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________________ १३८ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे शिवद्वारं भवेज्ज्येष्ठं, कनीयश्च जिनालये। मध्यस्थं सर्वदेवानां, सर्वकल्याणकारकम् ॥२८७॥ उत्तमं तूदयार्धन, पादोनं मध्यमानकम् । कनीयस्तत्र हीनं च, विस्तृतं द्वारमेव च ॥२८८॥ भा०टी०-१ हाथना प्रासादे द्वार आंगल १६, आ १६ आंगलनी वृद्धि ४ हाथना प्रासाद सुधी करवी; ५ थी १० हाथ सुधी ४ आंगलनी वृद्धि करवी, ११ थी २० अने २१ थी ३० हाथ सुधीना बंने दशकना प्रासादोना द्वारना उदयमा प्रतिहस्त २-२ आंगलनो वधारो करवो, ३१ थी ५० हाथ सुधीना प्रासादोना द्वारोदयमा प्रतिहस्ते १-१ आंगलनी वृद्धि करवी, हे मुनि ! क्षीरार्णवमां आ प्रकारना द्वारोने 'नागरद्वार' कर्तुं छे. ____ आ द्वारमानने दशांशहीन कनिष्ठमान करवाथी स्वर्गना मनोहर चैत्योर्नु द्वारमान थाप छे, अने दशांशयुक्त ज्येष्ठमान करवाथी पर्वताश्रित प्रासादोनुं द्वारमान थाय छे, हे मुनीश्वर ! प्रासाद माने आवेल मध्यममान स्थानान्तरनां सर्व प्रासादोनुं द्वारमान करवू योग्य छे. शिवप्राप्तादनुं द्वार ज्येष्ठ, जिन प्रासादनुं द्वार कनिष्ठ अने बीजा सन्देवोना देवालयन द्वार मध्यम माननुं करवू सर्व प्रकारे कल्याणकारी छे, विस्तारमा द्वार पोताना उदयथी अर्धमाननु होय तो उत्तम गणाय, उत्तमने चतुर्थांश हीन करवाथी विस्तार- मध्यमान थाय छे अने तेथी पण हीन करतां कनिष्ठ बने छे. भूमिजप्रासादद्वारमान-अपराजितपृच्छायाम्-.. एकहस्ते तु प्रासादे, द्वारं सूर्यांगुलोदयम् । हस्ते हस्ते सूर्यवृद्धिावत् स्यात्पञ्चहस्तकम् ॥२८९॥ त्रि तुर्यांशाच्च सप्तान्तं, नवान्तं च तदर्धतः। तवं शतार्धान्तं च, वर्धयेद् व्यंगुलैः पुनः॥२९०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001722
Book TitleKalyan Kalika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1987
Total Pages702
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Shilpvastu, & Muhurt
File Size11 MB
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