Book Title: Alpaparichit Siddhantik Shabdakosha Part 5
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न लडार વાલા ભવન महावाह थ popopoppocopox ॥ णमोऽत्यु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स || श्रेष्ठि- देवचन्द्रलालभाई- जैन- पुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः १२६ ॥ आगमवाचनादातृ-बहुश्रुत युगप्रधान सदृश-देवसुरतपागच्छ समाचारीसंरक्षणकटिबद्ध-श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाईजैन पुस्तकोद्धार - श्री जैनानन्दपुस्तकालयाद्यनेक संस्था संस्थापक अनेकग्रंथप्रणेतृ श्रीवर्धमान जैनागममंदिर ( सिद्धक्षेत्र) श्रीवर्धमान जैनताम्रपत्रा गममंदिर (सूर्यपुर) संस्थापक आगमोद्धारक ध्यानस्थ स्वर्गत ¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤.00000 आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कङ्कलितः - अल्पपरिचित सैद्धान्तिक - शब्दकोषः पञ्चमभागः (परिशिष्टद्वयोपेतः शतो हपर्यन्तः ) सम्पादकी— आगमोद्धारक - आचार्यश्री आनन्दसागर सूरीश्वर शिशुपं० कंचनसागर - प्रमोदसागरौ । प्रकाशकः-१ - श्रेष्ठि- देवचन्द्रलालभाई - जैनपुस्तकोद्धार प्रथम संस्करणम् ] कार्यवाहक :चोकसी मोतीचन्दमगनभाई । वीराः २५०५ । विक्रमाब्दः २०३५ । शकाब्द- १८९९ । निष्क्रयः - सार्धषोडदशकम् docxccccccccccccccccxxd क्रिष्टादः १९७९ ¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤ [ प्रतयः ५०० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्त ।। श्रेष्ठि--देवचन्द्रलालभाई-जैन-पुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः १२६.॥ आगमवाचनादात-बहुश्रुत-युगपधानसदृश देवसुरतपागच्छसमाचारीसंरक्षणकटिबद्ध-श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाई जैनपुस्तकोद्धार-श्रीजैनानन्दपुस्तकालयाद्यनेक संस्था संस्थापक अनेकग्रंथप्रणेतृ श्रीवर्धमानजैनागम मंदिर(सिद्धक्षेत्र) श्रीवर्धमानजैनताम्रपत्रागममंदिर(सूर्यपुर)संस्थापक आगमोद्धारक ध्यानस्थस्वर्गत आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्ककलितःअल्पपरिचित सैद्धान्तिक-शब्दकोषः पञ्चमभागः (परिशिष्टद्वयोपेतः शतो हपर्यन्तः ) सम्पादकौआगमोद्धारक-आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरशिशु पं० कंचनसागर-प्रमोदसागरौ । प्रकाशकः-श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई-जैनपुस्तकोद्धार कार्यवाहकः. चोकसी मोतीचन्दमगनभाई । क्रिष्टाब्दः १९७९ वीराब्दः २५०५ । विक्रमाऽब्दः २०३५ । शकाब्द-१८९९ । निष्क्रयः- सार्धषोडदशकम् प्रथमसंस्करणम् ] [ प्रतयः ५०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुस्तकं सूर्यपुरे श्रेष्ठि–देवचंद्रलालभाई जैनपुस्तकोद्धार-संस्थाया कार्यवाहक मोतीचन्द मगनभाई चोकसी इत्यनेन जैनेन्द्र मुद्रणालय-ललितपुरे पं० परमेष्ठीदास जैन द्वारा मुद्रापितम् । अस्य पुनर्मुद्रणायाः सर्वेऽधिकारा एतत्भाण्डागारकार्यवाहकैरयत्तीकृताः । All Rights Reserved By the Trustees of the Fund. Printed by:-- Pandit. Peermeshthidas Jain. at the Jainendra Press, Lalitpur U. P. Published By :Sheth Devchand Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund, Surat. By the :Hon Maenaging Trustee, Motichand Maganbhai Choksi. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 595SSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSs5 and Sheth Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund, Seri Shree Alpaparichit Saidhantik Shabda-Kosh FIFTH PART - Author :Agmoddhark Acharya Shree Anand Sagar Surishwarji gggggggggggggggggggggggggSSSSSSSSSSSSSSSSSS9999 -: Editor :Agmoddhark Shree Anand Sagar Surishwarji's Sishu Pandit Kanchan Sagar and Muni Pramod Sagar SSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSS -: Publisher :Motichand Maganbhai Choksi -: Managing Trustee For :SHETH DEVCHAND LALBHAI JAIN PUSTAKODEAR FUND SURAT First Edition Vikarm Samvat 2035 Price Rs. 16--50 Copies 500 Chiristation Fra. 1979 SSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSS6 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Board of Trustees: Shri Nemchand Gulabchand Devchand Javeri ,,Talakchand Motichand ,, Ratanchand Sakarchand » Ajitbhai Ratanchnd „ Chandrasen Jiwanchand „ Amaerchand Ratanchand ,, Motichand Maganbhai Choksi Hon Manging Trustee. संस्थानुट्रस्ट्रीमंडल: श्री नेमचंद गुलाबचंद देवचन्द्र झवेरी ,, तलकचन्द मोतीचन्द , रतनचन्द साकरचन्द ,, अजीतभाई रतनचन्द . , चन्द्रसेन जीवणचन्द , अमरचन्द रतनचन्द , ,, मोतीचन्द मगनभाई चोकसी मेनेजिंग दृस्टी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHETH DEVCHAND Born 1853 A. D., Surat THE LATE જન્મ : વિક્રમ સંવત ૧૯૦૯ કારતક સુદ ૧૧ સુરત. શ્રેષ્ઠિ દેવચંદ લાલભાઈ ઝવેરી LALBHAI JAVERI Death 13th January 1906 A, D., Bombay *** સ્વર્ગ વાસ : વિક્રમ સંવત ૧૯૬૨ પોષ વદ ૩ મુબઇ. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय णमोत्थुणं संसारपारगारस्स सुयस्स भगवओ श्रमण भगवान महावीर महाराजाना शासनमा संसारनो पार पामावाने माटे श्रुत परम आधार छे. आथी परमतारक, शासनरक्षामां कटीबद्ध रहेनार, संघ अने साधुसाध्वीने श्रुतनो बोध करवाने माटे सदा तत्पर रहेनारा, ध्यानस्थस्वर्गत, आगमोद्धारक, आ.म. श्रीआनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरजी) महाराजे ते वातने लक्ष्यबिन्दु बनावीने तेना माटे उद्यम को हतो. श्रेष्ठ श्री देवचन्द्र माइना कुटुंबीजनोने अमुक अमुक रकम मलवानी हती आथी आगमोद्धारकश्रीए सोने समजाव्यु के वडीलनु नाम रहे अने ज्ञाननी उपासना थाय तेवु कांई करो, उपदेशथी ते वातमा सौ एकमत थतां, गुरुदेवश्रीए 'शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड' एवु नाम जमावतां सौए सहर्ष ते वात वघवी लीधी, अने थोडी थोडी रकम पोते उमेरीने ते फंड सारु कयु. तेमां नक्की करवामां आव्युके आ फंडनी व्याज आदिनी रकममांयी पचास वर्ष पूर्वेना ग्रंथो छपाववा. अने ते ग्रन्थोने पडतर किंमतथी अडधी किंमते वेचवा. अने मुडी स्थायी राखवी. आम अमारी आ संस्थानी शरुआत सं० १६६४ मां थई अने ते तेना धारा धोरणना आधारे अद्यापि पर्यंत चाले छे. ते रीते ग्रन्थो छपावतां आ 'श्रीअल्पपरिचितसैद्धांतिकशब्दकोष १२६' मा प्रन्यांक बरीके प्रगट करीए छीए आगमोद्धारकश्रीए जे आगम ग्रन्थोमां शब्दो हता तेनु संकलन कयु तेनो समावेश आमां छे. आयी तेओ आ ग्रन्थना श्रीसंकलनाकार छे. रचनकार नथी. आ कोषने छपाववा माटे लगमग साठ वर्ष पूर्वे नीचेना सद्गृहस्थो तरफथी नीचेनी रकमो अमारी संस्थाने अपावी हती. १५०१, शाह डाह्याभाइ पीतांबरदास, अमदाबाद १००१ झवेरी सौभाग्यचंद सूरचंद, सुरत ५०१ झवेरी साकरचंद सूरचंद, सुरत आ रीतेा प्रकाशन करवानी भावना छतां कालबले ते कार्य न ज चाल्यु. अंते सं० २००४मां तेनो उदय थयो अने प्रकाशननो उद्यम शरु थयो. मेटर तैयार करवा अंगेनो पूर्व भूमिका ने तैयार मेटर एक एवी वात छे के "नहि वंध्या विजानाति गुरवी प्रसव वेदना" ए न्याये महेनतथी तैयार करावायेलु मेटर अमोने गुरुदेवनी आज्ञानुसार मुनिश्रीगुणसागरजी महाराज पासेथी मल्यु अने गुरुदेवनी आज्ञाथी संपादननी जवाबदारी मुनिकंचनविजयजी ( वर्तमान पं. कंचनसागरजी) महाराज तथा मुनि श्रीक्षेमंकरसागरजी महाराजने सोंपी. आ रीते संपादन थतां श्रीअल्पपरिचित - सैद्धान्तिक शब्दकोषनो पहेलो भाग क्रमांक १०१ तरीके बहारपाड्यो. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभय संपादकोए क्रमांक १०० श्रीवंदनप्रतिक्रमणावचूरि, १०२ श्रीआद्यपंचाशकचूर्णी, १०३ श्रीदशवकालिकावचूरि संपादन कर्यां. समचानां वहेण चाले छे ने कुदरत कुदरतनु कार्य करे छे. तेमां सहसंपादक मुनिश्रीक्षेमंकरसागरजी महाराज सं० २०११ मां झेरी जानवरना डंसथी स्वर्गवास थया. आथी सह संपादक तरीके मुनिश्रीप्रमोदसागर जी जोडाया. ते उभय संपादकोए अमारी संस्थाना नीचे मुजबना ग्रन्थो संपादित कर्या. ग्रन्थांक १०४ उत्तराध्ययनावचूरि भा० १, १०५ पिण्डनियुक्ति-अवचूरि, ११२ उत्तराध्ययनावचूरि भा० २ सचित्र, ११५ श्रीअल्पपरिचितसैद्धातिकशब्दकोष भा० २, ११६ श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष भा० ३, १२३ श्रीआवश्यकावचूरि भा० १ (श्रीधीरविमलसूरि), १२५ श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष मा० ४ अने आ १२६ श्रीअल्पपरिचितसद्धान्तिकशब्दकोष ५ परिशिष्ट बे सहित. आरीते अमारी आ संस्थाना संपादन कार्यमां तेमनो परिश्रम छे. आ पाचमा भागमां आ कोष पूर्ण थयो छे. संपादकश्रीए पहेला भागमा अनेक विगतो कोष अंगे आपी छे. अने बाकीनी केटलीक विगतो आ भागना संपादकीमां आपशे. अभारी सस्थामा पूर्वमां झवेरी जीवणचंद साकरचंद संचालनकार्यमां कालजी राखता हता. तेमना स्वर्गवास पछी झवेरी केशरीचंद होराचंद तेमा संपूर्ण रस लेता हता पण काल सर्वभक्षी छे. तेओ पण सं० २०३३ मां स्वर्गे सिधाव्या. एटले ट्रस्टीओ वती बधीए जवाबदारी मारे शीरे आवी. आगमोद्धारकश्री तो उपकारी ज छे. पण संपादकोनो आभार मानीए छीए, तेम ज अमारा कार्यकर्ताओने पण याद करीए छीए. वली पं० श्री प्रबोधसागरजी महाराजे शुद्धीकरण करी आप्यु छे तेमने पण याद करीए छीए. जैनेन्द्रप्रेसना मालिक परमेष्ठदासे पण खंतथी छापी आप्युते बदल तेमने याद करीए छीए. तमोनो स्वर्गवासथतां तेमना चिरंजीवीओए आ कार्यपुर्ण करी आप्यु छे. अर्थात् ते सर्वना अमे ऋणी छोए. जाणे के आजाणे संपादकथी के अमाराथी कांइ क्षति थइ होय तो मिच्छामि दुक्कडं. अमारी अभ्यर्थना ए छे के सुज्ञपुरुषो अमारा आ प्रकाशननो यथायोग्य उपयोग करशे. ए भावना साथे विरमीए छीए. म० सु० २ सोम वि० सं० २०३५ ट्रस्टीमंडल वती मोतीचंद मगनभाइ चोकसी २६-१-१९७९ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थुणं समणस्स भगवो महावीरस्स गुणैकगेहं भविकाजबोध-दिवाकरं शासननायकं च । श्रीवीरदेवं प्रणमामि चन्द्र-कीर्ति सुरेन्द्राय॑ममोहमायम् ॥१॥ इह हि प्रस्फुर्जत्सद्भक्तिसम्भृतहृदयावनम्रसकलसुरासुरमनुजपतिनिकरसंसेव्यमानक्रमकमलेन समवाप्तामलकवल्यालोकावलोकितजगत्त्रयेणापश्चिमतीर्थपतिना समलङ्कृत्य विबुधवरनिर्मितयोजनप्रमितसमवसरणं दत्ताऽनादिकालीनमोहनीयादिलिम्लुचव्रजप्रणाशिनी धर्मदेशना श्रुत्वा यां विनिर्गतमनःशंसयैः श्रीइन्द्रभूतिप्रभृतिद्विजवरैराददे संयममार्गम् । प्रव्रज्यास्वीकृतेरनन्तरं प्रदक्षिणात्रयं कृत्वा सनमस्कारं सप्रश्नयं "भगवन् किं तत्त्वमिति प्रश्नीकृतस्तैर्हरिलाच्छनलाच्छिततनुभंगवान् विनयावनतेभ्यस्तेभ्यः "उप्पन्नेइ वा" "विगमेइ वा" "धुवेइ वा” इति पदत्रयं समर्पित. वान् जिननायकाननकमलादवाप्तपदत्रयरिन्द्रभूतिप्रभृतिभिः बीजबुद्धिसमलङ्कृतः विनिर्मिता 'द्वादशाङ्गी' परमसुभगजिनशासनतत्त्वरूपा। ततश्च भक्तिभरावनम्राणां तेषां शिरस्सु दिव्यवासनिःक्षेपपुरस्सरं तेभ्यस्तीर्थमनुज्ञापयता जगत्पतिना चतुःज्ञानपरिकलितास्ते 'गणधरपदे प्रतिष्ठापिताः' ततो तद्रचना च सर्वसम्मताऽभवत् विनयादिमर्यादापुरस्सरं गुरुवराणां सुभगनिश्रायां यामधीत्य सुसंयमिनश्चारित्राराधनादिविषये निबद्धकक्षाः समभवन् । किन्तु गच्छतिकालेऽवसर्पिणीकालप्रभावतः क्षयोपशममान्द्यतया दुष्कालप्रभृतिकारणश्च 'श्रीदृष्टिवादान्तर्गतपूर्वसंबन्धिज्ञानं' शनैः शनैः विनष्टं, तथापि तदवशिष्टसदागमसाहित्यं रक्षयितु तत्कालवतिभिः परमाराध्य 'श्रीमज्जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणं चतुर्दशशतग्रन्थसौधसूत्रधारायमानभवविरहाङ्कित-'श्रीमद्धरिमद्रसूरिपुरन्दर'-कलिकालसर्वज्ञबिरुद्भुत-'श्रीहेमचन्द्राचार्य'प्रभृति-परमपुरुषैः प्रारब्धः चारुरूपेण सुप्रयत्नः सरलतया जिनसमयसमवबोधार्थ च तदुपरिभाष्यावचूरिचूणिटीकादीन् विरचय्य तत्समयोपलब्धताडपत्रादिषु तत्समयवर्तमानश्रीदेवद्धिगणिक्षमाश्रमणप्रभृतिभिः लेखकः लिखापयित्वा च जिनवर-निगदिताऽगमरक्षायै किल कृतोऽनूनपुरुषार्थः, विहितो महानुपकारश्च, वर्तमानकालीनाऽस्मादृशामुपरि, यदि चेदाऽऽगमज्ञानं नामविष्यत् तदाऽस्माकं श्रेयः कथमभविष्यदिति ? । प्रोत्सर्पद्विषमकालप्रभावतः श्रीमद्वक्रमीयविंशतितमसंवत्सरपूर्वार्धभागेऽस्मिन् श्रीमदागमसत्कप्रतयोऽभवन दुष्प्राप्याः, तदध्ययनमपि स्वल्पतरं च संजातम्, तस्मिन्समये त्रिकालाबाध्यपरमप्रभावि-शासनपुण्यप्रभावतः श्रीमज्जिनशासनगगनदिनमणयः सर्वज्ञप्रणितनि:शेषागममहामाणिक्यरक्षणोधता गीतार्थसार्वभौमा-'श्रीमदानन्दसागरसूरिवृषभा' अनूनोत्साहपरिश्रमपुरस्सरं विविधज्ञानाऽगारतः समवाप्य दुष्प्राप्या अपि श्रीआगमसत्कहस्तलिखितप्रतीन् सदागमसमुद्धरण -रक्षणकचेतसः: 'संशोधितवन्त: श्रीमज्जिनेन्द्राऽऽगमान' । ततश्चाधिकारिमुनिगणेभ्य आगमप्रतयः सुलभाः स्युरागमज्ञानं च सम्यक्तया शभिनोऽवाप्नुयुरिति परमशुभाशयकलितमनसैः परोपकारलीनः श्रीमद्धिरुपदेशप्रदानेन "श्रीआगमोदयसमिति" इत्यभिधां संस्था संस्थाप्य श्रीजिनाऽऽगमान् मुद्रापयितु विहितः सत्प्रयत्नः सफलीभूतः । मुनिवरेभ्यश्च श्रीसूर्यपुरादिषु दत्वाऽऽगमवाचनां विहितः परमोपकार इति । ततोऽपि जैनागमरक्षणकबद्धलक्ष्यः सूरिवरैर्यावच्चिरकालं रक्षणार्थमागमानां 'श्रीमद्विमलाचलोपत्यकायां शीलोत्कीर्णाऽऽगममन्दिरं सूर्यपुरे च ताम्रपत्रोत्कीर्णाऽऽगममन्दिरं च' निर्मापितम् ।। श्रीआगमवाचनाप्रदायकैः सूरिवरैः संभवतः 'श्रीमालवादिप्रदेशेषु' विहरद्भयः श्रीमद्वक्रमीयरस मुनि:ग्रह नभो कलिते संवत्सरे ( षष्ठिवर्षात्पूर्वम् ) जिनाऽऽगमाऽवबोधार्थ "द्विपञ्चाशत्सङ्ख्याका विषयाः' श्रीआगमोदधितः समुद्धृताः। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदवसरे पूज्यवरैरागमविषयकाल्पपरिचित शब्दावबोधाय परमोपयोगीमार्गदर्शककल्पः "श्रीआगमकोषः" विरचनाय तत्तदागमे तद्ज्ञापकं चिह्न कृतं ततोऽयं 'श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष'प्रादुरासीद्, तमुद्रणं जातं इत्यभिधाभृद्भवत्करकमले । यदि मुद्रितोऽयं भवेद् ग्रन्थस्तदा श्रीमज्जिनागमाध्ययनेप्सूनां स्यादतीवोपयोगीति पूज्यानां हृत्कमले प्रादूर्भूता सद्भावना भवितव्यता नियोगतोऽद्य सफलीभवति.......( एतत्सम्बन्धिनिवेदमाद्यभावे गुर्जरभाषानिबद्धप्रस्तावनायां कृतमस्तीति हेतोरत्र न लिख्यते ) । अस्य ग्रन्थरत्नस्य पूर्व प्रेसकोप्यादिषु पू० स्व० मुनिवर्यश्रीमहेन्द्रसागरादिभिः प्रयत्नः कृतोऽभूत् । तत्पश्चात पू० मुनिश्री ( अधुना पंन्यासश्री) सौभाग्यसागरजीः, संशोधनं सम्पादनकार्यस्तु पू० मुनिश्री (पं०) कंचनसागरजी; पू० मुनि श्रीक्षेमङ्करसागराणां समर्पितं तैविहितोऽस्ति प्रशस्यः प्रयत्नः । विभागपञ्चककलितोऽयं ग्रन्थः प्रथमभागे-'आकारादारभ्य औकारान्ताः शब्दाः संगृहीताः सन्ति द्वितीयभागे-ककारतः झकारपर्यन्ताः ततीयभागे-टकारत: पकारावसानाः चतुर्थविभागे-फकारत: वकारान्ताः पञ्चमविभागे-शकारतः हकारान्तः , , , ततोऽप्यवशिष्टाः शब्दाः परिशिष्टे संगृहीताः सन्ति । शब्दकोषेऽस्मिम्' अङ्गोपाङ्ग-छेदसूत्रत्रय-नन्द्यनुयोगद्वारओघनियुक्ति मूलसूत्रचतुष्टय-विशेषावश्यकमाष्यसत्का: शब्दास्तथा च श्रीदशाश्रुतस्कन्ध, प्रकीर्णकदशक-पउमचरिय-उपदेशमाला-तत्त्वार्थसूत्रप्रभृतीणां कतिपयाः शब्दाः अपि सङ्कलिताः सन्ति, द्वितीयपरिशिष्टे देशीयनाममालानां शब्दा गृहीताः सन्ति । रीत्याऽनया ग्रन्थोऽयं सर्वाङ्गसुन्दरः संजातोऽस्तीति सुनिश्चितमेव । श्रीआगमस्थिताः स्वल्पपरिचिता एव शब्दा ग्रन्थेऽस्मिन् संगृहीताः सन्तीति हेतोः ग्रन्थस्यास्य "श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष" इत्यभिधा सार्थकतामातनोति । आगमानां रचयितारः परमोपकारिणी गणभृतादयः, शब्दानां सङ्कलयिताराः श्रीआगमोद्धारकप्रवराः, अकारादिक्रमतया व्यवस्थापकाश्च विद्वज्जनमान्याः मुनिप्रवरा सन्तीति त्रिवेणीसङ्गमाद् ग्रन्थोऽयं महत्त्वपूर्णतामाकलयतीति । श्रीमदागमज्ञानरसिकाः मुनिवराः परमतारकगुरुवर्यसुनिश्रायामागमज्ञानावाप्तिकालेऽस्य ग्रन्थस्य पठनपाठनादिना सविशेषमपयोगं कृत्वा सदाऽऽगमरहस्यमवाप्नुयुरित्यभिलाषापूरस्सरं मतिमान्यादिना यत्किश्विज्जिनाशाविरुद्ध लिखितं स्यात्तस्य मिथ्यादुष्कृतपुरस्सरं च विरमामि । वि० सं० २०३४ अ. सु. ६ लेखकः भौमवासरः परमशासनप्रभावक पू० स्व० आचार्यदेवश्रीचन्द्रसागरसूरिवयं-पट्टधर(श्री महावीरच्यवनकल्याणक दिन:) परमाराध्यचरणाम्बुजपरमतारक-परमोपकारि-पू० गुरुदेव श्रीमद्ओपेरासोसायटी जैन उयाश्रय देवेन्द्रसागरसूरीश्वरपादपद्ममधुलिड् पालडी नरदेवसागरः अहमदाबाद ३८०००७ ( ८ ) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमदानन्दसागरसूरीश्वराः । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोऽथुणं समणस्स भगवो महावीरस्स गुणैकगेहं भविकाब्जबोध-दिवाकर शासननायकं च । श्रीवीरदेवं प्रणमामि चन्द्र-कीर्ति सुरेन्द्राय॑ममोहमायम् ॥१॥ परमतारक,-शासनपति-चरमतीर्थनायकश्रीमहावीर परमात्माए स्वपुरुषार्थबले कैवल्यज्ञान प्राप्त करीने देवरचितसमवसरणमा बिराजी सर्वत्यागप्रधानदेशना आपो. जे सांभलीने श्रीइन्द्रभूति विगेरे ब्राह्मणोए परमात्मा द्वारा पोत गेताना सशयोनु निवारण थतां संयमनो स्वीकार कर्यो. संयम मार्ग स्वीकार्याबाद परमात्माने त्रण प्रदक्षिणा देवा पूर्वक नमस्कार करीने "भयवं किं तत्तं" ? एम त्रण वार प्रश्न करतां विनयावनत श्रीइन्द्रभूति आदिने प्रभुए "उप्पन्ने इ वा” “विगमे इ वा" "धुवे इ वा" आ प्रण पद समर्पण काँ. बीजबुद्धिना स्वामी श्रीइन्द्रभूति आदि अगीयारे आ त्रिपदी पामीने श्रीजनशासनना बंधारणभूत परम तत्त्वस्वरूप श्रीद्वादशांगीनी रचना करी, त्यारवाद परमात्माए तेमना मस्तक उपर दिव्यवासक्षेप करवा पूर्वक तीर्थनी अनुज्ञा करी अने गणधरपदे प्रतिष्ठित कर्या. आथी तेमनी रचना सर्वमान्य बनी. गुरु निथाये द्वादशांगी आगमनु अध्ययन करी श्रमण भगवंतो स्वजीवनने धन्य बनाववा लाग्या. परंतु अवसर्पिणी कालना प्रभाव क्षयोपशममान्धता, दुष्काल आदि कारणोए द्रष्टिवादान्तर्गत पूर्वगतजाननो धीरे धीरे करतां सपूर्णतया हास थतां दृष्टिवादनो संपूर्ण नाश थयो. आधी अवशिष्ट आगमसाहित्यने सुरक्षित बनाववा पूर्वना महापुरुषो श्रीजिनभद्रगणीक्षमाश्रमण, स्कंदिलाचार्य, देवद्धिगणीक्षमाश्रमण आदि तेमज सूरपुरदरश्रीहरि भद्रसूरिजी कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यजी आदिए कम्मर कसी. वली आगमशास्त्रना बोध माटे आगमो उपर नियुक्ति-भाष्य - चूणि-टीका-अवचूरि विगेरे रचनाओ पण थइ हती. त्यारग्छी ते समये उपलब्ध ताडपत्र विगेरे उपर लहिआओ आदि द्वारा श्रीदेवदिगणीक्षमाश्रमण विगेरे सधे लखी लखावी आगमोना क्षण माडे भगीरथ पुरुषार्थ करी अपणा उपर महान उपकार कर्यो छे. जो आगमन होत तो आपणु श्रेयः कवी रीते थात ! विषमकालमां परमतारक 'जिनप्रतिमा अने जिन-आगम' बेज छे. परंतु विषमकालमा वीसमी सदीना पूर्वार्धमा आगम अध्ययन माटेनी प्रतिमो दुर्लम बनी. तेमज आगमशास्त्रानु अध्ययन पण नहिवत् थयु, ते समये शासनना पुण्यप्रभावे जिनशामना आकाशमां तेजस्वी सूर्यसमान-आगमदिवाकर-गीतार्थसार्वभौम-आगमोद्धारक ध्यानस्थस्वर्गत सूरिप्रवर-श्रीआनंदसागरसूरीश्वरजीमहाराजश्रीए स्वपुरुषार्थ बले दुर्लभ आगमप्रति प्राप्त करी तेनु सशोधन कयु. श्रमण भगवंतोने आगमनी प्रतिओ सुपाप्य बने तथा आगमनो बोध सुलभ बने ए पुण्यपवित्र आशयथी "श्रीआगमोदयसमिति" नी स्थापना करारी. श्रीआगमशास्त्रोने मुद्रित कराववाना भगीरथ कार्यनो प्रारंभ कर्यो. जेम जेम आगमो छाता गया तेम तेम मनिभगवंतो आगमज्ञानना अभ्यासी बने ते हेतथी सात सात स्थले सवार बपोर आगम बाचना आपी. श्रमण भगवतो उपर महान उपकार कर्यो, ए एक अनिर्वाच्य सत्य छे. वली आगमना अमूल्यवारसाने चिरकाल सुरक्षित बनाववाना परम शुभ आशयथी श्रीसिद्धक्षेत्रनी जयतलाटीना तलीये पालीताणा नगरे श्रीशीलोत्कीर्ण आगममन्दिर तथा श्रीसूर्यपुरमा श्रीताम्रपत्रोत्कीर्ण आगममदिरनी स्थापना करावी. शीलाओमा आगमो कोरववा मुद्रणनी आवश्यकता आवी ते मुद्रण वखते ३०४१७ ना मोटा लेजर पेपरमां पण आगमो मूल छपाव्या. आथी ते आगममंजूषा थई, ए रीते आगमोने चिर स्थाइ बनाम्या, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमवाचनाना दाता श्रीआगमोद्धारकश्रीए मालवादि प्रदेशमा विचरतां सं० १९७६ लगभग ( एटले आजथी लगभग ६० वर्ष पूर्व ) श्रीआगमो पर आगमविषयक ५२ जुदा जुदा विषयोनी तारवणी करवानां निशानो कर्यां. ते समये दीर्गद्रष्टा पूज्य सूरिजीए आगमोना ज्ञान माटे अत्यंत उपयोगी मार्गदर्शकनी गरज सारता "श्रीआगमकोष" नी पण सकलना फूलनु निशान करीने करी हती. जे आजे "श्रीअल्पपरिचितसैदान्तिकशब्दकोष" ना नामाभिधान साथे अपना करकमलमां शोभी रहेल छे. पू० आगमोद्धारकश्रीए ज्यारे "श्रीआगकोष" नी संकलना करी त्यारे जे निशानीओ करी हती तेना तेना आधारे पूज्यश्रीनी सलाहने अनुसार लहीआए एक एक आगम लइने ते ते शब्दोने जुदी जुदी कापलीओ उतारवी शरु करी. बावन विषयोना कागलो अने शब्दकोषनी कापलीओ एरीते तैयार थई. आ शब्दोनी कापलीओनी भरेली पेटीओने सं० १९८९ मां सुरतना चातुर्मासमा गति मली वर्तमानगच्छाधिपतिमादिना समुहे तेनो अकादिक्रम को अने कागलो पर अकारादिक्रमे ते चोडी. पछी ते उपरथी प्रेसकोपी नवेसरथी लखावाइ. आ रीते तैयार थयेला "आगमकोष" ने मुद्रण कराववानी भावना गुरुदेवने हती-कारणके तेओश्री तेनी अतीव उपयोगीता समाजता हता. पण समये ते कार्यने तारकालिक गति न आपी. भवितव्यताने योगे तेमां त्रण दशका वीती गया. अने सं० २००४ मां शे० दे० ला० ६० तरफथी छपाववानु शरु थयु. त्यारे पुनः तेने ग्रन्थो साथे मेलववानु कार्य वर्तमान पं० श्रीसौभाग्यसागरजी म. ने सुपरत थयु. स्वरसुधीनो भाग तेओश्रीए तैयार कार्यो. संपादन कार्य गुरुदेवनी आज्ञाथी वर्तमान पं० श्रीकंचनसागर मुनिश्रीक्षेमकरसागरजीने सोंपायु अने तेमने संपावन शरु कयु. कोषना शब्दो मेलववानो मार्ग गुरुदेवश्री पासेथी श्रीमान् सौभाग्यसागरजी म. मेलव्यो हतो पण संपादकने ते मार्गनो अनुभव न हतो पण चालता संपादन कार्य मेलववानी जवाबदारी पण संपादकोने माथे आवी. संपादकोने शब्दों मेलवतां नीचेना ग्रंथोना शब्दो नथी आवता तेम समजायु. ते ग्रन्थो-१ रायपसेणि, २ उपासकदसा, ३ निरयावलिका, ४ नंदी अने ५ नायाधम्मकहा हता. तेमां नायाधम्मकहा सिवायनां प्रन्थो तो गुरुश्रीना निशानोवाला मल्या. आथी आगमोना शब्द सहेज उतारी शकाया पण आगमोद्वारकश्रीना निशानवाली नायाधम्मकहानी प्रतनि प्राप्ति न यतां संपादकश्रीने गुरुमहाराज स्वर्गे सीधाग्या हता एटले स्वबुद्धि अनुसार शब्द तो लेवाज ए सिद्धान्त पर आववु पड्य, ने तेमने ते प्रयत्न कर्यो ने शब्दो ते आगमना उतारीने कोषमां मेलव्या. आ रीते आ कोष आगमोवारकश्रीनी रचना रूपे नहि पण संकलना रुपे थयो. आ कोषनु नाम “अल्पपरिचितसैवातिकशब्दकोष" राखवानु कारण ए छे के आ प्रन्थमां श्रीआगमना अतीव उपयोगी एटले अल्पपरिचित शब्दोने ज स्थान आपवामां आवेल छे. जोके पाकृत शब्दो माटे श्रीअभिधानराजेन्द्रकोष" तथा "पाइयसहमहण्णवो" वगेरे छे छतां पण या ग्रन्थमा आगमिकशब्दोनी टीकाकारे करेली व्यख्या छे, एथी आगमिक शब्दो माटे तेना अर्थने समजवा माटे अति उपयोगी थशे. ए निःशंशय बाबत छे. आगमिक अवबोधमा दीपकनी गरज सारतो आ ग्रन्थ पांच विभागमां वहेंचायेल छे. ते ते मागो नीचे प्रमाणे छे, प्रथम भागमा "अथी औ" सुधीना शब्दो द्वितीय भागमा "कथी झ" सुधीना शब्दो ( १० ) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भागमां " टथी प" चतुर्थ मागमां 'फथी व" पंचम भागमां "शथी ह" तेमज परिशिष्ट पहेलु अवशिष्ट शब्दो परिशिष्ट बीजु देशीनाममालाना शब्दोनुं आ ते आग्रन्थ पांच भागमा पूर्ण थाय छे आ "श्रीअल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोष" मां ११ अंगो, १२ उपांगो, ३ छेदसूत्रों (बृहत्कल्प, व्यवहार अने निशीथसूत्र ) ४ मूलसूत्रो, १ नंदी, १ अनुयोगद्वार १ ओर्घनियुक्ति, १ विशेषावश्यक अने दशवेकालिकचूर्ण, विगेरेना शब्दोनो संग्रह करवामां आवेल छे तेमज श्रीदशाश्रुतस्कंध - श्रीदशप्रकीर्णक- पउमचरियं - उपदेशमाला अने तत्त्वार्थसूत्रना केटलाक शब्दो पण लेवामां आवेला छे. आ रीते आ ग्रन्थ पांचभागमां सर्वांग सुंदर बनेल छे. आ ग्रन्थमां कोइ जग्याए विभक्तिसहित के विभक्तिरहित अपायेल शब्दो माटेनी योग्य विगतो प्रथमभागनी प्रस्तावनाथी जाणी लेवी, कोइ ठेकाणे एवु पण बन्युं छे के शब्दोनी तथा शब्दना अर्थोनी शैलीमां थोडी अव्यवस्था थयेल छे. छतां पाछलथी अनुभव थतां, ते दरेक बाबतमां यथोचित व्यवस्थितता साचववा माटे कालजी पूर्वक प्रयत्न करायल छे. प्रान्ते एटलु जणाववानु के समवसरणमा बिराजी बार पर्षदा समक्ष देशना अमृतने बरसावता श्रीजिनेश्वर भगवंतना मुखकमलथी नीकलती वाणी श्रवण करी श्रीगणधर भगवंतोए श्रीद्वादशांगीनी रचना करी, एटले के द्वादशांगीना रचयिता गणधर भगवंत छे. एम आगम शास्त्रोमांथी शब्दोनी तारवणी करी तेना व्यवस्थित बोध माटे संकलना करनार श्री आगमतत्त्व पारदश्री आगमोद्धारक प० पू० आचार्य भगवंतश्री छे. अने ए पूज्यश्रीनी संकलनाने अकरादिक्रमबद्ध गोठवी व्यवस्थित करनार पू० विद्वद्वर्य मुनिवरो छे. आम आ ग्रन्थमां त्रिवेणीनो सुन्दर संगम थयेलो जोवा मले छे. जेथी आ ग्रन्थ पूर्ण महत्त्वने प्राप्त करे छे. अने विद्वद्भोग्य बने छे । शासनना मुनिवरो वगेरे माटे आ ग्रन्थ भोमियाजी गरज सरनार वनशे. पू० मुनिवरादि पठन पाठनादि द्वारा आ ग्रन्थनो वधु ने वधु उपयोग करी स्व- पर कल्याण साधक बने एज एकज शुभाभिलाषा. "गच्छतः स्खलनं” पंक्ति अनुसार छस्थता, मुद्रणादि कारणे पाठकोने खास विनंति के - आमां रहेल क्षतिओ जो जणावशो तो पुनः आपथमां आवशे. सुधीना शब्दो सुधोना शब्दो वि० सं० २०३४ अ० शु० ६ श्री महावीर स्वामिच्यवनकल्याणक दिने, ओपेरा सोसायटी, जैनउपाश्रय पालडी, अमदावाद ३८०००७ प्रस्तावना अंगे खास विनम्रभावे जणाववानु के प्रस्तावना लखवा बाबतमां मारो अनुभव नहीवत् होवा छतां ननसारी चातुर्मास बाद बिलिमोरामां महोत्सव प्रसंगे प० पू० पं० श्रीकंचनसागरजी म० तथा मुनिश्री - प्रमोदसागरजी म० नु सुभगमिलन थतां तेओश्रीए आग्रंथनी प्रस्तावना अंगेनु कार्यमने सुपरत कयुं - पूज्यश्रीनो आग्रह तथा मारा पू० गुरुदेव श्रीनी आज्ञा मलतां आ प्रस्तावनानु' आलेखन कयुं छे. प्रथम प्रयास होवाथी, थयेल क्षति बदल क्षमायाचना साथे जिनाज्ञा विरुद्ध लखायुं होय ते बदल "मिच्छामि दुक्कडं" पुरस्सर आ प्रस्तावना समाप्त करु' छु . लि ( ११ ) थयेल क्षतिओ बदल क्षमायाचना पूर्वक मुद्रणादि अवसरे ते उपर जरूर ध्यान परमशासन प्रभावक स्व० पू० आचार्यदेव श्रीचन्द्रसागरसूरिवर्य पट्टधर परमाराध्य चरणाम्बुज परमतारक गुरुदेव श्रीमदाचार्य प्रवर श्रीदेवेन्द्रसागरसूरिवर्य पादपद्म नरदेव सागर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमो वीतरागाय ॥ यत् किंचित् आ प्रकाशननु नाम श्रीअल्पपरिचितसैद्धांतिक शब्दकोष छे, तेना भाग ५ छे. अने ते शे० दे० ला जै० पु. ग्रन्थांक १२६ तरीके प्रसिद्ध करीए छीए. आ ग्रन्थना संकलनकार ध्यानस्थस्वर्गगत आगमोद्धारक आचार्य श्रीआनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज छे. तेओ श्रीए आ संस्थानी स्थापना सं० १९६४ मां करी हती. शे० दे० ला० ना कूटम्बना धनथी आ संस्थानी स्थापना थई छे. तेनो मूल उद्देश ए हतो के मुद्दल रकम कायम राखी, तेनी आवक मांयी ग्रथ छपाववा. ते पण ५० वर्ष पूर्वेना होय तेवा छपाववा. अने ते पडतर कीमतथी अडधी कीमते वेचवा. आ रीते आ संस्थानु कार्य आजसुधी चाल्यु छे. आ संस्था सदर पुस्तकने १२६ मा ग्रन्थांक तरीके प्रमट करे छे. ते पहेलाना चार भाग ग्रयांक १०१, ११५, ११६ अने १२६ तरीके बहार पाडवामां आव्या हता. आ पांचमा भागमा आ कोष पूर्ण थाय छे. तेमां रही गयेला शब्दोन एक, अने देशीनाममालाना शब्दोन एक एम बे परिशिष्ठ आप्यां छे. ग्रन्थ उत्थान:-आगमोद्धारकथीए सं० १९७२ पछौना समयमा आगमोना बावन विषयोना बावन अंक पाड्या हता. अने शब्दकोषनु निशान फूदडीथी कयु हतु. तेओश्री पासे रहेलो लहियो ते ते विषयो अने कोषमा केटलु राखवु ते ते जाणतो हतो . शब्दकोषने अकारादि करवानु काम वर्तमान गच्छाधिपति आ०श्रीहेमसागरसूरिमहाराज, मुनिश्रीगुणसागरजीमहाराज, मुनिश्रीमहेन्द्रसागरजीमहाराज वगेरे। कयू अने पछी ते परथी "प्रेसकोपी तैयार करावामां आवी हती. आप्रेस कोपी छपाववा माटेनी जरूरी द्रव्य आगमोद्धारकश्रीए सं० १९७६ मां भेगी करावी हती. पण तयार करेली प्रेस कोपी छपाववानो सुअवसर सांपडयो नहीं. छेवटे आ अवसर स० २००४ मां प्राप्त थयो. पचास वर्ष पूर्वेनी रचना अगेनु जे बंधारण हतु ते आ ग्रंथने लागु पाडावामान आव्यु, कारण के आ कोई स्वतन्त्र रचना नथी पण संकलना मात्र छे... हवे प्रेसकोपीने ग्रंथो साथे मेलववानी आवश्यकता हती. तेथी आ कार्य पंन्यास श्रीसौभाग्यसागरजीने सोपवामां आल, कोपीने स्वरादि प्रमाणे तयार कर्या पछी तेना संपादन काम मुनिश्रीकंचनविजय ( वर्तमान पंन्यास कंचनसागरजीने ) तथा स्वर्गस्थ मुनिश्रीक्षेमंकरसागरजीने सोंपायु. आ काम पर नजर नाखी जवानु कार्य पट्टधर आचार्य श्रीमाणिकसागरसूरीश्वरमहाराज करता हता. नामः-आगमोना बधा शब्दो लेवानु योग्य मानवामां न आव्यु होवाथी अल्पपरिचित शब्दोनो संग्रह करवो अने वली आगमोनाज शब्दो लीधेला होवाथी आ ग्रथन्नु नाम अल्पपरिचित सैद्धान्किशब्दकोष राख्य छ, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेसकोपी:- चिट्ठीओ चोडी अकारादि करी प्रेसमेटर तैयार करेवानु काम श्रीसौभाग्यसागरजी करता हता. ते काम सं० २००५ सुधी वाल्यु कोपी तैयार थया पछी तेनुं संपादन काम अमारा माथे आव्यु. ज्यारे मेलववानुं कार्य अमारी पर आव्यु त्यारे मालूम पड्यु के अमुक आगमोना शब्दो नथी एटले ते शब्दोनो संग्रह अमे करवा मांड्यो. वली, ज्ञाताजीना शब्दो पण संग्रह करेला न देखाया. तेथी ते शब्दो पण अमे लीघा. वली केटलीक कापलीओ अधूरी हती ते पण अमे गुरुमहाराजनी देखरेखमां पूरी करवी हति पछी तेमनी निश्रामां व्यवहारनी कापलीओ में, मुनिप्रबोधसागरजी अने मुनिक्षेमंकरसागरजीए उतारी पछि अकारादि वगेरेनु कार्य अमे नवेसरथी कयु. ते पछी लहिया पासे लखावी प्रेस कोपी तैयार करावी. आमां ठीकठीक महेनत करवी पडी हती. कुदरती विघ्नः - कोषनुं संपादन कार्य हुं मारा सहसंपादक श्रीक्षेमंकरसागर साथे करता हता. तेवामां सं० २०११ मां श्रीक्षेमंकरमागरजीने रात्रे झेरी जानवर करडवाथी स्वर्गवासी थयो. एटले बधी जवाबदारी मारा पर आवो. पण गुरुमहाराजना प्रतापे प्रेसकोपी तो तैयार थई. सं० २००६ में श्रीगुरुमहाराज स्वर्गवास यो हतो एटले अमुक आवश्यक माहिती असे अमारी बुद्धि प्रमाणे भेगी करी छे. प्रेस कोपीमां अमे मूल शब्दनी विभक्ति मोटे भागे काढी नाखी छे. छापत्रानुं कामः- आ कोषनो प्रथम भाग सं० २०१२ मां बहार पडयो ( जोके ओ माग पांच वर्ष हेलां बहार पडिशक्त ) त्यार पछी सं० २०१५ - २०१६ माँ चालु थयु आयो धारेधारे छगनां बीजो, त्रीजो अने चोथो भाग बहार पड्या. ए भागो जैनेन्द्र प्रेस, ललितपुर मां छपाया, आ कार्यमा प्रुफ जोवानु सहकारी पण मुनिप्रमोदसागरजी ए पण कळे हतु तेनी नोंधलेता आनंद थाय छे. बुद्धिः - हुं पोते व्याकरणादिनो ऊंडो अभ्यासी नथी. एटले व्याकरकारनी अपेक्षाए केटलीक क्षतियो रही हशेज. शब्दक्रम :- मूल शब्दो मोटे भागे अर्धमागधी छे. टीकाकारे लोधेला केटलाक शब्दो संस्कृतना पण छे. स्वरादि क्रमे प्रथम शब्द कोपी तैयार करी हती. तेज क्रम बधा भागमा राख्यो छे. रीतिः -- शब्दकोषमां मूल शब्द अने तेनो टीकाकारे करेलो अर्थ जे ग्रन्थना जे पाना पर होय ते ग्रन्थ नेते पातुं असे आव्यु छे. विशेष मानाके सामान्य नाम अंग्रेनी कोई कोई माहिती अमे आपी छे. शब्दकोष : आम तो संस्कृत, प्राकृतना पुराना तेमज नवीन शब्दकोष अनेक उपलब्ध छे. ए पैकी केटलाक नामो प्रो० हीरालाल कापडियए नौवेलां छे तेनो पण अहीं उल्लेख अत्रे कर्यो छे. श्री अभिधानचितामणि सटीक कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरि, निगंदु, एकार्थमंजुषा, नामशेष, अकारादिनामसंग्रहः अमरकोष सटीक पाइयलच्छोनाममाला, देशीनाममाला, धनंजयनाममाला, लघुतमनामकोष ( आगमोद्धारककृत ) वगेरे, कोष छे. शब्दार्थचितामणिकोषमां शब्दनो पदच्छेद करीने दर्शावे लो छे. अभिधानराजेन्द्र ७ मागमां छे तेमां प्रकरणनां प्रकरणो ते ते शब्दमां लीनां छे. पाइयसद्दमहण्वो मां प्राकृत शब्दोनो हिंदीमां अर्थ आपेलो छे. शब्दकल्पद्रुप भाग १ थी ५ मां प्रायः हिंदीमां अर्थो आपेला छे, शब्दरत्नाकर, शब्दादर्शमां संस्कृतना अर्थ गुजरातीमां छेः शब्दरत्नमहोदधिमां संस्कृतना अर्थ गुजरातीमां छे. आगमशब्दसंग्रह तथा शब्दार्थसिन्धु वगेरे अन्य कोषो छे. अभिधानचितामणि गुजराती भाषांतर साथै त्रण बार बहार पड्यो छे. धनंजय नाममाला पण गुजराती अर्थ साथै छे. लघुतमनाममाला ( गुजराती भाषांतर साथ छपाई छे. ) अने अमरकोष पण भाषांतर साथै प्रकाशित थयो छे. ( १३ } Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोषअंगे केट लुक :-जैनागमोमां नियुक्तिकार म० नामना शब्दो टूटापाडीने व्याख्या करछे अने तेना पर्यायो आपे छे. (जेमके:-आवस्सयसुयकखंध) तेमां आवस्सय, सूय अने कखंध त्रण शब्दोनो अर्थ बतावी तेना पर्यायो आपवामां आवे छे. आनुयोग द्वारमा आरितेनी संपूर्ण विगत समजा वेली छे. गुजरातीना समर्थ लेखके पोताना सरस्वताचंद्र ग्रंथमाँ पण पर्यायोनो प्रयोग कर्यो छे. कोशनी विशेषता :-अमे एकज शब्दना जुदा जुदा स्थान पर कया कया पर्यायो अने अर्थ बताये छे तथा टीकाकारो तेना कया कया अर्थ करे छे ते आमां देखाडयं छे जेम 'से' अथ अर्थमां आवे ने "ते" ना अर्थमां पण आये; 'नो' सर्व निषेधमां आवे ते मज नो अल्पनिषेधमां पण होय. मतलेबके आवी हकीकत सूक्ष्मरीते विचारवामां अत्रे आवी छे. कोशनी वीजी विशेषता ए के जुदा जुदा टोकाकारे अमुक शब्द कया कया अर्थमां वापर्यो छे ते पण अत्रे छे. ( सिंधव नो अर्थ 'मोटु' तेमज 'घोडो' पण थाय. अटले संदर्भ देखीने अर्थनो आलेख करवामां आवे छे. ) आवो संदर्भ ध्यानमां न लेनार पटेल गोपालदास जेवी भूल करी बेसे छे. हरी आयो हरो उपन्यो, हरी पुंठे हरी धाय । हरी गयो हरी विशे, हरो बेठो वाखाय ।।१।। __ उपरना दुहामां 'हरी' शब्दना भिन्न भिन्न अर्थ ध्यानमां लेवा जोइए; हरि वरसाद; देडको; साप, पाणी, साप वगेरे... संस्था साथेनो संबंधः-श्री अमारा गुरुदेवनी निश्रामां आ शब्दकोशनी कोपी मूनि श्रीगुणसागरजी महाराज साहेबे शेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंडना संपादकीय विभागना संचालक झवेरी जीवणचंद साकरचंदने आपी हती. अने आ कोषनु संपादन कार्य गुरुदेवे अमने सोंप्यु हतुं. आ संपादन कार्यमां मने मुनिश्रीक्षेमंकरसागर महाराजनो लाभ मल्यो हतो. अटले श्रीअल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोष भाग पहेंलो संस्थाना ग्रंथांक १०१) तरीके चालु थयो, आ उपरांत संस्थाना ग्रंथांक १००, १०२, १०३ मां पण अमे उभयसंपादकोए काय कर्यु छे. श्रीक्षेमंकरसागर महाराजश्रीनो कालधर्म थवाथी ग्रंथांक १०५, ११२, ११५, ११६, १२५, १२६, आ दिनुं संपादन कार्य मारा माथे आव्युहतं. तेना प्रफ कार्यमां मुनिश्रीप्रमोद सागरजीनो सहकार मलयो हतो. मारी संपादनामां शुद्धिपत्रक पं० श्रीप्रबोधसागरजीए कर्यु हतुं. १२३ ग्रंथांकनु संपादन कार्य मुनिश्रीप्रमोदसागरजीए कर्यु हतु तेनीनोंध लइए छोए. आ संस्थाना संचालन विभाग कार्य वर्षो सुधी शेठ जीवणचंद साकरचंद झवेरीए कर्य हतं. तेमना स्वर्गवास बाद आकार्य श्रीबाबुभाई उर्फ केशरीचंद हीराचंद झवेरीए संभाल्यं हतुं. बाबुभाईने ने प्रकाशनमां ऊंडो रस हतो. पण बे वर्ष पहेलां आ भाई पण स्वर्गवासी थया छे. आथी हालमां संस्थाने संपादनकार्यमां खूब मुसीबत अनुभववी पडे छे. ऋण स्वीकार :-आ कोषनाकार्यमां अमने श्रीगुरुदेव उपरांत अनेक सज्जनोनो सहकार प्राप्त थयो छे. ते पैकी मुनिश्रीगुणसागरजी, जीवणभाई, केशरीचंदभाई, मोतिचंदभाई मुनिक्षेमकरसागरजी, मुनिश्री प्रमोदसागरजी, पन्यास श्रीप्रबोधसागरजी, वगेरे मुख्य छे. बालुभाई हंसराज लालने पहेलो भाग छापी आव्यो. बीजा चार भाग जैनेन्द्र प्रेस (ललितपुर) ना संचाले के छाप्या छे. आ सौना अमे ऋणी छीए. कोषछपाववामां प्रथम पैसा आपनारना पण रुणी छीए. ( १४ ) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार भागमां शुद्धिपत्रक आपवामां आव्यां छे. परंतु पांचमा भागमां शुद्धिपत्रक संजोग आधिन आपी शका नथी तो उपयोग करनारे क्षतिने ध्यानमा राखीने उपयोग करवा विनंती करीए छेए. आगमोद्धारकीनो आ परिश्रम आगमना अभ्यासिओने उपयोगी थइ पडे ते माटेनो छे. तो अभ्यासिओ तेने सार्थक करसे एवि मारि अभ्यर्थना छे मे मारि मति अनुसार जे प्रमाणे मारी बुद्धि चालि ते प्रमाणे आने सुन्दर बनाववानो अने शुद्धकरवानो परिश्रम कर्यो छे. जेम जेम अनुभव थतो गयो तेम तेम शुद्धारो कर्यो छे. आटलं छतां पण भले आ नामारु संपादन क्षतिवालु होय पण सज्जनो ते क्षतिने सुधारे अने सद्उपयोग करे तेवि अभिलासा छे. धाम दृष्टिदोषथी प्रेसदोषक्षा के बीजा कारणथी कांइया सिद्धतिविरुद्ध लखायु होय तेनो हु मिच्छामि दोक्कडं दउं छु. गुरुमहाराजनातो अनन्य उपकारज छे पण जेओ जेओए अमने सहकार आप्यो छे ते बधानो पण अत्रे आभार मानिए छीए. २०३५ मकरशक्रांति रविपुष्य ( १५ ) लि० आगमोद्धारक उपसंपदाप्राप्त चरणरेणु कंचनसागर Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आ. स. संज्ञापत्रकम क्रमांक संज्ञा सूत्रनाम संपादकः प्रकाशकः १ अनु. मल्लधारगच्छीयश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितवृत्तियुक्तं श्रीअनुयोगद्वारसूत्रम् । आगमोद्धारकः दे. 'ला. जं. २ अनुत्त. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुत श्रीअनुत्तरोपपातिकदशाङ्गम्। ३ अन्त. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीअन्तकृद्दशाङ्गम्। ,, आ. स. ४ आउ. श्रीआतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णकम् (गाथा) । आ. स. ५ आचा. नियुक्तिकलितशीलाङ्काचार्यविहितवृत्तियुतं श्रीआचाराङ्गसूत्रम् । , , आ. स. ६ आव. नियुक्तियुतभाष्यकलितश्रीभवविरहहरिभद्रसूरिविहितवृत्तियुतं श्रीआवश्यकसूत्रम् । आ. स. ७ उत्त, नियुक्तियुतानि वादिवेतालश्रीशान्तिसूरिसूत्रितवृत्तियुतानि श्रीउत्तराध्ययनानि । दे. ला. जै. ८ उप.मा.मा. श्रीधर्मदासगणिब्धा श्रीउपदेशमाला (गाथा)। १ उपा. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीउपासकदशाङ्गम्।।, आ. स. १० ओघ. भाष्ययुता श्रीद्रोणाचार्यसूत्रितवृत्तिविभूषिता श्रीओघनियुक्तिः । , आ. स. ११ औप. श्रोचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसरिसूत्रितविवरणयुत श्रीऔपपातिकोगङ्गम्।, आ. स. १२ ग. श्रीगच्छाचारप्रकीर्णकम् (गाथा)। आ. स. १३ गणि. श्रीगणिविधाप्रकीर्णकम् (गाथा)। आ. स. १४ च उ. श्रीचतुःशरणप्रकीर्णकम् (गाथा)। आ. स. १५ जं. प्र. उपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रविहितवृत्तियुतं श्रीजम्बूद्वीपप्रजप्त्युपाङ्गम्। ,, दे. ला. जं. १६ गावा श्रीमलगिर्याचार्यसूत्रितविवरणयुतं श्रीजीवाजीवाभिगमोपाङ्गम् । ,, १७ ज्ञाता. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवमूरिसूत्रितविवरणयुतंश्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् । ,, १८ ठाणा. श्री चान्द्रकुलीनाभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीस्थानाङ्गसूत्रम् । आ. स. श्रीतन्दुलवैचारिकप्रकीर्णकम् (गाथा)। ., आ. स. २० तत्त्वा . भाष्योपेतं श्रीतत्त्वार्थसूत्रम् ( अध्यायः, सूत्रम् )। ., ऋ, के. २१ दर. नियुक्तिभाष्योपेतं श्रीभवविरहहरिभद्रसूरिविरचितविवरणयुतं श्रीदशवकालिकसूत्रम् । . दे. ल. ज. २२ दश चू. श्रीदशवकालिकचूणिः । हस्तपोथी जै. पु.नं.१६७६ २३ दशाश्रु. श्रोदशाश्रुतस्कन्धः । , आ. स. २४ देव. श्रीदेवेन्द्रस्तवप्रकीर्णकम् । आगमोद्वारक: आ. स. १. दे. ला. जै. =शेठदेवचन्द्रलालभाईजैनपुस्तकोद्धारफंड । २. आ. स.=श्रीआगमोदयसमिति । ३. ऋ. के.=शेठऋषभदेवजीकेशीमलजी, रतलाम । ४. जै. पु. नं. =श्रीजनआनंदपुस्तकालय, सुरत, हस्तपोथी । is to Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ नंदी. श्रीमलगिर्याचार्यविहितवृत्तियुतं श्रीनन्दीसूत्रभ । आगमोद्धारक: आ. स. २६ निरय श्रीचन्द्रसूरिविरचितवृत्तियुतं श्रीनिरयावलिकापंचकम् । श्रीदानविजयगणी वीर.५ २७ नि. चू. प्र. भाष्यचूर्युपेतस्य श्रीनिशीथसूत्रस्य प्रथमो विभागः हस्तपेथो जै.पु.नं. ४८३ २८ नि. चू. द्वि. , द्वितीयो " " जं.पु. नं. ४८४ २६ नि. चू. तृ. , तृतीयो ,, , जै.पु. नं. ४८५ ३० पउ. श्रीविमलाचार्यविरचितं 'पउमचरिय' (उल्लासः) प्रो,हर्मनजेकोबी 'ज. ध.. ३१ पिंड,पिण्ड भाष्यश्रीमलयगिर्याचार्यविहितवृत्तियुता पिण्डनियुक्तिः आगमोद्धारकः दे. ला. जै. ३२ प्रज्ञा. .श्रीमलयगिरिसूरिविहितविवरणयुतं श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गम् । , आ. स. ३३ प्रश्न. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवमूरिसूचितविवरणयुतं श्रीप्रश्नव्याकरणाङ्गम् । आ. स. ३४ बृ. प्र. नियुक्तिभाप्यटीकोपतस्य श्रीबृहत्कल्पसूत्रस्य प्रथमो विभाग: हस्तपोथी जै.पु.नं. ३०३ ३५ वृ. द्वि. द्वितीयो , जै.पु.नं. ३०४ ३६ बृ. तृ. तृतीयो ,, ,.. जै.पु.नं. ३०५ ३७ भक्त. श्रीभक्तपरिज्ञाप्रकीर्णम् (गाथा)। आगमोद्धारक: आ. स. ३८ भग. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्यभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीभगवतीसूत्रम् ( श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तिः ) । आ. स. ३६ मर.मरण. श्रीमरणसमाधिप्रकीर्णकम् (गाथा) । आ. स. ४० मह. महा श्रीमहाप्रत्याख्यानप्रकीर्णकम् (गाथा )। आ. स. ४१ राज. श्रीमलयगिर्याचार्यसूत्रितविवरणयुतं श्रीराजप्रश्नीयोपाङ्ग। ,, आ. स. ४२ विपा. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीविपाकश्रुताङ्गम् । ४३ विशे. मलधारिश्रीहेमचन्द्रसूरिविरचितबृहवृत्तियुतं श्रीविशेषावश्यकभाष्यम् । पं. हरगोवनदास: य. जे. ४४ व्य. प्र. नियुक्तिभाष्यटीकोपेतस्य श्रीव्यवहारसूत्रस्य प्रथमो विभाग हस्तपोथी जै.पु.नं. ४८७ ४५ व्य. द्वि. , , , द्वितीयो ,, , जै.पु.नं. २६६ ४६ सं. श्रीसंस्तारकप्रकीर्णकम् (गाथा)। आगमोद्धारक: आ. स. ४७ सम. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीसमवायाङ्गम् । आ. स. ४८ सूत्र. नियुक्तिभाष्यशीलाङ्काचार्यविरचितविवरणयुतं श्रीसूत्रकृताङ्गम् । ,, आ. स. ४६ सर्य. श्रीमलयगिरिसूरिविहितविवरणयुतं श्रीसूर्यप्रज्ञप्त्युपाङ्गम्। , आ. स. आ.स. ५. वीर.=श्रीवीरसमाज, अमदावाद । ६. ज. ध. श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा, भावनगर । ७ य. जै. श्रीयशोविजयजीजैनग्रन्थमाला । ( १७ ) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XX w . २३१ ० ० 15 १८६ २१ ० 30mn Grn x < 0 ० १५५ ० ६२८ ९३८ १३ पत्राङ्कसूच। श्रीआचाराङ्गम् श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् प्रथमःश्रुतस्कंधः अध्ययनानि पत्राणि अध्ययनानि पत्राणि शतकानि पत्राणि प्रथमः श्रुतस्कंधः अध्ययनानि पत्राणि अध्ययनानि पत्राणि ८१ ४ १२१ ७ ४१५ १६ ७१६ १ ७७ १४१८ ४४३ १७ ७३१ २ १०४६ १५३ - ४६६ ७६० ३ १६५ १० ५२८ १६ ७७३ १७५ श्रीसमवायाङ्गम् २० २५८ ८ २६६. १० १६५ विषयः पत्राणि २२ १२० १. ३१७ ११ २०७ सागरोवम-कोटाकोटी १०५ २३ द्वितीयः श्रुतस्कंधः १२ २२६ गणिपिटकं ११३ २४ ८५१ १६६ चूला-१ २४० अवसरपिणि १५२ २५ १७० ३५८ १४ २५२ निगमनम् १६० २६ ६३७ १७३ ३७४ १५ २६० १७७ ३८४ १६ २६६ श्रीभगवतीजी ६३६ १८२ ३६१ शतकानि पत्रं १४१ १६२ ३६८ द्वितीयः श्रुतस्कंध: १ ६४८ १५ १६५ ४०१ ३०३ ४०६ ३४२ ६५३ चूला-२ ४२७ २०६ २४२ ,, ३ ४२६ ४ ३७० ९७० १६ २४५ , ४ ४३२ ५ ३८५ -:- ६ ४०५ ७ ३२७ ९७१ द्वितीयः श्रुतस्कंध: श्रीसूत्रकृताङ्गम् ४ ४२४ ६७१ १-१० २५४ ४६२ १७१ प्रथमः श्रुतस्कंध: श्रीस्थानङ्गम् ५०८ १७१ श्रीउपाशकदशाङ्गम् अध्ययनानि पत्राणि ५५२ ९७५ १ ५२ १ ३८ । ५९२ ४१ १८१ १-० ५४ ६२६ -:६५८ श्रीअन्तकृशाङ्गम २८६ १५ वर्गाः पत्रं ३८० १४ १०८ १५२ २०२ २२६ २३४ Mmm xxur, २४६ २८६ ९७१ ४० ३५२ ( १८ ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक दशाङ्गम् वर्गाः १-३ विषय: सूर्याभ: यानविमानादि ४४ श्रीप्रश्रव्याकरणाङ्गम् कुटाकारदृष्टान्त: ५६. स्नानपूजादि ११३ अध्ययनानि पत्रं मोक्षवर्णन १५० २५ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ & १० पत्रं ८ -- ४१ ६४ ६० -- ५ श्रीविपाकश्रुताङ्ग ६ 19 हद ११३ प्रतिपत्तयः १२१ १ १२६ २ १४१ ३ १६५ ४ प्रथमः श्रुतस्कंध : १ ३३ तः ४४ २-१० ८८ द्वितीयः श्रुतस्कंध : १-१० ६६ 11 पत्र विषयः राजधाण्यादि २४ साधुगुणाः ४८ पर्षन्निगमं ७७ सिद्धवर्णनं ११६ श्रीराज प्रश्नीयं श्रीजीवाजीवाभिगमं ८ ह पदानि १ श्रीपपातिकसूत्रम् २ ३ पत्रं १७ ४ ५ पत्र ५५ ८८ ४०७ ४०६ ४२६ ४२८ ४३१ ४३२ ४६७ -- श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गम् पत्रं पदानि ७० ११२ १६७ ६ 6. ८ ह १५ १६ १७ १८ १६ १० ११ १२ १३ २८८ १४ २० २४ २२ २३ २४ २५ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति: पत्र पदानि पत्रं वक्षस्कारा: पत्रं १७८ २०३ ११८ २६२ ३१६ ३२६ ३७३ ३६४ ३६५ ४०७ ४३४ ५२ ४६१ ४६३ ४६४ २६ ४६६ २७ ४६७ २७ २६ ३० ३१ ( १९ ) ३४ ५५२ २२० ३५ ५५८ २२३ ३६ २२७ २४५ २६८ २८३ प्राभृतकानि पत्रं श्रीनिरयावलिका १ ४४ ५२४ ५२७ ५३१ ५३४ ३२ ३३ २ ३ ४ ५ ६ श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिः ७ ३ ४ ५ ७ ८ ६ १० १५ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १६ ५३५ ५४२ २० ६११ --- ६२ ६६ ७५ ७८ ८२ ८३ ६१ ६६ १ २ १६६ २०१ २३३ २४३ २४४ २५५ २५६ २५७ २६७ २८४ २६७ वर्गाः १ २ ३ ૪ ५ दद १७ = ३८० ३८२ ४२४ ४३२ ५४६ -: पत्र १८ २० ३६ ३८ ४२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तपोथी श्रीनिशीथसूत्रम् श्री बृहत्कल्पसूत्रम् श्रीव्यवहारसूत्रम् लीथोप्रिन्ट हस्तपोथी हस्तपोथी मुद्रितः भाग: उद्देशकः पत्रं भागः पत्रं भागः उदेशक: पत्रं गाथा भागः उद्देशक: पत्रं उद्देशक: पत्रं १ १ १२६ १ २०२ १ १ ७७ ५०० १ १ १७४ १ १-६१ २ १८२ २ ३०८ १-६६ २३५ १५०० १-३७० ४ २२२४०४ ३१७ २१३० २ २१६ २ १-८७ ५ २४७ ४४५ २ १११ ३००० ३ २५८ . ३ १-७३ २५३ ३ ४६३ १५५ ३२६२ २ ४ ११० : ४ १-१०४ ४७८ २ २०३ ४६४ ५ १-२६ ८ २४० ५०५ ३ २६३ ७२८ ६ १६६ ६ १-७१ ६ २७७ ५३३ ३ ६४ ११६२ ७ २८३ ७ ५-६५ १० ३६१ ६६५ ४ १६८ ८०५ ८ ३३६ ८ १-६० २ ११ ५८ ४ ७७३ ५ २१२ ३७५ ६ ३५५ ६ १-२३ १२ ८२ ८३२ ६ २६७ ४३० १० ४५८ १० १-११४ १३ १०३ ८७५ १२३ ६१६ - मुद्रित : १००८ १ १ २५४ ८०५ १६ ५६ ११४१ २ ६१० २१२४ १७ ६२ ११६० ३ ६२१ ३२८६ १८ ६५ ६ ११६७ ४ २ १०२२ ३६७२ १६ ८४ १२१२ ३ १३०६ ४८७६ २० १७२ १३३८ ५ ४ १५०२ ५६८१ + २ ५ १५६६ ६०५६ +३५ ६ ६ १७१२ ६४६० ३ ( २० ) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआवश्यकसूत्रम् चूर्णि: श्रोदशवकालिकम् श्री उत्तराध्ययनानि टीका मुद्रितः हस्तपोथी मुद्रितः अध्ययनानि पत्रं पत्रं पृष्ठं अध्ययनानि पत्रं अध्ययनानि पत्रं विपयः पत्रं ७० १ २ २ ४६५ om १६ २०. २१ T ४८१ ৪৪৩ ४६६ १५८ पिठिका प्रथमवर वरिका १३६ द्वितीयवरवरिका १८८ गणधरवादः २५६ निण्हववाद: ३२५ नमस्कारनियुक्तिः ४५२ १ सामायिकनियुक्ति:४६२ २ अध्ययनम् ५१०८ ३ ४ ५ ६ ७ ५१२ ७० १४० १८६ २२८ २५४ २७० २८५ २६७ ३१६ ३४१ २३४६ ८१ ३२ 6 ४१ ११६ ५२ १६० १६० ८६ २०६ १०१ २२३ ११५ २३८ १२८ २५८ १४३ २६८ १५२ २७७ १६० २८६ १६६ २४ ५१६ ५३१ ५४७ is w ५५३ ४ , ७६३ २६४ ३२६ ३४८ ३६६ २८० १० चू.-१ चू.-२ ५६१ ५६७ ८०१ ६ , ८६६ १२ ३० ३७३ ३६२ ६१८ ६३६ ६४८ पत्र ४१६ ४३० ४३६ ४४६ ३५ ३६ ७१४ श्रीनंदीसूत्रम् पत्रं श्रीविशेषावश्यकम् श्रीपिण्डनियुक्तिः विषयः पत्रं विषयः आभिनिबोधिकज्ञानं २४६ पिण्ड निरुपणम् २८ केवलज्ञानं २६६ उद्गमादिदोषाः ११६ उदेशादिद्वारव्याख्या ६६२ उत्पादनादोषाः १४६ गणधरवादः ८३६ ग्राषषणाः १७८ निण्हववादः १०४४ अर्हन्नमस्कार: ११८० सिद्धनमस्कार: १२२७ प्रशस्तिः विषयः पर्षद् श्रीओधनियुक्तिः अवधिज्ञानम् मनःपर्यवज्ञानम् १२१ विषयः पत्रं केवलज्ञानम् १२६ प्रतिलेखनादि मतिज्ञानम् १८४ पिण्डद्वारम् २९७ श्रुतज्ञानम् २४७ विशुद्धिद्वारम् २३७ पत्रं श्रीअनुयोगद्वाराणि विषयः आवश्यकश्रुतस्कंधनिक्षेपाः ४३ आनुपूर्वी १०४ दशनामाधिकारः १५० प्रमाणद्वाराधिकारः २४१ निक्षेपाधिकारः २५७ अनुगमाधिकारः नयाधिकारः २६७ २६२ ( २१ ) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक: १ २ ~m xx was is w or ३ ४ ५ ६ 6) ८ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १६ २० २१ २२ m x or w z I wo २३ २४ २५ २६ २७ २८ २६ ३० श्रीशेठ देव चन्दलाल भाई जैन पुस्तकोद्धार फण्डनां प्रकाशनो ग्रन्थनाम वीतरागस्तोत्रं श्रमणप्रतिकमणसूत्र स्याद्वादभाषा पाक्षिकसूत्र अध्यात्ममतपरिक्षा षडशकप्रकरणं कल्पसूत्र (सुबोधिका० ) श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिः दानकल्पद्र मं योगफिलोसोफी ( इंगलिश) जल्पकल्पलता योगदृष्टिसमुच्चयः कर्म फिलोसोफी ( इंगलिस ) आनंदकाव्यमहोदधि (मो. १) धर्मपरीक्षा शास्त्रवार्तसमुच्चयः भा० १ कम्प कल्पसूत्र ( वारसा, मूल) श्राद्धपंचप्रतिक्रमणनि संपादक : आ० श्रीआनंदसागरसू० आ० श्रीविजयकेश रसू० आ. श्रीआनंदसागरसू० "" "" " "" 22 " " श्रीवीरचंद रा० आ० श्रीआनंदसागरसू० י "" श्रीवीरचंद राघवजी श्रीजीवणचंदसाकेरचंद झवेरी आ० श्रीआनंदसागरसू० पं० हरगोविंददास आ० श्री आनदसागरसू० आनंदकाव्यमहोदधि ( मौ. २) श्रीजीवणचद साकेरचंद झवेरी उपदेशरत्नाकरः आनंदकव्य महोदधि ( मौ. ३) चतुर्विंशतिजिनानन्दस्तुति षट्पुरुषचरित्रं पं० अमृतलाल अमरचंद सलोत श्रीजीवणचंद साकेरचंद झवेरी आ० विजयकुमुदसू० आ० श्रीआनंदसागरसू० स्थूलभद्र "" "" धर्म संग्रहपूर्वार्धम् संग्रहणीसूत्र ( वृति) आ० श्रीललितसू० उपदेशशतकं, सम्यक्त्वपरीक्षा. आ० श्रीआनंदसागरसू० ललितविस्तरा (पंजिका) आनंदकाव्यमहोदधि ( मो. ४) 35 आ० श्री बुद्धिसागरसू० ( २२ ) प्रकाशनं ई० सं० कुलखर्च १६११ ३५०० १४०० " १६१२ "" "" 31 "" 33 १९१३ "1 22 22 99 "; १६१४ RERS "" "" "" 39 23 "" 7" 93 " 77 22 59 १६१५ " ३८० ३७५ ३८० ७५० ५०० ३७५ ५२५ १८० १८० ६२५ १२५० ३०० २००० ६५० १००० ५०० १२५० १२५० १२५० १२५ २००० १००० ७५० १२५ ५०० १५०० Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन ई० सं० कुलखर्च me १६१८ १६२७ १६१६ १२५० १३०० mm क्रमांक: ग्रन्थनाम संपादक: ३१ अनुयोगद्धारसूत्रं भा० १ आ० श्रीआनंदसागरसू० आनंदकाव्यमहोदधि (मौ. ५) श्रीजीवणचंदसाकेरचंद झवेरी उत्तराध्ययनानि भा० १ (शां०) आ० श्रीआनंदसागरसू० मलयासुन्दरीचरित्रं सम्यक्त्वसप्ततिप्रकरणं आ० श्रीललितसू० उत्तराध्ययनानि भा० २ (शां०) आ० श्री आनंदसागरसू० अनुयोगद्वारसूत्रं भा० २ गुणस्थानक्रमारोह धर्मसंग्रहणी भा० १ पं० श्रीकल्याणविजयजी धर्मकल्पद्रम आ० आनंदसागरसू० उत्तराध्ययनानि भा० ३ (शां०) , धर्मसंग्रहणी भा० २ पं० श्रीकल्याणविजयजी आनंदकाव्यमहोदधि (मौ. ६) श्रीजीवणचंद शाकेरचंद झवेरो पिंडनियुक्तिः आ० आनंदसागरसू० ४५ धर्म संग्रह भा० २ उपमितिभवांचकथा भा० १ दशवैकालिकसूत्रं (हारो) श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति ४६ उपमितिभवप्रपंचकथा भा० २ जीवाजीवाभिगम सेनप्रश्न जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिः भा० १ आवश्यकटिप्पणकं आ० श्रीविजयकुमुदसू० जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिः भा०२ आ० श्रीआनंदसागरस० देवसिराईप्रतिक्रमणसूत्र श्रीपालचरित्रं आ० श्रीआनन्दसागरसू० सूक्तमुक्तावली प्रवचनसारोद्धारः भा० १ , तन्दुलवैचारिकसूत्रं ६० विचारामृतसारसंग्रह आ० श्रीआनंदसागरसू० ( २३ ) ४०० १००० १७५० १००० २०० १५०० १००० १२५० १२५० १५०० ३००० १२५० १००० ५००० १६१८ xx ww r 950 १६१६ १९२० ५६१६ ४००० २००० ५१ १९२० ३२५० २००० ८००० ३००० ४००० ३७५ १७५० ४००० ६००० ३००० १५०० १६२१ १९२२ १६२३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m VOY NEW ७४ क्रमांकः ग्रन्थनाम संपादक: प्रकाशनं ई० सं० कुलखर्च ६१ कल्पसूत्रं (सुबोधिका) आ० श्रीआनंदसागसू० ४००० ६२ सुबोधसमाचारी १६२४ २००० ६३ सिरिसिरिवालकहा १६२३ २५०० ६४ प्रवचनसारोद्धार: (उत्त०) १६२६ ८००० लोकप्रकाश: भा० १ ४००० आनंदकाव्यमहोदधि (मौ० ७) श्रीसंपत्तविजयजी ३००० तत्त्वार्थाधिगमं टी. भा.१ (सिद्ध.) श्रीहोरालाल रसिकदास कापड़िया १५००० नवपदप्रकरणं (लघुवृत्तिः) आ० श्रीआनंदसागरसू० २००० पचवस्तुकग्रन्थः ६००० आनंदकाव्यमहोदधि (मौ. ८) श्रीसंपतविजयजी आचारप्रदीप: आ० श्रीआनंदसागरसू० ३००० विचार रत्नाकर आ० श्रीवि०दानसू० ६००० नवपदप्रकरण (बृहद्वृत्तिः) आ० श्रीआनंदसागरसू० ८००० लोकप्रकाशः (भा० २) १९२८ महावीरचरियं १९२६ १०००० तत्त्वार्थाधिगम भा० २ (सिद्ध.) श्रोहीरालाल रसिकलाल कापडीया १५००० भरतेश्वरबाहुबली (वृत्तः) उ० श्रीधर्मविजयजी १६३२ ४००० लोकप्रकाशः भा० ३ आ० श्रीआनंदसागरसू० ४००० भक्तामर-कल्याणमंदिरः श्रीहीरालाल रसिकलाल कापडीया १२००० नमिउण-स्तोत्रं पियंकरनृपकथा अनेकार्थरत्नमंजूषा ७५०० ८२ कल्पसूत्र (बारसा. सचित्र) आ० श्रीविजयमेघसू० ४८००० ८३ ऋषभपंचासिका श्रीहीरालाल रसिकलाल कापडीया १००००.. जैनधर्मवरस्तोत्र आवश्यकसूत्रं भा० ३ (मल०) आ० श्रीआनंदसागरसू० १६३६ लोकप्रकाश: भा० ४ २००० भरतेश्ववरबाहुबलीवृत्तिः उ० श्रीधर्मविजयजो १६३७ प्रशमरतिप्रकरणवृत्तिः आ० श्रीआनदसागरसू० १६४० १८०० अध्यात्मकल्पद्रुमवृत्तिः १६४० ५००० १० गौतमीयकाव्यं पं० श्रीकनकविजयजी १६४० २२०० . ४००० M mr ur ) ८८ ( २४ ) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक: ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ ୧୩ ६६ १०० १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ " १०७ १०८ १०८ १०६ ग्रन्थनाम वैराग्यशतकादिग्रन्थ पंचकं अभिधानचिंतामणिः जैनकुमारसंभवकाव्यं सिद्धहेम शब्दानुशासनं (वृहद्वृत्ति दूर्गपदव्याख्या) वीतरागस्तोत्रं श्राद्धविधि: देवसिराईप्रति क्रणसूत्रं पंचप्रतिक्रमणादिसूत्राणि (विधिसहित ) श्रमणसूत्रादि (अवचूरि) वंदनप्रति क्रमणावचूरिः श्रीअपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोष : ( भा० १ ) आद्यपंचाशक चूणिः दशवेकालिकवचूरिः उत्तराध्ययनावचूरि: ( भा० १ ) पिंड निर्युक्त्यवचूरिः श्राद्धविधिप्रकरण मराठी "" नंदी - अवचूरि आवश्यकावचूर्णि भा० १ "" भा० २ सूयगडांगदीपिका भा० १ गांगदीपिका भाग० २ ११० १११ जंबूवृत्ति ११२ उत्तराध्ययनावचूरि भा० २ सचिस संपादक: श्री बुद्धिसागरजी आ० श्रीआनंदसागरसू आ० श्रीक्षमाभद्रसू० आ० श्री चन्द्रसागरसू० श्रीचन्द्रप्रभसागरजी श्रीविक्रम विजयजी ११३ नंदी मूत्र दुर्गपदव्याख्या ११४ भगवती सूत्रावचूरिः ११५ अल्पपरिचित सैद्धान्तिक - शब्दकोष : ( भा० २ ) मुनि श्रीललितांगविजयजी मुनि कंचनविजय "" " 33 "" "" श्री विक्रमविजयगणि मुनि श्री गुणानंदविजयजी आ० श्रीविक्रमसूरिजी श्रीमानविजयजी गणि ܪ ܕ श्री बुद्धिसागरगणिः "" मुनि कंचनविजय मुनि कंचनविजय ( २५ ) "" प्रकाशनं ई० सं० कुलखर्च १९४० १५०० १९४६ १०००० १९४८ ७५०० १९४८ ७५०० १६४६ १६५२ १९५८ १६५० १९५१ १६५२ १६५४ १६५२ १६५४ १९६० १९५८ १९६० १९६१ १६६६ १६६५ १९६५ १६५६ १६५६ १९६६ १६६६ १६७४ १९६४ ३००० ५००० ५०० २५०० १२५० ५५०० २५०० ३००० ४००० १५०० ४००० Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक: ग्रन्थनाम संपादक: प्रकाशनं ई० सं० कुलखर्च ११६ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः पं० कंचनसागर १९६६ (भा० ३) ११७ भगवती अवचूरि प्रेसमां ११८ __ आचरांगदीपिका प्रेसमां ११६ जंबुवृत्ति प्रेसमां १२० योगशास्त्र भाषांतर भाषांतरकार आ० श्रीहेमसागरसूरिजी १२१ ओघनिर्युक्त्यवचूरिः पं० श्रीसूर्योदयसागरजी १६७४ : १२२ स्थानांगदीदिका भा०२ मुनि श्रीमित्रानंदविजयजी १६७४ १२३ अआवश्यकावणि (भा० १) मुनि श्रीप्रमोदसागरजी १६७४ १२४ चउपन्नमहापुरिसचरियं भाषांतर आ० श्री हेमसागरसूरिजी १६७४ १२५ अल्पपरिचितसैद्धान्तिक- पं० कंचनसागर १६७४ शब्दकोषः (भा० ४) १२६ अल्पपरिचितसैद्धान्तिक- पं० कंचनसागर १९७६ शब्दकोष ( भा०५) * संपर्णम् Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચ નંદિત્ર મંગ હૈદ પાલીતાણા હું હસી ન [૪૫] શ્રુત ભાર મૂળસૂત્ર ઉપí1) સૂરત અનુયોગ ટ્વારાણ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अर्हम् || नमोऽत्यु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ॥ श्रेष्ठि- देवचन्द्रलालभाई - जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः - १२६ आगमोद्धारक - आचार्यश्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलितः - अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः । शकारः शक- म्लेच्छ देशविशेषः । उत्त० ३३७ । पञ्चम-विभागः शकुनरुतम् - शकुनिक-पक्षी । उत्त० ३७८ । शकुनिकसङ्ग्रहणकं - परम् । उत्त० ३७८ । शकुनिका - पक्षिणी । उत्त० ४०६ | शकुनिमारक:। सम० ५२ । शक्ति - शक्तिः प्रहरणविशेषः । भग० १५२ । प्रहरणविशेषः । । ठाणा० ४२७ । द्वन्द्रियजीव विशेषः । प्रज्ञा० २३ । शङ्खचक्रवर्तीशङ्खचर- द्वीप विशेषः । अनु० ९० ॥ शङ्खच्छेदः ( अल्प ० १३० ) जाव० ५८८ । शक्र सोधर्मकल्पे इन्द्रः । ज्ञाता० १२० । शक्रोत्सव: | आव० १५६ । ७४ । साधनविशेषः । आद० ५५४ । शङ्कु- शङ्कु-लौकिक कालोपायः । दश० ४० । कालशुद्धयर्थं शतातीक- वृद्धः वर्षशतमानः । सूत्र० ८४ | शतानीक - सहस्रानी राजसूनुः । विशे० ४९६ । शतायु :- अजित सेनापरनाम । सम० १५६ । शतारुक - क्षुद्रकोष्ठम्। आचा० २३५ । एकादशं क्षुद्र शङ्ख - जीवमिधे दृष्टान्तः । प्रज्ञा० २५८ । जीवा० १९१ । शुक्लवर्णपरिणतः । प्रज्ञा० १० । शङ्खनक- जीवमिश्रे दृष्टान्तः । प्रज्ञा० २५८ । शङ्खा वापीनाम । ज० प्र० ३७१ । शङ्खावर्त्ता-वापीनाम । ज० प्र० ३७। । शङ्खोत्तरा- वापीनाम । ज० प्र० ३७१ । शची-शक्रस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी । ज० प्र० १५९ । शत- ग्रन्थान्तरपरिभाषयाऽध्ययनम् । भय० ५। शतपत्र - सुरभिगन्धे दृष्टान्तः । प्रज्ञा० ४७३ । शतपत्रिका - पुष्पविशेषः । अनु० २१४ | शतपद - वास्तुन्यासविशेषः । ज० प्र० २०८ । शतपर्वा शतपत्री - पवगंवनस्पती । आचा० ५७ । शतमुख-आधाकर्म परिभोगे गुणचन्द्रश्रेष्ठिनः पुरम् । पिण्ड ० । विशे• ४६ । कुष्ठम् । प्रश्भ० १६१ । शफ-खुरः । जीवा० ३८ । खुरः । प्रज्ञा० ४५ । शबर - म्लेच्छ देश विशेषः । उत्त० ३३७ । म्लेच्छविशेषः । आचा० ३७७ । | आचा० ३२८ । ( १०३३ ) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शबरदेशजा ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ शाबलेय शबरदेशजा-शबरी । ज० प्र० १९१ । शरीर पर्याप्ति- यया तु रसीभूतमाहारं घातुरूपतया परि. शबरा-येषामनेकशाखे शङ्गे भवतः । ज० प्र० १२४ ।। णमर्यात सा शरीरपर्याप्तिः । बृ० प्र. १८४ आ । शबल- बकुश:- कबुरः। ठाणा० ३३६ । वकुशम् । भग. शरीरसम्पतू-आरोहपरिणाहयुक्ततादिचतुर्भेदभिन्ना सम्पत् ८६१ आचः ६७ । उत्त० ३९ । शबलीभूत-उन्मिश्रम् । आचा० ३२१ । शरोरानुगतः-उद्गारोच्छ्वासादिः । ठाणा० ३३६ । शब्द-यथार्थाभिधानः । तत्त्वा० १-३५ । राजग्राह्यत्वे शक- मणिपरीक्षागं ज्ञातव्यः । ज०प्र० १३८ । शब्दकरणम् । नंदी. १५८ । शर्करा-मधुररसपरिणता । प्रज्ञा० १० । शब्दकरत्व-रात्री महाशब्देनोल्लापितत्वम् । सप्तदशममस. शर्करिकालेपः । ओघ० १४५ । माधिस्थानम् । प्रश्न. १४४ । शर्करिल-पादेषु न्यस्यमानेषु शर्करामात्रसंस्पर्शः। प्रज्ञा० शब्दनिःस्पृहत्वं-प्रथमा भावनावस्तु । प्रश्न० १५९ । ८०। शब्दवेधी-धनुर्वेदविशेषः । आचा० १७६ । शलभ सम्मूर्छनजीवविशेषः । आचा० ७० । सम्मूर्छनशब्दसप्तैकक-आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयचूडायां जविशेषः । दश. १४।। चतुर्थमध्ययनम् । ठाणा० ३८७। शलाका-भूमिस्फोटकविशेषः । आचा. १७ । घटे कारशब्दाद्वैत-सर्वशब्दात्मकमिदमित्येकत्वं प्रतिपन्नः। ठाणा. णम् । वाचा. २२८ । ४२५ । शल्लकी-स्कन्धबीजा । दश० १३६ । शब्दादतवादो-सऱ्या शब्दात्मकमिदमित्येकत्वं प्रतिपत्रः । | शव-कुणपः । प्रश्न. ५२ । ठाणा० ४२५। शशि-नृपतिविशेषः । उत्त० ३८८ । शब्दापाति-वर्तुलवैतादयः । सम० ९५ । शश्वद्धाव-प्रलया भावः । जीवा० ६६ शब्दापाती-वर्तुलविजयाईपर्वतविशेषः । प्रभ० ६५।। शकुलिका-भक्ष्यविशेषः प्रश्न० १६३ । शब्दायते-आकारयति । जीवा० २४३ । शप-हरितम् । दश: २६५ ।। शब्दोन्नतिक-उन्नतशब्दम् । जीवा० १२३, १६४ (?) || शखपरिज्ञा-आचाराङ्ग प्रयममध्ययनम् ।। शखपरिज्ञा-आचाराने प्रयममध्ययनम् । आव० ५६३ । शम्ब-द्रव्यभावसंकोचे दृष्टान्तः । विशे० ११२६ । द्वारा | शाकाटक-सारथिः । ठाणा० २४० । वत्यो कुमारः । विशेक ६१० । | शाकढिक-सोपारके वृद्धश्रापकः । व्य० द्वि. १७४ बा। शय्यम्भव-परिपाट्या प्रभवशिष्यः । आव० ६२ । शाकिनो-डाकिनी । प्रश्न. ५२ । अनाचीर्ण आचार्यः । स्थविरविशेषः । ब्र० प्र० १६६ अ। शाक्य-मतविशेषः । आचा. ४०३ शाक्यः-मतविशेषः । शय्यातरपिण्डभोजन-पञ्चमः शबलः । प्रश्न. १४४ । उत्त० ३३७ । शाक्यः । आव. ५९ । शय्यातरावग्रह-पञ्चभिधावग्रहे चतुर्थः । आचा. १३४। शाटक वस्त्रविशेषः । उत्त० ९२ । शय्यापरिकम्र्मवर्जन-तृतीयभावनावस्तु । प्रभ० १२८। शावलम् । जोवा० ३५५ । शय्याभाण्ड-क्षय्योपकरणम् । निर० २७ । शान्तिः-मङ्गल-विघ्नविद्रावणम् । विशे०२२ । शधि तोणः । प्रभ. ४७ । तोणः । भग० ३२२। शान्तिकर्म-होमादि । ठाणा० ३९४ ।। शरपर्शी-मुञ्जः । ठाणा० ३३६ ।। शान्तिचन्द्र-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिकर्तारः । जं० प्र० ५४४ । शराव-अवधेराकारविशेषः । आचा. १५ । शान्तिचन्द्रगणिः-जम्बूद्वीपप्रजत्तिवृत्तिविधायकः । जं. शरासन-भद्रम् । भग० ५४७ । प्र० ४२४ । शरिका । आचा० ३५७ । शान्तिमार्ग-शान्तिः उपशमधर्मोपलक्षणम् । (?) । शरीर-नषेधिकी । आव. २६६ । | शाबलेय । बाचा० १७॥ ( १०३४ ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाम्ब ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ [ शीतोदाद्वीप - - % शाम्ब-द्रव्यभावसङ्कोचे दृष्टान्तः । ज० प्र० १० । द्रव्य- २८३, शिल्प-साचार्य नित्यव्यापारश्व । आव० ४१५ । भावसकोचे दृष्टान्तः । आव० ३७६ । साचार्य कादाचित्कं वा । नंदी १४४ सिद्धिशदाशारि-अष्टापदद्यूतभेदः । ज० प्र० १३७ । भिधेय साम्ये भेद । ठाणा० २५ । शाहू-विष्णुधनुः । प्रभ० ८८ । । शिल्पार्या-तन्तुवायकूलालनापिततन्नुवायदेवटादयः अपशालनकं - पृष्पकं फलप्रभृतिः । जीवा० २७८ । शाकः ।। सावद्या अहिता जीवाः । तत्त्वा० ३-१५ । प्रश्र० १४१ । भोज्य पदार्थ विशेषः । पिण्ड० १७२ । शिवक-घटे पूर्वावस्था । विशे० ९३८ । शिवकः । शालनक-व्यञ्जन तकादि वा । भग० ३२६ । शालनकम् ठाणा०६। व्य० द्वि० १४२ अ । । शिवकोषक-तगरायामाचार्यस्य शिष्यः । व्यव० प्र० ३१७ शालिका-संमच्छिमजीवविशेषः । आचा० ७० । । । शालिग्राम-ग्रामविशेषः । दश० २८१ । आषाकर्मपरि. शिवदेव-आधायाः प्रामित्यद्वारविवरणे श्रेष्ठी । पिण्ड हरणे ग्रामणीवणिजस्थानम् । पिण्ड० ७२ । आधाया ६६ । अभ्याहृतविवरणे देवशर्ममङ्खस्य ग्रामः । पिण्ड० ९७ । शिवा-शकस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी। ज० प्र. १५९ आधाया: शालिभद्र-सुलभबोधौ दृष्टान्तः । राज० ४७ । प्रामित्यद्वारविवरणे शिवदेवश्रेष्ठिपत्नी । पिण्ड०६९ । शालूक-दर्दूर: । दश० १४१ । । शिशिर-हेमन्त ऋतुः । ओघ० २१२ । शावकः-बोहित्थः, पोतो वा । प्रश्न० ३९ । शिशुपाल-महाबलराजसूनुः । प्रश्न० ८८ । शावितः-शादित:-आकारित: । व्य०प्र०१४४ अ । शिशुपालिका-बालवत्मा । ओघ० १६३ । शासन-प्रतिपादकम् । (?) । शिशुमार-मकरविशेषः । पिण्ड० १४६ । शास्ता-तीर्थकृदादिः । आचा० २५० । अहंन् । आव० शिष्टं-शिष्टत्त्व-अभिमतसिद्धान्तोक्तार्थता, वक्तः शिष्टता. सूचकत्वम् । सम०६३ । शास्ति-निराकरोति । भग० १७४ । शिष्यते-निराक्रियते । जीवा० ३८८ । शिक्षक-नवदिक्षीतः । आचा. ८० । शिव्यापयितुं-आसिवनाशिक्षाग्रहणप्रदानतः (१)। व्य शिक्षेत-भासेवेत । वाचा. २९१ । द्वि० २१५ था। शिखरी-वर्षधर ठाणा०६८। शीतं-प्रासुकम् । दश० २०६ । शीता-वैशयकृत स्तम्भशिबिका-यानविशेषः । आचा० ६० । नस्वभाव: । ठाणा० २६ । शिरः-मस्तकम् । आचा० ३८ । शीतरूपा-योनिभेदः । आचा० २४ । शिर उद्धाव्य- । आचा०८२ । शीतला-दाहस्फोटकात्मको रोगविशेषः । उत्त० ३५८ । शिरसिज-केशः । सत्त० ३३८ । शीतलिका-व्याधिविशेषः । ध्य.द्वि.१६२ । । शिरीषकुसुम-सुकुमारकुसुमविशेषः । जीवा• २७०। शीता-महानदीविशेषः । प्रश्न०६६ । शीता-नीलपर्वते शिरोविशुद्ध-शिरसि प्राप्तो यदि नानुनासिकः । ठाणा चतुर्थ कूटम् । ठाणा० ७२ । ३६६ । स्वः शिरसि प्राप्तः सन्नानुनासिको भवति ततः शोताकार-भोगः, क्षेत्रपरिमाणोद्भवो वा । आय. ४६९ । शिरोविशुद्धम् । ज. प्र.४० । शीतीभूत-निवृतः । आचा० २५८ । शिलाप्रवाह-विद्रुमं रत्नम् जीवा० १६४ । शोतोदा-निषधपर्वते सप्तमकूटम् । ठाणा०७२। शीतोदाशिलीमुख-द्रव्यशल्यम् । आव० ७८३ । महानदीविशेषः । प्रज्ञा० ६६ । शिल्प-कादाचित्कं, नित्यव्यापारः । भय. ५७३, ३६८। शोतोदाकुण्डम् ठाणा०७४, शिल्पंसाचार्यक, निस्यव्यापारस्तु शिल्पमिति । ठाणाoशोतोदाद्वीप-द्वोपविशेषः । ज० प्र० ३०९ । । (१०३५ ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोदापातकुण्ड ] शीतोवा प्रपातकुण्ड - कुण्डविशेषः । ज० प्र० ३०६ । शीतोष्णरूपा-योनिभेदः । बाचा० २४ । Preetish आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः शीर्षक । ठाणा० ४४ । शीर्षद्वारिका - कल्पेन शिरः स्थगनरूपा । बृ० प्र० १२५ आ । शीर्षप्रहेलिका- गणनास्थानविशेषः । याचा० ८१ । शोला-गुणसमृद्ध नृपपत्नी । पिण्ड० ४७ । शुक-कीरः । जीवा० १८८ । शुक्ति-भाजन विधिविशेषः । जीवा० २६६ । शुक्तिक- द्वीन्द्रियजीव विशेषः । प्रज्ञा० २३ । शुक्तिसंपुट- मुक्ताधारपुटकम् । प्रश्र० १५२ । शुक्लपाक्षिक:- किचिदूनपुद्रलपरावर्त्ताधमात्र संसारको जीवः । प्रज्ञा० ११७ । शुक्लस्थानम् शुक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति- शुक्लध्यानस्य तृतीयो प्रशाः १०६ । शुचिविद्या - मन्त्रशोचम् | ठाणा० ३४१ । शुण्ठी-पर्वगभेदः । आचा० ५७ । शुण्डामकरा - मत्सविशेषः । सम० १३५ | शुद्ध चतुर्थकादयः शुक:शून्यचित्त: शून्यवादी | सूर्यं० २५२ || भेदः । शुल्व ताम्रम् । प्रश्न० १५२ । शुश्रूषते - सविनयं गुरुवचनं श्रोतुमिच्छति । ( ? ) + शुषिर शङ्खवेण्वादी | आचा० ४१२ । शुष्कगोमय: शुष्कुलीकर्ण - अन्तरद्वीप विशेषः । जीवा० १४४ | । ठाणा ११४ । शृङ्गाशृङ्गि - युयुत्सया योधयोवंल्गनम् । ज० १३९ । शेखरक आपीडः, आमेलकः । बी० ३६१ । शेखरक:आपीडः । प्रज्ञा० ९६ | शेखरक:- शिरोवेष्टनम् । ठाणा० ३०४ । शेमुषा | वाचा० ११६ । शेषवत् - त्रिविधानुमाने द्वितीयमनुमानम् । भग• २२२ । शैक्षक परिपालना - यावलोपस्याप्यते तावच मिक्षां हिडापयितव्यः । वृ० ४० ६४ अ । शैली रूढिः । नंदी० १५७ । शैलूष: शुद्धयोग - निर्दोषव्यापार: । उत्त० ६५७ । शुद्धोन्छ - उत्सर्गपदम् । बृ० प्र० २५० आ० । शुल्क - करः । आव० ४६९ । शैलूषा शुल्कपाल- सामुच्छेदिकानां प्रतिबोधकः भावकविशेषः । शैलेश ठाणा० ४२ । शैलेसी शैवाल- बादरनिगोदविशेषः । प्रज्ञा० ७८ शोभन - मध्यस्थः कथः । शौचं भावविशुद्धिः निष्कल्मषता भिष्वङ्गः । तस्वto ६-६ श्यामाक - बीज विशेषः । आचा० २८५ । श्रंशना- देशतो भङ्गः । प्रश्न० १३८ । श्रमं दौर्बल्यम् । आचा० ३८० । श्रमणा - प्रव्रज्याऽऽरम्भदिवसादारभ्य सकलपावद्ययोगविरु तागुरूपदेशादाप्राणो परमाद्यथाशक्त्यनशनादितपञ्चरति । (2) 1 | नंदी० १५१ । । ठाणा० ५२३ । | नंदी० १५६ | । प्रज्ञा० ४५५ । शूर-भटः । भग ४६३ । शूल - आयुद्धविशेषः । ज्ञाता० १३५ । शूलः । सम० १२६ । शूलपाणि- अस्थिकामे बक्षः । ठाषा० ५०१ । गित: [ श्रणमा शृगालत्वविहारो-दीनः । वाचा० २५३ । शृगालभक्षित- भक्तविषयं प्रयोजनं सम्यक् न करोति (यः) । व्य० प्र० १६३ वा । शृङ्ग-वृतम् । नि० ० ० ६२ छ । शृङ्गनादितम् | नंदी० २०७ । शृङ्गाटक- समूच्छिंतरुजीवः । आचा० ५७ ॥ शृङ्गाटक:त्रयस्रसंस्थाने दृष्टान्तः । प्रज्ञा० ११ । । विशे० ६०५ । शृङ्गारमति - गर्भाधान परिसाटरूपमूलद्वार विवरणे सिन्धुराजपत्ती । पिण्ड० १४५ । ( १०३६ ) । आचा० १४२ । । आच० ११३ । । आचा० १५७ । । भग० १८ । । प्रचन० ११४ | धर्म साधनमात्रास्वप्यन Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रव्यशदार्थ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भाग" . '. [लणः अव्यशब्दार्थ-पधुरम् । अनु० १३३ । | पेक्षमेवानुप्रवर्तते तद्, भवाहादिलक्षणं श्रुतनिश्रितम् । श्रस्तर:-सस्तरणम् । उत्त० ३८० । आव०६। श्राद्ध-पितृक्रिया । जीवा० २८१ । तभेद-सूत्रार्थोभयविषयः । ठाणा० ३८१ । श्राद्धक: । दश• १०३ । श्रुतव्यवहारिण:-अवशेषपूर्वधरा एकादशाङ्गधारिणः । श्राद्धधम्म:-सम्यक्त्वमूलानि द्वादशवतानि । ६० प्र. ध्य. प्र. ५ । १८८ आ. श्रुतसम्पत्-बहुश्रुततादिश्चतुर्भेदभिन्नं सम्पत् । उत्त० ३६ । धावक-व्रतवान् । आचा० २८१ । श्रुतसमाधिप्रतिमा-समाधिप्रतिमायां प्रथमो भेदः । सम० धावकढङ्ककुम्भकार-सुदर्शनाया: स्थिरकारकः श्राद्धः । ६६ । समाधिप्रतिमायां प्रथमो भेदः। ठाणा० ६५ । विशे० ९३६ । श्रुतनाम-स्वदर्शनानुगतशास्त्राणाम् । (१) । श्रावकदुहिता-विद्वज्जुगुप्सायामुदाहरणम् । प्रज्ञा० ६३ । श्रेणिः-पङ्किः। राज० ६६ । . श्रावस्ती-कुलाणजनपदे नगरी । शाता० १२५ । श्रणिक-नन्दपतिः । नंदो० १५० । श्रेणिका-नन्दिषेणश्री-हिमवद्वर्षधरे षष्टकुरटः । ठाण. ७१। पिता राजा । नंदी. १६६ । श्रेणिक:-क्षायिके दृष्टान्तः । धोकान्ता-उदितोदयस्य राज्ञी । नंदी० १६६ । आव० ३८२ । श्रेणिक:-चारित्रमोहनीयकर्मोदये श्रीखण्ड-मलयम् । जीवा० २४४ । श्रीखण्ड-सुरभिगन्ध. दृष्टान्तः । उत्त०, १८५ । श्रेणिकः- । (?) परिणतः । प्रज्ञा. १,। १-१-३२। धेणिक:-रोचकसम्यक्त्वे दृष्टान्तः। विशे. श्रीजयसिंहसूरि-निःसङ्गचूडामणिराचार्यः । अनु० २७१।। १०६४ । श्रेणिक:-जिगृहे नराधिपः । विशे• ६११ । श्रीदामगण्डक-जलजादिभास्वरपञ्चवर्णकुसुमनिर्मितम् ।। श्रेणिकः-आत्मोपक्रमे मृत्वा नरकोत्पन्ने दृष्टान्तः। भग. ठाणा० ४०१ । ७९६ । धेणिकः- कोवलसम्यग्दर्शनो व्यक्तिविशेषः । श्रोदामराजसुत-मथुरायां नृपतिः । ठाणा• ५०८ । आव. ८०५ । श्रेणिक:-क्षायिकसम्यग्दृष्टिवतोऽपि चरण. श्रीदेवी-श्रीदेवीसमाश्रयमध्ययनम् । ठाणा० ५१२ । करणरहितस्य न सिसिः । बाव. ५३३ । श्रेणिक:श्रीनिलय-नगरविशेषः, बाघानुमोदनायां गुणवन्द्रराज. श्रद्धावान् । आचा० २४९ ।। धानी । पिण्ड ४६ । श्रेणिकादयः ।व्यदि. ४०५ था। श्रीपर्णीफल-कासवनासीयम् । आचा० ३४६ । श्रेणिस्वस्तिक-नाट्यविशेषः । ब. प्र. ४१४ । श्रीमती-गोचरविषयोपयुक्ततायां सामरदत्तष्ठिवधूः । श्रेणोव्यवहारादि-व्यवहारः-पाटीगणितप्रसिद्धोऽनेकधा । पिण्ड ७८ । ठणा० ४९७ । श्रोयक स्थूलभद्रस्वामिलघुभ्राता। बुद्वि०१.० अ। | श्रेय: । आचा० १४६ । श्रोत्स-शुभनाम । भग० २८२ ।। श्रेयान् -परमप्रशस्यः । जीवा० ३८६ । श्रोविजयराज- । ज० प्र० १९७ ।। श्रयांस-जातिस्मरणरूपविज्ञानवान् । आचा० २१ । श्रोस्थलक-भानुराजनगरम् । पिण्ड. ३३ । श्रेयांस:-येन भगवद्दर्शनाद् सामायिक अवाप्तम् । आव. श्रुतं-शोभनमाणितम् । व्य० द्वि० ४४० अ। ३४७ । श्रुतकेवलिता-चतुर्दशपूर्वी । भग० १२ । श्रेष्ठी श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्ट विभूषितोतमाङ्गः । राज. श्रुत जिन-विशिष्टश्रुतधरः । आव० ५०१ । १२।। श्रुतज्ञानलाभ-भावदीपः । सूत्र. १८५ । श्रोतांसोन्द्रिीयं । विशे० ३७६ । श्रतधर्म।आव.७८८। श्रोत्रियः । नंदो. १७२। श्रुतनिश्रित-यत्पूर्वमेव कृतश्रुतोकारं इदानी पुनस्तदनः | श्लक्षणः-सूक्ष्मः । जीवा० २३४ । श्लगः-श्लशपुन (१०३७ ) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्णमत्स्य आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः [संकम स्कन्धनिष्पन्नम् । जीवा० १६० । सम्यग रमणीयतया । जं.प्र. ७७ । एकीभावः । लक्षणमत्स्य-मत्स्यभेदः । सम० १३५ । आव. २७८ । संशब्दस्यातिशयार्थत्वाद्वा अतिप्रभाते. श्लाघा-श्लोकः । भग० ६७३ ।। प्रतिशब्दार्थत्वाद्वा प्रतिप्रभातम् । ठाणा० ११८ । सम्पगश्लोपद-रोगविशेषः । । बृ० प्र० १७० अ। एकीभावः । प्रज्ञा० १८ । संशब्दः प्रकर्षादिवचनः । श्लेषणता । आचा० २५५ । भग० १४ । सङ्करेण स्वपरलाभमीलनात्मकः । भग श्लोक-श्लाघा । बाव० ४७२ । श्वपता-चाण्डाला ये शुनः पचन्ति तन्त्रीश्च विक्रीणतीति । | संआवतकप्पे | संआवतकप्पे- नि• चू० प्र० ३४७ आ। ध्य प्र. २८५ अ । संकटु-संकष्टो-संथासः । व्य० द्वि० ३१२ आ। श्वयथु-रोगविशेषः । बृ० प्र० १७० ण । संकड-सङ्कट-दुष्प्रवेशम् । ओघ ० १८१ । सङ्कटंश्वेतपट-अर्हरपुत्रकः । नंदी० १५२ । विषमम् । पिण्ड० १७१ । सङ्कट-गहनम् । प्रश्न• ५२ । श्वेतविका-यत्रार्याषाढ़ः । विशे० ९५२ ।। संकडमुह-सङ्कटमुखभाजनः कमठादि । ओघ० १८२ । संकणिज्जे-शनीयं-भयजनकम् । ज्ञाता० ७८ । २ षकारः षट् परिक्षेपा-षड्जातीयाः परिक्षेपाः । जं० प्र. २८६ ।। संकपय-शङ्कापदं किमेतन्मदारब्धमनुष्ठानं निष्फल स्या दित्येवंभूतो विकल्पः शङ्का तस्याः पद-निमित्तकारणम् । षड्जीवनिकायः-दशवैकलिके चतुर्थमध्ययनम् । आव० आचा० १६७ । ५६३ । षण्णवतिछेदनकदापी-यो राशिरखेंनान छिद्यमानः संकप्प-सङ्कल्प:- भयादिविकल्पः । भग० २०२ । सङ्कल्प: प्रक्रमाद्रागद्वेषमोहरूपाध्यवसाय:। उत्त० ६३७ । सङ्कल्प:षष्णवति वारानु छेदं सहते पर्यन्ते च सकलमेकं रूपं कर्तव्याध्यवसाय: । आचा० २०३ । सङ्गल्प:-विकल्पो पर्यवसितं भवति स राशिः । प्रज्ञा० २८१ ।। मनोविशेष एव विमर्शः । ठाणा० १८३ । संकल्पःषद्धं-सागरियं । नि. द्वि० ३३ अ । . षष्टितन्त्र-कुशास्त्रविशेषः । नंदी० २४९ ।। इष्टानिष्टवियोगप्राप्तिजो मानस आतङ्कः। दश० २७३ । सङ्कल्पः-अप्रशस्ताध्यवसाय: । दश० ८५ । संकल्पश्च षोडशोकला-चन्द्रमण्डलं बुद्धघा द्वाषष्ठिसयर्भागः परि द्विधा-ध्यानात्मकः चिन्तात्मकच, तत्र आद्यः स्थिराध्यव. कल्प्यते, परिकल्प्य च तेषां भागानो पञ्चदशभिर्भायो हियते लब्धाश्चत्वारो द्वाषष्ठिभागाः शेषो दो भागो सायलक्षणस्तथाविधदृढसंहनादिगुणोपेताना, द्वितीयश्चला. ध्यवसायलक्षणस्तदितरेषाम् । जं० प्र०२०३ । सङ्कल्प:तिष्ठतः तो च सदाऽनावृत्तौ एषा किल षोडशी कसा । वधाध्यवसायः, छेदनं वा । भग० ९३ । सङ्कल्प:सूर्य. १४८ । विकल्पः । भग० ११६॥ सङ्कल्प:-अध्यवसायस्यैकथिकः। घोलिका-काश्चनकोशी । जं.प्र. ५२८ । 'विपा. ३८ । अब्रह्मणः षष्ठं नाम, विकलपस्तत्प्रभव.. सकार: त्वादस्य सङ्कल्पः । प्रभः ६६ । युक्तायुक्तविवेचनम् । सं-सम् सङ्गता । ठाणा० १४० । सम्-सम्यक् प्रवृत्त्या ।। ज्ञाता. २८ । सङ्कल्प:-विकल्पः । ज्ञाता. २८ । उत्त० २२५ । सम्-एकत्र । ठाणा० १३६ । सम्- संकप्पओ-सङ्कल्पज:-यो मनसः सङ्कल्पाजायते प्राणाभृशम् । उत्त० ५६६ । सम्-भृशम् । उत्त० ६०५ । तिपातः । आव० ८१८ । संशब्दः प्रकर्षादिवचनः । औप० ८४ । सम-सन्ततम् । संकप्पियं-तुझे यं पछित्तं विजिहिति । नि० चू० प्र० ठाणा० ५८ । सम्-भृशम् । उत्त० १८३ । सम्-पर- ३०६ अ । स्परसंश्लेषार्थः । भग० ३७ । सम्-साङ्गत्यं, एकोभावोसंकम-यां प्रकृति बध्नाति जीवः तदनुभावेन प्रकृत्यन्तथा । उत्त० ५६७ । एकीभावः । प्रज्ञा० ५५९ ।। रस्थं दलिकं वीर्यविशेषेण यत्परिणमयति स सनमः । (१०३८ ) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमइ ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ संकित ठाणा. २२२ । संकमिजति जेण, पाणियस्स वागडाए । संकलिआ-सङ्कलिका । ओष० ७६ । । वा भण्णइ । दश. चू० ७४ । सङ्क्रमगम्यो नदीपथः । संकलियं-शृंखला । महाप० । बृ० त० १६१ आ । तत्थ जइ संकमणं तं । नि० ०० संकसमाण-सम्-एकोभावेन कसन-गच्छन् संकसमानः । तृ० २० आ । सङ्क्रमः । आव १५० । सडकम:- जीवा० १२३ । कवलप्रक्षेपं कुर्वन्तः अथवा आस्वादयन्तः । विषमोत्तरणमार्गः । प्रभ० ८ । सङक्रमः-अनेकेष्टकादि. नि० चू० द्वि० ५१ अ। निर्मितः । ओघ० ३१ । नि० चू० प्र० २३२ मा । | संकया-सङ्कथा-वार्तालाप: । आव० ६६५ । सङ्कथा । काष्टचारः । नि० चू० प्र० ११६ अ । सङ्कमः, सेतू ।। उत्त. १६२ । जं० प्र० २३० । सङ्क्रमः-जलगर्तापरिहाराय पाषाण- संका-संकणं शंका-अनिरपेक्षाध्यवसायः । नि० चू. प्र. काष्ठरचितः । दश० १६४ ।। ६६ अ । शङ्का-विकल्पः । आचा० १६० । शङ्कन संकमइ-सङ्क्रामति-याति । दश० १२२ । शङ्का-संशयकरणम् । आव० ८११ । संकमण-फुडियस्स गमणकाले संकमण भण्णति । नि० संकाइय-साङ्गायिक-मारोवहनयन्त्रं साङ्गायिकम् । भग० चू० द्वि० ८३ अ । सङ्क्रमणं-मूलप्रकृत्यभिधानामुत्तर- ५२० । प्रकृतीनामध्यवसायविशेषेण परस्परं सञ्चारणम् । भय | | संकामणे-सङ्क्रामणं-प्रस्तुतप्रमेयेऽप्रस्तुतप्रमेयस्य प्रवेशनं, २५ । सङ्क्रम्यतेऽनेनेति सङ्क्रमणं चारित्रम् । आचा० | प्रमेयान्तरगमनमित्यर्थः, अथवा प्रतिवादिमते बारमन। १२२ । सङ्क्रामणं परमाताम्यनुज्ञानमित्यर्थः ।अष्टमदोषः। ठाणा. संकमणकाल-सङ्क्रमणकालं-मरणकालम् ।आव० ३४५ । ४६३ । संकममाण-सङ्क्रामन् सङ्क्रमितुमिच्छनु । सूर्य० ४६ । | संकामिओ-सङ्कामितो दत्तः । ६० द्वि०७६ । स्वस्थासंकमिउ-सङ्क्रमितुम् । आव० १९२ । नात् परं स्थानं नीतः सङ्क्रामितः । आव. ५७४ । संकर-सङ्करः, उक्कुरुडिका । उत्त० ३५९ । सङ्कर:- संकामिय-सङ्क्रामितं विभक्तिवचनाद्यन्तयतया परिणापित सङ्कीर्यते सङ्करणं वा-सम्पिण्डनं सङ्करः । परिग्रहस्य | तदनुयोगः । गणा० ४६५ । सप्तमं नाम । प्रभ० ६२ । सङ्करः-भिन्नजातीयानां संकास-सङ्काशः-सदृशः । उत्त० ४५६ । सङ्काश-सहमोलकः । सूत्र० ११ । नि० चू० तृ० १३३ आ । शम् । उत्त० ८४ । संकाश:-छायाविशेषः । आव. तृणादिकचवरः । ३० तृ० १८ अ । संमिलनशील: १८६ । निर्भयो वा । बृ० तृ० ९७ अ । सकर:-नाम किश्चिद् | संकासा-साशा-सहशी । उत्त० ६५२ । ग्रामोऽपि खेटमपि छाश्रमोऽपि । बृ० प्र० १८१ बा । संकिए-शङ्कित:-सञ्जातशङ्कः । भग० ११४ । सकर:-तृणाद्यवाकरः । व्य० प्र० ११५ आ। संकिओ-शङ्कित:-भिक्षादोषविशेषः । आव० ५७५ । संकरक्षत्रिय-प्रधानक्षत्रियः, द्विजेन क्षत्रिययोषितो जातः। संकिट्ठा-संकृष्टा--विलिखिता । ज्ञाता० १ । संक्तिष्टाआचा० ८। ___ अतिसङ्कटा । व्या दि. १८१ ला। संकर दुस-सङ्करः स चेह प्रस्तावात्तणभस्मगोमयाङ्गारादि-संकिण्ण-सङ्कीर्णः- शबलीकृतचारित्रः । बृ० तृ. १६॥ मोलक सक्कुरुडि केतियावत् तत्र दुष्यं वस्त्रं सङ्करदुष्यम्। संकित-एषणेऽप्यनेषणीयतया शङ्कितः । ठाणा. ४८४ ॥ उत्त० ३५६ । शतिः-यस्य त्रीणि स्थानान्यहितादित्वाय भवन्ति स संकरिसण-आगमि यामुत्सपियां नवमवासुदेवः । सम० शात:-देशतः सर्वतो वा संशयवान । ठाणा. १७६ । १५४ । शतिः -किमिदं निष्पत्स्यते न वेत्येवं विकल्पवान् । संकला-शृङ्खला । आव. ३५० । ज्ञाता० ९४ । शङ्कित:-एकभावविषयसंशययुक्तः । ठाणा. संकलिअं । आव० २२६ ।। २४७ । (१०३६) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकितगणणोवगा ) माचायंधीवानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ संखडि संकितगणणोवगा-शहितगणनोपपाता चासो पणना संकोषिय-संक्रोधिकम् । सूत्र० ३२८ । च तिगणना तां शङ्कितगणनामुपगच्छति या प्रत्यु। संकोय-सङ्कोचः । मग० २३६ । पेलणा सा । मोघ० ११.। संक्खावत्त-ललाटः । नि० चू० प्र० ३४७ अ । संकिन्न-सङ्कीर्णः-स्वपक्षपरपक्षव्याकुछः । भग. ११६ । संक्रम-अनेकेष्टकादिनिर्मितः । । ओघ• ३१ । संकिय-शङ्कितं सम्माविताधाकर्मादिदोषम्, प्रथम एषणा. संक्लिश्यमानकं उपशमश्रेणेः प्रच्यवमानस्य प्राप्यते । दोषः । पिण्ड० १४७ । किशे• ५५५ । संकिलि-सङ्कल्प्य । वृप्र. ११:। संख-एकोनविंशतितममहाग्रहः । ठाणा• ७८ । शङ्ख:संकिलेस-असमाधिः । ठाणा० ४८६ । सङकलेशः-तीवा- महानिधिः । जं० प्र० २५९ । तृतीयवेलन्धरपर्वते शुभपरिणामः । बाव० ६६१ । पल्योपमस्पितिको देवः । ठाणा० २२६ । सप्तमभाविकिलिस्समाण-सडिलक्ष्यमानकं, तत्तपशमणित: प्र- तीर्थकरपूर्वभवनाम । सम० १५४ । शलः । प्रजा. च्यवमानस्य । प्रज्ञा, ६८ । ३६१ । शङ्ख:-महाग्रहविशेषः । जं० प्र० ५३४ । संकु-शङ्कप्रमाणः । जीवा० १८६ । शङ्खो वक्षस्कारः । जं०प्र० ३५७ । शङ्खः-मायोदाहरणे संकुइअ-सचितं अशुभकायव्यापारपरित्यागात् । आव० गजपुरनगरे इभ्यभावकः, यस्य पूर्वमवे धनश्रीः सा सर्वाङ्गसुदरी दुहिता जाता । आव. ३९४ । शङ्खःसंकुइय-संकुचितं-वलीभृतम् । वृ० दि. २४४ मा ।। मथुरायां युवराजः । उत्त० ३५४ । चक्रवर्तनवममहा. संकुचिअपसारिअ-सङ्कचितप्रसारितं दिव्यनाट्यविधिा, निधिः । ठाणा० ४४८ । द्वाविंशतिनेमिजिनपूर्वभवनाम । सोचनेन सङ्कुचितं प्रसारणेन च प्रसारितम् । जं० प्र. सम. १५१ । भगवत्या द्वादशमक्षतके प्रथमोहेशकः । ४१२ । भग• ५५२ । भयवस्यां त्रयोदशशतके दृष्टान्तः । भम संकुचिय-सचितं गात्रसहोचकरणम् । दश ४।। ६१८शत:-प्रतीयो वेलन्धरनागराजः। जीवा० ३११। संकुडण-सोचनम् । बोष. १७८ । शङ्क:-तृतीयवेलन्धरनागराजस्य आवासपर्वतः । जीवा. संकुडा-सङ्कुचा सङ्कुचिता । सूर्य० ६७ । ३११ । शङ्खः-गणराजा, सिद्धार्थ राजमित्रम् । आव. संकुडिअ-सङ्कटितं, सङ्कचितम् । जं० प्र० १७० । २१४ । संग्रामः । ४० द्वि० २५६ ब । श्रमणोपाससंकुडिय-सङ्कटतम् । भग० ३०८ । कविशेषः । भग० १५२ । राजा-वाचविशेषः । भग संकुला-सङ्कटा । प्रभ० १६ ।। २१६ । काशी-वाणारस्या नरपतिः । शाता० १४१ । संकुलिकन्नदीव-सवणसमुद्रे विदिषु चतुर्थोऽन्तरद्वीपः । काशीराजा । ज्ञाता० १२४ । शङ्ख:-दीर्घाकृतिः । नि. ठाणा० २१६ । चू० तृ० ६२ अ । शङ्ख:-काशीजनपदराज: वाराणसी संकुलिकन्ना-सङ्कुलिकर्णद्वीपे मनुष्याः । ठाणा. २२६ । निवासी । ठाणा० ४०१ । शङ्खः-समुद्रोद्भवो जन्तुसंकेय-केतनं केतं-चिह्नमङ्गष्टमुष्ठिप्रन्थिगृहादिक स एव | विशेषः । जीवा० ३१ । शङ्खः । आचा० ४१२ । केतकः सह केतकेन सकेतक ग्रन्थादिसहितम् । नवम संखचन्न-शकचूर्ण-शङ्कनिष्पन्न रजः । पिण्ड प्रत्याख्थानम् ।। ठाणा० ४९८ । सङ्केत केतं सचिह्न, संखड-स्वक्षेत्रपक्षपातजनिता र टिरिति । ओघ० ७० । चिह्नसहितम् । आव. ८४० । कलहः । पिण्ड० १०० । संकोए-स्कोचनं जानुसदंशकादेः । ओघ० २१४ । संखडति-सङ्खण्डयति । श्राव० १११ । संकोचनवल्लो-हस्तस्पर्शादिभीत्याऽवयक्सङ्कोचनवल्ली । | संखडि सांड:- संड्यन्ते-विराध्यन्ते प्राणिनः यत्र सा भयसज्ञायाँ दृष्टान्तः । विशे० ६६ । सङ्खण्डिः । आचा० ३२९ । सङ्घडि-सङ्खडिभक्तम् । संकोडणा-सवोटता गात्रसोधनम् । प्रभ० ५६ । । बाचा. ३३० । संखडी-प्रकरणविशेषः । ओघ० ४७ । (१०४०) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संडिकरणं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ संखालग प्रकरणम् । वृ० त० ४३ था। असावाहाराय सङ्कड्यन्ते। पकत्वेन वा । उत्तः २२७ । प्राणिनोऽस्यामिति सण्डिः । आचा० ३०६ ।। | संखलेत्तण-विश इलय्य । उक्त० १०० । संखडिकरणं-सखड्यन्ते प्राणिनो यस्यां सा सङ्खडि:- | संखवण-मालभिकानगर्या मुद्यानम् । उपा० ३६ । याल. अनेकसत्त्वव्यापत्तिहेतुः, तस्याः करणं सङ्कडिकरणम्, भिकायो चैत्यम् । भग० ५५० । प्रथमालिकादि । बोघ०११। नि. चू०प्र०२८५ अ संखवण्ण-विशतितममहाग्रहः । ठाणा० ७८ । संखडिनिवेस-सङ्कडिनिवेशः । आचा० ३३१ । संखवण्णाभ-शङ्कवर्णाभ:-ग्रहविशेषः। जं० प्र० ५३४। संखडी-सडि:-विवाहादिप्रकरणं, सङ्गड्यन्ते प्राणिनो। संखवन्नाभ--एकविंशतितममहाग्रहः । ठाणा० ७९ । अस्यामिति सङ्घडिः । पिण्ड ० ७९ । यत्र धनजनसमु- संखवाल-धरणाभिधाननागराजस्व लोकपालः शङ्खालकः, दायो जेमनार्थ मिलितः । आव०८५६ । गोचरीदोषः । वरुणस्थ पुत्र स्थानीयो देवः। भग० १६६ । शङ्कआव० ३१४ । सडि:-सामयिकीभाषया भोजनप्रकर- पालकः अन्ययूथिकः भग० ३२३ । आजीवकोपाशकः । णार्थः । ओघ० २३ । प्रकरणम् । ओघ० ४७ । सङ्गडि। भग० ३७० । आव० ८४६, ३६६ । छिडिका । बृ० द्वि०१५ आ। संखसमए-सालयसमयः-साङ्खघसमाचारः । ज्ञाता० नि० चू० प्र० १८५ आ । १०५ । संखणग सङ्खागारो। नि० चू०प्र० ५७ आ । शङ्खनक- संखसिला- शङ्खशिला-मुक्तशैलादिका शिला।सूत्र० २६२ । शङ्खाकृति रेयास्यन्तलघुर्जीवः । उत्त० ६६५ । शङ्खनक:- संखा-सम्यक रूपायते-प्रकाश्यतेऽनयेति संख्या प्रज्ञा । लघुशङ्ख । जीवा० ३१ । शङ्खनक:-शङ्घ एव लघुः ।। आचा० २५१ । दीन्द्रियविशेषः शङ्खः समुद्रोद्भवः । प्रज्ञा० ४१ । प्रज्ञा० ४१ । साङ्चतम् । ज्ञाता० १०५ । संख्यायन्तेसंखणाभ-शङ्खनामः ग्रहविशेषः । जं० प्र० ५३४ । परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्था येन तज्ज्ञानं सङ्ख्या । संखतलं-शङ्घतलं-शङ्खमध्यभागः । जं० प्र० ५२७ । सूत्र० २३५ । ठाणा० ८० । साङ्खाः ब्राह्मणपरिव्राजकः । शङ्घतलं-शङ्खस्योपरितनो भागः । ज० प्र० ४६ । औप. ६६१। सया -व्यवस्था । सूत्र. ४१३ । शङ्कतलं-शङखस्योपरितनो भागः । जीवा० ३६० । संखाइआ-सङ्ख्यानं सङ्ख्या तामतीताः सङ्ख्यातीता शलतलं-शहस्योपरितनो भागः । जीवा० २०५। असङ्ख्येया इत्यर्थः । बाघ. २७ । संखदत्तित-सखचादत्तिकः-सङख्याप्रधाना:-परिमिता संखाण-सख्यानं-गणितम् । ठाणा०४५२ । सयानएव दत्तयः- सद्भक्तादिक्षेपलक्षणा यस्य सः सङ्ख्या- गणितम् । विशे० ९२८ । भगवत्यां दृष्टान्तः । भग० दत्तिकः । ठाणा० २९८ । ६७४ । सयान-गणितस्कन्धः : भग ११४ । संखदल-शङ्खदलं शङ्खदलचूर्णम् । प्रज्ञा० १०७ । संखादत्तिए-भिक्षाचर्यायां भेदः । भग० ६२१ । सङ्ख्या. शङ्खदलं शङ्खशकलम् । जोवा. ३६० । प्रधानाः पञ्चषादयो दत्तयोभिक्षाविशेषाः । भग० ११४॥ संखधमग-शङ्ख मारवा यो जेमति । भग० ५१६ । । संखादत्तिय-सङ्ख्याप्रधानाभिर्दत्तिभिश्वरति यः सः सङ्ख्या. संखधमा-शङ्ख मात्त्वा ये जेमन्ति, तापसविशेषः । दत्तिकः । प्रश्न० १०६ । निस्य. २५ । संखाय-सङ्ख्याय-अवधार्य । आचा० २५८ । संखपाल-धरणस्य चतुर्थो लोकपालः । ठाणा. १९७ । संखायण-सायायनं-श्रवणगोत्रम् । जं० प्र० ५०० । संखमाला-शङ्खमाला द्रुमगणविशेषः । ज०प्र० ९८ । संखायणसगोत्त-श्रवणनक्षत्रगोत्रम् । सूर्य० १५० । एकोरुकद्वीपे वृक्षविशेषः । जीवा० १४५ । संखार-संस्कारः । बृ. द्वि० २५५ मा । संखय-संस्करें- तन्तुवात्सन्धातुम् । सूत्र. ६७ । संस्कृतः संखारा-तुम्नाकविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । न तात्त्विक शुद्धिमान किन्तूपचरितवृत्तिः, संस्कृतागमप्ररू- संखालग-शङ्खवन्तौ च शङ्खयो:-अक्षिप्रत्यासन्नावयवि. ( अल्प० १३१) (१०४१ ) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखावत्ता ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ संगय शेषयोः संलग्नौ-सम्बद्धावित्येके । ज्ञाता. १३३ । । पूर्वः । बाचा. ३३२ । संखावत्ता-शावर्ता-शस्येवावा? यस्यां सा। ठाणा० संग-सङ्गः-यस्य महामुनेरवगतसंसारमोक्षकारणस्येयं स१२२ । शङ्खस्येवावर्तो यस्याः सा शावर्ता, मनुष्य- ङ्गः-प्रारम्भः । बाचा० २५८ । सङ्गः-मावतोऽभिधङ्गः, योनी द्वितीयो भेदः । प्रजा० २२७ । स्नेह गुणतो रागः । आव. ७२३ । सङ्गः-सम्बन्धः, संखआ-शखिका-लघुशवरूपा, तस्याः स्वरो मनाक शब्दादि: वाऽभिष्वङ्गविषयः । उत्त. १८३ । सङ्ग:तीवणो भवति न तु शङ्कस्येवाति यम्भीरः । जं० प्र. अष्टविध कर्म विषयसङ्गः । आचा० ७९ । संगइ-सङ्गतिः नियतिः । सूत्र. ३।। संखिगा-शङ्खिका-ह्रस्वः शङ्खः । भग• २१६ । संगइय-स्वाङ्गिकं-परिभुक्तप्रायम् । दातुः स्वाङ्गिक परिसंसित - सङ्ख्येयः-वर्षसहस्रात्परः । नंदी० ६४ । भुक्तप्रायम् । आचा० ४०० । नियतिः । सूत्र. २८६ । संखित्त-संक्षिप्त-स्तोकावगाहनम् । भग० ९६६ ।। यस्मिनु दिवसे यद्वाहयते तत्सङ्गतिकम् । वृ० प्र० १०६ संखिद-शङ्ख कं, चन्दनगर्भशङ्खहस्तः, माङ्गल्यकारिणः आ । . शङ्खध्मा। जं० प्र० १४२ । संगए-परिचितः सङ्गतं विद्यते यस्यासी साङ्गतिकः । संखिय-चन्दनगर्भशङ्खहस्तः, शङ्खवादकः । भग० ४८।। ठाणा० २४५ । संखिया-शंडिका-लघुशङ्खरूपा । जीवा० २६६ । ह्रस्व- संगएइ-साङ्गतिकः, सङ्गतिमात्रघटितः। ज० प्र० १२३ । शङ्खो जात्त्यन्तरात्मक: शङ्घिका । राज. ४६। संगकर-सङ्गकर:-प्रतिबन्धोत्पादकः । उत्त० ३६० । संखुन्न-सक्षुन्नं-सङ्कुचितम् । बृ० प्र० २६४ था। संगतं-सङ्गतं-मैत्रीगतं गमनं-सविलासं चङ्कमणम् । संखेज्जइभाग-सङ्ख्येयभागः । अनु. १६३ । सूर्य० २९४ । संखेजक-सख्यातक-सख्यातवर्षसहस्रलक्षणम् । प्रभ० संगतिकपात्र-पात्रविशेषः । वृ० प्र० १०६ अ । २४ । संगथ-सङ्ग्रन्थः-स्वजनस्यापि स्वजनः पितृव्यपुत्रशालादिः । संखेजजीवित- सहयातजोविक:-सख्यातजीव:-वनस्प- आचा० १००। सङ्ग्रन्थ:-स्वनस्यापि स्वजन: पितृव्यतिकाये प्रथमो भेदः । ठाणा० १२२ । पुत्रशालादिः । जं० प्र० १४६ । संखेजलोविया-वृक्षजीवितव्ये प्रथमो भेदः । भग० ३६४ । संगम-नदीमीलकः । ज्ञाता० ३३ । सङ्गमः-नदीमिलकः । संखेचवित्थड-सहध्येयविस्तृत-सङ्येययोजनप्रमाणं विस्तृतं-विस्तारो यस्य स । जीव० १०६ । संगमओ-मङ्गपकः । आव० २१९ । सङ्गमक-सौधर्मसंखेव-सक्षेपः सङ्ग्रहः । ठाणा० ५०३ । सङ्क्षेपणं कल्पवासीदेवः, अभवसिद्धिकः। आव० २१६ । संगमक:सझेप: । आव० ३६४ । सक्षेपः-सङ्ग्रहः । 1गा.. कणयिनचतुर्थभङ्गे दृष्टान्तः । व्य. प्र. २०६ मा । ५०४ । संगमथेर-सङ्गमस्थवियः, नित्यवासी आचार्यविशेषः । संखेवरुई सङ्घरुचिः-मक्षेप:-सङ्ग्रहस्तस्मिन् रुचिर्यस्य | बाव. ५३५ । सङ्गमस्थविरः-कुजयरनगरवातव्य आ. स । उत. ५६३ । सचेप:-सङ्ग्रहः तत्र रुचिर्यस्य विस्त- चार्यः । उत. १०८ । सङ्गमस्थ बर:-नित्यवासी आचार्य. रापरिज्ञानात् स सङ्क्षपरुचिः । प्रज्ञा० ५६ । सझेप:- विशेषः । आव० ५३८ । आयरिया । नि. चू • द्वि. संग्रहः तत्र रुचिः सझेपरुचि. चिलातिपुत्रवत् । ठाणा० १५ आ। संगय-सङ्गत:-सर्वकामविरक्तताविषये देवलासूतराजस्य संखोभिजमाणी- सङ्क्षोभ्यमाना-अधो निमज्जनतः तद्- दासः । आव० ७१४ । सङ्गत-सुश्लिष्टम् । जीवा. गतलोकक्षोमोत्पादात् । ज्ञाता० १५६ । .. २७६ । सङ्गतं-उपपत्तिभिरबाधितम् । प्रश्न. १२० । संखोभियपुत्र-कायेनापरस्य चरकावेः कायः सङ्क्षोभित सङ्गतः-उचितः । ज्ञाता• १३ । सङ्कतः-देहप्रमाणोचितः। ( १०४२) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगलिया ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ | संघ - जीवा० २७१ । सङ्गत:-अनुगतः सदृशः । प्रश्न० ८४। आव० ६६४ । संगलिया-फलिका मुद्रा भाषाश्च । अनुत्त० ४। संगाम-सग्राम:-तृतीयवासुदेवनिदानकारणम् । आव० १६३ टी. संगह-सङ्ग्रहणं भेदानां सङ्गृह्णाति वा भेदान् सङ्ग्र सगामरह सङ्ग्रामरयः, समामार्थ रथः । जीवा० २८१ ॥ ह्यन्ते वा भेदा येन स सङ्ग्रहः । ठाणा० ३६० । सगामसोस-सङ्ग्रामशीर्ष:-युद्धप्रकर्षः । उत्त० ४८६ । सामान्यप्रतिपादनपरः मूलनयः । ठाणा० ३९० । सङ्ग्रह्णा संगामिया-कृष्णवसुदेवस्य द्वितीया भेदी । बृ. प्र. ५६ तीति सङगृहः । ओघ. २०७ । दशविघदाने द्वितीयो अ । सहयामिकी-देवतापरिगृहीता गोशीर्षचन्दनमयी भेदः, ध्यसनादौ सहायकरण तदर्थ दानम् ।ठाणा० ४६६ । भेरी । आव० ९७ । सङ्ग्रहः-शिष्यादिसङ्ग्रहणम् । प्रभ• १२६ । सङ्ग्रहः- संगार- सङ्गार:-संकेतः प्रथग्भावकाले कर्तव्यः । ओघ, सम्यक् पदार्थानां सामान्याकारतया ग्रहणं सङ्ग्रहः । सूत्र० १७ । सङ्केतः आव० ३६७ । सङ्केतस्तस्माद् या सा ४२६ । नविशेषः । प्रज्ञा० ३२७ । सङ्ग्रहः-शिष्याणां समारप्रवज्या, मेतार्यादीनामिति । ठाणा. १२६ । खग्रहणम् । व्य०प्र० १७२ अ । समाहकः । व्य० प्र० | सङ्गार:-सतः । सूत्र० ११ । सङ्कारः। ओष० ७३ । २४७ । संग्रहण भेदानां सङ्गलाति वा तान् सङ्ग्रहन्ते सङ्गार:-सतः । ठाणा. २४५ । सङ्केतः । आव० वा ते येन स, सग्रहो-महासामान्यमात्राभ्युपगमपर इति । ५६५ । सङ्गार: । ओघ १७ । संकेतः । ६० तृ. ठाणा० १५२ । सङ्ग्रहीत: संग्रहः-अभिन्नत्वमेकत्वम् ।। ३७ अ । सङ्केतः । ज्ञाता. ६१ । सङ्गार:-सङ्केतः । विशे० ५१ । संगृह्यते इति सङ्ग्रहः-वर्षाकस्पादिः । व्य. प्र. १३० अ । उत्त० ५२७ । सङ्ग्रहः-समुदायः । ठाणा० २२३ । संगारदिण्णओ-दत्तसङ्केतः । आव० ९५ । सङ्ग्रहः-शिष्याणां श्रुतोपादानम् । ठाणा० ३५० । संगिण्हइ-संगृह्णाति-एकत्वेनाऽभ्यवस्यति । विशे० ५१ । सङ्ग्रहः-समुदायः । दश० ७ । संगिण्हह-सब्गृह्णात-स्वीकुरुत । भग० २१९ । संगहकरो- । नि० पू० प्र. २६६ आ। संगिल्ल समुदायम् । व्या. ३१ अ । संगहकाओ-संग्रहकाय:-प्रभूता अपि यत्रं कवचनेन दिय- संगृह्णाति-कोडीकरोति । अनु० २२३ । गृह - संगेल-सङ्गिल्लं-समुदायः । व्य० द्वि० ३२ म । न्तो गृह्यन्ते स सङ्ग्रहः, तत्सम्बन्धी काया । आव० संगोवग-सङ्गोपकः पहच्छाचारिताया संवरणात् । ज्ञाता० २४२ । संगहकाय-सङ्ग्रहकायः-सङ्ग्रहैकशब्दवाच्यस्त्रिकटुकादिवत् सगोवयामि-संगोपयामि क्षेमस्थानप्रापणेन । भग०६७३, । दश० १३५ । संगोवित्ता-सङ्गोपयिता-अल्पसापरिककरणेन मलिनता. संगहट्ठय-सगृहीत:-शिष्यीकृतः । ठाणा० ३५० ।। रक्षणेन वेति । ठाणा० ३८६ । संगहपरिना-संग्रहपरिज्ञा अष्टमिपरिशा । व्य. द्वि० द्वि० संगोवेति-संयोपयति. पालयति अनामोगेन हस्तस्खलन३६१ अ । कष्टेभ्यः । जं० प्र. १२६ । संगहिअ-सम्यग गृहीत-उपात्तः साहीतः पिण्डित एक संगोवेमाणी-सङ्गोपयन्ती स्थगयन्ती । ज्ञाता० ९१ । जातिमापन्नोऽथो विषयः । अनु० २६४ । संग्रहः-अर्थानां सबैकदेशसंग्रहः । तत्त्वा० १-३५ । संगहिओ-ज्ञानादिमिः सङ्गृहीतः । आव० ७९३ ।। संघ-सङ्घः-गुणरत्नपात्रभूतसत्त्वसमुहः । ठाणा. २८२ । संगहिय-सामान्याभिमुखेनाऽऽग्रहणमागृहीतं संग्रहीतम् । संघ:-समुदायः। प्रज्ञा०५८ । सङ्घः-समस्त एव साध्वा. विशे०६०२ । आभिमूख्येन गृहीतः, उपात्तः संगृहीतः । दिसङ्घातः । आव ५१० । सङ्गः-चातुर्वणः श्रमणादिआव. २८३ । सल्लातः । नंदी ४३ । संघ:-साधुसाध्वीवर्गः । व्य प्र० संगाणपरिणा-सपरिज्ञा. योगसग्रहे त्रिशतमो योगः।। १५३ अ। सङ्घः-गणसमुदायः, चतुर्वर्णरूपो वा । बृ० प्र. (१०४३) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघट्ट ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: ड २६१ अ । सङ्घः-गणसमुदाय इत्येवं सत्रद्वयेन दशविघं | ठाणा. ५१६ । वैयावृत्त्यमाभ्यन्तरतपोभेदभूतं प्रतिपादितमिति । ठाणा० पाहणा-कुलगणसंघथेरा:। नि० चू०प्र०२०७ अ । २६६ । सङ्घ:-चतुर्विधरूपः । आव० ४११ । सङ्घः संघभत्त-सङ्घभक्तम् । पिण्ड ० ८८ । समुदायः । जीवा० १६०, २२७ । संघयण-सहननं-अस्थिरचनाविशेष:, शक्तिविशेषो वा । संघद्र-सङ्घट:-परस्परं संघर्षः । व्य प्र. १३० आ । प्रज्ञा० ४७० । संहनन:-अस्थिसंचयः । सम० १५० । सङ्कट:-जंघाप्रमाणे उदक संस्पर्श सङ्कट: नाभिप्रमाणे संहननं-अस्थिसंचयविशेषः। विशे०१.८८ । संहननंसदकसंस्पर्श । व्य. प्र.२५ आ । जंघा मदं ब्रहति स शरीरसामर्थ्य हेतुः वज्रऋभनाराचादि । उत्त. २३५ । सट्टः । बृ तृ० १६१ अ । अस्थ तले पादतलातो सहननं-अस्थिनिचयः । जीवा० १५ । संहननं-अस्थिआरभेऊणं जाव सक्क जंघाए अद्धं छुट्टति एस संघट्टो भन्नति । संचयः । भग० ७२ । संहननं-अस्थिसञ्चयः । ठाणा० नि० चू० द्वि० ७८ था। सङ्घट्टयेत्-चालयेत् । ओघ. ३५७ । संहनन-धपुई ढीकारकारणास्थिनिचयात्मकम् । ११२। जहाई. मात्रप्रमाण जलं सङ्गठः । ओघ० ३२। जं० प्र० ७० । संहननं-अस्थिसञ्चयविशेषः । भग सङ्घट्टः-जङ्घार्घमुदकम् । आव० ६५६ । वल्ली विशेषः । १२ । संहननः । आव० ४२० । प्रज्ञा० ३२ । संघरिससमुट्टिय-सङ्घर्षसमुत्थितः-अरण्यादिकाष्ठनिर्मथसंघट्टए-सङ्घट्टयेत्-स्पृशेत् । दश० २२८ । नसमुद्भूतः तेजस्कायिकः । प्रशा. २६ । संघट्टण-सङ्घट्टनं-अविधिना स्पर्शनम् । आव० ५७४ । संघसिज-संघर्षम् । आचा० ३४४ । सङ्घट्टन-सम्मईनम् । पिण्ड० १६१ । संघाइए- सङ्घातयति-निष्पादयति । सम० ७५ । संघट्टिओ-सङ्घट्टितः-मनाक् स्पृष्टः । आव० ५७४ । संघाइम-संघातिमं, यत्पुष्पं पुष्पेण परस्परनालप्रवेशेन संघट्टिज-सङ्घट्टम् । आचा० ३४४ । संयोज्यते । जं० प्र० १०४ । संघात्यं कञ्चकादि । संघट्टिय-सङ्घट्टितं-परस्परं घर्षयुक्तम् । जीवा० १६२ । दश० ८७ । सङ्घातितः-अन्योन्यं गात्रैरेकत्र लगितः । संघट्टिया-सङ्घदृश्चाक्रमणभेदोऽत आक्रान्तानां पृथिव्यादीनां आव० ५७४ । सङ्घातिमं-यस्पृष्यं पुष्पेण परस्परं नाल यादृशी वेदना भवति तत् प्ररूपणा । भग• ७६६ । प्रवेशेन संयोज्यते । जीवा० २६७ । सङ्घातिम-संघातेन सघदेइ-सट्रयति-स्पृशति । आव० ६१३ । निष्पन्नं, इतरेतरनिवेशितनालपुष्पमालावत् । प्रभ० १६० । संघट्टेति-सङ्घट्टयति-प्रसीव सङ्घात विशेषमापादितान् कुर्वः । मङ्घातिम-यत्परस्परतो नालसङ्घातेन सङ्घात्यते। जीवा० स्ति । प्रजाः ५९२ । २५३ । सङ्घातिम-बहुवस्त्रादिखण्ड सङ्घातनिरूपन्नो वस्त्र. संघद्रह सट्टयथ-स्पृशथ । भग० ३८१ । विशेष: कञ्चुकवत् । अनु० १३ । सङ्घातिम-यत्परसघडसि-निरंतरदर्शी । आचा० १९५ । स्परतो नालसङ्घातनेन सङ्घात्यते । भग० ४७७ । संघडिए-ममर्थः तदिवसपर्याप्त भोजो वा०त १६७ । संघाए-संघातः । विशे० ४२६ । अनन्तानां परमाणूनां संडिय-सम्यग घटित:-परस्परं स्नेहेन सम्बद्धः वयस्य | विशिष्टकपरिणामापत्तिः सजातः । अनु० १७६ । इति । उत्त० ३६४ । देशीपदमव्युत्पन्नमेव मित्राभिधायि। संघाएइ-सङ्घटयति अन्योऽन्य गात्रैः संहतं करोति । भग० उत्त० ३९४ । २३० । संघथेरा-सङ्घश्थविरा:-लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च व्यव. संघाएति-सङ्घातयत्ति परस्परं सङ्घातमापन्नं कुर्वति । स्थाकारिणस्तद्भङ्क्तश्च निग्राहका: । ठाणा. ५१६ । प्रज्ञा० ५६२ । संघदासगणि । बृ०प्र०९६ अ संघाएह-सकातयथ-संहतां कुरुष । भग०३८१ । संघधम्म-सङ्कधर्म:-गोष्ठीसमाचारः आहतानां वा गण. तिः प्राथमिको ग्रहः । आव० ४६२ । समुदायरूपश्चतुर्वर्णों वा सवस्तबम्मे:- तत्समाचारः । 'संघाड-सङ्घाटः ज्ञातायां द्वितीयमध्ययनम् । आव ०६५३ । ( १०४४ ) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ संचाएजा संघाय - सङ्घातः - परस्परगात्रसंस्पर्श पीडारूपः । दश ० १५६ । संघायणनाम-सङ्घात्यन्ते पिण्डी क्रियन्ते ओदारिकादिपुगला येन तत्सङ्घातं तच तन्नाम च सङ्घातनाम । प्रज्ञा० ४७० । संघावणा - संघःतना । आव० ४१० । संघातना - संहत्यमानानां संयुज्यमानानामोदारिकादिपुद्गलाना तेजसकार्मपुद्गलैः सह यदात्मनस्तत्तत्पुद्गलग्रहणात्मिकासु तदनुकूलक्रियासु वर्त्तनात्मकं प्रयोजकत्वं सा । उत्त० ११८ । संघाय णिज्ज्ञ - संघातनीया - प्रमाणपुरुषतया सीलनीयः । संघाडओ - सङ्घाटक: । आव ० ३६७ । संघाडगो-सङ्घाटक: । आव ० ८३८ । उत्त० ५६३ । संघाडि संघाटी-निर्ग्रन्थिका प्रच्छदविशेषः । ज्ञाता० २०४ संघाययति सङ्घातयति योजयति । दश० १६२ । संघाय संखाद्याद्यक्षपसंयोगरूपाः सङ्ख्येयाः सङ्घातस संघाडइल्ल ] सम० ३६ । सङ्घातः - षष्ठाङ्गे द्वितीयं ज्ञातम् । उत्त० ६१४ । शृङ्गारकम् । प्रज्ञा० ४० । सङ्घाटक :- श्रेष्ठिचौरयोरेकबन्धन बद्धत्वमिदमप्य भीष्वर्थज्ञापकत्वात् ज्ञात. मेव । शातायां द्वितीयमध्ययनम् । ज्ञाता० १० । सङ्घाट:समानलिङ्गयुग्मरूपम् । राज० ६९ । सङ्घाटकम् । आव० ९१ । सङ्घाडो-युग्मवाची । ज० प्र० २३ । संघाइल सङ्घाटकीय: । आव० ८६३ । सङ्घाटिकः । नि० चू० द्वि० ९६ अ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशम्वकोषः, भा० ५ सङ्घा वस्त्रसंहतिजनिता । उत्त० २५० । संघडिए - समर्थ: तद्दिवसपर्यासभोजी वा । बृ• तृ० १७९ अ । सङ्घाटिकः सहचारी | जं० प्र० १२३ | संघाडिम-कंचुकादिसु कट्टसंबंधीसु वा सघाडिमं । नि० चू० द्वि० ७१ आ । संघाडिया - शृङ्गाटिका । आव० ६२२ । संघाडी - संङ्घाटी | आव० ३१३ सङ्घाटी । ओघ० २०९ । सङ्घाटी - कल्पद्वयं श्रयं वा । आचा० ३०९ । सङ्घाटो:उत्तरीयविशेषरूपः । ठाणा १८७ । प्रायेण संघडिज्जंतित्ति संघाडी गुणसंघायकारिणी वा संघाडी । नि० चू० द्वि० ६३ अ । संघाडए - संघटक :- साधुयुग्मम् । बृ० द्वि० ८६ आ । संघाडे ति संघातयति । आव ० ९९ । संघात सङ्घातं अधिकं गात्रसकोचनम् । आचा० ५५ । अन्योन्यासकोचनम् । आव ० ११ । परोप्परतो गत्ताणं संपिडा । दश० चू० ६६ । संघातत्ता-सङ्घातत्त्वं तथारूपशरीरपरिणति भावः । जीवा० ३४ । संघातिम-स्वाति मं यत्परस्परतः पुष्पनालादिसङ्घातनेनोपजन्यत इति । ठाणा० २८६ । सङ्घातिमं - सङ्घातनिष्पाद्यम् । ज्ञाता० २७९ । चोलकादि । आचा० ४१४ । नि० चू० द्वि० ७६ | दुर्गातिपट्टापश्वारेण । नि० चू० द्वि० ७६ अ । संघात - सङ्घातयतः पूरयतः । सूर्य० २२ । वयाः । अनु० २३३ । संघाया - सङ्घाता-द्विधा पर्यवाणामक्षराणां च । वृ० प्र० ४३ मा । संचइया - घयगुलमोइगाइणा जे अविणासी । नि० ० ० २०२ मा । संचयसंजात एषामिति संचयिता। तारकादिदर्शनादितः प्रत्ययः येषां षण्यां मासानां परतः समासादिकं यावदुत्कर्षतोऽधीतं शतं मासानां प्रायश्चित्तप्राप्तास्ते संचयिताः । व्य० प्र० ६७ आ । संचतिता - जे छण्डं मासाणं पारणपच्छित्तं पत्ता तं सत्तमासादि जाव आसी तं सतं मासाणं ठितेसि उवणारोवणविभागण दिवसा घेत्तुं छम्मायो णिप्पाएता दिज्जति । नि० चू० तृ० १२२ आ । संचय - संचीयते संचयनं वा सञ्चयः परिग्रहस्य द्वितीयं नाम । प्रश्न० ६२ । संचयकृत्स्नं शीतं मासाशतं ततः भावात् । व्य० प्र० ११६ आ । संचय होइ सञ्चयपराभवन्ति-अनागतमेव चिन्तयति । ओघ० १०० । संचरणं उपयोगगमनम् । उत्त० १६६ । संचाएइ - शक्नोति । भग० ११२ । शक्नोति । ठाण १४३ । शक्नोति । आचा० ३३१ । | संचाएति - शक्नुवति । ठाणा० ३१२ । सचाएजा - शक्नुयात् । प्रज्ञा० ३६६ । ( १०४५ ) परस्य संचयस्या Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचार ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ संजमखेत्त संचार-सञ्चार:-सञ्चारिमकीटिकामत्कोटादिसत्त्वव्याघातः | संजइत्त-संयतीसत्कः । व्य. द्वि० ३१ अ । - । पिण्ड० १६२ । संजईज संयतीयं-उत्तराध्ययनेष्वष्टादशममध्ययनम् । उत्त० संचारसम-सञ्चारसम-वंशतन्त्र्यादिभिर्यदलपचारसमं । गीयते तत् । ठाणा• ३६६ । बंशतन्त्र्यादिष्वेवाङ्गली. सजउ-सम्यग यत: संयतः असयापारम्प उपरतः । उत्त. सञ्चारसमं यद्गीयते तत् सञ्चारसमम् । अनु. १३३ ।। ३६० । संचालेति-संचालयति संचाएयतीति पर्यालोचयतीव्यर्थः। संजए-संयतः रागद्वेषावपाकृतयः स्थितः । दश. १७८ । ज्ञाता. २४ । संजणित-संजनित:-उत्पादितः । ज्ञाता० ३१ । संचितिज-संसेवितम् । खाव. ५८६ । संजतासंजत संयतासंयतः-देशविरतः । प्रज्ञा० ३६२ । संचिक्ख-संतिष्ठति । बोध. ४. । संजतिपाउरणे- । नि० चू०प्र० १६१ अ । संचिक्खइ-सन्तिष्ठते । आचा. २४२। प्रतीक्ष्यते, कार्या. | संजत्ता-सङ्गता यात्रा-देशान्तरगमनं संपात्रा । ज्ञाता। द्विरमति । आव. ७५५ । १३२ । संचिक्खमाण-समतया ईक्षमाणः-पश्यन् । उत्त. ४०६।। संजत्ताणावावाणियया-सङ्गता यात्रा-देशान्तरगमनं संचिक्खाविद्धति-संरक्ष्यते । आव० ८३८ । सयात्रा तत्प्रधाना नौवाणिजका:-पोतवणिजा: संयात्रासंचिक्खावेउ-प्रतिपालयति । ओष. ११८ । मौवाणिजकाः । ज्ञाता. १३२ । संचिक्खावेत्ता-प्रतीक्ष्य । आव० ६४१ । संजम-संयमनं संघम:-पापोपरमः । ठाणा० ३२३ । संचिक्ले-निरूपवति । ओष. १६७ । संतिष्ठेत् । ओघ० | सयमः-प्रत्त्युपेक्षादिः । भग• ७५९ । संयमः- मूलगुण. ५९ । समाधिवा तिष्ठेत । न कूजनकर्फरायितादि रूपः । अनु० २५६ । संयमः-संवरः । ज्ञाता० ८ । कुर्यात् । उत्त. १२० । संतिष्ठति । बोष० ४० । संयम:-संवमवान्, साधुः । उत्त० ३१५ । संयम:संचिक्खेइ-परिभावयति । व्य.दि. २५७ ब । प्राणातिपाताधकरणम् । ठाणा० १५६ । सयमः-प्रेक्षोत्रे. संचिटण-संस्थानं अवस्थितिक्रिया । भग० ४७ । क्षाप्रमार्जनादिलक्षणः । ठाणा० ३६० । संयमः-अनवद्यासंचिटणा-कायस्थितिः । जीवा० ६६ । अवस्थानम् । नुष्ठानलक्षः । आव० ३४१ । संयमा-हिंसात उपरमः, नीवा० ६१। सातत्येनावस्थानम् । जीवा. ७८ । अहिंसायाश्चत्वारिंशत्तमं नाम । प्रभ० ९६ । संयम:कायस्थितिः । जीवा. ४०६, ४२८ । पञ्चाश्चवनिरोधादिलक्षणः । सूर्य० ५। संयम:-पृथि. संचिनोति-बग्नाति । उत्त० २४६ । व्यादिसंरक्षणलक्षणोऽभिनवकर्मानुपादानफनः । प्रश्न संचिय-आबाधाकालातिकमेणोत्तरकालवेदनयोग्यता निषि- १०२। संयमः-रक्षा । भग. १२२ । संयमः-प्रज्ञापनाया क्तम् । प्रा० ४५६ । द्वात्रिंशत्तमं पदम् । प्रशा०६ । संवरः। भय १३ । संच्छिन्न-व्याप्तः । ज्ञाता. ७८ । संयमः-प्रतिपत्रचारित्रः । भग०४३३ । संयमः पश्चाश्र. संच्छोभ-संक्रामणम् । वृ० प्र० ३.१ बा । मनिरोधादिलक्षणः । जं.. प्र. १६ । संयमः-सत्यम् । संछण्णं-संछन्नं जलेनान्तरितम् । जं. प्र. १२३, २९१ । पाव. ७ ५ । संयम:-देशविरस्यात्मकः । उत्त० २४६ । संछण्णपत्तभिसमुणाल-सम्न्नपत्रबिंशमृणालः । आव० संयम-पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणः । भग० १००। संयमो-१९ । रक्षा । ज्ञाता. ६० । संयमः-प्राणातिपातादिनिवत्ति. संछन्न-जलेनान्तरितम् । जं० प्र० ४२ । लक्षणः । आव० ६०४ । संछोभ-प्रक्षेपकम् । वृ० द्वि० २६५ अ । प्रक्षेपः । व्य. संजमखेत्त-जत्य आहारोवहिसेजाकाले वा सति सततं द्वि. ३४२ अ। अविरुद्धो य उहि लम्भति । नि० चू० प्र०१३० वा। संजइव-उत्तराध्ययनेषु अष्टादशममध्ययन् । सम. ६४।' नि० चू० प्र० ३५४ छ । (१०४६ ) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजमघाय । अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०५ [ संजीहारं खंजमघाय-संयमपातक-संयमविनाशकम् । आव०७३१।। संजयलाभ-संयतलामः-स्वर्गापवर्गप्राप्तिरूपः । उत्त. संजमजाया-संयमयात्रा-संयमानुपालनम् । मग. २९४ । ४७८ । संजमजीय-संयमजीवितम् । आव० ४८० । संजयासंजय-संततासंयतः हिसादीनां देशतो निवृतः । संजमजीविय-संयमजीवितं साधूनाम् । ठाणा० ७ । प्रज्ञा० ५३५ । संजमजोओ-संयमयोगः संयमध्यापारः । आव० २६३ । संजयोय-संयतीयं-उत्तराध्ययनेष्वष्टादशममध्ययनम् । उत्त. संजमजोग-संयमयोगः प्रत्त्युपेक्षणादिः । बृ० प्र० १७२ ।। ४३७ । संजमज्जवगुण-संयमार्जवगुणं संयमाजवे गुणो यस्य तपसः संजलण-सञ्जलतीति सञ्जमनः-प्रतिक्षणरोषः, अष्टममस. स । दश० २०७ । माधिस्थानम् । सम० ३० । चतुष्प्रकारकषायः । सम. संजमटू-संयमार्थः अनाश्रवत्त्वम् । भग० १०० । ३१ । सज्वलन:-मुहुर्मुहुः क्रोधाग्निना ज्वलनम् । भग. संजमणा-सयमः । ओघ० ११४ । ५७२ । संज्वलन:-यो महूर्ते २ रुष्यति, अष्टममसमाधिसंजमबहुल- संयमबहुल:-पृथिव्यादिसंरक्षणप्रचुरः । प्रभा स्थानम् । आव० ६५३ । संज्वलनः..क्षणे क्षणे संज्वल. १२८ । संयम-आश्रवविरमणादिकं बहु इति बहुसङ्ख्य यतीति संज्वलनः अत्यन्तकोधनः । सूत्र० ३१३ । सज्वयथा भवति संजमबहसम् । उत्त० ४२२ । लयति-दीपयति सर्वसावधविरतिमपीन्द्रियार्थसम्पाते वा संजमभयउठवेयकारि-संयमभयोद्वेगकारिकः-संयमस्य दु. सञ्ज्वचति-दीप्यत इति सज्वलन:-यथाख्यातचारित्राकरत्त्वप्रतिपादनपरः। ज्ञाता० ४६ । वारकः । ठाणा. १९४ । सज्वनं-गुणोद्भासनम् । संजमरिया-सयमेर्या-सप्तदशविधसंयमानुष्ठानम् । आचा० उत्त० ५७६ । ३७५ ।। संजलणा-ईषज्ज्वलनात् संज्वलनाः, सपदि परीषहादिसंजमावसत-संयमानामवसथो गृहम् । व्य. दि. १७३ सातज्वलमाद्वा, क्रोधादयश्चत्वारः कषायाः । आव० आ। ७८ । ईषज्ज्वलनात् संज्वलनाः, सपदि ज्वलनाद् वा संजय-संयत:-इन्द्रियनोइन्द्रियसंयमवानू । आचा० ३५० ।। संज्वलनाः, परीषहादिसंपाते चारित्रिणयपि ज्वलयन्तीति संयत:-पृथव्यादिव्यापादननिवृत्तः। उत्त० ११४। संयतः- वा संज्वलना: क्रोधादय एवं चत्वारः कषायाः। विशे. सम्-एकीभाबेन यतः सयतः, क्रिया प्रति यत्नवान् । ५४७ । परीषहोपसर्गनिपाते सति चारित्रिणमपि सम्आव० ५१६ । संयतः-सम्यक संयमानुपाने यतः-यस्न- | ईषत् ज्वलयन्तीति सजवलना: । प्रज्ञा० ४६८ । परः । ओघ० ७५ । संपत:-सम्यगुपयुक्त।। आचा. संजले-निर्यातने प्रति भूतश्वोक्रोशदानातः सजवलते.. ३२२ । संयम:-निरवोतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः । तन्निर्यातनाथ देहदाहलौहित्यप्रत्याकोशाभिषातादिरग्निप्रज्ञा० ५३५ । संयत:-श्राद्धः ।आव०७९८,७९९। सयतः-1, वद्दोप्यते । उत्त० १११ । सामस्त्येन यतः । आव० ७६२ । संयत:-सप्तदशप्रकार• संजाई-सञ्जातिः । सूर्य० २८२ । सञ्जातिः । जीवा. संयमोपेतः । दश. १५२ । संयत:-वधादिपरिहारे प्रयतः । ३४७ । भग० २६५ । उत्त० ४८७ (?) । संयतः । बाव० संजाए-सात:-प्रीणितः, महाकाया । दश० १७ । । ३०० । संयत:-सं यच्छति स्म सर्वसावधयोगेम्यः संजात:-प्रचुरं लब्धम् । ओघ. १८७ । सम्यगुपरमति स्मेति संपतः । प्रज्ञा० ४२४ । संयतः संजायभया-सञ्जातभया भयप्रकर्षाभिधानायका कः । हिंसादिपापस्थाननिवृत्तः। प्रज्ञा०५३५। संयत:-प्रयत्नवान् विपा० ४३ । सञ्जातभया । भग• १६६ । । दश० १५५ । | संजायसङ्गा-संजातश्रद्धः-प्रकर्षेण जातश्रद्धः । सूर्य० ६॥ संजयजण-संयतजन:-साधुलोकः । आव० ४०० । संजीवणी-सञ्जीवनी-जीविदात्री नरकभूमिः।सूत्र० १३७।। संजयमणुस्स-संयतमनुष्यः-साधुः । ठाणा० ३२० । । संजोहारं । नि० चू० तृ० १५ मा (१०४७) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजुग ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ संझागय संजुग-सयुगं-संग्रामः । बृ• तृ. २३० आ। संजोगाभिलासा-संयोगाभिलाष:-कथं ममैभिविषयादिमिसंजुत्त-संयुक्तः- समुपेतः । जीवा० २६८ । संयुक्तं -अर्थ रायस्यां सम्बन्ध इतीच्छा । आव० ५८५ । क्रियाकरणयोग्यम् । आव० ५३१ । संयुक्त-भूषणयुतं संजोगिम-संयोगिम: यस्तैलवस्यग्निसंयोगेन निवृत्तः । जोवयुक्तं या स्त्रीशरीरम् । बृ० द्वि० ४१ अ। उत्त० २१२ । संजुतदव्वसम्म-संयुक्तद्रव्यसम्हक ययोर्द्रव्ययोः संयोगो संजोयणा-तत् ( उदय ) फलभूतेन कर्मणा संसारेण वा गुणान्तराधानाय नोपमय उपभोक्नुर्वा मनःप्रीत्यै पयः- संगेजयतीति संयोजना । आव. ७७ । संयोजनं-एकजा. शर्करयोरिव तत्संयुक्तद्रव्यसम्यक । आचा० १७६ । तीयातिचारमोलनं संगेजना प्रायश्चित्तम् । ठाणा. २००। संजुत्तयसंजोग-समिति सङ्गतो योगः-संयोगः, सयुक्त- संयोजना-निर्वतितानामेकत्र सनातना । ७० द्वि० २३४ मेव संयुक्तक - अन्येन सश्लिष्टं, तस्य संयोगो-वस्त्वन्त- अ । संयुज्यन्ते-सम्बध्यन्तेऽनन्तसङ्ख्येभंवैजन्तवो येस्ते रसम्बन्ध: संयुकतसयोगः । उत्त• २३ । संयोजना | प्रशा० ४६८ । सजुता-समिति-सम्यग भृशं वा युक्ता संयुक्ताः। उत्त० संजोयणादोस-आहारलोलुपतया दधिगुडादेः संयोजनां ७१३ । परिणीता । नि० चू० द्वि० १०१ (१)। विदधत: संयोजनादोष: । आचा० ३५१ । संजुताहिगरण-संयुक्ताधिकरणं-प्रक्रियाकरणयोग्यमधि- संजोयणादोसदुट्ठ-संयोजनादोषदुष्टं-संयोजना-द्रव्यस्य गुकरणम् । आव० ८३० । णविशेषार्थ द्रव्यान्तरेण योजनं सैव दोषस्तेन दुधम् । संजूह-संयूयः- ग्रन्थरचना । अनु० १५० । संयूथः:-निक'- भग० २६२ । यविशेष: । भग० ६७६ । दृष्टिवादे सुत्रेऽष्टमो भेदः । संजोयणाहिगरणिया-यत्पूर्व निर्वतितयोः खङ्गतस्मुथ्यासम० १२८ । सङ्गतं-युक्तार्थम् । ठाणा० ४९५ ।। दिकयोरर्थयोः संयोजनं जियते सा संयोजनाधिकरणिको । सामान्यः-संक्षेपः । सूत्र. ३०५ ।। ठाणा. ४१ । संजोएमाण-संयोजयनु-प्रतिसमयमपरापरेणोपयोषरूपत- संज्झतिआ-सहाया । नि० चू० दि० ६५ आ । योत्पद्यमानेन घटयनु । उत्त० ५६३ । | संज्झन्भरागसरिस-सन्ध्याभ्ररागसहशः । उत्त• ३२६ । संजोग-संयोगः सम्यग-अविपरितो योग:-समाधिः ।। संज्झाइ । भव. १९५ । उन० २० । संयोग-ममत्वपूर्वक सम्बन्धम् । आचा० संज्झागत-जम्मि उदिते सूरो उदिते तं सज्झागयं, जं १७२ । संयोगः-भङ्गः । पिण्ड० १६५ । सूरस्स पिटुतो अग्गतो वा वण्णतरं तं । नि० चू० तृ. संजोगट्ठो-संजोगार्थी-धनधान्यादिहिरण्यद्विपदचतुष्पदरा- १६ अ । ज्याभार्यादिसंयोयस्तेनार्थी । माचा० १०१ । संयुज्यते संझप्पभ-सच्याप्रभ-प्रथमस्य इन्द्रलोकपालस्य सोमस्य संयोजन वा संयोगोऽर्थ:-प्रयोजनं संयोगार्थ:-सोऽस्यास्तीति । विमानम् । भग० १९४ । संयोगार्थी । शब्दादिविषयः संयोगो मातापितादिभिर्वा संभाभराग-सन्ध्याभ्रराग:-वर्षासु सन्ध्यासमयमावी अभ्र. तेनार्थी कासाकालसमुत्थायी। आचा० १०१।। रागः । जं. प्र. ३४ । संजोगविट्ठपाठो-अनेकान् संयोगान् व्यापार्यमाणान् यो संझा-सन्ध्या-कालनीखाद्यभ्रपरिणतिरूपा प्रतीतव । अनु० दृष्टवान् यश्च तत्पाठं पठितवान् सः संयोगदृष्टपाठी । व्य० १२।। द्वि० १३१ आ । संझागय-यत्र नक्षत्रे सूर्यस्तिष्ठति तस्माच्चतुर्दशं पञ्चदशं संजोगपाठी-संयोगपाठिन:-योग्यद्रव्यसंयोगवेदिन: । ६० । वा नक्षत्र संध्यागतम् । विशे० १२९८ । यत्र नक्षत्रे द्वि० १७१ आ। सूर्यो अनन्तरं स्थास्यति तत्, आदित्यपृष्टस्थितमन्ये पुनसंजोगा-संयोगा:-औषध द्रव्यमीलनसंयोगाः । बृ० प्र० राहुर्यस्मिन्नुदिते सूर्य उदयति तत् संध्यापतम् । सूर्यस्य पृष्ट. २८९ । तोऽग्रतो वा अनन्तरनक्षत्रं संध्यागतम् । व्य० प्र०६२ अ । (१०४८ ) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संझागयाइ ] अपरिचितसेवान्तिकशग्यकोषः, मा० ५ [ संणायगो संझागयाइ-दुष्टनक्षत्राणि । गणि। । व्यवस्था । सूर्य० ६ । संस्थिति:-व्यवस्था । सूर्य०८॥ संझाणुरागसरिमा-सन्ध्यानुरागेण सदृशान् वर्णतः । संठिए-संस्थितं-सदृशकारम् । अनु. १७२ । जाता. २३१ । | संठिय-संस्थितः विशिष्टसंस्थानवद् । ज्ञाता. २ । संस्थितं. संझाराग-सन्ध्यारागः । प्रज्ञा० ३६१ । वृतचतुरस्रम् । बृ. दि. २४ बा । संस्थित:-व्यव. संज्ञा-संधारणसंझा ईहापोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका स्थितः । सूर्य० ४ । । तत्वा० २-२५ । संठियंमि-संस्थिते । ओघ० २११ । संज्ञासूत्र-त्रिविधसूत्रे प्रथमम् । ६० प्र. ५. आ । संड-बण्ड: । बाब. ८२५। षण्डः । व्य० दि. ३१ अ संज्ञि-सम्यक्त्ववान् । बाचा. २८१ । सत्कः । व्य० द्वि० ३१ अ । खण्डं, वनम् । जं० प्र० य-स्यन्दमानिक:-पुरुष प्रमाण जम्पानविशेषः ।। २४२ । षण्ड: । आव. ४१४ । भग० ५४७ । संडास-सदंसं-ऊरूसन्धिम् । बोष०८४। सण्डासं-जडो. संठप्पय-संथाप्यत:-तत्कृत्यकरणम् । भग० ४६६ । वरिन्तरालम् । ओघ. १०७ । संदेशकः । बृ० द्वि. संठवण-महादीर्ण उजभावणं । नि. चू० प्र० १२३ अ। २५६ आ । सदंगः । दशः १२३ । संदंशक:-अङ्गठलिपणं । नि.चू०प्र०२३२ । तर्जन्योरग्रम् । आव. ६४ । नि० चू.द्वी १८ बा। संठवावेति-संथापयति । आव० ५५५ । | संडासए-अङ्गष्टप्रदेशिनीभ्यां यत्गृह्यते । व्य० द्वि० ३५९ संठविय-संस्थपितः-संस्कतः । नंदी० ६४ । संस्थापित:- अ। मीलितः । प्रभ० ६४ । संडासगं-संडासकं नासिकाके शोस्टनम् । सूत्र. ११७ । संठवेति- । नि० चू० प्र० १६० अ। ज्ञाता० १४३ । संठवेयम्व-संस्थापयितव्यः । माव. ५६० ।। संडासत-संदंशकम् । आव २२७ । संठाण-संस्थान-मृगशिरः । जं० प्र० ४६७ । संस्थान- संडासतोंड-संदंसतुण्ड:-संदंसकाकारमुखपक्षी। प्रभ०१४। बाकारविशेषः । जीवा. १०३। संस्थान-कटीनिविष्ट-संडिर्भ-संडिम्भ-बालकीडास्थानम् । दश० १६६ । करादिसधिवेशात्मकम् । उत्त० ४२८ । संस्थान-माकारः। सडिब्भं-बालरूबागि रमंति धणूहि । दश० चू० ७५। ठाणा० ६९। संस्थापनं-बाकारविशेषः। प्रज्ञा. ४७२। संडिय-तृणविशेषः । प्रशा० ३३ । संस्थान-स्कन्धाकारः । भग• ८५८ । संस्थान-आरो- संडिल्ला-शाण्डिल्याः जनपदविशेषः । यत्र नंदीपुरनगरम् । पितज्याधनुराकारः । ठाणा० ६८ । संस्थान:-मृगशिरो प्रशा० ५५ । नक्षत्रम् । सूर्य० २२५ । संस्थान-सम्यगवस्थानम् । संडेय-पण्डेय:-षण्ड पुत्रकः । औप० २ । जीवा० ३४५ । संस्थानं-आकारविशेषः। प्रज्ञा. २६३। संडेया-पाण्ढेश:-षण्डपुत्रकाः षण्डा । ज्ञाता०१। संस्थानं-विन्यासविशेषः। दश २३७ संस्थानं-पाकारः। संडेल्ला-काश्यपे द्वितीयो भेदः । ठाणा० ३९० । भग० ११ । संस्थानं-शरीराकृति रवयव रचनारिमका । संडेवए-सण्डेवक:-पाषाणादि । ओघ. ३१ । सण्डेवक:ठाणा० ३५१ । संस्थान -यथास्थानमङ्गोपाङ्गविन्यासः।। पाषाणादि योऽस्मिन्पाषाणादो पादनिक्षेपः स संडेजं प्र० १८२ । . वकः । ओघ. ३१ । संठाणविजए-धर्मध्यानस्य चतुर्थो भेदः, संस्थानानि- संडेवा-तज्जातशिलादयः, अन्यतो वा नीताः इट्टालकालोकद्वीपसमुद्राधाकृतयः तस्याः विचयो-निर्णयो यत्र तदा दयश्च । बृ• तृ० १६२ ।। संस्थान विचय: भग. ६२३ । संणाय-कुटुम्बम् । आव० ४०५ । संठिई संस्थति:-व्यवस्था । ज० प्र० ४५३ । संस्थितिः। संगायकुल-सजातीयकुलम् । आव० ८४६ । सूर्य० ६७ । संस्थिति:-अवस्थानम् । सूर्य० ७ । संस्थिति:- । संणायगो । नि० चू० द्वि० १२१ मा। (अल्प० १३२) (१०४६ ) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संणि वेस आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ संतिजाघर संणिवेस-सत्थावासणस्था णं संणिवेसं गामो वा पिडितो संतरूत्तर-सान्तराणि-वद्धमानस्वामिसत्कयतिवस्त्रापेक्षया. संनिविट्ठो जस्थ गतो वा लोगो संनिविट्ठो सणिवेसं । या कस्यचित्कदाचिन्मान वर्णबिशेषतो विशेषतानि उत्त. नि० चू० द्वि, ७, आ । राणि च-महाधनमूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमाद्वस्त्राणि सण्णा-सज्ञा:-असातावेदनीयमोहनीय कर्मोदयसम्पाद्या आ यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरः । उत्त. ५०० । हारभिलाषादिरूपाश्चेतनाविशेषाः । सम. १० । संतविरिय-विद्यमानसामर्थ्यः । आव) ५३४ । संत-श्रान्तः शरीरतः । ज्ञाता० ९७ । सन्तः सोम्य. संतसे-पन्त्रसेत- उद्विजेत् । उत्त० ६१ ।। मूर्तित्वात् । ज्ञाता० १०३ । श्रान्त:-शान्तो वा मनसा । संताण-जालकं । बृ० तृ. १६६ आ । सन्तान:-निबन्धज्ञाता. १३६ । श्रान्ता:-खिनः । ज्ञाता० २२४ । नम् । पिण्ड, १४५ । सन्तान:-प्रवाहः । आव० ६.१। श्रान्तो भयभ्रमणतः । जं० प्र० १४६ । अन्तवृत्त्या संताणा-जालकम् । ६० तृ० १६६ अ । बान्त: । श्रान्तो भवभ्रमणात् । और० ३५ । श्रान्तः संताणए-सन्तान:-कालिकतन्तुकम् । ओघ ११७ । देहखेदने । विपा० ४१ । शान्त:-अत्ययन्तमन्दभूतः ।। संताणग-कोलियपुडगं अफूडियं संताणगो। नि० चू.द्वि. ज. प्र. ३६८ । श्रान्तः । दश० १०५ । ८३ अ । नि० चू० प्र. २५५ आ । संत इभाव-अनन्तरोऽनुभवभावः सन्ततिभावः । प्रज्ञा. संताणगसंकमण-पिपीलगमक्कोडणादीणं भण्णति । नि०. ३२३ । चू० द्वि० ८३ अ। संतकम्म-सत्कम-सत्तावस्थं कर्म। समः ४० । सत्कर्म:- संतावणी-सतापयतीति सन्तापनी कुम्भी । सूत्र० १३६ । प्रदेशकर्मः । विशे० ५६५ । संतासती-सावयभयं वा अण्णो य परिरएण पंथो णस्थि संतत्तभाव-सन्तप्तमाव:-समिति-समन्तात् तप्त इव एसा सव्वा । नि० ५० प्र० १२४ आ । तप्तः अनिवृत्तत्वेन भावः-अन्तःकरणमस्येति । उत्त० संति-शमनं शान्ति:-अशेषकर्मापगमोतो मोक्ष एव ३६९ । शान्तिः । आचा. १२८ । शमनं-शान्ति:-अहिंसा संतपय-सच्च तत् पदंचेति सत्पदं, सन्तं तत पदं सन्तपदं- इत्यर्थः । आचा० २५६ । शान्ति:-मोक्षः । ठाणा. यत्यादि । आव० १६। ४२६ । शाम्यन्त्यस्यां सर्वदुरितानीति शान्ति:-निर्वाण, संतपयपरूवणया-सत् इति सद्भूतं विद्यमानार्यमित्यर्थः । उपशमः । उत्त, ३४१ । शान्तियोगात्तदात्मकत्वा. सच्च तत्पदं च सत्पदं तस्य प्ररूपणा । आव०८३१ । तस्कर्तृत्वाद्वा शान्तिः षोडनो जिनः, यस्मिन् गर्भगते सत्पदप्ररूपणतागत्यादिभिरि राभिनिबोधिकस्य कर्तव्या। सति महदशिवपशान्तमतः शान्तिः । आव० ५०५ । आव. १६ । शान्ति:-सामाजिक चतुर्थपर्याक्षः नाव.४७४ । शान्ति:संतया-सन्ततम् । भग० २० । उपशमः,-प्रशमसंवेदनिर्वदानुकम्मास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणसतर-सान्तर-सव्यवधानम् । प्रज्ञा०२६४ । अंतरकप्पो. मम्य गदशनशानच "पका: । बाचा ७७ । जहासत्तीए चउस्थमादी करेंति । नि० चू० प्र० ३५३ संतिओ-सत्कः अन५५ । आ । स्वान्तरः स्वकृत अन्तरः । बृ, द्वि १७० अ। संतिकम्म-शान्ति कम अग्निकारिकादिकम् । प्रभ. ३९ । संतरण-प्लवनम् । ओघ २३ । जत्थ त्ति णदीए एसि। संतिकम्मगिह-शान्तिकर्मगृह-यंत्र शान्ति कर्म क्रियते । पंचण्डं णदीणं किम्हिइ उत्तरणं संतरणं अथवा बहद. आचा० ३६६ गथामे संतरणं । नि० ७७ । संतिकेवलिपन्नत्तो । आचा. ४१७ । संतरित्तए-सन्तरीतु-साङ्गत्येन नावादिना लयितुम्, । संतिग-सत्कः । प्रव. ४२५ । सकृद्वोत्तरीतुमनेकशः सन्त रोतुमिति । ठाणा० ३०६ । 'संतिगिह-शान्तिगृह-शान्तिकर्मस्थानम् । भग० २०० । संतरित्ततुं-भूयः प्रत्यागन्तुम् । वृ० तु. १६१ आ। । संतिजाघर -शान्त्यायागृहम् । उत्त० २१६ । ( १०५० ) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतिभेया ] अल्पपरिचितसंद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ संथारग संतिभेया । आर्चा० ४२७ । । संथव-संस्तव:-परिचयो भूयो भूयो गमनाद्भवति । संतियं । आव. ७६३ । आचा० १८४ । संस्तवः- पूर्वपश्चात्संस्तवरूपो वचनसं. सतिविभंगा । आचा० ४२७ । वासरूपो या । उत्त० ४८७ । सस्तावकम् । ज्ञाता० संतिसुध्वया-शान्तिसुत्रता:-मन्ति विद्यते शोभनानि २१३ । संसवः-परिचयः । सूत्र. ७२ । संस्तव:सम्यग्ज्ञानाधिष्ठितत्वेन व्रतानि-हिंसाविरमणादीनि येषां परिचयः। दश० १०९ । संस्तवः-वदनं प्रशंसा । ते सुव्रताः शान्त्या वा उपलक्षिताः सुव्रताः शान्तिसुव्रताः। आचा० २६ । संस्तव:-प्रशंसावचनम्, स्तुतिः । पिण्ड. उत्त० २९२ । १४१ । संस्तव:-परिचय: कामसम्बन्धः। सूत्र. १७७ । सती-पञ्चमचक्रवर्ती । आव० १५६ ।सम० १५२। शान्ति:- सस्तवः-परिचयः । प्रज्ञा, ६० । संस्तव:-पूर्वसंस्तुतेर्मा द्रोहविरतिः अहिंसायाश्चतुर्थ नाम । प्रश्न ६ । नि० चू० प्रादिभिः पश्चात्संस्तुतैश्च श्वश्रादिभिः परिचयः । नत्त० प्र. २७६ आ । असिवपसमणट्ठाणं ।नि० चू • द्वि. ७० अ। ४१४ । श्लाघा-वचनसंस्तवः । पिण्ड० १३९ । संस्तवोसंतुह संतुष्टः-लाभालाभयोः समः । दश• {८७ । गुणकीर्तनम् । उत्त० ५६६ । संवासो । नि० चू० प्र० संतुयट्ट-शयितः । ज्ञाता० १८१, २०६ । २४२ अ । संस्तव:-परिचय: अभिष्वङ्गहेतुत्वात्परिग्रहः, संथड-संस्तृत-धनं संनिपतितम् । आचा० ३४७ ।। परिग्रहस्य द्वाविंशतितमं नाम । प्रश्न० ६२ । संस्तृतं धनं प्रेक्ष्य । आचा० ३३३ । संस्तृतं-धनम् ।। संयपिड-संस्तवपिण्डः पूर्वपश्चात् संस्तवादवाप्तः आचा. आचा. ३३३ । संस्कृतं नाम राज्यं यदविलिप्तम् व्य. ३५१ । द्वि० २७६ मा । संस्तृत:-व्याप्तः । ओष० २१६ । संथवेजा-स्त्र्यादिसंसक्ता वसति सेवेत । आव० ६५९ । समर्थः । दश• २१९ । पज्जत्तं लभंतो । नि० चू० | संथार-संस्तार:-लघुको तृतीयहस्तमानः । अनु० २० । प्र० ३१२ अ । सस्तीणं आच्छादितम् । भग० ३७, संस्तार-कम्बल्यादि । उत्त० ४३४ । संस्तारकः-अर्द्ध१५३ । संस्कृतः । आचा० ३३३ ।। तृतीयहस्त प्रमाणः । आचा० ३६९ । संस्तारक:-भूमिसंथडिओ-हट्ठसमत्यो । नि० चू० प्र० ३०८ था। रूपः । ओघ० ९. । संस्तारक-अपवर्तक माश्रित्य । संथडी-पर्याप्तभक्तपानलभः सन्ततभोजी वा । बृ तृ० आचा० ३६९ । संसर:-दशंकुशकम्बलोवस्त्रादिः । आव। १८२ अ । नि० चू • प्र. ३१२ अ। दिणे दिणे ८३६ । संस्तार:-अर्द्धतृतीयहस्तः । आव० ७२७ । पज्जत वा अपज्जतं भुजंतो । नि. चू० प्र० ३१ आ। संस्तारकः । ओघ. २१७ । संस्तारकः । दश० ८६ । संथय-सस्तय:-परिचयः । पिण्ड. १९७ (?) । संस्तारक-तृणमयादिरूपम् । दश० २३१ । अट्ठाइयहत्थो। संथर-संस्तर:-निर्वाहः । पिण्ड ११९ । संस्तरेत- नि० चू० प्र० १६० आ। संतारकः-शय्यापट्टः । पिण्ड . यापयितुं समर्थः । दश० १८२ । फासुएसाणिज्जा .१९ । ऐन्द्रजालिकः । तं । संस्तरंति-साधवोऽस्मिन्निति असणादि या पजती लम्भंति जत्य हट्ठो य तं । नि० संस्तार:-उपाश्रयः । व्य० द्वि. ८ आ । नि० चू०प्र० चू०प्र० २०२ अ। १५ आ । संथरओ-संसूरतो निसूरतः । बृ० प्र० ५२ अ । संथारए-संस्थारकः । ज्ञाता० ६० । संथरण-संस्तरणं-संतरणम् । ओघ० १४३ । संस्तरण- संथारक-संस्तारक:-तृगमयः । ओघ० ५६ । प्राशूकमेषणीयं वाशनादिपर्याप्तं प्राप्यते, न किमपि संथारग-संस्थारको-लघुतरः। ठाणा० ३१२। संस्तारक:ग्लानत्वं विद्यते । बृ. प्र. २५१ अ । लघुतरः । ज्ञाता० १०७ । संस्तारक:-शय्यातो हीनः । संथरमाण-संस्तरन-संयमानुपरोधेन वर्तमानः । आव.. और० ४१ । संस्तारकम् । प्रज्ञा०६०६ । संथारभूमी। नि० चू० प्र० ८३ अ । संस्तारक:-लघुतरः । भग संथरे-संस्तरति । ओघ. २१६ । . १३६ । संस्ताराचा ३७६ । संस्तारक:-अद्ध, (१०५१ ) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचारगत ] आचार्यभोगानन्यसागरसूरिसङ्कलितः [ संधि तृतीयहस्तः । प्रभ० १२० । संवमाणिया-शिविकाविशेषः । सूत्र० ३३० । सथारगत-सस्तारगत:-संलिख्यकतपण्याख्यानः । व्य. संदमाणी-स्यन्दमाना । ज्ञाता. ३ । दि. ४१४ बा। संदमाणीया-स्यन्दमानिका पुरुषस्य स्वप्रमाणावकाशदायी संथारगिला-साधुणो अक्खा सगुणा जणवया संथाणिजा । | जीवा. १९२ । स्यन्दमानिका-पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषः । नि० चू० तृ. ४३ । औप० ४। संथारपट्र-संसारपट: । मोघ०८३ संवाणियं-संघातीतं पुग्वामारे टुवियं सुत्तेण वा संदाणियं । संथारपायदंडग-वनस्पती प्रयोजनम् । ठाणा० ३३९ । नि० चु० द्वि० १५२ ब । सथुम-संस्तुत:-भूयो भूयो दर्शनेम परिचितः, अथवा | संदाव-गुणा रूपरसादयस्तेषो सद्रवर्ण संद्राव:-समुदागे पूर्वसंस्तुतो मातापित्रादिभिहितः पश्चात्संस्तुतः । आचा० घटादिरूपो द्रव्यम् । विशे० २५ । १०० । संस्तुत:-स्नेहास्प्रशंसितः । भग० ६४० । संविटु-गुरुणाऽभिहितः सदिष्टः । आव० २६८ । संस्तुत:-भयो दर्शनेन परिचितः । जं. प्र. १४६ । । संदिष्टः-उक्तः । ओघ. २१ । प्रेषितः । वृ.तृ. ८९ सथुय-स श्रुतः दर्शनभाषणादिभिः परिचितः। प्रभ० १४०।। मा(?)। संदिष्टः-उक्तः । ओघ०८५ । सन्दिष्टः-भूक्तः । संस्तुत:-सम्यगभिवन्दितः । उत्त० ५१२ । लोग्गजत्ता ओघ १९० । परिचयं । नि० चू० प्र. १४७ अ । संविसह-संदिशत-ददत्त । ओघ० १७९ । संथुया-संस्तुता:-प्रपौत्रश्वशुरादयः । बृ० तृ. १३५ अ । संदिसावेऊण-संदिश्य । दश०३८ । संथोभ-सातादेः सातादी क्षेयणरूप: संकमः । विशे, संदीण-संदीयते-जलप्लावनात क्षयमाप्नोतीति सन्दीनः । १००६ । उत्त० २१२ । सन्दीन:-क्षोभ्यः । जं. प्र. ८ । यो संदंशकभूमि । भग० १२२ । हि संदीयते-जलप्लावनाद पक्षमासादावुदकेन प्लाव्यते संदंसओ ० द्वि.२३७ बा। स सन्दीनः । जं.० ८। सन्दीन:-प्रचुरेन्धनतया संदंसिए-सन्दर्शित:-उपलम्भितः । ज्ञाता० २११ ।। विवक्षितकालावस्थाप्यसन्दीनो विपरीतस्तु सन्दीन इति, संवट्ठ-संदृष्टः-मुसलादिभिश्चम्बितः । ज० प्र० ५० । आदित्यचन्द्रमाडण्यादिरसन्मीनोऽपरस्तु विधुदुकादिः संवट्ठओ-सहसपूर्वापरसुत्रद्वयेन संदंशकेनैव पहितवात संद- सन्दीनः । आचा० २४७ । टक: । बृ० द्वि. १६५ । संदेह-सन्देहः । विशे० २०५ । नाद्याधुपदकनिमझनसंदण-स्यन्दनः रथविशेषः । प्रभ० ।। स्यद्नो-रथ- लक्षणः । बृ० द्वि० २२ छ । विशेषः । प्रभ. ८। संधणट्रा-सन्धानार्थ-अविच्छिन्न प्रवाहार्थम् । ओघ० १८३॥ संदमाणि-स्यहमानिका-पुरुषप्रमागो जम्पानविशेष । संधणा-विस्मृत्यापांतराले तुटितस्य पुनः सन्धानकरणं जीवा० १८९ । सन्धना । ध्य० द्वि० ३७६ । सन्धना-प्रदेशान्तरसंदमाणिअ-स्यद्गमानिक:-पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषः। जं. विस्मृतस्य सूत्रादेर्मेलनं घटना योजना । आव० २६७ । प्र. ३० । सन्धानम् । आव० ६३४ । संदमाणिआ-स्यन्दमानिका-पुरुषायामप्रमाणः शिविका-संधावइ-सन्धावति-पौन:पून्येन गच्छति । आचा. २४ । विशेषः । जं.प्र.१२३ । दीर्घा जम्पानविशेष-पुरुषस्य संधि-सन्धिः-कर्मसन्ततिः सन्धीयत इति वा भवाद्भः स्वप्रमाणवकाशदायी स्यन्दमानिका । ६० प्र.३७ । वान्तरमनेनेति सन्धिः। आचा०२०९ । सन्धिः-अवसरः । सदमाणिय-पुरुषप्रमाणायामो जम्पानविशेषः । भग आचा० २६५ । सन्धि:-अवसरः । आचा० २०४ । १८७,२३७ । पुरुषप्रमाणायामो जम्पानविशेषः । अनु. सन्धि:-द्विधाभावलक्षणः । सूत्र०२८। सन्धानं सन्धिः उत्तरोत्तरपदार्थपरिज्ञानम् । सत्र २८ । सन्धिः(१०५२) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधिकम ] फलद्वयापान्तरालप्रदेशः । जीवा० १९८ । सन्धि-सन्धि मेल: । जीवा ३५९ । सन्धिः -सन्धानम् । जीवा ० २७१ । सन्धिः यथाकालमनुष्ठानविधायी यो यस्य वतंमानः कालः कर्तव्यतयोपस्थितस्तस्करणतया तयेव सम्वत्तः । आचा० १३१ | सम्धि:-मीलनम् । ज्ञाता० १५७ सन्धि- कर्त्तव्यकालम् । माचा० १३१ । सन्धिः क्षत्रम् । उस० २०७ । सन्धिः - चौरखातं मितिसन्धिम् । आचा० ३४१ । सम्धिः -मन्निकर्षः । प्रभ० ११७ । सन्धिः । आव० २१९ । सन्धिः चित्तं क्षत्रम् । दश ० १६६ । दोह घराणं अंतरा छिंडो । नि० चू० प्र० ५३ अ । संधिकंप-सवुडकरणं । नि० चू० प्र० २३२ आ । संधिकरण - सन्धिकरणं-द्वयोविवादमानयोः सन्धानकर अल्पपरिचित सेद्धान्तिक शव्दकोषः, भा० ५ णम् । उपा० ७ । संधिचारी-सम्धिचारी- छिद्रान्वेषी । आचा० ३६५ । संधिच्छेय- सन्धिच्छेदः - क्षात्रखानकः । प्रभ० ४६ संधिच्छे सच्छेदक:-छात्रखानकः । ज्ञाता ७८ । संधिच्छेपग-सन्धिच्छेदक:- गृहभित्तिसन्धान् विदारकः । ज्ञाता० २३६ । यो भित्तिसम्धीन् भिनत्ति स सन्धिच्छे. दकः । दीपा० ५६ । संधिदोस - सन्धिदोषः - विश्लिष्टसंहितत्वं व्यत्ययो वा सूत्रो प्यारणे द्वात्रिंशतमदोषविशेषः । आव ० ३७४ । संधिपाल - सन्धिलः - राज्यसम्धि रक्षकः । भग० ३१९ । संधिमेल- सन्धिः । जीवा० १५० । संघिय - सन्धितः संयोजितः, संघानं सन्धा सा जाताऽस्येति । उत्त० २१२ । | भग० ४६४ । संधिल्लाओ - संघातवन्तः । व्य प्र० १६६ था । संधिवाल - सन्धिपाल राज्यसन्विरक्षक: सन्धिपालः राज्यसन्धिरक्षकः । औप १४ । सन्धिपाल :राज्यसन्धिरक्षकः । दराज १४० । सन्धिपाल :- राज्य सन्धिरक्षकः । नं० प्र० १९० । संधिस्सामि सन्धास्यामि पटितं पटितं याचा० २४४ । संधी- सन्धिः कम्मं सन्ततिरूपः । आर्चा० २२४ । सन्धीः फलकानां सन्धिमेलः । जं० प्र० २३ । सन्धि:- सन्धिमेल: । जीवा १८० । [ संमिस संधी नामजो सो पण्णस्स मज्झे पासलतो पुट्ठीवसोति । वृत्तं भवति । निः ० द्वि० १४१ अ । संघोसंखेडग - जतो गमिस्संति सो दिसाभागो । नि द्वि० ८६ अ । संधुकिओ प्रगुणित: । आव० ६९३ । संगत सनतः अधोन मतम् ।१० ८० । संनद्ध-संनद्धः-साहत्यः कृतसन्नाहः । विपा० ४६ । संता-सज्ञा-समाचारः । वृ० प्र० ११३ आ । संनायग सञ्तकः स्वजनः । वृ० द्वि० ११९ आ । संनाहपट्ट विहारे शरीरेणोपधे बंन्धनार्थकः पटः । बृ० द्वि० २५३ आ । संनिओग सनियोगः- स्वपर प्रयोजनेषु सम्यग्व्यापारणम् । उत० ६३१ । संनिकास - संनिकाशः प्रभा । जीव २१४ । संनिकेय संनिकेत स्थानम् । भग० ४६९ । संनिगम्भ - सर्भिसङ्ख्यः । भग० ६७३ । संनिचओ - सम्यग् निश्चयेन चीयत इति सनिचयः । आचा० १३० । सनियः - प्राचुम्यं मुपभोग्यद्रव्यनिञ्चयः । आचा० १०८ । संनिचयाइ सन्निचय: - धान्यसश्वयः । भग० २०० । संनिचिए - संनिचितं प्रचयविशेषनिबिडम् । भग० २७५, २७७ । संनिचित सनिचितः प्रचयविशेषानिविडीकृतः । अनु• १८२ । संनिभा - छाया । उत्त० ६५२ । संनिरुद्ध - समिरद्ध: - हस्थाकुला वसतिर्भवति । आचा● ३७० । संनिवाइए - सन्निपातिकः उदयादिद्व-दिभावानां मेलकः सन्निपातः स एव तेन वा निर्वृत्तः । अनु० ११४ । संनिवाइय - सान्निपातिकः द्रव्योपसर्गे भेदः । आव० ४०५ । सेविष्यामि । संनिविट्ठ- सन्निविष्टं सम्यग् निश्चलतया अपदपरिहारेण च निविष्टम् । ज० प्र० २९२ । सम्यक् - स्वशरीरानाबाघया निविष्टः सन्निविष्टः । जीवा० १६४ । सन्निविष्ट:आवासिनः । आचा० ३३४ । संनिवेस - सन्निवेशः यत्र सार्थादिरावासितः । ( १०५३ ) जीवा● Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संनिवेसणा | २७६ । संनिवेशः-यात्रादिसमायात जनावासः । उत्त ६०५ । संनिवेश: । दश० १८३ । ठाणा० ८६ । सनिवेशः घोषादिः । भग० ३६ । संनिवेसणा-संनिवेशना स्थापना । उत्त० ५८६ । संनिवेस मारी- सन्निवेशमारी मारीविशेषः । भग० १९७ । संनिसिजा सम्यत् निषीदन्ति - उपविशन्त्यस्यामिति सनि आचार्य श्री आनन्दसागर रिसङ्कलितः पद्यापीठाद्यासनम् । उत्त० ४२४ । संनिहाण - सन्निधानं यो हि लघुकम्म सम्यग् निधीयते नारका दिगतिषु येन तत्, सन्नधानं क्रम्मं । आचा २७५ । सन्निधीयते यत्र कारणं तत् सन्निधानं - अधि | करणम् । आव ० २७८ । निहाण सत्य - सम्यग् निधीयते नरकादिगतिषु येन तत्सनिधान - कम्मं तस्य स्वरूपनिरूपकं शास्त्रं यदिवा सन्नि वानस्य - कम्र्मणः शस्त्र संग्मः सन्निधानशस्त्रम् । आचा० २७५ । संनिहि- सन्निधिः सम्यन्निधीयत इति सन्निधिः- विनाशि द्रव्यः । आचा० १३० । सम्यग् निघीयते - अवस्थाप्यते स सन्निधिः । आचा० १०८ । सन्निधिः - गोरसादिः । आचा० ३२७ । सन्निधिः- पर्युषितम् । दश० १६८ । संनिहिए- अणपणिकानमिन्द्रः । ठाणा० ८५ । संनिहिय- सन्निहितं विनिवेशितम् । ज्ञाता० १३० । सनिधि - दाक्षिणात्याणपनि कव्यन्तराणामिन्द्रः । प्रज्ञाo ९५ । संनिहितं निचओ सन्नियः सन्निधिस्तस्य सन्निचयः । आचा० १०५ । संनिही - सन्निधिः घृतगुडादीनां सञ्चयक्रिया । दश ० ११७ ॥ सन्निधोयते नरकादिति संन्निधिः घुनादेरुचितकातिक्रमेण स्थापनम् । उत्त० ४५६ । संनो - संज्ञी - गृहीताणुव्रतः अविरतिसम्यग्दृष्टिर्वा । बृ० प्र० २९७ आ । संपइ राख्या - असोगसिरिदिण्णरजो । नि० चू० तृ० ४४ आ । संपउक्त्त संप्रयुक्तः -योजितः । ज्ञाता० ५७ । सम्प्रयुक्तः सखितः । जं० प्र० २६५ । संपओग - सम्प्रयोगः - प्रवर्तनम् । ज्ञाता० २३८ । संप्रयोगःसम्यक् संगतो वा प्रयोगः संप्रयोगः अकल्पितः । दश० ४० । संप्रयोगः - सम्पर्कः । बोध० ८८ सपखाल- मृतिकादिघर्षणपूर्वकं योऽङ्गं क्षालयति । भग० ५१९ । सम्प्रक्षाल:- सूतिकादिघर्षणपूर्वकं योऽङ्गं क्षालयत्ति । औप० ९० । संपक्खा लगा - मृतिकाघर्षणपूर्वकं योऽङ्ग प्रक्षालयत्ति, तापसविशेषः । निरय० २५ । संपगाढ सम्प्रगाढ अतिशयासक्तः । उत्त० ४७९ । संग्ट्टण-संवर्तनं मार्गमिलनस्थानम् । ज्ञाता० ७९ । संपाडलेह - सम्प्रयुपेक्षते - प्रतिजागति गृह्णाति । उत्त० ५४५ । संपडिवs - सम्प्रतिपद्यते सम्यगवबुध्यते । दश २५६ । संपडिवाइओ सम्प्रतिपातितः संस्थितः । उत्त• ४६६ । संपडुगभंडधारी-संपादुकमाण्डधारी नामा यावन्मात्रमुपकरणं उपयुज्यते तावन्मात्रं घरति शेषं परिष्ठापयति । व्य० द्वि० ३१६ आ । संपण्ण - षड्रसोपेतम् । वृ० द्वि० १७८ अ । संपतासे संपत्त - सम्प्राप्तं - शोभनेन प्रासम् । दश० १६३ । ज्ञाता० ३६ । संपत्ती - समापत्तिः । आव० ३७३ । भवितव्यता । बाव० ८३३ । सम्प्राप्ति:- प्राणातिपातापत्तिः । बोध० ३६ । संपदाय संप्रदायकः- यश्वीराणां भक्तकादि प्रयच्छति स । [ संपया ( १०५४ ) प्रभ० ४७ । संपदात्रण - संस्कृत्य प्रदाप्यते तस्मै उपलक्षणत्वात् सम्प्र दीयत वा यस्मै स सम्प्रदानं सम्प्रदापनं वा । ठाणाο ४२६ । संपन्न - सम्पन्नः ज्ञानादिगुणपरिपूर्णः सरप्रशः- सम्यग् अविपरीता प्रज्ञा सत्यज्ञा वा । उत्त० ६५ । सङ्गता प्रज्ञा यस्य सः सम्प्रज्ञः-सम्पन्नो वा ज्ञानादियुतः । उत्त• ४६५ । सम्पन्नः - समृद्धः । दश० २२२ । संपमज्जेइ - विजीकरोति । औप० ६४ । संपमारए - सम्पमारयेत् सम् - एकीभावेन प्रकर्षेण प्राणाना मारणं अव्यक्तत्वापादनम् । वाचा० ३९ । सग्या- सम्पत्-सम्पन्नता सम्पत्-उदयोदीरणादिरूपा विभूतिर्वा । उत्त० ६६ । । नि० चू० प्र० २४३ था । प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपयायं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ [ संपुच्छमा संपयायं-सम्पदामायो-साभः सम्पदायः । उत्त० ४७४ । । संपाउणिज्जासि-सम्यक् प्रापयेत् । उत्त० ३५३ । संपराइयं सम्परायिको-पायहेतुकः कर्मबन्धः । भग० संपाउणेख-पुद्गलान् गलियात, आहारयेदित्यर्थः। भग. ७३० । संपराए-सम्परायः-सङ्ग्रामः । ज्ञाता. १५६ । | संपाउप्पायक-सम्पाताना-अनर्थमलीकानामुत्पादकः स. संपराग-सम्पराय-कषायः । ठाणा. ३२४ । म्पातोत्पादकः । परिग्रहस्याष्टादशमं नाम । प्रभ० ९२ । संपराण्हाणिग-सोधगो । नि. चू, द्वि० ४३ अ । संपागड-सम्प्रकटं-अगीतार्य प्रत्यक्षम् । ठाणा. २१८ । संपराय सम्पराय:-संसारः। सूर्य० १४१ । सम्परायः सम्प्रकट-अगीतार्थसमक्षमकल्प्य भक्तादि । ठाणा० २०२। संसारः परीषहोपसर्गसामः । दश०६५ । सम्पति-संपागडकिच-समस्थवणस्प पागडाणि अकिच्चाणि करेति पर्यटति अनेन संसारमिति सम्पराय:-लोभाक्य:कषायः । जो सो सपागडकिच्चो, अहवा असंजकिच्चाणि संपामउत्त०५६८ । सम्पयेत्येभिः संसारमिति सम्परायः कषायः। डादि करेति जो सो संपागडकिच्चो, संपागडसेवी वा, विशे० ५५४ । समरायन्तिभृशं पर्यन्त्यस्मिन जन्तव इति मूलगुणउत्तरगुणसेवतीत्यर्थः । नि० चू, द्वि० ६२ आ। सम्पराय:-संसारः । उत्त० ४७८ । सम्पराय:-कषायः, |संपात-अनर्थमलीकम् । प्रश्न. १३ । प्रात:-प्रभातं तेन सम्परैति-संसरति संसारं जन्तुरनेनेति व्युत्पादनाद् । सम्प्रातः सम्प्रातरपिच प्रभातसमकालमपि, अतिप्रभात. (१) । संपति-पर्यटति संसारमनेनेति सम्पराय:-कोषा. ठाणा० ११७ : दिकषायः । अनु० २२२ । सम्पराय:-कषायः । भप० संपातिम-सम्पतितुं-उत्प्लुत्योत्प्लुत्य यन्तुमागन्तुं वा शोलं १०६ । संपराय:-कषायोदयः। प्रज्ञा०६८। सम्परायः- येषां से सम्पातितः प्राणिनः । आचा० ५५ । कषायः । भग० ३८५ । संपाती-उल्लावकः । उत्त० १६६ । संपरिवुड-संपरिवृतः-सम्यकपरिवारितः परिकरभावेन संपाय-संपात:-चलनचमत्कारः । उत्त० ४४० । परिकरितः । भग० १३७ । संपाविउकामे-यातुमना:-प्राप्तुकामः । भप० २१ । संपलग्ग-योद्धं सम्प्रलग्नः । ज्ञाता० १४६, २३६।। संपिडिय-अवान्तरसामान्यं पिण्डितार्थ सम्पिण्डितम् । संपलत्त-संप्रलप्तः-प्रतिपादितः । ज्ञाता० ८६ । विशे० ९.२ । सम्पिण्डितः-एकत्रपिण्डीभूता। जीवा. संपलद्ध । राज० १४५। १८८ । संपलियक-सम्पर्यङ्क:-पद्मासनम् । ओप० ६५ । पद्मास- | संपिणद्ध-सम्पिनद्धं-अत्यर्थ वेष्टितम् । भग. ४६९ । । नम् । ज्ञाता० ७७ । संपिनद्ध-सम्पिन्नद्धः-बद्धः । ज्ञ'ता. २२२ । संपलियंकणिसन्न-सम्मर्यङ्कनिषण्णः-पद्मासननिषण्णः । संपिहति-संपिदधति प'िमुंजते । बृ० द्वि० २१९ । ठाणा० २३२ । । संगोआ-संपीता.-सम्यगान्तरप्रीति भाजः । उत्त. ३६४ संपलियंनिसण्ण पद्मासनोपविष्टः । भग १२८ । संपोडन-सङ्घातं, यद्वा समिति-भृश पीडा-दु.खकृताबापा संपऽसंप संपातिमासपातिमं । बृ० द्वि० ३३ अ । संपीडा तामुपैति । उत्त० ६३१ । संपसार-पर्यालोचः । उपमा. २२४ । संपुच्छंति । आव० ७६३ । सपसारए- । नि० चू० प्र० २९२ अ । | संपुच्छण-कुशलं भवत इत्यादि सम्प्रच्छनम् । बाक० संपसारणं-संप्रसारणं-पर्यालोचनम् । सूत्र. ११ । ५२४ । संपसारनो-गिहीणं कजाणं गुरुलाघवेगं संपसारंतो संप- | सपुच्छणा-सम्प्रश्न:-सावद्यो गृहस्थविषयः राढाथं कोहशो सारतो । नि० चू० द्वि० ९२ आ। वाइमिरणादरूपः । दश० ११७ । सम्प्रभ:-पर्यालोसंपसारेइ-पर्यालोचयति । ठाणा० ३७१ । | चम् । जीवा० १६६ । अप्पणो अंगावयवाणि पपुच्छसपसारेति-मन्त्रयतीत्यर्थः । व्य प्र. २२४ अ । माणो परं पुन्छ। । दश० ५० ५० । (१०५५) . . Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? संपुच्छिया ] संपुच्छिया-सम्पच्छिका - पादादिलुबिका । ज्ञाता ११६ । संपुड-सम्पुट - काष्ठयन्त्रम् । प्रभ० ५६ । दुगाइफलगा । नि० चू० द्वि० ६१ अ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः सपुडग फलकद्विकादिमयं पुस्तकम् । बृ० द्वि० २१६ आ । संडण सपुटं मीलनं निमिषणम् । बृ तृ० १४७ था । संपुडफलए संपुटफलक :- पुस्तकपञ्चके चतुर्थो भेदः । ठाणा० २३३ । सम्पुटफलक पुस्तकं यद् द्विकादिकं तनुपत्रोच्छ्रतरूपम् । आव० ६५२ । संजय पोत्थगपण पंचमं । नि० चू० प्र० १८१ अ । संपुष्प कुड- सम्पूर्ण कुट:- कुटेषु चतुर्थ: । आव ० १०१ । संपुल - सम्पुन: दधिवाहनस्य कचुकी । आव० २२५ । संपहा - सम्प्रेक्षा-पर्यालोचना | आचा० ११४ । सम्प्रेक्षापर्यालोचना | आचा० ११५ । सम्यग् - अविपरिता प्रेक्षा बुद्धिः । उत० २८१ । संपेहे इ- सम्प्रेक्षते-पर्यालोचयति । ज्ञाता० ३० | सम्प्रेक्षते सङ्गतासङ्गत विभागतः पर्यालोचयति । भग० १२८ । । सम्प्रेक्षते-पर्यालोचयति । भग० ११६ | सम्प्रेक्षते-पर्यालोचयति । ज० प्र० २०३ । संपेहेति सम्प्रेक्षते । आव ० ३०३ | सम्प्रेक्षते - पर्यालोच यति । ज्ञाता० ६१ । पर्यालोचयति । निय० १५ । संफुसि सस्पर्शनं - सदु बहु स्पर्शनम् दश० १५३ । संबंधि-सम्बन्धी श्वशुरादिः । ज० प्र० १७० । सम्बन्धीमातृपक्षीयः, श्वशुरकुलीनो वा । भग० १६३ । सम्बन्धीःश्वशुरादिः । भग० ४८३ । संबंधी- सम्बन्धी - श्वशुरादी । छोप० १०३ । देवरादिः । औप० ६९ । संबंधी संथव-सम्बन्धिसंस्तवः - परिचयसंस्तवः । पिण्डo १३९ । संब- शाम्ब:- अन्त्यकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्य सप्तममध्ययनम् । अन्त० १४ । शाम्बः- कृष्णजम्बूमतीसुतः । अन्त० १८ । शम्बः - यादव विशेषः । प्रश्न० ७३ । शम्बः - दुर्दान्त मुख्यः । अन्त० २ । शाम्बः - कृतिकर्मदृष्टान्ते वासुदेवपुत्रो भाववन्दकः । गाव० ५१५ । दुर्दन्ते मुख्यः । ज्ञाता० २०७ । 'यादवविशेषः । ज्ञाता० २१३ । दुर्दान्तकमाट विशेषः । ज्ञाता० १०० | द्वारावत्यां कुमारः । बृ० प्र० ३० म शाम्ब: । आव० ६४ । संबद्ध - सम्बद्धं - स्वात्मनः शरीरसंलग्नम् | जोबा० १२० । सम्बद्धं - अनुबद्धम् । प्रज्ञा० ८। । सम्बद्ध: - गृहस्थः ॥ सूत्र ६१ । वायाए परोप्परं सविउमारखं । नि० चू प्र. २६ बा । संबद्धा सम्बद्धा अभिशय्या वसतेच एक एव पृष्टवंश: । व्य प्र० १३५ म । संबद्धावधि: - जीवेन सह सर्वतो नैरन्तर्येण संबद्धोऽखण्डो देश रहितः एकस्वरूपः विशे० ३६९ । संबर-सम्बर :-यस्यानेकशाखे शृङ्गे भवतः, एतादृशो मृगविशेषः । प्रभ० ७ । द्विदुरविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । स्थानिक शोधक: । व्य० प्र० २३१ आ । संबर ठहिर-सम्बर रुधिरम् । प्रशा० ३६१ । सबल - सुदंष्ट्रेन समं युद्धकः । माव० १९७ सबलथइया - शम्बलस्थतिका | आव० ३५४ | संबल मोदग-सम्बलमोदकः । बाव० ३५४ । संबलिय- शाल्मली । आव० ६५१ । संबबलिमा। नि० ० प्र० ९८ अ संबाइ-द्वारावत्यां कुमाराः । बृ० प्र० ३० छ । संबाधा। नि० सू० प्र० १८८ अ । संवाह - सम्बाधः यत्र कृषीबललोकोऽन्यत्र कर्षणं वणिग् वर्गों वा वाणिज्यं कृत्वाऽन्यत्र पर्वतादिषु विषमेषु स्थानेषु संवोडुमिति । वृ० प्र० १८१ आ । संबाहः- यत्र पर्वत नितम्बादिदुर्गे परचक्रमयेन रक्षार्थं धान्यादीनि संबहन्ति स संवाहः । ठाणा० २९४ । संबाधः - प्रभूतचातुर्वण्यं निवासः । उत्त० ६०५ । सम्बाधः - यात्रासमा गतप्रभूतजननिवेशः । जीवा० ४० । संवाहा सम्बाधा :- पीडाः, सम्बाधयन्तीति सम्बाधा: - पीडा) उपसर्गजनिता नानाप्रकारातङ्कजनिता वा । आचा० २१६ । सम्बाधा - शैलशृङ्गशायिनो निवासाः, यात्रासमा-गतप्रभूतजननिवेशा वा । ज० प्र० १२१ । संबाधायात्रासमागतप्रभूतजननिवेशा: । जीवा० २७९ । ठाणा० [ संबुक्क ८६ । संबुक्क- शम्बूकः शङ्खः । उत्त० ६०५ । शम्बूकः - शङ्खः । ठाणा० २१६ । शम्बूकः - द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा ० ( १०५६ ) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबुक्कबट्टा ] अल्पपरिचितसेवान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ [संमिन्नसोत २१ । रावणभागिनेयः खरदूषणचन्द्रनखासुत: विद्याधर- २१३ । कुमारः। प्रश्न ८७ । कास:-तद्वच्छङ्खभ्रमिवत् । ठाणा० ] संभाइयं-सम्माजितः । श्राव० २०. । संमार-सम्भार:-प्राभूत्यम् । ज. प्र० १०० । संभार:संबुक्कवट्टा-संवुक्कः-शङ्खः तद्वच्छङ्खभ्रमिवदित्यर्थो या वृत्ता अवश्यतया कर्मणो विपाकानुभाबेन वेपनम् । सूत्र० ४१४ । मा सन्तुक्कवृत्ता । ठाणा. ३६५ । उपरि प्रक्षेप्यद्रव्यम् । ज्ञाता. १६६ । बहुद्रव्यसंयोगः । संबुक्का-द्वीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४१ ।। बृ. द्वि० १८८ अ । सम्भार:-प्राभूत्यम् । जीवा० संबुद्ध-सम्बुद्धः-विदितविषयस्वभावः सम्यग्दृष्टिः । दश० २६५ । सम्भार:-बाहुल्यम् । (?) । संभ्रियते -धार्यते ६९ | ठाणा. ५१६ । ज्ञाता० १०७ । संभरणं वा पारणं संभारः । परिग्रहस्य षष्ठं नाम । संबोवा नि. चू० प्र०८ अ । प्रभ० ९२ । संबोहण-सम्बोधनम् । आव० ३०८ । ज्ञाता० १५१ । । संभारयति-सम्भृतं करोति । ज्ञाता. १७७ । संभोवासणं । नि० चू० प्र० ३६ अ । संभारित-वासितं कर्पूरपाटलादिर्वासितं सम्भारितम् । संभंत-सम्भ्रान्त:-उत्सुकः । विपा. ४३ । सम्भ्रान्त:- | बृ• द्वि० १७२ आ । आकुलः । दश० १६३ । सम्भ्रान्त:-साश्चर्यः । ज० प्र०संभावणस्थतक्क-प्राकृतशेल्या अर्थसंभावना एवमेव चाय४१८ । मर्थ उपपद्यत इत्यादिरूपोतकः । दश० १२५ । संभंताओ-आकुलीभूतः । शाता० २९ । संभावियाई-वयं शोमानानीत्यवमन्यन्ते । ७. द्वि. संभग्ग-सम्भग्नं-मथितम् । ज्ञाता० ८६ । १८८ मा । संभजिय-पादितम् । भाचा० ३२३ । संभास-सम्भाषणं-स्मरकथाभिर्बल्पः, संप्राप्तकामस्य तृतीयो संभम-सम्भ्रमः प्रमोदकृदौत्सुक्यम् । विपा० ८६ । भेदः । दश० १६४ । सम्भ्रमः-मयंम् । बोघ० ५२ । सम्भ्रमः-गतिस्खलनम् । संभिच्च-एकत्रः । नि० चू० प्र० १७१ अ। जं. प्र. ३८८ । सम्भ्रमः । राज. १६ । सम्भ्रमा- संभिण्ण-समेकीभावेन मिन्नं सम्मिन्नं यथा बहिस्तथा उदकाग्निहस्त्याबावमनसमुत्थः शाकास्मिकः । बृ.प्र. मध्येपि, अथवा सम्मिन्नमिति द्रव्यं ब्रह्मते, कथम् -काल. २६१ । स्वस्तित्वरिता प्रवृत्तिः । राज. २४ । भावी हि तत्पर्यायो ताभ्यां समन्ताद्वा भिन्नं संभिन्नम् । सम्भ्रमः-परचक्रादिभयम् । अनु० १२६ । सम्भ्रमो- | आव० ८५ । व्याकुलत्वम् । अनु०१३७ । अग्गिउदगचोरबोधेगादियं । संभिण्णलोगनालि- संभिन्नलोकनाडी-चतुर्दशरज्वात्मिका नि० चू० प्र० ४२ मा । कन्यकाचोलकसंस्थाना । श्राव० ४० । संभमा-आउमादिया । नि० चू० प्र. २६३ । संभितं-सम्भूतं-उपस्कृतम् । प्रभ. १६३ । संभर इ-संस्मरति । बोध० १७६ । सभिन्न-परिपूर्णम् । जीवा, ४०२ । परिपूर्णम् । प्रज्ञा० संभरिखा-संस्मरेत् । आव० ६७६ । ५४१ । सम० १२८ । श्रोतांसीन्द्रियाणि संभिन्नानि संभलि- दूती । व्य० द्वि० १२५ प । परस्परत एकरूपतामापन्नानि यस्य स तथा । विशे० संभव-सम्मव:-सम्भवन्ति प्रकर्षेण भवन्ति चतुनिशदति- ३८४ । सम्-एकीभावेन भिन्नं सम्मिन्नं यथा बहिस्तथा शयगुणा अस्मिन्निति सम्भवतः तृतीय जिनः । यस्मिन् मध्येऽपोत्यर्थः। विशे, ५७६ । गर्भ सति अभ्यघिका शस्यनिष्पत्तिरतः । आव. ५०२। संभिन्नश्रोत अभिधानलब्धियुक्तः । ठाणा०६१ । 'सम्भवः-सदा भवनम् । सूत्र. ३५० । संभिन्नसोत-य: सर्वतः शृणोति स संभिन्नभोगा, संभिसंभवानुमान-श्याकरणादिना शास्त्राभ्यासेन सस्क्रियमाणा ननु वा परस्पर तो लक्षणतोऽभिधानतश्च सुबहूनपि शब्दान् याः प्रज्ञाया शानितिशयो ज्ञेयावगमं प्रत्युपलब्धः। सत्र शृणोति सम्मिश्रोता । थाब. ४७ । (अल्प० १३३) (१०५७ ) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभिन्नसोता] . आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ संमए - - -- संभिन्नसोता-सम्भिन्नं-सर्वतः सर्वशरीरावयवैः शृण्वन्तीति / संभोइय-सांभोगिक-अशेषसमानसामाचारिकम् । ओव० सम्भिन्नश्रोतारः, संभिन्नानि-प्रत्येक ग्राहकरवेन शब्दादि- १६ । शम्भोगिकः । याचा० ३५२ । नि० चू० तृ. विषयप्तिानि श्रोतांसि इन्द्रियाणि येषां ते सम्मिन्न १८ आ । सांभोगिक-समसुखदुःखः । व्य० प्र० २४१ । श्रोतासः । सामस्त्येन वा भिन्नानु परस्पर भेदेन शब्दानु साम्भोगिक:-एकसामाचारीप्रविष्ठः । आचा. ४०३ । शृण्वन्तीति वा सम्भिन्नश्रोतारः । प्रभ००५ । । एकसामाचारिकता । औप० ४२ । साम्भोगिकः । बाव. संभिन्नसोय-यः सर्वतः सर्वैरपि शरीरदेशः शृणोति स स- ६५२ । म्भिन्नभोताः सम्भिन्नाल्लक्षणतो विधानतश्च परस्परतो विमि- संभोए-मण्डलीसम्भोगः । ओघ० २११ । श्रान् जननिवहसमुत्थान् शङ्खभेरीभाणकढक्कादितूर्य पमुत्थान् | संभोएत्ता-मिश्रयित्वा । आचा० ३४६ । वा युगपदेव सुबहून शब्दान् यः श्रृणोति स सभिन्नश्रोताः। संभोग-समिति-संकरेण स्वपरलाममीलनात्मकेन भोगः विशे० ३७६ । सम्भिन्नान-बहुभेदभिन्नानू शब्दानान् पृथक सम्भोगः । उत्त० ५८७ । कामविकारः। नंदी० १६३ । २ युगपच्छपन्तोति सम्भिन्नश्रोतारः। संभिन्नानि वा एकमण्डल्यां समुद्देशनादिरूपः । बृ० तृ० १४० आ । शब्देन व्याप्तानि शब्दग्राहीणि, प्रत्येकं वा शब्दादिविषयः सभोग:-एकत्र भोजनं समं भोगो सम्भोगो यथोक्तविधिना श्रोतांसि-सर्वेन्द्रियाणि येषां ते सम्भिन्नश्रोतार: औप० २८ सम्भुजन्ते, सम्भजते वा स्वस्य वा भोगः । नि. चू० संभिय-श्लेष्मिकः । आव० ४०५ । सम्भृत:-संस्कृतः । प्र. २३४ अ । सम्भोगः-एकमण्डोलीभोक्तृकत्वम् । भग उत्त० ४०५ । ७२७ । सम्भोग:-समानम्मिकाणां परस्परेण भक्तादिसंभुजितए-सम्भोजयितुं-भोजनमण्डव्यां निवेशयितुम् । दानग्रहणरूपः । भग ९२५ । ठाणा० ५७ । संभोगकाल-सम्भोगकालः-उपभोगप्रस्तावः । उत्त० ६३२॥ संभूअ-सम्भूतः-त्रिपृष्ठवासुदेवधर्माचार्यः । आव० १६२ संभोगरच्चक्खाण-एकमण्डलीकभोस्तृत्वस्य प्रत्याख्यानं टी० । संभूतं-पाकातिशयतः ग्रहणकालोचितम् । दश० | गीतार्थावस्थायां जिनकम्पाद्यविहारप्रतिपत्त्या परिहार सम्भोगप्रत्याख्यानम् । उत्त० ५८७ । संभूअजई-सम्भूतयति:-विश्वभूतिदीक्षागुरुः । आव ० १७२।। | संभागविही-सम्भोगविधिः संबासे सातव्यः । व्य० वि० संभूत-वाराणस्यो चण्डाल , ब्रह्मदत्तपूर्वभवः । उत्त० ३७६ । ११६ अ । जस्सभहस्सीसो । नि० चू. प्र. २४३ आ । नि: चू० । सभोगिय-सम्-एकत्र भोगो-भोजनं सम्भोषः, साधूना समाप्र. ३०४ अ । सम्प्राप्तः । उत्त० २६३ । सामाचारीकतया परस्परमुपध्यादिदानग्रहणसंव्यवहारकरील-मोसादिवत् समानरसो विषयः । विशे. लक्षणः स पिद्यते यस्य स सम्मोगिकः । ठाणा०१३६ । साम्भोगिक:-एकसापाचारीकः। ठाणा० ४.८ । संभूतिविजए-सम्भूतिविजयः - अनगारविशेषः ।विपा० ९५॥ सभोतित-साम्भोगिक एक भोजनमण्डलिकादिकम् । अणा.. संभूतयति भवानरे मोगस्पृहयालु । उत्त० ६३६ । । संभूय-सम्भूतं-सम्यक् परिपालनाय भूतं संवृतम् । आचार संभोयण एकमण्डल्या भोजनम् । वृ• तृ. १५७ । १२३ । ५कबुदितथा भूत्वा । ज. प्र० ४६३ । सप. सम-सम्यग् अयुनरागमनन । आचा० १११। सम्यग्ज्ञान१५३ । सम्भूतविग्यो माढरगोत्रः । नंदी० ४। सम्पक्सम् । आचा० २१२ ।। संभूयविजय-सम्भूतविजयः-स्थूलभद्रगुरवः । आव० संसहसंपुच्छगाबहुल सम्पतिसम्प्रभवहनः-संपत्या उत. मया मत्या यः सप्रमः-पर्यालोचनं तदूबहुलः । जीवा. संमृतकरिबमास ।आअ.१०।। १६६ । संभोइए -अशेषतमानसामाचारिकः । ओघ १६ । संमए-सम्मतम् । भग. १२२ । (१.५८ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमग ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ समुच्छिमा संमखग-जन्मजनस्यै वासकृरकरणम्। भग० ५१६ । उत्म समहिपत्ते । ज्ञाता० १९८ । जनस्यवासकुत्करणेन य: स्नाति, स । औप० ९० । उन्म- संमाजिया-सम्माजिका-गृहस्यान्तर्बहिश्च बहुकरिकावाजनस्यैवास कृत्करणेन यः स्नाति तापसविशेषः । निरय हिका । ज्ञाता ११६ । २५ । संमाण-सन्मानं-वनपात्रादिभिः पूजनम् । दश० ३० । संमजण-समार्जनं दण्डपुञ्छनादिना । अनु. २६ । सन्मान: विश्रामणादि । बृ. प्र. २३७ अ । पमज्जणं । नि. चू० प्र० २३१ अ । प्रमाणम् । संमिक्ख-समीक्ष्य-पर्यालोच्य । उत्त. १२० । नि० चू० प्र० १७२ आ। संमित-सम्मित:-प्रमाणोपेताङ्गः । ज्ञाता० ६६ । समलिअ-सम्माजित-अपहृतकचवरम् । ज्ञाता० २५ । । संमिस्स-सम्मिश्र-वल्लयादि पुष्पादि वा । आव० ८२८। संमजिय-सम्मार्जनं-शलाकाहस्तेन कचवरशोधनम् । प्रश्न संमिश्र-स्फुटितस्वक् । आचा• ३४६ । १२७ । सम्माजित कचबरशोधनेन । जीवा. २४६ । संमह-सम्मुदितं-अकुटिलतया कारकः । व्य० प्र०२४१ । संमृज्य-वस्त्रादिनाऽऽतामपनीय । आचा. ३३६ । समुई-सम्मतिः । जं० प्र० १७७ ।। संमट्ठ-संमृष्टः-आकर्णपूरितः । जं. प्र. ९५ । संसृष्टः- समुचि: ।जं. प्र. १७७ । आकर्णभृतम् । भग० २७७ ।। | समुज्झइ-सम्मुह्यति दोलायमानमानसो भवति । विशे० संट्रा-प्रमाजिता । नि० चू० प्र. २३२ अ । ६२५ । संमत-वल्लभः । नि० चू० प्र० १६ अ । | संमुच्छंति-सम्मूर्च्छन्ति-तत्पुद्गलमीलनात्तदाकारतयोत्पद्यते संमती । ठाणा० २६२ । । भग० २६९ । संमत्त सम्यक्त्वं-प्रशस्तं-शोभनं एकं सततं वा तत्त्वं संमच्छ-सम्मुर्छ:-पभोपपातव्यतिरेकेण एवमेव प्राणिसम्यक्त्वम् । आचा० २४५ । सम्यक्त्वं-बाचारप्रकल्पस्य नामुत्पादः । प्रशा० ४४ । सम्मूर्छनं सम्मूच्छं:-गर्भोपचतुर्थों भेदः । बाध० ६६० । सम्पूर्ण-निरूपचरितम् । पातव्यतिरेकेणव यः प्राणिनामुत्पादः । जीवा• ३३ । सूत्र. ४०२ । सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानरूपम् । आव० संमुच्छ इ-सम्मूछति-सम्मुर्छ भन्मना लब्धात्मलाभो भवति । ५११ । सम्यक्त्वं-सम्यक्त्वमोहनीयं कर्म । दश०७८।। जीवा० ३०७। संमत्तकिरिया सम्यक्त्व क्रिया सुन्दराध्यवसायात्मिका क्रि. संमुच्छा-सम्मूछी-अतिशयमूना । उत्त० ६९८ । या । जोवा० १४३ । समुच्छिम-यजनादिजन्यः सम्मूच्छिमः । ठाणा• ३३६ । संमत्तदंसिण-समत्त्वपिन: सम्यक्त्वदशिनः समस्तशिनः सम्मूच्छेन निवृतः-सम्मूच्छिमः । ठाणा० २७३ । सम्मू. । आचा० १८८ ।। च्छिम: अगर्भजः । ठाणा० ११४ । सम्मूच्छिमः । सम. संमद्दण-सम्मईनं-पूर्वच्छिन्नानामेवापरिणतानां मर्दनम् ।। १३५ । सम्मूछिम:-अचित्तस्य पञ्चमी भेदः । ओघ. दश० १८५ । । ११३ । सम्मूच्छिम:-पद्मिनीशङ्गाटकगठशैषलादयः । संभहा- वस्नस्य मध्यप्रदेशे संगलिताः कोणा भवान्त आचा० ५७ । प्रत्युपेक्षणीयोपधिवेण्टिकाणा मेवोपविश्य प्रत्युपक्षेपने सा समुच्छिममणुस्सा सम्मूच्छिममनुष्या: । प्रशा० ५० । सम्म । ठाणा • ३६१ , समर्दा यत्र मध्य प्रदेशे वस्त्रस्य | संमुच्छमा- सम्मूर्छनं सम्मूर्छ'-गोंग्पाल व्यातिरेकेण सलिताः कोणा भवन्ति स । प्राव० १०९। ?) । एवमेव प्राणिनामुत्सादः, तेन निर्वृत्ताः सामूच्छिमाः । संमय-सम्मत:-बहुमतः । ओघ. १७७ । प्रजा० ४४ । समूच्छंनं सम्भूर्छा - अतिशयमूढता तया संनयसच्च-सम्मतसत्त्यं -कुगुस्कुरल गेस समरस नां स- निवृताः सम्मूच्छिमाः, समित्युत्पत्तिस्थानपुद्गलैः सहैकी. माने पङ्कसम्भवे गोपादोनामा सम्पसमावि-दमे पडू भावेत मूच्छन्ति-तत्पुलोरचयारसम्मून्निा मवन्तोत्यो. जमिति । दश० २०८ । । णादिक इमप्रत्यये सम्मूच्छिमाः । उत्त ६९८ । सम्मू• १०५६ ) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · अल्पपरिचितसशान्तिकशम्वकोषः, भा०.५ [ संलिहिता च्छिमा:-प्रसिद्धबीजामावेन पृथिवीवर्षादिः समुद्भवं तथा| विषकूटयन्त्राबङ्गानां मीलनं तदेव संसारहेतुत्वादाधि. विषं तणादि । दश०१४० । सम्मूर्छनजा:-शलमपि. करणिकी संयोजनाधिकरणिकी । प्रशा० ४३६ । पोलिकामक्षिकाशालकादयः । दश० १४१ ।। | संयोजनाप्रायच्छित्त-प्रायच्छित्तविशेषः । व्य. प्र. ११ संमुति-पण्डजनपदे शतद्वारानगरे राजा । भग• ६८८। संमती-जम्बूमरते आगामिन्यामुत्सपिण्यां षष्ठःकुलगरः । संरंभ-सकषायः । तस्वा० ६-६ । ठाणा० ५१८ । संरंभकरण-संरम्भकरणं पृथिम्यादिविषयमेव मनःसङले. संमूढ-सं-भृशं मूढः-वैचित्यमुपागतः सम्मूढः । उत्त० शकरणम् । ठाणा० १०८ । १८३ . संरक्खग-नानाव्यसनेभ्यः संरक्षकः । ज्ञाता० २४० । उत्पादयेयुः । ६० प्र० १०२ आ । संरक्खणा-संरक्षणा बाभिष्वङ्गवशाच्छरीरादिरक्षणम् । संमेल-परिजन सम्मानभक्तं गोष्ठी मक्तं वा । आचा. परिग्रहस्य षोडशमं नाम । प्रश्न. ९२ । ३३४ । गोठते वा मत्तं संमेलं भण्णति । कंमारंभे संरक्खमाणी ।शाता. १८७ । सुण्हासिता जे ते संमेलो । नि० चू० द्वि० २२ आ । संरक्षणता-यत्र तिष्टतामगारिणो मवम्ति गवादिमिर्मज्यसंमोह-सम्मोहमावनाजनितः साम्मोहः । ठाणा० २७४ । माना वसतिमन्यद्वा समीपत्तिग्रहं संरक्षता । ६० प्र. सम्मोहः-मूढता । भग० ६२६ । सम्मोहः-किं कर्तृव्यता २५४ आ। मूढता । अनु० १३७ । मूढात्मानो देवविशेषः । बृ. संरोहण-औषधविशेषः । आवा० २२७ । प्र० २१२ आ। संरोहिणी-औषधिविशेषः । आव० ४०२ । संयताद्यवगम-सन्दिग्धबुद्धिः । अव्यक्तमतः ।आव० ३११। संलग्गिरि-परस्परं हस्तावलगिकया अन्ति, युगलिता संयतः-विरतः प्रशस्ताध्यवसाय: । विशे० १०२७ । बजन्ति । ओष० ५५ संयम-विरतिः वृतम् । तत्त्वा० ६-२० । संलवएति-संलपति-लपति । आव० ४३३ । संयमकेडे केषु करोतीत्यर्थः । नि० चू०प० २१४ । संलवण-संलपनं-पौनःपुन्येन सम्बाषणम् ।बाव० ८११। संयमध्रवयोगयुक्तता-संयमा-चरणं तस्मिनु ध्रुवो- | संलाप-संलाप:-परस्परमाषणलक्षणः । नित्यो योगः-समाधिस्तधुक्तता, सन्ततोपयुक्ततेति ।। मिथोमाषा । भग० ४७८ । आचारसम्पत्ते प्रथमो भेदः । उत्त० ३६ । चरणे नित्यं लाव-संलापः-पत्या सह सकामं स्वहृदयप्रत्यर्पणक्षम समाध्युपयुक्तता । ठाणा. ४२३ ।। परस्परं सम्भाषणम् । ६० प्र० ११६ । संलापः-मुहुमुं. संयमस्थान-संयमः-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारवि. हुर्जल्प: । भग० २२३ । संलाप:-पल्या सह सकामशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथास्यातरूपः तस्य पञ्चविधस्याऽप्य. स्वहृदय प्रत्यर्पणक्षमं परस्परसंभाषणम् । जीपा. २७६ । सख्येयानि संयमस्थानानि । आचा.९ । संल्लाप:-प्रियेण सह सप्रमोदं संक्राम परस्परं सपा। संयमासंयम-शारित्राचारित्रम् । भग• ३५० । सूर्य० २६४ । संल्लाप:-परस्परभाषणम् । ठाणा० ४०८। संयुग-गर्भाधानपरिसाडरूपमूलद्वारविवरणे सिन्धु राजनग. सलाप:-संकथा । १० प्र० २६९ आ। रम् । पिण्ड १४५ । सलिख्यते-शरीरकषायादि कुशीकियते । उपा० १२ । संयोजण-संयोजन-हलपरविषकूटयन्त्राधङ्गानां पूर्वनिवं. लिह-सलेखन-इषल्लेखनम् । दश० २२८ । त्तितानां मीलनम् । भग० १८२ । संलिहनकल्प-मिक्षाभक्तविलिप्तानां पात्रकाणां संलिहनं संयोजनाधिकरणक्रिया-अधिकरणक्रियाया द्वितीयो भेदः, कर्तव्यमित्यर्थः । ओघ १६ । सिद्धानां संयोजनलक्षणा । प्रश्न. ३७ । संलिहिता-संलिस्य-प्रदेशियां निरक्यवं कृत्वा । दश.. मयोजनाधिकरणकी-सयोजन-पूर्वनियंतिताना हलगर.। १५२ । ( १०६० ) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलिहिय] महापरिचितसेवान्तिकशावकोपा, भा०५ संलिहिय-संलिखितम् । आव० ८५७ । संलिह्य-निरव- वर्षासु चातुर्मासिको । ज्येष्ठावग्रहः । दशा० २८३ । यवं कृत्वा । आचा० ३३६ । सवच्छरपडिलेहणग-जम्मदिनादारभ्यः संवत्सरः प्रत्युसंलिहे-संलिलेत । दश० २२८ । पेक्ष्यते एतावतिषः संवत्सरोऽद्य पूर्ण इत्येवं निरूप्यते संलिहेल्ला-स लिखेत । बाचा. ३३८ । महोत्सवपूर्वक यत्रदिने तत्संवत्सरप्रत्युपेक्षणकम् । शाता. संलोण-एकाश्रयस्थः संलीनः । दश० ११६ । १३१ । संलोणया-संल्लीनता-बाह्यतपोविशेषः । दश० २६ । संवट्ट-सबत्त:- संहारः । भग० ३२२ । संवत्तंन्ते पिण्डी. सलीनता । उत्त, ६०७ ।। भवन्स्यस्मिनु भयत्रस्ता जना इति । उत्त० ६०५ । चोर. संलोनता-विविक्तशय्यासनता एकान्तेऽमाबायो । संसक्ते धारिभएण बहू गामा एमट्टिता णायगाहट्ठिता य । नि. स्त्रीपशुपण्डक जिवे शून्यागृहादी समाधयर्थ संलीनता। चू. ३५८ व । संवत:-परचक्रामेऽनेकग्रामाणामेकत्र तत्त्वा०६-१९ । स्थानम् । बृ• तृ० ५४ आ। संवत्तं-जालम् । नाव. -संलुच्यः अपनोय-छित्त्वा । दश. १८५ । ३४६ । संलेखना-तपोविशेषः । (१) । संवदइत्ता संवर्त्य-सङ्कोच्य । ठाणा. ९. । लेह-कवलत्रयम् । बृ० तृ० १८१ आ । -संवर्तनमपवर्तनं संवतः स एव संवतंक:-उपक्रमः। सलेहगा-संलेखना-भक्तगनप्रत्याख्यानम् । सम० १२०।। ठाणा० ६७ । संवर्तयति-नाशयति । ज.प्र. १७३ । संलेखना-तपोविशेषः । ठाणा ५७ । संलेखना शरीरस्य | संवट्टा-संवर्तकः-तृणकाष्ठदिनामपहारको वातविशेषः । तपसा कृशीकरणम् । औप० ९६ । सलेखना-तपोविशेष- ज. प्र. १६७ । लक्षणा । आव. ८४० । संलेखना-सलोख्यते-कुशीकि ण-संवर्तकपवनं-वायुविशेषः । आव० १२१ । यतेऽनया शरीरकषायादि सा, तपोविशेषलक्षणा । भग० संवट्टगवाए-संवतंकवातः यो बहिः स्थितमपि तृणादि २९७ । संलिख्यते-कृषीक्रियतेऽनयेति संलेखना-तपः । विवक्षितक्षेत्रान्तः क्षिपन्तीति । उत्त०६९४ । संवर्तक. मम० १२७ । संलेखना-तपोविशेषलक्षणा। उपा० १२।। वातः-तृणादिसंवत्तनस्वमावः । जीवा० २९ । संलेहणाभूसणासिय-संलेखनासेवनाजुष्टः । ज्ञाता० | संवट्टम-संवर्तन:-वस्तुनाशः । बृ० प्र० ४२ अ। दीर्घ ७५ । संलेखनाजोषणाजोषितः-संलेखनक्षपणया क्षपितः | कालवेधस्यायुष्कस्य सवर्तनं-स्वल्पस्थितिकत्वापादनम् । कायः । संलेखनाजोषणया-सेवनया जोषित:-सेवित वशे० ८४४ । उत्तमार्थगुणरित्येवंभूतः । सूत्र. ४१६ । संवट्टमेह-'संवर्तकमेघश्चोत्सपिण्यां शुभोभवति काले पूर्व. संलेहणाभूषणाराहण्या-संलेखनाजोषणाराधना-संलेख- दग्धभूम्याश्वासनाथं वर्षति' इत्यागमे प्रतिपाद्यते । विशे. नायास्तपोविशेषलक्षणायाः जोषणं-सेवनं तस्याराधना- | अखण्डकालस्य करणम् । आव० ८५६ । संवय -संवर्तकः-तूपकाष्ठादीनां संवत्तंकः । मग० ३.६ । संलेहणासुय-संलेखनाश्रुतं-द्रव्यभावसंलेखना यत्र श्रुते | संबद्यमाय-संवर्तकवातः-तृणादिसंवर्तनस्वभावो वातः । प्रतिपाद्यते तत् । नंदी. २०५ । भग० १६६ । संलेहा-तिण्णिलंबमा । नि० चू. प्र. ३११ अ। संक्वाए-संवर्तकबात:-णादिसंवर्तनस्वमावः ।प्रज्ञा० ३०॥ संबग्ग-संवर्ग:-गुणनम् । व्य. प्र. ७६ अ । संवद्विजा-सक्तयेत-संक्षिपेत् । आचा. २८४ । संघच्छर-सांवत्सरं-ज्योतिषम् । सूत्र. २१८ । संवत्स- संघट्रियं- सर्वात्ततं-संवर्तयतुं । आ. ४२६ । रातिचारनिर्वृत्तं प्रतिक्रमणं सांवत्सरिकम् । आव० ५६३ । संबटेइ-संवर्तयति-एकत्रस्थाने ग्यस्यति । औप० ६४ । सवत्सरः अयनद्वयमानः । ठाणा०६६। संवत्सर:- अयने। आणी-संवेष्टयन्तो-पोषयन्ती । ज्ञाता. . जीवा ३४४ । बालविशेषः । भग ८८८ । संवत्सर: -संवर्धना । बाब० ५६ । (१०६१) ५२७ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवणिया ] । संवणिया-परिचिता, प्रसादिता । उत्त० ५३ । संवत्ते यत्र विषमादी मयेन लोका संवर्ती भूतस्तिष्ठति । व्य० द्वि० ३६२ आ । संवर-संवियते कर्मकारणं प्राणातपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः - आश्रवनिशेषः । ठाणा० १९ | संवरः- आश्रवनिरोधः इन्द्रियकषायनिग्रहादिभेदः । ठाणा० १८१ । संवरः - इन्द्रियनोइन्द्रियनिवर्तनम् । मग० १००। संर:- कर्मणामनुपादानम् । प्रश्न० १०१ । संवर:अहिंसाया द्विचत्वारिंशत्तमं नाम । प्रश्न० ६६ । संवि यते निरुध्यते आत्मतडागे कर्मजलं प्रविशदेभिरिति संपर-प्राणातिपातविरमणादिकः । प्रश्न० २। शम्बरःद्विखुरश्वतुष्पदः । जीवा० ३८ | संवरः - शुभाध्यवसायः । भग० ४३३ । संवरः । प्रज्ञा० ५६ । संवरः- चारित्रम् । दश ० १८८ । संवरः - सर्व प्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपो धर्म:- चारित्रधर्म इत्यर्थः । दश० १५९ । संवरः । व्य० द्वि० २६६ आ । चतुर्थ तीर्थं कृत्पिता । सम० १५० । सम्बर:- अभिनन्दन पिता । आव० १६१ । आगमीव्यामुत्सपिण्यामष्टादश मतीर्थंकृत् । सम० १५४ । स्तानिक: शोधकः । व्य० द्वि० २१७ आ । संवरः- योगसङ्ग्रहे विशतितमो योगः । आव० ६६४ । आच्छादनम् । विशे० १०२६ । स्तानिक:- शोधकः । व्य० प्र० २८५ आ । संवरट्ठ-संवरार्थः - अनाश्रवस्वम् । भग० १०० । संवरणं - निवारणम् । वृ० तृ० ११० आ । भोजनानन्तर माकारसङ्क्षेपेण स्वरूपम् । विशे० १०१६ | प्रत्याख्या - नम् | ओघ० ३३ । जीवतडागे कम्मं जलस्य निरोधनं संवरः । ठाणा० ३१६ । आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः संवरबहुल-संवरबहुल:- प्राणातिपातद्याश्रवद्वारनिरोधत्र चुरः । प्रश्न० १२५ । संवरिय-संवृत्तः - हर्षातिरेकादतिस्थूरीभवन्तः निषिद्धः । भग० ४६० । संवृतं - आसेवितम् । प्र० ११२ । संवरियासवदार-संवृताभवद्वारं स्थगित प्राणातिपातादि [ संवाहति संवर्तकवातः । सम० ६१ । संसितलोक: संवत्तयति वेण्टलिकां करोति । ओघ० ७४ । संवयं सारानेकीकृत्य । ठाणा० ३५४ | संवर्धयित्वा - । आचा० २८ । | आव० १२६ । संबलिय- संचलितः मिश्रितः । आव० ७२ । संववहारिय व्यवहारिकश्च यद्यपि भूयोऽपि निगोदाव स्थामुपयन्ति तथापि सः सांव्यवहारिकः । प्रज्ञा० ३८० । संत्र सित्तए - संवासयितुं संस्तारकमण्डल्यां निवेशयितुम् । उत्त० ठाणा० ५७ । संवसित्ता-समध्य - सहैवासित्वा । उत्त० ४०४ । संवहणं-जो रहजोगो तं संवहणं । दश० चू० ११० । संवाद- जल्पविधिः । नंदी २३४ । संवाय-संवाद :- परस्परभाषणं वचनैक्यं वा । ४९८ । संवाद:- शुभाशुभयतः संलापः । सम० १२४ । संवास संवासः - चिरं सहवासः 1 १६७ । संवसनं शयनं संवासः । ठाणा० २७४ । संवसनं-परिभोगः । सूत्र० ११३ । संवासो-मैथुनाथं संवसनम् । ठाणा ० १९३ । संवसनम् । बोध० ५५ । संवासः । भाव० २१३ । संवासेइ-समिति भृशं वासयति संवासयति - गात्रि दिवं चावस्थापयति । उत्त ३२२ । संवाह - संबाधः यात्रासमागतप्रभूतजननिवेश: । प्रज्ञा० ४८ । नत्थ किसिकरेत्ता अन्न थ वोढुं वसंति तं संवाह भष्णति । नि० चू० द्वि० ७० आ । संवाह: - पर्वतनितम्वादिदुर्गे स्थानम् । औप० ७४ । संवाहः - रक्षार्थं धान्यादिसंवहनोचितदुर्ग विशेषरूपः । प्रश्न० ६६ । स. स्वाधः - अतिबहुप्रकार लोकसङ्कीर्णस्थानविशेषः । अनु० १४२ । संवाहः स्थापनी । प्रश्न० ६२ । संवाहण - सम्बाधनं - गरीरस्यास्थि मुखस्वादिना नै पुण्येन मद्दन विशेष: ठाणा २४७ । संबाधनं - अस्थिमांसत्वग्रोमसुखतया चतुधिं मर्दनम् । दश० ११७ । कम् । आव ० ७७४ । संवरे मारणे - संवृण्वन् निवर्तयतु, आचक्षाणः । भगः ५४ । संवाहक्षेत्रादिभ्यस्तृणकाष्ठधान्यादेगृहादावानयचं त संवर्त्तक - वातविशेषः । नंदी० १४८ । संवर्त्तक बात - संवर्त्तकं योजनं यावत् क्षेत्रशुद्धिकारको वातः संहति कस परिमद्दति । नि० चू० प्र० ११६ अ प्रयोजनवाद्धनिका । उपा० ३ । ( १०६२ ! ठाणा० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० ५ -संवाहमारी ] संवाहमारी मारीविशेषः मग० १९७ । संवाहरूवंसंवाहितो-संवाहयन्ती । आव० ५५६ । संविवखति विलम्बते प्रतीक्षते । आव० ६३७ । संविक्खिय संविकीर्णम् । आव० ६३६ । संविग्ग - संविग्नः- मोक्षं प्रति प्रचलितः - संसारभोरुः । भग० ५०२ । मोक्षसुखाभिलाषी । ओघ ० २०२ । संविग्नः मोक्षार्थी | आव० ८६० । संविग्नः । आव० ५३६ । संविग्न: । आव० १०१ । संविग्नः - मोक्षाभि लाषो । ओघ ० ५६,५९ । संविग्नम् व्य० द्वि० १४० अ । संविग्नः संभोगिक: उचितविहारी । व्य० द्वि० ३२८ आ । सांभोगिक : - समसुखदुःखः गीतार्थः । व्य० प्र० २४४ अ । उद्यतविहारी । बृ० प्र० ६५ अ । उद्यतविहारी | बृ० प्र० २६३ आ । णिच्चं संसारभओविगचित्तो । नि० ० ० ७४ वा । संविग्गपक्खि- संविग्नपाक्षिक:- संविग्नानां पक्षस्तपक्षस्तत्र भवस्तस्पाक्षिकः । व्य० प्र० १५६ अ संविग्गपविखओ। नि० चू० अ० २२८ छ । संवुडब कुस - संवृतबकुशः - यो मूलगुणादिषु संवृतः सनु संविग्ग भाविय - संविग्नभावितः - श्रमणोपासक विशेषः 1 करोति । बकुशस्य तृतीयो भेदः । उत्त० २५६ । ठाणा॰ ११० । उज्जुयबिहारी हि जे सहा भाविया ते । संवुड बहुल - संवृतबहुल:- कषायेन्द्रियसंवृतत्व प्रचुरः । प्रश्न० नि० चू० प्र० २०२ म । संविग्नपाक्षिक:- लघुपर्याय: । ठाणा० १६७ । उत्त० संवुडा - संवृता - सङ्कटा घटिकालयवत् । ठाणा० १२२ ॥ ८६० । । १२८ । संवृता - नरकाणां योनि: । प्रज्ञा० २२७ । औप० ६६ । संबुड्डू - संवृद्धः । आचा० ३४८ । संवद्धितः भोजनदानादिना अनाथपुत्रकः । ठाणा० ५१६ । संय- संवृतः - परिगतः परिवृतो वा । संवूढ - । ज्ञाता० २२५ । संवृतविवृता - योनिभेदः । खाचा० २४ । संवृता - योनिभेदः । आचा० २४ । कल्पना । उस● ४७२ । एकैकस्मिन् वर्णे गन्धे रसे स्पर्शे च संवृता योनिः प्रज्ञा० २८ । । भग० १९३ । ૪૩૪ । संविग्नभावित - श्रमणोपासके भेदः । भग० २२७ । संविचिन्न - संविचरित: आसेवितः । ज्ञाता० ९९ । संविज्ञो-जो एवाणि करेंतो वि संविज्ञो - गीतार्थपरिणा नकः । नि० चू० प्र० ५२ आ । संवित्तिः- ज्ञा । आव० २८२ । संविदे-संवित्ते - जानीते । उत्त० २८२ । संविद्धपह - संविद्धपथः सम्यग्विद्धः ताडितः क्षुण्णः पन्थाःमोक्षमार्गों ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो येन स तथा आचा २१२ । संविधानक- संविधानकः । ठाणा० १३५ । नंदी० १६१ । संविधूय - परिषहोपसर्गात् प्रमध्य | आचा० २८६ । ! संविभागसील - संविभागशील :-- लब्धभक्तादिसंविभागकारी । प्रश्न० १२६ । सविल्लिया - सङ्कोचिता । उपा० २४ । संविह आजिविकोपाशकः । भग० ३६९ । संवीत-संगीत: - प्रहृतः । सूत्र० ८३ । संवुड- संवृत्तः समाहितः । सूत्र० ६३ । संवृतः सकलाश्रवविरमणम् । उत्त ० ६१ । संवृत्तः - निरुद्धाश्रवः । उत्त० ६६ । संवृतं समन्तत आवृतम् । सूर्य० २१३ । इन्द्रियकषायसंवरेण संवृतः । प्रश्न० १४२ । संवृतःउपयुक्तः । दश० १७८ । संवृत्तं पार्श्वतः- कटकुट्यादिना सङ्कटद्वारम् । उत्त० ६० । संवृतः पिहितास्रव द्वारः । आचा० ३५० । संबुडअणगार - भगवत्यां नवमशतके द्वितीयोदेशकः । [ संवेग - भग० ४९२ । संवुड उस संवृतब कुशः - प्रच्छन्नकारी । बकुशे चतुर्थो भेदः । ठाणा० ३३७ । बकुशे । तृतीयो भेदः । भग० ( १०६३ ) संवेग संवेग संसाराद्भयं मोक्षाभिलाषो वा । सम० १८ । संवेगः - भवभयः । भग० ९० । संवेग - मोक्षसुखाभिलाषः । दश० ३९ | संवेगः - सिद्धिश्च देवलोकः सुकुलोत्पतिच् भवति संवेगः । दश ११३ | संवेगः - मोक्षाभिलाषः Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगमणि माचार्यश्रोबानम्बसागरसूरिसकुलित:- .. [ संसक्त उत्त० ४४१ । प्रशमादिगुणेषु द्वितीयः । बाव० ५६१ । | संसग्ग-संसर्गः-सम्बन्धः । दश• १६५ । संवेग:-धर्मकथायास्तृतीयो भेदः । दश० ११० । सवेग:- संसग्गि-संगिः-सम्पर्कः, अब्रह्मणश्चतुर्थ नाम । प्रभ० ६६ । शरीरादिपृथगभावः भामौत्सक्यं वा । आव० ५५० ।। संसर्गः । उत्त० ४७ । संविग्नः । आव० ५२ । संवेगः । उत्त• ३२४ । मोक्षा- | संसग्गी-संसनिः-प्रीतिः । बृ० तृ. १३७ आ । नि० भिलाषः । भग० ७२७ । संवेग:-संसारभीरुत्वं, आरंभपरिगृहेषु दोषदर्शनादरतिः. धर्मबहमानः, धामिकेषु | संसबह-संसज्यते । आव. ६४४ । धर्मश्रवणे धार्मिकदर्शने च मनःप्रसादः उत्तरोत्तरगुण- संसलिम-संसक्तिकान्-तन्मध्यनिपतिवजीवयुक्तः । पिण्ड. प्रतिपाती च श्रद्धा । तत्त्वा०७-७ । संवेगः-सुकुलोत्प- १५० । तिरित्यादेरभिलाषः । संवेगः। बृ० प्र० ३८ अ । संवेग:- | संसट्ठ-संसृष्टः-आकणं पूरितः । अनु० १८२ । संसृष्टःयोगसङ्ग्रहे सप्तदशो योपः । आव० ६६४ । भवभयं भूमिकर्मादिना संस्कृतः। आचा• ३६१ । संसृष्टं-भोक्तुमोक्षाभिलाषः । भग ५५० । कामेन गृहीतकूरादौ क्षिप्तो हस्तः क्षिप्तो न तावत् मुखे संवेगजणिअहास-संवेग:-मोक्षाभिलाषस्तेन जनितो हा. क्षिपति तच्च लेपालेपकरणस्वभावम् । ठाणा० १४८ . सो-मुखविकाशात्मकोऽस्येति संवेगजनितहासः-मुक्त्युपा- संसृष्टं-भोक्तुकामम् । व्य० द्वि० ३५३ आ । संसृष्टयोऽयं दीक्षेत्युत्सवमिव तां मन्यमानः,प्रहसितमुख इति । उच्छिष्टम् । वृ० प्र० २७२ आ । संसृष्टं-गोरससंसृष्टे उत्त. ४६४ । भाजने प्रक्षिप्तं सद्यदूदकं गोरसरसेन परिणामितम् । संवेदन-ज्ञानम् । विशे० ३६ । बृ० प्र० २६७ आ । संसृष्टं-खरण्टितेनेत्यर्थो हस्तसंवेयणी-संवेगयति-संवेगं करोतीति सवेद्यते वा संबो- भाजनादिना दीयमानम् । ठाणा. २९८ । संस?हिं ध्यते संवेज्यते वा-संवेगं ग्राह्यते श्रोताऽनयेति संवेदनी हत्थमत्तेहिं देतित्ति संसट्ठो। नि• चू० तृ० १२ १ । संवेजणी । ठाणा० २१. । संवेज्यते-मोक्षसुखाभिलाषो । संसृष्टम् । आव० २५८ । विधीयते श्रेता यकाभिस्ता संवेजनी । जोप. ४६ । । संसट्ठकप्प-संस्पृष्टकल्पः । ठाणा• ३७२ । संसृष्टकल्प:संवेलित-परिवेष्टितः । प्रशा० ३०६ । मैथुनप्रतिसेवा । व्य० प्र० २०५ था । संसृष्टकल्पासंवेल्लिता-संवेल्लन्ती-सखोचिता वा । ज्ञाता. ६६ । मैथुनप्रतिसेवा । वृ० तृ० २२४ मा ।। संवेल्लिय-संवेलितं-संवृतम् । जीवा० २०७। संवेलितं- | संसट्ठकप्पित-संसृष्टेन-खरण्टितेनेत्यर्थो हस्तमाजनादिना सवृतं किञ्चिदाकुञ्चितम् । जं० प्र० ५२ । संवेल्लित- दीयमानं कल्पिकं-कल्पवत् कल्पनीयमुचितमभिग्रहविशेसंवृत्तम् । राज. ४९ । षाद्भक्तादि यस्य स संसृष्टकल्पिकः । ठाणा० २९८ । संवेह-संजोगो । नि० चु० तु. १०८ अ । संवेध:- संसट्टपाणग- संसृष्टपानक-उष्णोदकं तन्दुमपावनादि वा। संयोगः । व्य० प्र० ७६ अ । बृ० प्र० २९८ आ। संव्यूह ।वृ० प्र० ५२ बा । | संसट्ठोवहड-संसृष्टोपहृतं-संसृष्टमेवंभूतमुपहतम् । ठाणा. संवियते-निरुध्यते । प्रभ०२। १४८ । संशय । साचा. १५० । संसत्त-संसक्त-सङ्कीर्णम् । सम० १५ । संसक्त:-कदा. संश्लेषः-समवायः । आव. २७८ । चित्संविग्नगुणानां कदाचित्पार्श्वस्थादिदोषाणां सम्बन्धाद संसए-संशय:-अनिर्धारितार्थम् । औप० ८४ । संशय:- औरवत्रय संसजनाचा ज्ञाता० १११ । संसक्त-त्रसयुक्तम् । अनवधारितार्थ ज्ञानम् । मग०१३ । अनवधारितार्थ ओघ० १६८ । संसक्तं बारनालाद्यपरेण । दश० २..। शानम् । जं० प्र०१६ । संशयः-अनवधारिताचं ज्ञानम् । संसक्तम् । दश० ४७ । संसक्तः-सपिहितदोषगुणः । मज. ५८ । बाव. ५१८: संसक्तं-दीन्द्रियादिजीवसिभम् । ६० तृ. (१.६४) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसत्तगाहणी ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ ४७ अ । गाणी संरक्तग्रहणिः कृमिसंसक्तोदरः । ओघ १२५४ संसत्ततव संसक्ततपा- "आहार- उबहि- पूयासु जस्स भावो उनि संसक्तो । भावोवहतो कुणई अ तवोवहाणं तदट्ठाए" बृ० प्र० २१५ आ । संसत्ततवोकम्म-संसक्ततपःकम् - आहारोपधिशय्यादिप्रति बद्धभावतपश्चरणः । ठाणा० २७५ । संसत्तदेस - संसक्तदेशः । आव० ६२३ । संत-भूतावसेसं । नि० ० प्र० २७० अ संसद्द - संशब्द काशितादिरूपम् । ओध० ५२ | संसुद्धणाणदंसणधर-सं सुद्धज्ञानदर्शनधरः संशुद्धे ज्ञानद शंने धारयति यः स उत्त० २५७ । संसप्यग-संप्पतीति संसप्पंकः, संसर्पक:- पिपीलिकोष्ट्रादिः । आचा० २९१ । संसगः- पिपीलिकादिः । ओघ० २०१ । संसर्पतीति-संसकः - शून्यगृहादावहिन कुलादि यो प्राणीनः । आचा० ३०५ | संसय- संशीतिः संशयः - उभयांशावलाम्बा प्रीतितिः संशयः | आचा० २०० । संशोतिः संशयः इदमित्थं भविष्यति नवेत्युभयांशावलम्बनः प्रत्ययः । उत्त० ३१२ । संसकरणी - अनेकार्थं प्रतिपत्तिकरी संशयकरणी । मग० १०० । याऽनेकार्थाभिधायितया परस्य संशयमुत्पादयति सा भाषा संशयकरणी । प्रज्ञा० २५६ । संशयकरणीकार्थसाधरणा, असत्यामृषा भाषाभेदः । दश० २१० । संसय पट्ट - संशयप्रश्नः क्वचिदर्थे संशयः सति यो विधीयते । ठाणा० ३७५ । संसरण संसरणं - ज्ञानावरणादिकमंयुक्तानां गमनम् । दश०. ७१ । संस्मरण - संकल्पिक तद्रूपस्यालेख्यादिदर्शनम् । असंघासकामे चतुर्थी भेद- । दश० १९४ । संसरपासय-संसारपाशकम् । आव० ८२० । संसा-पसंसा । नि० चू० द्वि० ५८ मा । संसार-संसरणं संसारः । जान० ७०। संसार:- गतिच तुष्टयम् । ठाणा० २२० । संसरणं संसार:- मनुष्यादि • पर्यायाशार कादिपर्यायगमनाम् । ठाणा० २१९ । संस रणं संसार:- नारकतिथं नरा परमव भ्रमणलक्षणः । श्रीवा० ८। संसारं संजातसन्दुलादिसारम् ० २१६। संसार:( अस्प० १३४ ) 1 [ संसारिय तिर्यग्नरनारकाम रभवससरणरूपः । दश० ३६ । संसरणं संसार:- नारकतियंग्नरामरभवानुभवलक्षणः । प्रशा० १८ । संसारअपत्ति-संसारापरीतः - कृष्णपाक्षिकः । जोवा ० ४४६ । संसारकंतार-संसार एवं कान्तारं अरण्यं संसारकातारम् । ज्ञाता० ८९ । संसार: कान्तारमिवाति पहनता संसारकान्तारः । उत्त० २३३ । संसारगड्डा । नि० चू० प्र० १८ । संसारणीयं- कथनीयम् । आचा० ३८४ । संसाराणुभावतो। नि० ० तृ० ८ अ । संसारपयगुकरण-संसारतनुकरणः - संसारक्षयकारकः । आव० ४६३ । संसारपरित संसारपरोत्तः - अपापुद्रलपरावततिः संसारः । जीवा० ४४६ । संसारपरीतः सम्यक्त्वादिना कृतपरिमित संसारः । प्रज्ञा० ३६४ । संसार मंडल - संसार मण्डलं एवमुक्तक्रमेण वैमानिकावसानं संसारिजीवचक्रवालं नेतव्यमित्यर्थः अथ चेह स्थाने वाचनान्तरे कुलकरतीर्थंकरादिवक्तव्यता दृश्यते, ततश्च संसारमण्डलशब्देन पारिभाषिक संज्ञया सेह सूचितेति सम्भावते । भग० २२५ । संसारमुक्ख- संसारान्मोक्षो विश्लेषः संसारमोक्षः निर्वृति: उत्त० ४५० । संसारमोचक - दृष्टान्तविशेषः । प्रभ० ३५ । संसारविसग्ग-नारका युष्कादिदेतूनां मिथ्यादृष्टिरवादीना त्यागः । भग० ६२७ । प्रज्ञा ● संसारसमावण्ण- संसादो - नारकतिर्यग्नरामरामवानुभवछक्षणस्तं सम्यग् - एको मावेनापन्नः संसारवर्ती । १८ । संसारं चतुर्गतिभ्रमणरूपं सम्यग् - एकीभावेनापन:संसारसमापन्नः । प्रज्ञा० ४३७ । संसारसरणिदेश्यानि| आषा० १०१ । संसाराणुप्पे हा संसारानुप्रेक्षा-संसारस्य चतस्रषु गतिषु सर्वावस्थासु संसरणलक्षणस्यानुप्रेक्षा । ठाणा० १२० । संसारिए संसारिका स्थापना | बृ० पृ० १५५ संसारिण संसाजिनः । प० १०२, १०४ । संसारिय-सांसारिकम् । सूत्र० ३४० । । ( २०६५ ) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारिया ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [संहणण संसारिया-स्थानान्तरादुचितस्थाननिवेशितः (१)। ज्ञाता संसेइमा-संस्वेदजा:-मस्कुणयूकाशतपदिकादयः । दशः संसारेति-ईषत्स्वस्थानात स्थानान्तरनयनेन । ज्ञाता. संसेतिम-संसेकेन निवृत्तमिति संसेकिम-अरणिकादिपत्र९४,९७। शाकमुत्काल्प येन शीतलजलेन संसिच्यते तत्, संसेकेन संसाहग-अणुवच्चयो । नि० चू० तृ. २६ अ । चोला- निवृत्तम् । ठाणा० १४७ । पक:-पृष्ठत आगतः । ६० तृ. १२६ बा । संसेतिमाम णाम पिठेरपाणियं ताबेत्ता पिडियाट्रिया तिला संसाहण-संसाधनं-गच्छतः सम्यगनुवजनम् । उत्त० १७ । तेण बोलहिज्जति, तत्थ जे आमा तिला ते संसेतिसंसाधनं-गच्छतः अनुगमनम् । दश० २४ । संसाधण- __ मामं । भण्णति आदिग्गहणेणं जंपि अण्णं किंचि एतेणं गच्छतोऽनुव्रजनम् । ध्य. प्र. १९ आ। कमेण संसिजति तंपि संसेतिमाम भण्णति । नि० चु. संसाहेहि-संसाधय व्रज संश्लाघय-साधूक्तं साध्वित्येवं द्वि० १२५ । प्रशंसां कुरु । ज्ञाता० १८९ । संसेयंति-संस्विद्यन्ते । मग० २६९ । संसि-स्वके-स्वकीये । भग० ६८४ । संसेविय-संसेवितं-सञ्चिन्तितम् । बाव० ५८६ । संसिआ-संश्रित:-उत्पत्तिकायां स्थितः। जं० प्र० २२० । संसेविया-अधिष्ठिता । बृ० तृ० १६९ । संसिचिय-संसिच्य-अर्थनिचयं संवय । आचा० १२३ । । संसेसिय-सांश्लेषिकी-कर्मसंश्लेषजननी । आचा. ४१६ । संसिच्चमाण-संसिच्यमानः आपूर्यमाणः । आचा. १५९। संसोधण-संशोधनं हरीतक्यादिदानेन पित्ताधुपशमनम् । संसिवइ-संस्विद्यते सन्मूर्छनाभिमुखीभवति । जोवा० | पिण्ड १३३ । ३२२ । संस्विद्यते-सन्मूर्छति, वर्षां वर्षति । जीवा० | संसोहन-पात्रस्य सम्यक् शोधनं । संशोधन-विरेचनम् । ३४४ । संस्विद्यते-उत्पत्याभिमुखीभवति । जीवा०] बाचा० ३१३ । संस्कार-यथा लोके वक्तार । नंदी० १७ । विशे०१४। संसिट्ट-संश्लिष्टं, संसष्ट, संसर्गवत् । भग० ८७ । संस्कारवत्-संस्कारवत्त्वं-संस्कारादिलक्षणयुक्तत्वं, वचसंश्लिधः-स्नेहाद सम्बद्धः । भग• ६४७ । संसृष्ट-पोरस- नातिसये प्रथमः । सम० ६३ ।। भावितम् । ६० प्र० २९७ मा । संसृष्टः-पूर्वपरिचित संस्कारस्कन्ध-पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदायः । प्रभ० ३१ । उद्भामकः । ६० द्वि० १. आ । भगवत्या चतुर्दशशतके संस्कारस्कन्धः-पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदायः । सूत्र० २५ । षष्ठोद्देशकः । भग• ६३० । संस्कृते-रथादेर्भग्नजीर्णपोढापरावयवसंस्कारादिति. संस्कृसंसुद्धं-सामस्त्येन शुद्ध संशुद्ध एकान्ताकलङ्कम् । आव० तद्रव्यसम्यक् । आचा० १७६ ।। ७६० । संशुद्धः-अशबलचरण: अकषायत्वात् । ठाणा. संस्तवः-सोपधंनिरूपचं भूताभूतगुणवचनम् । तत्त्वा. २१ । संशुद्ध-सामस्त्येन शुद्ध-एकान्ताकलङ्कम् । ज्ञाता. १-१६। संस्तृश । ध्य. द्वि० २७९ अ । संसुमा-धन्यसार्यवाहस्य पञ्चपुत्रोपरिबालिका । ज्ञाता. संस्थान-नेपथ्यं-तत्तद्देशप्रसिद्धम् । उत्त० ४२४ । २३५ । संस्थानोप्रदेशे । विशे० ६१८॥ संसृष्टा । ठाणा० ३८६ । संस्थापना-वसतेः साकारकरणम् । ६० प्र. २२४ मा। संसृष्टोपहतं । व्य०वि०३५३ था। संस्थिति-तत्पर्यायानुबन्धः । भव. ५८६ । संसेइम-संस्वेदजं पिष्टोदकादि । दश० १७७ । तिनघाव- संस्वेदिम: । पिण्ड० १५५ । नोदकं यदि वारणिकादिसस्विन्नवावनोदकम् । आचा सहइ-संहतिः-मिलनम् । भग० १०४ । | संहणण-संहननं-अस्थिसञ्चयरूपम् । प्रभ० ८२। . (१०६६) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंहनन ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ [ सरलिया संहनन-अस्थिबन्धविशेषः । सम. १४६ । सइकाल-सत्काल:-देसकाल:- । बृ० द्वि० २०६ अ । संहननिका । भय. ३१८ । सइजिआए-सह सखिक्रियया । ओघ० ७२ । संहरइ-संहरति-सङ्कोचयति । जीवा० २५५ । सइज्झा - । नि० चू० तृ० ११४ (?)। सहरण-कर्मभूम्यारकर्मभूभिषु नयनम् । जीवा० ५६ ।। सइझिया-प्रातिवेशिमको । ६० प्र० २४१ आ । देवादिना अन्यत्र नयनम् । ६० प्र० २२६ अ ।। सइत्त-स्वप्तुं-निद्रातिवाहनं कर्तुम् । दश० २०४ । संहरत-प्रापयत । जं. प्र. १६१ ।। सइरप्ययारी-स्वैरपचारी स्वच्छन्दविहारी। ज्ञाता. २३६१ संहरति-संस्थापयति । बृ० तृ. ३३ आ । सहरायार-स्वैराचारः । आव. ७१० ।। संहरिय-संहतं-संलीनीकृतम् । औप० ६. । | सई-रमरणं-स्मृति:-पूर्वानुभूतालिम्बनः प्रत्ययः। बाव संहरेमाण-संहरन् -अन्यत्र नयन् । भग० २१८ । १८ । स्मरणं स्मृतिः, पूर्वाऽनुभूतार्थासम्बना प्रत्ययः । संहर्षः-स्पर्दा । ठा० १५२ ।। _ विशे० २२६ । सतो-स्त्री । ओघ १४६ । सदा। उत्त. संहिच्व-संहित्य-मह संभूय । ज्ञाता० ६३ ।। । २८० । संहिता-अस्खलितपदोच्चारणम् । मोघ. २ बस्खबि. सईणा-तवरी । भग २७४ । तवरी । ठाणा० ३४४॥ तादिगुणोपेतो विविक्ताक्षो झटिति मेधाविनामर्थप्रदाया सउडोय-सोद्योतं-बहिव्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशनकरम् । सनिकर्ष:-सम्यक: सदर्थानां हिता संहिता । ६० प्र० ४९ प्रज्ञा०८७ । सउडोया-सहोद्योतेन-वस्तुप्रभासनेन वर्तन्ते ये ते । ठाणा. संहिय-संहितः सन्ततः । सन्तत:-अपान्तरालरहितः। २३२ । जीवा० २७५ । सहिक:-क्षमः । ६. ० ११४ । सउडि । . प्र.३१ संहित:-मिलितः । आचा० ३०२। संहित:-संयतीमित सउण-शकूनं-येनादिपक्षिः । प्रभ० ३७ । शकुन:-पक्षियुक्तः । ओघ०५७ । विशेषः । प्रभ० ८ (?) । शकुन-श्येनः पक्षिविशेषः। संहिया-संहिता-चारकसुश्रुतरूपा । ओघ०५३। संहिता- अनु० १३० । शकुनः । ज्ञाता० १२४ । अस्खलितपदोच्चारणम् । अनु० २६३ । सउणरुअ-शकुनक्तं, पक्षिभाषितम् । जं.प्र. १३६ । सअट्रिय-सास्थिकं सहास्थिः । वाचा. ३४७ । सउणरुत-कलाविशेषः । ज्ञाता. ३८।। सई-सकृदु-एको वाराम् । भोघ. ११८ । सकृत-एककं । सउणा-शकुना:-काककमोतादयः । बृ• तृ० १५२ मा। भारम् । सूर्य० ११ । सकृत-एकमेव । उत्त०२३६।। सउणिज्झया-शकुनिध्वजा-शकुनिचिह्नोपेता ध्वजा । स्वयं स्वभावेन । ठाणा० ६३ । सरय । वृ० प्र. जीवा० २१५ । १९० मा । पटमवारा । नि० चू० प्र० २१८ ।। सउणिपलोणगसंठित - शकुनिप्रलीनकसंस्थित:-धनिष्ठानसुखलक्षणफलबहुलता । शाता० १६९ । क्षत्रसंस्थानम् । सूर्य० १३० । सइंगाल-साङ्गारं प्रशंसाह भोजनम् । पिंड० १७५ । सउणी-शकुनी अंगवेदमीमांसान्यायपुराणधर्मशास्त्रवित् । आचा० १३१ । . बृ० तृ. १८ आ । शकुनि:-अष्टमकरणः । जं. प्र. सइ-स्मृतिः-उपयोगलक्षणा । आव० ८३४ । बहुफलत्वम् । ४९३ । शकुनी-चतुर्दश विद्यास्थानानि । आव० ५२० । औप० ७४ । सनु । दश० १२५ । बहुः । भग० ४०२ । शकुनी । शाता० २०८ । सत्-विद्यमानम् । ओष० ११ । स्मृतिः । उपा.६। सउगोधरए-शकुनिग्रह-वंशनिर्मितं छब्बकम् । बोध. सइअकरणा-स्मृत्यकरणं-उपयोगलक्षणास्मृतेरनासेवनम् ।। १४ । आव० ८३४ । सउत्तिग-सचित्तवती । सम० ३९ । सइओ-शतिकः । दश. १०८ । सालिया-कुलिकाभिः सह वर्तमाना शकुनि बा । बनु. (२०६७) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सउवयार] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सक्क पउवयार-जेसि भागयाणं उयारो कीरइ ते । नि० सकह-सकथा-तत्समयप्रसिद्ध उपकरणविशेषः । भ. चू०प्र० २०० ब । ५२० । सक्थि, दाढम् । ज० प्र० १६२ । मउववारा-सोपचापा:-त्रिषु स्थानेषु प्रयुक्तनषेधिको शब्दः । सकहा-सस्थी बस्थी । सम• ६४ । सकथा-हनुमा । पता संयतीभिर्यषां वक्ष्यमाण उपचार प्रयुक्तस्ते सोप. बाव. १६६। चारा: । बृ० द्वि० २११ ब। सकाम-सह कामेन-अभिलाषेण वर्तते इति सकार्य, सऊणरुय कलाविशेषः । ज्ञाता०३८ । सकाममिव सकामं मरणं प्रत्यसंत्रस्ततया। उत्त. २४२। सएजर-सहवासी-प्रातिवेषिमकः । पृ. वि. १६४।। एकशः । बृ० दि. १४ अ । सएजिझया ।नि० चू.प्र.७८ ।। सकाममरण-भक्तपरिज्ञावादि प्रशस्तः । उत्त० २४१ । सएझियाओ-सस्यः । बाव० ३५३ । सकाल: । नदी ६३. सओ-सन्तः । भय. ४५५ । सकालुष्य-श्राविलम् । प्र० ५३ । सकंसा-सह कांस्यः-द्रव्यमान विशेषः सकास्यः। उपा.४८ सकिरिए-सक्रिय:-कायिक्यादिक्रियायुक्तः सकर्मबन्धनो सक-शक: । प्रभ. १४ । वा । भग० २९५ । आचा० ४२५ । सकक्कस-सकार्कश्य-कर्कशमावोपेतम् । औप. ४२ । सकिरित-सक्रियं-प्रस्तावादशुभकर्मबन्धयुक्तम् । ठाणा. ओष. १८१। सकडक्ख-सकटाक्षः-सापङ्गदर्शनः । शाता० १६५ । सकुंत-सकुन्त:-पक्षिविशेषः । अनु० १४१ । सकडाह-मांसं-सगिरं तथा कटाहम् । प्रशा• ३७ । | सकुर-आचामामाम्लम् । पाव० ८५५ । सकण्ण-सकर्णः । बाव. ३९८ । सकुलिका-शकुनिका । नि० चू० तु. ४४ आ । सकथ-तरसमयप्रसिद्ध उपकरणविशेषः । निषय. २७ । सकुली-पपंटि: । नि० चू०प्र० २६९ मा। सकम्मपरिणामहणिय-स्वकर्भपरिणामजनितम् । आव० सकुहर-सच्छिद्रः । ज० प्र० ४०० । ५८६ । सकुहरगुंजतवंसतंतीसुसंपउत्त-सकुहरो गुञ्चन् यो वंशो सकरणं-मनोवाकायकरणसाधन: सलेक्यजीवकर्तृको जो- यत्र तन्त्रीतलताललयग्रहसुस प्रयुक्तं भवति, सकुहरे वंशे वप्रदेशपरिस्पन्दात्मको व्यापारः। सकरणं-वीर्यम् । मग. गुख ति तन्त्र्यां च वाद्यमानायो यत्तन्त्रीस्वरेणाविरुवं तव सकुहरगुअर्बुशतन्त्री सुसंप्रयुक्तम् । जोवा० १९५ । सकल-शकलं-खण्डरूपम् । सूर्य० १३६ । सकृत-एक्वारः । बोध.१८१। सकलचन्द्रः-वाचकविशेषः । जं० प्र० ५४४ । संकेय-संकेतक-केतनं केत:-चिह्नमङ्गठष्टिगुन्थिगृहादिक सकलचन्द्रगणि:-शान्तिचन्द्रगुरुवः । जं.प्र. ४२४। स एव केतक: सहकेतकेन सकेतक-ग्रन्यादिसहितम् । सकलचन्द्राख्यः-वाचकोत्तमः । जं. प्र. १।। ठाणा० ४६६ सकषायोदय-विपाकावस्थां प्राप्तः स्वोदयमुपदर्शयन् कपा-सको तिगा-गमणागमणसचेट्टा ते 4 सीरियतणतो चेव पकमपरमाणुः । प्रज्ञा. १३५ । सकोतिगा । नि. चू० वि० ११६ आ। सकसाई-सकषायी-कषायोदयसाहितः । प्रसा. १३५ । सकोसं-तस्यां पूर्वादिशु दिक्षु प्रत्येकं सगव्युतमूखमपश्चा. सह कषायो यस्य येन वेति सकाषाय:-जोवपरिणामपि ढेकोशं अक्षयोजनेन च समं ततो यस्य प्रामोऽमन्ति शेषः स वियते यस्य स सकषायो । प्रशा० ३८६ ।। सव सकोशम् । व्य. दि. २७२ । सकसाए-सकपाय-सचिसपृषिम्याचवयवगुण्ठितः। बा. सक्क-सोधर्मदेवसोके इनः । ठाणा. ५५ । शोक राजा । बाव. ३५९ । शन:-मासनविशेषाधिष्ठाता सकसि-बसंग्यि । वि. १.० १३६ ना। शकः, बक्षिणादजोकाधिपतिः । ज... | - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवकषोमि] अल्पपरिचितसदान्तिकशम्धकोषः, भा० ५ [ सखलिया सोधर्मेन्द्र । ठाणा. ११८ । शुक्र:-देवानां स्वामी ।। ६० प्र० २३७ । सस्कार:-स्तुस्मादिगुगोमतिकरणम्। उत्त० ३५० । इन्शाता० २५३ । राज० २७ । सस्कास-प्रवरस्त्रीदिभिः पूजाम । ठाणासक्कणोमि-शक्नोमि। बाव. ४०२ । ५१५ । सस्कार:-स्तुत्यादिभिर्गुणोअतिकरणम् । . सक्कदए-पाक्रदत:-शकादेशकारीपदात्यनीकाधिपतिः प्र. ३९८ । सरकार:-प्रवरवस्त्राभरणादिमिरपन्चम हरिनगमेषीदेवः । मग० २१८ आव. ७८७ । सरकारा-अभ्युत्थानासनदानवदनानुवर. अक्कप्पभ-शकदेवेन्द्रस्य उत्पातपर्वतः । ठाणा. ४८२ नादिः । आव० ८३७ । मक्करप्पभा-शकंराप्रमा द्वितीयानरकपृथ्वी । प्रजा. सक्कारणित-सत्कारणीयम् । सूर्य. २६७ । वस्त्रादिमिः। ४. शर्कराप्रमा-उपलखण्डप्रकाशवती पृथ्वीविशेषः । मग. ५०५ । वस्त्र: । औप..। बनु० ८६ सक्कारपुरस्कार-सत्कार:- तस्त्रादिभिः पूजन, पुरस्काराअपकरा--शर्करा:-करिका: ।ज.प्र. ३७४ । शर्करा- अभ्युत्थानासनादिसंपादनम् । सम्लेवाभ्युत्थानामिनादा नघूपशकलरूपा । प्रज्ञा० २७ । पृथिवीभेदः। आचा. नदानादिरूपा प्रतिपत्तिः सहकारस्तेन पुरस्करणम् स का. २९ । शर्करा-कर्करका । जीवा. २८२ । शरा- रपुरस्कार । उत्त० ८३ । काशादिप्रभवा । प्रज्ञा. ३६४ । शर्करा-लघूपलशकल. | सक्कारवत्तिया-सरकारप्रत्ययं-सत्कारनिमित्त प्रवरवस्त्रा. रूपा पृथिवी । जीवा० २३ । शर्करा-लघूपल सकल भरणादिमिरभ्यच्चननिमित्तम् । बाव. ७६ । रूपा । उत्त० ६८९ । शर्करा-कृच्छमूत्रको रोषः। वृ० | सक्कारिता-सत्कारयित्वा वस्त्रादिना । ठाणा० १११। तृ० २४६ अ । शकंरा-भुरुणुपृथिवी । जीवा० १४०। सक्कारिय-सत्कारितः वस्त्रादिना । मग, ५८२ । शर्करा-श्लक्ष्णपाषाणशकलरूपा। उस० ६९७। शर्करा, सक्कारेमो-सत्कारयामः आदर कर्मः बनावा सन्मा. काशादिप्रभवा । म.प्र.११। शर्करा-काशादिप्रभवा नयामः । भग ११५ । तद्रसो वा । उत्त०६५४ । बाचा. ३३७ । सक्कुणोमि-शक्नोमि । आव० ४३२ । सक्करामा-गौतमगोत्रे पञ्चमभेदः । ठाणा. ३६० । -सत्तरत:-प्रयोतनसभ यां कश्रिन्धो गायक सक्का -युक्तम् । नि० ० तु. ९७ था। बाव० ६७४ । मुक्कार-सत्कारः अघंप्रदानादिः । उत्त०६६८ सत्कार:- सक्कुलि-शष्कुलिका । विशे० ९७५ । शकुनि:-तिल. स्तबनवदनादि: ठाणा. ४०८ । सत्कारः वस्त्रादिमिः। पर्पटिका । दश० १७६ । शकुनी-तपटिका । ठाणा० १३७ । सत्कार:-वन्दनाभ्युत्थानादिकः । ओष. । प्रभ. १५३ । ७० । सरकार:-वन्दनस्तवनादिः । सम०६५ । सरकारो- सबकुलिकन्ना-शष्कुलीकणंगामा अष्टम अन्तरसोपः । वादनादिनाऽऽदरकरण वस्त्रादिदानम् । मग. ६३७ । • प्रज्ञा० ५० । सत्कार:-सेम्यतालक्षणः । ज० प्र० १२२ । सरकारो- सक्कुलिगा-शुष्कखाद्यक मोव । दि. १.७॥ बनायचेनम् । ठाणा० ३५८ । सस्कार:-बस्त्रादिपूजा। सक्ख-साक्षम् । शाता. २२।। भग० ३६० । अभ्युत्थानादिसम्भ्रमः सत्कारः । आव० सक्खि-साक्षी । आव० ०२१ । सो । भ) .. ४.६। सत्कार:-मक्तपानवस्तापात्रादीनां परतो लामः | सक्खोवा-सक्षीवा मद्यपायु: । .. २११ . एकोनविंशतितमः परीषहः । आव० ६५७ । सस्कार:- सक्खेत-स्वक्षेत्र-सकोशयोमा १० तवनवन्दनादि। । रक्ष. .. सरकार:-सेव्यताल. सनः । जीवा. २८० । सरकारा-यनादिमिः पूजनम् । | सात- । दश. ६। बोध. १० स. ८३ । सकारा-मक्तपानवरात्रादीनां पस्तो | सवियनो-पाश्चात्यपाक्यो पूरा .प. ग. पाया। बार. १८ बार-बमाभ्युत्थानादिः ( सखलियार-सोपवारम | ब... (१०५) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सग] प्राचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सग्गपयाणग आ। सखा-मित्रम् । आचा. १०.। | सगडीसागड-शकट्यो-गुन्त्रिका- शकटानां पत्रिविशे. सखि खिणिय-सकिङ्किणीकः । शुद्रष्टिकोपेतः । ज्ञाता षाणां समूहः । भग०६६८ । शकट्यो:-गात्रयः शकटानो समूहः शाकटं च शकटीशाकटम् । ज्ञाता. ११८। सखुइ-सबाजं यदि वा सह क्षुद्रः सिंहमार्जारादिः । सगड्डड्डिसंठिय-शकटोद्धिसंस्थितं रोहिणीनक्षत्रसंस्थानम् । आचा० ३६२। सूर्य १३० । सखेतं-सक्रोशयोजनमात्र क्षेत्रम् । बृ० वि० १४. आ। सगडुद्धिसंठिय-शकटोद्धिसंस्थितः । सूर्य० ७३ । नि० चू० प्र० १८ अ । सगडुद्धी-शकटोदिः । आचा० १५ । सगथ-सग्रन्थ-श्वशुरकूलसम्बम्घसम्बद्धः शालकशालिकाविसगपाय-अप्पणिज्जो सण्णामत्तओ। नि० ०म० १६३ । प्रभ० १४० । सगजिए-सजितः-मुक्तमहाध्वनिः । ज्ञाता. २४ । सगर-जम्बूभरते द्वितीयचक्रवर्ती। सम० १५२ । सगर:सगड-शकटं सुभद्राभद्रवाहपुत्रशकटनामा विपाकेऽध्ययनम् । परिनिर्वृतः चक्रवतिविशेषः । उत्त० ४४० । सगर:ठाणा० ५.७ | शक्नोति शक्यते वा धान्यादिकमनेन राजशार्दुलः, द्वितीयचक्रवर्ती । बाव० १५९ । सागर:वोदुःमिति शकटम् । उत्त० २४७ । शकटं-गड्डुकादि। चक्रवर्तीविशेषः । प्रज्ञा० ३०० । अर्धपञ्चशतधनु:कायः । अनु० १५६ । सबमेतं कृतम् । नि. चू० तृ. १३८ विशे० २०२ । चक्रवर्ती । विशे• ४६ । था। शकट प्रतीतम् । जीवा० २८। । शकटं-गन्त्री । सगरचक्रवर्ती-सुबुद्धिमहामात्यवानु । नंदी० २४२ । प्रश्न० ८ । भग० २३७ । शकट-मन्त्री। प्रश्न. १६१,सगारदअ-सह अगारेण वर्तत इति सागारो पहस्था ६. । शङ्कट:-शकटाभिधसार्थवाहसुतः, दुःखविपा काना तयोर्द्वयं तादेव द्वौ । बोष. १६ । चतुर्थमध्ययनम् । विपा. ६५ । सगरसुत-ज्वलनप्रमनागाधिपकृतोपद्रववान् । ज० प्र० सगडतित्तिरी-शकटतित्तिरी शकटयुक्ता तित्तिरी । दश. २२३ । सगरचक्रवर्तीपुत्रः । याव० १६६ । सगह-संगहरग्रहेणाकान्तं तत् । व्य.प्र. ६३ अ । सगडभि-स्वद्भित-स्वकृतमनेकजन्मोपातं कम्मं मिन- सगा-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । तीति स्वकृतभित् आचा० १७१ । सगार-सापरः-सह आयारेण वर्तत इति ग्रहस्थः । औप० साडमुह-शकटमुखं-उद्यानविशेषः । आव० १४७ । शक- १६ । रमुख-उद्यानम् । आव० २१० । शकटमुखम् । ज. सगास-सकाशं-मूलम् । ओघ० २० । प्र० १५० । सगि-सकृत् । व्य. द्वि० २७५ अ। सगडलट्टणोपएसबद्ध-शाकटलटुनी( कट )प्रदेशबद्धः । सगिहगमणं-स्वगृहगमनम् : ज्ञाता० १६६ । भाव. ४१७ । सगीतार्थ-प्रत्त्युच्चारणसमर्थः । नि. चु० प्र० ३२२ सगडबट्टा-शकटवत्तंनो। आव० २५८, ५१४। आ: सगडवूह-शकटव्यूहः-शकटाकारः सैन्यविन्यासविशेषः । सगेवेच-सह प्रैबेयकेण-प्रोवाबन्धनेन ययाभवति तथा । प्रभ० ४७ । कलाविशेषः ज्ञाता. ३८ । युद्ध रच. ज्ञाता. २६ । नाविशेषः । निर०१८ । सगोप-परस्परबाहगुम्फनं स्तनोपरिमकंटबन्धमिति । उत्त० सगडाल-शकटाल:-योगसङ्ग्रहे शिक्षा दृष्टान्ते कल्पकबंश- ४०४ । प्रसूतो नवम नन्दराजमन्त्री । आव०६७. शकटाला सग्ग-सर्गों-योमः । विशे० १५० । स्वर्ग:-देवलोकदेशः स्थूलभद्रपिता । उत्त० १०४, १०५ । शकटाल:-नवमे प्रस्तटः । मग• २२।। मन्दे कल्पकवंशप्रसुतः । आव. ६९। .. | सग्गपयाणग-स्व गन्तब्ये प्रयाणकमिव-मनमिव. पद (१०७०) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सग्गह ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, भा० ५ . [ सच्च स्वर्गप्रयाणकम् । प्रभ० १०२ । | सङ्घातपरिशाटकरण-करणस्य तृतीयभेदः । पाव. सग्गह-जं करग्रहेणोस्वान्तं तं सग्गहं । नि. चू० तृ. ४५८ । सचक्कार । नि. चू.प्र०२०६अ। सङ्कट-सकुलः । प्रभ० १६ सचमक्कारया-सचमत्कारता साशकृता । बृ० दि. २१२ सङ्कटद्वार-क्षुद्रद्वारः । आचा. ३२९ । आ । सङ्कलन-गणितम् । ठाणा० ४७८ । सङ्कलन-गणित- सचिट्ठ-सचेष्टः-सक्रिय। । दश० १०९ । । विशेषः। नंदी०२३८। सचित्त-पृथिव्यादि । आव २२८। सचित्तं-अण्डकादि । सङ्कलनादिकं- । ठाणा० २६३ ।। दश० १५५ । सङ्कलिका-सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चदशमाध्ययनाम, अस्याध्य. सचित्तखंध-द्विपदाऽपदचतुष्पदरूपः सचित्तस्कन्धः । विशे० यनस्यान्तदिपदयोः सकलनात् सङ्कलिका । सूत्रों ४२४ । २१३ । सचित्तद्रव्यपरिधनः-जीर्णशरीर: स्थविरका जीणंवृक्षो सङ्कलित-गणितविशेषः । ज० प्र० १३७ । वा । आचा० ३५ । सङ्कलितादि । ठाणा, ४९७ । सचित्तनिक्खेवण-सचित्तनिक्षेपण तीह्यादिष्वन्नादेनिक्षेपसङ्कीर्णभाषा-शोरसैन्यादिः । ज० प्र. २५९ । । णम् । आव० ८३८ । सकुल-ग्रामविशेषः । आधासम्भवदृष्टान्ते जिनदत्तश्राव. सचित्तपडिबद्धाहार-सचित्तप्रतिबद्धाहारः वृक्षे प्रतिबद्धाकस्य भद्रशिलग्रामनिकटे ग्रामः । पिण्ड ६३ । हारः । आव. ८२८ । सङ्क्लिश्यमानक-उपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्य तूक्ष्म- | सचित्तपरिणाए-सचेनाहार: परिशातः-तस्वरूपादिपसम्परायम् । ठाणा० ३२४ । रिज्ञानात्प्रत्याख्यातो येन स सचित्ताहारपरिज्ञातः श्रावसङक्षेपः-समास:-भेदेष्वन्तर्भावः । भग० ३५७ । कः । सप्तमी प्रतिमा । सम० १९ । सङ्घडिमनादर-यत्रेवासो सङ्खडिः स्यात्तत्र न गन्तव्यम् । सचितरए-सचित्तरजः- अरण्ये वातोद्भूतपृथिवोरजः । आचा० ३२६। श्राव. ७३२ । सङ्ख्या-परिच्छेदो वस्तुनिर्णय इत्यर्थः । (?) २३२ । सचितसंयिस्साहास-सचित्तसंयिसाहारः सचित्तपुष्पवल्ससङ्गम-परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे सुन्दरस्य जामता । यादिमिश्राहारः । आव० ८२८ । पिण्ध. १२७ । | सचित्ताणं दवाणंविउसरणया-सचित्तनो द्रव्याणां-पु. सङ्गमस्थविर-कृतिकर्मणि नित्यवासविषये उदाहरणम् । पताम्बूलादीनां व्यवसरणं ब्युक्सर्जनम् । ज्ञाता० ४६ । आव० ५१७ । कीडनधात्रीदोषविवरणे आचार्याः । सर्नचलय-सपिचक्षुः । प्रभ. २५ । पिण्ड० १२५ । सचिव-सचिव:-वस्त्रः । व्य०वि० १२५ था। सङ्गर-कथनम् (?) : सङ्गरः । नंदी० २१ । सचो-शक्रदेवेन्द्रस्याग्रमहिषो । जीवा० ३६५ । सङ्ग्रहणि-अर्थे प्रकारः । सम० १०६, १११ । सच्च-सस्थ:-आगमः । आचा. १६९ । सत्यं -ऋतं तपा) सङ्ग्रहपरिज्ञा-बालदुर्दलग्लाननिर्वाहबहुजनयोग्यक्षेत्रग्रह- संयमो वा । आचा० १९५ । सत्यं-अविसंवादनयोमा: णक्षणादि चतुर्भेदभिन्ना । उत्त ४० । द्यात्मकम् । उत्त०५६५ । सत्यं-सद्भयो-जीवेभ्यो हितसनामरथः । जीवा० १८९ । ताया प्रतिज्ञातशूरतया वा । ठाणा० ३५३ । सत्त्य:सङ्का-चातुर्वर्णः श्रमणादिसङ्घातः । (?)। संयमः सदागमो वा । उत्त० २६४ । सद्भयो-जीवेम्यो। सङ्घात-संपीडनम् । उत्त• ६३१ । सङ्घातः । नंदी० ४३।। हितः सस्य-संयमः । ठाणा. ६ | सत्यः-संघमः। सङ्घातकरणं-करणस्य तृतीयभेदः । आव० ४५८ । सम० २७ । सद्भयो हितः सत्त्यः संयमः । बवा (१०७१) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सच्चित्तववियकप १६२ । सद्भयो हितं सत्यं समेंभूतं वा । ज्ञाता० ४६ । सच्चभामा-सत्यमामा-अन्तकृशानां पञ्चमवर्गेऽध्ययनम् । सद्भावसारं संयमो वा। बृ० द्वि० १६२ आ । वाक्क- अन्त. १५. १८।। मंणोरविसंवादिता । बृ० प्र. ३१३ अ । सत्यं-सभ्यर. सच्चभासय-य: सम्यगुपयुज्ह सर्वज्ञमतानुसारेण वस्तु बाद: । औप०६३ । सद्भयो-मुनिभ्यो गुणेभ्यः पदा. प्रतिष्ठान बुध्या भाषते स सत्यभाषक: । प्रा. २६८। पेभ्यो वा हितं सत्यम् । प्रश्न० ११४ । सत्यं-सद्भः सच्चमत-सत्त्वं प्रधानं महंतीवि अवदोए जो आदिगो ताम् । प्रश्न. १२० । सत्यं-षष्ठं पूर्वम् । ठाणा ! भवति सो । नि० चू. तु. ६१ छ । १९९ । संमः कोचं । च आव० ७०५ । सद्भयो सच्चरए-सत्य-अवितथभावणं तस्मिन् रत:-आसक्तः हितं, परमार्थो यथ वस्थितपदार्थनिरूपणं दा मोक्षो वा सत्यरतः । उत्त० ३४५ ।। तदुपरायभूनो वा संयम: सत्यम् । सूत्र० २१४ । सत्यो सच्चवती-दंतपुरणगरे दंतचक्करायस्स भजा । नि• चू० षा संयमः, सन्ना-प्राणिनस्तेभ्यो हितत्वात् । सूत्र. २५५ । तृ० १२८ अ। सत्य:-अविसंवादी। उत्त० २८१ । तदादेशनामवित. सच्चवदो-सत्यवती योगसङग्रहे निरपलापदृष्टान्ते दश्तपुरबत्त्वात्। ज्ञाता० १३० । सत्यं-वचनविषयम् ।। नगराधिपतिदन्तचकराज्ञः पत्नी । आव० ६६६ । ज्ञाता. ७) सच्चविल-मनोवचनकायसत्यवेदी । महाप० । सच्चइ - सत्यकि:-विद्याधरचवर्ती । दश० १०७ । आगा. | सच्चविती-दन्तपुरनपरे दन्तचक्रराजपत्नी । व्य० प्र० मिन्यां च विशत्या कादशमतीर्थकृत्पूर्वभवनाम । सम० | १०७ । १५४ । सच्चसंघ-सत्यसन्धः । आव• ६६१ । सच्चई-सत्यको-प्रधानर्शनवतोऽपि चारित्रेण विनाऽधर. | सच्चसेण-जम्ब्वैरवते। त्रयोदशमतीर्थकृत। सम. १५४। गति गप्तो दृष्टान्तः । आव० ५३२ । सच्चसेव-सेवाया: सबलीकरणात सत्यसेवम् । ज्ञाता०४। सच्चग-सत्यका-लौकिकमुशारणम् । उत्त० ११८ । सच्चा-सन्तो-मुनयः सद्भो हिता-इहपरलोकासधकत्वेन सच्चती सत्यक निग्रन्थोपुत्रः । ठाणा० ४५७ । मूक्तिगापिका सत्या, यो वा यस्मै हितः स तत्र साधुसच्चतीय-सत्यकि:-वेटकदुहितुर्ब्रह्मचारिण्याः पुत्रः, भावी | रिति सत्यः, सन्तो-मूलोत्तरगुणाः विद्यमान वा तेम्पो बहेश्वरः । आव० ६८६ । हिता तेषु साध्वी, वा यथाऽवरियतवस्तुतस्वप्ररूपणेनेति वा, सच्चनेमी-सत्यनेमिः-अन्त कृशानां चतुर्षवर्गस्य नवम- आराधनीत्वाद्वा सत्या । प्रज्ञा० २४७ । सतां हिता ममयनम् । अन्त १४ । सत्यनेमिः-समुद्रविजयस्य सत्त्या, सन्तो मुनयस्तदुपकारिणो, सती-मूलोत्तरगुणातृतीयः सुतः । उत्त० । ४६६ । स्तदनुपघातिनी वा सन्तः-प्रदार्था जीवादयः तद्धिता सच्चपरक्कम-सत्य:-अवितथस्तात्त्विकत्वेन परे-भावशत्र. तत्प्रत्यायनफला जनपदसत्यादिभेदा वा सत्या। बाव. बातेशामाकमणं बाकम:-अभिभवो यस्यासौ सत्यपरा. कमः । उत्त० ४४४ । सच्चाण-सत्याण: कायोत्सर्गदृष्टान्त पक्षविशेः । बाब. सच्चप्पधाय-मत्य प्रवादं सत्यं संयमो वचनं पा तत्सत्यं ८०। संयम वचनं वा प्रकर्णेग स प्रपचं वदतीति सत्यप्रवा- सच्चामोस-उभयस्वभावा वस्त्वेकदेशप्रत्यायनफला उत्स. दम्, षष्ठापूर्वम् । नंदा० २४१ । सत्यप्रवादः-पूर्व- नमिधादिभेदा सत्या मृषा । माव. १६ । वैशेषः । दश, १३ । सच्चित्त-सचित्तवर्जक:-श्रावकस्य सप्तमी प्रतिज्ञा सक्ष सच्चापबायपुत्वं - षष्ठं पूर्वम् यत्र सत्यः-संयमः सत्यं | मासप्रमाणा । आव० ६४६ । बचनं वा सभः सप्रतिपक्षं च प्रोच्यते सत्सत्यप्रवाद- | सच्चिचववियकप्प-सचित्तद्रव्यकल्प:-तद्यथा-प्रवाजनापूर्वम् । सम. २६ । मुडापना शिक्षापना-उपस्थापना-संभुञ्जना संवासना .. (२०७२) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचितरजो ] एवंविधं बृ० प्र० २५८ अ । सच्चित्तरजो- सचित्त रजः व्यवहारसमन्विता वातोद्धता श्लक्ष्णलिस्तच्च सचितरजः । व्य० द्वि० २४० । सच्चिलुओ सत्यः । आव० २०३ । सच्चोवाए - सत्यावपास सफलसेवम् । ज्ञाता० १३० । सच्छंद - स्वछन्दः - स्वाभिप्राय: । ज्ञाता० १५२ । सच्छंद मई-स्वच्छन्दमतिः-निरगंलबुद्धिरत एवं स्वच्छन्द | सज्जेउं सज्जयितुम् । आव० ८१३ । बिहारी । ज्ञाता २३६ । सर्च्छदा आभिग्रहिका । व्य० द्वि० ३२१ आ । स्व- सज्यंतिए-सहाध्यायि । व्य० द्वि० ६८ सज्झलिओ सब्रह्मचारी । वृ० तृ० १३६ आ । सज्जो पुढ बी-सज्जपुढ वि-कुमारपृथवी । ज्ञाता० १०५ । च्छन्दा- अभिग्रहिका । ब्रु० प्र० २३३ आ । सच्छाया - सती-शोभना छाया यस्याः सा । जीवा ० २६४ । सजीव - कोट्यारोपित प्रत्यश्वः । ज्ञाता० २३७ । सजोगि सहयोग :- कायव्यापारादि मियं स सयोगी । ठाणा० ५० । सज्भ - सह्यम् । आव० ४०८ | साध्यं - उपक्रम क्रियाविषयभूतम् । विशे० ८५०१ सद्यः । विशे० ६७१ । सज्झगिरिसिद्धओ - सह्यगिरिसिद्धकः क्रम सिद्धोदाहरणे सिद्धविशेष: । आव ० ४०८ । सज्झभूमी अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशग्वकोषः, मा० ५ षड्विधमपि सच्चित्तद्रव्यकल्पमाचरन्ति । सजोगी-सयोगी - अनिरुद्धयोगः मवस्थ केवलिग्रामः, भूना मस्य त्रयोदशमं गुणस्थानम् । आय० ६५० । सङ्घ- वर्तमानः । नि० ० प्र० ५९ अ । षड्जः -शरोष. षट्स्थानजातः, सप्तस्वरे प्रथमः । अनु० १२७ । चभ्यो जातः षड्जः । नाला कण्ठोदतालु जिह्वादस संचितः । ठाणा० ३९३ | सर्ज:- वनस्पतिविशेषः । विशे० ११६९ । [ सन्भाय भूमि सज्जिओ-सज्जित: - निष्पादितः । जीवा० २६८ । सज्जित्था - गिहोत्यर्थः । नि० चू० प्र० ५१ अ । सज्जिय-सज्जितं वितानितम्। प्रश्न० ७६ । सज्जयित्वा । आव० ४२२ । सज्जियाखारसज्जोत्र - कलाविशेषः । ज्ञाता ३८ । सज्जीवकरणं - मृतधात्वादीनां सहज स्वरूपापादनम् । ज० प्र० १३६ । ज्ञाता १०६ सज्जवलय आतंको शूलम् । नि० चू० द्वि० १४८ छ । सक्खार - सद्यो भस्म । ज्ञाता० १७५ । सङ्खगाम - प्रथमो ग्रामः । ठाणा० ३९३ । सजग्गहणा वट्टमाण कालग्गहणं अभिक्खरगहणं । नि० चू० द्वि० १० अ । सखणता - सेवणामाने सजणता । नि० चू० द्वि० ७१ आ । सह- सज्जतं सङ्गं कुरुत । ज्ञाता० १४७ । सज्जा - वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । सज्जासंचार - शयनं शय्या तदर्थं संस्तारकः शय्यासंस्तारकः, शय्या - सर्वाङ्गीकी संस्तारक:- अर्धतृतीय हस्तप्रमाणः | आचा ३६६ । सज्जिए - सज्जित:- निष्पादितः । ज० प्र० १०५ । ( अल्प० १३५ ) | नि० चू तृ० ६० अ सज्भयनिमित्त-स्वाध्यायनिमित्तं प्रतिपृच्छानिमित्तम् व्य० द्वि० ४५ अ । 1 सज्झाए - कुणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । सज्झाओ- स्वाध्यायः वाचनादिनिवनधनत्वात्सूत्रम् । आव ४४६ । अभ्यन्तरतपसि चतुर्थो भेदः । भग० ६२२ । सज्झादी- सझिका:- प्रतिवेदिमकाः । बृ० तृ० ४९ । सज्झाय - स्वाध्यायः- अनुप्रेक्षणादिः । उत्त० ४३८ । सुष्ठु आ-मर्यादया अधीयत इति स्वाध्यायः षङ्गादि तमुद्देष्टुं योगविधिक्रमेण सम्यग्योगे नाघी ष्वेदमित्येव मुपदेष्टुम् ठा णा० ५७ । स्वाध्यायः - वाचनादिरूपः तस्वचिन्तायो धर्महेतुत्वाद्धः । दश ० २३ । शोभना अध्यायः स्वाध्यायः ॥ आव० ७३१ । स्वाध्यायः - सूत्रपौरुषीलक्षणः । आव ० ५७६ | स्वाध्याय: - अधी गुणनरूपः । प्रश्न० १११ । स्वाध्यायः- नन्द्यादिसूत्र विषयो वाचनादिः । ठाणा० २१३० स्वाध्याय:- शोभनं ब-मर्यादया अध्ययनं श्रुतस्याधिक मनुसरणं स्वाध्याय: | ठाण० ३४६ । | सज्झाय पोरुसि - स्वाध्यायपौरुषी । भाव० ३१३ । सभायभूमि - स्वाध्यायभूमिः सा चागाढयोगमधिकृत्योस्कर्षतः षण्मासा । व्य० द्वि० ७८ अ । ( १०७३ ) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झायमंगल ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सट्टा सम्झायमंगल-स्वाध्यायमङ्गलं-स्वाध्याय एव मङ्गलम् । सट्ठाणहाणंतराणं-शीर्षप्रहेलिकापर्यवसानानि तेषां स्वओष. १८४ । स्थानाव-पूर्वपूर्वस्थानादुत्तरोत्तरस्य संख्यास्थानस्योत्पत्तिसम्झायसझाण-स्वाध्याय एव सयानं स्वाध्यायसद् स्थानात् संख्याविशेषलक्षणात गुणनीयादित्यर्थः, स्थानाध्यानम् दश ० २३८ । तराणि-स्थानान्तराग्यपि अनन्तस्थानास्यव्यवहितसङ्ख्यासज्झिग-सहवासो । बृ० द्वि० २१५ आ। विषया गुणाकारनिष्पना येषु तानि स्वस्थानस्थानान्तराणि सझियं । नि० चू० द्वि० १६६ अ। क्रम व्यवस्थितसङ्ख्यानविशेषा इत्यर्थः, अथवा स्वस्थानानि सज्झिया-सज्झिका-प्रातिवेशिमको । ० तु. १३९ अ ।। च-पूर्वस्थानानि स्थानान्तराणि च-अन्तरस्थानानि स्वस्थासज्झिलग-लघुभ्राता । व्य० प्र० १९४ आ। भ्राता। नस्थानान्तराणि, अथवा स्वस्थानात प्रथमस्थानात् पूर्वा पिण्ड० १०. । सहोदर:-भ्रातरः । बृ० तृ० ५५ अ। ङ्गलक्षणात् स्थानान्तराणि-विवक्षितस्थानानि स्वस्थानमखायो । ओघ० १७२ । भगिनी । पिण्ड० १८ । स्थानान्तराणि । सम० ६१ । सज्झोरुवा-सउझोरूपा । व्य० प्र० १२४ आ । सहाणवट्टी-तिण्णिवारा मासलहुं च उत्थवाराए तमेव माससञ्जातद्वितीयपदः- । आव० २५६ । गुरु एवं चठलहो चउगुरु छल्लाहुओ छागुरु । नि० सज्वलन-कोधादिभेदवान् । आचा. ११ । चू० प्र० २३४ आ। सज्वलनत्व-प्रतिक्षणरोषणत्वम् । अष्टममसमाधिस्थानम्। सट्ठाणसन्निगास-स्व-आत्मीयं स्थान-पर्थवाणामाश्रयः प्रश्न० १४४ । स्वस्थानं-पुलाकादेः पुलाकादिरेव तस्य सन्निकर्ष:-संयो. सम्झा - सन्ध्या । ओघ २०२ । जनं स्वस्थानसन्निकर्षः । भग० ६०० । सज्ञाक्षर-सज्ञाक्षरं-अक्षराऽऽकारविशेषः, यथा घटिका- सट्ठि-संजमे सेट्ठा जस्स सा सट्ठी । नि० चू०प्र० २००७। संस्थानो धकारः, कुरुण्टिकासंस्थानचकार इत्यादि । सट्ठिआ-पष्टिका:-शालिभेदः । दश० १९३ । आव० २४ । सद्विग-पष्टिका: षष्ठयहोरात्रैः परिपच्यमानास्तन्दुला । सभिभूता-विशिष्टावधिज्ञान्यादयः । भग० ७४२ । ज० प्र. २४३ । सज्ञास्कन्धः-सज्ञानिमित्तोग्राहणात्मकः प्रत्ययः । सद्वितंत-कापिलीयशास्त्रम् । भग० ११२ । षष्ठितन्त्रसूत्र. २५ । सायमतम् । ज्ञाता० १०५ । सट्टती-कडवल्लो । नि० चू० तृ० ५६ अ । सडण-शटनं कुष्टादिनाऽङ्ल्यादिः । भग० ४६६ । सट्टियर-बन्धुः । नि० चू० प्र० २४३ अ । सडण पडणविद्धंसणधमम्मक-शटनपटनविध्वंसनधर्मका सटुक-सङ्घातवन्तः । व्य० प्र० १६६ आ । । उत्त० ३२९ । सट्ठगा सालिभेओ । दश. चू० ६२ ।। सडसडित-शटितशटितम् । आव०६८० । सट्टाणतर-स्वस्थानं-परमाणोः परमाणुभाव एव, तत्र सडिण-वनस्पतिविशेष: । भग ८०२ । वर्तमानस्य यदग्तरं-चलनस्य व्यवधानं निश्चलस्वमवन-सडिय-शाटितः-वाधिविशेषाच्छोर्णतां गतः । ज्ञाता० लक्षणं सस्वस्थानान्तरम् । भन० ८८६ । सट्टाण-स्वस्थान-यत्रासते बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ताः सडियपडियं-शटितपटितम् । आव० ३५४ । आसीनाश्च वर्णादिविभागेनोदेष्टं शक्यन्ते तस्वस्थानम।। सड-श्राद्धः । औप० ९.। श्रावः । भग ५१९ । प्रज्ञा० ७३ । स्वस्थानम् । ज्ञाता. १६९ । स्वस्थानं- श्राद्धः-तापसविशेषः । निरय० २५ । श्राद:-भद्धा चुल्यवचुल्यादिकम् । पिण्ड० ८६ । सुत्ते णिबद्धं तं । नि० श्रद्धानं यस्मिन् अस्ति स, श्रद्धेयवचनः । ठाणा० १३९ । चू० तु. १४७ छ । मूलवसहग्गामोधरं । नि००० | सडर-आरजालम् । बृ० त० ११७ था। १८३ अ। | सडा-श्रद्धा-धर्मेच्छा । आचा० २२३ । श्रद्धा-तस्वध. ( १०७४) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सट्टावं ] अल्पपरिचितसैवान्तिकसम्बकोषः, भा० ५ [ सणिचारी दानं सदनुष्ठानचिकीर्षा । मग• ५५. । श्रद्धा-इच्छा ।। मध्येऽवतंसकः । जीवा० ३९१ । राज० ५८ । अदा-इन्छा । भम० ।। श्रद्धा-इच्छा । | सणंदिघोस-दादविधतूर्यनिनादोपेतः । ज० प्र० ३७ । निरय० ३ । सूर्य० ५ । सण-सन:-स्वकप्रधानो धाग्यविशेषः । ठाणा. ४०६ । सड्डावं-श्रद्धावानु । आव० ८१५ । स्वप्रधाननालो धान्यविशेषः । भग० २७४ । वल्क प्रधानो सटि-श्रद्धा-प्रद्धानम् । मग. ६.। श्रद्धा-अस्याऽस्तीति । वनस्पतिविशेषः । ज्ञाता० १६० । गच्छाविशेषः । प्रज्ञा श्रद्धी-गिही, अण्णतिथि उ वा । नि० चू० प्र. १८३ । ३२ । वनस्पतिविशेषः । भग ८०२ । शणं-स्वकया। श्रद्धावन्तिः । ओघ. ६६ ।। प्रधाननालो धाग्यविशेषः । ज० प्र० १२४ । शणः । -अविरतसम्यग्दृष्टिका यथामद्रिका व्य. प्र० धाव. १३० । औषधिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । धान्य. २५० । विशेषः । उत्त० ६५३ । सड्डियर-अतिश्राद्धः-श्रीगुप्तस्थविरशिष्यो रोहगुप्तामिधः। सणपल्ली-पल्ली विशेषः । व्य. दि. ३१२ अ । आव० ३१८ । सणफ-सह नखैः नखरात्मकर्वतंत इति सनखम्। उत्त० सड्डी-शक्ष: । उत्त० १६८ । श्रद्धा-मोक्षमार्योद्यमेच्छा ६६६ । विद्यते यस्यासौ श्रद्धावान् । आचा. १७३ । श्रद्धा- सणकदा-सनखानि-दीर्घनखररिकलितानि पदानि येवो रुचिरस्यास्तोति श्रद्धावान् । उत्त. २५१ । श्रावकः।। ते सनखपदा: श्वादयः । प्रज्ञा० ४५ । नि. चू० प्र० १४७ अ । सणफय-सन खपदः नाखर: सिंहादिः । ठाणा. २७३ । सढ-सढः-तदवयवरूपः केशरिस्कन्धसटावद् । मप०६७२।। सनखपदः-दीर्घनखपरिकलितं पदं यस्य स आश्वादिः। शढः-शठस्य मायिनः कर्मत्वात । अधर्मद्वारस्य द्वितीयं जीवा. ३ः। नाम । प्रभ. २६ । शढं-यत शायन विधम्भार्थ सणबंधण--सनबन्धन-सनपुष्पवृत्तम् । ज्ञाता.६ । वन्दते । ग्लानादिव्यपदेशं वा कृत्वा न सम्यग वन्दते । सणवण-सणवनं-वनविशेषः । आव. १८६ । मग. कृतिकर्मणि विशतितमो दोषः । आव० ५४४ । शढ:संयमयोगेष्वनाहतः । दश० २४७ । शढः । दश० ८९ । तणसत्तरस-शणसप्तदशानि-व्रीहिर्यवो मसूरी गोधूमो चढः-तत्तन्नेपथ्यादिकरणतोऽन्यथाभूतमात्मानमव्यथा दर्श- मुद्गमाषतिलचणकाः अणवः प्रियङ्गुकोद्रवमकुष्टकाः शा. यति । उत्त. २४५ । शढः-वक्राचारः। उत्त० २७४।। लिरालकम् । किञ्चित् शालयकलस्थी शणसप्तदशानि । शाध्ययोगाच्छढ:-विश्वस्तजनवञ्चकः । उत्त० २८० । बृ० प्र० १३६ छ । शढः-मायावी । आव. ५३७ । शढं-अन्त: सद्भावशून्य |सणहपय-सनखपद:-सिंहादिः । प्रश्न १५ । वन्दनम् । बृ० तृ. १२ आ । सणायग-स्वजनः । बोध० १९० ।। सढओ-स्तम्बः । बृ० दि० २६८ आ। सणाहा-सस्वामिका । ज्ञाता० १५० । सणंकुमार-सनत्कुमार - कल्पोपगवैमानिकभेदविशेषः । | सणिचरसंवच्छर-यावता कालेन शनैश्वरो नक्षत्रमेकम. प्रज्ञा० ६६ । सनत्कुमार:-चातुरन्तच प्रवर्ती राजा, प्रथमा थवा द्वादशापि राशीन् भुक्ते स शनैश्चरसंवत्सरः । अन्तकिरियावस्तु । उत्त० ५८२ । सनत्कुमार:-चतुर्थ- ठाणा. १४४ । चक्रवर्ती । सम० १५२ । सनत्कुमारः-नारायणवासुः सणिचारि-शनैश्वारी-मन्दचारी, भारते वर्षे मनुष्यभेदः । देवागमनदेवलोकः । व. १६३ टो० । मप० २७६ । सणंकुमारडिसग - सप्तसागरोपमस्थिकदेवविमानम् । सणिचारी-शनैश्वारिणः । १० प्र० ३१३ । शनैश्चारिणःसम. १३ । शन:-मन्द मुस्सुकावाभावाचरन्तीत्येवंशीला: । जं. प्र० सणंकुमारावडिसए - सनत्कुमारावतंसकः-सनाकुमारस्य । १२८ । ( १०७५ ) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समि] आचार्यश्रोमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सहकरमी सणिइ-शनः। बाव. ०१७ । | सण्णाभूमि-सञ्ज्ञाभूषि:-पुरोषोत्सर्गभूमिः । श्राव० ५७६ । समिच्छर-शनैश्वस-चतुर्थो महामहः । सूर्य. २९४ ।। संज्ञाभूमि:-विहारभूमिः । दश० १।। शनैश्चर:-महाग्रहः । ०प्र०५३४ । चतुर्थो महा ग्रहः । सण्णाभूमी-सशाभूमिः । उत्त. १९२ । सज्ञाभूमिःठाणा ७५ । पुरीषोत्सर्गभूमिः । आव० ५७७ । सणिच्छरसंवच्छर-धनेश्वरनिष्पादितः संवत्सरः शनैश्चर । सण्णाय-सज्ञातीयः । बाव. ६४७ । संवत्सरः शनैश्चरसम्भवः । सूर्य. १५३ । शनैश्चर. | सण्णायग-संशातीय:-निजका । आव० ६१०। संवत्सरः । सूर्य. १७२ । सण्णि-संज्ञानं संशा-सम्यगशानं तदस्यास्तीति संज्ञीसणिप्पवात । ठाणा० ८६ । सभ्यम्हष्टिः । नंदी. १९१ । सो-धावकः । ओष. सणिय । ओष. २०९ । २२ । सञ्शी-श्रावकः । ओघ• ५९ । सण्ण-काइयं । नि० चू० प्र० ११६ अ । सणिएलग-संजितः । आव० ३०५ । सण्णक्खर-सञ्ज्ञाक्षर, तत्र सुवन्ह्यो य एता अष्टादश सण्णिगब्भ-गर्भस्थः संज्ञी सजिगभ। पाव. १७६ । लिपयः शास्त्रेषु श्रूयन्ते "हंसोलिपि बादि" तभेदनि सण्णिगास-सन्निकाश:-प्रकाशः | ज. प्र. ५२ । यतमेतद् भेदसम्बन्धसंज्ञाक्षरमक्षराकाररूपम्, तच्च लिपि- सण्णिचिए-सन्निचितः-प्रचयविशेषानिबिडीकृतः । ज०प्र० भेदादेकः । विशे. २५६ । ९५ सण्णा-संगारेत्यर्थः । नि० चू० प्र० ५५ ५। संज्ञान- सण्णिनाणे-सज्ञिज्ञानं सज्ञो-समनस्कस्तस्य ज्ञानं संज्ञा-सम्यगज्ञानम् । राज० १३३ । संजाणतीति सण्णा, सञिज्ञानं, तच्चेहाधिकृतसूत्रान्यथानुपपत्तेर्जातिस्मरणजं पुठवण्हे गोवि दळूण अवरण्हे पुणो पञ्चभिजाणइ, | मेवः । सम. १० । जहा सो चेव एस गोवित्ति । दश. चू० ५४ । सणिवाय-सनिपात:-आगमनम् । ज० प्र० २८० । संज्ञानं संज्ञा-मनोविज्ञानमित्यर्थः । विशे० २७७ । सणिविट-सन्निविष्टं-सन्निवेशं, पाटक: । औप० २ । संज्ञान-संज्ञा-व्यखनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेषः । सण्णिहि-सन्निधिः, पर्युषित खाद्यादि।। ज० प्र. ११८ । बाव. १८ । अभिलाषो-आत्मपरिणामः । आव ५८०।। सण्णी-सजी। आव० २८६ । सञ्जी-विशिष्टस्मरणादि. सज्ञानं सज्ञा । जीवा० १५ । सज्ञा । आव० ___ रूपमनोविज्ञानमा । जीवा० १७ । वासिष्ठगोत्रे षष्ठो ३६६ । संज्ञान संजा-अवगमः । आचा. १२ । संज्ञा, भेदः । ठाणा० ३६० । सज्ञी-बावकः । ओघ ३ । ज्ञानं, अवबोधः । आचा० १३ । संज्ञानं संज्ञा-अव- दीर्धकालिक्युपदेशेन संज्ञो । आव० २१ । दसणसंपण्णो । ग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष एव । विशे० २२६ । संज्ञानं नि० चू० प्र० ३२५ छ । सावओ सयणा वा अहाभद्दओ। सज्ञा-भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यासोचम् । जीवा नि. चू० प्र. १२६ मा (2)। सज्ञो-श्रावकः । ओघ. ३८ । सज्ञी-श्रावकः । बोध. १०२ । सण्णाइओ-संज्ञायितः । दश. ४४ । सह-श्लक्ष्ण:-मृष्टः । जीवा० ३४३ । श्लक्ष्ण, । मोघ. सण्णागनाणोवगत-सन्ति शोभानानि 'नाने' त्यनेकरूपाणि २१६ । ज्ञाता० १६ । श्लष्णो नाम चूर्णितलोष्ठकल्पा शानानि सङ्गत्यापपर्यायधर्माभिरुचित्त्वावबोधारकानि ते- मृदुपृथिवी । प्रशा० २६ । श्लक्ष्णः । पाव. ६२४ । रुपगतः सन्नानाशानोपगतः । उत्त० ४८७ । श्लक्ष्णं-श्लष्णपुरस्कन्धनिष्पन्नम् । प्रज्ञा० ५७ । श्लष्ण:सण्णातग-सज्ञातीयः । आय० २८६ । सज्ञातीयः ।। मसूणः स्निग्धः । ज.प्र. २९८ । णानि सूक्ष्मस्कन्ध. थाव, ५७८ । निष्कपन्नत्वात् श्लक्ष्णदलनिष्पन्न पटवत् । सम० १३८॥ सण्णातय-सजातीयः । भाव. ३७० । सण्हकरणो-लक्णानि-चूर्णरूपाणि द्रव्याणि क्रियन्ते यस्या सण्णापाणय-सज्ञापानीयम् । आवा० ५१३। सा पलणकरणी । भग ७६६ । ( १०७६ ) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह पट्ट ] सह पट्ट - सूक्ष्मपट्टः । भव० ५४२ । सहबायर पुढविक्काइया-वणाच ते बादरपृथिवी. कायिकाच, श्लक्ष्णा चासो बादरपृथिवी च सा काय:शबीरं येषां त एव श्लक्ष्णबादरपृथिवी कायिकाः । जीवा० २२ । सह मच्छ- मत्स्य विशेषः । पज्ञा० ४३ । मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ । सहस व्हिया - प्राक्तनप्रमाणापेक्षयाऽष्टगुणत्वादु उर्द्धब्रेण्वपेक्षया स्वष्टमभागत्वात् इलक्षणश्लक्ष्णिका । भग० २७५ । प्राक्तनप्रमाणादष्टगुणत्वा दूध्वं रेण्वपेक्षया स्वष्टमभागवतस्वात् श्लक्ष्णश्वणिका । अनु० १६३ । सहा - लक्ष्क्षणा - चूर्णितकोष्टकल्पा मृदुः पृथिवी तदात्मका जीवा अपि । उत्त० ६८९ । वलवरण: वलक्ष्णपुदुगलस्वन्धनिष्पन्नाः । ज० २० । पलक्ष्णा । आव० ८५५ । श्लक्ष्णपरमाणुस्कन्धनिष्पन्ना । ठाणा० १३१ । श्लक्ष्णा - चूर्णितलोष्टकल्पा मृदुपृथिवी । णीवा २२ । वि० चू० प्र० २४६ अ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ до सहाढवीणपृथिवी मृद्वी चूर्णितलोष्टकरूपा पृथिवी । जीवा० १४० । सहावरण्णग-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । सहस व्हिआ - अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणूनां समुद. यसमितिसमागमेन या परिमाणमात्रा गम्यते संका अतिशयेन श्लक्ष्णा वलक्ष्णश्लक्ष्णा संव दलक्षणलक्षिणका । ज० प्र० ९४ । -सतं जए-शतञ्जयः त्रयोदशमदिवसः । सूर्य० १४७ । सतंत - स्वतन्त्रं स्वसिद्धान्तोक्तः प्रकार । वृ० द्वि० १५२ आा । सतए - आगामिन्यामुसर्पिण्यां मावि दशमतीर्थं कृ तु पूर्वं भवनाम । सम० १५४ । सतग्धि-शतघ्नी- महती पष्टिः । प्रभ० ८ । सतत उत्सपण्यां मोक्षगामिक। । ठाण! ० ४५७ । सतदुवार - शतद्वारं नगरं विमलवा हुन राजधानी । विपro ९५ । पाण्डुजनपदे नगरम् । ठाणा० ४५८ । सतधरण-उत्सपण्यां भावी दशमकुलकरः । ठाणा० ५१८ । सतपुप्फी - वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । ४७१ । सताउ - शतायुर्नाम या शतवारं शोषिताऽपि स्वस्वरूपं न जहाति । जं० प्र० १०० । शतायुः - या शतवारं शोधिताऽपि स्वस्वरूपं व जहाति सा । जीवा० २६५ । सताणितो- वत्थजणवए कोसंबीणगरी, तस्स अधिवो सताणितो । नि० ० तृ० १६ व सति स्मृतिः- पूर्वानुभूतस्मरणम् । जीवा० १२३ । सति काल-प्रासा भिक्षावेला । ओोघ० १५५ । सरकाल: भिक्षासमयः । बृ० वि० २५६ अ । सतित्थउन्भावण-स्वतीर्थोद्भावना । आव० ५३७ । सतिरं सेच्छा । नि० चु० प्र० २६४ छ । सती-धर्मकथायी नवमवगेऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५३ । शोभना स्वकीया वा । व्य० द्वि० ५३ आ । विशिष्टा । नि० ० तृ० १४९ अ । सतीते - शक्रेन्द्रस्याग्रमहिषीणां राजधानी । ठाना० २३१ । सतेरा - तृतीया विद्युतकुमार महत्तरिका | ठाणा० १९८ । ज० प्र० ३६१ । धरणस्याग्रमहिषी । ज्ञाता• २५१ । सत्त- सत्त्वं चित्तविशेषः । भग० ४६६ । सस्वं परीषहेषु साधोः सङ्ग्रमादावितरस्य वा । ठाणा० ३४२ । सत्वं वैक्लव्य कर मध्यवसानकरम् । भग० ४६६ । सत्त्वाः । ज्ञाता ० ६० । सत्वं - आपत्स्ववैक्लव्यकरम ध्यवसानकदम् । ज्ञाता० २११ । सरबं- दैन्यविनिर्मुक्तो मानसोऽवष्टम्भः । अनु. १५८ । सत्त्वं आपस्स्ववै कल्पकरमवध्य. सानकरम् । उत० ५९० । सक्तः - सामान्येनैवासक्तिमानु । उक्त ६३२ । सक्तः- आसक्तः, शक्तो वा समय सम्बद्धो वा । भग० ११२ । सक्त:-बद्धाग्रहः । उत्त० २६७ । सत्वं धर्यम् । बृ प्र० १६७ आ । सत्वं - स्थैर्यम् । बृ० प्र० १८६ अ सम् । उत्त० इक्षुरसादि । आव० ६२४ । सत्त्वंः सत्वं साहबम् । ज० प्र० १५२ । सत्य:- सांसारिक ( १०७७ ) १३५ । सत्तं | दश० ५५ । [ सत - सतपोरग - पर्वगविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । वनस्पतिविशेषः । भय० ५०२ । सतर- सतरं दधि । ओष० ४८ । वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ । सता-सदा-प्रवाहतोऽनाद्यपर्यवसितं कालम् । ठाणा ० Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तकित्ति ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सत्तिकसत्तया संसारानीतभेदः | आव० ७३० । सत्त्वा:-पृथिव्यप्ते- सत्तवन्नडिसए-सौधर्मकल्पे द्वितीयं बडिसविमानम् । जोवायवः । प्रज्ञा. १०७ । तत्त्वं-धृतिबलम् । बृ. | भग० १९४ । द्वि० २१७ अ । सत्त्वं-वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमादिजन्य | सत्तवेत्त-वृक्षविशेषः । भग० ८०२ । आत्मपरिणामः । आव० २३६ । सत्त सत्तमिया-सप्त सप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसत्तकित्ति-जम्बूभरते आगामिन्यां दशमतीर्थकृत । सम० सप्तमिका । सम. ७० । सप्तसप्तमानि दिनानि यस्या सा सप्तसप्तमिका । ठाणा. ३८७ । सप्तसप्तमिकासत्तग्ग-शक्त्यग्रं-प्रहरणविशेषाग्रम् । जीवा० १०६ । सप्तमिदिनानां सप्तकर्भवति सा । औप० ३१ । सप्तससत्तधरण-निरयावल्यां पञ्चमवर्ग दशममध्ययनम् । निरय. प्तमिका-भिक्षुप्रतिमाविशेषः । अन्त २८ । सप्तसप्त३६ । कादिनानां यस्यां सा-सप्तसप्तकिका । व्य. द्वि० ३४७ सत्सपदिग-सप्तभिः पदैर्व्यवहरतीति सप्तपदिकः । आव. ब। भिक्षुपतिमाविशेषः । व्य० द्वि० ३४६ आ। ९२ । सत्तसत्तिक्कया-अनुद्देशकतयैकसरत्वेन एककाः-अध्ययनसत्तपदिवय-साप्तपदिकवतम् । आव० ६२ । विशेषाः आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूडारूपाः, सत्तपन्न-सप्तपर्णः सप्तच्छदः । भग० ३७ । ते च समुदायतः सप्तेतिकृत्वा सप्तकका । ठाणा० ३८७ । सत्तपन्नवण-सप्तच्छदवनम् । ठाणा. २३२ । आचारप्रकल्पे द्वितीय श्रुतस्कम्धस्याष्टमादारम्भ यावच्चतुर्दसत्तभावणा-सत्त्वभावना । आव० २०२ । शममध्ययनम् । प्रश्न. १४५ । सत्तम-सप्तमः-सप्तप्रमाणः सप्तसङ्ख्यः । प्रश्न० १३५ । सत्तहत्था-लोमपक्षीविशेषः । प्रशा० ४९ । सत्तमासिआ-सप्तमा भिक्षुप्रतिमा । सम• २१ । सत्ता-सत्त्वा:-पृथिव्यायेकेन्द्रियः । आचा० ७१ । सत्त्वाःसत्तमासिया-भिक्षुप्रतिमा विशेषः । ज्ञाता०७२ । तिर्यङ्नरामराः । आचा० २५६ । सत्त्वाः-पृथिव्यादयः । सत्तरत्त-सप्तरात्र:-दिनाविनाभाविवादात्रीणां सप्ताहो. ठाणा० १३६ । सत्वाः-पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकाः । ज० रात्रः । उत्त० ५३१ । सप्तरात्रं-सप्त दिनानि यावत् । प्र. ५३६ । अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावा । सूत्र० जं.प्र. २४४ । ४२६ । जाती स्त्रीवचनम् । । प्रज्ञा० २५१ । सत्तरातिदिया-प्रतिमाविशेषः । ज्ञाता० ७२ । सत्तावरी-एसा अणंत जीवा छल्ली । नि० चू. द्वि० सत्तवइ-सप्तवृतिम् । आव० ४०५ । १४१ अ। सत्त्वइय-मारे उ कामेणं जावइएणं कालेणं सत्तपयाई सत्तासुओ-सत्त्वासुकः उत्तरपौरस्त्यो वातविशेषः । आव० बोसक्किज्जति एव इयं कालं, कासं पडिक्खित्ता मारे. ३८६ । यव्वं । बृ. प्र. २९ बा (?) । सत्ताहवद्दल-सप्ताहवर्दल:-सप्ताहमेघः । ओष० १५१ । सत्तघण्ण-सप्तपर्ण:-वृक्षविशेषः । जीवा० २२२ । सप्त-सत्ति-शक्तिः प्रहरणविशेः । आव० ४८७ । शक्ति:पर्णः सप्तच्छदः । ज्ञाता० १६० । सप्तपर्ण:-सप्तच्छदः । त्रिशूलम् । प्रभ० २१ । शक्तिः-प्रहरणविशेषः । दश० अनु० १४३ । २४४ । शक्तिः-शस्त्रविशेषः । आव० ६५१ । शक्ति:सत्तवण्णवण-सप्तच्छदवनम् । ठाणा० २३० । सप्त. त्रिशूलरूपः । प्रश्न०४८ । शक्ति:-त्रिशूलम् । ज० प्र० पर्णवनम् । जीवा० १४५ । २६६ । शक्ति:-प्रहरणविशेषः । जीवा० १०८ । शक्तिः सत्तवदिआ-सप्तपदिका -गुणविषये दृष्टान्तः । आव. शनविशेषः । प्रमा० ६७ । शक्तिः-त्रिशूलम् । औप० सत्तवन्न-सप्तपर्ण:-वृक्षविशेषः । प्रशा० ३२ । सप्तपर्ण:- सत्तिसत्तया-सप्तसजक-आचाराङ्गस्य सप्तदशमतो वृक्षविशेषः । भग.८०३ । त्रयोविंशतितममध्ययनानि । उत्त०६१७ । बाचाराङ्गस्य(१.७८) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तिम अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ सत्थपरिना द्वाविंशतितममध्ययनम् । सम० ४४ । उपघातकारी । आचा० १७४ । शस्त्रं-हिंसक वस्तु । सत्तिम-शक्तिमत-शरीरमन्त्रतन्त्रपरिवारादिसामाथ्र्ययुक्तम् ठाणा० ४६२ । सार्थः । माव० ३४८ । शास्त्र शस्त्रं । ठाणा० ३५३ । अर्थशास्त्रापि खङ्गादि अक्षेप्यायुधम् । प्रभ. ११६ । सत्तिवण्ण-अजितनाथस्य चैत्यवृक्षम् । सम० १५२ । शास्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा ज्ञेयमारमेति वा शासत्तिवण्णवण-सप्तपर्णव-वनखण्डनाम ज०प्र०३३.। स्त्रम् । आव० ८६ । शास्त्रं-आप्तवचनम् । दश. सत्तिवन- भवणवासीदेवानां द्वितीयं चैत्यवृक्षम् । ठाणा० १२८ । शस्त्रम् । आव. २७३। शस्यन्ते-हिस्यन्तेऽनेन ४८७ । प्राणिन इति शस्त्रं उत्सेचनगालन-उपकरणधावनादि सत्ती-शक्ति:-प्रहणविशेषः । भग० ९३ । शक्ति:-शक्ति. स्वकायादि च वर्णाद्यापत्तयो बा पूर्वावस्थाविलक्षण: हेतुत्त्वं, अहिंसायाश्चतुर्थ नाम । प्रभ० ९९ । शक्ति:- शस्त्रम् । आचा० ४६ । शास्त्रं, 'शासुं अनुशिष्टी' प्रवृत्तिः । नंदी० १९० । शक्तिः-शक्तिरुपम् । जीवा० शास्यते शेयमात्मा वाऽनेन अस्मात् अस्मिन्निति वा शास्त्रम्, शास्यते-कथ्यते तदिति वा शास्त्रम् । विशे. सत्तुंज-शत्रुञ्जयः, मूलगुणप्रत्याख्याने साकेतनगराधिपतिः । ५९१ । सत्थवाहो । नि० चू० तृ. ३६ अ । सर्वसआव० ७१५। त्वोपकारी पूर्वापराविरोधि सर्वगुणग्रहणफलं शास्त्रम् । सत्तु-शत्रु:-प्रत्यनीकः । राज. ११ । शत्रुः । ठाणा० विशे० ८८२ । शस्त्र-क्षुरिकादिकम् । भग० १२० । शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रं-श्रुतम् । आव० २६ । शस्त्रंसत्तुअ-शक्तुकः, आचाम्यस्य पोण्णं तृतीयं नाम । आव. क्षुरिकादि । ज्ञाता० ३० । ८५४ । सत्थकुसल-शस्त्रेषु शास्त्रेषु वा कुशः शस्त्रकुशला। सत्तए-सक्तवः-भ्रष्टयवक्षोदरूपाः । बृ० आ० २६७ था। शास्त्रकुशला वा । उत्त० ४७५ । सत्तग-सक्तुः यवक्षोदरूपः । पिण्ड० १६८ । ते य जव- सत्थकोस-शस्त्रकोश:-क्षरनखरदनादिभाजनम् । ज्ञाता. विगारो । दश० चू० ८० । १८१ । निद्वि०१८ आ(?) । शस्त्रकोष:-नखरदनादिसत्तुसेण-अन्तकृद्दशान्तं तृतीयवर्गस्य षष्ठममध्ययमम् । भाजनम् । विपा. ४।। अन्त० ३ । सत्थकोसग-शस्त्रकोषकः । उत्त० २०२ । सत्तुस्सेह-सप्तहस्तोच्छितः । ज्ञाता• ६२ । सत्थजाय-शस्त्रजातं-आयुधविशेषः । आचा० ३७६ । सत्त-शत्रुः अगोत्रजः । औप० १२ । सत्थपरिणया । ज्ञाता० १०७ । सत्तक्कतय-सप्तककः, आचारप्रकल्पस्य सप्तदशादास्म्य सत्थपरिणा-शस्त्रारिज्ञा-आचाराङ्गस्य प्रथममध्ययनम् । त्रयोविंशतिरस्तानि अध्ययनानि । आव० ६६० 1. उत्त० ६१६ । सत्तेरा-सत्तारा-विदिचकवास्तव्या विद्युत्कुमारीस्वामिनी सत्यपरिणामिय - शस्त्रेण परिणामितं-कृतातिनवपर्याय । आव, १२२ । शस्त्रपरिणाथितम् । भग० २१३ । सत्तोपसत्त-सक्तोपसक्तः-सक्तश्च पूर्वमुपसक्तश्च पश्चात् । | सत्यपरिणा-याचाराङ्गे प्रथममध्ययनम् । सम. ४४ । उत्त० ६३२ । शस्त्रपरिज्ञा आचारप्रकल्पे प्रथमश्रस्कन्धस्य प्रथममध्यययसत्त्व-जीवः । भग. ११२ । नम् । प्रभ. १४५। शस्त्रारिज्ञा-आचारप्रकल्पस्यं प्रथमो सत्त्वपरिग्रह-सस्वपरिगृहीत्वं-साहसोपेतता, त्रयत्रिशत्तम- भेदः । आव० ६६ । वचनातिशय: । सम० ६३ । सत्थपरिन्ना-शस्त्रं द्रव्यभावभेदादनेकविध तस्य जीवन। आचा.१०२ । सार्थ:-गणि. शंसनहेतोः परिज्ञा-ज्ञानपूर्वकं प्रत्याख्यानं यत्रोच्यते सा मपरिमादिभृतपृषभादिसङ्घातः । उत० ६.५ । शस्त्रं- | शस्त्रपरिज्ञा । ठाणा० ४४४ । (१०४ ) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्वर ] भाचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः -- - - - सत्यर-स्रस्तर:-शयनम् । ० १६३ । प्रच्छनं, प्रभव्याकरणम् । तत्वा• ६-७ । सिद्ध, प्रतिसत्थवज्झ-शस्त्रवध्यः । ज्ञाता. १९९ । ष्ठितम् । दश० ३३ । सत्थवाह-सावंवाहः । भय० ३१६ । सत्यं वाहेति सो। सत्यकि-चारित्रमोहनीयकम्र्मोदयवान् । उत्त० १८५ । नि. चू०प्र० २७० आ। नि. चू० प्र०२३७ बा। केवलसम्यग्दर्शनी व्यक्तिविशेषः । आव. ८.५ । प्रद्वेषे जो वाणिो रातीहि अम्मणुण्णातो सत्यं वाहेति सो। दृष्टान्तः । वाचा. १४६ । सत्यकि:-प्रवाजने दृष्टान्तः । नि० चू० प्र० २०९ आ । सार्थवाहः-सार्थनायकः । नि. चू. द्वि०२८ ब। सत्यकि:-बवलसम्यग्दर्शनी प्रशा० ३३० । शाता० ७६ । सार्थवाहः। प्रभ० ६६ व्यक्तिविशेषः । आव० ००५ । गपंधार्य मेयं परिच्छेद्यं च द्रव्यजातं गृहीत्वा योऽन्यदेशं सत्यको-द्वषतो द्वैपायनेन व्यापादितः । व्य० प्र०१२ । घजति, नृपबहुमतः, प्रसिद्धः, दीनानाथेषु पथि वत्सलः सत्यङ्कारः । भग० २२६ । पथि स सार्थवाहः । अनु०२३ । सार्थवाहक:-सार्थनायकः। सत्यभामा-कृष्णवासुदेवभाया । प्रभ०८८ । ठाणा० ४६३ । सार्थवाहः-यो गणिमादिद्रव्य जातं गृहीत्वा सत्यशुचयाः । आचा० २७१ । लामार्य मन्यदेशं व्रजति, नृपबहुमतः, प्रसिद्धः, पथि सथणिए-मस्तनित:- कुतमन्दमन्दध्वनिः । ज्ञाता. २४ । दीनानाथानां वत्सलः स । जीवा० २५० (१) । सार्थ- सदक्खिणं-सदानम् । ज्ञाता. २२० । वाहः यो गणिमादिक्रयाणकं गृहीत्वा देशान्तरं गच्छन् सदारमंतभेए-स्वदारमन्त्रभेदा - स्वकलविश्वब्धविशिष्टा: सह चारिणापध्वसहायो भवति । जं.प्र. १२२ । वस्थामन्त्रितान्यकथनम्, स्थूलमृषावादविरमणे तृतीयोऽ. सत्था-शास्ता-तीर्थकरः । नि० चू० दि. २७ बा। तिचायः । आव० ८२० । लत्यातीत-शस्त्रातीतं शस्त्रादग्न्यादेखतीतं उत्तीर्णम् । भग० सदारसंतोस-स्वदारसन्तोष: स्वकलत्रसन्तोषः । आव. ८२३ । स्वदारसन्तोष:-बारमीयकखवादन्यत्रेच्छानिवृत्तिः । सत्यातीय-शस्त्रातीतं शस्त्रेण-उदुखलमुशवयन्त्रकादिना ठाणा० २६१ । अतीतमतिकान्तम् । भग० २१३ । सदारसंतोसिए-स्वदारैः सन्तोष: स्वदारसन्तोष: स एव सस्थाहपुसो-सार्थवाहपुत्रः । बाव. ११६ । स्वदारसन्तोषिकः । स्वदासन्तुष्टिः । उपा. ३ । सत्थियमुह-स्वस्तिकमुखं-स्वस्तिका प्रभापः । सूर्य०७१। सदारा-नागेन्द्रस्य तृतीयानमहिषो । भग०५०४ । सथिलिओ-सार्थकः । आव० ११५ । सदावरी-त्रीन्द्रियजीवभेदः । उत्त. ६९५ । सस्थोवाडण-शस्त्रेण - दुरिकादनिा अवपाटन-विदारणं सदाशिवः । उत्त० ८१ । सदाशिवः । ठाणा० २०२। देहस्य पस्मिन् मरणे तत शास्त्रोत्पाटनम् । भव० १२०। सदिव्व-सह दिव्यः सादिय-गन्धर्वनपरादिदिव्यकृतम् । शस्त्रेण-क्षुरिकादिना अवपाटनं-विदारणं स्वशरीरस्य आव० ७३१ । . पस्मिस्तच्छस्त्रावपाटनम् । ठाणा०६३ । शस्त्रेणाव- लह-शपनं शपति वा असौ शय्यते वा तेन वस्थिति पाटनम् । ज्ञाता० २०२ ।। शब्दस्तस्यार्थपरिग्रहादभेदोपचारानयोऽपि शमः । पञ्चसत्पुरुषा-किंपुरुषभेदविशेषः । प्रज्ञा० १० । ममूखनयः । ठाणा० ३९० । शब्द:-कबहबोलः, महान् सत्य-नानृतं, अपरुषं, अपिशुनं, बनसम्यं अचपलं, अना- शब्दः । बाव. ६५४ । शब्दः तत्स्थान एव व्यापी विलं, अविरलं, असम्भ्रान्त, मधुरं, बमिजातं, असन्दिग्धं, / श्लाघा दश० २१७। शब्द:-शब्दास्यनयः । उत्त० ७७ । हफुटं, औदार्ययुक्तं, अग्राम्यपदार्थाभिव्याहारं, असीमर, | शब्द: साम्प्रतादित्रिभेदः ।।० ७८(?) | शमा आतस्परः ।। बरागद्वेषयुक्तं, सूत्रमार्गानुसारप्रवृत्तायं, अध्यं, अपिजन प्रभ. १९ । शमा । भोप० ५ । शब्द-शब्दशास्त्रा। भावग्रहणसमर्थ, बारमपरानुग्राहक, निरुपणं, देशकालोप- प. प्र. २०० । शब्द:-नयविशेषः । प्रशा. ३२७ । पन्न, जनवर्ष, अच्छाशनप्रशस्तं, पतं, मितं, पाचनं, व्याकरणम् । नि० पु. तु. ३० वा । शम्म! 'भप' (१०००) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहकरे ] अल्पपरिचितसैदान्तिकशम्बकोषः, मा० ५ [ सद्धल आक्रोशे, शपनमा ह्वानम्, बाह्वयतीति, शष्यते वाऽऽहूयते | श्रद्धानशुद्धम् । ठाणा० ३४६ । वस्त्वनेनेति शब्दः । विशे० ९०६ । शब्द:-अदिग्व्यापी । सद्दहणा-श्रदाना-बद्वानशुद्धिः-प्रत्याख्यानशुवधाः प्रथमो ठाणा० ५०३ । शा-अर्द्धदिव्यापी । भग ६७३ ।। भेदः । बाव. ८४७ । शन्द्यसेऽनेनेति शब्द:, भाषात्वेन परिणतः पुद्गलराशिः । | सद्दहति-श्रद्धत्ते-प्रत्येति-प्रीतिविषयीकरोति । ठाणा धाव० १४ । शब्द:-मन्मन भाषितादि । उत्त० ४२७ ।। १७६ । शब्द: शभ्यते-अभिधीयतेऽभिधेयमने नेति शब्दो-वाचको सद्दहमाण-श्रद्दधान: आचित्ततया मण्यमानः । जीवा०४॥ ध्वनिः । ठाणा. १५२ । शब्दः शब्दनमभिधानं शब्द्यते | सद्दहित -द्धितः-सामान्येन प्रतीतः । ठाणा. ३५६ । वा ये न वस्तु स शब्द: । ठाणा १५३ । सहहामि-श्रदधे सामाम्येनैवमेवमयमिति । आव० ७६। सहकर- शब्दकर:-रात्री महता शब्देनोल्लापस्वाध्यादिकारको निर्ग्रन्थं प्रवचनमस्तीति प्रतिपद्यते । भग १२ । श्रद्दवे गृहस्थभाषाभाषको वा । प्रभ० १२५ । सप्तदशममस. सामान्यतः । भग. ४६७ । श्रद्दधे-अस्तीत्येवं प्रतिपद्ये । माधिस्थानम् । सम० ३७ । शब्दकर:-य: कलहबोल ज्ञाता० ४७ । करोति, विकालेऽपि महता शब्देनैव वदति वैरात्रिकं वा सहिए-द्धितः । भग. १०१ । गाहस्यभाषां भाषते । षोडशमासमाधिस्थानम् । आव० सद्दहियं-अब्भुवयं । नि० चू• दि० १४७ अ । सद्दहे-श्रद्धत्ते । उत्त० ५६६ । सद्दकरणं-शब्दकरणं-उक्तिः । पाव० ४६४ सद्दहेजा श्रद्दधीत-श्रद्धाविषयां कुर्यात् । प्रज्ञा० ३६९ । सद्दणय-शब्द्यते वस्त्वनेनेति शब्दः, तमेव गुगीता | सद्दाइ-शब्द-शब्दद्रव्यम् । मग. २१६ । मुख्यतया यो मम्यते स नयोऽप्युपवारच्छन्दः । अनु० सद्दाउलग-शब्देनाकुलं शब्दाकुलं शन्दाकुलं-बृहज्छन्द, २६५। तथा महता शब्देनालोच्यति । ठाणा० ४८४ । सद्दणया-शब्दनया:-शब्दप्रधाना नयाः । ठाणा. १५३ । सद्दाउलय-शब्दाकुलं-बृहन्छब्दं यथा भवत्येवमालोचयति, सद्दनया-शब्दप्रधाना नया शब्दनयाः शब्दस मभिरूढवंभूताः | अगीतार्थान् श्रावयन्त्रित्यर्थः । पालोचने सप्तमो दोषः । शब्देनार्थं गमयन्तीत्यता शदनया उच्यते । अनु. २२४ । भय ६१९ । सहपडियं-शब्दपतितम् । थाव. २९२ । सद्दाणुवाए-शब्दानुपातः शब्दोच्चारम् । देशापकाशिके सहवेही-शब्द लक्षीकृत्य विध्यति यः स शब्दवेधी। ज्ञाता. तृतीयोऽतिचारः । आव० ८३४ । २३६ । शब्दवेधी । थाव० ४०० । सद्दालपुत्त-सद्दालपुत्रः तत्त्ववक्तव्यताप्रतिबद्धम् । ठाणा सद्दहइ-श्रद्धत्ते-सामान्येनैवमिदमिति । ठाणा. २४७ । ५०९ । महावीरस्य सप्तमश्राद्धः । उपा० १ । सद्दहइत्ता-श्रद्धाय शब्दार्थोभयरुपं सामान्येन प्रतिपद्य । सहावई-शब्दापातिनाम वृत्तवंताढ्यपर्वतः । जं.प्र. उत्त० ५७२ । २९५ । शद्धापाती-वृत्तवताढयपर्वतः । ज० प्र० २६६ । सद्दहण-श्रद्धानं-तथेतिप्रत्ययलक्षणः । ठाणा० ३४६ । शब्दापाती-वृत्तवैसाढयः, हैमवतवर्षस्य पर्वतः। जीवा. श्रद्धानं सम्यक्त्वमोहनीयकर्माणूक्षयक्षयोपशमोप)शमसमु- ३२६ । त्यात्मपरिणामरूपं सम्यक्त्वम्, श्रद्धान-सम्यक्त्वं सद्दावाती-शब्दपाती-हेमवते पर्वतः । ठाणा० ७१ । भवत्यारूपातं, तच्च श्रद्दधाति जीवादितत्त्वमनेनेति श्रद्धानं- सदिय-शब्दः-प्रसिद्धः स सञ्जातो यस्य तच्छन्दितः । सम्यक्त्वमोहनीयकर्माणुक्षयक्षयोपशम ोप)शमसमुत्थात्मप. ज्ञाता० ३ । रिणामरूपम् । उत्त० ५६३ । सदूल-शार्दूल:-व्याघ्रविशेषः ।प्रश्न० ७ । शार्दूल:-व्याघ्रः। सद्दहणकप्प-सट्ठाणसद्दहंतस्स । नि० चू० तृ. १४६ अ। जीवा० । २७२ । सद्दहणसुद्ध-श्रद्धानेन-तथेतिप्रत्ययसक्षणेन शुद्ध-निरवा सद्धल-सद्धबः भल्लः । प्रभ० २।। (अल्प० १३६) ( १०८१) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धा सद्धा-श्रद्धा- प्रवर्द्धमान्संयमस्थान कण्डकरूपा | आचा० २६३ I श्रवा ४३ । श्रद्धा-मनः प्रसादः । रुचिः । आव ० ३४१ । श्राद्ध पितृक्रिया । ज० प्र० १२३ । श्रद्धा-तत्वे सुश्रद्धानमा स्तिक्यं अनुष्ठानेषु वा निजोऽभिलाषः । ठाणा० ४१६ | श्रद्धा-वाञ्छा । उत्त० ३६१ । श्रद्धा - तस्वेषु श्रद्धानमास्तिक्य मित्यर्थः । ठाना० ४१६ | श्रद्धा-भक्तिः, भावना च । आव० ३४१ । श्रद्धा-निजोऽभिलाषः । आव० ७८७ । श्रद्धा श्रवणं प्रति वाञ्छा । सूर्य० २६६ । श्रद्धा-प्रधानगुणस्वीकरण रूपा । दश ० २३८ । श्रद्धा-विशुद्धश्चित्तपरिणामः । बाव० ८३७ । परिणामो । दश ० चू० १२७ । श्रद्धातत्करणाभिलाषरूपा । उत्त• ५७७ । श्रद्धा- तत्सङ्गमा भिलाषः । असम्प्राप्तकामस्य तृतीयो भेदः । दश० १९४ । श्रद्धा अभिखाषः । ज्ञाता० १६५ । सद्धादी - आत्मास्तित्ववादी । नि० चु० द्वि० १० अ । सद्भावप्रतिषेध-सर्वस्मातु सद्भावप्रतिषेधः । ठाणाο आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आब० २९० । सद्भावोद्भावनं । ठाणा० २९० ॥ सद्य - प्रगुणीभूतः सजः । जीवा० १६३ । सद्योविस्यन्दित-तत्कालनिष्पादितः । जीव० ३५५ । सधूम-सधूमं अङ्गारत्वमप्राप्तं ज्वलदिन्धनम् । पिण्ड ० १७६ । सधूमं निन्दा भोजनम् । पिण्ड० १७५ । सधूमम् । आचा० १३१ । सन-सन सूत्रम् । उत्त० ५७१ । सनखपद-चतुष्पदतियंञ्चे चतुर्थो भेदः । सम० १३५ । सनत्कुमार- विषयविपाके दृष्टान्तः । आचा० १२६ । सनत्कुमारः- कचिद्रोगसम्भवे विनष्टाङ्गे दृष्टान्तः । सूत्र० ८२ । सनत्कुमारः - वर्णात्स्त्वचच्छायातोऽपचीयध्वे दृष्टान्तः । सूत्र० २९४ । सनत्कुमारः - बसात वेदनीये दृष्टान्तः । खाचा० २०६ । सनत्कुमारचक्रवत्त । उत्त० ३७६ । सनाइपिड - स्वशातय:- स्वकीयस्वजमास्तै निजक इति यथे. प्सितो यः स्निग्धमधुरादिवराहारो दीयते सः स्वज्ञाति'पिण्डः । उस० ४३६ । सन्तः - प्राणिनः पदार्था मुनयो था । ठावा ४९० । [ सन्ना ! सन्त:- मुनय:- पदार्था वा । प्रज्ञा० ३१८ । सम्त:मुनय:- मूलोतरगुणाः विद्यमानाश्च । प्रज्ञा० २४७ । सन्तः मुनयो गुणः पदार्था वा । आव० ७६० । सन्दमाणिया- पुरुषप्रमाणो जम्पानविशेषः । जीवro २.२ । सन्दशकं । ठाणा ० ४०२ । सन्देशकः । आव० ८३५ । सन्द्रावो - द्रव्यसमूहः । नि० चू० प्र० २१ अ । सन्धुक्षणसमम् । नंदी० १६४ । सन्ध्या सन्ध्याकालः - नीलाद्यभ्र परिणतिरूपा I २८३ । जीवा ० सन्ध्याराग - वैश्रसिकराएः । आव० ३८७ । सन्ध्याविरागः - सन्ध्यारूपो विरूद्धस्तिमिररूपत्वाद्रागः । जीवा० २६६ । सन्न सुत्त-सञ्ज्ञासूत्रम् । बृ० प्र० २०१ अ । सन्नहनी - सन्नद्धाः - कृतवन्नाहाः । प्रश्न० ४७ । सन्नहिया-प्रतिहार्यम् । व्य० द्वि० २५९ । सन्ना-सञ्ज्ञान-सञ्ज्ञा-विषयाभिष्वङ्गजनितसुखेच्छा परिग्रहसा वा । आचा० १४५ | संज्ञा - चैतन्यम् ठाणा २७७ । सञ्ज्ञानं सञ्ज्ञा-व्यञ्जनावग्रहोंत्तरकालभावी मतिविशेषः, आहारभयाद्युपाधिका वा चेतना सञ्ज्ञा, अभिधानं वा सज्ञेति । ठाणा० २१ । सन्ना:- विषण्णा निमग्नाः । आचा० ११३ । सञ्ज्ञा-ईहापोहविमशंरूपा । सूत्र ३६७ । सञ्ज्ञा - परिभाषिकी । दश० ६६ | संज्ञा - अर्था वग्रहरूपं ज्ञानम् । भग० ५६ । सज्ञानं सञ्ज्ञा - पूर्वोपच धेऽर्थे तदुत्तरकाळपर्यालोचना । सूत्र० ३६८ । सञ्ज्ञानं सञ्ज्ञा-बाभोय इत्यर्थः, मनोविज्ञानमित्यन्ये सापडे वा ( १०८२ ) सन्न -निमग्नः । उत्त० २६१ । सन्नः - सुन्नकः खिन्नः ॥ प्रश्न० ६२ । सञ्ज्ञा । बाव० ४१८ | संज्ञानं संज्ञाअनुस्मरणं इदं तदिति ज्ञानम् । दश० १२५ । सन्नद्ध - सन्नद्धः सविहतिकया कृतसप्ताहः । भग० १९३ । सन्नद्धः- कृतसन्नाहः । ज्ञाता० २२१ । सन्नद्धः- सन्नहन्यादिना कृतसन्नाहः । प्रभ० ४७ । सन्नद्धः | आव० ३४४ । शरीरारोपणात् सत्रद्धः । राज० ११५ । सन्नवणा । ज्ञाता० ४९, १०१ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्नाइ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, मा० ५ [ सनिवेशन आहाराद्यर्थी जीवोऽनयेति सता वेदनायमोहनीयोदयाश्रया । सनिनाय-सनिनाद:-सबा इत्यादिषु समो भृशार्थस्यापि ज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रया व विचित्रा माहारादिप्राप्तये दर्शनादतिगाढध्वनी । उत्त० ४६० । क्रिय वेयर्थः । ठाणा ५०५ । सज्ञा-पुरीषोत्सर्ज- सन्निपातन-उत्तदर्थाभिधायकतया सानत्येन घटनाकरम् । बुद्धिः । ओप० १९७ । सज्मा-व्यावहारिकार्थावग्रहरुपा (?) । मतिः। भग० ७६३ । सज्ञान-सज्ञा -व्यञ्जनावग्रहोत्तर-- सन्निभूय-सज्ञिाञ्चेन्द्रियः सन् भूतः नारकत्वं गतः कालभावी मतिविशेषः । नंदी०१७ 1 देवादोनो यथा३- सजिभूतः प्रजा० ३३४ जिमा उत्पन्नः सन्जिभूतः। वत्परिज्ञानम् । वृ० द्वि० ५१ था । सजानं सज्ञा- प्रज्ञा० ५५७ । सब्जीभूता:-सज्जा-मिध्यादर्शनं तदन्ता भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनम्, सज्ञायते सम्यक सञ्जिन: सजनो भूताः सज्ञिस्बे मताः संज्ञोभूताः । भग परिच्छिद्यते पूर्वोपलब्धो वर्तमानो भावी च पदार्थों यया १२ । सज्ज्ञीभूतः पर्याप्तको भूतः । भग० ४२ । सशासा वा, विशिष्टा मनोवृत्तिरिति । प्रज्ञा० ५३३ । सज्ञा- सम्परमर्शनं सा यस्यास्तीति सज्ञो, स भूतः-यातःसम्यग्दर्शनम् । भग० ४२ । सज्ञानं सज्ञा-आभोग सज्ञित्वं प्राप्त इति सज्ञिभूतः । प्रज्ञा० ३३४ ।। इत्यर्थः, मनोविज्ञानमित्यन्ये, सज्ञायते वाऽनयेति सज्ञा-सन्निय-सज्ञिः सङ्केतितः । उत्त. ९८ । वेदनीयमोहनीयोदयाश्रया शानदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रया ! सन्निर-सन्निर-पत्रशाकम् । दश०१७६ । च विचित्राहारादिप्राप्तये क्रियेव । मा. ३१४ । सज्जा- सन्निरुद्ध-सन्नरुद्ध -अत्यन्तसंक्षिप्तः संक्षिप्तः । उत्त० प्रज्ञापनाया अष्टमं पदम् । प्रभ० ६ । सज्ञा-पुरीषम्। २८३ । पिण्ड० ८३ । सज्ञा-अन्तःकरणवृतिः । सूत्र. १२६ । सन्नि रोह-सन्निरोधः एकस्थानोपवेशनम् । बृ• तृ. ७ सज्ज्ञा-सम्यग्दर्शनम् । प्रज्ञा० ३३४ । सञ्जा-सज्ञानं, आ। थाभोगः, सञ्जायतेऽनयाऽयं वीवो वेति, उभयत्रापि सन्निवाइए-सन्निपातो-मेलकस्तेन निवृत्तः सक्षिपातिकः। वेदनीयमोहीदयाश्रिता ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयोपशम. ठाणा० ३७८ । सन्निरात:-औदयिकादिभावना तयादिश्रिता च विचित्राऽऽहारादि प्राप्ति किया। प्रज्ञा० २२२।। संयोगस्तेन निवृत्तः सानिपातिकः । भग० ६४६ । सन्नाइ-स्वज्ञाति:-अत्यन्तसुहृत् । उत्त० १३० । सन्निपातः-पूर्णिमानक्षत्रात अमावास्यायाम मावास्यान. सन्नाखंध-सज्ञास्कम्पः-सज्ञानिमित्तोझाहणात्मकः । क्षत्राच्च पूर्णिमामा नक्षत्रस्य नियमेन सम्बन्धः । जं. प्रभ० ३१ प्र.