा. ह. अंकुश पुस्तक नकुल अभय १९ चीजपूर पन बीजपूर मातुवा.. बाण (वीणा-२) द. ह. [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शासनदेव-लक्षणम् ] गोमुख चशी ४ Pho यक्ष-यक्षिणी यंत्रक २ १-ऋषभदेव २ अजितनाथ. ३संभवनाथ. - यक्ष यक्षिणी यक्ष यक्षिणी यक्ष यक्षिणी नाम महायक्ष | रोहिणी नाम | त्रिमुख । प्रज्ञप्ति वृषवकत्र मव । श्वेतवर्ण हेमवर्णा श्याम वेतवर्णी वर्ण श्याम वेतवर्णा ४ वृषसदृश वाहन गज लोहासन वाहन मयूर वृषभ पद्मासन स्थारूहा हस्त गरुडोपरि हस्त ८ फरसाक । অম (६ पादा) (वरद-पाश অর্থ वरदान अभय-अंकुश मुद्गर-अभय शंख चक्र अर्धचन्द्र क्षमा आ. अक्ष-वरद चक्र शख (वर अष्टचक्र पाश-शेख अभय वरद | उत्पल अक्षत्र बेचन अंकुश-वक्र (वरद) पाश बीजपूर | शक्ति-गदा मातुलिंग) अभय मातुलिंग)-परशु गदा परशु परशु - - Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अभिनन्दन यक्ष । यक्षिणी नाम /४ चतुरानन- वज्रशृंखला ५ सुमतिनाथ. __ यक्ष | यक्षिणी नाम | तुंबरु । पुरुषदत्ता ६ पद्मप्रभ. यक्ष | यक्षिणी नाम | कुसुम । मनोवेगा वाहन गरुड श्वेतहस्ती वाहन मृग । अश्व - -- श्यामवर्णा वर्ण कनकवर्णा स्वरूप-सर्पहार नागपाश हस्त गदा शक्ति (अशनि अक्षमूत्र ha अक्ष शंख (चक्र) फल (क) चक्र () [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे फल वरद वरद Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. सुपार्श्वनाथ. यक्ष यक्षिणी मातंग कालिका नाम कृष्ण श्वेतवर्णा मेषासन पद्मासन | वर्ण वृषारूढा (महिष) वाहन ८. चन्द्रप्रभ. ९. सुविधिनाथ.. यक्ष यक्षिणी यक्ष यक्षिणी विजय ज्वाला नाम अजित महाकाली मालिनि (जय) कृष्णवर्णा वर्ण कृष्णवर्णा कपोत महामहिषस्था वाहन कर्म जैनशासनदेव-लक्षणम् ) हस्त परशु पाश अभय वरद त्रिशूल पाश, अंकुश, । धनु, पाश शक्ति (४ वन अक्ष गदावर फल अभय) वट वन मुद्गर, अभय. घंटा त्रिशूल फल वरद हस्त ८.. १ त्रिशूल, २ पाश, ३ अंकुश ४ धनु, ५ शर ६ चक्र, ७ । अभय.८ वरद अभय, वरद, (४ हस्ता . घण्टा, त्रिशूल, फर अने कर.) Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ १२. वासुपूज्य. यक्ष यक्षिणी कुमार गान्धारी १०. शीतलनाथ. ११. श्रेयांसनाथ. यक्ष यक्षिणी यक्ष यक्षिणी ब्रह्मा मानवी । नाम ईश्वर गौरी | नाम (यक्षेश) श्वत श्यालय (किन्नरेश) | वर्ण । श्वेत कनकाभा हस शूकर वृषभ कृष्णहरिण श्यामवर्णा मयूर नक .. पाश पाश त्रिशूल पाश अभय, अंकुश अंकुश अक्ष अंकुश वरद. [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्ड अभय फल (पद्म वरद वरद वरद फल) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. विमलनाथ. यक्ष नाम षण्मुख मुख वर्ण वाहन हस्त ६ वज्र, १ वर वज्र. २ खङ्ग धनु, ३ खेटक बाण, ४ वर फल, ५ धनु वरद, ६ बाण यक्षिणी वैराट्या १ नाम श्यामा व्योमयानगा हस्त ४ खेटक ५ धनुः ६ वाण वर्ण वाहन १४. अनन्तनाथ. यक्ष यक्षिणी पाताल अनंतागति | नाम (त्रिमुख) (अनंतमती) सुवर्णा वर्ण हंसासना ४ १ वज्र २ अंकुश ३ धनु ४ वाण ५ फल ६ वरद ४ धनु बाण फल वाहन हस्त १५. धर्मनाथ. यक्ष किन्नर แ पाश अंकुश धनु त्राण फल वर यक्षिणी मानसी रक्तवर्णा व्याघ्र त्रिशूल पाश चल डमरुक फल वरद जनशासन-देव-लक्षणम् ] ३२५ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. शान्तिनाथ. यक्ष यक्षिणी महामानसी मुवर्णाभा वण शुक्र पक्षिराज (गरुडी ) १७. कुन्थुनाथ. १८. अरनाथ. ___यक्ष यक्षिणी यक्ष यक्षिणी धर्षक जया नाम (यक्षेश) विजया (गन्धर्व) क्षेत्रयक्ष कनकवर्णा (मातंग) कन्यासन स्वर्णवर्णा (शुकासन) कृष्णशूकर वाहन । (खरासन) सिंहासना बरासन पद्म अभय चक्र फल अंकुश फल वरद फल हस्त 20m पाका वज्र चक्र पाश अंकुश धनुः वरद वज्र याण कल्याण-कलिका-प्रथम वरद चक्र. बन्द Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. नमिनाथ. यक्ष यक्षिणी भृकुटि चामुण्डा नाम कम्बरी १९. मल्लिनाथ. २०. मुनिसुव्रत. यक्ष यक्षिणी यक्ष - यक्षिणी (कुबेर । अपराजिता | नाम । वरुण बहुरुपिणी (पा) चतुर्मुख स्वर्णवर्णा श्याम वाहन अष्टापद जनशासन-देव लक्षणम् ] वर्ण वर्ण रक्तवर्णा सपे वाहन सिंह मर्कट (वानर) पाश ग्वङ्ग खेटक अंकुश स्वेटक पाश अंकुश धनु बाण or mour १ शूल २ शक्ति ३ वज्र ४ खेटक ५ अभय ६ डमरु त्रिशूल खङ्ग मुद्गर पाश सर्प वरद वरद डमरुक अक्षसूत्र Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम वर्ग चाहन हस्त २२. नेमिनाथ. यक्ष (गोमेध) गोमय 19 धनु वाण मुद्गर फल वरद यक्षिणी कूर्मा (अंबिका) हरितवर्णा व नाम सिंहासने वाहन (सिंहसंस्था) २ अक्षफल वरद पुत्रोत्संगत हस्त २३. पार्श्वनाथ. यक्ष पार्श्व सर्परूप श्याम कूम ur (धनुः वाण भुषुण्ड मुद्गर फल चर ) यक्षिणी पद्मावती नाम रक्तवर्णा वर्ण पद्मासना वाहन कुर्कुटोपरिस्था ४ हस्त पाश अंकुश पद्म वरद २४. महावीर. यक्ष मातंग हस्ती १ वरद २ फल यक्षिणी सिद्धायिका कनकवर्ण भद्रासन १ पुस्तक २ पुस्तक (पुस्तकअभय ) ३२८ [ कल्याण-कलिका - प्रथमखण्डे Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर लक्षणम् ] खुलासो उपर्युक्त वे यक्ष-यक्षिणी कोष्टको पैकीनु कोष्ठक पहेलुं निर्वाणकलिकादि जैन विधि ग्रन्थोने अनुसारे छे, आ कोष्ठकमां पण ग्रन्थान्तरना पाठान्तरो () आ ब्रेकेटमा सूचव्या छ, वांचक गणे आ कोष्ठकना मूल पाठ प्रमाणे ज यक्ष-यक्षिणीओनां स्वरूप अने आयुधादि बनाववां जोइये. __ कोष्टक बीजें प्राचीन शिल्पग्रन्थोना आधारथी तैयार करेलुं छे, आ कोष्ठक प्रमाणे आपणे आज काल यक्ष-यक्षिणीओनी मूर्तिओ करावता नथी, छतां प्राचीन कालीन कोइ देव-देवीनी मूर्ति मली आवे तो तेने ओलखवा माटे आ कोष्ठक पण उपयोगी थइ पडशे एम धारीने आ बीजु कोष्ठक आपेल छ, एम जाणवू. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे दशदिकपाल-नवग्रहलक्षण दशदिपालयन्त्रकम् आयुधो नाम वर्ण वाहन हस्त | द. हस्ते वामहस्ते | २ | वज २ शक्ति वज्र (शक्ति) ه | मेष १ | इन्द्रपीत रावत २ अग्नि अग्निवर्ण सप्तशिख | कृष्णवर्ण | महिष ४ निति । हरित शिव ३ यम | खड्ग . ه م | धवल मकर पाश (वङ्ग) (पाश) (ध्वज) م ६ / वायु सित मृग ध्वज م निचुलक गुदा ७ कुबेर | ईशान अनेकवर्ण | नवनिधि धवल م वृषम शूल तुंदिल (शुल) त्रिनेत्र م नाग श्याम पद्मवाहन | २ | उरग (उरग) | (कमंडलु) धवल । م | Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन-देव-लक्षणम् ] नवग्रह यन्त्रकम् आयुधो वाहन । हस्त द. हस्त । वामहस्ते नं. नाम वर्ण - - सोम १ | आदित्य | हिंगुलवर्ण ऊर्ध्वस्थित| २ | कमल कमल श्वेतवर्ण २ | अक्षसूत्र कुंडिका मंगल रक्तवर्ण अक्षसूत्र | कुंडिका बुध पीतवर्ण | २ | अक्षमत्र कुंडिका | पीतवर्ण कुंडिका शुक्र श्वेतवर्ण | २ | अक्षसूत्र कमंडलु | शनैश्वर | ईषत्कृष्ण (लम्बकूर्च- २ | अक्षमाला | कमंडलु किंचित् । पीन.) अतिकृष्ण | (अर्द्ध | २ | अर्घमुद्रा | अर्घमुद्रा, कायरहित) केतु धूम्रवर्ण अक्षसूत्र | कुंडिका : - Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशविद्यादेवीलक्षणज्ञापकं यन्त्रकम् । वर्ण - r | धनुः ܗ ܗ m नाम वाहन हस्त आयुधे द.हस्तयोः आयुधे वामहस्तयोः १ | रोहिणी | धवला सुरभि | ४ | अक्षसूत्र बाणशंख | प्रज्ञप्ति | श्वेतवर्णा | मयूर ४ | वरद शक्ति मातुलिग शक्ति ३ | वज्रशृंखला | शंखवर्णा | पद्मवाहना| ४ | वरद पद्म शंखला ४ | वज्रांकुशा | कनकवर्णा | गज ४ | वज्रमातुलिङ्ग अंकुश ५ ! अप्रतिचक्रा! तोडद्वर्णा | गरुड चक्र |चक्र चक्र पुरुषदत्ता | कनकावदात महिषी ४ मातुलिङ्ग खेटक ७ | काली कृष्णा पद्मासना | ४ | अक्षसूत्र वरद (गदा) वज़ ܗ c ur [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्ड ८ । महाकाली | तमालवर्णा | पुरुष ।४ | अक्षमत्र बन्न अभय Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनकाभा | ९| गौरी | कनकाभा | गोधा १० गान्धारी | नीलवर्णा | कमल -- जैनशासनदेव-लक्षणम् ] - | सर्वास्त्र- | धवलवर्णा | वराह महाज्वाला ४ वरद मुसल अक्षमाला कुवलय कमल. ता. । ४ वरद मुसल अभय कुलिश हस्ता (कमल.ता.) (अक्षमाला.ता.) (कुवल. ता.) असं-असंख्य महः खड्ग असंख्य प्रहरण ख्य रणयुत हस्ता परशुयुक्त | युतवाम हस्तां | (द्विभुजा) दक्षिणकरा च. ता. | ४ | वरदपाश | अक्षसूत्र विटप पादपती उरग खेटक अहि (असि.ता.) बाण धनुः (खेटक) खेटक (असि) वन अक्षवलय अशनि १२] मानवी | श्यामवर्णा | कमल - | वेरोटया । | श्यामा | अजगर १४/ अच्छुसा | तडिद्वर्णा | तुरंग cc c e c १५] मानसी | धवला १६] महामानसी धवला REER असि कुंडिका फलक - Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे 'श्रुतदेवता-शान्तिदेवता-ब्राह्मशांति-क्षेत्रपाललक्षण' १. श्रुतदेवताशुक्लवर्णा ।। इंसवाहना।। ४ हस्ता॥ वरद-अक्षमालायुक्त दक्षिणहस्तद्वया । पुस्तक-वीणायुतवामहस्तद्वया ॥ २. शान्तिदेवता धवलवर्णा ।। कमलासना ॥ ४ हस्ता ॥ वरद-अक्षसूत्रयुतदक्षिणहस्तद्वया ॥ कुंडिका-कमंडलुयुत वामहस्तद्वया ।। ३. ब्रह्मशांतिपिंगवर्ण ॥ करालदंष्ट्रा ॥ जटामुकुटमंडित ।। पादुकारूढ ।। भद्रासनस्थ ॥ उपवीतालंकृतस्कंध ॥ ४ हस्त ॥ अक्षमत्रदण्डयुत दक्षिणहस्तयुगल ॥ कुंडिका-छत्रयुतवामहस्तद्वय ॥ ४. क्षेत्रपाल क्षेत्रानुरूपनाम धारक ॥ श्यामवर्ण ॥ बर्बरकेशी॥ आवृत्त (गोल) पिंगनयन ॥ विकृतदंष्ट्र ॥ पादुकाधिरूढ ॥ नग्नः ॥ कामचारी।। ६ हस्त ॥ मुद्गर-पाश-डमस्युतदक्षिणहस्तत्रय ॥ श्वान-अंकुश-गेडिका सहित वामहस्तत्रिक ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परि०१५. धारणागतिलक्षण पूजकस्य जिनेन्द्रस्य, लभ्य-देयं परस्परम् । राशियोनिगणादीना-मानुकूल्यं विलोकयेत् ॥१६॥ भाण्टी-पूजक अने जिनभगवानने परस्पर लभ्य देव राशि, योनि, गण, वर्ग, अने नाडीनुं अनुकूलपणुं जोवु जोइये. धारणागति यंत्रक एटले जिनदेव अने जिनदेवनी प्रतिमा भरावनार गृहस्थने नामजोडो जोवानी रीति. अमुक गृहस्थ अथवा गामनी साथे कया भगवाननी योनि १, गण २, राशि ३, वर्ग ४, नाडी ५, लेणी ६, आ छ वातो अनुकुल छे, ए नक्की करीने ते नामनी प्रतिमा भराववी अथवा प्रतिष्ठित करवी जोइये, जे नामने जे जिननी साथेयोनिवैर, गणवैर, राशिवैर, वर्गवैर, नाडीवेध होय अने प्रतिमा भरावनार धनिक के गाम जे जिनदेवन देवादार होय तेनी प्रतिमा न भरावधी, केमके ते अभ्युदय जनक थती नथी. ए विषयमा पूर्वाचार्योए कह्यं छे के - "योनि-गण-राशि भेदा, लभ्य वर्गश्चनाडिवेधश्च । नूतनबिंबविधाने, षडविधमेतद्विलोक्यं ज्ञैः ॥१॥ भाल्टी--विद्वानोए नवीन बिंत्र भरावामां योनि, गण, राशि, लहेj, वर्ग अने नाडिवेध;-आ छ वातो अवश्य जोवी जोइये. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भाव ए छे के देव अने पूजकना नक्षत्रोनी योनियो सर्प अने नोलिया जेवी जाति वेरवाली न होय, गणो देव-राक्षस अथवा मानव राक्षस जेवा वैरवाला न होय, राशियो-एक वीजीथी छठी-आठमी, नवमी-पांचमी, के बीजी-धारमी न होय; पूजक देवनो कर्जदार न होय, बेना नामना प्रथमाक्षरना वर्गों एक बीजाथी पांचमा न होय, अने बनेना नक्षत्रो एक नाडिमां न होय; ते देव अने धनिकने धारणागति शुभ छे एम जाणीने ते नामना देवनी नवी प्रतिमा भरावी. पूर्वोक्त श्लोकमां " नूतन बिम्ब विधाने" आम नवीन बिंब भरावतां षडवर्ग जोवानो निर्देश छे. पण प्राचीन प्रतिमा पण जेना घरमां अथवा जे गाममा प्रतिष्ठित करवी होय तेना नामथी अथवा ते गामना नामथी पदवर्ग शुद्ध होय ते स्थापन करवी सारी छे, गणवैर, योनिवैर, नाडिवेध आदि दोषयुक्त प्रतिमाओ प्राचीन छतां घणे स्थाने हानिकर सावित थई छे, माटे मूर्ति भले प्राचीन होय तपापि पटवर्ग शुद्ध होय ते ज मूलनायकना स्थाने प्रतिष्ठित करवी.. ने व्यक्तिनुं जन्मनक्षत्र जाणवामां होय तेनी योनि, गण, राशि अने नाडीवेधारा ४ बावतो जन्मनक्षत्रथी जोवी, पण १ वर्ग अने २ लहे' आ बाबतो जिननी जेम धनिकनुं पण प्रसिद्ध नाम बीजें होय तो ते प्रसिद्ध नामना नक्षत्रथी जोवी. . जेना जन्मनक्षत्रनी खबर न होय तेनी योनि, गण, आदि सर्व प्रसिद्ध नामना नक्षत्रथी ज जो. स्पष्टीकरण-कृत्तिकादि जन्मनक्षत्रानुसारी अजा आशा आदि नाम होय तेने यथासंभव “अआ" नीचेना पाछल आपीशुं ते पहेला बीजा अथवा त्रीजा कोष्टकमां लखेल जिन नामोनी साषे Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारणागति-लक्षण ] ३३७ मेल सारो छे अम समजवु, परंतु जन्मनक्षत्र तो कृत्तिकादि छतां तेनुं नाम ते नक्षत्रना आ अक्षरोने अनुसारे नथी पण 'टाहा, कान्हा, चाचा' आदि प्रसिद्ध छे, तेवाने त्रण कोष्टक लिखित नामो पैकी कोईनी साथे लहे', कोइनी साथे वर्ग, तो कोईनी साथे बने वातो पण मलती नथी, तेथी फरिथी ऋषभादि २४ जिननामोनी साथे जोतां घणोज विलंब थाय ओ कारणे चोथा कोष्टकमां ते जिननामो लखेलां छे, के जेमनी साथे मथारे लखेल अक्षरोना नक्षत्रवाला माणस के गामनी साथे योनि, गण, राशि, अने नाडिनो मेल छे, जो तेना प्रसिद्ध नामाक्षर वर्गथी चोथा कोष्टकमां लखेल जिन नामो पैकीना कोइ नाम के नामोनी साथे लहेणुं मलतुं होय अने वर्ग वैर न होय तो आ कोष्टकस्थित नाम अथवा नामो अनुकूल छे अम कही शकाय अटला माटे आ कोष्टकमां चतुर्वर्ग शुद्ध, अथवा शुद्ध प्रायः जिननामो लखेलों छे. वर्ग विरोध दोषना कारणे 'ऽव-बव' (ऽव अटले वर्गमेल नथी बव एटले धनिकनो वर्ग बलवान छे) इत्यादि संकेत करीने तृतीय प्रमुख कोष्टकोमा लखेलां जिननामोनी साथे धनिकना प्रसिद्ध नामथी वर्ग मैत्री होय तो ते नामो प्रथमादि भागे जाणवां. नाडिवेध तो सर्वत्र अवश्य टालबो ज जोईये. संज्ञा विवरणजेम क का, कि की, कु कू, के कै, को कौ, आम 'क' व्यंजननी जोडे इस्व-दीर्घ स्वरो लगाडी १० अक्षरो करवामां आव्या छे ते ज प्रमाणे 'ख' ने पण इस्व-दीर्घस्वरो लगाडीने 'ख खा खि खी खु खू खे खै खो खौ आ प्रमाखे १० अक्षरो बनाववा, हस्वाक्षरो जे कोठामा होय तेना सवर्ण दीर्घ पण ते ज कोठामां समजवा, जेम 'ग-गि ना Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धौ' आदर्श निषेध अर्थमा नाग योनि-गणकार' ता ३३८ [कल्याण-कालका-प्रथमखण्डे कोठामा 'गगा-गिगी', 'गु-गे' ना कोठामा 'गुगू-गे गै', तथा 'गो' ना कोठामा ‘गो गौ' इत्यादि. __ ज्यां 'घ' 'छ' आदि क ज अक्षर लखेल छे, त्यां १० नो आंक छे, एथी समजवान के आना- ‘घ घा घि घी घु घू घे घै घो घौ' आ दशे अक्षरो ए कोठामा छ ज्यां 'ऽता, ऽयो, ऽग, ऽब' इत्यादि छे, त्यां '5' ए निषेध अर्थमां लुप्त अकार छ 'ता' 'यो,' 'ग, 'व, अक्षरो अनुक्रमे धनिकनी 'तारा-योनि-गण अने वर्ग' वाचक छे. आ अक्षरोनी आदिमां आवेल '5' अर्थात् 'अकार' तारायोनिगणवर्गना आनुकूल्यनो निषेध सूचवे छ. अर्थात् 'उता' एटले ताराबलनो अभाव, इत्यादि. ज्यां 'ऽता' लखेल होय त्यां 'धनीकनी' अने ज्यां 'ऽदेता' होय त्यां 'देवनी तारा सारी नथी' एम समजवं. 'ऽता' मां देवनी अने 'ऽदेता' मां धनिकनी तारा अनुकूल छे ए अर्थतः सिद्ध समजबू, परंतु धारणागतिमां 'तागदोष' विचारातो नथी, विंध निर्माणना अधिकारमा योनि आदि ६ वातो ज जोवानुं कथन छे. पूज्य श्री गुणरत्नसूरिजीए धारणायंत्रकोमा तारादोष लख्यो छे पण तेनो हेतु समजातो नथी, अहिं लग्ववानुं कारण तो तेमना यंत्रकनुं अनुसरण मात्र छे, एथी ज 'देता' इत्यादि 'तारादोष' जणावेल होवा छतां ते जिननामो प्रथम सत्रोगां जणावेलां छे. __ ज्यां देव तथा धनिकनुं नक्षत्र एक ज छे त्यां योनि आदि सर्व वातोनी शुद्धि होवाथी, नेमज घणा पूर्वाचार्योनी संमतिथी ग्राह्य होवा छतां आजकाल ए विषयमा केटलाको विवाद करे ले, ते विवादना निवारणार्थे प्रथम वीजां नामो ग्राह्य थाओ ए आशयथी तेवां नामो निर्दोष छतां प्रथम भांगे लखेल बीजा नामोना अन्तमां लख्यां छे. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारणागति-लक्षण ] ३३९ 4 ' प्रो०६-८ प्री०२-१२' इत्यादि स्थले देव तथा धनिकना राशिपतियोने परस्पर प्रीति छे एम समजवु, ज्यां ७-७ आदिमां राशि मैत्री के त्यां राशिपति मैत्रीनो विचार कर्यो नथी, पण ज्यां षडष्टक, वीयावा, नवमपंचममां राशि मैत्री नथी त्यां ते राशियोना स्वामीयोनी मैत्री जोईने नाम ग्रहण कर जोइये एम धारी तेवां नामो वीजा भांगा आदिना कोष्टकोमां लख्यां छे. तेमां पण प्रीति नव पंचमथी प्रीति बीयावारुं, अने तेनाथी पण प्रीति षडष्टक विशेष सारुं होय छे. तेमां पण ज्यां देवरा शिथी धनिकराशि निकट अने धनराशि थी देवराशी दूर होय ते नव पंचमादि ग्रहण करतुं वीर्जु नहिं तेवा प्रकारं न मळे तो क्वचित तेवं पण लेवं, देवराक्षस रूप गणवैर पण लोकमां वर-कन्यादिकने विषे ग्राह्य कयूँ छे, 'ग' एटले देवराक्षसरूप गणवेर छे एम समजनुं 'ड्यो' 'व' एटले धनिकने देवसंबंधी 'योनि' तथा 'वर्ग' अनुकूल नथी. 'बग' 'बयो' 'वव' नो अर्थ धनिकन गण, योनि, वर्ग, देवना गण योनि वर्ग करतां बलिष्ठ छे एम जाणवु, अतिनिर्बलथी बलिष्टनो पराभव थई शकतो नथी, ए अभिप्रायथी धनिकनो मार्जारादि बलिष्ट वर्ग देवना उंदुरादि अल्पबली वर्गथी पराजित थई शकतो नथी. तेथी आवा प्रकारर्नु गणतर अने वर्गवैर त्रीजे भांगे ग्राह्य कयुं छे. , ' sant' 'saa' एटले धनिकनी योनि तथा वर्ग निर्बल छे एम जाणवुं, परंतु ए विशिष्ट दोष नथी, केमके 'जातिवैर' नथी, शास्त्रमां योनि संबन्धी जातिर अने वर्गसंबन्धी इतरेतर पंचम वर्गने ज वज्र्ज्या छे. लोकमां पण ए विषयमां आवीज मान्यता छे. आ यंत्रमां बहुश्रुतोना विचारानुसार यथा शुद्ध अने यथाल्पदोष जिननामो च्यारे कोटकोमां लख्यां छे. । इति धारणागतियंत्रकाम्नायः । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० [ कल्याण-कलिका-प्रथम-खण्डे जिननाम-वर्ण-लांछन-नक्षत्र-राशि अंक नाम देहवर्ण लांछन नक्षत्र राशि - धनुः संभव वानर सुमति च। मषा सुपार्श्व तुला ऋषभ सुवर्णाभ वृषभ उत्तराषाढा अजित सुवर्णाभ रोहिणी वृष सुवर्णाभ अश्व मृगशिरा मिथुन अभिनन्दन सुवर्णाभ श्रवण मकर सुवर्णाभ क्रौंच पद्मप्रभ रक्तवर्ण कमल चित्रा कन्या सुवर्णाभ स्वस्तिक विशाखा चन्द्रप्रभ | चन्द्र अनुराधा वृश्चिक सुविधि घवलवर्ण | मकर मूल धनुः शीतल सुवर्णाभ | श्रीवत्स पूर्वाषाढा धनुः श्रेयांस गंडक श्रवण मकर वासुपूज्य रक्तवर्ण महिष शतभिवा विमल सुवर्णाभ वराह उत्तराभाद्रपदा मीन अनन्त सुवर्णाभ श्थेन स्वाति तुला धवलवर्ण सुवर्णाभ - Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारणागति-लक्षण ] ३४१ - धर्म ककै शान्ति अर मल्लि सुवर्णाभ | पुण्य सुवर्णाभ भरणी मेष सुवर्णाभ | छाग कृत्तिका वृषभ सुवर्णाभनन्दावर्त रेवती मीन प्रियंगुवर्ण | कलश अश्विनी मेष कृष्णवर्ण श्रवण मकर सुवर्णाभ नीलो- अश्विनी मेष चित्रा प्रियंगुवर्ण सर्प विशाखा सुवर्णाभ सिंह उत्तराफाल्गुनी कन्या मुनिमुव्रत नमि नेमि कृष्णवर्ण कन्या पार्श्व महावीर Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ भांगे नामका अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ क का कि की कु कू के कै को कौ आद्याक्षर खे खो १ ले भांगे वासुपूज्य ३ वासुपूज्य ३ चन्द्र १ ऽता नमि१॥ऽदेता मुनिसुव्रत २ मुनिसुव्रत २ नाम ॥ जिननाम विश्वो० लक्ष्य, ऽदेता विमल ३ ऽता मुनिसुव्रत २ प्री पी३८ प्री ६८ ता | ऽदेता श्रीकुंथु० ॥ ६८ बलि वर्ग. ऽदेता, बवता , बव . महा २त्री ९।५ मुनिसुव्रत जिननाम वर्धमान३ २-बव प्री ९५ ३ भांगे विमल ३,प्री विमल ३ बग पद्मप्रभ२ महावीर २ पार्श्व २, प्री धर्म १॥ जिननाम २।१२,बग, 5-ऽदेता,महा २॥ प्री९।५, ऽग. ऽदेता, बव. ९।५, ऽग, बब बयो ऽता, देता चंद्र-१,प्रा प्री ९।५, बग महावीर २ ६८,ऽग,ऽदेता प्री ९५ वाम नामान्तरो- सुविधिप्री९।५ धर्मऽग ऽदेता धर्मनाथ ऽता, वर्धमान ऽदेता शंभवशीतलऽदेता, विमल-आदि शांतिऽदेता पयोगी ऽदेता ऽबयो चन्द्रप्रभ ऽग : अजित- अमिनंदन ऽताशांति-अनंत-अर ऽदेता शंभवऽदे चन्द्रप्रभऽतान जिननाम शान्ति बग ऽदेता. संभव प्री२।१२ अनंत ऽता ऽदेता, आदिऽता. ताशीतलऽता, शंभवप्रीम धर्मग ऽदेता 'शांतिऽता,अनंत - अर ऽता श्रेयांसप्री६।८ऽदे SHASH. श्रेयांसानमिऽग ऽदेता. श्रेयांसपी ६८ ता.विमल बयोऽतायांस-अभिनंदन भिनंदन प्री संभव- अजित प्री २०१२ ६।८ऽता, अजित ६८ देता। अजित प्री २।१२ शंभव प्री २०१२ प्री २०१२ ऽदेता विमलऽग. वयो Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बव बब धारणागति-लक्षण ] | ग गि गुगे गोघ १० १० च चि चु चे चो छ १० ज जि जु जे जोर पाश्वरऽता पार्श्व २ नेमि ॥ मुनिसुव्रत २ | महा १॥ धर्म१ ऽदेता । मुनि ११॥ धर्म १ ऽदेता व व प्री९।५ऽता प्री ६८ ऽबयो । प्री ६८ ऽदेता ऽदेता मुनि।। ऽदेता | प्री ६८ नमि१ ऽदेता नमि१ मल्ली१॥ ऽदेता मल्लि१॥ ऽदेता। पद्मप्रभ २प्री६८ नमि१प्री। ऽवयो बव १२मल्लिा प्री२।१२ महा २ प्री पार्श्व २प्री ९।५ धर्म१पी९।- चन्द्रप्रभ प्री महा१॥ प्री ६१८ ऽदेता यो बब ५, चन्द्रप्रभा ६८ ऽदेता ९।५ बयोवग चव मी ९१५ सुपार्श्वऽता सुमतिऽता सुमति देता | शंभव शीतल विमल, शं. शांति, श्रेयांस शंभव शां- शांति, चन्द्र-] वामुपूज्य सुविधिऽदे- कुंथुऽता वासु०- ऽदेता, शांति भव देता| ऽदेता, शंभव ति देता, प्रभ ऽदेता, प्री २०१२ ता, वासुपू- सुपार्श्व प्री ९।५ ऽदेता, अत अभिनंदन ऽता, अनंत शितल ऽदे- विमल ऽदेता, बयो कुंथुनी ज्य अयो, बयो,अजित ऽदे ऽदेता, अरऽदेता, ऽदेता प्री २०१२, अर ता, आदि अभिनंदन ९।५ बयो सुपार्श्व श्री ता वग आदिऽदेता,श्रेयां-शीतलऽता, प्री २०१२, वि- ऽता श्रेयांस प्री ६८ ऽता. ऽदेताऽजित, ९।५ ऽव शीतल दे स प्री ६।८ऽदेता, अनंत अर | मल प्री २०१२ पी ६।८ प्री ९।५ कुंथु वयो। बग, आदि विमलऽता बयो शांति प्री ऽदेता, शीतल | ऽदेता, विब गण देता, अ- शांति देता अजित प्री २०१२/ २०१२ प्रो ९।५ आदि मल बयो जित वगबग ऽदेता. श्री ९।५ ऽता. ऽता,अजित ऽदेता,आ प्री २०१२ दि ऽता बग. ऽदेता 323 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऽदेता. झ १०८ टि टु डि डु डे डो महा १।। ऽता अनंत २।। प्री अजित २॥ आदि२॥, धर्म आदि २! अजित २॥ नेमि ॥ ऽदेता ६८ ऽदेता ०॥ ऽदेता, अनंत २।।ऽदेता देता अर२॥प्री६८ अनंत २॥ऽता, अर २॥ नमि ॥ ऽता अर २॥ धर्म ॥ऽता धर्म ॥ नमि १ प्री नमित्री ९।५/अनंत २॥, अर अजित २॥ प्री अजित २॥ प्री आदि २॥ प्री सुविधि २ प्री २॥१२ ऽता, आदि सभी प्री६।८ऽता ९५ ९५ ६८ ऽता ६८ वयो बब मल्लि १॥ प्री ९५ धम।। पी२।१२ शीतल २ वर शंभव २ बव अनंत २॥ श्री २।१२ ऽता. ऽदेता शंभव २ - ९५ ऽता बव अर २॥ आदि२॥ पो९ शंभव २ ऽता बव शीतल २ ऽदेता। शांति २ बग ५,शांतिरप्री ९ श्रेयांस २ प्री बव, श्रेयांस २ बब ऽता 14वत्र, शीतल ९।५ बव प्री ९।५ बव २प्री ९।५ बब अभिनंदन-अ- महावार- चन्द्रप्रभ ऽदेता विमल ऽदेता चन्द्रप्रभ ऽता महा ऽता पद्म देता नंत अर-अजि- वर्धमान विमल श्री ६८ चंन्द्रप्रभ ऽदेत। विमल ना बर्द्ध ऽता महावगऽदेता त ऽदेता, आ- श्री २०१२ ऽदेता, महावीर महावीर- मुनिसुव्रत प्री मल्लि ऽता विमल प्री ९।५/३४ दिऽता, वर्धमा- मल्लिपी २०१२ मुनिसुव्रत पी. ९५ कुंथु ऽग ऽता बग नऽता, विमल प्री ९।५. ९।५ चंद्र प्री ९।५ऽग श्रेयांस ऽदेता ऽयो। [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारणागति-लक्षण ] । १० ण १० त ति तु ते तो थ १० द . दिद आदि २॥ आदि २॥ शांति ॥ सुविधि ॥ प्रद्मप्रभ ।। महा ।। ना शीतल ॥ शंभवाऽदं महा ।। ऽता अजित २॥ अनंत २॥ ऽदेता,शीत-ऽदेता, पार्श्व-सु-ऽदेता, वासु- विमल ? नाता ,मुनि।ऽ विमल १ ऽदेता,अनंत ऽता,अर २॥ल १।। ऽदे- पार्श्व १॥ पूज्य ? बयो ना, श्रेयांस २॥ ऽदेता धर्म । ऽता ता १॥ऽता,शी. अर २॥ तल?॥ऽता. शीतल २ शंभव २ महा। प्री पद्म ॥ प्री सुविधि १॥ नमि ॥ श्री श्रेयांम १॥प्री विमल १ नमि १ प्री बव बब, शीतल २।१२ ऽता २।१२ ऽदेता पी २०१२ २०१२ 'ना, २०१२ ता, मु-बयो, धर्म ॥२।१२, म२ देता बब शंभव १॥ । देता मल्लि ॥ श्री नि ॥ श्री प्री ९।५ ल्लिा प्री 'प्री ९५ २२१२ ता. २०१२ ऽता. बयो. २०१२ऽता. नमि ॥ अजित २॥अभिनंदन वामु १ प्री महा ।। बयो अभिनंदन २ शांति १॥बयो शांति १॥ अभिनंदन पी ९५ प्री ९।५ २ श्री ९।५९।५ बयो,शी- बगऽदेता ऽव,अनंत-अर ऽता, शंभव१॥ प्री २०१२ २ऽव, अनंत श्रेयांस २ च तल १॥ बगशीतल ॥ २ऽव, अजित प्री ९।५ ऽदेता ऽता बयो, २ ऽच, अर प्री ९।५ ता,महा।। प्री प्री २०१२ २ऽदेता ऽव आदि २ऽदेता आदि२ ऽदे-२ऽव,अजिब वर्ग २।१२ बयो बग ऽता आदि २ऽता ऽवर्ग, अजित ता ऽवर्ग त २ ऽदेता बगऽदेता. व, श्रेयांसऽयो २ ऽता ऽवर्ग, अजित २ ऽव,श्रेयांस अभिनंदन २ __ऽदेता । ऽताऽवर्ग १ऽदेता प्री९।५ ऽगऽव महावीर-व- विमल ऽता धर्म ऽता,न- नेमि प्री नेमि देता चंद्रप्रभ चंद्रप्रभ पी द्धमान मल्लि चंद्रप्रभ ऽता मि ऽबयो २२१२ ऽदेता बयो. ९५ बयो पी. ९। ५ मुनिप्री९।५ ऽता 2SD Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दे दी ध १० न नि नु ने विमल १, शंभव शीतल शमुनि ।। ऽदे १ ॥ ऽदेता महा ॥, शीत वर्धमान १ ता, श्रेयांस महावीर || १ || देता, महा || ता मल्लि ।। प्री ६८ ना, नमि प्री १ ॥ ता नमि१प्री२।१२ नमि १. मल्लि|| प्री २।१२ मल्लि ॥ शांति१|| प्रि२।१२ प्री ९१५ ता, धर्म। प्री९॥५ ६८ ता अभि २ अर २ देता आदि२ऽव, अजित २ शांति १॥ प्री ६८ sa, अनंत २व, अभिनंदन देता व ता वग, शीतल १|| २ देता || आदि २ श्री प्री२।१२ ता वग, डव, अनंत २२।१२ ता, विमल १९०५ बग. देता, अर २ अनंत २ अजित ताबडा, देता व प्री ९१५ व आदि २मी २।१२ देता ग अर २ चंद्रप्रभ प्री ९१५ नो सुमति १ ॥ चंद्रप्रभ कुंथु उढ़ता, नमि प्री ६८ग पपि शीतल १ वर्द्ध ॥ विमल || देता शंभव १ ता श्रेयांस १ प्री ९५ पु शंभव १ शीतल १ देता विमल ॥ ता फ १० पे पो सुविधि १ देता शीतल १ वर्द्ध ॥ महा १ ॥ श्रेयांस १ वासु ॥ प्री ६८ श्री ९१५ पद्मप्रभ बयो 1 सुपार्श्व१प्री २०१२ उता, पार्श्व श्री २।१२ उता, वर्ध " देता बयो बग. मल्लि १ || प्री ९/५ आदि धर्म देता, आदि अनंत कुंथु मी ९१५यो आदि अभि चंद्र देता, अनंत देता, अर धर्म देता, नेमि आदि नंदन देता ता, अरता, महाता, चंद्र ऽता, बग देता, अजित अनंत देता वीर अजित मी अजित प्री९।५ प्री ९१५ बग ९।५ मुनिश्री ९।५ मुनि श्री ९१५ मुनि प्री ९१५ ग प्री ९१५ अर - नमि Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - | ब बि बु बे बो भभि भु भो म मि मु मे मो । विमल ।। शंभव १ प्री पार्श्व २॥ ऽता महा ॥ शीतल १ शांति १ बासु ।। ऽदेता वधमान।। ऽता २०१२,मुनि सुपार्श्व १ ऽता वर्द्ध ॥ विमल ।। ऽदेता विमल ।।ऽदेता सुमति १ प्री२।१२ १ प्री ९५ पद्म २।। ऽता शीतल १ महावीर ।। मल्लि ।। ऽदेता श्रेयां १ पी सुविधि १ ९।५ । शंभव १ महा१,वर्द्ध। सुमति १ मल्लि।। शंभव १ वयो ऽदेता महा। प्री ९।५ मल्लि प्री २०१२ मा ९५ प्री ९।५ प्री ५१५ वर्द्ध ॥ प्री ९।५ प्री९५ ऽदेता महा १ प्री वासुपूज्य शीतल १ बग शांति १ प्री ९५ पद्म२ प्री २।१२ऽता, ९।५, वर्ध ।। ॥ऽग विमल ।। बयो मल्लि ॥ श्री ९।५ सुविधि १ प्री ९।५, प्री ९।५ बग ऽदेता, शां __ऽदेता विमल प्री ६८ बग ति १श्री ९।५ ऽदेता,शांति प्री ९।५ ब गण बग, शीतल १ प्री ९।५ बग धर्म ऽता,चं- अजित नेमिनाथ ऽता, आदिनाथ-अ- अभिनंदन ऽता, धर्म धर्म देता नेमि प्री २।१२ ऽता अनंत श्री द्रप्रभ ऽता अनंत आदिनाथ बग भिनंदन ऽदेता श्री ६८ ऽदेता।।,आ- नमि ऽदेता ६८ ऽदेता अजित ऽदेता,अर ऽता अनंतदेता,अर दि चंद्र प्री २०१२ चंद्र ऽदेता। अरपी ६८ अभिनंदन ऽदेता, नमि देता, नमि प्री ९।५ अभिनंदन ऽदेता, नमि प्री२०१२ प्री ९।५ देता पी ६८ ऽता पी९।५,आ ऽता दिपी९।५/ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देता | य यि यु। ये यो । र रि । रु रे रोल लि लु ले लो व वि वु वे वो | सुमति ॥, सुपार्श्व ॥ ऽता सुमति ।। ऽदेता शांति।। ऽदेताशांति ॥,श्रेयां-श्रयांस || ऽता शंभव ॥ शंभव ।। प्री | कुंथु १॥ ऽदेता सुविधि ॥ सुविधि ॥ शीतल॥ देतास ॥ऽदेता, शं- शांति ॥ प्री २।१२/ २०१२ भव ॥ ऽता सुपा ।। ऽता| सुमति॥ कुंथु १॥ श्री वर्द्ध१प्री २।१२ विमल ।। प्री विमल ऽता श्रेयांस ।। प्री ९। ५६८ ऽदेता ऽता, शंभव ॥ २॥१२ ऽदेता, प्री ९।५ बयो । प्री १।५ शीतल। प्री ९५ शांति प्री ६८शीतल।।ब गण वासु१ श्री ९।५ ऽता बग | शांति ॥ बयो, वर्द्ध १ । प्री ९।५ बगनी २।१२ बयो ऽदेता बग चंद्र २ प्री६८ ऽदेता ऽव चंद्र २ ऽतावर्द्ध प्री ९।५/ ऽव ऽदेता वर्द्ध प्री ९।५ धर्म प्री ९।५)पार्थ ऽता.नेमि पार्श्व ऽता, पद्माधर्म ऽता, महाधर्मऽदेता,मुनि नमि मल्लि अ- धर्म ऽता, अजित अनन्त ग,अजित बगाऽता, पद्म ऽतापी२।१२,नेमिग्री २०१२ ऽताऽदेता,नमि म-भिनंदनऽदेता, अजित महाऽता, अर ऽता ऽता, आदि प्री आदि बग ऽता प्री २०१२ अभिनंदन लिपी २२१२, मुनि ऽता,अनं प्री ९।५ मुनि श्री ९॥५, २२१२ वगऽदे- विमल वयो| अजित बग श्री ९।५ अनंत अरत अरप्री२।१२ अभिनंदन प्री ता, विमल | बग देता आदि देता नभि बयो ऽता आदि प्री९।५ देता,आदिप्री २।१२ऽता,महा श्री ९।५ बग बग मल्लि बयो ऽता ऽता ९।५ प्री ९।५ ऽदेता [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श १० । ष १० __स सि सु से सो अभिनंदन ।। आदि ॥ कुंथ १ ऽता आदि ॥ आदि।देता,शंभवाशांति २॥ ऽता अजित।। ऽदेता अनन्त ।। अनंत ।। ऽदेता ऽदेता देता,अनंत॥ऽता अजित ॥ ऽता) अर ॥ अर ।। ऽदेता अजित ॥ अ॥ऽता,शांति२।। श्रेयांस २॥ऽता अजित।। ऽदेता ऽताता , शीतल २॥ | आदि ।। ऽता उता,अभिनंदन ॥ चंद्र १॥ बच सुमति ऽता, सुपार्श्व चंद्र ।। । श्रेयांस २॥ श्री आदि ॥प्री आदित्री ६८ ऽता, अजित ॥ श्री ९।५ ऽबयो । बयो ६।८ ऽता, अजित ६८ ऽदेता, ऽता,अनंतापी | |॥ प्री २०१२ ऽता शीतल २॥ ९।५,अ।। पी श्री ६।८ऽता ९।५ । अजित ।। बग ऽदेता अनंताग्री९।५ कुंथु १ ऽगऽता | आदि !! वग ऽता अर॥ी९-५ ऽता धारणागति-लक्षणम् ] प्री ९।५ । | महावीर ऽता, शंभव-शीतल पद्मप्रभ श्री ६८ शीतल ऽता, विमल - विमल नमि प्री देता,धर्म ऽताऽबयो,नेमि प्री ६८ श्रेयांस-मुनि- मुनिसुव्रत २।१२ ऽता,म-विमल ऽता,श्रे-ऽबयो,वासुपूज्य-पाच सुव्रत प्री२।१२ प्री ६,८ ऽग ल्लि प्री २०१२ यांस प्री ९५प्री९।५ ऽबयो,शांति-ऽता,शांति बयो ऽता, श्रेयांस मुनि प्रा ९।५ शीतल बग ऽदेता | ऽता,शंभव श्री ऽयो ऽदेता ९।९ देता चंद्र १॥ नमि ऽता, प्री ९।५ मल्लि ऽता धर्मनाथ महावीर मुनिसुव्रतऽता, वर्धमान-ऽता विमल प्री९५ धर्म न Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिननाम आ० अ० श० अ० सु० प० सु० चं० उपा० रोही० मृग० पुन० मघा० सर्प चित्रा विशा० अनु० मार्जार उंदर उदर व्याघ्र व्याघ्र राक्षस राक्षस राक्षस नक्षत्र योनि नकुल सर्प गण मानव मानव दव देव तारा २१ ४ राशि धनुः राशिस्वामी आद्याक्षर 我 अ शं वर्गेश वर्ग १० तृष मिथुन मिथुन सिंह सूर्य गुरु शुक्र बुध बुध ov गरुड गरुड मेष ८ ک a अ अ श 'ल गरुड अ لله सु मेष ८ श १४ १६ कन्या तुला बुध शुक्र सु मप ८ प उंदर ६ प श सु० शी० श्र० मूल पू०पा० श्रव० मृग श्वान वानर वानर देव राक्षस मानव देव २२ १७ १९ २० वृश्विक धनुः धनुः मंगल गुरु गुरु चं शी सिंह ३ च सु मेष ८ श मेष ८ श मकर शनि मेष ८ श ३५० [ कल्याण - कलिका - प्रथमखण्ड Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० | वि० | अ० । ध० | शां० | कुं० । अ० म० । मु० न० । ने० । पा० | २० शत० | उ०भा०, रेव० । पुष्य | भर० कृत्तिः | रेख० । अश्वि० श्रव० |अश्वि० | चित्रा | विशा० उ०मा० धारणागति-लक्षणम्] अश्व | छाग | हस्ती छाग । हस्ता। छाग । हस्ता। अश्व वानर अश्व व्याघ व्याघ्र | गौ देव मानव राक्षस देव | राक्षस | राक्षस | मानव घ । शा | कु । अ । म |मार्जार गरुड, Far Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेद सोलमो -: मुहूर्त लक्षण :चैत्यसत्कमुहूर्तानि, भूम्यारम्भादिकानि हि । प्रतिमास्थापनान्तानि, वर्ण्यन्तेऽत्र समासतः ॥१७॥ भा०टी०-जिन चैत्य (प्रासाद) संबन्धी खात मुहूर्तथी मांडीने प्रतिमा स्थापन सुधीनां तमाम मुहूर्तों आ परिच्छेदमा संक्षेपथी वर्णन कराय छे. मुहूर्तनो विषय अति विशाल छ, एना निरूपणमां शुं लेबु अने शुं नहि ए विषय विचारणीय थइ पडे छे, प्राचीन शिल्प संहिताओमां ज्योतिपनी सविस्तर चर्चा करेली छे, एथी समजाय छे के शिल्पकारो ज्योतिष विद्याने पण शिल्प विद्यार्नु एक अंग गणना हता. मध्यम कालीन अने आधुनिक विद्वानोए पण पोताना ग्रन्थोमां ए वस्तुनुं स्मरण कयु छे, एटले अमो पण प्रासादनी साथे संबद्ध मुहू. सौनी चर्चा करवी योग्य धारीये छीये. ____ 'मुहूर्त' शब्दनो पारिभाषिक अर्थ दिन तथा रात्रि प्रत्येकनो पंदरमो भाग एवो थाय छे. पूर्व ज्यारे पंचांग शुद्धि तथा लग्ननो प्रचार न हतो त्यारे प्रत्येक कार्य नक्षत्र अने मुहूर्त बलथी ज करात हतुं. आज मुहूर्तनो विशेष आदर नथी, छतां ज्योतिष शास्त्रमा आजे य मुहूर्त- नाम मोखरे छे, आ कारणथी ज अमोए 'मुहूर्त' शब्दने पसंद कर्यो छे. दिवस-रात्रिना १५-१५ मुहर्ता-पूर्वे अने आज काल पण ६० घडीना अहोरात्रना १ त्रिशांशने मुहूर्त कहेता अने कहे छे; पण आ मुहतों २ घडीनां मनाय छे अने दिनमान अथवा रात्रिमान Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-लक्षणम् । ३५३ वधवा घटवाथी दिनरात्रिना मुहूर्तों वधे घटे छे, पण प्रकृत मुहूर्तोंने अंगे एम गणातुं नथी, “पञ्चदशांशो दिवसे, क्षणमानं तत् त्रियामायां" इत्यादि विधानो प्रमाणे दिन-रात्रिमानना वधवा घटवाथी तेओना क्षणोनुं मान पण वधारे ओछं थाय छे. आ मुहूतों बधा शुभं अथवा अशुभ होता नथी, परंतु तेओना स्वामिओनी शुभाशुभ प्रकृतिने अनुसारे ते केटलाक शुभ अने केटलाक अशुभ पण होय छे. दिवस रात्रिना मुहूर्तोना स्वामीओ प्राचीन जोतिषमा नीचे प्रमाणे बताच्या छेशिव-सर्प-मित्र-पितरो, वसु-जल-विश्वा-भिजिद्रुहिणः। सुरपः-द्विदेव-दनुजाः, शम्बर नामाय॑माख्य-भगाः॥१॥ दिवसमुहर्ताः कथिता, दशपञ्चमिता स्तथैव रात्रेश्च । मद्राज द्विपादेवाऽहिर्बुध्न्याख्यास्ततश्च पूषाख्यः ॥२॥ अश्वि-यम-वह्नि-धात-सुधाकरास्त्वदिति-सुरमन्त्री। हरि-स्तोणकर-त्वष्ट्र-प्रभञ्जनाश्चेति पञ्चदश ।।३।। भाल्टी-१ शिव, २ सर्प, ३ मित्र, ४ पित, ५ वसु, ६ जल, ७ विश्वदेव, ८ अभिजित, ९ विधाता, १० इन्द्र, ११ इन्द्राग्नी. १२ राक्षस, १३ शम्बर, १४ अर्यमा अने १५ भग; आ पंदर दिवस मुहूर्तोना स्वामी कया छे, एज रीते गत्रिमुहूर्तना पण १५ छ जे आ प्रमाणे-- १ रुद्र, २ अज द्विपाद, ३ अहिर्बुध्ना, ४ पूषा, ५ अश्विनीकुमार, ६ यम, ७ अग्नि, ८ धाता, ९ चन्द्र, १० अदिति, ११ बृहस्पति, १२ विष्णु, १३ सूर्य, १४ त्वष्टा अने १५ वायुः ए पंदर रात्रि मुहूताना स्वामी छे. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे मुहूर्तमान अने तेओनो कार्य प्रदेश-क्षणोनुं समयमान अने तेओना कार्यप्रदेशचें नीचेना लोकोमा निरूपण कयु - पञ्चदशांशो दिवसे, क्षणमानं तत्रियामायाः । नक्षत्रेश्वरसदृशे, क्षणे च तन्नाम घिष्ण्यं तत् ॥ ४॥ यत्कर्म कथितम्रक्षे, यस्मिंस्तत्कर्म तत्क्षणे कार्यम् । दिक्शूलादिकमखिलं, पारिघदण्डं च विज्ञेयम् ॥ ५ ॥ भा०टी० -दिवस माननो पंदरमो भाग ते दिवसक्षणY कालमान अने रात्रिमाननो पंदरमो भाग ते रात्रिक्षण, कालमान होय छे, नक्षत्र स्वामीने मलता स्वामीवाला मुहूर्तने तेना स्वामित्व वाल नक्षत्र मानीने ते नक्षत्रनां सर्व कार्यों तेना ते क्षणमां करवा, दिशाशूल, पारिघदण्ड, आदि सब नक्षत्र संवन्धी वातो तत्स्वामिक क्षणोमां करवा. दिवस विभागना अशुभ-शुभ मुहतों-दिवसना कया कया मुहूर्तों अशुभ होई शुभ कार्योमां वर्जवा अने कया शुभ होई शुभ कामोमां लेवा जोईये तेनुं निरूपण आ प्रमाणे छेनिति-पितृ-सर्पाख्या, रौद्रेन्द्राग्नीश्वराख्यभगाः । पापमुहूर्तास्त्वेते, शुभकर्मणि दुःख-शोकदा नित्यम् ॥६॥ युमुहूर्तास्त्ववशिष्टाः, सौम्याः शुभदाश्च मङ्गले कनम् । शान्तिक-पौष्टिक कर्मसु, विशेषतस्तत्प्रदाः सततम ॥७॥ भा०टी०-निति स्वामिक (१२मो), पितृ स्वामिक (४थो), सर्पस्व.मिक (२जो), रुद्रस्वामिक (१लो),इन्द्राग्नि स्वामिक (११मो) अने भग स्वामिक (१५मो मुहूर्त); आ छ पाप मुहूर्तों छे. आ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-लक्षणम् ] मुहतों शुभ कामोमां लेवाथी नित्य दुःख अने शोक आपनारा थाय छ, बाकी रहेला दिवस मुहूर्तों सौम्य छे अने मंगल कार्योमां निश्चितपणे शुभफल आपनारा निवडे छे, शान्तिक पौष्टिक कार्योमां आ मुहूर्तों लेबाथी ते निरंतर विशेष पणे शान्तिकपौष्टिकना आपनारा थाय छे. रात्रिविभागना अशुभ-शुभ मुहूर्तारात्रिमुहूर्तास्त्वजपाद्, रौद्राग्नेयाख्य याम्यसंज्ञाश्च । क्रूरतराश्चत्वार-स्त्वनिष्टदास्त्विष्टदास्त्वपरे ॥८॥ भाण्टी-रात्रि मुहूर्तों पैकीना अजपाद स्वामिक (२जो), रुद्र स्वामिक (१लो), अग्नि स्वामिक (७मो) अने यम स्वामिक (६ठो); आ ४ मुहूतों अतिकर अने अनिष्ट दायक होय छे, अने शेष ११ . मुहूर्तों शुभदायक होय छे. वार परत्वे वर्जनीय मुहूर्तों-वार विशेषे पण मुहूर्त विशेप पार्जित करेल छ जेनुं स्पष्ट निरूपण निचेना पद्यमा कयु छअर्यम्णस्त्वर्कवारे हिमकरदिवसे राक्षस-ब्राह्म संज्ञौ, पित्र्याग्नीशौक्षणोद्वौ क्षितिसुतदिवसे सौम्यवारेऽभिजिच्च । दैत्याप्यो जीववारे भृगुतनयदिने ब्राह्मपित्र्यौ मुहूतौ; सार्पेशौ तिग्मरोचिःप्रियसुतदिवसे वर्जनीया मुहूर्ताः॥१॥ __भा०टी०-रविवारे-अर्यमस्वामिक (१४ मो), सोमवारे-राक्षस अने ब्राह्म (१२मो अने मो), मंगलवारे-पित्र्य अने अग्निस्वामिक (४थो अने रात्रि विभागे ७मो), बुधवारे-अभिजित् (८मो), गुरुवारे-राक्षस अने आप्य (१२ मो अने १३मो), शुक्रवारेब्राह्म अने पित्र्य (९मो अने ४थो) अने शनिवारे-सार्प अन Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ [ कल्याण-कलिका-प्रथम-खण्डे शिवस्वामिक (२जो अने १लो) मुहूर्त वर्जित करवो आम जे जे मुहूर्तो जे जे वारे वर्जनीय छे ते कयां. फलितार्थ-उपर्युक्त निरूपणथी जे फलितार्थ निकले छे तेनो सार एटलो ज छे के दिवस-रात्रिनो अमुक समय शुभ अने अमुक अशुभ होय छे, शुभ समयमां आरंभेलं शुभ कार्य सिद्ध थाय छे ज्यारे वर्जित समयमां आरंभेलं कोई पण शुभ कार्य सिद्ध थतुं नथी. कोई पण दिवसे दिवसना १-२-४-११-१२-१५ मा क्षण सिवायनो शेष समय शुभ होय छे, ज्यारे कोई पण गतिमां रात्रिनो १-२-६-७ मो, आ चार क्षणो सिवाय शेष समय शुभ होय छे, एम छतां ते दिवसे वार शो छे ए पण जोg अने वार परत्वे वर्जित क्षण होय तो ते शुभ होय तो य वर्जवो, रविवार होय तो १४मो, सोमवारे ९मो, बुधवारे ८मो, गुरुवारे ६ठो, अने शुक्रवारे ९मो क्षण शुभ छे छतां वर्जवो. वार परत्वे रात्रिनो ७मो क्षण वर्जित करेल छ अने ते आमे य रात्रिना ४ वर्जित क्षणो पैकीनो एक छे. नक्षत्रनो प्रतिनिधि पण क्षण-उपर कहेवायुं छे के पूर्वे नक्षत्र अने मुहूर्तना बले सर्व कार्यो करातां हता, अने अवसरे नक्षत्र बलना अभावे नक्षत्रनुं प्रतिनिधित्व पण मुहूर्तने अपातुं हतुं, द्रष्टान्त तरीके अश्विनी नक्षत्र विहित कार्य करवू छे; पण अश्विनी आजथी पच्चीसमे दिवसे आश्वानुं छे, तो शुं त्यां सुधी ए कार्य बंध राखवू के ते कोई उपायान्तरथी करवु ? आवी परिस्थितिमां मुहूर्तनुं महत्व जणावनार ज्योतिःशास्त्रे मार्ग बतावतां कर्तुं छे के विहित नक्षत्र नथी अने कार्य करवं आवश्यक छे तो नक्षत्र आवे त्यां सुधी बेसी रहेवानी जरुरत नथी, नक्षत्र स्वामिक मुहूर्तमां ते कार्य करी लेवं एटले ते ते नक्षत्रमा ज कर्यु गणाशे. मुहूर्तशास्त्र आवा नक्षत्र प्रतिनिधि मुहूर्तने 'क्षण नक्षत्र' एटले के मुहूर्तरूप नक्षत्र कहे छे, वाचकगण Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-लक्षणम् ] ३५७ जाणीने आश्चर्य पामशे के लगभग बधा ज मुहूर्त स्वामियो नक्षत्रोना पण स्वामी छे अने आथी मुहूर्तानुं नक्षत्र-प्रतिनिधित्व सहेतुक छे, मुहूर्तोना स्वामियोनां नामो उपर अपायां छे, हवे नक्षत्र स्वामियोनां नामो पण आपीये एटले विचारको बनेनी एक स्वामिकताने अनुभवे. नक्षत्र स्वामिओनी क्रमिक नामावलीनासत्या १ ऽन्तक २ वह्नि ३ धातृ ४ निशिपा ५ मद्रो ६ ऽदिति ७ श्वाङ्गिराः ८, वाताशाः ९ पितरो १० भगो ११ ऽयम १२ रवी १३ त्वष्टा १४ समीरः १५ क्रमात् । इन्द्राग्नी १६ त्युडुपाश्च मित्र १७ सुरपौ १८ कोणेश्वरः १९ शम्बरं २०, विश्वे २१ विष्णु २२ वसूदपा २३-२४ ऽज चरणा २५ हिर्बुध्न्य २६ पूषोभिधाः २७ ॥ १० ॥ भाण्टो-अश्विनीकुमार १, यम २, अग्नि ३, ब्रह्मा ४, चन्द्रमा ५, रुद्र ६, अदिति ७, अङ्गिराः ८, सर्प ९, पित १०, भग ११, अर्थमा १२, सूर्य १३, त्वष्टा १४, वायु १५, इन्द्राग्निी १६, मित्र १७, इन्द्र १८, राक्षस १९, जल २०, विश्वेदेव २१, विष्णु २२, वसु २३, जलपति २४, अजचरण २५, अहिर्बुन्य २६ अने पूषा २७; ए नामक देवो अनुक्रमे अश्विनी १, भरणी २, कृतिका ३, रोहिणी ४, मृगशीर्ष ५, आर्द्रा ६, पुनर्वसु ७, पुष्य ८, अश्लेषा ९, मघा १०, पूर्वाफाल्गुनी ११, उत्तराफाल्गुनी १२, हस्त १३, चित्रा १४, स्वाति १५, विशाखा १६, अनुराधा १७, ज्येष्ठा १८, मूल १९, पूर्वाषाढा २०, उत्तराषाढा २१, श्रवण Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे २२, धनिष्ठा २३, शतभिषा २४, पूर्वाभाद्रपदा २५, उत्तराभाद्रपदा २६ अने रेवती २७, नक्षत्रोना स्वामीओ छे. वास्तुकर्ममां शुभ मुहूर्ती-गृहारंभ आदि वास्तुकरिंभमां कया मुहूर्तों लेवा ? ए विषयमा मात्स्यपुराण नीचे प्रमाणे कहे छे श्वेते मैत्रे च माहेन्द्र, गन्धर्वाभिध-रोहिणे। तथा वैराज-सावित्रे, मुहूर्ते गृहमारभेत् ॥ ११ ॥ भा०टी०-श्वेत (२जु), मैत्र (३जु), भाहेन्द्र (१३मु), गन्धर्व (७मुं), रौहिण (९मुं), वैराज (६ठं) अने सावित्र (५मुं); आ सात मुहूतों पैकीना कोई पण शुभ मुहूर्तमां गृहारंभ करवो. मुहर्ताना संबन्धमां लल्लाचार्य कहे छश्वेतो मैत्रो विराजश्च, सावित्र अभिजित्तथा। बलश्च विजयश्चैव, मुहूर्ताः कार्यसाधकाः ।। १२ ॥ भा०टी०-श्वेत (२), मैत्र (३), विराज (६) सावित्र (५), अभिजित् (८), बल, (१०). अने विजय (११); आ मुहूर्तो सर्व कार्य साधक छे. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक रेवती वायु मूहूर्तयंत्रक ज्योतिषोक्त- ज्योतिषोक्त- पौराणिक | पौराणिक दिवामुहूतों रात्रिमुहूतों | दिवामुहूर्तो रात्रिमुहूतो आर्द्रा आर्द्रा आलेपा पू० भाद्र० गंधर्व अनुराधा | उ० भाद्र अर्थप मघा चारभट चारभट धनिष्ठा अश्विनी सावित्र पू० पाहा भरा वराज वैराज | अग्नि उ० पाढा कृतिका गन्धर्व अश्विनी रोहीणी । अभिजित् । धातु रोहिणी भृगशिर्ष रोहिण सौम्य ज्योष्टा पुनर्वसु बल ब्रह्मा विशाखा विजय मूल . श्रवण . नैऋत पौष्ण शतभिषा हस्त माहेन्द्र विष्णु उ० फाल्गु० चित्रा वारुण समीर पू० फाल्गु० स्वाती नैऋत राक्षस पुष्य जीव भग Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे दिनशुद्धि-मुहूर्त लक्षणने अंगे उपर थोडंक मुहूर्तानुं स्वरूप आप्यु छे, पण वर्तमान समयमां मुहूर्ता उपर ज्योतिपीगणनो विश्वास नथी अने खरं कहीये तो ए वस्तुने आजना ज्योतिषीओ घणे भागे भूली गया छे, एटले साधारण जनता तो जाणे ज क्याथी ? आवी परिस्थितिमा मुहूर्तलक्षणमा आधुनिक रीतिए दिनशुद्धि तथा लग्नशुद्धिनुं वर्णन कर्या विना ए विषय पूर्ण करी शकाय तेम नथी. __वर्षशुद्धि, अयनशुद्धि, मासशुद्धि, पक्षशुद्धि, गुरुशुक्रचन्द्रास्त बाल्य-वार्द्धक्य विचार, तिथि, वार, नक्षत्र, योग अने करणशुद्धि; ए सर्वनो दिनशुद्विमा ज समावेश थाय छे, तेथी ए सर्वनी शुद्धिनो विचार करवो ए ज दिनशुद्धिनो उपाय छे. गृहनिवेश, गृहप्रवेश, प्रतिष्ठा, परिणयन, यात्रा, आदि महत्वपूर्ण कार्योमा अल्प दोषो कदापी न टले. छतां महादोषो तो वर्जवाथी ज दिनशुद्धि तेम लग्नशुद्धि पोतानो खरो प्रभाव पाडी शके छे. वसिष्ठ, नारद, आदि संहिताकारो महादोपोना संबन्धे घणुं लखी गया छे, ए विषयमां नारदजी कहे छपञ्चाङ्गशुद्धिरहितो, दोषस्त्वाद्यः १ प्रकीर्तितः । उदयास्तशुद्धिहीनो, द्वितीयः २ सूर्यसंक्रमः ॥ १३ ॥ तृतीयः ३ पापषड्वगों, ४ भृगुः षष्टः ५ कुजोऽष्टमः ६। गण्डान्तं ७ कर्तरी ८ रिःफ-षडष्टन्दुश्च ९ सग्रहः१० ॥१४॥ दम्पत्योरष्टमं लग्नं, राशे ११-विषघटी तथा १२ ॥ दुर्मुहूर्तो १३ वारदोषः १४, खाजूंरिके समाधिभम् ॥१५॥ ग्रहणोत्पातभं १६ क्रूर-वितर्फ १७ क्रूरसंयुतं १८ ॥ कुनवांशो १९महापातो २०, वैधृति श्चैकविंशतिः २१ ॥१६॥ माटी-पश्चाङ्गशुद्धिनो अभाव १, लग्ननी उदयास्तशुद्धिनो Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-सक्षणम् ३६१ अभाव २, सूर्यसंक्रांति ३, पापषड्वर्ग ४, छठो शुक्र ५, आठमो मंगल ६, गंडांत ७, र कर्तारी ८, बारमो, छट्ठो, आठमो चन्द्रमा ९, कूर ग्रह सहित चन्द्रमा १०, पति-पत्नीनी जन्मराशिथी आठमी राशिनुं लग्न ११, विषघटी १२, दुर्मुहूर्त १३, वारदोष १४, खाजूंरिक चक्रमां पाद विद्ध नक्षत्र १५, ग्रहणादि उत्पात विद्ध नक्षत्र १६, क्रूर विद्ध नक्षत्र १७, क्रूराधिष्ठित नक्षत्र १८, कुनवमांशक १९, महापात २०, अने वैधृति २१; आ एकवीश महादोषो छे. ए महादोषा प्रयत्नपूर्वक वर्जवा जोईये एम नारदजी नीचेना पद्यमां अनुरोध करे - एते प्रोक्ता महादोषा, वर्जनीयाः प्रयत्नतः । यदि मोहात् कृतं कर्म, तदा विघ्नं भवेद्धवम् ॥ १७ ॥ भाण्टी०-कहेला ए महादोषोने यत्नपूर्वक टालवा जोईए, जो कोईए मोहवश पण महादोषमां कंइ काम कर्यु तो अवश्य विघ्न थशे। उक्त महादोषो पैकीना दोषो नंबर २-४-५-६-८-९-१० -११-१९ अने लग्न गंडांतनो संबंध लग्न साथे होई लग्नशुद्धिना प्रकरणमा निरूपण कराशे. तथा दोषो नम्बर १-३-१२१३-१४-१५-१६-१७-१८-१९-२०-२१ अने तिथि नक्षत्र गंडांतनो संबन्ध दिनशुद्धिनी साथे होवाथी तेना निरूपण प्रसंगे ते ते यथास्थान कहेवाशे. ___महादोषो उपरान्त बीजी पण केटलीक वातो मौहूर्तिके हर वखत ध्यानमा राखवा जेवी होय छे के जेनो अमो प्रथम निर्देश करीने मूल वात उपर आवशुं. ___वर्ष, अयन, मास तथा पक्षनी शुद्धि, गुरु-शुक्र-चन्द्रास्तकाल, तथा एमनो बाल्य-वार्द्धश्यकाल; इत्यादि वातोनो विचार कर्या Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे पछीज मौहूर्तिके मुहर्तनी खास वातो उपर पोतार्नु ध्यान केन्द्रित करवू जोईये। वर्षशुद्धि-जे वर्षमा मासनो क्षय अने वृद्धि बंने आवता होय ते वर्ष शुभ कार्योने माटे वर्जित गणाय छे. गुरु जे वर्षमां सिंह राशि पर भ्रमण करतो होय ते वर्ष पण शुभ कामने माटे वर्जित ज गणाय छे. मात्र अपवाद रूपे ते वर्षनो अमुक समय शुभ गणाय छे. अयनशुद्धि-अयनो पैकी दक्षिणायन देवप्रतिष्ठादि अने गृहारंभादिमां सामान्य रीते वर्जित छे. अपवादे कर्क संक्रांतिनो समय गृहारंभ अने गृह प्रवेशमा ग्रहण करेल छे. ए ज प्रकारे वृश्चिकनो सूर्य थया पछी पण दक्षिणायननो दोष गणातो नथी, ते समय गृहारंभगृह-प्रवेशमा लेवाय छे. मासशुद्धि-चैत्र मास सामान्य रीते गृहारंभादिमां वर्जित छ, छता मेषनो सूर्य थया पछी चैत्रनो भाग जो रहेतो होय तो ते शुभ छ, वैशाख गृहारंभप्रवेशादिमां शुभ छे, ज्येष्ठ गृहारंभमां वर्जित छ, प्रवेशादिकमा लीधेल छे. मिथुनार्क थया पछी आषाढ गृहारंभमां वजित छे. श्रावण गृहारंभप्रवेशादिमां शुभ छे. भाद्रपद, आसोज, कार्तिक आरंट प्रवेशादिमां वर्जित छे. मार्गशीर्ष अने पौष गृहारंभादिमां श्रेष्ट. पण धनार्कमां पौषनो भाग पडतो होय तो तेटलो वर्जित गणरो. माघ गृहारंभमां बर्जित छे अने प्रवेशमां लीधेलो छे. फाल्गुन आरंभ प्रवेशादि बधा कार्योमां शुभ छे. आरंभसिद्धिग्रंथकार ए विषयमां कहे छे के सौर मासना हिसाबे धनार्क, मीनार्क, मिथुनार्क, अने कन्यार्क; आ च्यार द्विस्वभाव राशिनी संक्रांतिओनो समय गृहारंभ अने प्रवेश बन्नेने माटे वर्जित गणाय छे, शेष राशिओनो सूर्य होय त्यारे दिशा परक विधान अने निषेध बने करेल छे. उपरना निरूपणनो मूलाधार नीचे प्रमाणे - Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्त-लक्षणम् ] पूर्वापरास्यं गेहाचं, कर्के सिंहे मृगे घटे। तुलाज्जालिवृषस्थेऽर्के, कुर्याद्याम्योत्तराननम् ॥१८॥ युग्म कन्या धनुर्मीने, गतेऽर्के नैव कारयेत् । वृषालि कुंभसिंहेऽर्के, कुर्याद गेहं चतुर्दिशम् ॥ १९ ॥ भाण्टी०-कर्क, सिंह, मकर अने कुंभ, राशिना मूर्यमां पूर्वाभिमुख अथवा पश्चिमाभिमुख गृहादिनो आरंभ करवो; मेष, वृषभ, तुला अने वृश्चिकना सूर्यमा दक्षिणाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख घरनो आरंभ करवो; मिथुन, कन्या, धनु अने मीन राशिओना सूर्यमां गृहादिनो आरंभ ज न करवो, ज्यारे वृषभ, सिंह, वृश्चिक, कुंभ आ स्थिर राशियो उपर सूर्य रहेलो होय त्यारे न्यारे दिशाना द्वार वाला घगेनो कार्यारंभ करी शकाय छे. अधिकमास-अधिकमासमां शुभ कार्यों करवानो निषेध करेल छे. पण अधिकमास कयो एनी पण आजना बनी बेठेला केटलाक ज्योतिषियोने खबर नयी. मासवृद्धिमा केटलाये अज्ञ ज्योतिषियो प्रथमना शुक्ल पक्षने प्राकृतिक मासमां गणी बीजा आखाये मासने अधिकमां गणीने त्याज्य करे छे. ज्यारे वीजा अज्ञानिओ पहेला आखाये पूर्णान्त मासने वृद्ध गणीने बीजाने प्राकृतिक गणे छे, खरी रीते ए बने प्रकार भूल भरेला छे. वृद्ध वसिष्ठ-अधिक मासन लक्षण बतावतां कहे छेयस्मिन् दर्शस्यान्ता-दागेका परा परं दर्शम् । उल्लंध्य भवति भानोः, संक्रान्तिः सोधिमासः स्यात् ॥२०॥ भाण्टी-जेमां एक संक्रान्ति प्रथम अमावास्यानी पहेला अने गोजी संक्रांन्ति बीजी अमावास्या वीत्या पछी लागे छे, त्यारे अधिक मास पडे छे. आथी स्पष्ट छे के अमावास्याना अन्तथी Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ [ कल्याण-कलिका-प्रथम-खण्डे अर्थात् शुक्ल प्रतिपदाथी अधिक मास लागे छे अने ते पछीनी अमावास्या सुधी रहे छे. एनुं तात्पर्य ए छे के महीनो पूर्णान्त मानो चाहे अमान्त, पण अधिकमास तो अमान्त ज होय. पूर्णान्तमास माननार देशमां पहेला मासनो शुक्ल अने बीजानो कृष्णपक्ष मली ३० दिवसनो मल मास गणाशे। क्षयमास-अधिकमास जेम शुभ कार्यमा वर्जित छे तेम क्षय मास पण शुभ कार्यों करवामां वर्जित करेल छे. मासक्षय कोई वार १९ वर्षे अने कोई वार १४१ वर्षे आवे छे; ज्यारे क्षयमास पडे के त्यारे मासवृद्धि पण अनिवार्यपणे थाय ज छे, एटले ए वर्ष घणुंज उथल-पाथल करनारुं निवडे छे. क्षयमासर्नु लक्षण वसिष्ठ कहे छे के आद्यन्त दर्शयोर्मध्ये, तयोराधन्तयोर्यदा । संक्रान्तिद्वितयं चेत् स्याम्यूनमासः स उच्यते ।। २१ ।। भाण्टी-पहेली अने बीजी अमावास्यानी वचमां ज्यारे बे सौर संक्रांतिओ थाय छे त्यारे ते (बे अमावास्या वच्चेनो) समय क्षयमास गणाय छे. क्षयमासना समयमा कर्तव्य कर्मने अंगे वसिष्ठ कहे छे के मासप्रधानाखिलमेव कर्म, मुक्त्वाखिलं कर्म न कार्यमत्र । यज्ञोपवासव्रततीर्थयात्रा, विवाहकर्मादि विनाशमेति ॥२२॥ भाण्टी-मास प्रतिबद्ध सर्व कार्यों छाडीने बीजां यज्ञ, उपवास, व्रत, तीर्थयात्रा, विवाह आदि सर्व कार्याने न्यूनमासमा करातां नाश पामे छे. क्षयमासर्नु अशुभ फल कयुं छे के क्षयमासो भवेद्यस्मिन्, तस्मिन् वर्षेऽतिविग्रहम् । दुर्मिक्षं वाथवा पीडा, छत्रभंगं करोति वा ।। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-लक्षणम् ___ भाण्टी -जे वर्षमा क्षयमास होय ते वर्षमा घोर युद्ध, दुष्काल, प्रजा पीडा, अथवा छत्रभंग करे छे. पक्षशुद्धि-सामान्य रीते गृहारंभ, प्रवेशादि प्रत्येक शुभ कार्य शुक्लपक्षमा करवानुं विधान छे. शुक्लपक्षनी षष्ठीथी कृष्णपक्षनी पंचमी सुधीना १५ दिवसोने ज्योतिष शास्त्रकारो शुक्लपक्ष रूप गणे छे, केम के शुदि ५ सुधी चन्द्र कृश होय छे. अने वदि ५ पछी चन्द्र क्षीण बली थतो जाय छे छतां प्रतिपदानी सांजे चन्द्रदर्शन थई जाय तो शुदि २ थी शुभ कार्यों करवामां हरकत जेवू नथी, एज रीते वदि ८ मी सुधीमा चन्द्र विशेष क्षीण न थतो होवाथी कोई पण शुभ कार्य करवू अयोग्य नथी. अष्टमीनो पूर्वार्ध पूर्ण थया पछी जो कोई आवश्यक कार्य करवू पडे तो चन्द्रबलनी साथे ताराबल पण अवश्य जोवु अने त्रीजी, पांचमी अथवा सातमी तारा आवती होय तो कार्य जरूरतर्नु होय तो पण करवू नहिं, आ संबन्धमा ज्योतिषनो निम्न लिखित नियम अवश्य ध्यानमा राखवो कृष्णस्याष्ठम्यर्धा-दनन्तरं तारकाबलं योज्यम् । प्रतिपत्प्रान्तोत्पन्नं, सन्ध्याकालोदयं यावत् ॥ २३ ॥ भाण्टी०-कृष्णपक्षनी अष्टमीनो अर्धभाग व्यतीत थया पछी शुदि प्रतिपदाने अन्ते आवता सन्ध्याकाल पर्यंत ताराबललो उपयोग करवो. आ विषयमां प्राचीन मत एवो छे के कृष्णपक्षनी दशमी पर्यंत सर्व कार्यों-चन्द्रबल जोईने करवा. नक्षत्र समुच्चय ग्रंथमां लखे छे उदिते च तथा चन्द्रे, शुभयोगे शुभे तिथौ । कृष्णस्य दशमी यावत् , सर्वकार्याणि साधयेत् ॥ २४ ॥ भा०टी०-चन्द्र उदित होय त्यारं शुभयोग अने शुभतिथिमा कृष्णपक्षनी दशमी पर्यंत बधां कार्यों करवा. Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ [कल्याण-कलिका-प्रथमवणे गुरु-शुक्र-चन्द्रास्तशुद्धि-गुरु सुख-सम्पत्तिनो कारक ग्रह होई एना अस्तमां कोई पण शुभ कार्य 'गृहारंभ-गृह-प्रवेश आदि' करातुं नथी. गुरुना अस्त कालमा ज नहिं, अस्त कालनी तैयारी रूपे ज्यारे गुरु कालांशोनी निकटे पहोंचे छे त्यारे पण ते ज हीन थइ वृद्धावस्थाए पहोंचेल होई बलहीन थयो होय छे, अने कालांशोनी बहार नीकली उदित थया पछी पण अमुक समय सुधी ते अल्प तेजस्क होई बाल गणाय छे, गुरु बाल्य कालमा पण बलहीन गणाय छे. गुरू पूर्व या पश्चिममा अस्त या उदय पामे छे. अस्त पहेलां १५ दिवस वृद्ध अने उदय पछी १५ दिवस सुधी बाल गाय छे. गुरुना वार्द्धक्य, अस्तमन अने बाल्य कालमां शुभ कार्य करवानो निषेध छे. गमे तेटलं आवश्यक कार्य होय तो ये उदयास्त पछीपहेलांना ३-३ दिवसो अने अस्तना सर्व दिवसो तो शुभ कार्यमां तजवा ज जोईये. गुरु मकर राशीनो होय त्यारे नीचनो गणाय छे " नीचस्थो निष्फलो ग्रहः।" आ वचनानुसार बुद्धिमाने ज्यां सुधी गुरु परम नीचांशोमां होय त्यां सुधी सुख अने सम्पत्तिजनक कार्यो करवानुं मुलत्वी राखवू जोईये. ____ एज प्रमाणे शुक्रना पण अस्तमा, वार्धक्यमा के बाल्य कालमां कोई शुभ कार्य करवू न जोईये, शुक्र स्त्री जातीय ग्रह होइ एना शुभाशुभत्वनो समय स्त्री जातीने अधिक असर करे छे. ए ज कारणे श्रमणधर्मस्वीकारना मुहूर्तमां शुक्रास्तनो दोष गण्यो नथी, शुक्रनो बाल्य के वार्धक्य काल गुरुना करतां लगभग एक तृतीयांश जेटलो गणाय छे. शुक्र पण नीचनो होय त्यारे बलहीन तो बने ज छे, पण शुक्रनुं नीच राशि भ्रमण घणे भागे वर्षाकालमा आवतुं होइ ते काले प्रायः शुभ कार्यों ओछा ज थाय छे एथी शुक्रना नीचत्व कालने Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहर्त लक्षणम् अंगे ज्योतिषमा निषेध दृष्टिगोचर थतो नथी. ____ गुरु शुक्रना बाल्प-वार्धक्य विषे मतान्तरो-गुरु अने शुक्रनावार्द्धक्य अने बाल्यकालना विषयमां ज्योतिषीओ एकमत नथी, वृत्तशतमां कछु छे. बालः शुक्रो दिवसदशकं पञ्चकं चैव वृद्धः, पश्चादहां त्रितयमुदितः पक्षमैन्यां क्रमेण । जीवो वृद्धः शिशुरपि सदा पक्षमन्यैः शिशुतो वृद्धौ प्रोक्तो दिवसदशकं चापरैः सप्तरात्रम् ॥