________________
ર૮ર
__ [कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे कृते च बहवो दोषाः, सिद्धिस्तत्र न जायते । अज्ञानात् कुरुते यस्तु, सशास्त्रं नैव जायते । न दोषो यजमानस्य, शिल्पिदोषो महान् ध्रुवम् ॥३९॥
भाल्टी-जो पोतानी शोभा चाहे तो शिल्पी प्रतिमा निर्माणमां शास्त्रथी विपरीत काम न करे. अर्थात् मानाधिक तथा मानहीन प्रतिमा न बनावे, एम करवामां घणा दोषो उत्पन्न थाय छे अने कारकनी कार्यसिद्धि अटके छे. जे शिल्पी अज्ञानवश मानाधिक अने मानहीन प्रतिमाओ बनावे छे ते शास्त्रनुं पालन करतो नथी, आमां यजमान (प्रतिमा करावनार )नो दोष नथी पण आमां खरेवर म्होटो दोष शिल्ीनो ज गणाय छे.
भग्न प्रतिमाना संस्कार विषेधातुलेपादिप्रतिमा-अंगभंगे च संस्करेत् । काष्ठ-पाषाण-निष्पन्नाः,-संस्काराहींः पुनर्नहि ॥४०॥
भा०टी०-धातु, लेप आदिथी बनावेल प्रतिमानो अंग-भंग थाय तो फरी संस्कार करीने तेनो उपयोग करी शकाय पण काष्ठ तथा पाषाणनी प्रतिमा भागी जतां ते फरी संस्कार योग्य रहेती नथी.
___ अलाक्षणिक प्रतिमाथी हानिरौद्री निहन्ति कर्तार-मधिकाङ्गा च शिल्पिनम् । कृशा द्रव्य-विनाशाय, दुर्भिक्षाय कृशोदरी ॥४१॥ वक्रनासा च दुःखाय, इस्वगात्रा क्षयंकरी। अनेत्रा नेत्रनाशाय, स्थूला सौभाग्यवर्जिता ॥४२॥ दुःग्वाय स्तब्धदृष्टिः स्यात् ,-स्वल्पा भोगविनाशिनी । जायते प्रतिमाहीन-कटिराचार्यघातिनी ॥४३॥ जंघाहीना भवेद् भ्रातृ-पुत्र-मित्र-विनाशिनी । पाणि-पाद-विहीना तु, धनक्षयविधायिनी ॥४४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org