१३। सन्निरात:-अमावास्यापौर्णमासी । सूर्य० ९ सन्नाड-सञ्ज्ञाकुलः । आव० ३७० । सन्निवातिते-सन्निपात:-संयोगो द्वयोस्त्रयाणां वा पातो सहाभूमि-सञ्ज्ञाभूमिः । आव• २९१ । निदानमस्येति वातिकः । ठाणा० २६५ । सन्नायग-सज्ञातकः । आव० ४२२ । सन्निवाय-सन्निपातः-संयोपा । सूर्य• ५ । सन्निपात:सन्नायपल्लो-सज्ञातपल्लो स्वज्ञातीयस्थानम् । उत्त० १११।। मेलापकः । सूत्र. ३८६ । सन्निपातः-मेलका । ठाणा. सन्नासिद्धि-सज्ञासिद्धिा-संशासम्बन्धः । दश. ७१ ।। ३७८ । संन्निपातः-अपरारस्थानेम्पो जानानामेका मीनसजाहपट्ट । भग० ३२१ । नम् । मग. ४६३ । सन्निपात:-अपरापरस्थानेभ्यो सन्नाहियं-ज्ञाता० २१७ । जनानामेकत्र मीलनम् । औप० ५७ । सन्नि-सनी-श्रावकः । बृ० द्वि० ५१ था । सन्निवास । सूत्र० ३०९ । सन्निकास-सन्निकाशं-सदृशम् । ज्ञाता. २२२ । सन्निकाश:- | सन्निविट्ठ-सन्निवेसः पाटकः । राज० २। प्रकाशः । जीवा० २०७ । सन्निकाशः-समप्रभम् ।। सन्निवेश-नगरम् । प्रभ. ५९ । तथाविधप्राकृतलोकजीवा० २५. । निवासः । व्य. प्र. १६८ अ । सन्निधापनी-मुद्राविशेषः । जं० प्र० ११ । सन्निवेशन-सनिविष्टं पाटकः । ओप० २ । ( १०८३ ) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रिवेस ] आचार्यश्रीबानम्बसामरसूरिसङ्कलित: [सपडिच्छगपडिच्छगो सन्निवेस-सन्निवेश:-यात्रासमागतजनावासो जनसमागमो | संवतवर्गः । श्राव० १२० । स्वाक्षः-साधुसाध्वोवर्गः । वा । आचा. २८५ । सन्नवेश:-यत्र प्रभूतानां भाण्डानां । वृ. प्र. २१५ । स्वपक्ष:-पावस्थादिवर्गः । ६० प्रवेशः । आचा. ३२६ । स'नवेश-स्थानम् । बाचा. तृ० ५ बा । सञ्जता । नि० चू० प्र० २२७ बा । २३४ । सन्निवेश:-घोषादिः । अनु. १४२ । संनिवेश:- स्वपक्ष:-संयतः । ६० द्वि० ११४ । सावगादि । नि. यत्र प्रभूतानां माण्डानां प्रवेशः स । ठाणा. २९४ । चू० प्र०९ मा । स्वपक्षः । पिण्ड ६७ । सपक्षसभिवेश:-घोषप्रभृतिः । गोप० ७४ । सन्निवेस:-कटका. समाना: पक्षाः पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपा: पार्वा यस्मिन् दीनामावासः । ज्ञाता. १४० । भग. ६१२ । सन्नि दूरमुत्पतने तत् सपक्षम् । जीवा० ३९ । वेश:-नयाविषप्राकृतलोकनिवासः । राज. १४ । सपक्खजयणा । नि० चू० तृ. १२ बा । सन्निवेसवाह-। भग. १९९ । सपक्खि-पक्षाणां-दक्षिणवामादिपाश्र्वानां सहशता समता सन्निसन्न-सङ्गततया निषण्णः, सुखासीन इत्यर्थः । भग सपक्षमित्यव्ययीभावस्तेन समपाश्वतया समानोत्यर्थः । ३२४ । ठाणा० १२५ । सपाना: पक्षा:-पार्श दिशो यस्मिन् सन्निहिकाडं-सन्निधीकर्तु-सञ्चयोकर्तुम् । प्रभ० १५३ । । तत्सरक्षं, सहशा. पवैरिति सपक्षमित्यव्ययीभावो वेति । सन्निहि-घृतगुडादिस्थापनम् । भग० २०० । सन्निधीयते । ठाणा. २५१ । समाः सर्वे पक्षा:-पाः पूर्वापरदक्षिनरकदिष्वात्माऽनयेति सन्निधिः । दश. १९८। सन्निधि:- णोत्तरा यत्र स्थाने तत्सपक्षम् । भय० १६७ । सपक्षंसम्यग-एकोभावेन निधीयते-निक्षिप्यतेऽनेनाऽऽत्मा नरका- समान दिग् । भग० ५७६ । समानाः पक्षा-पूर्वापरद. दिग्विति । सन्निधिः-प्रातरिदं भवष्यतीत्याभिसन्धितोऽ. क्षिणोत्तररूपाः पार्धा यस्मिन दूरमुत्पतने तत् सपक्षम् । तिरिक्ताशनादिस्थापनम् । उत्त०२६९ । प्रज्ञा० १०५ । स्वपक्षम् । अन्त० २१ । सह पक्षरिति संन्निहित-अप्रोषितः । विश. १०६५ । सपक्षं सर्वेषु पक्षेषु पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपेष्वित्यर्थः । सूर्य घ-संनिहितं-सानिध्यम् । भग ६५३ । २६. । सन्निहियपाडिहेर-सन्निहितप्रातिहार्यः । आव० ६२ । सपगास-सप्रकाशं सूत्रस्पशिकनियुक्तिसहितम् । ६० दि० सन्निडिया-सन्निहिता देवताऽधिष्ठिता । आव० ७५८ । १४५ अ । सन्नी-प्रज्ञापनाया एकत्रिंशत्तमं पदम् । प्रज्ञा० ६। सजो-सपञ्च वाय-सप्रत्यपाय-व्याधादिप्रत्यपायबहुलम् । आव० अवधिज्ञानी, जातिस्मरः, सामान्यतो विशिष्टमनः ३८४ । पाटवोपेतो वा । प्रज्ञा० २५३ । सज्ञी विशिष्टाव- सपन्नवाया-सप्रत्यपाया सम्भाव्यमानापाया पिण्ड० १५८ धिज्ञानी। प्रज्ञा० ३०४ । सजिनी । आव० ३५८ । सपच्छाग-सपटलम् । ओप० १७५ ।। सजी-विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाक । प्रज्ञा० सपच्छागा-सड वाहाया निषाद्यया हस्तप्रमाणया भवति । ५३३ । सऊजी-सिद्धपुत्रः । व्य० प्र.२०. अ। सज्ञा- बोध, २१७ । देव गुरुधर्मतत्त्वानां य. वत्परिज्ञानं सा विधते यस्य सः सपजाय-स्वपर्यायः । भग० ३६३ । संज्ञो-श्रावकः । बृ० द्वि० ५१ मा । भावकः । बृ० सपञ्जाया-स्वपर्याया-जे लभइ केवलो से सवन्नमहिनो व सृ. ७८ आ । पजबेऽपारी ते तस्स सपज्जाया । अन्यवर्णसंयुक्तो वाऽकारो सन्नीनाण-सज्ञिज्ञान-सम्यग्दृशः स्मृतिरूपमतिभेदात्म- लभतेऽनुभवति ते तस्य स्वपयार्याः । विशे० २६२ । कम् । उत्त० ४५२ । सपडाय-सलघुध्वजः । ज० प्र० ३७ । . सन्नोभूय-सज्ञीभूत: पर्याप्तकीभूतः । प्रज्ञा० ३३४ । सपडिच्छग-तेणस्स वा जो पडिच्छति । नि० चू• द्वि. सम्मग्ननासिकः । आचा. १.६ । ४५ अ। सपक्ख-समानपक्षं-समपार्श्वम् । सम० ५९ । स्वपक्षः- ! सपडिच्छगपडिच्छगो-पडिच्छगस्स जो पुणो अश्नो पहि (१०८४ ) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ सप्पसुगंधा सूत्र० ३२५ । सह पूर्वं यस्य येन वा सपूर्व, तथ्य तदपरं च सपूर्वापर:- पूर्वापरसमुदाय: । जीब० २९० । पूर्वापर समुदायः । ज० प्र० ६० सह पूर्वेण यदपरं तत् सपूर्वापरं सङ्ख्यानम् । ज० प्र० ७४ । पूर्वं चापरं च पूर्वापरं सह तद् येन सः सपूर्वापरः । जीवा० १३७ । सह पूर्वेणेति सपूर्व सपूर्व च अपरं च सपूर्वापरं पूर्वापरमीलनम् । सूर्य० २६७ । सपूर्वापरं सङ्ख्यानम् । जीवा० २१५ । तत् स प्रतिदिक् । सपेल्लोप्पेल उपर्युपरि पातम् । प० ७३-३० । सपेहा - स्वप्रेक्षा - स्वेच्छा चक्षुःपक्ष्मनिपातः । भग० १६४ । अन्त० २१ । अन्त० १४ । जीवा ० ३९१ । स पडिवक्ख सप्रतिपक्षम् । ठाणा० १८४ । सप्रतिपक्षः- सपेहाए- सम्प्रेक्ष्य पर्यालोच्य । खाचा० १०७ ॥ सम्प्रेक्ष्य, सापवादः । बोध १४७ । सम्यगालोच्य । उत्त० २८१ | सम्प्रेक्षथा - सम्यम् बुद्धघा स्वप्रेक्षया था । उत्त० २६४ । स पडिदिसं ] च्छाति । नि० द्वि० ० ४५ अ । सबडिवि सं स प्रतिदिक-समानविदिक् । भग० ५७६ । समाना:- प्रतिदिशो विदिशो यस्मिंस्तत्स प्रतिदिक् । ठाणा० २५१ । समानाः प्रतिदिशो - विदिशो यत्र तत् संप्रतिदिक् । प्रज्ञा० १०५ । प्रतिदिशां विदिशां सप्रतिदिक् । ठाणा० १२५ । समाः सर्वाः प्रतिदिशो यत्र तत् सप्रतिदिक् । भग० १६७ । सप्रतिदिक् । समान प्रतिक्तिया अत्यर्थमभिमुखादिक् । समानाः प्रतिदियो-विदिशो यत्र सपथं पारंचियं । नि० ० प्र० ३९ आा । सपरक्कुमो-जो भिक्यवियारं अनं गामं वा गंतुं समत्यो । सप्तधातु - रसासुग्मांसमेदोऽस्थिमज्जा शुक्रलक्षणः । प्रज्ञा नि० चु० द्वि० ५३ छ । सपरिच्छिन्नः - परिवारोपेतः । व्य० द्वि० ८८ । सपरियार - सपरिचाय:- परिचारणासहितः । प्रज्ञा० २४८ । सपर्या पूजा । आव० ६४० । सपांसुलिग - सपार्श्वाथी । प्रश्न० ५७ । सपाउया स्वकीयपादुका । भग० ४७९ । सपाहुडिया-ठावणलेवणादिकरणं । नि० चू० प्र० २३० मा । सपिंड रस - सपिण्डस्सं अतीवरसाधिकं खर्जूरादि । पिण्ड० १६८ । सविधपलीयं- सपिप्पलीकं व्यपरसंस्कारकद्रव्यसमन्वितम् । सूत्र० ३६६ । सपिराभवत्व लब्धिवेशषः । ठाणा ० ३३२ । स. पल्लिय सशिशुः । उक्त० १२१ । सपिल्लय - सह पिसल्लयेन -पिशाचेन वर्त्तत इति सपिसल्लयः । प्रश्न० २५ । समुख सरपूज्य:- सन पूजा: । सती वा पूजा यस्य सः । उत्त० २५३ । सपुरोहड - प्रायोग्य विचारभूमिकम् । बृ० द्वि० १५१ आ । सवावर - सपूर्वावरं सह पूर्वेण - पूर्वाह्नकर्त्तव्येनापरेण च अपरात्तव्येन पूर्वं यत्क्रियते स्नानादिक तथा परं च यत्क्रियते विलेन भोजनादिकं तेन सह वर्तत इति । २५ । सप्तशतार - एतदभिधान नयचक्राध्ययनम् । उत्त० ६८ । सप्प - सर्पः इति यथोऽसावेकदृष्टिर्भवत्येवं गोचारयतेन संयमैकदृष्टिता भवितव्यमित्यर्थ सूचकत्वादिति, अथवा यथा द्रागस्पृशन् सर्पो बिलं प्रविशत्येवं साधुनाऽप्यनास्वादयता भोक्तव्यमिति साघोहरमानम् । दश० १८ । सर्प:- सर्पप्रधाना विद्या । आव० ३१५ । सप्पएसं सप्रदेश, प्रदेशो निकरः, शुद्धपुगलसमुह्मयः । ६६६ । आव सप्प एसो - नियत देशाभिग्रहः । मर० २० । सपना वग- सर्वक्रीडक: । आव० ५३५ । "सप्पगती - गुंजालिया । नि चु० द्वि० ७० आ । सप्पण्यं सप्रणयम् । (?) । सत्यभ- सप्रभं स्वरूपतः प्रभावत् । प्रज्ञा० ८७ । सप्रभंस्वरूपतः प्रभावान् । जीवा० १६१ । सभा-त्रयोदशमतो कृशाबिका | सम० १५१ । स्वरूपतः प्रभावती सप्रभा । ज० प्र० २१ । सप्रभा-देवानन्दकत्वादिप्रभावयुक्ताः, अथवा स्वेन आत्मना प्रभावित न परत इति स्वप्रभाः । ठाणा० २३२ । सप्पल र सप्रसरं - अनेकधा स्फारयनु । दश० ४४ । सप्पसुगंधा- बोजरुहावनस्पतिविशेषः । मप० ८०४ । ( १०८५ ) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्पसुधंधा ] प्राचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [सम्मान सप्पसुघंधा-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा माइट्ठाणाई तिन्नि करेमाणे १३। पाणाइवायट्टि कुवते १४ मुसं वयंते १५ य ॥४।। गिण्हते य अदिन्नं १६ सप्पह-सप्रमां सप्रभावां, अथवा स्वेन-आत्मना प्रमाति आउट्टि तह अणंतरहियाए । पुढची य ठाणासेज्जं निसीशोभते प्रकाशते वेति स्वप्रमम् । सम० १३८ । हियं वावि चेतेइ ॥५।। एवं ससणिद्वाए ससरक्वाचित्त. सप्पहासो-अतीवसहासो । दश. चू० १२५ । मंतसिललेलु । कोलावासपइदा कोल घुणा ते स आवासो सप्पि-सी पीठसपी,सपाणिगृहीतकाष्ठः सर्पतीति । प्रश्न. ॥६॥ संडस गणसी मो. जाव उसंताणए भवे तहियं । ठाणा चेयमाणो सबले भाउट्टियाए १७ उ ॥७॥ आउट सपिआसप-सपिराश्रवः बन्धिविशेषः । औप०२८ । १८ मूलक पुप्पो य फने य बीयहरिए च । भंते सप्पिवास-सपिपासम् । आव. १८९ । सबलेए तहेव संवच्छरस्संतो ।।८।। दस १९ दगलेवे कुन्द सपिबासा । नि० चू. द्वि० १३१ ब । तहमाइट्टण दस य वरिसतो । २० आउट्टिय सो उदगं सप्पिसलग-सप्पिसल्लक:-यः सह पिसल केन पिशाचकेन वग्धारियहस्थ मत्ते य | दमोह भायणेण व दीयंतं वर्तते सः, ग्रहगृहीत इति । प्रभ० १६२ । भत्तपाण घेत्तूणं । मुंजइ २१ सबलो एसो इगवीसो सप्पुरिस-किंपुरुषेन्द्रः । ठाणा० ५५ । गान्धर्वेन्द्रविशेषः । होइ नायवो ॥१०॥" आव० ६५५ । सबल:-नरके जीवा. १७४ । सत्पुरुषः दक्षिणनिकाये षष्ठो व्यन्तरेन्द्रः । चतुर्थः परमाधार्मिकः । आव. ६५० । सबल:-चतुर्थः भग० १५८ । परमाधामिकः । सूत्र. १२४ । सबल:-पञ्चदश पर. सफा-वनस्पतिविशेषः । भग. ८०४ । माधामिकेषु चतुर्थः । उत्त. ६१४ । सबल:-सदंष्ट्रदेव. सफाए-कुहणविशेषः । प्रशा३३ ।। कृतोपसर्गनिवारकः । आव० १६६ । शब्बलः-भल्लः । सफुसिए-प्रवृतप्रवर्षणविन्दुः । ज्ञाता० १४ । प्रभ० ४८ । 'सबलेति चावरे' त्ति शबल इति चापर: मोदकबिन्दु। । भप. ४६० । परमाधामिक इति प्रक्रमः स चान्त्रवसाहृदयकालेयका. सफेणगावत्त-आवर्तने फेनविनिर्गमो भवति सफेनकावत्तः। दीन्युत्पाटयति वर्णत्तश्च शबला कर्पुर इत्यर्थः । सम० राज. ४९। २९ । शबलं-कर्बुर चारित्रं यः क्रियाविशेषेण भवति स सबर-शबरा बनायविशेषः । भय० १७०। वनचरकः । शबलस्तद्योगात्सुधुरपि । सम• ३६ । शबल:-करकर्मप्रभ०१५। शबर-म्लेच्छविशेषः। प्रभ४ म्लेच्छ- करणादिकः क्रियाविशेषः। आव०६५५ । चित्तविचित् । विशेषः । प्रज्ञा० ५५ । नि. चू• तृ० ५१ था । शबलं-कर्षरं, द्रव्यतः पटादि. सबरनिबंसणियं-शबरनिवसनक-तमाल भावतः सातिचारं चारित्रम् । ठाणा० ५११ । शबला१४२। चित्तलः । थोघ० २११ । शवल:-क्रियाविशेषः । उत्त.. सबरी-शबरी:-धात्रिविशेषः। ज्ञाता०३७ । भग० ४६० । शबरी-धात्रिविशेषः । ज्ञाता. ४१ । सबलत्त-शबलवं-श्वित्रपक्षणं सहजम् । आचा० १२० । सबल-करकर्मकरणादि,शबलभेदा: २१ । "तंजह उ हत्थ- | सबलीकरणं-शबलीकरणम् । ओष. २२५ । कम्म कूवते १ मेहुणं च सेवंते २। राइंच जमाणे | सम्भाव-सतां भावः सद्भाव:-जीवादिस्वरुपम् । आव. ३ आहाकम्मं च भुजंते ४ ॥१॥ तत्तो य रायपिंड ५२७ । सद्धाव:-परमार्थः । दश० ७६ । सद्भावः । कीयं ६ पामिच्च ७ अभिहडं छज्जं जंते सबले दश० ४२ । सद्भावः । बाव, २१३ । सतो भाव; ऊ पच्चक्खियऽभिक्खभंजइ १०थ॥२॥ छम्मासम्भतरो सद्भाव तथ्यः । बाव. ७६७ । सद्भावः । आव. गणागणं संकम करेंते ११ य । मासभंतरतिणि य ३५७ । सद्भावः-तत्वं सम्यग्दर्शनम् । बोध० ४७ । दगलेवा ऊ करेमाणो १२ ॥३।। मासब्भतरो वा तद्धावः तत्त्वं, सम्यग्दर्शनम् । ओघ. ४७ । (१०८६) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ५ भावहिंतर ] [ समंज रोपल्लवपुष्पचित्त सब्भाव गिहंतर - सद्भावगृहान्तरं गृहद्वयमध्यम् । वृ० तृ० २३ आ । सब्भावठवणा-यत्र पुनस्त एवाक्षास्त्रिप्रभृत एकत्र स्वाध्यन्ते तद सद्भावस्थापना | ओ० ११६ | सम्भावदंसण-सद्भावदर्शनम् । विशे० ६४१ सब्भावदायणा-सद्भावश्यणा । बोध० २२५ । सब्भावपचक्खाण- सद्भावेन सबंधा पुनः करणासम्भवात्पदमार्थेन प्रत्याख्यानं सद्भावप्रत्याख्यानं सर्वसंवररूपा शैलेशीति । उत्त० ५८१ । सब्भावपयत्थ- सद्भावेन परमार्थेनानुपचा रेणेत्यर्थः पदार्थावस्तूनि सद्भावपदार्थ: । ठाणा • ४४६ । सम्भावलावओ - सद्भावश्रावकः । भव० ८१३ । -सम्भाविय - साद्भाविकः - पारमार्थिकः निरुपचरितोऽर्थः आव० ३८९ । आगमनगृहम् | ठाणा० १५७ । समामहाजनस्थानम् । प्रभ० १२६ । भगवत्यां दशमशत के सुधसभा प्रतिपादको षष्ठोदेशकः । भग० ४९२ । सभाजनोपवेशनस्थानम् । ज्ञाता० ७६ । कोष्टकसभा । ओप● ८२ । ग्रामजनमभवायस्थानम् । व्य० द्वि ३६२ आ । सभा-पुस्तकवाचन भूमि र्बहुजन समागमस्थानं वा । अनु० १५९ | ग्रामप्रधानानां नगरप्रधानानां यथासुखमवस्थानहेतुमंण्डपिका । राज० २३ । बहुजनोपवेशनस्थानं शाळा वा । बृ० द्वि० १०७ आ । सभ्यस्थानम् । नि० चू० द्वि, ६९ आ । भग० ६१७ । एकत्रोपविष्टपुरुष समुदायः ॥ बृ० प्र० १२४ मा प्रतिभवनविमान भाविनी सुधर्मसभादिका । प्रश्न० १३५ । सभाओवासा - सभावकाशा | छाव० ६३ । अहिंसादिः । दश० ६३ । सभिंतर बाहिर सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः तावन्मण्डलेषु समाव-स्वो भावः-स्वभावः । भाव० ५९२ । सहजभावः । वि० ० प्र० ५४ था । सङ्क्रमणं यावत् सर्वबाह्यं मण्डलं सर्वबाह्याचच मण्डला- | सभावहीणं-स्वभावहीनं यद्वस्तुनः स्वभावतोऽन्यथा वचदर्वा तावन्मण्डलेषु सङ्क्रमणं यावतु सर्वाभ्यन्तरमिति नम् । सूत्रे एकोनविंशतितमो दोषः । छाव० ३७४ । साभ्यन्तरबाह्यम् । सूर्य० २७६ । सभाविय स्वस्मिनु भावे भवः स्वभाविकः । सूत्र० ७ । सब्भिंतर बाहिरियं - सहाभ्यन्तरेण मध्यभागेत बाहिरिकया सभिक्खु-उत्तराध्ययनेषु पञ्चदशममध्ययनम् । उत्त० ९ । च प्राकाराद्वहिनिंगरदेशेन या सा । ज्ञाता० १०१ । सभिक्खुगं - उत्तराध्ययनेषु पञ्चदशममध्ययनम् । सम० सम्भूत - सद्भतः - सत्ता प्रकारेण भूतः यतः सद्भूतः । ज्ञाता. १७५ । ६४ । सभिन्न श्रोतृत्व - युगपत्सर्वं शब्द श्रावितेत्यर्थः । ऋद्धिविशेषः ॥ ठाणा० ३३२ । . ६८६ । सभूयं - समीपे भूमौ । माव० ३६८ । सब्भूयमसम्भूय - सद्द्भुते - परमाणौ असद्भूतं - अर्धादि १, असद्भूते - सर्वगात्मनि सद्भूतं चैतन्यं २, सद्भूते पर सभूमिभाग - शतद्वारानगरस्य वायव्यकोणे उद्यानम् । म० माणी सद्भूतं निष्प्रदेशस्वं ३, असद्भूते सर्वगात्मनि असभूतं कर्तृस्वमिति ४, सद्भूतमसद्द्भुतम् । भग० १०५ । समए - नास्तिकादिसमयप्रतिपादनपरमध्ययनं समयः सूत्र कृतांगे प्रथममध्ययनम् । सन० ३१ । जीवतस्स वि रणो बोहिहि समंततो अभिदुयं जं जच्चिरं समयं । नि० चू. तृ० ७१ अ । | सभोइआ - स्वाधीनभर्तृका । वृ० द्वि० ५७ मा । समं यत्र लुठनं न भवति । बोध० १२२ । तालवंशस्वरादिसमानुगतम् । ज० प्र० ४० । पूर्णम् । सूर्य १०४ । तालवंशस्वरादिसमनुगतं सम्मम् । ठाणा. ३१६ । समं पादैरक्षरैश्च समम् । ठाणा० ३६७ । परिपूर्ण: जीवा० ३२२ । सभणय - अचलपुरीयः कौटुम्बिकः । मर० । सभयं - चोराकूलेत्यर्थः । नि० ० प्र० ४६ छ । सभा स्थानम् । आचा० ४१३ । अस्थायिका | भग० ४८३ | सभा | भग० २३७ | भारतादिकथावि नोदेन यत्र छोकस्तिष्ठति सा सभा | अनु० २४ । समंजरो पल्लवपुष्प चित्त - सह भारोभिः प्रतीताभिः पल्ल वैश्व-कियेर्यानि पुष्णानि - कुसुमानि सेवित्रः - कर्बुर४ मञ्जरीवपुष्पाचित्रः । उत्त० ३०० । सभा । ( १०८७ ) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समंत ] ३२३ । २२१|| समंतओ - समन्ततः- सर्वासु विदिषु । प्रज्ञा० ३५६ । समन्ततः सर्वासु विदिक्षु । प्रज्ञा० ३५६ । विदिक्षु । जीवा० । १०१ । समन्ततः । आव ० २१६ । समंता- समन्ततः- सामरस्येन । जीवा० ३२७ । बिदिक्षु । ओप० ६ सर्वात्मप्रदेशेषु सर्वेषु वा विशुद्धस्याथं केषु । नंदी० ८५ । विविक्षु । विपा० ५० । समंतो- समन्ततः- सामस्त्येन । जं० प्र० ५६ । सम-यत्र चतुर्ष्वपि पादेषु समान्यक्षराणि । ठाणा० ३६७ । स्थूल - न्यायमाश्रित्य विशन्मुहुर्त भोग्यं क्षत्रम् ठाणा० ३६८ । समः - मध्यस्थः - आत्मानमिव परं पश्यतीत्यर्थः । आव० ३२९ । रागादिरहितः । ठाणा० ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो मोक्षमार्गः । धाचा० सम: - बागद्वेषविरहितः । रागद्वेषवियुक्तः । आव ० ८३१ । उत्त० ५६७ । समं सर्वम् । मग० ८३ । समश्रेण्या समम् । सुर्य० २६१ : जस्स चक्कागारो भंगो समो । नि० चू० द्वि० ५४१ अ । समः यागद्वेषवियुक्तः । आव ० ८३१ । समः रागद्वेषविरक्तः । उत्त० ५६७ । समं त्रिविधे पद्ये प्रथमम् । दश० ८८ । सप्तसागरोपमस्थिक देवविमानम् । सम० १३ । समं तालवंशस्वरादिस म. नुक्तम् । अनु० १३२ । रागद्वेषान्त बालवर्ती सम:मध्यस्था | आव० ३६४ । समः - रागद्वेषविरहितः । विशे० ५५४, ६१३ । श्रमः - अध्वादिखेद। । ठाणा० १३ । समं - अनुकूलम् । सूत्र० ६५ । समं - तालवंशस्वयादिस मनुगतम् । जीवा० १९४ । समाः - वर्षाणि । जं० प्र० ८६ । समः - सर्वः । भग० १६७ । समइच्छिमारणे - समतिक्रामनु । भग० ४८३ । समय - सम्यग् - दयापूर्वकं जीवेषु गमने समयः सोऽस्यास्तीति समयिकम् । आव० ३६४ । समए - समय: - अवसरः । सूर्य ० २६४ । समयः - चरक. भिक्षुपण्डुरङ्गणां सिद्धान्तः । तृतीयः कुङङ्गः । आव० ८५६ । समयः - परमनिरुद्धकालः । ठाणा २४ । समय:- क्षणः । भग० २११ । समयः - कालः कर्म लघुता. समयः । आव० ४४१ । समय:- अवसरवाची । जं० प्र० १३ । समओ - समय: - अवसरः । सूर्य ० १ । समयः सम्यययनं - आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ समचउरंस परिणतिविशेषः स्वभाव इति । सूत्र० ११ । समय सूत्रकता ङ्गस्य प्रथममध्ययनम् । उत्त० ६१४ । समग:सङ्केतः । दश० ४२ । समय:- सम्यगयनं मुक्तमानें प्रवर्तनं यस्मात् तत् समयः सामयिकमेवोच्यते । विशे० ६१३ । समकडग-समकटर्क- नगरम् । उत० ३७९ । समकरण - माध्यस्थपरिणामः । उत्त० ११५ । समक्खित्त - समाख्यातः- निर्धारितः । बव० ३१० । समखित्त - यवत् प्रमाण क्षेत्रमहोरात्रेण गम्यते नक्षत्रस्तावरक्षेत्रप्रमाणं चन्द्रेण 'सह' योगं वद् गच्छति तत्तत्क्षेत्र समक्षेत्रम् । सूर्य १७७ । समखेत - त्रिशन्मुहूर्त भोग्यं तदानक्षत्रं । बृ० तृ० १४८ । आ । समक्षेत्रम् । आव ० ६३४ । समक्षेत्रां समं स्थूल. न्यायमाश्रित्य त्रिशम्मुहूर्तभोग्यं क्षेत्रं •आकाशदेशलक्षणं यस्य तत् । ठाणा० ३६८ । समगं - समकं एककालमेव । सूर्य० १७२ । समकम् । ओघ० १४९ । समगा । वि० ० द्वि० ६१ आ । समग्ग- समग्र युक्तः - गीतार्थः । बोध • २२२ । समग्रत्वं अहोनधन परिवारतया । ज्ञाता० १३२ । समग्रं द्रव्य. भाण्डोपकरणादि । सूर्य० २९२ । समग्गा- समग्रा - सहिता । जं० प्र० ३४८ । समग्रासम्पूर्णा - आपूर्यमाणा । जं० प्र० २६३ । समग्घो - समर्थः अल्पार्थः । उत्त० २०६ । समकोण से दिय- समचतुष्कोणसंस्थितः । सूर्य ० ६९ । समचउरंस - समचतुरस्त्र समं नाभेदारि अवश्व सकलपुर लक्षणोपेतावयवतया तुल्पं तच्च तच्चतुरस्त्र च-प्रधानं समचतुरस्रम् । समाः - शरीरलक्षणोक्त प्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयः यस्य तत् समवतुरस्रम् । भय० ११ । समाः शरीरलक्षणशास्त्रोक्त प्रमाणाविस वादिन्यश्श्र्चतस्रोऽस्रयःचतुर्दिवमागोपलक्षिताः शरीरावयवा यस्प स समाअन्यूनाविकाश्चतस्रोऽप्यस्रयो यस्येति पूर्ववत् । जं० प्र० १५ । समं तुल्यं अषःकायोपरिकाययोर्लक्षणोपपेततया तच्च तच्चतुरस्रमिव चतुरस्रं च प्रधानलक्षणोपपेततयैव समचतुरस्रम् । औप० १६ । समाः शयीरलक्षणशास्त्रोक्त. (8055) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समउरससंठिया ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [समण D प्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयो पस्प तत् समचतुरस्रम्।। पन्तरं बासनस्य ललाटोपरिमायस्य चान्तरं दक्षिणस्कसमा:-अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यस्रयो यत्र तत् । विस्ता- घस्य वामजानुनश्चान्तरं वामस्कन्धस्य दक्षिण जानुनश्चान्त. रोत्सेधयोः समत्वात् समचतुरस्रम् । सूर्य० ४। समा:- रमिति, अन्ये त्वाः-विस्तारोत्सेधयो। समत्वात्समचतु. शास्त्रोक्तलक्षणाविसंवादिन्यश्चतुदिग्वतिनः अवयवरुपाश्चत रस्र तच्च तत संस्थानं च आकारः समचतुरस्रसंस्थानम् । स्रोऽस्रयो यत्र तत् समचतुरस्र स्थानम् । अनु० १०१ भग० ११ । तुल्यारोहपरिणाहं . सम्पूर्णोङ्गावयवं स्वागुल्याऽष्टशतो- समचक्कवालसंठिय-समचक्रवालसस्थितः-चन्द्रादिविमान च्छ्रयं समचतुरस्र, चतुरस्रत्वात्तस्य चतुरस्रम् । भग० नरूपाणां संस्थाने एको विकल्पः । सुर्य० ३६ । ६४९। समा:-शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाविसंवादिभ्यश्चतस्रोऽ- समचित्त-समचितः रागद्वेषरहितचित्तः । दश० ७९ । स्रयो यस्य तत् समचतुरस्रम् । ठाणा० ३५७ । सम- समच्छेय-समच्छेदः । आव० ६४५ । चतुरस्र-तुल्यं संस्थानविशेषः । आद० ३३७ । समा:- समजाल-समज्जाल:-पिठरोपरिगामि ज्यालाकलापोऽग्निः, शरीरलमणःशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिभ्यश्च स्रोऽस्र यो यस्य वोः षष्ठो भेदः । पिण्ड० ११२ । तत् समचतुरन, अस्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः समजोउझय-समा ज्योतिषा अग्निना भूतः समज्योतिशरीरावयवा द्रष्टव्याः, अश्ये स्वाहुः समा-अन्यूनाधिका- भूतः । भग० १६६ । श्चतस्रोऽप्यस्रयो यत्र तत् समचतुरस्रम् । राज० ५६ । समजिणेसु-समजितवन्तः-पहीतवन्तः। भग• ६३९ । विस्तारोस्से घयोः समत्वात् समचतुरस्रम् । राज• ५७ । समढ-समर्थः-उपपन्नः । प्रज्ञा०५९९ । समर्थः-उपपन्नः । उच्छपपरिधिभ्यो तुल्यम् । ६० द्वि० २४४ आ। समाः ! सूर्य० २६७ । ज्ञाता० ६२ । सामुद्रिकशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिग्यश्चतस्रोऽस्रयः चतुर्दि- समण-यथा मम न प्रियं दुःखं प्रतिकूलस्वाद, ज्ञात्वै वमेव ग्विभापोपलक्षताः शरीरावयवा यत्र तत् समचतुरस्त्रम् । सर्वजीवानां दुःखप्रतिकूलस्वम्,न हन्ति स्वयं न घातयत्यन्य। जीवा० ४२ । च शब्दाद् धनन्तं नानुमन्यतेऽन्यम्, इत्यनेन प्रकारेण समचउरससंठिया-समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थिती समम्, पति-तुल्यं पच्छति यस्तेनासौ श्रमणः । दक्ष. एका प्रतिपत्तिः। सूर्य० ६६ । ५३ । श्रमणः-सर्वजीवेसु समत्वेन सममणतीति समणः । समचतुरंसच-समचतुरस्रवं उर्वकायाधःकाययोः समन- अनु० २५६ । भमणः-साधुः । राज० १२५ । धमण:स्वस्वलक्षणतया तुल्यत्वम् । प्रभ० ८२ । विङ्गमात्रधारी । ओप० ७५ । श्रमणः-तपोयुक्तः । समचतुरंससंठाणं-समचतुरस्र संस्थानं, चन्द्रादिविमानरू. ठाणा० ५२१ । श्रमणं-शाक्याजीवकारिवाट्तापसनिम्र, पाणं संस्थाने विकल्पः । सुर्य० ३६ । यदुदयादसुमतां न्थानां अन्यतमम् । आचा० ३१४ । समं मनोऽस्येति समचतुरस्रसंस्थानमुपजायते तत् समचतुरस्रसंस्थानम् ।। श्रमण:-निर्ग्रन्थः । उत्त० ५२८ । श्राभ्यतीति श्रमण:प्रज्ञा० ४७२ । मानोन्मानप्रमाणानि अन्यूनान्यनतिरिक्तानि तपस्वी । आचा०४०३ । श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः, आङ्गोपाङ्गानि च यस्मिन् शरीरसंस्थाने तत् समचतुरस्र. इदं चाम्तिमजिनस्य सह सम्पन्नं नामान्तरमेव । संस्थानम् । सम० १५० । सम-नाभेरुपरि अधश्च सम० २ । श्रमणः-श्रामण्यमनुचरता धर्मकायावस्थामा. सकलपुरुषलक्षणोपेतावयवतया तुल्यं तच्च तच्चतुरस्र' च स्थितः । उत्त० ५७१ । श्रमण:-शक्यादिः । ठाणा. प्रधानं समचतुरस्रम्, अथवा समा:-शरीरलक्षणोक्तप्रमा. ३१२ । धाम्यति-तपस्यतीति श्रमणः, सह मनसा शोभगाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयो यस्य तत् समचतुरस्रम् । नेन-निदानपरिणामकक्षपापरहितेन च तपसा वर्तत इति अस्रयस्त्विह चतुर्दिगविभागोपलक्षिताः शरीरावयवा। समनसः, समान-स्वजनपरजनादिषु तुल्यं मनो यस्य स इति, अन्येत्वाहः-समा:-अन्यूनाधिकाः तस्रोऽप्यस्रयो समनसः । समिति समतया शत्रुमित्रादिष्वणति-प्रवर्तत यत्र तत्समचतुरस्रम्, अस्रयश्च पलडासनोपविष्टस्य जानुनो- इति समणः । ठाणा०२८२ । श्रमण:-श्राम्यति-मुक्त्यर्थ • (अल्प० १३७) (१०८६ ) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समण ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ समणवणीमत %3 खिद्यत इति साधुः । उत्त० २९२ । श्रमण:-शाक्यादिः। दश० ८३ । श्रमणः तपसि । आचा० ३.७ । महावीर. पोष. २२३ । श्रमणः-पाखण्डिकः । आचा० १८५ । विभो म । आचा. ४२२ । श्रमणः- यथोक्तकारी । शमनं- औषधम् । व्य० प्र. प्र.६१ अ । श्रपण:- सूत्र. ४२५ । श्रमण:-परिव्राजकविशेषः । सूत्र. ३ । श्राम्यति-तपस्यति इति श्रमणः, प्रव्रज्यादिवसादारभ्य | श्रमण:-उरगसम:-परकृतविलनिवासिस्वादाहारानास्वादसकलसावद्ययोगविरती गुरूपदेशादन शनादियथाशक्त्याss नात्संयमकदृष्ठित्वाच्च, गिरिसमः-परिसहपवनः कम्प्यत्व त, प्राणोपरमात्तपश्चरति । दश० २३ । श्राम्यतीति श्रनण: ज्वलन समः-तपस्तेजः प्रधानत्वात् तृणादिष्विव सूत्रार्थेष्व. सममना वा । मूत्र. २९८ । श्रमण:-निग्रंथादिः । तृप्तिः, एषणायःशनादौ चाविशेषप्रवृत्तरिति, सागरसमो सूत्र. ३९। समिति-ममतया शत्रुपित्रादिष्वणति प्रवतंत गम्भीरत्वाज्ज्ञानादिरस्नाकरत्वात् स्वमर्यादानतिकम च्च, इति समणः । श्रमयति-तपस्यतीति श्रमणः । सह मनपा नभस्तलसमः सर्वत्र निरालम्बनत्वात्, तरुणसप:-अप. शोभतेन निदानपरिणामलक्षणापरहितेन च चेतसा वर्तत वर्गफलाथिसत्वशकुनालथत्वात् वासीचन्दनकरूपत्वाच्च, इति समना, तथा समान-स्वजनपरजनावूि तुल्यं मनो भ्रमरसमः-अनियतवृत्तित्वात, मृगसम-संसारभयोद्विग्न. यस्य स समना । ठाणा० २८२ । श्रपयि-तपसा खिद्यत स्वात, धरणिसम:-सर्वस्वेदसहिष्णुत्वात्, जलरूहसमा इतिकृत्वा श्रमणः । समं तुल्यं मित्रादिणु मन:-अत:- कामभोगोद्भवत्वेऽपि पङ्कजलाम्यामिव तदूर्ववृत्तः, रविकरणं यस्य स समनाः सवत्र वासीचन्दन कल्पः । सूत्र समः धर्मास्तिकायादिलोकमधिवृत्य विशेषेण प्रकाशकत्वात्, २६३ । नास्ति यस्य कश्चित द्वेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वेव पवनसमः-अप्रतिबद्धविहरित्वात्, इत्थमुरुगादिसमश्च यतो जीवेषु यः सः सम् अणति-गच्छति इति समणः । भवति ततः श्रमणः । दश. ५ । श्रमणः निग्रन्थ:बाव०१६६ । श्रमणा-तीथिक: बाल इव रागद्वेषकलित।। शाक्यादि।। दश० १७३ । शमनं-चिकित्सा । आव० सूत्र० ३८३ । सममनाः नास्ति तस्य कश्चिद द्वेष्या प्रियो ६१० । सभावम् । प्रभ० १३६ । श्रमण:-साघुः । वा सर्वेष्वेव जीवेषु तुल्यमनस्त्वात, एतेन भवति भग. १४१ । श्राम्यति तपस्पति इति श्रमणः । दश. सममनाः, समं मनो यस्येति सममनाः । दश. ८३ । ८२ । धाम्यति तपस्यति इति श्रमणः । प्रवृज्यादिव. शोभनं धर्मध्यानादिप्रवृत्तं मनोऽस्येति सुमनः । आव. सादारम्य सकलावद्ययोगविरतो गुरुपदेशादनशनादि ३६५ । श्रमण:-निर्ग्रन्थः । सूत्र० १४३ । श्रमणः यथाशक्तयाऽऽप्राणोपरमात्तपश्चरति “यः समः सर्वभूतेषु, व्रती। (१) ६०। श्रमण: सममनस तथाविधवधेऽपि धर्म त्रसेषु स्थावरेषु च। तपश्चरति शुद्धात्मा श्रमणोऽसो प्रति प्रहितचेतता । उत्त० ११४ । श्रमण:-साधुः ।। प्रकीर्तितः ।" दश. २३ । भग० १४० । श्रमण:-वृद्धावासः । बाव. ७९३ । | समणग-श्रमणकः । आव० ५५८ । 'श्रम तपसि खेदे च' ति वचनात् श्राम्यति-तपस्यतोति - समणधम्म-श्रमणधर्म:-साधुधर्मः क्षान्त्यादिकः । आव , श्रमणः, अथवा स: शोभनेन मनसा वत्तंत इति समना:, ५७२ । शोभनत्वं च मनसो व्याख्यात स्तव पस्तावात्, मनोमात्र- समणपडिलेहिया श्रमणप्रतिलेखिता । दश ४८ । दश. सत्त्वस्यास्तत्वात् संगतं वा-यथा भवत्येवमणति-भाषते | चू० २३ । समो वा सर्वभूतेषु सनु अणति अनेकार्यत्वासातूनां प्रवर्तत समणभूए-श्रमणो-निर्ग्रन्थस्तद्वद्यस्तदनुष्ठानुकरणात स श्रम. इति श्रमणः । भग. ७ । योऽनिश्रितादिगुणायुक्तः, दान्तः णभूतः, साधुकल्प , एकादशमी श्रद्धप्रतिमा । सम० शुद्धो द्रव्यभूतो निष्प्रतिकमंतया व्युत्सृष्टकायः सः श्रमणः ।। १९ । श्रमणभूत:-श्रावकस्वैकादशमी प्रतिमा । आव० सूत्र. २६४ । श्रमणः ततः श्रमणो यदि सपना:, द्रव्यमनः प्रात्य, भावेन च यदि न भवति पापमनाः, । समणभूओ-अनुभूतवान् । सं० । स्वजने च बने च समः समश्व मानापमानयोरिति श्रमणः। समणवणीमत-श्रमणा:-पञ्चषा-नियन्याः शाक्यास्तापसा (१०६०) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणविन्भंत अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्दकोषः, मा० ५ [ समतुरंगेमाण गरिका आजीविकाश्चेति अनेऽपि तापसावनीपकादयः ।। उद्युक्तविहारी । आचा० ४०३ । ठाणा० ३४१ । समणुन्ना-समनोज्ञा-लोकसम्मताः उद्युक्तविहारिणः । समणविभंत-श्रमणो भूत्वा विविधं भ्रान्तो-भग्नः श्रम- आचा. २५० । समनोज्ञाः। आचा० ३५२ । समितिणविभ्रान्तः । आचा० २५४ । सङ्गता औत्सगिकगुणयुक्तत्वेनोचिता आचार्यादिप्तया समणसड्ड श्रमणश्राद्ध-चक्षुरिन्द्रियान्तर्दृष्टान्ते वसन्तपुरे | अनुज्ञा समनुज्ञा । ठाणा० १३९ । जिनदत्तसार्थवाहपुत्रः । आव० ३६६ । समणुपेहिन्जमाण-समनुप्रेक्ष्यमाणः अनुप्रेक्षया अर्थालोचनसमणसमयकेउ-श्रमणसमयके तुः, साधुसिद्धान्तचिह्नभूतः । रुपया । जीवा० २३६ । आव०८४७ । समणु बद्ध-समनुबद्धः-अविरहितः । प्रभ० ४१ । समगसेज-श्रमणशय्या-साधुवसतिः । आव० ७९५ । समणुवासिजाति-समनुबासयेद्-भावयेद्र ञ्जयेत् सम्यगसमणा-सह मनसा शोभनेन निदानपरिणामलक्षणपाप- अपुरागमनेनान्विति-यथोक्तानुष्ठानात्याश्चादात्मना समनुरहितेन च चेतसा वर्तत इति समनसः, तया समानं- वासयेद-अधिष्ठापयेद् । आचा० १११ । मनो येषां ते समनसः । ठाणा० २८२ । समना सम समणोवास-श्रमणोवाश्रयः साधुवसतिः । भग० २८१ । मनोऽस्येति भवति समं मनोऽस्येति निरुक्तविधिना समना। समणोवासओ-श्रमणोपासक:-श्रावकः । बाव. ८१८ । अनु० २५६ । श्रमाणा:-पञ्चधाः, निग्रंथाः शाक्यास्तपसासमणोवासग-श्रमणानु-साधूनुपास्ते इति श्रमणोपासकः गैरिका आजीविकाश्चेति । ठाणा० ३४२ । शक्रदेवेन्द्र श्रावकः । ठाणा. २३६ । ' स्यानमहिषोनां राजधानी । ठाणा० २३१ । समणोवास्य-विशिष्टोपदेशार्थ श्रमणानुपासते-सेवते इति समणाणुकया-धमणेभ्योऽनुकम्पा श्रमणानुकम्पा । दश. श्रमणोपासकः । सूत्र० ३६६ । समण्णागत-समन्वागत:-समनुप्राप्तः समागमनं समन्वासमणी-प्रशमनः । आव २३६ । हारः । ठाणा० १५८ । समणुगम्ममाण-समनुगम्यमान:-जात्यन्तर्भावेन स्वत एव समण्णे इ-समन्वेति समनुच्छति । ज्ञाता० । १६५ । सुत्रतः । जीवा० १३६ । समतलपत्तिया-समतले द्वयोरपि भूवि विन्यस्तस्वात् पदेसमगुगाहि-समनुग्राह्यमावः परेण सूत्रत एव । जीवा० पादो यस्याः सा । ज्ञाता० २०९ । समता-समशत्रुमित्रता क्वचिदरक्तद्विष्टता वा । उत्त. समणुचिसिजमाण-समनुचिन्त्यमानः-तथा तथा तात्रयुः । २२५ । क्तिभिः । जीवा० १३६ । समताल-समास्ताला-हस्तताला उपचारात् तद्रवो यस्मि. समणुचिन्ना-समनुचीर्णा-आसेविता। प्रश्न० १.७ । स्तत्समतालम् । ठाणा० ३१६ । समतालम् । ज्ञाता. समगुण्ण-संभोतितो । नि० चू० प्र० २३७ अ । सम-] २८ । नोज्ञः-एकसामाचारीप्रतिबद्धः । पोष० १५६ । अणुमती। समताल पडकखेव- मुरजको सिकादिगीतोपकारकातोचाना नि० चू० द्वि० ६६ आ । ध्वनिः प्रत्युत्क्षेपः नतंकीपदप्रक्षेपलक्षणो वा प्रत्युत्क्षेपः, समणुण्णा-पुरः कर्मकृतं गृह्णतामपकायविराधना अनुः । समो गीतश्वरेण तालप्रत्युत्क्षेपो यत्र तत् समतालप्रत्युमतिः । वृ० प्र० २८७ था । उज्जयविहारी। नि०० क्षेपम् । अनु० १२२ । प्र० १५१ आ। समनोज्ञा: एकसम्भोगिका आचार्याः । समतिच्छमाणो-समतिकामनी । ज्ञाता०१३३ । समव्य० प्र० ४८ मा । समनुज्ञा-तस्यैव साधोरनुज्ञा । | तिक्रान्ती । ज्ञाता० २१२ । ओध० ४४ । समतुरंगेमाण-समाश्लिष्यन् अन्योन्यमनुपविष्यन् । भग. समणुन्न-समनोज्ञः-साम्भोगिकः । ओघ० ५४ । समनोश:- भग० १६७ । समो-तुल्यो तुरङ्गस्य अश्वस्य समोरक्षेपणं (१०६१) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समतुन ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [समभिजाणिवा कुर्वन समतुरंगायमानः । भग०६२ । जीवा. ११७।। स्थानम् । उत्त० २०५ । आश्लिष्यन्तः । ज्ञाता० १३४ । समपय-समपाद-दावपि पादौ समं निरन्तरं स्थापयति, समतुल-समतुल्यः-सहशः । ठाणा०६८ । खोकप्रवाहे पञ्चमं स्थानम् । बावं. ४६५ । समत-समस्ता-सर्वः । बौप०६५ । सम्यक्रवं-श्राचार- | समपाइया-समपादिका । ठाणा० २९९ । समपादप्रकल्पे प्रथम श्रुतस्कन्धस्य चतुर्थ मध्ययनम् । प्रभ० १४५। योधानां चतुर्थ स्थानम् । द्वावपि पादौ समो दक्षिणवामतो साचाराङ्गस्य चतुर्थममध्ययनम् । सम० ४४ । समस्त:- पसार्य ऊरुपसारयति यथा मध्ये मंडलं भवति अन्तरा समाप्तः। विशे० ६१६। चत्वारः पादास्तमंडलं द्वावपि पादौ समी निरंतर समत्तखल्ल- । नि० पू० प्र० १३६ आ। यतस्स्थापयति । जानुनीरू चातिसरले करोति तत् सम. समत्तजंधा- । नि० चू० प्र. १३६ आ ।। पादम् । व्य० प्र० ४६ बा। समत्तदंसिणो-समवशिन:-रागषरहिताः सम्यक्त्वद- समपाद-शरीरन्यासविशेषः । ठाणा. ३ । बोषस्थाने शिन: वा सम्यक तत्त्वं सम्यक्रवं तद्दशिनः परमार्थ. पञ्चमः । आचा० ५६ । जं पुण तेसु चेव जाणूरुसु दृशः । आचा० १४ । आयातेसु समपादद्वितो जुन्मति तं । नि० चू• तृ. समत्तपारायण-समस्तपारायणः । पाव. ३००। १० बा । समत्तमाउह-समासायुधः- संपूर्णतपःप्रभृतिखङ्गाद्यायुषः । समपादपुता-उपवेशनविशेषः। वृ• तृ. २००५। यस्या देश०२३८। समी पादौ पुती च स्पृशत: सा । ठाणा० २९९ । समत्थ-समर्थः । ओष• ६६ । सङ्गतायोजन।। भग. समो-समतया भूलग्नौ पादौ च पुती च यस्यां सा । १७६ । व्य० दि० २६१ था। ठाणा० ३०२ । समत्थखल्लगा-उपानदसम्पूर्ण पादं स्थगयति सा समस्त. | समपेजा-समाप्नुयात् । आव २६२ । खल्लका । ६० दि. २२२ बा । समप्पउ-समाप्यताम् । आव. ३२२ । सरतु-समाप्यसमत्थसहो-युक्तवाचकः-वीर्ययुक्त इत्यर्थः । नि० ० | ताम् । आव० ७२३ । प्र० १७३ बा। समप्पभ-यत्र सप्तसापरोपमस्थिक: देवः । सम.१३ । समहा । नि० चू० प्र० 141 आ । समति -समाप्नुतः प्रविशतः । ६० प्र० २५६ । समनुज्ञा-अतः केषाञ्चिद् गुणानाममावेऽप्यनुज्ञा समग्रगुण- समभर-अविषमः जलसमुदायो यत्र स सममरः सर्वया भावे तु समनुज्ञा । अथवा स्वस्य मनोशा-समानसमा- भृतं वा समभरः । भग० ५३ । चारीकतया अभिरुचिता स्वमनोज्ञाः सह वा भनोहर्ता- समभरघड-सम-परिपूर्णो भरो-भरणं यस्य सः सममरःनादिमिरिति समनोशा:-एकसम्मोगिकाः साधवः । ठाणा०/- परिपूर्णभृतः सश्वासो घटश्च समभरघटः । जीवा. ३२२ । समन्तादनुपतन्ति-प्रमत्तसंयतानामन्नपानं प्रति अनाच्छा- | समभिगच्छति-भवनिस्तरणकारणतया प्राप्नोति । ठाणा. दिते सम्मातिमा: सत्वा विनश्यन्ति । आव० ६१३ । ३०६ । समन्नागए-समन्वागत: उद्युक्तविहारी । आचा० २५४ । समभिजाणमाण-सम्यगभियान आसेवनापरिज्ञया आसेव. समन्वागत:-समनुप्राप्तः । जीवा० १२२ । मानः । आचा. २८२ । समन्नागय-समन्वागत: गुहाप्राप्तः । अ० प्र० ३९ । समभिजाणहि-समभिजानीहि-आसेवनापरिज्ञया समनुसमन्नेइ-समन्वेति समनुगच्छति । आव० ३११ । तिष्ठ, गुरुसाक्षिाहितप्रतिज्ञानिर्वाहकोवः आचा० १६६ । समरज्जवलिए-समपर्यवसित:-समपर्यवसानः ।सूर्य २०८० समभिजाणिला-समभियानीयात् आसेवनपरिज्ञया आसेन समपद -यत्र द्वावपि पादौ समौ नैरन्तयण स्थापयति तत् वेतेति । आचा. २७० । (१०६२ ) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपभिपडित्तते । अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ समयमन्नतो समभिपडित्तते-समभिपतितुं-आक्रमितुम् । अन्त० २१ । उत्त० ६५७ । समयः-जैनादिसिद्धान्तः । ठाणा० १७४ । सममियति-समागछन्ति । ६० प्र० ६१ बा। सयय:-अवसरः । आचा० २८४ । अवसरवाचकता । सपभिरूढ-नानार्थसमभिरोहणात् समभिस्तः । विशे० जं० प्र० १५२ । समय:-विपक्षित: विशष्टः कालः । ९१२ । समिरूढः-वाचकं वाचक प्रति वाच्य भेदं सम- आचा० ४२५ । समयः-सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे प्रथमम. मिरोहयति-आश्रयति यः सः समभिरूढः । ठाणा. ध्ययनम् । आवं. ६५१ । सर्वेषां कालप्रमाणानामायः १५३ । समभिरूढः दृष्टिवादे सूत्रे एकोनविशतितम परमसूक्ष्मोऽभेद्यो निरवयव उत्पलपत्रशतव्यतिभेदाधु दाह भेदः । सम० १२८ । समभिरूढः- नानार्थेषु नाना संज्ञा रणोपल क्षेतः समयः । ठाणा. ८५ । समक-सममेव समभिरोहणात समभिरूढः । ठाणा. ३९० । समभिरूढः- समक-सरसविरसादिष्बङ्गादिविशेष रहितम् । उत्त०६१। नयविशेषः । प्रज्ञा० ३२७ । समभिरूढः नानाऽर्षेषु सामान्यतः कालः । प्रज्ञा. ४४५ । समय:-आचार: । नानासज्ञा समभिरोहणात् समभिरूढः । ठाणा० ३९२ । राज० ११३ । समक-युगपदेव समृद्धव उत्पादः । विशे० समभिरूढः-शब्दनयस्य द्वितीयो भेदः । उत्त० ७७ । ८१३ । परमाणो:-स्वावगाहनक्षेत्रव्यतिक्रमकालः। तत्त्वा. समभिलति-पसहिमागच्छति। नि०चू० प्र० १७५ बा। ४-१५ । समय:-सिद्वान्तः समाचार । प्रभ० ११८ । समभूभाग-संसक्तादिदोषरहित। सुखविहारः क्षेत्रा समो समय:-सिद्धान्तार्थः । प्रभ० ८६ । समकं एककालम् । वा। आचा० १२१ । बोघ० २०५ । स्वभावा-समता । समयः-आपयः । -सममागच्छइ-सम-अविषमं आगच्छति-निष्क्रामति सम- भाचा० १६६। समता-समभावः समशत्रुमित्रता । आव० मापच्छति अविषमं निष्कामति । अय०९.। १५३ । समयः-आचास-अनुष्ठानम् । बाचा० १२३ । समय-समया-संकेता-प्रस्तुत मङ्गकरचना व्यवस्था। विशे० समया-संकेत: प्रस्तुतमङ्गकरचनव्यवस्था । अनु०७६ । ४४३ । सम्यपयः-समया सम्यग् दयापूर्वक जीवेषु विषये | सभक-युगपत-एककाखम् । दश० ११८ । गमन प्रवर्तनम् । विशे० ११०७। प्रतिबोधादिः सङ्केतः। समयओ-समयत:-भाचारतः आचरेण । जीवा० २६० । विशे० ७८३ । राजसमयः-नीतिशास्त्रः । व्य. प्र. १६९/ समयकय-समय-अन्वर्थरहित समय एव प्रसिद्धम् । था । समय:-बंवसरः। ज्ञाता०१८। समयः- निर्मः पिण्ड.४ । प्रणीतः । पिण्ड० ७१ । समय:-कालद्रव्यम् । प्रज्ञा०/ समयक्खित्त-समयक्षेत्र - समयः कालस्तदुपलक्षित क्षेत्रं सम४२९ । समय:-अवसरः भिन्नमहविशेषकाला। प्रज्ञा क्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रमित्यर्थः । ठाणा. २५।। ६०६ । समय:-अहोरात्रदिकालस्य-निविभागो भागः । समयखेत्त-कालोपलक्षितं क्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रम् । सम• ६६ । सूर्य० २९२ । समयः-सिद्धान्तः । ओघ० ३६ । समयः- सूर्यादिक्रियाव्यङ्गयः समयो नाम कालद्रव्यमस्ति तत्समयअवसरः । ठाणा० २१३ । समय:-सिद्धान्तः । ओघ० क्षेत्र मानुष्य क्षेत्रम् । प्रज्ञा० ४२६ । १२८ । समयः-सांख्यादीनां सिद्धान्तः। ठाणा० १५१ । समयचखा-समपचर्चा-समयपरिभाषा । विशे' ८४४ । समय:-सिद्धान्तः । सम० ११० । समयः परमनिकृष्ट. समयट्ठयार । भग० ५३४ (?) । कालः । आव० २५७ । समय:-क्षणः । भग० १५१ । समयनिबद्धं-मनसा निबद्धसङ्केतं यथा प्रतिबोधनीया वयं समय:-कालविमागः । भग. ८१ । समय:-कालः । परस्परेणेति, समकनिबद्धां वा सहित उपात्ता जातिस्ता "भग० १४६ । समयः-तरङ्गवल्यादिकः । दश० ११४ । देवा: अनुत्तरसुराः सन्तः । ज्ञाता. १४७ । समयनिबन्ध:समता-माध्यस्थम् । उत्त० ६३ । काखः। भप०६६। प्रतिबोषादिनिमितः-संकेतनिश्चयः । विशे० ७८३ । पदातिसमाचारः । भग. १६४ । समयप्रसिद्धपटशाटि- समयपरन्ना-पमयप्रतिश। समाचाराभ्युपगमः सिद्धान्ताकापाटनदृष्टान्तप्रज्ञापनीयस्वरूपः परमनिकृष्कालविशेषः | म्युवगमः वा । प्रभ० ११५ । समयः । जं० प्र०६०। समय:-परमनिरुद्धकालक्षगः। समयमन्नतो-समयमन्यतः । विशे० ३६९ । (१०१३) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयविरुद्ध ] माचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: । समागम समयविरुद्ध-स्वसिद्धान्तविरुद्धम् । अनु० २६२ । स्व. समवाई-समवायः संश्लेषः एको मावेनापृथण्णमनम् आव ० सिद्धान्तविरुद्धम् सूत्रे चतुर्विशतितमो दोषविशेषः । आव० २७८ । समवाए-समवाय:-मेलकः । आचा० ३२८ । समवायःसमयशास्त्र-जैनबौद्धादिसिद्धान्तशास्त्रम् । प्रभ० ६४ । पोष्ठयादिमेलकः । आव. १२६ । समयसब्भाव-समयसद्धावं सिद्धान्तार्थमिति हृदमम् ।। समवाय-समिति-सम्यक वेत्याधिकेन अपनमयः-परिच्छेदो साब ६०२। जीवाजीवादिविविधपदार्थ पार्थस्य यस्मिन्नसो समवायः । समया-समता रागद्वेषाकरणलक्षणा । आचा० ३८६ । समवन्ति वा-समवतरन्ति समिलन्ति नानाविधा आत्मा समता-सामायिक प्रथमपर्यायः । आव० ४७४ । दयो भावा अभिधयेतया यस्मिन्नसो समवायः । सम. समयासी-समदर्शी । ग० । १ । नि० चू० प्र० २६८ आ। सर-समर:-जनमरकयुक्तो यः सङ्ग्रामः-रणः । प्रभ. सनवासितक-आगन्नः । आव० ८३५ । ४३ । समरः-समरिभिर्वर्तत इति समरः द्रव्यतः जन. समसंहत-समप्रमाणः स. सहतः समसं हतः । जीवा संहारकारी सङ्गामः, भावत: भावत्त स्त्रीणामरिभूतत्वाद् २७४ । ज्ञानादिजीवस्वतत्त्वधातिनः। उत्त० ५७ । समरं सम एव समसण्णा-समसज्ञ · तुल्यबुद्धिः । आव० ७६६ । तदगणनया सष्टास्पृष्टावस्ययोरसुनमा एव समन्तादरयः | समसहिया-सहिताः । पड ४५-४१ । शत्रबो यस्मिन्निति संग्रामशिरोविशेषणम् । उत्त० ११ । समहिढाए-समधिष्ठाता गृहपतिना निक्षिप्तभरः । आचा. खर कूटी । उत्त० ५७ । समर:-संग्रामः । आव० ५५७ । ४०३ । समधिष्ठाता-प्रभुनियुक्तः । आचा० ३७० । समरकणग-समरकणक: संग्रामवाद्य विशेषः । ज० प्र० समा-समा सामुद्रिकशास्त्रोक्तप्रमाणलक्षणाविसंवादिनी । २१२ । प्रज्ञा० ४१२ । वरिसा । नि० चू० तः ८१ बा । समरवहिय-सङ्ग्रामे हतः । भग० ३२२ । संवत्सराः । ब्य० प्र० २५१ । शरीरखक्षणशास्त्रोक्तसमधर्मम् । आव० ८२३ : प्रमाणाविसंवादिन्यः । अन्यूनाधिकाः । जं.प्र. १५ । समर्थना-भजना सेवना च । बाव० ३३६ । आव० १६३ । सूर्य० ९५ । सामुद्रिकशास्त्रोक्त प्रमाणासमलीण-सम्यग् लीनस्तदासन्नः । राज. ६ । विसंवादिनी । जीवा०४२ समा-उत्सपिणयवसपिणी। समवगूढ-समवगाढ़ः संश्लिष्टः । जं० प्र० ३०० । नंदी. बाव० ३८ । नक्वाप्युहन्तुराः । जीवा० २७५ । समा उत्सपिणी-अवतपिणीरसंख्येया एव लभते । विशे० ३४६ । समवतार-शास्त्रोयोपक्रमे षष्ठः । आव० ५६ । शास्त्रीय- समाइ-समानि ज्ञानादीनि । ठाणा० ३२३ । उपक्रमः । आचा०३ । शास्त्रीयोपक्रमे भेदः । ठाणा०४।समइण्ण-समाचीणं-सामाचरितम् । भग० २१६ । लागवार्थ प्रतिद्वारं समवतारणाद्वारेण प्रदशितः एव । समाइण्णा-समाकीर्णा-व्याप्ता। उत्त० २५२ ।। पाव. ५२। समाउदिसू-समावृत्ताः-प्रबोभृताः । सूत्र० २५० । समवया-समवया । आव० ३८८ । समाउल-समाकुल:-सम्मिश्रः । जीवां० २०८ । समाकुल:-- समवसरणं-पर्युषणम् । बृ० वि० २७७ । ___ आकीर्णः-परिबृंहितः । उत्त. ४९८ ।, समवसरन्ति-अवतरन्ति । ठाणा० २६८ ।। समाएस-समादेश विभागोहेशिकचतुर्थभेदः । पिण्ड, ७९ । समवसितकार - । उपा० १० । समागम-समागमः-संयोग:-एकोभवनम् । अनु० १६।। समवसृता अवष्टब्धा । उत्त० ४६३ । समागमः-परस्परं सम्बद्धतया विशिष्टोऽकपरिणामः । अनुः समवाइ-एकीभावेनापृथग् गमनं समवादः-संश्लेषः । विशे० । ४२ । समागमः-संयोग:-एकीभवनम् । ज० प्र०६० । मीलकः । उत्त० ५०० । (१०६४ ) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समागम्म ]] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०५ [ समालभामो समागम्म-समागम्य-यद्यस्योचितं तत्तथैव ज्ञात्वा । उत्त । आरुहितं जहा समाहित भारं देवदत्तो आरहेति समाहित घड गेण्हइ सोभणेण पगारेणेति वा । दश० चू. १४७ । समाचारी-यतिजनेतिकर्तव्यतारुपाम् । उत्त० ५.३। समान-एकम् । आचा० ५६ । समाज-समूहः । उत्त, ३५१ । समाना समाना: जङ्घावलपरिक्षीणतय कस्मिन्नेव क्षेत्रे समाण-समान:-सम्भोगिकः । आवा० ३५५ । दृष्टिवादे- तिष्ठन्तः । आचा० ३३६ । विशतिसूत्रभेदे षष्ठः । सम, १२८ । आनतकल्पेऽष्टादश- समापत्तिः । उत्त० ३७६ । सागरोपमस्थितिकः देवः । सम० ३५ । सह । उत्त. समाय-समवायः चतुर्याङ्गम् । ठाणा० ४४८ । समवाय:४.७ । सन् । ठाणा ११६ । समान:- साधारणः । चतुर्थ अङ्गम् । सम• ११४ । समय: कालविभाग. ठाणा० ४३ । समाधीवान । नि० चू० प्र० १४६ अ । लक्षण: । जं० प्र०६८ । समो रागद्वेषरहित्वाद् आयो. समाण इत्ता-समाप्य-बुद्धधवलोत नेन समाप्ति नित्वा ।आव० । गमनं समाय: । समानां-ज्ञानदर्शणचारित्राणामायो-लामः ७८१ । समाय: । प्रज्ञा० ६३ । साङ्गत्येकीभावेन वा प्रायोसमाणणाति परिसमाप्ति नयतीत्यर्थः । नि० चू० २१० यमन प्रवर्तनं समायः समो-रागद्वेषविरहितः स चेह आ। प्रस्तावाञ्चित्तपरिणामस्तस्मिनायो-गमनम् । उत्त० ५६७। समाणत-समाज्ञप्तम् । माव. ४०८ । समाज:-पथिकसमूहः । उत्त० ६.५ । समानो-समस्यसमाणघमिय-प्रवचनं प्रतिपन्नः । निचू. प्र०७३ आ। रागादिरहितस्यायो-गणानां लामः, ज्ञानादीनामाय: समाणा-सन्निहिता । बृ० द्वि०२५१ आ। समायः । ठाणा० ३२३ । समाय:-कलविमागः । ठाणा० समाणितो-समानीत: समाप्ति नीतः । व्य० दि० ११३ या। समारिसु-विपाकानुभावः । भग० ९३९ । समाणियं-समापितः । बृ० तृ० १३९ आ । समापितम्। समायार-समाचारः अनुष्ठानम् । आचा• ६४ । समा. उत्त, १६० । परिसमाप्तिः । आव २७१। चार:-शिष्टजन समाचरितः क्रियाकलापः । विशे. ८४१ । समारणेइ-समापयति निष्ठां नयति । आव० ५२७ । समा. समारंभ-समारम्भः-उपार्जनोपायः । आचा, १३० । नयति-करोति । ओघ० २२७ । समारम्भः परिताप: । भग० ३३५ । समारम्भः-सक. समारणे-संपूर्य । नि. चू. प्र. ३५१ आ। षाया परितापना । तत्वा० ६-९ । ' समारणेता प्रतिपत्तिविशेषेण सन्मानयित्वा ।ठाणा० ११० समारंभइ-समारम्भाते-परितापयति । भग० १८४ । समारणेरि समानां । व्य० प्र० २२४ आ । समारंभकरण-समारम्भकरणं-पृथिव्यादि उपम ईनं तस्य समादाण-समादानं-कर्मोगदान हेतु: । जीवा० १२१ ।। • कृतिः-करणं स एव वा करणमित्यारम्मकरणमेव, समादोया-समार:-समप्रारम्मा: । सूर्य. २०८ ।। तेषामेव सन्तापकरणम् । ठाणा १०० । समादेशकर्म । बृ० प्र० ८३ अ । समारंभति-समारभते - उपद्रवयत: । भग० ३२७ । समादेशिक-श्रमणानुदिश्यादेश निग्रंथानधिकृश्य समादेशम्। समारंभाविजा-समारभेत-प्रवत्र्तयेत् । दश. १४३ । वृ० प्र० ८३ अ। समारण-प्रकर्षणम् । ओघ १४४ । समाधिः-मात्रकम् । आव २६८ । आचा०४०६ । समारभत-समारभत:-प्रवर्ततः । उत्त० २४४ । समाधिप्रतिमा-प्रतिमाबिविशः। सम.६६ । समारभिजा -समारभेया:-व्यपरोपयेः । आचा० १६४। . समाधी-समाधानं समाधिः-समता सामान्यतो रागाद्य. समालद्ध-समालम्य-परिधाय । उत्त० २०८ । भावः । ठाणा० ४७३ । समालब्भ-गृहोस्वा । बृ० द्वि० २५५ अ । समाधीतं-सम्म आहितं जस्स सो चितसमाहि-समाधोतं | समालभामो-समालभामः । आव० ६५ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समालहण ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ समाहियच समालहण-समालमनम् । दश. १०८ । प्रशान्तता । सम० १७ । समाधिः-समता सामान्यतो समालहेति-समालभते । आव० १२३ । रागाद्यभावः । ठाणा० ४७४ । समाधिः प्रशमवाहिता समावडियं-समापतितं-जातम् । आव० ८२५ । शानादिर्वा । ठाणा० १८१ । समाधिः चित्तस्वास्थ्यसमावडिया-समापतिता । उत्त० ८७ । शुभचिकाग्रता । उत्त, २६६ । समाधिः समाधान समावत्ती-समापत्ति:-भवितव्यता । दश. ३५ । समा. समाधिः-परमार्थत आत्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम् । दश. पत्तिः-भवितव्यता । उत्त० ८६ । समा पत्ती । आव० २५६ । समाधि:-चेतसः स्वास्थ्यम् । उत्त० ६६ । २२४ । भवितव्यता । उत्त० ३५६ । कायको । नि० चू०प्र० १६४ अ। समाधानं समाधिः । समावत्तीए । नि० चू० (१) ६ आ । बाव. ५०७ । समाधिः-अनाकूलत्वम् । दश० २७. समावन्न-समापन्नः-युक्तः । उत्त० २५१ । समापन्न:- समाहिअ-समाहितं-समापितम् । विशे० १३३८ । शङ्का गृहीतः । आचा० ३३२ ।। -समाहितमन:-विस्रोतसिकारहितः । आचा. समावन्नग-समापन्नकः-आधितः । ठाणा० ३९ । ३०७ । सम्यगाहितं-ध्यवस्थापितम् । बाचा० २९२ । समास-समास:-लेखनकल्पः । ७० प्र. २६८ मा समाहिओ-उपधानादिषु सदभिप्रायः । व्य. प्र. २३६ । 'समासः-संकोचनम् । विशे० ६४४ । समासः-सक्षेपः । समाहिगय-समाधिगतः । उत्त. ८६ । दश. १५ । शोमनमसनं समासः । आव० ३६४ । समाहिजोग-समाहियोगो समाधिः-चितस्वास्थ्यं तत्प्रसंखेवो पिंडार्यः । नि० चू० प्र० ६३ था। धानो योगः-शुभमनोवाक्कायव्यापार: समाषियोगः, समासमासओ-समासतः-सामान्येन । बाचा० ५१ । धिर्वा शुभचित्तै काग्रता योग:-प्रथगेव प्रत्युपेक्षादिको समासिज्जंति-समस्यन्ते-प्रक्षिप्यन्ते । नंदी० २२९ । । व्यापारः समाधियोगः । उत्त. २६६ । समाधियोग:समासूः-रागद्वेषरहितस्य समस्य वा पासा । (?)। ध्यानविशेषः । दश० २४६ । समासेड-संविख्य । ६० प्र० २७२ ।। समाहिवाइ-समाधीयते सम्पपाख्यायते । सूत्र० ३२० । समासोदेश-सङ्क्षपोद्देशः । आव० १०६ । समाहिठाण-समाधिस्थानं-उतराध्ययनेषु षोडशममध्य. समाहतः-शृङ्गादायन्तरवस्तुमयेनाङ्गुलीकोशकेन समा- यमम् । उत्त० ६ । उत्तराध्ययने षोडशममध्ययनम् । हतम् । अनु० १३२। सम० ६४। . समाहय-समाहत:-अभिभूतः । प्रभ• ६२ । | समाहितमण-समाहितमना-सम-तुल्यं रागद्वेषानाकरितं समाहरइ-समाहरति-बानयति । आचा० ३५४ । माहितं-उपनीतमात्मनि मनो येन सः । समाहितं वासमाहाण-समाधान-विषयाद्योग्सुक्यनिवृत्तिलक्षणं स्वा. स्पस्वं मनो यस्य सः । समेन वा-उपशमेन अधिक स्थ्यम् । अनु० १४० । समाधानं-स्वास्थ्यम् । आव० मनो यस्य स समाधिकमनः । प्रश्र० १११ । १६३ । समाहिपत्ते । ज्ञाता १६८ । समाहारा-द्वादशमा रात्री । ६० प्र० ४६१ । दक्षिण- समाहिपाण-उदरमलशोधकम् । भक्तः । रुचकवास्तव्या प्रथमा दिक्कुमारी महत्तरिका । जं० प्र० समाहिबहुल-समाधिबहुल:-चित्तस्वास्थ्यप्रचुरः । प्रभ० ३९१ । द्वादशमा रात्री । सूर्य० १४७ । दक्षिणरुचक . १२८ । वास्तव्या दिक्कुमारो । बाव. १२२ । समाहिय-समाहतः-ग्रहीतः। आचा. २८२ । समासमाहि-समाधि-मरणसमाधिम् । आचा० २९. हित:-उपयुक्तः । आचा० ४३० । समाहितः-समाधिसमाधि-इन्द्रियप्रणिधानम् । आचा. २५० । समाधि- प्राप्तः । भग० ९२४ । समाहित:-बद्धः । उत्त० ५०७ । शरीरसमाधानम् । बाचा. ३१३ । समाधानं समाधि:- समाहितः-उपशमितः । भाचा. २८४ । प्रशस्तभावपक्षणः । ठाणा० ६५ । समाधिः-समाधानं समाहियच्च-समाहिताचंः, सम्यगाहिता-व्यवस्थापिता (१०६६) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहियाण 1 अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ [ समितिमा अ-शरीरं येन स समाहिताः नियमित्तकायव्यापार वेति । आचा०३१० समित:-सम्यगित:-संयत इत्यर्थः। इत्यर्थः । अर्चा-लेक्ष्या सम्यगाहिता-जनिता लेश्या येन आचा० ३२६ । सम्यग्वा इतो मोक्षमार्गे समितः । स समाहितार्चः अतिविशद्धाध्यवसाय इत्यर्थः । आचा. आचा० १६१ । समितो-दत्तावधान: पुरतः युगमात्र.. २८४ । भूभागन्यस्तष्टिनामी। आचा०४२८। समितः-उपयुक्तः । समाहियाण-सम्यगाहिताः तपःसयम उद्युक्ताः समाहिता:- जं० प्र १८ । समितिः-सम्यकप्रवृत्तिः । भग० १२२ । अनन्यमनस्काः । आचा० २३३ । समिओ-समितयः-प्रवीचाररूपाः पञ्च । आव. ५७२ । समाहिवारय णाम मणादोणं परिसंमणादि समाहाण- समितः पार्यसमितः । आव० ४१२ । मुप्पजति । नि० चू० प्र० १६अ। समिक्ख-समीक्षते पर्यालोचयति अङ्गीकुरुते वा। समैक्षिष्ट समाहो-समाधिः-गुर्वादीनां कार्य करणेन स्वस्थतापादनम् । समीक्षितवान् । उत्त० ३०५ । समीक्य-आलोच्य । आव० ११६ । समधि:-सूत्रकृताङ्गाद्यश्रतस्कन्धे दशम- उत्त० २६४ । मध्ययनम् । आव० ६५१ । भरते आगामिन्यामुत्सपिण्यां समिक्खति- समीक्षते-परीक्षते । उत्त० १७३ । सप्तदशमतीर्थकृन्नाम । सम० १५४ । समाधिः-सूत्रकृता. समित-समितं उपपन्नम् । सूर्य • ६२ । अट्टकः । बृ० प्र। सस्य दशममध्ययनम् । उत्त० ६१४ । समाधिः । प्रभ० २६७ था । १४६ । समाधिः-समता । अहिंसायास्तृतीयं नाम । समितदंसण-समतामितं-गतं दर्शन-दृष्टिरस्येति समित. प्रश्न ६६ । समाधिः चेतसः स्वास्थ्यम् । योगसङ्ग्रहे दर्शन:, समदृष्टिरित्यर्थः । आचा० २५६ । त्रयोदशम योग: । आव० ६६४ । समाधानं समाधिः- समितसूरिः-पादलेपनरुपयोगहष्टाम्ते आचार्याः । पिण्ड. चेतसः स्वास्थ्य-मोक्षमार्गेऽवस्थितिः । श्राव० ६५३ । १४२ । सूत्रकृताङ्गे दशममध्ययनम् । सम० ३१। समिता-कणिक्का । नि० चू० प्र० ६३ अ । कणिक्का । समिति-मिलता । माव० ८४२ । ६० प्र० २५१ . समिका-उत्तमत्वेन स्थिराकृतितया समिअ-समितः-सुप्रत्युपेक्षितादिक्रमेण सम्यक् प्रवृत्तः ।। समवती, स्वप्रभोर्वा कोपोत्सुक्यादिभावान् शमयत्युपादेऔप. ३५ । यवचमतयेति शमिका, शमिता वा-अनुद्धता । चम स्य समिह-सम-एकीभावेनेतिः समित:-शोमनै काग्रपरिणाम प्रथमा पर्बत् । भग० २०२ । शमिका-शकदेवेन्द्रस्य चेष्टा । आव० ६१५ । समिति, मीलनम् । ज० प्र० अभ्यन्तरिका पर्षत् । जीवा ३६० । समिता:-योग१० । समिति:-नैरतर्येण मीलनम् । अनु० ४२ । द्वारविवरणे सूरयः । पिण्ड, १४४ । समिता:-आधायाः समिइओ-समितिकः-उत्तराध्ययनेषु चतुर्विंशतितममध्यय- परावर्तितद्वारे आचार्याः । पिण्ड. १०० । चमरासुरेन्द्रस्य नम् । उत्त०६। । 'आम्भन्तरिका पर्षत । जीवा० १६४ । असुरकूमारस्य समिइम-समितिमः भाण्डादिकः । पिण्ड० ७३ । अभ्यन्तरा सरिषत् । ठाणा. १२७ । समिई-समितिः-सम्यक-सर्वविवप्रवचनानुसारितया इतिः समिति-समितं मर्यादाम् । व्य.प्र. २५४ अ । समिति:आत्मनः चेष्टा समितिः, तान्त्रिकी सजा ईर्यादिचेष्टासु मीलनम् । भग० २७६ । समिति।-बहू मीलनम् । अनु। पञ्चसु.। उत्त० ५१४ । समिति:-ईयर्यासमित्यादिका १६१ । समिति:-सङ्गता प्रवृतिः । सम० ११ । समिति: प्रविचाररूपा । सूत्र० २४४ । समितिः-सम्यकप्रवृत्तित्वः ।। सम्यक प्रवृत्तिः । प्रभा १.४। समितिः-समित्यध्ययना- अहिंसाया अष्टात्रिशत्तमं नाम । प्रभ. १९ । समिति:- भिहिता क्रिया कायिक्याधिकरणिकीप्रादेषिकीपारितापनि सम्यक्-सर्ववित्प्रवचनानुसारितया इतिः समितिः-आत्मनः । कीप्रागातिए। तरूपा । उत्त० ६१३ । भातसाहणागादिपिठं । चेष्टा । उत्त० ५१४। मर्यादा । य० प्र०२५४ । । नि० चू०प्र०२०२ मा । समिए-सम्यगितः-सम्यग्मावं पता समितिभिः समितो समितिमा-मण्डका:-पूपलिका वा । वृ० प्र० २५१ था। (अ.प. १३८) (१०६७) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिती . आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: । समुक्कले शुष्कमण्डका: । वृ० वि० १२६ । प्रवृत्तयः श्रमिता वा बभ्यासवन्तः । भग० १४० । समिती समितिः कणिकाः । ६० तु. ४९ अ । सम्- पिष्टम् । नि चू.द्वि.१५१ मा कणिक्का । ज्ञाता. एकीभावेनेति:-प्रवृत्तिः समिति:-शोभनकारपरिणामस्य | २२६ । चेष्टेत्यर्थः । ठाणा० ३४३ ।। समियाए-समितया सम्यग्वा समतया वा प्यवस्थितः । समितीओ-उत्तराध्ययने चविंशतितममध्ययनम् । सम० | आचा० ३०९। समियायरियो-वयरसामिमाउलो । नि० चू० दि० २०१ समिद्ध-समृद्धिः पुरतःपुरकोशकोष्ठागारबलवाहन रूपाः स. म्पदः । समा १२८ । समृद्ध-निरूपन्नम् । व्य० प्र० | समिरिय समरीचि बहिविनिगंतकिरणजालम् । प्रज्ञा. १५५ आ। समृद्ध. धनधान्यादियुक्तः । औप०१। समृदः । धनध न्यादिविभूतियुक्तः । भग०७ । समिद्धः-वैश्रमणस्य समिरिया-समरीचिका-सकिरणा वस्तुस्तोपप्रकाशकरी। पुत्रस्थानीयो देवः । भग० २०० । समृद्धः-धनधान्यादि. जं. प्र. २१ । सह मरीचिभिः किरणय ते तथा । विभूतियुक्तः । सूर्य० १ । समृद्धः-धनधान्यादियुक्तः । ठाणा. २३२ । माता० १। समिला। बाव. ३४५ । । समिती-समृद्धिहेतुत्वेनैषाऽपि समृद्धिः । अहिंसाया एको. समित-म्यपूतिनिरूपणे नगरम् । पिण्ड० ८३ । नर्विशतितमं नाम । प्रभ०६६ | समिह-समिषः अश्वल्यादिवृक्षाणां प्रतिशाखाखण्डम् । समियं-सम्यक् सपरिमाणं वा । भग० १.४। सप्रमापम् । भन. १८३ । सन्ततम् । भग० २५३ । समितं, | समिहाउ-इन्धनभूत काठिका: । षन्तः ११ । पूर्ण, युगपत् । उत्त० २०९ । निरन्तरम् । ठाणा. समिहाओ-समिधः काष्ठिका: । भग० ५२० । ४७१ । समितं-रात्री दिवसस्य च पूर्वापरयाः प्रहरयो | समिहाकट्ठ-समित्काष्ठं हवनोपयोगीनीग्धनानि समिधस्त. सपरिमाणम् । भग. ८३ । समित: भाषासमितः ।। पं काष्ठम् । जं० प्र० ३६२ । बाचा• ३९६ । मण्डकः । पिण्ड ८३ । समीकरणया-समकरणाय । प्रज्ञा०६०२। समियदसण-शमितदर्शन: शमितं दर्शनं प्रस्तावन्निध्या- समीरिअ-समीरितं प्रेरितम् । दश० २३८ । स्वात्मक येन सः, सम्यक् इतं-गतं जीवादिपदार्थेषु समीहिए-समीहितः कल्पितः । उत्त० २७४ । दर्शन-दृष्टिरस्येति सम्यष्टिः सन् समितदर्शनः । उत्त० | आवश्यम् । ज्ञ. १८६ । समुदान२६४ । समितदर्शनः-सम्यग इतं-गतं -दर्शनं यस्य स| उचितभिक्षालब्धम् । दश० २५३ । समितदर्शन:, सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः । आचा. २४३ ।। समुआणचारिया-समुदानचर्या बनेकत्र याचिसमिक्षापर. शमित-उपशमं नीतं दर्शन-दृष्टिानमस्येति शभितदर्शनः, णम् । दश• २००। उपशानाध्यवसाय इत्यर्थः । आचा० २५६ । समुइ-प्रकृतिः । बृ. प्र. २९५ अ समिया-कमिनो भावः शमिता-समता । भाचा० २६२ ।। समुइ-देशीषचनस्वादभ्यासः । वृ० प्र० २२० आ । सम्यक् समिता पा समोऽस्याऽस्नीति शमी तद्भावः शपिता - स्वमावः । व्य० दि० २१६ बा । . बाचा, २०५। सम्पक प्रतिपन्नाः । आच० १८७ । समुइओ-व्यासः । महा० । समिता, गोधूमम् । जं० प्र० १०५। समितयः, अभ्य. समुइय-समुदितं, सम्पप्रकारेण उदयं आतम् । न्तरादिपर्षदः । जं.प्र. २७८ । सम्यगिति प्रशंपार्थों प्र० १७५ । निपातस्तेन सम्यक् त ध्याकर्तुं वर्तन्ते अविपर्यासास्त समुक्कसति-समुत्कर्षति समुत्कर्ष याति । बाय. ३६॥ इत्यर्थः, समचतीति वा सम्यञ्चः, समिता वा सम्यक् | समकसे-सतस्कर्षति पर्वमायाति । २०२६८ । (१०६८) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुक्कसेवा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा. ५ [समुट्टिय समुक्कसेद्धा-समुत्कर्षयेत्-धनदानादिनोत्कृष्टं कुर्यात् ।। समुच्छद-समिति सामस्त्येन निरन्वयात् उदिति - उद्धं ठाणा० ११७ । क्षणादुपरी भवनात् छेदो-नाशः समुच्छेदस्तं वेत्ति तत्त्वसमुक्खित्त-समुरिक्षप्तः निसर्गार्थमाकृष्टः शरधिः । ज्ञाता० - धियेति समुन्छेदः । उत्त० १५२ । समुच्छय-समुन्छ यं-अन्त: कार्मणशरीरं बहिरोदारिकम् । समुग्ग-समृद्गकंतत्पिधानयोः सन्धिः । प्रश्न ८० । समुद्रकः- उत्त० २५४ । पक्षिविशेष: । जं० प्र० ११० । समुद्गः एतदभिधान- समुच्छा-प्रसूत्यनन्तरं सामस्त्येन प्रकर्षन्छेव: विनाशः। भाजनविशेषः । बोप. २. । समुद्गः अविद्यमानमुद्- ___ आव. ३१ । गोऽपि करावाधारविशेष: समुद्गः । अनु० १४१ । समुच्छिन्न किरिए-समुच्छिन्ना क्षीणा किया-कायिक्यादिका समुग्गका-समुद्गकाः चूलिकागृहाणि । जं. प्र० ४८।। शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन यस्मिस्तत्तथा समूच्छिन्नक्रिया। समुग्गपक्खि-समुद्गपक्षी समुद्गकारपक्षवानु पक्षिवि. औप० ४४: समुच्छिन्ना-क्षीणा कायिक्यादिका किया शैले. शेषः । उत्त० ६६६ । शीकरणे निरुद्धयोपत्वेन अस्मिस्तत्तथा । ठाणा० १९१ । समुगपक्खो-गच्छतामपि समुद्गकवत् स्थिती पक्षो समुद्. समुच्छिया-समुक्षिका-प्रातहाङ्गणे जसच्छटकदायिका । गकपक्षी तद्वन्त: समुद्गकपक्षिणः । प्रज्ञा० ४९ । गच्छ- शाता. ११७ । उत्त० ४६२ । तामपि समृद्गकवस्थिती पक्षो तद्वान समुदगकपक्षी । समुच्छिहिति-समुच्छेत्स्यति सम्यग्-निरवशेषतया उच्छेजीवा० ४१ । समुद्गकवत् पक्षी येषां ते समुद्गकवत् त्स्यति-उच्छेदं यास्यति-क्षयं प्राप्स्यतीति सामस्त्येनोवपक्षी येषां ते समृदयकपक्षिणः । ठाणा० २७३ ।। प्राबल्येन सेत्स्यति वा सिद्धि यास्यति । सूत्र. ३७३ । समुग्गय-समुद्गक:-माजनविशेषः । सम. १४ । समुद् मूच्छिन्द्यात अपनयेत । सुत्र. ६५ । पक-संपुटरूपमाण्डम् । ०० ५३३ । समुद्गक:- समुच्छेववाती-समुच्छेद-प्रतिक्षणं निरवयनाशं वदति सूतिकागृहम् । जीवा० २०४ । समुद्गकः पक्षिविशेषः । य: स समुन्छेदवादी । ठाणा. ४२५ । जीवा० २७० समुद्गकः-चूति (शूची)पहम् । जीवा० ३५९। समुज्जया-समुपता-उत्पादिता । व्य० द्वि. ३५२ अ । समुपकः इव समुपकः शूचिकागृहम् । राज० ६२ । समुज्झतो-समुद्युक्तो-अप्रमादी । व्य० प्र० १३१ आ। समुग्घात-समुद्रातः शरीरादहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः । ठाणा । समुट्ठाई-समतिष्ठते अभ्युद्यतमनुष्ठानं करोति । आचा. २८८ । समुग्घाय-हननंघातः सम्-एकीमावेन उत्-प्राबल्येन तत. समुट्ठाण-सम्यक् सङ्गतं प्रशस्तं वोत्यानं समुत्थानम् । श्कीमावेन प्राबल्येन च घातः समुद्घातः । भग. आब० ३७८ । २२६ । समुद्घात:-प्रज्ञापनायाः षट्त्रिंशत्तमं पदम् । समुट्ठाणसुय-समुपस्थान-भूयस्तत्रव वासनं तवेतुः श्रुतं प्रज्ञा० ६ । सम्-एकीभावेने उत्-प्राबल्येन घातः समु. समुपस्थानश्रुतम् । नंदी० २०७ ।। द्घातः । जीवा० १७ । समुद्घातः-जीवव्यापारः । समुट्ठाय-सम्य गुत्थाय-अभ्युपगम्य । आचा० ५४ । समु. ज्ञाता, ३४ । मारणावितकसमुद्घातः। भग० ९६३। स्थाय-प्रतिपद्य । आचा० ११३ । त्रयोदशशतके समुद्घातप्रतिपादनार्थो दशमोद्देशकः । भग० समुट्टिए-सम्यक् सततं सङ्गतं वा संयमानुष्ठानेनोस्थितः, ५९६ । नानाविधशस्त्रकर्मसमारम्भोपरतः समुस्थितः । आचा० समुग्घायपद-समुद्घातपदं, प्रज्ञापनायाः षट्त्रिंशत्तमं १३० । पदम् । भग० १२९ । समुट्टिय-समुस्थितः-सातः । उत्त० ५४३ । समुदृतंसमुच्चयबंध-सङ्गत:-उचयापेक्षया विशिष्टतर उचयः उत्क्षितम् । प्रभ०७६ । समवस्थित:-आश्रितः । जीवा० ममुच्चयः स एव पन्धः समुच्चयबन्धः । पप० ३९५ । । २०७ । समवस्थित:-प्राश्रितः । ७० प्र० ५२ । (२०६९) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुता ]. आचार्यश्रीआनम्बसागरसूरिसङ्कलित: [समुद्दविजओ - समुता-मंडवगोत्रे द्वितीयो भेदः । ठणा० ३९० । | समुदघात-सम्यक-समन्तत: उत्-प्राबल्येन हनन-इत श्वेत. समुत्तइओ-गवितः । पिण्ड० १३४ । श्चारम प्रदेशानां प्रक्षेपणं समधातः । आचा० ८५ । समुत्थाय-उत्पद्य, कश्चिद्भूत्वा वा । आव० २४२ । शरीरादहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपलक्षणम् । भा० ३९९ । सम्समुदय-समुदय:-समुदायः, उदयवर्तित्वं वा । प्रभ० ६३ । एकीभावेनोत-प्राबल्येन च घात-निर्जरणं समुद्धात: समुदयः, सम्यगुदयः । जं. प्र. १८४ : समुदाय: समः १२ । वृन्दम् । भग० २७६ । समुदयः वृन्दम् । जं. प्र. ९.।। समुद्घोषा:-जैनाचार्याः । पिण्ड० ६६ । समुदाचार-समुदाचार:-समाचारः स प्रमोदो वाऽऽचारः। समुह-समुद्रः नागादिनामासमुद्रः । जीवा० ३२१ । समुद्र: भग० ५६० । समूदाचार:-समाचार: । विपा. ४८। अन्तकृशाना प्रथमवर्गस्य द्वितीयमध्ययनम् । अन्त०१ । समुदाण-समुदान समग्रमुपादानं । पाव० ६१४। सम्- समुद्रः अन्नद्दशानां द्वितीयवर्गस्य तृतीपमध्ययनम् । नं भैश्यम् । अनुत्ता ४ । समुदान-भक्षम् । भग अन्त०३ । समुद्रः । प्रज्ञा०७१। ठाणा० ८६ । १३९ । समुदान-भक्ष्यम् । प्रश्न. १०६ । सुलम- द्वगंभीरसमा-गाम्भोयेण-अलब्धामध्यात्मकेन गुणे। प्रायोगद्रव्यम् । ७. द्वि. २ । भिक्खा । नि० चू० । समा गाम्भीर्यसमा: समुदस्य गाम्भीर्यसमाः समुद्रगाम्मो. द्वि. ११४ आ । समाः । उत्त० ३५३ । समवाणकम्म-प्रयोगकर्मणकरुपतया गृहिताना कर्मवर्ग- समुद्ददत्त-चतुर्थवासुदेवपूर्व भवनाम । सम० १५३ । समु. णानां सम्यगमूलोत्तरप्रकृतिवस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धभेदे. द्रदत्तः- मायोदाहरणे पूर्वमचे धनपतिः । साकेतपुरेऽशों कनाङ्-मर्यादया देशसर्वोपधातिरूपया तथा स्पृष्टनिधत्तनि. दत्तेभ्यपुत्रः । आव० ३९४ । समुद्रदत्तः पुरुषोत्तमवा सुकाचितावस्थया च स्वीकरणं समुदानं तदेव कर्म समुदान- देवपूर्वभावः । आव. १६३ टी. । समुद्ररत्त:-सोयंपुरे कर्म । आचा. १४ । मत्स्यबन्धः । विपा० ७९ । समुदाणकिरिया-समुदानक्रिया-यत्कर्म प्रयोगगृहोतं समुः । समुद्ददत्ता-समुद्रदत्ता सौर्य पुरे समुद्रदत्तमत्स्यबन्धभार्या । दायावस्थं सत्प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपतया यया व्यव- विपा० ७९ । स्थाप्यते सा । सूत्र. ३०४ । समुदानकिया-कर्मोपादानम् । समुहनाम-समुद्रनाम नारायणवासुदेवधर्माचार्यः । आव० ठाणा० ३१७ । प्रयोगक्रियय करूपतया गृहीतानां कर्म- १६३ टी० । अष्टमवासुदेवस्य धर्माचार्यः । सम० १५३ । वर्गणानां समिति सम्यक् प्रकृतिबन्धादिभेदेन देशसर्वो. समुद्दपालिज-समुद्दपालोयं-उत्तराध्ययनेषु एकविंशतितमः पघातिरुपतया च आदानं स्वीकरणं समुदानं निपातनात मध्ययनम् । उत्त० ९०९ । उत्तराध्ययनेषु एकविंशति. देव क्रिया-कर्मेति समुदानक्रिया । ठाणा. १५३। तममध्ययनम् । समा ६४ । समुदाणितो-भिक्षयन्-भिक्षा भ्राम्यनु । आव० ४३४ । समुलिक्खा-समुद्रप्लिक्षा-समुद्रोद्भवा लिक्षा । जीवा. समुदाणिय समुदानानि-भिक्षास्तेषां समुहः-समुदानिकम् ।। ३१ । द्वीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । उत्त० ४३६ । समुहवायस-चर्मपक्षीविशेषः। प्रज्ञा०४९ । भग० ६२७ । समुदान-भिक्षणः । ठाणा० २१३ । व्य० वि० ३३० । समुद्रवायम: चर्मपक्षिविशेषः । जीवा• ४१ । समुदायाणिजइ-थोवंथोवं पडिवजइ । दश० चू० ८६ । । समुद्दविजए-चतुर्थचक्रोपिता । सम० १५२ : समुद्रसमुदायारं-समुदाचार:-आचारः । आव० ७१०। समु. विजय:-मधवपिता । आव० १६२ । नेमिनाथपिता । दाचार:-यस्कि क्षमनुष्ठानम् । सूत्र. ३२६ । | सम. १५१ । समुदविषय:-नेमिनाथपिता । आव. समुदगकः । प्रज्ञा० २५ । १६१ । समुद्रविजयः-सौर्य पुरनुपतिः । उत्त• ४८६ । समुद्गपक्षी-खचरतियंञ्चपञ्चेन्द्रिये तृतीयो भेदः । सम. समुद्दविजओ-समुदविजयः को चोदाहरणे शोर्यपुरे राजा धाव. ७०५ । ( १९०१ ) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्दविजय ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ समूर्छनजम् समुद्दविजय-द्वारवल्या वसाहः । ज्ञाता. २०७ । दशाह- | समुद्रविजथः-वसुदेवज्येष्ठभ्राता । प्रभ० ६ ० । अन्धक मुरव्यः । ज्ञाता. ६६ । समुद्रविजयः दशाईविशेषः। वृहिणः । दश०६७ । अन्त० २ । समुन्नइओ माणाभिभूतो । नि० चू० दि. १.. था। समुद्दा-समुद्राः । अनु• १७१। समुपस्थान-भूयस्तत्र वासनम । नंदी. २०७ । समुद्दिह-समुद्दिष्टम् । आ० ८५७ । समुद्दिष्टः-भक्तः । समुपेहिआ संप्रेक्ष्य सभ्यग दृष्टया । दश० २२३ । उत्त० १०८ । समुद्दिष्टः भुक्तः । आव० ५३६ । समुप्पण्ण-समुत्पन्न-लब्धसत्ताकं जातम् । जं०प्र० २७७॥ -सिद्धाः । आव. ७२७ । समुप्पेहमाण-सम्यगुरप्रेक्षमाण पश्यलो अनित्यताघ्रातमिदं समुद्दिष्टम् । ओष० १९. । शरीरमित्येवम वधारयन् । आचा० २०६ । समुद्दिसण-समुद्दीशनम् । ओघ ८१ । समुब्भूय-सम्मुखभूतां एक हेलोत्पन्नम् । ठाणा० १८७ । समुद्दिसिउं-स मुद्देष्टुम् । आव० ८५६ । समुद्देष्टु-अत्तुम् । समुयाण-समुदान-भक्षम् । ज्ञाता० १८८ । समुदानआव० ११५ । भिक्षाम् । ओघ ७६ । समुहिस्स-समुद्दिश्य-आश्रिस्य । उत्त० २७२ । समुद्दिश्य- समुयाणकिरिया-समुदानक्रिया-विंशतिक्रियामध्ये सप्तआश्रित्य । आर्चा० २७१ । दशम । समुदायोऽष्टकर्माणि, तेषां पयोपादानं क्रियते समुद्देस-समय प्रसिद्ध साङ्केतिक नाम । पिण्ड० ६ । सा समुदानक्रिया । आव• ६१२ । प्रज्ञा० ४४७ । समुयाणिअ-भिक्षातिचा । ओघ १७५ । मुद्देशः । ओघ० २८ । समुल्लालिया। ज्ञाता. २३१ । समुद्देशकम्म-द्वादशविधे विभागोद्देशके यः चरमत्रिक तत्र | समुल्लासिया-प्रहरणविशेषः । ज्ञाता० २३९ । प्रथमः । बृ. प्र. ८३ अ । समुवट्टिया- समुपस्थिता-उभयत्र पद्यता । उत्त० ५१२ । समुद्देशनाचार्यः-सूत्रस्य समुद्देशनाचार्यः । ठाणा. २९९ समुविति-समुपयान्ति प्राप्नुवन्ति, उत्पद्यन्ते । दश. ससुद्दशिक-पाषंडिन उद्दिश्य क्रियमाणं समुद्देशम् ।। २४७ । उहिष्टं कृतं कम्मं च-उद्दिष्ट चतुविधमोदेशिकं स मुद्देशि- समुविठ्ठ-सम्यक्-परस्परानाबाधया उपविष्टः समुपविष्टः : कम् । बृ० प्र० ८३ अ । जीवा० १९४ । स मुद्देसो-कमुद्देश:-श्याख्या अर्थप्रदानम् । व्य० प्र० २६ समुवेक्खमाण-समुःप्रेक्षमाणो - निरूपयन - व्यापारयन् । छ। नि० चू० प्र० २५६ मा । सामण्णेणं पासहीणं। ज्ञाता ११ ।। नि. चू० प्र० २३० आ । विसेसमो समुद्देसो, जहा | समुवहन्त-समुदहन् कुर्वन् । अनु• १३१ । अमुगगणिस्स दाहामो वायगस्स वा । नि० चू० द्वि० समुसरणं-समवसरणम् । आव० १५७ । '०८ अ । स्थिर परिचित कुविदमिति गुरुवचनविशेष समुस्सय-समुन्छयः-संघातः । दश० १९८ । समुच्छयंएव समुद्देश: । अनु० ४ । शरीरकं कर्मोग्ययं वा । आचा. १९३ । समुद्देसणायरिय सूत्रस्य समुद्देशनाचार्यः । दश ३१ । । समुस्सिणोमि-समुच्छुणोमि-आदेरारम्यापूर्व करोमि सं. समहेसिय-समुद्देशिक विभागोहेशिके द्वितीयो भेदः । सारं का करोमीत्येवं प्राञ्जलिस्वनतोत्तमाङ्गः सन् पण्ड० ७९ । अनशनादिना निमन्त्रयेत् । आचा. २७१ । समुदायमाणक-उद्धावनं-प्रहाराय समुत्तिष्ठन् ।प्रभ० ५१॥ | समुहागय-परस्परसंमुखस्थितः सन्मुखागतः । जीवा. समुद्धारो-अण्णुण्णा । नि० चू० प्र० ८६ । समुद्रः-सह मुद्रया-मर्याक्या वतंत इति समुद्रः प्रचुरज. समुहिया-श्वमुखिका-कोलेयकः । मा० ६७३ । लोपलक्षितः क्षेत्रविशेषो चा। अनु.१०। समूच्र्छनजम् । ठाणा. १८७ । (१९०१) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समूलडाल ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ सम्भोग समुलडाल-समूल शाखम् । महाप० । शममध्ययनम् । पाव. ६५१ । बोध, १६१ । समव समूसणग-समूषणकत्रि कटुक तस्याङ्ग-सुण्ठीपिप्पलीमरी. सरण:-सूत्रकृताङ्गस्य द्वादशममध्ययनम् । उस०६१४ । चद्रव्यम् । उत्त० १४२ । साधुसमुदायविषयः । पिण्ड ९१। समवसरणं-बहूनासमूसवियं-समुच्छ्रितं हर्षातिरेकादूर्वीकृतम् । प्रश्न• ४९। मेकत्र मीलनम् । राज. १३३ ।। समूसिय-समुच्छ्रितका उर्धीकृतः । प्रभ० ५१ । समोसरणा-समवसरन्ति नानापरिणामा जीवा: कश्चित्त. समूह वर्गः । विशे. ३२८ । समूहः । विशे० ४२६ ।। ल्यतया येषु मतेषु तानि समवसरणानि, समवसृतयो समूहति-परिभावयति । ध्य० प्र० १५० । वाऽन्योन्यभिन्नेषु कश्चित्तुल्यत्वेन क्वचित्केषाश्चिद्वादिनामसमृद्धः-चूर्णद्वारविवरणे सुस्थितसूरिशिष्यः । पिण्ड० वताराः समवसरणानि । भग० ९४४ । १४३ । समृद्ध-ऋद्धिविशेषकारणम् । ठाणा• २४७ । समोसितिया । नि० चू. प्र. ७८ अ । समेमाणा-शाम्पन्तो-गायनात्यर्थ मासेवां कुर्वन्तः ।आचा. समोसियग-प्रातिवेश्मिकः । नि० चू० तृ. १४ अ । ६८० । निः चू० प्र० २११ आ। समेमारणे-समागच्छन् । आचा० २६५ । समोतिया । दश. चू० ४४ ।। समोर-सम्यग्-अविरोधेनावतरणं-वर्तनं समवतारोऽवि. समोसीइयं-समवसृतम् । आव० ३६७ । गेधवृत्तिता । अनु० ५६ । समोहए-समवहतः-कृतमारणान्तिकसमुद्रातः । भय. समास्तृतः व्याप्त: । आव० ३४६ । ७३० । समोत्यरंत-समवस्तृणं-महीपीठमाक्रामन् । ज्ञाता. २५। समोहणंति-समुम्हन्यते-समुपहतो भवति समुपहन्ति वासमोभंगो-हीरविरहितः । नि० चू० द्वि. १४१ अ। क्षिपति प्रवेशानिति गम्यते, व्यापारविशेषपरिणतो भव. समोयार-समवतारः प्रतिद्वारमधिकृताध्ययनसमवतारस. तीति भावः । ज्ञाता.३१। भज्जति । नि० चू.द्वि. क्षणः । ठाणा०५ । समावतार:-योजना । पिण. ७६ । १३३ था। समोपतु-साधूनितावर ! जना, ३६ । समवसृत:- समोहणइ-समुपहन्यते समुपहता भवति समुपहन्ति वा भागतः । बाव० ८१६ । समवसता-स्थित-धर्मदेश- प्रदेशात वा विक्षिपति । भग. ११४ । समवहन्यते नार्थ वा प्रवृत्तः । दश० १६१ । समवसृतः । आव० समवहतो भवति । जीवा० २४३ । ३६२ । समोहन्नइ-समवहन्ति-समुद्रघाताय प्रयतते ।प्रज्ञा० ६०२। समोसरण-समवसरणं-वसतिः । औप० ६१ । जिनस्न. समोहया-समुद्घाते वर्तमानाः कृतदण्डा। । भग. ७६४ । पनरयानुयानपट्टयात्रादिषु यत्र बह्वः साधवो मिलन्ति सम्पन्नजोवण-मातृपितृपरिपालनामपेक्षन्तः। सम०७०। तत्समयसरणम् । सम० २३ । समवसरणं-आगमविचार- - सम्पानक-पूपः । आव० ४५८ । रूपम् । सूत्र. ३४१ । समवसरण-त्रयाणां त्रिषष्ठघ. सम्पूर्ण-कृरस्नम् । आय० ५०.। धिकानां प्रवादिशताना मतपिण्डनरूपम् । सम० ३२॥ सम्पृक्तिः - । नंदी. १६६ । सम्यग्यात्रावागाहनानत्र तमिलिताना समवसरणं | सम्बध्नति-गृह्यमाणतयैव स्पृशति । उत्त० २२६ । कुखगणमङ्घान्यतमसमवायः। बृ० तृ०६१ मा । हार्ष । सम्बाध यात्रासमागतप्रभूत जननिवेशः । राज. ११४ । नि० चु० प्र० २३६ मा । नि० चू० प्र० २३६ ।। सम्बुद्धि-आमन्त्रणो । अनु० १३४ । समवनरण-सम्यग् एक गमनम् । बोष. १४६ ।। सम्भवन्त:-वर्तमानः । वाचा. २५२ । समवसरणं-विविधमतमोलकः । ठाणा० २६८ । सभव- सम्भवानुमान-अनुमानविशेषः। बाचा. २३ । सरणं-स्नानादि। ओध.५४ । समवसरण:-साध्यागमः। सम्भोग-सं-एकीभूय समानसमाचाराणां साधूनां मोर्न बाव० ५७७ । समवसरणं-सूत्रकृताङ्गाधश्रुतस्कन्धे द्वाद- | सम्भोपः । सम० २२ । ( ११०२) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्भोनार्थ आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसहुलित: [ सम्ममिच्छविट्ठो सम्भोगाथं नाम यत्रोपसम्पन्नस्ततोऽपि विसम्मोगकारणे | समत्तकिरिया-सम्यक्त्वक्रिया-सम्यग्दर्शनयोग्याः कर्मप्रसदनलक्षणे सत्यप्रकामतीति । ठाणा० ३८२ ।। कृती: सप्तसप्तति पङ्ख्या यया बध्नाति सा । सूत्र. सम्म-वीतरागोक्तेन विधिना सम्यग । दश० २५७ ।। ३०४ । सम्यग-प्रशंसार्थः । समञ्चति जीवादीनवपरित्येनावयच्छ- सम्मन जब सम्यक स्वपर्यवः- सम्यकत्व परिणामवि. तीति सम्यक । उत्त० १५१ । सम्यग्भावं विनयमित्यर्थः। । शेषः । शाता० ३७६ । | सम्मत्तवेदणिज-जिनप्रणीततत्त्व भद्धानात्मकेन सम्यक्त्व. समञ्चतीति सम्यक्-अविपरीतम् । मोक्ष-सिद्धि प्रतीत्या. | रुपेण यद्वद्यते तत्सम्यवत्ववेदनीयम् । प्रज्ञा० ४६८। नुगुणमित्यर्थः । ठाणा० १५६ । शर्मः । अनु० १४६ ।। सम्मत्तसहहण-सम्बक तत्त्वश्रद्धानं परमार्थसस्तवादिभिः सम्यक-अविपरीतम् । नंदो० १०६। सम्यग्दर्शनज्ञान- सम्यक्त्वमस्तीति श्रद्धीयत इत्यर्थः । प्रज्ञा०६० । चारित्रत्रयस्य परस्परं योजनं सम्यग् । विशे० १३२४ । सम्मत्ताभिगमी-सम्यक्त्वाधिगामी-सम्यक्त्वप्राप्तवान् । सम्म उवउत्त-सम्यगुपयुक्तः- यः पूर्वापरानुसन्धानपाटबो. प्रज्ञा ५४७ । पेतः श्रुत ज्ञानेन पर्याप्लोच्यार्थासु भाषते स । प्रज्ञा० २५२। सम्मत्ताराहणा-अहिंसायाश्चतुद्देशं नाम, सम्यक्रवं-सम्पर. सम्म बुद्ध-सम्यग्बुद्ध:-अविपरीतबोधवान् । उत्त० ४४६ । बोषिरुपमाराध्यते यया सा सम्यक्त्वाराषना । प्रभ० ९९ । सम्मइ-स्वकीयमतिः-स्वमतिः। आचा०२० । सम्मदिदि-सम्यगाष्ट्रिय विशे० १४१ । सम्मओ-सम्मृतः । महाप० । सम्मविट्ठी-सम्यग्दष्टि सम्यग्दर्शनशुद्धिा, सम्यर अविपरीता सम्मट्ट-कचरापनयनेन समृष्टम् । जीवा० २४६ ।। दृष्टिः । योपसङ्ग्रहे द्वादशमयोगा । बाव. ६६४ । सम्मट्ठावियं- । नि० पू० द्वि० १६६अ। | सम्यग्-अविपरिता धि:-जिनप्रणीतषस्तुतस्वप्रतिपत्तिसम्मत-आषाया: प्रामित्यद्वारविवरणे देवराजपुत्रः पिण्ड यस्य स सम्यगाष्टिः । जीवा० १८ । ९८ । सम्मईसण-सम्यग्दर्शन-मिथ्यात्वमोहनीयकर्णाणुवेदनोपशा -सम्मति-आषायाः प्रामिषद्वारविवरणे देवराजदारिका ।। मक्षयोपशमसमृस्थ पात्मपरिणामः । भग० ३५० । पिण्ड ९९। सम्मद्दिट्टिया-सम्यग्-अविपरीता दृष्टि:-दर्शन-हचिस्तन -सम्मत-मिथ्यात्वानामेकाग्तक्षणिकत्वाऽक्षणिकत्ववादिसौग- स्वानि प्रति येषां ते सम्यगट्टिकष्टः। ठाणा०३०। तादिमताना य: समूहः-समूदायः स्यादपदलाच्छितः, ससम्म हिट्ठी-सम्यक -अविपरीता इष्टि:-जिनप्रतिवस्तुप्रतिएवं यस्मात् सम्यक्त्वम् । विशे० ४४९ । सम्यक्त्वं- पत्तिर्येषां ते सम्यग्दृष्टो । नंदी० १०५ । सम्यगमामायिकद्वितीयपर्यायः । आव ४७४ । सम्यक्त्वं-यः अविपरिता दृष्टि: जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यादा वानरूमी जीवस्यभाव:-परिणामः स एव • सम्यग्दृष्टिः, स चान्तर करणकालभाविना औपशमिक. तावद् मख्यतः सम्यक्त्वमुच्यते। विशे० ५७३ । सम्यक्त्वं-| सम्यक्त्वेन सास्वादनमम्यक्त्वेन विशुद्धदर्शनमोहपुञ्जोदयस. मिध्यास्वमोहनीयक्षयोपशमादिसमुत्यो जीवपरिणामः । म्भवति क्षयोपशमिकसम्यक्त्वेन सकलदर्शवमोहनीयक्षयप्रश्न १३२ । सम्यक्त्व -सम्यग्बोधिरुपम् । प्रश्न १०३।। समस्थक्षायिकसम्यक्त्वेन वा द्रष्टव्यः । प्रज्ञा० ३८७ । सम्यक्त्व-समत्वम् । आचा० २७८ । सम्यक्त्व-प्रज्ञाप. सम्ममणुप्पवातिता-सम्यगनुप्रवाचयिता पाठयति । नायामेकोनविंशतिमं पदम् । प्रज्ञा० ६ । सम्यक्रवं- ठाणा ३०१ भाचाराङ्गस्य चतुर्थमध्ययनम् । उत्त० ६१६ । सम्यक्त्वं सम्ममिच्छदि द्वि-सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिर्येषां ते अचलं विधेयं, न तापसादीनां कष्टतप:सेविनामष्टगुणश्चर्य- सम्यगमियादृष्टयः, येषामेकस्मिन्नपि च वस्तुनि तत्पर्याय "मुद्वीय दृष्टिमोहकार्य इति प्रतिपादनपरं सम्यक्त्वम् ।। वा मतिदोबंलयादिना एकान्तेन सम्यकपरिज्ञान मिथ्याठाणा० ४४४ । ज्ञानामावतो न सम्यवानं नाप्येकासतो वितिपति (११०३) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्ममिच्छविट्ठी ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, भा० ५ [ संघ ते सम्यगमिथ्यादृष्टयः । नंदी. १.६ । . ४६१ । सम्यग्-अविपरीततस्वानां वादः सम्यग्वादःसम्ममिच्छविट्ठो- सम्यग्मिध्यादृष्टिः-सम्यक्त्वं प्रतिपद्य- | अस्तित्त्वम् । ठाणा० २११ । मानः प्रायः साततत्त्वरूचिः, भूतग्रामस्य तृतीयं गुण- | सम्मावाद-सम्यग्वादः । दश. १११ । स्थानम् । आव० ६५० । सम्मेय-सम्मेत:-सम्मेतशिखरम् । आव० ८२७ । सम्मय-सम्मतम् । ठाणा. ४८९ । सम्मोहणंति-समवघ्नन्ति-आत्मप्रदेशान्विक्षिपन्ति । जं० सम्मयसभा-सम्मतसत्या या सकललोकसाम्मत्येन सत्य- प्र० २४१ । तया प्रसिद्धा । प्रज्ञा० २५६ । सम्यक्त्व-देशकालसंहननरूपं यथाशक्तियथावदनुष्ठानं ससम्मवाउ-सम्यकशब्देन रागद्वेषविरह उच्यते, तेन तस्म. म्यक्त्वम् । पिण्ड • ६६ । धानो वादो वादनं सम्यग्वादः-रागद्वेषविरहेण यथावद् । सम्यग्दर्शन-सम्मदसणं-अव्यभिचारिणी सन्द्रियानिन्द्रिवदनं-बादः । विशे० ११०७ । यार्थप्राप्तिः । तत्त्वा० १-११ सम्मसुय-सम्यकश्रुतं श्रुतं-भावश्रुतम् । उत्त० ३४३ । । | सम्यग्निर्याण-मारणान्तिकोपसर्गनिपाते सति अदिनमनसम्मा-तेहिं वंदणादीहि वेत्थपत्तादी य जो सम्वपगारेण | कीरइ सो वा । दश० चू० ८८। सयं-स्वयमारमनालिलानपेक्षम् । भग. ४५५ । स्वयंसन्मान:-पादप्रक्षालनादिकः । ओष०७० । सम्मान:- आत्मना स्वरूपेण । ज्ञाता० १३१ । सकृत् -एकवारम् । अभ्युत्थानादिः । उत्त. ६६८ । सम्मान:-वस्त्रपात्रा- मोघ० १८१ । सकृत्-एकैकं वारम् । सूर्य० ११ । दिपूजनम् । ठाणा० ४०८ । सन्मानः-वस्त्रादिपूज- सयंजए-शतञ्जय:-त्रयोदशदिवस नाम । जं० प्र० ४६० 1 नम् । सम० ६५ । सन्मान:-मानसः प्रीतिविशेषः । सयंजल-तृतीय इन्द्रलोकपालस्य वरुणस्य विमानम् । भय० जं० प्र. ३६८ । सम्मान:-स्तुत्यादिभिर्गणोनितिकरणम् । १६४। अतीतायामवसपिण्यां प्रथमकुलपरः (मारहे वा०) मानसः प्रीतिविशेषो वा । आव० ७८०। सम्मान: । सम० १५०। वसपात्रादिलाभनिमित्तः । दश० १५७ । सम्माणाणल-बहुमानविषयतया सम्माननीयः । बोप० ५। | सयंपभ-बागामिन्यामत्सपिण्यो भारतवर्षे चतुर्यकुलकरः । सम्माननीयः । सूर्य• २६७ । सम० १५३ । जम्बूमरते आगामिन्यामुत्सपिण्यां चतुर्थ तीर्थकरः । सम० १५३ । स्वयंप्रम: चतुषष्ठितममहाग्रहा। सम्माणवत्तिया-सन्मानप्रत्ययं-स्तुत्यादिभिर्गुणोन्नतिकरण. निमित्तम् । आव. ७८६ । ज० प्र० ५३५ । अतीतायामुत्सपिण्यां चतुर्यकुलकर! सम्मणेमो-उचितप्रतिपत्तिभिः सन्मान यामः ।मग० ११५॥ ( भारहे वासे ) सम. १५० । आगामिन्यामत्सीयो सम्मामिच्छदिट्ठिया-सम्यग्मिथ्यादृष्टिका:-जिनोक्तभावान् चतुर्थकुलकरः : ठाणा० ३९८ । अतीतायामुत्सीया चतुर्षकुलकरः । ठाणा० ३६८ । रत्नबहुलतया स्वयमाप्रत्युदासीनाः । ठोणा० ३१ । सम्मामिच्छाकिरिया-सम्यग्मित्थ्यात्वक्रिया तथोग्याः दिल्यादिनिरपेक्षा प्रभा-प्रकाशो यस्याऽसौ स्वम्प्रभः मेरुः । प्रकृतीश्वतुःसप्ततिसङ्सख्या यया क्रियया बध्नाति सा। जं. १० ३७५ । षष्ठषष्ठीतममहाग्रहः । ठाणा० ७६ । स्वयमादित्यादिनिरपेक्षा रत्नबहलतया प्रभा-प्रकाशो यस्य सूत्र. ३०४ । सम्मामिच्छादिट्ठी-एकान्तसम्यग्रूपमिथ्यारूपप्रतिपत्तिवि स स्वयम्प्रभा । सूर्य० ९८ । कल: सम्यग्मिथ्यादृष्टि: । जीवा० १८ । सयंपभा-स्वयंप्रभा निर्वामिका या पूर्वभवः श्रेयांसजीवः, सम्मावाओ-सम्यग्वाद:-एकादिविरहेण यथावद् पदनम् । इशाने श्रीप्रभविमाने अलिताङ्गपत्नी । आव० १४६ । बाव. ३६४ । । सयंमु-स्वयम्भू, तृतीयवासुदेवः । सम०६४ । स्वयम्भुःसम्मावात-सम्यग्-अविपरीतो वादा-सम्यग्वादः । ठाणा. तृतीयवासुदेव। । बाव० १५९ । कुन्युनावप्रथमशिष्यः । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयंभुमहावर ] सम० १५२ । सन्तकुमार माहेन्द्रे बट्सागरोपमस्थितको देव: । सम० १२ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०-५ सयंभु महावर स्वयम्भू महावरः स्वयम्भूरमणे समुद्रे परार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३७० । सयंभुरमण सम्तकुमार माहेन्द्रे षट्सागरोपमस्थिको देवः । सम० १२ । संयंभुरमण भद्द - स्वयम्भूरमणभद्र स्वयंभूरमणे द्वीपे पूर्वाधिपतिर्देवः । जीवा० ३७० । सर्वभुवर स्वयम्भूवर: स्वयम्भुरम्णे समुदे पूवार्धाधिपतिदेव: । जीवा० ३७० । [ सयण. विशेषाणां श्रमणोपासक पञ्चमप्रतिमारूपाणां वा कार्तिकश्रेष्ठभवापेक्षया यस्यासी । प्रज्ञा० १०१ । सयग्गसो - शतपरिमाणः शतपृथक्कृतम् । भग० ९०५ । सयग्गह-स्वय-प्रारमना दत्तं गृह्यते यत्तत् स्वयं ग्राह्यम् । प्रश्न० १५४ । सयग्धि - शतधन्यः - शतानामुपघातकारिण्यः । सम० १३८ । शतभ्यो महायष्ट्रघो महाशिलामय्यः याः पातिताः शतानि पुरुषाणां तति । ज्ञाता ० २ । शतघ्नी- महायष्टि: महाशिला वा, या पतिता तां पुरुषाणां शतं हनति सा जीवा १६० । शतघ्नन्तीति- शतधन्यः । उत्त० ३११ । शती महायष्टि महाशिला वा । और० ३ । शतथ्योमहायष्टयो- महाशिला वा । जं० प्र० ७६ । शतघ्न्यःमहायो महाशिला वा यः पातिताः सत्यः पुरुषाणां शतानि धनन्ति । प्रज्ञा० ८६ । सयज्जल - भरतेऽनीतायामुसक्यां प्रथम कुलकर: । ठाणा ० ५१८ । सयंभू - स्वयं भवतीति स्वयम्भूः विष्णुरन्यो वा । सूत्र० ४२ । स्वयं भवतीति स्वयम्भूर्देवः । सूत्र० १४६ । सयंभूरमण - स्वयम्भू रमणः द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च । जीवा० ३७०। द्वीपमसुद्रो । जीवा० ३२१ स्वयम्भूरमण:- स्वम्भूरमणाभिधानः समुद्रः । उत्त० ३५३ । स्वम्भूरमण:- महासागरः । आव० ५६७ । संयंभूरमण महाभद्द-स्वयम्भूरण महाभद्रः स्वयम्भूरमणे द्वी. सयज्जलकूड - शतज्जल कूटं विद्युत् प्रभवक्षस्कारे कूटम् । जं० पेऽपरार्थाधिपतिर्देवः । जीवा० ३७० । सयंभूरुपुजा-स्वयम्भूरुकपूर्णाः । चउः । सयंमएलओ -स्वयं म्लानः मृतः । आव० २८७ सवसि - स्वयंवशः । मर० । सयं संबुद्ध - स्वयं सम्बुद्ध:- स्वयं- आत्मनैव नान्योपदेशत: सबुद्धो हेयोपादेयवस्तुतत्त्वं विद्वानिति स्वयं सम्बुद्धः । गम० ३ । स्वयं-अपरोपदेशेन सम्यग्वरबोधिप्राप्त्या बुद्धो-मिथ्यात्वनिद्रापगम सम्बोधेन स्वयंसम्बुद्धः । जीवा० २५५ ! सय- शतं शतशब्देन अध्ययनानि उच्यन्ते । सम० ८६ | शतभिषक् । सूर्य० २११ । सयइ स्वदत स्वादु प्रतिभाति, स्रति-निर्गच्छति । सूत्र० ३२६ । सयइत्ति-स्वदतीति उपकारे न वर्त्तते । आचा० ३५६ । सक्कऊ शतक्रतुः शतं क्रतवः - प्रतिमा - अभिग्रहविशेषाः, श्रमणोपासक पञ्चमप्रतिमारूपः, कार्तिकश्रेष्ठभवापेक्षया यस्यापो इन्द्रः । भग० १७४ । सयक्कतू - शतक्रतुः - इन्द्रः शतं कृतानि प्रतिमानामभिग्रह( ब० १३९ ) प्र० ३५५ । सयण - शयनं पर्यङ्कादि । दश० २१८ । भग० २३८ । स्वजन: पितृव्यादिः । जं० प्र० २७० । शयनं संस्तारकादि । दश० २८१ । शयनं शय्या प्रश्न० १३८ । शयनं - पर्यङ्कादि । सूत्र १०६ । शयनं पर्यङ्कतूली प्रच्छदपटोपधानयुक्तम् । सूत्र ८७ । स्वजनः पितृव्यादिः । ज० प्र० १४६ । शयनं शय्या प्रश्न० ८ । शयनंसंस्तारको वसतिर्वा । आव० ७६५ । शयन:- तुल्यादिशयनीयः । ज्ञाता० १२ । स्वजन: मातापित्रादिकः । आव ८२ । स्वजन:- पितृव्यादिः । आचा० १०० । स्वजन:- मात्रादिकः । आव० ३६६ । स्वजन:- पितृपि तृव्यादिः । सम० १२८ । स्वजन:- पितृपितृव्यादि: । भग० ४८३ । शयनं - संस्तारकादी तिर्यक् शरीरनिवेशनम् । उत्त० ६६ । स्वजनः अव० ३६६ । स्वजनः । ओप० १०३ । शयनं शय्यते यस्मिनिति शयनम् । आचा ३०२ । शयनं - आश्रयस्थानम् । आचा० ३०८ । शयनंपत्यङ्कादि । उत्तः २६२ । शयनं फलक संस्तारकादि उ० ४२३ । शयन:- वसतिः । आचा० ३०७ । ( ११०५ ) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयणविहि] प्राचार्यधीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [सयावरण सयविहि-शयन-शय्या पल्यङ्कादिस्तविधिः अथवा शयनं । सम० १५० । भरतेऽतीतायामुत्सीण्या दशमकुलकर।। स्वप्नं तद्विषयको विधिः । जं० प्र० १३७ । ज्ञाता. ठाणा. ५१८ । सयराह- झटिति । अनु० १७५ । अकस्मात हेलयेत्यर्थः । सयणा-जे गुणदोसधिहण्णु । दश• चू० ११५ । औप. १०१। युगपत् । विशे. ३३७ । नि० चू०प्र० सयणासण-शयनासन-शय्याफलादि । आचा• ३०७ । १०१ अा झपिति ज्वलनात संज्वलना । विशे० ५५० सयणिज-शयनीयं-शय्या । आव० ५०५ । शयनीयम् । युगपदर्थाभिधायकं स्वरितार्थाभिधायकं वा देशीवचनम् । आव० ५१४ । आव० १५, । एकहेलया। प्रश्न. ४९ । सयणिबग-स्वजनः । ओष. २० । सज्ञातीयः। उत्त० सयरिसह-शतवृषभः । सूर्य० १४६ । १५० सयरी-शतरी-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । सयणिजय-स्वजनः । पाव० ३४५ । सयल-सकलम् । उत्त० ६८६ । सयणी । नि• चू. द्वि० २८ बा । सयलकसिण-एकपुरं एकतलं चर्म । वृ० दि० २२२ था। सयनि-दीर्घकायप्रसारणेन शेते-वर्तते । जीवा० २०१ । घनमसृणनिरुपहतं वस्त्रम् सदसियागं वस्त्रम् । बृ. द्वि. सयदवार-द्वादशमअममतीर्थकृदुत्पत्तिस्थानम् । अन्त०१६।। २२६ आ । शतद्वारं नगरविशेषः । अन्त० १६ । शतद्वार-नगर । सयलग-शकलम् । भाव. ४२५ । धनपतिराजधानी । विपा० ३९ । भग० ६७० । सयवत्त शतपत्रम् । प्रज्ञा० ३७ । सयदेव-अचलपुरीयकौटुम्बिकः । मर० । सयवसह-त्रयोविंशतितममुहूर्तनाम शतवृषभः । जं.प्र. सयघा जम्ब्वे रवते आगामिन्यामुत्सर्पिण्यामष्टमकुलकरः।। ४६१ । सम० १५३ । निरयावल्यां पञ्चमवर्गद्वादशममध्ययनम् । सयवाइय-त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । निरय० ३९ । सयस-शतश:-अनेकशः । विशे० १२०५ । सयनं-स्वरवर्तनम् । नि. चू० प्र. २४७ अ । सयसाहस्सीय-लक्षम् । सम. १०४ । सयपत्त-कमलविशेषः। प्रज्ञा० ३३ । ज्ञाता० ९६ । सर्यासक्कर- शतशर्करम् । आव० २७३ । सयपाग-शतपाक-रूपकानां शतेन मूल्यतः पच्यते । ठाणा० सया-सदा-सर्वदा । भग ८३ । ११ । शतपक शतेनौषधीनां पक, शतवारा वा । सयाउं-स्वयम् । आव०६८३ । जम्बूभरतेऽतीतायाम: ६० तु. १०६ बा। शतपाक शतकृत्वोऽपरापरोधिरसेन । सीण्यां द्वितीयकुलकर ठाणा०५१ । कार्षापणानी शतेन यसक्वं तत्तलम् । ज०प्र० ३६४ । सयाऊ-जम्बू भरतेऽतीतायामवसीयां द्वितीयकुलकरः । सयपुण्फा-शतपुष्पा । उत्त. १४२ । वनस्पतिविशेषः ।। सम० १५० । भग ८०२ । सयाजला-सदा-सर्वकालं जलं-उदकं यस्या सा सदासयपोरागकिमि-शतपर्वकृमिः इक्षुपर्वकृमिः । जीवा। जला । सूत्रः १४० । सयाणिओ-शतानीक: कौशाम्बी नगराधिपतिः । बाव सयबल-शतबलराजा । आव० ११६ । २२२ । शतानीक:-कौशाम्बोनगराधिपति: । आव.६३ । सयभत्ति-शतभक्तिः-शरसङ्घाविच्छित्तिः । औप० ६७। सयाणीए-शतानोक:-कौशाम्बीनृपः । विपा.६८। ममिया-त्रयोविंशतितमनक्षत्रम । ठाणा० ७७ । शत-सयाणीय- उदायनपीता मुगावतीभर्ता । भग० ५५ भिषक । सूर्य० १३० । सयाली-आगामी एकोनविंशतितमतीर्थकृतत्पूर्व भवनाम । सयय-सततं-अनवरतम् । भग १९ । सम- १५४ । सयरह-जम्बूमरते अतितायामवसपिण्यां दशमकूल करः । सयावरण-सदावरण-शोमार्थ दंशमशकादिरक्षार्थ वा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासवा ] अल्पपरिचितसेद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० ५ प्रच्छादानपटः । जं० प्र० २३६ । समासवा आश्रवति ईषत्क्षरति जल यैस्ते अश्रवा:सुक्ष्मरन्ध्राणि सन्तो विद्यमाना सदा वा सर्वदा शतसङ्ख्या वाऽऽश्रया यस्यां स सदाश्रवः शताश्रवा वा । भग० ८३ । सासुक्ख - सदासौख्य: - अपवर्गों नित्यसुखः । आव ८५२ । सरंढ-भुजपरिसर्प विशेषः । प्रज्ञा० ४६ । भुजपरिसर्पः तिर्यगयोनिकः । जीवा ० ४० । सरं शरम्ब:- भुजपरिसर्पविशेषः । प्रश्न | सर-स्वर:- गाम्भीर्यादिगुणोपेतः । उत्त० ४८६ । स्वर:शब्दः षड्जादि ठाणा ० ४२७ । स्वर:- शिवादिरुतरूपः । उत्त० ४१७ । स्वरं जीवाजीवादिकाश्रित स्वरस्वरूपफलाभिधायकं शास्त्रम् । सम० ४९ । सरःस्वतः सम्भवो जलाशय विशेषः । प्रश्न० १३४ । गोशालकशतके गोशालकेन प्ररुपितकालविशेषः । भग० ६७४ । केवलं दुस्वावकीर्णसरः । प्रज्ञा० ७२ । सरः- स्वयं सम्भूतजलाशय विशेषः । भग० २३८ । सरः । प्रश्न० ८ । सरः- केवलं पुष्पप्रकरवद्विप्रकोणं सरः । प्रज्ञा० २६७ । सय- स्वयंसम्भूतो जलाशय विशेषः । अनु० १५९ । सरा-स्वभावजो जलाशयविशेषः । १६० । सरः- स्वभावनिष्पन्नम् । उपा० १० । ठाणा० ८६ । स्वरः - सकल जनादेयस्व प्रकृतिगम्भीरत। दिगुणालकुतो ध्वनिः । अनु० १५८ | पर्वगविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । स्वरः - शब्दः षडजादिर्वा । प्रभ० ८२ । सरक: गुडघातकीसिद्धं मद्यम् । प्रश्न० १६३ | स्वरं - स्वरविषयम् । आव ६६ । एवं महापमाण सरं । नि० चू० द्वि० ७० आ । सरः स्वयं सम्भूत जलाशय विशेषः । भग० ३७३ । जलाशयविशेषः । ज्ञाता० ६३ । शर:- बाणः । ज्ञाता० २३०। प्रश्न० सरअ शरक: निर्भश्थनकाष्टः । भग० ५२० । सरऊ - महानदी । ठाणा ० ४७७ । सरओ- अविणासिदब्बं चिरमवि अच्छइ न विणस्सर 'सो नि० चू० प्र० २६९ आ सरकंचुओ-सरकञ्चुकः । नंदी | सरक-वंशमयच्छिक्का शिक्काकृतिः । जीवा० २६६ सरवख - सरजस्क:- कापालिकः । ओघ० १३५ । सरज [ सरणं स्कलिङ्गः भौतलिङ्गः । आव ६२८ । भस्म । ओघ० १३३ । सरजस्क:- शैवः । विशे० ४८२ । सरजस्कंपृथ्वी रजोऽत्रगुण्ठितम् । दश० २२८ । सरजस्कं भस्म । पिण्ड० १६ । सरजस्क:- क्षारः । बृ० द्वि० २७३ अ । पंसू । दश चू० ६८ । सरजस्कं प्रतिश्लक्ष्णतया भस्मकाम् । पिण्ड० १४६ । सरक्खखरंडिय-स्वभस्मखरष्टितम् । आव० ३११ । सरकखग - सरजस्क: भोताः । श्रोष० ८६ । सरक्खसूई - स रक्षासूची, रक्षा सूची चेत्यर्थः । पिण्ड० १७ । सरक्खा - कापालिकादयः । बृ० द्वि० २५४ मा । रक्खा । नि० चू० प्र० ३५७ या । सर क्खि-सरजस्क:- सरक्षाको वा । पिण्ड० २१ । सरग-सरगं - शरकाभिः कृतं सूर्यादि | आचा० ३५७ । शरकः । ज्ञाता० २२ । शरकं शरप्रतिप्रकृतितीक्ष्णमुखमग्न्युत्पादक काष्ठविशेषम् । जं० प्र० ३६२ । निरय० २७ । सरक:- मदिरापात्रम् । जं० प्र० १०१ । सरजस्कः मतविशेषः । आचा० ३२१ । मतविशेषः । आचा० ४०३ | शेवाः । आव० ५९ । सरजस्कपीणिपादत्व - चतुदशममसमाधिस्थानम् । प्रभ० १४४ । सरड - सरट :- जन्तुविशेष: । आव० ४१८ । मस्टोदाहरणं पपातिकबुद्धी दृष्टान्तः । नंदी० १५२ । शरटः । आव० ७११ । सरदः - कृकलाशः । प्रश्न० ८ । सरटः । आव० ६४६ । भुजपरिसर्प विशेषः । प्रज्ञा० ४६ । सरट:कृकलाशः । बोध० १२६ । सरेडीभूतं मामम् । नि० चू० द्वि० १२६ अ । सरडु - सलादुः कोमलम् । पिण्ड० १६ । सरडुफल - प्रबद्धास्थिकफलम् । बृ० प्र० १६३ अ । सडूथ - सरट - अबद्धास्थिकफलम् बृ० प्र० १७९ आ । सरणं उवस्सए ठाणं । दश० चू० ५१ । शरणं त्राण मज्ञानोपद्रवोपहतानां तद्रक्षास्थानं तच्च परमार्थतो निर्वाणम् । सम० ४ । शरणं - संसारकान्तारगतानामतिप्रबलरागादिपीडितानां समाश्वासनस्थानकल्पं तत्त्वचिन्तारुमध्यवसानम् । राज० १०९ । गमनम् । ज्ञाता ० ७१ । शरणं तृणमयावरिकादि । अनु० १५९ । शरणं ( ११०७ ) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरणद] आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ सरस संसारकान्तारयतानामतिप्रबलरागादिपीडितानां समा- ७८ । श्वसनस्थानकल्पं, तत्त्वचिन्तारूपमध्य व सानम् । जीवा० सरपंतिय-सर:पक्तिः । आचा० २८२ । २५५ । शरणम् । जीवा० २६९ । शरणं तृणमयम । सरपंतिया-बहूनि सराणि एक पल्या व्यवस्थितानि १०७ । शरणं-आश्रयः । आव ५७१ । सर:पङक्तिस्ता पङस्त्यः सर:पङकत्यः । प्रज्ञा०७२ । सर:शरणम् । प्रश्न० ८ । शरण-आश्रयः । उत्त० ६५ । पङ्क्तिका-सरसा पद्धतिः । ज्ञाता० ६३ । शरण-स्मरणम् । ओप० २२ । शरणं-तृणमयावसरि- सरपंती-एगं महाप्रमाणं सरं, ताणि चेव बहूणि पंतीतिकादिकम् । भग० २३८ । याणि पत्तेय बहुजुत्ताणि सरपंती। नि० चू० द्वि०७० सरणद-सरण-संसारकामतारगतानामतिप्रबल रागादिपीडि- मा। तानां समाश्वसनस्थानकल्पं तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसानं ददा-सरभ-शरभः आटब्यमहाकायः । भग० ५४२ । सरमःतीति शरणदः । जीवा. २५६ । परासरः । प्रश्र. २१ । शरभः-अष्टापदः । जं. प्र. सरणदए-शरणं-त्राणमज्ञानोपद्रवोपहतानां तद्रक्षास्थानं, ४३ । द्विखुरविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । सरभः-परासरः । तच्च परमार्थतो निर्वाणं, तद्दयत इति शरणदयः । सम० मग ४७८ । सरभ:-महकाय आटव्यपशुविशेषः, परासर ४ । शरणं-त्राणं नानाविधोपद्रवोपद्रतानां तद्रक्षास्थानं, यो हस्तिनमपि पृष्ठे समारोपर्यात । प्रभ. ७ । परान तच्च परमार्थतो शरण दयः-निर्वाणदायकः महावीरः । सर:-द्विखुरश्चतुष्पदविशेषः । जीवा० ३८ । सरमःभग० ७ । आटब्धमहाकायपशुः । राज. ३६ । सरणाए-शरणाय -निभयंस्थित्यर्थम् । आचा० १०८।। सरभस-सहर्षम् । ज्ञाता० १६५ । सरण शरणे साधुः शरण्यः, रागादिपरिभूताश्रितसत्व. सरमंडल-स्वरमण्डल-षड़जादिस्वरसमूहम् ठाणा० ३६७। वत्सलः रक्षको वा । आव० ५८२ । ठाणा० ३९४ । स्वरमण्डलं-षड्जादिस्वरसमूहम् । अनु० सरते शरद । सूर्य० २०९ । सरत्यभ-शरस्तम्बः । आव० ३५१ । सरम(ग)यं- ज्ञाता० ३८ । सरद-शरत-मार्गशीर्षादिः । भग, ४६१ । कात्तिकमार्ग सरमह । आचा ३२८ । शीर्षों । ज्ञाता १६ । सरमाण-स्मरन् चिन्तयन् । ज्ञाता० १६५ । सरदहतलायपोसणया-सरोह्रदरड गशोषगता, चतुर्दशमं सरय-शरत्-कातिकमार्गशीषौं । ज्ञाता०६३ । कादानम् । माव. २६ । सरल-वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । वनस्पतिविशेषः । सरदुअ-बद्धट्टियं । नि० चू. द्वि० १५७ आ। भग ८०३ । सरल:-देवदारुः । ६० प्र०९८ । सरदुप्फल-तरुण अवट्टियं वा भाव कोमलं वा स. सरलक्खण-स्वरलक्षणं कालस्वरगम्भीरस्वरादिकम् । दुप्फल भणति । नि. चू० द्वि० १४२ अ । सूत्र. ३१८ । सर 'ति-पतिभिर्व्ययस्थापितानि सरांसि ।अनु० १५६।। सरलमनस्क-औत्पातिक्या दृष्टान्तः । नंदी० १५७ । ठाणा० ८६ । एकैकपङ्क्त्या व्यवस्थितानि सरांसि यत्र सरलवण-वनविशेषः । जोवा० १४५ । सा सर:पङ्क्तिः । प्रज्ञा० २६७ । सर:पङ्क्तिः । भग० सरवण-सन्निवेशविशेषः । आव० १९९। सन्निवेशविन २३८ । शेषः । भग० ६६० । सरपंतिओ-बहूनि केवल केवलानि पुष्पाकीर्णकानि सरांसि | सरस रुधिरप्रधानं यद्गजचर्म । ज्ञाता० १३४ । अभिएकपल्या व्यवस्थितानि सरःपङ्क्तः सललितास्ता बहव्यः | मानरसोपेतम् । ज्ञाता. १६६ । सरसः-सरच्छायः । सर:पात्यः, तथा येषु सरःषु पङ्क्तया व्यवस्थितेषु जीवा० २२७ । रक्तचन्दनः । जं० प्र० ७६ । शृङ्ग कूपोदक प्रणालिकया संच ति सा सरःपङ्क्तिः । राज० । रसोपेतं निम्हपतो वा स्वो रसो यत्र सत् । मो.. ( १९०८ ) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरसपउम ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ सरिष्यति १४ । उक्कुट्ठो । नि० चू० प्र० ५५ आ । आर्द्रम् ।। तृतीयाऽग्रमहिषी । मग० ५०५ ।। प्रज्ञा० ९१ । सरस्सती-गीतरतीन्द्रस्य चतुर्थाऽयमहिषी। ठाणा० २०४। सरसपउम-सरसपा-सरसमुखस्थगन कमलः । ज्ञाता० धर्मकथायां पश्चमवर्गऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५२ । सरस्सर-अनुकरणशदः । ज्ञाता० २१६ ।। सरसव हिय - सरसं-भिमान र मोपेतं वधितो-हतो यः । सरहस्स-सरहस्य:-ऐम्पर्य युक्तः । ज्ञाता० ११० । ज्ञाता. १६६। । सरा-स्वरा: शब्दविशेषाः । ठाणा० ३६४ । स्वरान् । सरसर-अनुकरणशब्दः तेन तादृशं शब्द कुर्वाणो कपाटो। ठाणा० ३९७ । शुद्धाः केवला व्यञ्जनरहिता अप्यका. जं० प्र० २२४ । रादयः स्वराः स्वयमेव स्वरन्ति-शब्दयन्ति विष्णुप्रमुखं सरसरपंतिआ-एकस्मात्सरमोऽन्यत्र ततोऽपि अन्यत्र क- | वस्तु व्यञ्जनानि चैते संयुक्ताः सन्तः स्वरयन्ति-उदा पाटसञ्चारकेनोदक सञ्चरति यत्र सा सरःसर:पक्तिः ।। रणयोग्यानि कुर्वन्ति यतः तेन कारणेन स्वरा भवन्त्येते। अनु० १५६ । विशे. २५५ । सरसरपंतिय-सरःसर:पतित-परस्परस लग्नसरः । मा- सरागसंजय-सरागसंयत:- अक्षीणानुपशान्तकषाया। प्रज्ञा. चा० ३८२ । ३४० । सरसरपंतिया-यासु सर:पतितः एकस्मात्सरसोऽन्यस्मि- | सराव-शवम् । आचा० ३५७ । नन्यस्मादन्यत्र सञ्चारकपाटकेनोदकं संचरति तासु बहु. सरासण-शरासनं-धनु । भग० १९३ । शराबश्यन्तेविधास्तरुपल्लवाः प्रचूराणि पानीयतृणानि च यस्य भोग- क्षिप्यन्तेऽस्मिन्निति शरासन:-इषधिः । जीवा० २५६। तया स तथा । ज्ञाता० ६७ । येषु सरस्सु पङ्क्त्या शरासनं - इषुधिः । राज० ११५ । व्यवस्थितेषु कूपोदक प्रणालिकया सञ्चरति सा सर सर:- सरासणपट्रिए-शरासनपट्टिका धनुर्दण्डः। जं० प्र०२१६॥ पङ्क्तिः । जीवा० १९७ । सर:सर पक्तिका-सरा- शरासनपटिका-धनुर्दण्डो, बाहुपट्टिका । भग० ३१८। क्तिषु एकमरसः अन्यस्मिन् अन्यस्मादन्यत्र सर्वसंचारक- . सरासणपट्टिया-शरासनपट्टिका-धनुर्यष्टिः । अयवा सरापार केनोदक संचरति सा सरासर:पक्तिकाः । भयः २३८ । सनपट्टिका धनुर्धरप्रतीता । भग० १६३ । येषु मर:सु पङ्घत्या व्यवस्थितेषु कुपोदकं प्रणालिकया सरासणपट्टी-शरासनपट्टिका-धनुर्यष्टि हुदण्डिका वा । संचरनि सा सरासर:पङ्क्तिः ता बह्वः सर:पर पडवीपा० ४७ । क्तयः । प्रज्ञा० ७२ । येषु सरस्सु पङ्क्त्या व्यवस्थितेषु सरासणवट्टिया-शरासनं-धनुस्तल्लक्षणा पट्टिका, अथवा कूपोटकं प्रणालिकया सञ्चरनि सा । प्रज्ञा० २६७ । शरासनपट्रिका । ज्ञाता० ८५ । यत्रैक स्मात्स 'सोऽन्य स्मिनु अन्यस्मादन्यत्र सञ्चारकपार..सरासन-इषुधिः । जीवा० ३५६ । के नोदकं सञ्चरति सा सरासर:पङक्तिकाः। प्रभ० १६० ।। मा-सरिकागुल्मा । जं प्र० ३३९ । सरसरपंती-ताणि चेव बहूणि अन्नोनकवाडसंज्जुताणि । सरिओ-सृतः । आव० २६२ ।। नि० चू० द्वि० ७० आ । सरिक्ख-सरजस्क: । ओघ. २१५ । सरसि-सरसी-महत्सरः । औप० ९३ । | सरित्तए-सहत्वक् सदृशच्छवी । भग. ९४ । सरसिगाल-अलर्कशृगालः । मर० । सरित्तया-सदृशच्छवी । ज्ञाता. ३९ । सरस्य:-महंति सरांसि । ओघ० १५९ । सरिवन्न-तुल्यवर्णः । आव० ४४३ । सरस्वती-वापीनाम । जं. प्र. ३७०। ज्ञाताधर्मकथा- सारयं-सरातोऽतिसरियं । नि० चू० प्र० २५४ था। टीकायां टीकाकर्तृकृतनमस्कारा। ज्ञाता. २५३ । मुक्तावली । प्रभ०७० । सरस्सई-सरस्वती धनावहराज्ञी। विपा० १४ । गीतरतेः । तरिष्यति-पूतिर्भविष्यति । पिण्ड० ८८ । . ( १९०६) ना • Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरिस ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ सर्वतोभद्र सरिस-सादृश्यं लक्षणम्, अन्य घटसदृशः पाटलिपुत्रको | य: । आव० ७६७ । घट इति । आव० २८१ । ज्ञाता० १८५। सदृशम् । सरोरकुकुइओ-हस्तादिना प्रस्तरादिक्षेपकः । ६० तृ. बोध. १४६ । २४७ म सरिसर । ज्ञाता. १४५ । सरीरकुसलं । ज्ञाता० ८८ । सरिसया । ज्ञाता० ३६ । सरीरचिता-शरीरचिन्ता । आव० ४२० । शरीरचिन्ता। सरि सव-सर्षपः-सिद्धार्थकः । ठाणा० ४०६ । सर्षप: । | उत्त० २२० । आव० ८५४ । सर्षपः-धान्यविशेषः । अनु० १९२ । सरीरजडो। नि० चू० द्वि० ३६ आ । हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । औषधिविशेषः । प्रज्ञा० सरोरठीइ-शरीरस्थितिः । आव०४३० । ३२ । सिद्धार्थकः । भग० २७४ । वनस्पतिविशेषः । सरीरपच्चक्खाण-शरीरस्य प्रत्याख्यानं-अमिष्वङ्गप्रतिवर्ष भग ८०२ । नि० चू० द्वि० १२० अ । तपपरिज्ञानं शरीरप्रत्याख्यानम् । मग० ७२७ । सरिसवय-सदृश वयसः । निरय० २४ । सरीरपरिमंडण -शरीरपरिमण्डनं-केशश्मश्रसमारचनादि। सरिसवया-एकत्र सहशवयस:-समान वयसः अन्यत्र सर्षपाः | उत्त० ४२९ । सिधार्थकाः । ज्ञाता. १०७ । सरीरबीय-शरबीजं-सप्तधातवः । उत्त० ४७५ । सरिसवा-एकत्र प्राकृतशैलया सदृशवयसः समानवयसः | सरोरमेत्तीओ-पुरुषमात्रो । सम० १५६ । अन्यत्र सर्षपा:-सिद्धार्थकाः । भग० ७५८ । सरीरय-शरीरक-शरीरमेव जरादिमिरमिभूयमानतयाऽनुसरिसम्व-सहग्वय:-समान यौवनः । भग० ९४ । __ कम्पनीयम् । उत्त० ३३८ । सरिसव्वया-सहगवयसाः समानकालकृतावस्थाविशेषाः । सरीरसक्कारपोसह-शरीरसत्कारपोषधः-पोषधस्य द्वि. ज्ञासा० ३६ । तीयो भेदः । आव० ८३५ । सरोरंग-शरीराङ्ग-शिर-उर-उदर पृष्ठ बाहू-ऊक चेत्यादि । सरीराणुगए-शरोरानुगतं-अचित्तस्य चतुर्थों भेद।। बोष. रूपम् । उत्ता० १४३ । शरीराङ्ग-शरीरस्य शिराद्या- १३३ । टाङ्गानि । उत्त० १४३ । सरीरोवधी- । नि. चू० प्र० २८६ बा । सरीर-शरीरः, को कुचिके द्वितीयो भेदः । ठाणा० ३७३ । सरूवं । नि० चू० द्वि. १६३ आ। शरीरं-बोन्दिः-तनुः । प्रज्ञा० १०८। शरीरं-शरीरयोगः। सरूवि- सरूपी-संस्थानवर्णादिमान सशरीरः । ठाणा० प्रज्ञा० २५७ । शरीर-प्रज्ञापनायो द्वादशमं पदम् ।। ३६। प्रज्ञा० ६ । शरीरं-कायः । आव० ७६७ । शीर्यते- सरो-शरो। ६० द्वि० १७८ अ । अनुक्षणं चयापचयाम्यां विनश्यतीति शरीरम् । ठाणा. सर्ग । ठाणा० ३३३ (?) । • १५ । शरीरं-विशीर्यते उत्पत्तिसमयतः प्रमृति पुस- सर्ज-क्षारविशेषः । भग० ३०६ । वचटनाद्विनव्यतीति औदारिकादिपञ्चभेदभित्रम् । उत्त. सर्जकषाय-नोकर्म द्रव्यकषायः । आव ३९० । १९७ । शरीरं-तृतीयापरिक्षा । ध्य० द्वि० ३६१ अ। सजरस । बाचा० ५७ । भगवत्यां चतुर्दशशतके तृतीयोद्देशकः । भग० ६३० । | सर्पच्छत्र-भूमिस्फोटकविशेषः । आचा: ५७ । सरीरअणुवातो-वजरिसहणारायसंधयणातिगो । नि० चू० सर्वकाक्षा-सर्वाण्येव दर्शनानि शोमनानीत्येवमनुचिन्ततृ. १४६अ। नम् । प्रज्ञा० ६।। सरीरकरण-शरीरं च तत्करणं च तो तो कियां प्रति- सर्वजघन्य-परिहारतया मासिकम् । व्य० प्र. १४६ मा साधकतमत्वेन शरीरकरणम् । उत्त. २०१ । | सर्वतोधार-शास्त्रविशेषः । दशः २०१। सरीरकाजो-शरीरकायः-बौदारिकादिशरीरमाश्रित्य का- सर्वतोभद्र-दशसु दिक्सु प्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहो ( १११०) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वशङ्का ] रात्र दशकप्रमाणा प्रतिमा । ठाणा० ६५ । यक्षभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । सर्वशङ्का - किमस्ति आर्हतो मार्गों नवेति । आचा० ४३ । प्राकृत निषेयत्वात् सकलमेवेदं परिकल्पितं भविष्यतीति शङ्ख'। दश० १०२ । सलोऽस्तिकायजातः सर्वशङ्का । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ आव ८१४ । सर्वानुभूती - वीरदेव कुशिष्य मुक्ता | जं० प्र० २२४ । सलक्खण- लक्ष्यते तदभ्यव्यपोहे नावधार्थते वस्त्वनेनेति लक्षण स्वं च तल्लक्षण च स्वलक्षणम् । ठाणा० ४९२ । सलक्षण:- लक्षणज्ञः कविः । दश० ८७ । सलणय - शरणकम् । उत्त० १२७ । सल लिय-यत्स्व घोलनाप्रकारेण ललितीव तत् सह तेन सललितम् । यद्वा श्रोत्रेन्द्रियस्य शब्दस्पर्शनमतीव सूक्ष्ममुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत् सललितम् । जीवा० १९४ । सललितः - समाधूर्यः । औप० ५६ । सल लिय विल्लहल गई - सललिता मृद्वी वेल्लहला-स्फीता गतिर्यस्याः सा सललितवेल्लहल गतिः । बव० ५६६ । - सलागपडिया-आंबकहिया । नि० चू. तृ० ४५ आ सलागा-लोक्यते केवलिना हृष्यन्त इति लोका व्याख्यादिह वक्षमाणः शलाकापल्यरूपः । अनु- २३६ । शलाकाकीलरूपा । प्रश्न ० ५७ । शलाका । आव ० २२७ । नि० ० प्र० २५६ आ । सलागापल्ल-शलाकापल्य:- जम्बूद्वीपप्रमाणो द्वितीयः पल्यः । अनु २३७ । - सलागाहत्यगं - शिला कहस्तकं सरित्पर्णादिशलासमुदाय - सम्मार्जनीम् । राज० २३ । - सलाहिओ - श्लाघितः | आव० १६८ । •सलिंग स्वलिङ्ग-रजोहरणादि । भग० ८१५ । रयहरमुहपत्तियापडियहादिधारणं । नि० पू० प्र० ९२ आ । स्वलिङ्गः | ओघ० २१६ | तेजोलेश्या सहकोऽणगर: •सलिंगी रजोहरणादिसाधुलिङ्गवान् । प्रज्ञा० ४०६ ! सलिणं । व्य० प्र० १७० अ । -सलिल-सलिलं - पानीयं लावण्यम् । जं० प्र० २३६ । सलिल बिल - भूनिर्झरः । जं० प्र० १६८ । सलिलविलं f भूनिर्भरः । भय ३०७ । सलिला - गङ्गादिमहानदी । प्रश्न ६६ | सलिलं - जलमस्यामस्तीति नदी । उत्त० ३५२ । सलिलावती - विजयविशेषः । शाता० १२१ । ठाणाο ८०। सलिलामय- सलिलाश्रयः । प्रभ० १४ । सलिलुल्ल लोहिय-सलिला रुधिरम् । मर० । सलुद्धरण- शहयोद्धरणम् । बोघ० २२५ । सलेड्डुग- समूलः । अव० २१२ । सलेड्डुवाय । भग० ६६५ । सलेस मिस्स श्लेषमिश्रं श्लेषद्रव्यविमिश्रतम् । जीवा० २६॥ सलोग समानो लोकोऽस्येति सलोकः । उत्त० २५१ । सलोह - सहोढं- सलोघ्रम् । राज० १४० । सलोमहत्य- लोममयप्रभाजनकयुक्तम् । खोप० ११ । स- शल्यं पापानुष्ठानम्, तजनितं वा कर्म । सूत्र० २६१ । शल्यते बध्यते अनेनेति शल्यम् । ठाणा० १४९ । शल्यं मायादि । आव ० ७७९ । शल्यमिव शल्यं - कावा न्तरेऽप्यनिष्टफलविधानं प्रत्यवन्ध्यतया । उत्त २३३ । शल्यम् । आव ३४८ । शयः । आव० ७६५ सलाइ - गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा • ३२ । सेल्लकी- गजप्रिया प्रज्ञा० ३१ । वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ । सल्लकुसुम - सल्लकी कुसुमम् । जीवा० १६१ । सल्लइपत्तय-सनकी वृक्षविषेशस्तस्य पत्रकं - दलम् | [ सल्लगचण ज्ञाता० ११६ । सल्लइय- शल्यकित: - शुष्कत्रतया सञ्जातश्लाक: । शाता .११६ । सल्लई - शल्लकी । जीवा० ३५५ । सल्लकहत्त - शल्य हत्यं राज्यस्य हत्या - हननमुद्धारः तपति पादक शस्त्रम् । विपा ७५ : सल्लको गुच्छविशेषः । माचा० ३० । सलग - सल्लग: -शोभनं लगनं संवरण- इन्द्रियसंयमरूपं स लग: तद्भावः सल्लत्वं शल्यवच्छत्यं मायानुष्ठानमकार्यं तद्ायति कथयतीति शल्यगं शल्यगत्वम् । सूत्र, ३२३ ॥ शल्यकः - शल्यवान् शूलादिशल्यभिन्न इति । प्रश्न८ १६२ | सलगत्तण-माया शल्यकर्तनम् । भव० ४७१ । शानि 9999 1 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लरोहणो] आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सवियार मायादीनि कृन्ततोति शल्ककर्तनम् । शता० ४९ । । सवणोग्गह-श्रवणावग्रहः यत्यवग्रहः । आव ३४१ । कृन्ततीनि कर्तन शल्यानि-मायादीनि तेषां कत्तंनं. सवत्त-सपत्न:-विरोधी । दश० १६५ । भवनिबन्धनमायादिशल्पच्छेदकमित्यर्थः । आव ७६० ।। सबत्तग-सापल्यम् । आव० ४५२ । । सल्लरोहणी-शल्यरोहिणी-औषधीविशेष । आव० ३४८ । सवत्तिणो सपत्नी । आव० ८२४ । सल्लहता-शल्यस्य हत्या-हननमुद्धारः शल्यहत्या तत्प्रति- सत्तिसमाण-समान:-साधारण:-पतिरस्याः सपत्नी, पादक तन्त्रमपि शल्यहत्या । ठाणा० ४२७ । यथा सा सपत्न्या ईष्यविशादपराधान् वीक्षते एवं यः सल्ला-भुजपरिसर्प विशेषः । प्रज्ञा० ४६ । साधुष दूषणदर्शनतत्परोऽनपकारी च स अभिधीयत इति सल्लाहणिज्जं । ज्ञाता० १८५ । सपत्नीसमानः । ठाणा० २४३ । सल्लोपति शल्लीपतिः-पाटलीपुत्रे नन्दः । आव० ४३३ । । सवन-कर्मसु प्रेरणम् । सूर्य० १६९ । सल्लद्धरण-शल्योद्धरणं यात्रप्रयोजक:-कष्टकोद्धारः । वि सवनसंवत्सर-सवनं-कर्मषु प्रेरणं, तत्प्रधानः सवत्सर। पा. ८१ । सवनसंवत्सरः । सूर्य० १६९ । सल्लद्धरणी-शल्योदरणी-औषधीविशेषः । आव ३४८। सवन्न-सवर्णः-सहशीकरणम् । ठाणा० ४६७ । सवंगसुन्दरी-सर्वाङ्गसुन्दरी मायायां वैकल्पिकदृष्टान्तः । सवरि-शबरी वस्त्ररहिना भिल्ली, कायोत्सर्गे षष्ठो दोषः । माद० ३६३ । सर्वाङ्गसुन्दरी मायोदाहरणे पूर्वभबे आव० ७६८ । धनश्रीगंजपुरनगरे इभ्यश्रावकशङ्खस्य दुहिता । आव० सवर्णनाथं । सूर्य० ११० । ३६४ । सवलद्धा-आश्वस्तः । आव• ६६५ । सवउहुत्तो-सपक्षम् । उत्त० १३९ । सवह-शपथः । आव० २०३, ३६१ । शपथः। ज्ञाता. सवओ-शपमान । विशे० १२४६ । २६ । सवक्कसुद्धि-सद्वाक्यशुद्धि स्ववाक्यशुद्धि वा सवाक्यशिद्धं सवहसाविया-सपथशापिता । आव. २१३ । वा । दश० २२३ : सवाय-स चायं भगवान ! सह वादेन सवाद, सद्वाचं सवग्ग-सर्वग्रो गुणि । व्य. दु. ३४८ था। वा, शोभनभारतीकं वा । सूत्र० ४०९ । सवट्टण । नि० चू० प्र० ३ आ। | सवास-स्वकीय सहवासः । ६० द्वि० १९२ आ । सवट-सर्वार्थविमानम् । आव. १७७ । सवि-सर्वे । बृ० द्वि० ८५ आ । सबग-एकविंशतितम नक्षमम् । ठाणा० ७७ । श्रयतेऽनेनेति | सविजा-स्व विद्या परलोकोपकारिणी केवलथतरूपा । दश. श्रवणम् । नंदो० १७४ । श्रवणः । सूर्य० १२६ ।। २०७ ।। श्रवण:-व्यक्तगणघरस्य जन्मनक्षत्रम् । आव० २५५ । सविज्जुए सविद्युत्कः । ज्ञाता० २४ । श्रवणं-धर्मसम्बद्ध यतिः । आव० ३४१ । श्रमणम् । सविट्ठा-प्रविष्ठा-धनिष्ठा । सूर्य० १११ । श्रविष्ठा-धनिष्ठा । भग० ११५ । श्रवण:-तपस्वी । उत्त० १४५ । । जं० प्र० ५०६ । सवणफल-सिद्धान्त: श्रवणफलम् । मग० १४१ । | सविभव-समृद्धियुक्त-महाधनम् । ज्ञाता० २३२ । सवणया-श्रवणस्व-श्रवणशब्दस्य भावः प्रवृत्तिनिमित्त सविम्हओ-सविस्मयः-साश्चर्यः । श्राब• ५८७ । शृतिरेव श्रवणता श्रवणमेवेत्यर्थः । ज्ञा. ३१९ । सधियार -सावचारं चेष्टात्मकविचारसहितं मरणानशनसवणा-श्रवणो कौँ । जं. प्र. १३ । तपः । उन ६०१ । बद्धस्य च हस्ताद् गृह्यते यदि स सवणुगह-श्रवणं-धर्म सम्बद्धं अवग्रहः-धर्मावधारणं श्रवणा- सविचारो भति परिष्वषितुं शक्नोति । ओघ० १६५॥ वग्रह:, श्रवणः वा तपस्विनस्तेषामवग्रहः सन्दरा एत सपराकमसनखनावतः। भक्त० । विच्छिन्नो-सविस्तर। इत्यवधारणं श्रवणावग्रहः । उत्त० १४५ । ( १११२) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविलियं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, भा० ५ [ सव्वाखरसनिवाइ सविलियं-सवडम् । शाता० १६५ । छाव. २१५ । सविसए-स्व:-स्वकीयो विषयः स्पृष्टायगाढानन्तरावगा सम्वओमद्दसण्णिवेस-सर्वतोभद्रसन्निवेशः जिं० प्र० २०६। ढाख्यः स्वविषयः । भग० २१ । स्वविषयं-स्थोचिता. सम्वओभद्दा-सर्वोमवा यस्यां दशसु दिक्षु प्रत्येकमहोरात्र हारयोग्यम् । जीवा० २० । कायोत्सर्ग करोनि । ओप. ३० । सर्वतोमदा प्रतिमासविसयनियय-स्वविषयनियतत्वं-असहायत्वम् । आव० विशेष: । आव० २१५ । सम्वकंखा-सर्वकाङ्क्षा सर्वाण्येव दर्शनानि कामति । सविसेसं-सादर-साहिगयरं । नि० चू० प्र. १४ आ। दश० १०२ । सविसेसयरं-सविशेषतरं-अतिरिक्ततरम् । बोघ० २१०।। सम्वकख-सर्वकार्य: सन्धिविग्रहादिः । ज्ञाता० ११ । सीरिए-सवीर्यः उत्थानादिक्रियावान् । भग० ९५।। सवकाम-सर्वकामः वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । सवेंटया-सवृन्तिका तुम्बोच्चत्वमानदण्डयुतां पात्रकेसरिका । भग०२००। बृ० तृ. २०२ आ। सम्वकामगुणिअं-सकलसौन्दर्य संस्कृतम् । आव० ४४७ । सवेला-संजता । नि० चू. द्वि. ५० अ । सव्वकामगुणिय-सर्वे कामगुणा -अभिलाषविषयभूता रसासवेलाए नि. चू० प्र० ३५१ आ । दयः साता यत्र तत्सर्वलाभगुणितम् । भग० ६६२ । सव्वंति सवंत:-सर्वासु दिक्षु । भग० । ७८ । प्रयमपरिपाट्यां च पारणकं सर्व कामगणिक, सर्वे कामसम्व-सर्व-कात्स्न्य म् । आचा० १३१ । सर्व क्षेत्रम् ।। गुणा:-कमनीयपर्याया विकृत्यादयो विद्यन्ते यत्र तत्तथा, भग० ७८ । सर्वः, सार्वः-अर्हनु, श्रव्यः-श्रवणाहः, द्वितीयायां निविकृतं तनीयायामलेपकादि चतुामा. सव्यः-दक्षिणम् । भग०४। सर्व-समस्तः। भग०१४६।। चाम्लमिति, प्रथमपरिपाटीप्रमाणं चतगणं सर्वप्रमाणं भव. सर्वतन्त्रः। ६० प्र० ३१ मा । सर्वशब्दोऽपरिशेषवाची। तीति । ज्ञाता० १२२ । सर्वे कामगणा-अभिलपणीयप्रज्ञा० ८। पर्याया रूपरसगन्धस्पर्शलक्षणाः सन्ति साता वा यत्र सम्वउत्तरगुणपञ्चक्खाण-सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं दर्शावध. तत् सर्वकामगुणिकं सर्वकामगुणितं वा । ज्ञाता. १५३ । मनागतमतिकान्तम् । बाव. ८०४ ।। सर्वे कामगुणा-अभिलषणीया रसादिगुणा: सजाता यस्मिन् सम्वओ-सर्वतः-समन्तादथवा दिक्षु विदिक्षु च । ठाणा० तत्तथा सर्व रसोपेतम् । अन्त. २६ । सर्वकामगुणितं१७७ । सर्वतः दिक्षु । जीवा० १०१। सर्वतः-सर्वदिक्षु । सकलसौन्दर्यसंस्कृतम् । प्रज्ञ. ११२ । सर्व कामगुणाभग० ७७ । सर्वतः-सर्वासु दिक्षु । जं० प्र० ५६ । मभिलषणोया रसादिगुणाः सजाता यस्मिनु तत् सर्वरसोसदिक्षु । विपा० ५० । सर्वासु दिग्विदिक्षु । नंदी० पेतम् । अन्त० पे६ । ८५ । सर्वतः-सर्वासु दिक्षु । प्रज्ञा० ३५६ । सर्वतः- सम्वकामविरत्तया-सर्वकामविरक्तता, योगसङ्ग्रहे द्वावि. सर्वदिक्षु । औप० ६ । सर्वः-समिप्रदेशः। मग० २२।। तितमो योगः । आव० ६६४ । सर्वतः-सर्वप्रकारेण द्रव्यादिना । आचा० १७२। सम्यकामसमिद्ध-सर्वकामसमृद्धः, षष्ठो दिवसः । जं० प्र० सम्वोधार-सर्वतः- सर्वासु दिक्षु धारेव धारा-जीवना- ४९० । सर्वकामसमृतः, षष्ठमदिवसनाम । सूर्य, १४७ । सिकाशक्तिरस्येति सर्वतोधारम् । उत्त० ६६६ । सम्वकामिय-सर्वकामनिवृत्तं तत्प्रयोजनं वा सर्वकामिक सवओभद्द-महाशुके षोडशसापरोपमस्थिकदेवविमानम् । षडसोपेतम् । उत्त० ५२३ । सर्वाणि कामानि-अभिन सम० ३२ । दृष्टिवादे सूत्रभेदे विंशतितमो भेदः । सम० लषणीयवस्तूनि यस्मिस्तत् सर्वकाम्यम् । उत्त० ५२३ । १२८ । सर्वतोमद्रः-ईशानेन्द्रलोकपालस्य यमस्य तृतीयं सावक्ख रसन्निवाइ-सर्वाक्षरसन्निपातो सर्वे च तेऽक्षरसनिविमानम् । भग. २०३ । सर्वतोभद्रः । औप० ५२ । पाताश्व-तरसंयोगाः सर्वेषां वाऽक्षराणां सन्निपाताः सर्वासर्वतोभद्रः । जं.प्र. ४०५ । सर्वतोभद्रा प्रतिमाविशेषाः।। क्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयतया सन्ति । भय० १२ ' प. १४०) ( १९१३) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्खरसन्निवाइणो ] श्राणि श्रवणसुखकारीणि अक्षराणि साङ्गत्येन नितरां वदितुं शीलं यस्य सः श्रन्याक्षरसन्निवादी । भग० १२ । सक्खरसन्निवाइणो-सर्वाणि समस्तानि यान्यक्षराणिअकारादीनि तेषां सन्निपातनं तत्तदर्थाभिवायकतया साङ्ग त्येन घटनाकरणं सर्वाक्षरसन्निपातः स विद्यते -अधिगम आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः विषयतया येषां तेऽमी सर्वाक्षरसनितिनः । उत्त० ३४४ | |सट्टसिद्ध - अनुतरोपनाति भेदविशेषः । सर्वार्थसिद्धः । सखरसन्निवाई - अक्षराणां सन्निपाता:-संयोगाः सर्वे प्रज्ञा० ६९ । सर्वार्थसिद्धः - विमान विशेषः । आव ० १२० । च ते अक्षरसत्रिपाताच सर्वाक्षरसन्निपाताः ते यस्य सम्बड्डी - सर्वद्धिः परिवारादिका । जीवा २४५ ज्ञेनि । सूर्य ० ५ । सर्वेषामक्षराणां अकारादीनां ससव्वणं । निः चू० प्र० १२५ आ । निगता-द्वयादिसंयोगाः अनन्तत्वादनन्ता अनि ज्ञेयतया सव्वणाणावर गिज्ज-सर्वं ज्ञानं के इलाख्यमावृणोतीति सर्वविद्यन्ते येषां ते । जं० प्र० १५४ । ज्ञानवरणीयम्, केवलावरणं हि आदित्यलक्षणस्य केवलज्ञासक्खरसन्निवात-प-प्रकारादि अक्षरसन्तिपाता:नरुपस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्र मेघवृन्दकल्पमिति । आकारादिसंयोगा विद्यन्ते ते तथा विदितसकलवाङ्मयः । ठाणा० १७८ । सव्वखुड्डु | गा - सर्व दीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको - लघुरायम विष्क मायां सर्वाक्षुल्लक: । सुर्य० १३ । सव्वग - सर्वानं उत्सेधः । जीवा० ३२५ । सत्वगुणाधाण - सर्वगुणाधानं अशेषगुणस्थानम् । आव० ६११ सः जनिगा - सर्वजननी । मर० । समजस - सर्वशः- वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भग० २०० । सम्वजिनसा सागगाई - सर्वर्जेन : शिष्य-प्रतिपाद्यन्ते यानि तानि सर्वजिनशासनानि तान्येव कप्रत्यये सर्वजिनशासनकानि । प्रश्न० १०२ । सव्वनुइ - सर्वधुनि:- यथाशक्तिविस्फारितं शरीरतेजः । जीवा० २४५ । सन्जु इए - आमरणादिसम्बन्धिन्या सर्वयुक्त्या - उचितचेष्टावस्तुघटना लक्षणया सर्वद्युत्या | भग० ४७६ । सव्वजोगिया सर्वयोनिका :- सर्व गति भाजः । आचा० ३०४ । सज्जु - सर्वर्जुः संयमः, सद्धर्षो वा तं सर्वर्जुकं सत्यम् । सूत्र० ३६ । -सन् वज्जुणसुवन्नमयी- सर्वात्मना श्वेतसुवर्णमयी । प्रज्ञा० १०७ । सव्य-सय सर्वे तेऽर्याश्च सर्वा-पत्रकाराः काम [ सञ्चदुक्ख गुणास्तत्सम्पादकाः वा द्रव्यनिचयाः । आचा० २६५ । सर्वार्थ: - एकोनत्रिंशत्तममुहूनाम सर्वार्थः । एकोनत्रिंशत्त ममुहूर्त नाम । सूर्य १४६ | जं० प्र० ४६१ । सर्वैःशयनादिभिरर्थ:- प्रयोजनमस्येति सर्वाथ:-क्षत्रियः भ्रट राजा: । उन० १८३ । ठाणा० ९७ । सव्वणु भई - जम्बूभरते आगामिन्यामुत्सरियां पञ्चमतीर्थकृत् । सम० १५३ । सत्र णोज्जुतोश्रामोद्युक्तः । मर० । सव्वण्गाण - सर्वज्ञानम् । ठाणा० १५४ । सव्वतो नर्वतः सर्वासु दिक्षु । जीवा० ३२७ । सव्वतोभद्द- सर्वतोभद्रं नगरम् । विपा० ८६ । सर्वतोभद्रं जितशत्रुराजघाती । विपा० ६८ | दिग्दर्शकाभिमुखस्याहोरात्रप्रमाणः कायोत्सर्गः सा सर्वतोभद्रा | ठाण० १६५ । सत्य - सर्वतुकं सर्वर्तुभावि । जीवा० १७२ । सव्वत्य सर्वार्थः - रुचक द्वीपे पूर्वाद्धाधिपतिर्देवः । जीवा ३६८ सव्वदंसो - सर्वं समस्तं गम्यमानत्वात्प्राणिगणं पश्यति-आत्वत्प्रेक्षतइत्येव शील: अभिभूय रागद्वेषी सर्वं वस्तु समतया पश्यतीत्येवं शीलो वा सर्वदर्शी, सवदंशी सर्वदर्शी, सर्वं दशति भक्षयतीत्येवं शीलो वा । उत्त० ४१४ । सव्यदरिसणावर णिज्ज-सर्वदर्शनावरणीयं- निद्रापञ्चकं केवलदर्शनावरणीयम् । ठाणा० ६७ । सव्वदरिसी - सर्वस्य वस्तुस्तोमस्य सामान्यरूपतया ज्ञायकरवेन सर्वदर्शी । भग० ७ । सर्वदर्शी जीवा० २५६ । सन्दुक्ख सर्वदु खं प्राध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदै वक लक्षणम् । उत्त० २६६ । सर्व्वदुःख:- नरकादिगतिभा वि शरीरमानसः क्लेशः । उत्त० २९२ । ( १११४ ) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वदुक्खवहीण ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ सबभासाणुगामी ४७७ । सव्वदुक्खप्पहीण-सर्वदुःखप्रक्षोण:-मोक्षगतः । भग । सव्वप्पभा-सर्वप्रभा उत्तररुचकवास्नव्या षष्ठी दिक्कुमारी १११ । सर्वदुःखप्रहोणः-मोक्षः तत्कारणम् । आव० महत्तरिका । आव. १२२ । सव्वपाणभूतजीवसत्तसुहावह-सर्वे-विश्वे ते च ते प्रा. सम्वदुक्खयहोणट्रा-प्रकर्षण हानि गतानि-क्षीणानि वा णाश्च द्वीन्द्रिादयो भूताश्च-तरवः जीवाश्च-पडचेद्रिथाः ससर्वद खान यस्मिन् यदि वा सर्व खानां प्रहोणं - प्रक्षीण | स्वाश्च-पृथिव्यादया इति, तेषां सूख, शुभ वा आवहवा यस्मिन् यच्च सिद्धक्षेत्रमेव सदर्थ यन्त इवार्थयन्ते सर्वा- तीति सर्व गणभूत जीवसत्वसुखावहः । ठाणा० ४६१ । थेच्छोपरमेऽपि तगामिनया येते तथा विषाः । प्रहीणानि सव्वकालितामए-सर्व निरवशेष स्फटिकविशेषमणिमयं वा सर्वदुःखान्यश्चि-प्रयोजनानि तेषां ते तथाविधाः । सर्बस्फटिकमयम् । जीवा० ३७६ ।। उत्त० ५६६ । सम्पफालियामए-सर्व-निरवशेष स्फटिकविशेषमणिमयं सव्वदुक्खप्पहिणमग्ग-सर्वदुःखप्रक्षीणमार्गः-सकलाशमक्ष सर्वस्फटिक मयं चन्द्रविमानम् । सूर्य २६२ । सोरायः । ज्ञाता: ४६ । सव्वफालियामय-सर्वस्फटिकमयं सर्वात्मना स्फटिकमसम्बद्धा-सर्वाद्धा-अतीतानागतवर्तमानकालस्वरूपा । अनु , यम् । जीवा. १७४ । सवफालिहमय-सर्वस्फटिकमयं सर्वात्मना स्फटिकमयम् । सन्दध-सर्व दधातीति सर्वध-निरविशेषवचनम् । आव। प्रज्ञा० ९९ । सवबंध-जीवो यदा प्राक्तन शरीरक विहायान्यद् गृह्णाति सव्वधत्ता-सर्व घरं-धारयति येन कारणेन तेन सा सर्व- तदा प्रथमसमये उत्पत्तिस्थानगतान् शरीरप्रायोग्यपुदूगधता । विशे. १३१६ । सर्व-जीवाजीवारव्यं वस्तु धत्तं | लान् प्रल्ह्णात्येवेत्यवं सर्वबन्धः । भग० ४०० निहितमस्यां विवक्षायामिति सा सर्वध-निरविशेषवचनं सबबल-सर्वबलं -सामस्त्यः स्वस्वहस्त्यादिसम्यम् । जीवा० सर्वधमातं-आगृहीतं यस्यां विवक्षायो सा सर्वधत्ता ।। पवताया सा सवधत्ता । २४३ । आव० ४७७ । सव्वबाहिरिया-सर्वबाह्या । सुर्य० ६७ । सम्वधम्मा-सर्वधर्मा-अष्टो प्रवचनमातरः । आव • ५४८ । सत्रभंतर-सर्वाभ्यन्त सः । सुर्य० ११ । सम्बधम्माइक्कमणा-प्रवचनमातणां लङ्कनं यस्यां सा सवभंतरिए-सर्वाभ्यन्तरकः सर्वात्मना-सामस्त्येनाभ्यसर्वधर्मातिक्रमणा, आशातनाभेदः । आव. ५४८ । न्तरः । जीवा. १७७ । सव्वन्नू-सर्वस्य-वस्तुस्तोमस्य विशेषरूपतया ज्ञायकत्वेन | सम्वन्भतरिया-सर्वाभ्यन्तरिका । सूर्य० ६७ । सर्वज्ञः । भग० ७ । सर्वज्ञः । जीवा० २५६ । सम्वभंगो- । नि० चू० प्र० १६७ अ। सम्वपाणभूयजीवसंतसुहावहा सर्वप्राणभूतजीवसत्वः सु- सव्व भंडिओ-सर्वभाण्डिकः । उत्त० १२३ । खाव हा, सर्वेषां प्राणभूतजीवसत्वानां सुखावहा उपद्रव सव्वभत्ती-सर्वभक्तिः सर्ववस्त्रप्रकारः । ठाणा० ४४६ । कारित्वाभावात्, इषस्यागमाराया द्वादशमं नाम । प्रज्ञा० सव्वभाव-सर्वभावः शक्त्यनुरूपम् । दश० २३० । सा१०७ । क्षात्कारः । ठाणा० ३४।। सर्व प्रकार: स्पर्श रसगन्ध. सव्वपरिन्नाचारी-सर्वपरिज्ञाचारी विशिष्टज्ञानान्वितः स. रूपज्ञानं घटमित्यर्थः । ठाणा० ५०६ । सर्वमेव सावसंवरचारित्रोपेतः । आचा० १४७ । क्षात्कार:-चक्षुपत्पक्षः । भग० ३४२ । सव्वप्पग-सवंत्राप्यात्मा यस्यासो सर्वात्मको लोभः । सुत्र सव्वभावविऊ-भाव्येकादशमजिनः । सम० १५३ । सव्वभावा-सव्वपज्जया । दश• चू० १६ । सवप्पणया सर्वात्मना सवैरात्म प्रदेशः । प्रज्ञा० ५०३ । सव्वभासाणुगामो-सर्वभाषानुगामी सर्वभाषा:-बार्या'सर्वात्मना-सर्वात्मप्रदेशः । भग० २२ । भग० ७६२।। .. नार्यामरवाचः अनुगच्छन्ति-अनुकुर्वन्ति तद्भाषाभाषित्वात (१९१५ ) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पभूयप्पभूय ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: | सब्वाणुभूती स्वमाषयच वा । सर्वमाषा:-संस्कृतप्राकृतमागध्याचा सव्वसमाहिवत्तियागार-सर्वसमाधिकार: ।आव० ८५३ । अनुगमयन्ति-व्याख्यान्तीत्येवं शीला ये ते तया। औप० सव्वसमुदय-सवंसमुदाय:-स्वस्वाभियोग्यादिसमस्तपरिवा. । जीवा० २४५ । पौरादिमीलनम् । भय ४७६ । सब्वभूयप्पभूय-सर्वभूतेष्वात्मभूतः सर्वभूतात्मभूतः यः सव्वसामतोणिवाइया-सर्वसामन्तोपनिपातिकी, यत्र बारमवत् सर्वभूतानि पश्यति । दश. १५७ । सर्वत:-समन्तात् पेक्षकानामागमो भवति सा क्रिया। सव्वभूमिया-सर्वभूमिका-मन्त्रिअमात्यादिस्थानकः। ज्ञा. याव० ६१३ । ता० ११ । | सव्वसाह-सर्वे सामायिकादिविशेषणाः प्रमत्तादयः पुलासब्वमूलगुणपञ्चक्खाण-सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान, पञ्चमहा. कादयः वा जिनकल्पिकप्रतिमाकल्पिक्यथाबन्दकल्पिकपव्रतानि । आव० ८०४ । रिहारविशुद्धिकल्पिकस्थविरकल्पिकस्थितकल्पिकतास्थित. सम्वरतणा-देवेन्द्रस्य राजधानी । ठाणा० २३१ । कल्पिकस्थितास्थितकल्पिककल्पातीतभेदाः, प्रत्येकबुद्धस्वयसम्वरयण-सर्वरत्नं सर्वरत्ननामा निधिः । ठाणा० म्बुद्धबुद्धबोधितभेदाः भारतादिभेदाः, सुषमदुःषमादिविशे४४८ । मानुष्योत्तरपर्वते तृतीयः कूटः । ठाणा० २२३।। पिता वा साधवः सर्वसाधवः। भग. ४ । ये सर्वेभ्यो सर्वरस्ताख्यः महानिधिः । जं.प्र. २५८ । जीवेभ्यो हिताः सार्वाः ते च ते साधवश्व । सार्वस्य वा सन्धरयणा-सर्वरत्ना उत्तरपश्चिमरतिकरपर्वतस्यापरस्या अर्हत: साधवः सार्वसाधवः । सर्वान् वा शुभयोगान् दिशीशानदेवेन्द्रय वसुमित्राख्याऽयमहिण्या पाजधानी। साधयन्ति-कुर्वन्ति सार्वान वा अहंतः साधयन्ति-आरा. धयन्ति प्रतिष्ठापयन्ति वा दुर्नयनिराकरणादिति सर्वसा. सबरयणामय-सर्वरत्नमयं सर्वात्मना-सामस्त्येन नत्वेक- धवो वा । श्रव्येषु श्रवणार्हेषु वाक्येषु साधवः-निपुणाः । देशेन रस्नमयं समस्तरत्नमयं वा । प्रज्ञा० ८७ । सव्यसाधवः ये सव्येषु दक्षिणेसु अनुकूलेषु कार्येसु सव्वरसाल-सर्वरसाढघम् । आव० ४३४। साधवो-निपुणाः श्रव्यसाधवः वा सव्यसाधवः । भा० सवरहस्सिओ-सर्वराहस्थिक: भाण्डविशेषः । आव० सम्वसिणाण-सर्वस्नानम् । दश. ११७ । सव्वलोहिय-सकल लोहमयो। बाव० ६०५ । सम्वसिद्धा-सर्वसिद्धा चतुर्थीरात्रिनाम । सुर्य० १४८ । सव्ववडु-मर्वबहुः । आव० ४०८ । सव्वसुत्तमहोदही-सर्वत्राणां महोदधिरिवः महोदधिः सम्वविभूई-सर्वविभूति:-स्वस्याभ्यन्तरवैकियकरणादिवा- सामत्स्येन तदाधारतया तत्सम्बोधनं सर्वपूत्रमहोदधिः । ह्यरत्नादिसम्पद् । जीवा० २४५ । उत्त० ५११ । सम्वविभूसा-सर्वविभूषा यावच्छक्तिस्फारोदारशृङ्गारक. सव्वसूयगा-सर्वसूचकाः-स्वनगरं पुनरागच्छनि पुर्यान्ति रणम् । जीवा० २४५ । तत्र ये सूचिका: तैः श्रुतं द्रष्टं सर्वपनुपूकेम्पः कथयन्ति । सव्वविससमुदओ-सर्वविषसमुदयः सर्वव्यसनकराजमार्गः।। व्य० प्र० १७० आ। आव० ५६७ । सव्व पो-सर्वप्रकारेण । नि० चू, प्र. २७ अ । सव्ववेतालीओ-सर्ववैतालिकः । आव. २५५ । सम्याउए । ज्ञाता० ९।। सम्बसंभम-प्रमोदकृतोत्सुक्यम् । भग० ४७६ । सर्वोत्कृष्टः सव्वाणंद-जम्बवैरवते आगामिन्यो षोडशमतीर्थ कृत् । सम सम्भ्रमः सर्वसम्भ्रमः । जीवा. २४५ ।। १५४ । सधसमण्णागयपण्णाण-सर्वसामान्यागतप्रज्ञानः । सर्वा- | सव्वाण-वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भय. २०० वबोधविशेषानुगतः। अविपरोतज्ञान: सर्वद्रव्यपर्यायज्ञाना, | सम्घाणजक्ख । नि० चू० द्वि० २३ । बशेषज्ञेयज्ञानः, पोक्षानुष्ठानक शानः । बाचा० ७६ । । सव्वाणुभूती-पोशालकेन तेजोलेश्यया दग्धमुनिः । भर (१९१६) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्वाणुलोम ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः. मा० ५ [ ससी ६७७ । | ससउ-सुकुमालियावद्धभाउ । नि८ चू० प्र० २५८ अ । सवाणुलोम-सानुलोमता । ३० प्र० २२ ।। ससओ जितशत्रुराजपुत्रः भसकभ्राता । नि० चू० प्र० सवादरा-सर्वाटर: समस्तगवच्छक्तितोलनम् । जवा० | ११३ अ । वृ० तृ० ११३ प । २४५ । ससक्ख सगारीए । दश० चू८८ । सव्वाबाह- ज्ञाता. २४३ । ससक्खा-सचित्तण आरण्णरएण वितिभिण्णा ससाबा। सम्बायर-सोंचित कृत्यकरणरूप: । भग० ४७६ । | नि० चू० द्वि० ८२ . आ । सव्वारक्खिओ-एतागि सव्वाणि जो रक्खति सो । नि• | ससणिद्धा-ईसि सल्ला ससणिता । नि• चू० वि० ८२ चू० प्र. १९५ मा । आ। सवावं. सर्वात्मना सर्वग. वाऽतपेनापत्तिः-व्याप्तिर्यस्य | ससमयसुत्त-स्वसमयसूत्रं 'करेमि भंते' इत्यादि ! बृ. क्षेत्रस्य तत्सर्वापत्तिः, अथवा सर्वक्षेत्र, इतिशब्दो विषय. प्र. २०१अ । भूतं क्षेत्रं सर्व, सर्वेणातपेनापो-व्याप्तियंस्य क्षेत्रस्य तत्स. | ससयमिसया । (१) १-८-११ । पिम्, सामान्यतः सर्वेणातपेन व्याप्तिनं तु प्रतिप्रदेशं । | ससरुहिर-शशरुधिरम् । प्रशा० ३६१ । सह व्यापेन-आतपच्याप्पया यत्तस्सण्यापम् । भग० ७८ । | ससा-राशकाः । ज्ञाता० ६५ । नि० चू० वि० १०४ सर्वस्याऽपि तस्याः पुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु । सुत्र | था । वसा । पिण्ड० १४० । २७२ । सर्वस्मिन् । सूत्र. ३५० । सर्वेऽपि । आचा• ससार-ससार:-ज्ञानदर्श नचारित्रसारवान् । पोष० १५७ २३ । सर्वस्मिन्नपि । बाचा. २७४ । | ससारनिविट्ठ-ससारनिविष्टः । मोघ० १८० । सध्वेसणा-सर्वेषणा-सर्वा या आहाराद्युमोल्पादनमास- | ससि-षष्ठं स्वप्नम् । ज्ञाता० २० । षणारुपा । बाचा० २४३ । ससिगुत्त-शशीगुप्त:-चन्द्रगुप्तः । व्य० प्र० २५६ छ । सम्बोवघायसमुदाणकिरिया-सर्वोपद्यातसमुशनक्रिया यत्र ससिणद्ध सस्निग्धं-यद्विग्रहितमात्रम् । ओघ० १७० । सर्वप्रकारेणेन्द्रियविनाशं करोतीति । आव० ६१५ । सस्निग्धं-तोयेन उदकाम् । ओघ. १६८ । सस्निग्ध सव्योसहि-सर्वोषधिः, सर्व एव विड-मूत्र-केश-नखाद ईषल्लक्ष्यमाणजलख रण्टितम् । पिण्ड० १४६ । बिंद्र योऽवयवा: सुरभयो व्याध्यपनयनसमर्थवादोषधयो यस्य संमति तं । नि० चू० प्र० ३८ । सस्निग्धं ईवन स सर्वोषधिः । अथवा सर्वा आमर्पोषध्यादिका औषधयो दुदकयुक्तम् । दश. १७०। सस्निग्धं-बिन्दुरहितम् । यस्य कस्यापि साधोः स तथा । विशे० ३८० । सर्व दश० १७० । सस्निग्धं-बिन्दुरहितम् । वृ० प्र० २८५ एव विधमत्रकेशनखादयो विशेषाः खल्वोषधयो यस्य, था। व्याध्युपश महेतव इत्यर्थः । आव० ४७ । सर्ब एव ससिणिद्धा-सस्निग्धा-आद्रा । आचा० ३३७ । शीतो. खेल मल्लविघुड्केशरोमनखादयः औषधिः सर्वोषधिः ।। दकस्तिमिता । आचा० ३४२ । सस्निग्धा-गलदुदकन भोप. २८ । बिन्दुः । आचा० ३४६ । सम्योगही-सर्वोषधिः सिद्धार्थकः । जीवा० २४४ । सप्सिरविगहोवराग शशिरविग्रहोपरागः-शशिरव्योः . सम्योसहे-सवं -विडमूत्रादिकमोषधं यस्य सा सर्वोषधः । हुलक्षणेन ग्रहणम् । प्रभ० ३९ । रोगोपशमसमर्थः। प्रज्ञा० ४२५ । सतिरीय-सत्रीक:-सशोभाकः । जीवा० १३९ । सम्मोही-सर्वावधिः । प्रज्ञा० ५३८ । ससिवो-बीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । ससंकप्पविकल्पणात-स्वसंकल्पविकल्पनाशः-स्वस्य-प्रा. ससिहार-शशिहारः । औप० ।। स्मनः सङ्कला:-अध्यवसायस्तस्य विकल्ला-रागादयो भे ससो-चन्द्रः । भष. ५७७ । शशो-भूषणविधिविशेषः । दास्तेषां नाश:-अभावः । उत्तः ६३८ । जीवा. २६९ । शसनं-शशः शशोऽस्यास्तीति शशी, सह (१११७ ) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससुंठिन भाचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सहसपत्त श्रिया वर्तते इति सश्री । सुर्य० २९२ । | सहदेवि- सहदेवी-सनत्कुमारमाता । आव० १८१ । ससंठि-वनस्पतिविशेषः । भग ८०२ । सहदेवी-औषधि विशेषः । उत्त० ४१७ । चतुर्थचक्रीमाता। संसूर-श्वसुरः । आव• ३४६ । सम० १५२ । ससेण सशासनः भरताशासहितः । जं.प्र. २२० । । सहपसुकीलिया- सहपांशुक्रीडितको समान बालभावात्वात । सस्सामिवयण स्वं च स्वामी च स्वस्वामीनो तयोर्वचनं ज्ञाता० ९१ । प्रतिपादन तत्र स्वस्वामिवचन:-स्वस्वामिसम्बन्धः । सहभाव-इदियाण पत्तेयं जो जस्स विसयो सो सहठाणा० ४२८ । भावो । दश० चू० ७६ । सस्सारिणी-साश्राविणी सहाश्राविः जलप्रवेशान्वितः | सहड्डिया-सहवृद्धो समेतयोवृद्धिमुपगतत्वात् । ज्ञाता. प्रक्रमात्सन्धिः । उत्त० ५०६ । ९१ । सस्सिओ-सास्यक:-कृषोबलः । बृ० द्वि० २३२ अ । सहवासिय-सहवासिक-प्राति वेश्मिकम् । सूत्र. ३२० । सस्सिरिए-सश्राक-सशोभम् । भग० १२५ । सहसंबवणं-सहस्राम्नवनम् । आव० १३७ । हस्तिनागसस्सिरिय-शोभायुक्तः । भए ४८२।। पुर उद्यानम् । भय० ५३५ । हस्तिनागपूरे वायव्य कोण सस्सिरीय-स्वधी: गात्मसम्पद् । भग ४८२। सश्रीक. उद्यानम् । भग० ५१४ । सहस्राम्रवनं-काकन्दीनगर्यासशोभन् । सुर्य : २६४ । मुद्यानविशेषः । उत्त० २ । हस्तकल्पायामुद्यानम् । सह-ह-सहिष्णुः, भारते वर्षे पञ्चमो मनुष्यभेदः। भग० ज्ञाता. २२६ । नागपुर उद्यानम् । ज्ञाता २५२ । २७६ । युक्तः। उत्त० ३६४ । स्वयमात्मनैव । उत्त. -सह आरमनव साद्धं अनन्योपदेशतः । सह३०६ । सम्बन्धवाची । आचा. २० । युगपदेव । सम. आत्मनैव सम्यग- यथावद् बुद्धो हेयोपादेयोपेक्षणीयवस्तु तत्वं विदितवानिति सहसम्बुद्धः । भग०७ । सहसम्बुद्ध:सहकारिकारण-चक्रचीवराद्यनेकपा कारणम् । ठाणा. स्वयमेव सम्यग्बोद्धव्यस्य बोधात् । औप. १४। सहसंमइयाए-सहसा तत्क्षणमेव मत्या-प्रातिभबोधाव. सहजातग-सहजातः । श्राव. ३४३ । ध्यादिज्ञानेन सह वा ज्ञानेन ज्ञेयं सच्छोभनया मित्या स्वसहजायया-सहजातो जन्मदिनस्यैकत्वात् । ज्ञाता• ६।। कलङ्काकरहितया मत्या । आचा० २२७ । -सखी । आव० ४१६ ।। सहसंमुइय-पहात्मन या संपता मतिः स सहसम्मतिः सहते-स्थानाविचलनतः क्षमते । भग०४६८ । परोपदेशनिरपेक्षतया जातिस्मरणप्रतिभादिरुपया। उत्त० सहत्थपाणाइवायकिरिया-स्वहस्तेन स्वप्राणान् निर्वेदा- ५६४ । दिना परप्राणान् वा कोषादिना अतिपातयः स्वहस्तप्रा. सहसकरणं-जाणमाणस्स परायत्तस्वेत्यर्थः । नि० चु• प्र० जातिपातक्रिया । ठाणा० ४१ । सहत्थपारियावणिया-स्वहस्तेन स्वदेहस्य परदेहस्य वा सहसक्कार-सहसाकार:-असपीक्षितपूर्वापरदोषः सहसा पारितापनं कुर्वतः स्वहस्तपरितापनिकी। ठाणा० ९१ । करणम् । आचा० १०२ । सहसाकार:-अकास्मात्करणः । सहदारदरिसिणो-सह दारानु पश्यन्तीत्वेवंशीला: सह- ठाणा. ४८४ । सहसाकार:-आकस्मिकक्रिया । मग दारदशिनः, एककालकृतकलत्रस्वीकारा समानवयस इति । ९१९ । उत्त० ३७७ । सहसक्खे-सहस्रमणं यस्यासो इन्द्रः सहस्राक्षः । प्रज्ञा० सहदारदरसो-सहदारदशिनी समानयौवनारम्भत्वात् । १०१। ज्ञाता. ६१ । सहसदाण-अप्रतकितदानम् । पोष. १९५ । महदेव-पाण्डुराजपञ्चमपूत्रः । जाता० २०८ । सहसपत्त । ज्ञाता०६६ । ( १९१८ ) . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहसम्मइ ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ [ सहायत्तं सहसम्मइ-सहसम्मत्या सह-आत्मना या सकाता मतिः। विशेष: । आव० ५६४ । सा सहसम्मतिः । प्रज्ञा० ५६६ । सहस्सक्ख-सहस्रमणां यस्यासाविन्द्रः सहस्राक्ष.। भग. सहसख्या-सूलविसूइया । नि, चू. द्वि. ५२ अ । १७४ । पञ्चानां मन्त्रिशतानां सहस्रमणां भवतीति सहसलाह-सहमलाभ:-विशिष्टस्य कथञ्चिल्लाभ: । आव. तद्योगादरी सास्राक्षा । उपा० २६ । सहस्राक्षः सहस्र लोचनः । त ५। सहसा-काण्ड एव । आव. ७८४ । सहसा-तत्क्षणम। सहस्सपत्त-सहस्रामम् । प्रज्ञा ३,। जलकहविशेषः । दश० ४४ । एककालम् । जीवा० २६७ । पुवावरं प्रज्ञा ३३ । अणालोचे । नि० चू, तृ. १३६ आ । आकस्मिकम् । सहस्सपाग-सहस्रणौषधीनां सहस्र वा वारा: पक्कम् । ओष. १५४ । सहसा-एककालम् । जं. प्र.१०२। ०६० २०६ अ । सहस्रके:-शतकृत्वोऽपरापरोषधिरसेन अवितक्यं । प्रश्न. ३० । अप्रतकितम् । ओघ० २२६ । कार्षापणानां शतेन वा तच्छतपाकमेवं सहस्रपाकमपि । सहसाअब्भाक्खाण-सहसा-अनालोच्याभ्याख्यानं-असद- | जं० प्र० ३९४ । सहस्रपाक तैलविशेषः । आव०११६ । दोषारोपणं सहसाऽभ्याख्यानम् । उपा० (?)। सहस्सबमक्खाण-सहसाभ्याख्यानम् । आव २० । सहसाकारेह-सहसात् कारयत-आशु पञ्चत्वं नयत । | सहस्साणीय-उदायनस्य पितृपिता । भग० ५५६ । आचा० २७३ । सहस्सार-सहस्रारः कल्पोपगवैमानिके भेदविशेषः । प्रज्ञा सहसागार-सहसाकार। सत्यकल्पनाय: भिक्षादोषविशेषः । आव० ५७५ । सहसारडिसाग-आनतकल्पे अष्टादशसागरोपमस्थिति सहसार-सहस्रारः पुरुषोत्तमवासुदेवागमनस्थानम् । आव० कदेवविमाकं सम० २५ । सहस्रारावतंशकः । सहस्राय देवलोकस्य मध्येऽवतंसकः । जीवा० । ११२ । पहसावत्तासियाणि-सहसाऽवत्रासितानि-पराङ्मुखतादेः सहा-सभा चातुर्वेद्यादिशाला । ३६६ । सखा-बालवयसपदि त्रासोत्पदकान्यसिस्थानगर्भ घट्टनादीनि । उत्त० स्य: । ठाणा० २४५ । सखा-समानखादनपानो गाढत. ४२८ । मस्नेहाथानम् । जीवा० २८१ । सभा । ओप० ४१ । सहसि-सहसा भयाभावेन । ज्ञाता० ७१ । सहाः । जं० प्र० ३१३ । सहाः । जं. प्र० १२८ । सहसुद्दाह-सहसा-अकस्माद् उद्दाहः-प्रकृष्टो दाहः सहसो । सभा । आस्थायिका । जं० प्र० १४४ । सखा-समान हाहः सहस्राणां वा लोकस्योहाहः । ठाणा० ५०८।। खादनपानो गाढतमस्नेहास्पदम्। जं०प्र० १२३ । सभा। सहस्रपत्र जलजम् । प्रज्ञा० ३७ । जं. प्र. ३८८ । समानाम ग्रामनगरादीनां तद्वासिनोकासहस्रपाकतैल-सहस्रपाकत लम् । आचा० ३१३ । स्थाथिकार्यमागन्तुकशयनाथं च कुडयाद्याकृतिः। आचा. सहस्त्रानोकराजसूनुः-। विशे० ४६५ । ३०७ । सहस्राम्रवणं-द्वारकायां उद्यानम् । अ ४६२ । सहाकार-विशेषितग्रहणशक्तिलक्षणः । ठाणा०६३ । -सहस्सबवण-सहस्राम्रवर्ण-हस्तिनापुरे उद्यामम् । विपा० | सहाकिच्च-सहायकृत्यं-मित्रादिकृत्रं सहायकर्म । ज्ञाता. १२ । सहस्राम्रवणं-हस्तिनापुरे उद्यानम् । भग ७६७ ।। १९१ । उद्यानविशेषः । ज्ञाता. १५२ । पोलासपुर उद्यानम् । | सहामि-तदुत्पत्ताभिमुखतया । ठाणा. २४७ । उपा० ३१ । सहाय-सहायः-साहाय्यकारी । ज्ञाता० ८८ । सहाय:-सहस्स-सहस्रं अनंत्तसख्यायाम् । आव. ४०७ । सहचरः । ठाणा. २४५ । सहस्सकार-पूर्वमदृष्ट्वा क्षिप्ते पादे यत्पुनः पश्येत् न च सहायर्या च - सहायकृत्यम् । आव ३४६ । शक्नोति निवत्तितं पादं तत सहाकारः, अतिचार | सहायत-सहायत्व साधूना नमस्कारार्हत्वे हेतुः । भारत, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायपणखाण ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ साइजण ३८३ । सहायत्वं अहंदादीनां नमस्कारात्वे हेतुः । तहे-सहते-क्षमते । आव० ५६८ । आक. ३७३ । सहेज-सदेत । ज्ञाता. १७३ ।। सहायपमुक्खाण-सहाया:-साहाय्यकारिणो यतयस्तत्व सहो-सहा-समर्थः सहायादिगुणयुक्तः । आव० ५३७ । स्याख्याने तथाविषयोग्यताभाविनाऽभिग्रहविशेषकरः ।उत्तर सहोढ-सलोप्तः । पिण्ड, ११३ । समोषम् । ज्ञाता० ५८६ । ८६ । सलोप्तः । नि० चू० तु. १२८ अ । सलोत्रः। सहावो-स्वभावः यद् मुगादीनां राद्धिस्वभावमितरता स। बृ. प्र. १५४ अ । सहोढ - सलोत्रम् । नि. चू० वि० प्रभ० ३५ । स्वभावः । प्रभ० ३५ । स्वभावः-स्वरूपः । १०७ अ । उत्तः ६८५ । स्वभाव-वस्तुनः स्वत एव । (१)। सांकायिक-मारोदहनयन्त्रम् । निरय० २६ । सहावफूल्ल स्वभावफुल्लं प्रकृतिविकसितम् । दश० ७३ । सांगडओ-साङ्गतिकः-सङ्गतिमात्रघटितः । जीवा० २८१ । सहावसिद्ध स्वभावसिद्ध आत्मायं कृतम्, उदामादि । सांग्रामिकी-द्वारवयां वासुदेवस्य प्रथमा भेरी । संग्रामरहितम् । दश० ७३ । कालेसमुपस्थिते सामन्तादीनां ज्ञापनार्थ वाद्यते । विशे० सहि सखा-मित्रम् । ज० प्र० १४९ । सहिः । ठाणा | २४७ । सांतर-साम्तर:-सावकाशः बृहदन्तरालः । ओष. ८२ । सहिए-सहितः महाग्रहः । ज० प्र० ५३४ । सहितः । सांतरा-पत्नी । व्य० द्वि० ८५ ब । सम्यग्दर्शनादिभिरन्यसाधुभिः । उत्त० ४१४ । स्वस्मै सांप्रतं-1 ध्य. द्वि. ३८७ आ । हितः स्वहितः । सत्त, ४१४ । सह हितेन वत्तंत इति । सांभरक-दीपसस्को रूपकः । वृ• द्वि. २२७ अ । सहितः, सहितो-युक्तो वा ज्ञानादिभिः । स्वहिता- सांमोही-सम्मोही, गुढात्मनो देवविशेषास्तेषामियं साम्मोबारमहितो वा । सूत्र. ६६ । सह हितेन वर्तत इति ही । ६० प्र० २१२ मा । सहितः । आचा. १२६ । सांयात्रिकः। ०२०८ । सांयात्रिकः । बाचा. २४७ सहिओ-कालोचितस्वाध्यायप्रतिलेखनातपःसहितः । व्य० सांव्यवहारिकप्रत्यक्षम् । प्रज्ञा. ३०३ । प्र० २३६ । सांशयिक-मिथ्यात्वे पञ्चमभेदः । ठाणा० २७ । सहिण-श्लषणं-सूक्मम् । आचा• ३९४ । श्लणं-सूक्ष्मम् । साइ-सादि नामोतोऽधश्चतुरस्रलक्षणयुक्तमुपरि च न तदनुप्राचा० ३९४ । सहिष्णुः । बृ.द्वि. ७० छ । रुपं संस्थानम् । भग० ६५० । अविश्रमः । ज्ञाता. सहिणकल्लाण-श्लणं-सूक्ष्म तत् वर्णन्छब्यादिभिश्च क. २३८ । सह मादिना-नाभेरबस्तनमागेन यथोक्तप्रमाणल्याणं शोभनं वा सूक्ष्मकल्याणम् । बाचा. ३९४ । लक्षणेन वर्तते इति सादि । तृतीयं संस्थानम् । प्रज्ञा. सहिय-सहित:-मिलितः। उत्त० ७०६ । संहतम् । ओप० ४१२ । सादि-उत्सेधबहुलं संस्थानम् । आव ० ३३७ । ६७ । सहित:-समुदितः । जीवा० १९४ । । स्वाति: माया । दशा० २७२ । सहिया-सहिता-सन्तता नवपान्तरालव्यवच्छिन्ना । जीव. साइजोग-अविश्रम्भसम्बन्धः सातिशयेन वा द्रव्येण निर२७१ । तिशयस्य योगस्तस्प्रतिरूपकरणम् । भग० ५७३ । सहिष्णु-समर्थः । भग० २७८ । साइजोगजुत्त-सादियोगयुक्तः अशुभमनोयोगयुक्तः । द्वासहीण-स्वाधीन स्ववशम् । दश० २२५ । प्रवृत्तः । विंशतितममोहनीयस्थानम् । आव० ६६१ । पउ. ४५॥ साइबइ-स्वदत्ते-अनुमन्यते । भग० ६८४ । बासादयति सह-सहिष्णु:-निष्ठुरशरीरम् । उपा. (?)। प्रतिगृह्णाति । व्य० वि० २२३ अ । सह-सहू। समर्पः । पोष. ४२ । समर्थः । श्राव. ७७५ साइजण-अभिष्वानं-प्रतिबन्धविधानमित्यर्थः । विशे. सहिष्णुः । आव० ८५८ । । १.६७ । सातये-सङ्गोपये । बृ० प्र० २२० । ( १९२०) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साइजणय ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ साग साइजणय-स्वदनता । भग ६२४ । शकुनेन चरतीति शाकुनिकः । प्रश्न, १३ । शकुनेनसाइजणया-सेवा । ठाणा. १४९ । श्येनादिना मृगयां करोतीति शाकुनिकः । प्रश्न० ३७ । साइजणा-अणुमोयणा । नि० चू० प्र० १३४ अ । दुविहा शाकुनिकः शकुनेन चरति पापधि करोति शकुनान् वा कारावणे अणु मोदणे च । नि. चू०प्र० १०३ मा । नन्तीति शाकुनिकः । अनु० १३० । साइनुत्ति । नि. चू० प्र० १०३ आ । . साए-हस्तविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । साइजह-स्वदध्वः-अनुमन्यध्वः । भगः ३८१ । साएअ-साकेतं चन्द्रावतंसकनगरम् । आव० ३६६ । साइजिजा-आस्वादयेत् । आचा० ३९८ । साएए-अनुत्तरोपपातिके पञ्चमवर्ग नगरम् । अनुत्त०८। साइजित्तए स्वादयितुं-भोक्तुम् । औप० ९५ । नगरविशेषः । अन्त० २३ । साइलिस्सामि-स्वादयिष्यामि-उपभोक्ष्ये ।आचा. २८२० । साएय साकेतं-नगरविशेषः । अनु० ८ । वारत्तते नगरम् । स्वादायष्यामि-अभिलषिष्यामि । आचा० २८१ ।। अन्त०२३ । साकेतं.-मूल गुणप्रत्याख्याने शत्रुञ्जयराजधानी। साइजेज-स्वादयेत् सत्यङ्कारदानतः स्वीकुर्यात् । भग० आव. ७१५ । साकेतं-साकेतारसमकटकभ्रान्तः । उत्त. २२६ । अभ्युपगच्छत् । आचा० ३३१ । ३७६ । साकेतं-अलोभोदाहरणे पुण्डरीकराजधानी। साइतंकार-सत्यङ्कारः । आव ७०३ । आव: ७०१। दुरितविशेषः । प्रशा० ३३ । साकेतं-नगरं, साइम स्वादनं स्वाद. तेन निवृत्तं स्वादिमम् । ठाणा यत्र कुरूटोत्कुरूटौ दोषार्तेत रोपाध्यायौ कालं गतौ । १.८ । स्वादिम स्वाद्यत इति स्वादिमं कर्परलव- आव० ४६५ । केतं-चिह्न सह वे तेन वर्तते सकेतं-सङ्गादि । आचा० २६५ । स्वादिम कक्कोललवङ्गादि । चिह्नम् । भग० २६७ । साकेतं-कोशलजनपदे आर्य क्षेत्र भाव. ८११ । स्वादिम-गुडताम्बुलपुगफलादि, स्वादयति नगरम् । प्रज्ञा० ५५ । गुणान्-रसादीन संयमगुणान् वेति । आव ८५० । साकडूंते समाकर्षयन् । भग० १७५ । स्वाधं-ताम्बुलादि । दश. १४६ । | साकार-साकारत्वं विच्छिन्नवर्णपदवाक्यत्वेनाकारप्राप्तबम् । साइयंकार-सप्रत्ययम् । पिण्ड० १२८ । सम० ६३ । साइयसंठित-उत्तराषाढानक्षत्रसंस्थतिः । सूर्य० १३०। साकार पस्सी-साकारपश्यत्ता । प्रज्ञा० ५३१ । साइया-सादिताः खेदं प्रापिताः । ७० प्र० ३०१ आ। साकारमंत्र-पैशुन्यं गुह्यमन्त्रभेदश्च । तत्त्वा० ७-२१ । साइसंठाण-सादिसंस्थानं । तृतीयं संस्थानम् प्रज्ञा० ४७२। साकेअ-साकेअं-अभिनन्दनस्य प्रथमपारणकस्थानम् । नाभितोऽधः सवियवाश्चतुरस्रलक्षणाविसंवादिनो यस्यो. आव०१४६ । परि च यत्तदनुरूपं न भवति तत्सादिसंस्थानम् । सम० साकेत-नगरावशेषः । दश २८१ । साकेतपुरं । विशे० ४७६ । साइसंपओग-सहातिशयेन संप्रयोगः सातिशयेन द्रव्येण साकेय साकेत नगर विशेष: । आव० ६२ । कुरुदत्तपुत्र. कस्तूरिकादिनाऽपरस्य द्रव्यस्य संयोगः सातिसम्प्रयोगः। प्रतिमास्थितस्थानम् । उत्त. १०६ । सूत्र० ३३० । सातिसम्प्रयोगः-विगुणद्रव्यस्य द्रव्यान्तर-! साखा-शाखा । उत्त. ३०।। शाखा-चिडिमा। जीवा. मीलनेन गुणोत्कर्षभ्रमोत्पादनम् । प्रश्न० ९७ । साई-स्वातिः । ठाणा. ७७ । भावीत्रयोविशतितमतीर्थ- साखापारओ शाखापारगः । नाव. ३०० । कृन्नाम । सम० १५ । स्वाति:-वायुभूतेर्जन्मनक्षत्रम् । साग-शा को-वस्तुलादिनिका ठाणः ११५ । शाह:बाव० २५५ । तसिद्धः । ठाणा. ११९ वृक्षावशेष उत्त. ६५४ । साई कारावण-सम्यङ्कारः आव० ६८५ । शाकः वत्थुलमजिकादिः । पिण्ड - २ नस्पतिविशेष साउणिय-शकुनानु हन्तीति शाकुनिकः । प्रभ० १३ । । भग ८०२ । शाक:-तक्रमिद्धः भग २६ । शाका(चल्प० १४१) ( १९२१) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागओ आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सागार वस्तुलादि । उपा० ५ । सौवस्तिकशाकः । उपा० ५। द्वारावत्यां निषधपुत्रः । विशे० ६१० । शाक:-तक्रसिद्धशाक: । प्रभ० १६३ । शाक:-वस्तुलादि. दगूर्व-सागरचन्द्रा: आचार्याः । उत्त. भजिका, शाक:-तक्रसिद्धः । सूर्य. २९३ । सागओ-स्वागतः । आव. १८६ । सागरचित्तकूड-सागरचित्रकूट-नन्दनवने कूटः । ज० प्र० सागड-शाकटं-गन्त्रीविशेषाणां समूहः । भग० ६७१ ।। ___३६७ । सागडिय-शाकटिक:-गस्त्रीवाहकः । उत्त० २४७ । सागरतरङ्ग-नाट्यविशेषः । जं० प्र० ४१४ । सागतए-आलिङ्गनम् । आव० ३४९ । सागरदत्त-सागरदत्तः-भद्रबलदेवपूर्वभवः । आव. १६३ । सागपत्त-शकपत्रम् । प्रज्ञा० ३६७ । सर्गपत्र-वृक्ष विशेष. सागरदत:-पाटलखण्डनगरे सार्थवाहः । विपा० ७४ । पर्णम् । प्रभ० ८ । सागरदत्त:-ब्रह्मदत्तपत्भ्या दीपशिखायाः पिता। उत्त. सागय-स्वागतम् । भाव. ६७२ । स्वापतं-शोभनमाग- ३७९ । तृतीयबलदेवपूर्वभवनाम । सम० १५३ । चम्पायो मनम् । भग० ११६ । सार्थवहः । ज्ञाता० २०० । गोचरविषयोपयुक्ततायो सागयमणुरागय-शोमनस्वानुरूपस्वलक्षणधर्मद्वयोपेतमागम- गुणालयपुरे श्रेष्ठी । पिण्ड ७८ । नम् । भग, ११७ । सागरदत्तपुत्त । ज्ञाता० ६१ । साग'गमा-सागर-समुद्रं गच्छतीति सायपङ्गमा-समुद्र- सागरदत्सा-कुन्थुनाथशीविका । शम. १५१ । पातिनी । उत्त० ३५२ । सागरप्रविभक्ति-द्वादशमो नाट्यभेदः । ६० प्र० ४१६ । सागर-सागर:-दत्तवासुदेवधर्माचार्यः । आव० १६३ ।। सागरप्रविभक्तिनागप्रविभक्त्यभिनयात्मकः-सागरना. बलदेववासुदेवयो। पूर्व भवधर्माचार्यः । सम०१५३ ।। गाविभक्तिनामा द्वादशमो नाटयविधिः। जीवा०२४६ । अन्तकृद्दशाना प्रथमवर्गस्य तृतीयमध्ययनम् । अन्त० १ । सागरबोद-सागरपोत:-परलोकफचविषये सार्थवाहः । सागर:-इन्द्रदत्त राजस्य दासचेटः । ३त्त०१४८ । सागर:- बाव. ८६३ । अयं क्वचित्काले प्रचु सलिलो भवति क्वचित्यूनमर्यादा- सागरमह-उत्सवविशेषः । आचा० ३२८ । वस्थ एव उपमाविषयः । अोघ• ६६ । ईशानकल्पे | सागरवर स्वयम्भूरमणः । आव० ५१. । सागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम०२ । द्वादशम सागरवह-सागरव्यूहः-सायराकारः सैन्यविन्न्यासः । प्रश्न. स्वप्नम् । ज्ञाता०२० । सागर:-अन्तकृदृशानी द्वितीय- ४७ । सागरव्यू:-चेटकल्य ब्यूहरचना । आव० ६८४ । वर्गस्य द्वितीयमध्ययनम् । अन्त• ३ सागर.-तिति- | सागरसरिनामधेजा-सागरसदृशनामधेयः-सागरोपमः । क्षोदाहरणे चतुर्थों दासचेट: । बाष० ७.२ । सागर:- आव० १७१ । दासचेटः। आव० ३४३ । सागरोवम-कालमानविशेषः । ठाणा ० ८६ । सागरेणोपमा सागरकंत-ईशान कल्पे सागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । यस्मिस्तत्सागरोपमः । ठाणा. ६० पल्पोपमानां दशभिः सम. २। कोटाकोटाभिरेक व्यावहारिक सागरोपमम् । अनु। सागरकूट वक्षस्काराधिपतिवासकूटम् । जं० प्र० ३३७ । । १८० । सागरोपमं कालमानविशेषः । अनु० १०० । साग. सागरखमण-सागरक्षपणः । उत्त० १२६ । प्रज्ञादृष्टान्तः ।। रोपमः । भग०२७५ । सागरोपमः-कालमानविशेषः । मरः । भग० २१० । सागरोपमः दुर्लभारत्वात सागरेण-समुद्रे. सागरचंद-सागरचन्द्र:-चन्द्रावतंसकस्य सुदर्शनाराया। णोपमा यस्य तत्सागरोपमं, असयकालस्वम् । जं.प्र. ज्येष्ठपुत्र युवराजा । आव० ३६६ सागरचन्द्र:-निषध. ९२ । कालविशेषः । मग. ८८८ । सागरोम-पल्यो. पुत्रः । पाव० ९४ । बारवती बलदेवपुत्तस्स पुत्तो। पमाना दशकोटीकोटयः । जीवा० ३४५ । वृ० प्र० ३• अ । सूच्युपसर्गसइ । मर० । सागरचन्द्र। सागार-आक्रिपन्त इत्पकाराः प्रत्याख्यानापवादहेतवोs. ( १९२२ ) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारठति । अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, भा० ५ [ साडीकम्म नामोगाद्यास्तै राकारैः सहेति साकारम् । ठाणा० ४६८।। आव० ८५३ । अंगादाणं । नि. चू० द्वि० ३३ अ । साकार:-विशेषग्राहकः । भग ३५५ । प्रत्याख्यानापवाद. स्प्रावाजनभयं । बृ० तृ० ४४ अ । मेहुणं । नि० चू० हेतवोऽनाभोगादय आकारास्तैः सह साकारः । आव. प्र. २१७ अ । सागारिकम् । आव० ७३६ । ५४० । सागार:-सागारिकः । ओघ० ५० । सागारियपसंग-मैथुनम् । बृ• द्वि० २०८ । सागारठवंति-सविकल्पं कुर्वन्ति । ओष०६९। सागारियपिंड-सागारिकपिण्डं सागारिक:-शय्यातरस्तस्य सागारपासणया-साकारपश्यता । प्रज्ञा० ५३०। पिण्डं-आहारं, यदिवा सूतकगृहपिण्डं जुगुप्सितं वर्णापसागारि-सागारिक:-शय्यातरः । ओघ० १५५ । सागा. सपिण्डं वा । सूत्र० १८१ । रिकः शय्यातरः । पिण्ड ६७ । सागारिया-सागारिकाः सज्ञातकाः। बृ० तृ. ३९ । सागारिअ-सागारिक-मेहनम् । आव० २२० । सागा- सागारियागार-सागारिकाका । आव० ८५३ । रिकः-सय्यात रः । मोष०७२। सागारोवउत्त-आकार:-प्रतिनियतोऽयंग्रहणपरिणाम:, सह सागारिमसंघट्टण-सागारिकसंस्पर्शः । बोध०६०। आकारेण वर्तते इति साकारः स चासावुपयोगश्च साका. सागारिए-सागारिको-वसतिस्वामी । वृ० द्वि० १८३ था। रोपयोग: । प्रज्ञा० ५२६ । बृ० द्वि. १८३ । सागारिक:-साधारयुक्तः । ६० सागेय-कौशलाजनपदे राजा, साकेतः । ज्ञाता० १३० । द्वि० ३९ । सागारिक:-शय्यातरः । बोष. १३८ । नगरविशेषः । अन्त० २३ । साकेतं-यत्र सम्यक्त्ववान सागारिकः स्तेनादिकः । घोष०११२ । चन्द्रावतंसको नाम राजा । उत्त० ३७५ । सिद्धी सागारिओ-सेजातरो । नि. चू०प्र० १५२ आ । सेजा | नगरम् । अत० २३ । साकेत नगर, पत्र अशोगदतेभ्यस्य तयो । नि० चू. प्र. २२५ बा । सेज्जायरो। नि. पूत्री जाती । आव० ३९४ । पू. प्र. ७३ आ । सागेयनगर-महाकालिन्दाया: पूर्वभववास्तम्या नगरी। सागारिक-शम्यातर। । पाव० १५६ । मैथुनम् । बृ. ज्ञाता० २५२ । प्र. २०१ अ । मैथुनम् । बृ० प्र० २१ । सागेयनयर-नगरविशेषा । श्राव० २५३ । सागारकड-सागारकृतं-यस्त्वनारमार्थीकतम् । व्य० वि० | साख्य-शास्त्रविशेषः । आव० ३७५ । २७१ । वृ० द्वि. ८८ आ । साचि-शाल्मलीतरूः । जीवा० ४३ । सागारिकावग्रह-शय्यातरावग्रहः, तृतीयोऽवग्रहः । आव० साचिव्य-प्राधान्यम् । नंदी. ९० । साची-शाल्मलीतरूः । प्रभ. ४१२ । सागारिगा-सहपडिबद्धा वसहीए ठिता। नि चू० त० साडग-एगदेशखंडस्स पढणं । नि०० प्र. २३२७। स्थ वसहीए ठियाणं मेहणुम्भवो भवति सा | साडागहणा-परिहाणं जुबलं वासं। नि. सू.प्र. ३२९ सागारिगा, अहवा जस्थ इत्थी पुरिसा वसंति से सागा. आ। रिका । नि.चू.१०१ । साडण-सातनं-उदराद्वहिःकरणम् । निरय० ११शातनं सागारित-प्रगारं-गृहं सह तेन वर्तत इति सागार:, स । शातनकरणं यस्य शलोदाहरणम् । आव० ४६२ । एव सागारिक:-शय्यातरः। ठाणा ३१। साडणा--शातना-गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतनहेता । सागारिय-सागारिक-मैथुनम् । आचा० ३०२ । सागा- विपा० ४२ । रिक:-शम्यातरः । सूत्र० १८१ । मैथुनम् । आचा० साडय-शाटकं-बस्त्रमात्रम् । भग० ४७६ । शाटकम् । २०० । सागारिकम् । दश०५७ । सागारिक:-स्थान- आव० ३०६ । शाटक-वस्त्रमात्रम् । बं० प्र० ११. दाता । सम. ४० । सहागारेण-गेहेन वत्तंत इति शाटिकः । आव० १६४ । सायरः स एव सागारिका । मय०७०. सागारिकः। साडीकम्म-शाटककर्म शाकटिकत्वेन जीवति ।बाबा ( १९२३ ) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहुअ ] आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ८२९१ स हुअ - अबद्धास्थिफलम् । आव० ६४८ | साडेतू शाटयित्वा । आव० ८३१ । साडोल्लए- उत्तरीयवस्त्रम् । ज्ञाता २३५ । साडी श्रद्धा - धम्मेच्छा सा विधते यस्पsसो श्रद्धावान् । आचा० २२३ । साणं-- स्वेषां आत्मीयानाम् । प्रज्ञा० ८९ । श्वानं-मण्डलम् । दश० १६७ । श्वानः - कौलेयकः । प्रश्न० ७ । ज्ञाता० ९४ । दिशाचरविशेषः । भग० ६५९ । सांणए - सगसूत्रमयं वस्त्रं सनकम् । वृ० द्वि०२०१ । साणत- सपुत्रययं सानकम् । ठाणा ३३८ । साणवणीमत- वणीमगे चतुर्थो भेदः । ठाणा० ३४१ । सांगावच्छादारा संघट्टणा-श्वान वत्सदारकसंघट्टना आव० १७५ । साणिय- सायं-साणवत्कल निष्पन्नम् । आचा० ३६३ । साणो वणहि विजइ । दश० चू० ७७। शाणीअतसीवल्कजा पटी । दश० १६६ । सांणुक्कोस- सानुक्रोशः सदयः । प्रभ०७४ । सानुक्रोश: सकरुणः । उत्त० ४६१ । साक्कोसया - सानुक्रोशता । आव० ६५ । सानुकम्पता । भग० ४१२ । सागुणाए यत्र जल्पतां प्रतिशब्द उत्तिष्ठते स प्रदेशः सान्नादः । विशे० १२६३ । - सागुणाति- बारामे गंभीरे जस्य वा खेत्ते पडिसद्दो भवति तं खाणुणाति । नि० ० तृ० १९ आा । प्रणुष्पओ - चउभांगावसेस चरिमाए उच्चारपासवणभूमीओ पाडले देवव्वा उत्ति ततो कालस्स पडिक्कमति ततो पडि लेहेति एस साणपत्र । नि० चू० प्र० २१९ अ । साणुष्प- प्रत्यूषवेलायां सानुप्रयः । बृ० प्र० ३०१ अ । सीप अविश्वस्तयोनिबीजम् । आचा० ३४८ । साट्ठिय- सानुष्ठं ग्रामविशेषः । आव० २१५ । सारणेति-मंदपादो शुक्लपादो वा । नि० चू० प्र० ३२४ मा । साण्णि-सावगं । नि० ० प्र० २११ अ । सात- आह्लादः । जीवा० १२३ । सातवाहण - शातवाहनः प्रतिष्ठाननगरे राजा । व्य० प्र० १६३ अ । सात सोक्ख- सातसौख्यं अभिमानमात्रजनित माल्हादम् । जीवा १२३ । सातागारव - साता गौरवं सुखशीलता । सूत्र० १७३ । सातासात क्रमेणोदय प्राप्तवे दनीच कर्म पुद्गलानुभवतः सातासात । प्रज्ञा० ५५६ । साति-सादि सह आदिना-पाभेरषस्वभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्त्तत इति सादि, तृतीयं संस्थानं उत्सेघबहुलम् । जीवा ४२ । शाल्मलीत हरिव यत्संस्थानम् । जीवा ४२ । [ सावो सातिचार-छेोपस्थापानिकचारित्र द्वितीयो भेदः, मूलप्रायश्चितप्राप्तस्य भवति । ठाणा० ३२३ । सात्तिज्जणा अणुमोयणे कारावणे । नि० चू प्र० ११५ आ । सातिदत्त-स्वातिदत्तः ब्राह्मणविशेषः । अध० २२५ । सातियँकार - सत्यङ्कारः । आव ० ३४३ । सातिरेगआउट्ठपोरिसी - सातिरेकै कोनषष्टिपौरुषी सूर्यसमये अगनसमये छाया । सूर्य० ६५ । साती - सातिः - अविश्रम्भः मृषावादस्य त्रयोदशं नाम । प्रश्न० २६ । स्वाती नक्षत्रम् । सूर्य १३० । सादि:आदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरवस्तनो देहमागो गृह्यते तेनादिना शरीरलक्षणोक्त प्रमाणमाजा सह वर्त्त यत्तत् सादिः, उत्सेधबहुलं परिपूर्णोत्सेधमित्यर्थः । ठाणा० ३५७ । सात्त्विक अभिनय विशेषः । जं प्र० ४१४ । सादश्यं प्रत्यासत्तिः । विशे १७२ । सादिति - परिभुंवति । नि० ० द्वि० १०० आ । सादिय - सहादिना - मायया वत्र्तत इति सादिकं समायम् । सूत्र० १७३ । सादियं - सादिव्यं सदेवत्वम् । उत्स० ३२३ । सादेव्यम् ॥ उत्त० १०८ । देवताप्रातिहार्यम् । पिण्ड० १२५ । सादिव्यं • देवसनिधानम् । उत्त० ८५ । सह शिव्यः सादिव्यं तच गन्धर्वनगरादि दिव्यकृतम् । अव० ७३१ । सादिसंपयोग - अवीसत्य हियया । दश० चू० १५४ ॥ सादी सह आदिना - नाभेरषस्तनका यलक्षणेन वर्तत इति सादि: । अनु० १०२ । ( ११२४ ) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावीणगंगा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्वकोषः, मा० ५ [ सामइत सावीणगंगा-सप्त महागंगा प्रमाणा । भग० ६७४ । ६३ । सादेति-लभति । नि० चू० प्र० २८० । साभरगा-देशीवचनात रूपकः । बृ• प्र. १.३ । सादेव्वं-पादेव्यं -सान्निध्यम् । प्रश्र० ११५ । से दिव्वेण रूवगो । नि० चू० द्वि. १६७ छ । सादेवं दिव्वकृतम् । नि. चु० तृ०७. अ। साभाविय-जं अपणो अद्धारदं । नि० चू० प्र० १४२ सार्मिक-संयतः । पाव. १५६ । अ । स्वाभाविक श्रमणोऽन्यो वा प्रथममायच्छति तस्मै साधम्मकाक्ग्रह-अवग्रहे पञ्चमो भेदः । बाचा. १३४ । यदग्रपिण्डादि दीयते तत् स्वाभाविकम् । व्य० प्र० सामिकावग्रहः-संयतावग्रहः । आव १५६ । १६० । साधारणस्थान-प्रपत्ततालम्बनम् । बाप. ५३४ । साभावियहंसा-साद्भाविक:-अकैतवकृतो घर्षोघर्षणम् । साधारणा-धारणामेवार्थमुपयोगात च्युतं जघन्यतोत• ज्ञाता० २१९ । मुह दुष्कर्षसोऽरसश्येयकालात परतो यत्स्मरणं सा साभिग्गहो । नि० चू. १२० । साधारणा । नंदी. १७६ । साभिण्णाण-साभिज्ञानम् । आव०१२ । साधारणार्थ । ओष० १७५ । साम-आत्मोपमया परेषां दुःखस्याकरणं सामम् । विशे० साधु-जैनसाधुः । माष० ५६ । अहंपणीतधर्मानुष्ठायी। १३१४ । याचा० ३६१ । सामंत-गिहसमीवं । दश चू०७५ । सामन्तं-समीपम् । साधुकार-साधुकारः । आव० ३४५ । जाता. ८। सामन्तं-सनिकृष्टम् । भग०१३ । सामन्तंसाधुकृतं-सुष्ठुकृतम् । नंदी. १६४ । . सनिकृष्टम् । जं० प्र०१६ । साधुगहिणिज-साधुगहणीयः । उत्त. ३३० । सामंतरज्ज-सामन्तराजः । आव०७१२ । साधुरक्षितगणि-क्षमाश्रमणविशेषः, मित्रवाचकक्षमाश्रम. सामंतरायपुत्त-सामन्तराजपुत्रः । श्राव० ५५७ । णादेशबान् । व्य० प्र०१.. आ । सामंतोवणिवाइया-सामन्तोपनिपातिकी, विंशतिक्रियासाधू-णिग्गंथो । नि० चू० द्वि० ९८ अ । मध्ये नवमी : आब। ६१२ । साधूपसम्पत्-ज्ञामादिहेतोयंदपरं गणं गत्वोपसम्पद्यते, सा सामंतोवणिवातियं-सामान्यतोविनिपातिक, तृतीयोऽभिः साधुविषया । बृ० प्र० २२२ अ । आव० २६७ । नयविधिः । जीवा० ४४७ । साध्य वसाना । ज० प्र० १५५ । साम-श्यामः-तृतीयः परमाषाभिकः । सूत्र० १२४ । साध्वविकलस्वादि-लक्षणदोषः । ठाणा० ४६३ । नरके तृतीयः पाकि.. भान. ६५० : यस्तु साध्यबिरुद्ध-हेलो भेदः । ठाणा० १२ । रज्जुहस्तमहारादिना शातपातनादि करोति, वर्णतश्र सानुक्रोशः । आचा. २७१ । श्यामः स श्यामः, तृतीयपरमाधार्मिकः । सम• २८ । पञ्च. सानुनासिक मनुनासं-नासिकाविनिर्गतस्त्र रानुगतम् । जी. दशसु परमाधामिकेषु तृतीयः । उत्त० ६१४ । परस्प. वा० १९४। रोपकारप्रदर्शनगणकीर्तनादिना शत्रोरात्मवशीकरणम् । सान्तन सभूपतिप्रासादः । जं० प्र० २०९ । ज्ञाता० ११ । श्यामा-प्रियगुः । ज्ञाता० २६ । सर्वेः सान्त्ववादः। आचा० २७३ । षामपि जीवानां प्रियं तस्य साम्नः । विशे० ६१३ । साप्तपदिक-व्रतविशेषः । विशे० ६०५ । गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा. ३२ । सामः-प्रियवचनम् । साफल-साफल्यं-कालान्तरफलप्रदानलक्षणम् दिश० १३४॥ विपा० ६५ । •साबर-मन्त्र वशेषः । साबर:-साधनहितो मन्त्रवियेषः । सामहर-समये-समाचारे सिद्वान्ते वा भक सामयिका बावं. ४११ । सामायिक वा । औप० ८२ । साभाषिए-सद्भावेन निभावरितस लाखभाय । दश | सामइत-सामायिक:-कुटुम्बिविशेषः । सूत्र० १०६ । । (१९९५) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः सामइय ] सामइय-सामयिक :- त्रिपिटकादिसमयवृत्तिः । दश० १२७ । सामायिक - सर्वेषामपि मुमुक्षूणां समये संकेते भवं सामयिकम् । विशे० ६१३ । सामकरिल्ल- श्यामा- प्रियः । अनुत्त० ४ । सामकोट - ऐखते तीर्थंकृत् । सम० १५३ । सामग - तृणविशेषः । सूत्र० ३०६ । सामगादी - बीया । नि० ० ० २५५ अ । सामग्गिय - सामग्रय - सम्पूर्णः । आचा० ३४० । सामग्रथ समग्रता । बाचा० ३२६ । सामणिय - श्रामण्यं श्रमणभावः चरणपरिमगंर्भः । दश० २२३ । सामण्णं - सामान्यं - नामजात्यादिकल्पनारहितम् । विशे० १५५ । समानस्य भावः सामान्यं - साम्यम् । विशे० ५७ | आणपाणेन्द्रः । ठाणा० ८५ । सामण्णपुत्रग- श्राम्यतीति श्रमणः तद्भावः श्रामण्यं तस्य पूर्वकारणं श्रामण्यपूर्वं तदेव श्रमण्यपूर्वकम् । दशवैका लिकस्य द्वितीयमध्ययनम् । दश० ८२ । सामण्णोवणिवाइअं - सामान्योपनिपातिकं अभिनव शेष:: | लोकमध्यावसानिकम् । जं० प्र० ४१२ । सामत्थ मन्त्रः । ज्ञाता० ५२ । सामथ्यं बलम् । ज्ञाता० २११ । णिब्वाधितो । नि० ० प्र० २२४ मा । धितिसरीरसत्ती । नि० ० ० १ आ सामथ्यं - प्रज्ञाबलम् । दश० ४४ । सामथ्यं मन्त्रणम् । प्रश्न० ५३ । सामत्थण - स्वभः सह पर्यालोचनम् । पिण्ड० ४७ । संप्रधारणम् । नि० ० प्र० ८० अ । पर्यालोचनम् । बृ० द्वि० ३ अ । घृ० प्र० १६२ अ । बृ० द्वि० & अ । बृ० तृ० ७२ मा । सामत्थयति-संप्रधारयति । व्य० द्वि० ३६५ अ । सामत्थियं विचारितम् । नि० ० प्र० २९८ आ सामत्थेऊण - विचायं । व्य० ० २४८ | सामन्त सन्निकृष्टम् । सूर्य० ५ । सामन्तोवणिवाइया - समन्तातु-सवंत उपनिपातो-जनपीलकस्तस्मिन् सामन्तोपनिपातिकी । ठाणा ४२ । अश्वादिरथादिकं लोके श्लाघयति हृष्यतो बाश्वादिपतेरिति । ठाना० ३१७ । / सामाइअ सामन्न - श्रामण्यं व्रतम् । निरय० २२ । एकमद्वितीयस्वादेकसङ्ख्योपेतं सामान्यम् । विशे० २७ । सामशः ॥ ओप० २०४ | सामन्नग्गाही - सामान्य ग्राही - सामान्यवादी । विशे० ५१ । सामन्नरए - श्रामण्यरतः । भग० १२३ । सामन्नलक्खणं - सामान्यलक्षणं यथा सिद्धत्वं सिद्धान सद्रव्यजीव मुक्तादिधर्मेः सामान्यमिति । आव० २८१ । सामर्थ्य व्याख्यानम् - । विशे० १६६ । सामलया - श्यामलता - पियगुलता । ज्ञाता० २३१ । लताविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । श्यामलता-लत्ताविशेषः । जीवा० १५२ । सामला - श्यामला-श्यामी । ज्ञाता० २३१ । सामलि - शाल्मली - वृक्षविशेषः । जीवा० २७३ | तृतीयवणवासिनचैत्यवृक्षः । ठाना० । ४८७ | शाल्मली - वृक्षविशेष: । प्रश्न० १४ । सामलिगंडियं । भग० ७०५ | भग० सामली - शाल्मली - वृक्षविशेषः । प्रश्न० ८२ । सामवेद सामवेदः, चतुर्णां वेदानां तृतीयः । भग० ११२ । सामवेय - सामवेदः - तृतीयो वेदः । ज्ञाता० १०५ । सामस्त्यं निरवशेषम् । प्रज्ञा० ५८२ | सामहत्थि - भगवत्यां दशमशतके चतुर्थोद्देशकः । ४९२ । सामहत्थी - महावीरविभोः शिष्यः । भग० ५०१ । सामा- महासेनराजपुत्रसहसेनस्य देवी । विपा० ८२ । त्रयोदशम तीर्थं कृतमाता । सम० १५१ | श्यामा-विमलनाथमाता | धाव० १६० । श्यामा- प्रियङ्गुः । प्रज्ञा० ३६० । चुळणीपाथापतेर्भार्या । बाद० ३१ । दयामाप्रियङ्गुः । अनुत्त● ४ श्यामा रात्रिः । औप० १४१ । दयामाः - प्रियङ्गुः । जं० प्र० ३३ । तृतीयजिन प्रथमशिष्या । सम० १५२ | श्यामा-अतसी । उत्त० ३५१ । यामाको ध्यान विशेषः । राज० ३२ । सामाइअ - यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति स रागद्वेषवियुक्तः समः तस्याऽऽय:- प्रतिक्षणं ज्ञानादिगुणोत्कर्षप्राप्तिः समायः, समो हि प्रतिक्षणमपूर्व : ज्ञानदर्शनचरणपर्यायै वाटवीभ्रमण हेतु संक्लेश विच्छेदकं निरूपम सुखहेतुभिः सम्युज्य के ( ११२६ ) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइअकड] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [सामान्य समायः, समाय: प्रयोजनमस्याध्ययनस्य शानि विशे० ५५४ । रागद्वेषविरहित: सम इत्ययनमय इतिदायरुपस्येति सामायिकम् । अनु० ४४ । समायेन निवृत्तं गमनमिति समागमनं समाय:, स एव सामायिकम् । समाये भवं वा सामायिक, यद्वा समानां-ज्ञानदर्शन. दि. १३१३ । साम्न आयो-लाभः सामायिक सम्यचारित्राणामायो-सामः समायः समाय एव सामायिकम् । गयो वा, साम्यस्थायो-लामः समानि-सम्यक्त्वज्ञानचर. प्रज्ञा० ६३ । णानि हेतु तैर्वा अयनमय: समायः स एव सामायिकः। सामाइअकड-सामायिक-सावद्ययोगपरिवर्जननिर्वद्ययोगा- विश. १३१३ । सेवनस्वभावं कृतं-विहितं देशतो येन स सामायिककृतः, सामाइयकपठिती-समानि ज्ञानदीनि तेषामायो-लामा बाहिताण्यादिदर्शनात् क्तान्तस्योत्तरपदस्वं, तदेवम प्रति. समायः स एव सामायिक-संयमविषयः तस्य तदेव पा पत्रपौषषस्य दर्शनवतोपेतस्य प्रतिदिनभयसाध्य सामा. कल्पःकरणमाचार इति सामायिक कल्पः। ठाणा. १६७ । यिककरणं मास त्रयं यावदिति, श्राद्धस्य तृतीया प्रतिमा। सामाइया-सामाजिका:-समूहवृत्तयो लोका।। उत्त. सम० १९ । सामाइओ। नि० चू० प्र. ६ बा ।' सामाए-श्यामाकी-धाग्यविशेषः । जं.प्र. ३३ । सामाइयं कुखा-सामायिकं कुर्यादु-मध्यस्थो भूयात् । आव. सामाग-श्यामाक: पहपतिविशेषः । पाव. २२७ । ३३० । गाथापतिविशेषः । बापा० ४२४ । सामाइय-समो-रापादिरहितस्तस्य अयो-गमनं प्रवृत्ति- सामाचार्युपक्रमकालः-उपनामस्य प्रथमो भेदः ।योष. १॥ रित्यर्थः समाया, समाय एव समाये भवं समायेन निवृत्तं सामाण-सहस्सारे सप्तसागरोपमस्थिकं देवविमानम् । समायस्य विकारो-अंशो वा समायो वा प्रयोजनमस्येति सम०३३ । सामानः औदीच्याणपन्निकव्यन्तराणामिः । सामायिकम् । ठाणा. ३२३ । सामायिक-संयमविशेपः। प्रशा०१८ । ठाणा० १६७ । सामायिक-चारित्रविशेषः । भग० ६.९ | सामाणा-लोकोत्तरपुरुषाः सूत्रार्थोभयदानादिना यथोत्तरसमानां-ज्ञानादीनो आयो-लाभः समायः स एव सामायि- मुपकारविशेषकारी समाना पाकृतत्वात् सामानाः । कम् । ठाणा० ६५ । सामायिकं-एकातोपशान्तिगमनम्।। ठाणा० ११३ ।। धाव. ३६४ । समभावरूपम् । भव० १०.। सामायिक-सामाणिअ-सामानिक:-इन्द्रसमान द्धकः । सम० ३९ । समशत्रुमित्रभावः । सूत्र० २६५ । सामायिक समानां-| सामाणिओ-सामानिक:-सन्निहितः । विशे. १०६५ । ज्ञानदर्शनचारित्राणां आयः समायः, समाय एव सामयि. सामानिकः-सन्निहितः, अप्रवसितः । आव. ३२६ । कम् । आव ७९ । सामायिक इति रागद्वेषान्तराल. सामाणिय-समानया-इन्द्रतुल्या ऋद्धया चरतीति सावर्ती समः-मध्यस्थ उच्चते, 'अयगता'विति अयनं, अय:- सानिकः । भग० १५४ । सामाणिय:-सामानिक: इन्द्रगमनमित्यर्थः समस्य अयः समायः स एव सामायिकम् । समानायुकादिमावः । और. ५३ । इसमानरः । २६४। सामायिकप्रतिमा-श्रावकस्य तृतीया प्रतिज्ञा । आणा. ११७ । आव ६४६ । समो-रागद्वेषवियुक्तो यः सर्वभूनान्या. सामाणोअ-समाने -विजयदेव पहशे आयुर्युतविभवादो. स्मवत्पश्पति तस्य आय:-तिक्षणमपूर्वापूर्वज्ञानदर्शन वारि.. भाः समानिकः । जं. प्र. ६१ ।। अपर्याय णां निरुपमसुखहेतुभूतान मत्र:कृतचिन्तामगिकता- सामातिअ-सामाजिकः । नि० चू० द्वि० १०७ आ । द्रुमोपमानां लाभः समायः स प्रयोजनमानुपानस्येति सामानिका-प्रमास्थपितृगुरूपाध्यायमहतरवत् तत्वा० ४ । सामायिकम् । उपा० ६ । रागद्वेषविरहितः समस्तस्य सामानविट्ठ सामान्यतो दृष्टार्य योगात सामान्यदृष्टम् । प्रतिक्षगमपूर्वापूर्वनिर्जरा हेतुभूताया विशुद्ध रायो लामः । अनु० २१६ । समायः स एव सामायिक सर्वपावद्ययोगविरमणमित्ययः। । सामान्य-असतीकृत तुल्यमाः प्रधानीकृ तुम ( १९२७ ) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्यलब्ध्यक्षरं ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ साय - समतया प्रज्ञायमानाः सामान्यमिति व्यपदिश्यन्ते । ठाणा १४ । स्वमस्यास्तीति स्वामी तद्भाव: स्वामित्वं नाय१३ । एकं नित्यं निरवयवं सर्वगं सामान्यम् । ठाणा० कत्वम् । जं० प्र०६३ । सामिधेय-समित्समूहः । अन्त० ११ । सामान्यलब्ध्यक्षरं- । बृ० प्र० १० आ । सामिय-स्मामिक:-अधिपतिः । ज्ञाता० १६५ । सामान्यवादी-सर्वमेवैकं प्रतिपद्यते । ठाणा० ४२५ । सामिलिणा-बच्छगोत्रे चतुर्थो भेदः । ठाणा० ३६० । सामान्यको इ-अनुवृत्तव्यावृत्तावबोधहेतुभूतम् । ठाणा० सामिताल-स्वामिझ्याल: । उत्त. २७३ । -३९१ । सामो-स्वामी नेता, प्रभुः । आव. ६६१ । स्वामीसामान्यसूर्य । बृ० प्र० २०१ आ । जद्गुरूभगवान् श्रीमहावीरः । सूर्य० २ । स्वामीसामान्याभिधान-देवदत्तभूक्ते सर्व कुटुम्ब भुक्तमितिवद. ग्राम दिनायकः । पिण्ड० १११ । 