२५॥ भाल्टो०-पश्चिम दिशामां शुक्र १० दिवस बाल अने ५ दिवस वृद्ध रहे छे तथा पूर्व दिशामा ३ दिवस पर्यंत बाल अने १५ दिवस पर्यंत वृद्ध गणाय छे. गुरू वृद्ध अने बाल सदा १५-१५ दि. वस रहे छे, कोइ कहे छे के गुरू बाल अने वृद्ध १०-१० दिवस कोई पण दिशामा रहे छे, त्यारे कोई विद्वान बन्नेनो बाल्य वार्धक्य काल ७-७ दिवसनो कहे छे. ए विषयमा मांडव्य कहे के के त्यजव शाहं शिशुवृद्धयोश्च, सितेज्ययोश्चेति वदन्ति गर्गाः । कालांशतुल्यानि दिनानि चैके, सप्ताहमन्ये स्वपरे त्रिरात्रम् ॥ २० ॥ भाटी०-गर्गऋषिना मतानुयायियो शुक्र तथा गुरूना बाल्य अने वा क्यना १०-१० दिवसो छोडवानु कहे छ, केटलाको आ प्रत्येकनुं बाल्य अने वार्धक्य पोतपोताना कालांशो जेटला दिवसनुं कहे छे, ज्यारे केटलाको ७-७ दिवसर्नु अने केटलाको मात्र ३-३ दिवसर्नु ज कहे छ। पञ्चदिनानि वसिष्ठः शौनक एक दिनत्रयं गर्गः । यवनाचार्यस्थ मते पञ्चमुहूते भृगुस्त्याज्यः ॥ २७ ॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे भा०टी० - शुक्रनो बाल्य वार्द्धक्य काल वसिष्ठना मते ५ दि बसनो, शौनकना मते १ दिननो, गर्गना मते ३ दिननो अने यवनाचायना मते ५ मुहूर्तनो छे, जे वर्जवो जोईये. ए अंगे वसिष्ठ कहे छेके शुक्रे चास्तंगते जीवे, चन्द्रे चास्तमुपागते । तेषां वृद्धौ च बाल्ये व शुभकर्म भयप्रदम् ।। २८ ।। वृद्धत्वमिन्दोस्त्रिदिनं दिनार्द्ध, ३६८ बालत्वमस्तत्व महर्द्वयं च ॥ अस्ते विधौ मृत्युमुपैति कन्या, बाल्येऽन्यसकता विधवा च वृडे ||२९ ॥ मा०टी० - शुक्र गुरू चन्द्रना अस्तमां तथा तेमना वाद्धर्धक्य के बाल्यकालमा शुभकार्य करं भयकारक छे. चन्द्रनुं वृद्धत्व ३ दिवसनुं तेनुं बाल्यत्व अर्ध दिवस अने अस्तत्व २ दिवस होय छे. चन्द्रना अस्तमां परणनारी कन्या मृत्यु पामे चन्द्रना बाल्यमां परणनारी परपुरुषमां आसक्त थाय अने वाक्यमां परिणीता विधवा थाय. गुरु-शुक्रास्तापवादे गर्ग : freeयाने गृहे जीर्णे, प्राशने परिधानके । वधू प्रवेशे मांगल्ये, न मौढयं गुरुशुक्रयोः ॥ ३० ॥ मा०डी० - नित्यनी मुसाफरीमां, जूना घरना प्रवेशमां, अभ प्राशनमां, वस्त्र परिधानमां, वधू प्रवेशमां तथा तात्कालीक मांगल्य कार्यमा गुरु शुक्रास्तनो दोष नथी. गुरुवक्रत्वदाष- गुरु वकत्व अंगे शौनक, लल्लाचार्य आदि प्राचीन ग्रंथकारोए अमुक समय पर्यंत ते वर्जवानो निर्देश कर्यो छे. तल कहे छे Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहल-मणम् अतिचारे च धके च, बजेयेसदनन्तरम् । व्रतोवाहादि चूडाया-मष्टाविंशति वासरान् ॥३१॥ मा०टी०-गुरु अतिचारी अने वक्री थाय त्यारथी २८ दिवसो व्रत, विवाह, चौलकर्म, आदिमां वर्जवा जोईये. टोडरानन्दकार लखे छे के अतिचारे सप्तदिनं, वक्र द्वादशमेव च । नीचस्थितेऽपि वागीशे, मासमेकं विवर्जयेत् ॥ ३१ ॥ भाण्टी०-गुरु अतिचारी होय त्यारे सात दिवस, वक्री थाय त्यारे बार दिवस अने नीचनो थाय त्यारे १ मास मुधी शुभ कार्यमां वर्जवो. मुहर्तकल्पद्मकार लखे छे के वक्रे सुरेज्ये स्वर हे दिनत्रयं, वयं मुनीन्द्ररखिले कर्मसु अन्यत्र राशौ मुनय त्यजन्ति, यष्टाधिकाविशति वासरान् हि ॥३३॥ भा०टो-गुरु पोतानी राशिमां वक्री थाय त्यारे मुनियो सर्व कार्योंमां ३ दिवस वयं गणे छे, ज्यारे बीजी राशिमा गुरु वक्री थतां २८ दिवसोने त्यागे छे. आम गुरु वक्रत्वने अंगे ज्योतिपिओमां एक वाक्यता नथी, कोई २८ दिवस, कोई १२ दिवस, अने कोई स्वराशिमां गुरु वक्रत्वनो दोष ३ दिवस सुधी ज गणे छेआथी समजाय छ के-गुरु वक्रत्व दोष प्रथभथी ज सर्व संमत न हतो, मुहूर्तचिन्तामणिना निम्नोल्लेखथी पण एज वात सिद्ध थाय छअस्ते वज्य सिंहनकस्थजीवे, वज्य केचिद्वक्रगे चातिचारे। मर्यादित्ये विश्वघमेऽपि पक्षे, प्रोचुस्तद्रहन्तरत्नादिभूषाम् ।३४ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भाण्टी०-गुरुना अस्तमा जे वर्जित छे तेज सिंहस्थ अने मकरस्थ गुरुमां पण वर्ज, कोई कही गया छ के-गुरुना वक्रत्वमां अतिचारमां, गुर्वादित्यमां अने १३ दिनना पक्षमां पण अस्तवर्जित कार्यों तथा दन्त-रत्नादिनां भूषणो वर्जवां. चिन्तामणिकारना आ कथनानुसार खरे ज गुरु वक्रत्व अतिचारने दोष रूपे गणनारा 'केचित्' छे, 'सर्व' नहि. ए ज कारण छे के गुर्वतिचार अने विश्वघस्रपक्षमां शुभ कार्यो न करवानी ज्योतिपीओमां चर्चा नथी. मुहूर्तकल्पद्रुमकार स्वराशिमां गुरुवक्रत्व होता ३ दिवस वर्जवान कहे छे, पण स्वोच्चत्वमा गुरुवक्रत्व केटलं वर्जवं ए विषे मौन धारण करे छे. खरी रीते तो उच्चना गुरुवक्रत्वमा दोष ज नथी, एम ज कहेवू जोईये, ज्यारे गुरु स्वोच्चांश अने स्ववर्गस्थित होय त्यारे पण वक्री, शत्रुक्षेत्री अथवा नीचनो होवा छतां शुभ गणाय छे, तो उच्चनो होय त्यारे तो गुरु वक्री छतां अशुभ गणाय ज केम ? ए संबन्धमा सुधीशंगारवातिककार कहे छ के वकारिनीचराशिस्थः, शुभकृत प्रोच्यते गुरुः । स्वोच्चांशस्थः स्ववर्गस्थो, भृगुणा ज्ञेन वा युतः ।।३।। भाण्टी०-वक्री, शत्रुक्षेत्री, अथवा नीचराशिनो होवा छतां गुरु शुभकारक कहेवाय छे के जो ते पोताना उच्चांशनो, स्ववर्गनो, अथवा शुक्र वा बुधनी युतिमां होय, आ उपरथी सिद्ध ज छे के मकरना उच्चांशमा होवाथी पण गुरु जो शुभकारक छे, तो पोताना उच्चक्षेत्र-कर्कमा रहीने वक्री थतां ते दोषकारक केवी रीते बने ? ते विचारणीय वस्तु छे. वक्रीग्रह बलवान के निर्बल ?-यद्यपि केटलाक ग्रन्थकारोए कशीग्रहने निर्बल अने मार्गस्थने पलवान गण्यो छ, तथापि Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-लक्षणम् ] 'आरंभसिद्धि' आदि ग्रंथोमां " विपुलस्निग्धाश्च वक्रगाश्चान्ये" इत्यादि लेखोमा चक्रगामी ग्रहोने बलवान मान्या छे, पाकश्री नामक प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थकार तो सर्व ग्रहोनी वक्रावस्थामा मूल त्रिकोण तुल्य बल बतावे छे, हर्षप्रकाशकारे “वक्की पावो बली सुभो सिग्यो" आ जे लख्यु छे तेनो कोई आधार मले तेम नथी, लखवं तो एम जोईतुं हतुं के " सिग्धो पावो बली सुभो वक्की" अर्थात् पाप ग्रह शीघ्र होय त्यारे अने शुभ ग्रह वक्री होय त्यारे बलवान गणाय छे. स्वरशास्त्रनी पण ए ज मान्यता छे. ए विषयमा स्वरोदय शास्त्रनुं कक्तव्य आ प्रमाणे छेक्रूरा वक्रा महाराः, सौम्या वक्रा महाशुभाः । बलिष्ठाः स्युः शुभा वक्राः, कूरा वक्रा बलोद्गताः ॥३६॥ भा०टी०-क्रूर ग्रहो वक्री थतां महाक्रूर बने अने सौम्य ग्रहो वक्री होय त्यारे महाशुभ बने छ, वली सौम्य ग्रहो वक्री थतां बलिष्ठ बने छे अने क्रूर ग्रहो वक्री थतां बलहीन थई जाय छ, क्रूर छतां शनि बलवान होय त्यारे कंडक शुभ फल आपे छे, एथी विपरीत गुरु आदि सौम्य ग्रहो अतिचार गतिना थतां अशुभ फल आपे छे, ज्यारे ते ज सौम्यग्रहो वक्री थतां सुभिक्षता-समर्घतादि उत्पन्न करे छे, ए सर्व प्रतीत छे, आना परिणामे ज ज्योतिषीओए निम्नोक्त श्लोकगत फलनो निर्देश कर्यो छ अतीचारगते जीवे, वक्रे भौमे शनैश्चरे । हाहाभूतं जगत्सर्वे, रुण्डमुण्डा च मेदिनी ॥ ३७॥ भा०टी०-गुरु अतीचारी अने मंगल तथा शनि वक्री होय त्यारे सर्वत्र जगतमा हाहाकार मचे छे ने पृथिवी धड-मस्तकथी छवाई जाय छे. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथम-खण्डे चक्रसंग्रह-दिनशुद्धिना विविध विभागोनुं निरूपण करी हवे अमो प्रासादादि मुहूर्तोपयोगी केटलांक उपयोगी चक्रो आपी पंचांग सुद्धि उपर आवी . नागवास्तुचक्र-मुजादित्यनिबन्धेईशानतःसपैति कालसर्पा, विहाय सृष्टिं गणयेद् विदिक्षु। पश्चाद्गतिस्थंमुखमध्यपुच्छं, त्रिकं त्रिकं वैवृषसंक्रमादौ ॥३८ या वृषाद् गृहे सिंहात्, त्रिकं मीनात् सुरालये । जलाश्रये मृगाद्याच्च, शेषनागस्य संस्थितिः ॥३९॥ भाण्टी-शेषनाग वृषादि ३-३ संक्रांतिमां ईशान कोणथी सरके छे, विलोमक्रमथी पाछली तरफ गणतां वृष-मिथुन-कर्क संक्रां तिओमां ईशानमां मुख, वायव्यमां मध्य, नैऋतमां पुच्छ अने अग्निकोण खाली होवाथी रवात स्थान, ए ज रीते सिंह-कन्या-तुलामां एक विदिशा बदलतां अग्निकोणमां मुख, ईशानमां मध्य, वायव्यमां पुच्छ अने नैर्ऋते खातस्थान, वृश्चिक धनु, मकर, संक्रांतिमां नैर्ऋते मुख अग्निकोणे मध्य, ईशाने पुच्छ, वायव्ये खातस्थान अने कुंभ-मीन मेष संक्रांतिओमां वायव्ये मुख नैर्ऋते मध्य, अग्नेयीमां पुच्छ अने ईशानमा खातस्थान; आ क्रम प्रमाणे विवाहनी वेदीमां खातनो क्रम छे, घर, देवालय तथा जलाशयना खातने अंगे आ प्रमाणे जाणवूवृषथी वेदीमां, सिंहथी, गृहमां, मीनथी देवालयमां अने मकरथी जलाशयमां शेषनी स्थितिनो विचार करवो अर्थात् सिंह-कन्या-तुला आदि ३-३ संक्रांतियोथी गृहने अंगे, मीन-मेष-वृष आदि ३-३ संक्रांतियोना क्रमे देवालयने अंगे, मकर-कुंभ-मीन आदि ३-३ संक्रांतियोना क्रमे जलाशयने अंगे शेष, ईशानथी सर्पण सृष्टिक्रमथी गणी विलोम क्रमे मुख मध्य पुच्छ ज्यां आवतां होय ते विदिशाओने डोडी खाली पडेली विदिशामा खात करवू. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-लक्षणम् ] ३७३ __ उपर प्रमाणे मुंजादित्य निबन्धना श्लोकोनी व्याख्या करता शेष स्थिति शिल्पशास्त्रोक्त नागवास्तुना भ्रमणनी साथे बरोबर मली रहे छे. “विहाय सृष्टिं" नो संबन्ध "गणयेद् " नी साथे न जोडतां “सर्पति" क्रियापदनी साथे जोडी अर्वाचीन ज्योतिषिओए शेषनुं विलोम भ्रमण प्रचलित कयु के जे आजकाल विशेष प्रचलित छे, आ नवी मान्यता प्रमाणे शेष स्थिति नीचे प्रमाणे मनाय छे, चिन्तामणौ - देवालये गेहविधौ जलाशये, राहोर्मुख शंभुदिशो विलोमतः मीनार्क सिंहार्क मृगार्कतस्त्रिभे, खाते मुखात्पृष्ठविदिक शुभा भवेत्॥ ४० ॥ भा०टी०-देवालय, गृह अने जलाशयना खात मुहूर्तमां अनुक्रमे मीनादि, सिंहादि तथा मकरादि ३-३ राशिना सूर्यमां शेषनुं मुख ईशानमां होय छे अने संहार क्रमथी सरकता शेषनुं ते पछीनी ३-३ राशिना सूर्यमां वायव्यकोणमा, ते वादनी ३-३ राशिना मर्यमा नैत कोणमां अने छेल्ली धनुआदि, वृषादि अने तुलादि ३-३ राशिना सूर्यमां शेषनुं मुख आग्नेय कोणमा होय छे, शेषना मुखनी, पेटनी अने पुच्छनी विदिशा छोडीने तेना मुख पाछळनी विदिशा खातमां शुभ होय छे, मुख ईशानमा झोय त्यारे आग्नेयी, वायव्यमां होय त्यारे ईशान, नैऋतमा होय त्यारे वायव्य अने आग्नेय कोणमा होय त्यारे नैऋत कोण खात माटे शुभ जाणवो. उक्त शेष स्थिति संवन्धी बंने मान्यतानुसारी चक्रो नीचे प्रमाणे छे Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिल्प शास्त्रानुसारो शेषस्थिति चक्र सूर्य राशि - मध्य - - विवाहे | देवालये । गृहारंभे | जलाशये । ईशाने | आग्नेये | नैऋत्ये | वायव्ये २।३।४ | १२।१२ | ५।६७ |१०।११।१२ मुख। | मध्य | पुच्छ । खात ५.६७ । ३।४५ 1 ८1९।१०। ३ खात मुख । मध्य ८९।१० ६७८ ११।१२।१ | ४।५।६ पुच्छ खात मुख | १११२।१ / ९।१०।११। २।३।४ । ७८.९ । मध्य | पुच्छ । खात अर्वाचीन ज्योतिषग्रन्थानुसारी शेषस्थिति चक्रविवाहे | देवालये । गृहारंभे जलाशये । ईशाने | आग्नेये | नेत्ये | वायव्ये २।३।४ | १२।१२२ । ५।६७ |१०।११।१२ । मुख खात | पुच्छ मध्य ५.६७ | ३४५ | ८९।१०।१२।३ खात मध्य मुख ८।९।१० ६७८ | ११।१२।१ । ४।५।६ पुछ | मध्य मुख । खात ११।१२।१ । ९।१०।११ | २।३।४ । ७८९ मध्य | मुख । खात । पुच्छ ' [कल्याण-कलिका-प्रथमसाले - सूर्य राशि - - Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ मुहर्त-लक्षणम् । शेषना अंगो पर खात करवानुं फलविदिक्त्रयं स्पृशस्तिष्ठेत् , स्ववक्त्रनाभिपुच्छकैः । शेषस्तत्रितयं त्यक्त्वा, भृग्वातकार्यमाचरेत् ॥ ४१ ॥ नाभौ च म्रियते भार्या, धनं पुच्छे मुखे पतिः। इति मत्वा शिलान्यासे, भूखाते तत्त्रयं त्यजेत् ॥४२॥ भा०टी०-पोताना मुख नाभि पुच्छ वडे त्रण विदिशाओने स्पर्शीने शेष रहे छे माटे ते त्रणेनो त्याग करी शेष स्पर्श रहित विदिशामां भूमिने खोदवी. नाभिस्थाने खोदवाथी स्त्री, पुच्छे खोदवाथी धन अने मुखभागे खोदवाथी गृहस्वामीनुं मरण थाय छे, माटे खात अने शिलान्यासमां ते त्रणेनो त्याग करवो. दिशाओमां खात करवानो प्राचीनक्रम आरंभमिद्वौ-- भाद्रादित्रित्रिमासेषु, पूर्वादिषु चतुर्दिशम् । भवेद्वास्ता शिरः पृष्टं, पुच्छं कुक्षिरिति क्रमात् ॥४३॥ भा० टी०-भाद्रवादि ३-३ मास पूर्वादि ४ दिशाओमां वास्तुनुं मस्तक, पृष्ठ, पुच्छ अने कुक्षि होय छे, एटले भाद्रपद आश्विन कार्तिकमां पूर्वमा मस्तक, दक्षिणमां पृष्ठ, पश्चिममां पुच्छ, उत्तरमा कुक्षि, मार्गशीर्ष पौष माघमां दक्षिणमा मस्तक पश्चिममां पृष्ठ उत्तरमां पुच्छ पूर्वमां कुक्षि, फाल्गुन चैत्र वैशाखमां पश्चिममां मस्तक, उत्तरमा पृष्ठ, पूर्वमा पुच्छ, दक्षिणमां कुक्षि, ज्येष्ठ, अषाढ, श्रावणमां उत्तरमा मस्तक, पूर्वमा पृष्ठ, दक्षिणमां पुच्छ पश्चिममां कुक्षि होय छे. मस्तक पृष्ठ पुच्छ छोडीने कुक्षि भागनी दिशामां खात करवं. आरंभसिद्धिना उपर्युक्त विधानमा वास्तुभ्रमण जे अनुलोम गायुं छे ए तो यथार्थ छे पण वास्तुनुं दक्षिणपाचशयन मान्यु ए चिन्तनीय छे, प्राचीन ग्रन्थोमा वास्तुनुं अनुलोभभ्रमण मानवा साथे Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ [कल्याण-कटिका-प्रथमसले तेने 'वामशायी' एटले डावे पडखे शयन करेल जणावे छे. अने कुक्षिभागे खात करवानुं विधान करे छ, वामशयन अने दक्षिणशयनमां कुक्षिनी दिशा एकबीजाथी तद्दन विपरीत आवे छे, आरंभसिद्धिर्नु दक्षिण शयन शो आधार धरावे छे ते कही शकता नथी, पण आ उपरथी एक कल्पना थइ शके के अर्वाचीन ग्रन्थोमां नागवास्तुनुं विलोम सर्पण जे प्रचलित थयुं छे तेनुं कारण आ दक्षिणपार्श्वशयन पण होइ शके, १ वृषभ वास्तुगृहारंभमां जेम शेषवास्तु जोवाय छे तेम " आरम्भे वृषभ वास्तुं" इत्यादि वचनानुसार आजकाल वृषभवास्तु जोवानुं पण आवश्यक थइ पडयुं छे, वृषभ वास्तुओ बे प्रकारनां जोवामां आवे छे, 'माभिजित् ' अने 'निरभिजित् ' प्राचीन ग्रन्थोक्त वृषभवास्तुओमां ' अभिजित् 'नी गणना नथी ज्यारे अर्वाचीन ग्रन्थोक्त आ वास्तुमा अभिजित ग्रहण करेल छे, एम छतां बधां 'निरभिजित्' के बधां 'साभिजित् ' वास्तुआनो पण आपसमा पूरो मेल मलतो नथी, अमो आ वंने प्रकारना वास्तुओमांथी नमूनारूपे बेबे वास्तुचक्रोनुं वर्णन आपीये छीये, आजकाल प्रचलित 'साभिजित् ' वृषवास्तु-मिताक्षरोक्त रविभात् सप्त नेष्टानि, शुभान्येकादशाष्टभात् । दशशेषाण्यनिष्ठानि, साभिजिद् वृषवास्तुनि ॥४४॥ भा०टी०-अभिजित् सहित वृषवास्तुमां सूर्य नक्षत्रथी ७ नक्षत्रो नेष्ट होय छे, आठमाथी १८ मा सुधीनां ११ श्रेष्ठ होय छ अने बाकीनां १९ माथी २८ सुधीनां १० अनिष्ट होय छे. १-सूर्यभात् चन्द्रभं-७ नेष्ठ, ११ श्रेष्ठ, १० नेष्ट. २ साभिजित् वृषवास्तु वास्तुप्रकरणोक्त Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ मुहूर्त-लक्षणम् वृषवास्तुं प्रवक्ष्यामि, यन्त्राणामुत्तमं स्मृतम् । यस्मिन् धिष्ण्ये स्थितः सूर्यस्तदादौ त्रीणि मस्तके ॥४५॥ क्रमाचत्वारि धिष्ण्यानि' वृषस्य पूर्वपादयोः। चत्वारि वामकुक्षौ च, दक्षिणे च चतुष्टयम् ॥४६।। ऋक्षाणां च त्रयंपुच्छे, चतुष्कं पश्चिमांघियोः। शिरसि त्रीणिपृष्ठे च, विन्यसेत्त्रीणि पूर्ववत् ॥४७॥ मुग्वे च स्वामिनो मृत्युरुद्वासः पूर्वपादयोः । वामकुक्षौ दरिद्रत्वं, दक्षिणे च धनागमः ॥४८॥ रोगव्याधिभयं पुच्छे, स्थैर्य पश्चिमपादयोः।। मूर्ध्नि पृष्ठे श्रियं विन्यात्, फलं वृषभवास्तुके ॥४९॥ भा०टी०-यंत्रोमां जे उत्तम गणाय छे ते वृषवास्तुने कई छं, जे नक्षत्र मूर्यन होय तेने पहेलुं गणी ३ नक्षत्रो वृषभना मुखे, ने पछीनां ४ वृषभना आगेना पगोए, ४ डाबी कुलिए, ४ जमणी कृलिए, ३ पुच्छ उपर, ४ पाछलना पगोए, ३ मस्तके अने ३ पीठ उपर देवां, पछी फल जोg, चंद्र नक्षत्र वृषभना मुख पर होय तो वास्तुस्वामीनुं मृत्यु, आगला पगोए होय तो वास्तु उज्जड थाय, डात्री कुक्षि उपर होय तो निर्धनता, जमणी कुक्षिए धनप्राप्ति, पुच्छ उपर रोग-व्याधि, पाछलना पगोए स्थिरता अने मस्तक तथा पृष्ठभागे होय तो लक्ष्मीनी प्राप्ति थाय, ए वृषवास्तुनुं फल जाणवं. २ सूर्यभान चंद्रभं-३ने. ४ने. ४ने. ४श्रे. ३ने. ४श्रे. ३श्रे. ३श्रे. ३ प्राचीननिरभिजित् वृषवास्तु-भूपालवल्लभेवृषाकारं लिखेचक्र, सर्वावयवसुन्दरम्। गृहारम्भे मतिमान् प्रयत्नेन विलोकयेत् ॥५०॥ सूर्यभात् के त्रिभो राज्यं, प्राक्पदोरधिभिर्गमः । पश्चिमांध्रयोः स्थितिवेदैः, पुच्छे रोग स्त्रिभिस्तु भैः॥५१॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे कुक्षौ वामेऽधिभिःस्व्यं, दक्षिणेऽम्बुधिभिर्धनम् । राज्यलाभस्त्रिभिः पृष्ठे, द्वाभ्यां प्रान्ते प्रभोर्मतिः॥५२॥ भा०टी०-वृषभना आकारे सर्वावयवसुन्दर चक्र लखीने बुद्धिमाने गृहारंभमा प्रयत्नपूर्वक जोवु. सूर्यनक्षत्रथी ३ नक्षत्रो वृषभना मस्तके लखवां, तेमां चंद्रनक्षत्र होय तो राज्यप्राप्ति करावे, ते पछीनां ४ वृषभना आगला पगोए लखवां, त्यां चंद्र होय तो गमन करावे, ४ पाछला पगोए देवां तेमां चंद्र होय तो स्थिरताकारक, वृषभना पुच्छ उपर ३ नक्षत्रो लखवां, तेमां चंद्रनक्षत्र होय तो रोग करे, ४ नक्षत्रो वृषभनी वामकुक्षिए लखवां, तेमां चंद्र होय तो निर्धनता करे, ४ नक्षत्रो जमणी कुक्षिए लखवा, त्यां चन्द्र होय तो धनप्राप्ति थाय, ते पछीनां ३ नक्षत्रो वृषभना पृष्ठभागे लखवां, त्यां चंद्र होय तो राज्यलाभ थाय अने छेल्ला २ नक्षत्रो वृषभना अंतभागे लग्ववां त्यां चंद्रनक्षत्र होय तो गृहस्वामी- मृत्यु थाय. ३. सूर्यभात्-चन्द्रनक्षत्र-३श्रे. ४ ने. ४ श्रे. ३ने. ४ ने. ४ श्रे. ३ श्रे. २ ने, ४-निरभिजित् वृषभवास्तु. चक्रावली संग्रहोक्तवह्नि ३ बाहु २ मुनि ७ वह्नि ३ कृत ४ नागा८श्च सूर्यभात् । क्रमात् शुभाशुभान्याहु हारंभे मुनीश्वराः ॥५३॥ भा०टी०सूर्यनक्षत्रथी चंद्रनक्षत्र ३ शुभ, २ अशुभ, ७ शुभ, ३ अशुभ, ४ शुभ, ८ अशुभ छ एम पूर्व मुनीश्वरो कहे छे. ४ सूर्यभात् चद्रभ-३ श्रे. २ ने. ७ श्रे. ३ने. ४ श्रे. ८ ने. ५. वृषवास्तुचक्रं. स्वरशास्त्रेत्रिवेदाब्धित्रिवेदाब्धि-द्वित्रिभेष्वर्कतः शशी। श्री ऋद्धिः संस्थितिाधि-नैरव्यं श्री श्रीमतिर्वषे ॥५४॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-लक्षणम् ] भा०टी०-सूर्यनक्षत्रथी चन्द्रमा वृषवास्तुमा पहेला ३ नक्षत्रोमां होय तो लक्ष्मीनी प्राप्ति, ते पछीनां ४ नक्षत्रोमां होय तो ऋद्धि करे, ते पछीनां ४ मां स्थितिकारक, ते पछीनां ३ मां होय तो व्याधि-रोग करे, ते पछीनां ४ मां निर्धनताकारक, ते पछीनां ४ मां लक्ष्मीकारक, ते पछीनां २ मां होय तो लक्ष्मीकारक अंने छेल्ला ३ नक्षत्रो उपर होय तो मरणकारक थाय छे. ५-सूर्यभात् चन्द्र-११ श्रे० ७ ने० ६ श्रे० ३ ने० ६. वृषवास्तुचक्र-मुंजादित्यनियन्धोक्तयदृक्षे वर्ततेभानुस्तत्रादौ त्रीणि मस्तक। त्रीणि मुखे प्रदेयानि, चत्वारि चारपादयोः ॥१५॥ पश्चात्पदोश्च चत्वारि, पृष्ठे त्रीणि प्रदापयेत् । चत्वारि दक्षकुक्षौ च, वामकुक्षौ चतुर्थकम् ।। ५६॥ पुच्छे त्रीणि पुनर्दद्यात् , वृषचके सदा वुधः। गृहारंभे प्रयत्लेन, पश्यन्ति विबुधाः सदा ।। ५७।। भा०टी०-जे नक्षत्र उपर सूर्य रहेलो होय त्यांथी गणीने ३ नक्षत्रो वृषभना मस्तके देवां, ते पछीनां ३ मुखे देवां, पछीनां ४ आगलना पगोए देवां, ४ पाछला पगोए देवां, ३ पृष्ठभागे लखवां, ४ जमणी कुक्षिए ४ डावी कुक्षिए अने ३ वृषभना पूंछे लखवा. आ प्रकारे विद्वानो वृषभचक्र लखीने गृहारंभमा प्रयत्नपूर्वक ए चक्र जुए छे. फलशिरःस्थे श्रियः संप्राप्ति-स्वसं चाग्रपादयोः। स्थिरं पश्चिमपादस्थे पृष्ठदेशे धनागमः ॥ ५८ ॥ धनं तु दक्षिणे कुक्षौ, पुच्छे क्लेशकरो भवेत् । वामकुक्षौ दरिद्रत्वं, मुखे स्वामिविनाशनम् ॥ ५९ ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथम-साडे भा०टी०-वृषभना मस्तकस्थित नक्षत्रे चंद्र होय तो लक्ष्मीनी प्राप्ति थाय, आगला पगोना नक्षत्रे चंद्र होय तो उजड थाय, पाछला पगोमां चन्द्रनक्षत्रे स्थिरता, पृष्ठभागमां चंद्र होय तो धनप्राप्ति, जमणी कुक्षिए धनप्राप्ति, पूंछ उपर क्लेशकारी, वामकुक्षिए दारिद्रय अने मुखना नक्षत्र चंद्र होय तो गृहस्वामीन मरण थाय. ६ सूर्यभात् चन्द्रभं-३ श्रे. ३ ने. ४ ने. ४ श्रे. ३ श्रे. ४ श्रे. ४ ने. ३ ने. ३ श्रे. ७ ने. ११ श्रे. ६ ने. ___ ७ वृषवास्तु चक्रावली संग्रहोक्तवह्नि ३ बाहु २मुनि ७ वह्नि ३ कृत ४ नागा ८ श्च सूर्यभात् । क्रमात् शुभाऽशुभान्याहुर्गेहारभ्भे मुनीश्वराः ॥६० ॥ भाण्टी -सूर्यनक्षत्रथी चंद्रनक्षत्र ३ शुभ, २ अशुभ, ७ शुभ, ३ अशुभ, ४ शुभ, ८ अशुभ छ एम पूर्वमुनिओ कहे छे. ७ सूर्यभात् चन्द्रभं-३ शु. २ अ.७ शु. ३ अ. ४ शु. ८ अशुभ. निशान्तचक्र-चक्रावली संग्रहोक्त स्युः सप्तसप्ताऽनलभादुडूनि, प्राच्याश्चतुर्दिक्षु निशान्तचक्र। पुरोगपृष्ठस्थमिहौषधीशं, त्यक्त्वा तदारंभणमिष्टमुक्तम् ॥६१। भाण्टी--पूर्वथी आरंभ करी कृत्तिकादि ७-७ नक्षत्रो पूर्वादि चारे दिशाओमा लखी चंद्रनक्षत्र जोवं, जे दिशाना द्वार वालुं घर होय ते ज दिशा द्वारवाला नक्षत्र उपर चंद्र होय अथवा घरना पृष्ठ भागना द्वारवाला नक्षत्रमा होय ते वखते ते घरना निर्माणनो आरंभ न करवो, डावी-जमणी दिशाना कोई पण विहित नक्षत्र उपर होय त्यारे गृह निर्माण करवू शुभकारक होय छे. Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-लक्षणम् ] कूर्मचक्र-ज्योतिःसागरेतिथिस्तु पञ्चगुणिता, कृत्तिकावृक्षसंयुता। तथा द्वादशमिश्रा च, नवभागेन भाजिता ॥६२ । जले वेदा मुनिश्चन्द्रः, स्थले पश्च द्वयं वसुः। त्रिषट्क नव चाकाशे, त्रिविधं कर्मलक्षणम् ॥६॥ जले लाभस्तथा प्रोक्तः, स्थले हानिस्तथैव च । आकाशे मरणं प्रोक्तमिदं कूर्मस्य चक्रकम् ॥ ६४ ॥ भाटी०-तिथिना आंकने पांचगुणो करी कृत्तिकाथी गणतां जे नक्षत्रनो अंक आवतो होय ते तिथिना अंकमां जोडवो अने ते अंक राशिमा वली १२ नो अंक मेलावीने तेने नवनो भाग देवो, भाग लागतां शेष १२४७ मांनो कोई अंक रहे तो कूर्म जलमां, २।५।८ रहे तो कूर्म स्थल उपर अने १६।०। शेष रहे तो कूर्म आकाशमां जाणवो. जलमां कर्म होय तो लाभ, स्थलमां होय तो हानि तथा आकाशमां कूर्म होय तो मरण थाय. आ उपरथी कूर्मनो वासो जलमां जोई मुहूर्त आप, कूर्म स्थलमां छे के आकाशमां ए जोवानुं महत्त्व नथी पण महत्त्व जलकर्मनुं छे तेथी जलकूर्म जोवानो एक सुगम उपाय नीचे जणावीये छीए. जलकूर्मचक्र नीचे आपेल १-थी १५ सुधीनी प्रत्येक तिथिना आंकनी सामे आपेल ९-९ नक्षत्रो पेकीनु कोइ पण नक्षत्र आवतुं होय तो ते दिवसे कूर्मनो वास जलमां छे एम जाणवू. Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ तिथि १ २ mo ३ ४ ५ ६ ७ ८ रो | पुन HTV मृ जलकूर्म चक्र नक्षत्र म ह वि मू पु पूफा चि अनु पूषा [ कल्याण- कलिका-प्रथमण्डे कृ आर्द्रा आले उफा स्वा रो मृ क्र रो पुन म ह वि मृ पु पूफा चि अनु क आ आले उफा स्त्रा रो पुन म वि मृ पु पूफा चि अनु आ आले उका स्वा पुन म ह वि पु पूफा चि अनु आ आले । उफा स्वा ho ह श्र ध ज्ये उषा श्र पूभा अ ध उभा भ ९ ज्ये उषा श रे १० मू श्र पूभा अ ११ पूषा ध उभा भ १२ ज्ये उषा श रे १३ ह बि मू श्र पूजा अश्वि १४ मृ षु पूफा चि अनु पूषा ध उभा भ १५ उषा श रे कृ आर्द्रा आले उफा स्वाज्ये गृहद्वार शाखाचक्र - मुहूर्त चिन्तामणौसूर्यक्षयुगमैः शिरस्यथ फलं लक्ष्मीस्ततः कोणभै, ainani ततो गजमितैः शाखासु सौख्यं भवेत् । देहल्यां गुणभैर्मृति गृहपतेर्मध्यस्थितैर्वेदभैः । सौख्यं चक्रमिदं विलोक्य सुधिया द्वारं विधेयं शुभम् ॥ ६५ ॥ मू श्र पूषा | ध ज्ये उषा श मू पूषा पूभा | अश्वि उभा भ श रे पूभा अश्वि उभा भ रे Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहून-लक्षणम् ] ३८३ भा०टी०-सूर्यनक्षत्रथी ४ नक्षत्रो उत्तरंगे देवा, तेनुं फल लक्ष्मीप्राप्ति, ते पछीनां ८ अनुक्रमे चार कोणोमां देवां, फल उद्वम एटले ते घर शूनुं रहे, ते पछीनां ८ नक्षत्रो बे शाखाओमां देवां; फल सुखप्राप्ति, ते पछीनां ३ नीचे उंबरा उपर देवां, फल गृहपतिनुं मरण अने छेल्लां ४ शारवाओ बच्चे द्वार मध्ये देवां, फल सुखलाभ, आ प्रमाणे बुद्धिमाने चक्र जोईन द्वार शुभ करावई. शाखाचक्रनो सारांश मूर्यनक्षत्रथी ४ शुभ, ८ अशुभ, ८ शुभ, ३ अशुभ, ४ शुभ, आम शुभ स्थानीय नक्षत्रोमां द्वार मुहर्न कग्वं. प्राकार-देवतायतनहार वत्मचक्र-चक्रावली मंग्रहोक्त विकर्तनाकान्तभतो हिपार्श्वभ,तन्मौलितोदिक्षु चतुष्टयं न्यसेत् । दयं विदिक्षु त्रयमन्तरे क्रमादधोविदिकम्धं न शुभं च मण्डलम् ६६॥ प्राकारदेवायतनाननेऽसौ भ्रमो भचक्रभ्रमणाख्यचिन्त्यः । सदैव पार्श्वभ्रमरीतिभेदो गृहादिकवायुदितैश्च भागैः ॥७॥ भा०टी०-मूर्याक्रान्त नक्षत्रथी ४ नक्षत्रो मस्तके, पछीनां ४-४ शाखामा, जमणी शाखामां उंबरामां तथा डावी २-२ चार कोणोमां अने ३ नक्षत्रो द्वार मध्यमां लग्वयां. कोट तथा देवालयमां, नीचेना उंबराना ४ अने चार कोणनां ८ नक्षत्रो अशुभ जाणवां, द्वारारोपणमां आ द्वार वत्सचक्रनो विचार करवो उत्तरंग, वे शाखाओ अने मध्यनां नक्षत्रो द्वारारोपमा लेवां हमेशां शाखा तथा कोण भागे गृहद्वार चक्रमां कह्या प्रमाणे ज आमा पण नक्षत्रो लग्ववानी रीति छे, नीचे ४ अने मध्यान्तरे ३ लखवानी आमां विशेषता छे. सूर्यभात चंद्रभ-८ श्रे. ४ ने. ४ श्रे. ८ ने. ३ श्रे. Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे देवालयद्वार चक्रअकांचत्वारि ऋक्षाणि, ऊर्ध्वं चैव प्रदापयेत् । वे हे दद्याच्च कोणेषु, शाखायां च चतुश्चतुः ॥६॥ अधश्चत्वारि देयानि मध्ये त्रीणि प्रदापयेत् । ऊर्श्वे तु लभते राज्यमुद्धेगः कोणभेषु च ॥६॥ शाखायां लभ्यते लक्ष्मीमध्ये राज्यपदं तथा । अधःस्थे मरणं पत्यु रचक्रे प्रकीर्तितम् ॥७०॥ कन्यादित्रित्रिगे सूर्ये, द्वारं पूर्वादिषु त्यजेत् । सृष्ट्या वत्समुग्वं तत्र, स्वामिनो हानिकृद् भवेत् ॥७१॥ भाटी-कन्या तुला वृश्चिक, धनु मकर कुंभ ३, मीन मेष वृष, ४ मिथुन कर्क सिंह-आ ४ राशित्रिकोना सूर्यमां अनुक्रमे पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर मुग्ववाला घरो के चैत्योनुं द्वारारोपण करई नहिं, कारण के आ त्रण त्रण संक्रांतियोमां सृष्टिक्रमे दिशाओमां वन्मरासो संमुख होय छे, जे वास्तु स्वामिने हानिकारक थाय छे. ग्रन्थान्तरेवन्सचारने अंगे विशेष विधान मले छ जे नीचे प्रमाणे छेपञ्च-दिक् १० तिथि १५ मत्रिंश ३०, तिथि १९ दिक १० पञ्च ५ वासरान् । वत्मस्थितिर्दिक्चतुष्के, प्रत्येक सप्तभाजिते । भा०टी०-वत्सस्थिति चार दिशाओ पैकी प्रत्येक दिशामां ७-७ स्थाने होय छे, जे समये वन्स ज्यारे नवी दिशामां जाय छ, त्यारे ५ दिवस ते दिशाना कोणना छेडा पासे रहे छे, ते पछी कोणथी आगल वधी १० दिन दिशाधना मध्यभागे अने त्यांथी सरकी १५ दिवस · दिशामध्यनी बहार रहे छे, ते पछी दिशा मध्यमां जई ३० दिवस त्यां रहे छे त्यांथी आगे आगे चालतो Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ मुहूर्त-लक्षणम् ] १५-१०-५ दिवसना क्रमे त्रीजो मास पूर्ण करी आगेनी दिशामां जाय छे अने त्यां पण जुदा जुदा भागोमां रहीने ३ मास पूरा करे छे, आम प्रत्येक दिशामां वत्सनी स्थिति रहे छे, आमां मध्यना ३० दिवसनी वत्सस्थितिमां ते संमुख के पाछल पडतो होय त्यारे द्वारारोप अथवा प्रतिमा प्रवेश कदापि न कराववो, वस्स थोडो पण डायो जमणो दिशान्तरित होय त्यारे खास वांधो नथी. एनो तात्पर्यार्थ ए थयो के तुला, मकर, मेष, कर्क आ चार राशिओमां अनुक्रमे पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर दिशाना घर आदिनुं द्वार न चढावq; वृश्चिक, कुंभ, वृषभ, सिंह राशिना सूर्यमां कोई पण दिशा संमुख द्वार चढाववामां वत्सनो दोष नथी. आ फलितार्थ रूपे ज ग्रन्थान्तरमां सिंहे चैव तथा कुम्भे, वृश्चिके वृषभे तथा । न वत्सदोषो कर्तव्यं, द्वारं चतुर्दिशा मुखम् ॥ ७२ ॥ आ श्लोक लखायो छे. कन्या, धन, मीन, मिथुन आ ४ द्विस्वभाव राशिना सूर्यमा कोई पण दिशा संमुख द्वारारोपण करातुं नथी, धन, मीन तो मलमास रूपे वर्जित छ ज अने मिथुन कन्या संक्रांतिओ पण गृहकार्यमां वर्जित करेली छे. Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखरे वत्सस्थितियंत्रक - कन्या वृश्चिक तुला पूर्वदिशा सिंह IV. 1 / 2 | | | | कर्क उत्तर वत्सचक्र धन दक्षिणदिशा मकर ५/१० | १५ | ३० | १५ | १० ५ कुं मिथुन पश्चिमदिशा | वृष . मेष मीन 1/५ | १० | १५ | ३० | १५ | १० |५ नीचे जगावेल कार्योमां वत्सदोष नडतो नथी. द्वारस्याभ्यन्तरे द्वारे, प्रासादे च चतुर्मुखे प्रतिष्ठामण्डपे होमस्थाने वत्सं न चिन्तयेत् ॥७३॥ भा टी-वास्तुना बाह्य मुख्यद्वारनी अंदरना द्वारारोपणमां, चतुर्मुख प्रासाद अथवा घरप्रतिष्ठा मंडप के होमशालाने द्वारारोपणमां वत्सदोष विचारवानी आवश्यकता नथी. राहुचक्रनुं निरूपणमागसर पोसह माह अंतर, पूविइं वसइ राहनिरंतर । फागुण चैत्र वैसाख संजुत्त, दक्षिण राह वसइ निरुत्त ॥१॥ जेठ आसाढ श्रावण मासिइं, पश्चिम राहु वसई विलासिहं। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-लक्षणम् ] भाद्रवह आसो कार्तिक दइताणुं उत्तर राहु करइ पियाणुं ॥२॥ कमठ देउल आराम विहार, संमुख राहु न कीजइ बार ।। संमुख राहु जइमंदिर थप्पड़,मरइ कलत्र का निर्धनअप्पाइ॥३॥ आ प्राचीन भाषापद्योमा मागसर आदिथी पूर्वादिमा राहु भ्रमण जणाव्युं छे. ज्यारे “ मीनादित्रयमादित्यो" आ संस्कृत 'लोकमां "धन्वादित्रितये राहुः" आ वाक्यथी मीन, मिथुन कन्यादि ३-३ गशिना सूर्यमां सृष्टिक्रमथी पूर्वादि दिशाओमां गहनो निवास जणाव्यो छ, आ बंने कथन- तात्पर्य एक ज छे, प्रथम कथन अमान्त महीनानी अपेक्षावालुं छे ज्यारे बीजुं विधान सौर मासनी अपेक्षावालं छे. धनु मकर कुंभ मीन कन्या तुला वृश्चिक उत्तरे दक्षिण मेष • वृषभ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૯ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे स्तंभचक्र - सूर्याधिष्ठितभात् त्रयं प्रथमतो मध्ये तथा विंशतिः । स्तम्भाग्रे शरसंख्यया मुनिवरैः प्रोक्तानि धिष्ण्यानि च । स्तंभाधो मरणं भवेद् गृहपतेर्मध्येधनार्थ प्रदं । सौख्यं काञ्चनवर्धनं, प्रकुरुते स्तंभाग्रभं मृत्युकृत् ॥७४॥ भा०टी० - रविया नक्षत्रथी ३ नक्षत्रो प्रथम स्तंभले देवां, ए पछीनां २० स्तंभना मध्यमां देवां अने ५ स्तंभना मस्तके देवां, आम स्तंभचक्र लखी पछी फल जोर्बु, स्तंभना नीचेना ३ नक्षत्रोमां स्तंभ उभो करे तो गृहपतिनुं मरण थाय, ते पछीनां मध्यस्थित २० नक्षत्रो धन धान्य- आपनारां, सुख तथा सुवर्णादिनी वृद्धि करनारा छे स्तंभना मधाळे आवेल छेल्लां ५ नक्षत्रो पण गृहपतिनुं मृत्यु करनारां छे माटे टालवां. आ प्रमाणे स्तंभचक्रमां सूर्यभात् ३ नेष्ट, २० श्रेष्ठ अने ५ नेष्ट छे. स्तंभोच्छ्रायां एथी अधिक कंड़ जोवानुं नथी, पण उभो करवाना समये कुंकुम चंदनादिके स्तंभनुं पूजन जरूर करवुं, धूप उखेववो, माला पहेराववी अने पछी ते उभो करवो. वराह कहे छे—"छत्रगन्धयुक्तः कृतधूपविलेपनः समुत्थाप्यः । स्तम्भस्तथैव कार्यो, द्वारोच्छ्रायः प्रयत्नेन ॥" " भा०टी० -- छत्र, पुष्पमाला, गन्ध वडे युक्त करी धूप विलेपन करीने स्तंभने उभो करवो अने ए ज रीते यत्नपूर्वक द्वार पण चढावको. स्तंभ उभो कर्या पछी अशुभ निमित्तोथी बचाववो, उत्पल कहे छे" स्तंभोपरि यदा घूक - काकगृधादिपक्षिणः । व्यालादयश्च तिष्ठन्ति, तदा फलं न शोभनम् ॥ तस्मात्स्तम्भोपरि छत्रं, शाखां फलवतीं तु वा । धारयेदथवा वस्त्रं, बुध्ने रत्नानि निक्षिपेत् ॥” Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-लक्षणम् ] ३८९ भा०टी० - स्तंभ उपर जो घुबड, काग, गृध आदि पक्षिओ के सर्प आदि बेसे तो करावनार माटे शुभ निमित्त नथी. तेथी स्तंभो - च्छ्राय करी ते उपर छत्र वा फलवाळी वृक्ष शाखा ढांकवी अथवा वस्त्रमां रत्न बांधी ते कांठे बांधवं. मोभचक्र मूले मोभे त्रिऋक्षं गृहपतिमरणं पञ्चमध्ये सुखं स्यात्, मध्ये स्यादष्ठऋक्षं धनसुतसुम्बदं पुच्छदेशेऽहानिः । पश्चान्मोभे त्रिऋक्ष शुभफलमतुलं भाग्यपुत्रार्थदं च सूर्यचन्द्रऋक्षं प्रतिदिन मुद्यानमोभचक्रे विलोक्यम् ॥ ७५ ॥ भा०टी० - सूर्य नक्षत्रथी ३ मोभना मूलमां लखवां, तेमां जो चन्द्र होय तो गृहस्वामीनुं मरण थाय, ५ नक्षत्रों मोभना मध्य भागे लखवां, तेमां जो चंद्र होय तो सुखदायक थाय, ८ ते पछीनां वली मध्ये लवां त्यां चंद्र होय तो धन तथा पुत्रनुं सुख थाय. पुच्छ भागे ८ नक्षत्रो लखवां त्यां चंद्र होय तो हानि करे. मोभना छेल्ला भागे ३ नक्षत्रो लखवां. तेमां जो चंद्र होय तो अतुल शुभ फल भाग्य पुत्र संपत्तिदायक थाय. सूर्यभात् चंद्रभ - ३ ० ५ श्रे०, ८०, ने०, ३ ०, घण्टाचक्र - आमलसारास्थापन चक्रघण्टrचक्रं विधायैवं, मध्यपूर्वदिशाक्रमात् । , " त्रीणि त्रीणि प्रदेयानि सृष्टिमार्गेण चार्कभात् ॥७६ || मध्ये चैव स्मृतो लाभः पूर्वभागे जयो रणे । आग्नेयां चैव हानिः स्याद्, दक्षिणे पतिनाशनम् ॥७७॥ नैर्ऋत्यां पारणालाभः, पश्चिमे सर्वदा सुखम् । वायव्यामश्वलाभः स्यादुत्तरे व्याधिसंभवः । ईशाने वस्त्रलाभव, घण्टाचक्रफलं स्मृतम् ||७८|| Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भाण्टी०-घंटा-आंबलसारुना आकार- चक्र बनावी तेना मध्य, पूर्व, आग्नेयी, दक्षिण आदि सृष्टिक्रमे अनुक्रमे २७ नक्षत्रो लखवां, सूर्यनक्षत्रथी मध्यमां ३ नक्षत्रो स्थापवां, ३ पूर्वमां, ३ अग्निकोणमां, ३ दक्षिण दिशामां, ३ नैर्ऋत कोणमां, ३ पश्चिममां, ३ वायव्य कोणमां, ३ उत्तरमा अने ३ नक्षत्रो ईशान कोणमा लखी मुहूर्तना दिवसे जोवू. जो चन्द्रनक्षत्र मध्यमां होय तो लाभ, पूर्वमा होय तो लडाइमां जीत, अग्निकोणमां धनहानि, दक्षिणमां कर्तार्नु मरण, नैऋत कोणमां संततिनो लाभ, पश्चिममां सदा सुख, वायव्यमां घोडानो लाभ, उत्तरमा रोगनी प्राप्ति अने ईशानमां वस्त्रलाभ थाय. आ प्रकारे घंटाचक्रर्नु फल कहेलुं छे. सूर्यभात् चंद्रभ-६ श्रे०, ६ ने०, ९ श्रे०, ३ ने०, ३ श्रे०. १ कलशचक्र-मुहूर्तचिन्तामणौवक्त्रे भू रविभात् प्रवेशसमये कुम्भेऽग्निदाहः कृताः, प्राच्यामुद्रसनं कृता यमगता लाभः कृताः पश्चिमे । श्रीर्वेदाः कलिरुत्तरे युगमिता गर्भे विनाशो गुदे, रामाः स्थैर्यमतः स्थिरत्वमनलाः कण्ठे भवेत् सर्वदा ॥७९॥ भाण्टी--प्रवेशमा जोवाता कलशचक्रमा सूर्यनक्षत्रयो १ कलशना मुखे देवु तेनुं फल अग्निदाह, पछीनां ४ पूर्वदिशा भागे देवां, फल उजड थाय, पछोनां ४ दक्षिण विभागे देवां, फल-लाभकारक, ४ पश्चिम विभागे फल लक्ष्मी प्राप्ति, ४ उत्तर विभागे फल कलहकारक, ४ कलशना गर्भमां देवां, फल-गर्भनो नाश करे, ३ कलशना गुदा विभागे नीचे देवां फल स्थिरता, ३ कलशना कंठे देवां, फल-स्थिरताकारी. सूर्यभात् चंद्रभ- ने०, ८ श्रे०, ८ ने०, ६ श्रे., Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त-लक्षणम् ] २ कलशचक्र - ज्योतिः प्रकाशेभूर्वेदपञ्च त्रिस्त्रिः प्रवेशे कलशेऽर्कभात् । मृतिर्गतिर्धनं श्री: स्याद्, वैरं रुक् स्थिरता सुखम् ||८०|| मा०टी० - कलशचक्र प्रवेशमां जोवं त्यां सूर्यनक्षत्रथी १ नक्षत्र मृत्युकारक, पछीनां ४ भ्रमण करावे, ४ धनप्राप्ति, ४ लक्ष्मीलाभ, ४ विरोध करावे, ४ रोगकारक, ३ स्थिरताकारी, ३ सुखकारक छे. सूर्यमात् चंद्र -५ ने०, ८ श्रे०, ८ ने०, ६ ०. उपर्युक्त १ चक्र अने आ बीजा चक्रमां मात्र फलगत विशेषता छे, बीजो फेरफार नथी. ३९१ ३ कलशचक्र मुकं दिक्षु चत्वारि, गर्ने चत्वारि चैव च । कण्ठे त्रीणि गुदे त्रीणि, व्यादे स्थापयेत् क्रमात् ॥८१॥ मुम्बैकं स्वामिनो घातः पूर्वे उसनं भवेत् । दक्षिणे चार्थलाभश्व, पश्चिमे संततिर्भवेत् ॥८२॥ उत्तरे कलहं विद्याद् गर्भे गर्भा विनश्यति । कण्ठे च श्रियमाप्नो, गुदे रोगो मृतिर्भवेत् ॥८३॥ भा०टी० - कलशचक्रे सूर्यनक्षत्र मुखे देवं पूर्वादि चार दिशाओमां ४-४ देवां, गर्भे ४ देवां, ३ गले अने ३ गुदास्थाने देवां. मुखनुं नक्षत्र गृहस्वामीनो घात करे, पूर्वनां ४ उजड करे, दक्षिrai ४ धनलाभ करे, पश्चिमनां ४ संतानकारक, उत्तरनां ४ कलहकारी, गर्भनां ४ गर्भनो नाश करनारां, गलानां ३ लक्ष्मीदायक अने गुदानां ३ नक्षत्रो रोग तथा मृत्युकारी छे, आ चक्रमा पण फलना अंगे ज भिन्नता छे. सूर्यभात् चंद्र -५ ने०, ८ श्रे०, ८ ने० ३ ० ३ ०. Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ [ कल्याण- कलिका- प्रथम- खण्डे ४ कलशचक्र - भूपालवल्लभे एकं मुखे गले श्रीणि, प्राच्यादौ षोडश क्रमात् । वेदा गर्भे त्रीणि गुदे, सूर्यभात् कलशं न्यसेत् ||८४|| शिरश्छेदो मृतिः स्थान-हानिर्लाभो धनागमः । दुःखं गर्भच्युतिमृत्यु - गृहेप्रविशतां क्रमात् ||८५॥ भा०डी० - कलशचक्रे सूर्यनक्षत्रथी १ मुखे, ३ गले, ४-४ चार दिशाओमां, ४ गर्भमां, ३ गुदा स्थाने, आ स्थानमां नक्षत्रोनुं अनुक्रमे फल - १ शिरच्छेद, ३ मृत्यु, ४ स्थानहानि, ४ लाभ, ४ धनप्राप्ति, ४ दुःख, ४ गर्भस्त्राव, ३ मृत्यु. आ प्रमाणे प्रवेश करनाराओने फल मले. सूर्यभात् चंद्रभं - ८ ने०, ८ श्रे०, ११ ने०. + Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथि-लक्षणम्] (१) तिथि तिथिओ १५ छे, प्रतिपदादि पूर्णिमान्त, कृष्णपक्षनी अन्तिम तिथि अमावास्याना नामथी प्रसिद्ध छे, आ सर्व तिथिओना स्वा. मिओ छे, अने ते सकारण छे. पंदर तिथिओने ३ भागमां वहेंची ने नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा आ नामोथी ओळखावी कई तिथिमां कयां कामो करवां ए बधी वातोनो पूर्वग्रन्थकारोए निर्णय आपेलो छे, जिज्ञासुओनी जिशासा पूर्त्यर्थ अत्रे थोडंक वर्णन कर, योग्य धारीये छीये. वहिर्विधाताद्रि सुता गणेशः, सर्पः कुमारो दिनपो महेशः। दुर्गा यमो विश्वहरी च कामः, शिवो निशीशश्च पुराणदृष्टः ॥ ८५ ॥ भाण्टी-अग्नि, ब्रह्मा, गौरी, गणेश, सर्प, कार्तिकेय, मर्य, महेश्वर, दुर्गा, यमराज, विश्वदेव, विष्णु, कामदेव, शिव, अने चन्द्रमा ए प्रतिपदादि तिथिओना पौराणिक स्वामिओ छे. संहिताओमां तिथिस्वामीओ अनुक्रमे नीचे प्रमाणे बतावेल छे-धाता १ विधाता २ विष्णु ३ यम ४ चन्द्र ५ कार्तिकेय ६ इन्द्र ७ वसु ८ नाग ९ धर्म १० शिव ११ सूर्य १२ काम १३ कलि १४ विश्वदेव १५ आ प्रतिषदादि पूर्णिमा पर्यन्त १५ तिथिओना स्वामित्रो छे. शुक्लपक्ष-कृष्णपक्षनो भेद नथी, मात्र अमावास्याना स्वामी पितरो छे. नन्दा च भद्रा च जया च रिक्ता, पूर्णेति सर्वास्तिथयः क्रमात्स्युः। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ [ कल्याण- कलिका - प्रथमखण्डे शुक्sधमा मध्यमको समास्ताः, पक्षेऽसि तेऽप्युत्तममध्यहीनाः ॥ ८६ ॥ भा०टी० - नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता अने पूर्णा आ नामनी अनुक्रमे सर्व तिथिओ होय छे, आमां शुक्लपक्षमां पहेली ५ अधम मध्यनी ५ मध्यम अने अन्तनी ५ अधम होय छे. अने कृष्णमां एथी उलट क्रमे ते उत्तम मध्यम अने अधम गणाय छे. तिथि विधेय कार्योनोद्वाहयात्रोपनयप्रतिष्ठा, मीमन्तचौला खिलवास्तुकर्म । गृहप्रवेशाखिलमंगलाद्यं, कार्यं हि मासादितिथौ कदाचित ॥ ८७ ॥ सप्ताङ्गचिह्नानि नृपस्य वास्तु, व्रतप्रतिष्ठाखिलमंगलानि । यात्राविवाहाखिल भूषणं यत्, कार्य द्वितीयादितिथौ सदैव ॥ ८८ ॥ संगीतविद्याखिलशिल्पकर्म, सीमन्त चौलान्नगृहप्रवेशम् । कार्य द्वितीये दिवसे यदुक्तं, सदा तृतीये दिवसेsपि कार्यम् ॥ ८९ ॥ रिक्तासु शोधबन्धशस्त्र विषाग्निघानादि च याति सिद्धिम् । सन्मंगलं तासु कृतं च मूढैविनाशमायाति तदा तु नूनम् ॥ ९० ॥ शुभानि कार्याणि चरस्थिराणि, नोक्तान्यनुक्तान्यपि यानि तानि । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथि-लक्षणम् ] सिद्धिं प्रयान्त्याशु ऋणप्रदानं, विना सदा नागतिथौ प्रभूतम् ॥ ९१ ।। भाण्टी--विवाह, यात्रा, उपनयन, प्रतिष्ठा, सीमन्त, चूडाकर्म, सर्व वास्तुकर्म अने गृहप्रवेशादि सर्व मांगल्य कार्यो शुक्ल प्रतिपदाने दिवसे कदापि न करवा. राजानां सप्तांग चिह्नो, वास्तुकर्म, व्रत, प्रतिष्ठादिक सर्व मांगलिक कार्यों, यात्रा, विवाह, सर्व आभूषण आदि कार्य द्वितीयादि तीथिना दिवसे सदा करबां. संगीतविद्या, सर्व प्रकारचें शिल्पकर्म, सीमन्त, चूडाकर्म, अन्नप्राशन, गृहप्रवेश अने द्वितीया तिथिए करवानां जे कार्यो कह्यां छे ए पण वयां कार्यों तृतीयाना दिवसे पण करवां. रिक्ता तिथिओमां (चोथ-नवमी-चतुर्दशीमा ) शत्रुनो वध, बन्ध, शस्त्र, अग्नि, विषप्रयोग, घातादि कार्यों सिद्धिने पामे छे. आ रिक्ताओमां मूढ माणसो द्वारा करायेलां मांगलिक कार्यो निश्चयथी नाश पामे छे. चर के स्थिर कहेल के न कहेल मात्र एक भणदान विना बधां शुभ कार्यों पंचमीए करवाथी जल्दी सिद्ध थाय छे. अभ्यङ्गयात्रापितृकर्मदन्तकाष्ठं विना पौष्टिकमंगलानि । षष्ठयां विधेयानि रणोपयोग्य शिल्पानि वास्त्वम्बरभूषणानि ॥ १२ ॥ द्वितीयायां तृतीयायां पंचम्यां सप्तमीतिथौ । उक्तानि यानि सिध्यन्ति, दशम्यां तानि सर्वदा ॥ ९३ ॥ भा०टी०-अभ्यंग (तैलमर्दन ) यात्रा, पितृकर्म, दन्तधावन आ चार कार्यो सिवाय पौष्टिक, मांगलिक, युद्धोपयोगी शिल्पकर्म, Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ [ कल्याण-कलिका-प्रथम-खण्डे वास्तुकर्म, वस्त्रपरिधान, भूषण, धारण, ए कार्यों षष्ठीमा करवां. द्वितीया तृतीया अने पंचमीमां करवानां सर्व कार्यों सप्तमीमां करवाथी सिद्ध थाय छे. युद्धोपयोगी वास्तुकर्म, शिल्प, नृत्यना भेदो, स्त्री सेवा, रत्नविधि, सर्व भूषणो आ कामो अष्टमीमां करवां, द्वितीया, तृतीया, पंचमी अने सप्तमीए करवानां जे कार्यों कयां छ ते सर्व दशमीए करवाथी सिद्ध थाय छे. व्रतोपवासाखिलधर्मकार्यसुरोत्सवाद्याखिलवास्तुकर्म । संग्रामयोग्याखिलवास्तुकर्म, विश्वे तिथौ सिद्धयति शिल्पकर्म ॥ १४ ॥ पृथिव्यां यानि कार्याणि, कर्मपुष्टिशुभानि च । घरस्थिराणि द्वादश्यां यात्रान्नग्रहणं विना ॥ १५ ॥ विधातृगौरीभुजग-भान्वन्तकदिनेषु च । उक्तानि तानि सिध्यन्ति, त्रयोदश्यां विशेषतः।।९।। यज्ञक्रियापौष्टिकमंगलानि, संग्रामयोग्याखिलवास्तुकर्म । उद्वाहशिल्पाखिलभूषणाचं, कार्य प्रतिष्ठाखिलपौर्णमास्याम् ॥ ९७ ॥ सदैव दर्शे पितृकर्म चैव, नान्यत् विधेयं शुभपौष्टिकाद्यम् । मूढैः कृतं तत्र शुभोत्सवाचं, विनाशमायात्यचिराद्धृवं तत् ॥ ९८॥ भाण्टी०-व्रत, उपवास, सर्व धार्मिक कार्य, देव सम्बन्धी उत्सवादि सर्व वास्तुकार्य, युद्धोपयोगी वास्तुकार्य अने शिल्पकर्म ए Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथि-लक्षणम् ] ३९७ सर्व कार्यो एकादशीमा करवाथी सिद्ध थाय २. पृथ्वी उपर यात्रा अने अन्नप्राशन सिवाय जे चर स्थिर शुभ अने पौष्टिक कार्यों छे, ते द्वादशीमां करवाथी सिद्ध थाय छे. द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमीए करवानां कायों त्रयोदशीए करवाथी विशेष प्रकारे सिद्ध थाय छे. यज्ञकर्म, पौष्टिक, मांगलिक, युद्धोपयोगी सर्व वास्तुकर्म, विवाह, शिल्पकर्म, सर्व प्रकारना आभूषणो अने प्रतिष्ठानां कार्यों पूर्णिमाए करवा. अमावास्याना दिवसे पितृकर्म (श्राद्धादि) विना वीजुं कर्म शांतिक पौष्टिकादि कंइ पण कर नही. मूखों द्वारा अमावास्याना दिवसे जे शुभ उत्सवादि कराय छे ते अवश्य विनाश पामे छे. चतुर्दश्यष्टमी कृष्णा, त्वमावास्या च पूर्णिमा । पुण्यानि पंच पणि, संक्रान्तिार्दनपस्य च ॥१९॥ पञ्चपर्वसु पाते च, ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः। नर श्चाण्डालयोनिः स्यात् , तैलस्त्रीमांससेवनात् ॥१००/ पश्चपर्वसु नन्दासु, न कुर्यादन्तधावनम् । नत्र कुर्यादनाहत्य, स नरो विधिहन्तकः ॥ १०१ ॥ भाण्टी-बंने चतुर्दशी कृष्णाष्टमी अमावास्या पूर्णिमा ए पुण्य पदों , तेम मर्यसंक्रान्ति पण पर्व छे. ए पांच पर्वोमां पातमां अने चन्द्र मयेना ग्रहणमां तैलाभ्यंग, स्त्रीसेवन अने मांस भक्षण करनार पुरुष भवान्तरमा चण्डालनी योनिमां उत्पन्न थाय छे, पांच पदों अने नन्दातिथिओमां दन्तधावन न कर जोइये, जे मनुष्य आ वातनो अनादर करीने उक्त कामो करे छे, ते विधिहतक समजवो. नवमी त्रिविधा ज्ञेया, प्रवेशनवमी प्रयाणनवमी च । नवमदिनं निर्गमतः प्रवेशनवमीति विख्याता ॥१०२।। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे नवमदिनं प्रवेशाद् यत्, प्रयाणनवमी च नवमदिनम् । सततं नवमी त्रितयं, यात्रायां प्राणहानिदं यातुः ॥१०॥ भाण्टी०- नवमी त्रण प्रकारनी जाणवी, रिक्तानवमी प्रयाणनवमी अने प्रवेशनवमी, नवमी तिथिए रिक्तानवमी, प्रयाणनोनवमो दिवस ते प्रवेशनवमी, प्रवेशथी जे नवमो दिवस ते प्रयाण नवमी. आ त्रण नवमीओ यात्रामा अवश्य वर्जवी, कारण के यात्रा करनारने प्राण हानि करनारी थाय छे. भिन्न भिन्न कार्योना मुहूर्ताने अंगे भिन्न भिन्न तिथिओ विहित अने निषिद्ध होय छे. बंने पक्षनी २-३-५-७-१०-१११३ अने शुक्ल १५ अने कृष्णा १ आ तिथिओ प्रत्येक शुभ कार्यमां विहित छे, ज्यारे बने पक्षनी ४-६-८-९-१२-१४ आ तिथिओने पक्षरंध्रा गणी शुभ कार्योमा वर्जित करेली छे. ___ ग्रहण करवा योग्य वर्जित तिथि आ अशुभ घटिकाओ व्यतीत थया पछीना तिथिभुक्तिकालमा मुहूर्त अपाय तो तेमां पण तिथि शुद्धि ज गणाय छे. आ निषिद्ध तिथिओ पैकीनी कइ तिथिनी केटली आदीनी घडीओ गया पछी ते शुद्ध गणाय ते नीचे प्रमाणे पधथी जाणी शकाशे. कलि १४ वसु ८ गणपति ४ षण्मुख ६ हरि १२ दुर्गा ९ तिथिषु पक्ष रन्ध्रासु । शर-५मनु १४ वसु ८ गो ९ दशभि १० स्तत्व २५ विहीनान्त्यनाडिकाः'शुभदाः ॥ १०४ ॥ भाण्टी०-चतुर्दशी, अष्टमी, चतुर्थी, षष्ठी, द्वादशी, नवमी आ पक्षरन्ध्रातिथिओमां अनुक्रमे ५-१४-८-९-१०-२५ आदिनी घडीओ पछीनी घडीओ शुभदायक होय छे. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ तिथि-लक्षणम् ] कुलोपकुल-तिथिओप्रतिपदा तृतीया, पंचमी, सप्तमी, नवमी, एकादशी, त्रयोदशी पूर्णिमा आ आठ तिथिओ उपकुल छे. चतुर्थी अष्टमी द्वादशी चतुर्दशी कुल छे, अने द्वितिया षष्ठी, दशमी, आ ३ तिथियो कुलो. पकुल संज्ञक छे. उपकुल तिथिमां प्रयाण करनार युद्धमां जीते, कुलमां युद्ध थाय तो स्थायी जीते, कुलोपकुलमां संधी थाय. तिथि वृद्धि तिथि क्षयः__ पक्षरन्ध्र तिथिओनी जेम ज तिथिवृद्धि अने तिथिक्षय पण शुभ कार्यमां वर्जित करेला छे. एनी व्याख्या नीचे प्रमाणे छेश्रीन् वारान् स्पृशती त्याज्या, त्रिदिनस्पर्शिनी तिथिः । वारे तिथित्रयस्पर्शिन्यवमं मध्यमा च या ॥ १०५ ॥ भा०टी०-त्रण वारोने स्पर्शनारी तिथि त्रिदिन स्पर्शिनी कहेवाय छे. एटले के त्रण वारो पैकीना वचला वारने स्पर्शती तिथि वर्जित छे. एथी विपरीत एक वार ज्यारे त्रण तिथिओने स्पर्शे छे त्यारे तिथि क्षय थाय छे. आ एक वारे स्पर्शेली ऋण तिथिओ पैकीनी वचली तिथि अवम एटले क्षीण तिथि गणाय छे. आ वस्तु नीचेना उदाहरणोथी समजाशे. एक तिथि त्रण वारनो स्पर्श करे तेनुं उदाहरण संवत् २०१०ना चण्डमार्तण्ड पञ्चाङ्गमा ज्येष्ठ शुक्ला नवमीनी वृद्धि छे. ज्येष्ठ शुदी ८ शुक्रवारे अष्टमी घटी ५७ पल० छशनिवारे प्रथम नवमी घटी ६० पल छे. अने द्वितिय ९ नवमी रविवारे घटी १ पल २६ छे. ज्येष्ठ शुदि ८ नी ५७ घडीओ वीत्या पछी नवमी लागी एटले ३ घडी पर्यन्त अष्टमीना वार शुक्रनो नवमीए स्पर्श कर्यो, प्रथम नवमीना वार शनिनो नवमीए ६० घडी Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे पर्यन्त स्पर्श कर्यो अने द्वितीय नवमीना वार रविनो नवमीए १ घडी २६ पल पर्यन्त स्पर्श कर्यो, आ कारणथी आ त्रण वारो पैकीना वचला शनिवारनी नवमी वृद्धितिथि गणाइ. एक वार ऋण तिथिओनो स्पर्श करे तेनुं उदाहरण:____ संवत् २०१०ना चण्ड मार्तण्डमां ज आषाढ (गुजराती जेठ) वदि २नो भय छ, वदि प्रतिपदाना दिवसे रविवार हे अने सूर्योदय उपरान्त १ घटी ५७ पल प्रतिपदा होवाथी रविवार तेनो स्पर्श करे हे ते पछी घटी ५७ पल ३५ सुधी रविवारमा द्वितिया भुक्त थइ छतां रविवारनो दिवस पूरो न थतां शेष भागमां तृतीया लागी, तृतीयानो आरंभ पण रविवारे ज थयो. आम एक रविवारे प्रतिपदा द्वितीया तथा तृतीयानो स्पर्श कर्यो तेथी वचली तिथि द्वितियानो क्षय थयो. प्रतिपदाना दिवसे १-५७ घटी पल पछी अवम लाग्यु अने ५७-३५ घटी पले समास थयुं, केटलाक ज्योतिपिओ वृद्धि प्रसंगे जीजा वारने स्पर्शती तिथिने वृद्ध गणे छे ते अशास्त्रीय छे. ए ज रीते क्षयतिथि तरीके पण त्रीजी तिथिने वर्जे छे ए पण शास्त्र विरुद्ध छे. सूर्यदग्धा तिथिओ, प्रत्येक संक्रान्तिमां अमुक सम तिथि सूर्थ दग्धा होय छे. मृर्यदग्धा तिथिओ जाणवानी उपाय दग्धामर्केण संक्रान्ती, राश्योरोजयुजोस्त्यजेत । भूत ५ दृग २ युक्तयोः शेषां, शोधिते भगणे तिथिम् ।।१०६॥ ___ भाण्टो-विषम अने सम राशिओनी संक्रांतिमां विषम राशिमां ५ अने सममां २नो अंक जोडतां जे संख्या थाय तेमांथी १२ ओछा करतां जे संख्या रहे तेटलामी तिथि ते संक्रांतिमा Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथि-लक्षणम् ] ४०१ "सूर्यदग्धा" होय छे. तेने शुभ कार्यमा वर्जवी, आ नियमनुं फलितार्थ नीचेना श्लोकमां बतावेल छे: दग्धार्केण धनुर्मीने, वृषकुंभेजकार्कणि । द्वन्दकन्ये मृगेन्द्रालौ, तुलैणे द्वयादियुतिथिः ॥१०७॥ भा०टी०-धनु मीनमा २ वृष कुंभमां ४ मेष कर्कमा ६ मिथुन कन्यामा ८ सिंह वृश्चिकमा १० अने तुला मकरमा १२, आ द्वितीयादि समतिथिओ सूर्यथी दग्ध होय छे. ___अर्वाचीन ज्योतिषी ग्रन्थोमां चन्द्रदग्धा तिथिओ पण बतावेली छ, अने शुभ कार्यमा तजवानुं कथन छे, पण आ चन्द्रदग्धा तिथिओना सिद्धान्तने अमे महत्व आपी शकता नथी, सूर्य दाहक होइ तिथिर्नु दग्धपणुं समजी शकाय रोम छे, पण चन्द्र जे दग्धने नवपल्लव करनार छे, तेथी तिथि केवी रीते दग्ध थइ शके एनो उत्तर तो चन्द्रदग्धाना सिद्धान्तनो आ वेष्कार करनारे ज आपवो रह्यो. अमे आ सिद्धान्तने प्रमाणिक मानता नथी. क्रूर ग्रहाक्रान्त राशि स्वामिक तिथिओ:तिथिओ पन्दर छे, अने तिथिओनी संज्ञा पांच छे-नन्दा, भद्रा २ जया ३ रिक्ता ४ पूर्णा ५, प्रतिपदाथी पंचमी सुधीनी ५ तिथिओ अनुक्रमे नन्दादि संज्ञक छे. एज प्रमाणे षष्ठीथी दशमी अने एकादशीथी पूर्णिमा सुधीनी ५-५ तिथिओ पण नन्दादि संज्ञक छे. आ पन्दर तिथिओ मेषादि बार राशिओना प्रभाव नीचे रहे छे. प्रतिपदाथी चतुर्थी सुधीनी अनुक्रमे मेष, वृषभ, मिथुन, कर्कना प्रभाव नीचे अने पंचमी आ चारेना प्रभाव नीचे होय छे. षष्ठीथी नवमी पर्यन्तनी अनुक्रमे सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिकना प्रभाव नीचे अने दशमी आ चारेना प्रभाव नीचे होय छे. एज प्रमाणे एकादशीथी Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे चतुर्दशी पर्यन्तनी ४ तिथिओ अनुक्रमे धनु, मकर, कुंभ, मीन आ चार राशिओना प्रभाव नीचे होय छे. त्यारे पूर्णिमा आ चारे राशिओना प्रभाव नीचे रहे छे. जे तिथि जे राशिना प्रभाव नीचे होय ते राशि जो कोइ क्रूर ग्रहथी आक्रांत होय तो ते पोताना प्रभावनी तिथिने निर्बल बनावी दे छे, माटे तेवी तिथिने पण बने त्यां सुधी शुभ कार्यमां वर्जवी, अने एकथी अधिक क्रूर ग्रहाक्रांत राशिना अमल नीचेनी तिथि तो वर्जवीज जोइये, अन्यथा ते तिथिमां करेलु कार्य यशस्वी नहि नीवडे, राशिस्वामिक तिथिओ सम्बन्धी जे उपर विवेचन कयु छे, तेनो मूलाधार नीचे प्रमाणे ले त्रिशश्चतुर्णामपि मेष सिंहधन्वादिकानां क्रमशश्चतस्रः। पूर्णाश्चतुष्कत्रितयस्य तिस्र स्त्याज्या तिथिः क्रूरयुतस्य राशेः ॥ १०८॥ भाटी०-मेष-सिंह-धनु आ जेओनी आदिमां छे, एवा त्रण राशि चतुष्कोना स्वामित्व नीचे अनुक्रमे प्रतिपदादि, पष्ठयादि, एकादश्यादि, आ त्रण तिथि चतुष्को छे, अने पंचमी दशमी पूर्णिमा आ त्रण पूर्णाओ अनुक्रमे प्रथम द्वितीय तृतोय राशि चतुष्क नीचे छे, जे राशि क्रूर ग्रहयुक्त होय ते राशि अथवा राशि चतुष्कना स्वामित्ववाली तिथि मुहूर्तमा वर्जवी जोइये. विष घटिका:तिथिओनी विष घटीओ, तेम वार अने नक्षत्रनी विष घटिकाओ मीचे लखेल कामोमां वर्जवानुं विधान कयु छे विवाहव्रतचूडासु-गृहारंभप्रवेशयोः। यात्रादिशुभकार्येषु, विघ्नदा विषनाडिकाः । १०९॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथि-लक्षणम् ] ४०३ ____ भा०टी०-विवाह, व्रत, चूडाकर्म, गृहारंभ, गृह प्रवेश,यात्रा, अने एज प्रकारनां वीजां शुभ कार्योमां विषघटिकाओ विघ्नदायक होय छे. माटे विष घडीओ टालवी. तिथि विष घटीतिथी १७ पु नागा ८ द्रि ७ गिरी ७ षु ५ वारिधि-४ गंजा ८ दि ७ दिक् १० पावक : विश्व १३ वासवाः १४। मुनी ७ भ ८ संख्या प्रथमानिथेः क्रमात, परं विषाख्यं घटिकाचतुष्टयम् ।। ११० । भाटी०-प्रतिपदाथी मांडीने अनुक्रमे पन्दर तिथिओनी १५ । ५। ८।७।७।५।४।८। ७ । १७ । ३। १३ । १४।७। ८ । आटली आदिनी घडीओ पछीनी ४-४ घडीओ विष घटिका होय छे. जे शुभ कायमा वर्जवी. ज्योतिर्निबन्धमां ए पद्य छ, जेमा ३ ठेकाणे पाठान्तर छे, पष्ठी तिथिए ११, बारसे १०, तेरसे १२, घडीओ पछीनी ४ यडीओ विष बडी आवे छे, आनुं कारण मूल पाठमां इषु-ईश-विश्व-दिक्-वासव-भास्कर, आवो शब्दभेद छे, प्रथम शब्दो पीयूपधारोद्धृत दैवज्ञ मनोहरना छे. ज्यारे वीजा ज्योतिर्निबन्धमां उद्धृत ते श्लोको पाठान्तर छे. __ यंत्रक नीचे प्रमाणे-- प्र. द्वि. तृ. च.पं. प. स. अ. न. द. ए. द्वा. त्र. च. पू.ति. १५५ ८७ ७ ५.