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[कल्याण-कलिका-प्रथमलण्डे 'स्वाक्ष'ना स्थाने 'विभव' व्यय होय तो शिल्पकमिओने हित इच्छित आपे छे अने सूत्र-शस्त्रादिना शिल्पने जाणनारने भोग शृङ्गारमा निश्चल बनावे छे.
सर्वेषु शान्तआयेषु, प्रशस्तः सर्वकामदः। षट्सु सिंहादिषु शुभः, पौरो धूमध्वजौ विना ॥१५९।। ध्वजे धूमे तथा सिंहे, प्रद्यो तादीन् विवर्जयेत् । शेषेषु ते प्रशस्ताश्च, ज्ञेयाः श्वानादिपञ्चसु ॥१६०॥ खरे वृषे श्रियानन्दो, गजे ध्वाक्षे च शोभनः । मनोहरं त्यजेत् सोऽथ, खरे ध्वाक्षे गजे शुभः ॥१६१।। श्रीवत्सश्च गजे ध्वाक्षे, विभवो ध्वाक्षके शुभः। व्ययो न्यूनतरः श्रेष्ठो, ह्यधिकश्चैव राक्षसः ॥१६२॥ चिन्तात्मकं व्ययं चापि, आयेष्वष्टसु वर्जयेत् । पिशाचकमायसम, न कुर्याच्छुभकर्मसु ॥१६३॥
भा०टी०-सर्व आय स्थानोमां 'शान्त व्यय' शुभ सर्व कामित फल आपनार छ भने सिंहादि छ स्थानोमां 'पौर' शुभ छे मात्र ध्वज. अने धूम शुभ नथी. ध्वज धूम अने सिंहस्थानमां प्रद्योतादि व्ययो वर्जवा, शेष श्वानादि ५ आयस्थानोमां प्रद्योतादि शुभ गणेला छे. खर, वृष, गज अने ध्वाङ्ग स्थानोमां श्रियानन्द व्यय श्रेष्ठ छे, पण मनोहरने टाळवो. मनोहर व्यय खर, गज अने बांक्षमा शुभ छे, श्रीवत्स व्यय गज अने ध्वाक्ष स्थानमा अने विभव केवल ध्वाक्ष स्थाने शुभ छे. जेम व्यय आयथकी न्यून अने न्यूनतर होय तेम श्रेष्ठ छे, अधिक व्यय राक्षस थाय छे. 'चिन्तात्मक' नामना छल्ला व्ययने आठेय आयस्थानोमां वर्जयो अने आयसम व्यय जे पिशाच थाय छे तेनो पण शुभकार्योमा त्याग करवो.
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