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प्रासाद-लक्षणम् ] जोइये, तने वेधो कह्या, हवे दोषोने सांभळ. एक पदथी मांडीने छेक हजारपदना वास्तुपर्यन्त जे वास्तुमा जेटला देवपदो होय ते बघां देवपदोनी पूजा करवी जोइये. कोइ पण पद पूजा विनानुं रही जाय तो ते पदनो देव उत्कट भयप्रद विघ्न उत्पन्न करे छे. वीथीनी अंदर अथवा बहार एक पण पद देव विनानुं के पूजा विनानुं न राखवू. पद छोडवाथी विरोध अने कुटुंब-कलहरूप फल थाय छे.
अन्यपृष्ठे यदा चान्यत्, प्रासादपुरमन्दिरम् । खादकं नाम तद्वास्तु, परस्परविरोधकम् ।।७८॥
भाटी०-एक प्रासाद नगर के मन्दिरनी पूंठमा एकज सूत्रे बीजुं प्रासाद नगर के मंदिर होय तो ते वास्तु 'खादक' कहेवाय छे. आ वास्तु रहेनाराओने आपसमा विरोधभाव उत्पन्न करे छे.
कुक्षिद्वारं गृहे वापि, कुया त्रा सुरसद्मनि । विभ्रमं नाम तद् वास्तु, विभ्रन गृहाधिपः ॥७९॥ कुक्षिभागे यदा चान्यद् , गृहं वा सुरसम वा । कुक्षिदं नाम तद् गेह, विभ्रमन्नेव दृश्यताम् ॥८॥ अग्रे द्वारोन्नतं गेहं, निम्नगं मध्यसंस्थितम् । उच्छ्रितं नाम तद् वास्तु, वृद्धि-पूजादिकं हनेत् ॥८॥ गृहव्यासकायतं, त्रिपश्चहस्ततलोच्छ्रयम् । बहुकाष्ठद्रव्यादिकं, न भवेद् गृहं शाश्वतम् ॥८२।।
भा०टी०-घर अथवा देव मंदिरना कुक्षिभागमा जेने द्वार होय ते 'विभ्रम' नामनुं वास्तु कहेवाय छे, ते वास्तुनो स्वामी सदा भमतो ज रहे छे.
जे घरना कुक्षिभागे बीजुं घर अथवा देवमंदिर होय ते वास्तु 'कुक्षिद' कहेवाय. तेनुं फल विभ्रम वास्तुना जेवू ज जाणवु.
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