'अन्यथा त्रयाणामित्यभिधेय स्यात्, कालवृद्धयनुसारेण सामुच्छा- समुच्छेदः-वस्तुविनाशः तद्वेदिनो वा सामुच्छेदा:द्रव्यादिवृद्धिदर्शनात् चैवभिधानं स्यात्, कालसामाश्या- क्षणायभावप्रका: । विशे९३३ । भिधानम् । आव ३२ । सामुच्छेइता-चतुर्थनिह्नवमान्यता । ठाणा० ४१० । सामान्यार्थावग्रहः-अवग्रहे द्वितीयो भेदः । नंपी १७४ । सामुच्छेइया-नारकादिभातानां प्रतिक्षणं समुच्छेद-क्षयं सामायारी-समाचरणं समाचारः तद्भावः सामाचार्य _ विन्तीति सामुच्छेदिकाः । औप० १०४ । तदेव सामाचारी-सव्यवहारः । ठाणा. ५०० । सामा सामच्छेद समुच्छे-मधीयते तद्वेदी वा. क्षणक्षयिभावचारी-एथायुष्कभेदभिन्नोऽभिधानीयः । विशे० ८३७ । प्ररूपकः चतुर्थनिन्हवमतः । आव० ३११ । सामाचारी-शिष्टाचरितक्रियाकलापता । आव० २५८ । क-निह्नवविशेष:-क्षणिकपक्षवान् ।उत्त० ४४४॥ समाचारी-उत्तराध्ययनेषु षट्विंशतितममध्ययनम् । उत्त० सामुदाइया कृष्णस्य भेरीः । ज्ञाता० २०८ । ६ । समाचारी-समाचरणम् । उत्त०६६ । सामाचारी- सामुदाणिय-सामुदानिक-भिक्षापिण्डम् । आचा० ३३६ । उत्तराध्धयनेषु षर्विशतितममध्ययनम् । उत्त० ५३२।। भेरी विशेषः । निरय० ४० । उत्तराध्ययनेषु षविंशतितममध्ययनम् । सम• ६४ । सामुदाणो । नि० चू० प्र० १४२ आ । सामायारोउवक्कमकाल-यः सामाचार्युपक्रमद्वारेणोप. सामुदायिको-जनमोलकप्रयोजना । शाता० १०१ । क्रम्यते सः काल: सामाचार्युपक्रमकालः । विशे० ८४१ । सामुद्द-सामुदं -छन्दोविशेषः । सूत्र. २६२ । सामुद्रसामाथिइ-सामायिक-सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिरूपम् उत्त० समुद्रसम्बन्धिलवणम् । दा० ११५ । २५१ । सामुद्दय-सामुद्रिक -समुद्रसम्बन्धी । भग० २१२ । सामायिक-सामान्यज्ञायामेवावतिष्ठते । अनु० २२२ । सामुयाणिय भक्षम् । प्राचा० ३३१ । सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः । तत्वा० ७-१६ । बोधिः । सामोसिओ एगगामणिवासी । नि. चू० द्वि० १९ अ। याव० ३४७ । साम्प्रतः शब्दन यस्य प्रथमो भेदः । उत्त. ७७ । सामासाए-श्यामाशः श्यामा-रजनी तस्यामशनं श्यामाश: साम्भोगिक-मपुखदुक्ख माजः । व्य० प्र० ३०१ । तदर्थम् । आचा० १३ । । सायंका -महङ्कारः। उत्त० १४८ । . सामिआ-स्वामिकाः, अज्ञातस्वामिन इत्यज्ञाताकप्रत्ययः ।। साय-आरएकपे विश सागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । जं. प्र. २२० । सम०३८ । स तं-सुखम्, तृतीयगारवम् । आव० ५७९ । सामिग्वामित्व-नायकत्वम् । जोवा० २१७ । स्वा. विकालवेला अर्य. १०६ । सन्ध्याकालः । सूर्य.४५ । मित्व--स्वामिभावम् । सम० ८६ । आत्मलाभः ! नि. सात-सुखम् हातहेतुर्ग । उत० ८९ । सातं सुखं शाहीर चू. ११ । । स्वामित्वं-स्वस्वामिमावम् । भग० । मानसं च इहोपचारात्तन्निबंधनं कर्मव । उत्त० ६४३ ॥ ५ ११२८ ) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सायण ) अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः,' भा० ५ [ सारक्खामि सायणी-"हीनभिन्नम्वरो दीनो विपरीतो विचित्तकः । । नंदी. १५७, १६४ । सार:-काष्ठमध्यम् । ठाणा, १८६ । दुर्बलो दुःखितः स्वपति संप्राप्तो दशमी दशाम् ॥१॥"। सार:-फलं प्रधानतरं वा । आव०६६ । सार:-प्राधा. दश० ८ । न्यम् । ओघ० २२२ । सास:-गर्भः । जं० प्र० ३८ । सायदुलह-सातगवेषकः । मर० । सार:-शुभपुद्गलोपचयजः, शारीरः शक्तिविशेषः । अनु० सायमंड-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । १५८ । अक्षय्यम् । प्रभ० ६२ । सारं-सामथ्र्यम् । सायरदत्त-सागरदत्त:-मायोदाहरणे साकेतपूरे धनावह- आव. ७८८ । सार:-सन्दोहः । आव.६१९ । सार:जोवः अशोक तेभ्यपुत्रः । आव० ३.४ । शुभपुद्गलोपययजन्यो पातुविशेषः । जं. प्र. १८२ । सायरव्यह-संन्यस्य ध्यूहविशेषः । भग० ३१७ । सारं-अभेद्यत्वेनामङगुरम् । जं. प्र. २०१। भ्रमरसायवाती-सात-सुखमभ्यसनीयमिति वदतीति सातवाली। पत्रान्तर्गतो विशिष्टश्यामतोपचित: प्रदेशः । जं.प्र. ३२ । ठाणा० ४२५ । सार:-समूच्छिमभुजपरिसर्पतिर्यग्योनिकः । जीवा० ४. । सायवाहण-राया । नि० चू० प्र० ३४० अ । सार:-विवक्षितकर्मणः परमार्थः । आव० ४२६ । सार:सायसोक्ख-सातसौख्यं सात-आह्लादरूपं सोख्यम् । सामर्थ्य विभवो वा। सूत्र० २७८ । कटह्र । नि० चू० जीना. ४०३ । द्वि० १४१ अ । सारशब्दोऽत्र प्रधानवचनः, फलवचनः । साया-साता-सुखम् । आद० ५७६ । विशे० ५०९ । प्रधानः । ज्ञाता० ६ । अर्थम् बृ०प्र० सायाउल-साताकुल.-भावि पुखार्थ व्याक्षिप्त: । दश० ४० आ। सारइए-शारदिक:-शरदकालजातः । ज्ञाता० १.१ । सायागारव-सातगौरवं-सुख प्राप्त्यभिमानाप्राप्तप्रार्थनद्वा - सारइयं-शरदि भवं शारदम् । उत्त० ३३८ । रेणास्मनोऽशुभ भावगौरवम् । आव ० ५७६ । सारए-सारक: स्मारको वा प्रवर्तकः विस्मृतस्य सूत्रादेः सायाडियाए । आचा० ३८० । स्मारणात् । भग० ११४ । सुष्ठवा जीवनमदया सायासुक्खपडिबद्ध-सातसौख्यप्रतिबद्धः-सातात-पुण्यप्रकृ' । संयमानुष्ठाने रतः स्वारत: । आचा० १६३ । सारकः । ते: सकाशान्यत्सौख्यं-सुखं गन्धरसस्पर्शलक्षणं विषयसः | अध्यापनद्वारेण प्रवर्तक: स्मारको वा, अन्येषा विस्मृतस्य म्पाद्यं तत्र प्रतिबद्धः तत्पयो ब्रह्मचारी । ठाणा० ४४५ । स्मारणात् । ज्ञाता० ११० । सायासोक्ख-सातात-सातवेदनीयोदयात् सौख्यं सुखम् । सारकता-संध्यग्रामस्य पञ्चमी मुर्छना । ठाणा० ३९३ । ज्ञाता० १८० । सातसोख्य-मालादरूप सौख्यम् । जीवा. सारकत्ताल-वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । सारक्खति-उचितोपचारकरणतः संरक्षति । जं० प्र० सायि-साति:-विश्रामः । राज. ११५ । सायिसंपओ-पातिसम्प्रयोग:-यः सातिशयेन द्रव्येण कस्त- सारक्खण-संरक्षणा । आव. ४०५ । रिकादिना अपरस्य सम्प्रयोगः। राज० ११५ । सारक्खणानुबंधि-संरक्षणानुबन्धिः- संरक्षणे - सर्वोपायः सायय-साकेतं नगरं, मित्रनन्दिराजधानी । विपा० ६५ परित्राणे विषयसाधनधनस्यानुबन्धो यत्र तत् । ठाणा. सारंग-सारङ्ग प्रधानदलम्, सारङ्गमय:-कस्तूरी । ० १८९। प्र० १८३ । चतुरिन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा• ४२ । चतुरि. सारक्खणिज्जे-संरक्षणीयम् । बाव०६३ । द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । सारक्खमाणी-संरक्षयन्ती पालयन्ती। ज्ञाता०९।। सारंभ सरम्भ:-वधसङ्कल्पः। भग० ३३५ । सारक्खह-संरक्षय । आव० ३७३ । संरक्षत । आव. सारंभइ-संरभते-विनाशसङ्कल्पं करोति । भग० १५३ ।। २०१ । सार-सार:- सफलः । सम° १२२ । सार:-परमार्थः । । सारक्खामि-संरक्षामि । भग० ६७३ । (अन्य० १४२) ( १९२६ ) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारक्खेता ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सारेति सारक्खेत्ता उपायेन चौरादिभ्यः संरक्षयिता । ठाणा० सारसा-लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९ । सारसी-सजनामे षष्ठी मूच्र्छना । ठाणा० ३९३ । सारगल-वनपस्तिविशेषः । भग०८०३ । सारस्वत-गणभेदः (मल्ल सारस्वतः) । बृ०४० २४४ अ । सारण-यादवविशेषः । ज्ञाता. २१३ । सारण:-यादवा- लोकान्तिकः । ठाणा० ११७ । परणः । प्रश्र. ७३ । कृत्यं प्रति प्रवर्तनः । उत्त० सारस्सय-सारस्वतम् । आव० १३५ । सारस्वत:-अचि. ५३५ । सारण:-अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य सप्तममध्यय विमानवासी प्रथमो लोकान्तिकदेवः । भग. २७१.। नम् । अन्त० ३ । प्रसर्पण- स्मारणम् । ओघ० १५८।। प्रथमो लोकान्तिक: सारस्वतः । ज्ञाता. १५१ । सारणा-चोदना । आव० २७१ । शिक्षणा । बृ० प्र० सारही-सारथिः-शाकटिकः । ठाणा. २४० । सारथिः११३ आ । स्मारणा-विस्मृतेऽर्थे स्मारणा। व्यः द्वि० । प्रवर्तयिता । उत्त० ४९१ । । ७२ । सारा-वप्तिः । व्य० प्र० १७१ अ । भुजपरिसर्पविशेषः । सारणि-सारिणी । आव० ५८१ । प्रज्ञा० ४६ । सारदबलाहए-शारदबलाहकः शरत्कालभावी बलाहकः। साराणिता-दविधप्रव्रज्यायां षष्ठी । स्मरणाद्या सा प्रशा० ३६३। स्मारणिका । ठाणा० ४७३ । सारइं-सा-यहिः शुष्काकारमप्यनमध्ये सादमस्ते । मारि-सागारिकः । बृ. द्वि० ३८ था । व्य० द्वि० सूत्रः ३८६ । सारभड-सारभाण्ड - महामूल्य वस्त्रादि । उत्त० ४५५ : सारिओ-सारित:-हिते प्रवर्तितः। आव० ७६३ । सारमंत-सारवत्-विशिष्टार्थयुक्तम् । अनु० १३३ ।। सारिका-पाधायाः प्रामित्यद्वारविवरणे देवराजपत्नी । सारवं-सारवत् बहुपर्यायं सूत्रगुणः । आव० ३७६ । पिण्ड ६८ । पक्षिविशेषः । उत्त० ४०९ । सावंत-सारवत् बहुपर्यायं सूत्रगुणविशेषः । श्राव. सारिक्खामूढो । नि० चू० द्वि० ४२ अ । ३७६ । सारवद्-अर्थेन युक्तम् । ठाणा० ३९७ । सार• सारिखताणं-सुघोषानदिघोषानां सारणम् । राज. ५२ । वत्-गोशब्दवद्वहुपर्यायम् । अनु० २६२ । सारिणो-दोधिका । जीवा० १९७ । नि. चू० प्र०२ सारवए-सासपके-साराकारके । व्य. दि. २०० । आ। सारवणं-निस्कियं, संमाजितं वा। भोघ० ४१ । प्रमाः | सारियं-सारितम् । बाव० ३१५ । जनम् । ६० तृ० १५. श्रा। सारीकृतं-निगदितम् । जीवा) २७० । साविअ-समाजितः उपलिप्तः । बोध०७५ । प्रमाजितः । सारुट्ठ-मनसा संरुष्टः । भग० ३२२ । ओघ. ६३ . . साकविया-सारुपिका-श्वेतवाससः । ६०प्र० १८५७। सारविय-प्रमार्जितः । ६० दि. १०६ । सारवितः- सारुवी-मुंडसिरा दो सुक्किलवस्थधारी कच्छं जो बंधति संमाजितः । बृ० प्र० २४३ अ । भारिया से गथि भिक्खं हिंडइ वा वा, एरिसो सारविया-संरक्षिता । आव० ६७३ । . सावो । नि० चू.द्वि० ११३ आ। सारवेड-गोपयति । उत्त ४८ रक्षति। आव०७०३। सारूविग-सुक्किलवस्थपरिहरि मुंडमसिहं धरेइ, बमजयो सारवेति-संरक्षति । बाव. ३४३ । अपत्तादिसु भिक्खं हिंडइ, अण्णे भणंति पच्छाकसिद्ध सारस-सारसः लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । सारस:- पुत्ता चेव जे असिहा ते सारूविगा । नि. ० तु.५४ दार्वाधाटः । प्रभ. ५ । आ। नि० चू० प्र० ११५ अ । सारसत-प्रथमलोकान्तिकः । ठाणा० ४३२ । सारेति-सारयति शिक्षयति । व्य. दि. ३२८ बा । सारसवण्णा-सारसवर्णः । ज्ञाता० २३१ । चोदयति । नि० चू. प्र. २९. आ। ( १९३०) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारेह अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ [ सालि सारेह--अन्वेषयत । सूत्र० ६१ । पुत्रिका । ज्ञाता. १२ । शालभञ्जिका-स्तम्भपुत्तलिका। सारोपा- । जं० प्र० १५५ । याव० २३१ । शालञ्जिका-पञ्चाली। जं० प्र०५१। साथिका:- । नंदी० ६२ । शालभञ्जिका पुत्रिका । ज्ञाता. ३८।। सालंकातणा-कौशिकगोत्रे तृतीयो भेदः । ठाणा० ३९० सालवण-शालवनं-उद्यानविशेपः । आव. २१० । जीवा. साल-आनतकल्पेऽष्टादशसोगरोपमस्थितिक देवविमानम् ।। १४५ । सम० ३५ । एकशाटकपरिधानः । ६० प्र० २९५ आ । सालवाहण-शातवाहनः, यस्य पृथिवीनामाग्रमहिषी । साल:-सज्जः । 5. प्र.९८ । सज्जं:-वृक्षविशेषः। व्य. द्वि० १६८ अ । प्रतिष्ठानपुरे राजा । बृ० प्र. प्रज्ञाः ३१ । शाला-शाखा । ज० प्र० २९ । शाखा- २७ आ। शालवाहन:-द्रव्यप्रणिधिविषये प्रतिष्ठानशारणम् । आव० ७१६ । शाल:-पृषचम्पानगरनृपतिः । पुराधिपतिर्बलसमृद्धः। आव० ७१२ । श्रीवोरशिष्यः केवलोजातः । उत्त० ३२१, ३२३ । सालवाहन-प्रतिष्ठानपुरे राजा। विशे० ६०४ । शाल:-पृष्ठचम्पानगा राजा । आव २८६ । बनस्पति. सालहीपिया-महावीरस्य दशमश्राद्धः । उपा० ।। विशेषः । भग० ८०३ । वर्षमानस्वामीचैत्यवृक्षः । समः साला-शाला-गृहविशेषः । ज्ञाता० ३४. । शाखा-मध्य१५२ । शाख:-प्रत्येकजीवः । प्रज्ञा० ३१ । शाल:- भागप्रभवा ऊर्ध्वपता शाखा । जं० प्र० ३३२ । शालावृक्षविशेषः । ज्ञाता ६३ । अशितममहाग्रहः । ठाणा. शाखा । जीवा. १८७ । शाला-शाखा । ओष. .९ । तृतीयतीर्थ कृच्चत्यवृक्षम् । सम. १५२ । शालः । १६६ । शाला-गृहविशेषः । निर. २२ । जस्थ विक्कूद जं० प्र० ५३५ । बाहिरा । छल्ली । नि० चू० वि० सा साला, बहवा अक्कुडा साला। नि. चू० द्वि०६९ १२४ आ । प्राकारः । प्रज्ञा० ८६ । अ । जे खंधबो निग्गया ते साला । दश. चू०१११। सालइयापिय-श्रावस्तीनिवासी सालयिकापिता। ठाणा० शाला । बृ० द्वि०६२ अ । नि. चू० प्र. २६५ अ। शाखा । जीवा० २०७ । अटवी चोरपल्ली विशेषः । सालकोढए-ढियग्रामे वायव्यकोणे चैत्यम् । मग. विपा० ५५ । शाला-शाखा । जीवा० २९४ । शाला६५५ । शाखा । औप०७ । शाला-माण्डशालादिका । प्रभा सालग-रसम् । बाचा० ४०५ । बाहिरछल्ली । नि० चू० १३८ । शाखा । प्रज्ञा. ३१ । शाला-गृहम् । सूत्र तृ. २३ आ । दीर्घशाखा । आचा० ३५४ । शालकः ३२४ । शाखा-मूलशाखाविनिर्गतशाखा । जं. प्र. पक्षिविशेषः । प्रभ० ८ (?) । ३२४ । शाखा-विडिमारपर्याया दिक्प्रसृता शाखासालघरग-शालगृहक-पट्टशालाप्रधान प्रहकम् । जीवा मध्यभागप्रभवा ऊध्वंगता । जं.प्र. ३३२ । शाला२०० । शालगृहक:-पट्टशालाप्रधानं ग्रहकम् । जं० प्र० | शाखा । जीवा. २२८ । सालाकता । नि० चु० प्र० २३० आ। सालद्धा-सलज्जा-शालार्या व्यन्तरीविशेषः । बाव०२१। सालाग-शालाक्यं शलाकायाः कर्म शालक्यं तत्प्रतिपादक सालण-वीडका । नि० पू० वि० १४४ अ । तन्त्रमपि शालक्यं । आयुर्वेदस्य द्वितीयाङ्गम् । विपा. सालणग-शासनक-पुष्पफलप्रभृतिः। जं.प्र. १.५। सालतिय-शारदिकम् । ज्ञाता. १९६ । सालगिह-विक्केयं मंडं जत्य छुड़े चिटुति सा । नि० सालनक-शासनक व्यञ्जनविशेषः । सूर्य. २६३ । चू. प्र. २६५ । सालभंजिआ-शालमञ्जिका पुत्रिका । ०प्र० ४६ । सालाती-शक्षाकायाः कर्म शालवयं तत्प्रतिपादक तन्त्र सालभंजिया-शालिमाजिका पुत्रिका । भग. ४७७ ।। शाक्यम् । ठाणा० ४२७ । शालडिका -पुत्रिका । झाता० ३८ । शासमञ्जिका- | सालि-शानि-औषधिः । भग ३०६ । शालि:-वीहिः (१९३१) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सालिस ] भेद: । दश० १६३ । गाली | आव० ५८१ । शालि:कालमादिकानामिति विशेषः शेषाणां व्रीहीणामिति । ठाणा० १२४ । सालि उद्देसए - षष्ठमशतस्य सप्तमोद्देशकः । भग ५३४ । सालिणी - शालन्ते - शोभन्ते । प्रभ० १४० सालिपिट्ठरासी - सालिपिष्टराशिः । प्रज्ञा० ३६१ । सालिभंजिका - शालभञ्जिका पुत्तलिका । राज० २६ । सालिभद्द - शालिभद्रः - पूर्वभवे सबहुमानं साधवे पायस दाता | ठाणा० ५१० । ब्र० दि० २६७ अ । शालिभद्र:वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भग० २००। शालिभद्रः - श्रावस्त्यां इभ्यविशेषः । उत्त० २८६ । सालिभसेलसरसा - व्रीहिकणिशशुकसमाः । उपा० २१ । सालिम - शालिमं - शालिमयम् । उत ३६६ । सालिवाहन - शालिवाहनः प्रतिष्ठानपूरे राजा । आव ८२ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः | सावत्थि सावइज्ज - स्वापतेयं द्रव्यम् । जं० प्र० १४२ । स्वापतेयंरजत सुवर्णादिद्रव्यम् । ज० प्र० १२२ । सावए - श्रावक:- प्रतिपन्ना णुव्रतः । ० द्वि० १२७ अ । श्रावक:- व्याख्यानविधो दृष्टान्तः । आव० ९६ । सावएज्ज - स्वापतेयं द्रव्यम् । भग० १६३ | स्वापतेयंद्रव्यम् । अनु० २५४ । सावकखा - सहावकाङ्क्षया घटिकाद्वयाद्युत्तरकालं भोजनाभिलाषरुपया वर्त्तत इति सावकाङ्क्षम् । उत्त० ६०० । सावकाश प्रच्छन्नप्रदेश: । ओघ० २०७ । सालिसंपया - शालीसम्पत् । आव ५७७ । सालिसए - सदृश कमसिन स्वात् । ज्ञाता० १३ सालिस, सहकम्। जं० प्र० २८५ सदृशकम्। जीवा० २३२ । सलि रत्थियामच्छ - मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ । सालिसोसय- शाखिशीर्षः - ग्रामविशेषः । आव ० २०९ । साली शाली :- लोहितशाल्यादिः । उत्त० ३१७ : शालि: भग० विशेष:, तृणपञ्चके प्रथमो भेदः । आव० ६५२ । वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । औषधिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । तृणविशेषः । ठाणा० २३४ | कलमादिकः । २७४ | धान्यविशेषः । सूत्र० ३०९ । साली पिट्ठी-शालिपिष्टाशि:- शालिक्षोदपुखः । जीवा० १६१ । लावग रक्खस - श्रावकराक्षसः । आचा० ७६ । सावगा - श्रावकाः श्रान्ति- पचन्ति तस्वार्थश्रद्धानं निष्ठ नयन्तीति श्राः, तथा वपन्ति गुणवरसप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वास्तथा किरन्ति-क्लिष्टकम्मं रजो विक्षिपस्तीति कास्ततः कम्मधारये श्रावका इति । शृण्वस्ति जिनवचनमिति श्रावकाः । ठाणा० २०२ । सावज - सावद्य सपाप:, वर्जपाठान्तरः । पञ्चविंशतितमः पर्याय: । प्रभ० ७ | सावद्यं - गर्हितकर्मयुक्तम् । प्रश्न० ३७ । शय्यायाः सप्तमप्रकारः । बृ० प्र० ६३ छ । सावज कड - सावद्य कृत्यम् । आचा० ३६० । सावज बहुल - सावद्य बहुल आतंध्यानानुगतम् । दश २०६ । सालीवन्न -- शालिवणं शुक्लम् । ज्ञाता० २३० सालु - शालक:- उत्पलकन्दः, भगवत्यां एकादशशतके द्विती योद्देशकः । भय- ५११ । सावण - श्रावणः श्रविष्ठानक्षत्रेणोपलक्षितो मासः, श्राविष्ठेति वा । सूर्य० १२१ । ज्ञाता १०७ । सावणी - शाश्रयति स्वापयति निद्रावस्तं करोति या, शेते वा यस्यां सा शायती शयनी वा । ठाणा० ५१६ । सालुअ शालूकः - उत्पल कन्दः । दश० १८५ । सालुकं - सावतेज्ज - स्वापतेयं द्रव्यम् । औप० २७ । कन्द्रको जलजः । आचा० ३४८ | स वतेय - स्वापतेयं धनम् । जीवा० २५० । सात्थि - धावस्तिः- संभवनाथ जन्मभूमिः । आव ० १६० । श्रावस्ती लाभोदाहरणे नगरी आव० ७०१ । श्राव स्ती - श्री महावीरविहारक्षेत्रम् । आव० २२१ । ( ११३२ ) सालुग-सालुकम् । आव० ४०५ । उप्पलकन्दः । दश० चू० ८६ । सलुगा- शालियवादीनां तुषाः । बृ० द्वि० १५८ । उत्त० सावग - श्रावकः । आव० ११६ | श्रावक:-ब्राह्मणः, वृद्धश्रावकः । ज्ञाता० ११३ | श्रावकः- ब्राह्मणः । अनु० २५ । शावकः- पुत्रकः । नंदी० ६४ । गिहियाणुठवतो । नि० चू० प्र० ३२५ अ । श्रायकः धर्मशास्त्रश्रवणाद् ब्राह्मणः । ओप० ६० । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावस्थी] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ [सासओ २८६ । श्रावस्ती-कुणालजनपदे ार्य क्षेत्रम् । प्रशा० | भावक:-शृणोति साधुसमीपे जिनप्रणीता समाचारीमिति ५५ । श्रावस्ति:-जमालिनिवोत्पत्तिनगरम् । उत्त. श्रावक:-श्रमणोपासका । अनु०३० । स्वापसिंहादिः। १५३ । धावस्ति:-केशीकुमारश्रमणस्थानम् । उत्त० ४६८। ओघ० २३ । स्वापदः-सिंहव्याघ्रादिः । वृ० वि० २६ सावत्थी-हलाहलकुंभकारवास्तव्या नगरी । मग० ६७५ । छ । श्वापदः । ज्ञाता०। ६५ । श्वापदः सिंहध्याघ्रादिः । श्रावस्ति:-जितशत्रुराजधानी। उत्त० ११४ । धावस्ति:- बृ० प्र० २३१ अ । श्रावक:-अप्रत्याख्यानकषायोदयवान् । कुम्भकारशाखावती नगरी । आव० २१४ । श्रावस्ति:- आव. ५३३ । श्वापदा । आव० ६३३ । श्वापद:गोशालकमाणुसमांसमिश्रभोजनलाभस्थानम् । आव २०४। | हिंस्रजीवः । जं० प्र० ६६ । जितशत्रुराजधानी । उपा०५३ । श्रावस्ती बहुरतनिहु- सावयइ-श्रावयति-प्रकाशवति । सूत्र० ४१३ । बोत्पत्तिस्थानम् । आव. ३१२ । श्रावस्तिः संभवजिनस्य सावली । नि० चू० प्र०९६ आ । प्रथमपारणकस्थानम् । वाव. १४६ । श्रावस्ती-यत्र सावसेस-सावशेष-सोद्धरितम् । उत्त० ५३९ । जमाली पञ्चशतपरिवारो गतः । आव० ३१२। श्रा- सावस्सभ-सावभं-पृष्ठतोऽवष्टम्भयुक्तमासनं, सिंहासनमिबस्ति:-नगरी । अन्त० २३ । प्रथमनियोत्तिस्थानम्।। त्यर्थ: सावस्सयम् । बृ० तृ. २०२ अ . भग० ४८४ । श्रावस्ति:-भद्रकुमारवास्तम्यानगरी । सावाहा-संकटा । ओघ• ६० । तृणस्पर्श दृष्टाम: । उत्त० १२२ । कोष्ठगचैत्यस्थानम् ।। साविता-इदं चेदं भविष्यतीत्येवंभूतवासि श्रावयन्तः । यत्राहगतीगाथापतिः । निरय० २२ । यत्र सुपतिष्ठनाम: भग० ४७९ । गाथापतिः । निरय. २३ । श्रावस्ती-स्वयम्भूवासुदेव- साविट्ठा-श्राविष्ठा-श्रावणः । सूर्य० १२१ । निदानभूमिः । आव० १६३ टी०। श्रावस्ती-मघवा साविय-श्रापितः श्रमणोपलम्भितः, शापितः । ज्ञाता. जधानी । आव० १६ । श्रावस्ति:-स्कन्दकचरिते | नगरी । भग० ११२ । कूणालजनपदे नगरी। ज्ञाता० | साविया-श्राविका । आव. ७६३ । १४० । कृणालजनपदे नगरी । राज. ११६ । नगरी- | सावेत-श्रावयनु शपन वा । औप० ६६ । विशेषः । ज्ञाता. २५३ । श्रावस्ती-प्रथमनिलबोत्पत्ति. सावता-श्रावयन्ता, इदं चेदं च परत परारिविष्यती. स्थानम् । विशे० ९३४ । संभगाथापतिवास्तव्या नगरी। स्येवंभूतवांसि श्रवणविषयीकारयन्तः। जं.प्र.२६४। ज्ञाता० २५१ । शुमन भद्रनगरम् । अन्त० २३ । भगवदया सास-मणिकारश्रेष्ठे: प्रथमो रोगः । ज्ञाता० १८१ । द्वादशशतके प्रथमोद्देशके नगरी। भग• ५५२ । उत्त. शासं-शास्यमानम् । उत्त० ६२ । शासव-आज्ञापयम् । ३८० । उत्त० ६१ । श्वासः । भग० १९७ । सावधं-सपापम् । आव ८३४ । सासअ-शाश्वत:-सर्वकालावस्याथी । दश. १२९ । सावनमास-ऋतुमासपर्यायः । ठाणा० ३४५ । सातए-मा भूदने कसर्गापेक्षयव नियतत्वमिति प्रलयाभावात सावनसंवच्छर-सावनसंवत्सर:-ऋतुसंवरः । जं० प्र० शाश्वतः । ठाणा. ३३३ । शाश्वत:-प्रतिक्षणं सत्त्वात् । ४८७ । ठाणा. ३३३ । शाश्वत:-प्रतिक्षणं सताऽऽलिङ्गिसत्वासावनसंवत्सर:-कार्मणसंवत्सरपर्यायः । ठाणा० ३४५ । दवस्थितः अनेन रूपेण नित्यत्वादिति । ठाणा० ३३३ । सावय-श्वापदम् । आव० ६.१ । श्रावकः। । आव. आदित्योद्गतिरिव शश्वद्धवनात शाश्वतः परैः क्वचिदप्य. ७६३ । अभ्युपेतसम्यक्स्व: प्रतिपन्नाणवतोऽपि प्रतिदिवसं स्खलितः । सूत्र. ३७० । प्रतिक्षणस्थायी स्थिरमित्यर्थः। यतिभ्यः सकाशात् साधूनां-अनगारिणां च समाचारों भग० २४८ । शाश्वतं-प्रतिक्षणं सद्भावात् । भग. शणोतीति श्रावकः । आव ०५ । स्वापद: व्याघ्रादिः। ११९ । शाश्वत:-यावजीवमपरिक्षयः । आचा० २६५ । मोघ० ६३ । स्वापदं-मकरग्राहादिः । समः १२७ । सासओ-शाश्वत:-कर्मबोजामावादनुत्पत्तिधर्मा । दश. ( ११३३ ) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासगंजण ) आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ साहणय १५६ । सम्यक्त्वम् । विशे० २१ । सहाऽऽशातनेन वर्तत इति सासगंजण-पृथिवीभेदः । आचा. २९ । साशातनं-सम्यक्त्वम् । विशे० २८३ । सासग-सासक-रत्नविशेषः । जं.प्र० २११। सासको- सासायण-सहैव तत्ववानरसास्वादनेन वर्तते इति सास्वा. बीयकनामा वृक्षविशेषः । ज्ञाता. २४ । सासकः-धातु. दनमः । सम० २८ । सहैव तत्ववद्वानरसास्वादन विशेषः । उत्त०६९९ । पायदः । प्रशा. २७ । पारदा वर्तत इति सास्वादनः । भूतग्रामस्य द्वितीयं गुणस्थानम्, जीवा. २३ । प्रायः परित्यक्तसम्यक्श्वः । आव० ६५० । सासण-शासन-धुतस्य पर्यायः । विशे० ४२३ । शिष्यते- सासित-शासित:-शिक्षा प्रापितः । आव० ८२२ । नेनेति शासन-प्रतिपादकं निवृत्तिपथशासनम् । नदी० सासियाओ-स्वाश्रया--स्वा-आरसीयामुत्पत्ति प्रत्यायो ४७ । शास्यन्तेऽनेन जीवादिशासन द्वादशाङ्गम् । बाव० यासु ताः स्वाश्रयाः । आचा० ३२३ ।। ५४५ । शासनं-आज्ञा । दश० २७७ । सासु-असव:-प्राणः सह असवो यस्य येन वा तत् सासुःसासणा-शासना-शिक्षणा । प्रश्न. १०९ । सचित्तमित्यर्थः । व्य० वि० १६५ अ । सासता-शाश्वती-शश्वद्भवनस्वभावा । जीवा१८३।। सासेंता-शासयन्तः परेषां गानादीनी शिक्षयन्तः । ज० प्र० सासय-शाश्वतः मोक्षः । दश. २१३ । शाश्वत:-शश्व. २६४ । दन्यान्यरूपतयोत्पन्नः । उत्त०४३० । शाश्वतं-नित्यम् । सासेरा-यन्त्रमयीनर्तकी ( देशो०)। बृ० तृ. २३५ व । उत्त• २८६ । शाश्वतम् । ज्ञाता० ५५ । विशे० ३९६ । सासेरी-(देशीवचनम् ) यंत्रमयी नर्तकी । ज्य० प्र. सासयचेइय-शास्वतचैत्यं सुरलोकादो नित्यस्थापि । वृ० १९२ अ । प्र २७६ आ । .. साहजनी-महाचन्द्रराजधानी । विपा० ६५ । सासयमिटुं-शाश्वतमिष्टम् । विशे० ३६६ । साहमियचेइय-साधम्मिकं चैत्यं-साधम्मकाणामय यसासयवाई-शाश्वता इव वदितुं शीलमस्येति शाश्वतवादी। स्कृतं तत् साधम्मकं चैव्यम् । बृ० प्र० २७६ आ । शाश्वतवादी-पारमनि मृत्युमनियतकालभाविनमपश्यत साहहु-कथयति । आव. २२३ । कथयति। दश० ६७ . शश्वतवादी-निरूपकमायुको वा। उत्त२२४ । देशीवचनतः कषयति । बाव० २३९ । सासया-शाश्वतो-शश्वद्भवनस्वभावा । जं. प्र. २७ । साहचर्यलक्षणा । जं० प्र० १२२ । शाश्वता आकालिकी । आव०१५४ । साहटटू-संहत्य-शरीरामिमुखमाक्षिप्य । आचा० ३७७ । सासयाणंतत-शाश्वतानन्तकं-अनाद्यपर्यवसि यजीवादिद. सरत्य-विधाय । उपा० २३ । संहत्य-अपनीय । ज्ञाता. व्यमनम्तसमयस्थितिकत्वादिति । ठाणा० ३४७ । १४२ । संहस्य-अपनीय । सूत्र. १८१ । आव० ७१३ ॥ 'सासयासासते । ठाणा. ४८१ । । सहत्य-विधाय । विपा० ५३ ।। सासवणालिया-सर्षपकग्दलिका । आचा० ३४८ । साहटुलोमपुलया- । आच. ४२४ । सासवनाल-सर्षपजिका। बृ० त००७। साहण-साधनं-कारणम् । बाव. ५८६ । कथनम् । सासवनालिआ-सर्षपनासिका-सिद्धार्थमञ्जरी । दश पिण्ड० ८१ । साध्यन्ते मोक्षादयोऽनेनेति साधनं१८५ । ज्ञानदर्शनचारित्रादिः। विशे०१६५ । सातहरा-श्वासधरा । दश. ९ । साहणण-संहननं-सडातः । भग० ५६८ ।' साणं-स स्वादनं यद्यापि मिथ्यात्योदयाभावादनम्नानु. साहणणाबध-संहननं-अवयवानां सङ्घातनं तद्रूपो यो बन्ध्युदयकलुषिततत्त्ववद्धानरसास्वादमात्रान्वितम् । विशे. बन्धः स संहननबन्धः । भग० ३९५ । २८३ । सास्वादनं निरुक्तविधिना वर्णलोपोऽत्र द्रष्टव्या, साहति-संहन्यते-मिलति । भग० १०४ । ततश्च सहेषत्तत्त्वश्रद्ध नरसास्वादनेन वतंत इति सास्वादन | साहणय-धर्मकथिनाऽऽचार्याय कथनीयं यदुतायमस्मस - (११३४) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहणि] अल्पपरिचित द्धान्तिकशब्दकोषः, भा०५ [ साहसिय तिदाता । ओघ० ९४ । साहय-संहतः-सुश्लिष्टः । जीवा० २७४ । संहतं-सक्षिसाहणिअ-एकत्र । ओघ० १३ । समध्यम् । भोप० २० । संहतं-सक्षिप्तम् । प्रभ. साहणियति-एषकतो काउं । नि० चू० तृ० १३८ था । ८० । संहतं-सङ्क्षिप्तमध्यम् । जं.० ११ । साहणिया-संहृत्य । व्य. प्र० ११२ आ। साहयइ-साधयति कथयति श्लाघते बा । सूत्र. ३९४ । साहण्णति-संहन्यते-पम्बध्यते । ठाणा• ६३ । साहयसोणंद-संहृतसोनवं-उर्वीकृतमुसलाकृत्तिकाष्ठं, मध्ये साहत्थ-स्वहस्तः साक्षाद् । उपा० ४६ । तनु उभयोः पार्श्वयोवृहत् । जीवा. २७० । संहृता साहस्थि-स्वहस्त: । भग० १७० । सोनन्दं,-उर्वीकृतमुसलाकृतिकाष्ठं तब मध्ये तनु साहत्थिय-स्वहस्तिकी । विंशतिक्रियामध्ये एकादशी । उभयोः पायोबृहत् । संत-संक्षिप्तमध्यं सौनन्द आव ६१२ । समायुषं मुसलविशेष एव मुसलम् । ६० प्र० १११। साहस्थिया-स्वहस्तेन निवृत्ता स्वाहस्तकी । ठाणा० ४२ । साहरइ-संहरति-निवेशयति । जं० प्र० २०२ । स्वहस्तगृहीतजीवादिना जीवं मारयत: । ठाणा० ३१७। साहरको- । नि० चू० प्र० १३८ । साहम्म-साहू ।। नि० चू० प्र० २३४ था। साहरण-संहरणं- क्षेत्रान्तरात क्षेत्रान्तरे देवादिमिर्नयनम् । साहम्मि-साधर्मिक:-श्रावकः । ओष० २४ । सार्मिक:- भग० ८६६ । बलावटुंभकरणं । नि० चू० प्र० ९६ श्रावकः श्राविका पुस्तकं श्रावकम् । ओष० २४ । अ । संहत्य । ओष. १२ । साहम्मिअ-सामिकः-एकः प्रवचनत: न लिङ्गतः, एक: साहरति-संहरति-भक्तभाजनात् भोजनभाजनेषु क्षिपति । लिङ्गतो न प्रवचमतः, एको लिङ्गतोऽपि प्रवचनतोऽपि, ठाणा० १४६ । नि• चू. प्र. २३२ था । एको न लिङ्गतो न प्रवचनतः । दश० ३१ । सार्मिक:- साहरह-संहरत-समानयत । बं० प्र. १९४ । लिङ्गप्रवचनाम्यां समानधार्मिकः । प्रभ. १२६ । साहरामि-पानेष्ये । आव०४५३ । साहम्मिणी-साधम्मिणी संयती । बृ० तु. ४७ प्रा।। साहरिए-संहृतो-नीतः । सम० ८६.। साहम्मिय-सार्मिक:-गीतार्थसमुदायविहारी संविग्नः । साहरिजमाणचरए-संह्रियमाणचरकः । ओघ ३६ । सम० ४५ । साधम्मक:-साध्वपेक्षया साधुः । भग० | साहरित-संहृतः । बाव० ३४८ । ७.१। समानो धर्मः सधर्मस्तेन चरतीति साधम्मक:- साहरित्तए-संहर्तु-प्रवेशयितुम् । भग० २१८ । साधुः। ठाणा० ४७४ । साधम्मकः । आचा. ३५२ । साहरिता-संहृष्य । आव० २१६ । साम्मिक: सामान्यसाधुः । भग० ७२७ । सार्मिक:- साहरिय-संहृतम् । आचा० ३४५ । संहृतं-अविक्षिप्तअपरसाधुः । आचा० ३६५.। समानधर्मा लिङ्गता तया घृतम् । भग ६२४ । संहत-अन्य क्षिप्तम, प्रवननतश्चेति सामिकः । ठाणा. २६६ । सामिक:- पञ्चम उद्गमदोषः । पिण्ड० १४७ । साधुः । आचा० ४०३ ।। साहरेन्ज-साहरेत्-सङ्कोचयेत् । भग० ६२१ ! साहम्मियउग्गह-सामिकाणा-गीतार्थसमुदायविहारिणी | साहलय-सफनता । घोष० ४१ । संविग्नानामवग्रहो- मासादिकालमानतः पंचक्रोशादिक्षेत्ररूपः साहस-साध्वसं भयम् । बृ० प्र० २११ अ । अविर्ताक सामिकावग्रहः । सम० ४५ । तम् । प्रभ० १२९ । साहम्मी-जीवाद्यस्तित्ववादिनः कारुणिकश्चापि साध- | साहसगति-तारापरिभोगे सुग्रीवल्पकारकः खेचराधिपवि. म्मिकः । बृ० तृ.५७ अ । सार्मिकः-साधुः । बोध | शेषः । प्रभ० ८९ । साहसिए-साहसिक:-अविकितकारी । ज्ञाता० ७९ । साहम्मोवणीए-साधोपनीतं - साधाण उपनयो यत्र | साहसिओ-वितर्क प्रवर्तित इति साहसिकः । प्रभ० । तत् । अनु० २१८ । | साहसिय-साहसिक:-प्रकृत्यकरणपरः । दश० २५१ । ( १९३५ ) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहसोए] आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ साहू सहसा-अवितर्ण भाषणे यो वर्तते सः साहसिकः । प्रभ० साहिका-गृहपङ्क्तिक्षपा । बृ० प्र० १४६ अ । ३०। साहिगरण-सहाधिक रणेन साधिकरणाः युद्धार्थ मुगस्थितः । साहसीए-साहसिक:-असमीक्षितकारी । ज्ञाता० २३६ । । ठाणा० ३२६ । साहस्सिओ-सहसा-अपर्यालोच्य गुणदोषान् प्रवर्तत इति | साहिबई-कथ्यते । दश० ११३ । साहसिकः चौर्यादिकृदिति । उत्त० ६१६ । सहसा-अस -कथ्यते,-प्ररूप्यते । प्रज्ञा० ३६३ । मीक्ष्य प्रवत्तंत इति साहसिकः भीमः । उत्त० ५०७ । | साहिजसु-अचीकथत् । आव० १७५ । साहा-शाखा-वृक्षडालरूपा । दश० २२८ । शाखा-वृक्ष- | साहियब्ध-कथयितव्यम् । बृ• तृ० १२३ आ । डालम् । दश०१४ । साही-गृहपङ्क्तिः । वृ० तृ० १४६ आ । नि० चु० साहापारत-शाखापामाः । उत्त० २२५ । द्वि० १२७ बा । साहिका-ग्रहपक्तिः । बृ० दि० १२ साहाभंग-शाखामङ्गः-शाखैकदेशः । दश. १५४ । शा | बा। साही-श्रेणिक्रमेण गृहपरिपाटिः । ६. तृ० ८० खाभङ्गः पल्लव: । बाचा० ३४५ । नि. चू० प्र०६० छ । पाटकः । व्य० दि. १.७ अ । जाया । वाव. आ। ६६१ । वर्तनी। पिण्ड०१०३ । शाखा-पाटक:-गृहाणी साहार-अनन्तवनस्पतिकायिकः । वृ०प्र०७१ बा। साधाः | पक्तिः । आव० ६३६ । घरपंती । नि० चू• प्र० रणः । ओघ. १९० । त्राणम् । उ०मा० । पारित्राणम् । १८७ अ। शाखा । आव०७४४ । सुहृत-मित्रम् । उ०मा० । बोप० ३३ । शोधिः-अकलुषहृदयः । औप० ३३ । साहारण-साधारणं-प्रकृतिपेलवस्य साधारणम् । आचा. खडक्किका । ओष. १९८ । २९३ । साधारण:-तुल्यः । बोध. १९३ । कायपरीतः। हीण-स्वाधीनः । आव २०८ । स्वाधीन:-अस्तित्वेव जीवा० ४४६ । साधारण:-तुल्यः । ओघ. १८७ । स्वायत्तः । ज्ञाता० १६ । स्वाधीन:-सन्निहितः । ओष. साधारणं-बहूनां सामान्यम् । भाचा० ३५३ । समान- | १४० । कल्लशरीरो-भोगसमत्थो । दश० चू० ३७ । तुल्यं प्राणापानाद्यपभोगं यथा भवति एवं मासमन्ता | भत्तारो। नि० चू. प्र. १०६ मा । देकीमावेनानन्तानां जन्तनां धारणं सङग्रहणं येन तत्सा- | साह-निर्वाणसाधकान् योगान-सम्यग्दर्शनादिप्रयानव्याधारणम् । प्रज्ञा० ३० । साधारणं-मण्डल्या भोजनम्। पारान् यस्मात्साघयतीति साधुः-विहितानुष्ठानपरः । बृ० तृ० २५ आ । साधारणं-सामान्यम् । आचा० आव० ४४६ । साधयत्यपवर्गमिति साधूः । दश ७४ । ५९ । समानं एकं पारणं-अङ्गीकरणं शरीराहारादे. साधुः-साधयति सम्यग्दर्शनादियोग रपवर्गमिति साधुः । र्यस्य स स धारणः । आचाल ५६ । सङ्घाटिकादिसा. दश० ७१ । साधुः-सर्वोऽपि शिष्टः । उत्त० ४७२ । धर्धामकस्य सामान्यः स धारण: । प्रभर १२८। । । स धुः । आव० ४८४ । साहाणणाम-साधारणनाम-यदुदयवशात् पुनरनन्तान्तं साहक्कार- साधुकृतं-सुष्ठुकृतमिति विद्भिः पशंसा साधु. जीवानामेक शरीरं भवति तत्साधारणनाम । प्रज्ञा कारः । नंदी० १६४ । साधुकारः । आव० ३६० । साधुकारः । उत्त० १५ । साहारणसरीरा-साध रणं-अनन्तजीवानामपि समानमेकं साहजोणीओ-साधुपाक्षिक: आत्मनिन्दकः । नि. चू० शरीरं येषां तेऽमी साधारणशरीराः । उत्त० ६९१ । प्र. ८६ आ । सहारणा-साधारणा । विशे० ११ । साधारणा । साह-य: ज्ञानादिशक्तिभिः मोक्षं साधयति यः, सर्वभूतेषु आव २०८। समतां धारयति यः, सहायकं संयमकारिणां धारयति स । साहारया-साधारा | आव० २६१ । भग० ४ । प० प्र० १७. अ । साधयतीति साधुः । साहि-या । ति. चू० प्र० ३.४ था। ओघ ११ । सधु:-ज्ञानादिरूपामिः पौरुषेयीमिोक्षं ( १९२६) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहेति ] साधयतीति । ओघ ११ । निर्वाणसाधकान् योगान् साधयतीति साधुः । आव० ५६९ | साधयति पौरु. पेयोभिः क्रियाभिरपवर्गमिति साधुः । उत्त० ६९ | देससर्वविरताः । आचा० २६० । साहेति कथयति । बोध० ९० | साधयति - रन्धयति । भग० ५२० । सि - अमीषाम् । बृ० द्वि० २१३ अ । एत्तेषाम् । विशे० ७१८ | पूरणे । उत्त० ३८७ । अस्य । मर० । सिखला - शृङ्खला मषीभाजनसरका | जीवा० २३७ । शृङ्खला । जीवा० २०७ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ + सिंग- शृङ्ग- विषाणम् । प्रश्न० ८ वाद्यविशेषः । भय० २१६ । शृङ्गम् । बृ० प्र० ६० अ । शृङ्गं यद् उत्तमाङ्गेकदेशेन वन्दते । कृतिकर्मणि चतुर्विंशतितमो दोषः । आव० ५४४ | शिम्बः । आव० ८२९ । शृङ्ग-ललाटवामदक्षिणपावंस्पृद्वन्दनम् । बृ० तृ० १३ अ । सिगक्खोड - शृङ्गलोड :- शृङ्गप्रदेशः । ओघ० ६८ । शृङ्गखोड:- अप्रशस्त प्रदेशः शृङ्गप्रदेशः । बोध० ६८ । सिगणं प्रत्यभिज्ञानम् । नि० चू० द्वि० ११८ आ सिंगादित - सर्वेषु कार्येषु मध्ये शृङ्गभूतं यत्कार्यं ततु शृङ्गनादितम् । बृ० प्र० ६० अ । सिगणादियकल - शृङ्गनादितकार्यम् । उत्त० २५६ । सिंगनादितक - शृङ्गनादितकार्यम् । नंदी० २०७ ॥ सिंगबेर - शृङ्गवेरं वनस्पतिकायिक विशेषः । जीवा० २७ । शृङ्गबेरं- आर्द्रकं तथाप्रकारमामलकादि । आचा० ३४८ । शृङ्गवेरम् प्रज्ञा० ३६५ । वनस्पतिविशेषः । ८०४ । शृङ्गवेरं-कन्दविशेषः । उत्त० ६९१ | अनम्तका. यभेदः। भग० ३०० । साधारणबादरवनस्पतिकाय विशेषः । प्रज्ञा० ३८ | शृङ्गबेरं- आर्द्रकम् । दश० ११८ । सिग बेर चुण्ण-शृङ्गबेरंचूर्णम् । प्रज्ञा० २६६ ३६५ । सिगमेय - शृङ्गमे दो-महिषादिविषाणच्छेदः । ज्ञाता० ६ । नि चू द्वि० ५० बा । सिंगम-ला-शृङ्गमाला । जं० प्र० ६८ । एकोरुकद्वीपे वृतविशेष जीवा० १४५ भग० [ सिंघाडग तद्योगात् शृङ्गारः शृङ्गारमिव शृङ्गारमतिशय शोभावाद् । भग० ११८ । शृङ्गारो-मण्डन भूषणाटोपः प्रथमरसः । ज० प्र० ५२ । शृङ्गारः-शृङ्गाररसरोषकः । सूर्य ० २६३ । शृङ्गारो - विभूषणादिभिर्मण्डनम् । प्रज्ञा ५५० । शृङ्गारो शृङ्गाररूपः । जीवा० २७६ । शृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपः । जीवा० २०७ । कमनीयकामिनीदर्शनादिसम्भवो रतिकर्मात्मकः शृङ्गारः । अनु० १३५ । शृङ्गारः - मण्डनभूषणाटोपः । राज० १२ । शृङ्गाररसोपेतः । ज्ञाता० १६४ । सिंगारकलुणा - शृङ्गारकरुणा-शृङ्गारमृदुः शृङ्गाररसेन करुणापादिका । प्रश्न० १३९ । 1 सिंगारस्थं शृङ्गारार्थं - विलासार्थम् । उत्त० ४२९ । सिंगारागार - शृङ्गारः - शृङ्गाररसपोषकः आकार: > निवेशविशेषो यस्य स शृङ्गाराकारः । सूर्यं २६३ । लिंगारागारुचारुसा-शृङ्गारो मण्डन भूषणाटोपः तस्व• घान आकाशे यस्यां सा तथा, चारुवेषा: मनोहरनेपथ्या:, श्रृङ्गारस्य प्रथमरस्यागार मित्र- गृहमित्र चास वेषो यासां सा । जं० प्र०४१ । सिगाल - सांगारं सरागम् । नृ० द्वि० १७८ अ । निगिया - शृङ्गिता । छाव० ९० । सिगिरड - चतुरिन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । सिगिरी डी - चतुरिन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६६६ सिपीरागारठव-हाराद्धहारादीया । नि० ० ० २७६ सिगडय शृङ्गटकं त्रिकोणं स्थानम् । जीवा० २५८ । सिंगार शृङ्ग र:- अलङ्काराः कृना जोभा, रसविशेषोऽपि ४० १४३ ) आ । निगेइ । बृ० प्र०२८ अ । सिंघ-सिंहः । आव ० १७४ । सिंघाडर - राहोः प्रथमं नाम । भगः ५७५ । सिंघाडग - त्रिकोणजल अफ रुविशेषः । ठाणा० १४५। शृङ्गा टकं त्रिकोण स्थानम् ओप० ४ भग० २०० । शृङ्गाटकम् । भग० २३८ । शृङ्गाटकं शृङ्गाटकफल' कारं स्थानम् । भग० १३७ । सिङ्घाटकं सिङ्घाटकाभिधानफलविशेषणकारं स्थानं त्रिकोणमिति । प० ५७ । शृङ्गाटकं नानाहट्टगुहाध्यासितत्रिकोणो भूभाग विशेषः ॥ शृङ्गारक त्रिपथसमागमः अनु० १५६ । शृङ्गाटकत्रिकोण रथ्यान्नरम् । ठाणा० २९४ | सिङ्घाटक:( ११३७ ) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघाण । आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ सिंहभक्खिय आकारविशेषः । श्राव० १३६ । आचा० ३४८ । शृङ्गा- । सिंधुसोवोर-सिन्धुसौवीर:-जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । टक-सिङ्घाटकं. सिङ्घाटकाकारं त्रिकोणं स्थानमिति । यत्र वीती भयनगरम् । भग०६१८ । । प्रभ० ५८ । जलजबीजं फलविशेषः तदाकृतिपथयुक्तं सिंधुसौवीर-यत्रोदायनराजा वीतभयनगरं च । ६. प्र. स्थान-सिंघाटकम् । ज्ञाता. २५ । सिंघाण-नासिकानिकान्तं श्लेष्मः । उत्त० ५१७ । सि- | सिंधू-महानदी । ठाणा० ४७७ । वानं-नासिकोद्भवः श्लेष्मा । आव ० ६१६ । सिवानक- सिबलि-वृक्षविशेषः । भग० २९०,६८०,६४८ । शाल्मलिः, मासिकालमा । मग० १२२ । सिवान:-नासिकामलः । वल्लादिफलम् । दश० १७६ । सिम्बलि:-वृक्षविशेषः । जं० प्र० १४८ । सिद्धानो-नासामलः । ज्ञाता० १०३ । भग. २६० । नासिकाश्लेष्मा । सम. ११ । नासिकाश्लेष्मा । मग सिबलिकाली-शाल्मलीकालिका । सं. । ८७। सिबलियालग-वल्लयादिफलीनां स्थाली, फलीनां वा सिंघाणए-कृष्णपुद्गलः । सूर्य० २८७ । सम्मूच्छिममनु- पाकः । आचा० ३५४ । ज्योत्पत्तिस्थानम् । प्रज्ञा० ५० । सिंबली-सीम्बली-कल्यादिफलिका । भग ६८४ । सिंघाणय-सिवानक-नासिकोद्भवं श्लेष्मा । आव० ५६४। सिबवद्धण-शिम्बावद्धन-ध्यानसंवरयोगविषये नगरम् । सिंघान-नासिकोद्भवः श्लेष्मा । ठाणा. ३४३ । बाव० ७२२ ।। सिंचामि-सिञ्चामि-उक्षामि-विध्यापयामि । उत्त० ५०६ । सिभकाल-श्लेष्मकालः । आव० ६८९ । सिझ-सिध्म- क्षुद्रकुष्ठविशेषः । भग० ३०८ । सिभाधियं-इलेष्माधिक्यम् । बाव. ३०३ । सिदिकंदय-सिन्दीकण्डकः । पाव० २२२ । सिभित-वाधिविशेष: । ठाणा० २६५ । सिंदी-खजूरी । आव० २२२ । सिंह-चतुर्दशमं स्वप्नम् । ज्ञाता० २० । सिंहः । दश० सिंदुवार-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । निगुंण्डिः । ज्ञाता० १५७ । सिंहः-पञ्चाननः । जीवा० २८२ । क्षुल्लकोदाहरणे २१८ । वृक्षविशेष:-शुल्लकुसुमवृक्षः । भप. ४७६ । सूरयः । पिण्ड० १३४ । सिंहा-केशरीसिंहः । जोवा. निर्गुण्डी । जं० प्र० ३५। २७२ । कीडनधात्रीदोषविवरणे सङ्गमस्थविराचार्यशिष्यः । सिदुवारगुम्मा-सिंदुवारगुल्माः । जं० प्र० ६८ । पिण्ड० १२५ । सिंदुवारमनदाम-सिन्दुवारमाल्यदामः । प्रज्ञा० ३६१ । | सिंहकेसर-मोदकविशेषः । आचा० ३०६ । सिंघवए-संघवम् । व्य. दि० २०४ अ । सिंहगिरि-सिंहगिरिः । उत्त०६६ । सिंधवओ-सैन्धवीयः । आव० ४०८ । सिंहगिरी-सिंहगिरिः-सोपारकनगरनुपतिः। उत्त० १९२। सिंधु-देवविशेषः । बृ० तृ. २५३ आ। सिंहगिरि:-योगसमहे आलोचनादृष्टान्ते सोपारकपत्त. सिंधुकुड-यत्र तु सिन्धुनिपतति तत् सिन्धुकुण्डम् । जं० | नाधिपतिः । आव. ६६५ । प्र. ८७ । सिंहद्वार-कन्यकुब्जपुरे द्वारम् । विशे० ४६९ । सिंधुदत्त-बह्मदत्तराश्योर्वनराजीसोमयोः पिता। उत्त० | सिंहनाए-सिंहनादः । छोप० ५६ । - ३७९ । हिनिषद्यायतनं-वाकीरत्नकृतं योजनायातं त्रिगम्यूतो. सिंधुदेवीकूड-सिन्धुरेवीकूटम् । जं० प्र० २९६ । च्छ्रितं सिंहनिषद्या । बाव. १६६ । सिंधुसागरंत-सिन्धुसागरान्तः, सिन्धुनदीसङ्गतः । जं| सिंहपरिसा-परं न तथासमर्थास्ते सिंहपर्षद उच्यते । प्र० २२० । बृ. द्वि० १०२ आ । सिंधुसेण-सिन्धुसेनः ब्रह्मदत्तराश्या वानीराया। पिता। सिंहभक्खिय-यद् एकदेशापारम्प सिंहवत् तावद्भुज्यते - त. ३७९। | यावरसवं भोजनं निष्ठितं तत् सिंहभक्षितम् । ओष. (११३८ ) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहमारक ] अल्पपरिचितसेद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ सिग्ग १८७ । कलाग्रहणम् । प्रभ० ११६ । शिक्षा-इच्छामिच्छातहसिंहमारक-कृतपापो व्यक्तिविशेषः । आव० ५९० । कारादिरूपा । सूत्र० २४१ । शिक्षा ग्रहणा'सेवन भेद. सिंहया-दाढयस्थिरता । भग० । ५२७ । भिन्ना । योगसङ्घदे पञ्चमो योगः। आव. ६६३ । सिंहरथ-मायापिण्डदृष्टान्ते राजगृहे राजा सिंहरथः । शिक्षाया-व्रतासेवनात्मिका । उत्त० २५१ । शिक्षापिण्ड • १३७ । धनुर्वेदः । नंदी० १५८ । शिक्षा ग्रहणशिक्षा आसेवनसिंहलदेशजः-सिंहल्यः । जं० प्र० १९१ । शिक्षा च । नंदी. २१० । शिक्षा-उपदेशः । अभ्यासः । सिंहली-देशविशेषः । मग, ४६० । उत्त ५०७ । सिंहविक्रीडीत-तपोविशेषः । व्य० प्र. ११३ आ। सिक्खापयवय-शिक्षापदव्रतं-अभ्यासस्थानव्रतम् । आव० दक-बहुपायश्चित्तवानु । व्य द्वि० ३८६ मा।। ८३९ । सिंहासण-सिंहासन-भद्रासनम् । सूत्र. ३२५ । सिक्खावण-शिक्षापन-शिक्षणं प्रत्याचारवच्छुकसारिकादि-आसनम् । उत्त० २६२ । | सुखेन मानुषभाषासम्पादनात् । दश० १०० । सि-श्री:-सम्पदः । ज्ञाता० ६५ । से तस्य । ओघ० | सिक्खावित्तए-शिक्षयितुं ग्रहणभिशापेक्षया सूत्रायौँ ग्राह२१९ । से तस्य। आव. ३६६ । ' यितुं, आसेवनाशिक्षापेक्षया तु प्रत्युरेक्षणा । ठाणा० सिआ-स्यात-कदाचित् । दश. १७८ । सिइ-निःश्रेणिः । पिण्ड १३६ । सिक्खावियं-सूत्रादिग्रहणतः शिक्षितम् । ज्ञाता० ६० । सिउंढि-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा ३४ सिक्खावेति-शिक्षयति-अभ्यास कारयति । ज्ञ ता० ३८ । सिए-सित:-शुक्लः। भग० १४५ । सिक्वासत्थं-शिक्षाशास्त्रम् । आव० ४२२ । सिकता-वालूका । प्रज्ञा० ९९ । वालुका । जीवा० १४०। सिक्खासील-शिक्षायां शील:-स्वभावो यस्य शिक्षा वा सिक्कअणंतओ। नि० चू० प्र० १२९ अ । शील यति अभ्यस्यतीति शिक्षाशील:-द्विविशिक्षाभ्यासकृत् । सिक्कए-शिक्षकः । ६० प्र. ५८ ।। उत्त० ३४५ । सिक्ककं । सूर्य० २६७ । सिविखउ-शिक्षितस्य शिक्षितायां वा । आव० ४२५ । सिक्कग-शिक्कगं दध्यादिभाजनाना दवरकमयमाकाशेs. Ifक्खिऊण-शिक्षित्वा-अपीत्य । दश. १९ । वलम्बनं लोकप्रसिद्ध शिक्कगम् । उपा० २२ । सिकूकम् । | सिक्खिओ-शिक्षित:-अत्र गृहीतसूर्य प्रज्ञप्तिसूत्रार्योमयः । आव०१५ । सूर्य० २७६ । सिक्कय-सिक्ककम् । आव० ६२१ । सिक्ककम् । जीवा. सिक्खिज-शिक्षेत-व्यापारयेत् । आचा० २६१ । २०६ । रूप्यमयं सिक्ककम् । जीवा० २१४ । सिक्खित-आदित आरभ्य पठनक्रियया यावदन्तं नीतं सिक्कयणतय-सिक्कगस्से एवं पिहणं । नि० चू• प्र० तंच्छिक्षितम् । अनु. १५ ।। १२१ आ। सिक्खियं शिक्षितं-अभ्यस्तम् । जं. प्र. २६५ । शिक्षितंसिक्खग-शिक्षक:-अभिनवप्रजितः ।दश० ३९। शिक्षकः- __ अन्त नोतं-सवंपधीतम् । विशे० ४०५ । योऽधुना प्रवजितः । दश० ३१ । सिक्खे -शिक्षके उपादत्ते । दश. २४२ । सिक्खा-शिक्षा-अक्षरस्वरूपनिरूपकं शास्त्रम् । भग० सिक्थ-मच्छिष्टम् । दश. १७२ । आचा. १२६ । ११४। शिक्षा-प्रक्षरस्वरूपनिरूपकं शास्त्रम् । औप. ९३ । त शृगालभुक्तं शगास इवान्यत्रामा प्रदेशे शिक्षा-बभ्यासे: । श्राव. ८३९ । शिक्षा-अक्षरस्वरूप भक्ष्यति तत् द्रावितरसमिति । घोष. १९२ ।। निरूपकं शास्त्रम् । ज्ञाता. ११० सूत्रार्थग्रहणम् । प्रश्र. ग्गि -सिग्र . ६० द्वि० १७२ अ। श्रान्तः । ओघ. १४६ । शिक्षा-ग्रहणासेवनमा । दश १९२ । शिक्षा- १.० । । देशोपदमेतद् ) परिषमः । व्य० दि० १० ( ११३६ ) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्गउ आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ सिणात "अ । सिन:-परिश्रान्तः । वृ. द्वि. २६८ अ । सिग्रः १०८ । सिध्यति-निष्ठितार्थों भवति । उत्त० ५८६ । घान्तः । बृ० प्र०२४७ म । सिज्झति-आगमसिद्धस्वादिना सिध्यति । उत्त०५७२ । सिग्गउ-श्रमः । मोघ २६ । । सिद्धयति-निष्ठितार्थों भवति । प्रज्ञा. ६०५ । सिध्यति सिग्गाणि-सिग्रानि-भग्नानि । बृ. तृ० ११६ आ। अणिमादि संयमफलं प्राप्नोति । आव० ७६१ । सिग्ध-ध्र वेगवत् । भग० १६७ । शीघ्रम् । ज्ञाता सिझिया-सिज्यिका-प्रातिश्मिकस्त्रियः । बृ० प्र० २७० २९ । शीघ्रत्वम् । ज्ञाता. ६७ । अ । सिग्घया-शीघ्रता-लाधवविशेषः । जं० प्र० २३६ । सिझियादि । नि० द्वि. ४१ आ । सिज्जभव-शय्यम्भवः आर्यमणकेन कृतं दशवकालिक- सिन्झिस्सीत-सेत्स्यन्ति-अष्टविधमहद्धिप्राप्तया भोत्स्यन्ते श्रुताराधनमिति हर्षश्रुमोचक: प्राचार्यः । दश० २८४ । केवल ज्ञानेन तत्वम् । सम० ७ । नि. दि. २७ आ। सिज्झेखा-सिध्येत्-समस्ताणिमैश्वर्यादिसिविभाग भवेत् । सिज्जंत-श्रेयांसः- ऋषजनप्रथमभिक्षादाता । आव० प्रज्ञा० ४०० । १४७ । श्रेयांसः-पुरुषोत्तमवासुदेवधवार्यः । आव. सिट्टरे- । नि० चू० प्र० १०५ । १६३ टी. । श्रेयांसः-प्रथमजिनभिक्षादाता । सम० सिटु-शिष्टम् । आव० ६३ । १५१ । सिद्धार्थ राजोद्वितीयनाम । बाचा० ४२२ । सिट्ठी-श्रेष्ठो-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गः । श्रेयानु - समस्तभुवस्यैव हितकरः प्राकृतशेल्या छन्द ! प्रज्ञा० ३२७ । सत्वाच्च श्रेयांसः, एकादशो जिनः । बाव. ५०४ । सिढिल-शिथिलः-अल्पपरिणापतया मन्दवीर्यः संयमतप. श्रेयांस:-गजपुरनगरयुवराजः । भाव. १४७ ।। सोऽतिद्वाढिमरहितः । पाचा० २१३ । सिद्धा- शय्या-वसती । आचा० ३०६ । शय्या-वसतिः। सिढिलबंधण-श्लपबन्धनं, स्पृष्टता, बद्धता निधत्तता वा आचा. ३२९ । शय्या-संस्तारकः । बाचा० ३६१ ।। तेन बद्धः-मात्मप्रदेशेषु सम्बन्धितः । भग० ३४ । शम्या-पर्वाङ्गिकी । आचा० ३६६ । शय्या । बाचा० सिढिलभाव-शिथिलमाव: निलंञ्जः । ज्ञाता. १६५ । ३७६ । शय्यते यस्यां सा शय्या संस्तारकः। ठाणा.सिढिलोकय-शिथिलीकृतं-श्लथीकृतं, मन्दविपाकीकृतम्। २३ । शय्या-आचारप्रकल्पस्य कादशो भेदः । आक. भग० २५. । १६. । शय्या-महती सर्वाङ्गमाणा । अनु० २० । सिणणिद्ध-स्निग्धा-चिक्कणा । जं० प्र० १११। स्निग्धाशय्या । प्रज्ञा०६०६ । शय्या-संस्तारकादिलक्षणा वा। सतेजस्का । जं० प्र० ११४ । भाव० ५७४ । शेरतेऽस्यामिति शय्या-उपाश्रयः, एका- सिणवल्ली-सेनापल्ली । आव० ५३८ । दशमपरीसहः । उत्त०८३ । सिणाण-स्नान-सुगन्धिद्रव्यसमुदयः । आचा० ३६३ । सिजावर-शय्यातरः-साधुवसतिदाता । दश० ११७ ।' स्नानं-अपत्यार्थ मन्त्रीषधिसंस्कृतजलाभिषेचनम् । उत्त. सिज संथार-शय्यासंस्तारक:-शय्या-वसतिस्तस्यां संस्ता. ४१७ । स्नानं-शौचम् । उत्त० ९० । स्नान-अङ्ग. रकः शिलाफलकादिः । उत्त० ४६८ । प्रक्षालनम् । दश० २०५ । स्नानम् । आचा० ३९५ । सिखासण-शय्यासनं शयनीयविष्टरं वसत्यासनं वा। तेल्लादिणा फासुगअफासुगेण सम्वयातस्स सिणाणं । नि. सम० १५ । चू, द्वि० ८६ म। सिद्धिरिआ-भाचाराज एकादशममध्ययनम् । सम• ४४। सिगाणवचसंलोए-स्नानवर्चः संलोकः । पाचा० ३४१ । सिज्झइ-सिध्यति-अवाप्तचरमभवतया सिजिगमायोग्यो सिणात-क्षालितसकलघातिकर्ममलपटत्वात् स्नात इव भवति । भग०३४ । सिमाति-निष्ठनार्थों भवति । स्नात: स एव स्नातक: सयोगोऽयोगो वा केवलीति । जीवा. २५६ । सिध्यति-निष्ठितार्थो भवति । प्रज्ञा ठाणा. ३३७ । स्नातक:-प्रधानः । ठाणा. १९३ । । ११४० ) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिणाय ] J - स्नातको मोहणिजाइघातियच उकम्मावगतः । उत्त० २५७ । सिणाय - स्नात इत स्नातो-घातिकम्मलक्षणमलपटलक्षासनाद् निर्ग्रन्थेषु पञ्चमभेद: । भग० ८६० । सिणायग - स्नातकः षट्कर्माभिरतो वेदाध्यापकः शौचाचारपरतया नित्यस्नायी ब्रह्मचारी । सूत्र० ४०० । स्नातक:- बोधिसत्त्वः । सूत्र० ३९७ । सिणाविज्ज-स्नानं सोत्तमाङ्गं कुर्यात् । आचा० ३६३ । सिणिजतो साधू | नि० ० प्र० २३८ अ । सिद्धि-स्निग्ध:- शुभकान्तिः । राज० ४ । सिणेह - स्नेहो - अवश्यायः । वृ० प्र० ८१ आ । स्नेहस्वजनादिषु प्रेमः । उत्त० २६४ । सिणेहकाय - स्नेहकाय: अपकायविशेषः । भग० ८३ । सिणेह पाण- स्नेहपानं द्रव्यविशेषपक्व घृतादिपानम् । ज्ञाता० १-१ | अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० ५ [ सिद्ध प्रमाणप्रतिष्ठितमर्थमन्तं संवेदननिष्ठारूपं नयतीति सिद्धा तः । अनु ३८ । सिद्ध- सितं - बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं मातं दग्धं जाज्वल्यमान शुक्ल यानानलेन यैस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः, अथवा सेधन्ति स्म अपुनरावृत्या नर्वृितिपुरीमगच्छन्, यदि वा सिम्पति स्म निष्ठितार्था भवन्ति स्म, यद्वा सेधन्ते हम शासितारोऽभवन् मङ्गलरूपतां वाऽनुभवति स्मेति सिद्धाः, अथवा सिद्धा: - नित्याः अपर्यवसान स्थितिकत्वात् प्रख्याता वा भव्यरूपलब्धगुणसन्दोहत्वात् । भग० ३ । महाहिवत्पर्वते कूटम् । नलवर्षधरपर्वते कूटम् । ठाणा० ७२ । सिद्धः - अशेष निष्ठित कमशः परमसुखी, कृतकृत्यश्च । द्वितीयस्थानकम् । आव० ११९ । ज्ञानसिद्ध: - केवली । भग० २७६ । सिद्धं सत्यं प्रतिष्ठितं अविचार्यम् । दश० ३३ | सितं बद्धमष्टप्रकारं कम्मं पातं भस्मीकृतं येन सः सिद्धः । निर्दग्धकर्मेन्धनः मुक्त इति । जीवा० ४३६ । सितं मातमेषामिति सिद्धाः कृत्यकृत्यः । बाव० २०७ । सिद्धः सितं मातमस्येति सिद्ध:- निदिग्ध कर्मेन्धनः । भव० ८१ सिद्ध: - यो येन गुणेन परि निष्ठतो न पुनः साधनीयः स सिद्ध उच्यते । नंदी० ११२ । सिद्ध: - कृतार्थो जातः । ठाणा० ३६ । सिद्धघति स्मकुतकुत्योऽभवत् सेघति स्म वा-अगच्छत् अपुनरावृत्या लोकाग्रमिति सिद्धम् । सितं वा बद्धं कर्म्म मातं दग्धं यस्य स निरुक्तात् सिद्धः - कम्मं प्रपञ्वनिर्मुक्तः । ठाणाο २५ । प्रतिष्ठिम् । आव० ७८९ । प्रमाणप्रतिष्ठितम् । निष्ठितार्थम् । प्रश्न० ११३ । रुक्मिवर्षधरे कूटम् । ठाणा० ७२ | सिद्ध: - शिखरिवर्षधरे कूटम् । ठाणा ० ७२ | सितं बद्धं ध्यातं भस्मीकृतमष्टप्रकारं कर्म येन स सिद्ध: । नंदी० ११२ । सिद्धं प्रतिष्ठितम् । दश० १२६ । सिद्धपुत्रः । बृ० द्वि० २४६ । प्रतिष्ठितम् । भग० २४३ | विशतिस्थानके द्वितीयस्थानकम् । ज्ञाता० १२१ ॥ भग० १११ । वैताये कूटम् । जं० प्र० ३४९ । सिद्धपुत्तो । नि० ० ० ५२ | सिद्ध:-निष्ठितार्थः । उत्त० ६७ । सितं बद्धमिहाष्टविधं कर्म नद्मतंभस्मसानमस्येति सिद्धाः ध्यानानल निर्दग्धष्ट कर्मेनः । उत्त० ४७२ | सिद्धं पक्वम् । पिण्ड० ९५ । सिद्धाय ( ११४१ ) सिणेहसुदुम - स्नेह सूक्ष्मं - अवश्याय हिममहिकाकर कहरतनुरूपम्। ठाण० ४३० । स्नेहसूक्ष्मं - अवश्याय हिममहि काकरकहरतनुरूपम् । दश० २२९ । सिन्हा - सिन्हा - अवश्यायः । बृ० द्वि० १८१ था । सिह्नाअवश्याय: । ओघ० २१३ । सिन्हाए- सिस्तालक फलविशेषः- सेफालकम् । अनुत्त० ६ । सिव्हाय सिस्तालकं- फलतिशेषः । सेफालकसिति प्रसि द्धम् । अनुत० ६ । व्रितं बद्धम् । प्रज्ञा ० ११२ । बद्धमिहाष्टविधं कर्म । उत्त० ४७२ । बद्धमष्ट रकारं कर्मेन्धनम् । प्रज्ञा० २ । हड । नि० चू० द्वि० ११८ आ । मिति - उद्धर्वमषो वा गच्छतः । व्य० द्वि० ४०८ आ । सित्ता- नि० चू० प्र० २३२ म । सित्य - मधुसित्यं, औप रातिको बुढो दृष्टान्तः । नंदी० १५५ । सिक्थुः । आव० ६६२ सित्यग- सिक्थकम् । आव० ८४४ । स्थगकर - सिक्कदः मधुसिक्यः । आव० ४२१ । सित्थू - सित्थुः । जीवा० २६८ । सिद्धत - सिद्धान्तः श्रुतस्यैकायिकः । विशे० ४२३ । सिद्धंअस्थं अन्तं णयतीति सिद्धमः । बृ० प्र० ३१ अ सिद्धान्तः प्रतिष्ठित परिच्छेदः । अनु० १३ । सिद्ध Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धउत्त ] आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सिद्धसेण तनकूट, सोमनसवक्षस्कारे कूटम् । जं० प्र० ३५३ ।सिद्धत्था-चतुर्थतीर्थकृतशिविका । सम० १५१ । सिद्धांतसिद्धः-निष्ठिता। जं.प्र. १५८ । प्रख्यातं-प्रथिः । सर्षपाः । बृ० द्वि० २२१ । आचार्य विशेषः । तम् । नि० चू० प्र०१४ आ । सिद्ध-कहियं । नि० | निरय० ४ । चतुर्थतीर्थकन्माता । सम० १५१ । सि. चु० तृ. ८२ बा । द्धार्था-अभिनन्दनमाता । आव० १६० । सिद्धउत्त- | नि. चू० ० ७५ अ । सिद्धत्थिया-सिद्धाथिका । प्रज्ञा० ३६४ । सिद्धाथिकासिद्धगंडिया-सिद्धगण्डिका सिद्धस्थानप्रतिपादनपरं प्रकर- सर्षपप्रमाण सुवर्णकणरचितसुवर्णमणिमयीकण्ठिका । और णम् । भग ४३ । सिद्धजत्त-सिद्धयात्रः नाविकविशेषः । आव. १३७ । सिद्धपळवओ-सिद्धपर्वतः-सिद्धोपलक्षित: पर्वतः । तदषि सिद्धत्थ सिद्धार्थ:-येन बनदेवः प्रतिबोषितः । उत्त । ठायकदेवताविशेषः । उत्त. ३२१ । सिद्धापर्वतः ११७ । सिद्धार्थ:-वीरविभोर्मातृस्वस्रयः । आव० अष्टापदः । उत्त० ३२१ । १८८ । सिद्धार्थ:-क्षत्रियकुण्डग्रामे क्षत्रियः । आव | सिद्धपिण्ड:- । ओघ० १६८ । १७६ । सिद्धार्थ:-मध्यमायां वणिग । आव. २२६ । सिद्धपुत्रः । आव० ३६९ । सिद्धपुर:-प्रोत्साबाराणकलपे विंशतितमसागरोपमस्थितिकं विमानम् । तिकीबुद्धो दृष्टान्ते शतसहस्रविषये दृष्टान्तः । आव. सम० ३८ । सिद्धार्थ:-वर्द्धमानविमोः पिता गव० १६१॥ | ४२२ । जो पुण मुंडो स सिहो सुक्कंबरो सभजगो सो वम्वरवते आगामिन्यामुत्सपिणां दशमतीर्थकृत् । सम० सिद्धपुत्तो। नि० चू० तृ० ३१ था। नि० चु. प्र. १५४ । सिद्धार्थ:-सर्षपः । अनु. २४ । महवीरस्वामि- ७६ अ । नि० चू० प्र० ११५ अ । सिरप सिहं . पिता । सम० १५१ । सिद्धार्थ:-पाटलषण्डनगराधिपतिः। धरेति भारिया से भवति वा वा। नि० चू• द्वि. विपा. ७४ । काव्यपगोत्रियक्षत्रियः, वर्द्धमानस्वामिनः । ११३ आ। पिता । बाचा० ४२१ ।। सिद्धपुत्तरूव-सिद्धपुत्ररूपः । आव० ३९१ । सिद्धस्थग-सिद्धार्थक:-सर्षपः । भग ५४२ । सिद्धपुत्र-अपूर्वधावकः । ठाणा० २६० । शातताप्रतिज्ञा सिद्धत्थगजाल-सिद्धत्थगादि जेण जालेण घे पंति तं | औत्पत्तिकोबुद्धो दृष्टान्तः । नंदी० १५१ । सिद्धत्थगजालं । नि० चू० द्वि० ६१ अ । सिद्धार्थाः- | सिद्धपुत्रक-द्वौ शिष्यवान् निमितशास्त्रविद् । नंदी० १६०। सर्षपास्तेऽपि येन जलेन गृह्यन्ते तरिसद्धार्थकजालम् । सिद्धम गोरम-सिद्धमनोरम:-द्वितीयदिवसनाम । जं. प्र. बृ० द्वि० २२१ अ। ४६० । द्वितीयदिवसनाम । सूर्य० १४७ । सिद्धत्थगाम-गोशालकविहारभूमिः । भग० ६६४ ।। सिद्ध मन्त्रा-आर्यखपुटवत् विद्यासिद्धः । दश० १०३ । सिद्धत्थपुरं-सिद्धार्थपुरं प्रथमशरदि स्थानम् । आव | सिद्ध शिला-यत्र विधायानशनं जग्मुः-शोभनां गति वा२१२ । सिद्धार्थपुर-श्रीमहावीरविहारभूमी । आव० | चंयमाः सा । अनु. (?)। आव० ५ । उत्त० ७२ । २२० सिद्धार्थयुरम् । बाव. आव० २१४ । सिद्धार्थपुरं- | सिद्धसाधनं- । विशे• ९७७ ।। श्रेयांसनाथस्य प्रथमपारणकस्थानम् । आव० १४६ । सिद्धसिल-सिद्धर्शलम् । बाव. ४३७ । सिद्धस्थय-सिद्धार्थक भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६।। सिद्धसिला-सिद्धशिला । आव० ६८५ । सिद्धार्थक सपाप्रमाणस्वणकणरचितसुवर्णमणिमयम् । जं. सिद्धसिलातल-पत्र साधवरतपःपरिकमितशरीराः स्क यमेव गवा भक्तपरिज्ञाद्यनशनं प्रतिपन्नपूर्वाः प्रतिपयले सिद्धस्थवण-सिद्धार्थ वनं-बनविशेषः । आव० १८६ ।। प्रतिपत्स्यन्ते च तत् सिद्धशिलातलम् । अनु० २० । सिद्धार्थवन-ऋषमप्रभोदिक्षावनम् । आव० १३७ । सिद्धसेण-खमासमणो । नि० चू. दि. ६६ मा । सिद्धार्थवनम् । भग• ३६ । रवामासमणो पुठवद्धस्स भणियं । नि० चू० तृ• ७५ प । ( ११४२) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेणायरिए ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्दकोषः, भा०५ [ सिद्धिमग्न D खमासमणो । नि. चु० तृ० ।। आ । शिखरीवर्षधरकूटनाम । ६० प्र० ३०१ । सिद्धायतन. सिद्धसेणारिए- । नि० चू० प्र० २१४ मा । कूट-एकशे लवक्षस्कारकूटनाम । जं० प्र० ३४७ । सिद्धसेणियापरिकम्म-ष्टिवादे परिकमें प्रथमो भेदः। सिद्धार्थ-महावीरपिता । विशे। १ । शाता० १२८ । सम. १२८ । सिखश्रेणिकापरिकर्म । नंदी० २३६ । । सिद्धार्थकम्मखरी-सर्षपनालिका । दश० १५५ । सिद्धसेन-खमासमणो । नि० पू० तृ. २६ अ । सिद्धालए-सिद्धक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नतयोपचारतः सिद्धानामासिद्धसेनाचार्यादयः-। नंदी. १३४ । लयः, सिद्धालयः, प्राग्भारायाः पञ्चमं नाम । प्रशा. सिद्धा-सिद्धा:-भगवन्तोऽहतः, उत्पन्नकेवलज्ञाना न तु सिद्धाः सिद्धिगताः तेषां वचनयोगासम्भवाद । जं.प्र. | सिद्धालत-सिद्धानामाश्रयत्वात् सिद्धाययः । ठाणा. ९४ । सिद्धा:-ज्ञानसिद्धाः । अनु० १६२ । ४४० । सिद्धाइगुणा-सिद्धानामादो-सिद्धत्वप्रथमसमय एव गुणा: | सिद्धावास-सिद्धयावासः मोक्षवासनिबन्धनत्वम् । अहिंसा. सिद्धादिगुणाः । सम० ५५ । सिद्धानामादित एव गुणाः | याश्चतुस्त्रिंशत्तमं नाम । प्रभ० ६६ । सिद्धादिगुणाः । प्रश्न. १४६ । सिद्धानां वा आत्यन्तिका | सिद्धि-सिद्धिः अशेषसंसारिकप्रपञ्चरहितस्वमावं अशेषद्वन्द्वो. गुणाः सिद्धातिगुणाः । प्रभ० १४६ । सिद्धादिगुणाः, | परम लक्षणा वा । अणिमालघिमामहिमाप्राकाम्यामीशिस्वं सिद्धस्यादिगुणाः युगपद्भाविनो न क्रममाविन इत्ययः । वशित्वं प्रतिघातित्वं कामावसायित्वमैश्वर्यलक्षणा । आव० ६७३ । सिद्धातिगुणाः संस्थानादिनिषेधरूपाः । सूत्र० ४६ । सिद्धिः-सिद्धक्षेत्रस्य प्रत्यासनत्वात् । ईष. उत्त०६१८ । सिद्धादिगुणा:-सिद्धा:-सिद्धिपदप्राप्तास्ने- प्रारभारायश्चतुर्थ नाम । प्रज्ञा० १.७ । सिद्धयन्तिषामादी प्रथमकाल एवातिशायिनो वा गुणाः । उत्त. निष्ठितार्था भवन्त्यस्यां प्राणिन इति सिद्धिः लोकान्त. ६१८ । क्षेत्रलक्षणा । बाव०४०६ । लोकारक्षेत्रलक्षणा । दश. सिद्धाइसयगुण-सिद्धाति शयगुणा: सिद्धानामतिशयगुणा न १। सिद्धिः-सम्बन्धवाचकः इष्टार्थसम्बन्धः। दश०६३॥ कृष्णा न नीला इत्यादयो येषां ते । उत्त० ५८६ । । सिद्धिः-लोकान्तक्षेत्रलक्षणा । जीव० २५६ । सिद्धिःसिद्धान्त-श्रुतस्येकाथिकम् । विशे० ४१६ । अशेषकमांशापयमेनात्मनः स्वरूपेऽवस्थानता । प्रज्ञा. सिद्धायतण-सिद्धायतनम् । राज. ९४ । सिद्धायतन- ६०४ । सिद्धिः-अणिमाद्यष्टप्रकाराः । सूत्र. २६४ । सुधर्मासभायां उत्तरपूर्वस्यां स्थानम् । जीव. २३३ । सिद्धि:-परलोकः । सूत्र. १६.। सिद्धिः-अशेषकर्मसिद्धायतनम् । जीवा. ३५८ ।। च्युतिलक्षणा। सूत्र० ३१ । सिद्धि-कृतकृत्यता । प्रभा सिद्धाययण-सिद्धानि-शाश्वतानि सिद्धानां वा शाश्वती- १३३ । सेधनं सिद्धि-हितार्थप्राप्तिः । आव ७६.। नामहत्प्रतिमानामायातनं स्थानं सिद्धायतनम् । प्र० • इसस्त्राग्भारायाः पञ्चमं नाम । सम० २२ । ७७ । सिद्वायतनं सिद्धानि-शाश्वतानि सिद्धानां वा | सिद्धिगंडिया-सिद्धिस्वरूपप्रतिपादनपरावाक्यपद्धतिरोपशाश्वतीनामहत्प्रतिमानामायतनं स्थानं सिवायतनम् । पातिकप्रसिद्धा । भग० ५२१ । ठाणा- २३२ । । मिद्धिगहनामधेयं-सिद्धयन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति यस्या सिद्धाययणकूड-मेरूत उत्तरपश्चिमायां सिद्धायतनकूटम् । सा सिद्धिः सा चासो पमनस्वाद्गतिश्च सिद्धिगतिस्तदेव जं.प्र. ३१३ । सिद्धायतनकूटं- निसढवक्षस्कारे कूटम् ।। नामधेयं-प्रशस्तं नाम यस्य तत्त या सिद्धिपतिनामधेयः, जं० प्र० ३०८ । सिद्धायतनकूट-विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वते महावीरः । भग० ७ । कूटम् । ज० प्र०३५५ । सिद्धायतनकूट-पपकूटवक्षस्कारे सिद्धिगती-सिद्ध श्वासो गतिश्चेति वा सिद्धिगतिः । ठाणा०। कूटम् । जं०प्र० ३४६ । सिद्धायतनकूट-चित्रकूटवक्षः ३३४ । स्कारपर्वते कूटम् । जं० प्र० ३४४ । सिद्धायतनकूटं- ! सिद्धिमग्ग-से धन सिद्धिः-हितार्थप्राप्तिस्तरमार्गः सिद्धि (१९४३) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धिमूल ] प्राचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [सिय - मार्गः । ज्ञाता० ४९ । हितार्थप्राप्त्युपायः । भय० ४७१। शिल्पः तूर्णनसीवनप्रभृतिः पिण्ड० १२६ । आचर्योपदेसिद्धिमल-चरणकरणम् । आव. ५३३ । शजं शिल्पम् । ६०प्र० । ।३६ । रहगारचुनगारादि । सिद्धिवरा-सकलकर्मक्षयलभ्या भवसिद्धिरिति । प्रभ. नि० चू० द्वि. ४४ । शिल्प-चित्रपत्रच्छेदादिविज्ञा नम् । उत्त. ४२.। शिल्पं-अङ्गमईनादि । औप. सिद्धिविग्गहगई-सिद्धावविग्रहेण-अवक्रेण गमनं सिद्धय- ६५ । शिल्पं चित्रादि । प्रभ०६४ । शिल्प-साचार्यक विग्रहगतिः । ठाणा. ४९७ । चित्रकर्मादि । प्रश्न. ११७ । शिल्पं-क्रियासु कौशलम्। सिद्धो सिद्धिः-सिध्यन्ति-कृतार्था भवन्ति यस्या सा| जीवा. १२२ । सिद्धिः, सा च यद्यपि लोकाग्रं, तत्प्रत्यासत्त्येषत्प्रा- | सिप्पसंपूड संठित-सुक्तिकासंपुटसंस्थानसंस्थित:-उद्वेधनग्माराऽपि । सिद्धिः-कृतकृत्यः, लोकाग्रमणिमादिका । ललस्य जलवृद्धि जलस्य चकत्रमीलनचिन्तायो शुक्तिकावा । ठाणा• २४ । सिद्धयन्ति तस्यामिति सिद्धिः । संपुटाकारसाहश्यम् । जीवा० ३२५ । ठाणा. ४४० । प्रसिद्धिः विपक्षे दोषदर्शनं सिद्धि: । सिप्पसय-शिल्पशतं. विज्ञानशतम् । जं. प्र. २५८ । व्य० वि० १२८ आ । सिद्धिः-यद्यपि परमार्थत: सक- शिल्पशतम् । जं० प्र० १६६ । लकमक्षयरूपा सिद्धाधाराकाशरूपा वा तथाऽपि सिद्धा- | सिप्पा-शिल्या-नदीविशेषः । बाव. ४१६ । धाराकाशदेशप्रत्यासन्नत्वेनेषप्रारभारा पृथिवी सिद्विरुक्ता। सिप्पि-शिलि-: । प० द्वि० ३४३ वा । शिल्ली- कुम्भ: भग० ११६ । कारादिकः । बोप० ४ । सिद्धोपहूतं. । व्य० द्वि० ३५३ था । | सिप्पिय-तणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । शक्तय: । उत. सिध्मः-अष्टम भुढकुष्टः । प्रश्न १६६ । शुद्रकुष्टः । ६९५ । वनस्पतिकायविशेषः । भग० ८०२ । आचा० २३५ सिप्पिसंपुडा सपुटरूपा शुक्तिः । द्वीन्द्रियविशेषः । जीवा. सिनाय-स्नातका, निग्रन्थपञ्चके चतुर्थः । व्य. दि. ४.२ | ३१ । द्वान्द्रियविशेषः, संपुटरूपा: शुक्तयः । प्रज्ञा० ४१॥ सिप्रा-उज्जैन्यां नदी । नंदी. १४५ । सिन्धु-महानदी । ठाणा० ७५ । कूटविशेषः । ठाणा० सिबलि-मुद्रादीना विध्वस्ता फलि: । बाचा० ३५४ । ७१। सिबिआ-शिबिका-कुटाकारणाच्छादिता जम्पान विशेषः. सिन्धुराज-गर्भाधानपरिसाटनरूपमूलद्वारविवरणे राजा । पं. प्र. ३० । जम्पानविशेषरूपा उपर्याच्छात्तिा को पिण्ड० ४५ । ठाकारा । जं. प्र० ३७ । वषय-अभिन्नवस्त्रप्रावरणे दृष्टान्तः । बृ० त०२५ सिबिया-शिबिका- कूटाकारणाच्छादिता जम्पान विशेषः । जीवा० १८६, २८२ । शिक्षिका जम्मानविशेषरूपा सिन्धसौवीर-उदायनराज्ञो: जनपदः । प्रभ०८९ । उपर्याच्छादिता कोष्ठाकारा । जीवा. १९२ आचा० । सिन्न-विक्षन्तः । ओघ ९६ । ४२३ । शिविका । आव०३६६ सिमे-सीमानि ।। सिप्प-स्थावरकायः । ठाणा. २९२ । शिल्प-तर्णनादि | ग. । साचार्यकं वा । ठाणा० ३.४ । शिल्प-रथकारकर्मसिय-प्रशंसाऽस्तित्वविवादविचारणाऽनेकाम्तशंषय प्रभादिण्यप्रभृतिः । बृ० तु. ९२ मा । शिल्प-यदाचार्योपदेशजं| थेषु । प्रज्ञा. १८१ । स्याग-कदाचित् । आचाग्रन्थनिबम्पादोपजायते सातिशयं कर्मापि तश्छिल्पम् । ३०५ स्यात्- कश्चित् । जीवा० । १८३ । स्यातर भाव. ४०५ । शिल्पं-आचार्योपदेशप्राप्यं चित्रादि । कद विद् । भग. ३५ । स्यात नियातोऽनेयान्तद्योती। प्रभ० ६६ । शिल्प-आवर्जक, प्रीत्युत्पादकम् । पिण्ड ० | प्रज्ञा ० ५६६ । स्यात्-कश्चित् । प्रशा. २४५ । सितं१२६ । शिल्प-कुम्भकारकियादि । दश० २४६ ।। धवलम् । जीवा० ९७५ । सितम् । भग• ६२ ( १९४४) आ । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिलाविज्जइ ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ५ [ सिरिगुत्त सितं शुक्लम् । सूर्य ० २६३ । सित:-बद्धः कर्मणा । सिरा शिरा ग्रोवाधमनिः । जीवा० ४.१ शिरा नाडी । गृहपाशेन रागद्वेषादिनिबन्धनेन वेति गृहस्थो अन्यतीथि को वा । आचा० ४३० । स्युः । भग० ७६८ । स्युर्भवन्ति । भग० ३७५ । सितं द्रव्यशस्त्रम् । आचा० ७५ । सितंचामरम् । दश० १५४ । स्यात् भवेत् । भग० ८३ । श्रितं - आश्रितम्। आचा० ७२ । सियलाविज्जइ - शीतलीयते । आव० ६२४ । सियलिया । नि० ० प्र० १८९ अ । सिया - शिवा-सदा मङ्गलोपेतम् । प्रज्ञा० ८६ । शिवासमुद्रविजयराज्ञी । उत्त ४५६ | शिवा शक्रदेवेन्द्रस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी । जीवा० ३६५ । शिवा - निरुपद्रवा । प्रभ० ७६ । शिबिका - कूटाकाराच्छादितो जम्पानविशेषः । भग० १८७ । सिताः सम्बद्धा: । आचा० ३६ | अवधारणे । नि० चु० द्वि० ७२ अ । आसंका | दश० चू० १३२ । स्यात् कदाचित् । आव० ३३९ । स्यात्कदाचित् । दश० ९४ । अवधारणे । नि० चू० तृ० १३९ अ । सिता- बद्धा । जं० प्र० ५३ । सियाग सुसाणो । नि० चू तृ० ७२ आ । सियाल - शृगालः | आव० ३५१, ८५९ । सनखपदश्चतु पदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । शृगालः - गोमायुः । प्रज्ञा० २५४ । सियालक्खइया - शृगालस्तु न्यग्वृत्योपात्तस्यान्यान्यस्थानभक्षणेन वा स्वादिता तत्स्वभावो वा । ठाणा० २७६ । सिर- शिर:- शिरोज बन्धनम् । औप० ७७ । शिरः-मस्तकम् । प्रश्न ६० । बुध्ने । विशे० ५३८ । सिरत्ताण-शिरस्त्राणं प्रहरणविशेषः । आव० ४८७ । सिर मुह - शिरोमुख:- उमुखः । प्रश्न० ४७ । सिरविसुद्ध शिरसि प्राप्तो यदि नानुनासिकस्ततः शिरोविशुद्धम् । अनु० १३२ । सिरसावत्त- शिरसाऽप्राप्तं -अस्पृष्टम् अथवा शिरसि वा बावर्त: आवृत्तिरावर्ततः- परिभ्रमणम् भग० १२७ । शिरसाऽप्राप्तः शिरसा मस्तके नाप्राप्न:- अस्पृष्टः । शिरस्यावृत्तं:- शिरसि वा आवर्तत इति । औप० २३ । सिरसोसिरि-शिरः श्रियं सर्वोत्तमां केवललक्ष्मीम् । उत्त० ४४३ । ( प ० १४४ ) प्रश्न ६० । सिराहा रुजालओणद्ध संविणद्ध - सिरास्नायुजलावनद्धसंविनद्धम । उत्त० ३२६ । सिरापाणं-शिरादर्शनम् । आव० ४२४ । सिरोवेढ - शिरसि बद्धम्य चर्मकोशस्त्र संस्कृततैलापूरलक्षण: शिरोवस्तिः । ज्ञाता० १८१ । सिरावेधो । नि० चू० प्र० १५८ आ सिरावेह - शिरोवेध:- नाडीवेधनं- रुधिरमोक्षणम् । ज्ञाता १५१ । शिरवेध : - नाडीवेध: । विपा० ४१ । सिरावेहसत्ययं । नि० चू० द्वि० १८ मा सिरासयाइं धमनीशतानि । तं । सिरि-निरयावल्यां चतुर्थवर्गे प्रथममध्ययनम् । निर ३७ । श्रीः- उत्तररुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव ० १२२ । श्रीः - उत्तररुवकवास्तव्या सप्तमी दिक्कुमारी महत्तरिका | जं० प्र० ३६१ । सिरिउत्त- जम्बूभरते आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां पञ्चमवकी । सम० १५४ । सिरिए - श्रीयकः - योग संग्रहे शिक्षाष्ट कल्पकवंसप्रसूतस्य नवमनन्द राजमन्त्रि शकटालस्य लघुपुत्रः । अथ० ए० । सिरिओ-श्रीयक:- कलर कवंशप्रसूतशकटालघुपुत्र आव ६९३ । सिरिकंत- महाशुक्रे चतुर्दशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० २७ । सिरिकंता मरूदेवकुल करमार्या । ठाणा० ३९८ | महबेवकुलकरभार्या । सम० १५० श्रीकान्ता - परिणामि क्यामुदितोदयराज्ञी | आव० ४३० । श्रीकान्ता-अलोभोदाहरणे सार्थवाही । आव० ७०१ | श्रीकान्ताषष्ठ कुलकरपत्नी । आव० ११२ । श्रीकान्ता दत्तराजकम्या । विपा० ६५ । श्रीकान्ता, पुष्करिणीविशेषः । जं० प्र० ३३५,३६० । सिरिकंदलग - एक खुर विशेषः । प्रज्ञा० ४५ । एक खुरचतु - पदः । जीवा० ३८ । सिरिकूड - श्रीदेवीकूटम् । जं० १५० २९६ । सिरिगुत्त - श्री गुप्तः अन्तरञ्जिकायामाचार्यः [ । विशे० ( ११४५ ) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिगुत्ता ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [सिरिसोम. ६६ । परप्पवादि । नि० चू०४० ९८ आ। श्रीगुप्तः- सिरिमती-श्रीमती वनजङ्घभार्या श्रेयांसजीवः । (?) । षडुलू के कुत्रिकापणचर्चरीकारकः । दश. ५८१ सिरिमहिअ-महाशुके चतुर्दशसागरोपमस्थितको देवः । तिरिगुत्ता-श्रीगुप्ता:-अस्तरञ्जिकायां आचार्याः । उत्त सम० २७ । १६८ । श्रीगुप्ता:-आचार्यविशेष: बाब० ३१८ । सिरिमहिआ-श्रीमहिता-पुष्करिणीनाम । ०५० ३६०. सिरिधर-धोगह-माण्डागारम । ज्ञाता०२१९ । श्रीगृहमा ३३५ । बाव. ३५७ । श्रीगृह-भाण्डागारम् । आव०६६ । सिरिमाल-श्रीमालं नगरविशेषः । आव २६६।। ज्ञाता० ५३ । सिरिमालो-श्रीमाली-इन्द्रदत्तराजस्य ज्येष्ठपुरः । उत्त०. सिरिघरिए-श्रीगृह - भाण्डागारम् । विशे० ६१५ । । १४६ । श्रीमालि: तितिक्षोदाहरणे इन्द्रदत्तराज्ञो ज्येष्ठसिरिघरिओ-लोभोदाहरणे . जिनदत्तः श्रावकस्थापितः | पुत्रः । भाव० ७.३ । श्रीमालिः इन्द्रदत्त राज्ञो ज्येष्ठश्रीगृहिकः । आव० ३९८ । कुमारः । आव० ३३३ ।। सिरिचंद - जम्ब्व रखते आगामिन्यामुत्सपिण्यां षतीर्थकृत ।। सिरियंदलग-श्रीकग्दलक:-एकखरविशेषः। प्रभ७॥ सत्र. १५४ । सिरिय-विनस्पतिकायविशेषः । भग०८०३ । सिरिचंदा-श्रीचन्द्रा पुष्करिणीनाम । जं. प्र. ३३५, / सिरिया-मरनाथमाता । सम० १५१ । ३६० । सिरिरुक्खा-श्रीवृक्षः- वत्सः । जीवा० २३४ । सिरिलिया-श्रीनिलया-पुष्करिणोनाम .प्र. ३६. । सिरिलि सिरिल:-वनस्पतिविशेषः । जीवा० २७ । अनसिरित-श्रीयक:-नन्दराजस्य अमात्यः । उत्त० १०५ ।। सकायबिशेषः । भग० ३.० । सिरितिलय-विमानविशेषः । मर० । .. सिरिलो-कन्दविशेषः । उत्त• ६६१ ।। सिरिदाम-श्रीदामः-अनेकरत्नखचितं दर्शन सुभगम् । आव. सिरिवच्छ-अच्युतकल्म एकविंशतिसागरोपमस्थितिक देव.. १८० । विमानम् । सम० ३९ । श्रीवत्स:-सुष्ठुलाञ्छनः । सिरिदामकंड - अच्युते विमान, यत्र एकविंशति स्थितिको समः १५८ । श्रीवत्स-यानविमानचिकुव को देवः । जं. देवः । सम, ३६ । प्र० ४०५ । श्रीवत्सा-तीर्थङ्करहृदयेऽवयव विशेषाकारा । सिरिदामगंड-श्रीदामगण्डम् । आव० १२४ । औप० १० । श्रीवत्स:-अष्टमङ्गलेषु षष्ठः । जं. प्र.. शिरिदेवी-जम्बूभरते पञ्चमचक्रिमाता । सम• १५२ ।। ४१९ । श्रीवत्सः । प्रश्न ७७ । श्रावच्छ:-लाञ्छन. सिरिधराओ- । मग. ४७२ । विशेषः । जं. प्र. १११। श्रीवत्सः । औप० ५२ । सिरिनिलया-श्रोनिलया-पृष्करिणोनाम । ज० प्र० ३३५॥ | श्रीवरम:-जिनप्रतिमायाँ प्रसिद्धो वृक्षोऽन्तः सुप्रमाणोत्तसिरिपभ-श्रीप्रभंः-विमानविशेषः । आव० ११६ । श्रीप्रभः । मांसलप्रदेशविशेषः । जं.प्र. १८३ । पुष्करोदे समूदे देवविशेषः । जीवा. ३४९ । श्रीप्रमः- | सिरिवच्छसंठाण-श्रीवत्ससंस्थानम् । उत्त० २१५। . ईशाने विमानः । आव० १६ । सिरिवणं-श्रीवन-पोलाशपुरे उद्यान दिशेषः । अन्त०२३॥ सिरिभद्दा-श्रीभद्रा-पितृदत्तगाथापतिमार्या । आव २०५।। सुप्रतिष्ठतनगरम् । अन्त० २३ । श्रीवन-भद्दलपुरे सिरिभूई-जम्बूभरते आगामिन्यामुत्सपिणां षष्ठचक्रवर्ती। उद्यानविशेषः । अन्त. ४ । सम० १५४ । | सिरिसंभूआ-श्रीसंभूता-षष्ठमरात्रिनाम । जं० प्र० ४६१ । सिरिमंदिरकारउ-नपुंसकविशेषः । नि० चु० दि. ३२ सिरिसंभूता-षष्ठमरात्रिः । सूर्य० १४७ । आ। सिरिस-सप्तमतीर्थकृच्चत्यवृक्षः । सम. १५:५ सिरिमाइ-श्रीमती-मायोदाहरणे कोशलपुरे नन्दनेभ्यपुत्री, सिरिसोम-जम्बूमरते आगामिन्यामुत्सपिण्या सप्तमचकी। या पूर्व मवे धरपतिष्ठिपत्नी। आव० ३९४ । । सम• १५४ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिसोमनस ] सिरिसोमनस- महाशुक्र चतुर्दशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० २७ । 'सिरिहर - श्रीधरः - पुष्करोदे समुद्रे देवविशेषः । जीवा० ३४९ । - सिरी- पद्महदे श्रीः | ठाणा० ७३ । श्रीः- शोभा । जीवा० १६१ । पोलारापुरे विजयस्य राज्ञी । अन्त० २३ । श्री:- वैभ्रमणदत्तराज्ञी । विपा० ८२ । श्री: - gमचक्रमाता । अव० १६१ | श्री:- कुन्थुनाथमाता | आव० १६० । श्री: - वीरकृष्णमित्रराशी । विपा० ६५ । श्री:वणिग्ग्रामे मित्रराज्ञी । विपा० ४५ । सिरोआ - श्रिया वचनार्थशोभया ठाणा० ४६४ । सिरोए - श्रीक:- मित्रराजस्य महाणसिकः । विपा० ७९ । श्रीयकः । उत्त० १०४ । 'सिरीदाम - श्रीदाम: - मथुरायां राजा । विपा० ७० । श्री मः । ज्ञाता ० १२५ । सिरीदामगंड-श्रीदाम्नां शोभावन्मालानां काण्डं समूहःश्रीदामकाण्डम् । ज्ञाता० १२५ १३१ । सिरीदेवी - श्रीदेवी: अर्जुन राजकन्या । विपा० ६५ । श्री* देवी :- प्रियचन्द्रराजकन्या । विपा० ६५ । सिरोस - शिरीष:- वृक्षविशेषः । उत्त० ६१४ शिरीषंशिवाभिधानतरुकुसुमम् । औप० ५६ । पचमभवण वासिता चैत्यवृक्षः । ठाणा ० ४८७ । शिरोष:-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा ३२ । बनस्पति कार्याविशेषः । भग० ८०३ । 1 सिरीसकुसुम - शिरीषकुमं कुमुमविशेषः । प्रज्ञ'० ३६७ । सिरी कुनिचत-गिरीषकुसुमनिचय: । जीवा० १६२ । सिरीपत्र - सरीसृगः गोध दिज्ञाता० ६३ । सिरी पिव- सरीसृपः - भुपरिसर्पः प्रभ० प सिरोज शिगेज:-वालः जीवा० २७४ । सिरोधरा शिरोधरा-ग्रीवा। ज्ञाता० ९५ । सिरोवत्यो- शिरोब नि:-शरसि बद्धस्य चर्मकोजकस्य द्रव्यसंस्कृत लाद्या पुरण क्ष॥ विपा० ४१ सिलवाल शिलाप्रवाल- विद्रमम्, शिला- मुक्ताशिल दि प्रवाल विद्रुमम् । भग० ३६- ५५३ विद्रुमं । भग० ४७० | जिला - राजपट्टादिरूपा प्रवालं विद्रुमम । भग १६३ । शिलाप्रवाल:- विद्रुमः । ज० प्र० ८१. शिला | अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशभ्दकोषः, मा० ५ [ सिलिंध प्रवालं प्रवालङ्करः । जीवा ० १६१ । श्रिया युक्तं प्रवाले श्रीप्रवाल वर्णादिगुणोपेतम् । सूत्र० २९२ । श्रीलप्रवाल-परिमितविद्रुप : शिलाप्रवालम जं० प्र० २१३ । सिला-शिला दृषत् । प्रभ० ३८ | करगा । दश० चू० 1 ११६ । शिला । मर० । शिला घटनयोग्या देवकुलपीठाद्युपयोगी महान् पाषाणविशेषः । प्रज्ञा० २१ । शिला - राजपट्ट दिरूपा । भग० १६३ । शिला-विशालपाषाणः । दश० १५२ । जिला - वृषभसुता कात्यायनसगोत्रा ब्रह्मदत्तराज्ञी । उत्त० ३७६। जिला- पृथिवीभेदः । आवा० २९। शिला पाषाणात्मिका । दश २२६ । शिला घटनयोग्या देवकुनपीठाद्युपयोगो महान् पाषाणविशेषः । जीवा ० २३ जिला - मुकाशैलराजपट्टादीनाम् । अनु० २५४ । शिला दृषत् । उत्त० ६८६ । शिला पाषाण: । विपा० ७२ । शिला - प्रतिस्थिरस्वेन चरत्नम् । जं० प्र० २४३ । शिला गन्धवेषणादिका । जं० प्र० १२२ । सिलाग हत्थ-शलाकाहस्तः- शलाका सङ्घ तरुपः । १५२ । सिलागहत्थग - शलाका हस्तक:- सरिशिलाका समुदायः । सरिस्यर्णादिशल कामयी सम्माजनी । ज० प्र० ३८८ । सिलागा - शलाका- अयः शलाका विरूपा दश० १५२ । सिलाप भट्टए - गोशाल कमते पानके चतुर्थी भेदः । भग० ६ दश ३ निनावट्ट - शिलापट्ट -मनिला । ज्ञाना० २२९ । सिलावरिस - शिला वर्षः । आव ० | करगादि । नि० चू० तृ० ७० म । Di सिलवुडं शिलावृष्ट-हिमम् । दश सिलावुट्ठि शिलावृष्टि - पाषण निपतनं करकरादिशिला वर्षमर्थः । व्य० द्वि० २४ आ । सिलिका - शलाका । आव० ३६९ : सिनिद शिलिन्द:- मकुण्ड: । दश० २९३ । निधि- शिलन्धं - इषद्ररक्त वनस्पतिः । प्रज्ञा० ९१ । सिन्ध भूमिस्फोटकच्छत्रकम् । ४९ । सिलिन्ध:भूमिस्फोट: । शाता० १६० । ११४७ । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिलिधपुप्फ ] आचार्यश्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलितः [ सिवभद्द सिनिधपुरक-शिलिन्धपुष्पम् । जीवा० १६४ | शिलि- | सिवंकर - शिवकरं शिवं-मोक्षपदं तत्करणशीलं शैलेश्यव स्थागमनमिति । सूर्य ० १९७ । पुष्पं - निलवर्णपुष्पम् । प्रज्ञा० ९५ । सिलिधा - शिलः धाः - छत्रकाणि ज्ञाता० २५ । सिलिट्ठ - श्लिष्टम् । आव० ९९ । सिलिस मइगम - श्लक्ष्ण समितिगर्भः अतिश्लक्ष्णकणिकामूलदल: । जीवा० २६८ । सिलिपई श्लीपदनाम्ना रोगेण यस्य पादी शूनी शिलावन्महाप्रमाणो भवतः स एवंविधः श्लीपदी । बृ० प्र० १६० अ । मिलिपत्तो रोगो । नि० चू० द्वि० १४८ अ । सिलिया-शिलिका - किराततिक्तका दितृणरुपा । ज्ञाता० १०१ । शिलिका - किराततिक्तप्रभृतिका । विपा० ४१ । सिलिय - श्लीपदं पादादौ काठिन्यम् । आचा० २३५ । सिलुद्यय-शिलानां उतं - ऊधयं शिरस उपरि चयः सम्भवो यत्र स शिलोच्चयः । सूर्य० ७८ । सिलेच्छियामच्छ - मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ । सिलेस - श्लेषः - केन चिजतुसिक्थादि । दश० १७२ । इलेष:सर्जरस । बाचा० ५७ । श्लेषो - वज्रलेपः । भग० सिव- शिवं अशेषदूरितोपशमः । उत्त० ३४१ । भग० ५५१.५५२ । शिव:- शिवहेतुः । ज्ञाता० ७४ । शिवः सर्वाबाधारहिनम् महावीयः । भग ७ । यत्र वेलन्धरनागराजो वस्ति । ठाणा० २२६ । शिवं पवित्रम् । दश० १६५ । शिवं सा मङ्गलोपेतम् । जोवा० १६० । शिवं शिव हेतुत्वेन, अहिंसायाः सप्तत्रिंशत्तमं नाम । प्रभः ९९ । शिवं अनुपद्रव, अनुपद्रव हेतुर्खा । भग० ११९ । शिवं - सर्वोपद्रवरहितम् जीवा० २५६ । शिवः व्यन्तरधिशेषः, आकारविशेषः, आकारविशेषध से वा रुद्रः । भग० १६४ । हस्तिनागपुरे राजा । भग० ५१४ । शिव : - शिव हेतुः । भग० १२५ । शिवः - पोस मासस्य लोकोतरिकनाम । जं० प्र० ४६० । भगवत्यां पुग्दललोद्देशके अतिदेशः । भग० ५११ । शिव:मगधाजनपदे राजा । आव० ३५६ । शिव:-पश्चमबलदेव वासुदेव पिता । सम० १५२ । शिवः देवताविशेषः । जीवा० २८१ । शिवः - देवताकृपसर्गव जितः कालः । आव० ६३९ । शिव:- पुरुष सिहवासुदेवपिता । आव० १६३ । शिव:- लोकोत्तरे षष्ठो मासः । सूर्य० १५३ । भगव महाबलाधिकारे अतिदेशः । भगः ५४४ । निरयावल्यां तृतीय वर्गेऽष्टम मध्ययनम् । निरय २१,३६, २७ । शिव:- आकारविशेषधयः व्यन्तरविशेषो वा । अनु० २५ । शिवं सर्वबाधारहितम् । सम० ५। शिवंमोक्षः । सम० ६२ । सुभिक्षं सुचविहारं च । बृ तृ० १५१ अ । शिवो- महादेवः । ज्ञाता० १३४ । शिववं जरामरणाभावेन । उत्त० ५१० । सिवकोदुग - शिवकोष्टकः - तगरायामाचार्यं शिष्यः सदुपवहारकाचार्य: । व्य० प्र० २५६ आ । सिवग-शिवक:- द्वितीयो वेलन्धरनागराजः । भुजगेन्द्रो जीवा० ३११ । भुजगराजः सिवदत्त शिवदत्तः । उत्त० ३५० । शिवदत्तः- नैमित्तिक. विशेषः । आव० २०५ । सिवदत्ता - शिवदत्ता - शिवदत्तपुत्री । उत० ३८० । सिव भद्द - मगवस्य मुदायनवक्तव्यतायां केशिकुमार राज्या ३६६ । सिलेस गुलिया - श्लेष्म गुटिका । अनुत्त५ । सिलेसद्द - श्लेषार्द्र-वज्रलेप द्युपलिप्तं स्तम्भकुड्य' दिकं यदुद्रव्यं तस्निग्धाकारतया श्लेषाद्रम् । सूत्र० ३८६ । सिले मिस्सा- श्लेष द्रश्य विमिश्रितम् । प्रज्ञा ३४ । सिलोग- श्लोक:-तसरस्थान एव श्लाघा । ठाणा० ५०३ । लोकः । दश० २७४ | श्लोक:- छन्दविशेषः । दश० २५६ | श्लोकः - इलाघा भग ६७३ । श्लोकः । आव० ७९३ । तरस्थान एव श्लाघा । दश० २५७ सिलोनद्ध - श्लोकार्द्धम् । आव० ७९३ । सिलाम- शिलानां पाण्डुशिलादीनामुध्वं शिरस उपरि चयः सम्भवो यत्र स शिलोच्चयः, मेरुनाम । जं० प्र० ३७५ । सिलोयं । ज्ञाता० ३८ । तिल - बलमयम् । बृ० तृ० ६९ । सि ( (ख) लिम-संयमनरज्जु । उत्त' ५५१ | सिल्हक - तुरुष्कम् । प्रज्ञा० ८७ । ( १९४८ ) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवभूइ ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०५ [सिहलि मिषेके अतिदेशः। भग० ६१८, ६१६, ५४८ । शिवधा. सूत्र० ७६ । दमघोषपुत्रः । ज्ञाता० २०८ । एण्योः पुत्रः । भग० ५१४ । सिसूणा- । नि० चू• द्वि० ३३ अ । सिवभूइ-शिवभूति गजसेवकः, बोटिकमतप्रवर्तकः । विशे० | सिस्स-शिष्यः-विनेयः । प्रभ. ३८। शिष्य-उपाध्याय १०२०। स्योपासकः। जीवा. २८०। शिष्यः-उपाध्यायस्योपासक: सिवभूई-शिवभूति:-रथवीरपुरे सहस्रामल्लः, बोटिकमूल. शिक्षणीय इत्यर्थः । जं० प्र० १२२ शिष्यः-स्वहस्तपुरुषः । उत्त० १७८ । प्रवाजित उपसम्पदागतः प्रातीच्छकश्च । आचा० २४६ । भूतिः सहस्रमल बोटिकमतप्ररूपकः। आव. | सिस्सिरिलि-वनस्पतिकायिक । जीवा०२७ । । सिस्सिरिली-अनन्त काय: । भग० ३०० । कन्दविशेषः। सिवमह महोत्सवविशेषः । ज्ञाता० ३९ । शिवमहः- | उत्त० ६९१ । शिवस्य प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवविशेषः । जीवा. | सिहडिणो-छिडियो-शिखावन्तः । ज्ञाता० ५७ । २८१ । सिह-शिखा । आव० २९५ । सिवरुव-शिवरूप-मव्यरूपम् । आव २१८ । | सिहर-शिखर:-पर्वतोपरिवत्तिकूटः । ज्ञाता• ६३ । श्रीधरः सिलिग-शिवलिङ्गम् । उत्त० २२० । शोभावान । शाता० ६५ । शिखर:-समुद्रमध्यवत्तिगोसिबसेण-जम्वरवते दशमतीर्थकृत । सम. १५३ । - स्तूपापिर्वतः । प्रभ६६ ।। । सिवा-शकदेवेन्द्रस्य द्वितीयाऽयमहिषी। भग० ५०५ । सिहरभूय-शिखरभूतः-शेखरकल्पः । प्रभ०१५२ । चतुर्दशतीर्थकर्तुः प्रथमा शिण्या । सम० १५२ । नमिः | सिहरि-शिखरो-कूट विशेषः । ठाणा० ७२ । शिखरी । नाथस्य माता । सम० १५१ । शिक्षायोगदृष्टान्ते हैहय | ठाणा० ७०। कुलसम्भूत वैशालिकचेटकचतुर्थी पुत्री। आव० ६७६ । सिहरिकूड-शिखरीवर्षधरनाम्नाकूट: । जं० प्र० ३८१ । शिवा- शगालो । अनु० १४२ । शिवा-नेमिनाथमाता । | सिहरिणी-शिखरिणी-गुडमिश्र दधिः । प्रभ० १५३ । बाव. १६० । शिवा-धर्मकथायां नवमवर्गऽध्ययनम् ।। शिखरिणी-पानकविशेषः । आचा० ३३० । माजिता । जाता० २५३ । शिवा-सदामङ्गलोपेता । जं. प्र.