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{ कल्याय-कलिका-प्रथमखणे आ सम्बन्धमा गर्ग कहे छेधनिष्ठापञ्चके चन्द्र, सूर्य पैश्यादिपञ्चके । छेदनादि न कर्तव्यं, गृहाथै तृगकाष्ठयोः ॥२५१।। पूर्वार्ध नातिदोषाय, दारुतक्षणसंग्रहे । यानगोपनशप्यायां. संपूर्णी वासवं त्यजेत् ॥२५२॥ केऽप्याहुः संकटे घोरे, पञ्चके पश्च नाडिकाः। क्रमातृतीयपादाद्या, अन्त्यपादावसानगाः ॥२५३।।
भाटी-धनिष्ठादि पंचक उपर चन्द्र होय अने मघादि पंचक उपर सूर्य होय त्यारे गृह छावया निमित्ते तृणो-काष्ठोनुं छेदनसंग्रहादि न कर, काष्ठ छेदन-संग्रहमा धनिष्ठानो पूर्वाध बहु दोपकारक नथी पण दक्षिण गमन, गृहगोपन अने शय्या वणवामां तो सम्पूर्ण धनिष्ठानो त्याग करो, कोइ कहे छे-अत्यन्त संकट कालमां पंचकनी पांच पडिओ छोडीने काम करी लेवू, धनिष्ठाना तृतीय चरणनी, शतभिषाना प्रथम चरणनी, पूर्वाभाद्रपदाना द्वितीय चरणनी, उत्तराभाद्रपदाना तृतीय चरणनी अने रेवतीना चतुर्थ चरगनी पांच घटिकाओ संकट काले त्यजवी ।
व्यवहारसारमां पंचकन फल-- धनिः धननाशाय, प्रागनी शततारका । पूर्वायां दण्डयेद्राजा, उत्तरा मरणं ध्रुवम् ॥२५४॥ अग्निदाहश्च रेवत्यामित्येतत्पंचके फलम् ।
भाटो-धनिष्ठा धननो नाश करे, शतभिषा प्राणघात करनारी थाय, पूर्वाभाद्रपदामा राजा दण्ड करे, उत्तराभाद्रपदामा निश्चय मरण थाय अने रेवतीमां अग्निदाह थाय, आ प्रमाणे पंचक मां वर्जित कार्य करवानुं फल थाय ।
आरंभ सिद्धिकार ए विषे लखे छे-- पञ्चकं श्रवणादीनि, पञ्च ऋक्षाणि निर्दिशेत् ।
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