SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 528
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४७ मक्षत्र-लक्षणम् ] माटे ए अयोग्य छे. एम संहिताकारोनुं कथन छे. वसिष्ठ कहे छवस्वपरार्धात् पश्चक-धिष्ण्ये गेहस्य गोपनं नैव । दक्षिगदिनुखामनं, दाहं प्रेतस्य काष्ठसंग्रहणम् ॥२४७॥ भा०टो-धनिठानो उत्तर भाग, शाभिषा, पूर्वाभाद्रादा, उताभाद्रपदा, रेवती आ न पंचकनां घर छापg ( ढाकj) नहि दक्षिग दिशा संमुख गमन (यात्रा) करवी नहि, मृतकनो अग्निदाह करवो नहि, काष्ठ संग्रह करवो नहिं । दैवज्ञ वल्लभ ग्रन्थमा लखे छेकुर्यान दारु-तृणसंग्रह-मन्तकाशायानं मृतस्य दहन गृहगोपनं च । शय्यावितानमिह वासवपञ्चके चकेचिदन्ति परतो वसुदैवतार्धात् ॥२४८॥ भा०टी-धनिष्ठा पंचकमां काष्ट-तृण संग्रह, दक्षिण दिशामा गमन, शत्र दाह, गृहगोपन, अने शय्या वणवी एटलां कार्यों करवा नहि, कोइ कहे छे धनिष्ठाना प्रथमाधं पछी ए कार्यो न करवां, - ज्योतिःसागरमां लखे छेछेदनं संग्रहं चैत्र, काष्ठादीनां न कारयेत् । श्रवणादौबुधः षट्के, न गच्छेत् दक्षिणा दिशम् ॥२४९॥ अग्निदाहो भयं रोगो, राजपीडा धनक्षयः । संग्रहे तृणकाष्ठानां, कृते वस्वादिपंचके ॥२५०॥ भा०टी०-विद्वान् धनिष्टा पंचकमां काष्ठादिकन छेदन-संग्रहण न करावें । श्रवणादि नक्षत्र पदमां दक्षिण दिशामां गमन न करे, पंचकमां तृण काष्ठादिकनो संग्रह करवाथी अनुक्रमे अग्निदाह १ भय २ रोग ३ राजपीडा ४ अने धननो क्षय थाय छ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001722
Book TitleKalyan Kalika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1987
Total Pages702
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Shilpvastu, & Muhurt
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy