________________
प्रासाद-लक्षणम् ] एक अथवा त्रण करवां. शुकस्तंभानुसूत्रेण, अष्टांशांभित्तिमाचरेत् । मध्यपीठोच्छ्योत्सेधा, मण्डपाद्याः समस्तकाः ॥६११॥ __ भा०टी०-शुकनासना स्तंभमध्यना अष्टमांश जेटली तेनी भीत विस्तारे करवी.
प्रासादो, गूढ मण्डपो, त्रिकमण्डपो, आदि सर्वनी ऊंचाई प्रासाद पीठना मध्यपासाना मथाराथी गणवी. अष्टांशवृत्तोर्वतश्च, वितानान्ता समुच्छ्रितिः ।। चतुष्किका याम्योत्तरे, चाग्रेऽथ द्वारि सोच्यते ॥६१२।।
भा०टी०-मण्डपनी ऊंचाई अष्टास्रथी वितान सुधी जाणवी, गूढ मण्डपना डावा जमणा अने सामेना द्वार उपर चोकियो करवी. प्रासादे द्वारशाखाया, तद्विधा मण्डपादिके । करोटकं तदूर्व, बुधा (वृत्त) बंधात्तु कारयेत् ॥६१३॥ __ भा०टी०-प्रासादना द्वारनी शाखा जेवी ज मण्डप आदिना द्वारनी पण शाखा करवी, अने उपर मण्डपना वृत बन्धथी करोटक करावq.
बारी अने जालीवातायनाश्च कर्तव्याः, सह चन्द्रावलोकौ । प्रासाद्वारवद् द्वार-विस्तरो मंडपे भवेत् ॥६१४॥
भा०टी०-मण्डपोने हवा माटे बारीओ करवी अने प्रकाश माटे जालिओ (तावदानो) पण करवां, प्रासादना द्वार विस्तार जेटलो मण्डपद्वारनो विस्तार पण होय छे. सपादद्विगुणाः सार्ध-द्विगुणाः सान्तरोद्भवाः । क्षुद्रप्रासादकेषु स्यु-मण्डपा बहवोऽपरे ॥६१५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org