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नक्षत्र-लक्षणम्] संबन्धी कालहोरा लग्नकाले आवती होय तो ' नक्षत्रवेध' दोषना भंग थाय छे.
उद्वाहतत्त्वमा पण ए ज वात कहे छेसरक्तनुगे शुभे व्यधभयं नो चाप्यगे लग्नपे, होरायां च शुभस्य वा व्यधभयं नास्तीति पूर्वे जगुः।
भा०टी०- लग्नपति अग्यारमे होय, लममा शुभग्रह होय, लम शुभयुक्त तथा शुभदृष्ट होय तो वेधदोषनो भय नथी, अथवा लग्नकाले शुभनी कालहोरा होय तो पण वेधनो भय नथी एम पूर्वग्रन्थकारो कही गया छे.
मार्तण्डकार पण कहे छेलग्नेशे भवगेऽथवा शशिनि सदृष्टे शुभे वाङ्गगे। होरायां च शुस्य वा व्यधभयं नास्तीति पूर्व जगुः॥३५०॥
भाण्टी०--लग्नपति अग्यारमा स्थानमां, अथवा चन्द्रमा अग्यारमा स्थानमां शुभदृष्ट होय, अथवा लग्नमां बुध, गुरु, शुक्र, पैकीनो कोइ शुभग्रह पडयो होय, अथवा शुभग्रह संबन्धिनी होरा आवती होय तो वेधनो भय नथी एम पूर्वग्रन्थकारो कही गया छे,
एकार्गल योग दोषवसिष्ठ, नारद, कश्यप, श्रीपतिः आदि एकार्गल योगमा अभिजित्ने लेता नथी, वसिष्ठतुं विधान नीचे प्रमाणे छे.--
रेखामेकामूर्ध्वगां षट् च सप्त, तिर्यकूकृत्वाऽप्यत्र खारि चक्रे । तिर्यग्रेखा संस्थयोश्चन्द्रभान्वो
क्संपातो दोष एकागलाख्यः ॥३५१॥ भा०टी०-एक रेखा उभी खेचवी अने तेर रेखाओ उभी रेखाने कापती आडी खेंचवी एटले खजूरना जेवू खार्जुरिक चक्र
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