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[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ___ नवताल-मूर्तिविधाननो पण शिल्प-रत्नाकरकारे पोताना संदर्भमां उतारो आप्यो छे, आ प्रकरणनो पण आधारग्रन्थ जाणी शकायो नथी.
उपर्युक्त अंतिम प्रण ग्रन्थोमां खास जैन प्रतिमानुं निरुपण नथी, पण 'नवताल प्रतिमा 'नुं मान-परिमाण निरुपण करेलुं छे. 'जैनप्रतिमा'नी 'नवताल' रुपकोमा गणना छे, एथी आ प्रकरण- केटलुक निरुपण 'जैन प्रतिमा' माटे पण उपयोगी निवडशे ज, आम धारीने आ त्रण ग्रन्थोनो पण प्रस्तुत निरुपणमा उपयोग कर्यों छे.
प्रस्तावना रुपे आटलु विवेचन करीने हवे आपणे मूल वस्तु " जिन प्रतिमा लक्षण' उपर आवीये, 'जयसंहिता'मां विश्वकर्माजीए “जिनप्रतिमा-लक्षण" नो प्रारंभ नीचेना शब्दोथी कर्यों छे.
अरूपरूपमाकारं, विश्वरूपं जगत्प्रभुम् । केवलज्ञानमूर्ति च, वीतरागं जिनेश्वरम् ॥१॥ द्विभुज चैकवक्त्रं च, बद्धपद्मासनस्थितम् । लीयमानं परे ब्रह्म-ण्यजमूर्ति जगद्गुरुम् ॥२।। नाम-निर्गुण-मोक्षाय, प्रयुक्तं वास्तुवेदिभिः। ते चतुर्विशतिष-भादिवर्धमानान्तकाः ॥३॥
भाण्टो०-जे अरुपी छतां रुप (आकार )वान छे, विश्वमय छतां जगतनी समर्थशक्ति छ, केवलज्ञाननी साक्षात् मूर्ति छतां वीतराग छे, एवा जिनेश्वरदेवने वास्तुशास्त्रना विद्वानोए द्विभुज, एक मुख, बद्धपद्मासन-स्थित, परब्रह्ममां लयलीन, जगत्ना गुरुरुप, शाश्वत मर्तिरुपे मान्या छे.
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