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[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे विस्तार पर्याप्त थइ शकतो नथी. क्षीरार्णवमा जिनद्वार कनिष्ठ बतावेल छे पण क्षीराणवनो ज्येष्ठ-कनिष्ठ विषयक लेख कंइक अशुद्ध थइ गयो लामे छे, गमे तेम होय पण जिनद्वार विस्तारमा अधिक होवू जोइये एम अमारं मानवु छ, प्रचलित रीति प्रमाणे ४-१३" (च्यार गज तेर इंच)ना प्रासादन मध्यम द्वारमान २-१९" (बे गज ओगणीश इंच) आवे छे, एनुं मध्यमान २-१३" उदयमा अने १-९" विस्तारमां थाय पण आज काल आवां कनिष्ठ मानना जिनद्वारो बनतां नथी.
प्राचीन जिनचैत्योनां प्रायः जिनद्वारो कनिष्ठमाननां विस्ताराधिक दृष्टिगोचर थाय छे ए निराधार तो न ज होवां जोइये, अमारी पासे लगभग त्रणसो वर्षनी जुनी एक हाथपोथीनो उतारो छे तेमां द्वारमानना प्रकारो नीचे प्रमाणे लख्या छे
१- “अथ द्वारलक्षणं प्रासादचतुर्थीशद्वारविस्तार विस्ताराद द्विगुणोदयं द्वारमान।
२-पुनर्भेदं द्वारमानमिह-प्रासाद पंचमांश द्वार विस्तार.
३-प्रासाद तृतीयांश द्वारविस्तारप्रमाण तििद्वगुणोदयद्वार ।" ( पत्र ५-६ )
उपरना नियम प्रमाणे ४'-१३" ना प्रासादनुं द्वार विस्तारे १-१३" अने उदये ३'-१"नुं थइ शके छ, आ विषयमां लक्षणसमुजयकार वैरोचनि कहे छे. "धाममानाविधानार, जंघाविस्तरभारातः ।
तुर्यरसादिभागेन, ज्येष्मयाऽध कमाल ।
अर्थात-वास्तुना मानने आसरीने द्वार त्रण प्रकारचें होय छे, जे प्रासादनी जंघाना अर्धमां तेनो चतुर्थांश षडंश, सप्तमांश उमेरतां
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