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[ कल्याण - कलिका - प्रथमखण्डे
संशोधके कर्यु लागे छे. अमारी पासेनी अपराजित पृच्छानी हस्तलिखितप्रतिमां " - " एकहस्ते तु प्रासादे कूर्मश्चार्धाङ्गुलः स्मृतः । एवो पाठ छे अने अन्तमां-" अनेन क्रमयोगेन सप्ताङ्गुलाः शतार्धके ।"
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ए पाठ स्वीकारीने कूर्मनुं अन्तिम मान ७ आंगळनुं बतान्युं छे, ए मध्यमान छे, आ मानने चतुर्थीशहीन करवाथी कनिष्ठमान आवे छे अने चतुर्थांशाधिक करवाथी उत्तममान आवे छे.
क्षीरार्णवमां कूर्मनुं उत्तममान शिलाना पंचमांश जेटलं बतान्युं छे, ५० हाथना प्रासादोनी कूर्मशिलानुं मान ४७ आंगळनुं छे, तो एनो पंचमांश ९ || कंडक न्यून साडानव आंगळ आवे छे, अपराजितना अमारा पाठ प्रमाणे कूर्मनुं चोकस मध्यमान ७||| आवे छे, एने चतुर्थीश युक्त करी उत्तम बनावतां ९॥ = नव आंगळ अग्यार आनी आवे छे, जे क्षीरार्णवना मानने लगभग मळतुं आवे छे. वास्तुमंजरी आदिमां कहेल कूर्ममान निश्चितरूपे १३|| आंगळ आवे छे, आ साडा त्रणथी पोणाचार आंगळनो फरक कोड़ पण अशुद्ध पाठने आभारी छे.
कूर्मना उपादानो सोनुं रूपुं अने त्रां आ त्रण धातुओ छे. आ त्रणमांथी शक्ति अनुसारे कोइ पण एक धातुनो कूर्म बनाववो, कूर्मशिलालक्षण (२) ( दाक्षिणात्यपद्धति) -
शिल्पशास्त्रोमा लखायेला देशपरक भेदो पण शिल्पिओए ध्यानमा राखवानी घणी आवश्यकता छे. एक देशमां चालति कोइ पण वास्तुकर्मविषयक प्रणाली बीजा देश माटे शास्त्रदृष्टिए ग्राह्य छे के afe वातो निर्णय कर्या पछी ज ते प्रणाली ग्रहण करवी जोइए. ए आज काल घणा गुजराती शिल्पिओ अने तेमनी देखा देखीए
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