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योग-लक्षणम् ]
५३५ गर्जित दोषने केन्द्रगत शुभ ग्रह, अकाल वृष्टि दोषने बलवान गुरू, दग्ध लग्नना दोषने लाभगत मंगल, शून्य नक्षत्र संबन्धी दोषने छठा स्थाने रहेल मंगल, शून्यतिथिना दोषने लाभस्थित सौम्यग्रह अने दृद्ध तिथिना दोषने सिद्धातिथि पोते दूर करे छे.
सिद्धातिलाना दोपने नत्र संबंधी जान गुरू,
करणो बे प्रकारना होय छे. चर करण अने स्थिर करण। बब बालबादि विष्ठि पर्यन्त ७ करणो चर छे, आ करणोनो आरंभ शुक्ल प्रतिपदाना उत्तरार्धथी थाय छे अने अक मासमां आ करणो ८-८वार आवे छे, शकुनि आदि ४ करणो स्थिर कहेवाय छे, ओकरणो तिथि प्रतिबद्ध होइ मासमा ओक वार ज आवे छे, कृष्णचतुर्दशीना उत्तरार्धमां शकुनी १, अमावास्याना पूर्वार्धमां चतुष्पद २, तथा अना उत्तरार्धमा नाग ३ अने शुक्ल प्रतिपदाना पूर्वार्धमा किंस्तुघ्न ४, आ प्रमाणे च्यार करणो नियत स्थान स्थित होइ स्थिर वा ध्रुव कहेवाय छे. बबादि करणो पण वास्तवमा तो तिथिप्रतिबद्व ज छे, बव शुक्ल प्रतिपदाना उत्तरार्धमां, बालव द्वितीयाना लव पूर्वार्धमां, कौलव द्वितीयाना उत्तरार्धमां, तैतिल तृतीयाना पूर्वार्धमां, गर तृतीयाना उत्तराधमां, वणिज चतुर्थीना पूर्वाधमां अने विष्टि चतुर्थीना उत्तराधमां पूर्ण थइ शुक्लपंचमीना पूर्वार्धथी फरि बवादिनी आवृत्ति थाय छ, आम आ सात करणोनी कृष्ण चतुर्दशीना पूर्वार्ध पर्यन्त आठ आवृत्तिओ होवाथी आ ७ करणोने चरसंज्ञा अपाइ छे, बबादि ६ करणो सर्व कार्यामां शुभ गणाय छे, विष्टि अशुभ छे ज्यारे शकुनि प्रमुख ४ स्थिर करणो मध्यम छे, मध्यम पैकीना नाग-चतुष्पद अशुभ जेवांज नेष्ठ छे. करणसंबन्धी वसिष्ठन निरूपण आ प्रमाणे छे
आद्यं बवं बालवकौलवाख्ये, तत्तैतिलं तद् गरसंज्ञकं च ।
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