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[ कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ७. वास्तुमर्मोपमर्मादि-लक्षण वास्तुभूमिगता मर्मो, पमर्म-सन्धि-रज्जवः । तासां निरूप्य पातादि, स्तम्भभित्त्यादिकं न्यसेत् ॥२४॥
भा०टी०-वास्तुभूमिमां उत्पन्न थता मर्मो, उपमर्मो, सन्धिओ अने रज्जुओ जोइने ज्या ज्यां मर्मादि न होय त्यां त्यां स्तंभ मित्ति आदिनो न्यास करवो अर्थात् मर्मादि स्थानोमा स्तंभ-भित्ति आदि चणवां नहि.
निर्वाणकलिकामां का छे के-"मर्माणि ज्ञात्वाxx मर्माणि परिहृत्य शिला-प्रतिष्ठादिकं विदध्यात्।” अर्थात्-" वास्तुनां मर्मस्थानो जाणीने ते ते टाळीने शिलान्यास आदि कार्यो करवां."
आ वचनो वडे देवालयो अने मनुष्योना 'घरो' बनावतां पहेला ते भूमिमां ६४ अने ८१ पदो पाडी तेना मढे जाणीने टाळवानो उपदेश कर्यो छे. पण आजकाल मर्मो टाळवानी प्रवृत्ति सारामां सारा कारीगरोमां पा जोवाती नथी अने एनुं कारण मात्र ए विषयर्नु तेमनुं अज्ञान छे. आ स्थिति सुधरे अने देवालयादिक शुद्ध बने ए भावनाथी मोए ए विपयनुं विवेचन करवू योग्य धार्यु छे.
शि शास्त्रमा एने अंगे प्रत्येक ग्रन्थकारे थोई धणुं लख्यु ज छे. एविष मां शास्त्र कहे -
शिरा वंशानुवंशाश्व, सन्धयः मानुसन्धयः । मर्माण्यथ महावंशा, लक्ष्या वास्तुशरीरगाः ॥९॥
भा०टी०-शिराओ, वंशो, अनुवंशो, सन्धिओ, अनुसन्धिओ मों अने महावंशो वास्तुना शरीरमां क्या क्या छ, ते जाणी लेवां जोइये. आ श्लोकमा बनावेल ‘शिरा' आदिनुं स्वरूप अने परिमाण आदि आ प्रमाणे छे.
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