७६ ।। आचा० ३३६ । नि० चू० वि० ४० था। शकदेबेन्द्राममहिषीना राजधानी। ठाणा०२३१ ।। | सिहरिणि-चतुभिर्गन्धद्रव्यराधिक्येनोपजनितवासा कूरमध्ये सिवादेवी-शिवादेवी-प्रद्योतस्य चतुर्य रत्न, देवी । आव. | प्रक्षिप्यमाणा शिखरं बध्नाति सा शिखरिणी । वृ० वि० ६७३ । १७८ अ । सिवानन्दा-आनन्दश्राद्धस्य पत्नी । उपा. २ । सिहरी-शिखरी शिखरवान् गिरिः । भग: २३८ । सिवासह-शिवाशन्दः । वाव. ४०० । शिखरीनामवर्षधरपर्वतः । जं. प्र. ३८१ । शिखरीसिविया-शिक्षिका-कूटाकाराच्छादित जम्पानरूपा । भग० शिखरसमन्वितः । नंदी. २८८ । शिखरी-वृक्षस्तरसंस्था५४७। संस्थितानि सर्वरत्नमयानि सन्नीति तद्या चिखरी, सिव्वे-सीवितुम् । आव० ४२१ । कोऽर्थः-अत्र वर्षधरतो यानि सिखायत नकूटानीन्ये कादशसिसिर-शिशिरः-माघमासस्य लोकोत्तरीयनाम । बं. कूटान्युक्तानि तेभ्योऽतिरिक्तानि बहूनि शिखराणि वृक्षा, प्र. ४९० । शिशिर:-सप्तममासस्य लोकोत्तरनाम । कारपरिणतानि सन्तीति । जं० प्र० ३८१ । विरीसूर्य० १५३ । शिशिरः-शीतकाक्षः । ओग० १४५ । शिखरवानु पर्वता । अनु० १७१ शिखरा-शिवरयुक्तः सिसुनाग-शिशुनाग:-लस: । व्य. दि. २८८ मा । पर्वतः । प्रज्ञा० ७१ । शिशुनागो-गण्डुपदोऽलसः । उत्त० २४६ । | सिहल-म्लेच्छविशेषः । प्रशा० ५५ । सिसुगाल-शिशु गल:-माद्रीसुतः । अवगतये दृष्टान्तम् । | सिहलि-सिंहलो:-धात्रिविशेषः । ज्ञाता० ३. ४१ । (११४६) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिहि ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ सीमंकर सिहि-मयूर:-अग्निश्च । भग० ३०६ । मध्ययनम् । उत्त० ६१६ । शीता:-अनुकूला: परिषहा सी-सूत्रत्वेनाकारलोपात असि-भवति । उत्त० ३३६ । उष्णा:-प्रतिकूलास्तानाश्रित्य यकृतं तत्सीतोडणीयम् । स्त्यायते-कठिनीभवत्यस्मिन् जलादीति शीतम् । उत्त. ठाणा० ४४४ । शीतोष्णीयं-आचारप्रकल्पस्य तृतीयो भेदः । आय० ६६० ।। सोअ-शीत:-अनुकूलः परीषहः । ठाणा० ४४४ । सीओसणीअं-आचाराङ्गस्य तृतीयमध्ययनम् । सम० सी.घरं-शीतगह-जलयन्त्रगृहम् । व्य. द्वि. ३९८ । ४ । सोअलु धर्ममि जो पमायइ अत्थे वा । आचा० १५० । सोत-शीत:-देहस्तम्भादिहेतु: । प्रालेयायाश्रितः । अनु० सोअसोआ-शीतस्रोता महानदी । जं० प्र० ३५७ । ११० । शीवं-सुवम् । आचा० १५० । सोआ-सोना:-सीताभिघाना पृथिवी । उत्त० ६८५ । सोतभारा-दगवातो । नि० चू० प्र० २३२ मा ।। शीताकूट-शोतासूरीकूटम् । ज० प्र० ३७७ । सीता- सीतल-शीतलः । सूर्य ० २८७ । सिद्धिभूमेद्वितीयं नाम । आव ४४२ । सीता-शिबिका सीता-गीता-महानदी । ठाणा० ७४ । हलपद्धतिदेवता। विशेषः। आव०१४२ । सोता-पुरुषोत्तमवासुदेवमाता। बृ० द्वि. १९६ अ । क्षेत्रम् । बृ० प्र० ४८ । आव १६२ । सीता-पाश्चात्यरुचकवास्तध्याऽष्टमी दि. | सीतामुहवणसंड-सीतायां वनखण्डः । ज्ञाता० २४२ । कुमारो महत्तरिका । जं० प्र० ३६।। सीतासोतोदाप्रवाह- । आचा० २२० ।। सीआमुहवण-महाविदेहे वर्षे गीताया महानद्या उत्तर. | सोती-दब्वे णिस्सेणी भावे संजमं सीती । नि० चू० दितिशीतायाः मुखे समुद्र -वेसे वन शीतामुखवनम् । द्वि ५३ आ। ज० प्र० ३४७ । सोतोदए-शीतोदकं नदीत डागावटवापीपुष्करिण्यादिषु शीत. सोई - नि.श्रेणिः । पिण्ड० ३८ । परिणामम् । प्रज्ञा. २८ । । सीईभूओ-कषायाग्ग्युपशमात भीनीभूनः। आचा० १५०1 सोतोदगं- । नि. चू० द्वि० ६६ । सीउंढी-सिकंढी-वनस्पतिकायिक भेदः । जीवा० २७ । सीतोदप्पवायद्दह-निषधाच्छीतोगनिपतति स शीदा . .वनस्पतिकायविशेषः । भग० ८०४ । प्रपातहरः, शीताप्रपात ह्रदमानः । ठाणा० ७५ । सोउसिण-स्वां-स्वकीयामुष्णा तेजोलेस्या। भग० २८२।। | सीतोदा-शीतोदा-प्रवरा नदी । प्रभ० १३५ । शीतोदासोओ-शीनाकूट-शीतासहिमशकूटम् । जं०प्र० ३३७ । महानदी । ठाणा० ७४ । सीओअदाव-ठातोदाद्वीपः । ज. प्र. ३०७, ३०९ सीत्कार- । विशे० २७४ । सीओअप्पवायकुण्ड-शीतोदापातकुण्डः जं० प्र० ३०७, सीदति-भ्रश्यति । प्रश्न १२६ । सीधु -सीधुं गुडधात की सम्भवं मद्यम् । विपा. ४९ । सीओआ-सीतोदा । जं० प्र० ३०७ । सीधं- गुडधातकी भव । उपा० ४६ । आचा० ३३० । सीओआकूड-गीतोदान दी पूरी कूटम् । जं० प्र० ३ ८। ज्ञाता० २०६ । शीतोदाकूट-विद्युप्रभवक्षस्कारे कूटम् । जं० प्र० ३५५ । साभर-य उल्लपन परम् । व्य. प्र.३३६अ। लापन सीओदा-शोतोदक-नदीतडागादिषु शीतपरिणामम । लालया सिंचति । व्य० प्र०२६० बा । अक्षरा. जीवा० २५ । दिभ: समा • अनु० १३२ । अक्षरादिभिः समा । सीओदग शीतोदक-अप्रासुकोदकम् । सूत्र. ३६१ ।। प्रा० ३६६ । शीतोदक-कायः । आचा० ३४२ । सीमकर-सीमङ्करः-तृतीय कुलकरनाम । जं.प्र. १३२॥ सीओतणिज-शीतोष्णीयं आचारप्रकल्पे प्रथमश्रनस्कन्धरा भरत आगामिन्या सण्या प्रथमकलकरः । ठाणा. ततीयमध्ययनम् । प्रभ०१४५ । बाचाराङ्गस्य तनीय ५१८ । जम्ब्च व आगामिन्य मुमपिण्यां द्वितीयकताः । १९५० ) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमंठेऊण ] करः । सम० १५३ । सोमंठेऊण-विक्रीय | बृ० द्वि० २३० । सीमंतक मध्ये नरकादासः । ठाणा० ३६७ । सीमंत कष्पभ-सीमन्तकस्य पूर्वस्थां नरकावासः । ठाणा० ३६७ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ सीमंतगमज्झिमओ-सीमन्तकस्य उत्तरस्यां नरकावासः । ठाणा० ३६७ । सीमंतगावसि - सीमन्तकस्य दक्षीणस्यां नरकावासः । ठाणा० ३६७/ सीमंतावंत - सीमन्तकस्य पश्चिमस्यां नरकावासः । ठाणा ६६७ । सीमंतोन्नयणं-सीमन्तोन्नयनं गर्भस्थापनम् । जीवा० २८१। सीमंधर - सोमन्धरः चतुर्थ कुलकरनाम । जं० प्र० १३२ । भरते आगामिभ्यामुत्सरियां द्वितीयः कुलकरः । ठाणा ५१८ जम्ब्वैरावते आगामिन्यामुत्सपियां तृतीयः । कुलकरः । सम० १५३ । सीमंधरसामि सीमन्धरस्वामी- निगोदस्वरूप प्ररूपकार्यरक्षि तदेशकः । आव० ३०६ । सीमन्धरस्वामी - शौचोदाहरणे सत्य पर्याय पृच्छायां पूर्वविदेहे थंङ्करः । आव० ७०६ । सीमच्छेदा-सत्यप्यमाणेण उवग्गहे वट्टति ते य बहुगच्छा | जति समठिययातो साधारणं खेत तत्थ सीमच्छेदेण वसिव्यं इमो सीमच्छेदो । नि० चू० तृ० ५८ आ । व्य० द्वि० ३७३ अ । सीमन्तक- एहशाभिधानो नरकेन्द्रकः । जीवा० १० । नरकविशेषः । आचा० ३८ | सीमान्तकः - इन्द्रसक्कसी मन्तकः । सम० १३५ । तन्नामा नरकः । उत्त० २७५ । सीमन्धरः-इकारापरनाम । उत्त० ३९४ । सीमन्धरस्वामी - वर्तमान जिनः । जीवा ३ । ऋषिधार कायद्दष्टान्ते तीर्थंङ्करः । दश० २७९ । सीमा-विधिः- मर्यादा आचरणा च । आव० ६३६ । सीमाकार - ग्राहजस्तुभेद: । सम० १३५ । सीमागार - सीमाकार:- ग्राहविशेषः । प्रश्न० विशेष: । प्रशा० ४४ । जीवा० ६६ । सीमाविवखंभ - सीमाविष्कम्भः । सूर्य० १७६ । सीमानक्षत्र भुक्तिक्षेत्र विस्तारः ७ । ग्राह विक:- पूर्वापरतश्चन्द्रस्य ! सीया सम ७६ । २३७ । सोय- शीतं शिशिरः । उत्त ८२ । भग० शीतं - तृतीयः परीषहः । बाव० ६५६ | शीतं किविन्यूनम् । सूर्य० ५८ । शीत-सोपचारवचः। उत्त० ५७ । शीतः - स्पर्श विशेषः । प्रज्ञा० ४७३ । सीयइ- सीदति - फलति । पिण्ड० ३१ । सीय ई- फलति । ओघ० १५६ । सीयउरए - गुच्छा विशेषः । प्रज्ञा० ३२ । सीयणा - चोयणा । नि० चू० प्र० १४ अ सीयति-सीदति-नोरसहते । आव० ५३४ । सी घरं वद्धकीरयणणिम्मवियं चक्किणो हिं । नि० चु० प्र० २६६ आ । शीतगृहं वर्षकिरत्नकृतं चक्रि गृहम् । बृ० द्वि० ७४ आ । सीर्यापिड - शीतलः पिण्ड : - आहारः शीतश्चासो पिण्डश्व शीतपिण्डः । उत्त० २६५ । शीतपिण्डं - पर्युषितभक्तम् । आचा० १५ । परिणतम् । सोयभूए-शीतीभूतं सर्वात्मना शीतश्वेन जीवा० १२२ । सीयर । ज्ञाता० ६३ । सीयल - कलस स्वसन्तापकरणविरहादालादजन करवा शीतलः - अरीणां मित्राणां चोपरि शीतल गुड्समानः, दश. मजिनः यस्मिन् गभवने पितुःहोपशमो जातः तस्मातु शोतलः । आव ० ५०३ । शोतल अव २०१ सीपलघर समान - शीतल गृहसमान: । आव० ५०३ सीया-शिबिका - पुरुषस साहनीयः कूटाकाशख च्छादितो जम्यानविशेषः प्रश्न. ८। शीता । आव● ४२५ प्रथमतीथ कृशीबिका। सम० १५१ जम्बूपूर्वविदेह महानदी जाता. २४२ शीता-जनक मि. धमिथिलानगरीराजस्य दुहिता | प्रश्न० ८६ चतुर्थवासुदेवमाता । सम १५२ । शतः निश्रे पानः | प्रज्ञा० १०७ । शिविका - कूटाच्छादितजम्पानविशेषः । प्रश्न० ९१ । शिविका-जम्पानविशेषः पार्श्वतो बेदिका उपरि च कूटाकृतिः प्रश्न० १६१ । शिबिका आव० ७२२ । शिबिका कूटकाराच्छादितो जम्पन्नविशेषः । । अनु० १५६ । सीता पश्चिमरुचकवास्तव्या दिस्कुमारी । ( १९५१ ) i Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयाण 1 आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: सीलेस आव० १२२ । शिविका । उत्त० ४६२ . शिबिका- धानम् । प्रश्न० १०२। शीलं व्रतादिसमाधानलक्षणम् । कुटाकारेणाच्छादितो जम्पानविशेषः । औप. ४ । सिद्धो- आव• ६०४ । शीलं-क्रोधाद्युपशमरूपम् । सू ० ४०० । शिलानाम । दे। शील-स्वभावः । प्रश्न. ३६ । शोलं-व्रतविशेषः । सूत्र. सोयाण-श्मशानम् । व्य. द्वि० २६६ अ । श्मशानम् ।। ३४० । शीलं-समाधानम् । अहिंसाया एकोनचत्वारि आव० ७४३ । शीतत्राणा-मशानम् । छाव० ४२६ । । शत्तमं नाम । प्रश्न. ६९ : . सोयापीयय-रूप्यमयः सुवर्णमयश्च । भग० ४७७ । सीलई-परिव्राजक विशेष: : औप० ९१ । सोयाल-शृगाल:-सनखपदश्चतुष्पदविशेषः । जीवा० ३८ । सीलगुण-शीलगुण:-परैराक श्यमानोऽपि शीलगुणादेव न सीयोया-निषधवर्षधरपर्वते महानदी । ज्ञाता० १२१ ।। सोलंग-शीलाङ्ग-पृथिवीकायसंरम्मपरित्यागादिः । भाव. सीलगुणवरव्वयाई-शीलं समाधानं गुणाश्च-विनयादयः ६०२ । तैर्वराणि-प्रधानानि यानि व्रतानि तानि शीलगुणवरसोल-शील-अष्टादशभेदसहस्रपत्यं संयम, महाव्रतसमा. व्रतानि, शीलगुणावराव्ययानि वा, शीलस्य गुणवराणां धानं, तिस्रः गुप्तयः पञ्चेन्द्रियदमः कषायनिग्रहश्चेत्ये- च-वरगुणानां व्रज.-समुदयो येषु तानि शीलगुणवरतच्छीलम् । आचा० २१०। शीलं-अष्टादशशोलाङ्ग वजानि वा। प्रभ. ९६ | सहस्रसङ्ख्यं, यदिवा महाव्रतसमाधानं पडवेन्द्रियजयः सीलचंदण-शीलचन्दना । आव० २२४ । कषायनिग्रहस्त्रिगुप्तिगुप्तता चेत्येतच्छीलम् । आचा. | सीलदास-शील दोषः । बाव. ६५४ । २५० । शीलं-अनुष्ठानम् । प्रश्न. १३७ । शीलं-अनवर. सीलपरिघर-शोलपरिगृह-चारित्रस्थानम् । अहिंसाया तापूर्वज्ञानार्जनं विशिष्टातपःकरणं वा । सूत्र. १५४ । एकचत्वारिंशत्तमं नाम । प्रश्न. ९९ । शील-समाधिः, शोल:-स्वभावः । ठाणा० १८३ । शीलं- | सीलप्पए-पमारभ्यते । बृ. प्र. १७१ अ । ब्रह्मचर्य समाधि । समा १२७ । शीलं-समाधानं | सोलवंत-शीलवन्तः - अष्टादशशीलासहस्रवारिणः । चारित्र वा । उत्त० ३७३ । शीलं-महाव्रतानि । उत्त० बाचा० ३५० । शीलवन्त:-चारित्रिणः । उत्त० २५३ । ५०६ । शीलं-फलनिरपेक्षा वृतिः । उत्त० ७०९ ।। सीलव-सीलेण हुतो सीलवं । नि. चू०प्र० २७८ अ । शीलः-स्वभावः । ठाणा ४६८ । शीलं-समाधान. सीलवएनिरइयार-शीलानि च-उत्तरगुणा व्रतानि च विशेषः, ब्रह्मचर्यविशेषः, शीलं-अणुव्रतम् । ठाणा. मूलगुणास्तेषु पुननिरतिचारः । ज्ञाता १२२ । २३६ । शीलं-पिण्डविशुद्धघाद्य तरगुणरूपम् । उत्त० सीलवय-शीलव्रत-अणुव्रतम् । भग. ३६८ । ४८५ । शील स्वाभावम् । ज्ञाता० २११ । शीलं- | सोलहवए-शीलव्रत-उत्तरगुणमूलगुणात्मकम् । आव० व्रतपालनात्मकोऽनुष्ठानविशेषः । उत्त० १८७। शील-- | ११६ स्वमावः समाधिराचारो वा । उत्त० ४५ । शोलं-महा. सीलव्यय-शी व्रतं- अणुव्रतम् । सम० १२०। शीलवतंव्रतरूपम् । औप. ८२ । शीलं-ब्रह्मचर्यम् । प्रज्ञा अणुव्रतम । भग. १३६ । सीलव्रत-अणुव्रतम् । ज्ञात. ३९९ । शीलं-चारित्रम् । प्रज्ञा. ६.६। शीलं-महा. १३४ शी व्रतं-स्थूलप्राणातिपातविरमणादि । राजा व्रतादि-उपचारात्तञ्जनं वचोऽपि शीलं समाधानकारीवा।। उत्त० ५७ । शील-मनःप्रणिधानम् । वृ०वि०७३ अ। सीलायर-शोलाबार-शोलं-पमाधिस्तस्प्रधानस्तस्य वाशीलं-परद्रोहविरतिरूपम् । दश. २४६ । शीलं भाव वर.-अनुष्ठान भोलेन वा-स्वभावेनाचार इति । ठाण समाधिलक्षणम् । दश०६०। शीलं-शुद्धभावना । ०७० ३१३ । शीलं-रूवी । नि० चू. प्र. ७७ | सीलेति-खलि । नि० चू० द्वि, १३६ आ। । शीलं-आचारः। जं. प्र. १८२ । शील-समा- | सीलेस-शोलेश-सर्वसंवररूपशरणप्रभः । भग०१५ । ( ११५२ ) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीवग 1 अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ सोह सोवग- । जं. प्र. १९४ । सीसपहेलियंग-शीर्ष रहेलिकाङ्ग:-कालविशेषः । सूर्य० सीवण-सीवनम् तन्तुमा सन्धीकरणम् । दश० २७० । ११ । कालविशेषः । भग० ८८८ । सीवणी-सीवनी। बाव. ४२५ । सोसपहेलिया-शीर्षप्रहेलिका-शीर्षप्रहेलिकाङ्गशतसहस्राणि सीर्वाण-श्रीपर्णी-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । । जीवा० ३४५ । भग० २१०, २७५ । कालविशेषः । सीवणी-श्रीपर्णी । ओघ० १५८ । भग० ८५८ । सीवन-वनस्पतिकायविशेषः । भग० ८०३ । सीसय-सीसकः । प्रज्ञा. २७ । सीवनि-श्रीपर्णी-वृक्षविशेषः । पिण्ड, ३० । सीसरक्ख-शीर्षरक्षकः । माव० ८१९ । सीस-शासितुं शक्यः शिष्यः । उत्त० ३८ । शिर:- सीसरोग-शिरोरोगः । आव. ५८५ । प्रकर्षावस्था संग्रामशिरः । उत्त०६१। श्रिता अस्मिन सीसव-वनस्पतिकायविशेषः । भग ८०३ । प्राणा इति शिरः । उत्त० २७३ । सीसवा-शिशपा-वृक्षविशेषः । प्रजा. ३१ । सीसक-काललोहः । प्रश्नः १६४ । नागम् । प्रभा सीसवादि-दारुम् । नि. चू०प्र० २२८ आ । १५२ । सीसवेयणा-शीर्षवेदना । आव. १९२। शीर्ष वेदना । सीसकरोडी-शीर्षकरोटिका । आव० ३७१ ।। भग० १६७ । सोसकाकर-यस्मिनिरन्तरं महामूषास्वयोदलं प्रक्षिप्य सीसा-रोविनयकर्मणि कर्तव्ये स्वच्छ दीक्षिता: शिष्याः । सीसकमुत्पाट्यते सः । जीवा० १२३ । विशे० ६३६ । सीसग-सीसक-पृथिवीभेदः । आचा०२६ । सीसागर-सीसकाकरः । भग १६६ । सीसगभग-शिष्या एव शिष्यकास्तेषां भ्रमा-भ्रान्तियं सीसाढ-शिर आवेष्टनम् । आव० ३६९ । शीर्षावेषकम। स्मिन् सः शिष्यकभ्रमः । विनीवतया शिष्यतुल्य इति, मर० । डीविष्टकम् । आव० ६६१ । शीर्षक शिर एवं शिरः कवचं वा तस्य भ्रम:-अभ्यभि. पिय-शीर्षात्कम्पितम् । कायोत्सर्गे दोषः । आव० चारितया शरीरक्षत्वेन वा सः शीर्षभ्रमः । मिपा० ६२। ७९८ । सीसगुणा-शिष्यगुणा:-भावविज्ञानादिका: । उत्त० ४० । सीसोवंगं-शीर्षोपाङ्गमस्तित्वमालकृकाटिकाशंखन नाट. सीसघडिया-शीर्षघटिका । जीवा० २३४ । तालुकपोलहनुचिवुकदशनीष्टभ्रूनयनकर्ण नासाद्याः । तत्या. सोसघडो-शीर्षघटी-शिर:कटिका । अनुत०६ । ८-१२ । सीसत्ता-शिक्षणीयता । भगः ५८१ । तोसोवहार-शोर्षोऽपहार:-पश्वादिशिरोबलिः । प्रभ ३९ । सीसवार-सीसरस आवरणं । नि० चू.प्र. १६१ अ। सीहंढो-अनन्तकायः । भग ३०० । सीसवारिया-शीषंद्वारिका-कल्पेन शिर्षस्थगनरूपा । सीह-शीघ्रः-वेगवान । भग० १७८ । गोशालकशतके बृ० तृ. २५४ अ । शीर्षद्वारिका । दश० ८९ । अणगारः । भग ६८५ । सिंहः । आव०१७४ । सिंह:सोसनमण-शिरसा-उत्तमाङ्गेन नमनं-शिरोनमनम् ।। कालायां ग्राम कूटपुत्रः। आव० २०१ । सोहणाम गणः । आव० ५२४ । नि० चू० द्वि० ९५ आ। सनखपदश्चष्पदविशेषः । सीसपहेलिअंग-शीर्षप्रहेलिकाङ्गं चतुरशीतिलक्ष चूलिका. प्रज्ञा० ४५ । सिंहः-अनुत्तरोपपाकिदशानां द्वितीयवर्गस्य - भिः । अनु० १००। दशममध्ययनम् । अनुत्त० २ । सिंहः-मत्स्यकच्छप. सीसहेलिआ-चतुरशीयालक्षः शीर्षप्रहेलिकाङ्गः शीर्ष- | विशेषः । जीवा० ३२१ । सिंहः-सनखपदश्चतुष्पदविशेषः। पहेलिका । अनु० १०० । जीवा०३८ । सिंहः-हरिः । प्रश्न. ७ । सहसारकल्पे सीसपहेलिकंग-शीर्षप्रहेलिकाङ्ग-चतुरशीतिश्चूलिकाशत- | सप्तदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० ३३ । सहस्राणि । जीवा. ३४५ । सिंह:-केसरी । जं. प्र. १२४ । तृतीयं स्वप्नम् । (अल्प० १४५) ( १९५३) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीहकंत ] आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित: ज्ञाता २० । सोहकंत सहसारकरूपे सप्तदशसागरोपमस्थितिकं देवविमा नम् । सम० ३३ । सोहकण्ण-निकर्णः - अन्तरद्वीप विशेषः । जीवा० १४४। सोहकन्नी सिंहकर्णी-कन्दविशेषः । उत्त० ६९१ । साधारणवादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञ ० ३४ । सिहकर्णीवनस्पतिकायिकः । जीवा० २७ । २१५ । सोहणाय - संघयणसंतिसंगनो रुट्ठो तृट्ठो वा भूमीं अप्फालेत्ता सीहस्सेव णादं करोति सोहणाय । नि० चु० तृ सोह के सर - सिंहकेसर: - आस्तरण विशेषः । ज्ञाता० १३ सिहकेसर: - जटिलकम्बलः । ज्ञाता० १५ । सीह के स सरए - सिंहकेसरक:- मोदकविशेषः । पिण्ड० १३६ । सीह के सरओ-सिह केसरिकः - मोदकविशेषः ।आव० ३६६ । सीहकेसरा-देवदत्तमिक्षा | अन्त०६ । सिंहकेसरा:एतदभिधाना मोदकाः । अत० ६ । सोहखइद- सिंहखादितम् । आव० ८५९ । सीहखइया - सिंहः शौर्यातिरेकादवज्ञोपात्तस्य यथारब्धभ क्षणेन वा स्वादिता तथाविधप्रकृतिर्वा । ठाणा २७६ । सोहई - शीघ्रगतिः । भग० १७८ । सीहगती - अमित तेस्तृतीयो लोकपालः । ठाणा० १६८। सोहगिरि-आचार्यः । नि० ० द्वि० २८ अ । सिंहगिरिः सीहपुर सिहपुरं श्रेयांसनाथजन्मभूमि: । आव० १६० । सिहपुरं सिहदत्तराजधानी । विषा० ७० । ठाणा० ८० । सिहपुरं पद्मविजयस्य राजधामी । जं० प्र० ३५७ । सीहमड- सिंहभृतः - मृतसिंह देहः । जीवा० १०६ । सोहमुह - सिंहमुखः - अन्तरद्वीप विशेषः । जीवा० १४४ ॥ सोहमुदी - अन्तरद्वीप विशेषः । ठाणा० २२६ । सीहमुहा - सिंहमुखनामा अन्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५० । सीह रह - पञ्चदशमतीर्थं कृत्पूर्वभवनाम । सम० १५१ । सिंहरथ:- सिंहपुराधिपतिः । विपा० ७१ । सोहल - हिलः - चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न० आर्यसमित धर्मगुरुः । आव० २६९ । सिगिरिः - छगलपुराधिपतिः । विपा० ६५ । सिंहगिरिः । उत्त० ३३३ । विशतितमतीर्थ कुत्पूर्वं भवनाम । सम० १५१ सिंहगिरि:योगसङ्ग्रहे बालोचनायां मलवल्लभः सोपाराकपत्तनाधि सोहलिपासगं - वीणा संयमनार्थमूर्णामयं कङ्कणं च । सूत्र पति: । आव ० ६६४ । १४ । ११७ । सोहगुहा - राजगृहे अग्नी चोरपल्ली | ज्ञाता० २३६ । सिंह- सोहविवकमगतो - अमित गतश्चतुर्यो लोकपालः । ठाणाο गुहा यत्र चोरपल्ली: । आव० ३७० । ६१ आ । ज्ञाता - २३७ । सोहणि साई - सिंहनिषादी - सिंहव निषीदतीत्येवंशीलः । जीवा० ३४३ । [ सोहसेन हि विहरत् पश्चाद्भागमवलोकयति एवं यत्र प्राक्तनं तप आवस्योंत्तरोत्तरं तद् विधीयते तत्तपः सिंहनिष्क्रीडितम् । ज्ञात ० १२२ । सीहपरिसा मज्भे सोहपरिसा । नि० सोहपरिसा - गीयगीरथा । नि० चू० द्वि सोहपहेलियंगा- । ठाणा० ८६ । सीहपहेलिया | ठाणा० ८६ १६८ । सोहज्या - सिंहध्वजा - सिंहचिलोपेता ध्वजा । जीवा० सोहवि विकलियं । नि० ० प्र० ३०६ छ । सोहवोअ - सहसा रकने सप्तदशसागरोपमस्थितिकं देव० विमानम् । सम० ३३ । सुहसीलवयत्ता - सुखशीलाव्यक्ता सुखं शदी र शुश्रूषादिकं श्रीजयन्तीति सुखशीलाः पावस्थादयः अव्यक्ताः - सुख+ शीलाव्यक्ता: । बृ० प्र० १२७ आ । सीह से आराधको गजः । मय० । सल्लुकीवने गन्धहस्तीसिंहचन्द्रमुनिबोधितः कुर्केट सर्पहतः श्रीतिलकसुरः । म० । ऋषभसेन शिष्यः वैश्रवणदास दग्धः । स चतुर्दशतीर्थं सीनाय - सिंहनादः । भव० ११५ । सहनिक्कीलयं सिंहनिष्क्रीडितमिव सिंहनिष्क्रीडितं सिंहो । सीह पुच्छ-सिंहपुच्छं- पृष्ठम् । आव० ६५१ । सीहपुच्छण - सिंहपुच्छनं - शेफत्रोटनम् । प्रभ० १६४ । सीहपुच्छियय - सिहपुच्छितकं - सिमेहनकं प्रोटितमेहनम् । औप० ८७ । ० ० ३८ जा । १६ अ । ( ११५४ ) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्ति कूशब्दकोषः, भा० ५ सीहसोता ] कृस्पिता । सम० १५१ । अजितनाथप्रथमशिष्यः । सम० १५२ | सिंहसेन:- अनुत्तयोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य एकादशममध्ययनम् । अनुत्त० २ । सिंहसेन:- महासेनराजकुमार: । विवा० ८२ । सिहसेनः - अनन्तनाथपिता । बाव० १६१ । सीहसोता ठाणा० ८० सीहरू नर सिंहस्येव प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यग्य स सिंह. सुंदर बाहु - सप्तमतीर्थं कृत्पूर्वभवनाम | सम० १५१ । स्वरः । जीवा २०७ । सुंदर मंगुल भाव - सुन्दरमङ्गुल भावः सन्दर शुभेतरपदार्थ: । आव २५० । सुंदरी - परिणामिकी दृष्टान्ते नासिक्य नगरे नन्दवणिजस्त्री सुन्दरी । आव० ४३६ । सुंदरीनंद - सुखनन्दः - परिणामिको दृष्टान्ते सुन्दरीपतिनंन्दो वणिक् । आव ० ४३६ । सुंदेर - सौन्दर्यम् । दश० १०७ । सुबंसुंब - दवरिका - दवरिकम् । आव० ६२ । सुंब - शुम्बं - इहोपात्तं तज्ञ्जनिता दवरिकः । विशे० ६४ । रज्जुः भग० १६७ । सुंबकड - शुम्बकः । आव ० २८९ । तृणविशेषनियनः सोहा सिंहा- श्रमाभावेन सिंहगतिसमाना । भग० १६७ । सोहाए - सिंहया सद्दार्घस्थेयेण । ज्ञाता० ३१ । सोह. णुग-जो महंत णिसिजाए ठितो सुत्तमत्थं वा एति चिट्ठर वा सीहाणुगो । नि० चू० तृ० १३७ अ । सीहानुग - सिहानुगः यो महत्वां निषद्यायां स्थितः सतु सूत्र वा वाचयति तिष्ठति वा सिहानुगः । व्य० प्र० | १२१ अ । सोहावलोय - पश्चादवलोकः । मर० । सीहा सण - सिहासनं यस्यासनस्याधो भागे सिंहो व्यवस्थितः स जीवा० २०० । सोही -तस्प्रधाना विद्या । आव० ३१९ । सीहुका - सीधुका - मद्य विशेषः । प्रभ० १६३ | सीहोरासियं सिहसामथ्र्यं जम् : मर० । सुंक शुल्कं - मूल्यम् । ज्ञाता १३१ । सुकपाल - शुल्कपालः । आव० ३१७ । सुंकभय-शुल्कभयः नाव. ३५४ । सुंकलित - वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । सुंकलित ग - तृणविशेषः । प्रशा० ३३ । सुंकवाल - शुल्कपालः । उत्त० १६५ । सुकियतो-शुल्क ग्राहकः । व्य० प्र० ९४ आ । सुकिया - गामिया । नि० ० प्र० १४० अ । सुंगा - शुद्धानं विशाखागो म् । जं० प्र० ५०० । गायण सगोते - विशाखा नक्षत्रगोत्रम् । सू० १५० । सुंठ- तृणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । पवंगविशेषः । प्रज्ञा० [ सुं सुमा सुंड - साधुमन्यद्वा । आचा० ३३० । सुंडय - शुण्डकम् । आव० ६५१ । सुंडा-गुण्डा । आव० २१७ । सुंडिया-शौण्डिका - प्रत्यन्ताभिव्यङ्गरूपा । दश० १५८ । सुंदर - परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे घनदत्तजामाता । पिण्ड १२७ । त्रयोदशतीर्थकृत्पूर्वभवनाम । सम १५१ । शुम्बकः ठाणा० २७३ । सुंब कडु - वीरणकटम् । भग० ६२८ । सुभ-श्रावस्त्यां गाथापतिः । ज्ञाता० २५१ । भय सुम्भकः- शुभवर्णकारी वस्तुविशेषः । अनु० १४२ । भितर जणपदविशेषः । भग० ६५० । सुंभवडें (ए-बलीचचायां भवनम् । ज्ञाता० २५१ । संभसिरी- सुम्भयायापतेर्भार्या । ज्ञाता २५१ । सुंभा-सुंभं भक्षियोः दारिका । ज्ञाता० २५१ । ज्ञाताय द्वितीय स्कन्धे द्वितीय वर्गे प्रथममध्ययनम् । ज्ञाता० २५१ । सुंमुइ - पुण्ड जनपदे शतद्वारनगरे कुलकरः । ठाणा० ४५८ ) सुंस - षष्ठाऽष्टादशमं ज्ञातम् । उत० ६१४ । 'समा- ज्ञातायामष्टादशममध्ययनम् । सम• ३६ | धनदत्त पूत्री | नंदी० १६६ । ३३ । संसार संसु : ' ज च विशेष० ६६६ । सुंठए-शुण्ठकं - तारकपचनार्थं भाजनविशेषः । सूत्र० १२५ । सुंसु - शतायामष्टादशममध्ययनम् । आव० ६५३ । -सुठी- सिएबेरो । नि० चू० द्वि ५० आ । सुमा-सुमाभिधाना श्रेष्ठदुहिता ज्ञातायामष्टादशमम ( १९५५ ) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुं सुमार ] आचार्यश्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलित: सुकाल ध्ययनम् । ज्ञाता 8 । सुसुमा धनसार्थवाहदारिका । सुइवाई- शुचीवादी - दकसोदरिकः । वृ० द्वि० ६० आ । आव० ३७० । सुइ श्वस्तनम् । पिण्ड० ८२ । सुंसुमा-जनन्चर विशेष: । प्रश्न० ७ । संसुमाः पुरन्यत्र मरोत्पातः । व० २२२ । सु-अतिशयेन सुष्ठुः । व्यव० ५९१ । शोभनं अतिशायिः । सूर्य० २६२ । सुइसमाया- शुचिः समाचारः यस्य स । आचा० ३६४ । सुई - शुचिः सत्यम् । आव ०७०५ । सत्यसंयमः । प्रश्न ० १४६ | शुचि:- पवित्रम् | जीवा० २४६ । संयमवता शुचिः, योगसङ्ग्रहे एकादशमयोग: । आव० ६६४ । सुए परिव्राजकविशेषः । ज्ञाता० १०५ । शुकः - कीरः । प्रज्ञा० ३६० । श्रुतमदः - अष्टमद्देषु सप्तमः । आव० ६४६ | श्वः - आगामिनि दिनम् । उत्त० ११७ । श्वःकल्यः । बृ० द्वि० ६५ अ । सुअ-श्रवणं श्रुत वाच्यवाचकभावपुरस्सरी करणेन शब्द संस्पृष्टार्थं ग्रहण हेतुरुपलब्धिविशेषः, एवमाकारं वस्तु जलाधारणाद्यर्थक्रियासमथं घटशब्दवाच्यमित्य दिरूपतया प्रधा नीत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेषः । नंदी० ६५ । श्रुतं स्वदर्शनानुगत सकलशास्त्रम् । नंदी० १५ । श्रुतं द्वादशाङ्गम् । दश० २४६ | आत्मैव श्रुतोपयोगपरिणा मानन्यत्वाच्छ्रणोति श्रुतम् । ठाणा ३४७ | सुएल्लयं । नि० चू० प्र० २५० आ । सुओ- शुकः पक्षिविशेष: । आव० ४२८ । सुकंत- सुकान्तः घृतोदे समुद्रे पश्चिमार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३५५ । सुअक्खा या स्त्राख्यातं सदेवमनुष्यासुरायां पर्षद सुष्ठु सुक-शुल्कं राजदेयद्रव्यम् । बृ० प्र० १५६ अ । शुल्कं - आख्याता | दश० १३७ । सुग्गाही - श्रुतगाही परमपुरुष प्रणीतागमग्रहणाभिलाषी । दश० २५० । सुअणुयत- स्वनुवर्त्तनीयः । आव० ५६ । सुअत्थवम्मा - श्रुतार्थं धर्मः श्रुतधर्मार्थः गीतार्थः । २५१ । सुअरा श्रुतस्थविरा: समवायाद्यङ्गधारिणः । ५१६ । दश ० ठाणा ० राजदेवभागम् । राज० १३० । सुकच्छ-सुकच्छोनामविजयः । जं० प्र० ३४५ । सुकच्छकूड - सुकच्छकूटं - चित्रकूटवक्षस्कारे कूटम् । जं प्र० ३४४ । सुकच्छा - ठाणा० ८० । सुकड सुकृतं - सुष्ठुकृतम् । दश० २२० । सुकृतं - सुष्ठुन परिपूर्ण कृतम् । उत्त० ६७ । सुकृतं सुष्टृनुष्ठितम् । उत्त १०३ । ४७६ सुक्खाण - श्रुतप्रत्याख्यानं प्रत्याख्याने भेदः । आव सुकडाणुनोयणा-अहंवाद्यनुमोदनम् । चठ० । कण्ह - निरयावल्यां प्रथमवर्गे पञ्चममध्ययनम् । निरय० ३॥ सु. लं किय- सुष्ठु - अतिशयेन रमणीयतयाऽसकृत: स्व. सुकण्हा सुकृष्णा - अग्तकृद्दशानामष्टमवर्गस्य पञ्चममध्य लङ्कृतः । जीवा० २०६ । नम् । अन्त० २५, २८ । सुअस माही - श्रुतसमाधिः- द्वितीयं विनयसमाधिस्थानम् । सुकन्ना- सुकन्या- अप्रतिहतराज्ञी । विपा० ९५ । सुकय- सुकृतं - सुष्ठुकृतं शोभितम् । प्रज्ञा० ८६ । सुकृत:निपुणशिहिपरचितः । जीवा० २२६ । दश० २५५ । सुआ - सुया व्याजम् । दश० २४३ । सुइ - शुचि: । आव ०६३१ । श्रूयते इति श्रुतिः शब्दः । सुकयात्त-सुकृताशप्तिम् । भक्त० । ज्ञाता० २१५ । सुकरण - सुखेन तस्य तस्य करणम् । दश० १०० । सुइभूय-शुचिभूतः भावशुद्धिमान् श्रुतभूतः - प्राप्त सिद्धान्तः । सुकर्णधाराधिष्ठितः । आव० ७० । औप० ३७ । सुइयं स्ववितुम् । उत्त० १२६ । काल-निरयावल्या प्रथमवर्गे प्रथममध्ययनम् । निश्य ३ । सुकालीपुत्रः । निरय० २० । अष्टादशसागरोपम ( १९५६ ) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकालो] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [सुक्काम स्थितिकं देवविमानम् । सम०३५ । सुकाल:-सोपन्धि- नीरसशरीरस्वात् । ज्ञाता०७४ । निरयावल्या तृतीयवर्ग कान गयाँ नीलाशोकोद्याने यक्षः। विपा० ६५ । तृतीयममध्ययनम् । निरय० २१ । शुक्लं-शोधयत्यष्टसकाली-अन्त कृदृशानामष्टमवर्गस्य द्वितीयममध्ययनम् । प्रकारं कर्ममलं शुचं वा क्लमयतीति शुक्लम । ठाणा. अन्त. २५ । बार्यविशेषः । अत २७ । कोणिकस्य १८८ । शुक्लं शुचि:-निर्मलम् । उत्त० ६०६ । शुल्कचुल्लमाता । निरय. २. । विक्रयभाण्डं प्रति राजदेयं द्रव्यम् । भग० ५४४ । वारसागरोपमस्थिक देवविमानम् । सम०६। शुक्लं अवधासमोहादिलक्षणं चतुर्थ ध्यानम् । बाव. सुकिरणं-शोममानकान्तिकम् । जं०प्र० २११। ५८२। शुल्क-कन्यामूल्यम् । उत्त. २.७ । शुल्क-विक्रोतसकूमारं-ललितं लखतीव यत् स्वरघोलनाप्रकारेण शब्द. व्यभाण्डं प्रति राजदेयं द्रव्यम् । जं० प्र० १९४ । शुष्कस्पर्शनेन श्रोत्रेन्द्रियस्य सुखोत्पादनाद्वा । ठाणा० ३९६ । स्तोकव्यञ्जनम् । दश १८.। सप्तदशसागरोपमस्तिसूकूमारिका-तैलकिट्टविशेषः । ६० प्र. २६८ अ। तिक देवविमानम् । सम० ३३ । शुष्कः । ओध. विशे० ९५१ । भोज्यपदार्थविशेषः । पिण्ड ० १७२ ।। १८८ । शुल्क:-अभिनवृत्तः । भग० ३७३ । शुल्कोयम् । सकमाल-सुकूमार:-अकर्कशः। जीवा० २७४ । मुकुमारा- उत्त० २२१ । शुक्र:-द्विचत्वारिंशत्तममहाग्रहः । जं.प्र. . सुकुमारस्पर्शः । जीवा० २२६ । ५३५ । शुष्क-नीरसम् । भग० १२५ । द्विचत्वारिंशसुकुमालकोमलिय-सुकामारकोमलिक-अत्यर्थ सुकुमारम् । त्तममहाग्रहः । ठाणा० ७९ । शुक्लो-नामाभिन्नवृतोऽज्ञाता. २००। मत्सरी कृतज्ञः । भग• ६५७ । ध्याने चतुर्थों भेदः । सुकुमालिका-स्पर्श नटकः (?)। भक्तः। विराधितसंयमेऽपि मग० ९२३ । अशुचिस्थानम् । प्रशा० ५० । शुरुक: ईशानकल्पे उत्पादे दृष्टान्तः । प्रज्ञा ४०६ । चिखल्लः । पोष. २९ । सुकुमालिया-सुकुमालिका-स्पर्शेन्दियदृष्टान्ते जितशत्रु- सुक्कछिवाडिया-शुष्काछिवाडि:-वल्लादिफलिका सा च भार्या । आव० ४०२ । सुकूमालिका-भद्रासागरदत्त. शुष्का सति किलतीव शुरुका भवतीति शुरुकाछिवाडिका। सार्थवाहपुत्री। ज्ञाता० २००। नि० चू प्र० २५८ अ । प्रज्ञा० ३६१ । सुकूलपञ्चायाइ-देवलोकादौ यत्त्वा सुकूले-इक्ष्वाकादी प्र. | सुक्कझाण- । ज्ञाता० ११३ । स्यायाति-प्रत्यागमनं प्रत्याजाति -प्रतिजन्मेति । ठाणा | सुक्कपक्खिए- सुक्लपाक्षिक:-शुक्सानो वा-आस्तिकत्वेन २०२ । विशुद्धानां पक्षो-वर्ग: शुक्लपक्षस्तत्र भवः शुक्लपाक्षिका। सुकुलपञ्चायाति-सुकुले- इक्ष्वाकादौ देवलोकात् प्रतिनिवृ. ठाणा० ६१ । तस्य जाति.-जन्म आयातिर्वा -आगतिः सुकुल प्रत्याजातिः । सुक्कपक्खिय-शुक्लो विशुद्धत्वात् पक्षः- अभ्युपगमः शुक्लसुकुल पत्यायातिर्वा । ठाणा• १४४ । • पक्षस्तेन चरन्तीति शुक्मपाक्षिकः । ठाणा० ६० । सुकोसल-ऐरावते आगमिन्यामुत्सपिण्या तीर्थ कृत् । सम | सुक्यपुग्गलपरिसाड-अशुचिस्थानम् । प्रज्ञा० ५० । १५४ । चित्रकूटेऽनशनी मातृव्यघ्री भक्षितः । मर० । | सुक्कयं-संस्कृतं-विशिष्टसंस्कारसहितम् । व्य० द्वि• ३३५ मुगलगिरी व्याघ्रीहतः । भक्त।। व्याघ्रीमक्षितमुनिः।। अ। सुक्क डिसए-शुक्रावतंसक:-शुक्रलोकस्य मध्येऽवतंसकः। सुक्क-शुष्कः । ओप० २६ । शुष्क:-वल्लचनकादि । म चा. जीया० ३९२ । ३१५ । शुक्लवर्णद्रव्यजनितः शुक्लः । ठाणा० ३२ । सुक्कहिय-सुक्कथितः यथाऽग्निपरितापतापितः । जीवा. असकिलिठ्ठपरिणाम अटविहं वा कम्मरयं सोधते तह्मा ५४ । सुक्क-परिणामविसेसो । दश० चू० १४ । ज्ञाता | सुक्का-मनस्तापेन शोणितशोषात शुष्का । ज्ञाता २८ । १५५ । शुक्र-सप्तमो धातुः । ज्ञाता० १४७ । शुरुको क्काभ-शुक्राभं-सप्तमलोकान्तिकविमानम् । भय. ( ११५७ ) सं०। पपता Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्किलपत्ता] आचार्यश्रीआनन्दसागररिसङ्कलित: [सुच्छेत्ता २७१ । सुग्गत-सुगत:- सुस्थः । ठाणा० १४७ । सुगतः-ईश्वरः । सुक्किलपत्ता-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा. ३२ । ठाणा० २४६ । चतुरिन्द्रिविशेषः । प्रज्ञा, ४२ । सुग्गो- । मोघ०१७७ । -लहगा । नि० चू० प्र०३३ आ। सुग्गीव-सुग्रीवं नगरविशेषः, बलमद्रराजधानी । उत्त० सुक्खायधम्म-सुष्ठु-शोभन: सर्वसावा विरतिरूपत्वादा. ४५१ । भुतानन्दस्य मश्वराजः । ठाणा० ३०२ । डिति-अभिव्याप्स्याख्यात:-तीर्थकरादिभिः कथितः स्वा. सुग्रीवः-सुविधिपिता । आव० १६१ । सुविधिनापपिता। ख्यातः तथाविधो धर्मों यस्य सोऽयं स्वाख्यातधर्मा- सम० १५१ । नवमवासुदेवप्रतिशत्रुः । सम० १५४ । चारित्री । उत्त० ३१६ । सुग्रोव:-वालिलघुभ्राता । प्रभ० ८९ । . सुक्खोल्लओ-अन्यभाजनगृहीततीमनेनाद्रं बोदनः । ६० द्वि० सुघुटु-सुघुष्टः-अतिशयेन मसृणः । जीवा० २.१ । २५० अ। सुघोषा-वाद्यविशेषः । जीवा० २६६ । सौधर्मकल्पे घण्टा। सुख-शीतम् । बाचा० १५१ । विषये सुखो वह्निः' ज्ञाता. १२ । सुखितोऽस्मि वेदनाऽभावे विपाके हृष्टेन्द्रियार्थज. मोक्ष | सुघोस-सुघोषं नगरं-अर्जुनराजधानी । विपा० ६५ । अनुत्तमम् । त० १० । इहपरलोके सुखकरणात सुखम् । दशसागरोपमस्थिक देवविमानम् । सम० १७ । षटव्य द्वि० ३९८ अ । सागरोपमस्यिक देवविमानम् । सम० १२ । अतीता. सुखदुःखे-परोदीर्यमाणवेदनारूपे साताऽसाते । प्रज्ञा | यामुत्सपिण्यां षष्ठः कुलकरः । ठाणा० ३९८ । सम० ५५६ । १५. । सुखदुःखोपसंपद- 1 व्य. दि. १७७ (?)। सुघोससंठिय-सुघोषसंस्थित:-आवलिकाबाहपञ्चदशमं न. सुगंध-सुगन्धः-परममाधोपेतो गन्धः । ()। रकसंस्थानम् । जीवा० १०४ । सुगंधि-सन्धिका । जोवा० १८८। सुगन्धिः-पन्धवासः। सुघोसा-गीतरतेः प्रथमाऽग्रमहिसी । भग० ५०५। धर्मजीवा०२१४ । कथायां पञ्चमवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता. २५२ । सुघोषासुगंधिए-जसरूहविशेषः । प्रशा० ३३ ।। घण्टाविशेषः । प्रभ० १५६ । सुघोषा-वीणाविशेषः । सुगंभीर-अतिशोभनम् । व्या ३०३ (?) । ज.प्र. १०१ । गीतरतेः प्रथमाऽयमहिषी। ठाणा. मपक्षिविशेशः । जीवा. ४।। २०४ । सुघोषा-देवखोकप्रसिद्धा घण्टाविशेषः । आतोद्यसुगइ-सुगति:-सिद्धः । आव० ६० । विशेषो वा । जीवा० १०५ । सुघोषा-शक्रस्य सुधर्मागति:-सिवः । विशे० ४८७ । सभायामेतदभिधाना सुस्वरा घण्टा । जं. प्र. ३९६ । सुगती-सुगतिः-शोभना गतिरस्मात् ज्ञानाच्चारित्राच्चेति सुचंद-भरतक्षेत्रेऽतितोत्सपिण्यां षष्ठः कुमकरः ।सम० १५१ ज्ञानकिये था। सूत्र. १९७ । सुचिण्ण-सुचीर्ण:-सुचरितः । जं० प्र० ४६ । सुचीर्णसुगम-अकृछवृत्तिः । ठाणा० २९७ । सुचिरं-सुचरितजनितं कपि वा ।. जीवा० २०१। मपक्षीविशेष: प्रज्ञा०४९ । सुचिभूए-भावविशुद्धितः शुधिभूत: । ठाणा० ४६५ । । सुगिम्ह -सुग्रीष्मः-चैत्रगणमामी । ठाणा. २१४।। सुचिर-प्रभूतत्त्वम् । उत्त० २८० । सुचिरः । नि चूक सागम्हओ-सुग्रीष्मक, चैत्रपूर्णिमा । पाव० ७५६ ।। प्र० २०१। सुगुत्त सुगुप्तः शतानीकामास्यः । आव० २२२ । सुचिरिफलनिव्वाणमुत्तिम- । पाचा. ४२४ । सुगृहा- तदभिधाना चेटका । नंदी० ५७ । सुचोयए-शोभने प्रेरयिता । उत्त० ६५ । सुग्गइ-सोगति-सुF: वमनुष्यतिलक्षणा मुक्ति वा ।। सुच्छितं-सुक्षेत्रम् । आव० २२५ । उत्त० ६६१ । | सुच्छेत्ता-सुक्षेत्रनाम ग्रामः । आव० २१८ । । ( ११५८ ) सगा TETTER Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजसा ] सुजता - सुयशा - समाधिज्ञाते शिशुनागश्रेष्ठमार्या । जाव ७०७ । चतुर्दशमतीर्थं कृदुमःता । सम० १५१ । सुयशाअनन्तजिनमाता । आव १६० । सुजह - सुखेन - अनायासेन हीयत इति सुहानः-सुक्यजः । उत्त• २६२ । सुजाए-सुजात - लक्षण प्रशस्तः । जं० प्र० ५२९ । सुजात:faminent द्वितीयश्रुतस्कन्धे तृतीयमध्ययनम् । विपाο ८९ । विनीतरवादिना सुपुत्रः । ठाणा ० ४६२ । सुजात:वीरकृष्णमित्रराजस्य कुमार: । विपा० ९५ । सुजात:सुपरिपाकागतः । जीव० २६५ । सुजाण सुयानं सुगतिम् । सम० १८ । सुजात- सुजात:- संवेगोदाहरणे सार्थवाहघन मित्रघनश्रीपुत्रः । आव० ७०६ । तृतीयप्रैवयक प्रस्तटः । ठाणा० ४५३ । सुजाता - अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य एकादशममध्ययनम् । अन्त · २५ । कालवालस्य तृतीयाऽग्रमहिषी । ठाणा २०४ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ५ सुजाय-सुजातं - सुजातदारुमयम् । मग० ४५९ । सुजातं - निष्पन्नम् । ज्ञाता० १२ । सुजातं - गर्भदोषविकलम् । आव० ७१६ । सुजातं - मूलद्रव्यशुद्धम् । जीवा० २२८ । सुजातं यथोक्त प्रमाणोपपनत्वम् । जीवा २६९ । सुजातं - मूलद्रव्यशुद्धम् । ज० प्र० ३२४ । सुजातः - बीजाघाना दारम्भ जन्मदोषरहितः जं० प्र० १११ । सुजातः संगुप्तः सु निष्पन्नः । जीवा० २७० । शोभनं जातंजन्म यस्य स सुजात - विशुद्धमणिकनकरत्नमूलद्रव्यतया जन्मदोषरहितः, जम्ब्वाः सुदर्शनायाः सन्नमं नाम ।जीवा० ६६६ । शोभनं जातं - जन्म यस्य सः सुजातः - विशुद्धम किन करन मूलद्रव्यजनिततया जन्मदोषरहितः । जं० प्र० ३३६ । भुतानंदस्य तृतीयाऽग्रमहिषी । भग० ५०४ । सुजेट्ठा - सुज्येष्ठा चेटकस्य षष्ठो पुत्री | आव० ६७६ । सृज्येष्ठा - शिक्षा योगदृष्टान्ते हैहय कुलसं भूत वैशालिक चेटकस्थ षष्ठी पुत्री | आव० ६७६ । सुजोष:- पिशाचभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । सुख - नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १५ । सुखकंत । सम० १५ सुजफूड 19 93 "9 " । सम० १५ । . [ सुणक्खत्त सुज्भय- नवसागरोपस्थिकं देवविमानम् । सम० १५ । सुखप्पभसुखलेस । सम० १५ । । सम० १५ । । सम० १५ । । सम० १५ । । सम० १५ । सुखवण सुख वित्त " 99 सुज्जुत्तर व डिसगसुज्झ-रूप्यविशेषः । जीवा० १९७ । सुज्झसिंग-नवसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् | सम० १२| ( ११५६ ) " " . 男 सुज्झसिट्ठ । सम• १५ । सुट्ठिए-सुस्थित: - लवणाधिपतेनमिषेयम् । जीवा० ३८३ । सुस्थितः - लवणाधिपः । जीवा० ३१५ । सुद्विग्ग - त्रिवेदिकपिलसाघुगुरुः । बृ० तृ० ९८ अ । सुट्ठिय- पाण्डवगुरुः । मर० । ज्ञाता० २१७ | सुडिया आयरिया । नि० चू० द्वि० ३१ मा १०२ ब । सुट्ठत रमायाम- गंधारग्रामस्य षष्ठी मूच्र्च्छना । ठाणा० ३६३ । सुढिओ - मेष: । आव० १०२ । मेषक : - सङ्कुचिताङ्गो मेष ऊरणकः । विशे० ६३४ । अतीवाहतः सुष्ठु । ० द्वि० ६६ अ । सुष्टो बाहतो भूत्वा । बृ० प्र० ५५ आ । । सुदिमा । नि० ० प्र० ३५६ अ । सुढिया - सुढिः - श्रान्तः । बृ० द्वि० ४ सुणंद- द्वादशमतीयं कृत् प्रथममिक्षादाता सम० १५१ । पञ्चदशसायरोपमस्थितिकं देवविमानम् । शम० २8 । सुनन्दः - तृतीयमा सक्षपणे भगवन्तं भिक्षादाता | बाव० २०० । गोशालक शतके गाथापतिः । भग० ६६२ । सुनंदा सुनन्दा-तुम्बवनसन्निवेशे कश्चिद्गाथापतिसुता । उत्त० ३३३ । तृतीयचक्रिणो हस्तिरत्नम् । सम० १५२ । कालवालस्य प्रथमाऽग्रमहिषी । ठाणा० २०४ | भुतानंदस्य प्रथम ग्रमहिषी । भग० ५०४ । सुणइ शृणोति । बव० ६६५ । सुइयच्छिद्द-शून्यच्छिद्रम् । आव० ३५२ । सुबह- शुनकः - मृगदंश: । प्रज्ञा० २५४ । सुख-भद्रासार्थवाह्याः पुत्रः । अनुत्त तृतीयवर्गे द्वितीयमध्ययनम् । अनुत्त० २ । । अनुत्त , Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमक्खत्ता आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः ..[ सुत्तग गोशालकशतके मुनिः । भग० ६७८ । पुत्रवधुः । ज्ञाता० ११५। .. सुणक्खत्ता-सुनक्षत्रा-द्वितीयरात्रिनाम । जं० प्र० ४६१। | सुत-श्रुतं-आचारप्रकल्पादिश्रुतं, नवादिपूर्वाणां श्रुतत्वेऽप्यद्वितीयगत्रिनाम । सूर्य० १४७ । तीन्द्रियार्थज्ञानहेतुत्त्वेन सातिशयत्वादागमव्यपदेशः, केव. सुणग-शुनक:-श्वानः । जं० प्र० १२४ । कौलेयकः । लवदिति द्वितीयो व्यबहारः । ठाणा० ३१७ । बहुश्रुतः। प्रभ० २१ । सनखपदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । शुनक:- बृ० द्वि० २८० मा । श्वानः । जीवा• २८२ । सनखपदश्चतुष्पादविशेषः । सुतखंड-कलाविशेषः । ज्ञाता० ३८ । जोवा० ३८ । शुनक:-कुकरः । व्य० प्र० ५२ आ। सुतत्थझरणहेउ-सूत्रार्थ रक्षणहेतुः सूत्रार्थगुणनानिमितम् । सुणगमड-श्वमृतः-मृतस्वदेहः । जीवा० १०६ । ओघ० २०० । सुणफ-श्वान: कौलेयकः । प्रश्न. ७ । सुनत्था-श्रुतविषयो अर्थः-श्रुतार्थ:-अभिलाप्यर्थविशेष सुणियं-शूनत्वं-श्वयथुर्वातगित्तश्लेष्मसन्निपातरक्ताभिधान इत्यर्थः, श्रुता वा-आकणिता जिनसकाशे गणधरेण ये जः । आच० २३५ ।। अर्थास्ते श्रुतार्थाः, अथवा श्रुतमिति सूत्र अर्या -नियुक्त्या सुणिया-शूनी । आव० ३८८ । दय इति श्रुतार्थाः । सम० ११६ । सुणिव्यवीसत्थे-सुष्ठुनिवृत्त:-श्वस्थात्मा, विश्वरत्तो- | सुतपुठव-श्रुतपूर्वः । आव. ३४८ । विश्वासवान् निरुत्सुको वा । ज्ञाता ३२ । सुता- । ठाणा० ५१२ । सुरणेति-शृणोति, गृहणाति, उपलभते । प्रज्ञा० २६८ । सुति-श्रुतिः । आव. ५१३ । श्रुति-वार्तामात्रम् । सुरणेह-शृणुन-आकर्णयत, श्रवणं प्रत्यवहिता भवत, शृणु ज्ञाता० ८४ । 'इहे' ति जगति जितमते वा । उत्त. १९ । सुती-श्रुतिः । माव० ३५३ । सुणोदगं- । नि० चू० प्र० ४७ आ । सुतोवउत्त-भतोपयुक्तः-साभिलापज्ञानोपयुक्तः । प्रज्ञा सुण्ठकम्- । सूत्र० १३० । सुण्ठो-कटुफरसपरिणतः । प्रज्ञा० १० । उत्त० ६७७ । सुत्त-सुप्तमिव वा सुप्तम् । ठाणा० ५२ । सूत्र-आगमः। सुण्णंतरवणण-एकोत्तरएकोत्तरवृत्या सर्वदेवाऽशूभ्यान्य- ठाणा० १६० । सुक्तं सुस्थित्त्वेन व्यापित्वेन च सुष्ठू. व्यवहितान्यतराणि यस्सां । (२)।। क्तत्व'द्वा सूक्तम् । ठाणा० ५२ । सुप्तः-निद्रावान् । सुण्णंतरवग्गणा-शून्यान्तरवर्गणा, एता ह्येकोत्तरवृद्धया ठाणा० ३२० । सूचनात् सूत्रं वाख्येयं वा अविवृतं निरन्तरमनन्ता: सदैव प्राप्यन्ते, परं कदाचिदेकोत्तरवृद्धि- मुकुलतुल्यं वा । आव० ८६ । सूत्र-वल्कवलितम् । रेतास्वन्तराऽन्तरा त्रुट्यति-न नैरन्तर्येण प्राप्यन्तः, शून्या. सूत्र. ११८॥श्रुतं-शेषमाचारप्रकल्पादि । भा० ३८४ । तरा एकोत्तरवृद्धया कदाचिच्छून्यानि व्यवहितान्यन्तराणि सूत्र-दृष्टिवादे द्वितीयो भेदः । सम. ४१ । सूत्रंश्रुतयासां ताः शून्यान्तरा अपि भवन्ति यास्ता। शून्यान्तर- स्यकार्थिकः । विशे० ४२३ । श्रुतं-काञ्जिकम् । ६० वर्गणा भण्यते । विशे०३३।। प्र० १३३ अ । सूत्रम् । विशे० ४५० । सूत्र-तन्त्रम् । सुण्ण-शून्य। । विशे० ३१ । शूभ्या-शून्यान्तरवर्गणा । विशे० ५९१ । श्रुतं-सूत्रमात्रं वा । ठाणा० ३५० । बाव० ३५ । शून्यं उद्वसम् । उत्त० १०६ । सुप्तो निद्रया । आचा० १५२ । सूत्रं-आगमः । ठाणा० सुण्णविसओ-शून्यविषयः । माव३६५ । सुण्णागार-शुन्यागारः । बाचा० ३०७ । सुत्तअत्थकहणा-सूत्रार्थ कथनां व्याख्यानः । आव० २६५॥ सुण्हं गिहं- । नि० चू० प्र० २६५ छ । सुत्तओ- । ज्ञाता० ३८ । सुण्ह-श्वक्षणः वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । सुत्तखेड्डु-सूत्रखेल-सूत्रकीडा । जं० प्र. १३६ । सुण्हा-स्नुषा । आव० ३०५ । स्नुषा । मोघ० १५६ । । सुत्तग-सुतक-कटीसूत्रम् । उत्त० ४९२ । सूत्रक-हय.. ( १९६० ) ५०३ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतगमा ] मुखभूषणविशेषः । जं० प्र० २३५ । सूत्रकं वै कक्षककृतं सुवर्णसूत्रम् । जं० प्र० १०५ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोष:, मा० ५ प्र०९ । सुदंसण - सुदर्शनः - जम्बूद्वीपाधिपदेवः । ठाणा० ४३७ । सुदर्शनः । उत्त० ३७६ । सुदर्शनः कायोत्सर्गदृष्टान्ते चम्यां श्रेष्ठपुत्रः । आव० ८०० । सुदर्शन:- अन्तकृद्द - शानां षष्ठमवर्गस्य दशममध्ययनम् । अन्त० १८ । राज. गृहे श्रेष्ठः । उत्त ११२ । सुदर्शनः । जं० प्र० २०४ । सुदर्शन:- मथुरायां भण्डीरोद्याने यक्षः । विषा ७० । पञ्चमबलदेवनाम सम० १५४ । सुदर्शन:- अरचक्रोपिता । आव० १६२ । सुदर्शन:- अरनाथपिता । आव० १६१ । सुदर्शन:- स्वयम्भूव । सुदेवधर्माचार्य: । आव० १६३ टी० । सुदर्शन:- पञ्चमबलदेव: । आव० १५६ । नागकुमारस्य हस्तिराजः | ठाणा० ३०२ । अष्टमचक्रवतिपिता । सम० १५२ । शोभनं जम्बूनदमयतया वज्ररत्न बहुलतया मनोनिर्वृत्तिकरं दर्शनं यस्वाऽसो सुदर्शनः । सूर्य ७८ । सुदर्शन: मेरुजंम्बूझोपता भिभूतः । सूत्र० १४६ । मल्लीनाथपिता । सम० १५१ । ग्रैवेयके षष्ठप्रस्ट | ठाणा० ४५३ । तृतीयबलदेव वासुदेवस्य धर्माचार्यः । सम० १५३ । पार्श्वनाथ पूर्व भवनाम । सम १५१ । वाणिकग्रामे श्रेष्ठी । म० ५३२ । वाणिक प्रामे वस्तः ॥ अन्त० २३ । सुष्टु - शोभनं जाम्बूनदमयतया रनबहुलतया च मनोनिवृत्तिकरं दर्शनं यस्याऽपी सुदर्शनः मेरु-नाम । जं, प्र. ३७५ । राजगृहे श्रेष्ठी । अन्न० २० । गाथापतिः । अन्त० २० नमःकारात् श्रेष्ठिनः । भक्तः । राजगृहे गाथापलि: । निरया० ३७ । सुदंसणगिरि सुदर्शनो गिरिः- मेरुः । दश० २७८ । सुविहीणा - सूत्रविधिना । पड० १०५ -५ । सुत्तवेयालिया-कर्मार्य भेदविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । सुता-सुप्तानीव सुप्तानि बाल्यादअव्यक्तचेतनानि । ज्ञाता ० ३५ । सुत्ताउला आधायाः । नि० चू० द्वि० १०० आ । सुत्ताणुगम - सूत्रानुगमः अनुगमे भेदः । आचा० ३ । सूत्रानुगमः - सूत्रव्याख्यानम् । अनु० २५८ । सुतानुगम-अस्खलितादिप्रकारं शुद्धं सूत्रमुच्चारणीयम् । सुदंसणा - सुदर्शना- सुष्ठु दर्शनं अस्याः इति सुदर्शना । ठाणा० ६९ । सुदर्शना - उत्तरकुरुषु जम्बूवृक्षः, प्रथिवी परिणाम:- सुदर्शनेति तन्नाम । सम० १४ । परावर्तितद्वारे निलय श्रेउिपरनी । पिण्ड० १०० । सुद. शंता - चन्द्रावतंसक प्रथम राजपत्नी । आव ३६६ । सुदर्शना - श्री महावीरस्वामिनो भगिनी, अपर नमानवद्याङ्गी । उत्त० १५३ । सुदर्शना - अपर नाम जम्बूवृक्षः । उत्त० ३५२ | कालवालस्य चतुर्थाsप्रमहिषी । ठाणा० २०४ । अञ्जनपर्यंते चतुर्था पुष्करणी । ठाणा ० २३० । पिशाचेन्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी । ठाणा० २०४ । ( ११६१ ) सुतगमा सुत्तप्रकारा । नि० चू० तृ० ११ अ । सुतत्य - सूत्रार्थ एव केवलः प्रतिपाद्यते यस्मिन्ननुयोगेऽसी सूत्रार्थ:, सूत्रार्थं मात्रप्रतिपादनप्रधानो वा सूत्रार्थः । आव ० २७ । सुत्तदोसा-द्वात्रिंशत्तप्रमाणाः सूत्रदोषाः । श्राव० ३७४ । सुतपरिवाडी - सूत्रपरिपाटी-सूत्र पद्धतिः । आव ०६७ । सूत्रपरिपाटी, सूत्रपद्धतिः । विशे० ४९८ । सुतफासिअ निज्जुत्ति - सूत्र स्पर्शिक नियुक्तिः - सूत्रस्पर्शका रिणी निर्युक्तिः । अनु० २५८ । सुरु- सूत्रेण-आगमेन रुचिर्यस्य स सूत्रवचिः । उत्त ५६३ । सूत्रं - आचाराङ्गयङ्गप्रविष्टं मङ्गबाह्यं - आवश्यक. कालिकादितेन रुचिर्यस्य स तथा सूत्रमाचारादिकमङ्गप्रविष्टमङ्गबाह्यमावश्यकादिकं ततः यः सम्यक्त्व - मवगाहते- प्रसन्नप्रसन्नतराध्यवसायश्च भवति स सूत्ररुचिः । प्रज्ञा० ५६ । सूत्रेण - आगमेन रुचिस्थ स सूत्ररुचिः । उत्त० ५६३ । दश० २० । सुत्ताला वगनिष्कण- शुत्राला वक निष्पन्नः, निक्षेपे भेदः । दश० १५ । सूत्रालापक निष्पक्ष :- निक्षेपे द्वितीयो भेदः । आचा० ३ । सुक्ति - शुक्तिः - चन्दनाद्याधारभूता । जं० प्र० १० १ । सुत्तिमइ - नगर विशेषः । ज्ञाता० २०८ । सुत्तिया - कर्मार्यं भेदविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । सुत्थिए - स्वस्तिक: । जीवा० १८९ । सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्यनुगमः - नियुक्त्यनुगमे भेदः । जं० ( अल्प ० १४६ ) [ सुदंसणा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबक्खुजागरिया ] सुदर्शना- सुष्ठु शोभनं नयनमनसोरानन्दकस्वेन दर्शनं यस्याः स' । जं० प्र० : ३६ । साहञ्जनीनगर्यां गणिका । विपा० ६५ । शक्रेन्द्रस्य चतुर्थाऽप्रमहिष्या राजधानी । ठाणा० २३१ | कालपिशाचेन्द्रस्य चतुर्थ्याऽप्रमहिषी । ५०४ । अजितनाथशीबिका । सम० १५१ । सुदर्शना शोभनं दर्शनं - दृश्यमानता यस्याः सा, जम्बाः सुदर्शनायाः प्रथमं नाम । जीवा० २६६ । सुदर्शना । प्रभ० १३६ । सुदर्शना- सुष्ठु - शोभनमितिशयेन वा दर्शनं विचारणम नन्तरोक्तस्वरूपं चिन्तनम् । जं० प्र० ३३६ । सुदर्शना सुप्रभबलदेवमाता । आव० १६२ । सुदर्शना - पूर्वदिम् स्थिताञ्जनपर्वतस्य उत्तरस्यां दिशि पुष्करिणी विशेषः । जीवा० ३६४ । सुदर्शना - दक्षिणपश्चिमरतिकरपर्वतस्योत्तरस्यां शकदेवेन्द्रस्य रोहिण्याग्रमहिष्या राजधानी । जीवा० ३६५ । श्र० भ० महावीरस्य ज्येष्ठा भगिनी । आचा० ४२२ 1 धर्मकथायां पञ्चवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५२ । सिद्धिशिलानाम । दे० । सुदर्शनाजमालिभार्या । विशे० ९३५ । सुदर्शना - जम्बू सुदर्शना । जीवा० ३२६ । सौगन्ध्यां नगर्यो श्रेष्ठीनो । ज्ञाता० १०४ । सुदर्शना - स्वामिदुहिता । आव० ३१२ । सुदवखुजागरिया - सुट्टु दरिसणं सो सुदक्खू तस्स जागरिया- प्रमादनिद्राभ्यपोहेन जागरणं सुदवखुजामरिया | भग० ५५ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सुद्धपरिहार सुदृष्टपरमार्थसेवनम् । प्रज्ञा० ५६ । सुदिट्ठपेयाल - सुदृष्टविचार:- सुदृष्टव्याख्यानविधिविचारः । विशे० ५८५ । सुट्ठि - सुदृष्टिः । विशे० ६४१ । सुदित-जातिशुद्धो । नि० ० प्र० २६८ सुदुक्कर- सुदुष्करः- सुदुःशकः । उत्त० ४५७ । सुदेसिय सुदेशितं सुष्ठु सदेवमनुजासुरायां पबंदि नानाविधनयप्रमाणैरभिहितम् । प्रभ० ११३ । प्रश्न ७७ । चक्रनाम । सम० १५७ । सुदाढ - सुदंष्ट्र:- नागकुमारराजः । आव० १६७ । नागकुमार विशेषः । नि० ० द्वि ७८ अ सुदाम अतीतोत्सर्पिण्यां द्वीतीयकुलकरः । सम० १५० । भरतेऽनीतायामुत्साविण्यां द्वीतीय कुलकरः । ठाणा० ३६८ । सुदिपरमत्थ-सुष्ठु - यथावद्दर्शितया दृष्टा- उपलब्धा:परमार्थाः जीवादयो येस्ते सुदृष्टपरम र्थाः आचार्यादयः । उत्त० ५६६ । | सुदिपरमत्थसेवणा- सुष्ठु सम्यग्रीव्या दृष्टाः परमार्था:जीवादयो येस्ते सुहृष्टरमार्थाः तेषां सेवना - दश० १२६ । सुद्धगंधारा-गंधारग्रामस्य चतुर्थी मुच्र्छना । ठाणा० ३९३ । शुद्धगान्धारा-गान्धारस्वरस्य चतुर्थी मूच्र्छना । जीवा० १९३ । सुदत्त - सुदत्तः- धर्मं घोषयविरान्तेवासी अनगारः । विपा० सुद्धगणी - शुद्धाग्निः अयपिण्डादो । प्रज्ञा० २६ । ९२ । सुदर्शन - वासुदेवस्य चक्रम् । उत्त० ३५० । चक्रविशेषः । सुद्धदंते - आगामियां चतुर्थचक्रवर्ती । मम० १५४ । शुद्ध. दन्तः- अनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य पश्चममध्ययनम् । अनुत० २ । शुद्धवन्तः असरद्वीप विशेषः । जीवा० १४४ । शुद्धदन्तनामान्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५० । सुद्धदंतदीव - अन्तरद्वीप विशेषः । ठाणा० २२६ । सुद्धपउम - कुसुमान्तर वियुतं पुण्डरीकं वा शुद्धपद्मम् । ०गा० ५ । सुद्द - शूद्रः । आव ० २६२ । सुद्ध - अध्पायच्छिती । नि० ० प्र० ४ आ । ऋणं न दाप्यते । बृ० तृ० २४५ अ । बहुफलम् । नि० चू० प्र० १६५ आ । शुद्धं मलेपकृतं शुद्धोदनं च । ठाणा० १४८ । शुद्ध-शुद्धोदनो व्यंजनरहितो भवति शुद्धम् । व्य० द्वि० ३५३ आ । यत् अलेपकृतं कोञ्जिकेन पानीयेन वा सम्मिश्रीकृतं तत् शुद्धम् । व्य० द्वि० ३५३ था। शुद्ध :- शुद्धिमितिः- दोषरहितः । उत्त ० २९४ । शुद्धंभक्तदोषविवजितम् । सूर्य० २६३ । शुद्धं भक्तदोषवजतम् । भग० ३२६ । शुद्धं केवलं - अभ्यपदासंसृष्टम् । सुद्धपरिहार- जो सो वि सुच्चा पंचयामं अणुत्तरं धम्मं परिहरइ-करोति । नि० चू० तृ० ८९ आ । शुद्धपरिहार:- शुद्धस्य सतः परिहारसंचयमनुत्तरवम्मं करणं, यो विशुद्धः कल्पव्यवहार क्रियते स सुद्धपरिहारः ! व्य० प्र० ४५ अ । पास्तिः ( ११६२ ) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुद्धपरिहारिओ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ [सुधर्मास्वामी सुद्धपरिहारिओ-शुद्धपरिहारिकः । जं.प्र. १५० टि० ।। सित्तो । नि० चू० प्र० २६८ श्रा। सुद्धपाण-अपाने चतुर्थों भेदः, देवहस्तस्पर्शः । भग• सुद्धसणा-शुवैषणा-दशैषणादोषरहित आहारादिः । आचा. ६८० २४३ । सुद्धपुढवी-शुद्धपृथिवी-पर्वतादिमध्ये या पृथिवी । जीवा० | सुद्धेसगिए-शुद्धषणा-शङ्कितादिदोषपरिहारतः पिण्डग्रह१४० । शुद्धपृथिवी-अशस्त्रोग्हता भूमिः । दश० २२८ ।। स्तद्वांश्च शुढेषणिकः । भग• ६२१ । . शुद्धपृथिवी.-नदीतटभीत्यादिरूपा । जीवा० २३ । सत्यो- | सुद्धसणित-शुद्धषणिक:-शुद्धा-अनतिचारा एषणा-शङ्कि. बहता वि जाणवेत्थरि सा । दश० चू० ११९ । तादिदोषवर्जनरूपा तया चरति । ठाण:० २९८ । सुद्धप्पवेसाई । उपा० ४३ । | सुद्धोदए-शुद्धोदकं तडागसमुद्रनदीह्रदावटादिगतमवश्यादि । सुद्धप्पा-शुद्धात्मा। अन्त० २१ । शुद्धारमा-स्नानेन | रहितं जलम् । आचा० ४० । शुद्धोदकं अन्तरिक्षसमूशुचिकृतदेहः । ओप० २३ । द्भवं नद्यादिगतं च । प्रज्ञा. २८ । शुद्धोदक-अन्तरिक्ष. सद्धप्पावेसाई-शुद्धात्मानी-वैश्याणि वेषोचितानि अथवा समुद्भबे नद्यादिगतं वा । जीवा० २५ । शुद्धानि च तानि प्रवेश्यानि च राजदिसभाप्रवेशोचितानि | सुद्धोदग-शुद्धोदकं -अन्तरिक्षोदकम् । दश० १५३ । शुद्धप्रवेश्यानि । भग० १३७ । सुद्धोदण-शुद्धोदनः । आव. ८५६ । सुद्धभूमि-शुद्धभूमिः लाढावभूमिः । आव० २१२ । सुद्धोदणसुओ-शुद्धोदनसुतः । आव० ४१२ । । सुद्धवाए-शुद्धवातः मन्दस्तिमितो बस्तिहत्यादिगतो वा । सुद्धोदय - शुद्धोदकं-मेवमुक्तं समुद्रादिसम्बन्धि च जलम् । जीवा. २९। . उत्त० ६६१ । सुद्धवाताणुओग-शुद्धा-अनपेक्षितवाक्यार्या या वाक्- | सुद्धोयण-शाकादिवजितं कूरम् । भग १६३ । धवनं सूत्रमित्यर्थः तस्या अनुयोगो-विचारः शुद्धवागनुः सुद्धोवहडे-शुद्धोपहृतं-अालेपाभिवानचतुर्थेषणाविषयभू. योगः । ठाणा० ४६५ । तम् । ठाणा० १४८ । सुद्धवाय-मदस्तिमितः शीतकालादिषु शुरवातः । आचा० | सुद्धम्म-सुधर्मः अन्त गारविशेषः । विपा. ६५ । सुधर्म: स्थविरविशेषः । विपा० ६२ । सुद्धवाया-शुद्धवाता:-उत्कलिकायुक्तविशेषविकला मन्दा- सुवम्मसामी-सुधर्मास्वामी-काष्ठहारकदृष्टान्त आचार्यः। निनादयः । उत्त० ६९४ । दश० ६३ । सुद्धवियड-शुद्धविकटं-प्रासुकमुदकम् । आचा० ३४६ । | सुघम्मा-सुधर्मा-विशष्टच्छन्दकोपेता विजयदेवस्य सभा । शुद्धविकट-उष्णोदकम् । ठाणा० १४८ । जीवा० २२६ । । सुद्धसज्जा-सद्यग्रामस्य सप्तमी मूछना । ठाणा० ३९३ । । सुधर्म -महावीरपञ्चमगणधरः वर्तमानशासनाधिपतिः । सुद्धागणि-शुदाग्निः-निरिन्धन अग्निः । दश. १५४ । । विशे० १। सुद्धागणी-शुद्धाग्नि:-अय:पिण्डादी योऽग्निः ।जीवा० २९ | सुधर्मसभा-सुधर्म विमाने सभा । प्रभ० १३५ । शुद्धाग्नि-अस्पिण्डाद्यनुगतोऽग्निविधुदादिर्वा । जीवा० | सुधर्मस्वामी-पञ्चमगणधरः । बाचा० ११ । पञ्चम. १०७ । गणधरः । ठाणा० ७ । जम्बस्वामिनं प्रति गुरूपर्वक्रमशुद्धागनि-शुद्धाग्नि:-अयस्पिण्डान्तर्गतोऽग्निः ।शाता० १०४ लक्षणसम्बन्धस्योपदेष्टा । भय० ६ । जम्बूस्वामिनं कथकः। सुद्धाणं-समत्ते बंदणे आयरिओ पणामं करोति एवं शुद्धाणं आचा० २६ (?) । असतो गिलाणो शुद्धमेव केवलं पणमति । नि० चू० सुधर्मा-सोधर्मकल्पे सभा । शाता० १२७ । । प्र. २३८ आ । सुधर्मास्वामी-अर्थतोऽनन्तरागमे पञ्चमगणधरः । ज्ञाता० सुद्धाभिसित्त-जातिसुद्धोपि दिनादिएण अभिसित्तो सुद्धाभिः ।। ( १९६३ ) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधा ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [सुपरवकत सुधा- । आचा० ३६।। भग० ५२४ । सुप्रतिष्ठक-शरयन्त्रकं तच्चेह उपरिस्थापित. सुनंद- सुनन्दः- वासुपूज्यजिनप्रथमभिक्षादाता । आव• कलशादिकं ग्राह्यम् । भग० २८८ । सुप्रतिष्ठकः । जं. १४७ । सुनन्द:-हस्तिनापुराधिपतिः । विवा० ४ । प्र० ४१० । सुपतिष्ठकं -स्थापनकम् । जं० प्र० ११६ । अप्रमतीर्थकृत्पूर्वभवनाम । सम० १५३ । सुनन्दो चम्पायां सुप्रतिष्ठकः-पुष्पपात्रविशेषः । जं० प्र० १०१ । सुप्रति. श्रावकः । उत्त० १२३ । ष्ठक:- प्राधारविशेषः । जं. प्र. १५८ । सुपतिष्ठकः । सुनंदा-धनपालेभ्यस्य दुहिता । आव० २८९ । . जं० प्र० ८२ । सुनंदी-सरसमृद्धिकः । ज्ञाता० ५८ । | सुरइट्ठपुर-सुरतिष्ठपुरं-नगरविशेषः । विपा० ४४ । सुनक्मत्त गोशालकशतके अनगारः । भग. ६७८ । | सुपइट्रय-सुरतिष्ठक-स्थापनकम् । प्रश्र० ८४ ।। सुन मत्र-वीरदेवकुशिष्य मुक्ततेजोलेश्यादग्धमुनिः । ज० प्र० सुपइट्टाभ-प्रष्टसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सप० २२४ । १४ । सुनाम-पद्मनाभपुत्रः युवराजश्च । ज्ञाता० २१४ । सुइट्ठाभ-सप्तमलोकान्तिकविमानम् । ठाणा. ४३२ । सुन उण-सुनिपुणः सुसूक्ष्मः वा सुष्ठुनिश्चित गुणः । सम० | सपइटिअ-सुप्रतिष्ठितः-सत्प्रतिष्ठावान् । जं० प्र० १.९ । सुाइट्ठिय-सुष्ठु मनोजतया प्रतिष्ठित: सुप्रतिष्ठितः । सुनिच्छिय-सुनिश्चित:-जानदर्शनचारित्राणां यावजीवं | जीवा० २०६ । सुप्रतिष्ठिावान् । प्रभ० ८० । मया विराधना न कत्र्तव्येस्येवं सुष्टु निश्चितवान् यः | सुपइट्ठिय संहिए- । भग• ६१६ । स सुनिश्चितः । बृ० प्र० १३४ अ । सुक्खोतरसे-मुपक्वेक्षुरसमूलदलनिष्पन्नः सुपरवेक्षुरसः । सुनि म्य-सुनिमित- सुन्छु अधोमुवीकृतम् । भग सु पहनास-सोमनाः प्रभाः ये सुखेन वा प्रश्न्यन्ते ये ते सुनिअगा- । ज्ञाता० १०२ । सुरमाः । शोभना आना:-बाञ्छा येषां ते स्वमाः, सुासो सुनिशीतं-मालितम् । दश. २६५ ।। सुखे। प्रायते श स्वन्ते च शिक्षयाने येते.सुप्रभशास्याः, द्वारविवरणे धनश्रेष्ठिपुत्री । पिण्ड. १४४ । शासनानि वा प्रभशप्यानि-पूछाधान्यानि येते उन० ६३१ । सुन्दराकारा । जीवा. २७४ । नन्दपल्ली।। तथ' । पुप्रभाः शस्याश्च-प्रशसनीयाः : और० ४८ । मो. १६७ । सुन्दरी-प्राधायाः परावत्तितद्वारे तिलक सुपतिट-सावस्त्यां गाथापतिः । निरय. २३ । सुप्रतिष्ठा श्रेणिपत्नी । पिण्ड० १००। पर्वतविशेषः । आव. ८२७ । सुन्दरीनन्दः-द्वेषे इष्टान्तः । उत्त० ६३१ । सुमतिटग- सुप्रतिष्ठक: आधारविशेषः । बोवा० २१३ । सुन्न शून्यः कर्तब्यमूड: । प्रभ० ६३ । सुपतिद्वाभ-सुप्रतिष्ठाभं अष्टमं शोकान्तिकविमानम् । सुन्न काल-शून्यकाल: नारकभवानुगतसंसारावस्थामकासस्य ग. २७१ । प्रथमो भेदः । भग. ७ । सुपतिट्टित-सुतिष्ठितं पिरम् । बोप० २११ । असुन्नघर-शून्यपहम । शाता.७९ । सुग्नत्ता-सुठ प्राप्ता वर्षवा स्याता तथैव सुठु-सूक्ष्मसुमागार-शूभ्यागार-द्वसित गृहम् । उत्त०६६५ ।। परिहावनेन प्रकर्षग सम्यगासेविता । दश०१३७ । सु. इट्ठ-सुप्रतिष्ठं महासेनराजधानी । विपा. ८२ ।। सुपम्ह नवस गरोपस्थितिक देवविमानम् । सम० १५॥ शानां पक्षमवगंध्य त्रयोदशममहाया। बता ठाणा...। सहमो विजयः। प्र०३५७ । १८ । शास्त्रीयद्वितीयमासनाम । सूर्य. १५३ । जीवा. सुपरक्कं -सुपराकान्त जनितं कर्म सकलसस्यमैत्रीसत्य२३४ । भाषणपरद्रश्यानपहारसुणीलादिरूपसुराकमजनितम् । ज. सुपट्टग-सुप्रतिष्ठकं स्थापनकं तच्चे हारोपितवारकादि । प्र० १.६ । (११६४ ) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपरिवकत ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ सुबाहु सुपरिषकंत-सुपराक्रान्तं सुपराकान्तजनितं कर्मव ।। ११२ । जीवा० २०१ । सुप्पदिण्णा-सुप्रदत्ता-दक्षिणरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । सुपरीक्ष्यकारी- । शाव. ७६ । आव. १२२ । सुपरून्ने- । ज्ञाता• २४० । सुप्पबद्ध अष्टमवेयकविमानप्रस्तटः । ठाणा० ४५३ । सुपावय-सुपापकम् । उत्त० ३६१ । सुप्पबुद्धा-सुष्ठु-अतिशयेन प्रबुद्धा-उत्फुल्ला सा सुप्रबुद्धा । सुपाप्त-ऐरवते भावितीर्यकृत् । सम. १५४ । ऐरवते ज० प्र० ३३६ । सुप्रबुद्धा सुष्ठु-अतिशयेन प्रबुद्धे व उत्सपिण्या तीर्थकृत । सम१५४ । भरते आगमिष्य प्रबुद्धाः मणिकनकरत्नानि निरन्तरं सर्वतश्वाकचिक्येन तृतीयतीर्थकृत् । सम० १५३ । भरतेऽतीतायामुत्सपिण्यां सर्वकाल मुनिन्द्राः, जम्ब्बा सुदर्शनायास्तृतीयं नाम । तृतीयकुलकरः । सम० १५० । शोभनानि पान्यस्येति जीवा० २६६ । सुप्रबुद्धा, दक्षिणरुचकवारत्तव्या तृतीया सुपाश्वः सप्तमजिनः, यस्मिन् गर्भगते जनन्यास्तीर्थकरानु- दिक्कुमारिका महत्तरिका । जं० प्र० ३९१ । सुप्रबुद्धाभावेन शोभनो पावर्ची जाताविति सुपाश्वः । आव. दक्षिणारुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव २ १२२ । ५ ३ । भरते अतीतायामुत्सपिण्यो तृतीयकुलकरः । सुप्पभ-सुपभः चतुर्थबलदेवविशेषः । आव. १५६ । ठाणा० २६८ । १० भ० महावीरस्य पितृव्यः । आचा० आगामिन्यां तृतीयकुलकरः । सम. १५३ । भरते बा. ४२२ । गामिन्यामुल्सपिण्यां तृतीयकुलकरः । ठाणा० ३९८ । सुपासा-सुपार्शः पाश्वनाथशिष्यप्रशिष्या: । ठाणा० ४५७ । सुग्मः क्षोदवरद्वीपे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३५५ । सुपोए-सुपीतः पञ्चममुहूर्त्तनाम । सूर्य. १४६ । पद्म समजिनः षष्ठजिनः । नंदी० ४७ । सम. १५४ । सुपुंख-बादशमसागरोपस्थितिकं देवविमानम् । सम० सुप्पभा-चतुर्थबलदेवमाता । सम० १५२ । द्वितीयतीर्थ. कृत्शीबिका । सम० १५ । कालवालस्य तृतीयाऽनसुपुंड - द्वादशमसागरोपमस्थितिक देवविमानम् । सम. महिषो। ठाणा० २०४ । भुतानंदस्य षष्ठयममहिषी । भग० ५०४ । सुप्रभा-भद्रबलदेवमाता । वि. १६२। सुपुष्क-विंशतिसागरोपमस्थितिक देवविमानम् । सम०३९। सुप्पमाण- सु ग्माण-उचितप्रमाणः । औप० १० । सुपुष्पा-वापीनाम । जं. प्र. ३७१ । सुष्मसिद्धा-चतुर्थतीर्थकृत्शोबिका । सम. १५३ । सुपेसल-सुपेमलं नाम शोमनं प्रीति करं वा इति वृद्धाः | | सु प्रतिष्ठा-भाजनविधिविशेषः । जीवा० २६६ । ततश्च-सुपेशलं शोभनं प्रीतिकरं वा । उत्त• ३६१ । । सुमि-सुष्ठु सुखेन फण्यते-क्वाध्यते त कादिक यत्र सुप्प-गयकण्णाकारं । नि• चु० प्र० ६० आ। सूप्पम् ।। तस्पफ स्यालीपिठरादिमाजनम् । सूप० ११७ । प्रभ० ८ । सूर्पः । आचा• ७५ । सु-सुबन्धुः श्रोदामराजस्यामात्यः । विपा. ७०। सुष्पाण्णा सुतिज्ञा, दक्षिणरुचकवास्तव्या द्वितीया दि. सुबन्धुः । उत्त. ३०६ । कुमारीमहत्तरिका । जं०प्र० ३६१ । सुबंधुसचिव-भोगान्तरायविशेषे दृष्टान्तः । प्रज्ञा० ४६५ । सुष्पकत्तर-शूर्पकर्तरं शूर्पखण्डम् । उमा० २१ । सुबन्धू-प्रागामिन्यां सप्तमकुलकरः । सम० १५३ । सुप्पकोण-शूर्पकोणम् । बाव० २२४ । द्वितीयबलदेवपूर्वभवनाम । सम० १५३ । भरत आगा. सुप्पणह-शूप्पं मिनधान्यशोधक माजनविशेषवत् नखा यस्य मिन्यामुत्सपिण्यां सप्तमकुलकर। । ठाणा० ३९८ । स शूर्पणखः । ज.ता० १३३ । सुबंभ-एकादशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १६। सुप्पणिहिइंदिए सुरणिहितेन्द्र य:-श्रोत्रादिमिढिमुग्युक्तः | सुबंभवेर-सुब्रह्मय-संयमः । सूक. २४२ । । दश. १९. । सुबाहु झापधाारणपोरिका । ज्ञाता. १४ । सुबाहुःसुप्पणिहिय-सुमणिहित-सुणिष,नवत् सुरक्षितम् । प्रभ० । बच निधारिण्यो: पुषः । आव. ११७ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबाहुकुमार ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सुभहा सुबाहुकुमार-सुबाहुकुमारः । विपा० ९. । | १७७ । ज्ञाता० ६६ । सुबाहू-सुबाहुः-विपाकदशाना द्वितीयश्रुतष्कन्धे प्रथममध्यः | सुभगा-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । त्रीन्द्रियविशेषः । यनम् । विपा० ८६ । प्रशा• ४२ । भूनेन्द्रस्य चतुर्थाऽयमहिषी । ठाणा० २०४ । सुबीए-सुपीतः । ५. प्र. ४९।। सुरूपभूतेन्द्रस्य चतुर्थाऽप्रमहिषी । भग० ५०४ । सुभगंसुबुद्धि-सगरचके महामात्यः । नंदी० २४१ । सुबुद्धि- पविशेषः । जं० प्र०२६ । धर्मकथायां पञ्चमवर्गेऽध्यय. मंत्ति । नि० चू० प्र० ११६ अ । सुबुद्धिः- । (१) नम् । ज्ञाता० २५२ । सुभगाकर-दुर्भगमपि सुभगमाकरोतीति विद्याविशेषः । सुबुद्धी-सुबुद्धिः मन्त्रीविशेषः । ओघ १० । सुबुद्धिः- सूत्र. ३१९ । महाबलराज्ञोऽमात्यः । आव० ११६ । सुबुद्धिः-गजपुरे सुमजोग-शुभयोगः-उपयुक्ततया प्रत्युपेक्षादिकरणम् । नगर श्रेष्ठी । आव० १४५ । सुबुद्धिः-विजयबलदेवपूर्व- भग• ३२ ।। भवनाम आव० १६३ टी०। प्रतिबुद्धिनामराजस्य मन्त्री। सुभणाम-शुभनाम-यदुदयाद्नाभेरुपरितना अवयवाः शुभा ज्ञाता० १३० । चम्पायो जितशत्रोरमात्यः । ज्ञाता० __ जायन्ते तत्शुमनाम । प्रशा. ४७४ । १७३ । सचिवविशेषः । नि० चू० प्र० ३५१ था। सुभद्द-द्वितीयवासुदेवधर्माचार्यः । सम. १५३ । सभद्र:सुब्भ-रूप्यविशेषः । राज. २८ । रूप्यविशेषः । जं. सहजनीनगर्या सार्थवाहः । विपा० ६५। द्वितीयौवेकप्र. २९१ । प्रतस्तट: । ठाणा० ४५३ । अरुणोदे समुद्रे देवविशेषः । सुभिदुन्भि-शुभाशुभः । प्रभ० १६० । जीवा० ३६७ । षोडशमसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सुमिसद्द-शुभशब्दः । ज्ञाता. १७४ । शुभशब्दः । सम० ३२ । शुभद्र:-द्विपृष्ठवासुदेवधर्माचार्यः । आव० प्रशा० । २८९ । १६३ टी० । निण्यावल्यां द्वितीयवर्गे चतुर्थ ममभ्ययनम् । सुभिसहपरिणाम-शुभशब्दपरिणामः । जीवा० ३७१।। निरया० १९ । अचलपुरीय: कौटुम्बिकः । मरः । सुब्भिसद्दि-सुभशब्दो मनोज्ञाः । ठाणा० २५ । सुमहा-वतिरोयणेन्द्रस्य द्वितोयाऽप्रमहिषी । भग० ५०४ । सुब्भी-जं भोयणं वण्णगंधरसफासेहिं सुभेहिं उववेतं तं नागवित्रस्य द्वितीयाऽयमहिषी । भग० ५०४ । द्वितीयसुब्भि । नि० चू० प्र० १५० मा । बलदेवमाता । सम• १५२ । प्रथमचक्रिणो हस्तिरत्नम् । सुभ-सुभवडेंसगे सींहासनम् । ज्ञाता० २५१ । शुभं- सम० १५२ । कालवालस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी । ठाणा निरपायम् । पिण्ड० २१ । शुभं-मङ्गलभूतम् । जीवा० २०४ । शुभद्रा-इहलोके कायोत्सर्गफलदृष्टान्ते जिनदत्त१८८ । शुभफलम् । जीवा० २०१ । सभं-सामायिकस्य श्रेष्ठिसुता । आव० ७६६ । प्रतिमाविशेषः, तपविशेषः । षष्ठपर्याय: । आव० ४७४ । सुभगः-सौर्भाग्ययुक्तः । बोप० ३१ । अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य दशममध्यय. सूर्य० २६२ । शुभ-पुण्यम् । आव० ५६२ । शुभं- नम् । अन्त० २५ । सुभद्रा-वणिग्ग्रामे विजयमित्र. अर्थावहम् । भग० १६३ । जलरुहविशेषः । प्रज्ञा.३३ । सार्थवाहमार्या । विपा० ४६ ।. सुभद्रा-बलराज्ञी । द्वीसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम• ८ । नमि- विपा०६५ । सुभद्रा-विजयबलदेवमाता । आव० १६२ । नाथस्य प्रथमशिष्यः । सम० १५२ । सुभद्रा-मद्रस्य भारिया । निरय० २६ । सुमद्रा-योगसुभकंत-द्वीसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० ८ । संग्रहेऽनिश्रितोपधानविषशे उजयिन्यो धष्ठिभार्या । आव.. सुभगंध-द्वीसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० ८। ६७० । सुभद्रा-भद्राप्रतिमासमाप्रतिमा । ठाणा. ६५ ।. सुभा-सुभगम् । प्रज्ञा० ३७ । पद्मविशेषः । राज०८। सुमद्रा-भद्राप्रतिमासमाप्रतिमा, द्वितीया प्रतिमा । ठाणा यदुव्यवशादनुपकृदपि सर्वस्य मन:प्रियो भवति तत्सम- १९५ । समद्रा। उत्त. ३५४ । पञ्चप्रतिमायां द्वितीया।। गनाम । प्रज्ञा० ४७४ । सभगं-पद्मविशेषः । जीवा. ठाणा० २९२ । सुभद्रा-इहलोके कायोत्सर्गफलमिति Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभद्दावे ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ सुमणा दृष्टान्त कायोत्सर्गकारिणीजिनदत्तश्रेष्ठिसुता परमश्राविका । | सुभूमिभाग-उद्यानम् । ज्ञाता० १६६ । पृष्ठचम्पाया आव० ७६९ । सुभद्रा-प्रियचन्द्रराज्ञी । विपा० ६५ ।। मुद्यानविशेषः । उत्त० ३२३ । उद्यान विशेषः । ज्ञाता जिनदत्तसुधावकस्य पुत्री सुभद्रा । दश० ४७ । सुभद्राशोभनं भद्रं-कल्याणं यस्याः सा सकलकालं कल्याण- सुभोगा-तृतीया दिक्कुमारी । जं० प्र० ३८३ । सुभोगाभागिनी । (?) । जम्ब्वा:-सुदर्शनायाः पञ्चमं नाम । जीवा. अधोलोकवास्तव्या दिक्कुमारी । बाव० १२१ । २६६ । सुभद्रा-सस्योदाहरणे शौर्यपुरे धनञ्जयश्रेष्ठिमार्या। सुभोम-ग्रामविशेषः । आव० २१८ । भरते भागामिआव. ७०५ । वैरोचनेन्द्रस्य द्वितीयाऽयमहिषी। ठाणा. न्यामुत्सपिण्यां द्वितीयकुलकरः । ठाणा० ३९८ ।। २०४ । अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य दशममध्ययनम् । सुमंगल-विमसवाहनराज्ञो नोदितोमुनिः । भम० ६८९ । अन्त० २५ । ऐरवते आगामिन्यां प्रथमतीर्थकृत् । सम० १५४ । सुभद्दावे-मुण्डयेत् । गणिः । सुमङ्गल:-शिक्षायोगहष्टान्ते जितशत्रुराजपुत्रः । आव० सुभद्र-यक्षभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । ६७८ । सुमङ्गलः-ग्रामविशेषः । आव २२५ । सुभद्रा-वापीविशेषः । जं० प्र० ३७० । कृष्णवासुदेव- सुमंगला-भरतमाता । आव० १६१ । प्रथमचक्रवर्तेभागिनी अर्जुनपत्नी। प्रभ० ५९ । भरतचक्र नी- माता । सम० १५२ । रस्नम् । जं० प्र० २५२, २७२ । अनुशिष्टधामुदाहर. | सुमई-सुमतिः-प्रथमकुलकरः । ६० प्र० १३२ । शोमः णम् । व्य० प्र० ११७ अ । ना मतिरस्येति सुमतिः-पञ्चमजिनः, यस्मिन् पर्भगते सभफास-द्विसागरोपमस्थिर्क देवविमानम् । सम०८। जननी सर्वत्र विनिश्चयेषु अतीव मतिसंपन्ना जाताऽत। सुभर-कुब्वासहेत्यर्थः । नि० चू० प्र० ३३२ बा। सुमतिः । थाव० ५०२ । सुमतिः-धुतिमतिविषये मुख्या सुभलेस-द्विसापरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० ८। पाण्डववंशे कनिष्ठा पाण्डुसेणराजपुत्री । बाव० ७०८। सुभवण्ण-द्विसागरोपस्थितिकं देवविमानम् । सम० ८। ऐरवते आगामिन्यो दशमकुलकरः । सम० १५३ । सुभा-रमणिज्मविजये राजधानी । जं. प्र. ३१२ । | सुमउयं- । शाता० २० । शुभा-वैरोचनेन्द्रस्य प्रथमऽप्रमहिषी। भग० ५०३ । सुमण-सुमनः-नन्दीश्वरोदे समुद्रे देवविशेष।। जीवा० शुभा- । ठाणा• ८० । शुभफला । जं.प्र.४६ । ३६५ । स्वप्ना-निद्राविकृतविज्ञान प्रतिभातार्थविशेषः । सुभासियं-शोभनव्यक्तवाररूपं सुभाषितं शुभाश्रितं सुखा. ठाणा ५०२ । शोभनं-धर्मध्यानादिप्रवृति वृतं मनोऽस्येत्ति श्रितं सुधाश्रितम् । प्रभ० ११४ (१)। सुमनः । आव. ३६५ । इशानेन्द्रलोकपालस्य सोमस्य सुभासुभ-शुभाशुभं दुभिक्षादि । ओघ० १३५ । विमानम् । भग० २०३ । सुमन:-शोमनं मनो यस्याऽसी। सुभिक्ख-सुभिक्ष-सुकालः-भिक्षुकाणां भिक्षासमृदि।। जीवा० २४३ । सुमनः शोभनमनः । उत्त० ३८५ । भग. १९९ । सुमनः रुचकसमुद्रे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । नावा० ३६८ । सुभूम-चक्रवर्तीः । भग०७५३ । अष्टमचक्रवर्ती । सम० सुमनसः-पुष्पाणि । ओघ० ७५ । १५२ । आगामिन्यो द्वितीयकुलकर । सम० १५३ । । समणभट्ट-सूमनोभद्रः-अन्तकृशानां षष्ठमवर्गस्य द्वादशमः मानित्रियः । सूत्र० १७३ । कार्तवीयसुतः निःसप्तकृत्त्वो मध्ययनम् । अन्त०१८ । चम्पायां मशकहतः । मर। ब्रह्मणा व्यापादिताः । सूत्र० १७० । सुमोमः-अष्टम- सूमनोमद्रः-वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भग० २००। चक्रवर्ती। आव. १५६ । सुभूमः-कार्तवीर्यपल्या। सुमनोभद्रः । अन्त. २३ । संभ्रमेण सुखेन पलिता । आव ३९२ । सुभूमा-अष्टम- सुमणस-वल्लीविशेषः । प्रशा० ३२ । सुमनसा-नन्दीश्वर चक्रवर्ती । जीवा० १२१ । रोदे समुद्रे देवविशेषः । जीवा० ३६५ । सुभूमिभाए-चम्पायामुद्यानम् । ज्ञाता० ९१ । समणा-सप्तमतीर्थकृतस्य प्रथमा शिष्या । सम० १५२ । ( ११६७ ) स Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमणातिका ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सुय सुमना-नागमित्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी । भग० ५०४ । । शान्तिजिनप्रथमभिक्षादाता । आव० १४७ । मल्लिनाथ. सुमना:-शोभनं मनो यस्याः सकाशादू भवति सा सुपना:।। सहप्रव्रजकः तृतीयो राजकुमारः । ज्ञाता० १५ । ज० प्र० ३३६ । सुमना:-दक्षिणपूर्वरतिकरपर्वतस्य पूर्वस्यां | शान्तिनाथ जिन प्रथमभिक्षादाता । सम० १५१ । पञ्चमशकदेवेन्द्रस्य पद्मनामिकाया अग्रमहिष्याः राजधानी ।। जिनपूर्वभवनाम । सम० १५१ । जीवा० ३६५ । शोमनं मनो यस्याः सकाशाद् भवति | सुमित्तविजए सुमित्रविजयः-सगरचक्रीपिता । आव. सा मुमना। जम्ब्वाः सुदर्शनायाः अष्टमं नाम । जीवा० २६६ । समनाः कालवालेन्द्रस्य चतुर्थाऽग्रमहिषी । सुमित्तु-सुमित्र:-मुनिसुव्रतपिता । आव० १६१ । ठाणा० २०४ । सुमनसः-मनःकालुष्याभावात् सौमनसः । सुमुख-अभिष्टवक्ता पुरुषः । ठाणा० ४३ । सुमुह-यादवविशेषः । ज्ञाता० २१३ । अन्तकृद्दशाना सुमणातिया-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य द्वादशममध्यय. तृतीयवर्गस्य नवममध्ययनम् । अन्त० ३ । अन्तकृद्दनमू । अन्त. २५ ।। शायामणगारः । अन्त० १४ । सुमुखः यदोरपत्त्यः । सुमणुभद्द-सुमनोभद्रः-चम्पायां जितशत्रोः पुत्रः युवराज:- प्रश्न. ७३ । सुमुखः-हस्तिनागपुरे गाथापतिः । विपा० धर्मघोषशिष्यः । उत्त० ९२ । समनोभद्रः-अरुणोदे समुद्रे देवविशेषः । जीवा० ३६७ । सुमेघा-उवलोकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव० १२२ । सुमतिस्वामी-पस्थे तज्जन्या व्यवहारकारक: तीर्थकरः। सुमेहा-सुमेघा तृतीया दिक्कुमारीमहत्तरिका । ज० प्र० नंदी० १५८ । ३८८ सुमत्तओ-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रशा. सुयंगा-श्रुतं-श्रुतज्ञानं अङ्ग-कारणं यस्याः सा श्रुताङ्गाः, सुमना-वापीनाम । जं० प्र० ३७. । अहिंसाया नवमं नाम । प्रश्न. ९९ । मुमनोभद्रा-यक्षभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७. । सुय-श्रुतं-विशिष्टमत्यंशरूपः । ठाणा० ३४८ । श्रुतंसुमरणीया-स्मतव्या । च । . द्वादशाङ्गम् । ठाणा ५२ । श्रूयते तदिति श्रुतं-शब्द सुमरुत-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य षण्ठममध्य यनम् एव स च भावश्रुतकारणम् । ठाणा० ४६ । श्रुतंअन्त० २५ । ग्रंथः । ठाणा० ४४५ । श्रुतम् । विशे० ४२३ । श्रूयत सुमहंदो।-सुमहान् दोषः । ओघ० २२१ । इति श्रुतं शब्द एव, भावश्रुतकारणत्वात्, श्रूयतेऽनेनेति सुमह-सुमहानु-प्रतिशयगुरुरत्युच्चः । उत्त० ३५२ । श्रुतं तदावरणक्षयोपशमः, श्रूयतेऽस्मादिति श्रुतं, तदा सुमहु-बनस्पतिकायविशेषः । भग० ८०४ । वरणक्षयोपशमः, श्रूयतेऽस्मिन्निति वा क्षयोपशमः, शृणो सुमागह-सुमागधः-राष्ट्रकविशेषः । आव० २१९ । . तीति वाऽऽत्मैव तदुपयोगानन्यवाद । आव. ७ । सुमिणतयं-स्वप्नान्तः । आव० ७०२ । श्रूयत इति श्रुतं द्रव्यश्रुतरूपं शब्द इत्यर्थः, स च संकेतन समिणतियं स्वप्नान्तिकं स्वप्नप्रत्ययं कर्म । सूर्य० १२। विषयपरोपदेशरूपः श्रुतग्रन्थात्मकश्च । विशेः ६५ । सुमिण-स्वप्न:-निन्द्रावशविकल्पज्ञानः । सम० १७ । श्रुतं-मानं, बोधरूपम् । विशे० ९०७ । श्रुतं-वक्तृस्वप्न-स्वप्नफलाविर्भावकम् । सम० ४६ । स्वप्न- गतश्रुतोपयोगरूपम् । विशे० ६५ । श्रुतं-द्वितीया स्वप्नफलमुपचरात् स्वप्नम् । सम्० १८ । स्वप्न:- परिज्ञा । व्य० दि० ३९१ व । अवर्ण-श्रुतं-अभिन निद्राविक्रमः । प्रभ० १०१ ।। लाषप्लावितार्थग्रहणस्वरूप उपलब्धिविशेषः । अनु० २। सुमिणगर्दसणोवम-स्वप्नदर्शनोपमः । उत्त० ३२६ । शक:-कीरः । प्रभ०८ । श्रुतं-प्रतिविशिष्टार्थ प्रतिपादसुमिणपाढए- । ज्ञाता० २० । नफलं वाग्योगमात्र, भगवता निसृष्टमास्मीयश्रवणकोटरसमित्त-द्वितीयचक्रवति पिता । समः १ - प्रविष्ट क्षायोपमिकभावपरिणामाविर्भावकारणं श्रतम । ( ११६८) . Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयकरण ] दश० १३६ । श्रूयत इति श्रुतं शब्द एव, भावश्रुत कारस्थात, कारणे कार्योपचाराद् श्रूयते वा अनेनास्मदस्मिन्वेति श्रुतं तदावरणकर्मक्षयोपशमः, आत्मैव वा श्रुतोपयोग परिणामानन्यत्वात् शृणोतीति श्रुतम् । ठाणा० ३४७ | सूभ्यन्ते सूच्यन्ते वाऽर्था अनेनेति सूत्रम् ठाणा ० १२ । श्रुतं द्वादशाङ्गी रूपमहंत्प्रवचनम् । मग० ६ । स्मृतं प्रतिपादितं अनुचिन्तितं वा । म ० ६५ । स्मृतं - अनुष्यातम् । भग० १०० । स्मृतमिव स्मृतं स्पष्टप्रतिभा समावात् । मग० ३१६ | श्रुतं - आकणितम् । भग● १०० । श्रुतं वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंस्पृ. ष्टाचं ग्रहण हेतु रूपलब्धिविशेषः, एवमाकारं वस्तु घटशब्दवाच्यं जलधारणाद्यर्थं क्रियासमर्थमित्यादिरूपतया प्रधानी कृतः समानपरिणामः, शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेष इत्यर्थः । प्रज्ञा० ५२६ । श्रुतंआकर्णितं श्रवधारितम् । उत्त० ८० । श्रुतं - सामायि कादिविन्दुमारान्तं शास्त्रम् । अव० ६०४ श्रुतं कषा योपशमहेतुः श्रुतान्ततोपदेशः । उत्त० ५०६ । श्रूयते तदिति श्रुतं - शब्दमात्रम् । उत्त० ५५६ | श्रुतं -आकणितं अवगतं अवधारितम् । आचा० ११ । श्रुतं याकणितम् । उत० २८४ । श्रुतः - श्रुतानुसारिणो विशिष्टः मतिविशेषः श्रुतः । विशे० २५२ । श्रुतम् । विशे० ४१६ । सुभ्यन्ते सूच्यन्ते वाऽर्था अनेनेति सूत्रम् । ठाणा. ५२ । सुयकरणं श्रुतकरणं व्याकरणादिपरिज्ञानरूपोऽवस्थाविशे aise कलापरिज्ञानरूपश्च उत्तरकरणे द्वितीयः । सूत्र०५ । सुयकेवली - श्रुतकेवली, सुयकेवली - पण्णवणं पडुच्च केवलीवद्भवति कथमुच्यते चउबिहे जाणणे य गहणे य तुले रागदोसे अनंतकास वज्रणया एकाणि दाराणि अष्णे य पयस्ये जहा केवली पण्णवेइ तहा सुबधरोऽवि । नि० चू० द्वि० १३९ अ । अल्पपरिचित संद्धान्तिक शव्दकोषः भा० ५ सुयट्ठाण - श्रुतस्थानं - आचार्योऽहमित्यादिकम् । ९० । श्रुतस्थानं - गण्यादिः । पिण्ड० ९६ । मुयधम्म - श्रुतधर्मः श्रुतस्वभावः, बोधस्वभावत्वात् श्रुबोधश्च । आव० ८७ । श्रुतधर्मः - चारित्रधर्मः श्रुतंद्वादशाङ्गं तस्य धर्मः श्रुतधर्मः । दश० २३ । | श्रुतमेवआचारादिकं दुर्गतिप्रपत्तजीवधारणात् धम्र्मः श्रुधः । ठाणा० ५१५ । श्रुतमेव घर्मः श्रुतधम्मं :- स्वाध्यायः । ठाणा० १६४ | श्रुतधर्मः श्रुतस्य धर्म:- स्वभावः स च सुयक्खंध - श्रतस्कन्धः - अध्ययनस मुशयचक्षणः । सम० सुधान- सुर्गात सुज्ञानं वा । सम० १८ । १०८ । सुयारिया सुक्खायत्रम्म सुष्ठु वाध्यातो धर्मोऽस्येति स्यात धम्र्मा, संमारमीरुत्वाद्ययारोपित मारवाहीत्यर्थः । माचा० २४४ ॥ ( अल्प० १४७ ) श्रुतं च तद्धर्मच श्रुतधर्मो जीवपर्यायः, सुगतो संयमे वा धारणाद् धर्मः श्रुतमुच्यते श्रुतं च तद्धर्मः श्रुतधर्मः । विशे० ५६१ । सुर्यनिस्सिए श्र ुतं कर्म्मतारानं निश्रितं आधिनम् श्रुतं वा निश्रितमनेनेति श्रुतनिश्रितम्, यत्पूर्वमेव श्रमकृतोप कारास्येदानीं पुनस्तदनपेक्षमेवानुप्रवर्त्तते तदवग्रहादिलक्षणं श्रुतनिश्रितम् । ठाणा० ५१ । सुयपय- तपदाभिषेयं - आचारादिशास्त्रम् । अनु० ३२ । सुयपरिवाडो- तपरिपाटो श्रतस्य विधिः । विशे० ५०० सुयपिच्छ शुकपिच्छं शुकस्य पतत्रम् । प्रज्ञा० ३६० । सुयपेट-त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । सुयबेंट- त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । सुयभक्ती-त्र तभक्तिः - तबहुमानः, विपक्षित कर्मबन्धकार णम् एकोनविंशतितमस्थानकम् । आव० ११९ । श्रुत भक्तियुक्तता - प्रवचनप्रभावना श्रतभक्तिः प्रवचनप्रभावना तया च निर्वासितवान् श्र सबहुमानेन ज्ञाता० १२२ । सुयभावभासा - श्रलभावभाषा, भाषाभेदः । दश० २०८ । सुर्यसुहगुज्झद्धरागसरिस - शुकमुखस्य गुञ्जार्धस्य रागेण सदृशो रागः । शता० २३१ । सुयवेध - तृणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । सुयसागर - ऐखते आगामिन्यां नयम तीर्थकृत् । १५४ । च सम● [ सुरंगा पिण्ड ० ( ११६६ ) सुयाल-सुकालः । भगः १६९ । सुयी पश्चवशमजिनस्य प्रथम शिष्या । सम० १५२ । सुरंगा - सुरङ्गा । आव० ५६०, ६७७ : | ओघ० १७७ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [सुरूप सुर-सुष्ठ राजते सः सुर:-देवः । उपा० २६ । पिट्ठ-सुरवर-सुरवर:-सत्योदाहरणे शोर्यपुरे यक्षविशेषः। आव० कम्पादिदवसंजोगो । दश० चु. ८८। ज्ञाता० २०९ । | ७०५ । सुरइय-सुरचितः सुष्ठुकृतः सुरतिदो वा सुखकरः । प्रश्न | सुरहि-सुरभिः शतमः । आचा० ३४८ । ४० । अचलपुरीयः कौटुम्बिकः । मर।। सुरहितोवलए-गन्धारोहकः । श्रोष. १३० । सुरक्खिय-सुष्ठु-प्राहरिकपुरुषादिव्यापारणद्वारेण रक्षितः सुरहिपलंब-सुरभिः शतग्रिप्रलम्बः । आचा० ३४८ । पालितो दस्युमूषिकादिभ्यः सुरक्षितः । उत्त० ३५१ । सुरा-हिमवद्वषंधरे नवमकूटम् । ठाणा० । । सुरासूरक्ता-वापीनाम । जं० प्र० ३७१ । पिष्टादिनिरूपन्ना: दश. १८८। तन्दुलधवादिवल्लीनिसुरगणनरिंदम हिय-सुरगणनरेन्द्रमहितः-देवसमूहनृपपू- पन्ना । विपा. ४६ । काष्ठपिष्टनिष्पन्नः । उपा. ४९। जितः । आव० ७८८ । सुरादेव-वाराणस्यां गृहपतिः । ठाणा० ५०६ । महावीरस्य सुरगोव-सुरगोप:-इन्द्रगोपाभिधानो रक्तवर्णः कीटः । चतुर्थश्राद्धः । उपा० ३४ । ज्ञाता० १६० । सुरादेवी-सुरादेवी पश्चिमरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । सुरङ्गः-भूमिगृहम् । उत्त० ३७८ । नंदी० १६७ । आव० १२२। पाश्चात्यरुचकवास्तव्या द्वितीया दिक्कूमारीसूरट्र-सूराष्ट्र जनपदः । ज्ञाता० २० । नि. चू० प्र० महतरिका । जं.प्र.३९ शिखरिणिवर्षधरे चतुर्थों ३०४ था। कूटः । ठाणा० ७२ । निरयावल्यां चतुर्थवर्गऽष्टममध्यसुरत- मैथुनम् । ओघ० १०७ । यनम् । निरय० ३७ । सुरतानुबन्धि-मनःपरिचारण-सुरतानुबन्धिः परस्परं स- सुरादेवाकूड-सुरादेवीकूटम् । जं० प्र० २९६ । सुरादेवीभ्यासभ्यमनःसङ्कल्पकरणरूपम् । प्रज्ञा० ५५२ । कूट-सुरादेवोदिक्कुमारीकूटम् । जं० प्र० ३८१ । सुरत्तकणवीर-सुरक्तकणवीरं कुसमविशेषः । प्रभ० ५९ । | सुरासुरिया-भोजने अयं च सूरोऽयं च सूरो भूक्तां च सुरदत्त-उत्कृष्टमालापहृते गृहपतिः । प्रश्न. १०९ ।। यथेष्टमित्येवं या परिवेषणक्रिया सा सूरासूरिका । ज्ञाता. सुरनुचर- । ठाणा० २९७ । २५३ । सुरप्पिए-क्षयायतनम् । ज्ञाता० ९९ । सुरप्रियः-यक्षा सुरिंदगोवग-सुरेन्द्रगोपक:-वर्षासु रक्तवर्णः क्षुद्रजन्तु, यतनविशेषः । अन्त० २ । सुरप्रियनामयक्षायतनम् । आव. ६२ । विशेषः । जं० प्र० २१२ ।। सुप्पिय-नानवनोद्याने यक्षः । निरय०३९ । सुरिवदत्त-तृतीयतीर्थकृतप्रथमभिक्षादाता । सम० १५१ । सरप्रिय-साकेतपुरे यक्षः । विशे. ४६६ । सुरेन्द्रदत्त:-इन्द्रदत्तराजस्यामात्यदुहितसम्भूतः कुमारः । सुरभकं- । ओघ० ११६ । उत्त० १४६ । सुरेन्द्रदत्तः-तितिक्षोदाहरणेऽमात्यपुत्रीजात: सुरभि-सुरभि:-शतग्रुः । बृ• प्र० १४३ आ । इन्द्रदत्तराजसुतः । आध० ७०२ । सुरभिउवल-सुरम्युपल:-गन्धपाषाणः । पिण्ड • ९ । सुरियाभ-सूरियाभ:-ज्ञातायां त्रयोदशमेऽध्ययनेऽतिदेशः। सुरभिगंधनाम-यदुदयाज्जन्तु शरीरेषु सुरभिगन्ध उपजायते ज्ञाता० १८० । ज्ञातायां षोडशमेऽध्ययने अतिदेशः । ज्ञाता०२१० । ज्ञातायां त्रयोदशममध्ययने अतिदेशः। तत्सुरभिगन्धनाम । प्रज्ञा० ४७३ । सुरभिगंधकासाइया-सुरभिगन्धकषायद्रव्यपरिकमिता ल. ज्ञाता. १७८ । नाट्यविधावतिदेशः । निगय० २६ । घुशारिका सुरभिगन्धकाषायिकी। जीवा० २५३ ।। सुरूआ-मध्यमाचकवास्तव्या तृतीया दिक्कुमारिका । जं० सुरभिदाण-सुरभिदानं-सुगन्धिमद्जलम् । ज्ञाता० १६० । प्र० ३६१ । सुरभिपुर-श्रीमहावीरविहारक्षेत्रम् । आव० १९७ । सुरूचि-सुरूची रुढिगम्या आभरणविशेषो वा । प्रश्न० ७०। सुरयरिक्का-सुरतविरतः मुक्तमैथुनः । चउ० । | सुरूप-आंधानुमोदनायो श्रीनिलयपुरे राजपान्युपभोक्ता ( १९७०) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरूपविद्युन्मती ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्वकोषः, भा० ५ [सुवण्णजूहियाकुसुम पणिक । पिण्ड० ४६ । दृष्टान्ते राजगृहे प्रसेनजिस्सस्करथिकपत्नी श्राविका । -किन्नरीविशेषः । प्रश्र. १० । आव० ६७६ । सुरूपा-भूतानन्दस्य तृतीयाऽग्रमहिणी । भग० ५०४ । सुलसुलायइ-झटति । तं । सुरूपा-मध्यरुचकवास्तव्या दिक्कुमारीप्रधाना। बाव० | सुलोचना-मानपिण्डोदाहरणे कौटुम्बिकगृहिणी। पिण्ड . १२३ । सुरूव-यशस्मत्कुलकरभार्या । ठाणा० ३९८ । भूतेन्द्रः । सुवग्गू-सुवल्गू-ईशानेन्द्रलोकपालस्य वरुणस्य विमानम् । ठाणा० ८५। सुरूपः । ज्ञाता० ११ । सुरूपः-भूतेन्द्रः।। भग० २०३ । सुवल्गूविजयः । जं० प्र० ३५७ । ठाणा० जीवा० १७४ । सुरूपः-दक्षिणनिकाये द्वितीयो व्यन्तरेन्द्रः। भग० १५८ । सुवच्छ-सुवत्सः-दक्षिणात्यऋन्दितव्यन्तराणामिन्द्रः। प्रज्ञा. सुरूवा-सुरूपा भूतानंदस्य तृतीयाऽग्रमहिषी । भग० ५०४।। ९ । क्रदेन्द्रः । ठाणा० ५५ । सूवत्सः विजयः। जं० सुरूपस्य तृतीयाऽग्रमहिषी । ठाणा• २०४ । दिक्कुमारी।। प्र० ३५२ । महत्तरिका । ठाणा० ३६१ । तृतीया दिक्कुमारिमह-सुबच्छा-सुवरसा-अधोलोकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव० तरिका । ठाणा० १९८ । सुरूपा-तृतीयकुलकरपत्नी। १२१ । सुवरसा पञ्चमी दिक्कुमारी महत्तरिका । जं. आव० ११२ । धर्मकथायां चतुर्थवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता | प्र० ३८८ । ठाणा० ८. । सुबत्सा-विमलकञ्चनकूटे २५२ । धर्म कथायां पञ्चमवर्गेऽध्ययनम् : ज्ञाता० २५२ ।। देवी । जं० प्र० ३५३ । सुरेंदवत्ते-सुरेन्द्रदत्तः-सम्भवजिनप्रथमभिक्षादाता । आव० सुवर्ज-त्रयोदशमसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १४७ । सुलभबोहिय-सुलमबोधिक: बोधि:-जिनधर्मः प्राप्तिः सुवणमासा- । ज्ञाता. १०७ । सा सुलमा यस्य स सुलभबोषिकः । ठाणा• ६०। । सुवण्ण-सद्वर्णः ज्योतिष्कः ।' भग• ११५ । सुवर्णसुललिअ-सुललितं-स्वरघोलनाप्रकारेण सुष्ठु-अतिशयेन | पृथिवीभेदः । आचा० २९ । प्रवालांकुरसन्निभं । नि. खलतीव यत्, यदिवा यत् धोत्रेन्द्रियस्य शब्दस्पर्शनमतीव चू० प्र० १२५ आ । सुवर्णवर्णकृमिसूत्रभवं वस्त्रम् । सूक्ममुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत् । जं. बृ० दि० २०१ अ । षोडशकर्ममाषकनिष्पन्नः सुवर्णः । ०४. । अनु. १५५ । सुवर्ण:- सवर्णः ज्योतिष्क इति, सुवर्णकुमारो सुललिय-स्वरघोलनाप्रकारेण सुष्ठ-अतिशयेन ललतीव | वा । औप० १०० । ज्ञाता० ४६ । सुवर्ण-शोभनं यत् सुकुमालं तत् सुखलितम् । अनु० १३२ । । वर्ण विशिष्वणिकम् । उत्त० ३१६ । सुवर्णा:-शोम. सुलस-कालसौकरिसुतः अभयकुमारस्य सखा ।