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[कल्याण-कलिका-प्रथमखण्डे ठेकाणे ते स्कन्धने चिन्हित करे छे अने तेटला प्रकारनां शिखरोनी उत्पत्ति थाय छे. अधःखण्डे तु यश्चार, उर्ध्वखण्डेऽप्यसो भवेत् । समं सा लभते चारं, सपादं वा पदाधिकम् । ४१३॥ समं सपादं साधं वा, यावत्पादोनपश्चकम् । त्रिखंडादौ खंडवृद्धया-ऽष्टादशखण्डकावधि ॥४१४॥
भाण्टी०-नीचेना रेखा खण्डमां जे चार होय छे तेज उपरना खंडमां पण होय छे, सम, सपाद के साध, जे चार निचला खंडमां होय छे, ते चारने रेखा प्रत्येक खंडमां मेलवे छ, त्रिखंडाथी मांडीने अष्टादशखंडी रेखा सुधीनी प्रत्येक रेखाने माटे एज नियम लागु करवो, भले ते समचारी होय, सपादचारी होय अथवा तो पादोनपञ्चचारी होय, पण तेना पोताना प्रत्येक खंडमां तो चार सरखोज पामे.
कलाविधि आदिखंडे चतुर्वृद्वि-रूवखण्डेषु तद्गुणा । षोडशादिद्वि-रष्टोक्ता, षट्पञ्चाशच्छतद्वयम् ॥४१५।। स्कन्धस्थाने कलासंख्या, रेखाणां तु गुणोदिता। सिद्धाश्चयत्कृतारेखा-स्ता चामलसारकम् ॥४१६॥ विषमा भूमिकाः कार्या, न शस्यन्ते समास्तु ताः।
भा० टी०-पूर्व रेखाना आदिखंडनी कलाओथी बीजा छंदनी अग्रेतन रेखाना आदिखंडमां ४ कलाओनी वृद्धि थाय छे. ते अग्रेतन प्रथम प्रथम रेखा समचारी होवाथी तेना बधा खंडोमां कलासंख्या तेज रहे छे अने समानछंदनी पोतानी बीजी १५ विषमचारी रेखाओना द्वितीयादि खंडोमो रेखाना नंबर प्रमाणे कला संख्या वधे छे, प्रथम विषमचारी रेखाना प्रथम खंडे ८ कलाओ हशे तो
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