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[ कल्याण-कलिका-प्रथमल मूल प्रासादना छंद अने जातिना ज करवा, छंदभेद अथवा जातेभेद न करवो, केमके तेम थतां 'महामर्म' उत्पन्न थाय छे.
जो छंदे छंद न मले, नीचेनी रचना प्रमाणे उपरनी प्रतिष्ठित न थाय तो ते प्रासाद शुभफल दायक थतो नथी अने तेनाथी मोक्षफलनी प्राप्ति थती नथी.
प्रासादस्य पुरो भागे, निर्वाणमुरःशृंगकम् । तस्याग्रे शुकका प्रोक्ता, उरःशंगाद्यनुक्रमात् ॥३६९॥ एक-त्रि-पञ्च-सप्ताङ्क-सिंहस्थानानि कल्पयेत् । . तस्यादिभक्ति मूत्रं तु, कोलिकायामसूत्रतः ॥३७०॥
भान्टी-प्रासादना आगला भागे जे 'निर्वाण' नामक उरःशंग छे, तेनी आगे शुकनास करवानुं विधान छै. ते शुकनासनी रचनानु सूत्र कोलिनी लंबाईना सूत्रे करवू, एटले के कोली जेटली उंचाईमां होय तेटली ज शुकनासिका लंबाईमां बहार निकालवी.
कोलीना भेदोअञ्चिता कुञ्चिता शस्या, त्रिधोदितक्रमागता । मध्यस्था-भ्रमा-संभ्रमाख्याः, कपिलाः परिकीर्तिताः॥३७१॥ प्रासादे दशधा भक्ते, भूमिसीमाविचक्षणः । अश्चिता च द्विभागा स्यात् , त्रिभागा कुञ्चिता तथा ॥३७२।। शस्या चैव चतुर्भागा, त्रिधा चोक्तक्रमागता । मध्यस्था प्रासादपादे, भ्रमा सद्मत्रिभागतः ॥३७३।। अर्धे तु संभ्रमा कार्या, प्रासादस्य प्रमाणतः ॥३७४॥
भा०टी०-१ अंचिता, २ कुंचिता, ३ शस्या; आ त्रण कोलिओ अनुक्रमे कही छे, बीजी त्रण कोलिओ-१ मध्यस्था, २ भ्रमा, ३ संभ्रमा नामनी पण छे.
प्रासाद-कोण सीमाविस्तारना १० भागोमाथी २ भागनी
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