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[ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे दृष्टिथी अने चन्द्रमा द्विपाददृष्टिए देखतो होवाथी राहुनी भूमिमां पण शल्य जणातुं नथी. सूर्य पूर्वसमीपवर्ती आग्नेयकोणमा छे अने शनिनी पूर्णदृष्टिमां छे. चन्द्रनी द्विपाद दृष्टि सिवाय बीजा सौम्यग्रहनी एना उपर दृष्टि पण नथी, एटले आग्नेयकोणमां शल्यनी तपास करवी जोइए, एम ए प्रश्नलग्ननी कुंडली उपरथी फलित थाय छे.
भूमिगत कोइ पण शल्य हानिकारक छे ए विषयमां बृहत्संहिताकारनी मान्यताधनहानिर्दारुमये, पशुपीडारुग्भयानि चास्थिकृते । लोहमये शस्त्रभयं, कपालकेशेषु मृत्युः स्यात् ॥२४॥ अङ्गारे स्तेनभयं, भस्मनि च विनिर्दिशेत् सदाग्निभयम् । शल्यं हि मर्मसंस्थं, सुवर्णरजतादृतेऽत्यशुभम् ॥२५॥ मर्मण्यमर्मगो वा, रुणद्ध्यर्थाममं तुषसमूहः । अपि नागदन्तको मर्म-संस्थितो दोषकृद् भवति॥२६॥ .
भाण्टी०-गृहगत शल्य काष्ठरूप होय तो धनहानि, हाडकारूप होय तो पशुपीडा, रोग अने भयजनक होय छे. लोहरूप शल्यमां शस्त्रभय अने माणसनी खोपरी के बालरूप शल्यमां मृत्यु थाय छे. शल्य कोलसारूप होय तो चोरभय अने भस्मरूप होय तो सदाने माटे अग्निभयजनक होय छे. मर्मस्थानोनी नीचे रहेल सोना रूपा सिवायर्नु कोइ पण शल्य अत्यन्त अशुभ फलदायक होय छे.
तुषसमूह (धान्यना फोतरानो ढगलो) मर्मगत होय के अमर्मगत होय पण ते धनप्राप्तिने रोके छे अने मर्मस्थानमा रहेल तो एक खींटी पण दोषदायक निवडे छे. शल्याडार निमित्ते केटलुं ऊंडे खोदबुं जोइए ?
जानुमात्रं खनेद् भूमि-मथवा पुरुषोन्मिताम् । अधः पुरुषमात्रात्तु, न शल्यं दोषदं गृहे ॥२७॥
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