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प्रासाद-लक्षणम्]
१५५ ठक्कुर फेरुनो दश भागनो अने वसुनन्दिनो नव भागनो दृष्टिस्थान विषयक सिद्धान्त कया प्रामाणिक शिल्पग्रन्थना आधारे निर्णीत थयो हशे ? ए कहेवं मुश्केल छे, बंने विद्वानोना सिद्धान्त कोइ आधार तो राखता हशे ज, एमां शंका नथी, छतां वर्तमान कालीन सर्वमान्य ८ भागना सिद्धान्तना मुकाबलामां ए बे अप्रसिद्ध सिद्धान्तोने अनुसरवानी अमे सलाह आपी शकता नथी.
प्रणाल मूकवानी दिशाअर्चानां तु मुखं पूर्व, प्रणालं वामतः शुभम् । उत्तरायां न विज्ञेया, ह्य रूपेण देवता ॥ ३५० ।। जैनयुक्तसमस्ताश्च, याम्योत्तर क्रमैः स्थिताः । वाम-दक्षिण-योगेन, कर्तव्यं सर्वकामदम् ॥ ३५१ ॥ वामे वामं प्रकर्तव्यं, दक्षिणे दक्षिणं शुभम् । मण्डपादिप्रतिमानां, तथा युक्त्या विधीयते ॥३५२॥ मण्डपे ये स्थिता देवा-स्तेषां वामे च दक्षिणे । प्रणालं कारयेद्धीमान , जगत्यां वै चतुर्दिशम् ||३५३॥ __ भाटी०-जे प्रतिमाओ पूर्वसंमुख बेठी होय त्यां तेमना डावा हाथनी तरफ सिंहासनमा प्रणाल मूकवी शुभ छे, उत्तरमुखी कोइ देवीनी मूर्ति तो जाणवी ज नहि, बाकी जैन प्रतिमा तेमज बीजी सर्व प्रतिमाओ जे दक्षिण-उत्तर दिशाना क्रमे बेसाडेली होय तेमना डाबा तथा जमणा हाथनी तरफ प्रणाल राखवी, दक्षिण संमुख होय तेना डावा हाथे, उत्तराभिमुख होय तेना जमणा हाथे प्रणाल मूकवी, पण विपरीत न मूकवी. उपलक्षणथी जेम पूर्वमुखने डाबा हाथे मूकवी शुभ छे तेम पश्चिमाभिमुखने जमणा हाथे मूकवी शुभ छे. मंडपादिकमां प्रतिमाओ बेठेली होय तो त्यां नीचेनी युक्तिए प्रणाल मूकवी, मंडपमां बेठेल देवोना आसने पण डावा
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