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प्रासाद-लक्षणम् ]
अधिका नैव कर्तव्या, पीडिते च कुलक्षयः ॥३६३॥ एकादिग्रहसंख्यान्त-मुरःशृंगं क्रमोद्गतम् । अधःस्थेन भवेल्लुप्त-मुरःशृंगं तु पश्चिमम् ॥३६४॥ सप्त सप्त ह्यधो लुप्ता, ऊर्ध्वस्थांशास्त्रयोदश । एकविधं घंटाबाह्य, स्कन्धे स्कन्धं तु कारयेत् ॥३६५।। एकैकं युक्तिसूत्रं तु, कर्तव्यं सर्वकामदम् । मूत्रयित्वा क्रमयोगं, मूलसूत्रानुसारतः ॥३६६॥ छन्दभेदो न कर्तव्यो, जातिभेदो न वा पुनः । उद्भवेच्च महामर्म, जातिभेदे कृते ननु ॥३६७॥ यदि छन्दे छन्दो नास्ति, नाद्यमाद्ये प्रतिष्ठितम् । तत्प्रासादफलं नास्ति, मोक्षकारो न विद्यते ॥३६८॥
भा०टी०-सर्वे जातिना निरंधार प्रासादो, नागरो, मिश्रको, विमाननागर-छन्दो अने विमानपुष्यको; आ सर्व प्रासादोमां भीतना विस्तारनुं जे मान होय ते माननां शंगो बनाववां, गर्भमा रेखा न पाडवी, केमके रेखानुं गर्भमां पडवू महामर्मरूप क्षयकारक गणाय छे, भित्ति उपर एक बे अथवा त्रण क्रमो अनुक्रमे चढावयां अधिक न चढाववां, अधिक क्रमो चढाववाथी रेखा अंदर पडवाथी गर्भ पीडाय छे अने गर्भने पीडित करवाथी कुलनो क्षय थाय छे,
भद्रविभागमां १ थी ९ सुधी उरःशंगो क्रमे चढाववां, नीचेना बीजा उरःशंग वडे पहेला उःशंगने लोपq ( ढाकवु ) एम प्रत्येक उरःशंगनी उंचाईना १३-१३ भाग करी नीचेना ७-७ भागो बीजा बीजा उरःशंगो वडे लोपवा, आमलसारानी बहारनो भाग एक प्रका. रनो करवो, उंचाईमां विस्तारमा एक सूत्रे क्रमो चढाववा, स्कंधे स्कन्ध मेलववो, सूत्रवड़े तमाम क्रमोनी दलविभक्ति करवी, क्रमो
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