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प्रस्तावना ] सर्वत्र चालती नथी पण तेनो प्रदेश उत्तरभारत छ, लाटी वर्तना नागरी जेवी ज हती, पण ते पूर्व (लाट गुजरात-काठियावाड-कोकण आदि) देशोमां लाकडाना प्रासादोमां चालती हती, आजे उक्त देशोमां पाषाणना प्रासादोमां ए वर्ताय तो वांधो नथी. वाराटी उत्तर तथा पूर्व राजस्थानना प्रदेशोमां चालती हती, आजे पण ए देशोमां वाराटी प्रमाणे ज शिल्पकाम वर्तवु जोइये, द्राविडी मद्रास तरफ पांडय अने आन्ध्र प्रदेशोमां, कालिंगी दक्षिण बंगाल, उडीशा, दक्षिण विहार तथा दक्षिण कोशल अने गौडी उत्तर बंगाल, आसाम, उत्तर विहार, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर कोशल इत्यादि देशोमां वर्तवी जोइये एवो शास्त्रादेश छे,
(३) वेधदोषो" अग्रतः पृष्टतश्चैव, वामदक्षिणतोऽपि वा। प्रासादं कारयेदन्यं, नाभिवेधविवर्जितम् ॥"
अर्थ-प्रासादनी सामे, पूठे, डाबे वा जमणे भागे बीजो प्रासाद कराववो, पण नवा प्रासादनो नाभिवेध टालवो जोइये. "शिवस्याग्रे शिवं कुर्याद , ब्रह्माणं ब्रह्मणस्तथा। विष्णोरग्रे भवेद्विष्णु, जैने जिनं रवे रविम् ॥"
अर्थ-शिवने आगे शिव, ब्रह्माने आगे ब्रह्मा विष्णुने आगे विष्णु जिननी आगे जिन अने सूर्यनी आगे सूर्यनी प्रतिमा प्रतिष्ठित करवी जोइये, पण एकनी आगे बीजा देवनी प्रतिमा बेसाडवी नहिं, भिन्ननाभिक देवो एक बीजाने सामे बेसाडवाथी परस्पर नाभिवेध दोष उपजे . " चण्डिकाग्रे भवेन्माता, यक्षः क्षेत्रादिभैरवः। ज्ञेयास्तेषामभिमुखे, ये येषां च हितैषिणः॥"
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