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________________ प्रासाद-लक्षणम् ] यान-वाहन-पर्यके, द्वारे-प्रासादसमनाम् । दैधेिन पृथुत्वं स्या-च्छोभनं तत्कलाधिकम् ॥२८१।। भा०टी०-१ हाथना प्रासादनुं द्वार १६ आंगलनु थाय, आ प्रमाणे ज ४ हाथ सुधी द्वारनी ऊंचाईमा ? हाथे १६ आंगलनी वृद्धि, च्यार हाथ पछी ८ हाथ सुधी प्रत्येक हाथे अथवा तेना विभागे ३ आंगलना हिसाबे वृद्धि करवी अने आठ पछी ५० हाथ पर्यन्त प्रतिहस्ते २-२ आंगलना हिसावे द्वारनी ऊंचाईमां वृद्धि करवी. यान, वाहन, पलंगो, अने प्रासाद तथा घरना द्वारोमां लंबाईथी विस्तार अर्ध करवो, विस्तार दैय॑ना अर्धथी बे आंगल 'वधु होयतो पण शुभ छे, पण दैर्ध्य विस्तारथी बमणा उपर न होवु जोइये. क्षीरार्णवन नागर-द्वारमानएकहस्ते तु प्रासादे, द्वारं च षोडशांगुलम् । इयं वृद्धिः प्रकर्तव्या, चतुर्हस्तं यदा भवेत् ।।२८२॥ वेदांगुला भवेद्वृद्धिावच्च दशहस्तकम् । हस्तविंशतिमाने च, हस्ते हस्ते इयांगुलम् ॥२८३।। द्वयंगुला च भवेद्यावत् , प्रासादं त्रिंशहस्तकम् । अंगुलैका ततो वृद्वि-वित्पश्चाशहस्तकम् ।।२८४॥ नागराख्यमिदं द्वार-मुक्तं क्षीरार्णवे मुने ! । दशांशेन यदा हीनं, द्वारं स्वर्ग मनोरमे ॥२८५।। अधिकं च दशांशेन, प्रासादे पर्वताश्रिते। तावत् क्षेत्रान्तरे प्रोक्त-मह चादि मुनीश्वर ! ॥२८६।। १ आजकालना शिल्पिओ मूलमां आवेल 'कला' शब्दनो अर्थ 'सोलमो भाग' एम करे छे, पण: ते बराबर जणातो नथी, शिल्पशास्त्रमा बीजा पारिभाषिक शब्दोनी जेम 'कला' पग पारिभाषिक शब्द छे अने तेनो अर्थ बे आंगल एवो थाय छे, जेमके " स्यादेकमंगुलं मात्रा, कला प्रोक्ताऽगुलद्वयम्" इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001722
Book TitleKalyan Kalika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1987
Total Pages702
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Shilpvastu, & Muhurt
File Size11 MB
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