४ ८७ १०३ १३१४७८५ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे मास परत्वे शून्य तिथिओअमुक मासनी अमुक तिथिओ शून्य तिथिओ तरीके वर्णवेली छे, एटले आवी शून्य तिथिो पण शुभ कार्यमा वर्जवी जोइये. शून्य तिथिओनुं निरूपण नीचला पद्यमां करेलुं छे भाद्रे चन्द्र दृशौ नभस्यनल नेत्रे माधवे द्वादशी, पौषे वेदशरा इषे दश शिवा मार्गेद्रिनागा मधौ । गोष्टौ चोभयपक्षगाश्च तिथयः शून्या बुधैः कीर्तिताः, ऊर्जाषाढ तपस्य शुक्रतपसां कृष्णे शरांगान्धयः ।। शक्राः पंच सिते शक्राद्यग्निविश्वरसाः क्रमात् ॥१११॥ भा०टी०-भाद्रवाना बने पक्षनी १।२, श्रावणनी बंने पक्षनी २-३ वैशाखना बन्ने पक्षनी १२, पौषना बंने पक्षनी ४-५, आसोजना बने पक्षनी १०।११, मार्गशीर्षना बंने पक्षनी ७।८ अने चैत्रना बंने पक्षनी ९।८ तथा कार्तिक, आषाढ, फाल्गुन, ज्येष्ठ अने माघ आ पांच महीनाओना कृष्णपक्षनी यथाक्रम ५।६ ।४।१४ । ५ आ तिथिओ अने एज महीनाओना शुक्लपक्षनी अनुक्रमे १४।७।३।१३। ६ आ तिथिओने विद्वानोए शून्यतिथिओ कही छे. मास परक शून्य तिथिओनो परिहार तिथयो मासशून्याश्च, शून्यलग्नानि यान्यपि । मध्यदेशे विवानि, न दूष्याणीतरेषु तु ॥ ११२ ॥ भा०टी०-शून्य तिथिओ, शून्य मासो, अने शून्य लग्नो, ए मध्यदेशमा वर्जित छे, बीजा देशोमा दूषित नथी. क्षण तिथिः-- तियः पश्चदशो भागः, क्रमात् प्रतिपदादितः। क्षणसंज्ञा तदर्धनानि, तासामर्धप्रमाणतः ॥ ११३ ॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ तिथि-लक्षणम् ] भा०टी०-तिथिना पन्दरमा भागनुं नाम क्षणातिथि छे. तिथिओ प्रतिपदाथी प्रारंभ थाय छे तेम तिथिक्षणो पण प्रतिपदाथी ज शरु थाय छे. प्रतिपदाए पहेलो क्षण प्रतिपदानो, बीजो बीजनो, यावत् पन्दरमो क्षण पूर्णिमानो, एज प्रमाणे बीज तिथिए पहेलो क्षण बीजनो, बीजो त्रीजनो, यावत् पन्दरमो प्रतिपदानो. आ प्रमाणे जे तिथि होय तेना क्षणथी शरुआत करवी अने ते पछीना पंच दशांशो पछीनी तिथिओना पूरा करीने शेषक्षण पाछा प्रतिपदादि तिथिओमां समाप्त करवा. आ रीते पूर्णिमाए पहेलो क्षण पूर्णिमानो अने बीजा क्षण प्रतिपदादि चतुदशी सुधीनी तिथिओना गणवा, तिथिभोग ६० घडीनो हशे तो एक तिथिक्षण ४ घडीनो थशे अने ६० घडीथी अधिक ओछा तिथि भोग हशे तो क्षणो पण अधिक ओछा प्रमाणवाला थशे, तिथि पूर्व दिवसथी चालु हशे अने औदयिक तिथि ते दिवसे अर्धी हशे तो क्षणो पण तिथिना प्रमाणमां अर्धा ज हशे, आवश्यक कार्य होय ते दिवसे के निकटमां ते कार्य करवा योग्य तिथि न होय त्यारे तिथिक्षण जोइने तेमां ते कार्य करी लेवू, एवं ज्योतिष शास्त्रनुं विधान छे. तिथि विषयक अपवादःवारक्षचन्द्रोदयशद्धिलामे, तिथिः सदोषापि भवेददोषा। सौरभ्यकान्त्यादिगुणैः सरोज, सकण्टकत्वेऽपि यतो गुणाढ्यम् ॥ ११४ ॥ विशुद्धमृक्षं सबलं च लग्नं, यथा प्रयत्नेन विलोकयन्ति । तथा न योगं करणं तिथिं वा, दोषो गुणो वापि तिथेयतोऽल्पः ॥११५॥ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे तिथिरेकगुणा प्रोक्ता, नक्षत्रं च चतुर्गुणम् । वारश्चाष्टगुणः प्रोक्तः, करणं षोडशान्वित ।।११६।। द्वात्रिंशलक्षणो योग-स्तारा षष्ठिगुणा स्मृताः। चन्द्रः शतगुणः प्रोक्तो, लग्नं कोटिगुणं स्मृतम् ॥११७।। __भा०टी०-वार, नक्षत्र, लग्ननी शुद्धि, मले तो तिथि सदोष होय तोय निर्दोष गणाय छे. कमलमां सुगन्धसौन्दर्यादि गुणो होवाथी ते कांटालु होला उनां गुणवान् गणाय ले. जेटली काळजीथी शुद्ध नक्षत्र अने बलबान लग्ननी गवेषणा कराय हे तेटली योग करण के तिथिनी कराती नथी, केम के तिथिनो दोप वा गुण अल्प होय छे. तिथि एक गुण, नक्षत्र चार गुण, वार आठ गुण, करण शोल गुण, योग बत्रीस गुण, तारा पष्ठी गुण, चन्द्र सो गुण, अने लग्न क्रोड गुणवाल कहेल छे. गुणस्य दोषस्य च तारतम्यं, विचारणीयं विदुषा प्रयत्नात् । कश्चिद् गुणो दोषशतं निहन्ति, दोषो गुणानामपि हन्ति लक्षम् ॥ ११८ ॥ पूर्वाऽपराभ्यां सहितस्तिथिभ्यां, निहन्ति दर्शो निचयं गुणानां । तमेव हित्वाऽमृतसिद्धियोग स्तिथेरशेषानपि हन्तिदोषान् ॥ ११९ ।। भा०टी०-विद्वानोए गुणदोपर्नु तारतम्य यत्नपूर्वक विचार जोइये, केम के कोइ गुण सो दोषोनो नाश करे छे, त्यारे कोइ दोष लाख गुणोनो घातक होय छे, पूर्व पछीनी बे तिथिओ सहित अमावस्या गुण समूहनो नाश करनारी छे, त्यारे अमृत सिद्धियोग एक अमावास्या सिवाय तिथिगत सर्व दोषोनो नाश करे छे. Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार-लक्षणम्] (२) वार दिनशुद्धिमां बीजो नंबर वारनो छे, वार नीचे प्रमाणे छेरवि चन्द्र मंगल बुधा, गुरु शुक्र शनैश्चरश्च दिनवाराः।। रवि कुज शनयः क्रूराः, सौम्याश्चान्ये पदोनफलाः ॥१२०॥ भा०टी०-रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र अने शनैश्चर ए दिन वारो छे. आ वारो पैकीना रवि, मंगल, शनैश्चर, ए क्रूर छे, अने बीजा सौम्य वार पोतानी होरा विना पोणुं फल आपे छे. होराः पुनरर्कसितज्ञ-चन्द्रशनिजीवभूमिपुत्राणाम् । सार्थघटीद्वयमानाः, स्ववारतस्तास्तु पूर्णफलाः ॥ १२१ ।। भा०टी०-~वार होरा अढी घडीनी होय छे, रविवारे रविशुक्र-बुध-सोम-शनि-गुरु-मंगल, पुनः रवि-शुक्र-बुध-सोम-शनि आ क्रमथी होराओ प्रवर्ते छे. एज प्रमाणे सोमवारे सोम शनि गुरु मंगल, इत्यादि छट्ठा छट्ठा वारना क्रमे होराओ आवे छे, पोताना वारे होरा पूर्ण फल आपे छे. वारनुं कृत्य ते वारनी होरामां करी शकाय छे. वार प्रवृत्तिना समयथी होरानी प्रवृत्ति थाय छे. तेथी प्रथम बार प्रवृत्तिनो समय जाणवो आवश्यक छे. वारनी आदिने अंगे आरंभ सिद्धिकार लखे छे वारादिरुदयावं, पलैमषादिगे रखी। तुलादिगे त्वधान्त्रिंगत , तामानान्तरार्धजैः ॥१२२॥ भा०टी० ---मेप कृप मिथुन कर्क सिंह कन्या आ राशिओमां मायन सूर्य होय त्यारे वारनो प्रारंभ मूर्योदय पछी अने तुला वृश्चिक धन मकर कुंभ मीन आ राशिओना सायन मूर्यमां वारनी प्रवृत्ति सूर्योदय पहेली थाय छे. मेपादिमां केटली पछी अने तुलादिमां कटली पहेली थाय ? ए जाणवानो उपाय आ छे. ज्यांनी Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथम-साले वार प्रवृत्ति जाणवी होय त्यांनुं ते दिवसर्नु दिनमान जोवू, तेनी घडी पलो होय तेनुं ३०थी अन्तर काढी तेने अर्ध करवू, जेटली घडी पलो थाय तेटली घडी पलो मेषादिना सूर्यमा सूर्योदय थया बाद अने तुलादिना सूर्यमा सूर्योदय पूर्वे वारनी आदि थाय एटले पहेला दिननो वार समाप्त थइ नवो वार लागे छे. उदाहरण-संवत् २०१०ना आसोज शुदि ५ना दिवसे मारवाड प्रदेश- दिनमान २८-४४ घटी पलोनुं छे, आनुं ३०नी साथे १ घडी १६ पलनु अन्तर थयु, एनुं अर्ध ३८ पलो उक्त दिवसना सूर्योदय अने वार प्रवृत्ति वच्चेनुं अन्तर थयु, एटले के ते दिवसे मूर्य तुला राशिनो होइ सूर्योदय थया पहेला ३८ पले एटले १५ मिनिट १२ सेकंडे ते दिवसनो वार मंगल चालू थयो, अने तेज समयथी मंगलनी होरा चालू थइ. वार प्रवृत्तिने अंगे वसिष्ठ संहिताकार नीचे प्रमाणे कहे छेप्रभाकरस्योद्गमनात् पुरे स्या-द्वारप्रवृत्तिर्दशकन्धरस्य । चरार्धदेशान्तरनाडिकाभि-रूवं तथाधोऽप्यपरत्र तस्मात्॥१२३। भा०टी०-रावणना नगर लंकामां मूर्यना उदयनी साथे वार प्रवृत्ति थाय छे ज्यारे बीजा स्थानोमां चरान्तर रेखान्तरनी घडी पलोना माने पछी पहेलां वार लागे छे. एज वातनुं ज्योतिःसारमा नीचेना श्लोकमां स्पष्टीकरण छे:-- देशान्तरचरार्धाभ्यां, सौम्ये गोले इनोदयात् । ऊर्ध्वं वारप्रवृत्तिः स्यात्, याम्ये चाधः प्रकीर्तिता ॥१२४॥ .. भाण्टी०-उत्तर गोलमां सायन सूर्य होय त्यारे सूर्योदय पछी देशान्तर चरान्तरना अर्धमाने वार प्रवृत्ति थाय छे, अने दक्षिण गोलमा सूर्य होय त्यारे सूर्योदय पूर्वे तेटला ज समयना अन्तरे वार प्रवृत्ति थाय छे, Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार-लक्षणम्] वारप्रवृत्ति जाणवानुं प्रयोजनए विषयमां ब्रह्मर्षि वसिष्ठ कहे छेवारप्रवृत्तिविज्ञानं, क्षणवारार्थमेव हि । अखिलेष्वन्यकार्येषु, दिनादिरुदयाद् रवेः ॥ १२५ ॥ भा०टी०-चार प्रवृत्तिनुं ज्ञान क्षणवार (कालहोराओ) ने माटे ज उपयोगी छे, बाकी बीजां सर्व वार प्रतिबद्ध कामोमां-अर्धयाम, कुलिक, उपकुलिक, कंटक, राजयोग, कुमारयोग, स्थविर योगादिमां अने वारविहित कार्यारंभमां वारनी आदि सूर्योदयथी ज मानवानी छे. वार भोग संबन्धी एक नवी परम्परालल्लाचार्य, चण्डेश्वर आदि संक्रान्तिपरक वार भोग संवन्धी एक विशेषता जणावे चे, चण्डेश्वर कहे छे मीनालिमेषकलशेषु दिनान्तमात्र, गोकर्ककार्मुकघटेष्वपि चार्धरात्रम् । स्त्रीयुग्मसिंहमकरेषु निशावसानं, वारस्य भोगमिह यन्मुनयो वदन्ति ॥ १२६ ॥ भाल्टी०- वृश्चिक कुंभ मीन मेषना मूर्यमां सांज सुधी, वृषभ कर्क तुल धनुना सूर्यमां अर्धरात्रि पर्यन्त, मिथुन सिंह कन्या मकरना सूर्यमां रात्रिना अन्त सुधी दिनवारनो भोग होय छे एम मुनिओ कहे छे. आ वार भोगना निवेदननो अर्थ अर्वाचीन ग्रन्थकारोए प्रथम वारनी समाप्ति अने नवा वारना प्रवेशना रूपमां लगाडी नीचे प्रमाणे सिद्धान्त प्रतिपादन कर्यो छे मृगस्त्रीसिंहयुग्मेश्वरस्तेऽजालिझषे निपे। तुलागोधन्विकर्केषु, निशार्धे वारसंक्रमः॥ १२७ ॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्जे भाण्टी-मिथुन सिंह कन्यामकरना सूर्यमां प्रातः समयमां, वृश्चिक कुंभ मीन मेषना सूर्यमां सांजे अने वृषभ कर्क तुल धनुना सूर्यमां अर्धरात्रिमा वार संक्रांति थाय छे. ___ आ बार भोग अने वारसंक्रमण संबन्धी कथनोनुं तात्पर्य ए जणाय छे के संक्रान्ति विशेषमां दिनवारनो प्रभाव अमुक समय सुधी ज रहेतो होय अने ते पछी आगेना वारनी असर शरु थइ जती हशे. ए वस्तुने ज मलतुं नीचे प्रमाणे एक बीजुं पण निरूपण उपलब्ध कराय छेराम-रस-नन्द-बाणा, वेदाष्टा-सप्त-दशहताः कार्याः। मन्दादीनां दिनतः, क्रमेण भोगस्य नाड्यः स्युः ॥ १२८ ॥ __ भाण्टी०-शनिथी शुक्र पर्यन्तना सात दिनवारोना भोगनी घडीओ अनुक्रमे ३०, ६०, ९०, ५०, ४०, ८०, ७० छे, आनो अर्थ पण एज छे के शनि दिने ३० घडी पछी शनिनो प्रभाव मटीने सूर्यनो प्रभाव शरु थइ जाय छे. सूर्यनी असर ६० घडीनी होइ शनि रात्रि अने रविना दिनना अन्तमा समाप्त थतां सोमवारनी असर चालु थाय छे, सोमनी असर ९० घडीनी छे एटले रविनी सांजथी चालु थइ सोमनी रात्रिना पर्यन्ते पूरी थाय छे, मंगलवारनो प्रभाव मंगलवारना प्रारंभथी चालु थइ मंगलनी पाछली १० घडी रात रहेता पूरो थाय छे अने ते पछी बुधनो प्रभाव चालु थाय छे. बुधनो भोग ४० घडीनो होइ बुधनी सांजे पूरो थइ जाय छे अने बुधनी रात गुरुना प्रभाव नीचे आवे छे. गुरुनो प्रभाव ८० घडी रहेतो होवाथी गुरुवारनी पाछली १० घडी रात रहे त्यां सुधी चाले छे, ते पछी शुक्रनी छाया पडे छे. शुक्रनो भोग ७० होवाथी शुक्रवारनी रात्रिना अन्त सुधी तेनो ज भोग रहे छे, आम वारोनो प्रभाव पहेलां पछी पण रहे छे, पण एनो अर्थ ए न मानी Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार - लक्षणम् ] ४११ वो जोइये के वार संक्रम थयो एटले पहेलो वार पूर्ण थइ गयो अने तत्प्रतिबद्ध योग अपयोगो मटी गया वारनी समाप्ति तो लंकाना सूर्योदय समये ज व्याप्त छे अने तज्जन्य शुभाशुभयोगो सूर्योदय खते ज मटे छे. ग्रहोनो स्वभाव प्रकृतिरविः स्थिरः शीतकरश्वरश्च, महीज उग्रः राशिजश्च मिश्रः । लघुः सुरेज्यो भृगुजो मृदुश्च, शनिश्च तीक्ष्णः कथितो मुनीन्द्रैः ॥ १२९ ॥ पुंग्रहा जीवसूर्यारा, बुधमन्दौ नपुंसकौ । स्त्रीant चन्द्रशुकौ च सजलौ तौ च कीर्तितौ ॥ १३० ॥ भा०टी० - रवि स्थिर, सोम चर, मंगल उग्र, बुध मिश्र, गुरु हलवो, शुक्र कोमल अने शनि कठोर स्वभावनो छे. सूर्य, मंगल, गुरु पुरुष, बुध शनि नपुंसक, अने सोम तथा शुक्र स्त्री प्रकृतिना तथा जलाई ग्रहो छे. ग्रहोनुं वर्णाधिपत्य- जीवशुक्रौ तु विप्रेशौ, क्षत्रियेशी कुजोष्णरुम् । ज्ञः शूद्राणां विशां चन्द्रो, ह्यन्त्यजानां शनिः स्मृतः ॥ १३१ ॥ भा०टी० - गुरु शुक्र ब्राह्मणोना, रवि मंगल क्षत्रियोना, चन्द्र वैश्योनो, बुध शूद्रोनो अने शनि अन्त्यजो (अस्पृश्यजाति) नो स्वामी छे. वार विधेय कार्यों :राजाभिषेकोत्सवयानसेवागोमन्त्रौषधिशस्त्रकर्म । सुवर्णता मौर्णिकचर्मकाष्ठसंग्रामपण्यादि रवौ विदध्यात् ॥ १३२ ॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथम-खण्डे शंखाब्जमुक्तारजतेक्षुभोज्यस्त्रीवृक्षकृष्यम्बुविभूषणाद्यम् । गीतक्रतुक्षीरविकारशृङ्गिपुष्पाक्षरारम्भणमिन्दुवारे ॥ १३३ ॥ भेदानृतस्तेयविषाग्निशस्त्रबन्धाभिघाताहवशाठ्यदम्भान् । सेनानिवेशाकरधातुहेम प्रवालकार्यादिकुजेहि कुर्यात् ॥ १३४ ॥ भा०टी०-राज्याभिषेकोत्सव, यानकर्म, सेवाकार्य, गोकर्म, अग्निकर्म, मंत्रकर्म, औषधिकर्म, शस्त्रकर्म, सुवर्णकर्म, ताम्रकर्म, औणिककर्म, चर्मकर्म, काष्ठकर्म, संग्रामकर्म अने पण्यकर्म आदि रविपारे करवू. शंख, जलजमौक्तिक, रजत, शेलडी, भोज्यपदार्थ, स्त्री, वृक्ष, कृषि, जल, आभूषणादि संवन्धी कार्य, गीत, यज्ञ, पायस शृंगी पशु पुष्प अने लिपि संबन्धी कार्यों सोमवारे करवा. मेद, जूठ, चोरी, विष, अमि, शस्त्रबन्धन, प्रहार, युद्ध, शठता, कपट, सैन्यनिवेश, खाण, धातु, सुवर्ण, प्रवाल संबन्धी कार्य मंगलना दिवसे करवां. नैपुण्यपण्याध्ययनं कलाश्च, शिल्पादिसेवालिपिलेखनानि । पातुक्रियाकाश्चनयुक्तिसंधिव्यायामवादाश्च बुधे विधेयाः॥१३५॥ धर्मक्रियापौष्टिकयज्ञविद्यामाङ्गल्यहेमाम्बरवेश्मयात्रा। रथाश्चभैषज्यविभूषणाचं, कार्य विदध्यात् सुरमन्त्रिणोजहि ॥१३६॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ बार-लक्षणम् । स्त्रीगीतशय्यामणिरत्नगन्धवस्त्रोत्सवालंकरणादिकर्म । भूपण्यगोकोशकृषिक्रियाश्च, सिध्यन्ति शुक्रस्य दिने समस्तम् ॥१३७।। लोहाश्मसीसत्रपुरस्त्र(वास्तु)दासपापानृतस्तेयविषासवाद्यम् । गृहप्रवेशो द्विपबन्ध दीक्षा, स्थिरं च कर्मार्कसुतेऽह्नि कुर्यात् ।।१३८|| भाल्टी-चातुर्य, व्यापार, अध्ययन, कलाभ्यास, शिल्पग्रहण, लिपि आरंभ, लेखन, धातुक्रिया, सुवर्णयुक्ति, संधि, व्यायाम अने शास्त्रार्थवाद ए कार्यों बुधना दिवसे करवा. धर्मकार्य, पौष्टिककर्म, यज्ञ, विद्याध्ययन, मांगल्यकार्य, सुवर्णभूषण, वस्त्रपरिधान, गृहकार्य, यात्रा, रथ, अश्व, औषध, विभूषण आदि कार्य गुरुवारे करवां. स्त्री-गीत-शय्या संबन्धी कार्य, मणि, रत्न, सुगन्धी, वस्त्र, उत्सव, आभूषण आदिनुं कार्य, भूमि, व्यापार, गौ, कोश अने कृषिकर्म ए बधां कार्यों शुक्रवारे करवाथी सिद्ध थाय छे. लोह, पत्थर, सीमुं, जसद, गृहकर्म, दास, पाप, असत्य, चौर्य, विष, मदिरा आदिनां कामो तेमज गृहप्रवेश, हस्तीवन्धन, दीक्षा, अने स्थिर कार्य शनिवारना दिवसे करवू. वार कर्तव्योना अंगे सारांश ए के लाक्षाकौसुम्भमानिष्ठ-राग-काश्चनभूषणे। प्रशस्तौ भौम-मार्तण्डौ, रविजो लोहकर्मणि ।।१३९॥ सोम सौम्यगुरुशुक्रवासराः, सर्वकर्मसु भवन्ति सिद्धिदाः । भानुभौमशनिवासरेषु तु, मोक्तमेव खलु कर्म सिध्यति ॥१४॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका प्रथम - खण्डे भा०टी० - लाक्षा रंग, कौसुंभ रंग अने माजिष्ठ रागनां कार्यों अने सुवर्णभूषणना कार्योंमा भोम तथा रविवार श्रेष्ठ छे अने लोहकामां शनिवार श्रेष्ठ छे. सोम बुध गुरु अने शुक्रवार सर्व कामोमां सिद्धिदायक थाय छे, ज्यारे रवि मंगल शनिवारना दिवसोमां विहित कार्य जसिद्ध थाय छे. ४१४ क्षीणेन्दुसरिकुजवक्रिदिने न शस्तं, शस्तं च कर्म यदि चोपचयस्थिताः स्युः । अस्तंगतस्य विकृतस्य च नेष्टमहि, सबै प्रशस्तमिह शेष दिनेश्वराणाम् ॥ १४१ ॥ भा०टी० - क्षीण चन्द्र होय त्यारे सोमवारे, शनि मंगल वक्री होय त्यारे शनि मंगलवारे विहित कार्य कर पण सारुं नथी, जो ए ग्रहो उपचयस्थित होय तो ज विहित कार्य पण कर, अस्त पामेल अने विकार पामेल ग्रहना द्वारे पण कार्य करवु श्रेष्ठ नथी, शेष ग्रहोना ( पूर्ण चन्द्र, मार्गी शनि मंगल, अविकृत अने उदित मंगल बुध, गुरु, शुक्र, शनिना) वारे कोइ पण कार्य कर सारुं छे, आ विषयमा वसिष्ठ कहे छे बलप्रदस्य ग्रहवासरे यचोदिष्टकार्य समुपैति सिडिम् । सुदुर्बलस्य ग्रहवासरे तत्, प्रयत्नपूर्व त्वपि नैव साध्यम् ||१४२ || भा०टी० - बल आपनार ग्रहना वारे आरंभेलुं कार्य सिद्धिने पामे छे, ज्यारे अतिनिर्बल ग्रहना वारे आरंभायेल कार्य प्रयत्न करवा छतां ये सिद्ध थतुं नथी. वारदोषो— जे वारो जे कार्यों करवाने योग्य जणाव्या छे ते वारोमां पण Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार - लक्षणम् ] ४१५ अमुक समय दूषित होइ विहित कार्यो करवाने अयोग्य गणाया छे. समयने दूषित करनारा दोषो ६ छे अर्धप्रहर १ कालवेला २ कष्टक ३ यमघण्ट अपर नाम उपकुलिक ४ कुलिक ५ मुहूर्तकुलिक ६ । आ वार दोषोनुं ज्योतिषशास्त्रमां नीचे प्रमाणे निरूपण छेत्याज्योऽर्धयामो वेदाद्रि- द्विपञ्चाष्टत्रिपण्मितः । सूर्यादौ कालवेलार्धयामाङ्कात् सैकपञ्चमी || १४३॥ कण्टकोपि दिनाष्टांशे, स्ववारान्मङ्गलावधौ । बृहस्पत्यवधौ चोपकुलिकस्त्यज्यते परैः ॥ १४४ ॥ सूर्यादौ शैलतर्काक्ष- वेदाग्निपाणिभूमयः । प्रहरार्धप्रमाणास्ते, कुलिकाः स्युभयावहाः ॥१४५॥ कुलिको विनशन्यन्त-मिते त्याज्यः स्ववारतः । मुहर्ते निशि व्येके, भागः पञ्चदशस्तु सः ॥ १४६ ॥ भा०डी० - रवि - सोम-मंगल-बुध-गुरु-शुक्र-शनिवारना दि वसे अनुक्रमे ४थो, ७मो, २जो, ५मो, ८मो, ३जो अने छट्टो अर्ध हर जे ' अर्धयाम' संज्ञक ले ते शुभ कार्यमां त्याज्य छे, अने प्रत्येक अर्धयामना बेल्ला अंकथी गणतां पांचमो अंक ते वारनी कालबेलानो जाणवो; जेम के रविवारनो अर्धयाम ४थो छे तो चोथाथी गणतां पांचमो अंक ८ ए आग्यो एटले रविवारनी कालवेला ८मी थइ. एज रीते दरेक वारनी कालवेला जाणी लेवी. कंटक पण दिनमानना आठमा भागनो अर्थात् अर्धप्रहर परिमित होय छे अने दिनवारथी मंगलवार जेटलामो आवे तेटलामो कंटक दोष जाणवो, जेमके रविथी मंगल त्रीजो छे तो रविवारे ३जो अर्ध प्रहर कंटक जाणवो, सोमवारे रजो, मंगलवारे १लो, बुधे मो, गुरुए ६ट्ठो, शुक्रे ५मो, शनिए ४थो. केटलाको उपकुलिक दोष त्याज्य कर्यो छे, तेनी गणना दिनवारथी गुरु सुधी करवी एटले Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे उपकुलिक आवशे, रविथी गुरु ५मो होइ उपकुलिक ५मो, सोमे ४थो, मंगले ३जो, बुधे २जो, गुरुए १लो शुक्रे ७मो, शनिए ६ट्ठो उपकुलिक होय छे, जेनुं बीजं नाम 'यमघंट' छे. रवि आदि सात वारोना दिवसे अनुक्रमे ७-६-५-४-३-२-१ संख्या परिमित प्रहरार्धपरिमाण कुलिक दोषो उपजे छ, जे घणा भयंकर दोषो छे. रविवारथी शनि सुधीनो अंक गणी तेने बमणो करतां जे संख्या आवे तेटलामो ते वारे मुहूर्त कुलिक जाणवो. रविथी शनि ७मो छे तेने बमणो करतां १४मो मुहूर्त कुलिक रविवारे आवशे, सोमे १२मो, मंगले १०मो, बुधे ८मो, गुरुए ६ट्ठो, शुक्रे ४थो, शनिए २जो मुहूर्त कुलिक आवशे, आ कुलिक दिनमानना पंदरमा भागनो होय छे अने रात्रिमा एक आंक ओछो गणवो, दिवसे १४मो तो रात्रिए १३मो, दिवसे १२मो तो गत्रिए ११मो इत्यादि । वारदोषविषयक मतभेदवारदोषोना संबन्धमा प्राचीन संहिताकारोमां तो कोइ मतभेद जणातो नथी. कश्यप, वसिष्ठ आदिए कुलिक, उपकुलिक, अर्धयाम दोषोने अर्धप्रहर कालपरिमित मान्या छे. आरंभसिद्धि आदिमां कंटकने पण 'दिनाष्टांशे' कहीने प्रहरार्धमित लख्यो छे. 'बृहदैवज्ञरअन' कारे “कुलिककालौ यामाधौं ज्ञेयौ" आ वचनथी 'कालवेला' ने पण प्रहार्धमित जणावी छे. छतां केटलाक ग्रन्थकारो आ दोषोने मुहूर्तपरिमित एटले दिवसना सोलमा भाग जेटला ज वर्म गणे छे, आमां दैवज्ञ मनोहरना निम्नोक्त पद्यने मुख्य आधार गणे छ अहनि निशि गजांशः, स्वो दिनेशादिकानां, भवति तु गुरुभौमज्ञाकिकालक्रमेण । प्रभवति यमघण्टः कण्टकः कालवेला ॥ कुलिक इति विरुद्धस्तत्परार्धे निषिद्धम् ॥१४७।। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ वार-लक्षणम् भा०टो-दिवसे दिनमाननो अने रात्रिए रात्रिमाननो अष्टमांश एटले अर्धप्रहर, दिनवारोना स्थानथी गुरु, मंगल, बुध, शनिना स्थान पर्यन्त गणवाथी अनुक्रमे यमघंट, कंटक, कालवेला अने कुलिक नामक विरुद्ध प्रहराध आवशे. आ प्रहरा|र्नु उत्तरार्ध वर्जित कयुं छे, आ दैवज्ञ मनोहरनुं कथन छे. आमां पण उक्त यमघंटादिवाला प्रहराोंने 'विरुद्ध' तो कह्या छे ज, छतां परार्धे निषिद्ध का, एर्नु तात्पर्य ए छे के आ अर्धप्रहरो छे तो खराबज, पण एना उत्तरार्थो विशेष खराब होइ अवश्य वर्जित करवा जोइये, पण राम दैवज्ञे मुहूर्त चिन्तामणिमा आ वस्तुने ज बदली नाखी छे, एमणे एक अर्धयामने प्रहराधपरिमित राखी शेष कुलिक कालवेला यमघंट अने कंटकने दिनना षोडशांशप्रमित मुहूर्तो बनावीने ज निरूपण कयु छ. एमणे एक मुहूर्त कुलिक ज मान्यो होइ एमना मते अर्धयाम सिवायना दूषित क्षणो. नीचे प्रमाणे छे--- कुलिकः कालवेला च, यमघण्टश्च कण्टकः । वाराद् द्विघ्ने क्रमान्मन्दे, बुधे जीवे कुजे क्षणः ॥१४८।। भा०टी०-दिनवारथी शनि बुध गुरु मंगल जे संख्यामां होय ते संख्याने बमणी करतां जे आंक थाय ते संख्यामां ते वारे अनुक्रमे कुलिक कालवेला, यमघंट अने कंटक नामना मुहूर्तों थाय छे, रविथी शनि ७मो छे, ए संख्याने बमणी करतां १४ थइ एटले रविवारे १४मो दिन षोडशांश कुलिक दोष जाणवो. एज प्रमाणे रविवारे ८मो कालवेला, १० मो यमघंट अने ६ट्ठो कंटक क्षण आवशे. सोमवारे उक्त क्षणो अनुक्रमे १२ । ६ । ८।४, मंगलवारे १० । । ४।६।२, बुधवारे ८।२।४।१४, गुरुवारे ६।१४।२।१२, शुक्रवारे ४ । १२ । १४ । १०, शनिवारे २।१०।१२ १८, आ પ3 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे संख्यामां अनुक्रमे कुलिक, कालवेला, यमघंट अने कंटक नामना दूषित क्षणो आवशे. अर्धयामविषयक चिन्तामणिनुं विधान नीचे प्रमाणे छेवारस्त्रिनोऽष्टभिस्तष्टः, सैकः स्यादर्धयामकः ॥ भा०टी० - वारने त्रणे गुणी आठे भांगी शेषांकमा एक उमेरतां जे संख्या थाय ते संख्यावालो ते वारे अर्धयाम जाणवो. रविवारना अंकने त्रणे गुणो एटले ३ थया, भाग लागतो नथी, १ युक्त कर्यो एटले ४ थया, एटले रविवारे ४थो अर्धयाम दोष आव्यो. प्रमाणे सोमवारे ७मो, मंगलवारे २जो, बुधवारे ५मो, गुरुवारे ८मो, शुक्रवारे ३जो अने शनिवारे ६ट्ठो अर्धयाम आवशे. ए कालवेला संबन्धी अपरिहार्य मतभेद कुलिकादि दोष विषयक प्राचीन ग्रन्थकारो अने मुहूर्तचिन्तामणिकारना कथननो समन्वय तो थइ शके छे पण 'कालवेला ' विषयक निरूपणनो मेल मलतो नथी, रामदैवज्ञे कालवेलाने पण दिनमाननो सोलमो भाग मानी रवि आदि वारोना दिवसे अनुक्रमे ८ । ६ । ४ । २ । १४ । १२ । १० मा मुहूर्तीने 'कालवेला ' बतावी छे, ज्यारे बीजा सर्व ग्रन्थकारो रवि आदि वारोमां ८ । ३ । ६ । १ । ४ । ७ । २ । आटलामी कालवेला गणावे छे. आ अंको अर्धप्रहरोना छे के मुहूर्ताना, आनो कोइ प्राचीन ग्रंथकारे खालसो जणाव्यो नथी. यद्यपि नारचन्द्र टिप्पणककारे " कालवेलामुहूर्त घटिकाद्वयप्रमाणम् । " आ वचनथी कालवेलाने वे घडीनुं मुहूर्त जणान्युं छे, पण मुहूर्तचिन्तामणि सिवाय कोई पण ग्रन्थ कालवेलानो अंक '८' उपरान्त जणावतो नथी. दैवज्ञमनोहर ग्रन्थमां यमघंट कंटकादि दोषोनी साथे ज ' कालवेला ' नो पण 'विरुद्धगजांश रूपे निर्देश " Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार-लक्षणम् ] ४१९ कयों छे. आ उपरथी अमो पण 'कालवेला' दिनमाननो अष्टमांश होवाना अभिप्राय उपर आवीये छीये. दुर्मुहूर्त-दोष उपयुक्त वार दोषो उपरान्त अमुक वारे अमुक मुहूर्त अथवा मुहूर्तो "दुर्मुहूर्त' होइ निषिद्ध करेल छे. कोइ पण शुभ कार्य-करण-काले आ पैकीर्नु कोइ मुहूर्त आवतुं होय तो वर्जवू जोइये. आनुं विशेष वर्णन मुहूर्त लक्षणना प्रारंभमा ज मुहूर्तोना प्रसंगे कयु छे, अत्र आ दुर्मुहूर्तोनो नाम निर्देश करीने ज आ वस्तुने समाप्त करशुं. रविवारे १४मुं, सोमवारे ९९ १२मुं, मंगले ४थु (अने रात्रिनुं ७मुं), बुधवारे मुं, गुरुवारे ६ळु १२मुं, शुक्रवारे ४थु ९मुं, शनिवारे १लु २जु, आ मुहूर्तो दिवसना पंदरमा भाग जेटलां शुभ कार्यमा अवश्य टालवां जोइये. प्राचीन संहितोक्त वारदोषज्ञापक यन्त्रकम्दिनाष्टमांशाः रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि अर्धयाम कालवेला कंटक ३ २ १ ७ । ६ । यमघंट-उपकुलिक कुलिक दिवामुहूर्तकुलिक १४ १२ १० ८ ६ - रात्रिमुहूर्तकुलिक १३ ११ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका - प्रथमखण्डे टिप्पण - कोष्ठकोक्त दिवारात्रिना कुलिक मुहूर्तोनुं परिमाण दिनमान रात्रिमानना पंदरमा भाग जेटलुं गणवुं, शेष अर्धयामादि दिनगत दोषोनुं कालपरिमाण दिनमानना आठमा भाग बरोबर लेवु. वारदोषोनी दिवसे प्रबलता - ए विषयमा वसिष्ठ कहे छे ४२० निधनं प्रहरार्धे तु, निःस्वत्वं यमघण्ट | कुलिके सर्वनाशः स्याद्रात्रावेते न दोषदाः ॥ १४९ ॥ भा०टी० - अर्धयामथी मरण, यमघंटथी निर्धनता अने कुलिक दोषथी सर्वनाश थाय छे, पण रात्रिमां ए दोषो - दोषकर्ता नथी. आ संबन्धमां ज्योतिर्निबन्धकार कहे छे न वारदोषाः प्रभवन्ति रात्रौ देवे ज्यदैत्येज्यदिवाकराणाम् ॥ दिवा शशांकार्कजभूसुतानां, सर्वत्र निन्द्यो बुधवारदोषः ॥ १५० ॥ भा०टी० - गुरु, शुक्र, सूर्यवारने दिवसे वारदोषो रात्रिमां फल आपवाने समर्थ थता नथी अने सोम मंगल शनिवारे वार गत दोषो दिवसे विशेष समर्थ थता नथी, बुधवार गत दोष सर्वत्र 'निन्छ' छे. माटे सर्वत्र वर्जवो. न वारदोषाः प्रभवन्ति रात्रौ विशेषतो भौमशनैश्चराणाम् । मध्याह्नकालादुपरि प्रवृत्ताः, फलं न दद्युः करणानि चैवं ॥ १५१ ॥ भा०टी० - रात्रिमां वार दोषो समर्थ थता नथी, विशेष करीने मंगळ अने शनि गत दोषो रात्रिमां लागता नथी, अने मध्याह्न काल Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार-लक्षणम् ] ४२१ पछी चालु थता वार दोषो फल आपता नथी, एज प्रमाणे अशुभ करणोना सम्बन्धमां पण जाणवू. देशभेदे वारदोषोनी विशेषता विषे गर्ग कहे छविन्ध्यस्योत्तरकूले तु, यावदातुहिनाचलम् । यमघण्टकदोषोऽस्ति, नान्यदेशेषु विद्यते ॥१५२।। मत्स्यांगमगधान्फ्रेषु, यमघण्टस्तु दोषकृत् । काइमोरे कुलिकं दुष्ट-मधयामस्तु सर्वतः ॥१५३॥ भा०टी०—विन्ध्याचलना उत्तर तटथी हिमालय पर्यत यमघण्ट दोष होय छे. बीजा देशोमा होतो नथी. मत्स्य, अंग, मगध, आन्ध्र देशोमां यमघण्टनी विशेष दुष्टता गणाय छे. काश्मीरमा कु. लिकनी दुष्टता गणाय छे. ज्यारे अर्धयाम सर्वत्र दुष्ट गणाय छे. वारगत दोषोनुं फल वसिष्ठ आ प्रमाणे कहे छकुलिके मरणं विन्द्यात्, यमघण्टेऽर्थनाशनम् । यामार्धे कार्यनाशः स्यात्, कालवेला भयप्रदा ॥१५३॥ भा०टी०-कुलिकमां मरण, यमघण्टमां धननाश, यामार्धमा कार्यनाश अने कालवेला भय देनारी जाणवी, वार दोषोनो परिहारवारेशे सबले चन्द्रे-बलाढये लग्नगे शुभे। कुलिकोदयदोषस्तु, विनश्यति न संशयः ॥१५४॥ वाराधीशे बलोपेते, विधौ वा बलसंयुते । अर्धप्रहरसंभूतो, दोषो नैवाऽत्र विद्यते ॥१५॥ अर्धप्रहरपूर्वाध, मध्यन्तु यमघण्टके । कुलिकान्ते घटीं त्यत्तवा, शेषेषु शुभमाचरेत् ॥१५६।। भाटी०-दिनवारनो स्वामी ग्रह बलवान् होय, चन्द्र बल Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ [ कल्याण- कलिका-प्रथमखण्डे वान् होय अने लग्नमां शुभ ग्रह हेल होय तो कुलिकथी उत्पन्न थता दोषनो नाश थाय ए निःसंशय छे. वारस्वामी बलिष्ठ होय, वा चन्द्र बलवान होय तो अर्धयामनो दोष टकी शकतो नथी. अर्धयामनो पूर्वार्धभाग यमघण्ट नो मध्य भाग, अने कुलिकना अन्तनी घटिकानो त्याग करी शेष कालांशोमां शुभ काम करी शकाय छे. वार गत शुभ समय 66 4 वार गत दोषोना वर्णन उपरथी जणाशे के प्रत्येक वारना दिवसे अधिकांश समय कोइने कोइ दोषवालो होय छे, जे भागोमां दोष नथी होतो ते भागोने पूर्वाचार्योंए “ शुद्ध अर्धप्रहर " अथवा तोशुद्ध चतुर्घटिक ' ए नामथी नीचेना पद्यमां जणाव्यो छेभानावादिमयुग्मषट्रपरिमिताश्चन्द्रेष्टमश्चादिम:, १ अङ्गारे च तुरङ्गतुर्यवसवः सौम्ये षडष्टत्रयः । जीवे सप्त शरद्विका भृगुसुते वेदाष्टषष्ठैककाः, मन्दे पञ्चमसप्तमाष्टशिखिनश्चैतेऽर्धयामाः शुभाः ॥ १५७॥ भा०टी० - रविवारे १ । २ । ६, सोमे १ । ८, मंगले ४ । ७ ।८, बुधे ३।६।८, गुरुए २।५।७, शुक्रे १।४।६।८, अने शनिए ३ । ५ । ७ । ८, एटला अर्धप्रहरो शुद्ध होय छे. १. नारचन्द्रमां 'पञ्चादिम' पाठ छे, छतां सोमदिने पांचमा अर्ध प्रहरमां 'दुर्मुहूर्त' आवतो होइ अमोर ए अर्धप्रहर ओछो कर्यो छे. Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ वार-लक्षणम् नव्यमतानुसारी मुहूर्तचिन्तामण्युक्तवारदोषज्ञापकयन्त्रम् । मुहूर्त रवि सोम मंगल बुध | गुरु शुक्र । शनि का 7 कं अकादु य कुदु अका कुद का का । अय अ का ज अ टिप्पण-अ-अर्धयाम, का-कालवेला, कु-कुलिक, के-कंटक, य-यमघंटनो सूचक अक्षर छे. आ मुहूर्तो दिनमानना सोलमा भाग जेटला जाणवा. दु-दुर्मुहर्तो दिनमानना पंद्रमा भागना लेवा. आधुनिक चोघडियां क्याथी आव्यां? आजकाल अतिपरिचित थयेलांआपणां-उद्वेग, अमृत, रोग, लाभ, शुभ, चर, काल-ए वारगत चोघडियाओ क्याथी आवी चढ्यां ए एक विचारणीय प्रश्न छ, प्राचीन संहिताओमां तो शुं पण लल्लथी Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे रामदैवज्ञ सुधीना प्राचीन अर्वाचीन कोइ विद्वान ज्योतिषीए पोताना ग्रन्थमां आ उद्वेगादि अर्धपहरोनो नामनिर्देश सुद्धा कर्यो नथी. अमारी मान्यता प्रमाणे जुना ग्रन्थो पैकीना कोई ग्रन्थे आ चोघडियानुं नाम निर्देश्यु होय तो तेशूरमहाठशिवराज संग्रहीत ‘ज्योतिर्निबन्ध' छे. आ ग्रन्थना वार प्रकरणना अन्तमां नीचे प्रमाणे लोक दृष्टिगोचर थाय छेउद्वेगाऽमृतनामा च, रोगा लाभा शुभा बला। कलिर्नामानि वेलानां, होरावत् सूर्यतः क्रमात् ॥१५८॥ भा०टी०-उद्वेगा, अमृता, रोगा, लाभा, शुभा, बल अने कलि आ सूर्यादि ७ वारोनी वेलानां नामो छे. आ वेलाओ गणवानो क्रम होराओनी जेम जाणवो. उक्त श्लोक पहेला २ पद्योमां अर्धयाम, कुलिक, कंटक अने जीवकुलिक (उपकुलिक ) नुं वर्णन छे. आ पद्योना प्रारंभमां एना कर्ता तरीके 'भूपाल:-' नाम निर्देश छे, आथी जणाय छे के आ बंने पद्यो 'भूपालवल्लभ' ग्रन्थना छ, पण ए पछीनो 'उद्वेगाऽमृतनामा च' आ श्लोक के जे वार प्रकरणनो छेल्लो छे, भूपालनोज छे के कोई लेखकनो प्रक्षेप छे ए कहेवू कठिन छे, रोगा, लाभा, बला, ए शब्दो जणावे छे के आ श्लोक ' भूपालवल्लभ' जेवा ग्रन्थनो भाग्ये ज होय, विद्वान् ज्योतिषीओ ए आ चोघडियाओना संबन्धमा उहापोह करवो जोइये, आ चोघडियाओनी गणनाए लोको शुभ समय जाणी कोइ कार्य करे छे अने ते समय अर्धयाम, कालवेलादि अनेक अशुभ योगोथी दूषित होवाथी कार्य निष्फल जाय छ, उदाहरण रूपे रविवारे पहेलु उद्वेग' अने वीजें 'चल' गणी बंने चोघडियां जतां करे छे अने त्रीजु 'लाभ' अने चोथु 'अमृत' चोघडियुं जाणी तेमां शुभ कार्य आरंभे छे, खरी रीते रविवारनां पहेलुं बीजं आ बंने चोघडियां निर्दोष छे ज्यारे त्रीजामा 'कंटक' Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षम्] ४२५ अने चोथामा 'अर्धयाम' नामक दुष्ट अपयोगो होय छे. एज रीते बुधवारे बीजु 'अमृत' नुं चोघडीयुं जाणी अपाय छे. ज्यारे ते चोघडियामां ' यमघंट' नामक वार दोष होय छे तेनो कोइ विचार करतुं नथी, ते दिवसे त्रीजु चोघडियु 'काल' जाणी त्यजी देवाय छ ज्यारे चोथु शुभ जाणी लेवाय छे वस्तुस्थिति आथी उलटी छे. बुधवारे त्रीजु चोघडियु निर्दोष-शुद्ध होय छे. ज्यारे चोथामा 'कुलिक ! 'मुहूर्तकुलिक' अने 'दुर्मुहूर्त' नामना त्रण दुष्ट योगो होय छे, आम प्रत्येक वारे 'शुभ' गणातां आ चोघडियाओमां 'अशुभयोगो' आवे छे, माटे आ चोघडियाओ उपर अवश्य विचार करवो घटे छे. नक्षत्र नक्षत्र २७ छे ए सर्वसंमत विषय छे, कचित् नक्षत्र संख्या २८ नी जणावी छे तेनुं कारण 'अभिजित् 'नी गणना छे, पण अभिजित्नो उपयोग वेध, लत्ता आदि जोवा पूरतो मर्यादित होवाथी नक्षत्रमालामां तेनी गणना नथी तेम नक्षत्र विधेय कार्यनी चर्चामां पण अभिजित् नुं विधान नथी, उत्तराषाढाना चतुर्थ चरण अने श्रवणना प्रथम चरणनी आदि ४ घडीओ आ लगभग १९ घटिकापरिमित नक्षत्रभोगने 'अभिजित् ' नाम आपेलं छे, आरंभसिद्धिकार प विषयमां कहे ले-- उत्तराषाढमन्त्यांहिं, चतस्रश्च श्रुतेघंटोः। वदन्त्यभिजितो भोगं, वेधलत्ताद्यवेक्षणे ॥१५९॥ भा०टी०-उत्तराषाढाना अंतिम चरण अने श्रवणनी ४ घडीओने 'अभिजित् 'नो भोग कहे छे, जेनो उपयोग वेध लत्ता आदिना जोवामां थाय छे, खरी रीते अभिजित् पेटा नक्षत्र छे. Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-:-प्रथमम- खण्डे नक्षत्रोनां नामो - अश्विनी १ भरणी २ कृत्तिका ३ रोहिणी ४ मृगशिरा ५ आर्द्रा ६ पुनर्वसु ७ पुष्य ८ आश्लेषा ९ मघा १० पूर्वाफाल्गुनी ११ उत्तराफाल्गुनी १२ हस्त १३ चित्रा १४ स्वाति १५ विशाखा १६ अनुराधा १७ ज्येष्ठा १८ मूल १९ पूर्वाषाढा २० उत्तराषाढा २१ अभिजित् २२ श्रवण २३ धनिष्ठा २४ शतभिषा २५ पूर्वाभाद्रपदा २६ उत्तराभाद्रपदा २७ रेवती २८ आ प्रमाणे छे. ४२६ नक्षत्रोना अक्षरो चू चे चो लाऽश्विनी प्रोक्ता ली लू ले लोभरण्यथ । आ ई ऊ ए कृत्तिका तु, ओ वा वी वू च रोहिणी ॥ १६० ॥ वे वो का की मृगशिर आर्द्रा कु घ ङ छाः पुनः । के को हा हि पुनर्वस्वो-हू हे हो डा तु पुष्यभे ॥ १६१ ॥ डी डू डे डोभिराश्लषा, मामि मू मे मघा मता । मोटा टी टू फल्गुनी प्राक्, टे टो पा पीभिरुत्तरा ॥ १६२ ॥ हस्तः पु ष ण ठैर्वर्णे चित्रा पे पो ररिः पुनः । रु रे रोताःस्मृताः स्वातौ ती तृ ते तो विशाखिका ।। १६३॥ अनुराधा न नी नू ने, स्याज्ज्येष्ठा नो य यी युभिः । स्याद्ये यो भा भिभिर्मूलं, पूर्वाषाढा भुधा फ ढैः ॥ १६४॥ | भोजा ज्युत्तराषाढा, जु जे जो खा ऽभिजिन्मता । श्रवणे स्युः खि खू खे खो, धनिष्ठायां ग गी गु गे ॥ १६५ ॥ जो सा सी सूः शतभिषक, प्राकू से सो द दि भद्रपात् । दुश झ थोत्तराभद्रा, दे दो चा ची तु रेवती ॥ १६६ ॥ भा० टी० - चूचेचोला-अश्विनी, लीलूलेलो - भरणी, आ इ उ ए कृत्तिका, ओ वा वी वू-रोहिणी, वे वो का कि-मृग Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् ] ४२७ शिर,कु घ ङ छ-आर्द्रा, के को ह हि-पुनर्वसु, हुहेहोडा-पुष्य, डीडूडे डो-आश्लेषा, मा मी मू मे-मघा, मो टा टी टु-पूर्वाफाल्गुनी, टे टो प पी-उत्तराफाल्गुनी, पुषण ठ-हस्त, पे पो र रि-चित्रा, रु रे रो ता-स्वाति, ती तू ते तो-विशाखा, न नी नू ने-अनुराधा, नो य यी यु-ज्येष्ठा, ये यो भा भि-मूल, भुध फ ढ-पूर्वाषाढा, भे भो जा जी-उत्तराषाढा, जु जे जो खा-अभिजित् , खी खू खे खोश्रवण, ग गी गु गे-धनिष्ठा, गो सा सी सू-शतभिषा, से सो द दि-पूर्वाभाद्रपदा, दु श झ थ-उत्तराभाद्रपदा, दे दो च ची-रेवती, ए २८ नक्षत्रोना ११२ चरणोना ११२ अक्षरो छे, जे नक्षत्रना जे चरणमां कोइनो जन्म थाय त्यारे ते चरणना अक्षर प्रमाणे तेनुं नामकरण थाय, अश्विनीना प्रथम चरणनो अक्षर 'चु' छे तो अश्वि नीना ते चरणमा जन्मनारनुं नाम 'चु--चू' आ अक्षर आदिमा हशे ते अपाशे, आम सर्वत्र समजी लेवू, बतावेल अक्षरोमां इस्त्र होय त्यां दीर्घ के दीर्घ होय त्यां ह्रस्व पण समजी लेवो, एज रीते एक मात्रावाला जोडे द्विमात्रावालो के द्विमात्रावाला जोडे एकमात्रावालो वर्ण पण जाणवो, ज्यां घङछ, षणठ, घफढ, शझथ, ए केवल अवर्णान्त व्यञ्जनो छे त्यां अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ, आ दश स्वरो लगाडीने नाम पाडवां, 'ब' ने वने सरखा गणवा, 'ऋ' आधाक्षरवालानुं नक्षत्र 'रि' प्रमाणे समजवू. जो के 'उम्ञण' अक्षरो कोइना नामनी आदिमां होता नथी छतां चरणवेधादिनुं फल ते चरणमां जन्मनारने मले छे तेथी प्रत्येक चरणाक्षरनी उपयोगिता छे. नक्षत्रोना स्वामिओप्रत्येक नक्षत्रनो भिन्न भिन्न स्वामी होय छे, जेनो उपयोग नक्षत्र क्षण जोवामां थाय छे तेथी मुहूर्त प्रकरणने अंते नक्षत्र स्वामिओ बताव्या छे अहियां पुनरुक्ति करता नथी. Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ [ कल्याण-कलिका-प्रथम-खण्डे नक्षत्र तारा संख्यात्रि३त्र्य ३२६ भूत ५ जगदि ३ न्दु १ कृत ४ त्रि ३ तर्के ६ध्व५क्षि२ द्वि २ पञ्च ५ कु.१ कु१ वेद ४ युगा४ग्नि ३ रुद्रैः११ । वेदा ४ ब्धि ४ राम ३ गुण ३ वेद ४ शत १०० द्विक २ द्वि २दन्तेश्च ३२ तत्समतिथिर्न शुभा भतारैः ॥१६७॥ । भाण्टी०-नक्षत्रोनी तारा संख्या आ प्रमाणे छे--अश्विनी ३, भरणी ३, कृत्तिका ६, रोहिणी ५, मृगशिर ३, आर्दा १, पुनवसु ४, पुष्य ३, आश्लेषा ६, मघा ५, पूर्वाफाल्गुनी २, उत्तराफाल्गुनी २, हस्त ५, चित्रा १, स्वाति १, विशाखा ४, अनुराधा ४, ज्येष्ठा ३, मूल ११, पूर्वाषाढा ४, उत्तराषाढा ४, अभिजित् ३, श्रवण ३, धनिष्ठा ४, शतभिषा १००, पूर्वाभाद्रपदा २, उत्तराभाद्रपदा २, अने रेवती ३२. ए नक्षत्रोनी साथे आपेल संख्यापरिमित ताराओ छे, नक्षत्र तारा संख्यावाली तिथि तेनी साथेशुभ गणाती नथी, जेम अश्विनीनी तारा ३ छे अने तृतीया तिथिनी संख्या पण ३ नी छे तो शुभ कार्यमा अश्विनी तृतीयानो योग सारो गणातो नथी, ज्यां तारा १५ थी अधिक होय त्यां तेने १५ भांगीने शेष संख्याने तारासंख्या गणवी एटले रेवतीनी २ अने शतभिषानी तारासंख्या १० रहेशे, अन्य ग्रन्थकारोए तारा संख्या अन्य प्रयोजन पण जणाव्युं छे, वराह लखे छेनक्षत्रमुद्राहे, फलमन्दैस्तारकामितैःसदसत् । दिवसैवरस्य नाशो, व्याधेरन्यस्य वा वाच्यः ।।१६८॥ भाण्टी-विवाहमा नक्षत्र संवन्धी शुभ, अशुभ फल तेनी तारा संख्यापरिमित वर्षोए मलशे एम कहेवू, ज्यारे ज्वर अथवा बीजो रोग जे नक्षत्रमा उत्पन्न थयो होय ते तेनी तारासंख्याना दिवसोमां मटशे एम कहेवू. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् ] नक्षत्रमुहूर्तों-- भेषु क्षणान् पञ्चदशैन्द्ररौद्रवायव्य सान्तकवारुणेषु । त्रिघ्नान् विशाखादितिम ध्रुवेषु, शेषेषु तु त्रिंशतमामनन्ति ॥१६९॥ भा०टी०-ज्येष्ठा, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा, भरणी, शतभिषा ए ६ नक्षत्रोमां चन्द्रमानो भुक्तिकाल १५ मुहूर्तनो, विशाखा पुनर्वसु, रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदामा ४५ मुहूर्तनो अने शेष--अश्विनी, कृतिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा, रेवती आ १५ नक्षत्रोनो ३० मुहूर्तोनो भोग होय छे. आ मुहूर्त्तानो उपयोग नव्य चन्द्रोदय अने संक्रान्तिनु फल जोवामां थाय छे. पूर्वयोगी आदि नक्षत्रोयुज्यन्ते षड द्वादश, नब चेति निशाकरेण धिष्ण्यानि । प्रा मध्यपश्चिमाधैः, पौष्णैशाखण्डलादीनि ॥१७०॥ भा०टी०--रेवती अश्विनी, भरणी, कृतिका रोहिणी, मृगशिर आ ६ नक्षत्रो चन्द्रनी साथे पूर्वयोगी छे, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य आश्लेषा मघा पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी हस्त, चित्रा स्वाति विशाखा अनुराधा ए १२ नक्षत्रो मध्ययोगी छे अने ज्येष्ठा मूल पूर्वाषाढा उत्तराषाढा श्रवण धनिष्ठा शतभिषा पूर्वाभाद्रपदा उत्तराभाद्रपदा भा ९ नक्षत्रो पश्चिमयोगी छे, विवाहमा तेमज चातुर्मासमा वृष्टिर्नु भविष्य जोवामां आ पूर्वादि योगनो उपयोग थाय छे. नक्षत्रोना भ्रमणमार्गदक्षिणमार्गेऽत्रलेषा १, Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ब्राह्मत्रय ४ करयुगे ६ द्विपतिषट्कम् १३। उत्तरतः पुनरभिजि, वय ३ मश्वित्रय ६ यौनयुगलानि ८॥१७॥ आजपादद्वयं १० स्वात्या ११ दित्ये १२ चेति भ्रमन्ति खे मध्यमार्गे शतभिषक १, पुष्य २ पौष्ण ३ मघा ४ इति ॥१७२॥ भा०टी०-आश्लेषा रोहिणी मृगशिर आर्द्रा हस्त चित्रा विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूल पूर्वाषाढा उत्तराषाढा आ बार नक्षत्रो मध्याकाशथी दक्षिण तरफना मार्गे भ्रमण करे छे. अभिजित् श्रवण धनिष्ठा अश्विनी भरणी कृत्तिका पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा स्वाति पुनर्वसु आ १२ नक्षत्रो उत्तर तरफ आकाशमां भ्रमण करे छे ज्यारे शताभषा पुष्य रेवती मघा आ ४ नक्षत्रो मध्य मार्गमांभ्रमण करे छे. शुभाशुभ समय समर्घतामहर्षताअने दृष्टि ज्ञानने अंगे नक्षत्रोना भ्रमण मार्गनो उपयोग छे दक्षिणमार्गी नक्षत्रोथी चन्द्र उत्तर तरफ चाले तो शुभ अन्यथा महा अशुभ, एज रीते उत्तरागामि नक्षत्रोथी उत्तरमा चाले तो महाशुभ दक्षिणमा चाले तो साधारण, मध्यमार्गी नक्षत्रोथी चन्द्र उत्तरमा चाले तो शुभ अन्यथा अशुभ छे. मुखपरक नक्षत्रगणो अने विधेय कार्योंपूर्वात्रयाग्निमूलाहि-द्विदैवत्यमघान्तकम् । अधोमुख तु नवकं, भानां तत्र विधीयते ॥१७॥ बिलप्रवेश-गणित-भूतचूतविलेखनम् । खननं शिल्प-कूपादि-निक्षेपोद्धरणादि यत् ॥१७४॥ भा०टी०-पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपद, कृत्तिका, Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ नक्षत्र-लक्षणम्] मूल, आश्लेषा, विशाखा, मघा, भरणी आ नव नक्षत्रोनो गण अधोमुख छे, ते नक्षत्रगणमा बिलमा प्रवेश, गणित, भूतसाधन, जुगार, छोलवू, खणQ, शिल्पारंभ, कूपादिखनन, गाडवू, अंदरथो काढवु आदि ए प्रकारनां कामो करवाथी सफलता थाय छे. मित्रैन्द्र स्वाष्ट्र हस्तेन्द्रादित्यान्त्याश्विनवायुभम् । तिर्यङ्मुखाख्यं नवकं, भानां तत्र विधीयते ॥१७५।। हलप्रवाह-गमनं, गन्त्रीयन्त्रखरोष्ट्रकम् । खरगोरथनौयान,-लुलाय हयकर्म च ॥१७६॥ भा०टी०-अनुराधा, ज्येष्ठा, चित्रा, हस्त, मृगशिर, पुनर्वसु, रेवतो, अश्विनी, स्वाति आ नवनक्षत्रोनो गण तिर्यङ्मुख छ आमां हल चलाव, गमन करवू, गाडं चलावबु, यंत्र चलावq गधेडां अने उंटोनो समूह चलाववो गधेडा बलद रथ नाव अने अन्य यान वाहनो नवेसर चलाववा, अने पाडा, घोडाओने दमवा आदि कामो करवां. ब्रह्मविष्णुमहेशाय-वसुपाश्युत्तरात्रयम् । ऊर्धास्यं नवकं भानां, तेषु कर्म विधीयते । १७७॥ पुरहर्म्यगृहाराम-वारणध्वजकर्म च । प्रासादवेदिकोद्यान-प्राकाराद्यं च सिध्यति ॥१७८॥ भा०टी०--रोहिणी, श्रवण, आर्द्रा, पुष्य, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरा भाद्रपदा आ नक्षत्र नवक गण ऊर्ध्वमुख छे. आ नक्षत्रोमां नगरनिवेश, महेलनिर्माण, गृहचयन, आरामरोपण गजारोहण, ध्वजारोप, प्रासाद, वेदिका, उद्यान, कोट आदिनु निर्माण करवाथी सिद्ध थाय छे. स्थिरादि नक्षत्रगणो अने विहित कार्योस्थिरसंज्ञं भचतुष्टय-मम्बुजयोन्युत्तरात्रितयम् । नरपतिपत्तनसदनं प्रवेशबीजादि सिध्यते तत्र ॥१७९।। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे दारुणभानि पुरन्दर-कोणपशिवसर्पदेवतानि स्युः। दारुणबन्धनदहनप्रहरणकर्माणि सिद्धतां यान्ति ॥१८०॥ पूर्वात्रितयं पैतृभ-मुग्राख्यमिदं पञ्चकं याम्यम् । मारण भेदनबंधनविषदहनं पञ्चके कार्यम् ॥१८॥ सुरसचिवाश्विनिहस्त-ताराः स्युः क्षिप्रसंज्ञितास्ताश्च । औषधपण्यविभूषण-शिल्पलताज्ञानकर्मसिद्धिःस्यात ॥१८२। मृदुवृन्दं भचतुष्टय-मन्त्यत्वाष्ट्राख्यसौम्यमित्रःम् । मङ्गलवनिताभूषणमन्दिरगीतादि सिध्यते तत्र ॥१८३॥ भद्रितयं श्वसनसख चेन्द्राग्निभं मिश्रसंशं तत् । निखिलानि च साधारण-कार्याण्युग्राणि कार्याणि ॥१८४॥ अदिति श्रुतिभात्रितयं, चरसंज्ञं पञ्चमं मरुभं च । वाहनकर्म विभूषण-चरकार्योद्यानमन्त्रसिद्धथै तत् ॥१८५ भा०टी०--रोहीगी, उत्तराफाल्गुनी उत्तराषाढा, उत्तराभा. द्रपदा आ ४ नक्षत्रो ‘स्थिर' संज्ञावाला छे, राजधानीनो निवेश तथा राजाना महेलनु निर्माण प्रवेश अने बीजवपन आदि कार्यो आमां सिद्ध थाय छे. ज्येष्ठा, मूल, आर्द्रा, आश्लेषा आ नक्षत्रोनु नाम 'दारुण' छे, आमां कठोर कार्य, बन्धन, मारण, दहन, आयुध चलावयां आदि कार्यों सिद्ध थाय छे. पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाषाढा पूर्वाभाद्रपदा मघा भरणो आ नक्षत्रोनी 'उग्र' ए संझा छे आ उग्रपंचकमां मारण, मेदन, वन्धन, विषप्रयोग, अग्निदहनादि कार्यो करनार सफल थाय छे. . पुष्य, अश्विनी, हस्त, आ ‘क्षिप' संज्ञक नक्षत्रोमां औषध ग्रहण, क्रयाणक संग्रह, अलंकारपरिधान शिल्पाध्ययन लतारोपण, ज्ञानाभ्यास आदि कार्योनी सिद्धि थाय छे. रेवती, चित्रा, मृगशिर, अनुराधा आ ४ नक्षत्रो 'मृदु' संज्ञक छे. Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् ४३३ आमा दरेक मंगलकार्यों स्त्री विषयक कार्यो, अलंकार, मंदिर, गीत आदि कार्यों सिद्ध थाय छे. ____स्वाति, विशाखा आ बे नक्षत्रो ‘मिश्र' संज्ञक छे, आमा सर्व साधारण तेम ज उग्र कार्यो करवा. ___ पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, स्वाति आ पांच नक्षत्रो 'चर' संज्ञक छे, आमां यान-वाहन कार्यो, विभूषा, उद्यान कार्य, मन्त्रादि चरकार्यों सिद्धिने पामे छे. कथितान्यपि लघुवृन्दे, चरसंज्ञे तानि कार्याणि । चरधिष्ण्ये कथितान्यपि, कार्याणि लघुगणे नूनम् ॥१८६।। यद्यद्दारुणभोक्तं, तत्तत्कर्म त्वथोग्रभे कार्यम् । साधारणमिश्राख्यं, क्रूरोग्रं ती णदारुणं तुल्यम् ॥१८७॥ साधारणवृन्दोक्तं, यत्कर्माद्यं क्रूर सदा कार्यम् । ध्रुवमचलं क्षिप्रलघु, चरं चलं मैत्र हुसंज्ञे ॥१८८॥ निखिलेष्वपि धिष्ण्येष्विह, सामान्य कार्यमित्युक्तम् । तत्तत्प्रकरणकथितं, तदेव मुख्यं विजानीयात् ॥१८९॥ भाटी०-लघुगणमां कहेल कार्यो चर संज्ञक नक्षत्रोमां अने चर नक्षत्र गणमां कहेल कार्यो लघुगणमां करवां, जे जे कार्य दारुण नक्षत्रमा करवानुं कहेल छे ते उग्र नक्षत्रमा पण करवु, साधारण-मिश्र, क्रूर, उग्र अने तीक्ष्ण-दारुण ए तुल्यस्वभावनां नक्षत्रो छे, साधारणमा करवानां कार्यों क्रूर नक्षत्रोमा करवां, ध्रुव अचल, क्षिप्र लघु, चर चल, मैत्र मृदु, साधारण मिश्र, क्रूर उग्र अने तीक्ष्ण दारुण, ए एक बीजाना नामान्तरो छे, एकमां कहेल काम बीजामा करी शकाय छे, आ प्रमाणे तमाम नक्षत्र विधेय सामान्य कार्य कछु, भागल ते ते प्रकरणमां कहेल कार्य तेनुं मुख्य कार्य जाणवू. Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे प्रत्येकनक्षत्र विधेय कार्योयात्राभेषजभूषण-विद्याऽश्वेभाजशिल्पवस्त्राद्यम् । उत्सवमंगलकार्य, कर्त्तव्यं दस्रनक्षत्रे ॥१९॥ साहसदारुणशत्रु-प्रशमननिक्षेपकूपकृष्याद्यम् । विषवधवन्धनदहन-प्रहरणकार्याणि भरणीषु ॥१९॥ भग्निपरिग्रहसाहस-रिपुवधदहनास्त्रशस्त्रकर्माद्यम् । धातुर्वाद विधानं, विवादलोहाइमबहुलायाम् ॥१९२॥ भा०टी०-यात्रा. औषध, भूषण, विद्या, अश्वकर्म, गजकर्म, भजकर्म, शिल्प वस्त्रादि, उत्सवकार्य अने मांगलिक कार्य अश्विनीमां करवं. साहसकर्म, भयंकरकर्म, शत्रुने शान्त करवो, जमीनमा गाडवू, कूपखनन, कृषिकार्य, विषदान, वध, बन्धन, बालवू, प्रहरणकार्य इत्यादि उग्र कार्यों भरणीमां करवां, अग्निस्थापन, साहसकर्म. शत्रुषध, दहन, अस्त्र-शस्त्रकर्मादि, धातुक्रिया (रसायनसिद्धि), विवाद, लाहकर्म, पाषाणकर्म ए कामो कृत्तिकामां करवां. सुरनरसमाद्यखिलं, विवाहधनधान्यसंग्रहोपनयम् । उत्सवभूषणमङ्गल-मजभे कार्य सपौष्टिकं कर्म ॥१९३।। शान्तिकपौष्टिकशिल्प-व्रतकोद्वाह मंगलायखिलम् । सुरसंस्थापनवास्तु-क्षेत्रारम्भादि सिध्यते सौम्ये ॥१९४॥ पहरणदारुणबन्धन-विग्रहविषसंधिवनिकर्माद्यम् । छेदनदहनोचाटन-मारणकृत्यं च रौद्रभे कुर्यात् ॥१९५।। भाण्टी-देवालय, घर आदि सर्व, विवाह, धन्यधान्यसंग्रह, उपनयन, उत्सव, आभरण, मांगल्य अने पौष्टिक कार्य रोहिणी नक्षत्रमा करवा, शांतिक, पौष्टिक, शिल्पकर्म, व्रतकर्म, विवाह, मांगल्यादिक सर्व शुभकार्य, देवप्रतिष्ठा, वास्तुक्षेत्रारंभादि भगशिरमां सिद्ध थाय छे. आयुध कार्य, उग्रकार्य, बन्धन, लडाइ, Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक्ष-लक्षणम्। ४३५ विषप्रयोग, संधि, अग्निकर्म आदि छेदन, दहन, उच्चाटन अने भारणकर्म आर्द्रा नक्षत्रमा करवा. शान्तिकपौष्टिकयात्रा-व्रतप्रतिष्ठा-नृपाहवाद्यखिलम् । वनिताकरसंग्रहणं, त्यक्त्वान्यकर्म सिद्धयते पुष्ये ॥१९॥ उद्धतरिपुमदभञ्जन-साहसवाणिज्यकपटकर्म । अनलायससंग्रह-श्वेड-स्तेयादि सर्पभे कार्यम् ॥१९७॥ युवतीकरसंग्रह, वापीकूपतडागोत्सवाद्यं च ।। क्षितिपत्याहवसर्व, पित्र्यधिष्ण्ये च पैतृकं कर्म ॥१९८॥ - भा०टी०-शांतिक, पौष्टिक कर्म, यात्रा, व्रत, प्रतिष्ठा, राजयुद्धादि सर्व, स्त्री पाणिग्रहण सिवाय बीजां सर्व कार्यो पुष्यमां सिद्ध थाय छे, अभिमानी शत्रुनुं मदभंजन, साहसिककार्य, वाणिज्य कर्म, कपटकर्म, अग्निकार्य, लोहसंग्रह, विषप्रयोग, चोरी आदि आ श्लेषामा करयां. स्त्री, पाणिग्रहण, वाव कुआ तलाव आदिनुं खोदवू, उत्सव आदि, राजाओनां युद्ध आदि सर्व अने पितृकर्म ए मघा नक्षत्रमा करवा. शिल्पाहरणबन्धन-दारुणचित्रकापटं कर्म । नटनद्रुमासवा, भाग्ये कुडयपहरणं च ॥ उपनयनं करपीडन-मखिलं स्थिरशिल्पभूषणं त्वखिलम्। पुरसदनप्रारंभण-मम्बररणकार्यमर्यमःषु ॥ भेषजयात्राविद्या-विवाहशिल्पव्रताम्बराभरणम् । सुरसंस्थापनमग्विलं, वास्तुप्रारम्भमर्कनक्षत्रे ॥ अर्थात्-शिल्प, आयुध, बन्धन. कठोरकर्म, चित्र, कपटकार्य, नाटक, वृक्षारोप, आसव, भित्तिचयन अने प्रहरण पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रमा करवा. उपनयन, विवाह, सर्वस्थिर कार्य, शिल्प, सर्व भूषणकर्म, Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदेवप्रति पात्रा, विद्या, विए उत्तराफाल्गुनी ४३६ [कल्याण कलिका-प्रथमखणे पुरनिवेश, गृहनिवेश, वस्त्रकर्म, रणकर्म ए उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमा करवां, औषध, यात्रा, विद्या, विवाह, शिल्प, व्रत, वस्त्र, आभूषण, सर्वदेवप्रतिष्ठा, वास्तुप्रारंभ ए कार्य हस्तनक्षत्रमा करवां. शान्तिकपौष्टिकमखिलं, स्थिरकार्य वस्त्रभूषणं शिल्पम् । उपनयनं वास्तुकृषि-क्षितिपतिकार्य च चित्रायाम् ॥१९९॥ सुरनरसद्मविधानं, भूषणवैवाहमंगलायखिलम् । बीजारोपणशस्त्र-क्षितिपतिसमरं विभूषणं स्वाती ॥२००।। उपचयवस्तुग्रहणं, भूषणनववस्त्रचित्रकाये च । भेषजशकटप्रहरण-शिल्पविचित्रं द्विदैवभे कार्यम् ॥२०२॥ भाण्टी०-सर्वप्रकारनां शांतिक अने पौष्टिक कार्यो, स्थिरकार्य, वस्त्र, भूषण, शिल्प, उपनयन, वास्तु, कृषि, राजकार्य ए कार्यो चित्रामा करवां. देवालय, मनुष्यालयतुं निर्माण, भूषण, विवाह संबन्धी सर्वमंगल कार्य, बीजारोपण, वस्त्र, राजयुद्ध, विभूषण ए सर्व स्वातिमा करवां. धान्यादिवस्तु संग्रह, भूषण, नवीन वस्त्र चित्रकार्य, औषध, शकटवहन, प्रहरण, शिल्प, विचित्र कार्य ए विशाखा नक्षत्रमा करवां. करमर्दनमुपनयनं, यात्रासुरसद्मसंनिवेशाद्यम् । स्थिरचरकार्य त्वखिलं, भूषणमश्वेभकर्म मित्रः ॥२०२।। रिपुवधभेदनदहन-प्रहरणवनिलोहकायद्यम् । स्तेयविधानं विविघं, शिल्पं चित्रं सुरेशभे कार्यम् ।।२०३।। कृषिभवनविपिनकार्य, वापीकूपादिबीजनिर्वापम् । समरविभूषणशिल्पं, विग्रहसंधिश्च मूलनक्षत्रे ॥२०४॥ भा०टी०-विवाह, उपनयन, यात्रा. देवालयनिवेश आदि, सर्व स्थिर तथा चर कार्य, भूषण, अश्वकर्म गजकर्म अनुराधा नक्षप्रमा कर. शत्रुनाश, भेदन, दहन, प्रहरण, अग्निकार्य लोहकार्य Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् ४३७ आदि, सर्व प्रकारचें चौर्यक्रम, शिल्प, चित्र ए ज्येष्ठा नक्षत्रमा कराय छे. कृषिकार्य, भवननिर्माण, वनकार्य वापी कूपादिकार्य बीजवपन, युद्ध, विभूषण, शिल्प, युद्ध, संधि आदि कार्यो मूल नक्षत्रमा करवा. शम्बरबन्धनमोक्षण-वापीकूपादि निग्रहं हननम् । दुमखंडनवनचारिण-पक्षिगां च यत्कार्यमम्बुभ कार्यम् ॥२८५॥ स्थापनमुण्डनमण्डन-वास्तुनिवेश प्रवेशनाद्यं च । बीजारोपणवाहन-भूषणवस्त्रं च वैश्वमे कार्यम् ॥२०६॥ शान्तिकपौष्टिकमङ्गल-विचित्रकृषिशिल्पमम्बराद्यम् । धामविधानस्थापन-मुपनयनं विष्णुभे कार्यम् ॥२०७॥ उपनयनं चौलविधि, जलतुरगोष्ट्रभदेवनिर्माणम् । कृषिभवनाहवमम्बर-विपिनोद्यानाश्म भूषणं वसुभे ॥२०८॥ भोल्टी०-जल बांधवू, जल छोडवू, वापी-कूपादि, निग्रह, मारण, वृक्षच्छेदन, वनचर पक्षिओ संबन्धी कार्य ए सर्व पूर्वाषाढामां कराय छे. प्रतिष्ठा, क्षौरकर्म, अलंकरण, वास्तुनिवेश, वास्तुप्रवेशादि, बीजारोपण, वाहन, भूषण, वस्त्रकर्म ए उत्तराषाढामां करवां, शान्तिक, पौष्टिक, माङ्गल्य, विचित्रकार्य, कृषि, शिल्प, वस्त्रादि, गृहनिर्माण, प्रतिष्ठा, उपनयन ए श्रवण नक्षत्रमा करवा. उपनयन, चूडाविधिजल, अश्व, उष्ट्र, गजसबन्धी कार्य, देवमूर्ति निर्माण, कृषि, भवन, युद्ध, वस्त्र, वननिवेश, उद्यान, पाषाणकर्म भूषण ए धनिष्ठामां करवां. समरारम्भविभूषण-गज बलतुरगोष्ट्रशस्त्रनावाद्यम् । मुक्ताफलरजतमयं, वरुणः वास्तुकर्माद्यम् ॥२०९॥ अजचरणः कुर्यात्, साहसजलयन्त्रशिल्पकर्माद्यम् । मृधातुर्वादच्छेदन कृषिमहिषोष्ट्राजेभविक्रयणम् ॥२१॥ परिणयनं व्रतबन्धन-सुरनरसदनप्रतिष्ठां च । आहिर्बुध्न्ये भूषण-मम्बरवास्तुप्रवेशमभिषेकम् ॥२११॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ (कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे स्थलजलभूषणमखिलं, धामविधानं त्वमय॑मानाम् । करपीडनमुनपयनं, मङ्गलमखिलं च पौष्णभे कार्यम् ।।२१२॥ भाण्टी०-युद्धारंभ, विभूषण, गजसैन्य, अश्व, उष्ट्र, शस्त्रनावादि, मुक्तामय-रजतमयाभरण, वास्तुकर्मादि, शतभिपामां करवू. साहसकर्म जलयंत्र शिल्पकर्मादि, मृत्तिकाकर्म, धातुर्वाद, च्छेदन, कृषि, महिष, उष्ट, अज-गजनो विक्रय ए पूर्वा भाद्रापदामा करवां, विवाह, व्रतग्रहण, देवालयप्रतिष्ठा, गृहप्रवेश, भूषण, वस्त्र, वास्तुकर्म, प्रवेश, राज्याभिषेक ए कार्यों उत्तराभाद्रपदामां करवा. स्थल, जल संबंधी कार्य, सर्वभूषण, गृहनिर्माण, देवालयनिर्माण, विवाह, उपनयन, सर्व जातनां मांगलिक कामो रेवतीमां करवां. नक्षत्रोनी कुलादिसंज्ञापितृवसुतिष्येन्द्रनलव्युत्तरभाग्यद्विदैवचित्राणि । दैवचिकित्सककोणपसहितान्येतानि कुलमानि ॥२१॥ अजचरणादितिपूषाधातृमरुद्विष्णुवारीशशक्राणि । अहियमधातृजलान्युपकुलान्यन्यानि कुलोपकुलानि ॥२१॥ उपकुलभेषु च याता, विजयं प्राप्नोत्यसंशयं क्षिप्रम् । कुलभेषु च भङ्गः स्याद्यातुः संघिस्तयोः कुलोपकुलभेषु ।।२१५॥ कुलभेषु च जातास्ते मनुजा भवन्ति कुलमुख्याः। उपकुलभे परविभवं भोक्तारस्त्वन्यभेषु सामान्याः॥२१६॥ भाण्टी-मघा, धनिष्ठा, पुष्य, मृगशिरा, कृत्तिका, उत्तरा. फाल्गुनी, उतराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, पूर्वाफाल्गुनी, विशाखा, चित्रा, अश्विनी, मूल एटलां 'कुल' नक्षत्रो छे. पूर्वाभाद्रपदा, पुनर्वसु, रेवती, अभिजित्, स्वाति, श्रवण, शतभिषा, ज्येष्ठा, आश्लेपा, भरणी, रोहिणी पूर्वापाढा ए 'उपकुल' नक्षत्रो छ अने बाकीनां आर्द्रा, अनुराधा, हस्त, Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम्] ए 'कुलोपकुल' संज्ञक छे.. ' उपकुल' नक्षत्रोमा 'पापी' निःसंदेह जल्दी विजयी थाय छ, 'कुल' नक्षत्रोमा 'पापी' हारे छे अने 'कुलोपकुल'मां युद्ध थाय तो बने सरखा उतरी संधि करे छे. कुल नक्षत्रमा जन्मेल कुल नायक थाय छे, उपकुलमा जन्मेल परधनने भोगबनार थाय छ ज्यारे कुलोपकुलमा जन्मनार साधारण होय छे. नक्षत्रोनी अन्धादिसंज्ञाअन्धकमथ मन्दाख्यं, मध्यमसंज्ञ सुलोचनं पश्चात् । पर्यायेण च गणयेच्चतुर्विधं ब्रह्मधिष्ण्यतः ॥२१७॥ अन्धे सद्यो वस्तु नष्टं हृतं यल्लभ्यं दूरान्मन्दनेत्रे च कष्टात् । श्राव्यं द्रव्यं मध्यनेत्रे सुनेत्रे, नैव श्राव्यं नैव लभ्यं कदाचित् ॥२१८॥ तद्यात्यन्धैर्दिशं पूर्वी, केकरैर्दक्षिणा पुनः । पश्चिमां चिपिदैधिष्ण्य,-दिव्यदृष्टिभिरुत्तराम् ॥२१९॥ भा०टो०-नक्षत्रो अन्ध, मंदनेत्र, मध्यनेत्र अने सुनेत्र संज्ञक होय छे. रोहिणीथी अन्धादि ४-४ नक्षत्रो गणी लेवां, रोहिणी अंध, मृगशिरा मंदनेत्र, आर्द्रा मध्य अने पुनर्वसु मुनेत्र, एज रीते २८ नक्षत्रो जाणी लेवां, अन्धमा वस्तु जाय तो जल्दी मले, मंदनेत्रमा लांबा टाइमे मले, मध्यनेत्रमा पत्तो लागे पण मले नहि भने सुनेत्रमा पत्तो य न लागे अने मले य नहि, अन्धनक्षत्रमा गुमायेल १ मुहूर्त चिन्तामणिमां 'अनुराधा' उपकुलमां ने वसिष्ठ संहिता तथा आरंभलिद्धिमां 'कुलोपकुल'मां परिगणित छे 'मूलने वसिष्ठ तथा आरं मसिद्धिकारे कुलमां अने मुहूर्तचिन्तामणि कारे 'कुलोपकुलमां गणपुं छे.' 'शतभिषा'ने वसिष्ठे कुलमां अने आरंभ सि० कारे मुहूर्त चि० कारे 'कुलो ग्कुल' गण्यु छ 'हस्त'ने वसिष्टे 'कुलोपकुल' अने आ० सि०-मु० चि० कारे 'उपकुल' तरीके गणेल छे. Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० [ कल्याण-कलिका - प्रथमखण्डे वस्तु पूर्वमां, मंदनेत्रे दक्षिणमां, मध्यक्षेत्रे पश्चिममां अने सुनेत्रे गयेल वस्तु उत्तर दिशामां जाय छे. नक्षत्रोना देवमानवादि गण -- दस्रादितीज्यमृगमैत्रकरानिलान्त्य-लक्ष्मीशभानि नव देवगणः प्रदिष्टः । पूर्वात्रियान्तक विधातृहरोत्तराणि, धिष्ण्यानि मानुषगणोऽत्र नव प्रदिष्टः ||२२०|| पितृद्विदैवाग्निशतेन्द्रमूलवस्वाहि चित्रर्क्षगणोऽसुराख्यः । देवासुराणां मनुजासुराणां, वैरं महास्नेहमथेतरेषाम् ॥ २२१|| - भा०टी० – अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, मृगशिरा, अनुराधा, हस्त, स्वाति, रेवती अने श्रवण ए नव नक्षत्रोनो गण देवगण कहेल छे. पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाषाढा पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा भरणी, रोहिणी, आर्द्रा आ नव नक्षत्रोनो 'मानवगण' कह्यो छे अने मघा, विशाखा, कृत्तिका, शतभिषा, ज्येष्ठा, मूल, धनिष्ठा, आश्लेषा चित्रा आ नव नक्षत्रोनो 'राक्षसगण ' मानेल छे. देवगण अने मानवगण वालाओने 'राक्षसगण ' वालानी साथे वैर होय छे ज्यारे बीजाओने आपसमा महाप्रीति होय छे. नक्षत्रयोनि अश्वेभमेषभुजगद्वयक्कुक्कुरौतमेषौतुमूषकम होन्दुरुगोलुलायाः । शार्दूलमाहिषगवारिमृगद्वयश्व-कीशोऽथ बभ्रुयुगकी शगवाश्वसिंहाः ॥ २२२॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् मानां भवासदसग्रहः ॥२२ गोकुञ्जराविति यथाक्रममाश्विनादि. भानां भवन्ति खलु कल्पितयोनिल्पां। एतविचार्यमखिलं सदसग्रह - निस्कन्धवित्प्रवरधीविदुषां वरिष्ठैः ॥२२३॥ वभ्ररगं श्वैणमिभेन्द्रसिंह-मोत्वाखुसंज्ञं त्वजवानरं च । गोव्याघ्रमश्वोत्तममाहिषंच, वरंचनार्योपभृत्ययोश्च ॥२२४ भाटो०-अश्विनी आदि २७ नक्षत्रोनी अनुक्रमे-अश्व १, गज २, मेष ३,सर्प ४, सौ ५, श्वान ६, विलाड ७, मेष ८, विलाद ९, उंदर १०, उंदर ११, गौ १२. महिष १३, सिंह १४, महिष १५, व्याघ्र १६, मृग १७, मृग १८, श्वान १९, वानर २०, नकुल २१, नकुल २२, वानर २३, अश्व २४, सिंह २५, गो २६, गज २७, आसर्वकल्पित योनियो छे, आ स बुद्धिशाली ज्योतिषोओ ए शुभ अशुभ विचारवू अने नकुल- सर्प, श्वान-मृग,गज-सिंह, बिलाड-उंदर, मेष-पानर, गो-व्याघ्र, अश्वमहिष, जेवी जातिवेर. वाली योनियो स्त्री पुरुष, राजा राजसेवक, देवदेवपूजक, नगर-नगर निवासीने परस्पर वजेवी. नक्षत्रनाडोआवृत्तिभिर्भस्त्रिभिरश्विभाद्य, क्रमोत्कमात्संगणयेच भानि । यद्यकपर्वण्युभयोश्च धिष्ण्ये, नेष्टान्नार्यों शमेकनाडी।।२२५॥ सा मध्यनाडी पुरुष निहन्ति, तत्पावनाडोखलु कन्यकांच। आसन्नपर्यायसमागताचे वर्षेण साप्यन्तरिता त्रिवः।।२२६॥ एकनाडोस्थिता यत्र गुरुमन्त्रश्च देवता। तत्र देषं रुजं मृत्यु, क्रमेण फलमादिशेत् ॥२२७॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R [कल्याण-कलिका-प्रथम प्रभुः पण्याङ्गना मित्रं, देशो ग्रामः पुरं गृहम् । एकनाडोस्थितं भव्यं. विरह वेधवजितम् ॥२२८॥ चक्रे त्रिनाडिके धिष्ण्य-मेकनाडीगतं शुभम् । गुरुशिष्यवयस्यादे-न वधूवरयोः पुनः ॥२२९॥ भाटी०.-त्रण त्रण नक्षत्रोनी आवृत्तिमोथी क्रम अने उत्क्रमे करी अश्विनी आदि नक्षत्रो गणतां आदि मध्य अन्त्य, अन्त्य मध्य आदि, आदि मध्य अन्त्य, नाडीओमां बधा नक्षत्रो आवी जशे, अश्विनी हृदयभागे आदि नाडीमां, भरणी मध्यनाडीमां, कृत्तिका पृष्टभागे अन्त्यनाडीमां, ते पछी रोहिगी अन्त्यनाडीमां, मृगशिरा मध्यमां अने आर्द्रा आद्यनाडीमां आवशे. आम क्रमोत्क्रमे ३-३ नक्षत्रो गणतां नव आवृत्तिओ वडे २७ नक्षत्रो ३ नाडीओमा समाइ जशे, आम गणतां अश्विनी. आर्द्रा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा मूल, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा आ ९ नक्षको आद्य नाडीमां, भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा. पूर्वाषाढा, धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपदा आ ९ नक्षत्रो मध्यनाडीमां अने कृत्तिका, रोहिणो, आश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढा, श्रवण रेवती आ ९ नक्षत्रो अन्त्यनाडीनां छे, जो वरवधु बन्नेनां नक्षत्रो एक नाडीमां होय तो ते अत्यन्त अशुभ छे. जो ते मध्यनाडीमां होय तो पुरुपर्नु अने ते पासेनी नाडीमां होय तो कन्यानुं मरण निपजावे, एक नाडीगत बनेना नक्षत्रो पासे पासे होय तो एक वर्षमा अशुभ फल करे अने आंतरे होयतो त्रण वर्षे अशुभ करे. ज्यां ऋषि, मंत्र अने देवता त्रणे एक नाडीगत होय त्यां अनुक्रमे द्वेप, रोग अने मरण फल कहे, __ स्वामी, पण्यांगना, मित्र, देश, ग्राम नगर, घरना नक्षत्रो एक माडीगत होय तो श्रेष्ठ छे अने भिन्ननाडीमा होय तो विरुद्ध जाणवां. Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ नक्षत्र-लक्षणम् । एक नाडीगत नक्षत्रो, गुरु शिष्यो, मित्री आदिने मारे शुम छे पण घरकन्याने माटे शुभ नथी. . नाडोदोषापवाद-ज्योतिश्चिन्तामणीरोहिण्या मृगेन्द्राग्नि--पुष्यश्रवणपौष्णभम् । अहिर्बुध्न्यःमेतेषां नाडीदोषो न विद्यते ॥२३०॥ भाल्टी-रोहिणी, आर्द्रा, मृगशिरा, ज्येष्ठा, कृत्तिका, पुष्य, श्रवण, रेवती, उत्तराभाद्रपदा, आ नक्षत्रोने नाडी दोष होतो नथी. नक्षत्रोनी राशिओराशिस्थ तत्र मेषोऽश्विनी च भरणी च कृत्तिकापादः । वृषभस्तु कृत्तिकांहि-त्रयान्वितारोहिणी समार्गार्धा ॥२३॥ मिथुनोमगार्धमार्दा, पुनर्वसोश्चांयस्त्रयः प्रथमे । कर्की च पुनर्वस्वोः, पादः पुष्यस्तथाऽऽलेषा ।।२३२।। सिंहस्तु मंघापूर्वा फाल्गुन्यः पाद उत्तराणां च । कन्योत्तरात्रिपादी, हस्तश्चित्रार्धमाद्यं च ॥२३३॥ तौली चित्रान्त्याधु, स्वातिः पादत्रयं विशाखायाः । स्याद् वृश्चिको विशाखा-चतुर्थपादोनुराधिका ज्येष्ठा ॥२३४॥ धन्वो मूलं पूर्वाषाढाऽपि च पाद उत्तराषाढः । स्यान्मकर उत्तराषाढहित्रितयं श्रुतिर्धनिष्ठार्धम् ॥२३॥ कुंभोऽन्त्यर्धानष्ठाध, शततारापूर्वभाद्रपात्रिपदी। मीनो भाद्रपदाहिस्तथोत्तरा रेवती चेति ॥२३६॥ ... भाल्टो-अश्विनी भरणी कृत्तिका प्रथम पाद-मेप१. कृत्तिका पादत्रय रोहिणी मृगशिरअर्ध-वृष २. मृगशिर अर्घ आर्दा पुनर्वसु पादत्रय-मिथुन ३. पुनर्वसुअंत्यपाद-पुष्प आश्लेषा कर्क-४. मघा. पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी प्रथमपाद सिंह-५. उत्तराफाल्गुनी पादप्रय हस्त चित्रार्ध-कन्या-६, चित्रान्त्याध स्वाति विशाखापादत्रय-तुला Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ [कल्याण-कलिका-प्रथमलण्डे ७. विशाखा अन्त्यपाद, अनुराधा ज्येष्ठा-वृश्चिक ८, मूल. पूर्वाषाढा. उत्तराषाढा प्रथमपाद धनु ९. उत्तरापाढापादत्रय, श्रण, धनिष्टाध मकर १०, धनिष्ठाध शतभिषा, पूर्वाभादग्दारादत्रय कुंभ ११. पूर्वाभाद्रपदा अन्त्य गद, उत्तराभाद्रपदा, रेवती मोन-१२. आम सवा बे वे नक्षत्रोनी १-१ राशि थाय छे एटले २७ नक्षत्रोनी १२ राशिओ थाय छे, राशिओ उपरथी पदार्थों उपर पडतो ग्रहोनो शुभ अशुभ प्रभाव जोवाय छे, तेमज राशिओनो बीजो पण घणो उपयोग छे. शूल नक्षत्रोऐन्द्राजपादाब्जभार्यमाणि, शुलानि भानि क्रमतश्च दिक्षु॥ न याति याता यदि शूलभेषु, सुरेशतुल्यः समरे बलेन। २३७॥ __भाटी-ज्येष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा, रोहिणी, उत्तरा फाल्गुनी आ ४ नक्षत्रो पूर्वादि ४ दिशाओमां अनुक्रमे शूलरुप छ । गमन करनार युद्वमा बलवडे इन्द्रतुल्य होय तोपण ज्येष्ठादि शूलमा पूर्वादि दिशामां प्रयाण करतो नथी.। सर्वद्वारिक नक्षत्रोसवैद्वारिक धिष्ण्यान्य-मरेज्यादित्यमैत्रदत्रसंज्ञानि । तत्र तु यायान्नियतं, धनकीर्तिलभ्यतेऽप्यचिरात् ॥२३८॥ भा टी-पुष्य, हस्त, अनुराधा, अशिनी नामक नक्षत्रो सर्वद्वारिक छे, आ नक्षत्रोमां प्रयाण करनार अवश्य धन तथा कीर्तिने अविलम्बे प्राप्त करे छे. समयविशेषे गमनायोग्यनक्षत्रोस्थिर-साधारणधिष्ण्यैः, पूर्वाहणे नैव गमनं सत् । गमनं नु दारुणः,दिनदलसमये न कार्यमनवरतम् ॥२३९॥ क्षिप्रै परवासर-समये मृदुमित्रैर्न रात्रिमुखे। पग्रगणैनिशि समये-चरधिष्ण्यरुषसि न श्रेष्टम् ॥२४॥ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम्] भाल्टी-रोहिणी, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरा भाद्रपदा, स्वाति, विशाखा, आ ६ नक्षत्रोमा मध्याह्न पहेलां गमन करवू शुभ नथी, ज्येष्ठा, मूल, आर्द्रा, आश्लेषा, आ चार नक्षत्रोमा मध्याह्नकाले कदापि गमन न करवू, पुष्य, अश्विनी, हस्त, आ नक्षत्रोमां मध्याह्न पछीना दिवसमां प्रयाण न करवु । रेवती, चित्रा, मृगशिर, अनुराधा, स्वाति, विशाखा, आ नक्षत्रोमा सांजे रात्रिना मारंभ समयमां गमन न करवू । भरणी, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वा. पाढा, पूर्वाभाद्रपदा, आ नक्षत्रोमां रात्रिना समयमा गमन न करवू अने पुनर्वसु, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, आ नक्षत्रोमां उष:कालमां गमन न कर. सर्वकाले गमनयोग्य नक्षत्रोसर्वस्मिन्नपि समये, सर्वासु च दिग्विदिक्ष्वेव । सर्वद्वारिकधिष्ण्या-न्यपि शुभदान्यतुलमखिलनृणाम्॥२४१।। __भाल्टी-अश्विनी, पुष्य, हस्त, अनुराधा, आ सर्व द्वारिक नक्षत्रोमां सर्वकाले सर्व दिशा विदिशाओमां गमन करवू सर्व मनुष्यो ने माटे अति शुभ फलदायक होय छे. पुष्यनी विशिष्टतापरकृतदोषं निखिलं, निहन्ति पुष्यः परो न पुष्यकृतम् । द्वादशनधनगेन्दौ, बलवान् पुष्यस्वभीष्टदःसततम् ।।२४२॥ प्रत्यरिनैधनसंज्ञो विपत्करो वापि जन्मसंज्ञो वा। पाणिग्रहणं मुक्त्वा , नूनं सर्वार्थसिद्धिदः पुष्यः ॥२४३॥ मृगगणमध्ये सिंह, उडुगणमध्ये तथैव पुष्यश्च । निजबल सहितोऽप्येवं, त्रिविधोत्पातन शक्तिमान् निहतः भाण्टी -परकत, सर्व दोपोनो पुष्य नाश करे छ, पण पुष्य Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક્ષક્ ( कल्याण- कलिका प्रथमखण्डे कुन गुण दोपनो बीजाथी नारा यह शकतो नथी. चन्द्र बारमो के आठमो होय तो पण बलवान् पुष्य हंमेशां अमीष्टफल आपे छे. पुष्य जन्म, विपत् प्रत्यरि के ५ मा तारा रूप होय तोये विवाहने छोडी शेष सर्वकार्यंनो सिद्धि करनारो छे. हरिणगणमां जेम सिंह छे तेत्रोज नक्षत्र गणमां पुष्य बलवान् छे. आम स्वपराक्रमे सहित छतां पण दिव्य भौम आन्तरिक्ष उत्पातो वडे हणायेल पुष्य कार्य साधक शक्तिमान थतो नथो. ज्योतिष तत्त्वकार पुष्यने अंगे लखे छेग्रहेण विद्धोप्यशुभान्वितोऽपि, विरुद्धतारोऽपि विलोमगोऽपि । करोति पुंसां सकलार्थसिद्धिं, विहाय पाणिग्रहणं हि पुष्यः ॥ २४५॥ भाटी - ग्रहवडे विद्ध होय, अशुभ ग्रहाक्रान्त होय, विरुद्ध तारात्मक होय, वक्रिग्रहाध्यासित होय तो पण पुष्य एक विवाह सिवाय मनुष्योना सर्वकार्यांनी सिद्धि करनाते छे. वसिष्ठ पुष्यने अंगे यात्रा विषे कहे छेसर्वदिक्षु प्रशस्तोsपि, पुण्यः सर्वार्थसाधकः । प्रतीच्यां गमने त्याज्यः, सौख्यसंपदमिच्छता ॥ २४६ ॥ भा०दी - सर्व कार्य साधक पुष्य सर्व दिशाओना गमनमां शुभ होवा छतां सुख संपत्तिना इच्छुके पश्चिम दिशाना गमनमां एनो त्याग करवो । नक्षत्र पञ्चक - नक्षत्र गणमां धनिष्ठादि पांच नक्षत्रो विषे प्राचीन ज्योतिपीओवांचकगणनुं खास ध्यान खंत्रे छे, आ पांच नक्षत्रो पैकीनां पूर्वाभाद्र पदा सिवायनां बधां शुभकार्य करवाने योग्य छे छतां अमुक कार्यों Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ मक्षत्र-लक्षणम् ] माटे ए अयोग्य छे. एम संहिताकारोनुं कथन छे. वसिष्ठ कहे छवस्वपरार्धात् पश्चक-धिष्ण्ये गेहस्य गोपनं नैव । दक्षिगदिनुखामनं, दाहं प्रेतस्य काष्ठसंग्रहणम् ॥२४७॥ भा०टो-धनिठानो उत्तर भाग, शाभिषा, पूर्वाभाद्रादा, उताभाद्रपदा, रेवती आ न पंचकनां घर छापg ( ढाकj) नहि दक्षिग दिशा संमुख गमन (यात्रा) करवी नहि, मृतकनो अग्निदाह करवो नहि, काष्ठ संग्रह करवो नहिं । दैवज्ञ वल्लभ ग्रन्थमा लखे छेकुर्यान दारु-तृणसंग्रह-मन्तकाशायानं मृतस्य दहन गृहगोपनं च । शय्यावितानमिह वासवपञ्चके चकेचिदन्ति परतो वसुदैवतार्धात् ॥२४८॥ भा०टी-धनिष्ठा पंचकमां काष्ट-तृण संग्रह, दक्षिण दिशामा गमन, शत्र दाह, गृहगोपन, अने शय्या वणवी एटलां कार्यों करवा नहि, कोइ कहे छे धनिष्ठाना प्रथमाधं पछी ए कार्यो न करवां, - ज्योतिःसागरमां लखे छेछेदनं संग्रहं चैत्र, काष्ठादीनां न कारयेत् । श्रवणादौबुधः षट्के, न गच्छेत् दक्षिणा दिशम् ॥२४९॥ अग्निदाहो भयं रोगो, राजपीडा धनक्षयः । संग्रहे तृणकाष्ठानां, कृते वस्वादिपंचके ॥२५०॥ भा०टी०-विद्वान् धनिष्टा पंचकमां काष्ठादिकन छेदन-संग्रहण न करावें । श्रवणादि नक्षत्र पदमां दक्षिण दिशामां गमन न करे, पंचकमां तृण काष्ठादिकनो संग्रह करवाथी अनुक्रमे अग्निदाह १ भय २ रोग ३ राजपीडा ४ अने धननो क्षय थाय छ । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { कल्याय-कलिका-प्रथमखणे आ सम्बन्धमा गर्ग कहे छेधनिष्ठापञ्चके चन्द्र, सूर्य पैश्यादिपञ्चके । छेदनादि न कर्तव्यं, गृहाथै तृगकाष्ठयोः ॥२५१।। पूर्वार्ध नातिदोषाय, दारुतक्षणसंग्रहे । यानगोपनशप्यायां. संपूर्णी वासवं त्यजेत् ॥२५२॥ केऽप्याहुः संकटे घोरे, पञ्चके पश्च नाडिकाः। क्रमातृतीयपादाद्या, अन्त्यपादावसानगाः ॥२५३।। भाटी-धनिष्ठादि पंचक उपर चन्द्र होय अने मघादि पंचक उपर सूर्य होय त्यारे गृह छावया निमित्ते तृणो-काष्ठोनुं छेदनसंग्रहादि न कर, काष्ठ छेदन-संग्रहमा धनिष्ठानो पूर्वाध बहु दोपकारक नथी पण दक्षिण गमन, गृहगोपन अने शय्या वणवामां तो सम्पूर्ण धनिष्ठानो त्याग करो, कोइ कहे छे-अत्यन्त संकट कालमां पंचकनी पांच पडिओ छोडीने काम करी लेवू, धनिष्ठाना तृतीय चरणनी, शतभिषाना प्रथम चरणनी, पूर्वाभाद्रपदाना द्वितीय चरणनी, उत्तराभाद्रपदाना तृतीय चरणनी अने रेवतीना चतुर्थ चरगनी पांच घटिकाओ संकट काले त्यजवी । व्यवहारसारमां पंचकन फल-- धनिः धननाशाय, प्रागनी शततारका । पूर्वायां दण्डयेद्राजा, उत्तरा मरणं ध्रुवम् ॥२५४॥ अग्निदाहश्च रेवत्यामित्येतत्पंचके फलम् । भाटो-धनिष्ठा धननो नाश करे, शतभिषा प्राणघात करनारी थाय, पूर्वाभाद्रपदामा राजा दण्ड करे, उत्तराभाद्रपदामा निश्चय मरण थाय अने रेवतीमां अग्निदाह थाय, आ प्रमाणे पंचक मां वर्जित कार्य करवानुं फल थाय । आरंभ सिद्धिकार ए विषे लखे छे-- पञ्चकं श्रवणादीनि, पञ्च ऋक्षाणि निर्दिशेत् । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् ] ४४९ केचित्पुनर्धनिष्ठादि, पञ्चकं पञ्चकं विदुः ॥२५५॥ भा टी-श्रवण आदि पांच नक्षत्रोने पंचक कहेवू. कोइ कहे छे-धनिष्ठादि पांचने पंचक कहेवू, वसिष्ठादिना मते धनिष्ठादि पंचक कहे छे. ज्यारे नारचन्द्र तथा आरंभसिद्धिकारना विचारमा श्रवणादि पंचक वर्जित छ। __नक्षत्र विषघटी-वसिष्ठग्वाक्षा ५० जिना २४ व्योमगुणाः ३० खवेदा ४०, इन्द्रा:१४ कुदस्त्रा: २१ खगुणा ३० नखाश्च २० । दन्ताः ३२ खरामाः ३० खयमाः २० पुराणाः १८; क्ष्माबाहवो २१ विंशति २०रब्धि-चन्द्राः१४॥२५६॥ इन्द्रास्तु १४ काष्ठा १० मनवः १४ षडक्षाः ५६, वेदाश्विनो २४ व्योमभुजा २० दशा १० ऽऽशाः १०॥ नागेन्दवो १८ भूपतयो १६ ब्धिदस्त्रा २४, व्योमाग्नयो ३० दस्त्रमुखक्षकाणाम् ॥२५७।। आभ्यः परस्ताद्विषनाडिकाख्यास्त्याज्या श्चतस्रः खलु शोभनेषु । विषाख्यनाडीषु कृतं शुभं गद्, विनाश मायात्यचिराच्च सर्वम् ॥२५८।। कुर्वन्ति नाशं विषनाडिकास्ता, लग्नाश्रितानंशगुणानशेषान् । जन्तून् यथा कुष्ठभगन्दरार्श व्याघातशूलक्षयवातरोगाः ॥२५९॥ कुर्वन्त्युद्राहितां कन्यां, विधवां वत्सरचयात् । अन्यस्मिन्मङ्गले ताश्च, निधनं वाथ निर्धनम् ।।२६०॥ भाल्टी-अश्विनीनी ५० भरणीनी २४ कृत्तिकानी ३० ५७ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे रोहिणीनी ४० मृगशिरनी १४ आर्दानी २१ पुनर्वसुनी ३० पुष्यनी २० आश्लेषानी ३२ मघानी ३० पूर्वा फाल्गुनीनी २० उत्तराफाल्गुनी १८ हस्तनी २१ चित्रानी २० स्वातिनी १४ विशाखानी १४ अनुराधानी १० ज्येष्ठानी १४ मूलनी ५६ पूर्वाषाढानी २४ उत्तराषाढानी २० श्रवणनी १० धनिष्ठानी १० शतभिषानी १८ पूर्वाभाद्रपदानी १६ उत्तराभाद्रपदानी २४ रेवतीनी ३० आदिनी घडी. ओ पछीनी प्रत्येक नक्षत्रनी ४-४ घडीओ विष' घटिकाओ छे, आ विष घटिकाओ शुभकार्यमां त्यागी जोइये । विष घटिकाओमां करेल सर्व शुभकार्यनो सत्वर नाश थाय छे, आ विष घटिकाओ लग्न अने नवांश संबन्धि सम्पूर्ण गुणोनो नाश करे छे, जेम कुष्ठ भगन्दर, अर्श, पक्षाघात, शल, क्षय अने वात व्याधिओ प्राण धारियोनो नाश करे छे, ज्योतिःसागरमां विष घटीनो विषय नीचे प्रमाणे लख्यो छ विवाहव्रतचूडासु, गृहारंभप्रवेशयोः । यात्रादिशुभकार्येषु, विनदा विषनाडिकाः ॥२६१॥ भा०टी०-विवाह, व्रत, चूडाकर्म, गृहारंभ, गृहप्रवेश, अने यात्रा आदि शुभ कार्योमा विष नाडीओ विनदायक छ, विषघटी दोषापवाद दैवज्ञमनोहरेचन्द्रो विषघटीदोषं, हन्ति केन्द्रत्रिकोणगः । लग्नं विना शुभेद्रष्टः, केन्द्रे वा लग्नपस्तथा ।।२६२॥ भा०टी०-- चन्द्र लग्न विनाना केन्द्र स्थानमा अथवा त्रिकोणमां स्थित होय अने ते शुभ ग्रहोनी द्रष्टिमां होय तो 'विषघटीना दोषनो नाश करे छ, तथा लग्नपति केन्द्रमां पडयो होय अने शुभनी द्रष्टिमां होय तो पण विष घटीजन्य दोष विलीन थाय छे. फलप्रदीपकार विषघटीदोषनो अपवाद कहे छे Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् ] विषनाड्युत्थितं दोषं, हन्ति सौम्यक्षगः शशी। मित्रद्रष्टोऽथवा स्वीय-वर्गस्थो लग्नपो भवेत् ॥२६३।। भाण्टी०-सौम्य राशिगत चन्द्र विष नाडीथी उत्पन्न दोपना नाश करे छे, अथवा लग्नाति मित्रनी द्रष्टिमां होय अने स्ववर्ग स्थित होय तो पण विषघटी जन्य दोषनो नाश थाय छे. दृषितनक्षत्रो__ जे जे नक्षत्रोमां जे जे कार्यों विधेय रूपे लख्यां छे, ते नक्षत्रोनी अषित अवस्थामां करवानां छे, क्रूरग्रहाक्रमण, वेध, उत्पात, ग्रहण, आदिथी दूषित थयेल नक्षत्रोमां विहित कार्यों पण सिद्ध थां नथी, तेथी कार्यमां लेवातुं नक्षत्र कोइ पण प्रकारे दूषित तो नथी ? ए वातनो मुहूर्त आपनारे प्रथम विचार करीने समय बताववो, दूषित नक्षत्रो वसिष्ठना मते नीचे प्रमाणे छे, आराय॑िहि केतुभि--राक्रान्तं विद्धभं च तत्सर्वम् । मङ्गलकार्य सततं, त्याज्यं चोत्पातदूषितं धिष्ण्यम् ॥२६४॥ निहतं त्रिविधोत्पातैः, क्रूराकान्तं च विद्धभं निखिलम् । त्याज्यं तच्छुभकर्मणि, नोपादतःपातधिष्ण्यं च ॥२६५।। भा०टी०-मंगल, सूर्य, शनि, राहु, केतु वडे आक्रान्त एटले आ ग्रहो पैकीना कोइपण ग्रह बडे अध्यासित अने विद्ध तथा उत्पातथी दूषित नक्षत्र मंगल कार्यमा सम्पूर्ण त्याज्य करवू, दिव्यभौम आन्तरिक्ष उत्पातो वडे हणायेलं, क्रूर ग्रहोवडे आक्रान्त तथा विद्ध थयेलं अने पात नक्षत्र ए नक्षत्रो शुभ कार्यमां पाद मात्र नहिं पण सम्पूर्ण छोडी देवां. आ संबन्धमा आरंभसिद्धिकार नो मतक्रूरेण भुक्तमाक्रान्तं, भोग्यं ग्रहणभं तथा । दुष्टं ग्रहोदयास्ताभ्यां, ग्रहैभिन्नं च भं त्यजेत् ॥२६६॥ वसिष्ठना मते नाराकान्तं विद्धाधिष्ण्यम् ॥२६॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे __ भा०टी०-क्रूर ग्रह वडे भोगवीने मूकेलं, भोगवातुं अने भोगक्वानु, ग्रहणदुषित, ग्रहोना उदयास्त वडे दूषित अने ग्रहोवडे भिन्न तथा विद्ध नक्षत्र शुभ कार्यमां न लेवु. । दूषितनक्षत्रविषे श्रीपतिक्रूरैर्भुक्तं क्रूरगन्तव्यमृक्ष, क्रूराक्रान्तं क्रूरविद्धं च नेष्टम् । यन्चोत्पातैर्दिव्यभौमान्तरिक्ष-- दुष्टं तद्वत् क्रूरलताहतं च ॥२६७॥ भा०टी०--क्रूर ग्रहो वडे भोगवीने छोडेल, क्रूर ग्रह जे उपर जनार छे. अथवा क्रूर वडे आक्रान्त, अने क्रूरना वेघे विद्ध नक्षत्र शुभ काममां लेबु इष्ट नथी, वली दिव्य, भौम, आन्तरिक्ष उत्पातोथो दूषित अने क्रूरनी लत्ता बडे हणायेल नक्षत्र पण दूषित ज गणवू । कश्यपना मते पीडित नक्षत्रोरव्यङ्गारकभास्करि, भोगापन्नं विधूमितं शिखिना । ग्रहभिन्नं ग्रहयुद्धं, सोपप्लुतमुल्कयाऽभिहतम् ॥२६८॥ ग्रहणगतं चैव तथा, पश्चात्संध्यागतं च विद्धर्भम् । विविधोत्पातै र्दुष्टं, पीडितमृक्षं निजानीयात् ॥२६९॥ भा०टी०---रवि मंगल शनि वडे आक्रान्त, केतुनी शिखावडे धूमित थयेलं. ग्रहवडे भिन्न, ग्रहयुद्ध वडे पीडित उपप्लयो वडे दृषित उल्कापातथी ताडित, ग्रहणमां आवेल, पश्चिम सन्ध्यागत, विद्ध, दिव्य-भौमादि उत्पातो वडे दुषित, ए नक्षत्रोने पीडित नक्षत्रो जाणवां. 'दुष्टं ग्रहोदयास्ताभ्यां' एटले जे नक्षत्रमा ग्रहोगें उदयास्तमन थयु होय ते नक्षत्रने दृषित नक्षत्र आरंभ सिद्धिकारे का छे, पण आ मान्य ताने कोइ संहितार्नु अथवा अन्य ग्रन्थनुं समर्थन मरतुं जणायुं नथी.। संहिताप्रदीपकार ए विषयमा लखे छे-- Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् । विद्ध' व्योमचरैर्विभिन्नमपि यल्लत्ताहतं राहुणा, युक्तं क्रुरयुतं' विमुक्तमथय भोग्यं तथोपग्रहैः । दुष्टं यद् ग्रहणोपगं पशुपतेश्चण्डायुधेनाऽऽहतं,१० चोत्यात 'ग्रहयुद्ध १२पीडितमथो यद्धमित केतुना ॥२७०॥ पश्चात् सन्ध्यागतं४ चोल्का-ऽभिहतं५ पापदृषितं । यच्चैकार्गलविद्धं तत्, पीडितं भं विनिर्दिशेत् ॥२७१।। भा०टी०-ग्रहोवडे वींधायेल,भेदायेल, अथवा लत्तावडे हणा येल, गहु सहित, क्रूरयुत, क्रूरमुक्त, अथवा क्रूर भोग्य, उपग्रह वडे दुष्ट, ग्रहण वडे दूषित, महापात वडे ताडित, उत्पात तथा ग्रहयुद्ध वडे पीडित, केतु बडे धूमित, पश्चिममा सन्ध्या समये देखातुं, उल्कापात वडे हणायेलं, पाप ग्रहोए दुषित अने एकागलमा विद्ध थयेल नक्षत्रने 'पीडित नक्षत्र ' कहे. दूषित नक्षत्र वा पीडित नक्षत्रनी शुद्धि विषे संहिता प्रदीपकार. दोषैरमीमियंदुपद्रुतं तत्, तावन्न दृष्टं शुभकर्मणीष्टम् । यावन्न भुक्त्वा शशिना विमुक्तं, ततो भवेन्मङ्गलकर्मणीष्टम् ॥२७२।। भाण्टो०-आ वधा दोषो वडे अभिभूत थयेल नक्षत्र त्यां सुधी शुभ कार्यमा इष्ट गणातुं नथी ज्यां सुधी चन्द्रमा एने भोगवीने न छोडे, चन्द्र भोगव्या पछी ते नक्षत्र शुभ कार्य माटे योग्य गणाय छे, ___ आम छतां आ विषयमा विद्वानोमा एक मत न होवाथी संहिताप्रदीपकार पोतानी व्यवस्था आपे छे-- इत्थं मिथो भिन्नमतं वचोभिविसंवदन्ति व्यवहारदक्षाः। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका - प्रथभखण्डे प्रशाम्यते येन च यश्च दोषस्तं पूर्वशास्त्रानुमतेन वक्ष्ये ॥ २७३ ॥ पश्चात्सन्ध्यासंस्थितं खेटयुद्धोस्पातैर्दुष्टं घूमितं केतुना च । उल्कापातादुष्टमुल्काहतं वा, भिन्नं चैषां चन्द्रभोगेण शुद्धिः || २७४ || सकूरचन्द्र योगेन, शुद्धमुत्पात दूषितम् । सूर्य भूक्तं सदा शुद्ध, धिष्ण्यभोगं विना विधोः ॥ २७५॥ ४५४ भा०टी० - - आ प्रमाणे व्यवहारचतुर पुरूषो आपसमां भिन्नमत अने वचनो वडे विसंवादनुं प्रदर्शन करे छे. माटे जे कारणे जे दोपनी शान्ति थाय ते कारण पूर्वशास्त्रानुसारे कहुं छं. पश्चिम सन्ध्या गत १ ग्रहयुद्ध दूषित २ केतुवडे धूमित ३ उल्कापात दूषित ४ वा उल्का पातवडे ताडित ५ आ बधां दुषित नक्षत्रो चन्दना भोगव्या पछी शुद्धथाय छे, उत्पात दूषित नक्षत्र क्रूर सहित चन्द्रना योगथी शुद्ध थाय छे, ज्यारे सूर्याक्रान्त नक्षत्र सूर्यथी भुक्त थतां ज सदा शुद्ध होय छे. तेने चन्द्रभोगनी जरूर नथी. राहुभुक्तं त्रिभिर्भोगैः, शुद्धं ष‌भिर्ग्रहोपगम् । चतुर्भिः शनिभोगेन, दुष्टं द्वाभ्यां कुजेन च ॥ २७६ ॥ भा०डी० - राहू भुक्त नक्षत्र चन्द्रना त्रण भोगोथी, ग्रहणगत छ भोगाथी, शनि भोगथी दुष्ट चार भोगोथी, अने मंगलमुक्त चन्द्रना वे भोगोथी शुद्ध थाय छे । वक्री खगश्चेत् पुनरेति दग्धं, तत्पूर्वमृक्षं नहि धूमितं स्यात् । तदप्यतिक्रम्य यदेति पूर्व, सक्रूरदोषोऽपि च नास्ति तस्य ॥ २७७|| Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम्] पक्षान्तरेण ग्रहणद्वयं स्याद् , यदा तदाद्य ग्रहणोपभङ्गम् । पश्चाद्धि रूद्धं भवति द्वितीयं, ग्रहोपगं शुध्यति भोगषट्कात् ॥२७८॥ भाण्टी०-चक्री क्रूर ग्रह पाछो पूर्वना दग्ध नक्षत्र उपर जाय छे त्यारे तेथी पूर्वनुं नक्षत्र घुमित थतुं नथी. अने तेनुं पण अतिक्रमण करी तेनी पण पहेलानां नक्षत्र उपर जाय छे त्यारे ते नक्षत्र सक्रूर होवा छतां ते क्रूर दृपित गणातुं नथी । पन्दर दिवसने आंतरे जो बे ग्रहण थाय तो प्रथम ग्रहण गत नक्षत्रना दोपनो भंग थाय छे. अने पछीना ग्रहण- नक्षत्र दूषित पाय छ जे छ वार चन्द्रना भोग व्या पछी शुद्ध थाय छे.' पीडित नक्षत्र पवादःएकस्मिन्नपि धिष्ण्य, भिन्ने शौ खलग्रहे शशिनि। तच्चन्द्रः कुर्याद्विवाह-यान दिकं कर्म ।।२७९॥ भा टो०-एक नक्षत्र उपर क्रूर ग्रह अने चन्द्र बन्ने होय छतां ते नक्षत्र द्विराशिक होइ क्रूराधिष्टित चरणनी गशि जुदी होय अने चन्द्राधिष्ठितनी जुदी तो ते नक्षत्रमा विवाह यात्रादिक करवां । उदाहरण-मृगशिरा नक्षत्रना प्रथम अथवा द्वितीय चरणमा चन्द्र छे. अने जीजा या चोथा चरणमां कर ग्रह छे, आवी स्थितिमां मृगशिरना प्रथम द्वितीय चरणमा चन्द्र होय त्यां सुधी मृगशिरमां शुभकार्य करवामां दोष नथी। ___ ज्योतिष्प्रकाशमा लखे छे, १ जो संपूर्ण ग्रहण होय तो छ भोगे, अर्ध ग्रहण होय तो ३ भोगे अओ पाद ग्रास होय तो १ भोग पछी ग्रहण नक्षत्र शुद्ध थाय छे, एम गन्थान्तरोमां कहेल छे. । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ [ कल्याण-कलिका-प्रथमस्त्रण्डे दोषैर्मुक्तं तु नक्षत्रं, कर्मयोग्यं च तद्भवेत् । भानुनो शशिना वापि-भुक्तं सौम्यग्रहैरपि ॥२८०॥ भाटी०-क्रूराक्रान्तादि दोषोथी मुक्त थया पछी सूर्य वडे चन्द्र बडे अथवा अन्य कोइ पण सौम्य ग्रह-बुध, गुरू, शुक्र वडे भोगवाया पछी ते शुभ कर्मने योग्य थाय छे.. ग्रहण तथा उत्पात दूषित नक्षत्रनी शुद्धिविषे नारद ग्रहणोत्पातभं त्याज्यं. मङ्गलेषु ऋतुत्रयम् । यावच्च रविणा भुक्त्वा, मुक्तं तद्दग्धकाष्ठवत् ॥२८१॥ भा०टो०-ग्रहणनक्षत्र तथा उत्पातनक्षत्र ३ ऋतु पर्यन्त मंगलकार्योमा त्यागवू, ज्यां सुधी सूर्ये भोगवीने मूकेलं ते दग्ध काष्ट तुल्य छे. विवाहवृन्दावनमा लखे छे-- यस्मिन्धिष्ण्ये वीक्षितौ राहुकेतू, भेदस्तारा खटयोयत्र च स्यात् । आषण्मासँस्तित्र लग्नेन्दुभाजि, भ्राजिष्णु स्यान्नो शुभं कर्म किश्चित् ॥२८२।। भाण्टी-जे नक्षत्र उपर राहु अथवा केतु देखाया होय एटले के जे उपर ग्रहण थयु होय, अथवा केतु ( पूछडियो तारो) उग्यो होय अने जे नक्षत्रमा कोइ ग्रहे नक्षत्रना भेद कयों होय ए त्रणे नक्षत्रोमा चन्द्र या लग्न होय त्यारे करेलु कंइ पण कार्य सफल थतुं नथी. अन्य ग्रन्थकारोनो ए विषे अभिप्रायभुतं भोग्य च नो त्याज्यं, सर्वकर्मसु सिद्धिदम् । यत्नात्याज्यं तु सत्कार्य, नक्षत्रं राहुसंयुतम् ॥२८३॥ भाण्टी०- क्रूर भुक्त एटले क्रूरे भोगवीने छोडी दीधेलं अने क्रूरवडे हजो भोगववान होय ए बंने प्रकारना नक्षत्रो सर्व कार्योमां Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र - लक्षणम् ] LE सफलता आपनाएं छे माटे त्यागवानी आवश्यकता नथी, जे नक्षत्र उपर राहुनुं भ्रमण चालु होय ते नक्षत्र यत्न पूर्वक शुभकार्योमां वर्जित करं जोड़ये | नक्षत्रसन्धि अने नक्षत्र गण्डान्तयदन्तरालं पितृसायोश्च मूलेन्द्रगोरश्विन पौष्णयोश्च । भसंधिगण्डान्तमिति त्र्यं तद्यामप्रमाणं शुभकर्महन्तृ । २८४ ॥ अहिवासव पौष्णानामन्त्ययामार्धमृक्षसंधिः स्यात् । पितृमूलाश्विनभाना -मादौ यामार्धमृक्षगण्डान्तः ||२८५|| भान्टी -- आश्लेषा तथा मघा, ज्येष्ठा तथा मूल अने रेवती तथा आश्विनी नक्षत्रोनी संधियो ते याम प्रमाणवाला ऋण गण्डान्तो शुभ कार्यनो नाश करनारा छे. एटले आश्लेषा ज्येष्ठा रेवतीना अन्तिम यासार्थो याने नक्षत्र भोगना पोडशांशो नक्षत्र सन्धिओ अने मघा मूल अश्विनीना आय यामार्थो नक्षत्र गण्डान्तो छे. नक्षत्र गण्डान्त विषे श्रीपति रत्नमालामां कहे छेपौष्णाश्विन्योः सार्पपित्र्याख्ययोश्च यच्च ज्येष्ठामूलयोरन्तरालम् । तद् गण्डान्तं स्याच्चतुर्नाडिकं हि, यात्राजन्मोद्वाहकालेष्वनिष्टम् ॥ २८६ ॥ भा०डी० - रेवती - अश्विनी, आश्लेषा मघा, अने ज्येष्ठा-मूल बच्चेनुं ४ घडीनुं जे अन्तराल ते गण्डान्त छे, आ गण्डान्त यात्रा, जन्म, विवाह, आदिना समयमां होय तो अनिष्ट फल आपे छे. सूर्य सिद्धान्तमां आ नक्षत्रोना अन्त्य - आदिना अर्ध अर्ध चरणो, लल्लना मते अन्त्य - आद्यषडंशोने गण्डान्न जणाव्या ले, ज्यारे ज्योतिःसागरमा एनी नीचे प्रमाणे व्यवस्था है अश्विनी - पित्र्य-मूलादौ त्रि वेद नव नाडिकाः । ५८ - Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ [ कल्याण-कलिका-प्रथभखण्डे रेवती-शाक्र-सार्वान्ते-मास-शक्र-शिवास्त्यजेत् ॥२८७॥ भाटो०---अश्विनी ३ मघा ४ अने मूलनी ९ आदिनी अने रेवती आश्लेषा ज्येष्ठाना अन्तनी अनुक्रमे १२-१४-११ घडीओनो गण्डान्त तरीके त्याग करवो। आ विषे राजमार्तण्डन कथन-- यामं यवनाधिपति-स्तदर्धभागं च भागुरिः प्राह । दण्डप्रमितं गण्ड, पूर्वापरतोऽगिरामीशः ॥२८८॥ भा०टी०-यवनाचार्य १ प्रहरपरिमित नक्षत्र गण्डान्त माने छ, भागुरि ऋषि अर्ध प्रहर प्रमाण नक्षत्र गण्डान्त माने छे, ज्यारे बृहस्पति १ घडी नक्षत्रान्तनी अने १ घडी नक्षात्रादिनी गण्डान्त रूपे त्याज्य गणे छे. ___ गण्डान्त विषे आरंभसिद्धिगण्डान्तं च त्यजेत् त्रेधा, लग्नेतिथ्युडुषु त्रिषु । प्रत्येकं त्रित्रिभागान्तर-धैंकद्विघटीमितम् ॥२८९॥ भाण्टी--लग्न, तिथि, नक्षत्र, आ त्रणेना त्रीजा वीजा भागने आंत अनुक्रमे अर्ध घटी, एक घटी, अने बे घडी प्रमाणनो समय गण्डान्त होय छे, त्रणे प्रकारना गण्डान्तने शुभ कार्यमा त्यागवो, भावार्थ ए छे के १२ लग्नोनो, १५ तिथिओनो अने २७ नक्षत्रोनो श्रीनो त्रीजो भाग अनुक्रमे ४ लग्नो, ५ तिथिओ अने ५ नक्षत्रोनो याय छे, कर्क ने सिंह वृश्चिक ने धन, मीन ने मेष वच्चेनी अर्धी घडी लग्न गण्डान्त छ, पांचम ने छट्ट, दशम ने अग्यारस, पूनम ने एकम बच्चेनी १ घडी तिथि गण्डान्त अने आश्लेपा ने मघा, ज्येष्ठा ने मूल रेवती ने अश्विनी वच्चेनी बे घडीओ नक्षत्र गण्डान्त , जे शुभ कार्यमा अवश्य त्याज्य छ। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् । ___ गण्डान्त विषे नारद--- सार्पेन्द्रपौष्णधिष्ण्यान्ते, षोडशांशा भसन्धयः। तदनभेष्वाग्रजाताः, पापा गण्डान्तसंज्ञकाः ॥२९॥ भाटो०-आश्लेषा ज्येष्ठा अने रेवतीना अन्तिम षोडशांशनुं नाम 'भसंधि ' एटले नक्षत्र संधि छे, अने आ त्रणे नक्षत्रोनी आगे. ना मघा, मूल, अश्विनीना आद्य पोडशांशो घणा अशुभ छे, ते गण्डान्त संज्ञक छ। गण्डान्तविषयक भिन्न वाक्योनी ज्योतिःसागरमां व्यवस्थाकथयति वराहमिहिरो, विलोक्य वाक्यानि गण्डविषये च । गण्डं दण्डप्रमितं, पूर्व पश्चात्तयोर्मध्यात् ॥२९॥ भा०टी०-वराहमिहिर गण्डान्त विषयक विविध वचनोने जोइने कहे छे-गण्डान्त बे बच्चेना आंतरामा घडी १ पूर्वनी घडी १ पछीनी गणी नक्षत्र गण्डान्त २ घडीनो वर्जयो। नक्षत्र, योग, तिथि, संधि विषे विवाहवृन्दावन-- नक्षत्र योग तिथि संधिषु नाडि कैका, । तिथ्यष्टविंशतिपलैः सहितोभयत्र ॥२९२॥ भाटी०--कोइ पण बे नक्षत्रो-योगो-तिथिओनी संधिओमां बने तरफनी १-१ घडो साथे अनुक्रमे ३०-१६-४० पलो संधिगत छोडवी, अर्थात्-नक्षत्र संधि २ घडी ३० पलनी, योग संधि २ घडी १६ पलनी तिथि संधि २ घडी ४० पलनी शुभ कार्यमा त्याग करवी.। ज्योतिनिबन्धमां भसंधि-भगण्डान्त अने तेनुं फलसापँन्द्र पौष्णभेष्वन्त्य-षोडशांशा भसंधयः । तदनभेष्वाद्यपाद-जाता गण्डान्तसंज्ञिताः ॥२९३॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे उग्रं च संधित्रितयं, गण्डान्तत्रितयं महत् । मृत्युप्रदं जन्म-यान-विवाह-स्थापनादिषु ।।२९.४।। भाष्टी०--आश्लेषा-ज्येष्ठा-रेवती नक्षत्रोना अन्तिम पोडशांशो नक्षत्रसंधिओ कहेवाय छे. अने आ नक्षत्रोनी आगेना मघा-मूलअश्विनी नक्षत्रोना आद्यपोडशांशो भगण्डान्त कहेवाय छे. आ त्रण उग्रभ संधिओ अने त्रण महान् नक्षत्र गण्डान्तो जन्म, यात्रा, विवाह, प्रतिष्ठा आदिमा मृत्युदायक छ । च्यवनऋषि गण्डान्तदोषनी परिहार कहे छतिथ्थादीनां संधिदोषं, तथा गण्डान्तसंज्ञितम् । हन्ति लाभगतश्चन्द्रः, केन्द्रगा वा शुभग्रहाः ।।२९५।। भा०टी०-तिथि आदिना संधि दोप तथा गण्डान्त नामक दोषने लाभस्थानमा रहेलो चन्द्र अथवा केन्द्र स्थानमा रहेला शुभ ग्रहो नष्ट करे छे। सर्व गण्डान्तदोषोनो वसिष्टे आपेलो परिहार - गण्डान्तदोषमखिलं, मुहूर्तोऽभिजिदाह्वयः। हन्ति यद्वन्मृग व्याधः, पक्षिसंघमिवाग्विलम् ॥ भा०टी०-' अभिजित् ' नामक मुहूर्त मण्डान्त दोषनो सम्पूर्ण नाश करे छे, जेम शिकारी सर्व पक्षि समुदायनो नाश करे छे. उपग्रहो वसिष्ठसंहितायाम्दिनकरभात् सप्तमभं, भूकम्पं पञ्चमःमिति विदात् । शूलोपग्रहमष्टमभं, दशमई चाशनिं च विज्ञेयम् ॥२९६॥ केतुरुपग्रहदोष-स्त्वष्टादशमं च दंडसंज्ञश्च । पञ्चदशं दशनवम, चोल्कापातं चतुर्दशं पातः ॥२९७॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् मोघोपग्रह दोषो, निर्धातकम्पवनपरिवेषाः। एकोत्तरविंशतिभा-दुक्ताःक्रमशो ह्युपग्रहा दोषाः॥२९८॥ हिमकिरणे त्वेषु युते, शुभकार्य मृत्युदं नृणाम् । उद्वाहादिषु सततं, विचार्य लग्नं वदेद् धीमान् ॥२९९।। __ भाण्टी-मूर्य नक्षत्रथी मातमुं भूकम्प, पांचमुं विद्युत्, आठमुं शूल उपग्रहवालं अने दशभु अनि उपग्रह सहित होय छे. चउदमुं पात,पन्दर, दण्डपात, अढारभु केतु अने आगणीशमुं उल्कापात उपग्रहना दोषे दुषित होय छ । एकवीश बावीश त्रेवीश चोवीश अने पञ्चाशमुं आ पांच नक्षत्रो अनुक्रमे मोध, निर्धात, कम्प, यन्त्र अने परिवेष नामक उपग्रहोना दोषे दुषित होय छे । आ उपग्रह दोपवाला नक्षत्र उपर चन्द्रमा होय ते वखते करातुं कोइ पण शुभकार्य मनुष्योने मृत्युदायक थाय छे. माटे बुद्धिमाने विवाह आदिनु लग्न आफ्तां आ उपग्रहोनो सदाय विचार करीने लग्न वतावg. वसिष्ठ तेमज एमना पछीना ल्लल, श्रीपति विगेरे विद्वानोए वसिष्टने अनुसारे दशमा नक्षत्रने अशनि उपग्रहवाळु का छे. ज्यारे नारदजी नीचे प्रमाणे नवमा नक्षत्रने अशनि उपग्रह कहे छे--- भूकम्पः सूर्यमात सप्त-मः विद्युच्च पञ्चमे । शुलोऽष्टमे च नवमे-ऽशनिरष्टादशे ततः ॥ ३०॥ भाण्टी०---सूर्यना नक्षत्रथी सातमा नक्षत्रन कम्प, पांचमा उपर विद्युत्, आठमा उपर शूल, नवमा उपर अनि, अने ते पछी अढारमा नक्षत्रे केतु उपग्रह होय छे. उपग्रहो विषे उदयप्रभदेवमूरि-- नोपग्रहास्तुभूत्यै, भूपा , दि ७ फणी ४न्द्र १४ तिथि १५ धृति १८ युगले १९ । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे रविभात्तथैकविंशा-दिषुपञ्चसु २१-२२ २३-२४-२५-चरति भेष्विन्दौ ॥३०॥ भा०टी०-सूर्य नक्षत्रथी ५ मा ७ मा ८ मा १४ मा १५ मा १८ मा १९ मा २१ मा २२ मा २३ मा २४ मा २५ मा नक्षत्र उपर चन्द्र भ्रमण करतो होय त्यारे ते दिन नक्षत्र उपर उपग्रह होय छे, उपग्रह दोष दूपित नक्षत्र शुभकार्यमां कल्याणकारी यतुं नशी, माटे तेनो त्याग करवो. उपग्रहनो विषय अने फल--- गृहप्रवेशे दारिद्रय, विवाहे मरणं भवेत् । १ पूर्वोक्त ब्राह्मण विद्वानो अने जैनाचार्ये लखेल उपग्रहोनी संख्याना संबन्धमा विद्वानोए लक्ष्य आपवा जेवू छे, वसिष्ठ, नारदादि संहिताकारो अने लल्ल श्रीपति आदि प्रसिद्ध ग्रन्थकारो १३ उपग्रहोनो निर्देश करे छे, ज्यारे जैनाचार्य १२ उपत्रहो ज बतावे छे. वसिष्ठ आदि विद्वानो १० मा अने नारद ९ मा नक्षत्रने अशनि नामक उपन्त्रह दोषदुष्ठ बतावे छे, त्यारे जैनाचार्यों ९ मा १० मा बंने चन्द्र नक्षत्रोने ( रवियोग) रुपे शुभ गणे छ आनुं कारण ए छे के जैनाचार्यो घणा पूर्व कालथी रयियोग, कुमारयोग, राजयोग, स्थविरयोगोने जाणता हता लगभग छट्ठा सेंका पहेलांना पाश्री ग्रन्थमां रवियोग, राजयोग, कुमारयोग आदिनुं वर्णन मले छे, ज्यारे ब्राह्मण विद्वानोने घणो ज मोडो आ जैनयोगोनो परिचय मल्यो, ब्राह्मण विद्वानोना मध्यकालीन ग्रन्थो रत्नकोष, रत्नमाला, आदिमां रवियोगोनी चर्चा नथी, मात्र मुहूर्त्तचिन्तामणिमां के एना निकट कालीन ग्रन्थोमा पहेल वहेलां रवियोग दर्शन दे छे. ज्यारे तेमां के ते पछीना ग्रन्थोमां पण कुमारयोग आदि शुभयोगोनां क्यांये दर्शन थतां नथी, एनो मतलब एज छे के उक्त ४ योग जैनोना घरना छे. जैनाचार्यो हजारो वर्षोथी सूर्यनक्षत्री ९ मा १० मा नक्षत्रोने शुभ रवियोगोमां गणता हता. अने तेमां शुभकायों करता हता, एज कारणथी उदयप्रभदेवसूरि आचार्य उपग्रहो बार लख्या छे, अने जैनेतर विद्वानोए तेर लख्या छे. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र - लक्षणम् ] प्रस्थाने विपदः प्रोक्ता, उपग्रहदिने यदि ॥ ३०२ ॥ भा०टी० उपग्रहथी दूषित नक्षत्रमां गृह प्रवेश करे तो धनहानि थाय, विवाह करे तो मरण थाय, प्रयाण करे तो विपत्तिमां पडे. उपग्रहो पैकीना ८ विशेष अशुभ उपग्रहो अने तेनुं फलविद्युन्मुख ५ शूला ८ शनि १४ केतू १८ल्का १९ व २२ कम्प २३ निर्घाताः २४ । ङ-ज-ढ-द-ध-फ-ब-भ संख्ये रविपुरत उपग्रहाधिष्ये ॥ ३०३ ॥ फल मङ्गज १ पति मरणे २. दशमदिना न्तस्तथाऽशनिपातः ३ । मानुजपति ४ धननाशौ ५ दोःशील्यं ६ स्थान ७ कुलघानौ ८ ||३०४ ॥ भा०टी० - सूर्य नक्षत्रधी आगेना ५ मा ८ मा १४ मा १८मा १९ मा २२ मा २३ मा भने २४ मा नक्षत्र उपर अनुक्रमे विद्युन्मुख, शूल, अशनि, केतु, उल्का, वज्र, कम्प अने निर्घात नामक उपग्रहो होय छे, आ उपग्रहमा विवाह धाय तो अनुक्रमे पुत्र मरण १, पति मरण २, दस दिवसमां अशनि (वज्रपात ) ३, देवर सहित पति मरण ४, धननाश ५, दुराचारिता ६ स्थानहानि ७, अने कुलहानि ८, रूप फल थाय छे. फलप्रदीपम उपग्रहोनुं फलनिरूपण - विधुत्पुत्रविनाशिनी विधवता शूलेशनिर्बन्धुहा, निर्घातपि च कम्पने च नितरां कम्पे च केनौ क्षतिः । वज्रे वा परिवेषकेऽन्यनिरता निर्धातपाते मृतिः, दण्डोलका विगते भवेद्विधनिनी चैत्र फलं संस्मृतम् ||३०५ || भा०टी० -- विद्युत्मां पुत्रनुं मग्ण, शूलमां वैधव्य, अशनिमां ४६३ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ [ कल्याय कलिका प्रथमखण्डे बन्धुमरण, निर्घात-कम्पन-कम्प अने केतुमा क्षय, वज्र तथा परिवेषमा परिणीता दुराचारिणी, निर्घात तथा पातमा मृत्यु, दण्ड तथा उल्का उपग्रह गत नक्षत्रमा परणेल स्त्री धन रहित थाय छे. आ उपग्रडोनुं फल बताव्युं छे । गर्ग कंटलाक उपग्रहोनो परिहार कहे छे..पूर्वाह्न दण्डदोषः स्या-दपराण्हे तु मोघकः । उल्कास्यादर्धरात्रे तु, कम्पोऽहोरात्रदृषकः ॥३०६।। कम्पोल्कादण्डमोघानां, स्वरमासदशर्तवः १७।१२।१६। आदितो घटिकास्तेषु, वर्जनीयाः पराः शुभाः ॥३०७॥ उपग्रहेषु लत्तायां, तथा चण्डायुधादिषु । ग्रहोऽस्ति यत्प्रमाणांशे, विडोंशस्तत्प्रमाणकः ॥३०८।। भा०टी०-दण्ड उपग्रहनो दोप मध्याह्न पहेला होय छे. मोघनी दाप बपोर पछी लागे ले. उल्का अर्धरात्रे दोषकारिणि होय छे. अने कम्प रात दिनने दृपित करनार होय छे.. कम्पादि च्यार उपग्रहोनो आयघटिकाओना न्यागे परिहार कहे छे-कम्पनी पहेली ७ घडी, उल्कानी १२, दण्डनी १० अने मोधनी ६ आदिनी घडीओ वर्जवी ते पछीनी घडिओ शुभ छे. उपग्रहोमां, लत्तामा तथा चण्डीश चण्डायुध आदिमां नक्षत्रना जे चरण उपर ग्रहो होय तेना प्रमाणणां नक्षत्र चरणनो वेध करे छे. वसिष्ठ उपग्रहनो देश भेदे परिहार कहे छे--- उपग्रहक्ष कुरुवाल्हि केषु, कलिंग बंगेषु च पातितं भम् । सौराष्ट्रशाल्बेषु च लत्तितं भं, देशेषु वज्य शुभविद्धभं च ॥३०९॥ भा०टी०-उपग्रह युक्त नक्षत्र कुरु तथा बल्ख देशमां, पात नक्षत्र बंग तथा कलिंगमां, लातवालुं नक्षत्र सौराष्ट्र तथा राजस्थानमा Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् ४६५ अने विद्ध नक्षत्र सर्वदेशोमां शुभकामोमां वर्जवू. नक्षत्र-ग्रह कूट:यस्मिन् धिष्ण्ये यः प्रभवति, तदेव तजन्मभ विजानीयात् । दशमक्ष कर्माख्यं. संघाताख्यं च षोडशं धिष्ण्यम् ॥३१०॥ समुदाय द्विनवमभं, य?नाश त्रयोविंशम् (धिष्ण्यं)। पञ्चोत्तरविशं च, मानमसंज्ञ महाष्टम् ॥३११॥ षड् भानि च शुभकर्म ग्येतानि विनाशदानि जन्तूनाम् । राज्ञां विशेषमानि तु, देवयोवजातिपटवन्धानि ॥३१२॥ नव विष्ण्यानि नृपाणां, बिनाशदान्येव सर्वकार्येषु । अत एवाग्विलविषये, नृनं वानि सर्वदात्यर्थम् ॥३१३॥ कृतमग्विलं जन्मनि भे, विशमायाति तत्कार्यम् । कर्मणि कर्म विनाश, संघात में शरीरनाशः स्यात्।।३१४॥ रोगभयं समुदाये, वैनाशिकभे पि (कार्य) नाशः स्यात् । हृदयभयं मानसभे, देशजभे राजडा स्यात् ॥३१५।। जात्यः जातिभय-मभिषेकः च राजनाशः स्यात् । क्रूराम्बरचरनिहतेष्वेषुच भषु प्रभूतपीडा स्यात् ॥३१६॥ __ भा०टी०--जेनो जे नक्षत्रमा जन्म थाय छे. तेनुं ते जन्म नक्षत्र जाणवू, जन्म नक्षत्रधी दशमं कर्म', सोलमुं 'संघात', अढारमु समुदाय', त्रेवीशर्मु विनाश' अने पच्चीसमुं 'मानस' नामक दुष्ट नक्षत्र होय हे. सर्व प्राणियोने आ ६ नक्षत्रो शुभ कायोनो विनाश करनागं छे, देश नक्षत्र, जाति नक्षत्र, तथा पट्टबन्ध नक्षत्र एटले राज्यारोहण नक्षत्र आ ३ अने सर्व साधारण ६ मली ९ नक्षत्रो राजाओने सर्व कामोमां विनाश देनारां छे. एटला. माटे राजाओए तमाम कार्योमा आ ९ नक्षत्रो सदाय वर्जयां जोइये, जन्म नक्षत्रमा करेल कोइ पण कार्य नाश पामे छे, कर्म नक्षत्रमा कार्य ५८ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे करतां ते कर्म नाशक निवडे छे, संघात नक्षत्रमा कोइ कार्य करता शरीरनो नाश करे छ, समुदायमा कार्य करतां रोगनो भय थाय अने नाशिक नक्षत्रमा करेल कार्य विनाशकारी थाय छे. मानस नक्षत्रमा कार्य करे तो मनमा भय उत्पन्न करे छे. देश नक्षत्रमा कार्य करतां राजाने पीडा थाय, जाति नक्षत्रमा कार्य करतां जातिने भय अने राज्याभिषेक नक्षत्रमा कार्य करे तो राजानो नाश थाय, उक्त नक्षत्रो क्रूर ग्रहो वडे उपहत ( आक्रान्त, विद्ध लत्तित, धूमित,) होय तो घणी ज पीडा उत्पन्न करे छे. यस्य नरस्य हि जन्मनि, जन्मनि धिष्ण्ये निपीडिते खचरैः। अतिदुःखामय शोक, भयं प्रवासः शस्त्रोभयं भवति ॥३१७।। यस्मिन् धिष्ण्ये, विपदि, प्रत्यरिभे स्थाननाशनं भवति । निधनं नैधनधिष्ण्ये, बन्धनमथवा स्थिते पापे ॥३१८।। शुभखचरेषु स्थितेषु, नक्षत्रेषु त्वल्पहानिः स्यात् । मध्यम फलदाः सौम्याः, पापाश्चोक्तभेषु भीतिकराः॥३१९॥ भा०टी०-जे मनुष्यनुं जन्म नक्षत्र एटले जन्म तारा क्रूर ग्रहोवडे पीडित थाय छे तेने अतिशय दुःख, रोग, शोक, भय, प्रवास, अने शत्रुनो भय प्राप्त थाय छे. विपद् वा प्रत्यरि नक्षत्रना पीडित थवाथी स्थाननो नाश थाय छे. नैधन नक्षत्र उपर क्रूर ग्रह आववाथी मरण अथवा बन्धन करावे छे, शुभ ग्रहो उक्त ताराओ उपर होय छे त्यारे अल्प हानि थाय छे, केमके सौम्य ग्रहो मध्यम फलदायक होय छे. पण पाप ग्रहो उक्त नक्षत्रो उपर आवे त्यारे घणा भयंकर निवडे छे. ए विषयमा भूपाल वल्लभकार कहे छे-- केत्वोर्कियुतं भौम-वक्र भेदेन दूषितम् । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम्] हतमुल्कोपरागाभ्यां, स्वभावान्यत्वमागतम् ॥३२०॥ पीडिते जन्मभे मृत्युः, कर्मनाशश्च कर्मणि । संघाते मृत्युपीडा स्यात्, सामुदाये सुखक्षयः ॥३२॥ वैनाशिके देहनाशो, मनस्तापस्तु मानसे। कुलदेशधियां नाशो, जाति देशाभिषेक भे ॥३२२।। भाण्टी०-केतु, सूर्य, शनि युक्त होय के भौमना वक्रवडे अथवा भेद वडे दृषित होय, उल्का के प्रहणथी हणायेल होय, स्वभावथी ज वियर्यास पामेल होय ते नक्षत्र पीडित गणाय छे, जन्म नक्षत्र पीडित थतां मृत्यु थाय, कर्म नक्षत्र पीडित थता कर्मनो नाश थाय छे, संघात नक्षत्र पीडित थतां मरण पीडा थाय, सामुदाय नक्षत्र पीडित थतां सुखनो क्षय थाय, वैनाशिक नक्षत्र पीडित थाय त्यारे देहनो नाश थाय, मानस पीडित थतां मन संताप, अने जाति, देश अभिषेक नक्षत्रो पीडित थवाथी अनुक्रमे कुल, देश, तथा लक्ष्मीनो नाश थाय छे. लत्तादोष श्रीपतिः ऋक्षं द्वादशमुष्ण रश्मिरवनीसूनुस्तृतीयं गुरु:, षष्ठं चाष्टममर्कजश्च पुरतो हन्ति स्फुटं लत्तया । पश्चात्सप्तममिन्दुजश्च नवमं राहुः सितः पञ्चमं, द्वाविंशं परिपूर्णमूर्तिण्डुपः संताडयेन्नेतरः ॥३२३॥ भोष्टी०-सूर्य पोतानी आगेर्नु १२ मुं, मंगल ३ जु, गुरु ६ टुं अने शनि ८ मुं नक्षत्र लातवडे हणे छे, ज्यारे बुध पाछलनु ७ मुं राहु ९ मुं, शुक्र ५ मुं अने पूर्णिमानो चन्द्र २२ मुं नक्षत्र लत्तावडे ताडित करे छे, पूर्णिमानो चन्द्र ज नक्षत्रने लत्तावडे ताडन करे छे बीजी तिथिनो चंद्र नहि. Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ (कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे विवाह वृन्दावनकार सर्वग्रहोनी लत्ता आगेना नक्षत्रना हिसावे लखे छे-- रविनखैर्मितमकविधुन्तुदो, मुनिभिरिन्दुरखण्डलमण्डलः। हुतवहाकृतिषड्जिनदन्तिभिः .. क्षितिसुतादभिलत्तयतिग्रहः ॥३२४॥ भा०टी०-सूर्य पोताना नक्षत्रथी आगेना १२ मा अने राहु २० मा नक्षत्रने लत्तावडे ताडन करे छे, अखण्डमण्डलवालो चन्द्र ७ माने अने मंगल ३ जा बुध २२ मा, गुरु ६ हा, शुक्र २४ मा, अने शनि ८ मा नक्षत्रने लातवडे ताडन करे छे. आमां राहु २०मा, पूर्णचन्द्र ७ मा, बुध २२ मा, शुक्र २४ मा नक्षत्रने सामेथी लात मारवान कथन छे ज्यारे बीजा ग्रन्थोमां एज ग्रहोनी संमुख लत्तानुं नक्षत्र अनुक्रमे २१ मुं, ८ मुं, २३ मुं, २५ मुं लखेल छे. __लत्ता विषे मतान्तर आरंभसिद्धिकार कहे छेअग्रतो नवमे राहोः, सतविंशे भृगोस्तु भे। केचिद्ज्योतिर्विदः प्राहु-लत्तां तामपि वर्जयेत् ॥३२५॥ भाल्टी-केटलाक ज्योतिषीओ राहुनी आगेना ९ मा नक्षत्र उपर अने शुक्रनी आगेना २७ मा नक्षत्र उपर लात कहे छे ते पण वर्जवी जोइये. कोइना मते अशुभ ग्रहनी लत्ताज वर्जनीय छे, ए विषे त्रिविक्रम कहे छे नक्षत्रं द्वादश भानु-स्तृतीयं क्षितिनन्दनः । नखसंख्यं तमो हन्ति, लत्तया शनिरष्टमम् ॥३२६॥ भाटी०-सूर्य १२ माने, मंगल ३ जाने, राहु २० माने अने शनि ८ मा नक्षत्रने लत्ताथी हणे छे. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् लत्ता विषे केशवार्कनो मतइति सति ासदामभिलत्तने, पदनुलत्तनमुक्तमृषिव्रजैः। नदुडुपश्चिमपूर्वविभागयो रनधिकाधिकदोषविवक्षया ॥३२७।। भा०टी०- परिस्थितिमां ग्रहोनी लत्ताने अंगे ऋषिगणे जे अनुलत्ता एटले सामेथी लात कही छै ते नक्षत्रना पाछला अने पूर्वला भागोनी अपेक्षाए अल्प अने अधिकफलनी अपेक्षाए छे, जे ग्रह नक्षत्रना पाछलना भागने लत्ता बडे ताडित करे छे ते ओछु असरकारक होय छे ज्यारे सामेनी लत्ता अधिक पीडाकारी होय छ सामेनी अने पाछली लातनो ए तात्पर्यार्थ छे. शुभाशुभलताना फलतारतम्य विषे केशवार्क कहे छे उड्डुनि निर्दलिते शुभलत्तया, न फलमस्ति बलस्य गलत्तया। अशुभ लत्तितमत्ति तदूढयो धनसुता न सुतापकरं परम् ॥३२८॥ भाण्टी०-शुभ ग्रहनी लत्तावडे हणायेल नक्षत्र बलहीन होइ तेनुं शुभ फल नथी अने अशुभ ग्रहवडे लत्तित नक्षत्र तो तेमां परणनाराओना धन अने पुत्रोनो नाश करे छे अने प्राणोने संपात करावे छे. ___ वराह प्रत्येक ग्रहनी लत्तानुं फल कहे छे-- रविलत्ता वित्तहरी, नित्यंकोजी विनिर्दिशेन्मरणम् । चान्द्री नाशं कुर्याद् बौधी नाशं वदत्येव ॥३२९॥ सौरी मरणं कथयति, बन्धुविनाशं वृहस्पतेर्लत्ता। मरणं लत्ता राहोः, कार्यविनाशं भृगोर्वदति ॥३३०॥ भा०टी०-सूर्यनी लत्ता धननो नाश करनारी छे, मंगलनी Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० [कल्याण-कलिका-प्रथभखाण्डे लत्ता नित्य मरणनो निर्देश करे छे, चन्द्रनी लत्ता कार्यनो नाश करे, बुधनी लत्ता पण कार्य नाशनी सूचक छे, शनिनी लत्ता मरणने कहे छे, बृहस्पतिनी लसा बंधु-कुटुंबिओना नाशने सूचवे छे, राहुनी लत्ता मरणकारक छ ज्यारे शुक्रनी लत्ता कार्यनो विनाश कहेनारी छे. लत्तानो परिहारसौराष्ट्र साल्वदेशेषु, लातितं भं विवर्जयेत् । भा०टी०-सौराष्ट्र (काठियावाड) अने साल्व (राजस्थान) मा लात वडे हणायेल नक्षत्र वर्जवं जोइये. लत्ता मालवके देशे' 'एटले लत्ता दोष मालवा देशमा वर्जवो' विवाह पटलनु ए वचन पण लत्तानो अपवाद सूचवे छे. पातदोषरविभादहिपितृ मित्र, स्वाष्ट्रभहरिपौष्णभेषु गणितेषु । आश्विन भादीन्दुयुतौ, तावति वैपतति गणनया पातः॥३३१॥ भा०टी०-सूर्य नक्षत्रथी आश्लेषा १ मघा २ अनुराधा ३ चित्रा ४ श्रवण ५ रेवती ६ आ छ नक्षत्रो गणवां जे जे संख्या आश्लेषा आदिनी आवे तेटली तेटली संख्यामां अश्विनीथी गणतां जे चंद्र नक्षत्र होय ते उपर पात छे एम जाणवू-उदाहरणरुपे सूर्य भरणी नक्षत्र उपर छे, तेथी आश्लेषा ८ मुं, मघा ९ मुं, चित्रा १३ मुं अनुराधा १६ मुं, श्रवण २१ मुं अने रेवती २६ मुं नक्षत्र छे माटे अश्विनीथी ८, ९, १३, १६, २१, २६, आ संख्याना नक्षत्र उपर चन्द्र होय तो ते नक्षत्र पातवालु होइ शुभ कार्यमां वर्जित करवू. पातने सुगमताथी जाणवानो उपाय नीचे प्रमाणे छेपातं शूलस्य गण्डस्य, हर्षण-व्यतिपातयोः। साध्यवैधृतयोश्चान्ते, धिष्ण्यं यत्तत्र वर्जयेत् ॥३३२॥ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् भा०टी०-पंचांगमां अपाता २७ योगो पैकीना शूल, गंड, हर्षण, व्यतिपात, साध्य, वैघृत आ योगोना अन्तमा जे नक्षत्र होय छे ते उपर पातदोष होवाथी तेनो त्याग करवो. ज्योतिषीओ आ 'पात' ने ' चण्डीशचण्डायुध ' अथवा, शिवना आयुध तरीके वर्णवे छे, केशवार्क कहे छे-- यदन्तगं हर्षणसाध्यशूल-गण्डव्यतीपातकवैधृतीनाम् । तत्रैव चन्द्रोडुनि चण्डमैश-मस्त्रं पतेन्मङ्गलभङ्गलक्ष्म ॥३३३।। भा०टी०–हर्षण, साध्य, शूल, गण्ड, व्यतीपात, वैधृति, आ योगोना अन्तमा जे चन्द्र नक्षत्र होय, एटले जे नक्षत्रमा आ योगोनी समाप्ति थाय तेज चन्द्र नक्षत्र उपर शिवचं ‘चण्डास्त्र' पडे छे जे मंगल कार्यना नाशन चिह्न छे. ज्योतिषीओनी दृष्टिमां पातनी भयंकरतापातेन पतितो ब्रह्मा, पातेन पतितो हरिः। पातेन पतितो रुद्रस्तस्मात्पातं विवर्जयेत् ॥३३४॥ भा०टी-पातवडे ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर जेवा पडया छे माटे पातने विशेष करीने वर्जवो. देशविशेषे पातनी व्यवस्थाचित्रांगतः पात विचित्रदेशे, मैत्रे मघा मालवके निषिद्धः। पौष्णश्रुती चोत्तरदेशजातः, सर्वत्र वय॑श्च भुजंगपातः॥३३५॥ भा०टी०-चित्रागत पात विचित्र देशमां, अनुराधा मघागत पात मालवामा अने रेवती श्रवण ज्ञापित पात उत्तर देशमा निषिद्ध छे. ज्यारे आश्लेषामित नक्षत्रपात सर्वत्र वर्जनीय छे. पातनो अपवाद वसिष्ठ कहे छचण्डायुधं सचण्डीश, हन्ति सिद्धा तिथिर्यथा। आन्त्रवृद्विर्यथा कार्य, निखिलं सुदृढं यथा ॥३३६॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे भाटी०-चण्डीश चण्डायुधापरनाम पातने सिद्धा तिथि नष्ट करे छे, जेम संपूर्ण मजबूत शरीरने आन्त्रद्धि (सारण गांठ) नाश करे छे. सप्तशलाका चक्र आरंभ सिद्धिमां-- वेध ऊर्ध्वतिरः सप्त-रेखे पूर्वादितोऽग्निभात्। भस्य रेखाग्रगे खेटे, हेयश्चेन्न पदान्तरम् ॥३३७॥ भाटी०-सात उर्ध्व सात आडी रेखावाला सप्तशलाका चक्रमां पूर्वादि दिशाओमां कृत्तिकाथी प्रारंभ करीने अभिजित् सहित २८ नक्षत्रो लखवां, कार्य नक्षत्रनी रेखाना वीजा छेडा उपर कोइ ग्रह होय तो ते पोतानी सामेना नक्षत्रनो वेध करे छे माटे जो वेधमा पादान्तर न होय एटले पादवेध होय तो ते शुभ कार्यना मुहूर्तमां वर्जवो. सप्तशलाका चक्रन्यास कृ रो मृ आ पु पु आ म अ भ पू उ उ रे पू ह चि स्वा वि श घ B Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र लक्षणम्] सप्त शलाकामां कया कया नक्षत्रनो परस्पर वेध थाय छे एर्नु स्पष्टीकरण रामदैवज्ञ कहे छेशाक्रेज्ये शतभानिले जलशिवे पौष्णार्यमः वसुहीशे वैश्वसुधांशुभे हयभगे सानुराधे तथा। हस्तोपान्तिमभे विधातृविधिभे मूलादितीत्वाष्ट्रभाऽजांघी याम्यमधे कुशानुहरिभे विडेऽद्रिरेखे मिथः ॥३३८॥ ___भा०टी०--सप्तशलाका चक्रमा ज्येष्ठा-पुष्य, शतभिषा-स्वाति, पूर्वापाढा--आर्दा, रेवती-उत्तराफाल्गुनी, धनिष्ठा-विशाखा, उत्तराषाढा मृगशिर, अश्विनी-पूर्वाफाल्गुनी, आश्लेषा-अनुराधा, हस्त-उत्तरा. भाद्रपदा, रोहिणी-अभिजिन्, मूल-पुनर्वसु, चित्रा-पूर्वाभाद्रपदा, भरणी-मघा, कृत्तिका-श्रवण, आ वे वे नक्षत्रोनो परस्पर वेध थाय छे. सप्तशलाका बंधन फल-दीपिकामांयस्याः शशी सप्तशलाकभिन्नः, पापैरपापैरथवा विवाहे। उद्वाह वस्त्रेण तु संवृतांगी, इमशानभूमि रुदती प्रयाति॥३३९॥ __ भा०टी०-जे कन्याना विवाहमा सप्तशलाकामां चंद्र विद्ध थाय छे. पापग्रहोबडे अथवा सौम्यग्रहोवडे, ते स्त्री विवाहना वस्त्रमा ज रडती छती श्मशानभूमिमां जाय छ, सप्तशलाका वेध क्यां वर्जवो अने पंचशलाका क्यां ए विषे लल्ल- . चक्रे मप्तशलाकाख्ये, वेधः सर्वसु कर्मसु । त्याज्य एव विवाहे च, तथैव पञ्चरेखजः ॥३४०॥ भा०टी०-सप्तशलाका चक्रमां थतो नक्षत्र वेध सर्व कार्योमा वर्जवो जोइये, तथा पंचशलाकाथी थतो वेध विवाहमा अवश्य वर्जवो जोइये, Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L [ कल्याण- कलिका - प्रथम - खण्डे पञ्चशलाका वेधचक्र नारदीये तिर्यक् पश्चोर्ध्वगाः पञ्च, रेखे द्वे द्वे च कोणयोः । द्वितीयशंभुकोणेग्नि-धिष्ण्यं चक्रे च विन्यसेत् ॥ भान्यतः साभिजिवेके रेखाकोणे च विद्धभम् ||३४१ ॥ भा०टी० तिर्यक ( आडी ) ५ अने उभी ५ रेखा खची खूणाओमां २+२ रेखाओ खेचवाथी पंचशलाका चक्र वनशे, चक्रना ईशान कोणनी बीजी रेखा उपर कृत्तिका लखी ते पछीनी प्रत्येक रेखा उपर रोहिणी आदि १-१ नक्षत्र लखवु नक्षत्रो अभिजित् सहित लखवां, एक रेखा के एक कोणमां कोइ ग्रह होय तेथी रेखाना बीजा छेडा उपरनुं नक्षत्र विद्व थाय छे. 1 कोनो कोनो परस्पर वेध थाय छे ? वेधोऽन्योन्यमसौ विरञ्च्यभिजितोर्याम्यानुराधर्क्षयोः । विश्वेन्द्रोर्हरिपित्र्ययोर्ग्रहकृतो हस्तोत्तराभाद्रयोः । स्वाती वारुणयोर्भवेन्निऋतिभादित्योस्तथोफाल्गयोः । खेटे तत्रगते तुरीयचरणाद्योर्वा तृतीयद्वयोः ॥ ३४२ ॥ भा०टी० - पंचशलाका चक्रमां विवाह नक्षत्रोनो वेध परस्पर आ प्रमाणे थाय छे - रोहिणी - अभिजितनो, भरणी - अनुराधानो. मृगशिर - उत्तराषाढानो, मघा-श्रवणनो, हस्त-उत्तराभाद्रपदनो, स्वाति शतभिषानो, पुनर्वसु-मूलनो तथा उत्तराफाल्गुनी - रेवतीनो परस्पर ग्रहकृतवेध थाय छे, एटले के रोहिणी उपर रहेल शुभाशुभ ग्रह अभिजितनो अथवा अभिजित् उपर रहेल रोहिणीनो वेध करे छे ए ज प्रमाणे उपर्युक्त नक्षत्रोनो वेध जाणवो, क्रूर ग्रह विद्ध नक्षत्र तो संपूर्ण त्याज्य गणाय छे, पण सौम्य ग्रहविद्वनो विद्व चरण त्याज्य होवाथी चरण वेधनो प्रकार कहे छे के ग्रह प्रथम चरण उपरथी संमुख नक्षत्रना Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् ] चोथा चरणनो, बीजाथी त्रीजानो, त्रीजाथी बीजानो अने चोथाथी पहेला चरणनो वेध करे छे. पंचशलाका वेध विवाहमा वर्जित छे अने उपर बतावेल ८ नक्षत्र युग्मोमां विवाहोपयोगी बधां नक्षत्रो आवी जाय छे तेथी उपरोक्त काव्यमां बीजा नक्षत्र युग्मोनो निर्देश कर्यों नथी. वेधफलं-फलप्रदीपेअर्कवेधे च वैधव्यं, चन्द्रवेधे वियोगिनी। पुत्रशोकातुरा भौभे, वुधे शोकाकुला भवेत् ॥३४३॥ गुरौ वन्ध्या विजानीयात्, शुक्रे स्याद् व्यभिचारिणी । मृतवत्सा शनौ ज्ञेया, राहौ च कुलटा भवेत्॥ केतुवेधे सर्वनाशो, एवं वेधस्य लक्षणम् ॥३४४॥ भा०टी०- सूर्यवेधथी वैधव्य, चन्द्रवेधथी वियोग, मंगल वेधथी पुत्रशोक, बुधवेधथी शोक, गुरुवेधथी वन्ध्यापणुं, शुक्रनावेधथी ब्यभिचार, शनिना वेधथी मृतवत्सापणुं राहुना वेधथी कुलटापणुं अने केतुना वेधथी सर्वनाश थाय छे. ए वेधनुं लक्षण छे. पंचशलाका वेधनुं गर्ग फल कहे छयस्मिन् शशी पञ्चशलाकभिन्नः पापैरपापैरथवा विवाहे । तेनैव वस्त्रण विरोदमाना, स्मशानभूमिं प्रमदा प्रयाति॥३४५।। भाण्टी-जे विवाहमा चन्द्र पापग्रहो वडे अथवा सौम्यग्रहोवडे पंचशलाका चक्रमां विद्ध थाय छे ते विवाहमा विवाहिता स्त्री विवाहना ज वस्त्रमा रडती श्मशानभूमिमां जाय छे. तात्पर्य ए छे के तेना पतिनुं जल्दी मरण थाय छे. विवाहवृन्दावने पादवेध फलतस्मिन्नभिन्नाग्रगते भिनत्ति, ग्रहो विवाहक्षमशेषमेव । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्? स्त्रीपुंसयोरायुरसौम्यवेधः, सौम्यव्यधो हन्ति सुखानि शश्वत् ॥३४६॥ भाटी०-ते पंचशलाकाना अभिन्न अग्रभाग पर रहेल ग्रह संपूर्ण विवाह नक्षत्रनो वेध करे तो क्रूरवेध स्त्रीपुरुषना आयुष्यनो नाश करे छे अने सौम्यनो संपूर्ण (पाद) वेध तेमना सुखोनो नाश करे छे. वेध अने तेनो अपवाद वसिष्ठनो मतपाद एव न शुभः शुभग्रहै-विद्ध इत्यखिलशास्त्रमतं हि । क्रूरविद्ध मखिलं न शोभनं शोभनेषु सकलं न पादतः ॥३४७॥ ___भाण्टी-शुभ ग्रहोथी वेधायेल नक्षत्रनो एकपाद ज शुभदायक नथी ए सर्वशास्त्रोनो मत छे, ज्यारे क्रूरविद्ध नक्षत्र संपूर्ण अशुभ होइ शुभ कार्योमा पादमात्र नहि पण पूरुं नक्षत्र त्याज्य छे. वैद्यनाथ कहे छेवेधमाद्यन्तयोरञ्यो-रन्योन्यं दितृतीययोः॥ करैरपि त्यजेत्पादं, केचिदूचुर्महर्षयः॥३४८॥ - भा०टी०–केटलाक ऋषिओ कहे छे के प्रथम अने चतुर्थ तथा बीजा अने त्रीजा चरणनो क्रूरग्रह वेध करतो होय तो पण विद्ध चरणनो ज त्याग करवो संपूर्ण नक्षत्रनो नहिं. __ वसिष्ठ वेध दोषनो भंग कहे छलग्ने शुभो सोम्ययुतेक्षितो वा, लग्नाधिनाथो भवगस्तथा वा। कालाख्यहोरा च तथा शुभस्य, भवेधदोषस्य तदा विभंगः ॥३४९॥ भा०टी०-लग्नमां शुभग्रह होय, लग्नपति सौम्ययुत या सौम्यदृष्ट होय, अथवा लगपति अग्यारमा भवनमां बेठो होय अने शुभग्रह Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम्] संबन्धी कालहोरा लग्नकाले आवती होय तो ' नक्षत्रवेध' दोषना भंग थाय छे. उद्वाहतत्त्वमा पण ए ज वात कहे छेसरक्तनुगे शुभे व्यधभयं नो चाप्यगे लग्नपे, होरायां च शुभस्य वा व्यधभयं नास्तीति पूर्वे जगुः। भा०टी०- लग्नपति अग्यारमे होय, लममा शुभग्रह होय, लम शुभयुक्त तथा शुभदृष्ट होय तो वेधदोषनो भय नथी, अथवा लग्नकाले शुभनी कालहोरा होय तो पण वेधनो भय नथी एम पूर्वग्रन्थकारो कही गया छे. मार्तण्डकार पण कहे छेलग्नेशे भवगेऽथवा शशिनि सदृष्टे शुभे वाङ्गगे। होरायां च शुस्य वा व्यधभयं नास्तीति पूर्व जगुः॥३५०॥ भाण्टी०--लग्नपति अग्यारमा स्थानमां, अथवा चन्द्रमा अग्यारमा स्थानमां शुभदृष्ट होय, अथवा लग्नमां बुध, गुरु, शुक्र, पैकीनो कोइ शुभग्रह पडयो होय, अथवा शुभग्रह संबन्धिनी होरा आवती होय तो वेधनो भय नथी एम पूर्वग्रन्थकारो कही गया छे, एकार्गल योग दोषवसिष्ठ, नारद, कश्यप, श्रीपतिः आदि एकार्गल योगमा अभिजित्ने लेता नथी, वसिष्ठतुं विधान नीचे प्रमाणे छे.-- रेखामेकामूर्ध्वगां षट् च सप्त, तिर्यकूकृत्वाऽप्यत्र खारि चक्रे । तिर्यग्रेखा संस्थयोश्चन्द्रभान्वो क्संपातो दोष एकागलाख्यः ॥३५१॥ भा०टी०-एक रेखा उभी खेचवी अने तेर रेखाओ उभी रेखाने कापती आडी खेंचवी एटले खजूरना जेवू खार्जुरिक चक्र Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક૭૮ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे बनशे, आडी कोइपण एक रेखाना बे छेडाओ उपर सामसामे चन्द्र सूर्य आवतां तेमनो एकवीजा उपर द्रष्टिपात थवो तेनुं नाम 'एकागल' योग छ, उर्ध्व रेखाए कयुं नक्षत्र धरीने बाकीनां नक्षत्रो खाजूंरिकमां धरवां ए विषे वसिष्ठ कहे छे अन्त्यातिगण्ड परिघ व्यतिपात पूर्वव्याघात गण्ड वरशूल महाशनिषु । चित्रानुराधपितृपन्नगदस्त्रभेषु, सादित्य मूल शशि सूरिषु मूनि भेषु॥३५२॥ भाल्टी-जे दिवसे वैधृति, अतिगण्ड, परिघ, व्यतिपात, विष्कुम्भ, व्याघात, गण्ड, शूल, वज्र, आ ९ अशुभ योगो पैकीनो कोइ अशुभयोग होय तो एकागलनी तपास करवी, वैधृति होय तो चित्रा, अतिगण्डमां अनुराधा, परिघमां मघा, व्यतिपातमां आश्लेषा, विष्कुंभमां अश्विनी, व्याघातमा पुनर्वसु, गण्डमां मूल, शूलमां मृगशिर अने वज्रमा पुष्य नक्षत्र खाजूंरिक चक्रना मस्तके उर्ध्व रेखा उपर लखी ते पछीना नक्षत्रो अनुक्रमे आडी रेखाओ उपर उपरथी नीचे लखवां, बीजी तरफ नीचेथी उपर लखता जq अने २७ नक्षत्रो पूरा करी सूर्य चन्द्र जे जे नक्षत्र उपर होय त्यां लखवा, जो सूर्य चन्द्र एक रेखामां सामसामे आवता होय अने नक्षत्रोना बेधक चरणो उपर रहीने एक बीजा उपर द्रष्टिपात करता होय तो ते दिवसे ते चन्द्र नक्षत्र शुभ कार्यमा अवश्य वर्जq । एकागल योग दर्शक खारिक चक्र Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र लक्षणम्] खार्जुरिक चक्र-- रो-Fआर्द्रा भावी अस्वी उ.मा. -पू.भा. -उ.फा. - पू.भा.शत--- -चि ---स्वा. उ.पा.-- - पू.षा.-- उदयप्रभदेव, त्रिविक्रम, आदि मध्यकालीन विद्वानो खार्जुरिक चक्रमा अभिजित्नी गणना करे छे. परन्तु प्राचीन संहिताकारो अभिजित्ने वर्जित करे छे, नारदजी तो एनो स्पष्ट शब्दोमा निषेध करे छे, ते नीचे प्रमाणे-- Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्ड भान्येकरेग्वास्थितयोः, सूर्याचन्द्रमसोमिथः। एकार्गलो द्रष्टिपात-श्चाभिजिवर्जितानि वै ॥३५३।। भा०टी०-नक्षत्रो अभिजित् रहित लखवां एक रेखास्थित सूर्य चन्द्रनो परस्पर द्रप्टिपात तेनुं नाम ' एकागल' छे. कश्यप पण अभिजित् रहित नक्षत्रो कहे छे, एकागलो द्रष्टिपात-श्वामिजिदहितानि वै । भा०टी०-खाजूंरिक चक्रमा परस्पर द्रष्टिपात थवो ते एकागंल योग छे. अने खाजूंरिक चक्रमां नक्षत्रो अभिजित् रहित लेवां, आ सम्बधमां अभिजितने अंगे लखे छे. लांगले कमठे चक्रे, फणिचक्रे त्रिनाडिके। अभिजिद् गणना नास्ति, चक्रे खाजूरिके तथा ॥३५४॥ तारायां ग्रहचक्रे च, संघाते लोहपातके । अभिजिद् गणना नास्ति, लाते पाते च कण्टके ॥३५५॥ __ भा०टी०-हल चक्रमां, कूर्म चक्रमां, त्रिनाडिक फणिचक्रमां तथा खाजूंरिक नक्रमा अभिजित्नी गणना नथी. ___ तारामां, यहचक्रमां, संघातचक्रमां, लोहपातमा, लत्तामां, पातमा अनेटकमां पण अभिजित्नी गणना नथी. __एकार्गल योगनो विषयविगहे प्रथमे क्षौरे, सीमन्ते कर्णवेधने । व्रतेऽन्नप्राशने चैव, खार्जूरं परिवर्जयेत् ॥३५६।। भा०टी०-विवाहमां, पहेला क्षौरमां, सीमन्तमा, कर्णविंधवामां व्रतग्रहणमा, अन्न प्राशनमां, एकागल दोष वर्जवो, एकागलयोगर्नु फल नीचे प्रमाणे छे. खरकरतुहिनांशोष्टिसंपातजातस्त्वनलमयशरीरश्चोगिरन् वह्निसंघान् । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् ४८३ भुनि पतति जनाना, मंगलध्वंसनाय, गुणगणशतसंधैरप्यवार्योऽग्निकोपः ॥३५७। भा०टी०-सूर्य चन्द्रना एकागल द्रष्टिपातना योगथी भूमि उपर अग्निमयशरीरधारी अग्निज्वालाओने वमतो सेंकडो गुणो दडे पण न रोकाय एको मनुष्योना आरब्ध मंगल कार्योना नाश माटे अग्नि कोप उतरे छे.। ___ राम मते दश योग दोषशशाङ्कसूर्यःयुते भशेषे, खं भू युगाङ्कानिदशेशतिथ्यः। नागेन्दवोलेन्दुमिता नग्वाश्चद् , भवन्ति चैते दशयोगसंज्ञाः ॥३५८॥ भाण्टी०-सूर्य नक्षत्र तथा चन्द्र नक्षत्रनी अश्विनीथी गणना करतां जे संख्या आवे ते बंने संख्यांकोने जोडीने २७ नो भाग देवो शेष ०।१४।६।१०।११।१५।१८।१९।२०। आ पैकीनो अंक वघे तो दशयोग नामनी दोष जाणवो, आ सिवायनो शेष अंक आवे तो दशयोग नथी ए अर्थात् समजवानुं छे. । दशयोग दोषनो विषयविवाहादौ प्रतिष्ठायां, व्रते पुंसवने तथा । कर्णवेधे च चूडायां, दशयोगं विवर्जयेत् ॥३५९॥ भा०टी०-विवाह आदि कार्योमां, प्रतिष्ठामां, व्रतग्रहणमां पुंसवनमा, कर्णवेधमां अने चूलाकर्ममा, दशयोगने वर्जयो । दशयोगनुं फल लल्ल कहे छे-- मरुन्मेघाग्निभूपाल-चौरमृत्युमजोऽशनिः । कलिहानिर्दशोद्वाहे, दोषास्त्याज्या सदा बुधैः । ३६०॥ भा०टी०-दशयोगोनुं अनुक्रमे फल- वायुथी नुकशान, मेघ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ૮૨ [कल्याण-कलिका-प्रथमनण्डे थी नुकशान, अग्निथी नुकशान, राजाथी नुकशान, चौरथी नुकशान, मृत्युभय, रोगभय, वीजलीना भय, कलह, धनहानि, आम शून्य एक आदि दशयोगोनुं आ फल छे, माटे विवाहमा तो विद्वानोए दशयोगनो सदा त्याग ज करवो । ___ दश योगनो परिहार-ज्योतिःसागरमायोगाङ्के विषमे सैके, समे स वसुलोचने । दलीकृतेऽश्विनी पूर्व, दशयोगमुदाहृतम् ॥३६१॥ दशयोगे महाचक्रे, प्रमादाद्यदि विध्यते । क्रूरैः सौम्यग्रहैर्वापि, दम्पत्योरेकनाशनम् ॥३६२।। भा०टी०-दश योगनो अंक विषम होय तो तेमां १ जोडवो अने सम होय तो तेमां २८ जोडवा, पछी तेने अर्ध करतां जे अंक रहे ते अश्विनी आदि नक्षत्र जाणवू, पछी १४ आडी रेखाओ खेची प्रत्येक रेखाग्रे आवेल नक्षत्रथी मांडीने अभिजित सहित २८ नक्षत्रो लखवां अने जे जे ग्रह जे जे नक्षत्र उपर होय ते ते ग्रह त्या लववो, चन्द्र नक्षत्र जे रेखा उपर होय ते रेखाना बीजा छेडा उपर आवेल नक्षत्र उपर क्रूर या सौम्य ग्रह होय अने चन्द्राधिष्ठित नक्षत्रनो वेध करतो होय तो ते नक्षत्रमा विवाह करवाथी पति पत्नीमांथी कोड़ एकनुं मरण थाय, पण ते नक्षत्रनो ग्रह वेध न करतो होय तो ते दशयोगकारक नथी। भारद्वाज दशयोग दोषोनो बीजो परिहार कहे छगुरौ लग्नाधिपे शुक्र, सवीर्ये लग्नकेन्द्रगे। दशदोषा विनश्यन्ति, यथोग्नौ तूलराशयः ॥३६३।। भा०टी०-गुरु लग्नपति थइ लग्नमां या केन्द्रमां होय अथवा शुक्र बलवान थइ लग्न अथवा केन्द्रमा रहेल होय तो दशयोगना दोषनो नाश करे छे. जेम अग्निमां तुलना ढगला बलीने भस्म थाय छे तेम। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र - लक्षणम् ] क्रान्तिसाम्यापरपर्यायो महापातः, आरम्भसिद्धौअर्केन्द्रोर्मुक्तांशक - राशियुतौ क्रान्तिसाम्यनामायम् । चक्रदले व्यतिपातः, पातञ्चके च वैधृतस्त्याज्यः ॥ ३६४ ॥ भा०टी० - सूर्य चन्द्र स्पष्ट करी कंनेमां अयनांशो जोडीने तेओना राश्यंशादिने एकत्र करवा, राश्यक जो ६ आवे तो ते समयमां ' व्यतिपात ' नामक महापात छे एम जाणवुं अनेराश्यंक जो १२ नो होय तो ते वखते 'वैधृत' महापात छे एम निश्वयथी जाणवुं, जो ६ अथवा १२ ना राश्यंक उपर अंश के कला विकलाओ व्यतीत थइ होय तो गणित वडे घडी पलो बनाववी अने महापात त्याने एटली घडी पलो थइ एम कहेवुं अने ६ अथवा १२ ना राकमां अमुक घडी पलो घटती होय तो महापातमां आटली घडी पलो घटे छे एम कहेवुं. जे समये राश्यंक ६ के १२ नो होय अने अंश कला विकलादिना स्थाने शून्य आवतां होय त्यारे महापातनो मध्यकाल जाणवो. आ महापात शुभ कार्यमां अवश्य वर्जवो जोइये, आ महापातने ज ज्योतिर्विदो 'क्रान्तिसाभ्य ' दोष तरीके वर्णवे छे. महापातने अंगे सूर्यसिद्धान्तनुं स्पष्टीकरण-एकायनगतौ स्यातां, सूर्याचन्द्रमसौ यदा । तद्युतौ मण्डले क्रान्त्यो- स्तुल्यत्वे वैघृताभिधः || ३६५ || विपरीतायनगतौ चन्द्रार्कों क्रान्तिलिप्तिकाः । समास्तदा व्यतीपातो, भगणार्धं तयोर्युतौ ॥ ३६६ ॥ तुल्यांशुजाल संपर्कात्, तयोस्तु प्रवहात्ततः । तादृक्क्रोधोद्भवो वह्नि - लौकाभावाय जायते ॥ ३६७॥ -- भा०टी० - - सूर्य तथा चन्द्र बने ज्यारे एक अयनमां होय अने तेमना राशि अंको जोडतां १२ नी संख्या थाय त्यारे बनेनी क्रान्ति बरोबर थवाथी ' वैधृति' नामक महापात उत्पन्न थाय छे, अने सूर्य चन्द्र एक बीजाथी विपरीत अयनोमां होय, तेमनी क्रान्तिनी ૪૮૬ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ [कल्याण कलिका-प्रथमखण्डे पलो समान होय अने तेमनी राशिओनो अंक राशिमंडलथी अर्ध भागनो अर्थात् ६ नो होय त्यारे ' व्यतीपात' नामक महापात उपजे छे. समान क्रान्तिना योगथी सूर्य चन्द्र बन्नेना किरणजालना परस्पर संघट्टनथी प्रवाहित थतो अग्निप्रवाह-जाणे के तेमना ते प्रका रना क्रोधथी ज प्रकटयो होय- लोकना अभावने माटे थाय छे, ता. त्पर्यार्थ ए छे के क्रान्तिसाम्यमां शुभ कार्य करवाथी करनारने अग्नि जन्य भयनो सामनो करवो पडे छे. एज वस्तुने रामदैवज्ञ दृष्टान्तद्वारा समजावे छ पञ्चास्याजो गोमृगौ तौलिकुम्भौ, कन्यामीनौ कयली चापयुग्मे । तत्रान्योन्यं चन्द्रभान्वोर्निरुक्तं, क्रान्तेः साम्यं नो शुभं मंगलेषु ॥३६८॥ भा०टी०-सिंह-मेष, वृषभ-मकर, तुला-कुम्भ, कन्यामीन, कर्क-वृश्चिक अने धनु-मिथुन आ छ राशियुग्मोमां सायन सूर्य चन्द्र आवे त्यारे १२ राशिमित अथवा ६ राशिमित महापात उपजे छ, सायन सूर्य चंद्र पैकीनो एक सिंह अने बीजो मेष उपर आवी समक्रान्तिमां आवे त्यारे ६ राशिपरिमित 'व्यतीपात' वृषभ-मकर राशिमा सायन-सूर्यचन्द्र होइ समक्रान्तिमा आवे त्यारे १२ राशिपरिमित 'वैधृत ' तुला-कुंभ उपर होय त्यारे 'व्यतीपात' कन्या मीन उपर वे होय त्यारे 'व्यतीपात' कर्क-वृश्चिक उपर होय त्यारे 'वैधृत' धनु-मिथुन उपर होय त्यारे पण · वैधृत' नामक 'महापात' उत्पन्न थाय छे. आ ने प्रकारचें क्रांतिसाम्य मंगलकार्यमां वर्जवं जोइये. आ क्रान्तिसाम्य नियत होतुं नधी, विवाह धृन्दावनना निर्मागकालमा ए महापात " ध्रुव " योगर्नु प्रथम चरण वीत्ये तेमज " ऐन्द्र " योगर्नु चतुर्थ चरण शेष रहेता Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र लक्षणम् ] ४८५ उत्पन्न थतो हतो, पण आजे ए नियम प्रमाणे महापात पडतो नथी, आज काल आ महापातो प्राय: 'गंडवृद्धि ' अने ' शुक्ल - ब्रह्मा ' आ च्यार योगोमां आव्या करे छे आ संबन्धमा ' आरंभ सिद्धियात्तिक ' कारे एक नियामक श्लोक आपीने कया कया योगोमां महापातनी तपास करवी ते निश्चितरूपे जणाच्युं छे, ते श्लोक नीचे प्रमाणे छेगण्डोत्तरार्धाच्छुक्लादेः, क्रान्तिसाम्यस्य संभवः । सार्धपञ्च योगेषु तत्र्यहं परिवर्जयेत् ॥ ३६९ ॥ भा०टी० – गंडनो उत्तरार्ध, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वरी यान् ए साढा पांच योगोमां तेमज शुक्ल, ब्रह्मा, ऐन्द्र, वैधृत, विष्कंभ अने प्रीतिपूर्वार्ध आ साढा पांच योगोमां महापातनो संभव होइ तपास करवी अने प्रथम पछीना दिवसो सहित क्रान्तिसाम्यनो त्याग करवो. ग्रन्थान्तरमा पण महापात संबन्धी ३ दिवसो वर्जवानुं विधान दृष्टिगोचर थाय छे, जेम के - गत १ मेण्य २ वर्तमानं ३, सुख १ लक्ष्म्या २ युषां ३ क्रमात् । क्रान्तिसाम्यं सृजेडानिं व्यहं तेनाऽत्र वर्ज्यताम् ||३७० ॥ भा०टी० - गयेल आवतुं अने वर्तमान क्रांतिसाम्य अनुक्रमे सुख लक्ष्मी अने आयुष्यनी हानि करे छे माटे तत्प्रतिबद्ध ३ दिवसो वर्जवा जोइये, एम छतां केटलाक आचार्यों क्रांतिसाम्यवालो एक ज दिवस अने केटलाक क्रान्तिसाम्यकालने ज दुष्ट गणी त्यागवानो आदेश करे छे, कहे छे के विषप्रदिग्धेन हतस्य पत्रिणः, मृगस्य मांसं सुखदं क्षतादृते । यथा तथैव व्यतिपातयोगे, क्षणोऽत्र वज्र्यो न तिथिर्नवारः ॥ ३७१ ॥ भा०टी० - शेरमां बुजवेल बाणवडे मारेल मृगनुं मांस जखमना स्थाने ज खराब होय छे शेष शरीरना भागनुं ते दुष्ट होतुं नथी Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ [ कल्याण-कलिका - प्रथमखण्डे एज रीते महापातनो वर्तमान समय ज वर्जवो, आखी तिथि के आखो वार वर्जवानी जरूरत नथी. गमे तेम होय पण महापातनी महादोषोमां गणना छे अने ए अवश्य वर्जनीय छे, ए विषे लल्ल कहे छे खड्गाssहतोऽग्निना दग्धो, नागदृष्टोऽपि जीवति । क्रान्तिसम्यकृतोद्वाहो, म्रियते नात्र संशयः ॥ ३७२ ॥ भा०टी० - खडूगवडे हणायेल, अग्रिद्वारा बळेल अथवा सर्पे डशेल जीवे छे पण क्रांतिसाम्यमां परणेल मरे छे एमां शंका नथी. महापात यंत्रक निम्नोक्त राशियुग्मस्थितसूर्यचन्द्रयोः क्रान्तिसाम्ये. मेष वृष मिथुन कर्क कन्या तुला १ २ सिंह ५ १० ३ ६ मकर धनु वृश्चिक मीन +9 कुंभ ८ १२ ११ वज्रपश्चक तिथिं वारं च नक्षत्रं, नवभिश्च समन्वितम् । सप्तभिश्च हरेद्भागं, शेषांके फलमादिशेत् ॥ ३७२ ॥ त्रिशेषे तु जलं विन्द्यात्, पञ्चशेषे प्रभञ्जनः । सप्तशेषे वज्रपातो, ज्ञेयं वज्रस्य लक्षणम् ॥ ३७३ ॥ भा०टी० -- तिथि वार, नक्षत्रना आंक भेगा करी तेमां नव जोडवा पछी तेने सानो भाग देवो, शेष अंक रहे तेनुं फल कहेवु Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र-लक्षणम् ] ३ शेष रहे तो जल जाणवू, पांच शेष रहे तो पवन अने ७ अथवा • शेष रहे तो वज्रपात जाणवो ए वन, लक्षण छ. कोइ वज्रनु लक्षण आ प्रमाणे कहे छ:---- सूर्यात् पञ्चदशं ऋक्ष-मष्टादशं च राहुणा । त्रयोविंशति केतुश्च चतुर्विंशति भूसुतः। पञ्चविंशति मन्दश्च, विवाहे वज्रपञ्चकम् ॥३७४॥ व्याधिः सूर्येऽग्नी राहो च, केतौ नृपभयं तथा । भौमे चोरभयं विन्द्यान्मरणं च शनैश्चरे ॥३७५।। भा०टी०- लग्न नक्षत्रथी १२ मुं नक्षत्र सूर्यनु, १८ मुं राहुर्नु, २३ मुं केतुर्नु, २४ मुं मंगलनुं ने २५ मुं शनैश्वरनु होय तो विवाह मां ए पांच वज्र छे, सूर्यमां रोग, राहु नां अग्नि भय, केतुमां राजभय, मंगलमां चोरभय, अने शनैश्वरमां मरण पाणवू. बाणपश्चकलग्ने नाडया यात तिथ्योङ्क तष्टाः शेषे नागद्व्यब्धि तन्दुसंख्ये । रोगो वह्निराजचौरो च मृत्यु णिश्चायं दाक्षिणात्या प्रसिद्धाः ॥३७६।। भा०टी०--लग्न तिथि युक्त गत तिथिओने ९ नवे भागतां शेष ८।२।४।६।१। आ पैकीनो अंक रहे तो अनुक्रमे रोग, अग्नि, राज, चोर, मृत्यु, नामनां बाण होय छे. ए पांच बाणो दाक्षिणात्योमा प्रसिद्ध छे. विवाह-पटलोक्त पांच बाणोगततिथियुतलग्नं पञ्चधा स्थापनीयं, तिथि १५ रवि १२ दश १० नागै ८र्वेद ४ युक्तं क्रमेण । Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ [कल्याण-कलिका-प्रथमलण्डे नव ९ हृत शर ५ शेषे बाण संज्ञा क्रमेण, रुगनल नृप चौराः पञ्चमो मृत्युसंज्ञः ॥३७७॥ भा०टी०-शुक्ल प्रतिपदाथी मांडीने मासनी गत तिथिओनी अंक लग्नमा जोडवो अने ते आंक पांच स्थाने लखवो पांच स्थले लखेल ते अंकमां अनुक्रमे १५-१२-१०-८-४ ए जोडवा पछी प्रत्येकने ९ नवनो भाग देवो, प्रथम अंकमां ५ शेष रहे तो रोग, बीजामा ५ शेष रहे तो अग्नि, त्रीजामा ५ शेष रहे तो गज, चोथामा ५ बधे तो चोर, अने पांचमामां ५ शेष रहे तो मृत्यु नामक बाण जाणवो. प्राच्य मतानुसारी बाणपंचकरसगुणशशिनागान्ध्याढय संक्रान्तियाताशकमिति रथ तष्टांकैयदा पञ्चशेषाः। रुगनल नृप चौरा मृत्यु संज्ञश्च बाणोनवहत शर शेषे शेषकैक्ये सशल्यः ॥३७८।। भा०टी०-संक्रांतिना गतांशोनी संख्याने ५ स्थले लखी तेने अनुक्रमे ६।३१८४ आ अंको वडे युक्त करी प्रत्येक संख्याने ९ नो भाग देवो, पहेले स्थले ५ शेषे रोग, द्वितीय स्थले अग्नि, तृतीय स्थले राज, चतुर्थ स्थले चोर, अने पंचम स्थलनी संख्याने ९ नो भाग आपतां ५ शेष रहे तो मृत्यु बाण जाणवो। पांच स्थलनी शेष संख्याने ९ नो भाग देतां ५ शेष रहे तो सशल्य-लोहमुख बाण-जेनुं बीजुं नाम नागपंचक छे. अने शेष सर्व संख्याने ९ थी भागतां ५ शेष न रहेतां काष्ठमुख बाण जाणवू. ज्योतिश्चिन्तामणिमां कहेल बाणपंचकतिथिवार भलग्नांको, रसाग्न्यब्जाष्टवेदयुक् ।६।३.१८॥४॥ नन्दाप्तपञ्चशेषे रु-ग्वतिराट्चौरमृत्युकृत् ॥३७९।। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८९ नक्षत्र-लक्षणम् ] भा०टी०-तिथिवार नक्षत्र लग्नना अंकने ५ स्थले लखी नेमां अनुक्रमे ६।३।१।८।४ आ अंको जोडवा पछी ९ नो भाग देवो प्रथम स्थलादिनो शेष अंक ५ रहे तो अनुक्रमे रोग, अग्नि, नृप, चोर, मृत्यु नामक बाणो जाणवां. __समयभेदे बाणनो परिहार-ज्योति प्रकाशेरोगं चौरं त्यजेदात्री, दिवा राजाग्निपंचकम् । उभयोः सन्ध्ययोर्मृत्यु-मन्यकाले न निन्दितः ॥३८०॥ भा०टी०--रोग बाण तथा चौर बाणने रात्रिमा वर्जवो, राज बाण तथा अग्निबाणने दिवसे वर्जवो अने प्रातःसायं संध्याओमां मृत्यु बाणनो त्याग करवो अन्य काले बाण निन्दित नथी. ___ वार भेदे बाणनो परिहार-दैवज्ञ मनोहरे-- रवी रोगं कुजे वहि, शनौ च नृपपश्चकम् । वज्य पुनः कुजे चौरं, बुधवारे च मृत्युदम् ॥३८१॥ . भाण्टी०--रविवारे रोग, मंगलवारे अग्नि, शनिवारे राजपंचक, मंगलवारे चौर अने बुधवारे मृत्यु बाणनो त्याग करवो. कार्य मेदे वाणनो परिहार-ज्योतिः प्रकाशेनृपाख्यं राजसेवायां, गृहगोपेऽग्निपञ्चकम् । याने चौरं व्रते रोगं, त्यजेन्मृत्यु करगृहे ॥३८२॥ भाण्टी--राज सेवामां राज याण, घर ढांकवामां अग्निबाण यात्रामा चौर पंचक, व्रतमा रोग, अने विवाहमा मृत्यु पंचकनो त्याग करवो. नाग अने मृत्युवाणनो परिहारनाग-मृत्यु सदा त्याज्यो, सन्ध्ययो हिकैजनैः। तत्रापि यत्र लग्नं चेहलाढयं तच्च निष्फलम् ॥३८३।। भा०टी०--नाग अने मृत्यु पंचक बालिक देशना लोकोए ६२ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे बन्ने सन्ध्याओमां सदा वर्जवो, तेमां पण ज्यां लग्न बलवान् होय त्यां पंचकनो दोष नथी निष्फल थइ जाय छे. योग योगो अनेकविध छ, सूर्य चन्द्र नक्षत्रोना योगथी बनता विष्कंभादि २७ योगो, वार नक्षत्रना योगथी बनता आनंदादि २८ योगो, ए उपरांत एकागल, दृष्टियोग, तिथि नक्षत्रोथी बनता शुभाशुभ योगो, वार नक्षत्रोथी बनता शुभाशुभ योगो, तिथिवार नक्षत्रोना संबन्धथी बनता योगो, आ सर्वयोगोनो संक्षेपमा परिचय अने ते योगोमां विधेय कार्योनो निर्देश कराववो ए आ प्रकरण लखवानो उद्देश छे. विष्कंभादि योगा नयनोपाययस्मिन्नक्षे स्थितो भानु-र्यत्र तिष्ठति चन्द्रमाः। एकीकृत्य त्यजेदेकं, योगा विष्कंभकादयः ॥३८४॥ भाण्टी --जे नक्षत्र उपर सूर्य रहेल होय अने जे नक्षत्रमा चंद्रमा होय ते वंने नक्षत्रोनी अंक संख्या एकत्र करीने तेमांथी एक ओछो करवो शेष जे अंक रहे तेटलामो विष्कंभादि योग जाणयो अंक राशि जो २७ थी अधिक होय तो तेमाथी २७ बाद करी शेष अंकमांथी एक ओछो करवो ने शेषांकने योगनो अंक जाणवो उदाहरणसूर्य अश्विनी उपर रहेल छे अने चंद्रमा पण ते उपर आव्यो छे तो ते दिवसे सूर्ये चंद्र नक्षत्रांक युतिनी संख्या २ थइ, एमाथी १ बाद करतां शेषांक १ रह्यो आथी जणायुं के ते दिवसे १ लो विष्कंभ योग छे. बीजुं उदाहरण-सूर्य अश्विनी उपर अने चंद्र रेवती उपर छे बंनेनो नक्षत्रांक २८ थयो, १ ओछो करतां शेष Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् २७ रया एटले ते दिवसे २७ मो वैघृतयोग छे ए सिद्ध थयु ए ज प्रमाणे सर्वत्र सूर्य-चंद्र नक्षत्रो उपरथी विष्कंभादि दिन योगो काढवा. योगानयननो बीजो प्रकारगर्गेणोक्तास्त्विमे योगा आनन्दाद्या निमित्तजाः। विष्कंभाद्यास्तथा नित्या, अन्ये नैमित्तिकाः पुनः॥३८५॥ वाक्पते रकंनक्षत्रं, श्रवणाचान्द्रमेव च । गण्यते तद्युतिं कुर्याद्, योगः स्यादृक्ष शेषितः १३८६॥ भा०टी०--गर्गाचार्ये आनंदादि निमित्त ज विष्कंभादि नित्य अने बीजा नैमित्तिक योगो कह्या छे, विष्कंभादि योगो लाववानी प्रक्रिया ए छे के पुष्यथी सूर्य नक्षत्र अने श्रवणथी चंद्र नक्षत्र गणतां जे अंको आवे ते बनेने जोडी २७ नो भाग देवो जे शेष रहे तेटलामो ते दिवसे विष्कंभादि योग छे एम जाणवू. जो जोडेला अंकने २७ नो भाग न लागे तो जोडेला अंक परिमित ज ते दिवसे योग जाणवो. विष्कंभादि २७ योगोविष्कम्भः प्रोतिरायुष्मान् , सौभाग्यः शोभनाह्वयः । अतिगण्डः सुकर्माख्यो, धृतिः शूलोऽथ गण्डकः ॥३८७॥ वृद्धिर्बुवाख्यो व्याघातो, हर्षणो वज्रसंज्ञकः । सिद्धियोगो व्यतीपातो वरीयान् परिघः शिवः ॥३८८॥ सिद्धः साध्यः शुभः शुक्लो ब्रह्मेन्द्रो वैधृताह्वयः। सप्तविंशति योगास्ते, स्वनामफलदाः स्मृताः॥३८९।। भा०टी०--विष्कंभ १ प्रीति २ आयुष्मान् ३ सौभाग्य ४ शोभन ५ अतिगंड ६ सुकर्मा ७ घृति ८ शूल ९ गंड १० वृद्धि ११ ध्रुव १२ व्याघात १३ हर्षण १४ वज्र १५ सिद्धि १६ व्यतीपात १७ वरीयान् १८ परिघ १९ शिव २० सिद्ध २१ साध्य २२ शुभ २३ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર [ कल्याण- कलिका- प्रथमखण्डे शुक्ल २४ ब्रह्मा २५ ऐन्द्र २६ वैघृत २७. आ २७ योगो पोताना नाम प्रमाणे फल आपनारा छे. अशुभयोगोनी वर्ज्य घडीओविरुद्धयोगेषु य आद्यपादः, शुभेषु कार्येषु विवर्जनीयः । सवैधताख्यो व्यतिपातयोगो, सर्वोsपि नेष्टः परिघाईमाघम् ॥ ३९० ॥ तिस्रस्तु नाडयः प्रथमे च बजे, गण्डेऽतिगण्डेऽपिच षट् च षट् च । व्याघातयोगे नव पञ्चशूले; शुभेषु कार्येषु विवर्जनीयाः ॥ ३९९ ॥ भा०टी० --- विरुद्ध योगोनो प्रथम चरण शुभ कार्योंमां वर्जवो जोइये, व्यतीपात तथा वैधृत योगो संपूर्ण वर्जनीय छे, परिघनो प्रथम अर्धभाग वर्जवो, विष्कंभ-वज्रनी ३-३, गंड - अतिगंडनी ६-६, व्याघातनी ९ अने शूलयोगनी ५ घडीओ शुभ कार्योमां वर्जनीय छे. योगेश- वसिष्ठमतेसूर्याचन्द्रमसोर्धिष्ण्य-योगाज्जाता यतस्ततः । ऋक्षेशा एव योगेशा, ज्ञातव्याः सर्वकर्मसु ॥३९२॥ भा०टी० - योगो सूर्य चंद्र नक्षत्रोना योगथी बने छे तेथी नक्षत्रोना स्वामीओ ज योगोना स्वामीओ जाणवा, सर्व कार्योगां नक्षत्रेशोनो ज योगेश रुपे उपयोग करवो. नारदना मते योगेशो आ प्रमाणे छे योगेशा यम - विष्णिवन्दु- धातृ - जीव- निशाकराः । इन्द्र-तोया-हि-वयर्क भू- मरुद्-भगतोयपाः ॥ ३९३॥ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ४९३ गणेश-रुद्र-धनद, त्वष्ट-मित्र-षडाननाः । सावित्री कमला गौरी, नासत्यौ पितरो दितिः ॥३९४॥ __ भा०टी०-यम, विष्णु, चन्द्रमा, धाता, बृहस्पति, चन्द्रमा, इन्द्र, जल, सर्प, अग्नि, सूर्य, भूमि, मरुत् . भग, वरुण, गणेश, रुद्र, धनद, त्वष्टा, मित्र, कार्तिकेय, सावित्री, कमला, गौरी, अश्विनीकुमार, पितर, दिति, आविष्कंभादि २७ योगोना स्वामिओ छे. तिथिकरणादिना स्वामियोना प्रयोजन विषे वराहःयत्कार्य नक्षत्रे, तवत्यासु तिथिषु तत्कार्यम् । करण-मुहूर्तेष्वपि तत्, सिद्धिकरं देवतासदृशम् ।।३९५।। भा०टी०-जे नक्षत्रमा जे कार्य करवान होय ते नक्षत्र स्वामि तिथिमां करवाथी सिद्ध थाय छे, एज प्रमाणे नक्षत्र स्वामि समस्वामिक करण तथा मुहूर्तोर्मा पण कार्य करवु सिद्धिदायक थाय छे. विष्कंभादि विधेय कार्योंचौलं च बीजरोपं च, स्त्रीसंग दन्तकल्पनम् । काष्ठकर्म रिपूचाट, विष्कंभे तु प्रकारयेत् ॥३९६॥ मित्रत्वं लेपनं चैव, भूषणं भूपरिग्रहम् । राजवश्यं महोत्साहं, प्रीतियोगे प्रकारयेत् ॥३९७॥ बीजवापं धनग्राह-मायुरारोग्यकर्म च । विवाहं व्रतबन्धं च, ह्यायुष्मति च कारयेत् ॥३९८॥ वस्त्रबन्ध-मलंकारं, सौभाग्यं लेपकर्म च । सोमपानं सुरापानं, सौभाग्ये तु प्रकारयेत् ॥३९९।। विवाहदानकर्माणि, भूषणं भूपरिग्रहम् । राजाभिषेकमायुष्यं, शोभने च प्रकारयेत् ॥४००॥ भा०टी०-चूडाकर्म, बीजवापन, स्त्रीसंग, दन्तशोधन, काष्टकार्य, शत्रुनु उच्चाटन, ए कार्यों विष्कंभमां करावयां, मित्रता, Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्टे विलेपन, भूषणधारण, भूमिनी खरीदी, राजवशीकरण अने महोत्साहजनक कार्य ए सर्व कार्य प्रीतियोगमां कराववां. बीजवपन, द्रव्यसमादान, आयु तथा आरोग्यवर्धक कार्य, विवाह, व्रतग्रहण ए कार्यों आयुष्मान् योगा कराववां. वस्त्रपरिधान, अलंकार कार्य, सौभाग्यकर्म, लेपकर्म, सोमवल्लीरसपान, मदिरापान ए सौभाग्य योगमा कराववां. विवाह, दान, भूषणकर्म भूमिग्रहण, राजाभिषेक अने आयुष्यवर्धक कर्म शोभनयोगमा कराक्वां. विग्रहं निग्रहं चैव, रोदनं वधबन्धनम् । छेदनं वञ्चनं क्षुद्र-मतिगण्डे प्रकारयेत् ॥४०१॥ चित्रकर्म गृहस्थापं, कल्याणं भूपरिग्रहम् । राजाभिषेककर्माणि, सुकर्मणि च कारयेत् ॥४०२॥ प्राकारं तोरणादीनि, देवालयगृहाणि च । सेतुबन्धं गजारोह, धृतियोगे तु कारयेत् ॥४०३।। क्रूरकर्म रिपूच्चाट, मारणं दाहनं तथा । बन्धनं चावमानं च, शूलयोगे प्रकारयेत् ॥४०४॥ शत्रुघातं रिपूच्चाट, तडागं सेतुबन्धनम् । क्षेत्रसेवां गदायुद्धं, गंडयोगे प्रकारयेत् ।।४०५॥ भा टी०-लडाइ, दंड करवो, रोवरावQ, वध-बन्धन, कापवू, ठग, अने हलकटकाम अतिगंडयोगमा करावा, चित्रकारी, गृह स्थापन, मंगलकार्य, भूमिग्रहण, राजाभिषेक क्रिया ए कामो मुकर्मा योगमा करावा. किल्लेबन्धी, तोरणादिकार्यों, देवालयो, घरो, पुलो बांधवा, हाथी उपर चढवु ए कार्यो धृतियोगमा करावा. क्रूर कार्य, शत्रुनुं उच्चाटन, मारण, बालवू, बंधन अने अपमान ए कार्यों शूलयोगमां करावबां. शत्रुनो घात, शत्रुनुं उच्चाटन, तलावखणवो, पुलबांधवो, क्षेत्रकर्षण करवू अने गदायुद्ध ए कामो गंडयोगमा करावा. Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ योग-लक्षणम् ] बीजवापं धनग्राहं, विवाहं वस्त्रबन्धनम् । तडाग सेतुबन्धं च, वृद्धियोगे प्रकारयेत् ॥४०६।। वस्त्रबन्धं गृहस्थापं, तडाग सेतुबन्धनम् । भूषणं बहुरत्नं च, ध्रुवयोगे प्रकारयेत् ॥४०७॥ बन्धनं रोधनं चैव, घातनं छेदनं तथा । क्रराणि बहुकर्माणि, व्याघाते तु प्रकारयेत् ॥४०८।। वस्त्रबन्धं गजारोहं, विवाहं भूपरिग्रहम् । राजाभिषेकमायुष्यं, हर्षणे तु प्रकारयेत् ॥४०९।। शस्त्रकर्म रिपूच्चाट, शस्त्राणां च परिग्रहम् । सेनाधिपत्यं सौम्यं च, वज्रयोगे प्रकारयेत् ॥४१०॥ भा०टी०-बीजवपन, धनग्रहण, विवाह, वनपरिधान, तडागखनन, पुल बांधवो आदि कामो वृद्धियोगमा करावबां. वस्त्रपरिधान, गृहस्थापन, तलावबन्धन, पुलबंधन, भूषणपरिधान, अनेकविध रत्नधारण ए ध्रुवयोगमा करावां, बन्धन, अवरोध, घातन, छेदन, अनेकविध कर कर्मों व्याघातयोगमां करावयां. वस्त्र बन्धन, हस्त्या. रोहण विवाह, भूमिग्रहण, राजाभिषेक आयुष्यपोषक कर्म ए सर्व हर्षणयोगमा कराववां. शस्त्रप्रयोग, शत्रुनु उच्चाटन, शस्त्रोनो संग्रह, सेनापतित्वनो स्वीकार अने सौम्यकर्म वज्रयोगमा कराववां. हारकाञ्चीकलापं च, हस्ताभरणमेव च । अंगुलीभूषणं चैव, सिद्धियोगे प्रकारयेत् ॥४११॥ दानं वेदविदे दद्याच्छद्धासंकल्पनं तथा । रिपूच्चाट विषादीनि, व्यतीपाते तु कारयेत् ॥४१२॥ हारकाञ्चीकलापं च, हस्ताभरणमेव च । अंगुलीभूषणं चैव, वरीयसि च कारयेत् ॥४१३॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे बन्धनं छेदनं चैव, भेदनं विषदीपनम् । तथाऽन्यक्रूरकर्माणि, परिघे तु प्रकारयेत् ॥४१४॥ मालिकां कटिसूत्रं च, घ (क)ण्ठाभरणमेव च । कर्णयोर्भूषणं चैव, शिवयोगे प्रकारयेत् ॥४१५॥ भा०टी०-हार, कटिमेखला, हस्तभूषण, अंगुलीभूषण ए सर्व सिद्धियोगमां कगवां, वेद पाठी दान देवू, श्रद्धापूर्वक संकल्पकरवो, शत्रुनु उच्चाटन, विपदान आदि कार्यों व्यतीपातमां करा ववां, हार, कटिसूत्र, हस्तभूषण, अंगुलीभूषण ए कामो वरीयस् योगमा कराववां, बंधन, छेदन, भेदन, विषप्रयोग तथा बीजां क्रूर कर्मों परिघ योगमां करावयां, माला (मौक्तिकमाला) कटिसूत्र, गलान भूषण, कानोनां भूषण इत्यादि शुभ कार्यों शिवयोगमा करावा. प्रतिष्टा देवतानां च, गृहाणि नगराणि च । प्राकारतोरणादीनि, सिद्धयोगे प्रकारयेत् ॥४१६॥ देवतागुरुपूजां च, विद्यापूजां तथैव च। मन्त्रपूजान्यनेकानि, साध्ययोगे प्रकारयेत् ॥४१७॥ बीजवापं गृहोत्साहं, धनधान्यादिसंग्रहम् । सर्वरत्नमहीग्राहं, शुभयोगे प्रकारयेत् ॥४१८॥ लेपनं भूषणं चैव, राजसंदर्शनं तथा। कन्यादानं महोत्साहं, शुक्लयोगे प्रकारयेत् ॥४१९॥ शान्तिकं पौष्टिकं चैव, तडागं सेतुबन्धनम् । चौलोपनयनं क्षौरं, ब्रह्मयोगे प्रकारयेत् ।।४२०॥ भा टो०-देवताओनी प्रतिष्ठाओ, गृहनिवेश, नगर निवेशो, प्राकारनिर्माण, तोरणनिवेश आदि कार्यो सिद्ध योगमा Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] ४९७ कराववां, देवतापूजन, गुरुपूजन, सरस्वतीपूजा अने अनेकविध मंत्रपूजनो साध्ययोगमां कराववां, बीजवाप, गृहोत्सवो, धन-धान्य संचय सर्वरत्नसंग्रह, भूमिग्रहण आदि कार्यों शुभयोगमां करावयां विलेपन, भूषण, राजदर्शन, कन्यादान, उत्साहप्रेरक कार्यों शुक्लयोगमां कराववां, शान्तिक-पौष्टिककर्म, तलावबंधन, पुलबंधन, चूडाकर्म, उपनयन, क्षौर ए सर्व ब्रह्मयोगमां करावा. कन्यादानं गजारोहं, स्त्रीसंग वस्त्रबन्धनम् । काव्यगायनवाद्यानि, योगे चैन्द्रे प्रकारयेत् ॥४२१॥ घातनं परराष्ट्राणां, वश्चनं दाहनं तथा। छेदनं करकर्माणि, वैधृतौ तु प्रकारयेत् ॥४२२॥ भाटी०-कन्यादान, तारोहण, स्त्रीसंग, वस्त्रपरिधान, काव्याभ्यास, गानाभ्यास वाद्यकल न्यास ए कार्यों ऐन्द्रयोगमा करावा, बीजा राष्ट्र उपर चढाइ, ठग बालवू, छेदवु अने बीजां क्रूरकर्मो वैधृति योगमां कराववां. क्षणयोगो जेम एक तिथिमा बधी तिथिओ, एक वारमा बधा वारो पोतपोताना क्षणो भोगवे छे ते प्रमाणे एक योगमां पण बधा योगो पोताना क्षणो भोगवे छे, ए विषयमा ब्रह्मर्षि वसिष्ट कहे छे योगस्य सप्तविंशांशो, योगमानं भवेदिह । एकस्मिन्नपि योगेऽपि, सर्वे योगा भवन्ति हि ॥४२३॥ भा०टी०-एक योगमां पण सर्व योगो होय छे. अने आ क्षणयोगोनो भोगकाल इहां योगमानमा सत्तावीसमा भाग जेटलो होय छ, उदाहरण-विष्कंभ योगना आरंभनी २ घडी १३ पलोसुधी विष्कंभ योगनी भुक्ति जाणवी पछी २ घडी १३ पल सुधी प्रीतियोगनी ते पछी आयुष्माननी इत्यादि. Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण- कलिका - प्रथम खण्डे आनन्दादि २८ उप-योगो आनन्दाख्यः- कालदण्डश्च धूम्रो, धाता सौम्यो ध्वांक्ष-केतु क्रमेण । श्रीवत्साख्यो वज्रकं मुद्गरश्व, छत्रं मित्रं मानसं पद्म - लुम्बौ ||४२४ ।। उत्पात मृत्यू किल काण- सिद्धी, शुभोऽमृताख्यो मुसलो गदश्च । मातंग-रक्षश्चरसुस्थिराख्याः, प्रवर्धमानाः फलदाः स्वनाम्ना ||४२५| भा०टी० - १ आनंद २ कालदंड ३ धूम्र ४ धाता ५ सौम्य ६ ध्वांक्ष ७ ध्वज ८ श्रीवत्स ९ वज्र १० मुद्गर ११ छत्र १२ मित्र १३ मानस १४ पद्म १५ लंबक १६ उत्पात १७ मृत्यु १८ काण १९ सिद्धि २० शुभ २१ अमृत २२ मुशल २३ गद २४ मातंग २५ राक्षस २६ र २७ स्थिर अने २८ वर्धमान, आ आनन्दादि २८ योगो दिन योगोना साहचर्य मां रहेता होवाथी उपयोगो गणाय छे. ४९८ आ योगो मुहूर्तचिन्तामणिकारे नारदना मत प्रमाणे लख्या छे, आरंभसिद्धिमां लखेल नामोनी साधे आ नामो ए ठेकाणे जुदां पडे छे, नंबर ३|४|१३|१४|१५|१६|१८।२०।२३ ना योगोनां नामो आरंभसिद्धिमां अनुक्रमे प्राजापत्य, सुरोत्तम मनोज्ञ, कंप, लुंपक, प्रवास, व्याधि, शूल अने गज ए प्रमाणे छे, आ योगोनुं फल नाम प्रमाणे होय के आनन्दादि योगो जाणवानो उपायदात्रादर्के मृगादिन्दौ, सार्पाद् भौमे कराट् बुधे । मैत्राद् गुरौ भृगौ वैश्वाद्, गण्या मन्दे च वारुणात ॥४२३॥ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् भा०टी०-रविवारे अश्विनीथी, सोमे मृगशिराथी, भौमे आश्लेषाथी, बुधे हस्तथी, गुरुवारे अनुराधाथी, शुक्रे उत्तराषाढाथी, शनिवारे शतभिषायी गणतां दिननक्षत्र जेटला, थाय तेटलामो ते दिवसे आनन्दादि योग छे एम जाणवू, प्रश्न-आश्विन शुदि १० गुरुवारे श्रवण नक्षत्र छे तो ते दिवसे आनन्दादि योग कयो होवो जोइए ? उत्तर-गुरुवार होवाथी अनुराधाथी अभिजित् सहित गणतां श्रवण ७ मुंछ माटे ते दिवसे आनन्दादि पैकीनो ७ मो 'ध्वन' योग छ एम जाणवू. एज प्रमाणे दरेक वारे उपर्युक्त नियतनक्षत्रथी दिननक्षत्र पर्यन्त गणीने आनन्दादि योगी जाणी शकाय छे. आनन्दादि योगो पैकीना अशुभयोगोनी वयं घडी ध्वाक्षे बजे मुद्गरे चेषु नाड्यो। वा वेदाः पद्मलंबे गदेऽश्वाः । धूम्र काणे मौसले भूवयं हे। रक्षोमृत्यूत्पोतकालाश्च सर्वे ॥ ४२७॥ भा०टी०-ध्वांक्ष, वज्र अने मुद्रनी पहेली ५ घडीओ वर्जवी, पटुंबकनी ४-४ घडीओ, गदनी ७ घडीओ, धूम्रनी १, काणनी २, अने मुसलनी २ घडीओ वर्जवी ज्यारे राक्षस मृत्यु, उत्पात, अने कालदण्ड आ योगो संपूर्ण वर्जवा. आरंभसिद्धिकार अशुभयोगोनो परिहार कहे छेसिद्धियोगः कुयोगश्च, जायेतां युगपद्यदि । कुयोगं तत्र निर्जित्य, सिद्धियोगो विजृम्भते ॥४२८॥ भाण्टी-सिद्धियोग (रवि, राज, कुमार, अमृतसिद्धि आदि कार्यसाधक योगो पैकीनो कोइ पण एक) अने कुयोग (मृत्यु, उत्पात राक्षस, यमघंट आदि वर्जित योग) जो एक साथे आवे Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्ड तो त्या कुयोगना प्रभावने दूर करी सिद्धियोग पोताना प्रभावने प्रगट करे छे. प्रकीर्णक शुभयोगो १ रवियोग योगो रवेर्भात् कृततर्क नन्द-दिग्विश्चविंशोडषु सर्वसिद्धयै आयेन्द्रियाऽश्वद्विपरुद्रसारी- राजोडुषु प्राणहरस्तु हेयः ॥४२९॥ भान्टी -रविनक्षत्रथी ४।६।९।१०।१३।२० एटला, चन्द्रनक्षत्र आवतां सर्व कार्य सिद्धिकारी रवियोग बने छे अने मूर्य नक्ष थी जो १।५।७।८।११।१५।१६ आटलामुं चन्द्रनक्षत्र होतां जे रवियोग वने छे ते प्राणहानि करे छे, जे त्याज्य छ रवियोग फलइक्कस्स भये पंचाणणस्स, भजति गयघडसहस्सं । तह रवि जोगपणट्ठा, गयणमि गहा न दीसंति ।' ४३० ।। एआण फलं कमसो, विउलं सुक्खं जओ य सत्तूणं । लाभो य कजसिद्धी, पुत्तुप्पत्ती य रजं च ॥४३१ ।। भान्टी०-एक सिंहना भयथी जेम हजार हाथीओनी घटा भागे छ तेम रवियोगथी आकाशमां भागेला ग्रहो दृष्टिगोचर थता नथी. आ रवियोगोनुं फल अनुक्रमे आ प्रमाणे छे-४ था रवियोगथी यतुं मुख, ६ट्ठाथी शत्रुओनो विजय, ९माथी लाभ-धनप्राप्ति, १० माथी इष्ट कार्य सिद्धि, १३ माथी पुत्रोत्पत्ति अने २० मा रवियोगथी राज्यमाप्ति सुधिनुं फल मले छे. __२ कुमारयोगयोगः कुमारनामा, शुभः कुजज्ञेन्दुशुक्रवारेषु । अश्व्यायै वर्धन्तरितैर्नन्दा-दश पञ्चमीतिथिषु ॥४३२॥ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम्] ___भाटी०--मंगल, बुध, सोम, शुक्र पैकीनो कोइ वार, अश्विनी, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, हस्त, विशाखा, मूल, श्रवण, पूर्वाभाद्रपदा आ नक्षत्रो पैकीन कोइ नक्षत्र अने नन्दा (१।६।११) पंचम, दशम आ तिथिओ पैकीनी कोइ तिथी, आ त्रणना योगे कुमारयोग उपजे छे, कुमारयोग धार्मिक अने मांगलिक कार्योमां शुभ गणाय छे. कुमारयोगफल बंगालमुनिप्रोक्तः कुमारयोगो दिने सदोषेऽपि । अस्मिन् कार्य कार्य, दीक्षायात्राप्रतिष्ठादि ॥४३३॥ भा०टी०-कुमारयोग बंगाल देशीय मुनिओए कहेलो छ, दोषवाला दिवसे पण आ कुमारयोगमां दीक्षा, यात्रा, प्रतिष्ठा आदि कार्यों करवां, मूलमा आवेल 'आदि' शब्दथी विद्याग्रहण, मैत्री, प्रतिमाप्रवेश, गृहप्रवेश आदि दरेक स्थिर कार्यों कुमारयोगमा करवाथी कार्य सिद्धि थाय छे अने कर्त्ताने यश मळे छे. ३ राजयोगराजयोग भर पयाये, व्यन्तरेभैंः शुभावहः । भद्रातृतीयाराकासु, कुजज्ञभृगुभानुषु ॥ ४३४॥ भाण्टो०-भरणीथी मांडी बे बेने आंतरे रहेल नक्षत्रो अर्थात् भरणी, मृगशिरा, पुष्य पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा. अनुराधा, पूर्वाषाढा, धनिष्ठा उत्तराभाद्रपदा आ नक्षत्रो, भद्रा तिथि अर्थात् द्वितीया सप्तमी, द्वादशी, तृतीया अने पूर्णिमा आ तिथिओ अने मंगल बुध, शुक्र अने सूर्यवार, आत्रण पैकीर्नु काइ पण नक्षत्र कोइ पण तिथि अने कोइ पण वार आवतां राजयोग बने छे. राजयोग फल Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे रविजोगराजजोग-कुमार जोगेसु सुद्धदिअहे वि। जं सुहकलं कीरइ, तं सव्वं बहु फलं होइ ॥ ४३५॥ ___ भा०टी०--रवियोग राजयोग अने कुमारयोगोमां अने शुद्ध दिवसे जे शुभ कार्य कराय छे ते सर्व घणुंज सफल थाय छे, अहियां शुभ कार्य तरीके लघु-क्षिप्र नक्षत्रोमां करवानां कार्यों, मांगल्य कार्यों, धार्मिक क्रियाओ, पौष्टिककार्यों, क्षेत्रारंभ, गृहारंभनिर्माण, भूषणपरिधान आदि कार्यों करवा. ४ अमृतसिद्धियोगहस्त-सौम्याऽश्विनीमैत्र-पुष्य-पौष्ण विरश्चिभैः । भवत्यमृतसिद्धयाख्यो, योगः सूर्यादिवारगैः ॥४३६॥ भा०टी०-रविवारे हस्त, सोमवारे मृगशिरा, मंगलवारे अश्विनी, बुधवारे अनुराधा, गुरुवारे पुष्य, शुक्रवारे रेवती अने शनिवारे रोहिणी वडे अमृतसिद्धिनामनो योग बने छे. अमृतसिडिनु बलभद्रासंवर्तकाद्यैश्च, सर्वदुष्टेपि वासरे। योगोऽस्त्यमृतसिद्धयाख्यः, सर्वदोषक्षयस्तदा ।। ४३७ ।। भाण्टी०-भद्राकरण, संवर्तकादि अशुभ योगोथी सर्वप्रकारे दुषित थयेल दिवसे पण जो अमृतसिद्धि योग छे तो सर्व दोषोनो क्षय थइ जाय छे. आ वचन अमृतसिद्धिनुं प्राशस्य बतावे छे, वास्तवमां भद्रा, व्यतिपात, वैधृत जेवा सर्वघातक योगोनुं बल हटाववानी शक्ति अमृतसिद्धिमा पण नथी, आ संबंधमां ग्रन्थान्तरमां कडं छहन्त्यमृताख्यो योगः, सर्वाण्यशुभानि लीलया नियतम् । न भवति पुनरिह शक्तो, वैधृतिविष्टिव्यतीपाते ॥४३८।। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] भाटी०-अमृतसिद्धियोग नियमपूर्वक सर्व अशुभ योगोनो विनाश करे छे पण वैधृति, विष्टि (भद्रा) अने व्यतिपातना दोषने हणवाने ए. पण समर्थ थतो नथी. ५ सिद्धियोग मूलश्रुत्युत्तराभाद्र-कृत्तिकादित्यभाग्यभैः । सस्वातिकैः क्रमात् सिद्धि-योगाः सूर्यादिवारगैः॥४३९।। __ भाण्टी -मूल, श्रवण, उत्तराभाद्रपदा, कृतिका. पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी अने स्वाति ए नक्षत्रो अनुक्रमे रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु. शुक्र शनिवारे आवे तो सिद्धियोग उपजे छे, रविए मूल, मोमे श्रवण, मंगले उत्तराभाद्रपदा, बुधे कृतिका, गुरुए पुनर्वसु, शुक्र रेवती, शनिए रोहिणीथी वनता सिद्धियोगो बीजे नंबरे अमृतसिद्धि जेवा छे. ६ स्थिरयोगस्थिरयोगः शुभो रोगो च्छेदादौ शनिजीवयोः । त्रयोदश्यष्टरिक्तासु, द्वयन्तः कृत्तिकादिभैः ॥४४०॥ __ भा टी०-शनि, गुरुवार, तेरस, अष्टमी, चोथ, नोम, चौदश तिथि अने कृतिका, आर्द्रा, आश्लेषा, उत्तराफाल्गुनी, स्वाति, ज्येष्ठा, उत्तराषाढा, शतभिषा, रेवती, आ नक्षत्रोना योगथी स्थिर योग बने छ, आ योग रोगनिवृत्ति आदिना कामोमां शुभ गणाय छे. स्थिरयोगनो विषयअपुनःकरणं येषा-मनशन-संग्राम-वैरमुख्यानाम् । अर्थास्त एव कार्या, विवुधैरनिशं स्थविरयोगे ॥ ४४१ ॥ भा टी-जे कामो फरीथी करवा जेवां न होय तेज कामो विद्वानोए स्थविर (स्थिरयोगर्नु वीजुं नाम) योगमां करवां, जेवां के अनशन (अन्त समयनो आहार त्याग ) युद्ध, वैरभाव प्रमुख. Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ए विषयमा पाकश्री ग्रन्थमा ओ प्रमाणे लखेल छे. अणमण-खिल-वाहि-रिण रिउ रण-दिव्व-जलासए बंधो। कायव्यो थिरजोगे, जस्स य करणं पुणो णत्थि ॥ ४४२॥ __ भा०टी०-अनशन, क्षेत्रशोधन, व्याधिनो प्रतिकार, शत्रुनो प्रतिकार, रिण चुकाव, युद्ध, दिव्य-कोशपानादि करवं, जलाशय बांधवो ए सर्व कार्यों अने जे कार्यों फरी करवानां न होय तेवा सर्व कार्यों स्थिर योगमा करवा. ___उक्त कार्यो के ते प्रकारना ज बीजां कार्योमां ज आयोगलेवो पण बीजा कार्योमां-खास करीने शुभ कार्योमां-जे वार बार करवानां होय तेषां विवाह, प्रतिष्ठा, दीक्षा, आदिमां ए योग वर्जवो आ स्थविर योग शुभ नथी तेम अशुभ पण नथी तेथी शुभयोगोना अन्ते अने अशुभ योगोना प्रारंभ पूर्व लख्यो छे. प्रकीर्ण अशुभ योगोउत्पात-मृत्यु-काण-योगोराधाव्यवासवात् पौष्ण-ब्राह्मज्यार्यममात क्रमात । त्रिषुत्रिष्वर्कतो योगा, उत्पात--मृत्यु-काणकाः। ४४३ ॥ भा०टी०-विशाखा, पूर्वाषाढा, धनिष्ठा, रेवती, रोहिणी, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, आ सात नक्षत्रोथी शरु थतां त्रण त्रण नक्षत्रो अनुक्रमे रवि सोम मंगल बुध, गुरु, शुक्र, शनिवारे आवतां क्रमेण उत्पात मृत्यु काण, ए त्रण त्रण योगो उपजे छे. जेम के रविवारे विशाखा होय तो उत्पात, अनुराधा होय तो मृत्यु, ज्येष्टा होय तो काण, सोमवारे पूर्वाषाढाए उत्पात, उत्तराषाढा ए मृत्यु. अभिजिते काण, मंगलवारे धनिष्टाए उत्पात, शतभिषाए मृत्यु, पूर्वाभाद्रपदाए. काण, एज प्रमाणे बुधवारे रेवतीथी उत्पातादि त्रण, गुरुवारे Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग- लक्षणम् ] ५०५ रोहिणीथी उत्पातादि त्रण, शुक्रवारे पुष्यथी उत्पातादि त्रण अने शनिवारे उत्तराफाल्गुनीथी उत्पातादि त्रण योगो थाय छे ते स्वयं नाणी सेवा. यमघण्टायोग मघा - विशाखार्द्रामूलकृतिका - रोहिणी - करैः । रव्यादिवार संयुक्त-र्यमघण्टो भृशाशुभः ॥ ४४४ ॥ भा०टी० - मघा विशाखा आर्द्रा मूल कृत्तिका रोहिणी हस्त आ नक्षत्रो अनुक्रमे रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनिवारे आवे तो यमघंट नामक योग बने छे जे घणो ज अशुभ होय छे. वज्रमुसल योग — याम्य-चित्रोत्तराषाढा, वासवार्यमशाक्रभैः । रेवती सहितैर्वज्र - मुसलोर्कादिवारगैः ॥ ४४५॥ भा०टी० - भरणी, चित्रा, उत्तराषाढा धनिष्ठा उत्तराफाल्गुनी ज्येष्ठा रेवती आ सात नक्षत्रो अनुक्रमे रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनिवारे आवे तो वज्रमुसल योग उपजे छे, आ योगनुं बीजुं नाम ग्रहजन्मनक्षत्र योग छे. क्रकच योग J यत्र संख्यायुतौ वार-तिथ्योर्जातास्त्रयोदश । ज्ञेयः क्रकचयोगोऽयं, हेयश्च शुभकर्मसु ॥४४६ ॥ भा०टी० – ज्यां वार तिथिना अंकने जोडतां जो १३ नी संख्या थाय तो जाणवुं के ते दिवसे क्रकच योग छे, रवि बारस, सोम अग्यारस, मंगल दशम, बुध नवमी, गुरु अष्टमी, शुक्र सप्तमी अने शनि षष्ठीना आंकोनी संख्या १३ आवे छे एटले आ वार अने तिथिओना योगे क्रकच योग बने छे आ क्रकचयोग शुभ कार्योंमां वर्जवो जोइये. ६४ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ [ कल्याणकलिका - प्रथमाण्डे वज्रपातयोग वज्रपातं त्यजेद् द्वित्रि - पञ्चषट्सप्तमे तिथौ । मैत्रेऽथ त्र्युत्तरे पैत्र्ये, ब्राह्मे मूलकरे क्रमात् ॥४४७|| भा०टी० बीज त्रीज पांचम छठ सातभ तिथिए अनुक्रमे अनुराधा, त्रण उत्तरा, मघा, रोहिणी अने मूल तथा हस्त नक्षत्र आवत वज्रपातनामक योग बने छे जे वर्ज्य छे. संवर्तकयोग प्रतिपत्रित सौम्ये, सप्तम्यां शनि-जीवयोः । षष्ठयां गुरौ द्वितीयायां, शुक्रे संवर्तको भवेत् ॥४४८|| भा०टी० - प्रतिपदा द्वितीया तृतीया आ तिथिओए बुधवार होय, सप्तमी शनि अथवा गुरुवार होय, पष्ठीए गुरुवार होय अथवा द्वितीयातिथिए शुक्रवार होय तो संवर्तक योग उपजे छे ते वर्जित करवो. - कालमुखी तिथि - उत्तर पंचमीमघा, कित्तियनवमीइ तइयअणुराहा । पंचमी रोहिणीसहिया, कालमुही जीवनाशयरी ||४४९ ॥ भा०टी० - चतुर्थी उत्तराफाल्गुनी उत्तराषाढा अने उत्तराभाद्रपदा सहित होय. पंचमी मघा सहित, नवमी कृत्तिका सहित, तृतीया अनुराधा सहित अने पंचमी रोहिणी सहित होय तो ते कालमुखी तिथि गणाय छे. जे जीव नाश करी छे. ज्वालामुख तथा दग्धयोग चतुर्थी चोत्तरायुक्ता, मधायुक्ता तु पञ्चमी । तृतीययाऽनुराधा च, नवम्या सह कृत्तिका ||४५० ॥ - १ आरंभसिद्धिवार्तिकमां पाठान्तर नीचे मुजब छे अट्ठमि रोहिणी सहिया, कालमुद्दी जोगिमास छगिमच्चू || Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] अष्टम्या रोहिणीयुक्ता, योगो ज्वालामुखाभिधः। त्याज्योऽयं शुभकार्येषु, गृह्यते त्वशुभे पुनः ॥४५१॥ एकादश्यामिन्दुवारो, द्वादश्यामर्कवासरः । षष्ठयां वृहस्पतेर्वारस्तृतीया बुधवासरे ॥४५२॥ अष्ठमी शुक्रवारे तु, नवमी शनिवासरे । पश्चमी भौमवारे च, दग्धयोगाः प्रकीर्तिताः ॥४५३॥ भाण्टी०--उत्तरात्रय सहित चतुर्थी, मघा युक्ता पंचमी, अनुराधा सहित तृतीया, कृत्तिका युक्त नवमी, रोहिणी युक्त अष्टमी हाय तो 'ज्वालामुख' नामक योग उत्पन्न थाय छे. आ योग शुभ कार्योमा वर्जवो अने अशुभमां लेवो. एकादशीओ सोमवार, द्वादशीथे रविवार, षष्ठी गुरुवार, तृतीया बुधवार, अष्टमीए शुक्रवार, नवमीए शनिवार अने पंचमीए मंगलवार आवतां दग्ध योग बने छ एम शास्त्र कहे छे. शुभयोग-कोष्ठक | सूर्यनक्षत्रात् ४।६।९।१०।१३।२० तमे चन्द्रनक्षत्रे-रवियोग सो मंबु शु वारे १।५।६।१०।११। अरो-पुन म-ह-वि-मू-श्र-पूमा कुमार० सू मंबुशुवारे २।३।७।१२।१५ तिथि-भ मृापूफाचि अनु-पूषा धउभा-राज० रवि-हस्त, सो-मृ, मं-अश्वि, बु-अनु, गु-पु, शु-रे, श-रो, अमृत सिद्धि | र-मू , चं-श्र, मं-उभा, बु-कृ, गु-पुन, शु-रे, शनि रो, सिद्धियोग गु-सवारे, ४-८-९-१३-१४ तिथि, कृ आ आश्लेउफास्वाज्ये उपाश रे स्थिरयोग Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्ड अशुभयोग कोष्ठकसो मं | बु गु शु श योग वारें नक्षत्र |वि | पूषा|ध | रे रो | पुष्य उफा उत्पात नक्षत्र | अनु| उषा| श | अ | मृ आरले ह | मृत्यु नक्षत्र | ज्ये अभि | पूभा भ आर्द्रा मचि | काण - - नक्षत्र म | वि आद्रा मू| क| रो| ह यमघण्ट क्रकच वज्रनक्षत्र | भ ! चि | उषा| ध उफा ज्ये | रे मुसल तिथि १२ | ११ | १०| ९ | ८ | ७ | ६ | क्रकच अशुभयोगोनो परिहार मृत्यु-क्रकच-दग्धादी-निन्दौ शस्ते शुभाजगुः । केचिद्यामोत्सरं चान्ये, यात्रायामेव निन्दितान् ॥४५४॥ भा०टी०-मृत्यु, क्रकच, दग्ध आदि अशुभयोगो चन्द्र शुभ होय तो अशुभ नथी एम केटलाक विद्वानो कहे छे ज्यारे बीजाओ कहे छे के मृत्यु क्रकचादि योगो (दक्षिण उत्तर दिशाए) यात्रामा ज अशुभ गणाय छे. अयोगे सुयोगोपि चेत्स्यात्तदानीं, कुयोग निहत्यैष सिद्धिं तनोति। परे लग्नशुद्धया कुयोगादिनाशं, दिनार्दोत्तरं विष्टिपूर्व च शस्तम् ॥४५५॥ भा०टी०-कुयोगमा शुभयोगो मेगा होय तो कुयोगनो नाश करी सुयोग कार्य सिद्धि करे छ, अन्य आचार्यों कहे छे के लग्नशुद्धिथी Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] कुयोगादिनो नाश थाय छे अने विष्टि आदि अपयोगो मध्याह्न पछी अशुभ फल आपता नथी. अथ वसिष्ठोक्ताः शुभयोगाः तिथि-नक्षत्रजन्य शुभयोग-- नन्दास्वंषुप-चित्राग्नि रौद्रविष्णूत्तरात्रय । वारयोगा भवन्त्येते, सर्वकार्ये शुभप्रदाः । ४५६॥ भा०टी०-१।६।११ आ नन्दातिथिओ तथा शतभिषा, चित्रा, कृत्तिका, आद्रो, श्रवण, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरा भाद्रपदा, आ नक्षत्रोना योगथी 'वारयोगो' बने छे आ वारयोगो सर्वकामोमां शुभ फल आपनारा छे. भद्रास्वदितिदैत्येज्ये, कमलासन तारकाः। श्रेष्ठयोगा भवन्त्येते, सर्वदा मंगलप्रदाः ॥४५७॥ भाष्टी०-भद्रातिथिओ (२७१२) मा पुनर्वसु, मूल, पुष्य, रोहिणी आ नक्षत्रो होय तो 'श्रेष्ठयोग' नामक योगो बने छ जे सदा मंगल आपनारा होय छे. जयासु वसुसोमार्क-दस्रान्त्येज्यभञ्युत्तराः॥ शुभयोगास्त्वमी नृणां, मंगले मंगलप्रदाः ॥४५८॥ भा०टी०- जया (३।८।१३) तिथिओमां धनिष्टा, मृगशिरा, हस्त, अश्विनी, रेवती, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा उत्तराभाद्र. पदा आ नक्षत्रो आवे छे त्यारे शुभयोगो बने छे आ योगो मंगल कार्योंमां मंगल आपनारा छे, रिक्तास्वीज्यद्विदेवेन्द्र-सार्पवायव्यतारकाः॥ तदा कल्याणयोगाः स्युः, सर्वकार्येषु शोभनाः॥४५९॥ भाण्टी-रिक्ता (४।९।१४) तिथिआमां पुष्य, विशाखा, ज्येष्ठा, आश्लेषा, स्वाति आ नक्षत्रो आवे त्यारे सर्वकार्योमां शुभफल Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे दायक 'कल्याण बोग' नामक योगो उपजे छे. उत्तरात्रयमैत्रेज्य-दस्रान्त्येन्दग्नितारकाः। भौमवारेण संयुक्ताः पूर्णयोगाः प्रकीर्तिताः ॥४६०॥ भा०टी०-उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, अनुराधा, पुष्य, अश्विनी, रेवती, मृगशिरा, कृत्तिका आ नक्षत्रो मंगलवार साथे होय त्यारे पूर्णयोगो उत्पन्न थाय छे. बुधवारे सुरेज्येन्दु-धातृवह्नित्रिरुत्तराः। हस्तत्रयानलास्ताराः, शंखयोगाः प्रकीर्तिताः। ॥४६॥ भाल्टी--बुधवारे पुष्य, मृगशिरा, रोहिणी, कृत्तिका, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, हस्त, चित्रा, स्वाति, आ नक्षत्रो आवे त्यारे शंखयोगो उपजे छे. गुरुवारेऽदितीज्यार्क-त्रयमित्रान्त्यतारकाः। श्रवणत्रयमित्येते, योगाश्चामृतसंज्ञकाः ॥४६२॥ भा०टी०-गुरुवारे पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा आ नक्षत्रो होय त्यारे * अमृतयोग' उपजे छे. रेवतीव्यहस्तेन्दु-धातृ-मित्रत्रिरुत्तराः । शुक्रवारेण संयुक्ताः पद्मयोगाः प्रकीर्तिताः ॥