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दिक्साधन-लक्षणम् ]
३ जे स्थानमा 'श्रवण' नक्षत्रनो उदय थाय अने ४ जे स्थाने 'कृत्तिका' नक्षत्र उदय पामे ते भागो पण शुद्ध पूर्वदिशा होय छे. ५ चित्रा ज्या उदय पामे अने स्वाति ज्यां उदय पामे ते बन्ने स्थानोमां निशान करी ते बेनो मध्यभाग नकी करो. ए मध्यभाग ते शुद्ध पूर्वदिशा छ एम समजी लो.
उपर प्रमाणे जाणकारोए पांच प्रकारे पूर्वदिशा ओळखावी छे.
दिग्मूढ देवालय, घर अने नगर धनहानि करे छे. शुद्धदिशा संमुख द्वारवाळा महेल देवमन्दिर अने नगर आयुष्य तथा धननी वृद्धि करनारा थाय छे. दिशाज्ञानना प्रकारान्तरोतारे मार्कटिके ध्रुवस्य समतां नीतेऽवलम्बन ते, दीपाग्रेण तदैक्यतश्च कथिता सूत्रेण सौम्या दिशा। शङ्कोर्युग्मगुणे तु मण्डलवरे छापाऽत्र यामद्रयोर्जाता यत्र युतिस्तु शकुंतलतो याम्योत्तरे सुस्फुटे ॥३॥
भा०टी०-(१) ध्रुवमांकडीनो तारो (लघुसप्तर्षिनो ध्रुव तरफनो तारो) अने ध्रुवनो तारो, आ बन्नेने ओळंबे लइने वास्तुभूमिना दक्षिण कांठे राखेल दीपकनी शिखानी साथे मेळवो. पछी ध्रुव अने दीपकशिवानी सीधमां वास्तुक्षेत्रमा दक्षिणोत्तर लांबु सूत्र खेची रेखा दोरो सूत्रनो सामेनो छेडो उत्तर अने दीपक तरफनो छेडो दक्षिण दिशाने जणावशे. __(२) वास्तुक्षेत्रना मध्यभागे समतल भूमिमा एक गजनुं गोळ मण्डल बनावी तेमां वच्चे एक फुट लांबो सीधो शंकु ऊभो करो अने तेनी छाया घटती घटती मण्डलनी पश्चिम रेखा उपर ज्यां स्पर्श करे त्यां निशान करोः शंकुने तेज स्थितिमा ऊभो रहेवा दो, ज्यारे जीजा पहोरना समये शंकुछाया मंडलनी पूर्व रेखाने कापीने बहार
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