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मुहर्त-लक्षणम् ।
शेषना अंगो पर खात करवानुं फलविदिक्त्रयं स्पृशस्तिष्ठेत् , स्ववक्त्रनाभिपुच्छकैः । शेषस्तत्रितयं त्यक्त्वा, भृग्वातकार्यमाचरेत् ॥ ४१ ॥ नाभौ च म्रियते भार्या, धनं पुच्छे मुखे पतिः। इति मत्वा शिलान्यासे, भूखाते तत्त्रयं त्यजेत् ॥४२॥
भा०टी०-पोताना मुख नाभि पुच्छ वडे त्रण विदिशाओने स्पर्शीने शेष रहे छे माटे ते त्रणेनो त्याग करी शेष स्पर्श रहित विदिशामां भूमिने खोदवी. नाभिस्थाने खोदवाथी स्त्री, पुच्छे खोदवाथी धन अने मुखभागे खोदवाथी गृहस्वामीनुं मरण थाय छे, माटे खात अने शिलान्यासमां ते त्रणेनो त्याग करवो. दिशाओमां खात करवानो प्राचीनक्रम आरंभमिद्वौ--
भाद्रादित्रित्रिमासेषु, पूर्वादिषु चतुर्दिशम् । भवेद्वास्ता शिरः पृष्टं, पुच्छं कुक्षिरिति क्रमात् ॥४३॥
भा० टी०-भाद्रवादि ३-३ मास पूर्वादि ४ दिशाओमां वास्तुनुं मस्तक, पृष्ठ, पुच्छ अने कुक्षि होय छे, एटले भाद्रपद आश्विन कार्तिकमां पूर्वमा मस्तक, दक्षिणमां पृष्ठ, पश्चिममां पुच्छ, उत्तरमा कुक्षि, मार्गशीर्ष पौष माघमां दक्षिणमा मस्तक पश्चिममां पृष्ठ उत्तरमां पुच्छ पूर्वमां कुक्षि, फाल्गुन चैत्र वैशाखमां पश्चिममां मस्तक, उत्तरमा पृष्ठ, पूर्वमा पुच्छ, दक्षिणमां कुक्षि, ज्येष्ठ, अषाढ, श्रावणमां उत्तरमा मस्तक, पूर्वमा पृष्ठ, दक्षिणमां पुच्छ पश्चिममां कुक्षि होय छे. मस्तक पृष्ठ पुच्छ छोडीने कुक्षि भागनी दिशामां खात करवं.
आरंभसिद्धिना उपर्युक्त विधानमा वास्तुभ्रमण जे अनुलोम गायुं छे ए तो यथार्थ छे पण वास्तुनुं दक्षिणपाचशयन मान्यु ए चिन्तनीय छे, प्राचीन ग्रन्थोमा वास्तुनुं अनुलोभभ्रमण मानवा साथे
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