४६३॥ भाण्टी०- रेवती, अश्विनी, हस्त, मृगशिरा, रोहिणी, अनुराधा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा आ नक्षत्रो सहित शुक्रवार होय त्यारे पद्मयोगो उत्पन्न थाय छे. पूर्णासु पुष्यपौष्णोद्य-वसुवारीशतारकाः। वर्धमानाढया योगाः, शुभकार्यप्रवृद्धिदाः ॥४६४॥ भा०टी०-पूर्णा (५।१०।१५) तिथिओमां पुष्य, रेवती. Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] अश्विनी, धनिष्ठा शतभिषा ए नक्षत्रो आवे त्यारे शुभकार्यनी वृद्धि करनारा 'वर्धमान' नामक योगो उत्पन्न थाय छे. वार-नक्षत्रजन्य शुभयोग उत्तरात्रयपौष्णज्य-मूलार्कहरितारकाः। चित्रेन्यदितयः सौम्या, योगाः स्युर्भानुवासरे ॥४६५।। भाष्टी०-उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती. पुष्य, मूल, हस्त, श्रवण, चित्रा, मृगशिरा, पुनर्वसु आ नक्षत्रो रवि. वारे होय तो ' सौम्ययोगो' उत्पन्न थाय छे. सोमवारेऽदितिमरुद्वैष्णवत्रयतारकाः। रोहिणीद्वयशाक्रेज्या, महायोगाः प्रकीर्तिताः ॥४६६॥ भाल्टी-सोमवारे पुनर्वसु, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा रोहिणी, मृगशिरा, ज्येष्ठा, पुष्य आ नक्षत्रो होय त्यारे 'महायोग' संज्ञक योगो उपजे छे. रोहिणीद्रयपुष्यन्द्र-विष्णुत्रयमघोत्तराः। शनिवारेण संयुक्ता, योगाश्वानन्दसंज्ञकाः ॥४६७॥ भा०टी०-- रोहिणी मृगशिरा, पुष्य, ज्येष्ठा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, मघा, उत्तराफाल्गुनी उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा आ नक्षत्री शनिवार सहित होय त्यारे आनन्द संज्ञक योगो उपजे छे. हस्तेन्दुदमित्रेज्य-पौष्णपद्मजतारकाः । आदित्यादिषु वारेषु, सिद्धियोगाः प्रकीर्तिताः।४६८॥ भा०टी०- आदित्य सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनिवारे अनुक्रमे हस्त मृगशिरा अश्विनी अनुराधा पुष्य रेवती रोहिणी आ नक्षत्र आवे त्यारे 'सिद्धियोग' उपजे छे, पाछलना ग्रन्थकारो आ 'सिद्धियोग' ने अमृतसिद्धि' ना नामथी वर्णवे छे. Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પર [ कल्यागकलिका-प्रथमखण्डे मूलहर्युत्तराभाद्र-कृत्तिकादितयः क्रमात् । भाग्यानिलाख्या: पीयूष-योगा वारेष्विनादिषु॥४६९॥ भा०टी०-- सूर्यवारे मूल, सोमे श्रवण, भोमे उत्तराभाद्रपदा, बुधे कृत्तिका, गुरुवारे पुनर्वसु, शुक्रवारे पूर्वाफाल्गुनी, शनिवारे स्वाति नक्षत्र होय त्यारे 'पीयूषयोग' नामक योगो उत्पन्न थाय छे. आ 'पीयूषयोगो' आजकाल सिद्धियोगो रूपे ओलखाय छे. तिथि-वारजन्य शुभयोग नन्दाभौमार्कयोर्भद्रा, शुक्रेन्छोश्च जया बुधे । शुभयोगा गुरौ रिक्ता, पूर्णा मन्देऽमृताह्वया ॥४७०॥ भाल्टी०-मंगल तथा रविवारने दिवसे नंदा (श६।११) तिथिओ, शुक्र तथा सोमवारे भद्रा (२।७।१२) तिथिओ, बुधवारे जया (३।८।१३) तिथिआ, गुरुवारे रिक्ता (४।९।१४) तिथिओ अने शनिवारे पूर्णा (५।१०।१५) तिथिओ शुभयोगात्मक बनी 'अमृतातिथिओ' ए नाम प्राप्त करे छे.१ शुक्रज्ञकुजमन्देज्य-वारा नन्दादिषु क्रमात् । सिद्धातिथिः सिद्धिदास्यात् , सर्वकालेषु सर्वदा॥४७१॥ भा०र्ट -शुक्रवारे नन्दा (११६।११), बुधवारे भद्रा (२।७.१२), मंगलवारे जया (३।८।१३), शनिवारे रिक्ता (४।९।१४), अने गुरुवारे पूर्णा (५।१०।१५) तिथिओ होय त्यारे ते 'सिद्धो तिथि' ए नामथी ओलखाय छे अने सदाकाल ते सिद्धिदायक होय छे. १ वसिष्ठ नारदादिको पोतानी संहिताओमां अमृता ज लखी गया छे, पण नारदसंहिताना कोइ अशुद्ध पुस्तकना 'मृतिप्रदा' आवा पाठभी व्यामोहित थइ अर्वाचीन मन्थकारोए आ वार-तिथिओने 'मृतिप्रदा' वा 'मृत्युयोगा' आवो सिद्धान्त नक्की करीने वर्ण्य कर्या छे, वसिष्ठे गुणनिरुपणाध्यायमां आ योगो नुं निरूपण कयु होवाथी आ योगो शुभ छे अज सत्य वस्तु समजवी. Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] तिथि-नक्षत्रजन्य शुभयोग कोठकतिथयःनक्षत्राणि |योगनामानि नन्दा-१६।११ | कृाआ।उफा|चि।उषा । श्राश । उभा । वारयोग भद्रा-२।७।१२ | रो। पुन । पुष्य । मूल । श्रेष्ठयोग जया-३८।१३ | अश्वि। मृ । पु।उफा।होउषा|धाउभारे। शुभयोग रिक्ता-४।९।१४ | पु।।श्ले । स्वा । वि । ज्ये । कल्याणयोग पूर्णा-५।१०।१५ अश्वि। पु । ध । श। रे। वर्धमानयोग - - वार-नक्षत्र जन्य शुभयोग कोष्ठकवारा:नक्षत्राणि | योगनाम रविवारे मापुनापु।उफा|हाचि।उषा।मश्रिाउभारे। सौम्ययोग सोमवारे रोमापुनापुस्विा।ज्योश्राधाश । महायोग मंगलवारे अश्विाकामापु।उफाअनुउषा|उभारे। | पूर्णयोग बुधवारे | कारो।मापु।उफाहाचिास्त्रा।उषा।उभा! शंखयोग गुरुवारे पुनापुहाचिास्वा।अनु।श्राधाशारे। अमृतयोग | अश्विारोमाउफाहाअनु।उषा|उभारे।। पद्मयोग शुक्रवारे शनिवारेमापुरमाउफाज्ये।उषाश्रिाधाशाउमा। आनंदयोग Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याणकालका-प्रथमखण्डे वारेषु नक्षत्राणि योगनाम रचं मं बु गुशुश हामृाअश्विाअनु।पुारे।रो। सिद्धियोग र चं में बुगुशुश मात्राउभा।कपुनाफास्वा । | पीयूषयोग तिथि-वारजन्य शुभयोग कोष्टकसू | सो | मं | बु | गु | शु | श | योगनाम नन्दा| भद्रा | नंदा | जया | रिक्ता | भद्रा | पूर्णा ! १।६।११।७।१२/१।६।११/३।८।१३/४।९।१४/२७१२।१०।२५/12 जया | भद्रा | पूर्णा | नन्दा | शिक्ता ३।८।१३२।७।१२।५।१०।१५।६।११।२।१२ ग्रह-कृत शुभयोग लग्नमालोकयेज्जीवस्त्वथवा लग्नगो बली। वापीयोगः स विज्ञेय-स्त्वधिमित्रगृहस्थितः ॥४७२।। गुरुर्बली स्वलग्नस्थो, वीक्षयेद्रा विलग्नगः पुण्डरीको महायोगः, सर्वदा योगनायकः ॥४७३॥ शुभवर्गस्थितो जीवः, सुबली सौम्य वीक्षितः ॥ गुणशेखरसंज्ञोऽयं, योगो वा केवलं बली ॥४७४॥ एवं शुक्रोऽपि सौम्योऽपि, गुरुवद्योगकारको । ग्रन्थविस्तरभीत्याऽथ, त्वेवं संक्षिप्य चोदितम् ॥४७५।। वोत्तमगतो जीवः, शुक्रो वा चन्द्रजोऽपि वा। गुणधूर्जटिसंज्ञोऽयं, यदा ते बलिनस्तदा ।।४७६॥ भा०टी० गुरु बलबान थइने लग्नने जोतो होय अथवा ते लग्नस्थित होय अने अधिमित्रना घरनो होय तो वापीयोग थाय छे, गुरु Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] ५१५ स्वगृही होइ लमस्थित होय अथवा लग्नने जोतो होय तो पुण्डरीकनामक महायोग बने छ जे सर्वदा योगनायक होय छे. गुरू बलवान थइ शुभवर्गनो होय, सौम्यदृष्ट होय, वा केवल बलो होय तो पण गुणशेखरयोग कारक थाय छे. एज प्रकारे शुक्र तथा बुध पण उक्तयोग कारक थाय छ, पण ग्रंथ वधवाना भयथी लख्युं नथी. गुरू शुक्र के बुध बलवान थइ वर्गोत्तमांशमा रह्या होय तो प्रत्येक गुणधुटियोग कारक थाय छे. बलिनः केन्द्रगाः सौम्या, भवन्ति च यदा तदा। गुणभास्कर संज्ञोऽयं, यदि वा लाभसंस्थिताः॥४७६॥ वर्गोत्तमगतश्चन्द्रो, बलवाच्छुभवीक्षितः। लग्नमेवंविधं चेदा, गुणानां चन्द्रशेखरः ॥४७७॥ त्रि-षष्ठ-लाभगाः पापाः, बलिनः शुभवीक्षिताः। भवन्ति यदि योगोऽयं, श्रीवत्सो योगराट् प्रभुः ॥४७८॥ उच्चैस्थो लाभगः सूर्यः, पष्ठगो वा तृतीयगः । यदि स्यात् सिंहयोगोऽयं, तुंगांशस्थोऽपि वा यदि ।।४७९।। लाभस्थितो यदा सूर्यश्चन्द्रो वाप्येक एव सः। गुणसागर योगोऽयं, यदा भवति चेद् बली ॥४८०॥ भा०टी०-बलवान् थइ सौम्यग्रहो केन्द्रमा रह्या होय अथवा लाभ स्थित होय तो गुणभास्कर योग उत्पन्न थाय छे. चन्द्र वर्गोंत्तमांशमा होय, बलवान होय अने सौम्यदृष्ट होय अथवा लम से प्रकार, होय तो चन्द्रशेखर योग बने छे. पापग्रहो शुभदृष्ट अने बलवान थइ त्रीजे छठे के अग्यारमे आ स्थानोमा रह्या होय तो योगोनो राजा श्रीवत्सयोग बने छे. उच्चस्थित सूर्य लाभस्थित होय, वा त्रीजे के छठे होय अथवा उच्चशिस्थित होय तो सिंहयोग निष्पन्न थाय Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे छे. सूर्य वा चन्द्र बेमाथी एक बलवान थइने लाभ स्थानमा रह्या होय तो गुणसागर योग थाय छे. पुष्यस्याऽथ द्वितीयांश-संस्थितौ चन्द्रवाक्पती। बिजयो नाम योगोऽयं, समरे विजयप्रदः ॥४८१॥ परमोचगतोऽप्येको, जीवो वा ज्ञः सितोऽपि वा। ब्रह्मदण्डो महायोगः, सर्वदोषविनाशकृत् ॥४८२॥ मूलत्रिकोणगाः सौम्या, भवन्ति यदि वा शशी। प्रभंजनो महायोगस्त्वथवापि तदंशगाः ॥४८३॥ मूलत्रिकोणगाः पापा-स्त्रियष्ठायगता यदि । इन्द्रदण्डो महायोगस्तदंशकगतो अपि ॥४८४॥ मुहुर्तश्चाष्टमः शश्वदभिजिद्योगसंज्ञकः । गुणानामधिपः सेोऽपि, मध्यंदिनगते रवी ॥४८५॥ भा०टी०-पुष्य नक्षत्रना प्रथम चरणमा चंद्र अने द्वितीयमां बृहस्पति रहेला होय छे त्यारे युद्धमा विजय आपनारो विजययोग बने छे. गुरु बुध के शुक्र पैकीनो कोइ पण एक ग्रह परम उच्च अंशमां होय छे त्यारे सर्वदोषनाशक ब्रह्मदंड योग उत्पन्न थाय छे. सौम्य ग्रहो मूलत्रिकोणना होय अथवा चंद्र मूलत्रिकोणमां होय अथवा मूलत्रिकोणना अंशमां होय तो प्रभंजन महायोग बने छे. पापग्रहो मूलत्रिकोण अंथवा मूलत्रिकोणना अंशोमा रहेला होय अथवा तो श्रीजे छठे के अग्यारमे होय त्यारे इन्द्रदण्ड महायोग बने छे. दिवसनो आठमो मुहूर्त के जे सूर्य मध्याह्नमां आवे त्यारे आवे छे ते अभिजिद्योग सर्वगुणोनो नायक गणाय छे. अथ वसिष्ठोक्ता अशुभयोगाः वार-नक्षत्रजन्य अशुभयोग दिदैव-जल-वस्वन्त्य-ब्रह्मज्यार्यमतारकाः। उत्पातयोगा विज्ञेया, भानुवारादिषु क्रमात् ॥४८६।। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] __ मैत्रविश्वांवुवास्विन्दु-सार्पसूर्याख्यतारकाः। मृत्युयोगा मृत्युकराः, सूर्यवारादिषु क्रमात् ॥४८७॥ . भा०टी०-रविवारे विशाखा, सोमे पूर्वाषाढा, मंगले धनिष्ठा, बुधे रेवती, गुरुवारे रोहीणी, शुक्रे पुष्य, शनिवारे उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र आवता उत्पात योगो उपजे छ, अने रविवारे अनुराधा, सोमेउत्तराषाढा, मंगले पूर्वाषाढा, बुधे स्वाति, गुरुवारे मृगशिरा, शुक्रवारे आश्लेषा, शनिवारे हस्त, आ नक्षत्रो आवतां मृत्युयोगो उपजेछे. तिथिवारनक्षत्रजन्य अशुभयोग ब्रह्मज्यार्यमवैशाख-हरिवस्वन्त्य भेषु च । नन्दायामर्कवारादि-स्वन्धयोगाः प्रकीर्तिताः॥४८८॥ भाण्टी-रोहीणी पुष्य उत्तराफाल्गुनी विशाखा श्रवण धनिष्ठा रेवती आ ७ नक्षत्रो अनुक्रमे रवि सोम मुंगल बुध गुरु शुक्र शनिवारना दिवसे होय अने साथे नन्दा (१-६-११) पैकीनी कोइ तिथि होय तो ते दिने अन्धयोग बने छ एम जाणवू. रुद्रसापाबुनैर्ऋत्य-पितृभाग्याग्निभेषु च । भद्रातिथौ काणयोगाः, सूर्यवारादिषु क्रमात् ॥४८९॥ भा०टी०- रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनिवारना दिवसे अनुक्रमे आ आश्लेषा पूर्वाषाढा मूल मघा पूर्वाफाल्गुनी कृत्तिका ए नक्षत्र होय अने भद्रा (२-७-१२) तिथि होय तो काणयोगो उपजे छे. विदैवरौद्रभूलेन्द्र-वारिविश्व-पित्रुडुषु । जयासु पंगुयोगाः स्यु-रकवारादिषु क्रमात् ।।४९०॥ भाण्टी०- रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनिवारना दिवसोमा अनुक्रमे विशाखा आर्द्रा मूल ज्येष्ठा पूर्वाषाढा उत्तराषाढा Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे मघा आ नक्षत्रोनी साथे जया (३1८।१३) तिथि आवे तो पंगुयोगो उत्पन्न थाय छे. अजपात् पितृवह्नीश-त्वामित्रवसूडुषु । रिक्तासु बधिरा योगाः, सूर्यवारादिषु क्रमात् ॥४९१॥ भान्टीरवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनिवारे अनुक्रमे पूर्वाभाद्रपदा मघा कृत्तिका आर्द्रा चित्रा अनुराधा धनिष्ठा आ नक्षत्रो तथा रिक्ता (४।९।१४) तिथि होय तो बधिरयोगो उपजे छे. उद्वाहादिषु सर्वेषु, मंगलेष्वपि निन्दिताः एते स्युः षड्विधा योगाः, स्वनामफलदायकाः ॥४९२।। भाटी०-विवाह आदिमां अने अन्य पण सर्व मंगलकामोमां आ योगो निंदित गणाय छे, उत्पात. मृत्यु, अंध, काण . बधिर, पंगु, आ ६ प्रकारना योगो पोतपोताना नाम प्रमाणे फल देनारा छे. तिथि-वार-जन्य अशुभयोग द्वादश्येकादशीनाग-गौरी-स्कन्द-वसुष्वपि । नवम्यां दग्धयोगाख्या, भानुवारादितः क्रमात्॥४९३॥ भाटी०-रविवारे द्वादशी. सोमवारे एकादशी, मंगलवारे पंचमी, बुधवारे तृतीया, गुरुवारे षष्ठी, शुक्रवारे अष्टमी, शनिवारे नवमी, आ तिथिओ दग्धयोगा गणाया छे. ग्रहजन्मनक्षत्र-अशुभयोगभरणी चित्रा विश्वाख्य-वस्वार्यमनगारिषु । पौष्णभेष्ववारादि-स्वर्कादिग्रहजन्मभम् ॥४९४।। भाटी०-भरणी चित्रा उत्तराषाढा धनिष्ठा उत्तराफाल्गुनी ज्येष्ठा रेवती आ ७ नक्षत्रो सूर्यादि ७ ग्रहोना जन्मनक्षत्रो छे Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१९ योग-लक्षणम् ] तेथी रविवारे भरणी, सोमे चित्रा, मंगले उतराषाढा, बुधे धनिष्ठा, गुरुवारे उतराफाल्गुनी, शुक्रे ज्येष्टा, तथा शनिवारे रेवती नक्षत्र होय तो ग्रहजन्मनक्षत्र नामक अशुभ योग (ग्रन्थान्तरना मते वज्रमुसल योग) बने छे. उक्त बन्ने योगोनुं वसिष्ठ फल कहे छैअस्मिन् योगदये यत् तत्, कृतं कर्म विनश्यति। तस्माद् योगदयं त्याज्यं, मंगलेश्वपि सर्वदा ॥४९४॥ भा०टी०-दग्धायोग तथा प्रहजन्मनक्षत्रयोगमां करेल जे ते कार्य विनोश पामे छे माटे उक्त बंने योगोने सर्वदा शुभ कार्यामा पण त्याग करवा जोइये. अचिकित्स्य-दयोगकुजाक्योः सप्तमी षष्ठी, चन्द्रे नानौ चतुर्थिका। द्वितीया क्षेऽष्टमी जीवे, नवमी शुः वासरे । ४९५॥ अचिकित्स्या गदायोगा, मंगलेश्वपि निन्दिताः ॥ भगंदराश्मरीकुष्ट-क्षयरोगप्रदायकाः ॥४९६॥ _ भा०टी०-मंगल अने शनिवारे सप्तमी, सोमवारे षष्ठी रविवारे चतुर्थी, बुधवारे द्वितीया, गुरुवारे अष्ठमी, अने शुक्रवारे नवमी होय त्यारे 'गद' बने छे. आ योग मंगल कार्योमा निन्ध गणाय छ, आ योगमां शुभ कार्य करनारने असाध्य भगंदर, पथरी कोढ, क्षय आदि रोगो उत्पन्न थाय छे. ___ ग्रहकृत मृत्युयोग लग्नात् षष्ठाष्टसंस्थे शशिनि सुरगुरौ चापि मन्दे सुतस्थे, भोमे रन्ध्रस्थितेऽर्के व्ययभवनगते मृत्युगे चन्द्रसूनौ। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० [कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे घूनस्थे दैत्यपूज्ये सति निखिलनृणां मृत्युयोगा भवन्ति । त्याज्या दावाग्निरुपाः सततमवितथं मृत्युदा मंगलेषु॥४९७॥ भा०टी-लग्न थकी चन्द्र तथा गुरु छठे अथवा आठमे स्थाने रह्या होय, लग्नथी पांचमा भवनमां शनि होय, मंगल आठमा स्थानमा होय, सूर्य बारमा भवनमां होय, बुध आठमे होय, शुक्र सातमे होय तो सर्व मनुष्योने माटे दावानल जेवा मृत्युयोगो बने छे. जे खरेखर मंगल कार्योमा मृत्युदायक होय छे, माटे शुभ कार्योमां त्याज्य छे. प्रतिष्ठामां छठे सातमे गुरु अने छठे चन्द्र लीधेल छे, पण विवाहादिक घणा मंगल कार्योमा छट्टे चन्द्र-गुरु वर्जित छे अने सातगे गुरुने मध्यमबली गण्यो छे. उक्त सर्वग्रहो एक साथे ज उक्त स्थानोमा पडया होय त्यारेज मृत्युयोग खरो दावानलरूप तो बने छे, छतां ए पैकीना एक बे ग्रहो पण उक्त स्थानोमां होय तो पण अनिष्टकारक तो छ ज, आ मृत्युयोगनो अपवादक 'अमृतयोग' छे. __ अग्निजिह्व-विष-महाशूलयोमाः सप्त- षष्ठथा दितिथयः, सोमवारादिभिर्युताः । अग्निजिह्वाः सप्तयोगा, मंगले कुलनाशदाः ॥४९८॥ भानुवारादिभिर्युक्तास्त्वेताः स्युस्तिथयो यदा। विषयोगास्त्वमी सप्त, कालकूट विषोपमाः ॥४९९॥ प्रतिपद् वुधवारे च, सूर्यवारे च सप्तमी । महाशूलाह्वयो योगो, वर्जनीयो शुभे सदा ।।५००॥ भाटी०-सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनिना दिवसे अनुक्रमे सप्तमी षष्ठी पंचमी चतुर्थी तृतीया द्वितीया प्रतिपदा अ तिथिओ होय तो आ तिथिवारोना योगथी ७ अग्निजिह्व नामक योगो बने छे, जे मगलमा होय तो कुलनाशक थाय छे अने उक्त तिथिओ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] ५२१ जो रविषारादिनी साथे होय जेमके रविवारे सप्तमी, सोमवारे षष्ठी, मंगले पंचमी, बुधे चतुर्थी, गुरुओ तृतीया, शुक्रे द्वितीया, शनिवारे प्रतिपदा आवतां सात विषयोगो बने छे जे कालकूट विष सेवा होय छे. बुधवारे पडिया अने रविवारे सपमी होय तो महाशूल योग थाय छे जे शुभकार्यमा वर्जनीय छे. अशनि योगयम-मैत्रादितिभाज-पाछैद्रत्वाष्ट्र विष्णुषु । सत्स्वर्कादिषु वारेषु, मृत्युदस्त्वशनिः शुभे ॥५०१॥ भा०टी०-रविवारे भरणी, सोमवारे अनुराधा, मंगले पुनर्वसु, बुधे पूर्वाभाद्रपदा, गुरुवारे आर्द्रा, शुक्रे चित्रा, शनिवारे श्रवण, नक्षत्र होय तो मृत्युदायक अशनियोग बने छे. हालाहलयोगोभर्फबारेऽग्निपंचम्योः, सोमे चित्रा-द्वितीययोः । कुजेपूर्णेन्दुरोहिण्योः, सप्तमीयाम्ययोर्बुधे ॥५०२॥ गुरौ मित्रत्रयोदृश्योः, षष्ठीश्रवणयोः सिते । पौष्णाष्ठभ्यां शनियुते, योगा हालाहलाभिधाः ॥५०॥ एषु योगेषु कर्तव्यं, मारणं शत्रसंज्ञके। विवाहादिषु कार्येषु, नियतं निधनप्रदम् ॥५०४॥ नक्षत्रलाञ्छितयोग-तिथिनक्षत्रोत्यप्रतिपचंधुनक्षत्रे, पंचम्यां वह्निभे सति । भष्टम्यामजपाद्धिष्ण्ये, दशम्यां ब्रह्मभे यदि ॥५०॥ द्वादश्यां सार्पनक्षत्रे, त्रयोदश्ययमःयोः । नक्षत्रलाञ्छितो योगो, देवानामपि नाशदः ॥५०॥ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हादि भी उपजे छे. आयोग योग थतां तिY ५२२ [कल्याणकलिका-प्रथमखरे - भाण्टी-रविवारे कृतिका पांचम, सोमे चित्राबीज, मंगले पूनम रोहिणी, बुधे भरणी सातम, गुरुवारे रोहिणी तेरस, शुक्रे श्रवण छठ, शनिवारे रेवती आठमनो योग थतां तिथिवारनक्षत्रजन्य, 'हालाहल' योगो उपजे छे. आ योगोमां क्रूर कर्म सफल थाय, विवाहादि शुभ कार्योमा आ योगो मृत्युदायक निवडे छे. प्रतिपदाए पूर्वाषाढा, पंचमीए कृत्तिका, अष्टमीए पूर्वाभाद्रपदा, दशमीए रोहिणी, बारसे आ लेपा, तेरसे उत्तगफाल्गुनी नक्षत्र होय तो नक्षत्रलांछित नामा अशुभ योग उत्पन्न थाय छ जे देवोनो पण नाशक छे. वार-नक्षत्रसमुत्थ अशुभयोगद्विदेवमित्रचान्द्रेन्द्र वहिणार्पभतारकाः । रविवारेण संयुक्ता, वर्जनीयाः प्रयत्नतः ।।५०७।। आषाढवयवह्नीज्य-दिदैवपितृतारकाः । सोमवारेण संयुक्ताः, शुभकर्मविनाशदाः ॥५०८।। ज्येष्ठाजपादश्रवण-धनिष्टा हि तोयपाः । भौमवारेण संयुक्ताः, सर्वमंगलनाशदाः ॥५०९।। अश्विनीभरणीमूल-पौष्णवस्वार्द्र तारकाः। बुधवारेणसंयुक्ताः, सर्वशोभननाशदाः ॥५१०।। अर्यमारोहिणीत्वाष्ट्र-धातृचन्द्राख्यतारकाः । गुरुवारेण संयुक्ता, शोभने निधनप्रदाः ॥५११।। मा०टी०-रविवारे विशाखा, अनुराधा, मृगशिरा, ज्येष्ठा कृत्तिका, आश्लेषा ए नक्षत्रो शुभ कार्यमा प्रयत्नपूर्वक वजेवा. सोमपार सहित पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, कृत्तिका, पुष्य, विशाखा, मघा आ नक्षत्रो शुभ कार्यमा नाश देनारां थाय छे. मंगले ज्येष्ठा, पूर्वाभाद Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग- लक्षणम् ] ५२३ पदा, श्रवण, धनिष्ठा, आर्द्रा, आश्लेषा, पूर्वाषाढा, ए नक्षत्रो सर्वमंगल कामनो नाश करनारां छे. बुधवार सहित जो अश्विनी, भरणी मूल, रेवती धनिष्ठा आ नक्षत्रो होय तो सर्व शुभ कामोने बगाडे छे, गुरुवारे उत्तराफाल्गुनी रोहिणी चित्रा अभिजित मृगशिरा आ पैकीनुं कोइ पण नक्षत्र होय तो शुभ कार्यमां मृत्युकारी निबडे छे. सार्पद्विदैवमित्रेन्दुरोहिणीपितृतारकाः । शुक्रवारेण संयुक्ता, वर्जनीयाश्च मंगले ॥ ५१२ ॥ उत्तराफाल्गुनी पौष्ण-भेज्यादित्यार्कवैष्णवाः । शनिवारेण संयुक्ताः, सर्वशोभनगर्हिताः ॥ ५१३॥ एषु योगेषु तत्सर्वं कृतं कर्म विनश्यति । विवाहे विधवा नारी, व्रती पातककृद् भवेत् ॥ ५१४ || वारेशे बलसंयुक्ते, योगास्त्वेते बलप्रदाः । न किंचिद् दोषदास्तस्मिन्, बलहीने न संशयः ॥ ५१५ ।। , भा०टी० - शुक्रवार साथै आश्लेषा विशाखा, अनुराधा, मृगशिरा, रोहिणी, मघा आ नक्षत्रो होय तो मंगलकार्यमा वजेवां, शनिवारनी साथे उत्तराफाल्गुनी, रेवती, पुष्य पुनर्वसु हस्त भवण आ नक्षत्रो सर्व शुभ कार्योंमां निन्दित गणाय छे. उक्त वार-नक्षत्र संबन्धी योगोमां करेल कार्य नाश पामे छे, विवाह करवाथी स्त्री विधवा थाय छे, प्रव्रज्या लेवाथी व्रतलेनार पाप कार्यमां पड़े छे. उक्त वार नक्षत्रोत्थ अशुभ योगोमां जे अशुभ फल बताव्युं छे ते वारेश ग्रह बलयुक्त होय त्यारेज योगो पोतानुं बल बतावे हे पण जो वारेश बलहीन होय तो उक्तयोगो कई पण दोषकारक थता नथी. Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे प्रकारान्तरे वारनक्षत्रोत्थ अशुभ योगोदिदैवधातृ वहून्य-वसुदेवतपैतृकाः । अर्कवारेण संयुक्ता, हालाहलविषोपमाः ॥५१६॥ उत्तरात्रयचित्राख्य-द्विदैवाह(ह्व)य तारकाः। सोमवारेण संयुक्ताः, कालकूटविषोपमाः ॥५१७॥ शतताराद्विदैवार्दा, उत्तराषाढतारकाः । भोमवारेण संयुक्ता, गुणना विषसंज्ञकाः ॥५१८।। अश्विनीभरणीवह्नि-वसुमूलाचतारकाः। बुधवारेण संयुक्ता, दोषाः सायास्त्वमी ॥५१९॥ भचतुष्कं वह्निधिष्ण्या-द्वरुणार्यमतारकाः। गुरुवारेण संयुक्ता, दोषा मंगलनाशदाः ॥५२०॥ भा०टी०-विशाखा, अभिजित् , कृत्तिका हस्त धनिष्ठा मघा आ नक्षत्रो रविवार युक्त होय तो हालाहल विषतुल्य थाय छे, उत्तरा फाल्गुनी उत्तराषाढा उत्तराभाद्रपदा, चित्रा विशाखा में सोमवार संयुक्त होय छे त्यारे कालकूट विष तुल्य बने छे, शतभिषा, विशाखा, आर्दा उत्तराषाढा नक्षत्रो मंगलवार साथे मले छे त्यारे गुणनाशक विषयोग बने छे. अश्विनी भरणी कृत्तिका धनिष्ठा, मूल नक्षत्रो बुधवार साथे मलीने 'सर्वदोष' नाम धारण करे छे, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्रा शतभिषा, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रो गुरुवार साथे होय तो मंगलनाशक दोषो बने छे. शक्रसार्पमघावनि-द्विदैवशततारकाः। शुक्रवारेण संयुक्ता, महादोषाह्वयास्त्वमी ॥२१॥ अर्यमादितिपौष्णार्क-विश्वाषाढाख्यतारकाः । शनिवारण संयुक्ता, दोषा गुणविमर्दकाः ॥५२२॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] ५२५ भा० टी०-ज्येष्टा, आश्लेषा, मघा, कृत्तिका शतभिषा. शुक्र वार सापे मलतां 'महादोष' योग बने छे. उत्तराफारगुनी, पुनर्वसु रेवती, हस्त, उत्तराषाढा, पूर्वाषाढा आ नक्षत्रो शनिवारे होय तो गुणविमर्दक दोषो उत्पन्न थाय छे. दिवामृत्युदायक तथा रोगदायक नक्षत्र चरणोहस्तवासवयोराचं, विशाखा द्वितीयकम् । तृतीयकमहिबुध्ये, चान्त्यांश यममूलयोः ॥५२३॥ दिवा मृत्युप्रदाः पादा, दोषास्त्वेते न रात्रिषु । शुभकार्य प्रसूतौ च, सर्वदा परिवर्जयेत् ।।५२४॥ अश्विसार्पभयोराचं, द्वितीयं यममूलयोः । तृतीयं व्युत्तराहयों-रिवन्द्वोरन्त्यपादकः ।।५२५।। दिवायोगा इति ख्याताः, शोभने रोगदाः सदा। दिवा रोगप्रदास्त्वेते, न तु रात्रौ कदाचन ॥२६॥ तस्माद्दिवैव संत्याज्या, रोगमृत्युप्रदायकाः । दिवापि दोषदा नैव, रवीन्दोबलयुक्तयोः॥५२७॥ भा०टी०-हस्त धनिष्ठानो प्रथम चरण, विशाखा आर्द्रानो बीजो चरण, आश्लेषा उत्तराभाद्रपदानो त्रीजो चरण अने भरणी तथा मूलनो चोथो चरण आ नक्षत्र चरणो दिवसे मृत्युदायक छ, रात्रिए दोषकारक नथी, शुभ कार्योंमां तथा प्रसवमां आ चरणोनो त्याग करवो, अश्विनी आश्लेषानो प्रथम पायो, भरणी मूलनो बीजो, त्रण उत्तरा तथा श्रवणनो त्रीजो अने स्वाति तथा मृगशिरानो चोथो पायो, आनक्षत्रोना पायाओ 'दिवारोगप्रद' छे रात्रिमा नहि,माटे दिवसे ज मृत्यु तथा रोगदायक चरणो वर्जवा, जो सूर्य चन्द्र बलयुक्त होय तो ए चरणो दिवसे पण दोषकारक थता नथी. Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे वार नक्षत्रजन्य अशुभयोग कोष्ठक| स् | सो | में | ७ | गु शु श | योगनाम | घि पूषा घरे गेपु उफा उत्पातयोग अनु | उषा पूषा | स्वा | मृ आले ह | मृत्युयोग V तिथि वार नक्षत्रजन्य अशुभयोग कोष्ठक T नन्त उफा भद्रा भद्रा भद्रा आ. आश्ले पूषा भद्रा भद्रा भद्रा भद्रा काणयोग मू । म पूफा काणयोग जया | जया| जया जया| जया| जया| जया| | आ| मू । ज्ये | पूषा | उषा | भ पंगुयोग रिक्ता रिक्ता रिक्ता रिक्ता रिक्ता रिक्ता रिक्ता ... का बधिरयोग पूभा म | कृ | आ | चि | अनु | ध तिथि वार जन्य अशुभयोग नक्ष. भ. चित्रा उषा घ| उफा ज्ये रे ग्रहजन्मनक्षत्र - - Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० योग-लक्षणम् ] तिथिवार जन्य अशुभयोग| मैं | बु गु शु श योगनाम ९७ अचिकित्स्यगदयोग । ११ अग्निजिवयोग | १० । ११ । १२ विषयोग | 9 | ||४|१० | v महाशूलयोग अशनियोग वु | गु शु श | योगनाम अनु पुन | पूभा आद्रा | चि | 4 | अशनियोग वार-तिथि-नक्षत्र-हालाहलयोगा:|स् च में बु गु शु श योगनाम | २ भ । अनु । श्र | रे हालाहल नक्षत्रलांछित योग - - Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ वारा रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि वाराः रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे वारनक्षत्रसमुत्थ अशुभयोगाःनक्षत्राणि उफारे । पु । पुन । ६ । प्रकारान्तरेण वार-नक्षत्रसमुत्थ अशुभयोगा वि । अनु । मृ । ज्ये । कृ । भाले । पूषा । उषा । कृ । पु । विम । ज्ये । भा । न । ध । आ । आले । पुषा । अश्वि | भर । मू । ध आर्द्रा । रे । उफा । रो । चि । अभि । मृ । आश्ले । वि। अनु । मृ । रो । मघा । । नक्षत्राणि वि । अभि । ध । ६ । कृ । म । उफा । उषा । उभा । चि । वि। शत । वि। आर्द्रा । उषा अश्वि | भर | कृ | ध । मू । कृ । रो। मृ । आ । शत । उफा । उये । आले । म । कृ । वि । श । उफा | पुन | रे । ह । उषा । पूषा । Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] गुणापवाद वारयोगगुर्ण हन्ति, योगश्चोत्पातसंज्ञितः। श्रेष्ठयोगं यथा हन्ति, मृत्युयोगो महावलः ॥५२८॥ शुभयोगं निहन्त्याशु, त्वन्धयोगो महाबलः। हन्ति कल्याणयोगाख्यं, काणयोगो महाबलः ॥५२९॥ वर्धमानाह्वयं योगं, पंगुयोगो निहन्ति वै। सुधायोगान् निहन्त्येव, वधिरो योगचञ्चलः ।।५३०॥ बलिनं च महायोगं, दग्धयोगो निहन्ति वै । ग्रहजन्मभयोगोऽयं, पूर्णयोगं निहन्ति हि ॥५३१॥ अचिकित्स्यगदयोगः, शंखयोगं निहन्ति वै। ग्रहैः कृतो मृत्युयोगो, निहन्त्यमृतसंज्ञकम् ॥५३२॥ अग्निजिह्वायो योगः, पद्मयो। निहन्ति हि। विषयोगो निहन्याशु, योगं ानन्दसंज्ञकम् ॥५३३॥ भा०टी०-वारयोगना गुणने उत्पातयोग अने श्रेष्ठयोगने महावल मृत्युयोग हणी नाखे छे. शुभयोगने अंधयोग, कल्याणयोगने काणयोग अने वर्धमानयोगने पंगुयोग नष्ट करे छे. सुधायोगने बधिरयोग, बलवान् महायोगने दग्धयोग, पूर्णयोगने ग्रहजन्मनक्षत्रयोग, शंखयोगने अचिकित्स्य गदयोग, अमृतयोगने ग्रहकृत्त मृत्युयोग, पनयोगने अग्निजिह्वयोग अने आनंदयोपने विपयोग निष्फल करी महाशूलायोयोगः, सिद्धियोगं निहन्ति वै। हन्ति पीयूषयोगांख्य, दुष्टयोगो बलाधिकः ॥५३४॥ समसप्तकयोर्जीव-शुक्रयोश्च परस्परम् । तदा मूढसमो दोषो, शुभकार्यविनाशदः ॥५३५॥ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे तुंगमित्रस्वःगयोस्तयोर्वा तत्तदंशयोः । तदा मूढसमो दोषो, नाशं याति न संशयः ।।५३६।। महाकुलिक योगश्च, वापीयोगं निहन्ति हि। नक्षत्रलाञ्छितोयोगः, स्वयोग हन्ति सर्वदा ॥५३७।। हन्ति योग पुण्डरीकं, पक्ष छिद्रान्थ नाडिका। । गुणशेखरयोगं च, योगाः मर्यादिवारजाः ।..३८।। दिवामृत्युप्रदोयोगो, हन्ति धूजटिसंज्ञकम । गुणभास्करयोगं तु, दिवारोगप्रदः पुनः । ३०॥ भा०टी०-महाशूलयोग सिद्धियोगने अने दृष्टयोग पीयूपयोगने हणे छे. गुरु शुक्रना परस्पर समसप्तक योगनो अम्न ममान दोष छ जे शुभकार्यनो नाशक छे, छतां ते जो उच्चना होय, मित्रगृही होय. स्वगृही होय अथवा तो उच्चांश मित्रराश्यंश स्वराश्यंशना होय, तो मूढ समान दोषनो नाश थाय छे. महाकुलिकयोग वापीयोगनो, नक्षत्र लाञ्छितयोग स्वयोगनो अने बलवान् पुण्डरीकयोगने पक्षछिद्रा तिथि घडी, गुणशेखरयोगने सूर्यादिवारोत्थयोगो, धूर्जटीयोगने दिवामृत्यु प्रदनक्षत्रचरणयोग अने गुणभास्करयोगने दिवारोगप्रयोग निष्फल बनावे छे. तं चन्द्रशेखरं घ्नन्ति, महाकाणान्धवाधिराः । गुणमर्दनयोगोऽयं, हन्ति श्रीवत्ससंज्ञकम् ॥५४०॥ अर्कादिवारसंभूताः, कालकूटविषाह्वयाः। नन्ति योगाः सिंहयोगं, गुरुनिन्देव जीवितम् ॥५४१॥ गुणसागरयोगाख्यं, हन्ति कुलिकसंज्ञकः । सिद्धांतिथि हन्ति सम्यक्, पातश्चण्डीशसंभवः ॥५४२॥ विजयाख्यं महायोग, लत्तादोषो निहन्त्यलम् । प्रभंजनं महायोगं, हन्ति संवर्तसंज्ञकः ॥५४३॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् । इन्द्रदण्डं महायोग, कालदण्डो निहन्त्यलम् । इन्द्रदण्डं महायोगं, योगस्त्वेकार्गलाह्वयः ॥५४४॥ अभिजित्संज्ञकं योग, हन्ति गण्डान्तसंज्ञकः। क्रूरग्रहैर्विद्धदोषो, हन्ति गोधूलिसंज्ञकम् ॥५४५।। भाटी०-ते चन्द्रशेखर योगने महाकाण-अंध-बधिरयोगो, श्रीवत्सयोगने गुणमर्दनयोग, सिंहयोगने सूर्यादिवारसंभूत महाकालकूट विषयोगो हणे छे गुरुनिन्दा जेम जीवितने हणे छे. गुणसागरयोग ने कुलिकयोग, सिद्धातिथिने चण्डीशचण्डायुध-पात, विजयमहायोग ने लत्तादोष, प्रभंजनयोगने संवर्तकयोग, इन्द्रदंडयोगने कालदंड योग तथा एकागल योग हणे छे. अभिजिद्योगने गण्डान्तदोषने अने गोधूलिकयोगने पापग्रहविद्ध नक्षत्रदोष हणे छे. अवमाख्या तिथिहन्ति, सौम्यग्रहकृतं शुभम् । ग्रहजन्मकृतो दोषो, गुरुं लग्नस्थितं शुभम् ॥५४६॥ अकालगजितो दोषो, निहन्ति गुणसंचयम्। अकालवृष्टिदोषोऽपि, तथैव गुणसंचयम् ॥५४७॥ भा०टी० --सौम्यग्रहकृत शुभ योगने अवमातिथि हणे छे, ग्रहजन्मनक्षत्रदोष लग्नस्थित शुभगुरुना गुणने हणे छे अने अकालगर्जित तथा अकालष्टिना दोषो घणा शुभ गुणोनो नाश करे छे. दोषापवादा वसिष्ठोक्ता :उत्पातयोगजं दोषं, च(वा)रयोगो निहन्ति वै। निहन्ति मृत्युयोगं तु, श्रेष्ठयोगो महाबलः ।।५४८॥ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याणकलिका-प्रथमबण्डे अन्धयोगकृतं दोषं, शुभयोगो निहन्ति वै। काणयोगकृतं दोषं, हन्ति कल्याणसंज्ञकः ॥५४९॥ पंगुयोग निहन्त्याशु, योगो वै वर्धमानकः। सुधायोगो निहन्त्याशु, योगं बधिरसंज्ञकम् ॥५५०॥ महायोगो निहन्त्याशु, योगं तु राक्षसाह्वयम् । दग्धयोगं निहन्त्याशु, महायोगो महाबलः ।।५५१॥ ग्रहजन्मकृतं दोषं, पूर्णयोगो निहन्ति वै। गदायोगं निहन्त्याशु, शंखयोगो महाबलः ॥५५२।। भा०टी०-उत्पातयोगना दोषने वारयोग हणे छे, मृत्युयोगने महाबली श्रेष्ठयोग हणे छे, अंधयोगना दोषने शुभयोग हणे छे, काणयोगना दोषने कल्याणयोग हणे छे, पंगुयोगना दोषने वर्षमानयोग दूर करे छे, बधिरयोगने सुधा (पीयूष) योग दूर करे छे, राक्षसने महायोग हणे छे, दग्धयोगने पण महायोग प्रभावहीन करे छे, ग्रहजन्मनक्षत्रना दोषने पूर्णयोग दूर करे छे अने गदायोगकृत दोषने शंखयोग मटाडी दे छे. अग्निजिह्वद्रयं योगं, पनयोगो निहन्ति वै। विषयोग निहन्त्याशु, योगश्चानन्दसंज्ञकः ॥५५३॥ भान्तरालकृतं दोषं, सिद्धियोगो निहन्ति वै। योगान्तरालक दोष, हन्ति सिद्धातिथिः स्वयम् ॥५४॥ महाशूलाह्वयं दोषं, सिद्धियोगो निहन्ति वै। दुष्टयोगं निहन्त्याशु, योगः पीयूषसंज्ञक ॥५५५॥ महाकुलिकयोगं तु, वापीयोगो निहन्ति वै। हालाहलाह्वयं नामा-ऽमृतयोगो निहन्ति वै ॥५५६॥ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ योग-लक्षणम् । पक्षछिद्रोक्तनाडीनां, दोषं हन्ति सदा तथा। पुण्डरीकाह्वयो योगः, पिनाकी त्रिपुरं यथा ॥५५७॥ भानुवारादिसंभूतान्, पापयोगान् निहन्ति वै । गुणशेखरयोगोऽयं, राघवो रावणं यथा ॥५५८॥ भा०टी०-अग्निजित तथा विषयोगने पद्मयोग हणे छे, विषयोगने आनंदयोग हणे छे, नक्षत्रसंधिकृत दोषने सिद्धियोग अने योग-संधिदोषने सिद्धा तिथि पोते हणे छे, महाशूल दोषने सिद्धियोग दूर करे रे, दुष्टयोगने पीयूषयोग, महाकुलिकयोगने वापीयोग अने हालाहलपोगने अमृतयोग दूर करी दे छे, पक्षछिद्रातिथिओनी विषघटीओना दोषना पुंडरीकयोग नाश करे छे जेम शिव त्रिपुरनो, रविवारादिजन्यपापयोगोने१ गुणशेखरयोग हणे छे जेम रामचन्द्र रावणने. दिवामृत्युप्रदं योगं, हन्ति धूर्जटिसंज्ञकः। दिवैव रोगदं हन्ति, गुणभास्करयोगराट् ॥५५१॥ महाहालाहलं हन्ति, गुणभास्कर एव च । चन्द्रशेखरयोगश्च, महाकाणान्धबाधिरान् ॥५६०॥ गुणमर्दनयोगं च, हन्ति श्रीवत्ससंज्ञकः । सिंहयोगो निहन्त्याशु, वारजान् कालकूटकान् ॥५६१॥ उपग्रहाह्वयं दोषं, सिद्धियोगो निहन्ति वै। गुणसागरयोगोऽयं, हन्ति कुलिकसंज्ञकम् ॥५६२॥ शुभयोगो निहन्त्याशु, विधुदोषं महाबलम् । चण्डायुद्ध सचण्डीशं, हन्ति सिद्धातिथियथा ॥५६३॥ विजयाख्यो महायोगो, लत्तादोषं निहन्ति वै। ब्रह्मदण्डाहयो योगो, हन्ति क्रकचसंज्ञकम् ॥५६४॥ १ वारनक्षत्रसमुत्थ अशुभयोगोने. Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे प्रभंजनो महायोगो, हन्ति संवतसंज्ञकम् । इन्द्रदण्डो बली हन्ति, कालदण्डं महाबलम् ॥५६५।। भाटी० दिवामृत्युदयोगने धूर्जटी, दिवारोगदयोगने गुणभास्कर, महाहालाहलने गुणभास्कर, महाकाणअंधबधिरयोगोने चन्द्रशेखर, गुणमर्दनयोगने श्रीवत्स, वारजन्यकालकूटयोगोने सिंहयोग, उपग्रहयोगने सिद्धियोग, कुलिकने गुणसागर, चन्द्रमहादोषने शुभयोग, चण्डीश-चण्डायुधने सिद्धातिथि, लत्तादोपने विजययोग, क्रकचयोगने ब्रह्मदण्डयोग अने बलवान् कालदंडयोगने इद्रंदण्ड हणे छे. एकार्गलं महादोषं, इन्द्रदण्डो निहन्ति वै । गण्डान्तदोषमखिल-मभिजिद्योगसंज्ञकः । ५६६।। हन्ति गोधूलिको योगो, विद्धभं पापखेचरैः । अवमाख्यातिथेदर्दोषं, हन्ति केन्द्रगतो गुरुः ।।५६७।। ग्रहजन्माह्वयं योग, हन्ति केन्द्रगतः शुभः । त्रिद्युस्पृश्यामदोषं स हन्ति केन्द्रगतः शुभः ॥५६८॥ अकाल गर्जितं दोष, हन्ति केन्द्रगतः शुभः। अकाल वृष्टिजं दोष, गुरुर्हन्ति महाबलः ॥५६९॥ दग्धलग्नोद्भवं दोषं हन्ति लाभगतः कुजः। शून्यधिष्ण्योद्भवंदोषं, स हन्ति शत्रुसंस्थितः ॥५७०॥ दोषं शून्यतिथेहन्ति, लाभगः सौम्यखेचरः । त्रिद्युस्पृगाख्यदोषं च, हन्ति सिंद्धा तिथिः स्वयम् ॥५७१।। भाण्टी-एकागल महादोषने इन्द्रदण्ड योग हणे छे, सर्बप्रकारना गंडांतने अभिजिद्योग, पापविद्धनक्षत्रने गोधूलिकयोग, अवम (क्षय) तिथिना दोषने केन्द्रगतगुरू, ग्रहजन्म नक्षत्रयोगने केन्द्रगत शुभग्रह, तिथिद्धिना दोषने केन्द्रस्थित शुभग्रह, अकाल Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] ५३५ गर्जित दोषने केन्द्रगत शुभ ग्रह, अकाल वृष्टि दोषने बलवान गुरू, दग्ध लग्नना दोषने लाभगत मंगल, शून्य नक्षत्र संबन्धी दोषने छठा स्थाने रहेल मंगल, शून्यतिथिना दोषने लाभस्थित सौम्यग्रह अने दृद्ध तिथिना दोषने सिद्धातिथि पोते दूर करे छे. सिद्धातिलाना दोपने नत्र संबंधी जान गुरू, करणो बे प्रकारना होय छे. चर करण अने स्थिर करण। बब बालबादि विष्ठि पर्यन्त ७ करणो चर छे, आ करणोनो आरंभ शुक्ल प्रतिपदाना उत्तरार्धथी थाय छे अने अक मासमां आ करणो ८-८वार आवे छे, शकुनि आदि ४ करणो स्थिर कहेवाय छे, ओकरणो तिथि प्रतिबद्ध होइ मासमा ओक वार ज आवे छे, कृष्णचतुर्दशीना उत्तरार्धमां शकुनी १, अमावास्याना पूर्वार्धमां चतुष्पद २, तथा अना उत्तरार्धमा नाग ३ अने शुक्ल प्रतिपदाना पूर्वार्धमा किंस्तुघ्न ४, आ प्रमाणे च्यार करणो नियत स्थान स्थित होइ स्थिर वा ध्रुव कहेवाय छे. बबादि करणो पण वास्तवमा तो तिथिप्रतिबद्व ज छे, बव शुक्ल प्रतिपदाना उत्तरार्धमां, बालव द्वितीयाना लव पूर्वार्धमां, कौलव द्वितीयाना उत्तरार्धमां, तैतिल तृतीयाना पूर्वार्धमां, गर तृतीयाना उत्तराधमां, वणिज चतुर्थीना पूर्वाधमां अने विष्टि चतुर्थीना उत्तराधमां पूर्ण थइ शुक्लपंचमीना पूर्वार्धथी फरि बवादिनी आवृत्ति थाय छ, आम आ सात करणोनी कृष्ण चतुर्दशीना पूर्वार्ध पर्यन्त आठ आवृत्तिओ होवाथी आ ७ करणोने चरसंज्ञा अपाइ छे, बबादि ६ करणो सर्व कार्यामां शुभ गणाय छे, विष्टि अशुभ छे ज्यारे शकुनि प्रमुख ४ स्थिर करणो मध्यम छे, मध्यम पैकीना नाग-चतुष्पद अशुभ जेवांज नेष्ठ छे. करणसंबन्धी वसिष्ठन निरूपण आ प्रमाणे छे आद्यं बवं बालवकौलवाख्ये, तत्तैतिलं तद् गरसंज्ञकं च । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याणकलिका-प्रथमलण्डे वणिक् च विष्टिः करणानि सप्त, चराणि यानि क्रमशो भवन्ति ॥५७२।। __ भाल्टो०-- पहेलं बव ते पछी पालव, कौलव, तैतिल गर वणिज अने विष्टि-भद्रो ७ करणो छ जे चर होय छे. तिथ्यर्डमाचं शकुनिधितीय, चतुष्पदं नागकसंज्ञितं च । किंस्तुघ्नमेतान्यचराणि कृष्ण चतुर्दशीपश्चिमभागतः । स्युः॥५७३॥ भाण्टी०- अचर करणोमा प्रथम शकुनि, बीजु चतुष्पद, त्रीजु नाग अने चोथु किंस्तुघ्न आ स्थिर करणोनी प्रवृत्ति कृष्णचतुर्दशीना उत्तरार्धथी थाय छे. - करणेशइन्द्रो विधाता मित्राख्य-स्त्वर्यमा भूहरिप्रिया। कीनाशश्चेति तिथ्यर्द्ध-नाथाः स्युः क्रमतस्त्वमी ।।५७४॥ कलिश्च रक्षो भुजगः, पवनश्च स्थिरेश्वराः॥ विज्ञेयाः सर्वकार्येषु, तिथ्यर्धेशबवादिषु ॥५७५।। भा टी०- इंद्र विधात। मित्र अर्यमा भूमि लक्ष्मी अने यम जे अनुक्रमे बवादि ७ चर करणोना स्वामी छे, अने कलि, राक्षस, सर्प अने पवन ४ स्थिर करणोना स्वामी जाणवा, विहित नक्षत्रना अभावे ते नक्षत्रना स्वामीवाला करणमा ते कार्य करवं. उदाहरण-अनुराधा विधेय कार्य करवू छे पण ते दिवसे अ. नुराधा नथी, आवी स्थितिमां ते दिवसे जो मित्रस्वामिक कौलव करण होय तो ते अनुराधाचें कार्य करे छे, करणोना स्वामिओ ब. ताववानुं अज प्रयोजन छे. Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम् ] करणविधेय कार्योंघरस्थिरद्विजहित-पशुधान्याकरादि यत् । धातुवादवणिधान्य-कर्म सर्व बवे हितम् ॥५७६॥ मांगल्योत्सवपानादि-वास्तुकर्माखिलं च यत्। नृपाभिषेक-संग्राम-कर्मसिद्धयति बालवे ।५७७॥ गजोष्ट्राश्वायुधोद्यान-विपिनाद्यखिलं च यत् । पालवोक्ताखिलंकर्म, कौलवे सिध्यति ध्रुवम् ॥५७८॥ सन्धिविग्रहयात्रादि, क्रयविक्रयकर्म यत् । तडागकूपखननं, काय तैतिलसंज्ञके ॥५७९॥ प्राकारोद्धरणं सर्व, जलकर्माखिलं च यत् । सर्वतिथ्यर्धकथितं, कर्म सर्व गरे हितम् ॥५८०॥ __भाटी०-चर, स्थिर, ब्राह्मण हितकर्म, पशुकर्म, धान्यकर्म, आकर कर्मादि, धातुवाद, वाणिज्य, धान्यकर्म सर्व कार्यों बवमा करवां हितकर छे, मांगल्य, उत्सव, पानादि, सर्व वास्तुकर्म, राज्याभिषेक, युद्धकर्म, अ बालवमां करवाथी सिद्ध थाय छे, हाथी, ऊंट, अश्व, आयुध, उद्यान, उपवन संबन्धी कार्यों अने बालवमा कहेल सर्व कार्यो कौलवमां सिद्ध थाय छे, संधि, विग्रह, यात्रादि, क्रय-विक्रय कर्म, नलाव कूवा खोदवा हे सर्व तैतिलमा करवां, प्रा. कारनो उद्धार आदि, सर्व जलकर्म, अने सर्व करणोमां करवानां कार्यो गरमा करवां हितकर छे. मूलकर्माखिलं धातु-जीवकर्माखिलं च यत् । उक्तानुक्ताखिलं कर्म, ध्रुवं वणिजि सिध्यति ॥५८१॥ वधषन्धविषाग्न्यस्त्र, छेदनोच्चाटनादि यत् । तुरङ्गमहिषोष्ट्रादि-कर्म विष्ट्यां च सिद्धयति ॥५८२॥ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ [ कल्याणकलिका - प्रथमखण्डे • न कुर्यात्मंगलं विष्ट्यां, जीवितार्थी कदाचन । कुर्वन्नज्ञस्तदा क्षिप्रं तत् सबै नाशतां व्रजेत् ॥ ५८३ ॥ तस्मात्त्याज्या परीता वा, विपरीतापि मङ्गले । तन्माहात्म्यमजानन्यो, भद्रायां यदि मंगलम् ॥ ५८४ | कुर्याद्वंशक्षयं तस्य, स भवेन्नष्ठमंगलः । तस्मात् तत्र शुभं कर्म, मनसापि न कारयेत् ||५८५ ॥ भा०टी० - मूल-धातु-जीव संबन्धी सर्व कार्यों, कहेल अने as to oर्वकार्ये वणिज करणमां करवाथी सिद्ध थाय छे. वध, बंधन, विषप्रयोग, अग्नि, अस्त्र, छेदन, उच्चाटनकर्म अश्व महिषकर्म अने उष्टादिकर्म भद्रामां करवाथी सिद्ध थाय छे, जीवनना अभिलाषीए भद्रामां कोइ पण मंगलकर्म न करवुं, जे अज्ञानी भट्टामां मंगलकार्य करे छे ते नाश पामे छे. माटे भद्रा परीत होय के विपरीत पण मंगलमां एनो त्याग करवो, भद्रानुं माहात्म्य न जाणतो जे माणस भद्रामां मंगल करे छे तेना वंशनो क्षय थाय छे अने तेना मंगलकार्ये नाश थाय छे, माटे भद्रामां शुभ कर्म करवानुं मनथी पण न चिन्तaj. भद्राना अंग विभागो नाड्यः पञ्च मुखे चैका, गले रुद्राश्च वक्षसि । नाभौ घटिका वेदाः, षण्नाडिकाश्च तत्कटिः ||५८६|| पुच्छं तन्नाडिकास्तिस्रः, पुच्छान्तं मुखतः क्रमात् । विष्टेरङ्गविभागोऽयं, फलं वक्ष्ये पृथक् पृथक् ||५८७|| कार्यस्य नाशो वदने गले तु, मृत्युः सदा वक्षसि चार्थहानि । नाभौ च विघ्नं त्वथ बुद्धिनाशः, कटयां जयः संयति पुच्छभागे ॥ ५८८ ॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग- लक्षणम् ] ५३९ भा०टी० - भद्रानी आद्य घडीओ तेनुं मुख अने १ घडी गलुं जाणवु, ए पछीनी ११ घडीओ छाती, ४ घडीओ तेनी नाभि, ६ घटिकाओ भद्रानो कटिभाग अने ३ घडीओ भद्रानुं पुच्छ छे, आम मुखथी पुच्छ पर्यन्त अनुक्रमे भद्रानो ए अंगविभाग छे, हवे आ अंगविभागोनु भिन्न भिन्न फल कहीश, मुखविभागनी पांच घडीओमां कार्य करतां ते कार्यनो नाश थाय छे, गलानी घडीमां कार्य कर्तानुं मरण थाय छे, हृदयविभागनी ११ घडीओमां धनहानि थाय छे, नाभिविभागनी ४ घडीओ विघ्न करनारी छे, कटिविभागनी ६ घडीओमां कार्य करतां बुद्धिभ्रंश थाय छे, ज्यारे पुच्छ विभागनी त्रण घडीओमां युद्धमां विजय प्राप्त थाय छे. --- भद्राना तिथिसंबन्ध विषे आरंभसिद्धिरात्रौ चतुथ्यैकादृश्यो -रष्ठमीरा कयोर्दिवा | भद्रा शुक्ले तिथौ कृष्णे, स्वेकैकोने यथाक्रमात् ॥ ५८९ ॥ भा०टी० - शुक्लपक्षनी चतुर्थी तथा एकादशीए भद्रा तिथिना उत्तरार्धमा एटले रात्रिविभागमां अने शुक्ल अष्टमी तथा पूर्णिमाए भद्रा दिवसे होय छे, कृष्णपक्षमा उक्त तिथिओना अंकमांथी एकडो ओछो करतां जे संख्या रहे तेटलामी तिथिमां पूर्वोक्त प्रकारे अनुक्रमे भद्रा रात्रि दिवसना विभागे जाणवी. जेम के कृष्ण तृतीया दशमीए रात्रिमा अने कृष्ण सप्तमी चतुर्दशी दिवसभागे भद्रा होय छे. दिशा कालपरत्वे भद्रानुं संमुखत्वभद्रेन्द्रा १४ष्टाऽश्व७तिथ्याब्धि १५-४, दशेशाग्नि १०-११-३ मिते तिथौ । दिग्- यामाष्टकयोर्नेष्टा, संमुखी पृष्ठतः शुभा ॥ ५९० ॥ भा०टी० - चतुर्दशी अष्टमी सप्तमी पूर्णिमा चतुर्थी दशमी एकादशी तृतीया आ तिथिओमां भद्रा पूर्वादिदिशाओं मां प्रथमादि Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याणकलिका-प्रथमखये प्रहरोमां संमुख होय छे जे नेष्ट होय छे, एथी विपरीत दिशामां भद्रानी पूठ होइ ते दिशामां प्रयाणादि करवामां ते अशुभ गणाती नथी, उदाहरण रूपे चतुर्दशीना प्रथम पहरमां भद्रानुं मुख पूर्वदिशामां, अष्टमीए द्वितीय प्रहरे भद्रानुं मुख अग्निकोणमां, सप्तमीए त्रीजा पहोरमां भद्रानुं मुख दक्षिण दिशामां, पूर्णिमाए दिवसना चोथा पहोरमां भद्रानुं मुख नैऋत्यकोणे, चतुर्थीए पांचमा पहोरे भद्रानुं मुख पश्चिममा, दशमीए छठा पहोरमां भद्रानु मुख वायव्यकोणमां, एकादशीए सातमा पहोरे भद्रानुं मुख उत्तरमा अने तृतीयाए आठमा पहोरे भद्रानुं मुख ईशानकोणमा होय छे. जे दिशामा जे प्रहरमां भद्रानुं मुख होय छे तेथी पांचमी दिशामां ते पहोरथी पांचमा पहोरे भद्रानुं पुच्छ होय छे, ए फलितार्थ छे. तिथिपरत्वे भद्राना पुच्छभागनो समय व्यवहारसमुच्चयेदशम्यामष्ठम्यां प्रथमघटिकापञ्चकपरं। हरिद्युः सप्तम्यां द्विद्वशटिकान्ते निघटिकं । तृतीया-राकायां खयम (२०) घटिकाभ्यः परभवं । शुभ विष्टेः पुच्छं शिवतिथि चतुर्योश्चविगलत् ॥५९१॥ भाटी०-दशमी अने अष्टमीए प्रथमनी पांच घडीओ पछीनी त्रण घडीओ भद्रानु पुच्छ, एकादशी सप्तमीए बार घडीओ पछीनी ३, तृतीया पूर्णिमाए २० घडीओर पछीनी ३ घडीओ भद्रानुं पुच्छ होय छे अने चतुर्दशी-चतुर्थीए समाप्तिनी ३ घडीओ भद्रानुं पुच्छ गणाय छे. १ आरंभसिद्धिमा १३ घडीओ छे, २ आरंभसिद्धिमा २१ घडी Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग-लक्षणम्] ५४१ ___आचार्य लल्ल भद्राना पुच्छर्नु महत्त्व जणावे छे शुभाऽशुभानि कार्याणि, यान्यसाध्यानि भूतले। नाडीत्रयमिते पुच्छे, भद्रायास्तानि साधयेत् ।।५९२।। भाटी०- भूमंडल उपर शुभ अगर अशुभ जे जे असाध्य कार्यों छे ते विघटी परिमित भद्रापुच्छमां करवाथी सिद्ध थाय छे. भद्रामां सिद्ध थयेल कार्य अंते नाश पामे छेयदि भद्राकृतं कार्य, प्रमादेनापिसिध्यति। प्राप्ते तु षोडशे मासे, समूलं तद्विनश्यति ॥५९३॥ भा०टी०-जो भद्रामां करेल कार्य भद्राना प्रमादवशे सिद्ध थइ जाय तो पण सोलमो महिनो लागतां ते समूल नष्ट थइ जाय छे. भद्रामा करवानां कार्यों विष नारचंद्र टिप्पणक दाने चाऽनशने चैव, घात-पातादिकर्मणि । खराऽश्वप्रसवे श्रेष्ठा, भद्राऽन्यत्र न शस्यते ॥५९४॥ __ भा०टी०- दान आपवू, अनशन करवू, घात-पातादि कार्य करवू, गधेडी-घोडीनो प्रसव थवो, आ बधा कार्योमां भद्रा शुभ छे, बीजा कामोमां शुभ गणाती नथी. _ भद्राना परिहारना अनेक प्रकारो-लल्लनोमत दिवा परार्धजा विष्टिः, पूर्वार्धात्था यदा निशि। तदाविष्ठिः शुभायेति, कमलासनभाषितम् ।।५९५॥ भा०टी०-तिथिना उत्तरार्धमा आवती भद्रा दिवसे अने तिथिना पूर्वार्धमा आवती भद्रा जो रात्रिए आवती होय तो ते भद्रा शुभने माटे छे एम ब्रह्माजीनुं कथन छे. सुरभे वत्स ! या भद्रा, सोमे सौम्ये सिते गुरौ । कल्याणी नाम सा सोक्ता, सर्वकार्याणि साधयेत् ॥५९६॥ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे भा०टी० हे वत्स ! देवगणा नक्षत्रमा अने सोम बुध, गुरू शुक्रवारे जे भद्रा होय तेने 'कल्याणी भद्रा' कही छे तेमां सर्वे कामो करवां. स्वर्गेऽजोक्षणकर्केष्वधः स्त्रीयुग्मधनुस्तुले। कुंभमीनालिसिंहेषु, विष्टिमर्येषु खेलति ॥५९७॥ . भा०टी०-मेष, वृषम, मकर, कर्कना चंद्रमां भद्रा स्वर्गमां, कन्या मिथुन धन तुलाना चंद्रमां भद्रा पातालमां अने कुंभ मीन वृश्चिक सिंहना चंद्रमां भद्रा मनुष्य लोक खेले छे, तात्पर्य ए छे के जे काले भद्रा जे लोकमां वसती होय छे ते काले ते लोकमां ज भद्रा पोतार्नु शुभाशुभ फल आपे छ, आधी फलित थयु के मनुष्य लोक. मां सिंह वृश्चिक, कुंभ, मीनना चन्द्रमा ज भद्रानो विचार करवो रह्यो, स्वर्ग पातालमां भद्रावास होय त्यारे मनुष्य लोकमाए पोतानो प्रभाव बतावी शकती नथी. कालपरक भद्रानां बे स्वरूपोसर्पिणी वृश्चिकी भद्रा, दिवारान्योः स्मृताः क्रमात् । सर्पिण्या वदनं त्याज्यं, वृश्चिक्याः पुच्छमेव च ॥५९८॥ भाल्टी--दिवस रात्रिनी भद्रा अनुक्रमे सर्पिणी (सापण) अने वृश्चिकी (विछुडी) कहेल छे, माटे सापणर्नु मुख वर्जवं अने विछुडीनुं पुंछडु वर्जq, आनो तात्पर्यार्थ ओछे दिवसमां भद्रा क्रमागत होय के अक्रमागत होय पण तेना मुख विभागनी घडीओ तो अवश्य वर्जवी ज जोइये, अज प्रमाणे रात्रिमां भद्राना पुछडानो त्याग अवश्य करवो, भले ते तिथिना पूर्वार्ध प्रतिबद्ध होय के परार्ध प्रतिबद्ध. करणो विषे आरंभसिद्धिकारनो उपसंहारदशाऽमूनि विविष्टीनि, दिष्टान्यखिलकर्मसु । राश्यहव्यत्ययाद् भद्रा, ऽप्यदुष्टैवेति तदिदः ॥५९९।। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्न-लक्षणम् ] भाटी०- भद्राविनानां आ दश करणो सर्वकार्योमां विहित छे, अने रात्रि दिवसना विपर्यासथी भद्रा पण निर्दोष छे अम ज्योतिषशास्त्रना वेत्ताओ कहे छे. लमवल प्रकरण लग्नविधेय कार्योअभिषेको नृपतीनां, साहसकर्मादिवरोधम् । आकरधातुवादाखिलं मेषोदये कार्यम् ॥६००॥ स्थिरचरकार्य त्वखिलं, विवाहवास्त्वादि कन्यकावरणम् । क्षेत्रारम्भणमखिलं, भूषणशिल्पादि कारणं वृषभे ॥६०१॥ मेषवृषोक्तं कर्म, गजसुरगोष्ट्रादिकं च गोकर्म । अविकलमाहिषमेष-क्षितिपतिसेवादिकं मिथुने ।।६०२॥ शान्तिकपौष्ठिकमाङ्गल-जलबन्धनमोक्षमग्विलजलकर्म । दैविककूपतडागशिल्पोद्वाहादि कर्कटे कार्यम् ।।३०३।। परयोगो नृपसेवा, कृषिकर्मवणिग महाहवाद्यखिलम् । स्थिर कर्माखिलवास्तु-निवेश शिल्पादि सिंहभे कार्यम् । ६०४। __भा०टी०-राजाओनो अभिषेक, साहस कर्म आदि, विरोध. कार्य, खाण, धातुबाद, आदि सर्व मेष लग्नमां करवू. सर्वस्थिर-चरकार्य, विवाह, वास्तु आदि, कन्यावरण, क्षेत्रारंभ, सर्वभूषण तथा शिल्पादिकार्य वृषभ लग्नमां करवू. मेप वृपमा करवान कार्य, हाथी घोडा उंट गाय बलद संबंन्धी, संपूर्ण माहिषकर्म, मेषकर्म, राजसेवादिकार्य मिथुन लग्नमां करवू, शांतिक पौष्टिक मांगल्यकर्म जलवन्धन अने जलमोक्षण आदि संपूर्ण जलकर्म, दैविक, कूप, तलाव, शिल्प, विवाह आदि कर्कमां करवु. विरोधी मिलन, राजसेवा, कृषिकर्म, वाणिज्य, युद्ध आदि तथा सर्व स्थिरकर्म, सर्व वास्तुनिवेश, शिल्पादि कर्म, सिंह लग्नमां करवू, Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ [कल्याणकलिका-प्रथमवणे भूषणमङ्गलकार्य-मौषधविज्ञानपुण्यशिल्पादि। उदाहशान्तिपौष्टिक-गजतुरगोष्ट्रादि कन्यायाम् ॥६०५॥ कन्योक्ताखिल काय, तुलादिमानानि भाण्डकर्माणि । यात्रावास्तुविघानं, तौलिनि कृषिकर्मवाणिज्यम् ॥६०६॥ साहसदारुणचित्रक-लेखकवास्तूग्रशास्त्रकर्माद्यम् । आहवकृषिवाणिज्य, क्षितिपतिवादश्च वृश्चिके कार्यम्॥ ॥६०७॥ शान्तिक पौष्टिक शिल्पिक-सन्धानावादिनृत्यगीताद्यम् । राजोपकरणमखिलं, भूषणवास्त्वादि चापभे सेवा ॥६०८॥ शंबरमोचनबन्धन-भूषणरत्नादि शिल्पधान्यादि। क्रयविक्रयमखिलं यद् , रिपुहनोद्योगमाहवं मकरे ॥६०९॥ भा०टी०-आपण मंगल औषध विज्ञान पुण्य शिल्प आदिनां कार्यो, विवाह शांतिक पौष्टिक कर्मो, हाथी घोडा उंट संबंधी कार्य कन्यामां करवं. कन्या लग्नमां करवानां सर्व कार्यो, तुलादिमानो, मांडकर्मों, यात्रा, वास्तुनिर्माण, कृषिकर्म, वाणिज्यकर्म एतुलालग्नमां करवा. साहसनां कामो, दारूणकर्म, चित्रकार लेखक वास्तु संबन्धी कामो, उग्र शास्त्रकर्म आदि, युद्ध कृषि वाणिज्य अने राजकीय विवाद वृश्चिकमां करवा. शान्तिक पौष्टिककर्म, शिल्पिकार्य, संधान, अश्वादिनृत्य, गीत आदि, सर्व राजोपकरणो, भूषणकर्म, वास्त्वादि कर्मो धनुलग्नमां करवां. जल छोडवू, जल रोक, भूषण रत्नादिधारण, शिल्प, धान्यादिकार्यो, क्रय विक्रय संबन्धी सर्वकार्यों, शत्रु उपर घावी करवानो उद्यम, युद्ध इत्यादि कार्यो मकर लग्नमां करवा. युद्धोपकरणभूषण-जलधान्यशिल्पाश्च गोधनाचं यत् । पण्यासवपुर नगर-प्रवेशनं कर्म घटलग्ने ॥६१०॥ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लम-लक्षणम् ] यजलवन्धन-मोचन-जलयात्रारत्नभूषणं कर्म । रथतुरगेभपशूनां, कार्य मीनोदये शिल्पम् ॥६११॥ भाष्टी०-युद्धोपकरण, आभूषण, जल, धान्य, शिल्प, गोधनादिकार्य क्रयाणक मदिरासंधान नगर-पुरप्रवेशकर्म कुंभलग्नमां कर. जलने बांध छोडवू, जलयात्रा, रत्नभूषणकर्म, रथकार्य, घोडा हाथी आदि पशुभो संबन्धी कार्य अने शिल्पकार्य मीन लग्नमां करवं. पापयुतेक्षितरहिता, मेषाद्याश्चोक्तफलदाः स्युः। नो चेतुक्तफलं वै, दातुं शक्ता भवन्ति न कदाचित् ॥६१२॥ संपूर्णफलदमादी, विलग्नमध्येऽथ मध्यफलम् । अन्ते तुच्छफलं सर्व त्रैवं विचिन्तयेद्धीमान् ॥६१३।। भाटी०-उपर्युक्त मेषादि लग्नो जो पापयुक्त न होय, पापदृष्ट न होय तो ज उक्त फल आपी शके छे, पण पापयुक्त-दृष्ट होय तो कहेल फल आपवा कदापि समर्थ थइ शकतां नयी, लग्न पोताना प्रथम द्रेष्काणमां पूर्ण फल आपनार होय छे, द्वितीय द्रेष्का णमां मध्यफल अने तृतीय द्रेष्काणमा त ज लग्न तुच्छफल-अल्पफल आपे छ माटे पञ्च वर्ग के षड्वर्ग शुद्धनवमांश मलतो होय तो ज लग्ननो तृतीय द्रेष्काण लेवो अने लग्ननो अन्त्य नवमांश तो वर्गोत्तम होय तो ज लेवो अबु शास्त्र विधान छे. लग्न-प्रकृतिचर स्थिर द्विस्वभावा, मेषाद्या राशयः क्रमात् । क्रूरकर्मणि सक्रूराः, शुभे ग्राह्याः शुभान्विताः ॥६१४॥ भा०टी०-मेषादि बार राशिओ अनुक्रमे चर १ स्थिर २ द्विस्वभाव ३ चर ४ स्थिर ५ द्विस्वभाव ६ घर ७ स्थिर ८ द्विस्वभाव ९ चा १० स्थिर ११ द्विस्वभाव १२ छे, क्रूर कार्यमा क्रूरग्रहा. Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण कलिका-प्रथमस्खण्डे ध्यासित अने शुभ कर्ममां शुभ ग्रहाध्यासित राशिओ ग्रहण करवी जोइये. लग्नराशिपतिओमेषादीशाः कुजः१ शुक्रो २. बुध ३ श्चन्द्रो ४ रवि ५ धुंधः ६। शुक्रः ७ कुजो ८ गुरु ९ मन्दो, मन्दो११ जोव १२ इति क्रमात् ॥ ६१५ ॥ भा०टी०-मेषादिराशिना लग्नोना स्वामी अनुक्रमे आप्रमाणे छे-मेष १मंगल, वृषभ २ शुक्र, मिथुन ३-बुध, कर्क ४ चन्द्र, सिंह ५ सूर्य, कन्या ६-बुध, तुला ७-शुक्र, वृश्चिक ८ मंगल, धनु ९ गुरू, मकर १० शनि, कुंभ ११ शनि, मीन १२-गुरू. राशिपतिओना शत्रुओ अने मित्रोकुजस्य ज्ञो रिपुमध्यौ, शनिशुक्रौ परेऽन्यथा। कवेरमित्रौ मिनेन्दू. मित्रे ज्ञार्की समावुभौ ॥ ६१६ ।। बुधस्य मित्रे शुक्राकौं, शत्रुरिन्दुः समाः परे । चन्द्रस्यार्कवुधौ मित्रे, कुजगुर्वादयः समाः ॥ ६१७ ॥ रवे शुक्रशनी शत्रु, ज्ञः समः सुहृदः परे। जीवस्यात्रियो मित्रा-ण्यार्किमध्यः परावरी॥६१८॥ मन्दस्य ज्ञसितौ मित्रे, गुरुर्मध्यः परेऽरयः। तत्कालसुहृदो द्वि २ त्रि ३, सुख ४ लाभा ११ न्त्य १२ कर्म १० गाः॥६१९॥ भाण्टी-मंगलनो शत्रु बुध, सम शनि शुक्र अने शेष मित्रो. शुक्रना शत्रुओ सूर्य चंद्र, मित्र बुध शनि, शेष सम. बुधना मित्रो शुक शनि, शत्रु चंद्र अने शेष समा. चंद्रना मित्रो-सूर्य बुध, Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्न-लक्षणम् ] ५४७ अने शेष सम, शत्रु नथी. सूर्यना शुक्र शनि शत्रु, बुध सम अने शेष मित्रो. गुरुना सूर्य चंद्र मंगल मित्रो, शनि मध्य, बुध शुक्र शत्रु. शनिना बुध शुक्र मित्रो, गुरु मध्य, सूर्य चंद्र मंगल शत्रु. आ निसर्ग शत्रुता अने मित्रता छ, स्वस्थानथी बीजे बीजे चोथे दशमे अग्यारमे बारमे स्थाने रहेला ग्रहो तत्काल मित्रो अने पहेले पांचमे छठे सातमे आठमे नवमे स्थाने रहेला ग्रहो तत्काल शत्रु गणाय छे. मित्र मध्यारयो येऽत्र, निसर्गेणोदिताः क्रमात् । अधिमित्रसुहृन्मध्या-स्ते स्युस्तकालमैत्र्यतः ॥६२०॥ येत्रारिमध्यमित्राणि, निसर्गेणोदिताः क्रमात् । अधिशत्रद्विषन्मध्यास्ते स्युस्तत्कालवैरतः ॥६२१॥ भाटी०-अहियां जे मित्र मध्य शत्रुओ निसर्गथी कह्या छे ते अनुक्रमे तत्काल मैत्रीथी अधिमित्र, मित्र अने मध्य बने छे, अहियां जे निसर्ग शत्रु मध्य अने मित्र छे ते तत्काल शत्रुभावथी अधिशत्रु, शत्रु अने मध्य बने छे, ___अतिवैर तथा अतिमैत्रीराहुरव्योः परं वैरं, गुरुभार्गवयोरपि। हिमांशुबुधयोरं, विवस्वन्मन्दयोरपि ॥६२२॥ अतिमैत्री राहुशन्यो-रिन्दुगुवोंः कुजार्कयोः॥ सितज्ञयोरतिमैत्री, ग्रहमैत्री ह्यनेकधा ॥२३॥ भा०टी०-सूर्य राहु वच्चे अतिवैरभाव छ, गुरु शुक्र बच्चे अति वैर छे अने चंद्र बुध वच्चे अतिवैर छे (बुध चन्द्र तो वैरी नथी पण चंद्र बुधनो अतिवैरी छ) अने सूर्य शनि वच्चे पण अतिवैर छे. राहु-शनिने, चंद्र-गुरुने, मंगळ-सूर्यने, चंद्र-बुधने अतिमैत्री छे अम ग्रहोनी मैत्री अनेक प्रकारे छे. Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ [ कल्याणकलिका-प्रथमखणे ग्रहोनी निसर्गमत्री-मध्यस्थ-शत्रुता ज्ञापक कोष्ठकग्रहो | सूर्य चंद्र | मंगल बुध | गुरु शुक्र | शनि मित्र में गुसू बु | सूचंगु शु | सू चं मं बु शु बुशु मध्यस्थ बु मंगुशुश शु श में गु शु श | मंगु गु शत्रु | शु श | ० | बु | चं बु शु सूचं सू चं गु ग्रहमैत्री-शत्रुता विषयक प्राचीन मतजीवो बुधेज्यौ शुक्रज्ञो, व्यी व्यारा विविन्द्विनाः। वीदिनारा इनादीनां, मित्राण्यन्ये तु शत्रवः ॥६२४॥ स्फुटो मित्रारिभावोऽयं, सर्वैरुक्तो महर्षिभिः । नवो लोकप्रसिद्धस्तु, न प्रत्यक्षफलो यतः ॥६२५॥ भाण्टी-सूर्यादि ग्रहोना मित्री अने शत्रुओ आ प्रमाणे छे-सूर्यनो मित्र गुरु, शत्रु चंद्र मंगल बुध शुक्र शनि. चंद्रना मित्रो बुध गुरु, शत्रु-सूर्य मंगल शुक्र शनि. मंगलना मित्रो-बुध शुक्र, शत्रुओ-सूर्य चंद्र गुरु शनि. बुधना मित्रो-चंद्र मंगल गुरु शुक्र शनि, शत्रु-सूर्य. गुरुना मित्रो-सूर्य चंद्र बुध गुरु शुक्र शनि, शत्रु-मंगल. शनिना मित्रो-बुध गुरु शुक्र, शत्रुओ-सूर्य चंद्र मंगल. आ प्रकट मित्र-शत्रुभाव स्पष्ट छे अने सर्व महर्षिओए करो छे, लोक प्रसिद्ध मित्र-शत्रुभाव नवो छ अने प्रत्यक्ष फल आपतो नथी. प्राचीन मतानुसारि मैत्री-शात्रवकोष्ठकग्रहा। सू चं | मं | बु | गु | शु चंमंगु | सचंबु बु गु मित्र गु | बु गु | बु शु शु श | शु श | धुगुशु चमंबु सू मं | स चं | सू | में सू चं सच में शुश । शु श | गु श | Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्न-लक्षणम् ] ग्रहोनी दृष्टिमर्यादा पश्यन्ति पादतो वृद्धया, भ्रातृ ३ व्योम्नी १० त्रिकोणके । चतुरस्त्र ४-९ स्त्रियं ७ स्त्रोवन्, मतेनाया ११ दिमा १ वपि ५-९ ॥ ६२६॥ पश्येत्पूर्ण शनिभ्रत् ३, व्योम्नी, १० धर्म ९ धियौ ५ गुरुः । चतुरस्त्रे कुजोऽर्केन्दु बुधशुक्रास्तु सप्तमम् ।। ६२७ ।। भा०टी० हो पाद, द्विपाद, त्रिपाद, पूर्ण इत्यादि क्रमे जुदा जुदा स्थानांने जुए छे, पोते जे स्थानमा रहेल होय तेथी प्राजा दशमा स्थाने ते पावदृष्टिथी जुए छे, पांचमा नवमा स्थाने अर्धदृष्टिथी, चोथा आठमा स्थाने पोंणी दृष्टिथी अने सातमा स्थाने पूर्व दृष्टिथी सर्व ग्रहो देखे छे, कोइ आचार्यना मते अभ्यारमा भने पहेला स्थाने ब्रहोनी पूर्णदृष्टि होय छे. शनि भीजे दशमे, गुरु पांच नवमे अने मंगल चोथे आठमे स्थाने पर्ण दृष्टिए देखे छे. ज्यारे रवि सोम बुध शुक्र एक सातमाने ज पूर्ण दृष्टिए देखे छे. ताजिकोक्ता ग्रहदृष्टि 0 ५४९ तृतीयैकादशे तुर्य- दशमे नवपञ्चमे । पादवृद्धया पिबन्त्येषु, पूर्ण चाऽरिसूरयः ||६२८|| युक्ताः परस्परं पूर्ण, तद्वत्पश्यन्ति खेचराः । सर्वेऽपि सप्तमं चेति, पूर्णहरू ताजिकोदिता ॥६२९ ॥ भा०टी - ताजिकमां कहेल ग्रहदृष्टि केटलेक अंशे जुदो पडे छे, ताजिकना मते त्रीजे अभ्यारमे, चोथे दशमे, अने नवमे पांचने, Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० [कल्याणकलिका-प्रथमखणे अनुक्रमे एकपाद द्विपाद त्रिपाद दृष्टि मानेली छे अने एज स्थानोमां अनुक्रमे शनि मंगल गुरु पूर्णदृष्टिवाला होय छे एज रीते एक स्थानमा मलेला ग्रहो एक बीजाने पूर्णपणे देखे छे अने सातमा स्थानने पण सर्वग्रहो पूर्णदृष्टिए देखे छे आ ताजिक दृष्टि कही छे. ग्रहोर्नु बलाऽबलते स्थानबलिनोमित्र-स्वगृहोच्चनवांशगाः। स्त्रीराशिष्विन्दुभृगुजौ, पुराशिषु पुनः परे ॥६३०॥ लग्नाद्युत्क्रमकेन्द्राख्य-दिक्षु प्राच्यादिषूद्वलाः। जीवज्ञौ१ भास्करक्ष्माजौ२शनिः३ सितसितद्युती४॥६३१॥ पलिनोऽह्नि गुरुसितार्काः, सदा बुधो निशितु चन्द्रकुजमन्दाः। स्वदिनादिषु च सितासित-पक्षद्वितयेषु शुभक्रूराः ॥६३२॥ रविचन्द्रावुदगयने, विपुलस्निग्धाश्च वक्रगाश्चान्ये । वलिनो युधि चोत्तरगा, व्यर्केन्दुयुताश्च चेष्टाभिः ॥६३३॥ सोम्यैदिग्बलिनो दृष्टा, बले नैसर्गिके पुनः । मन्दारज्ञेज्यशुक्रन्दु-भास्कराः स्युर्बलोत्सराः ॥६३४॥ भा०टी०-ग्रहो मित्र-स्वगृह-उच्च-स्वनवांशकमा होय त्यारे स्थानबली होय छे, चंद्र शुक्र स्त्रीराशिओमां अने बीजा सर्वे पुरुषराशिओमा होय त्यारे पण स्थानबली होय छे, लग्नथी सृष्टिक्रमे केंद्र स्थानोमां रहेला गुरु बुध १, सूर्य मंगल २, शनि ३, चंद्र शुक्र ४, आ ग्रहो उक्तटबली होय छे, दिवसे सूर्य गुरु शुक्र बली, बुध सदा बली अने चंद्र मंगल शनि रात्रिए बली होय छे, पोताना वार होरादिमां सर्व ग्रहो बली होय छे, शुक्लपक्षमा सौम्य ग्रहो अने कृष्णपक्षमा क्रूर ग्रहो विशेष बलवान् होय छे. सूर्य चंद्र उत्तरचारी अने विपुलस्निग्धकिरणधारी होय त्यारे Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्न - लक्षणम् ] ५५१ बलवान् होय छे ज्यारे मंगलादि ग्रहो विपुल स्निग्ध किरणवाला अने वक्रगामी होय त्यारे बलिष्ठ होय छे. ग्रहयुद्धमा जे ग्रहो उत्तर तरफ थइने जाये छे ते विजेता होइ बलवान् गणाय छे, सूर्यने छोडी शेष ग्रहो चंद्रनी साथे होय छे त्यारे ते चेष्टाबली होइ बलवान् होय छे, सौम्य ग्रहो वडे दृष्ट ग्रहो दृष्टिबली होय छे, नैसर्गिक बलमां शनि मंगल बुध गुरु शुक्र चंद्र सूर्य ए एक बीजाथी यथोत्तर बलवान् होय छे. बलिनः कण्टकस्था, वर्षाधिपमासदिवसहोरेशाः । द्विगुणशुभाशुभफलदा, यथोत्तरं ते परिज्ञेयाः ||६३५ || रूपं ग्रहस्य दिवसे, द्विगुणं वर्गे स्वकाल होरायाम् । त्रिगुणमरिवर्गयोगे, फलस्य प्रान्त्यस्तृतीयांशः ॥ ६३६ ॥ भा०टी० - बलवान् थह न्द्रमा रहेल वर्षपति, मासपति, दिवसपति अने होरापति से अक बीधी बमणु बमशुं शुभ अशुभ फल आपे छे अम जाणवुं, ग्रह पोताना व अक गणुं, पोताना वर्गमा बम अने पोतानी पोतानी कालहोरामः गणगणुं फल आपे छे, अने शत्रुना वर्गमा रहेलो ग्रह मात्र अकतृतीयांश जेटलं ज फल आपे छे. चंद्रबलनी श्रेष्ठताशशिबलमादौ कलप्यं, पश्चादितरग्रहबलं कर्तुः । बलयुक्ते हिमकिरणे, बलिनो भवन्ति निखिलखगाः ॥ ६३७॥ हिमकिरणबलमाधारं त्वाधेयंत्वन्यखेटजं वीर्यम् । आधार स्थान्यखिला- न्याधेयान्येव जृम्भन्ते ||६३८ || भा० टी० - प्रथम कर्ताना चन्द्रबलने कल्प, पछीथी बीजा ग्रहोना बलने जोवुं. चन्द्र बलवान होय तो सर्व ग्रहो बलवान् बने छे, केमके चन्द्रबल सर्वबलोनो आधार छे अने अन्य बलो आधेय छे. आधार मजबूत होय तो ज आधेयो वृद्धिगत थाय छे. Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे लग्नषड्वर्ग:त्रिंशद्भागं लग्न-मितं तदर्धतुलिता तु होराख्या। लग्नतृतीयो भागो, द्रेष्काणः स्यान्नवांशको नवमः॥६३९॥ द्वादशभागो द्वादशांश-स्त्रिंशत्तमस्त्रिंशदंशः स्यात् । षड्वर्गों भवति सदा, शुभखचरसमुद्भवःशुभदः ॥६४०॥ पापसमुत्थस्त्वशुभ-स्तस्माद् ग्राह्यस्तु सौम्यषड्वर्गः ॥ शुभकर्मणि सततं संत्याज्यः पापाह्वयो वर्गः ॥६४१॥ चापन्युग्घटवृषभाः, कर्कटकन्यान्त्यशशयः शुभदाः। शुभभवनत्वादन्ये, त्वशुभगृहत्वादशोभना पश्च ॥६४२॥ भा०टी०-लग्न ३० भाग परिमित होय छे, तेना अर्धभाग (१५ अंश)नुं नाम होरा, लग्नना तृतीयांश (१० अंश)नु नाम 'द्रेष्काण नवमा भागनुं नाम नवमांश, बारमा भागनुं नाम द्वादशांश अने त्रिशमा भागनु नाम 'त्रिंशांश' होय छे. शुभग्रह संबन्धी षड्वर्ग' ह. मेशां शुभ फलदायक होय छे अने पाप ग्रहनो षड्वर्ग अशुभ होय छ तेथी शुभ कार्यमा सदा शुभ षड्वर्ग ग्रहण करवी अने पापषड्वर्गनो त्याग करवो. धनु, मिथुन, तुला, वृषभ, कर्क, कन्या, अने मीन राशिओ शुभग्रहोनां घर होइ शुभदायक होय छे अने शेष-मेप सिंह वृश्चिक मकर कुंभ, ५ राशिओ अशुभ ग्रहोना घर होगाथी अशुभ होय छे. षड्वर्गमां नवमांशनो विशिष्टता-देवज्ञवल्लभेलग्नेशुभेऽपि यद्यशः, क्रूरः स्यान्नेष्टसिद्धिदः । लग्ने करेऽपि सौम्योऽशः, शुभदोंऽशोषली यतः॥६४। सचन्द्रराशेरशुभो नवांशः, प्रोक्तः सपापस्थ च लग्नसंस्थः। त्रिकोणकेन्द्रेषु गुरुः सितोवा, भवेसदाऽसावशुभोऽपि शस्तः ॥६४४॥ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लन-लक्षणम् ] भा०टी०-लग्नशुभ होवा छतां जो अंश क्रूर होय तो ते इष्ट फल आपतो नथी अने लग्न क्रूर होता छतां अंश सौम्य होय तो शुभदायक थाय छे केमके लग्न करतां अंश बलिष्ठ होय छे. चन्द्रयुक्त राशिनो तथा पापग्रहाधिष्ठित राशिओ लग्नस्थित नवमांश अशुभ कह्यो छे छतां त्रिकोण के केन्द्रमा गुरु अथवा शुक्र रहेल होय तो ते अशुभ पण शुभ थइ जाय छे.. विवाहपटलमां कहुं छे-- सचन्द्रसफरनवांशकं यल्लनं हरत्यायुरिति ब्रुवन्ति । धीधर्मकेन्द्र भृगुजोऽथवेज्यो, लग्नं तदेवायुरतीव धत्ते ॥ ६४५ ॥ भाण्टी-जे लग्न चन्द्रयुक्त होय अथवा क्रूर नवमांशयुक्त होय ते आयुष्यनो नाश करे छे अम विद्वानो कहे छे छतां पांचमे नवमे के केन्द्रस्थानमा शुक्र अथवा गुरु होय तो ते ज लम आयुष्यनी अ. तिशय द्धि करे छे. ___ ज्योतिष्पकाशमां कहुं छेप्रोच्यते लग्नसंस्थोऽसौ, ग्रहो य उदितांशगः । द्वितीयोऽनुदितांशस्था, सर्वराशिष्वयं क्रमः ॥६४६॥ भा०टी०-लग्नना उदित नवमांशमा रहेल ग्रह लग्नस्थित कहेवाय छे ते आगेना अनुदित नवमांशस्थित द्वितीयभावस्थित इत्यादि क्रम सर्वराशिओमां जाणवो. लग्नबलअधिपयुतो दृष्टो वा, बुधजीवनिरीक्षितश्च यो राशिः। स भवति बलवान्न यदा, दृष्टो युक्तोऽपि वा शेषैः ॥६४७।। ७० Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे लग्नाधिपः केन्द्रगतो बलिष्ठः, स्वोच्चादिवर्गे शुभवर्गसंस्थः । करोति कर्तुबहुलार्थसिद्धि, विपर्ययेनैव विपर्ययं च ॥६४८।। गृहादिवर्गगः खेटो, मित्रषड्वर्गगोथवा । लग्नेशः कार्यसिद्धयै स्यादेतत् सर्व मुनेर्मतम् ॥६४९॥ पापोपि लग्नाधिपतिस्त्रिषष्ठलाभस्थितः स्थानबलाधिकश्च । लग्नोत्थदोषानिखिलानिहन्ति, पापानि यद्वत्परमाक्षरज्ञः ॥ ६५० ॥ भा०टी०-जे राशि अधिपतिथी युक्त वा दृष्ट होय अथवा तो बुध या गुरु बडे दृष्ट होय अने बीजा ग्रहोथी युक्त के दृष्ट न होय ते बलवान् होय छे. लग्नेश बलवान् थइ केन्द्रमा रह्यो होय, स्वोच्चनो के स्वगृहादिषड्वर्गस्थित होय, सौम्यग्रहोना वर्गनो होय तो कर्ताना घणा कार्योनी सिद्धि करे छे अने अथी विपरीत होय तो विपरीत फल आपे छे. गृहादि स्ववर्ग अथवा मित्रषड्वर्गनो लग्नपति ग्रह कार्यसिद्धि करे छे ए सर्व मुनिने मान्य छे. लग्नेश पापग्रह छतां जीजे छठे ग्यारमे रहेल अने स्थानबली होय तो लग्नसंबन्धी सर्वदोषोनो नाश करे छे जेम तत्वज्ञानी दोषोने हणे छे, पञ्चभिः शस्यते लग्नं, ग्रहैबलसमन्वितैः । चतुर्भिरपि चेत् केन्द्र, त्रिकोणे वा गुरुभृगुः ॥६५१॥ भाल्टी-जे लग्नकंडलीमां पांच ग्रहो बलयुक्त होय ते लग्न प्रशस्त गणाय छे, अने केन्द्र वा त्रिकोणमां गुरु अथवा शुक्र रहेल होय तो चारग्रहोना बलवालुं लग्न पण शुभ छे. Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लम-लक्षणम् ] षड्वर्ग पञ्चवर्ग च चतुर्वर्ग शुभावहम् । त्रिवर्ग वापि सद्योगे, दधेकवर्ग तनुं त्वजेत् ॥६५२॥ भा०टी०-जे लग्नमां षड्वर्ग पंचवर्ग अथवा चारवर्ग सौम्यग्रहसंबन्धी होय ते शुभकारक छ अने लग्नमां कोइ बलवान् सौम्यग्रह पडेलो होय तो शुभत्रिवर्गवालुं लग्न पण लेवु, पण द्विवर्ग अथवा एकवर्गवाला लग्ननो तो त्याग ज करवो जोइये. वसिष्ठ लग्नबलनो सारांश कहे छे-. शुभकार्याण्यखिलानि तु, त्रिकोणकेन्द्रस्थितेषु सौम्येषु । ध्ययनैधनरिपुलग्नै-रसंयुते यत्र तुहिनकरे ॥६५३॥ भाण्टी-जे लग्नकुंडलीमां सौम्य ग्रहो पहेले चोथे पांचमे सातमे नवमे के दशमे स्थाने रहेला होय, चन्द्रमा लग्नमां छढे आठमे के बारमे स्थाने न होय तेवा लग्नमां सर्व शुभकार्यों करवाथी सिद्ध थाय छे. उदयास्तशुद्धि नारदमतेलग्नलमांशको स्वस्व-पतिना वीक्षितौ युतौ। न चेद्वाऽन्योन्यपतिना, शुभमित्रेण वा तथा ॥६५४॥ वरस्य मृत्युः स्यात्ताभ्यां, सप्तसप्तोदयांशको । एवं तौ न युतौ दृष्टौ, मृत्युर्वध्वाः करग्रहे ॥६५५॥ कश्यप कहे छेत्रिप्रकारेण सा शुद्धि-नचेल्लग्नं च निन्दितम् । अपि पश्चष्टिकं लग्न-मनेकगुणसंयुतम् । त्यजेद्यथा शुनाघातं, तथा हव्यं घृतप्लुतम् ॥६५६।। भा०टी०- लग्न तथा तेनो उदित नवमांशक पोतपोताना स्वामिवडे दृष्ट अथवा युक्त न होय १, लग्नेश वडे नवमांश वा नव Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे मांशपति बडे लग्नदृष्ट के युक्त न होय २, अथवा तो लग्नेशना शुभमित्र वडे लग्न अने नवमांशपतिना शुभमित्र वडे नवमांश दृष्ट-युक्त न होय ३, तो लग्ननवमांशाऽशुद्धि वडे पुरुपर्नु मृत्यु थाय अने सप्तम तथा सप्तमना नवमांशनी अशुद्धि बडे स्त्रीनें मृत्यु थाय छे. कश्यप कहे छे के-त्रण प्रकारे लग्न नवमांशनी शुद्धि न थाय तो ते लग्न पंचवर्ग शुद्ध होय अनेक गुण सहित होय छतां ते वर्जq जोहये जेम श्वान वडे सुंघायेल घीझरतुं हव्य पदार्थ त्यजाय छे. उदयास्तशुद्धौ आरंभसिद्धिःपश्यन्नंशाधिपो लग्नं, भवेदुदय शुद्धये। अंशास्तेशस्तु लग्नास्त-मस्तशुद्धथै विलोकयन् ॥६५७।। भा०टी०-नवमांश पति लग्नने जोतो उदय शुद्धिने माटे अने सप्तमस्थानना नवमांशनो पति लग्नथी सप्तम स्थानने जोतो छतो अस्तशुद्धिने माटे थाय छे. उदयास्तशुद्धि विने व्यवहारप्रकाशअंशाधिपतेर्दृष्टि-र्यदांशकेंऽशास्तपस्य भागास्ते । भागपतेर्लग्ने वा-ऽप्यशास्तपतेबिलग्नास्ते ॥६५८॥ उद्यास्तस्य च यदा, दृष्टेः शुद्धिर्भवेद् विलग्नेऽत्र । कान्ताया मगलान्य-तनूनि तनौ प्रजायन्ते ॥६५९॥ भाण्टी०-ज्यारे नवमांश पतिनी दृष्टि नवमांश उपर अने सप्तम नवमांशपतिनी दृष्टि सप्तम नवमांश उपर होय अथवा नवमांशपतिनी दृष्टि लग्न उपर अथवा सप्तम नवमांशपतिनी दृष्टि सप्तम उपर पडती होय त्यारे उदयास्त शुद्धि गणाग छे. लग्न तथा सप्तमनी ज्यारे दृष्टि शुद्धि होय छे त्यारे ते लममां परिणीत स्त्रीना शरीर उपर अखंड मंगला उपजे-रहे छे. अर्थात् पतिपत्नी बने चिर काल जीवित रही मंगलोपभोग करे छे. Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लम-लक्षणम् ] उदयास्तशुद्धि विषे यतिवल्लभोक्त मतान्तर-- उदयास्तांशतुल्याख्य-राश्योरपि विलोकने । योगेऽथवा परे प्राहु-रुदयास्तविशुद्धताम् ॥६६०॥ भा०टी०-लग्नमां ग्रहण करेल नवमांश अने तेथी सातमो नवमांश जे राशिना होय ते राशिओ जो, स्वस्वस्वामियुक्त होय वा दृष्ट होय तो उदयास्त शुद्धि होय छे आम बीजाओ कहे छे. निर्बल अने त्याज्य लग्न-- अपि षड्वर्गसंशुद्धं, न ग्राह्यं शकुनैर्विना । लग्नं यस्मानिमित्तानां, शकुनो दण्डनायकः ॥६६१॥ भा०टी०-भले लग्न षड्वर्ग शुद्ध होय छतां शकुन विना न लेवु, केम के 'शकुन' ए सर्व निमित्तोनो सेनापति छे. लग्नं षड्वर्गसंशुद्धं, कुलिकेन विहन्यते । अपि पञ्चचतुर्वर्ग, दृष्यते क्रूरहोरया ॥६६२॥ भा०टी०-षड्वर्ग शुद्ध लग्नने पण कुलिक हणी नांखे छ, पली पंचवर्ग वा चतुर्वर्ग शुद्ध लग्न होय तोये क्रूर वारनी होरा तेने दूषित करी नांखे छे. रैर्लग्नं युतं त्याज्यं, मंगलेष्वखिलेष्वपि । जन्माङ्गादष्टमंक्रूर, लग्नगं संत्यजेच्छुभे ॥६६३॥ भृगुषष्ठाह्वयो दोषो, लग्नात् षष्ठगते सिते । उच्चगे शुभ संयुक्ते, तल्लग्नं सर्वदा त्यजेत् ॥६६४॥ कुजाष्ठमो महादोषो, लग्नादष्टमगे कुजे। शुभत्रययुतं लग्नं, त्यजेत्तुंगगतं यदि ॥६६५।। भा०टी०-क्रूरो वडे युक्त लग्ननो सर्व मंगल कार्योमा त्याग करवो. वली जन्मलग्नथी अष्टम स्थाने रहेल क्रूर ग्रह जो लममा Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ [कल्याणकालका प्रथमखण्डे आवतो होय तो ते लग्न शुभ कार्यमां वर्ज, भृगुषष्ठाख्य दोष एटले जे लग्नमां शुक्र छठे स्थाने पडतो होय पछी भले ते उच्चनो के शुभयुक्त होय छतां ते लग्न सदा त्याज्य करवू, लग्नथी मंगल आठमो होय, ते कुजाष्टम महादोष, भले पछी लग्न त्रण सौम्यग्रहयुक्त होय के उच्चगत होय छतां तेनो त्याग करवो. षडष्टेन्दुर्महादोषो, लग्नादष्टमषष्ठगे । चन्द्रस्योचेऽथवा पूर्ण, मृत्युकारी स मङ्गले ||६६६।। भा०टी०-चंद्रमा लग्नथी छट्ठा अथवा आठमा स्थानमा होय त्यारे 'षडष्टेन्दु' नामक महादोष उपजे छे, भले चंद्र उच्चनो होय के पूर्ण होय छतां ते मंगलकार्यमा मृत्युकारी निवडे छे. लग्नाधीशे नीचगे शत्रुगे वा, रंध्रे चास्तं संगते वक्रगे वा । तद्लग्नं वैसंत्यजेत्सर्वकार्ये, कुर्यात्कार्य चेत्तदा मृत्युभीतिः॥ भा०टो०-लग्नेश नीचनो होय, शत्रुक्षेत्री होय, अष्टम स्थानगत होय, अस्तगत होय अथवा वक्री होय तो ते लग्न सर्व कार्योमां वर्जवं, जो तेवा लग्नमां कोइ पण कार्य करे तो करनारने मरणनो भय रहे छे. जन्मस्थोऽरि गृहाधिपोऽथ मरणाधीशोऽथवा मृत्युदः, लग्नस्याधिपतिस्तथारिगृहगो वा मृत्युदो मृत्युगः। जन्मोदयलग्नतोष्टमगृहं वा द्वादशोंदयं, यात्रायेष्वखिलंधिया किल बुधैश्चिन्त्या भशुद्धिःसदा॥६६७।। ___ भा०टी०-षष्ठेश वा अष्टमेश लग्नमा मृत्युदायक होय छे, लग्नेश छठे अथवा आठमे होय तोये मृत्युदायक छ, जन्मराशि Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्न-लक्षणम् ] अथवा जन्मलग्नथी अष्टमराशिनुं के बारमीराशिनुं लग्न यात्रादि सर्व कार्योमा वर्जवं, पंडितजनोए आ प्रमाणे राशिशुद्धि बुद्धिवडे अवश्य विचारवी. कया ग्रहो कया स्थानोमां न जोइये ? त्याज्या लग्नेऽब्धयो मन्दात्, षष्ठे शुक्रेन्दुलग्नपाः । रन्धे चन्द्रादयः पञ्च, सर्वेऽस्तेऽब्जगुरू समौ ॥६६॥ प्रायः शुभा न शुभदानिधनव्ययस्था, घीधर्मरिप्फधनकेन्द्रगताश्च पापाः। सर्वार्थसिद्धिषु शशी न शुभो विलग्ने, सौम्यान्वितोऽपि निधनं न शिवाय लग्नम् ॥६६९॥ भा०टी०-लग्नमां शनिथी ४ ग्रहो वर्जवा, एटले शनि रवि सोम मंगल आ ४ ग्रहो लग्नमा त्यागवा, छट्ठा स्थानमा शुक्र चंद्र लग्नपति वर्जवा, आठमे चंद्र आदि ५ अर्थात् चंद्र मंगल बुध गुरु शुक्र ए वर्जवा, सातमे सर्वे वर्जवा छतां चंद्र के गुरु अस्तमां होय तो सम गणाय छे अशुभ नथी, प्राये करीने आठमे बारमे रहेला शुभग्रहो शुभफल आपता नथी अने पांचमे नवमे बारमे बोजे पहेले चोथे सातमे अने दशमे स्थाने रहेल पापग्रहो शुभदायक नथी, चंद्रमा सर्व कार्योंमा लग्नमां रहेल सारो नथी, भले ते सौम्यग्रहयुक्त पण होय छतां लग्नमां वर्जयो अने लग्न अथवा राशिथी आठमी राशिनु लग्न कदापि शान्तिदायक होतुं नथी. क्रूरकर्तरीदोष लग्नेऽस्यपृष्ठाग्रगयोरसाध्वो, सा कर्तरीस्यादृजुवक्रगत्योः। तावे व शीघ्रौ यदि वक्रचारौ, न कर्तरी चेति पितामहोक्तिः ॥६७० ।। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याणकलिका-प्रय यः कर्तरी नाम महान् हि दोषो, लग्नोद्भवान्नैकशुभग्रहोत्थान् । गुणान् निहन्ति प्रबलानशेषान् , . व्याघ्रो यथा गोसमितिं समस्ताम् ॥६७१॥ भाण्टो०-लग्नमां तेनी पाछल आगल चालनारा पापग्रहो अनुक्रमे मार्गी अने वक्री होतां वर कर्तरी दोष उत्पन्न थाय छे पण तेज बने क्रूर ग्रहो जो शीघ्रगतिक होय वा वंने वक्रगतिक होय तो कर्तरी दोष गणातो नथी एम पितामहर्नु कथन छे. आ क्रूर कर्तरी महान दोष छे अनेक शुभग्रहजनित प्रबल सर्व गुणोनो नाश करे छे जेम वाघ समस्त गोसमुदायनो नाश करे छे. फलप्रदीपकार कहे छे-~करयोः कर्तरीनेष्टा, महाविघ्नप्रदा ध्रुवम् । सौम्ययो तिदुष्टास्यान्मध्यमा पापसौम्ययोः ॥६७२॥ भा०टी-क्रूर ग्रहोनी कर्तरी नेष्ट निश्चयथी महाविन देनारी छे, सौम्य कर्तरी विशेष खराब नथी तथा क्रूर-सौम्य कर्तरी मध्यम प्रकारनी होय छे. क्रूरकर्तरीस्थित लग्न तथा चंद्र अने एनो परिहार-- क्रूरग्रहस्यान्तरगा तनुर्भवेद्, मृतिप्रदा शीतकरश्च रोगः। शमैर्धनस्थै रथयान्त्यगे गुरौ, न कर्तरी स्यादिह भार्गवा विदुः ॥६७३॥ त्रिकोणकेन्द्रगो गुरु-खिलाभगो रचियंदा । तदा न कर्तरी भवेजगाद बादरायणः ॥६७४॥ पूर्व पश्चात् पापा-त्तिथ्यंशा घाटमध्यगश्चन्द्रः। वर्जयितव्यो योगे, यस्माद् राश्यंशरश्मियुतिः ॥६७५॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लम-लक्षणम् ] माल्टी-फूर ग्रहोना मध्ये रहेल लग्न मृत्युकारक अने चन्द्र रोगकारक थाय छे, पण भार्गवो (भृगुना अनुयायियो) को छ के धनस्थाने सौम्य ग्रह होय अथवा बारमा स्थानमा गुरु रहेस होय तो कर्तरी नथी एम जाणवू, बादरायणे कडं के के जे कुंडलीमां गुरु त्रिकाण (५-९) केन्द्र (१-४-७-१०) नो होय, रवि श्रीजे अग्यारमे होय त्यारे कतरी दोषकारक होती नथी. चंद्रनी आगत पाछल १५-१५ अंशोना अथवा तेथी ओछा अंशोना आंतरे पापग्रहो होय अने ते संदंशनी वच्चे चंद्र अथवा लग्न आवतुं होय तो ते लग्न अगर चंद्रनो त्याग करयो, केम के बन्ने ग्रहोनी युति पता राशि अने अंशनी किरणयुति थाय छे जे लग्न अने चन्द्रने हामि थाय छे. तात्पयार्थ ए छे के भागल पाछलना बंने ग्रहो, अंतर लग्न के चंद्रथी १५-१५ अंशनुं वा तेथी ओछु होय, आगलना पापग्रह वक्री होइ सामेथी नजीक आ तो होय, पाछलनो ग्रह पण मार्गी होइ लग्न के चंद्रनी निकट आव। होय, तो ते कर्तरी अवश्य वर्जवी जाइये, पहेला पछीना ग्रहो वक्री मार्गी होवा छतां १५-१५ अंशथी अधिक दर स्थित होय, अथवा पहेला पछीना बंने ग्रहो मागी होय, अथवा तो पछीनो ग्रह वक्री होय तो ते स्थितिमा १५-१५ अंशथी ओछे आंतरे पापग्रहो होय तोये ते कर्तरी विशेष हानिकर हाती नथी. __ सापवाद करयुतिसति दर्शने यदि स्या-दशद्वादशक मध्यगः क्रूर।। इन्दोलग्नस्य तथा, न शुभो राहुस्तु सप्तमगः॥६७६॥ माटो०-चंद्र तथा लग्नना वर्तमान विधांधी पार मिंशांशमा क्रूर ग्रह रहेब होय अने से चंद्र वा लग्नने पूर्ण रहिवी Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे देखतो होय तो ते शुभदायक नथी अने लग्न चंद्रथी राहु सातमो शुभ नथी. उदाहरण रूपे शनि राशिना वीसमा त्रिंशांशमां के अने लग्न अथवा चंद्र राशिना अष्टमांशमां वर्ते छे, एटले शनि अने चंद्र वा लग्ननुं अंतर १२ अंशोनुं छे, राशिनी नवमांश कुंडली लग्न वा चंद्र त्रीजा नवमांशमां छे अने शनि छठामां, छठा नवमांशमा रहेल शनि चोथा केंद्रथी दशमा प्रथम स्थानस्थित लग्न वा चंद्रने पूर्ण दृष्टिथी देखे छे, तेथी आधी करयुति अवश्य वर्जनीय छ, आथी विपरीत शनि राशिना २२ मा त्रिंशांशमा छे अने लग्न २४ मा त्रिंशांशमां अंशान्तर बारथी ओछं छे, छतां शनि उदितांश कुंडलीमां लगने जोतो नथी तेथी आ क्रूरयुति बहुहानिकर नथी, एज प्रमाणे चन्द्र साथेनी क्रूरयुतिने अंगे पण जाणवू. जामित्रनामक लग्नदोषलग्नथी ७ मुं स्थान 'जामित्र' कहेवाय छे, ते जामित्र ग्रहराहेत होवू सारं गणाय छे, छतां चंद्र के गुरु सातमे होय तो ए दोष घातक गणातो नथी, बुध शुक्र अने मूर्यादि पापग्रहो जामित्रमा होय तो ते वधु खराब गणाय छे, जामित्र दोष विवाहमा अवश्य वर्जनीय छ ज पण अन्य शुभ कार्योमां पण दोष शक्य होय त्यां सुधी ववो जोइये, आ संबन्धमा आरंभसिद्धिकार कहे छे विवाह-दीक्षयोलग्ने द्यूतेन्दू ग्रहवर्जितौ। शुभौ केचित्तु जीवज्ञ-युक्तमिन्दं शुभं विदुः॥६७७॥ पञ्चपञ्चाशमे वांश, जामित्रं परमं परे। अंशादुज्झन्ति लग्नेन्द्रो-हितग्रहदूषितम् ।।६७८।। भा०टी०-विवाह-दीक्षाना लग्नोमां सप्तम स्थान अने चंद्र ए बे ग्रहरहित होवा जोइये, केटलाको गुरु बुध युक्त चंद्रने शुभ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्न-लक्षणम् ] छे एम कहे छे ज्यारे अन्य ज्योतिषाचार्यों लग्न तथा चंद्रना नवमांशथी पंचावनमो नवमांश जो वर्जितग्रहदूषित होय तो तेने ज 'परमजामित्र' गणीने लग्नमां वर्जे छे. दैवज्ञवल्लभकार पण ए वातनुं समर्थन करे छे. लग्नेन्दुसंयुतादंशात् पञ्चपञ्चाशदंशके। ग्रहोन्यो यद्यसौ दोषो, गुणैरपि न हन्यते ॥६७९॥ भा०टी०- लग्नना तथा चंद्रना नवमांशथी पंचावनमा नवमांशमां जो कोइ ग्रह होय तो ए दोष गुणो वडे पण नष्ट थतो नथी. शुभग्रहकृत लग्नगतदोषभंगतिथिवासरनक्षत्र-योगलग्नक्षणादिजान् । सबलान् हरतो दोषान् , गुरुशुक्रो विलग्नगौ ॥६८०॥ त्रिकोणकेन्द्रगा वापि, भङ्ग ढोषस्य कुर्वते । वक्रारिनीचगा वापि, ज्ञजीवभृगवः शुभाः ॥६८१॥ भा०टी०-तिथि वार नक्षत्र-योग लग्न मुहूर्त आदिना बलवान् दोषोने लग्नमां रहेला गुरु शुक्र दूर करे छे, वली त्रिकोण (५-९) अने केंद्र (१।४।७।१०) मां रहेला वक्री, शत्रुक्षेत्री के नीचना शुभ बुध गुरु अने शुक्र लग्नदोषोनो भंग करे छे. आरंभसिद्धिकार कहे छेलग्नात् क्रूरो न दोषाय, निन्द्यस्थानस्थितोपि सन् । दृष्टाकेन्द्र त्रिकोणस्थैः, सौम्यजीवसितैर्यदि ॥६८२॥ भान्टी--लग्नथी वर्जित स्थानमां होवा छतां क्रूरग्रह जो त्रिकोण के केन्द्रमा रहेल बुध गुरु के शुक्रवडे पूर्ण दृष्टिए दृष्ट होय तो दोषकारक थतो नथी. लग्नजातान् नवांशोत्थान् , करदृष्टिकृतानपि । हन्याजीवस्तनौ दोषान् , व्याधीन धन्वन्तरिय॑था।। ६८३॥ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ [ कल्याणकलिका-प्रथमवर्गी सौम्यवाक्पति शुक्राणां, य एकोपि बलोत्कटः। क्रूरेरयुक्तः केन्द्रस्था, सद्योऽरिष्टं पिनष्टि सः॥६८४॥ भाण्टो०--लग्नजनित नवमांशथी उत्पन्न थयेल के क्रूरग्रहोनी दृष्टिथी उत्पन्न थयेल दोषोने लग्नस्थित गुरु धन्वन्तरि रोगोने हणे तेम हणे छे. बुध गुरु के शुक्र एक पण बलवान् थइ केन्द्रमां रखो होय, कोई पण क्रूरथी युक्त के दृष्ट न होय, तो तत्काल अशुभ योनोने पीसी नाखे छे. बलिष्ठः स्वोच्चगो दोषा-नशीति शीतरश्मिजः। वाक्पतिस्तु शतं हन्ति, सहस्र चासुरार्चितः ॥६८५॥ बुधो चिनार्केण चतुष्टयेषु, स्थितः शतं हन्ति विलग्नदोषान् । शुक्रः सहस्रं विमनोभवेषु, सर्वत्र गीर्वाणगुरुस्तुलक्षम् ॥६८६।। भाल्टी-बलवान अने उच्चनो बुध ८० अंशी दोपोने दूर करे है, तेज प्रकारनो गुरु सो अने शुक्र लाख दोषोने हणे छे. सूर्य विनानो बुध केंद्र स्थानोमा रहीने सो लग्नदापोने हणे छे, तेज प्रकारनो शुक्र सप्तमा सिवायना केन्द्रोमा रहे तो हजार अने सर्वकेन्द्र स्थित गुरु लाख दोषोने हणे छे. चन्द्र-तारा बलमनुष्य ज नहिं, पदार्थ मात्र उपर चन्द्रबल तथा ताराबलनो प्रभाव काम करे छे, कोइ पण भलामुंडा प्रसंगे पोताना ग्रहगोचरनुं फल पूछे छे, पण कोइ पण ग्रहना उपर चन्द्रना बलाबलनी छाप तो होय ज, जे वर्ष, अयन, ऋतु, मास या पक्षमा चन्द्र शुभ फलदायक होय छे ते वर्ष, अयन, ऋतु, मास या पक्षमा बीजोग्रह अशुभ फल आपवाने पूर्ण समर्थ थतों मथी. एनुं कारण सर्वग्रहबलमा चन्द्रबलनी Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्न-लक्षणम् । प्रधानता छे, जे समयमा चन्द्रक्षीणवली होय छे त्यारे तेनुं प्रति निधित्व तारा करे छे, एटले कृष्णपक्षमा ज्यारे चन्द्रबल नयी होतुं स्यारे ताराबल जोइने कार्य करवानुं ज्योतिषशास्त्रमा विधान छ, ए वस्तु आ चंद्रताराबल प्रकरणथी समजाशे. आ विषयर्नु वसिष्ठ नीचे प्रमाणे विधान करे छे.प्रथमदिने वत्सरतः, शुभदे चन्द्रे च यस्य पुरुषस्य । तबर्षे शिशिरकरः, शुभफलदस्तस्य बुधयुक्तोऽपि ॥६८७॥ अयनादौ ऋतुसमये, मासेऽप्येवमेव विजानीयात् । ताराबलाप्तिस्तच्छुभ-तारा चेत्तथैव शुभदा स्यात् ।।६८८॥ सितपक्षस्याद्यदिने, शुभदस्तत्पक्षमतिशुभः । असितस्थादावशुभः, शुभफलदः पक्षमखिलं तत् ॥६८९॥ जन्मत्रिकलत्ररिपुद्वितीयनवमायसुतदशभे। सितपक्षे हिमकिरणः, शुभदः कृष्णे विपश्चधन नवमे ॥ ६९० ॥ भाण्टी-वर्षना पहेला दिवसे जे पुरुषने चन्द्र शुभफलदायक होय ते वर्षमां तेने चन्द्र शुभदायक ज होय छे, एज प्रमाणे बुधने विषे पण जाणवू, अयननी आदिमां, तु लागे ते समयमा, अने मासनी आदिमां पण एज प्रमाणे जाणवू, वर्ष, अयन, ऋतु मासनी आदिमां शुभ ताराबलनी प्राप्ति होय तो आखा वर्ष, अयन, ऋतु अगर मासमां तारा पण शुभ फल आपनारी होय छे. शुक्लपक्षना पहेला दिवसे जो चन्द्र शुभदायक होय तो संपूर्ण पक्ष पर्यन्त शुभफल आपे छे. कृष्णपक्षना प्रारंभ दिवसे जेने चन्द्र गोचरथी अशुभ होय तेने ते आखो पक्ष शुभ फल आपे छ, पहेलो Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे त्रीजो सातमो छठो बीजो नवमो अग्यारमो पांचमो दशमो (१२।३।५।६।७।९।१०१११) मो चन्द्र शुक्लपक्षमा शुभदायक छे, अने कृष्णपक्षमां २।५।९ मा सिवाय उक्त स्थानीय चन्द्र गोचरथी शुभ होय छे. जन्मभमनुजन्मक्ष, त्रिजन्म नेष्टमखिलकार्येषु । संपत्तारा शुभदा, विपदाख्या विपत्प्रदा तारा ॥६९१।। क्षेमाख्या क्षेमकरी, प्रतिकूला प्रत्यरिस्तारा । साधनभं साधनदं, नैधनभं नैधनं नृणाम् ॥६९२॥ मैत्रीकरणं मित्रभ-मतिमैत्रं परममैत्रःम् । एवं विचार्य सततं, बलाबलं दैववित् कथयेत् ॥६९३॥ भाष्टी०-जेमां जेनो जन्म थयो होय ते तेनुं जन्म नक्षत्र, जन्म नक्षत्र तारामां त्रण आवे छे, १ लुं १० मुं १९ मुं, आ त्रणेय जन्म ताराओ सर्व कार्योमा अनिष्ट होय छे, जन्म नक्षत्रथी बीजूं नक्षत्र संपत्तारा जे शुभ छ, जन्मथी त्रीजुं विपत्तारा विपत्तिदायक छे. जन्मथी चोथु नक्षत्र क्षेमातारा छे ते कल्याणकरी छे, पांचमी प्रत्यरितारा प्रतिकूलता आपनारी, छठी साधना तारा अनुकूल साधन आपनारी, सातमी तारा नैधना अथवा यमा छे जे मनुष्यने मरण आपनारी छे, आठमी मैत्रीतारा जे मित्रता करावनारी अने नवमी अतिमैत्री जे परममित्रताकारक छे, एज प्रमाणे दशथी अढार सुधी अने ओगणीशथी सत्तावीश सुधीना ९१९ नक्षत्रोमां जन्मादि नव नव ताराओ समजवी. आम बधो विचार करी ज्योतिषीए ताराओनुं बलाबल कहेषु, सितपक्षे हिमकिरणो, बलवान् कृष्णेऽपि बलवती तारा। शशिबलवत् प्राधान्यं, शुक्ले कृष्णे च तारकायाश्च ॥६९४॥ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्न-लक्षणम् ] अमृतकिरणस्त्वमृत-भवस्तरलमखिलं च तद्वत्स्यात् । अमृतमयं तत्तस्मादभ्यधिकं त्वन्यखेटबलात् ॥६९५।। तुहिनकरो जगतां यत् तद्वच्च तबलं त्वखिलम् । तन्महिमानं व्याचष्टे गुणरूपं निखिलजन्तूनाम् ॥६९६।। बलवानखिलमृगाणां, हरिरिव खचरबलानां च चन्द्रबलम् । हिमकिरणे बलिनि सति, सर्वे बलिनो वियच्चरा नित्यम् ॥ ६९७ ॥ अभ्यधिकं चन्द्रबलं, त्वबलं ताराग्रहोद्भवं निखिलम् । हिमकिरणयलार्धादपि, नो तुल्यं ग्रहबलं सर्वम् ॥६९८॥ भाष्टी०-शुक्लपक्षमा चन्द्र बलवान् होय छे अने कृष्णपक्षमां तारा बलवती होय छे, शुक्लपक्षमा चन्द्र बलनी प्रधानता होय छे तेज प्रमाणे कृष्णपक्षमां तारा बलन प्राधान्य जाणवु. चन्द्र अमृतजन्मा छे तेनुं सर्व बल पण तेने अनुरूप ज होय छे, चन्द्रबल गुणरूप चन्द्रना महिमाने सर्व प्राणियो आगल प्रकट करे छे, जेम सर्व वनचर पशुगणोमा सिंह बलवान् होय छे तेम सर्वग्रहबलमां चन्द्रबल जाणवू, चन्द्र बलवान् होय छे त्यारे ग्रहो हमेशां बलवान होय छे. ताराबल अने सर्व ग्रहबल करतां चन्द्रबल अधिक होय छ, वास्तवमा वलीचन्द्रना अर्धवल तुल्य पण सर्वग्रहोर्नु बल होतुं नथी. चन्द्रबल-ताराबलनो समय विभाग ज्योतिर्निबन्धेतिथयः पञ्च शुक्लाद्या-श्चन्द्रस्तारायुतो बली। तनुत्वाद्वर्तमानाऽपि, प्रौढस्त्रीको यथा पतिः ॥६९९।। परतश्चन्द्रमा एव, यावत्कृष्णाष्टमीदलम् ।। प्रौढत्वात् पुरुषो यद्वत्, स्वतन्त्रःस्यादिना स्त्रियम् ॥७००॥ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ [कल्याणकलिका-प्रथमखडे कृष्णाष्टम्यूलतो यावद्दिनं पैत्रं निशाकरः। क्षीणत्वाद् दुर्बलत्वेन, प्रधानं तारकाबलम् ॥७०१॥ विकलाङ्गे यथा पत्यौ, कार्येषु प्रभवः स्त्रियः। एवं चन्द्रे च विकले, तारा बलवती भवेत् ॥७०२॥ भाण्टी०-शुक्लपक्षनी प्रतिपदादि तिथिओमां तारा बलनी साथे चन्द्र बलवान् होय छे, जेम प्रौढ स्त्रीनो दुर्घल पति. ते पछी कृष्ण पक्षनी अष्टमीना पूर्वार्ध सुधी चन्द्र स्वतन्त्र बली होय छे जेम प्रौढ पुरुष स्त्रीना बल विना कार्य करे छे. कृष्णाष्टमीना उत्तरार्धयी अमावास्या सुधी चंद्र क्षीण होइ दुर्बल होय छे एटले ताराबलनी प्रधानता होय छे, जेम पतिनी विकल अवस्थामां स्त्रियो सर्व कार्योमा स्वतंत्र होय छे, एज रीते चन्द्रनी विकलतामां ताराबलवती होय छे. अशुभ तारानो परिहार-ज्योतिःसागरेशशिनि परिस्फुटकिरणे, स्वतुङ्गभव ने स्वकीयवर्गे वा। क्षौरादिकेपि कार्य, तारादोषो न दोषाय ॥७०३॥ शुभदः स्वशुभोचगृहे, भवति यदोन्दुः कलावशेषोऽपि । ताराऽप्यशुभा शुभदा, भवति तदानीं न संदेहः ॥७०४॥ भान्टो०-चन्द्र स्पष्ट किरणो वडे प्रकाशतो होय, स्वगृही स्वउच्चनो अथवा स्ववर्गस्थित होय तो क्षौरादि कार्य जे खास तारा बलमा करवानुं छे, ते विरुद्धतारामां करे तो पण तारानी दुष्टता नडती नथी, चन्द्र भले कलामात्र शेष होय छतां गोचरथी शुभ होय स्वगृही होय सौम्यगृही होय अथवा उच्चनो होय तो तारा अशुभ होय तोये शुभ फल आपे छे एमां संदेह नथी. दुष्टताराना अपवादमां गर्ग कहे छविपदि प्रत्यरे चैव, नैधने च यथाक्रमम् । प्रथमान्त्यतृतीयाः स्युर्वर्जनीया यथाक्रमम् ॥७०५।। Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६९ लम-लक्षणम्] भाटी०-विपद्, प्रत्यरि अने नैधन तारानो अनुक्रमे प्रथम चतुर्थ अने तृतीय चरणनो त्याग करीने आवश्यक कार्य करे तो दुष्ट तारानो दोष बाधक होतो नथी. घातचन्द्र ए शुं छे ? आजना केटलाक ग्रामीण ज्योतिषीओ 'घातचन्द्र ना नामथी भडकी उठे छे, एथी सारामा सारी दिनशुद्धि होय लग्न गमे तेटलं बलवान होय छतां वर के कन्याने घात चंद्रनी बला वलगी एटले लग्न नापास ! कोई पण शुभ कार्यने अंगे मुहूर्त गमे तेवु शुभ होय पण कार्यकारक के बीजा कोइ तत्संबंधी व्यक्तिना नामनो घात चंद्र थयो एटले ते मुहूर्तने अंगे विरुद्ध चर्चाओ थवा मांडे, परिणाम ए आवे छे के अबोध जनता सारो टाइम खोवे छे अने आवा अर्धदग्ध ज्योतिपीओनी वातोमा आवीने पोतानां शुभ कार्यो केटलीक वार साव साधारण समयमां करी तेनुं विपरीत फल भोगवे छे. आषा कारणोने लक्ष्यमा लेइने अमो आ प्रसंगे घातचन्द्रने अंगे च्यार शब्दो लखवानुं प्रासंगिक मानीये छीये. 'घातचंद्र' घाततिथि, घातवार, घातलग्नादि के जेना उपर आजना टिप्पणीया ज्योतिषीओ आटलुं बधुं भार मूके छे ते 'घातो, खरी रोते ज्योतिषनी वस्तु नथी पण ए यामलादि स्वर शास्त्रोमांथी उतरी आवेल निर्मूल वस्तु छे. वसिष्ठ, नारद, वराहमिहिर, लल्ल आदि प्राचीन ऋषिओए के आचार्योए आ घातना सिद्धान्तने स्वीकार्या नथी, रत्नमाला, पाकश्री, नारचन्द्र, आरंभसिद्धि, आदि १३ मी शताब्धी सुधीना प्रामाणिक ज्योतिषशास्त्रमाये आ चन्द्र घातनो सिद्धान्त कोइए उल्लेख्यो नथी, सर्व प्रथम आ घातनो सिद्धान्त सत्तरमा सैकामां रचायेल रामदैवज्ञना मुहूर्तचिन्तामणिमा संग्रहायेलो दृष्टिगोचर थाय छे, ते आ प्रमाणे ७२ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याणकलिका-प्रथमखणे भूपश्चाद्वयङ्गदिग्वहिसप्तवेदाऽष्टेशार्काच घाताख्यचन्द्रः। मेषादीनां राजसेवाविवादे, यात्रायुद्धाद्ये च नान्यत्र वयः ॥७०६॥ भाटी-पहेलो पांचमो नवमो बीजो छट्ठो दशमो त्रीजो सातमो चोथो आठमो अग्यारमो अने बारमो (१-५-९-२-६ -१०-३-७-४-८-११-१२) ए मेष आदि राशिओनो घातचंद्र छे, जे राजसेवा, विवाद, यात्रा, युद्ध आदि कार्योमा वर्जवो. बीजा कामोमां नहिं. उक्त पद्यनी पीयूषधारा टीकामा गोविन्द दैवज्ञ कहे छे-- " अन्यत्र विवाहान्नप्राशनादिमंगलकृत्ये न वयः।" भाण्टी--अन्यत्र एटले विवाह अन्नप्राशन आदि मांगलिक कामोमां घातचंद्र न वर्जवो.' पोताना कथनना समर्थनमां ते 'उक्तं च' कहीने नीचे प्रमाणे ग्रन्थान्तरनु पद्य आपे छे. अजाजन्मधीधर्मवित्तारिखत्रिस्मराऽध्यष्टलाभान्त्यगो घातचन्द्रः। नृपद्वारयात्रावरोधागमादौ, विचिन्त्यो विवाहादिके नैवचिन्त्यः ॥७०७॥ भा० टी०-मेष राशिथी अनुक्रमे पहेली पांचमी नवमी पीजी छठी दशमी त्रीजी सातमी चोथी आठमी अग्यारमी बारमी राशिमा रहेलो चन्द्र आ राशिओनो घातचंद्र होय छे राजद्वारे जतां यात्रामा अने सेनानो अवरोध उपस्थित थतां के ए प्रकारना बीजा कार्योमा घातचंद्रनो विचार करवो, विवाहादि शुभ कार्योमा एनो विचार करवो नहि. Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्न-लक्षणम् ] ५७१ ए पछी टीकाकार दैवज्ञ गोविंद ' अन्यत्रापि ' आवा उल्लेख साथै कोइ श्रीजा ग्रन्थना " भूपञ्चनन्दा " इत्यादि त्रण पद्यो उद्धरे छे जे पैकीना प्रथम पद्यनां ३ चरणोमां मेषादि १२ राशिओना घातचंद्रनो उल्लेख छे अने चोथा चरणमां- 66 यात्रासु युद्धेषु च घातचन्द्रः -आ प्रमाणे घातचन्द्रनो विषय निर्देश्यो छे के-घातचंद्र यात्राओ ने युद्धोमां जोवानो छे, टीकाकारे आपला अत्रण पद्यो पैकीना छेल्ला बे श्लोको नीचे प्रमाणे छे युद्धे चैव विवादे च, कुमारीपूजने तथा । राजसेवा वाहनादौ, घातचन्द्रं विवर्जयेत् ॥७०८|| तीर्थयात्रा - विवाहान्न - प्राशनोपनयादिषु । सर्वमांगल्यकार्येषु, घातचन्द्रं न चिन्तयेत् ॥७०९ ॥ " भा०टी० - युद्ध, विवाद कुमारिकापूजन राजसेवा अने वाहनारोहण आदिमां घातचंद्र वर्जवो, तीर्थयात्रा, विवाह, अन्नप्राशन, उपनयन आदिकमां तथा सर्वप्रकारना मांगलिक कार्योंमां घातचन्द्र जोवानी जरूरत नथी, ए पछी गोविंद ज्योतिर्विद् घातचन्द्र विषयक पोताना एक पधनुं अवतरण आपी टीकाना अंतमां कहे छे" एतदपि निर्मूलम् |" अर्थात् आ घातचन्द्र प्रकरण पण निर्मूल एटले आधार विनानुं छे, अर्थात् आने कोइ मौलिक सिद्धान्त ग्रन्थनो आधार नथी. घातचंन्द्र, घाततिथि, घातवार, घातनक्षत्रनुं निरूपण करीने टीकाकार गोविंद घातनक्षत्र विषयक श्लोकनी टीकाना अन्तमा लखे छे -" तदेते दोषा दाक्षिणान्त्यप्रसिद्धा निर्मुलाः ॥ " अर्थात् उपर कल चंद्र, तिथि, वार, नक्षत्रघातना दोषो दाक्षिणात्यदेशमां प्रसिद्ध छे अने निर्मूल - निराधार छे, Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याणकलिका - प्रथमखण्डे विद्वान् टीकाकारनी उपर्युक्त स्पष्ट घोषणाथी जाणी शकाय छे के आ घातप्रकरण वास्तवमां कोइ सैद्धान्तिक वस्तु नथी पण देश विशेष प्रसिद्ध एक परम्परागत रूढि छे अने तेनो संबन्ध मात्र युद्ध, यात्रा, विवादादि के जेमां प्राणहानिनो भय होय तेवा कार्योंनी साथे छे, तीर्थयात्रा, विवाह, प्रतिष्ठा अने अज प्रकारना सर्व मांगलिक कार्योनी साथे, घात प्रकरणनो कोइ संबन्ध नथी. ५७२ आ स्पष्ट वस्तुस्थिति वांचवा छतां पण जेमना मनमांथी घातचंद्रनी भ्रांति न निकलती होय अने 'घातचंद्र 'ना परिहारने माटे फांफां मारता होय तेवा रूढिप्रिय ज्योतिषीओने अमो निम्नलिखित घातचंद्रना परिहार विषयक वे श्लोको अर्पण करीये छीये के जे घातचंद्र विषयक श्लोकनी पीयूषधारा टीकानी समाप्ति पछी आ प्रमाणे छपायेल छे. आग्नेयत्वाष्ट्रजलप - पित्र्यवासवरौद्रभे । मूलब्राम्हाजपादक्षै, पित्र्यमूलाजभे क्रमात् ॥७१०|| रूपद्रयग्न्यग्निभूराम - द्वयन्ध्यग्न्यब्धियुगाग्नयः । घातचन्द्रे धिष्ण्यपादा, मेषाद् वर्ज्या मनीषिभिः ॥७११ ।। भा०टी० - मेषादि १२ राशिना घातचंद्रमां नीचे प्रमाणे नक्षत्रोना पाया वर्जित करवाथी घातचंद्रनो परिहार थाय छे- मेषना घातमा कृत्तिकानो १, वृषमां चित्राना २, मिथुनमां शतभिषाना ३, कर्कमां मघाना ३, सिंहमां धनिष्ठानो १, कन्यामां आर्द्राना २, तुलामां मूलना २, वृश्चिकमा रोहिणीना ४, धनुमां पूर्वाभाद्रपदाथी ३, मकरमां मघाना ४. कुंभमां मूलना ४, अने मीनना घातचंद्रमां पूर्वाभाद्रपदाना ३ चरणो बुद्धिमानोर वर्जित करवा. घातचन्द्र विषयक उपर्युक्त निर्णय वांचीने बुद्धिमान् ज्योतिषीओए ज्योतिर्विदाभरण जेवा कूट तथा अप्रामाणिक ग्रन्थोना आधारे बनेला संग्रह - संदर्भोनी वातो उपर केटलो आधार राखवो ए तेमने पोताने विचारवानो विषय छे. Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासादादि - वास्तु मुहूर्तो (१) गृहारम्भ मुहूर्त - भूम्यारम्भे तथा कूर्मे - सूत्रपाते शिलासु च । क्षुरे द्वारोच्छ्रये स्तम्भे, पट्ट- पद्मशिलासु च ॥७१२॥ शुक्राग्रे पुरुषे चैव, घण्टायां कलशोच्छ्रये । ध्वजारोपे प्रतिष्ठायां, मुहूर्तानि निरूपयेत् ॥ ७१३॥ भा०टी० - प्रासादादि निर्माणार्थ भूमिखनन १, कूर्म अथवा कूर्मशिलान्यास २, सूत्रपातनुं सूत्रथी प्रासादनी भूमि मापी तल कायम करवानुं ३, शिलान्यास ४, पीठउपर खुरकनो थर मांडवानुं ५, द्वारारोपण ६, स्तंभ उभी करवानुं ७, पाटचढाववानुं ८, पद्मशिलाढकवानुं ९, शुकनास ढांकवानुं १०, प्रासाद पुरूष स्थापवानुं ११, आमलसारो चढाववानुं १२, कलशचढाववानुं १३, ध्वजारोप करवानुं १४ अने प्रतिष्ठानुं १५, आ प्रासाद वास्तु सर्वे मुहूतना कार्योंमां जोवानो होय छे. अर्थात् आ सर्व कामो शुभ समयमां करवां जोइये. प्रासाद तथा गृहारंभादिना मुहूर्तीमां शेषचक्र १ तथा भूम्यारंममां वृषवास्तुचक्र २, प्रासादचयनमां कूर्मचक्र ३, द्वारारोपणे द्वारचक्र ४, राहुनिवासचक्र ५, वत्सनिवासचक्र ६, स्तंभोच्छ्रयमां स्तंभचक्र ७, पट्टकारोपणे भोमचक्र ८, आमलसारारोपण घंटीचक्र ९, प्रवेशे कलशचक्र १०, आदिचक्रो जोवानां होय छे. तेथी आ चक्रो अमोओ दिनशुद्धिना निरुपण प्रसंगे आयां छे, जे त्यांथी जोइने मुहूर्त आपj. भूम्यारंभ मुहूर्त गृहवास्तु अथवा प्रासादवास्तुना आरंभ करवामां प्रथममास शुद्धि जोवी, वास्त्वारंभमां मासशुद्धि नीचे प्रमाणे छे Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे वैशाखे श्रावणे मार्गे, पौषे फाल्गुन एव च । कुर्वीत वास्तु प्रारम्भ, न तु शेषेषु सप्तसु ॥७१४॥ भा०टी०-वैशाख श्रावण मार्गशीर्ष पौष अने फाल्गुन अपांचचान्द्रमासोमां वास्तुकर्मनो आरंभ करवो, बाकीना सात महीनाओमां न करवो। वास्त्वारंभना सौरमासोधरमारभेन्नोत्तरदक्षिणास्य, तुलालिमेषर्षभभाजि भानौ । प्राक्पश्चिमास्यं मृग कुंभ कर्क सिंह स्थिते द्वयंगगते न किश्चित् ॥७१५।। भा०टी०-मेष वृषभ तुला वृश्चिक राशिना सूर्यमा उत्तर द्वार तथा दक्षिण द्वारना घर अथवा प्रासादनो कार्यारंभ न करवो, अज रीते मकर कुंभ कर्क सिंह राशिनो सूर्य होय त्यारे पूर्व-पश्चिममुख घरके प्रासादनो आरंभ न करवो, अने मिथुन कन्या धन मीन आ ४ द्विस्वभावराशिना सूर्यमां कोइ वास्तुनो आरंभ करवो नहि. ए विषे ज्योतिस्तत्त्वकार कहे छेपूर्वापरास्यं तु नभोऽन्त्यपौषे, याम्योत्तरास्यं सहसि-द्वितीये । कार्य गृहं जीवधुधर्भगार्क, नीचास्तगौ जीवसितौच हित्वा ।।७१६॥ भाण्टी०-पूर्व मुख पश्चिममुख गृह श्रावण पौषमें अथवा फाल्गुनमासमां आरंभq अने दक्षिण-उत्तर मुख गृह मार्गशीर्ष वा वै. शाखमां करवू, धन मीन मिथुन कन्याना सूर्यमां गृहारंभ करवो नहाँ, गुरू-शुक्र नीचना होय वा अस्त होय तो गृहारंभमां वर्जवा. Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूर्ता] नारदजीना मते गृहनिर्माणना महीनासौम्यफाल्गुन वैशाख-माघ श्रावण कार्तिकाः। मासास्युगृहनिर्माणे, पुत्रपौत्रधनप्रदाः ॥७१७।। भा०टी०-मार्गशीर्ष फाल्गुण वैशाख माघ श्रावण कार्तिक आ महीना गृह निर्माणमा पुत्र पौत्र धनने आपनारा छे. नारदजीना मते गृहनिर्माणमा सौरमासोगृहसंस्थापन सूर्ये, मेषस्थे शुभदं भवेत् । वृषस्थे धनवृद्धिः स्यात्, मिथुने मरणं ध्रुवम् ॥७१८॥ कर्कटे शुभदं प्रोक्तं, सिंहे भृत्यविवर्धनम् । कन्या रोगं तुला सौख्यं, वृश्चिके धनवृद्धिदम् ॥७१९॥ कार्मुके तु महाहानि-मकरे स्याद्धनागमः । कुंभे तु रत्नलाभः स्याद् , मीने सद्य महाभयम् ॥७२०॥ भाण्टी--मेषना सूर्यमां गृहारंभ शुभदायक थाय छे, वृपभनासूर्यमां धन वृद्धि, मिथुनना सूर्यमा मरण दायक. कर्कमां शुभद, सिंहमां भृत्यवृद्धि, कन्यामां रोग, तुलामां सुख, वृश्चिकमां धनवृद्धि, धनुमा महाहानि, मकरमां धननुं आगमन, कुंभमां रत्नलाभ, अने मीनना सूर्यमा आरंभेल गृह महाभय अने शोकदायक थाय छे. वास्त्वारंभना नक्षत्रो गर्ग कहे छेत्र्युत्तरामृगरोहिण्यां, पुष्ये मैत्रे करत्रये । धनिष्ठा द्वितये पौष्णे, गृहारंभः प्रशस्यते ॥७२१।। भाटी०-उत्तरा फाल्गुनि, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, मृ. गशीर्ष रोहिणी, पुष्य, अनुराधा, हस्त, चित्रा, स्वाति. धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती, अ नक्षत्रोमां गृहारंभ करवो शुभ गणाय छे, Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ [ স্ক্যাতিকা -খয়র देवालयना आरंभमा मासोनो अतिदेश-वास्तुमंडने देवालयं तडागं च, वाटिकोद्धरणं गृहम् । गृहमासोदितं शस्तं, मावे पि मुनिसंमतम् ॥७२२॥ भा०टी०-देवमंदिर तलाव वावडी जीर्णगृह उद्धार से सर्व कार्यों गृहनिर्माणना महीनाओमां करवां शुभ छे. ओ कार्योभा माघ मास पण शुभ मानेलो छे. गृहारंभना वारोगृहारंभना मुहूर्तमां रविवार अने मंगलवार वर्जित छे, शेष सव वारो लीधेला छे. छतां अटलं ध्यानमा राखवार्नु के जे ग्रहनो वार लेवो होय ते ग्रह नीचनो के अस्तगत न होवो जोइये कारण के बलहीनग्रहना वारे करायेल कार्य प्रायः सफल थतुं नथी. गृारंभनी तिथिोगृहारंभमा प्रतिपदा, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी सिवायनी शुक्लपक्षनी वधी तिथिओ शुभ छे. कृष्ण पक्षमां पण रिक्ता अष्टमी अमावास्या विनानी सर्वतिथिओ गृहारंभमां लइ शकाय छे. तिथि वारने अंगे भृगुनो मतरिक्ताष्टर्म दर्श रवीन्दु भौमा, विवर्जनीया विदुषा प्रयत्नतः। ___अर्थात्-बन्ने पक्षनी रिक्ता (४-९-१४) अष्टमी अमावास्या अ तिथिओ अने रवि सोम मंगल अ वारो विद्वाने यत्नपूर्वक गृहारंपमा वर्जवा.१ दिनशुद्धि विषे नारदमृदु-ध्रुव-क्षिप्रभेषु, रिक्तामारिवजिते । दिनेशुद्धेऽष्टमे लग्ने, शुभे शंकुं विनिक्षिपेत् ॥७२३॥ १-बीजा प्रयकारो सोमवार विहित गण्यो छे. Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूर्तो ] सूर्याङ्गारकवारांशा, वैश्वानरभयप्रदाः । इतरग्रहवारांशाः, सर्वकामार्थसिद्धिदाः ॥७२४॥ भाण्टी०-मृदु (मृगशिर, चित्रा, अनुराधा, रेवती) ध्रुव (रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा,) क्षिप्र (अश्विनी, पुष्य, हस्त, अभिजित्,) नक्षत्रोमां रिक्ता (चौथ-नोम-चौदश) अमावास्या तिथि अने रवि-मंगल वर्जित दिवसे अष्टम शुद्धिमां अने शुभलनमां वास्तुभूमिमां शंकु गाडवो. रविवार मंगलवार अने आ बन्नेना अंशो अग्निभय उत्पन्न करनारा छे, बीजा ग्रहोना वारो तेमज अंशो सर्व कार्योनी सिद्धि आपनारा छे. ए विषे ज्योतिष्प्रकाशकार लखे छे:पातादिकान् महादोषान् , हित्वा प्रोक्तेऽत्र भादिके । कर्तव्यं शिल्पनिर्माणं, योगैरायुष्प्रदः शुभैः ॥७२५।। भा०टी०-पातादि महादोषो टालीने विहित नक्षत्रादिकमा आयुर्दायक शुभयोगोवाला लग्नमां गृह प्रासादादि शिल्पकार्य, निर्माण करवू. __ गृह-निर्माणमा चन्द्रनी दिशाचक्रे सप्त शलाकाख्ये, कृत्तिकाद्यानि विन्यसेत् । ऋक्षं चन्द्रस्य वास्तोश्च, पुरः पृष्ठे च नो शुभम् ॥७२६॥ भा०टी०-सात शलोकाना चक्रमा कृत्तिकादि २८ नक्षत्रो पोतपोतानी दिशामां लखी मुहूर्त ना दिवसर्नु चन्द्र नक्षत्र तथा घरनुं नक्षत्र जोवू, जो घरना द्वारनी संमुख दिशामां के पाछली दिशामा अ नक्षत्रो आवतां होय तो मुहूर्त न करवू, तात्पर्य से छे-के गृहनिर्माणमुहूर्तमा चन्द्रनो वासो गृहसंमुख या पाछलनो न होवो जोइये अने गृहनक्षत्र पण ते वखते सामे या पाछलनी दिशामां न रहेवू जोइये. आ विधान केवल गृहने माटे छे. ७३ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्यापकलिका - प्रथमखण्डे प्रासाद, देवालय श्रीगृहने माटे चन्द्रनक्षत्र तेम प्रासादि नक्षत्र संमुख होय तो शुभ गणाय छे. गृहनिर्माणमां चन्द्रदिशाना फल विषे ब्रह्मशंभुधनलाभः प्रवासः स्यात्, आयुश्चौरभयं क्रमात् । दक्षाग्रवामपृष्ठस्थे, गृहकर्तुर्निशाकरे ||७२७।। भा०टी० - जमणा, आगेना, डाबा अने पाछलना चन्द्रमां गृहस्वामीने अनुक्रमे धनमाप्ति, प्रवास, आयुष्यवृद्धि, जने चौरभय थाय छे. ५७८ ऋक्षोच्चये गृहारंभ नक्षत्रो चित्रा शतभिषा स्वाती, हस्तः पुष्यः पुनर्वम् । रोहिणी रेवती मूलं, श्रवणोत्तरफाल्गुनी ॥ ७२८ ॥ धनिष्ठा चोत्तराषाढा, तथा भाद्रोत्तरान्विता । अश्विनी मृगशीर्ष च, अनुराधा तथैव च ॥७२९॥ वास्तुपूजन मेतेषु नक्षत्रेषु करोति यः । स प्राप्नोति नरो लक्ष्मी-मिति प्राह पराशरः ॥ ७३० ॥ भा०टी० – अश्विनी रोहिणी मृगशिर पुनर्वसु पुष्य उत्तराफाल्गुनी हस्त चित्रा स्वाति अनुराधा मूल उत्तराषाढा श्रवण धनिष्ठा शतभिषा उत्तराभाद्रपदा रेवती आ नक्षत्रोमां जे पुरुष वास्तुपूजन एटले गृहनिर्माण अने गृहप्रवेश करे छे ते लक्ष्मीने पाने छे आम पराशर ऋषि कहे छे. भूमिशयन प्रद्योतनात्पञ्च नगाङ्कसूर्य- नवेन्दु षड्विंशमितानि भानि । शेते मही नैव गृहं विधेयं, तडाग वापी खननं न शस्तम् ॥ भा०टी० - सूर्य नक्षत्रथी ५/७/९/१२/१९/२६ मा नक्षत्रे चंद्र Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूर्तो ] ५७९ होय त्यारे भूमि सूती होय छे, भूमि शयनमां गृहारंभ, के वावडी तलावन खोदवु शुभ नथी. वास्तुभूषणना मते भूमिशयनस्याद्धात्रीशयनं शशीमिततिथी १, तुर्ये ४ तथाकॅर्मिते १२।। ऋ: २७ भूपतिभि १५ नंगैः परिमिते ७ शेषे भवेजागृतिः ॥ ७३१ ॥ भा०टी०-सूर्यसंक्रान्तिथी १।४।७।१२।१५।२७ आटलामी तिथिए भूमि शयनावस्थामां होय छे, बाकीना दिवसोमां भूमि जागती होय छे. वराहना मते गृहारंभमां पंचांग शुद्धि-- वास्तोः कर्मणि धिष्ण्यवारतिथयो ऽश्विन्युत्तरारेवती, हस्तादित्रय मैत्र तोयवसुभे पुष्यो मृगो रोहिणी। निन्द्यौ भूसुतभास्करौ च शुभदा पूर्णा च नन्दातिथिHष्टा वैधृति गण्डशूलपरिघव्याधातवज्रावपि ॥७३२॥ विष्कम्भ-व्यतिपातकौ च न शुभौ योगाः परे शोभनाः, शस्तं नागबवाख्यतैतिलगरं युग्मां तिथिं वर्जयेत् । मौत त्वथ विश्वमष्टनवमं पञ्चत्रिरागाद्रिकं, श्रेष्ठं च द्वितीयं तुलावृषघटौ युग्मं धनुः कन्यके। इथंगे वा स्थिरभे च सौम्यसहिते लग्ने शुभैीक्षिते, सौम्यैर्वीर्यसमन्वितैश्च दशमे निर्माणमाहुर्बुधाः ॥७३३।। भा०टी०-वास्तुकर्ममा नक्षत्र वार तिथिओ आ प्रमाणे लेवां, नक्षत्रो___ अश्विनी, ३ उत्तरा, रेवती, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, पूर्वाषाढा, शतभिषा, धनिष्ठा, पुष्य, मृगशिर, रोहिणी ए लेवा. Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे वारो-मंगल रविने छोडीने वीजा सर्व लेवा. तिथिओ-पूर्णां (५।१०।१५) नन्दा (१।६।११) ए शुभदायक छे. 'युग्मतिथि वर्जवी' एटले २।४।६।८।१०।१२।१४ तिथिओ सामान्य रीते वर्ण्य छे, ए वचनथी ३७१३ ए तिथिओ पण वास्तुकर्ममां शुभ समजवी, १० मी युग्म छतां पूर्ण तरीके शुभ छे, २ युग्म छतां शुभ गणाय छे शेप युग्म तिथिओ वयं समजवी. योगा-वैधृति गंड शूल परिघ व्याघात वज्र विष्कंभ व्यतिपात ए अशुभ छे, शेषयोगा वास्तुकर्ममां शुभ छ, अशुभयोगो पैकीना व्यतीपात वैधृति संपूर्ण वर्जना, परिघy पूर्वाध वर्ज, शेष अशुभ योगोनुं शक्य होय तो प्रथम चरण, अन्यथा वयं घटिकाओ वर्जवी. करणो-नाग तैतिल बव गर ए शुभ छे शेश सामान्य छे अने विष्टि वर्जित छे. मुहूर्तों-बीजुं त्रीजुं पांचमु छटुं सातमुं आठमुं नवमुं तेरमं ए गृहकर्ममां शुभ छे. वास्तुनिर्माणना लग्न विषे दैवज्ञ वल्लभ-- राशौ दयंगे स्थिरे लग्ने, शुभयुक्ते विलोकिते। निर्माणं भवनस्याहुः, शस्तं कर्मगतैः शुभैः ॥७३४॥ त्रिषडायगतैः करैः शुभैः केन्द्रत्रिकोणगैः। शुभदं गृहनिर्माणं, क्रूरो मृत्युकरोऽष्टमः ॥७३५॥ भा०टी०-द्विस्वभाव अने स्थिर राशिना लग्नमां, लग्नमां शुभग्रह स्थित होय अथवा लग्नपर शुभग्रहनी दृष्टि होय, दशमे शुभ ग्रह होय, तेवा लग्नमां गृहनिर्माण करवू, शुभ कयुं छे क्रूर ग्रहो त्रीजा छठा स्थानमां गया होय, शुभग्रहो केन्द्र अने त्रिकोण (१।४।९।१०।५।९, स्थानोमा) गया होय तेवा समयमा गृहनिर्माणनो Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८१ ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूर्ता] आरंभ करवो शुभफलदायक छे. गृहनिर्माणमा आठमे क्रूर ग्रहनी स्थिति मृत्युकारक होय छे. लग्नो-तुला, वृषभ, कुंभ, मिथुन, धनु, कन्या अ शुभ छे अथवा द्विस्वभाव अने स्थिर लग्न सौम्यग्रह सहित होय अथवा शुभ ग्रहोनी दृष्टिमां होय, बलिष्ठ सौम्यग्रहो दशम स्थानमा होय तेवा समयमा विद्वानो गृहनिर्माण करवायूँ कहे छे. वास्तुकार्यारम्भनी उत्तम लग्न कुंडली-वास्तुतत्त्वप्रदीपे सये अशुष्मा सौम्य सास्य पा.प. सर्व शम्भ पाप सक्षम सच म गुशु में स्थान १।२।४।५।६।७।८।९।१०। मां जे जे ग्रहो जणाव्या छ, ए सिवायना ग्रहो ए स्थानोमां होय तो अशुभ फल आपे छे. ३१११ आ के स्थानोमां पडेला सौम्य के पाप सर्वे शुभदायक होय छे ज्यारे १२ मा स्थानमा रहेल सौम्य क्रूर कोइ पण ग्रह शुभ फल आपतो नथी. गृहारंभलग्ने आयुर्दायक योगा:-- गुरु लग्ने जले शुक्रः, स्मरे ज्ञः सहजे कुजः । रिपो भानुयंदा वर्ष-शतायुः स्याद् गृहं तदा ॥७३६॥ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याणकलिका - प्रथमखण्डे सितो लग्ने गुरुः केन्द्रे, खे बुधो रविरायगः । निवेशे यस्य तस्यायु- र्वेश्मनः शरदां शतम् ॥७३७॥ त्रिशत्रुसुतलग्नस्थैः, सूर्यारेज्यसितैर्भवेत् । प्रारम्भः सद्मनो यस्य, तस्यायुर्वै समाशते ॥ ७३८ ॥ व्योम्नि चन्द्रः सुखे जीवो, लाभे भौमशनैश्वरौ । यस्य धाम्नः समाशीतिः, स्थितिस्तस्य श्रियायुता ॥ ७३९ ॥ स्वोच्चस्थे लग्नगे शुक्रे, हिबुकस्थेऽथवा गुरौ । स्वोच्चे मन्देऽथवा लाभे, धाम्नः सश्रीः स्थितिश्विरम् ॥ ७४० ॥ ૧૮૨ भा०टी० - जे गृहना आरंभमां गुरु लग्नमां, शुक्र चोथे भवने, बुध सातमे, मंगल वीजे अने सूर्य छहे होय ते गृहनुं आयुष्य १०० वर्षनुं होय, जे घरना प्रारंभमां शुक्र लग्नमां, गुरु केन्द्रमां, बुध दशमे अने सूर्य अग्यारमे होय ते गृहनी स्थिति १०० वर्षनी होय. जे गृहना प्रारंभकाले सूर्य ३ जे, मंगल ६ ठे, गुरु ५ मे, शुक्र लग्नमां होय ते घर २०० वर्ष पर्यन्त टकी रहे छे, चंद्र १० मे, गुरु ४ थे, मंगल शनि ११ मे जे घरना प्रारंभ लग्नमां पड्या होय ते घर ८० वर्ष सुधी समृद्ध दशामां रहे, जे घरना प्रारंभ लग्नमां शुक्र उच्चनो थइने लग्नमां बेठो होय अथवा गुरु उच्चनो यह ४ थे बेठो होय अथवा तो शनि उच्चनो थह ११ मे बेठो होय ते घर अपरिमित काल पर्यन्त लक्ष्मीथी समृद्ध रहे छे. 7 स्वर्क्ष चन्द्रे विलग्नस्थे, जीवे कण्टकवर्तिनि । भवेलक्ष्मीयुते धाम्नि भूरिकालमवस्थितिः ॥ ७४१ ॥ स्वमित्रोच्चगृहीशस्थै- स्तद्वंश्याश्विरमासते । खगैरन्यगतैरन्ये, नीचगैश्चापि निर्धनाः ॥७४२ ॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूर्तों । ५८३ अनस्तगैः सितेज्येन्दु-जन्मराशि विलग्नपैः ।। स्वोच्चस्वक्षेत्रभागस्थैर्भवे-च्छी सौख्यदं गृहम् ।।७४३॥ गृहिणीन्दी गृहस्थोऽर्के, गुरौ सौख्यं सिते धनम् । विवले नाशमायाति, नीचगेऽस्तंगतेऽपि च ॥७४४॥ भाण्टी-जे गृहना आरंभकाले चन्द्र स्वगृही होय अथवा लग्नस्थित होय गुरु केन्द्रमा होय ते गृहमा तेनो स्वामी घणा काल पर्यन्त समृद्ध दशामां निवास करे छे, जे गृहनिर्माणमां ग्रहो स्वगृही, मित्रगृही, उच्चस्थानीय अने बनवांश स्थित होय ते घर तेना वंशजो घणा काल सुधी भोगक, एथी विपरीत जो ग्रहो शत्रुगृही होय अगर शत्रु नवमांशमा होय तो ते घर बीजाओ भोगवे, नीचना ग्रहो होय तो तेमां निर्धनोनो वास शाय. शुक्र गुरु चंद्र जन्मराशिपति अने लग्नेश ए बधा उदित ह " उच्चना होय, स्वगृही होय, अगर स्वनवांश स्थित होय, तेवा समयम् पारंभेल गृह लक्ष्मी तथा सुखथी संपन्न होय छे. गृहनिर्माण स. मा चन्द्र निर्बल होय तो निर्मापकनी स्त्रीनो, सूर्य निर्वल होय तो गृहपतिनो, गुरु निर्बल होय तो सुखनो अने शुक्र निर्बल होय तो धननो नाश थाय, उक्त ग्रहो नीचना अथवा अस्त होय तो पण एज प्रमाणे फल जाणवू. ___ गृहारंभमां उत्तम-मध्यम-अधमग्रहस्थितिकूरा ति-छगारसगा, सोमा किंदे तिकोणगे सुहया । कूरहम अइअसुहा, सेसा मज्झिम गिहारंभे ॥७४५।। भा०टी०-गृहारंभ लग्नमां क्रूर ग्रहो ३-६-११ ए स्थानोमां होय अने सौम्यग्रहो १-४-७-१०-५-९ओ केंद्र-त्रिकोण स्थानोमां होय तो शुभफल आपनारा छे, आठमा भवनमा क्रूर ग्रहो अति अशुभ छे, शेष स्थानोमां क्रूर-सौम्योनी स्थिति मध्यम प्रकारनी जाणवी. Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे गृह अने देवालयना निर्माण मुहूर्तमां भेद नथी. उपर गृह निर्माणने अंगे जे जे वातो कहेवाइ छे ते बघी देवालयना आरंभ मुहुर्तमां पण जोवानी छे, खातमा मात्र गृह अने देवालयना खातमां दिशा जुदी पडे छे के कूर्मशिलान्यास समयमां देवालयमा कूर्मचक्र जोवानुं अधिक छे, बीजु कंइ विशेषपणुं नथी, ए विषे व्यवहारप्रकाश लखे छे-- गृहेषु यो विधिः कार्यों, निवेशन-प्रवेशयोः। स एव विदुषा कार्यों, देवतायतनेष्वपि ॥७४६॥ भा०टी०-गृह संबन्धी निवेशन-प्रारंभकार्यमां अने प्रवेश कार्यमा जे विधि-मुहूर्त संबन्धी जे विधान कर्यु छे, तेज विधान विद्वाने देवालयना प्रारंभ अने प्रवेशना मुहूतोंमां पण करवू. (२) कूर्मन्यास मुहूर्त-- खातमुहूर्त पछी गृहमां पायारोपर्नु मुहूर्त करावे छे, · पण देवालयमां भूम्यारंभ पछी कूर्मन्यासन मुहूर्त आवे छे, पूर्वकालमां खात पछी प्रासादना मध्यभागे नीचे केवल कूर्मन्यास करातो हतो पण मध्यकालीन शिल्पग्रन्थोमां कूर्मयुक्त शिलास्थापन- विधान करेल होइ आजकाल कूर्माङ्कित शिलास्थापननी प्रवृत्ति चाले छे अने कूर्मशिला स्थापन, मुहूर्त जोवाय छे. कूर्मन्यास अथवा कूर्मशिलान्यासना मुहूर्तमा चन्द्रवल उपरान्त गृहारंभमां जणावी तेवी पंचांग शुद्धि होवी जोइये, अने कूर्मचक्रद्वारा वूमनो निवास जलमां जाणी मुहूर्त आपQ जोइये-आ मुहूर्तमां वृषवास्तुचक्र, के भूमि सूती जागती, आदि आरंभना समयनी बीजी वातो जोवानी आवश्यकता नथी, मात्र कूर्मचक्र जोइने कर्मन्यास करवा जोइये. Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूर्तो ] ५८५ (३-४-५ ) सूत्रपात-शिलान्यास-खुरानां मुहूतों प्रासादनी जगाती जेटली उंची लेवानी होय तेटली लेइ ते उपर सूत्र छांटी प्रासादनुं आधार स्थल चिन्हित करवू. प्रथम रिक्शुद्धि करवी अने पछी शुभ समयमां सूत्र पात करवो, सूत्रपातनां नक्षत्रो नीचे प्रमाणे लेवां. सूत्रस्य सिद्धिर्वस्सुनाथ हस्तमैत्र स्थिर स्वाति शतक्ष पुष्यैः । न्यासः शिलायाः कर पुष्य मार्ग पौष्ण ध्रुवेषु श्रवणे च शस्तः ॥ ७४७॥ भा०टी०-धनिष्ठा, हस्त, अनुराधा, रोहिणि, उत्तराफाल्गु. नि, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपद, स्वाति, शतभिषा अने पुष्य, आ नक्षत्रोमां सूत्रपात करवाथी कार्य सफल थाय छे अने हस्त पुष्य मार्गशीर्ष रेवती रोहिणी उत्तरा त्रणे अने श्रवणमा शिलान्यास करवाथी ते वास्तु निर्विघ्नपणे पूर्ण थाय छे. खुरो स्थापनामां पण शिलान्यासोक्त नक्षत्रो लेखां, मूत्रपात, शिलान्यास, खुरस्थापनमा अशुभ योगो, क्षीणचन्द्र, मंगलवार, वर्ण्य तिथिओ अने भद्रा करणनो त्याग करवो, शुभलग्नमां, लग्नना अभावमा कुलिकादि वार दोषरहित शुभ चोघडियामां पण सूत्रपातादि करी शकाय छे. __ए उपरांत सूत्रपात शिलान्यासादिनां मुहूतोंमां पञ्चांग शुद्धि जोवी, कारकनानामथी चन्द्रबल जोवू. मलमास, गुरु-शुक्र-चन्द्रास्त, भद्राकरण, व्यतीपात वैधृतादि दुष्ट योगो, आदि अशुभ निमित्तो अवश्य टालवा, लग्मशुद्धि मले तो विशेष श्रेष्ठ अन्यथा भूम्यारंभ मुहूर्वोक्त वार दोष टाली शुभ समयमां आ सर्वे कार्यों करी लेवां. शिलान्यास मुहूर्तमा उक्तश्लोकमा जणावेल हस्तादि ९ नक्षत्रो लेबां, तेना अभावमा गृहनिर्मागमा जणावेल मृदु लघु आदि गणोक्त ७४ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण कलिका-प्रथम खण्डे अन्य नक्षत्रो लेवां, सर्व कार्यामां सौम्य वागे लेवा, कारणे मंगलवार सिवायना बीजा वारो पण लेवा. तेवा वारोमा ते वारोनी होरा अवश्य टालवी, शास्त्र कहे छे केहोराफल-वारफले, हे अपि निन्य न जातु गृहणीत । एकस्मिन् शुभफलदे, तयोश्च कार्य शुभं कुर्यात् ।।७४८॥ भा०टी०-क्रूर वार अने कर वारनी होरा ए वंने कर न लेवा बेमाथी एक पण शुभ होय तो शुभ कार्य करवं. (६) द्वारारोपण मुहूर्तद्वारारोपण मुहूर्तमां पञ्चाङ्ग शुद्धि उपरांत केटलीक वातो जोवानी छे. मलमास गुर्वाधस्त अने व्यतीपातादि मोटा अपयोगो टालीने शुभ समयमां द्वा रोपण कर. मली शके त्यां सुधी लग्ननो समय लेवो पण तेम न - ही शके अगर लग्नशुद्धि न मलती होय तो कुलिक-अर्धप्रहरादि बार दोषो अने दुर्मुहूर्तो टालीने ज द्वार चढाव जोइये, वली द्वारारोपणमां वत्स तथा राहुनो वासो अवश्य जोवो, वत्स सामे तथा पाछल अने राहु संमुख आवतो होय ते मासमां द्वारारोप मुहूर्त न करवू, मास विषयक उक्त योगो जोवा उपरांत द्वार चक्र पण जोवु अने चक्रमा चन्द्र नक्षत्र शुभस्थाने आवतुं होय तो द्वार मुहूर्त आप. (७) स्तंभोच्छ्राय मुहूर्तघर या प्रासादनो प्रथम थांभलो अग्निकोणमा शुभमुहूर्ते उभो यो ए विषयमां ब्रह्मशंभु कहे छे.सूत्र भित्ति शिलान्यासं, स्तंभस्यारोपणं सदा । पूर्वदक्षिणयोर्मध्ये, कुर्यादित्याह कश्यपः ।।७५०॥ भाल्टो०-सूत्रपात, भितिचयन, शिलान्यास, अने स्तंभो Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८७ ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूर्तो ] च्छ्राय, आ सर्व कार्यों हमेशां आग्नेयकोणथी शरु करवां आम कश्यप ऋषि कहे छे. शाङ्गधर पण कहे छेप्रासादेषु च हर्येषु, गेहेष्वन्येषु सर्वदा । आग्नेयां प्रथमस्तम्भं-स्थापयेद् विधिना ततः ॥७५१॥ भान्टी०-प्रासादो, हवेलियो अने बीजां घरोमां हमेशा प्रथमस्तंभ आग्नेयी दिशामा स्थापन करवो. __स्तंभारोपण सामान्य दिनशुद्धि, चन्द्रबल अने स्तंभचक्र जोइने करवू जोइये. (८) पट्टकारोपण मुहूर्तप्रासाद अथवा घरमां पाटडो अथवा मोभ स्थापवान मुहूर्त पञ्चांगशुद्धि जोहने आपq, कर्ताने चंद्रबल जोवू अने मोभचक्रमां दिननक्षत्र शुभ स्थाने आवतुं होय ते दिवसे आप, पट्टकारोपण शुभ चोघडियामा करी शकाय छे. (९-१०-११) पद्मशिला-शुकनास-पुरुष-निवेशन मुहूतों-- पद्मशिला शुकनास अने प्रासादपुरुष स्थापवानां मुहूतों सूत्रपातादिना मुहूर्तोमा जणावेल दोषो टाली पञ्चांगशुद्धिमां करवां, लग्न जो सारु मली शकतुं होय तो लग्नमां, अन्यथा शुभ चोघडियामां अथवा विजयमुहूर्तमा पण ए मुहूर्तो करी शकाय छे. ___ (१२) आमलसारक स्थापनमुहूर्तआमलसारो चढाववामां पञ्चांग शुद्धि उपरांत चंद्रबल जोवू अने घंटाचक्र जोइ जो दिननक्षत्र चक्रना शुभस्थानमा आवतुं होय तो शुम चोघडियामां आमलसारो ढांकी लेवो, झीणवटमा उतरवानी जरूर नथी. Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे (१३-१४) कलश अने ध्वजारोपनां मुहूर्तों-- प्रासाद उपर कलश तथा ध्वजारोपना मुहूर्तो सारी दिनशुद्धि लग्नशुद्विमा करवां जोइये, प्रतिष्ठा मुहूर्तमा जे अशुभ योगो त्यजाय अने शुभ योगो लेवाय छे तेज प्रकारना अशुभ शुभयोगो आ मुहूर्तोमा त्यागवा अने लेवा. मात्र प्रवेशने अंगे जोवातां राहु, वत्स अने कलशचक्रो आमां जोधातां नथी, बीजु बधुं जोवाय छे. (१५) प्रतिष्ठामुहूर्त-- पञ्चाङ्गशुद्धि-- 'प्रतिष्ठा' शब्दना अत्र बे अर्थ लेवाना छे, एक नवीन देवप्रतिमाने अधिवासना-अअनशलाका करी पूजनीय बनाववा ते अने बीजो तेवी पूजनीय प्रतिमाने प्रासाद-चैत्यमा स्थापन करवा ते. अमो आ बंने प्रतिष्ठाओना मुहूंतोनो विचार करी संक्षेपमा मुहूर्त निरूपण करशुं. धने प्रकारना प्रतिष्ठा-मुहूर्तोमा कारक गृहस्थादिने चन्द्रसारादिबल अनुकूल होय त्यारे प्रतिष्ठा करवी. ए विषे नारद कहे छ श्रीप्रदं सर्वगीर्वाण-स्थापनं चोत्तरायणे । गीर्वाणरिपु गीर्वाण-मन्त्रिणोर्दश्यमानयोः ॥७५२॥ विचैत्रेब्वेव मासेषु, माघादिषु च पञ्चसु । शुक्लपक्षेषु कृष्णेषु, तदादिष्वष्टसु स्मृतम् ॥ ७५३ ॥ भा०टी०-उत्तरायणकालमा सर्व देवोनी स्थापना करवी ते संपत्तिनी आफ्नारी छे, पण शरत ए छे के ए समय दर्मियान शुक्र तथा गुरु उदित होवा जोइये, अने उत्तरायणना माघादि ५ मासोमां चैत्र मास न होवो जोइये, पक्षोमां शुक्लपक्ष संपूर्ण अने कृष्णपक्षना आदिना ८ दिवसो प्रतिष्ठा माटे शुभ जाणवा. Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूतों । ___ आ विषयमां वसिष्ठy कथन-- मासे तपस्ये तपसि प्रतिष्ठा, धनायुरारोग्यकरी च कर्तुः। चैत्रे महारुग्भयदाच शुचौ, समाधये पुत्र धनप्रदा सा ॥७५४॥ आषाढमासादिचतुष्टये च, कलन-संतानविनाशदा च । ऊर्जे च कर्तुनिधनप्रदा च, सौम्ये सपौषेऽखिलदुःखदा च ॥ ७५५ ॥ वलक्षपक्षः शुभदः समस्तः, सदैव तत्राद्यदिनं विहाय । अन्त्यत्रिभागं परिहृत्य कृष्ण पक्षोऽपि शस्तः खलु पक्षयोश्च ।। ७५६ ॥ रिक्तावमात्यक्तदिनेष्वनिन्द्य-योगेषु वै नाशिकवर्जितेषु । दिने महादोषविवर्जिते च, शशाङ्कताराबल संयुतेऽपि||७५७॥ देवस्य यस्योडतिथीप्रशस्ते, संस्थापने कर्मणि वासरश्च । कर्तुर्दिनेशस्य बलं सदैव, ग्रामाधिप ग्रामबलं विचार्यम्।।७५८॥ ___ भाटी०-माघ फाल्गुन मासमां कराती प्रतिष्ठा धन आयुष्य आरोग्य करनारी थाय छे, चैत्रमा करेल धनिष्ठा महारोग अने भय आपे छे, वैशाख ज्येष्टमां करेल प्रतिष्ठा पुत्र अने धनने आपनारी थाय छे, आषाढादि ४ मासमा प्रतिष्ठा पुत्र स्त्री संताननो विनाश करे छे, कार्तिकनी प्रतिष्ठाथी कारकनुं मरण थाय छे अने मार्गशीर्ष तथा पोषमा करेली प्रतिष्ठा दुःखदात्री थाय छ, शुक्लपक्षनो प्रथम दिन वर्जीने शेष संपूर्ण पक्ष शुभ छे अने छेल्ला त्रीजा भाग सिवायनो कृष्णपक्ष पण प्रतिष्ठामां शुभ छे. बंने पक्षनी रिक्तातिथिओ क्षय तिथिओने छोडी बीजा शुभ दिनोमां शुभ योगोमा वैनाशिक नक्षत्र रहित तथा महादोष रहित चन्द्रताराबलयुक्त शुभ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याणकलिका-प्रथमखए। दिवसे, जे देवनी स्थापना करवी होय तेनुं नक्षत्र तथा तिथि शुभ होय स्थापना कार्यमां दिवस ग्राह्य होय ते दिवसे प्रतिष्ठा र वी, प्रतिष्ठा कारकने रविवल अने ग्राम तथा ग्रामाधिपतिने चन्द्रबल छे के नहि ए विचारीने प्रतिष्ठा मुहूर्त देवु. उपरना विधानमा देवप्रतिष्ठामा प्रधानपणे उत्तरायण ग्राह्य कर्यु छे तेथी मार्गशीर्ष पौष प्रतिष्ठामां लीधा नथी एम छतां देवविशेष अने कारक विशेषने माटे दक्षिणायन पण ग्राह्य छे. ए विषयमां गणपतिनुं प्रतिपादन-- याम्यायनेपि वाराह-मातृ-भैरववामनान् । महिषासुरहंत्री च, नृसिंहं स्थापयेद् घुधः ॥७५९।। भा टो०-विद्वाने वाराह, मातृओ, भैरव, वामन चंडिका अने नृसिंह आ सर्वेने दक्षिणायनमां पण प्रतिष्टित करवा. प्रतिष्ठा कर्तृपरक उत्तरायण दक्षिणायननो विवेक शैवसिद्वान्तशेखरे-- श्रेष्ठोत्तरे प्रतिष्ठा स्या-दयने मु(भुक्तिमिच्छताम् । दक्षिणे तु मुमुक्षूणां, मलमासे न सा द्वयोः ।।७६०॥ मा०टी०-मु(भु)क्तिने इच्छनाराओ (गृहस्थो) माटे उत्तरायणमां प्रतिष्ठा करवी श्रेष्ठ छे पण मुमुक्षु (साधु)ओने माटे दक्षिणायनमा पण श्रेष्ठ छे, मलमासमां बनेने मोटे प्रतिष्ठा वर्जित छे. तिथि विधे नारद मत-- द्वितीयादिद्वयोः पंच-म्यादितस्तिसृषु क्रमात् । दशम्यादेश्चतसृषु, पौर्णमास्यां विशेषतः ॥७६१।। भा०टी०-द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी अने पूर्णिमा आ तिथिओमा प्रतिष्ठादि कार्यों करवा Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे - वास्तु मुहूर्तो ] प्रतिष्ठामां वार - नारदसंहिता कुजवर्जितवारेषु, कर्तुः सूर्येबलप्रदे । चन्द्रताराबलोपेते, पूर्वाहे शोभने दिने । शुभे लग्ने शुभांशे च कर्तु र्न निधनोदये ॥ ७६२ ॥ भा०टी० - मंगलवार सिवायना वारोमां, कर्ताने सूर्यबल आपतो होय त्यारे, चन्द्र तथा ताराबलवाला शुभ दिवसे दिवसना पूर्वार्धमा कर्तानी जन्मराशि वा जन्मलश्थी आठमी राशिनुं लग्न छोडीने शुभ लग्न तथा शुभ नवमांशमां प्रतिष्ठा करवी. वसिष्ठना मते प्रतिष्ठामां वारफल-कीर्तिप्रदं क्षेमकरं कृशानोर्भयप्रदं वृद्धिकरं नराणाम् । लक्ष्मीकरं सुस्थिरदं त्विनादिवारेषु संस्थापनमामनन्ति ॥ ७६३ ॥ ५९१ भा०टी० - सूर्यादि सात वारोमां थयेली देवोनी स्थापना अनुक्रमे कीर्ति आपनारी, कल्याण करनारी, अग्निमय करनारी, कारकजनानी वृद्धि करनारी, लक्ष्मी करनारी अने दीर्घकाल स्थायी रहेनारी होय छे. उपरना निरूपणथी जणाय छे के एक मंगलवारने छोडी बीजा बधा वारो प्रतिष्ठामां लड़ शकाय छे, पण तेमां वारगत दोषोअर्धयाम, कुलिक, कालवेला दुर्मुहूर्त आदि अवश्य टालवा. प्रतिष्ठामां नक्षत्र वसिष्ठसंहिता -- हस्तत्रये मित्र हरित्रये च पौष्णद्वयादित्यसुरेज्यभेषु । तिस्रोत्तराधातृशशाङ्कभेषु, सर्वामरस्थापनमुत्तमं तत् ॥ ७६४ ॥ भा०टी० - हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती, अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तरा Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्ड षाढा, उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी, मृगशीर्ष आ नक्षत्रोमां सर्व देवोनी स्थापना- प्रतिष्ठा उत्तम छे. जैन प्रतिष्ठामां नक्षत्रो, आरंभसिद्धौ-उद्वाहे मृगपत्र, प्रतिष्ठायां तु ते उभे । आदित्यपुष्यश्रवण-धनिष्टाभिः समं शुभे ॥ त्रिषु मैत्रंकरः स्वाति-मूलः पौष्ण ध्रुवाणि च ॥ ७६५ ॥ भा०टी० -- विवाहमां मृगशिरा तथा मघा अने प्रतिष्ठामां ते बे सहित पुनर्वसु, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा, अनुराधा, हस्त, स्वाति, मूल, रेवती रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा आ सर्व नक्षत्रो शुभ छे, छेल्लां नव नक्षत्रो विवाह तथा दीक्षामां पण शुभ छे, अने एज नक्षत्रा नारचंद्रमां लखेल छे, वसिष्ठे अश्विनी चित्रा शतभिषा अधिक लीधां छे अने मघा तथा मूल नथी लौघां. प्रतिष्ठायां वर्जित नक्षत्रो- जन्मक्ष दशमे चैव, पोऽशे ऽष्टादशे तथा । पञ्चविंशे त्रयोविंशे, प्रतिष्ठां नैव कारयेत् ||७६६ || ग्रहणस्थं ग्रभिन्न- मुदितास्तभितग्रहम् । क्रूर भुक्ताग्रमाक्रान्तं, नक्षत्रं परिवर्जयेत् ॥७६७॥ भा०टी० – जन्म नक्षत्रमां, तेथी दशमा सोलमा अढारमा वीशमा तथा पच्चीसमा नक्षत्रमां प्रतिष्ठा न कराववी. वला ग्रहणना नक्षत्रमां ग्रहो बडे भेद करायेल नक्षत्रमां जे उपर ग्रह उग्यो अथवा आथम्यो होय ते नक्षत्र, क्रूर ग्रह वडे भोगवायेल भोगवातुं के अनन्तर भोगवाशे ते नक्षत्र, आ बधां नक्षत्रो प्रतिष्ठादि शुभ कार्योमां बर्जवां. प्रतिष्ठामां योगो - वसिष्ठः- प्रतिष्ठा देवतानां च गृहाणि नगराणि च । प्राकारतोरणादीनि सिद्धियोगे प्रकारयेत् ॥ ७६८ || " Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूर्तो ] ५९३ ___भाल्टी-देवताओनी प्रतिष्ठा, घरनिर्माणि, नगरनिवेश, कोट कढाक्यो, तोरणी उभा करवां, इत्यादि कार्यों सिद्धि योगमा करावा. ए सिवायना पण शुभकार्योक्त योगो प्रतिष्ठामा लेह शकाय छे, अशुभ योगो पैकीना व्यतीपात वैधृति ए बे योगो संपूर्ण त्यजवा, परिघयोगनी प्रथमनी ३० घडीओ अने बाकीना दुष्टयोगोनी प्रथमनी १५ घडीओ त्यजवी. त्रिशूल अने एकार्गल योग बनतो होय तो ते पण अवश्य वजेवो. ___ नक्षत्रक्षणानी जेम ज शास्त्रमा योगक्षणो पण बताव्या छे, ते लेइने काम करवू, उदाहरणरूपे कोइ मुहूर्तमा 'विष्कंभ' योग छे ए सूर्योदयथी लाग्यो छे अने एनी आदिनी ३ घडी वर्जित छे, पण ते दिवसे ग्राह्य नवमांश २ घडी १५ पले ज चालु थइ जाय छे अने २ घडी ३० पले उतरी जाय छे. आवा संयोगामा ३ घडी त्यजवाने खातर नवमांश जतो करवो, के शुभ नवमांशने खातर वज्यं घडीमां काम करवू ? उत्तर ए छे के आदी परिस्थितिमां क्षणयोगनो आश्रय लेबो, २ घडी १३ पले विकभनो क्षण उतरी 'प्रीति 'नो क्षण लागी जाय छे, तेमां कार्य करवामां बांधो नथी. ए सिवाय रवियोग, कुमारयोग, राजयोग के अमृतसिद्धियोगो पैकीना बे वा एक शुभयोग मुहूर्तना दिवसे आवता होय तो ते मुहूर्त दिनशुद्धिना हिमाचे महत्ववालं गणाय छे. प्रतिष्टामा करण. करणोने अंगे आरंभसिद्धिकार कहे के-- दशाऽमूनि विविष्टीनि, दिष्टान्यखिलकर्मसु । रात्र्यहर्व्यत्ययाद् भद्रा-ऽप्यदुष्टैवेति तद्विदः ॥७६८॥ भा०टी०विष्टि विनानां बवादि १० करणो सर्व कार्योमा ग्राह्य कह्यां छे अने रात्रिभद्रा दिवसमां अने दिवसभद्रा रात्रिमा होय तो भद्रा पण दुष्ट नथी एम ज्योतिर्विदो कहे छे. Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे उपरना कथन प्रमाणे एक भद्रा सिवाय सर्व करणो सर्व कार्योमा विहित छे अने रात्रिदिवसना भेदे भद्रा पण अदृष्ट ले, पण केटलाक ज्योतिषीओ क्रमागत के अक्रमागत भद्रा होय छतां सर्वथा भद्राने त्याज्य कहे छे तेथी शक्य होय त्यां सुर्धा भद्राने बी. बली नाग अने चतुष्पद आ ये करणो पण क्रूर होइ बनतां मुवी प्रतिष्ठामां वर्जवां, एम छनाये बीजां सर्व अंगो बलिष्ट होय तो करण ना कारणे ज ते समयने त्याज्य गणवो न जोड़ये, मात्र दिनविभागती सहा दिवसे अने रात्रि विभागनी भद्रा रात्रिए अवश्य वर्जवी. प्रतिष्ठामा लग्नशुद्धि-- प्रतिष्ठा मुहूर्तमा दिनशुद्धि प्रमाणे ज लग्नशुद्धि पण जाची, लग्नशुद्धिमा लग्नमां ग्रह स्थिति बराबर न होयानी दशामां लग्नमां उत्तम नवमांश लेवो जोइये, शास्त्रमा का छस्वार्धे नक्षत्रफलं, तिथ्यधैं तिथिफलं समादेश्यम् । वारफलं होरायां, लग्नफलं त्वंश के स्पष्टम् ।।७६९।। भा०टी०--नक्षत्रनुं फल नक्षत्रना (पूर्व ) अर्ध मां, नियिर्नु फल तिथिना (पूर्व ) अर्धमा, वार- फल तेनी होरामा अने लग्ननुं फल तेना नवमांशमां संपूर्णपणे मले छे. । प्रतिष्ठाना लग्नने अंगे वसिष्ठ कहे छे-- पञ्चेष्टिके जीवशशाङ्क सूर्यमुख्यैर्ग्रहै: सौम्यनवांशयुक्तैः । लग्ने स्थिरे चोभयराशिलग्ने, नवांशके चोभयभे स्थिरे वा ।। ७७० ।। चरोदये लग्नगते न कार्य, संस्थापनं नैव चरांशकेपि। चरोपिमुख्या सतुलांशकश्च, सदा मृदुत्वात्सुरसंनिवेशे ।। ७७१ ॥ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूर्ता] भाटी०-लग्न पंचवर्ग शुद्ध होय, गुरु चंद्र सूर्य प्रमुख ग्रहो राशिना सौम्य नवमांश युक्त होय तेवा समयमां, स्थिर वा द्विस्वभाव लग्नमां अने द्विस्वभाव वा स्थिर नवमांशमां देव प्रतिष्ठा करवी, चर लग्न अने चर नवमांशमां देवनी स्थापना करवी नहि, परन्तु तुलाशक मृदुस्वभावनो होवाथी चर होवा छतांये देवोना स्थापनमा मुख्य गणाय छे. प्रतिष्ठानी लग्नशुद्धिविषे नारदजीराशयः सकलाः श्रेष्ठाः, शुभग्रहयुतेक्षिताः । शुभग्रहयुते लग्ने, शुभग्रहनिरीक्षिते ।।७७२।। राशिस्वभावजं हित्वा, फलं ग्रहजमाश्रयेत् । अनिष्टफलदः सोऽपि, प्रशस्तः फलदः शशी ॥८७३।। सौम्यसंगोऽधिमित्रेण, गुरुणा वा विलोकितः । पञ्चेष्टिके शुभे लग्ने, नैधने शुद्विसंश्रिते।७७४।। भाल्टी–प्रतिष्ठामां सर्व राशिभो श्रेष्ठ छे जो ते शुभ ग्रह सहित होय, अथवा शुभ दृष्ट होय, शुभ ग्रहयुक्त अथवा शुभग्रहदृष्ट लग्न राशिस्वभावज फलने छोडी ग्रह स्वभावज फलने आपे छे. एज रीते अनिष्ट फल आपनारो चंद्र पण शुभक्षेत्री होय अथवा अधिमित्रवडे के गुरु वडे दृष्ट होय तो शुभ फलदायक बनो जाय छ, पण लग्न पञ्चवर्ग शुद्ध अने अष्टम स्थान शुद्धिवाल जोइये. प्रतिष्ठामा लग्न व्यवस्था, आरंभ सिद्धौलग्नं श्रेष्ठं प्रतिष्ठायां, क्रमान्मध्यमथावरम् । व्यङ्ग स्थिरं च भूयोभि-गुणैराढयं चरं तथा ॥७७५।। भा०टी०-प्रतिष्ठामां द्विस्वभाव, स्थिर अने गुणाधिक चर ए लग्नो अनुक्रमे श्रेष्ठ, मध्यम अने जघन्य कोटिनां गणाय छे. Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे लग्नकुंडलीमां ग्रहव्यवस्था, नारदमतेलग्नस्थाः सूर्यचन्द्राऽऽर-राहुकेत्वकमूनवः । कर्तुमत्युप्रदाश्चान्ये, धनधान्यसुखप्रदाः ।७७६।। द्वितीये नेष्टदाः पापाः, शुभाश्चन्द्रश्च वित्तदाः । तृतीये निखिलाः खेटाः, पुत्रपौत्रसुखप्रदाः ॥७७७॥ चतुर्थ सुखदाः सौम्याः, क्रूराश्चन्द्रश्च दुःखदाः । ग्लानिदाः पञ्चमे क्रूराः, सौम्याः पुत्रसुखप्रदाः । ७७८।। पूर्णः क्षीणः शशी तत्र, पुत्रदः पुत्रनाशदः । षष्ठे शुभाः शत्रुदाः स्युः, पापाः शत्रुक्षयप्रदाः ।।७७९।। पूर्णः क्षीणोऽपि वा चन्द्रः, षष्ठेऽखिलरिपुक्षयम् । करोति कर्तुरचिरा-दायुष्पुत्रधनप्रदः । ७८०॥ व्याधिदाः सप्तमे पापाः, सौम्याः सौम्यफलप्रदाः। अष्टमस्थानगाः सर्वे, कर्तुर्मृत्युप्रदा ग्रहाः ।।७८१।। धर्मे पापा घ्नन्ति सौम्याः, शुभदाः शुभदः शशी। भङ्गदाः कर्मगाःपापाः, सौम्याश्चन्द्रश्च कीर्तिदाः॥७८२॥ लाभस्थानगताः सर्वे, भूरिलाभप्रदा ग्रहाः। व्ययस्थानगताः शश्वद्-द्रव्यव्ययकराग्रहाः ॥७८३॥ गुणाधिकतरे लग्ने, दोषात्यल्पतरे यदि । सुराणां स्थापनं तत्र, कर्तुरिष्टार्थसिद्धिदम् ॥७८४॥ भा०टी०-लग्नमां पडेला सूर्य, चन्द्र, मंगल, राहु, केतु, शनि ए ग्रहो प्रतिष्ठाकारकने मृत्युदायक होय छे ज्यारे शेष-बुध, गुरु, शुक्र ए धनधान्य अने सुखना आपनारा छे. बीजा भवनमा रहेल पापग्रहो अशुभ फल आपे छे, ज्यारे शुभग्रहो तथा चन्द्र धननी वृद्धि करनारा छे. Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूतों । _५९७ तृतीय भवने रहेला सर्वग्रहो पुत्रपौत्र अने सुखने आपनारा होय छे. चोथा स्थानमा रहेला सौम्यग्रहो सुखदायक अने क्रूर ग्रहो तथा चन्द्र दुःखदेनारा थाय छे. पांचमे रहेला क्रूरग्रहो ग्लाभिदायक थाय छ ज्यारे सौम्यग्रहो पांचमे पुत्र सुख आपे छे, पांचमे रहेल पूर्ण चंद्र पुत्रदायक अने क्षीणचंद्र पुत्र नाशक थाय छे. __ छठा भवनमा रहेला शुभ ग्रहो शत्रुओनी वृद्धि करे छे अने पापग्रहो छटे रहीने शत्रुओनो नाश करनारा थाय छे, चन्द्र पूर्ण होय चाहे क्षी छटे रहेलो सर्व शत्रुभोनो नाश करे छे अने प्रतिष्ठाकारकने थोडाज समयमां आयुष्य पुत्र धनदायक बने छे. सातमा भवने रहेला पापग्रहो रोग करे छे अने सौम्यग्रहो सातमे शुभफलदायी होय छे. आठमे रहेला सर्वग्रहो कर्ताने मरण आपनारा थाय छे. नवमे रहेला पापग्रहो धर्मनी हानि करे छ अने सौम्यग्रहो तथा चन्द्र नवमे शुभफलदायक होय छे. दशमा स्थाने पापग्रहो भंग देनारा होय छे अने चन्द्र तथा सौम्यग्रहो कीर्तिदायक होय छे. लाभ स्थाने रहेला सर्वे ग्रहो घणो लाभ आपनारा थाय छे ज्यारे बारमा स्थाने पडेला ग्रहो हमेशां द्रव्यव्यय करावे छे. अधिकतर गुण अने अल्पतर दोषवाला लग्नमां देवप्रतिष्टा कर्ताने इष्टपदार्थनी सिद्धिदेनारी निवडे छे. आरंभसिद्धिना मते-प्रतिष्ठा लग्ननी ग्रहव्यवस्था"प्रतिष्ठायां श्रेष्ठो रविरुपचये शीतकिरणः, स्वधर्माढये तत्र क्षितिज-रविजौ त्र्यायरिपुगौ। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्? बुध-स्वाचायौं, व्ययनिधनवजौं भृगुस्सुतः, सुतं यावल्लग्नान्नवमदशमायेष्वपि तथा ।।७८५।।" भा०टी०-प्रतिष्ठामां सूर्य उपचयमां (३-६-१०-११ स्थानोमां) श्रेष्ठ छे, चन्द्र २-३-६-९-१०-११ आ स्थानोमां आवेल होय तो श्रेष्ठ छे, मंगल अने शनि ३-६-११ आ स्थानोमां श्रेष्ठ गगाय छे, बुध तथा गुरु आठमा बारमा सिवाय बीजा सर्व स्थानोमा रहेला शुभ फल आपनारा होय छे, अने शुक्र १-२३-४-५-९-१०-११ आ स्थानामां होय तो शुभ छे. नारचन्द्रना मते उत्तम मध्यम-विमध्यमग्रह स्थिति"सौरार्क क्षितिसूनवस्त्रिरिपुगा द्वित्रिस्थितश्चन्द्रमाएकवित्रिखपञ्चबन्धुषु बुधः शस्तः प्रतिष्ठाविधी। जोवः केन्द्रनवस्वधीषु भृगुजो व्योमत्रिकोणे तथा, पातालोदययोः सराहुशिखिनः सर्वेऽप्युपान्त्ये शुभाः॥७८६।।" भा०टी०-शनि, मूर्य, मंगल ३-६ स्थाने, चंद्र २-३ स्थाने, बुध १-२-३-४-५-२० आ स्थानोमां, गुरु १-४-७-१०-९२-५ आ स्थानोमां, शुक्र १०-५-१-४-१ आ स्थानोमां अने राहु केतु सहित सर्वे ग्रहो ११ मा स्थाने होय तो उत्तम गणाय छे. खेऽर्कः केन्द्रनवारिगः शशधरः सौम्यो नवास्तारिगः. षष्ठो देवगुरुः सितस्त्रिधनगो मध्याः प्रतिष्ठाक्षणे । अर्केन्दुक्षितिजाः सुते सहजगो जीवोव्ययास्तारिगः, शुक्रो व्योमसुते विमध्यमफलः शौरिश्च सद्भिर्मतः ।।७८७|| सर्वेऽपरत्र वा, जन्मस्मरगः शिखी शशियुतश्च । शुभदस्त्रिशत्रुसंस्थोऽपरत्र मध्यो विधुन्तुदस्तद्वत् । ७८८।। ___ भा०टी०-१० मा भवने सूर्य, १-४-७-१०-९-६ आ स्थानोमां चंद्रमा, ९-७-६ आ भवनोमां बुध, ६ हे गुरु, ३-२ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-वास्तु मुहूर्ता] स्थाने शुक्र, प्रतिष्ठामां मध्यम गणाय छे. ज्यारे ५ मे सूर्य, चन्द्र, मंगल, ३ जे गुरु, १२ -७-६ मां शुक्र अने १०-५ मे शनि, आ ग्रहस्थितिने विद्वानोए प्रतिष्ठामां विमध्यम रूपे स्वीकारी छे. शेष सर्वस्थानोमां ग्रहोनी स्थिति वयं गणाय छ, 'प्रथम तथा सप्तम भवनमां केतु चंद्रयुक्त होय तो पण वर्जिन ले, ३-६ टे केतु शुभ छे अने अन्य स्थानोमां मध्यम छे, एज प्रमाणे राहुने अंगे पण जाणवू. पूर्णभद्रज्योतिषानुसारिप्रतिष्ठालग्न ग्रहस्थितिफल प्रासादभंग १ हानी २ धनं ३, स्वजन ४ पुत्रपीड ५ रिपुघाताः ६। स्त्रीमृति ७ मृति ८ धर्मगमाः ९ सुख १० द्धि ११ शोका १२ स्तनोः प्रभृति मृर्यात्।।७८९।। भा०टी०-पहेलाथी बारमा भवन मुधीमा रहेला सूर्य, फल अनुक्रमे प्रासादभंग १ हानि (धनहानि) २ धनप्राप्ति ३ कुटुम्बपीडा ४ पुत्रपीडा ५, शत्रुनाश ६, स्त्रीमग्ण ७ मरण (कतमरण ) ८, धर्महानि ९, सुखप्राप्ति १०, ऋद्धिलाभ ११ अने शोक १२ आ प्रमाणे थाय छे. कर्तृविनाश १ धनागम २, सौभाग्य ३ द्वन्द्व ४ दैन्य ५ रिपुविजयाः ६ । शशिनोऽसुख ७ मृति ८ विना ९, नृपपूजा १० विजय ११ वसुहानी १२ ॥७९०॥ भा०टी०-कर्तृमृत्यु १, धनलाभ २, सौभाग्यप्राप्ति ३, क्लेश ४, दीनता ५, शत्रुविजय ६, दुःख ७, मृत्यु ८, विघ्न ९, राजपूजा १०, देशलाभ ११, अने धनहानि १२ ए लग्नादि १२ स्थानोमा रहेला चंद्रनुं फल छे, Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे दहनं १ सुरगृहभंगो २, मृलाभो ३ रोग 'पुत्रशस्त्रमृती ५ । रिपु ६ नारी ७ स्वजन ८ गुणभ्रंशा ९, रोगा १० ऽर्थ ११ हानयो भौमात् ॥७९१॥ भाण्टी--अग्निदाह १, देवगृहभंग २ भूमिलाभ ३ रोग ४ शस्त्रद्वारा पुत्रमरण ५ शत्रुनाश ६ स्त्रीनाश ७ स्वजनमरण ८ गुणनाश ९ रोग १० धनप्राप्ति ११ हानि १२. लग्नादि १२ स्थानगत मंगलनुं आ प्रमाणे फल होय छे. चिरमहिम १ धन २ रिपुक्षय ३सुख ४ सुत ५ परिपन्थिमरण ६ वरकन्याः ७ । शशिजेन सूरिमृत्यु ८वसु ९ कर्मा १० भरण ११ रैनाशाः ॥७९२॥ भा०टी०-चिरकाल सुधी महिमा १, धन २, शत्रक्षय ३, सुख ४, पुत्रलाभ ५, शत्रुमरण ६, श्रेष्ठ कन्याप्राप्ति ७, प्रतिष्ठाकर्तृ आचार्यमरण ८, धन २, कार्यसिद्धि १०, आभूषण प्राप्ति ११, धननाश १२, आ प्रमाणे लग्नादि द्वादश स्थानास्थित बुध फल आपे छे. कीर्ति १ वृद्धिः २ सौख्यं ३, रिपुनाशः ४ सुतसुखं ५ स्वजनशोकः ६ । स्त्रीसुख ७ गुरुमृति ८ धन ९ लाभ १० ऋद्धयो ११ हानि १२ रमरगुरौ ॥७९३॥ भा०टी०-कीर्ति १, वृद्धि २, सुख ३, शत्रुनाश ४,पुत्रसुख ५, कुटुम्बशोक ६, स्त्री सुख ७, गुरुमृत्यु ८, धन ९, लाभ १०, ऋद्धि ११, हानि १२, लग्नादि द्वादशभवनमां गुरु रहेतां उक्त प्रकारर्नु फल आपे Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे- प्रतिष्ठालग्न ] सिद्धि १ धन २ मान ३ तेजः, स्त्रीसुख दुष्कीर्तयः सुताप्सियुताः । चैत्यादिसर्वहानि ७ श्रसुख ८ मितरेषु ९।१०।११।१२ पूज्यता शुक्रात् ॥७९४॥ भा०टी० – कार्य सिद्धि १, धन २, मानप्राप्ति ३, तेजोवृद्धि ४, स्त्रीमुख ५, अपकीर्तियुत पुत्रप्राप्ति ६, चैत्यादिकार्योंने हानि ७, दुःख ८, अने ए पछीनां ९।१०।११।१२ आ स्थानोमा रहेल शुक्र पूज्यत्वनी वृद्धि करे छे. पूजा १ कर्तृविघात २ भूरिविभव ३ प्रासादबन्धुक्षयाः ४, पुत्राक्षेम ५ विपक्षरोगविलय ६ ज्ञातिप्रियाद्यापदः । गोत्रप्राणिविपत्ति ८ पातकपरिष्वं गौ च ९ कार्यक्षतिः १०, कान्ताकाञ्चनरत्नजीवितधनं ११ मन्देन मान्योदयः १२ । ७९५ ॥ ६०१ भा०टी० - १ लग्नमां शनि पूजानी हानि करे, धनमां कारको विघात २, श्रीजा भवनमां अतिधनप्राप्ति ३, चोथे प्रासाद तथा बन्धुक्षय ४, पांचमे पुत्रने अकुशल ५, छहे शत्रु तथा रोगनो नाग ६, सातमे ज्ञातीय स्त्रीजनोने चिन्ता अने आपत्ति ७, आठमे गोत्रियो उपर विपत्ति ८, नवमे पापवृत्ति ९, दशमे कार्यहानि १०, अभ्यारमे स्त्री सुवर्ण रत्न जीवित अने धन तथा बारमे शनि मांदगी आपनारो थाय छे. ७६ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ [ कल्याण-कलिका - प्रथमखण्डे उदयप्रभ - पूर्णभद्र - नारद - वसिष्ठसंमत प्रतिष्ठालग्नकुंडली ग्रहस्थिति सू-३-६-१०-११ । नारद - वसिष्ठे १० मे सूर्य लीधो नथी । चं-२-३-६-९-१०-११ । नारदे पूर्णचंद्र ५ मो लीधो छे. पूर्णभद्रे ९मो वज्र्यो छे मं-३-६-११ । बु-१-२-३-४-५-६-७९-१०-११ । उदयप्रभदेवे ६ ट्ठो लीधो छे. गु-१-२-३-४-५-६-७-९-१०-११ । उद. ६ट्ठो लीधो छे, पूर्ण० आदिए नहिं. शु-१-२-३-४-५-९-१०-११ । नारद वसिष्ठे ७, पूर्णभद्रे १२मो लीधो छे. श-३-६-११ । रा-के-३-६-११ । नारचंद्रोक्त उत्तम - मध्यम - विमध्यम प्रतिष्ठालग्नकुंडलीग्रह स्थिति सू-उत्तम ३-६-११ । मध्यम- १० । विमध्यम ५ । चंद्र - उत्तम २-३-११ । मध्यः १-४-६-७-९-१० । विमध्य० ५ । मै-उत्तम ३-६-११ । मध्यम । विमध्यम - ५ । बु-उत्तम १-२-३-४-५-१०-११ । म०-६-७९ । विमध्यम० । गुरु-उत्तम १-२-४-५-७-९-१०-११ । मध्यम ६ । विमध्यम ३ | शु-उत्तम १-४-५-९-१०-११ । मध्यम २-३ । विमध्यम ६-७-१२। श- उत्तम -३-६-११ । मध्यम० । विमध्यम ५-१० । रा-के-उत्तम-३-६-११। मध्यम २-४-५-८- ९-१०-१२। विमध्यम० । प्रतिष्ठा लग्नमां उत्तम - मध्यम नवमांशो - अंशास्तु मिथुनकन्या-धन्वाद्यर्थं च शोभनाः । प्रतिष्ठायां वृषः सिंहो, वणिग् मीनश्च मध्यमाः ॥७९६ ।। भा०टी० - प्रतिष्ठामां मिथुन कन्या धनुनो पूर्वार्ध आ अढी द्विपद नवमांशो उत्तम अने वृषभ, सिंह, तुला, मीन, अना नवमांशो मध्यम गणाय छे. Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-प्रतिष्ठालन] लग्नकुंडलीनी उत्तम मध्यम ग्रहस्थिति ज नवमांशनी पण जाणवी जोइये, ए उपरान्त नवमांशमां वर्गशुद्धि पण अवश्य जोषी अने जे नवमांशमां षड्वर्ग, पंचवर्ग अथवा चतुर्वर्ग शुद्धि अने पृथ्वी अथवा जल तत्व चालतुं होय एवो नवमांश अगर तेनो भाग जोइने तेवा समयमां अधिवासना अने प्रतिष्ठा करवी. ए संबन्धमां का छेद्वयोर्नवांशयोः शुद्धिः, प्रतिष्ठायां विलोकयेत् । आद्येऽधिवासना बिम्बे, द्वितीये च शलाकिका ॥७९७ भा०टी०-प्रतिष्ठामां बे नवमांशोनी शुद्धि जोवाय छे, प्रथमशुद्धनवमांशमां बिम्बनी अधिवासना अने बीजामा प्रतिमाने अंजनशलाका कराय छे. कया लग्नमां कयो नवमांश अथवा नवमांशो, षड्वर्ग, पञ्चवर्ग वा चतुर्वर्ग शुद्ध होय छे ते नीचेनी गाथाओथी जाणी शकाशेसत्तमनवमा मेसे १, पंचमतझ्याविसे २ मिहुणि छठो ३ । पढमतइआय कक्के ४, सिंहे छट्ठो ५ कन्नित इओ६पी॥७९८। अट्ठम नवमा य तुले ७, विच्छियलग्गे चउत्थयनवंसो ८ । धणुलग्गि छ? सत्तम-नवमा मयरंमि पंचमओ ॥७९०॥ छट्टमा य कुंभे, ११, पढ़मो तइयो अमीणलग्गम्मि । चउपणवग्ग छवग्गे, एएसु नवंस एसु सुहो । ८००॥ ___ भा०टी०-मेष लग्नमां सातमो नवमो, वृषमां त्रीजो पांचमो, मिथुनमा छट्ठो, कर्कमा पहेलो त्रीजो, सिंहमां छट्ठो, कन्यामां श्रीजो, तुलामां आठमो नवमो, वृश्चिकमां चोथो, धनुमां छट्टो सातमो नवमो, मकरमां पांचमो, कुंभमा छटो आठमो अने मीनमा पहेलो त्रीजो नवमांश शुभ होय छे, उक्त नवमांशोमा कोइ चतुर्वर्ग, कोह पंचवर्ग अने कोइ षड्वर्ग शुद्ध होय छे. अहीयां अमो पञ्चवर्ग तथा षड्वर्ग शुद्ध नवमांशोनुं तत्वोनी साथे समयपूर्वक स्पष्टीकरण आपशुं के जे कोष्टक उपरथी ज्योतिषीओ विना कष्टे शुद्ध नवमांश जाणी शके Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्नेषु सौम्यनषांशे वर्गशुद्धिः कियत्पलेषु तत्वं अशुद्धांगं नवमांशपलादिमा नं मेषे ७ तुलांशे ५ पंचभिः आद्य १८ पृथ्वी २५ पलाः ९ धनुरंशे मेषे वृषे ३ मीनांश वृषे ५ वृषांशे मिथुने ६ मीनांशे मिथुने ६ मीनांशे कर्के १ कर्कांशे कर्के ३ कन्यांश सिंह ६ कम्यांशे कन्यायां ३ मीनांशे तुलायां ८ वृषांशे ܕܝ ܟ ६ षड्वर्ग ६,,, ६ " " ,, دو " ܕܕ अन्त्य १८ पृथ्वी आद्य ७ पलेषु पृथ्वी जलं जलं जलं पृथ्वी आघ १४ आद्य ८ संपूर्ण आद्य २८ संपूर्ण "" अन्त्य २८ "" "} पृथ्वी जलं अन्त्य २७, पृथ्वी आद्य १८ पृथ्वी "" "" लभ लग्नं ७ ० 0 द्वादशांश ० O लग्नं ० Q "" 99 २८-२६-४० " "" "" ३३-२३-२० ** " ३७-५३-२० " " ३८ ३६-४६-४० ३६-४६-४० ६०४ [ कल्याणकलिका - प्रथमखण्डे Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त्य २७ पृथ्वी ३६-४६-४० आद्य २८ जलं लग्न संपूर्णे जलं द्रेष्काणः ३७-५३-२० तुलायां । ९ मिथुनांशे वृश्चिके । ४ तुलांशे धनुषि । ६ कन्यांशे धनुषि । ७ तुलाशे धनुषि । ९ धनुरंशे मकरे | ५ वृषांशे ६ मीनांशे ज्योतिष लक्षणे-प्रतिष्ठालग्न अन्त्य ९ । पृथ्वी | द्रेष्काणः आद्य ९ द्रेष्काणः | पृथ्वी जलं आद्य १६ लग्नं ३३-५३-२० अन्त्य २० जलं लग्नं २८-२६-४० कुंभे ८ वृषांशे अन्त्य १४ । पृथ्ची लग्न आद्य ७ कुंमे ९ मिथुनांशे पृथ्वी लग्नं मीने १ कर्काशे आद्य १८ पृथ्वी मीने । ३ कन्यांशे ६ , संपूर्णे | पृथ्वी नोट:-कोष्ठकमां आपेल नवमांशोनुं मान पाटण (गुजरात)ना लग्नमानने अनुसारे छे तेथी गुजरात मार वाड आदिना स्थानोमां सेकंडो सिवाय अंतर पडतुं नथी पण अतिदूर वर्ती स्थानोमां कंइक अंतर पडशे, माटे तेवा प्रदेशोमां त्यांना लममानधी नवमांशोनुं पलादिमान निश्चित कर Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ [कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे प्रतिष्ठादि लग्नगत दोषभंग-गुरु कहे छशुक्रस्थितांशाद् राशेर्वा, केन्द्रोपचयगे विधौ । देवप्रतिष्ठाकालेऽत्र, सर्वे दोषाः शमं ययुः ।।८०१॥ भाटी०-शुक्राध्यासित अंश (नवमांश) अथवा राशिथी चंद्रमा केंद्रमा अथवा उपचयमा होय तो देवप्रतिष्ठाना समयमा सर्व दोषो शांत थया एम ज समजबु. बदा शशाङ्काद् गुरुराहितार्चिः, केन्द्रत्रिकोणेषु समस्तवीर्यः। सदाययुर्नाशमुग्रवीर्या, दोषा यथा हालहलो हरेण ॥८०२॥ भान्टी-ज्यारे गुरु तेजस्वी अने संपूर्ण बलवान् थइने चंद्रथी केंद्र (१।४।७।१०) अथवा त्रिकोण (५।९) स्थानोमा रह्यो होय तो समजो के उत्कट : लवान् सर्व दोषोनो नाश थयो, जेम शिव द्वारा हालाहल विषनो नाश थयो हतो. जीवांशकर्माद्यदिकेन्द्रसंस्था, निशाकरो वाऽस्य सुतोऽथवाऽपि । तदाधिगच्छन्ति विनाशमुग्रा, दोषा यथाऽजा हिमसंनिपाते ॥८०३॥ भाण्टी-जो गुरुना नवमांशथी अथवा गुरुसमधिष्ठित राशिथी चंद्रमा अथवा बुध स्थित होय तो उत्कट दोषो विनाशने पामे छे, जेम हिम पडवाथी कमलोनो विनाश थाय छे. यदातिबलवत्सौम्य-चन्द्रावन्योन्यवीक्षितौ । न चेल्लग्नांशके क्रूर-स्तदा पापोदयोऽपि सन् ॥८०४॥ भा०टी०-जो अतिबलवान् सौम्यग्रह अने चंद्रमा एक वीजाने जोता होय अने लग्नमां अथवा नवमांशमां क्रूर न होय तो पापलग्न पण सौम्य बनी जाय छे. Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-प्रतिष्ठालग्न ] ६०७ शशांकयुक्तांशकराशिकेन्द्रे, शुभग्रहाः स्युबलरश्मियुक्ताः। तदा लयं यात्यतिदोषसंघः, प्रतिग्रहेणैव यथा द्विजत्वम् ।।८०५। भा०टी०-चंद्रयुक्तनवमांश अथवा राशिथी केंद्र (१।४।७।१०) स्थानमां जो बल अने तेजयुक्त सौम्यग्रहो पडया होय तो दोष समुदाय नष्ट थाय छे, जेम अधयं दानवडे ब्राह्मणत्व नष्ट थाय छे. यदा शशांकोपचयत्रिकोणगः, शुभग्रहः सौम्यनिरीक्षितो बली। तदा गुणैर्दोषगणो विनश्यति, यथा महादानगुणेन बाहुजः ॥८०६॥ भा०टी०-ज्यारे चंद्रथी ३-५-६-९-१०-११ आ स्थानोमां कोइ पण सौम्यग्रह दृष्ट शुभ ग्रह रहेल होय तो तेना गुणो वडे दोष सनुदायनो नाश थाय, जेम महादानना गुणवडे क्षत्रियना दोषोनो नाश थतां ते शुद्ध थाय छे. जीव शुक्रो यदा केन्द्र, परस्परमुपागतो। नवांशमण्डले चक्रे, सर्वदोषविनाशदौ ॥८०७॥ भा०टी०-ज्यारे नवांशक कुंडलीमां गुरु शुक्र एक बीजाथी केंद्रमा आव्या होय तो ते सर्वदोषोनो नाश करे छे. बुधस्थितांशराशेस्तु, भवराश्यंशगे विधौ । तदा दोषा ययुर्नाशं, पापा वा प्रभुवन्दनात् ।।८०८॥ भा०टी०- बुधाधिष्ठित अंशनी राशिथी अग्यारमी राशिना अंशमां चंद्र रह्यो होय तो दोषो नाश पामे छे जेम के पापीओ प्रभुवंदन द्वारा पापोनो नाश करेछे. Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ - मुद्रा लक्षण -- प्रतिष्ठादिविधानेषु, यासां पूर्णोपयोगिता । ता मुद्राः कथिता त्र, विधिकारहितेच्छया ॥१८॥ भा०टी० -- प्रतिष्ठा आदि विधिना कामोमां जेओनो विशेष उपयोग कराय छे, ते मुद्राओ विधिकारोना हितार्थे आ परिच्छेदमां कही छे. मुद्राओनुं महत्त्व - पूर्वकालमा मुद्राओनुं विशेष महत्र हतुं, कोइ पण देवनुं आराधन करतां तेनुं आह्वान करी तेनी प्रियमुद्रा देखाडवा पूर्वक जाप-पूजन करातुं हतुं, विद्यादेवीओ, दिशापालो, क्षेत्रपालो आदिनी मुद्राओ हती अने आजे पण प्राचीन प्रतिष्ठाविधिओमां संरक्षायेल छे, छतां आजे बधी ते मुद्राओ प्रचलित नथी, ते पैकीनी जे जे आजे प्रतिष्ठादिनां विधि-विधानोमा अथवा जापानुष्ठानोमां प्रयुक्त भाय छे ते घणी खरी अहियां आपी छे. आ मुद्राओना निरूपणमां अमोए मुख्य आधारग्रन्थ निर्वाण कलिकाने मान्यो छे, छतां जे मुद्रानुं निरूपण निर्वाण कलिकामां न मल्युं त्यां बीजा प्रतिष्ठाकल्पोना आधारे ते मुद्रानुं वर्णन आप्युं छे. मुद्गर मुद्रा आजे विधिकारो जे रीते देखाडे छे ते पौराणिक पद्धतिनी छे, जैन पद्धतिनुं वर्णन भिन्न छे, अमोए जैन पद्धति प्रमाणे मुद्गरमुद्रानुं स्वरूप लख्युं छे. मत्स्यमुद्रा खरी रीते पौराणिक छे, प्राचीन कोइ पण जैन ग्रन्थम एनो उल्लेख नथी छतां आधुनिक विधिओमां एनो स्वीकार थयो छे अने विधिकारो जलानयनमां आ मुद्रानो प्रयोग करे छे तेथी अमोए पण एनुं निरूपण पौराणिक श्लोकना आधारे आप्युं छे. Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-मुद्रालक्षण] ___ आधुनिक विधिओमां एक बीजी पौराणिक मुद्रानो पण उल्लेख छे जेर्नु नाम कच्छप मुद्रा छे. विधिकारो आनो पण जलयात्रामा उपयोग करे छे छतां अमोए आ मुद्रा छोडी दीधी छे, केम के एना मूल आधारग्रन्थ प्रमाणे आ मुद्रा जलानयनमां नहि पण देवताना ध्यान-कर्ममां प्रयुक्त करवानुं त्यां सूचव्युं छे. जेम के "कूर्ममुद्रेयमाख्याता, देवताध्यानकर्मणि ।" आ उपरथी जणाशे के कच्छपमुद्रानो जलयात्रामा उपयोग करवानी कशी आवश्यकता नथी. कई मुद्रानो क्या उपयोग थाय छे ए विषयमा अमोए ते ते मुद्राना निरूपणने अंते सूचवेल छे छतां ए सूचनने ज पकडीने बेसबुं न जोइये, केइ मुद्राओ एवी पण छे के तेओ सूचवेल प्रसंग सिवायना प्रसंगोमां पण प्रयुक्त थाय छे, माटे ए विषय गुरुगमथी हृदयंगत करी विधिओमां ज्यां ज्यां जेनो प्रयोग करवानी सूचना होय त्यां त्यां ते मुद्रानो उपयोग करवो. मुद्रावस्तु तांत्रिकोनी छेमुद्राओ आपणा सिद्धान्तनी वस्तु नथी पण एनो प्रादुर्भाव तांत्रिकोए कर्यों छे. विक्रमना पांचमा सैकाथी तांत्रिकोना प्राबल्य कालमा अने ते पछीना कालमा बनेला उपासना अने अनुष्ठान विषयक दरेक ग्रन्थमा आ मुद्राओर्नु थोडं घणुं वर्णन मले छे, निर्वाणकलिकामां आपणामां प्रचलित अने अप्रचलित अनेक मुद्राओनुं वर्णन छे, आ उपरथी समजाय छे के मुद्राओ तांत्रिक छतांये आपणा पूर्वाचार्योए ए वस्तु स्वीकारी छ एटले आपणे पण ए वस्तुने यथार्थ समजीने एनो विधि-आम्नाय पूर्वक ज प्रयोग करवो जोइये के जेथी अनुष्ठाननी सफलता थाय, मुद्राविषयक विधि विवेकनी बावतमा विष्णुसंहिताकारे नीचेना शब्दोमां निरूपण कयु छे. ७७ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे मानसो रूपसंकल्पो, मुद्रा मोक्षार्थिनां स्मृता । इतरेषां तु हस्ताभ्यां, प्रयोगः शस्यते बुधैः ।। नाऽन्यसंदर्शने मुद्रा, नानिमित्तं च बन्धयेत् । गुह्यमेतद्धि तन्त्रेषु, तस्माद् रहसि योजयेत् ॥ भा०टी०-मोक्षार्थि पुरुषोना जापानुष्टानमा पोताना इष्ट दैवतना मानसिकरूप-संकल्प तेज मुद्रा छे, ज्यारे बीजाओने माटे हस्त प्रयोगात्मक मुद्रा वखाणाय छे, बीजाओने जोता अथवा विना कारणे मुद्रा बन्ध न करवो, केम के तंत्रशास्त्रमा ए गुह्य तत्व गणाय छे, तेथी एकान्तमा मुद्राप्रयोग करवो. मुदं कुर्वन्ति देवानां, राक्षसान् द्रावयन्ति च । इत्येवं सर्वमुद्राणां, मुद्रात्वं तान्त्रिका विदुः ॥ अलामे सर्वमुद्राणा मञ्जलिहदि मूनि वा। सामान्यमुद्रा विज्ञेया, सर्वेषां च दिवौकसाम् ।। वृथान्यदर्शने वापि, प्रत्युक्ता विफलास्तथा । कुप्यन्ति देवताश्चास्य, सिद्धिमाशु हरन्ति च ॥ गुप्तं मुद्रागणं यस्तु, यथाकालं प्रदर्शयेत् । कामाः सर्वेऽस्य सिध्यन्ति, प्रीयन्ते चास्य देवताः॥ भा०टी०- -देवोने प्रमोद आपे अने राक्षसोने द्रवित (ढीला) करे छे एथी आ सर्व मुद्राओर्नु मुद्रापणुं छे आम तान्त्रिको कहे छे, सर्व मुद्राओना अभावे हृदयमां अथवा मस्तके अंजलि करवी ए पण सर्वदेवोनी सामान्य मुद्रा जाणवी जोइये, जे निरर्थक अथवा बीजानी दृष्टिमां मुद्राओनो प्रयोग करे छे ते फोकट जाय छे एटलंज नहि पण तेना पर देवताओ कोपे छे अने अनुष्ठेय कार्यनी सिद्धिने हरी ले छे. जे यथासमय सर्व मुद्राओ देखाडे छे तेनी सर्व कामनाओ सिद्ध थाय छे अने ए उपर देवताओ खुशी थाय छे. Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६११ ज्योतिष लक्षणे-मुद्रालक्षण ] तान्त्रिकोमा मुद्राओर्नु केटलं महत्त्व छे ते वांचको उपरना वर्णनथी समजी शकशे. १-प्रतिष्ठोपयोगी मुद्राओ ___ (१) जिनमुद्रा" चतुरङ्गुलमग्रतः पादयोरन्तरं, किश्चिन्यून च पृष्ठतः कृत्वा समपादकायोत्सर्गेण जिनमुद्रा।" भा०टी०बे पगो वच्चे आगल चार आंगल अने पाछल काइक ओछु अंतर राखीने कायोत्सर्ग करवो ते 'जिनमुद्रा' कहेवाय छे. कलशस्थापन अने स्थिरीकरणमा आ मुद्रा कराय छे. (२) कुम्भमुद्रा "किञ्चिदाकुञ्चिताङ्गुलीकस्य वामहस्तस्योपरिशिथि लमुष्टिदक्षिणकरस्थापनेन कुम्भमुद्रा ।” भाण्टीकाइक वालेल आंगलीवाला डाबा हाथ उपर ढीली मुठिवालो जमणो हाथ स्थापवाथी कुंभमुद्रा थाय छे. जल कलशो नडे स्नपन करावतां आ मुद्राशुद्धि करवी. (३) नमस्कारमुद्रा "सलग्नौ दक्षिणाङ्गुष्ठाक्रान्तवामाङ्गुष्ठौ पाणी नमस्कृति मुद्रा' भा०टी०-जमणा हाथना अंगुठावडे डावा हाथना अंगुठाने दवावीने बे हाथो जोडवा ते नमस्कार मुद्रा कहेवाय. (४) प्रणिपातमुद्रा "जानु-हस्तोत्तमाङ्गादिसंप्रणिपातेन प्रणिपातमुद्रा" भा०टी०-चे ढींचण बे हाथ अने मस्तक ए पांच अंगोने एक काले नमावीने भूमिए अडकाडवां ते प्रणिपातमुद्रा । Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ [ कल्याणकलिका - प्रथमखण्डे (५) भृंगारमुद्रा पराङ्मुखहस्ताभ्यामङ्गुलीविंद मुष्टिं बध्वा तर्जन्यो समीकृत्य प्रसारयेदिति भृङ्गारमुद्रा । " भा०टी० - हाथो एक बीजाथी उलटा राखी आंगलीओ परस्पर गुंथीने तर्जनीओ सरखी करीने फेलाववी ते भंगारमुद्रा । (६) अभयमुद्रा " दक्षिणहस्ते नोर्ध्वाङ्गुलिना पताकाकारेणाभयमुद्रा ।" भा०टी० - ध्वजाना आकारे उंची करेल आंगलीओ वाला जमणा हाथने सामे उभो राखवो ते अभयमुद्रा छे. (७) त्रासनीमुद्रा " बद्धमुष्ठे दक्षिणहस्तस्य प्रसारिततर्जन्या वामहस्ततलताडनेन त्रासनी मुद्रा । " मा०डी० - मुठिवालेल जमणा हाथनी लंबावेल तर्जनी वडे डाबा हाथनी हथेलीमां ताडन करवुं ते त्रासनी मुद्रा, आ मुद्रा विभत्रासनार्थे कराय छे. (८) वज्रमुद्रा " वामहस्तस्योपरि दक्षिणकरं कृत्वा कनिष्ठिकाऽङ्गुष्ठाभ्यां मणिबन्धं संवेष्टय शेषाङ्गुलीनां विस्फारित प्रसा रणेन वज्रमुद्रा ।" भा०टी० - डाबा हाथ उपर जमणो हाथ की कनिष्ठा आंगलीने अंगुठाओ बडे हाथना कांडाओने वींटीने बाकीनी आंगलीओ फेलावीने छोडी देवी ते वज्रमुद्रा । आ मुद्रा बडे जिनबिंब आदिनुं दुष्टरक्षा निमित्ते सकलीकरण कराय छे. Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे - मुद्रालक्षण ] (९) पद्ममुद्रा - " पद्माकरौ करौ कृत्वा मध्येङ्गुष्ठौ कर्णिकाकारौ विन्यसेदिति पद्ममुद्रा । " भा०टी० - अणखीलेला कमलपुष्पना आकारे बने हाथ भेगा करी बच्चे कर्णिकाना आकारे बने अंगुठा स्थापवा तेनुं नाम पद्ममुद्रा छे, प्रतिष्ठामां आ मुद्रा कराय छे. (१०) चक्रमुद्रा ૩ " वामहस्ततले दक्षिणहस्तमूलं संनिवेश्य करशाखा विरलीकृत्य प्रसारयेदिति चक्रमुद्रा । " भा०टी० - डावा हाथनी हथेलीमां जमणा हाथनो कांडो स्थापीने आंगलीओ छूटी पाडीने फेलाववी ते ' चक्रमुद्रा' आ मुद्रावडे अधिवासनाना प्रसंगे बिंबना पंचांगोनो स्पर्श कराय छे. (११) परमेष्ठिमुद्रा "उत्तानहस्तद्वयेन वेणीबन्धं विधायाङ्गुष्ठाभ्यां कनि ष्ठिके तर्जनीभ्यां च मध्यमे संगृह्यानामिके समीकुर्यादिति परमेष्ठिमुद्रा ।" भा०टी० - चत्ता राखेल बे हाथोनी आंगलीओनो वेणीबंध करीने (एक बीजामां भरावीने) वे आंगुठाओ वडे बे टचलीओ अने तर्जनीओ वडे बे मध्यमाओ पकडी अनामिकाओने जोडे उभी करवी ते परमेष्टि मुद्रा । जिननुं मंत्र द्वारा आह्वान करतां आ मुद्रा कराय छे. (१२) अंगमुद्रा पोताना डावा हाथे जमणो हाथ पकडवो ते ' अंगमुद्रा ' आ मुद्रा वडे प्रतिमाने चंदनादिकनुं विलेपन करवुं, एवं विधान छे. Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ [कल्याणकलिका-प्रथमखणे (१३) अञ्जलिमुद्रा " उत्तानो किञ्चिदाकुञ्चितकरशाखौ पाणी विधारयेदिति अञ्जलिमुद्रा।" भा०टी०-चत्ताबे हाथोनी आंगलीओ कांइक वालीने बे हाथो जोडवा तेनुं नाम 'अंजलिमुद्रा' आ मुद्रावडे प्रतिष्ठाप्य विवादि उपर पुष्पारोपणादि कराय छे. ___ (१४) सौभाग्यमुद्रा " परस्पराभिमुखौ ग्रथिताङ्गुलीको करौ कृत्वा तर्जनीभ्यामनामिके गृहीत्वा मध्यमे प्रसार्य तन्मध्येऽङ्गुष्ठवयं निक्षिपेदिति सौभाग्यमुद्रा।" भाण्टी०-बने हाथो एक वीजा संमुख उभा राखी आंगलीओ परस्पर गुथवी, पछी वे तर्जनीओ बडे वे अनामिकाओ पकडी मध्यमाओ उभी करी तेओना मूलमा बे अंगुठा नाखवा एटले 'सौभाग्यमुद्रा' थशे. आ मुद्रावडे प्रतिमामां सौभाग्य मंत्रनो न्यास कराय छे. (१५) गरुडमुद्रा"आत्मनोऽभिमुखदक्षिणहस्तकनिष्ठिकया वामकनिष्ठिकां संगृह्याधः परावर्तित हस्ताभ्यां गरुडमुद्रा।" । __ भाल्टी-पोतानी सामे जमणो हाथ उभो करी तेनी टचली आंगली वडे डावा हाथनी टचली आंगली पकडीने बने हाथो निचली तरफ उलटावी देवा एटले गरुडमुद्रा निष्पन्न थशे. दुष्टरक्षा निमित्ते आ मुद्रावडे प्रतिमाने मंत्र कवच कराय छे. (१६) मुक्ताशुक्तिमुद्रा-- __ " किश्चिद्गभितौ हस्तौ समौ विधाय ललाट देशयोजनेन मुक्ताशुक्तिमुद्रा।" भा०टी०-वच्चे थोडाक पोकल Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लक्षणे-मुद्रालक्षण । ६१५ राखी ने हाथो सरखा जोडी ललाट प्रदेशे अडकाडवाथी मुक्ताशुक्तिमुद्रा निष्पन्न थाय छे, आ मुद्रावडे प्रति लाप्य देवनुं आह्वान कराय छे. (१७) मुद्गरमुद्रा “ मिथः पराङ्मुखौ करौ संयोज्याङ्गुलोविंदभ्यत्मसंमुकरद्वयपरावर्तनेन मुद्गरमुद्रा ।" भा०टी० – बने हाथो एक बीजाथी उलटा जोडीने आंगलीओ गुंथवी अने हाथो पोतानी संमुख सुलटाववा एटले मुद्गरमुद्रा निष्पन्न थशे, विघ्नविघातनार्थ प्रतिष्ठामां आ मुद्रा कराय छे. D (१८) तर्जनीमुद्रा - " वामकरं संहताङ्गुलिं हृदयाग्रे निवेश्योपरि दक्षिणकरेण मुष्टिबध्वा तर्जनी मूव कुर्यादिति तर्जनीमुद्रा । " भा०टी० - जेनी आंगलीओ एक बीजीने अडकेली छे एवो डावो हाथ हृदय आगल स्थापीने ते उपर मुठिवालीने जमणो हाथ राखवो अने तेनी तर्जनी आंगली उंची करवी एटले तर्जनी मुद्रा थशे, आ मुद्रा प्रतिष्ठामां विननिवारणार्थ कराय छे. (१९) प्रवचनमुद्रा " अंङ्गुलित्रिकं सरलीकृत्य तर्जन्यङ्गुष्टौ मीलयित्वा हृदयाग्रे धारयेदिति प्रवचनमुद्रा । " भा०टी० - जमणा हाथनी त्रण आंगलीओ सरखी लांबी करीने तर्जनीने अंगुठा साथै जोडी ते हाथ हृदयनी आगल राखवो ते 'प्रवचनमुद्रा' आ मुद्रा वडे प्रतिमानुं उद्बोधन कराय छे. (२०) धेनुमुद्रा " अन्योन्य ग्रथिताङ्गुलीषु कनिष्ठिकानामिकयोर्मध्यमातजन्योश्च संयोजनेन गोस्तनाकारा धेनुमुद्रा ।।" भा०टी० Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ [ कल्याणकलिका - प्रथमखण्डे परस्पर गुंथायेल आंगलीओमां कनिष्ठिकाओ अनामिकाओथी अने मध्यमाओ तर्जनीओथी जोडवाथी गायना स्तनाकारे धेनुमुद्रा थाय छे आ मुद्रावडे अमृत झरावाय छे. (२१) आसनमुद्रा " अञ्जलिकोपरि अञ्जलों कुर्यादिति आसनमुद्रा । " भा०टी० - डावा हाथनी अंजलि उपर जमणा हाथनी अंजलि करवी ते आसनमुद्रा । नन्द्यावर्तना पाटला आदिनुं वासवडे पूजन करवामां आ मुद्रानो उपयोग कराय छे. (२२) अंकुशमुद्रा - " बद्धमुष्टेर्वामहस्तस्य तर्जनों प्रसार्य किञ्चिदाकुञ्चयेदित्यकुशमुद्रा ।” भा०टी० - मुठिवालेल डावा हाथनी तर्जनी लंबावीने कांइक वांकी वालवी ते अंकुश मुद्रा । (२३) मत्स्यमुद्रा " दक्षपाणिपृष्ठ देशे वामपाणितलं न्यसेत् । अङ्गुष्टौ चालयेत् सम्यङ्, मुद्रेयं मत्स्यरूपिणी ॥ " भा०टी०. - जमणा हाथना पृष्ठभाग उपर डावा हाथनुं तल स्थापनेा फरकाववा एटले माछलाना आकारनी मत्स्यमुद्रा थशे. 0 (२४) कवचमुद्रा पूर्ववन्मुष्ठी बध्वा कनीयस्यङ्गुष्ठौ प्रसारयेदिति कवचमुद्रा ।" भा०टी० - बने हाथनी मुठि बांधीने टचली आंगलीओ ने आंगुठाओने फेलाववा ते कवच मुद्रा । मंत्र वडे कवच करवामां आ मुद्रानो विन्यास कराय छे. 66 १ अंकुशमुद्रानुं स्वरूप निर्वाणकलिकामां आपेल छे, पण त्यां आ मुद्रा जयादेवीना पूजनमां प्रयुक्त करवानो निर्देश छे, छतां आधुनिक जलयात्राविधिओमां आ मुद्रानो उल्लेख छे, आधुनिक विधिकारो कूपमाथी जल काढतां आ मुद्रानो प्रयोग पण करे छे भी प्रतिष्ठोपयोगी मुद्राओमां आनो समावेश कर्यो छे. Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रा-लक्षण] (२५) अस्त्रमुद्रा"दक्षिणकरेण मुष्टिं बध्वा तर्जनीमध्यमे प्रसारयेदिति अस्त्रमुद्रा।" भाटो०-जाणा हाथनी मुठि बांधी तर्जनी अने मध्यमा आंगलीओन लंबायचो ते अत्रमुद्रा । आ विन्यसन मुद्रा मंत्रानो विन्यास करतां कराय के. ___(२६) क्षुरप्रतुद्राओ"कनिष्ठिकामङ्गुष्ठेन संपीडय शेषाङ्गुलीः प्रसारये. दिति क्षुरप्रमुद्रा।" भाण्टो०-कनिष्ठिका आंगलीने अंगुठायी दवादीने बाकीनी आंगली भी लंवगयी क्षुरप्रमुद्रा थाय छे. २--जाप-अनुष्ठानोग्योगी मुद्राओ-- (१) आवाहनो मुद्रा-- “हस्ताभ्यामञ्जलिं कृत्वा अनामामूल पङ्गुिष्टसंयोजनेनावाहनी।" भा०टी०--बे हाथो वडे अंजलि करीने कनिष्ठाना मूलपर्वमा अंगुठो जोडबाथी आशहनी मुद्रा निप्पन थाय छे, आ मुद्रा वडे मंत्राधिष्ठायक देवनु अथवा तो जयादेवीचें माहान कराय के. (२) स्थापनी मुद्रा-- - " इयमेवाघोमुत्री स्थापनो।" भाटी.--आवाहनी मुद्राने ज उलटावी नीचा मुखे करी अंगुठा तर्जनीना मूलमा स्थापनाथी स्थापनी मुद्रा निष्पन थाय छे, आ मुद्रायडे आराध्य दैतनुं स्थापन कराय छे. Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे (३) संनिधानी मुद्रा-- "संलग्नमुष्टयुछूिताङ्गुष्ठौ करौ संनिधानी।" भाटो०-- मुठिवालेला बे हाथो जोडी अंगुठा उभा करबाथी संनिधानी मुद्रा निष्पन्न थाय छे. आ मुद्राद्वारा आराध्य दैवतनुं सनिधान कराय छे. (४) निष्ठुरा अथवा संनिरोधिनी " तावेव गर्भगाङ्गुष्ठौ निष्ठुरा।" भा टो०--संनिधानी मुद्रामा जे अंगुठा उभा राखवामा आवे छे ते मुठिओनी अंदर भरावी देवारी निष्ठुरा वा संनिरोधनी मुद्रा निष्पन्न थाय छे, आ मुद्रा वडे आराध्य दैवतर्नु अवरोधन कराय छे. (५) संमुखीकरणमुद्रा-- " इयमेवोत्तानरूपा संमुखीकरणाभिधाना ।" भा०टी०--निष्ठुरा मुद्रानी बने मुष्टिी चत्ती करवी तेनुं नाम संएखीकरण मुद्रा छे. (६) अवगुंठनी मुद्रा-- सव्यहस्तकृता मुष्टि-र्दीर्घासंमुखतर्जनी । अवगुण्ठनमुद्रेयमभितो भ्रामिता मता ॥११॥ भाण्टी--जमणा हायनी मुष्टि बांधी तर्जनी संमुख लांबी राखी मुष्टि भमायचो ते अगुंठिनी मुद्रा कहेवाय छे. (७) संहारमुद्रा--. " ग्राह्यस्योपरि हस्तं प्रसार्य कनिष्ठिकादितर्जन्यन्ता. Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रा-लक्षण] नामङ्गुलोनां क्रमसंकोचनेनाङ्गुष्ठमूलानयनात् संहारमुद्रा। विसर्जनमुद्रेयम् ।" भा०टी०--ग्राह्य वस्तु उपर हाथ फैलावीने कनिष्ठिकाथी मांडीने तजनी मुधीनी आंगलीओने अनुक्रमे वाली अंगुठाना मूल तरफ लाक्षाथी संहारमुद्रा निष्पन्न थाय छे, आ विसर्जनमुद्रा छ, मंत्रपट्ट आदि उपर जाप कर्या पछी आ मुद्रावडे जापविषयक देवतनुं विसजन कराय छे. परशुराम कल्पसूत्रमा संहारमुद्रा आ प्रमाणे छे“क्षिप्ताङ्गुलीरङ्गुलिभिः, संग्रथ्य परिवर्तयेत् । एषा संहारमुद्रा स्याद् , विसर्जनविधौ स्मृना॥" भाटी०--अंदर नाखेल आंगलीओ आंगलीओ वडे गुंथीने फेरववी ते संहारमुद्रा. विसर्जनविधिमा ए मुद्रा करवी. इति कल्याणकलिका-प्रतिष्ठापद्धतावयम् । लक्षणाख्योऽगमत् खण्डः, प्रथमः परिपूर्णताम् ।। भा०टी०-आ प्रमाणे कल्याणकलिका-प्रतिष्ठापद्धतिमा लक्षणखण्ड नामनो प्रथमखण्ड समाप्त थयो. इति तपागच्छाचार्य श्री विजयसिद्धिमूरिनिगदानुसारि संविग्नश्रमणावतंस श्री केसरविजय शिष्य पं० कल्याणविजयगणि विरचितायां कल्याण कलिका-प्रतिष्ठापद्धती लक्षणाख्यः प्रथमखण्डः समाप्तः 卐 Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ @ @ E @ @ @ E E @@ @ DOMODOS इति 9F02DWJQW9LUMAYODC019000202046 SOUDALOD12QDLOMCOLODANOWANO श्री कल्याणकलिका प्रथमखण्डः 5540220VODAVODA D2 D2a04LZN4S HTH; 690OU LODEVILACQyLOD QQQQ COCOCOS Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________