________________
प्रस्तावना] परमार्थथी सर्व ते बिम्ब निर्माणनां कारणो छे. बिम्बकार उपर अप्रति ए परमार्थथी भगवद् उपरनी अप्रीति छे अने ए सर्व विघ्नोनुं मूल छे. माटे पापी अप्रीति न करवी, वली, अधिक गुणवाला पोताना मनोरथो युक्त न्यायोपार्जित अने भावशुद्ध धन बडे जिन बिम्ब तैयार कराव,
" अनावस्थात्रयगामिनो बुधैदौ«दाः समाख्याताः॥
बाल्याद्याश्चैता यत् क्रीडनकादि देयमिति।।"
अर्थ-विम्बनिर्माणमा विद्वानोए बाल्यादि अवस्थानुगामी त्रण मानसिक मनोरथे. कह्या छ, अवस्थानुसारे मनोरथोभावी रमकडां आदि देवू (बाल्यावस्थाना मनोरथमां बालशिल्पीने बिम्वकायमा जोडीने रमकडां आदि भेट करे ए ज रीते कुमार तथा युवावस्थाना मनोरथोमां कुमार तथा युवा शिल्पीने निर्माण काममां बेसाडी कुमारोचित-युवोचित पदार्थों अर्पण करवा ए 'दौहृद' चिन्तवन छे.) " यद् यस्य सत्कमनुचित-मिह वित्त तस्यतजमिह पुण्यम्। भवतु शुभाशयकरणा-दित्येतद् भावशुद्धमिह ॥"
अर्थ-'आ महारा धनमां जेनो जेटलो द्रव्यांश अयोग्य रीने मलेलो होय तेनाथी उत्पन्न पुण्य तेना मूलधणीने थाओ' आवो शुभ परिणाम करवाथी ते धन 'भावशुद्ध' थाय छे. "मन्त्रन्यासश्च तथा, प्रणवनमः पूर्वकं च तन्नाम । मन्त्रः परमो ज्ञेयो, मननत्राणे ह्यतो नियमात् ॥
अर्थ-विम्बनिर्माणना प्रारंभमां जे द्रव्यमांथी बिंब निपजावईं होय तेमां जिननाम मंत्रन्यास करवो, नामनी आदिमां 'ॐ नमो' जोडीने चतुर्थ्यन्त नाम बोलवू ते नाममंत्रनो न्यास कहेवाय छे केम के आथी निश्चितपणे मनन-त्राण थाय छे.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org