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प्रासाद-लक्षणम्
पदव्यासषोडशांशो, भागो द्वादशकः पुनः । वालाग्रं सन्धिसम्पाते, वय॑ते मर्म शिल्पिभिः ॥५६॥ अष्टवर्गः समाख्यातः, कर्णपाश्चि कीर्तिताः। ब्रह्मकर्णे त्रिपमान्ते, महामर्मचतुष्टयम् ॥७॥ मर्मोपसर्मणी रक्ष्ये, महादोषभयावहे । वंशोपवंशसन्धींश्च, रेखाषट्कं च लाङ्गलम् ॥८॥
भा०टी०--पदविस्तारनो सोलमो भाग उपवंशना उपमर्ममां अने बारमो भाग मर्मवेधमा टाळयो अने संधिसंपातमां शिल्पिओए वालाग्रमात्र मर्मस्थान छोडीने स्तंभादिनो न्यास करवो.
आ प्रमाणे अष्टवर्ग ( अष्ट सूत्र संपात ) बतान्यो अने कोगो तथा पार्श्वभागो कह्या, ब्रह्माना कोण भागोमां पद्मोना अंतमां चार महामर्मस्थानो छे. मर्म तथा उपमर्म महादोषदायक अने महा भयंकर छे माटे ए बेने अवश्य बचाववा. वली वंश, उपवंश, संधि वज्र अने लांगलना वेधने पण वर्जवो.
भूपरिग्रहो वास्तोश्च, मर्मादि कथितं तव । पित्रोर्घातो भवेच्चैवं, कृते शिरसि खातके ॥१९॥ भुजे स्कन्धे बन्धुनाशो, हृदये च महाभयम् । धन-धान्य-समृद्धिश्च, जायते कुक्षिखातके ॥६॥
भा टी०-विश्वकर्माजी अपराजितने कहे छे के तने भूमि परिग्रह, वास्तु संस्थान अने मर्मोपमर्मादि का.
मस्तक उपर खात करे तो माता-पितानो नाश, भुज उपर के स्कंध उपर खात करे तो भाईनो नाश करे, हृदयभागमां खात करे तो महाभय उपजे अने कुक्षिमां स्वात करे तो धन धान्यनी समृद्धि थाय.
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