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[ कल्याण-कालेका-प्रथमखण्डे सप्तशाखाश्च सप्तांगे, नवशाखा नवांगके । हीनशाखं न कर्तव्यं, अधिकं नैव दूषयेत् ॥३०॥
भा०टी०-शिवना प्रासादनुं द्वार नवशाख, बीजा देवोर्नु प्रासादद्वार सप्तशाख, चक्रवर्तीना प्रासादनुं द्वार पांचशाख, मंडलिक राजाना प्रासादनुं द्वार त्रिशाख अने शूद्र, वैश्य तथा ब्राह्मणना घरोनां द्वार एक शाखनां करवां. एक शाखथी नव शाख सुधीना प्रत्येक द्वारमा आय शुद्धि करवी, जे शास्त्रमा छे तेज युक्तिपूर्वक शाखा मान करवु अने शिल्पिओए सर्व द्वारो पण तेज रीते शास्त्रानुसारे करवां. __ आयने माटे एक, दोढ अथवा अडधो आंगल मानथी ओछो अथवा वधतो करवो पडे तो करवो पण शुद्ध आय उपजाववो, केमके आय दोषनी शुद्धि माटे आटली हानि-वृद्धि करवी दूषित नथी.
प्रासादनी जाति अने रूपोने अनुरूप द्वार रचना पण तेवी करवी अने शाखाना निचला भागमां प्रासादना तलच्छंदने अनुरूप अंग विभागो पाडवा.
त्रण अंग, पांच अंग, सात अंग अने नव अंग; आ पैकीना जेटला अंगोनो प्रासाद होय तेटली ज द्वार शाखाओ तेना द्वारे करवी, अर्थात् त्रण अंगना प्रासादे त्रण, पांच अंगनाने पांच, सात अंगवालाने सात अने नव अंगना प्रासादने नव शाख द्वार करQ. प्रासादना अंगथी ओछी शाखार्नु द्वार न करवू, अधिक शाखार्नु करे तो दोष नथी. अपराजितपृच्छामां शाखाओनी वर्तना
त्रिशाखानी वर्तनाचतुर्भागांऽकितं कृत्वा, त्रिशाख वर्तयेत्ततः। मध्ये द्विभागिकं कुर्यात्, स्तंभं पुरुषसंज्ञकम् ॥३०६॥
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