सूत्र० १७८।। नवर्णोपेतत्त्वाग्ज्योतिस्का यक्षराक्षसकिन्नराः । सम. " सुलसद्रहः । जं० प्र० ३०८, ३५५ ।। सुलसवह-देवकुरी चतुर्थो हृदः । ठाणा ३२६ । सुवण्णकारा-तृतीया श्रेणिः । जं० प्र० १९३ । सुलसा-दशमतीर्थकृतप्रथमा शिष्या । सम० १५२ । सुवण्णकूलाकूड-सुवर्ण कुलानदीकूटम् । जं० प्र० ३८१ । मापामिन्या षोडशतीर्थकुत्पूर्वभवनाम । सम० १५४ । स्मृ. तिविशेषः । आव• १५८ । महिलपुरे नागगाथापतेर्भार्या । सुवण्णखलगं-सुवर्णखलं-ग्रामविशेषः । आव० २०० । अन्त० ४। सुलसा-अमूढदृष्टिस्वोदाहरणे श्राविका । सुवण्णखोडीअ-सुवर्णखोरकः । श्राव. ४२१ । दश० १०२ । अम्बडपरिवाषकसमृद्धिरूपलम्यापि न सुवगगुलिया- । नि० चू० प्र० ३४८ छ । + संमोहं गता श्राविका । प्रमा० ६।। (?) १-१-३२ । सुवण्णजुहिया-सुवर्णयूथिका । प्रज्ञा० ३६१ । सुलसा । नि० चू० प्र० १५ अ । सुखसा-शिक्षायोग- सुवण्णजूहियाकुसुम-सुवर्णयूथिकाकुसुमम् ।जीवा० १९॥ ( १९७१ ) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवण्णपास ) आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सुविर - सुवण्णपास-सोपर्णेयपाएव:-गरुडसमीपः । उत्त० ४११ । । सुवर्णखुट्टिका- । नंदी० १५७ । सुवणभूमी-सुवर्णभूमिः । उत्त० १२७ । आव० १४८ । सुवर्णगुलिका-उदायननृपस्य प्रभावतीदेवीसत्का दत्ताभिसुबण्णवालुगा-सुवर्णवालुका-नदीविशेषः याव१९५ । धाना दासी । प्रभ० ८९ । सुवण्ण सद्दाल-सुवर्णशब्दालं सकिंकणीकं वस्त्रम् । जीवा० सुवर्णचरितादि-आच्छादनम् । उत्त० ६५० । ४०४ । सुवर्णशब्दालं नूपुरादिनिर्घोषयुक्तः । जीवा० सुवर्णछल्ली-त्वविशेषः । जीवा० १३६ । ४०४ । सवर्णपण-नाणकविशेषः । नंदी० १५६ । सुवण्णा -सुवर्णा:- गरुडकुमाराः । जं.प्र.२०१ । सुवर्णभूमी-यत्रजलमार्गेण गम्यते तत् । सूत्र ० १९६ । सुवण्णागर-सुवर्णाकरः । ज्ञाता. २२८ । सुवर्णकर:-यस्मिन्निरन्तरं महामूषासु सुवर्णदले प्रक्षिप्य सुवति-नस्यति । नि• चू० तृ० १६ छ । सुवर्णमुत्पाट्यते सः । जीवा० १२३ । सुवन्न-सुवर्णवर्णसूत्रम् । ३३८ । सुवर्णम् । प्रज्ञा० २७ । सुवाय-पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १०॥ सुवनकुमारा-सुवर्णकुमारा:-वैश्रमणस्याज्ञोपपातवचन नि- सुवासव-सुवासवः-वासवदत्तराजकुमारः । विपा० ९५ । द्देशवत्तिनो देवाः । भग० १९६ । भुवनपतिभेदविशेषः । । सुतासवः-विपाकदशानां द्वितीयश्रुतस्कन्धे चतुर्थमध्ययनम् । प्रज्ञा०६६। विपा० ८८। सुबन्नकुमारीओ-सुवन्नकुमार्य:-वैषमस्याज्ञोपपातवचननि. सुविक्कमे- । ठाणा० ३०२ । देशत्तिन्यो देव्यः । भगः १६६ । सुविणंत-स्वप्नान्तात:, विभागः, अवसानः । भग.७१२ । सुबन्नकोडी-सुवर्णकोटिक:- सुवर्णपुरुषः । आव० ४५२ । स्वप्न -स्थापकियानुगतार्थ विकल्पः । भग० ७१. । सुवन्नगारेय- । नि. चू० द्वि० ४२ था। स्वप्नम् । आव० ४२६ । स्वप्न:-स्वप्नप्रतिपादको सुबन्नजुत्ति-कालविशेषः । शाता. ३० । ग्रन्थः । सूत्र. २१८ । सामान्यफलवान् । भग० ५४३ । सुवनदार-सिद्धायतने चतुर्थं द्वारम् । ठाणा० २३० । सुविणपसिणा- । नि• चू० प्र० १७७ श्रा। सुवन्नपाग-कलाविशेषः । ज्ञाता. ३० । सुविणपाढग-स्वप्नपाठकः । आव० ३४३ । सुवनभूमी-सागरस्थानम् ।बृ० प्र. ३९ अ । सुविणा-स्वप्नात पुष्पचूलाया इव या स्वप्ने वा या सुबन्नवासा-सुवर्णवर्षः । भग. १६६ । प्रतिपद्यते सा स्वप्ना । ठाणा. ४७३ । सुवन्नवुट्ठी-सुवर्णवृष्टिः । भग. १९९ । सुविणीअप्पा- सुविनीतात्मा-जन्मान्तरकृतविनयः-निरति. सुबन्नसिप्पी-सुवर्णशुक्तिका-सुवर्णमयी शुक्तिका । प्रज्ञा चारधर्माराधकः । दश. २४६ । सविधिस्वामी-तीर्थव्यवच्छे समयवातु । प्रशा० १९ । सुबन्नागर-सुवर्णाकरः । भग. १६६ । सुविनीयसंसाए-सुष्ठ-अतिशयेन विनीत:-अपनीत:-प्रसा. सुबप्प-सुववि जयः । ज. ० ३५७ । दितगुरुणैव शास्त्रपरमार्थसमर्पणेन संशयो-दोलायमानसुवप्पा- । ठाणा० ८०। मानसात्मकोऽस्येति सुविनीतसंशयः, सुविनीता वा संसत्सुवर्ण-चत्वारि मधुरतृणफलान्येकः-श्वेत सर्षपः षोडशः | परिषदस्येति सुविनीतसंसत्क: बिनीतस्य हि स्वयमतिते एक धाम्यमाषफलं वे ते एका गुञ्जा पञ्च ता गुलाः | शयविनीतैव परिषद्भवति । उत्त० ६६ ।। एक कर्ममाषकः, षोडशकर्ममाषका एक सुवर्णः । जं. सुविभत्त-सुविभक्तः । सूर्य० २६ । सविभक्त:-सुविच्छि. प्र. २२६ । त्तिकः । ० प्र० २५ । सुवर्णकूल-ह्रदविशेषः । गणा• ७५ । ओ-सुविभक्तिक:-सविपिछत्तिक: ।जीवा० १५२॥ सुवर्णकूला-शिखरोवर्षघरे सप्तमकूटम् । ठाणा० ७२। सुविर-स्वप्तारं-स्वप्नशीलम् । बृ० प्र० २४८ मा । सुवर्णकुमा। ठाणा० ७५ । सुविर:-दोषवान् साधुः । ओघ० ९८ । ( ११७२) PRAN तिम Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविसाय अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ सुसमा मुविसाय-विंशतिसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० / धृतसत्पुरुषव्रतः । उत्त० २८१ । ३८ । सुव्वया-धर्मनाथमाता । सम० १५१ । आर्याविशेषः । सुविसुद्ध-सुविशुद्धः-निर्मल: । ज्ञाता० ६३ । ज्ञाता० १०७ । आर्याविशेषः । ज्ञाता० २०९ । आर्यासुविहि-सुविधि:-योगसङ्ग्रहे एकोनविंशतितमो योगः ।। विशेषः । ज्ञाता. २२६ । थार्या । निश्य० ३४ । आव० ६६४ । शोभनो विधिरस्येति सुविधिः, नवमजिनः, सुव्रता-धर्मजिनमाता । आव० १६० । सुव्रता। बाव. यस्मिन् गर्भगते सर्वविधिब्बेव विशेषतः कुशला जननीति ७६३ । सुव्रताः-शोभनानुव्रतधारकाः । वृ० तृ. २ अ । सुविधिः । आव० ५०३ । सुसंकय-सुसंस्कृत:-परमसंस्कारमुपनीतः । जीवा. (?) सुविहिअ- सुविहितं-सामायिकपञ्चमपर्यायः ।आव० ४७४। | सुसंजुत्त-सुसंयुक्तः-सावधान: । आव• ७१६ । सुविहिअकोटग-सविधिकोष्ठक सुसूत्रणा पूर्वकरचितोप. सुसंतुट्ठ-शुसन्तुष्टः-येन वा केन वा सन्तोषगामी । दश. रितन भागविशेष: । जं.प्र. १०७ । सुविधिकोष्ठकम् । २३१ । जीवा० २६९ । सुसंपरिग्गहिय-सुसम्परिपहीत:-सुष्ठ-अतिशयेन सम्यग्सुविहिता-साधवः । नि० चू० प्र० १५३ आ । मनागप्यचलनेन परिगृहीतः । जीवा० ३६१ । सुविहिय-सुष्ठ विहित-अनुष्ठितं यस्य सः सुविहितः । सुसंभंत-सुसम्भ्रात:-अत्याकुलः । उत्त० ४७४ । सम: १२७ । सुविहितः साधुः । ओघ० ४ । सुविहित:- | सुसंवरं-सुगुप्तम् । खोघ० १३९ । साधुः । आव० ५२० । शोभनं विहितं अनुष्ठानं यस्य सुसंहया-सुसंहता-सुश्लिष्य । जीवा० २७० । स सुविहितः-साधुः । आव० ६१६ । सविहितः-शोमना- सुसंहियं-सुसम्भृतम् । आव० ४०१ । नुष्ठान: । ओघ० १५६ । सुविहितः-शोभवं विहितं- सुसज-सुष्ठुप्रगुणम् । ज्ञाता० २२१ । अनुष्ठानं यस्येति साधुः । ओघ• ४ । सुविहित शोभनं सुसण्णाग-अलसो । नि० चु० प्र० १६३ । विहितं-शम्यग्दर्शनाद्यनुष्ठानम् । आचा० ३४ । सुविहितः सुसमण-सुशामन:-सुष्ठु-अतिशयेन शमन शान्तभावो यस्य शोभनं विहितमनुष्ठानं यस्य स । विशे० ५५५ ।। स । जं. प्र. १३१ । सुविही-छदारुआलिंदो । नि० चू० १० १९२ म। सुसमदुसम-काबविशेषः । आव० ५३९ । अङ्गणमण्डपिका । ६० तृ. २१२ अ। सुसमदुसमा-सुषमदुःषमः-सागरोपमकोटाकोटीद्वयप्रमाण! सुवीर-षट्सागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १२ । कालः । भग० २७५ । सुषमदुष्षमा-अवसपिण्यां तृतीसुवुट्ठि-सुवृष्टिः-धान्यादिनिम्पतिहेतुः । भग० १९९ ।। यारकः । आव० १२० । सुव्रत-लोमपिण्डदृष्टान्ते साधुः । पिण्ड० १३९ । सुसमदुस्समा-सुषमदुष्षमा दुष्टाः समा अस्यामिति दुष्षमा, सुव्वए-शोभनो निरतिचारतया सम्यग्मावानुगततया च सुषमा चासो दुष्षमा च सुषमदुष्षमा, सुषमानुभावबहन व्रतं-शीलं परिपालनात्मकस्येति सुव्रतम् । उत्त० २५१।। प्लास्प दुष्यममानुभावः । बं० प्र. ८६ । सुसमदुष्षमाऐश्वते आगामिन्या तीर्थकत । सम० १५४ । तृतीयारकः । ठाणा० ७७ । सुस्वता-बायाँ । निरय० ३० । सुसमसूसमा-सुषमा चासो सुषमा च सुषमासुषमा द्वयोः सुब्यत्त-सुव्रतं-सुव्यक्तम् । उत्त. ११३ । · समानर्थयोः प्रकृष्टार्थवाचकत्वादस्यन्त सुषमा, एकान्तसुव्यय-सुव्रत-अणुव्रतम् । प्रभ० १३६ । पद्मप्रभोः | सुखरूपोऽस्या एव प्रथमारक इति । जं. . ८६ । प्रथमशिष्यः । सम० १५२ । सुव्रतः । जं.३० १३५ । सुषमसुषमः-सागरोपमकोटाकोटीचतुष्टय प्रमाण: काला। एकाशीतिममहाग्रहः । ठाणा. ७६ । सुवत:-सवतः भग.२७१ । सुषमसुषमा-अत्यन्तसुखस्वरूपः प्रथमारकः । शोमतचितवनवितरणे वा । योप० ।०७ । सूखत:- ठाणा. २७ । मुषपसुषमा-प्रथमारका । ठाणा० ७७ । . समाधिज्ञाने शिशुनागश्रेष्ठिपुत्रः । आव० ७०७ । सुव्रत:- सुनमा-पुषमा-द्वितीयारकः । ठाणा० ७७ । सुष्टु ( १९७३ ) . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसमाकाल ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ सुस्सरा शोभना: समा:-वर्षाणि यस्यां सा सुषमा । ज० प्र०८६ ।। शुषिरं वंशादि । जीवा० २६६ । शुषिरः । सूर्य. सुसमाकाल-सुषमाकाल:-द्वितीयारकः । जं० प्र० ८६ ।। २८६ । सुसिरं-आउज्झं । नि, चू• तृ. १ अ । सुसमारपुर-सुसुमापुरम् । भग० १७१ । सुसिलिट्ठ-सुश्लिष्टः-सुघनः-सुस्थितः । ज०प्र० प्र० ११० । ए-सुसमाहिता-शुद्धमाव: । दश० २२८ । सुश्लिष्टः-संबद्धः । जीवा० २२६ । सुश्लिष्टः-सुश्लेषा. सुसमाहिय-सुषमाहित:-सुगुप्तः । आव० ६५३ । सुसमा. वथवः मसृणः । जं० प्र० ४०३ । सुश्लिष्टः-संगतः । हित:-ज्ञानादिषु यत्नपरः । दश० ११६ । सुसमाहितः- जीवा० २७१ । सुलिष्टः-मांसलः । जीव० २७० । उद्युक्तः । दश० २०० । दर्शनादिषु सुष्ठ-सम्यगाहितः | सुसिलिट्ठा-सुश्लिष्टा-अविसर्वरा । ज्ञाता० १६ । सुसमाहितः । आव २१६ । सुसीमा-वच्छविजयराजधानीनाम । जं० प्र० ३५२ । सुसमाहिया-नाणे दंसणे चरिते य सुठु आहिया | सुसीमा: । अन्त० १८ । सुसिमा । ठाणा० ८० । सुसमाहिया । दश० चू० ५२ । अन्तकृशानां पञ्चमवर्गस्य पञ्चममध्ययनम् । अन्त. सुसर-दशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १७ । १५ । षष्ठतीर्थ कृण्माता । सम० १५१ । पद्मप्रभमाता । सुसहाव-सुखभावः-शोमनस्वरूपः शुखभावो वा। प्रभ. आव० १६० । १५८ । सुसील-सुशीलः । बाव० ७९३ । सुसागय-सुस्वागतं-अतिशयेन स्वागतम् । भग ११६ । | सुसीलभूओ-सुष्ठु-शोभनं शीलं -समाधानं चरित्रं वा सुसागर-एकसायरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० २। भूत:-प्राप्त सुशीलभूतः । उत्त० ३७३ । सुसाण-श्मशानम् । उत्त० ३.१ । शबानी शयनं | सुसीलसंसग्गी-सुशीलसंसर्गी, आयतनपर्याय। । ओघ. अस्मिन्निति वमशानं पितृवनम् । उत्त० १०८ । मयसयणं । | २२२ । नि० चू० द्वि. ७०। श्मशानम् । शाता० ८० । | सुसुई-सुश्रुतिः सुशुचिः-सम्यक् श्रुतं-ग्रन्थः ससिद्धान्तो मशानम् । बाचा. ३०७ । श्मशान-प्रेतभूमिः। उत्त० वा । औप० ४८ । ६६५ । शबाना शयनं श्मशानं पितृवनम् । वाचा. सुसुद्ध-नवसागरोपमस्थितिक देवविमानम् । सम० १५१। २७० । सुसुणाय-शिशुनाग:-समाधिज्ञाते सुदर्शनपुरे श्रेष्ठी । पाव. सुंसाणगिह-मशानगृहं-पितृवनगृहम् । भग० २००। म | ७०७ । शानगृहं कम्मंताणि शून्यगारं विविक्तम् ।बाचा० ३१६ (१)। | सुसुमा-सुसुमा-परिणामिक्या धनदत्तपुत्री । माव० ४३० । सुसाणसामंत-श्मशानसामन्तं-शबस्थानसमीपम् । ठाणा. सुसुमार-शिशुमारपुर-संवेगोदाहरणे धाधुमारराजधानी । __ आव० ७०६ । शिशुमार:-जलचरतियश्चः । प्रज्ञा० ४३ । ससामाण-सप्तदशसागरोपमस्थितिक देवविमानम । सम सुसूर-पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १०।। सुसेण-सुषेणः । जं० प्र० २१८ । सुषेणः-महाचन्द्र सुसाल-अष्टादशसागरोपस्थितिकं देवविमानम् । सम० | राजस्यामात्यः । विपा० ६५ । ३५। सुस्थितः-लवणसमुद्राधिपतिर्देवः । प्रज्ञा० ११४ । सुसाहुघादी-सुष्ठु साधु-शोभनं हितं मितं प्रियं वदितुं सुस्समण-शोभना: श्रमणाः यस्मिन् स सुश्रमणः । बाव. शीलमस्येत्यसो ससाधुवादी, क्षीरमध्वाधववादीत्यर्थः । सूत्र. २३७ । सुस्तणिग्घोसा-सुस्वरनिर्घोषा-सूर्याणा घण्टा । जं. सुसियकसाए-शोषितकषायः । ग० । प्र. ४०६ । सुतिर-सुषिरं-काहलादि । जीवा० २४७ । एकोनविंशति- सुस्सरा- सुस्वरा-उदधिकुमाराणां घण्टा । जं.प्र. ४०७ । तमसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम• ३७ ।। सुस्वरा-चन्द्राणां घण्टा । ज. प्र. ४०९ । गीतरतेस्त. (११७४ ) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्वणा ] तीयाऽग्रमहिषी । ठाणा० २०४ | सुस्वरघोषः सुष्ठु यस्वं स्वकीयं अनन्तरोक्तं वर्णं शृङ्खलादिकं तेन राजते इति सुस्वरः । जं० प्र० ५३ । धर्मकथायां पश्चमवर्गेऽध्य यनम् । ज्ञाता० २५२ । गीतरते:- तृतीयाऽग्रमहिषी । भग० ५०५ । अल्पपरिचित संद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ सुहम्म स्वैरिन्द्रियैः करणभूतैरित्यर्थः, निपातनात् सुखमुच्यते । विशे १३०५ । सुखं । नि० चू० द्वि० ९ आ । अणबाई । नि० चू०प्र० ७७ म । भवे निरुपद्रवता । राज० २६ । प्रधानः । राज० ७ | शुभः स्वस्वकर्मकुशलः । राज० ३ | सुखविषयावाप्ता वाल्हादः । उत्त० २८४ । गुरुप्रदत्तेनाभयप्रदानादिना जीवाः पञ्चभिरपीन्द्रियैः सुखमनुभवन्ति, अतस्तत्प्रदाताऽभयादिप्रदाता गुरुरपीह सुखम् । विशे० १३०५ । सुखं शर्म क्षेमं च । जीवा० २४२ । सुखआल्हादनुभवरूपं क्षणम् । दश० ३६ । शुभ:- मङ्गलभूतः । जं० प्र० ३० । सुखं - श्रवणकालोद्भवमानन्दम् । सम० ६२ । सुख - विशिष्टाल्हादरूपम् । आव० ४४६ । सुखं• शानन्दरूपम् । भग० ६७२ । सुहड- सुहृतं - शाकपत्र देस्तिक्तत्वादि घृतादि वा सूपवि लेपिकादीनाम् । उत्त० ६१ । सुहणामा - शुभनामा - पञ्चमीतिथी । सूर्य • १४८ । शुभ नामा- पश्चमीतिथी । ज० प्र० ४६१ । सुहसवणा- सुष्ठु श्रवणे - शब्दोपलम्भो येषां ते सुश्रवणाः । जं० प्र० ११३ । सुस्सूस शुश्रूषस्व श्रवणेच्छां विधेहि । बाचा० २३९ । सुस्सू सई - सुश्रूषति - यथाविषयमवबुध्यते । दश० २५६ । शुश्रूषते - विनययुक्तो गुरुवदनारविन्दाद्विनिर्गच्छद्वचनं श्रोतु मिच्छति । नंदी० २५० । संस्कुरुते । उ० मा० । विन युक्त गुरुमुखात् श्रोतुमिच्छति शश्रूषति । आव० २६ । सुस्सूसण- शुभ्र सणं- अदूरासन्नतया सेवनम् । दश० २४१ । सुश्रूषणं ण पक्खओ ण पुरओ इत्यादि विधिना गुरु. वचनश्रवणेच्छा पर्युपासनमिति । उत्त० १७। शुश्रूषणंपर्युपासनम् । उत्तः ५७६ । सुस्सू सणाविणए-शुश्रूषणा-सेवा सैव विनयः शुश्रूषणा- सुहत्थि - स्थूलभद्रशिष्यः, विशिष्टगोत्रः सुहस्ती | नंदी ० विनयः । भग० ६२२ । सुस्सुसमाण-शुश्रूषणाः- धम्मं श्रोतुमिच्छा न गुर्वादिः पर्युपास्ति कुर्वन् । आचा० २५६ | शुभ षन् श्रोतु मिच्छन् । दश० २५२ । भगवद्वचनानि श्रोतुमिच्छन् शुश्रूषमाणः । सूर्य० ६ । ४६ । सुस्सा- शुषा- पूजा । दश० २४६ । गुरोरादेशं प्रति. श्रातुमिच्छा शुश्रूषा गुर्वादेव्यावृत्यम् सूत्र० १८५ । शुषा तदादेशप्रति श्रोतुमिच्छा पर्युपासना वा । उत्त० 1 ६०६ । सुहंसुह - सुखायेति - ऋतु भाज्यमानसुखः । ज्ञाता० ३३ । सुखसुखं - सुख परम्परावाप्ति: । उत० ५८१ । सुह- सुखं सुखहेतुत्वाद, उपशमश्रेण्यामुपशामकं प्रश्यपूर्वक रणानि वृत्तिबादर सूक्ष्म संपरायरूपा गुणत्रयावस्था । सूत्र १९७ । सुखं तद्भव सम्बन्धिः । जं० प्र० ३६८ । सुखंविशिष्टाल्हादरूपम् । प्रभ० १११ । सुखं शर्म । भग० ११५ । सुशः प्रणार्थी निपातः, स्वानीन्द्रियाणि, शोभनानि स्वानि यस्यासी सुखः शुद्धेन्द्रियोऽभिमतः । : विशे० १३०४ सुष्ठु इतं प्राप्तं स्वितं स्वेभ्यः इद्रिन्येभ्यः सुहत्थी - शुभार्थी भव्यान् प्रति सुहस्ती वा पुरुषवरगन्धहस्ती । भग० १२७ । सुहदुक्ख - सुखदुःख । - सुकृतदुष्कृतम् । उत्त० ३८२ । सुहफात-सुखस्पर्शं वा शुभस्पर्शम् | सूर्य० २६३ । सुखस्पर्शः शुभस्पर्शः वा । प्रज्ञा० ६६ । शुभस्पशंम् । जीवा० 188 1 सुहदुखोवसंपया-ति० ० ० २४१ अ । तुमेहति सुखं ऐकान्तिकाव्यन्तिक मुक्तिसुखात्मकम्, 'एषति' इत्यनेकार्थश्वद्धातूनां प्राप्नोति शुभं पुण्यमेषते - प्रन्तर्भावितण्यर्थस्वात् वृद्धि नयति । उत्त० ३१३ । सुहम्म-वद्धमाणसामिस्स सिस्सो । नि० पू० प्र० २४३ अ । सुधर्म :- मृगग्रामनगरे चन्दनपादपोद्याने यक्षविशेषः । विप० ३५ । सुषमंः- वणिग्ग्रामे दूद्वीपलाशचंत्ये यक्षविशेषः । विपा० ४५ । सुधर्म :- पचमगणधर । आव २४० । द्वादशमतीर्थं कृत्प्रथम शिष्यः । सम० १५२ । सुत्र नाम समे, सुर्मा शब्दार्थः सुष्ठु शोभनो धर्मोदेवानां माणवकस्तम्भवतिजिनसक्थ्या शातना मीरुकत्वेन ( ११७५ ) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहम्मसामि] माचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [सहम देवाङ्गनामोगविरतिपरिणामरूवो यस्यां सा तथा, । मुहसीलय-सुखशीलता । मर० । वस्तुतस्तु सुष्ठ-शोभनो धर्मो-राजधर्मः समन्तुनिमन्तु- सुहसोलवियन्ना-सुहे सीलं व्यक्त येषां ते, मोक्खसुहे निग्रहानुग्रहस्वरूपो यस्यां सा । जं० प्र०३२२ । सील जंतमि विगतो बाया जेसि ते । नि. चूत. सुहम्मसामि-गणहरो । नि० चू.तृ३७ अ। ८० प्रा। सुहम्मा-सुधर्मकल्पे-समा । ज्ञाता० १३५ । कृष्णस्य सहसेखाओ- । ठाणा० २४६ । सभा। ज्ञाता० २०८ । सौधर्मकल्पे सभा । ज्ञाता. | सुहस्ती-वशिष्ठगोत्रः । (१)। १७८ । सुधर्मा । राज. ६२ । इशाने कृष्णवतंसके सुहा-सुखा-शुमा । भग० ५४३ । सभा। ज्ञाता०२५३ । सौधर्मकल्पे समा । ज्ञाता. सुहाए-सुखाय शर्मणे । भग० ४५६ । २५७ । सुहाकम्मत-सुधाकर्मान्ता-यत्र सुधापरिकर्म क्रियते । . सुहरिए-सुहृत-मित्रमेव सकपकालमव्यभिचारि हितोपदे- | आचः० ३६६ ।। शदायि च । जीवा० २८१। सूहाबह-सीतानद्याः दक्षिणे वक्षस्कारः । ज्ञाता० १२१॥ सुहरिनया-सुहरिय्यका-वनस्पतिविशेषः । (?) वृषस्कारः । जं० प्र० ३५७ । सीतोदानवाः पञ्चम. सुहलेंसा-सुखलेश्याः । सूर्य० २८१ । वक्षस्करः । ठाणा० ३२६ । सुहनियं-मुखगतम् । भक्तः ।। सुहावहा- । ठाणा० ८० । सुहविमोयतर-सुखविमोच्यतरक:-सुखं विमोच्यते-स्यज्यते सुहि-सुहृद्-मित्रम् । माता० ८८ । सुहृद् । उत्त. य: स सुखविमोच्यतरका, अत्यन्तं सुखेनैव विमुञ्चति यो । ४७३ । देहिनं - सुखविमोच्यतारकः । आणा• ४७ । -सुहिरण्यका-वनस्पतिविशेषः । राज.३३ । सुहविहार-सुखविहार-अवस्थानशयनादिरूपः । जीवा० सुहिरण्यका-वनस्पतिविशेषः । ६० प्र० ३४ । २६९ । सुहिरनियाकुसुम-सुहिरण्यिकाकुसुम-सुहिमयिका-वन. सुहवेयतर-सुखापेयः-सुखापनेयः सुखापेयतरः । ठाणा. स्पतिविशेषः तस्याः कुशुमम् । प्रज्ञा० ३६१ । सुही-सुहत-सज्जनो हितैषी । ठाणा० २४५ । नि. चू० सहवेयतरय-सुखवैद्यतरक:-मोहजनितग्रहापेक्षयाऽकृच्छानु. प्र० १९४ मा । भवनीयतः । ठाणा० ४७ ।। सुहोइ-सुहृद्-मित्रमेव सकलकालमव्यभिचारि हितोपदे. सूहसंगतायंति-सुखसङ्गत्यागे । महाप० । दायि च । जं. ०१२३ । सुहसाइ-सुखशायि-मनोविघाताभावानिराकुखतर्यास्त सुहुहुमं संपरायं-सुक्ष्मसपरायं-पतुर्य चारित्रम्,संपर्यत्वेभिः इात । उत्त० ५८६ । । समारमिति संपराया:-कषायाः, सुषमा बोभाशावशेष. सुहसाए-सुखशाय:-सुखेन शयनं, यदि वा शुखाशाता- | स्वात् सपराया यत्र तत् सूक्ष्मसंपरायम् । विशे०५४। सुखस्य ज्ञातनम् । उत्त• ५८६ । मुहुम-सूक्ष्मः-लोभकिट्टिकारूपः । ठाणा० ३२४ । सू. सुहसायग-सुखास्वादक:-अभिष्वङ्गेण प्राप्नसुखभोक्ता ।। माणि-श्लक्ष्णस्वादस्पधारतया च सुक्मः। ठाणा० ४..। दश. १६०। सूक्ष्मः मन्न:-वस्तुचननासमर्थः । मा० ३८५ । किट्टी. सुहसाया-सुख-वैयिकं शातयति-तहमनस्पृहानिवारणे. करणत: सूक्ष्मः । उत्त०५६८। सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्मः। नापनयतीति सुखशातस्तस्य भावः सुखशातता । उत्त. आव. २९ । बालाग्राणां सम्मखण्डकरणात सक्मम् । अनु. १०१ । सूष्मा-प्रायश्वेतोविकारकारित्वेनान्तरः । सुहसीलजण-सुखशीलजनः-पार्श्वस्थजनः । भाव० ५३९ । | सूत्र. ४ । सूक्म:-चक्षुरादीस्त्रियपथमतिकान्तः । प्रशा. पासस्थानी । नि० चू० वि० १६० भा। ३०३ । सूक्ष्म:-अतीन्द्रियः । प्रशा० ४७४ । सम(११७६ ) . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहमक इस अल्पपरिचित'बान्तिकाम्बकोषः, भा० ५ [ सूर्वमंगुल श्लक्षणः । जीवा. २३४ । सूक्ष्म-सूक्ष्मकायिकम् । दश० । कमसंपरायम् । आव० ७ । सूक्ष्मो लोभांशावशेषः १७ । मरते आगामिन्यामुन्सीयां षष्ठः कुलकरः । संपराय:-कषायोदयो यत्र तत्सूक्ष्मसंपरायम् । प्रज्ञा. ठाणा० ३९८ । सम० १५३ । सूक्ष्मः सारः । जीवा ६८ । सूक्ष्मः-प्रससझ्यातकिट्टिकावेदनतः सम्पराय:२४४ । सूक्ष्म-ध्यानविशेषम् । आव० ७२२ । सूक्ष्म- कषायः स च लोभकषायरूपः उपशमकस्य क्षपकस्य वा मृदुलघुस्पर्शम्, अच्छमिति । प्रज्ञा० ६।। सूक्ष्ममेव यस्य स सूक्ष्मसमपरायः । ठाणा० ५३ । सूकाम:-लोभ. वाऽतिचारमालोचयति यः स । ठाणा० ४८४ । सूक्ष्म- किट्टिकारूपाः सम्पराया:-कषाया यत्र तत् सूक्ष्मसम्परा. अल्पम् । दश. १४५ । सूक्ष्मम् । बृ. प्र. २६२ आ। यम् । ४ णा० ३२४ । सूक्ष्मम् । भग० १८४ । सूक्ष्ममेवातिचारजातमालोचयति, सुहमा सूक्ष्मा-प्रत्यन्तदुःखावबोधसूक्ष्मव्यवहितार्थपरिच्छेद. आलोचनायां षष्ठोषः। भग० ६१६ । सूक्ष्म-स्नेह पूक्ष्म सपर्थाः। आव ० ४१४ । सूक्ष्मा-पतला । जं० प्र। ५२७ । पुष्प पूछमादिकमष्टविधम् । दश० २२६ । सूक्ष्मसस्पराय:- सूक्षमा-कुशाग्रोया । आवा० ३८ । भूतग्रामस्य दशमं गुणस्थानम्, लोभाणून वेश्यन् सूक्ष्मो सुहमुत्तरआयामा-सूक्ष्मोतरायापा-गान्धारस्व रस्य षष्ठी भण्यते । आव. ६५० । मूर्छना । जीवा. १६३ । सुहेमकाइअ-सूक्ष्मकायिकम् । दश० १०३ । सूक्ष्म- सुहोइय-सुखोचितं-शुभाचितम् । उत्त० ४७२ । कायिकम् । दश• चू० ४३ । सुहाचिो -सुखोचितः-राजपुत्रादिः । पिण्ड. १७३ । सुहमकाय-सूक्मकार्य हस्तादिक वस्तुम् वस्त्रम् । मग. सुहोदए-शुभोदकः, तीर्थोदकः, सुवोदक:-नात्युष्णानाति. शातः । ज० प्र० १८९ । सहमकिरिए-निर्वाणगमनकाले केवलिनो निरुद्धमनोवा | सुहोरासो-सुखराशिः सुखसङ्घातः । आव. ४४६ । ग्योगस्यादनिरुद्धकाययोगस्यैतद् । अत:-सूक्ष्मा क्रिया सूइ-ताडपत्रसूच्यादिपको वनसीवनी वा । बृ. वि. कायिकी उच्छासादिका यस्मिस्तत्तथा । ठाणा २५३ अ । सूचिः । आव ० ६५१ । १६१ । सूइअ-सूचित-व्यञ्जनादियुक्तम् । दश० १८१ । सूतासहमकिरिए अप्पडिवाइ-सूक्ष्मा क्रिया यत्र निरुवाम- अभिनवप्रसूता । दश० १६६ । नोयोगस्वे सत्यद्धनिरुद्धकाययोगत्वात् ततः सूक्ष्मक्रियम्, सूइओ-सूचित:-तिरस्कृतः । बृ. तृ० २२ अ । अप्रतिपाति-अप्रतिपतनशीलं प्रवर्षमानपरिणामत्त्वात्, सूइमुह-यत्र प्रदेशे सूचीफलकं भिस्वा मध्ये प्रविति एतच्च निर्वाणगमनकाले केवलिन एव स्यादिति । तत्प्रत्यासन्नो देशः सूचीमुखम् । जीवा० १८२ । नि० बोप० ४४ । चू, द्वि० १८ आ । सुहमकिरियं-सूक्ष्मकिया । भाव० २२७ । सइयं-दध्यादिना भक्तमार्दीकृतम् । आचा० ३१५ । मुहमणिगोए-सूक्ष्मनिगोदः-प्रत्येकमनन्तानां जीवानामा | सूइयानेवत्था-प्रसूतिनेपथ्या । आव०२१३ । धारभूता: शरीररूपा । जीवा० ४१४ । सूई- सूचिः एकप्रादेशिकी श्रेणिः । प्रशा० २७५ । सूचीसुहुम तिगिच्छा- . । नि: चू० द्वि० ६५ आ । लोहमयोवस्त्रपीवनिका । पिण्ड १७ । सूचिः-फलकद्वय. सुहपनाम-सूक्ष्मनाम-बहूनां समुदाये चक्षुषाऽग्रहणं भवति सम्बन्धविघटनामावहेतुपादुकास्थानीया नानामणिमया । तत्सूक्ष्मनाम । प्रज्ञा. ४७४ । जीवा १८०, १९८ । आव ७९८ ! फलकसम्बन्धवि. सुहमवणस्सइ-सूक्ष्मवनस्पति:-निगोदा एव । जीवा० घटनाभावहेतुगदुकास्थानीया तेषामपरि इति तात्पर्यार्थ । ४१४ । जं. प्र. २५ । मुहमसंपराय-संपर्येति एभिः ससारमिति सम्परायः- सूईअंगुल-देयेणाकुलायता बाहल्यतस्त्वेकप्रादेशिकीनमःकषायः सूक्ष्मा: लोमांशविशेषत्वात, सम्पराग यत्र तत | प्रदेशश्रेणिः सूच्यङ्गुनम् । अनु० १५८ । (अल्प० १४८) (१९७७) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूईओ ' आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः- [सूत्रालापनिष्पन्ननिक्षेपः सू सूईओ-सूचयः फलकद्वयस्थिरसम्बन्धकारिपादुकास्थानीया। सूचीकलाप-तैजसकायिकानां संस्थानम् । प्रज्ञा. ४११ । ज० प्र० २३ । सूचीकलाव-सूचीकलापः । जीवा० १०७ । सूईतल-सूचीतलं-उर्द्ध मुखशूचीकम् । प्रश्न० २० । सूचीकुसग्गसंवर-अयं चौधिकोपकरणापेक्षः, तथा शूच्या: सूईपुडंतर-सूचीपुटान्तर- सूच्यो सूचीपुटं तेषामन्तरम् । कुशाग्राणां च शरीरोपघातकत्वाद्यसंवरणं-सङ्गोपनं स जीवा० १८२ । की सूच्यो सूचीपुटं तेषामन्तरम् । ज० शुचीकुशाग्रसंवरः । ठाणा० ४७३ । प्र. २६ । सूचीपक्ति: । सूर्य० २८२ । सूईफलए-सूचीमिः सम्बन्धिता ये फलकप्रदेशास्तेऽप्युप- सूच्याजीवी-तुन्नाक: । प्रज्ञा० ५८ । चारात् सूचीफलकः, सूचीनामध उपरि च वर्तमानः । सूण-शून:-लघुप्रकृतिः । सूत्र० १८० । जं० प्र० २५ । सूणा-घातस्थानम् । निरय० ११ । चुल्लन्यादयः । ग० । सूईफलय- सूचीभिः सम्बन्धितो यो फलकप्रदेशः सोऽप्युप । नि० चू० द्वि० १४८ अ । चारात् सूचीफलकः । जीवा० १८२ । सूणीय-शूनत्वं-श्वयथुवतिपित्तश्लेष्मसन्निपातरक्ताभिधात. सूईमुह-सूचीमुख:-दीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा, ३१ । जोऽयं रोगः । बाचा० २३३ । यत्र प्रदेशे सूचीफलकं मित्त्वा मध्ये प्रविशति तत्प्रत्या- | सूत-सूत: । आव० ८१६ । सूद: । आव० ३६६ । सन्नो देशः सूचीमुखम् । जं.प्र. २५ । सूती-शूचिः-मावशीचरूपा, अहिंसायाः षट्पञ्चाशत्तमं सूईवूह-सूची व्यूहः- सैन्यविन्यासविशेषः । प्रभ० ४७ ।। नाम । प्रभ० ९९। नि० चू• दि. १७२ अ । सूएमो-सूचयामः-लक्षयामः । पिण्ड० १२३ । सूत्तकपिओ-आवषयकादि कृत्वा यावदाचारः तावत्सवोऽपि सूकरोत्कोर्ण-एतादृशो भूप्रदेशः । ओघ० ५४ । - सूत्रकल्पिकः । ६० प्र० ६२ आ । सूक्ष्म कियमप्रतिपाति-ध्यानविशेषः । प्रज्ञा० ६०८। । सूत्र-श्रुतस्यैकार्थकम् । विशे० ४१६ । दृष्टिवादांशः । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान-विभागोनप्रदेशसङ्कोचकम् । उत्त० ५६५ । बागमः । आव० ६०४ । यत्र सर्वेऽतिप्रज्ञा० १०६ । सया समागच्छन्ति सूत्र अत्यर्थः । (?)। सूधमकियाऽनिवृत्तिध्यान-शुक्लध्यानतृतीया पादः । सूत्रकमुच्ची-भूषणविधिविशेषः । जीवा. २६८ । आव० ४४१ । सूत्रयति-अभ्युपगच्छति । अनु० १८ । गमयति । आव. सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिः-प्रधानशुक्लध्यानभेदः, सयोगकेवली २८४ । ध्याता इति योगः। आव०६०३ । सूत्रवलनक-वर्तम् । जीवा० २७० । सूक्षनक्षेत्रपल्योपम-क्षेत्रपस्योपमे भेदविशेषः ।ठाणा०९। सूत्रस्पशिक नियुक्ति-निर्युक्त्यनुगमे तृतीयो भेदः। ठाणा. सूक्षममत्स्य-मत्स्यविशेषः । प्रभ० १ । सूक्षममुद्धारपल्योषम-उद्धारपल्योपमे भेदविशेषः । ठाणा० सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम-सूत्रावयवानां साक्षेपपरिहार मर्थकथनम् । आचा० ३ । सूक्षपसंपराय-लोभांशमात्रावशेषतया सूक्ष्मः संपरायो | सूत्रस्य उद्देशनाचार्य:-आचार्यस्य तृतीयो भेदः । ठाणा.. यत्र तत् । अनु० २२२ । २९९ । सूक्ष्मानप्रणौ ।ओप० ८४ । सूत्रानुगम-अनुगमे द्वितीयो भेदः । ठाणा० ६ । अनुगमे सूचनं-ध्यक्तकरणम् । उ. मा. । । भेदः । जं. प्र.६ । सूचा-परं दोषेण सूचयति स्पष्टमेव दोष भाषतीत्यर्यः । | सूत्रालापक-सूत्रपदः । ठाणा० ६ । नि० चू० प्र० २७७ था । स्वव्यपदेशः । वृ. प्र. सूत्रालापकनिष्पन्न-निक्षेपे तृतीयो भेदः । बाव० २८॥ १२८ अ । सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपः । ठाणा.६. (१९७८) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रालापकपदानम् ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [सूरप्पन सूत्रालापकपदाग्रम् । सम० ११६ ।। सम० १० । शूर:-निर्भयः । व्य० प्र० २३० अ । सूप-सूपः-मुद्रादिविकारः । प्रश्न० १५३ । सूपः । उत्त. सूर्य-द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च । जीवा० ३६९ । निर्भयः-स च कुतश्चिदपि न भयमुपगच्छति । व्यः प्र. सूपपुरुषः-सूपकारः पुरुषः । जीवा० २६८ । २५३ आ । शूरः-पराक्रमवान् योधो वा । उत्त० ९१ । सूप्प-सूर्पः । आचा० ३४५ । । शूरः-अत्यन्तसाहसपनः । प्रभ. १३३ । शूर:-चार भटः । सूय-सूदम् । आव० २१७ । सूत:-ब्राह्मणस्त्रीक्षत्रियाभ्यां प्रश्न. १-१६ । शूर:-चौरचारभटादिभिरनभिभवनीयः । जातः । आचा० ८। अष्टादशव्यञ्जनभेदे प्रथमः । सूर्य बृ० प्र० ३१० । सोमस्याज्ञोपपातवचननि शवर्ती २६३। देवः । भग० १६५ । शूर:-चारभटः । उत्त० ३४६ । सूयक-शूचक:-पिशुनः । प्रश्नः ३० । विमानविशेषः । ज्ञाता. २५२ । निरयावल्या तृतीयवर्गसूयगे । नि० चू०प्र० ३२७ ।। द्वितीयमध्ययनम् । निरया०२१ । २६ । सूरो-विक्रमी । सूयगड-स्वपरसनयसूचनं कृतमनेनेति सूत्रकृतः । सूत्र. २ । ज्ञाता० ३३६ । सूर:-द्रहनाम । जं.प्र० ३५५ । सूर: सूत्रकृत-निर्युक्त्यां पञ्चम आगमः । आव० ६१ ।। हृदनाम | जं० प्र० ३०० । सूयगपारायणं-सहिता । व्य० प्र० २५६ । | सूरकंत-सूर्यकान्त:- खरबादरपृथिबीकाय: । प्रज्ञा० २७ । सूयगा-सूचकाः-सामन्त राज्येषु गत्वा अन्तपुरपालकै पञ्चसागरोपमस्थितिक देवविमानम् । सम० १० । सूरमैत्रीकृत्वा यत्तत्र रहस्यं तत्सर्वं जाति । ब्य० प्र० | कान्तः- मणिभेदः । उत्त० ६८६ । सूरकान्तः-पृथिवी१७० आ। भेदः । आचा. २६ । सूयणया । बृ० तृ० ७१ आ। सरकंतमणिणिस्सर-सूर्यकान्तमणि निसृतः-सूर्यखरकिरणसूयय सूचक:-राजपुरुषविशेषः । वृ० द्वि० ७३ था। सम्पर्क सूर्यकान्तमणेर्यः समुपजायते तत्वादरतेजस्कायः । सूयर-सूकर:-ग सूकरः । उत्त. ४५ ।। प्रज्ञा० २९ । सुपरजाइयं-मूकरजातिकं, चनुपदनानिविशेषः । आचा. । सरकड पञ्चसागरोपमस्थितिक देव विमानम् ।समा १०। सरज्झय-पञ्चसागरोपमस्थितिक देवविमानम् ।सम० १०॥ सलि-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । सूरण-कन्दः । दश० १६७ । कम्पविशेषः । आचा० ३० । सूया-सूचा:-पचन भङ्गिविशेषः । पिण्ड, १२८ । सूचा- सूरणए सूरणक-कन्दविशेषः । उत्त० ६६१। ध्याजः । ठाणा० ३०४ । परगतासूया । नि० चू० सूरणकंद-अनन्तकायभेदः । भग० ३०० । सूरणकन्द:प्र० २७८ अ । य अप्पणो परस्पर मेव दोसं भासति वनस्पतिविशेषः । जीवा. २७ । सूरणकन्दः-साधारण एसा । नि० चू० प्र. : २७८ अ । युव:-घृतादिप्रक्षेपिका | बादरवनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । दर्व्यः । उत. ३७२ । सूरदह-देवकुरो तृतीयो महाह्रदः । ठाणा० ३२६ । सयारा- नि. चू० प्र० ११ आ। सूरदेव-भरते आगामियां द्वितीयतीर्थकृत । सम० १५३ । सूयोमुह -सूचीमुख:-पक्षिविशेषः । प्रम ८ । सूरपरिवेस । मग०१६५ । सूर-शूरः-शूरमन्यः सुभटः । सूत्र. ८० । सूर्यः-भूषण- सूरपत्रत-सीतोदानद्यो द्वितीयो वक्षस्कारः । ठाणा • विधिविशेषः । जीवा. २६६ । सूर्य:-ज्योतिडकभेदविशेषः।। ३२६ । प्रज्ञा ६१ । सूरो-वक्षस्कारपर्वतः । जं० प्र० ३५७ । सूरपव्वता । ठाणा० ८० । सूरः-कुन्थुनाथपिता । घाव। १६१ । अष्टादशमतीर्थकृत- सूरप्पडिही-सूर्यप्रतिषि:-सूर्यप्रतिधानं सूर्यनिवेश इति । पिता । सम० १५१ । सप्तमचक्रवत्तः पिता, षष्ठमचक्री ।। सूर्य० ६५ ।। सम. १५२ । पञ्चसागरोपमस्थितिक देवविमानम् । | सूरप्पभ-सूर्यविमाने सिंहासनम् । ज्ञाता० २५५ । अर• ( ११७६ ) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरम्पमा ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [सूरियवरभद्द - - क्षुरीनगीं गायापतिः । ज्ञाता० २५२ । पञ्चसागरोपम- ] सूरावत्त-पञ्चसागरोपमस्थिकं देवविमानम् । सम० १० । स्थितिकं देवविमानम् । सम० १० । सूरिआवत्त-सूर्य रुपलक्षणमेतत्तत्र चन्द्रादयश्च प्रदक्षिणा. सूरप्पभा- सूर्यस्य प्रथमाऽमहिषी । ठाणा, २०४ । सूर्य | मावतंन्ति यस्य स सूर्यावर्तः- मेरुनाम । जं० प्र० ३७५ । प्रभा-सूर्यस्य ज्योतिषिन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी । जीवा० पलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रादिभिश्च ३८५ । धर्मकथायां सप्तमवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५२ । समन्ताद् भ्रमणर्श लेरावियते स्म-वेष्टयते स्मेति सूर्यावरणःजोतिषचक्रे तृतीयाऽनमहिषी : भग• ५०५ । सूरप्रभसूर | मेरुनाम । जं० प्र० ३७५ ।। श्रीयोः पुत्री । ज्ञाता० २५२ । . सूरिउऊ-सूर्यत्त': । सूर्य० २०९ । सूरप्पमाणभोई - सूरप्रमाणभोजी-सूर्योदयादस्तमयं यावद. सूरिमा निर चूद्वि. १२० । शनपान द्यम्यवहारी । सम० ३७ ।। सूरिय-सूर्यशब्दार्थस्तथाहि सूरेभ्यः क्षमासपोदानसझमादिसूरप्पमाणमोती-य: सूर्योदयमात्रादारब्धो यावत् नास्त- | वीरेभ्यो हितः सूरेषु वा साघुः सूर्यः । मग० ६५६ । मेति तावत् भूनक्ति सूर्यप्रमाणभोजी, एकोनविंशतितमम- सरिय उवराग-सूर्योपरागः-सूर्यग्रहणम् । जीवा०२३। समाधिस्थानम् । आव ६५३ ।। सूरियकंत-शिवराजव्यधिकारे अतिदेशः । भग० ५१४ । सूरप्पह-एकादशमतीर्थकृतशीविका । सम. १५१ । प्रदेशिसूर्यकान्तयोः कुमारः । राज० ११५ । सूरप्रमाणभोजित्वं-उदयादस्तमयं यावद् भोक्तृत्वम् , | सूरियकंता-सूर्यकान्ता प्रदेशिनो राजी । राज• ११५ । एकोनविंशतितममसमाधिस्थानम् । प्रश्न १४४ । सूरियगताइं-सूर्येण गतानि-चीर्णानि स्वचीर्णानि । सूर्य सूरमंडल-सूरमण्डल:-आदित्यविमानवृत्तः । सम० २६ । । २१ । सूरमनि-पुरुल्लि-वनस्पतिविशेषः । राज. ८०। । सूरियपण्णत्ती- सूर्यप्रज्ञप्ति:-नियुक्त्यां नवमसूत्रम् । आव० सूरमालिआ सूर्यमालिका-दीनाराद्याकृतिमणिकमाला ।। ६१ । ज. प्र. १.६। सूरियपन्नत्ती-सूर्यचर्यायाः प्रजपनं यस्यां ग्रन्थपद्धती सा सूर्य सूरलेस-चसारोपस्थितिक देवविमानम् । सम० १० । प्रज्ञप्तिः । नंदी० २०५ । सूरवण्ग-पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम्। सम० १० । सूरियपरिवेस-सूर्यपरिवेषा-सूर्यस्य परितो वलयाकारसूरसिंग-पञ्चसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० १० । परिणतिरूपः । जीवा० २८३ । सूरतिट-पञ्चसागरोपमस्थितिक देवविमानम् । सम. १० । सूरियभद्द-सूर्य भद्रः-सूर्य द्वीपे पूर्वार्दाधिपतिर्देवः । जीवा० -सरप्रभगाथापतेर्भार्या । ज्ञाता०२५२ । सप्तमस्त्रीरत्नम् । समा १५२ । सूरियमत-सूर्येण पूर्व निष्कमाणकाले अतीकृतम् । सूर्य. सूरसेण-शूरसेनः-जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । ऐरवले मागामिन्यां तीथंकृत् । सम. १५४ । सूरियमहाभद्द- सूर्य महाभद्रः-सूर्य दीपेऽपरार्धाधिपतिर्देवः । सूरहा -सूरदक:-शुरदक: कलहादिकुर्वनां शिक्षा कर्तुं जीवा. ३६९ । समर्थः । वृ० द्वि० २९३ अ । सूरियमहावर-सूर्य महावर:- सूर्यसमुद्र सूर्यवरे समुद्रे चारसूरा ।नि. चू०प्र० २७६ मा।| परार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६६ । . सूराइय-सूरादिकः-सूरकारणः । सूर्य० २९२ । सूरियवर-सुर्यवर:-वोपविशेष: समुद्रविशेषश्च । जीवा० सूराभ-अष्टसागरोपमस्थिस्तिकं देवविमानम् । सम० १४ ।। ___३६६ । सूर्यवर:-सूर्ये समुद्रे सूर्यवरे समुद्रे च पूर्वार्दा षष्ठमलोकास्किविमानः । ठाणा० ४३२ । सूर्याभं-पठम- | धिपतिर्देवः । जीवा० ३६६ । मोकान्तिकविमानम् । भग० २७१ ।। सूरियवरभद्द-सूर्यवरभद्रः-सूर्यवरभद्रः-सूर्यबरे द्वीपे पूर्वा सिरामि-सृबामि-स्यजामि । दश १४४ । धिपतिर्देवः । जीवा. ३६६ । (११८० ) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियवरमहाभह ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, भा० ५ [ सवलो सूरियवरमहाभद्द-सूर्यवरमहाभद्रः-सूर्यवरे द्वीपेऽपरा - सूर्याभदेव-येन वद्धमानस्वामिगुरतो वात्रिंशनाट्यविधयो पतिदेव: । जीवा, ३६९ । भाषिताः । जीवा. २४६ । सूरियवरावभास-सूर्यवरावभासः-दीपविशेष: समुद्रविशे. सूर्यावसिप्रविभक्ति:-पञ्चमनाट्ये भेदः । जं० प्र० ४१६ । षश्च । जीवा० ३६६ । सूल - शूलं शस्त्रविशेषः । आव० ६५१ । शूलम् । ६० सूरियवरावभासमद्द-सूर्यवरावभासभद्रः-सूर्यवरावभासे प्र० २०६ । शूलं-एकशूलम् । ६० प्र० २६६ । शूलम् । द्वीपे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६६ । जीवा० ११७ । शूलम् । बाव० ५८५ । शूलं-एकधुन सूरियवरावभासमहाभह-सूर्यवरावभासमहाभद्रः-सूर्य व- लम् । औप० ७१ । मि० चू• द्वि० १४८ अ । शूनम् । राव भासे द्वीपेपरार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६ आव० ५१३ । सूरियवरावभासमहावर-सूर्यवरावभासमहावर:-सूर्यवः । सूलग्ग-शूलाग्रम् । जीवा० १०६ । रावभासे समवेऽपराधिपतिर्देवः । जीवा० ३६६ ।। सुलपाणो-शूलपाणि:-यक्षविशेषः । आव०१९०। शूससूरियवरावभासवर-सूर्यवगवभासवरः सूर्यवरावभासे स- पाणिः । जीवा० ३६१ ।। मुद्रे पूर्वार्धाऽधिपतिर्देवः । जीवा० ३६६ । सूलाइतयं-शूलिकामिन्नम् । ज्ञाता० १६३ । सूरियाभ-भगवत्या जमाल्यधिकारे सूरियामातिदेशः । सूलाइत्त-शूलायमानः । ज्ञाता १५६ । भग ४७३ । निरयावल्या तृतीयवर्गेऽतिदेशः । निरय. सूलाइय-शूलाप्रोतः । ज्ञाता० १५७ । शूलायित:२१ । आचरितशूलारूपः । ज्ञाता० १५७ । शूलायामतिशयेत सूरियाभोव-राजप्रभीथे निर्दिष्टा सूरियाभदेववक्तव्यता । गतं शूलातिगम् । राज. १३४ ।। भग० १६२ । सूलाइयग-शूमाचितक:-शूलिकाप्रोतः । औप० ८७ । सूरियाभविमाणं-सूरियामविमानम् । भग० १६५ । सूलिय-शूलक:-कोलकविशेषः । प्रभ० । सूरियावत्त-सूर्य उपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाच प्र. | सूलिया-शूलिका-वध्यप्रोतनकाष्ठम् । प्रभ०८। दक्षिणमावत्तं ते यस्य स सूर्यावत्तः । सूय० ७८ । सूव-सपम् । गोष० २१५ । सूप:-पत्रशाका । सूब सूरियावरण-सूर्यरुपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाभिश्च -राद्धमूदगदाल्यादिः । पिण्ड० १६० । समततः परिभ्रमणशीलरातियते स्म-बेष्टयते सूर्यावरणः । | सूचकारा-श्रोणिविशेषः । जं.प्र. १९३ । सूर्य० ७८ । सूबपुरिस-सूपपुरुषः-सूपकार । ज. प्र. १०५ । सूरिल्लि-सरिलि:-वनस्पतिविशेषः । जीवा० २०० सूसिल्लि:- सूवियग-पायसो । दश चु० ७५ । वनस्पतिविशेषः । जं. प्र. ४५ । सूबोदण-सूप मोदनश्च सूपोदन: । ओघ० २१५ । सूरुत्तरवडिसग-पञ्चसागरोपमस्थितिक देवविमानम् । सूसमदूसमा--तृतीयारकः । ठाणा० ७६ । सम० १०। सूसरनाम-यदुदयवशात् जीवस्य स्वरः श्रोतणां प्रीतिहेतु सूरोक्य- सूर्योदय-चन्द्रानानपूर्या चन्द्रावतंस याज्ञ उद्यानम् । रुपजायते तत् सुस्वरनाम । प्रशा० ४७४ । पिण्ड ७६ । सूसरपरिवादिणि-सूसपरिवादिनी-कोणाविशेषः । प्रभा सूरोवराए-सूरोपरागः-सूर्यविमानस्योपरागो-राइविमान. १५६ । तेज सोपरञ्जनंग्रहणम् । ठाणा• ४७६ । सूसुमा-रागतो चेसारिपुत्रेण वषिता । व्य० प्र० १२ । सूरोवराग सूर्यग्रहणम् । भग० १९६ । सेंदुओ । निचू०प्र० । सूर्यकान्त-मणिविशेषः । जीवा० २३ । सेंधणा-ग्रहणम् । नि. चू० प्र०६८। सूर्यमासः-सार्वत्रिंशदहोरात्रः । सूर्य० । १० । सेंधव-सिंघवलोणपबए लोणं । दश. चू०५१ । सूर्यागमन विभक्ति-सप्तमनाट्यभेदः । बं० प्र० ४१६ । सेंबली-सिंगा । दश० चू० ८१ । ( १९८१) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्ययोआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: . से-त्वाम् । आचा. ४४ । स-कश्चित्-अथार्थो वा वाक्यो । जं० प्र० २४४ । पक्षेपे । ठाणा० २४७ । तत्शनार्थे । आचा० २३४ । सेड्या-वे प्रसृती सेनिका । ज्ञाता० ११९ । सेतिका । असो । भग. ५४२ । निहेसे । दश. चू० ६५ ! आव० ६९२ । सियं-तस्य जीवस्य यत् सितं-वद्धम् । विशे० ११८३ ।। सेउ-सेतूः-तदभिज्ञानभूतः पाली तन्मार्गों वा । ठाणा. से-तस्य । विशे. ११८३ । असो। बाव. २१४ । २६४ । अरहट्टजलेन सिच्यते तत्शेतुः । वृ० तृ० ५० ब । तत् । प्रज्ञा० ५९ सेशब्दोऽथशब्दार्थः । दश०१४।। सेत्तुं-मार्गमपङ्गतानां निस्तरणोपायः । ठाणा० ४६२ । सेशब्दः मागधदेशीप्रसिद्धः अथशब्दार्थः । दश० १४५ । कद्दमबहुलं पाणीयं । नि० चू० प्र० १९२ अ। सेतुःतस्य । दश. १५६ । असो-परिप्रभार्थः । भग० ३११। मार्गः । औप० २ । सेदुः-कुल्याजल सेकक्षेत्रम् । और बहुवचना: ते । जं० प्र० ३५ । तत् । भग० १४ । २ । सेतुः पालिबन्धः । ओप० ८ । सेतुः-मार्गः, आल. तस्य । आव०४३८ । अथ-वाक्योपन्यासार्थ: परिप्रभार्थों वालपाली वा। जीवा. १८९ । औप. ८ । सेतुः-मार्गा वा । भग• १४ । तस्य । अनु० २५६ । सोऽथशब्दार्थों, आलवालपाली वा । जं० प्र० ३० । सेतु:-अरहट्टादिना था । उत्त० २८४ । तच्छब्दार्थे । आचा० ३८ । सिच्यमान यनिष्पद्यते तत्सेतु क्षेत्रम् । वृ० प्र० १३८ सेशमोऽथशब्दार्थः । प्रज्ञा० ८ । तस्य । आव० ४२१। . आ । सेतुः-मार्ग:-आलवालपालि । राज. ७ । शब्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपात: तत्रशनार्थे, अथवा सेउसीमा-सेतुसीमा- । राज. २ । अथशब्दार्थ, स च वाक्योपन्यासार्थः । प्रज्ञा० ७ । सेश- सेए-सज:- सकम्प: । भग० २३५ । सेकः । आचा. ब्दोऽथार्थः । ठाणा० ४६५ । एषाम् । भग० १७४ । । ज्वरविसूचिकादीनां स्वेदः । आचा० ५० । तस्य । भग० १३ । अथशब्दार्थे प्रभार्थश्च । प्रज्ञा. श्रेथान-द्वितीय मुहूर्त नाम । जं० प्र० ४९१ । कुहन्डेद्रः। ६०१ । प्रतिवचनवाचिनोऽथशब्दार्थस्यार्थे । उत्त. १२६ । ठाणा. ८५ । श्वेत:-दाक्षिणात्यकोहण्डव्यन्तराणामिन्द्रः। स-सावशेषकुशलकर्मा तेषाम् । उत्त० १८७ । अथः । प्रज्ञा० ९८ । प्रज्ञा० २४६ । मगधदेशप्रसिद्धो निपातोऽथशब्दार्थे, अथ. सेओ-सीयन्ते-अवबध्यन्ते यस्मिनसो कर्दमः सेयः । शब्दश्च प्रक्रियाद्यर्थाभिधायी "अथ प्रक्रियाप्रश्नानम्तर्यमा मुत्र. २७२ । श्वेतो नाम राजा । राज० ९ । छोपन्यासप्रतिवचनसमुच्ययेषु" । जीवा० ४ । सेशब्दः सेक: । सत्त० १६३ । खद्धम् । ओष० १२१। पङ्क:मागधदेशीप्रसिद्धो निपातस्तच्छब्दार्थः । आव. ८२२ । पनको बा सजलो यत्र निमज्ज्यते स सेकः । ठाणा.. तस्पारम्मासोर्यः । आचा० १३० । तस्य । आव. १२८ । से तस्य-तदीयस्य । ज्ञाता० १०२ । सेकाल-एज्यस्काल: । प्रज्ञा० ५०३ । सेअंस-श्रेयांस-पञ्चमो लोकोत्तरमासः। ज० प्र० ४६०.1 सेग्गह-सग्ग्रह-ग्रहाधिष्ठितम् । विशे० १२९४ । सेअ-स्वेदः । आव ८४५ । सेचनक-दुल्लविहल्लयोर्गन्धहस्ती । भग. ३१६ । सेअमाल.-श्वेतमाला-द्रमजातिविशेषः । जं.प्र. ९ सेचनपथ-नीकादि । आचा० ४११ । सेअम्बिआ-वेतम्बिका, तृतीयनिन्हवोत्पत्तिस्थानम् ।। सेज्जंत-प्रातिवेधिमकाग्रहम् । व्य. दि. २५७ मा । विशे० ९३४ । सेज्जंभव-शय्यम्भक-दशवकालिकसूत्ररचयिता । दश. सेअवड-श्वेतपट:-श्वेताम्बरः साधुः । दश० ४७ । १९९ । नि० चू० प्र० २४३ ब सेअवि-श्वेतवी-भारद्वाजब्राह्मणोत्पत्तिनगरी । आव० सेज्जत-श्रेयांसः-शास्त्रीयपञ्चममासनाम । सूर्य. १५३ । १७२ । श्रेयांस:-एकादशो जिनः । समः । श्रेयांस:-सोम-- सेइंगाला-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । प्रभपुत्रः बाहुबलिपौत्रः । आव० १४५ । । सेहआ-हे प्रमृति सेतिका । मगधदेशप्रसिद्धो मानविशेषः। ' सिद्धा-शम्या-स्वरवर्तनम् । ज्ञाता० २०५ । शयनीयस्थान (१९८२) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेडाकप्पविहम्ण ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०५ [ सेढि शेरतेऽस्यामिति शय्या। आव० २६६ । शय्या-सर्वाङ्गीणां ९६ । फल कादिरूपा । ठाणा० ॥२। शेरते यस्यं साधवः सेटि-श्रेष्ठो-श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषतोत्तमाङ्गः । सा शम्या । ठाणा. ४६८ । शय्या-वसतिः । आव० भग० ४६४ । श्रेष्ठी-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूषितो७८१ । शय्या-बृहत संस्तारको । भग.. १३६ । तमाङ्गः पुरज्येष्ठो वणिक् । ठाणा० ४६३ । श्रेष्ठोशय्या-वसतिः । दश० २८१ । शय्या-संस्तारको वस- श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गः पुरज्येष्ठो तिर्वा । दश• १५६ । शय्या-संस्तारक: चम्मकादिपट्टा, वणिग्विशेषः श्रेष्ठी । अनु० २३ । श्रेष्ठी श्रीदेवताध्या. एकादशमपरीषहः । आव० ६५६ । शय्या-सर्वाङ्गिकी। सितः । बृ० प्र० १४५ आ। श्रेष्ठी-श्रीदेवताऽध्याआव. ७२७ । शम्या-वसतिः, यत्र वा प्रसारितपादः सितसौवर्णपट्टविभूतितोत्तमाङ्गः । मग० ३१९ । श्रेष्ठीसुप्यते सा शय्या । प्रभ० १२० । शय्या-नषेधिकी- | श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टालङ्कृतशिरः पुरज्येष्ठो वणि. रूपा । आव० २६६ । शव्या-यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते। विशेषः । जं. प्र. १२२ । औप० ४१ । उवसग्गादिमट्टकोट्टगादिसना । दश० चू० सेट्टिय-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितशिरोवेष्टनोपेतपी. ८५ । शय्या-वसतिः शयनं वा, यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते। रजननायकः । भग०१०।। ज्ञाता० १०७। शय्या-आचारप्रकल्पे द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य | सेट्रियाकुलं-बेष्ठिकुलम् । आव० ५३६ । द्वितीयमध्ययनम् । प्रश्न. १४५ शय्या-संस्तारकः सेट्टी-वणिग्गामे महत्तरो । दश० चु० १५७ । जस्स रण्णा चम्पकादिपटश्च । आव ६५७ । शय्या ज्ञाता०६. । अणुण्णातं सो। नि० चू०प्र० २७० अ । अट्ठारसहपय. शघ्या-आस्तरणम् । ओष० ५६ । सम्वग्गिया। नि. तीणं जो महत्तरो । नि० चू० प्र० २०६अ। श्रेष्ठीचू. प्र. १६० आ। श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टत्वभूषितोत्तमाङ्गः । औप० १४। सेवाकप्पविहण्ण- । नि० चू०प्र० १६३ अ। श्रेष्ठी श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गं पुरज्येष्ठो सेखातरपिंड-शय्यातरपिण्ड:-अशनादिवंस्त्रादिशूच्यादि । वणिग्विशेषः । जीवा० २८० । श्रेष्ठी-श्रीदेवतालकृतठाणा० ४६८ । शिरोवेष्टनकवाम् वणिय् नायकः । प्रभ० ९६ । श्रीदेवसजायर-शेरते यस्यो साधकः सा शय्या तया तरति ताध्यासितशिरोवेष्टनभूषितोत्तमाङ्ग:-श्रेष्ठी । बृ० दि. भवसागरं इति शय्यातरो-वसतिदाता । ठाणा. ४६८ । ८५ अ । श्रेष्टी-तुष्टनरपतिप्रदत्तश्रीदेवताध्यासितसोवणं सेलायपिंड- । भग० २३१, ४६७ ।। पट्टविभूषितोत्तमाङ्गो नगरचिंताकारी नागरिकजनश्चेष्ठः । सेखावाली-शव्यापालिका । बाव. ३६६ ।। व्य. प्र. ४६ था। सेखासंथार-शय्यासंस्तारो-शय्या-वस्ति, सुस्यतां यत् सेट्टीदोसा-णियमारक्खियो । नि० चू० प्र• १६५ अ । स्थानं शयनयोग्यावकाशलक्षणा शय्या-संस्तारकः । ३० सेडंगली-बेतालगलिः । नि० चू.द्वि. १०१। द्वि० २८७ आ। सेडिया-सेटिका-खटिका । आचा० ३४२ । वनस्पति सेखासंथारए-शय्या-शयनं तदर्थ संस्तारकभूमयः, अथवा कायविशेषः । भग ८०२ । शव्याया-वसतौ संस्तारका शय्यासंस्तारकः । ज्ञाता. सेडो-लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा. ४६ । सेडीबहु-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । सेखासंघारग-शव्या सर्वाङ्गीणा फलकादिरूपा संस्तारको- सेडुग-कर्पासः । बृ० वि० ११६ च । लघुतरोऽथवा शय्या-शयनं तदर्थः संस्तारकः शय्यासंस्ता. 1-निश्वेतकतिलः । ६० दि. ११६ था। रकः । ठाणा. ३१२ ।। सेडगवतंत-सेट्रकवृत्तान्तम । आव. ६८१ । सेजि-प्राचाराङ्गस्यकादशममध्ययनम् । उत्त० ६१६ ! सेढि-श्रेणि:-अाकाशप्रदेशपङ्क्तिः । उत्त० ५९७ । श्रेणि:सेटिका द्रव्यविशेषः । आचा०२। सम० १३८ । प्रज्ञा. तपविधविन्दुजातादेः पङ्क्तिः । ०प्र० ३१ । ( १९८३ ) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिआ ] सेडिआ श्वेतिका - शुक्लमृत्तिका । दश० १७० । सेटमणिओवाओ - एयस्स ठेवणारोषणसंवहेल्स संवग्ग फलानयणिमित्तं यरिएहि इमो सुमो, सेठि -गणितवाजो उद्दिट्ठो । नि० ० ० १०८ मा । सेढियो-श्रेणितपः- पक्श्युपलक्षितं तपः । उत्त० ६०० । से हिदुग श्रेणिद्विकं -उपशमश्रेणिक्षपकश्रेणिलक्षणम् । बृ० आचार्य श्री अनन्दसागरसूरिसङ्कलितः प्र० १३६ आ । सेठियऋज्वायतश्रेणिप्रधानं शतं श्रेणीशतम् । जं० प्र० १२२ । सेणावच्च सेनापत्यम् । जं० प्र० ६३ । सेणावति-सेनापतिः - तृपतिनिरूपितो हृदयश्वरथपदातिसमुदाय लक्षणायाः सेनायाः प्रभुः । ठाणा० ४६३ । सेनापति :- सकलानीकनायकः । प्रश्न० ७६ । सेनापतिःहस्त्यश्वरथपदातिसमुदायलक्षणा या सेना तस्याः ब्रभुः । जीवा० २८० । सेनापतिः - संभ्यनायकः । प्रभ० ६६ । सेणावती -सेनापतिः - सैन्यनायकः ठाणा ० ३९९ । सेनापति: - नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसंम्पनायकः । प्रज्ञा० ३२७८ सेनावतीरयण-सेनापतिः - सैन्यनायकः, चक्रवर्ती प न्द्रियप्रथमरत्न: । ठाणा० ३६८ । से नाहिव सेनाधिपः । आव० ७३८ । | सेजि - श्रेशय: । ज० प्र० १९३ । कुम्भकाराया अष्टा दशश्रेणयः । ज० प्र० २६४ । भग० ३१५ । सेणिओ - राजगृहे राजा । ज्ञाता० ११ । राजगृहे न पतिः । ज्ञाता० १७८ । राजगृहे नृपति: । उपा० ४८ । श्रेणिक:- राजगृहे नरपति: । अन्त १८ । राजगृहे नरपति: । अनुत्त १ । राजगृहे राजा । अनुत्त० ७ । राजगृहे राजा । ज्ञाता० २४७ । श्रेणिक:- राजगृहनग राधिपतिः । अन्त० १८ रायगिहे राया । नि० चू० म० ७ आ । श्रेणिकः -शुद्धिविषये वस्त्रदृष्टान्ते राजगृहे राजा । आव० ५६२ । श्रेणिकः- उपबृंहणोदाहरणे रायगिहे राजा । दश० १०२ । भावोपायोदाहरणे राजा । दश० ४१ । श्रेणिक:- राजगृहे नगरे राजा विषयकोपे उदाहरणम् । आव० ९५ । श्रेणिकः - गुरोर्विनयकरणदृष्टान्ते राजा । दश १०४ । श्रेणिकः- द्रव्यव्युत्सर्गे शहरणे राजा० । आव० ४८७ । श्रेणिक:स्पतिकी बुद्धिदृष्टान्ते मुद्रारस्ने प्रसेनजित्सुतः । आव ० ४१७ | राजगृहनगरे राया । बृ० प्र० ३१ म सेणिओराया - एकस्थम्मप्रासादकारकः य्य ० प्र. १७ अ । राजगृहे राजा । व्य० प्र० १९ अ । सेजिय-श्रेणिक:- रोविनयकरणदृष्टान्ते राजा । दश० १.४ । श्रेणिकः-संवरोदाहरणे राजगृहनगरे पृच्छकः । अव० ७१३ । भरते आगामिन्यां प्रथमतीर्थं कृत्पूर्व भवनाम | सम० १५४ । कोणिकपिता । निरय० ४ ( 8858) , भग० ९६४ । सेठी श्रेणि:- उत्तरोत्तरगुणपरम्परास्वरूपा । उत्त० ५६० । श्रेणि:- उत्तरोत्तरगुणपरम्परास्वरूपा । उत्त० ५८० । श्रेणिः - प्रदेश पङ्क्तिः । ठाणा० ४०७ । श्रेणिः- क्षेत्र प्रदेश पङ्क्तिः । आव० १४ । श्रेणि:- पङ्क्तिमात्र आकाशप्र देशपक्तिः । भग० ८६५ । श्रेणिः तथाविधविन्दुजातादेः पक्तिः । जीवा० १८९ । प्रमाणाङ्गुलेन यद्योजनं तेन योजनेना । अनु० १५६ । सङ्ख्येययोजनकोटाको टयः, संवर्तितसमचतुरस्रीकृतल कोस्य का श्रेणिः । अनु० १७३ । सेढीअंगुल - श्रेण्गुलम् । अनु० १७३ । आव० सेढीओ - श्रेणयः - प्राकाशप्रदेश पङ्क्तयः । बिशे० २०७ । सेन - सप्तम बलदेव पूर्व मत्रनाम । सम० १५३ । तेत्रियरायाचिता । नि० चू २५६ श्येनः । ३५१ । पक्लो । नि० चू० द्वि० १३३ आ । राजबिम्बविरहित सैभ्यम् । बृ० वि० २७३ आ । सेणग- सेवक:- शिक्षा योगदृष्टान्ते जितशत्रु राजभ्यामात्य पुत्रः । आव० ६७८ सेणयए - गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । सेणा - सेना - कल्पक वंशप्रसूतशकटानस्य पश्चमी पुत्री । आव० ६९३ । सेना - योगसङ्ग्रहे शिक्षादृष्टान्ते श्रेणिकभगिनी | आव० ६७२ । से-चातुरङ्गबलसमूहः । उत्त० ६०५ । सेता महती सन्ततिः । उत्त० ३६६ । सेना संभवनाथमाता | आव० १६० । सेण । वह सेनापतिः- चतुरन्तस्वामी राज्ञानुज्ञातः । आय० ६६३ । सेनापतिः- गणराजा । आव ० ५१६ । सेना. पति :- नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायकः । म ० ३१६ । सेनापति:- यदायत्ता नृपेण चतुरङ्गसेना कृत भवति । [ सेफिय Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेनियराय ] श्रेणिकः प्रसेनजित्पुत्रः - प्रधानदर्शनवतोऽपि चारित्रेण विनाऽधरगतिप्राप्तिः । आव० ५३२ श्रेणिक:- स. रोदाहरणे राजगृहनरेशः । आव० ७१३ । श्रेणिकः । अल्पपरिचित संद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ५ भक्त० । सेणिराय - श्रेणिकराज - चरणकरणे शक्तानामालम्बनम् । आव० ५३१ । सेणो-श्रेणी: । आव० २०३ । श्रेणिकः । भक्त० । सेणीपसेणी। ज्ञाता० ३७ । सेण्टि सेण्टन - सेष्टितं तस्सेष्टितं अनक्षरश्रुतविशेषः । बाव० २५ । उत्कृष्टबालक्रीडापनम् । आव० १३० । सेव्हय - वनस्पतिकाय विशेषः । भग० ८०३ । सेत - श्रेयानु - द्वितीयमुहूर्तः | सूर्य० १४६ । नट्याधिपतिदेव | ठाणा ० ४० | श्रेयान् अतिप्रशस्यः श्वेतो वा । ठाणा० ४६३ । सेतणओ - सेचनकः - नद्यां तन्तुकेन गृहीतो गन्धहस्ती । आव० ३५५ । सेतबंधुजीव - श्वेतबन्धुजीवः । प्रज्ञा० ३६१ । ५३ । सेतिका - वनस्पतिफलविशेषः । प्रज्ञा० ६०२ । सेयगं वहत्थि - हस्तिविशेषः । ज्ञाता० २५ सूय ७१ सेयपुर-श्वेनपुरं सुविधेः प्रथमपारणकस्थानम् । १४६ । सेतु - सेतु: - मार्गविशेषः पालिर्वा । प्रश्न० ८ । सेतुः - सेयणगपिट्ठ - सेचनकपृष्ठं श्येनपृष्ठम् । सूर्य० ७१ । सेतुक्षेत्रं अरघट्टा दिसिच्यम् । ८२६ । सेयणगसंठिया - श्येनक संस्थानं - श्येन कसंस्थिता । सेतुख - पाण्डवानां सिद्धिगमनयिरिः । ज्ञाता० २२६ ॥ सुमुख कुमारसिद्धिगमनस्थानम् । अन्त० १४ । सेवप्पा दर्वीकर अहिभेदविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । सेदुओ-कप्पो । नि० ० प्र० २२८ आ । सेदुक - ब्राह्मणविशेषः । व्य० द्वि० १९१ अ । सेदुयारिया1 नि० सेधितं निष्पादितम् । ज्ञाता० ६१ । सेब्भगो - समोसियो । नि० चु० प्र०२११ आ । से बंधुजोए - श्वेतबन्धुजीवः । जीवा० १६१ । सेयबिय - श्वेताम्बी । आव० २२१ । १० चू० प्र० १८२ आा । सेयभद्द - श्वेतभद्रः - कौशाम्ब्यां चन्द्रोत्सरणोद्याने यक्षवि - शेषः । विपा० ६८ । सेयवग-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । सेयंकर - प्रष्टषष्ठीत ममहागृहः । ठाणा० ७६ । श्रेयस्करः । सेयवड जं० प्र० ५३५ । सेयंबिया- श्वेताम्बिका चण्डकौशिकाश्रमनिकटवत्तिनगरी । आव० १६६ । सेयंस- चतुर्थ बलदेव वासुदेवस्य धर्माचार्यः । सम० १५३ । सेयंसो - पङ्कः । ज्ञाता० ६८ । सेय-श्रेयः पुण्यमात्महितं वा । आचा० १६६ । स्वेदः( अल्प० १४९ ) [ सेयविया प्रस्वेदः । प्रश्न० १३७ | स्वेदः प्रस्वेदः । जीवा० २७७ । श्रेयः - उपशमश्रेणिमस्तकावस्था, उपशान्तसर्व मोहावस्थेति । सूत्र० १६७ । श्रेयः - कल्याणम् । भग० ११६ । श्वेतम् । जीवा० ३६० । स्वेदः स्यन्दः । प्रश्न० १६२ । श्रेयः पथ्यं हितम् । दश० १३७ । स्वेदः - प्रश्वेदः । मग० ३७ | प्रश्वेदः । नि० चू० प्र० १६० आ । अत्यन्त शुक्ला । ज्ञाता० १५ । सेयकंठ - महासेनाधिपतिः : ठाणा १०२ । सेयकणवीर-श्वेतकणवीरम् । जीवा ० १६१ | श्वेतकण वीरम् । प्रज्ञा० ३६१ । सेयकाल आगामी तृतीयसमयः । सूत्र० ३१७ । एण्यस्कलः । भग० १८५ । एष्यत्कालः । भग० ६२८ । एष्यत्कालः । आव ० ६१५ । सेबचंदण - श्वेतचन्दन - श्रीखण्डम् प्रश्न० १६२ । सेयण-ससध्यान्यकादिभिः स्वेदनम् । ज्ञात० १५१ । सेयणओ-सेचनकः एतदभिधानो गन्धहस्ती । उत्त● । नि० चू० प्र० ४६ मा सेविया श्वेतविका - श्वेताम्बिका । राज० ११४ । श्वेतविक नगरी यस्यामव्यक्तकदृष्टिः समुत्पन्ना आव ३१५ | श्वेताम्बिका-केकयजनपदार्द्ध प्रायक्षेत्रम् । प्रज्ञा० ५५ । श्वेताम्बी-यत्र तृतीयो निह्नत्र उत्पन्नः । उत्त १६० बेताम्बी-नगरी । आव० १९७ । श्वेताम्बिका - अव्यक्तनिवोत्पत्तिस्थानम् । आव० ३१२ । ( ११८५ ) आव ० Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेयसप्प ] प्राचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सेलोवट्ठावणगिह सेयसप्प-पवेतसर्पः-उर-परिसपैविशेषः । जीवा० ३६। | सेलमालगा-एकोहकदीपे वृक्षविशेषः । जीवा० १४५ । सेया-पाक्रदेवेन्द्रस्य तृतीयाऽप्रमहिषी । भग० ५०५ । सेलवालए-अन्य यूषिक: । मग० ३२३ । सेयाइ श्वेता-प्रकाश: । सूर्य, ६ । सेलसुत्थिय-शैमसुस्थितम् । जीवा० २६६ । सेयाणसंठिया । सूर्य० ७१। सेला-मुण्डपर्वताः । अनु० १७१ । सेयाल-एव्यत्काल: । मग० २२ । एष्यस्काल:-चतुर्थ | सेलु-शेलु:-श्लेष्मातक: वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । वनसमयादि । उत्त० ५९६ । स्पतिकायविशेषः । भग ८०३ । सेयावंग-स्वेदापनो-जातस्वेदः श्वेतापाङ्गो वा । ज्ञाता० सेलू-श्लेष्मातकः शेलुः-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३।। सेलेस-शैलेश:-सर्वसंवररूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था शैलशो सेयासोए-श्वेताशोकः । प्रशा० ३६१ । वा मेरुः । भग० ९५ । । से यासोय-श्वेताशोक-कनकपुरनगरे उद्यानम् । विपा० सेलेसिद-शैलेशेन्द्रः, उर:परिसपं विशेषः । जीवा० ३६ । ९५ । सेलेसि-शैलेशी-मेम्वत् स्थर्यावस्था । भग०६५ । शैल. सेरिआगुम्मा-सेरिकागुल्मा: । जं० प्र० ६८ । शस्येव-मेरोरिव या स्थिरता सा शैलेशी । ठाणा. से रिका-रथ्या । उत्त. ६.५। १६२ । शैलेशी । ठाणा. १९१ । शैलेशो । ठाणा. क्षिप्त्वा-व्युत्सृज्य । आव ६८५ । म्म-वृक्षविशेषः । जीवा. १४५ । सेलेसो-शिलाभिनिवृत्तः शिलानो वाऽयमिति शैल:-पर्वतः. सेरुयालवण-वृक्षविशेषवनम् । जीवा० १४५ । तेषामोशः प्रभुः शैलेश-मेरुः,तस्येवेयं स्थिरतासाम्यादवस्था सेल-शल:-पाषाणः शूक्ष्णरूपः । ठाणा. २३५। शैल:- शैलेशी, अशैलेशः सन्नभूततद्धावाच्छैलेशवदाचरतीति वा शिखरहीनपर्वतः । प्रज्ञा० ७१ । पटवतो । नि० चू० अवस्था । सर्वसंवरः शीलं तस्येशः शीलेशः तस्येयं द्वि० ७०अ। मुदशैलः-पाषाणविशेषः । विशे. ६२७ । योगनिरोधावस्था वा । आव०४४१। शैलेशो-मेहस्तस्ये. शैल.-पर्वतः । आव० ५६८ । मुण्डपर्वतः । भग वाऽचलता-स्थिरता यस्या मवस्थायां सा शैलेशी, बशैलेशः २३८ । पाषाणः । ओष. १२७ । शैलेश इव स्थिरतया भवति शैलेशी। 'सेलुध्व इसी महरिसी' सेलए-षष्ठानस्य पञ्चमं ज्ञातम् । उत्त०६१४ । ज्ञाताया तस्य संबन्धिनो स्थिरताऽवस्थाऽप्युपचारतः शैलेशो, पञ्चममध्ययनम् । आव० ६५३ । ज्ञातायां पञ्चममध्य. अलेश्यो-लेश्यारहितो भवति यस्यामवस्थाया सा शैलेशी, यनम् । सम० ३६ । शैलकपुरे राजा । ज्ञाता० १०४, शोलं-समाधानं-सर्वसंवयः, सर्वसंवरस्य शीखस्येशः शीले शस्तस्येयमवस्था शैलेशी । विशे० ११९२ । सेलकार-शिल्पविशेषः । अनु. १४६ । . . सेलेसीभाब-शैलेशीभावं-शिलानामिमे शैला:-पर्वतारने. सेलकूड-शैलभित्तिः । मर. । षामोशः शंलेशो-मेकः स इव शैलेशो- मुनिनिरुद्धयोग. सेलग-शैलको राजषिः, ज्ञातायां पञ्चममध्ययनम् । ज्ञाता. तथाऽत्यन्यस्थर्येण तस्येयमवस्था-शैलेशी तस्या भाव। ९। ज्ञातायामेकोनविंशतितमेऽध्ययनेऽतिदेशः । ज्ञाता. अशैलेशस्य भावः शैलेशीभवनं शैलेशीभावः । उत्त० ५९३ । २४२ । सेलोदाइ-अभ्ययूथिकः । भग० ३२३ । सेलगपुर-शेलकराजनगरम् । माता. १०४ । सेलोदायी-मड्डुकश्रावकाधिकारे अभ्ययूथिकः । भग० सेलगिह-शैलगृह-पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतम् । ठाणा० २९४ ।। ७५० । शैलपहं-पर्वतमुस्कीयं कृतं गृहम् । भग० २०० । सेलोवढाण-शैलोपस्थानिं पाषाणमण्डपः । आचा. सेलतता-वत्सगोत्रे भेदः । ठाणा० ३६० । सेलपाल-धारणस्य तृतीयो लोकपालः । ठाणा. १९७ । सेलोवढावणगिह-शैलोपस्थानगृह-पाषाणमण्डपः । ( ११८६) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेल्ल ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ ठाणा० २९४ । बाहिरिकायामुदकशाला । सूत्र० ४०६ । सेल्ल वालमयं भुसिरं । नि० चू० प्र० १०६ छ । सेसमई - सप्तमवासुदेवमाता सम० १५२ । शेषमती शस्त्रविशेषः । विशे० ९६८ । ज्ञाता० २०५ । सेल्लग - शल्यक:- भुजपरिसर्प विशेषः, यच्चकर्म तेलकंदङ्गर क्षाविधोयते । प्रश्न. ८ | सेल्लार - तुन्नाकविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । सेबए - सेवेत :- उपभुञ्जीत । उत्त० २६५ । सेवण - आसेवनं- मैथुनक्रिया, संप्राप्तकामस्य द्वादशमभेदः । दश० १६४ । सेवणा- सेना - पर्युपास्ति । प्रज्ञा० ६० । सेवणाधिकार सेवनानां चौर्यादिप्रतिसेवनानां अधिकार:नियोगः सेवनाधिकारः, अब्रह्मणः पश्चमं नाम । प्रभ० ६६ । सेवना - भजना समर्थना च । आव० ३३९ । सेवय - सेवक : - चारभट्टः । बृ० द्वि० २७३ आ । सेवा - वृत्यर्थना राजदीनामवलगनम् । प्रश्भ० ६७ । निरयपरिशीलना । सम० १५० । हास्यमोहादिभिः परिभोथोऽ. सेवा सगुम्मा - सेवालगुल्माः । जं० प्र० ८ । सेवालभक्खिण-तापस विशेषः । निरय० २५ । सेवाली - शेवाल :- अष्टमं अष्टमेन यः सेवालः स्वयं ग्लान:भूतः - तमाहारयति स तृतीयां मेखला विलग्नः स तापसविशेषः । आव० २८७ । सेवालोदाइ - अन्ययूषिकः । भग० ३२३ | सेविअ - सेवितं - आचरितम् । दश० २.१ । सेस - शेषं मत्यादिचक्षुर्दशंनादि । ठाणा० २१३ | शेष:पुरुषोपयोगिनः परिजिज्ञ' सितात्तुरगादेरर्थादन्यो हेषितादिरर्थः शेषः । अनु० २१३ । सेदविया - गृहोपयुक्तशेषद्रव्येण कृता शेषद्रव्या, नालन्दा [ सेह दत्तवासुदेवमाता | आव० १६२ । सेसव- तुरगादेरर्थादभ्यो हेषितादिरर्थः शेषः, स गमिकरवेन यस्यास्ति तच्छेषवदनुमानम् । कार्येण कार्य द्वारेणोत्पन्नं शेषवदनुमानम् । अनु० २१३ । शेषः - तुरगादम्य हेषिताद्यर्थवानु । अनु० २१३ । से सबई - महावोरविभोनंतरे प्रथमं नाम । आचा० ४२२ । शेषवती- दक्षिण रुचकवास्तव्या षष्ठी दिक्कुमारी महत्त सेसिद-दवकभेदविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । सेसिअ - शेष कृतं शेषितं स्थित्यादिभिः प्रभृतं सत् स्थितिसङ्ख्यानुभावापेक्षयै वाना मोग सद्दर्शनज्ञान चरणाद्युपायतः शेषं - अल्पं कृतमितिभावः । आव० ( ? ) । शेषितं शेषं कृतं - अल्पोकृतम् । विशे० ११०१ । सेवाल - अनन्तजीववनस्पतिभेदः । खाचा० १९ । सेवालः । सेहंब - संन्धाम्लं - सम्धानेनाम्लीकृत मालिकादि नाचारमाण्ड सेवा । उत्त० ७११ । 1 प्रभ० प्रज्ञा० ४० । गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । जलरुह विशेष: । प्रज्ञा० ३३ | शेवाल:- पुरुषसहवासुदेव पूर्वभवः । आव० १६३ टी० । जलोपरि मलरूपम् । आचा० ३० । शेवालः । उत्त० ३२१ । साधारणबादरवन स्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा ३४ । रिका । जं० प्र ३६१ । सेसा - शेषा - पुष्प समुदाय लक्षणा आव० २६६ । से साथ सेसं शेषावशेषं- उद्धरितस्याप्युद्धरितम् । उत्त० ३६० । १६३ । सेह - "विधू संशद्धाविति" सेध्यते - निष्पाद्यते यः स सेधः शिक्षां वाऽघीत इति शैक्षः । ठाणा० १३० । शंक्ष:अभिनवप्रव्रजितः । प्रभ० १२६ । अगीयत्थो, अभिण वदिविखओ । नि० चू० प्र० ८६ अ शैक्षः - अज्ञः । बृ० प्र० १५८ अ सेहः-शैक्षकः । ओघ० १५३ । शैक्ष:- अभिनव प्रव्रजितः । पिण्ड० १५ । शैक्ष:- अल्प पर्याय: । सम० ५९ । शैक्षक:- अभिनवप्रव्रजितः । ओघ० १९६ । शैक्षः । प्रोष० २० | शैक्षः आव० ५७७ । सेहो । प्रश्न० ३७ । शिक्षकोऽभिनवप्रव्रजितः । ठाणा० २६६ | शैक्षः । आचा० ३२४ ( ? ) । सेह:तीक्ष्णशलाकाकुलशरीो भुजपरिसर्प विशेषः । प्रश्न० ८ । अभिनवप्रव्रजितः । औप ४३ । अगीतार्थः । नि० चू० प्र० ५१ अ । अभिणवपव्यतितो । नि० चू० प्र० ६२ अ । अभिणवपव्वतो नि० चू० प्र० १४ आ । अगीतार्थः आचार्यपदादिसमृद्धिमप्राप्तः । वृ० तृ० ८६ आ । ( १९८७ ) I Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेहकुल ) आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ सोगरिया पम्वइ3 कामो । नि० चू• वि. द्वि० १६१ आ । सेह.- | सोंडिरयं-शौण्डीयं-शौर्यम् । आव० ४३२ । अभिनवप्रवजितः । ओघ०१६ । सोअ-शौचं-अमायमनुष्ठानम् । उत्त० ३५ । स्रोतःसेहकुल-शैक्षकुलं-अभिनवप्रपन्नधर्मस्य कुलम् । व्य० प्र० धुरः प्रवेशरन्ध्रम् । जं० प्र० १७१ । १७८ अ । सोअणवत्तिआ-स्वप्नप्रत्ययं-स्वप्ननिमित्तम् आव. ५७। सेहग-शक्षकः । आव० २६३ । सोडय-शोचितं-मानसो विकारः । अनु०१३९ । सेहवणाकप्पो- । नि० चू० प्र० २४२ अ । सोइयल्लय । ओघ० सेहणिप्फेडिया-शिष्यनिष्फेटिका, अपहृतः । ठाणा० सोउं-सुप्त्वा । बृ० द्वि० २११ आ । सोउलोय-सोद्योतं-बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशक रम् । सेहत्ति- सेडणि फेडियाए । नि० चू० द्वि. ४५ आ। जीवा० १६१ । निष्फेडिया-शिष्यनिहफेटिका । आव० ३०२ । सोए-श्रोत:-पय: प्रवाहः । आव० ५२८ । सेहर शेखरः-शिखा । पिण्ड० ७२ । सोक्कलि-वनस्पतिकायविशेषः । भग. ८०३ । सेहा-भुजपरिसर्पविशेषः : प्रज्ञा० ४६ । लोमषक्षीविशेषः । सोक्खीर-शुष्कः । नि० चू० द्वि० ६१ अ । प्रशा. ४६ । सोगंधिए-सौगन्धिक:-मणिभेदः । उत्त०६८९ । सोग. सेहावए-सेधयति-निष्पादयति । ज्ञाता० ३८ । न्धिक:-मणिविशेषः । जोवा० २३ । सोगन्धिक:-मणिसेहाविओ सेवावितः । आव० ७६३ । विशेषः । प्रज्ञा० २७ । से हावियं-सेहिणं-शिक्षितम् । भा. १२२ । सेषितं- सोधिय-सौगन्धिकं-कल्हारम् । जीवा० १७७ । ज. निष्पादितम् । ज्ञाता०६० । प्र. २६ । सौगन्धिकः । प्रज्ञा० ३७ । रत्नपृथिव्या:सेहिओ-सेधितः । आव. ७९३ । खरकाण्डाभिधानप्रथमकाण्डस्यान्तरकाण्डभूते अष्टमः सो. सेहुलक योग्याऽयोग्यशिष्ये उदाहरणम् । विशे० ६२७ । गन्धिकाभिधानरत्नमय: सौगन्धिककाण्डः । सम० ६२ । सैन्धव-लवणवखपुरुषवाजिशब्दवाच्यः । प्रज्ञा० २५९ । सौगन्धिक-कल्हारम् । राज७८। ज्ञाता० ९६ । लवणः घोटको वा । आव० ३७६ । सैन्धवम् । बाचा. सौगन्धिकः । ज्ञाता. ३१ । ३४३ । सोगंधिया-सौगन्धिकानगरी-अप्रतिहतराजधानी। विपा. सों :-शोण्ड:-मद्यपः । ६० प्र० १६५ आ । सिधूम् । ६५ । सुदंशनश्रेष्ठिनगरम् । ज्ञाता० १०४ । आच'० ३३० । सोगंघो-सुभं सागारियस्स गंध मण्णतीति सेगंधी । नि. सोंडमगरा-मकरविशेषः । प्रज्ञा० ४४ । शुण्डमगर:- चू• द्वि० ३३ आ । मगरविशेषः । जीवा०.३६ । सोग-शोक:-आक्रन्दादिचिह्नः । सम० १२७ । शोकसोंडा-शुण्डा । आव० ६८२ । देयम् । ठाणा० ५०५ । शोक-इष्टवियोगात् मान सं सोडिता-सूण्डिका:-पिटकाकाराणि सुरापिष्टस्वेदभाजनानि दुःखम् । उत्त० २६१ । शोक:-मानसो दुःखविशेषः । क.वेल्ल्यः । ठाणा० ४१६ । आव ७८८ । शोक:-दैन्यम् । आव० ६११ । शोक:सोंडिया-जा सुरा विस्सुगेही । दश० चु० ८८ । दैन्यम् । भग. १८०। शोक:-चितखेदा । ज्ञाता० ३१ । सोडियालिग-अग्नेराश्रयविशेषः । जीवा० १२३ । शोक:-प्रकर्षावस्थं देश्यम् । प्रश्न०६२ । सोंडीर-शोण्डीर:-चारभटः । प्रभ० १५५ । हस्तीव शरः । सोगकम्म-शोककर्म-यदुदयेन शोकरहितस्यापि जीवस्या कषायाविरिपून् प्रति । ठाणा. ४६४ । शोंडोरो यथा क्रन्दनादि शोको जायते तच्छोककर्म । ठाणा. ४६९ । शौयंन्या शूर एव रणकरणेन वशीकृतः, पूतया सोगमोहणिज्ज-शोकमोहनीयम् । प्रज्ञा० ४६६ । प्रतिपद्यते यथा महेन्द्रसिंहः । ठाणा. ५१६ । सोगरिया । नि. चू० द्वि० ४३ आ । (१९८८) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोगसण्णा ] अल्पपरिचित सवान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ [ सोबास सोगसण्णा-शोक सज्ञा-विप्रलापर्वमनस्यरूपा । पापा | सोत्तिओ-सौत्रिकः । आव० ४१८ । सोत्तिय-हरितविशेषः। प्रज्ञा०३३ । श्रतिस्मृति क्रियासोगारा- । नि० चू० प्र० २१५ अ।। वजितो श्रोत्रिकः । नि० चू० द्वि० ९७ आ । दीन्द्रिय. सोगिल-गोफवत् । विपा० ७४ । जन्तुविशेषः । प्रशा० ४१ । द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः । सोचविय-शौचं-तीयं महाव्रतम् । ठाणा० ४६५। जीवा० ३१ । सोच्चा-आकण्यं । भग० ८६ । श्रुत्वा-आकर्ण्य । सोसियबई-शोक्तिकावती-आर्थ क्षेत्र चेदिजनपदे नगरम् । जीवा० २४३ । प्रज्ञा० ५५ । सोझ- शुद्धिः प्रक्षेपश्च । उत्त० ५३७ । सोत्तिया-सुत्ते भवा वस्त्रकंबल्यादि । नि० चू. प्र. १२१ सोढं-णिस्संदिद्धं । नि० चू० प्र० ३१२ अ । सोणंद-त्रिकाष्ठिका । मुशलम् । औप० २० । त्रिकाष्ठिका सोस्थिअ-स्वस्तिकः । ज० प्र० ५३५ । स्वस्तिक:-अष्ट. मूशलम् । प्रश्न ८० । सोनन्दं-आयुधम् । जं. प्र. मङ्गले सप्तमम् । जं.प्र. ४१९ । सोस्थिए-षष्ठीतममहाग्रहः । ठाणा. ७६ । सोहिया-। नि० चू. दि. ११ । सोस्थिकूड-विमानविशेषः । जीवा० १३७ । सोणिए-समूच्छिममनुष्योत्पत्तिस्थानम् । प्रज्ञा० ५० । | सोस्यिय-स्वस्तिक:-दक्षिणेन हस्तेन वाम बाहुशाष स:णिताणुसारी-शोणितानुसारि । ठाणा. ३७५।। वामेन दक्षिणं एष द्वयोरपि कल्पविकयोहृदये यो विम्याससोणिय-शोणितं-रक्तम् । प्रभ० ८ । शोणितं-नवविकृति विशेषः स स्वस्तिकाकार इति कृत्वा स्वस्तिक उच्यते । मध्ये एकः । आव.८५४ । शोणितं-बात सामान्येन बृ० द्वि० २३७ आ । स्वस्तिका । जं०प्र०२०६। वा रुधिरम् । ज्ञाता० १४७ । शोनिक:-श्वद्वितीयोः सोस्थियकंत-विमानविशेषः । जीवा० १३७ । लुब्धकः । बृ• द्वि. ८२ आ । सोत्थियज्झय- , , , सोणिसुत्तग-श्रेणिसूत्रक-बालकाना वर्मादिदवरकरूपं क. सोत्थियपभ- त्ययपम " , " " टीसूत्रम् । ज्ञाता० २३० । घोणिसूत्रक-सौवर्णकटी. सोत्थियबंधो-नि० चू० प्र० १२५ अ । सूत्रम् । औप० ५५ । सोत्थियलेस-विमानविशेषः । जीवा. १३७ । सोणिसूत्तग-श्रोणिसूत्रक- कटिसूत्रकम् । जं० प्र० १०६ । | सोत्थियवन-विमानविशेषः । जीवा० १३७ । सोणी-श्रोणि:-बाहल्यं पिण्डः । जं० प्र० २३८ । सोत्थियावत्त-विमानविशेषः । जीवा० १३७ । श्रोणि:-कटी। प्रश्नः ८३ । श्रोणि:-कटेरग्रभागः । । सोस्थितिगार-विमानविशेष। । जीवा० १३७ । जीवा० २७५ । श्रोणि:-कटेरग्रभागः । जं.प्र. ११४। सोस्थिसिट्ठ । जीवा० १३७ । सोणीसुत्तय-श्रोणिसूत्रक-भूषणविधिविशेषः । जीवा० । सौत्थीयं । जीवा० १३७ । २६६ । सोत्थुत्तरडिसग-विमानविशेषः । जीवा० १३७ । सोतणता-शोधनता-दीनता । ठाणा. १८६ । सोदरिया-सौदर्याः-समानकुक्षिभवा भ्रातरः । उत्त० सोतांसि-श्रोतासि-इन्द्रियाणि । प्रभ० १०५ । सोतामणी-चतुर्थीविद्युत्कुमारीमहत्तरिका । ठाणा० ३६१ । सोदामणी-धरणेन्द्रनागकुमारेन्द्रस्य चतुर्थाऽप्रमहिषी। भग० चथुर्थी विद्य त्कुमारी महत्तरिका । ठाणा० १९८ । ५०४ । सौदामिनी-विदिगुरुचकवास्तव्या चतुर्थी दिक. सोतिदिय-श्रोत्रेन्द्रियं-पञ्चममिन्द्रियम् । प्रज्ञा० २६३। कुमारी । जं० प्र० ३६१ । सोत्तबंधण-श्रोतोबन्धनं-जलप्रवेशवारणम् । प्रश्र. १४, सोदास-प्राधाकर्मण अभोज्यतायो उग्रतेजसो ज्येष्ठभ्राता। सोत्तिए-सूत्रं पण्य मस्येति सोत्रिकः । अनु० १४६ । पिण्ड० ७१ । सौदास:-जिव्हेन्द्रियदृष्टान्ते मांसप्रियो (१९८९) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोधिकप्पो] आचायधीयानन्यसागरसूरिसकूलित: [सोमणसा राजी । आव० ४.१ । सोदासः-स्वर्ग कायोत्सर्यफब. सोमः-पूर्वदिक्पालः । ६० प्र०७५ । सश्रीकः । .प्र. मिति दृष्टान्ते राजा । आव० ७९९ । ११३ । एकादशममहाग्रहः । ठाणा० ७८ । चमरेखस्य सोधिकप्पो-सोधि:-प्रायश्चित्तं तं द्रव्यादिपुरुषभेदेन कल्पते प्रथमो सोकपालः । ठाणा १९७ । सोमः-द्वादशममहा यः स सोधिकल्पः । नि. चू० त०१४६ था । ग्रहः । ६० प्र० ५३४ । तृतीयवसदेववासुदेवपिता । सोषिय-गुणयोगात् शोभितः, शुद्धिकारी शोधियः, सुहवा- सम० १२२ । सोमः-पुरुषोत्तमवासुदेवपिता । आव. सर्वप्राणिमित्रम् । प्रश्न. १५७ ।। १६३ । सौम्यः-अदारुणः नीरजो वा । प्रभ. ७०। सोधीकर-चोहसपुग्धीहि णिबद्ध तं जो गणपरिवठ्ठीसुतत्थे हष्टिसुभगम् । जीवा० ६६ । सश्रीकम् । जीवा० घरेति सोवि सोधीकरो, चोहसपूग्वेहि णिज्मूहियो एस २७३ । सभगम् । जीवा० २०७ । सौम्यः-सर्वजननय. पक्कप्पो णिबद्धो तद्वारी सोधिकारीत्यर्थः । नि० चू. नमनोरमणीयः । आचा० ३। सौम्य-उपशाम्तम् । तृ० १४६ आ। शाता. १३ । सौम्य:-अरोद्राकारः। सूर्य. २९२ । सोद्धरित-सावशेषम् । उत्त० ५३९ । सीमकाइय-सोमस्य काय:-निकायः यस्यास्तीति स सोपचार-ग्रामणितिरहितम् । अनु० २६२ । सोमकायिकः-सोमपरिवारभूतः । भग० १९६ । सोपार-यत्र अट्टनमलपराजितः । व्य० द्वि० ३५७ ।। सोमचंद-ऐरवते सप्तमतीर्थकृत् । सम० १५३ । सोपारए-सोपारक:-पत्तनविशेष:-मल्लवलसिंहगिगिराज. सोमजमवरुणवेसमणका -सोमयमवरुणवैश्रवणकाधानी । आव० ६६४ ।। यिका:-आभियोदिकदेवाः । जं.प्र.७२ । सोपारय-सोपारक-शिल्पसिद्धविषयहष्टान्ते नगरं, यत्र सोमजसा-सोमयशाः शौचोदाहरणे यज्ञयशस्तापसस्नुषा। सर्वशिल्पकुशलो रथकार: । आव० ४०६ । सोपारक आव० ७०५ । समुद्रतटे सिंहगिरिराजधानी । उत्त. १९२ । सोपारकनगरविशेषः । आव. ३०४ । सोपारक-शिल्पसिद्ध PH सोमण-स्वप्नो-निद्रावविकल्पः । ठाणा० ३८० । दृष्टान्ते नगरम् । आव. ४१० । सोपारकं-योपसंग्रहे | सोमणस-मध्यमहेट्ठिमनवकविमानप्रतस्थटनाम । ठाणा. आलोचनादृष्टान्ते समुद्रतीरे नगरम् । पाव० ६६५ । ४५३ । सौमनसः-यानविमनकारको देवः । ६० प्र० सोप्पारग-पंचकुटुंबियनगरं । नि० चू० तृ. ५ मा । ४०५ । सौमनस:-पर्वतविशेषः। प्रज्ञा० १६१। सौमनस:सोबहिफोडो-सोबधिस्फोटः । माव. २०७ । शास्त्रियनवमदिवसः (?) । सूर्य० १४७ । सौमनसः-अष्टमसोभण-मोभन:-निर्दोषगुणपोषः । जं.प्र. २७३ । दिवसनाम । ० ० ४९० । सैमनसो-वक्षस्कार।। सोमा-शोभा-तत्कालोचितपरभागलक्षणा। उत्त० ४८३ । जं० प्र० ३५३ । सुमनसामयमावास इति सौमनसः । सोभावियं-शोभितम् । आव. १९८ । जं० प्र० ३५४ । सौमनसकूट-सोमनसवक्षस्कारकूटनाम। सोभेति-शोभयति-पारणकदिने गुरुदत्तशेषभोजनकरणात जं० प्र० ३५७ । सौमनसः-चकममुद्देऽपगाधिपतिर्देवः । शोधयति वा-अतिचारपवृक्षालकः । ज्ञाता. ७३ । जीवा० ३६८ । सौमनसः । ठाणा० ७१ । सौमनसंसोमंगलग-दीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । दीन्द्रियजन्तु. सुमनसा-देवानामिदं वनम् । जं. प्र. ३६३ । सोमविशेषः । जीवा० ३१ । नस्य-धर्मजिनस्य प्रथमपारणकस्थानम् । बाव. १४६ । सोमंगला-द्वीन्द्रियजीवविशेषः । उत्त. ६९५ । सौमनसः । औप० ५२ । सोम-सौम्य:-अरौद्राकार:-निरोगः । भग. ५७८ । सोमणसवण-सौमनसवनं, सुमनसा-देवानामिदं सौमनसं सौम्प-अरौद्रम् । साता० २१३ | चम्पराया ब्राह्मणः । देवोपभोग्य भूमिकासनादिमत्त्वम् । जं. प्र. ३५६ । ज्ञाना. १९६ । सोमः-अविषमगात्र: । शाता० ६२ । ठाणा. ८० । सौम्य:-अरोद्राकारो नीरोगो वा । ज्ञाता० ६६ । सोमणसा-सौमनसा-पञ्चमरात्रिनाम । जं. प्र. ४६।। ( १९६०) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमणस्सिय ] ठाणा० ८० । सौमनसा शास्त्रीयपन्चमी रात्री । सूर्य० १४७ । सोमनसा- दक्षिणपूर्वव्यतिकरपर्वतस्य दक्षिणस्या शक्रदेवेन्द्रस्य शिवाऽभिधाग्रमहिष्या राजधानी । जीवा. ३६५ । सौमनस्य हेतुत्वात् सौमनस्या, न हि तो पश्यतः कस्यापि मनोदुष्टं भवति । जं० प्र० ३१६ | सौमनस्य हेतुलात् सौमनस्या, जम्ब्वाः सुदर्शनायाः दशमं नाम । जीवग० २६६ शक्रदेन्द्राग्रमहिषीणां राजधानी । ठाणा • २३१ । * अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ५ उत्त० ३६५ । १००३ । २६ आ । सोमणस्तिथ - सुमनसो भावः सौमनस्यम् । जीवा २४३ । सोमदत्त - सोमदत्तः - शतानीक राजस्य पुरोहितः । विपाο ६८ अष्टमजिन प्रथमभिक्षादाता 1 सम १५१ । सोमदत्तः - चन्द्रप्रभजिन प्रथममिक्षादाता । आव० १४७ । सोमदत्तः - कौशाम्ब्यां यज्ञदत्तस्य ज्येष्ठसुतः । उत्त० ११ । चम्पायां ब्राह्मणः । ज्ञाता ० १६६ । सोमदत्ताई - नद्यूढाः सागरे मृताः । मरः । सोमदासी - सोमदासीनामा श्राविका । आव ० १६८ । सोमदेव - यज्ञवाटकाधिपतिः पुरोहितः । सोमदेव :- दशपुरे ब्राह्मणविशेषः । विशे० सोमदेवो ब्राह्मणविशेषः । नि० चू० द्वि० सोमदेवः - पद्मप्रभजिन प्रथमभिक्षादाता | आव० १४७ । षष्ठजिन प्रथम भिक्षादाता । सम० १५१ । सोमदेव:आरक्षित पिता । आव० २६६ | सोमदेव:- आर्यरक्षितपिता । उत्त १६ | सोमदेवः - कौशाम्ब्य यज्ञदत्त खघुसुतः । उत्त० १११ । सोमदेवय-सोमदेवता - सोमसामाविकादिः । भग० १६६ । सोमदेवयकाइय-सोम देवता कायिक:- सोमदेवता - सोमसा • मानिकादयस्तासां कायो यस्यास्ति सः सोमदेवताकायिक:सोमसामानिका विदेव परिवारभूतः । भग० १९६ । सोमव मे - असुर कुमारस्योत्पात प्रर्वतः । ठाणा० ४८२ । सोमप्रभ:- बाहुबलिपुत्रः श्रेयांसपिता । जाव० १४५ । सोमभूई - सोमभूतिः - प्र द्वेषविषये येन गजसुकुमाली व्यपरोपितः । आव० ४०४ । सोमभूतिः - सोमदत्तसोमदेवयोर]चयं । उत्त० १११ . a: सोमभूतो- चम्पायां ब्राह्मणः । ज्ञाना० १९६ । सोममुहो- सौम्यमुखी-सौम्यं मुखं यस्याः सा अशिव [ सोम्म कारिण्याः विशेषणमिदम् अनन्तरविषये प्रयुपद्रवा करणात् । बोष० १७ । सोमया - कुच्छगोत्रे सप्तमो भेदः । ठाणा० ३१० । सोमलेस - अनुपतापका विपरिणाम: । ठाणा० ४६५ । सोमलेस्स - अनुपतापहेतुमनः परिणामः सोमलेश्यः । औप० ३६ । सोमविजयवाचक-वाचकविशेषः । जं० प्र० ५४५ । सोमसिरी- सोमश्री - द्वारवत्यां सोमिल ब्राह्मणभार्या । अन्त० ६ । सोमा - शक्रदेवेन्द्रस्य चतुर्थ्यग्रमहिषी ठाणा० १०४ । सप्तमी दिशा । भग० ४९३ । सोममहाराशोः चतुर्थ्याग्रमहिषी । भग० ५०५ । सौम्याः कायकुचेष्टाया अभावत् । जं० प्र० ३५४ । सप्तमतीर्थंकृत्प्रथमा शिष्या । सम ० १५२ । सोमिलात्मजा । अन्त० ६ । सिन्धुदत्तसुता ब्रह्मदत्तराशी । उत्त० ३७९ । उत्पलभगिनी । आव० २०२ | सौम्या - दिग्दाहाद्युत्पातवजिता । ज्ञाता० १२४ । सोमब्राह्मणपत्नी । अन्त । विभेलसन्तिवेसे दारिया । निरय• ३३ । सोमाकार - सोम्याकारं शान्ताकृतिः । ज्ञाता० १३ । सोमालंगी - सुकुमालङ्गी । भक्त० । सोमित्ता - सौमित्री - शौचोदाहरणे आव० ७ ५ । सोमिदासी - जिणदासपत्नी श्राविका । आव० १९८ । सोमिल - सोमिलः - द्वारवत्यां ब्राह्मणविशेषः । अन्त● ९ । वनिकग्रामे ब्राह्मणः । भग०७५८ । वाणरस्यां ब्राह्मणः । निरय० २३ । सोमिल:- गज सुकुमालमारको ब्राह्मणः । ६० प्र० १५६ आ । उज्जेणीनगरी, तत्थ सोमिलो नाम बंभणो । बृ० प्र० १९० आ । बंभणो । नि० चू० द्वि० १९ वा । मध्यमानगर्यां ब्राह्मणः । आव० २२९ । सोमिल:- विग्जातीयो गजसुकुमालवधकः । विशे० ८४३ । सोमिस :- भयादायुर्भेदे दृष्टान्तः । आव० २७१ । सोमिलद्विजः - भयाद् प्राणत्यागे दृष्टान्तः । अनु० १३७ ॥ सोमिलुद्दे सए - भगवस्यामष्टादशशतके दशमोद्देशकः । भग २४, ६२२ । सोम्म सौम्यं चान्द्रमसापरनाम मृगशिरो देवता । जं० प्र० ४६६ । ( ११६१ ) यज्ञयशस्तापसभार्या । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोम्मा आचार्यश्रोमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः- .... [सोलसम सोम्मा-सौम्या-उत्तरदिक् । आव० २१५ । वेमानिकाङ्गनाऽभिलाषेच्छा वैमानिकसुखनिदानं वा । सोयंधिए-सौगन्धिककाण्ड-प्रष्टमं सौगन्धकानां काण्डम् । आचा० २२६ । श्रोता । आव० २३७ । श्रोता-गर्भाश. बीवा० ८९ । यश्छिद्रलक्षणं यस्याः सा । ठाणा० ३९ । सोब-शोकम् । आचा० १६४ । विषयाभिष्वङ्गः-संसा. | सोयामणी-सौदामिनी-विदिचक नास्तण्या विद्युत्कुषारी. रश्रोतः । आचा० १६४ । शौचं-द्रव्यतो निर्लेपता स्वामिनी आव० १२२ । सौगामिनी-प्रधानमणिः । भवतोऽनवसमाचार | और.३३ । शौच-सर्वोपाधि. उत्त० ४९० । शुचित्वं निर्वाच्यव्रतधारणम् । आचा० २५६ । पापोपा- | सोयावण-शोकापन:-दैन्यप्रापणः । भग० १८४ । दानम् । आचा. १९४ । शौच-परद्रव्यापहारमालिन्या. | सोयावरण-द्रव्येन्द्रियावरणः । भग०६३ । मावलक्षणम् । सम० १२१ । शौचं-द्रव्यतो निलेपता । सोरिअनयर-सौरिकनगरं-नेमिनाथजन्मभूमिः । आव. जाता. ७ । शौचं-संयम प्रति निरुपलेपता । बाव १६० । ६४६ । श्रोत्रं-धोत्रेन्द्रियविषयः क्षयोपशम: । प्रज्ञा०सोरट-सौराष्ट:-गुरुनिग्रहविषये सौराष्ट्रश्रावकः । आव. .४६०। शोचं द्रव्यतो निर्लेपता भावतोऽनवद्यसमाचारता। जनपदविशेषः । प्रज्ञा ५५ । सौराष्ट्र गाज० ११६ । दश. ३५ । सोयणं-शोचनं-अश्रुपरिपूर्णनयनय दैन्यम् । आव० ५८७ । सोरट्रिआ-सौराष्ट्रिका-तुवरिका । दश. १७० । सोयणया-दीनता । भग० ९२६ । जोणी । दश० चू० सोरट्रिया-सौ राष्ट्रिका-तुबरिका । आचा० ३४२ । वर मट्टिया। नि० चू० प्र० २१८ बा । चरिया जीए सुवण्णसोयमाण-शोचत्सु मनसा खिद्यमानः । ज्ञाता० १५७ । कारा उप्पकरेति सुवण्णस्स पिंडं । दश• चू० ७८ । सोयमाणो-धरणस्याग्रमहिषी । ज्ञाता० २५१ । सोयमूलय-परिव्राजकधर्मः । ज्ञासा० १०५ । सोरटुसड्ढग-सौराष्ट्रभावकः । बाक. ८१८ । सोयरिओ-शौकरिकः । श्राव० ४.१ । । सोरिय-सीरिक-आर्यक्षेत्रकुशावर्तजनपदे नगरम् । प्रज्ञा. सोयरिय-शौकरिकः-सूकरेश्वरति-मृगयां करोतीती सौक. ५५ । शौरिकनगरे शौरिकदत्तो नाम मत्स्यबन्धकपुत्रः । रिकः । ठाणा ० २३८ । शोकरिकः यः शूकर मृगयां ठाणा० ५०८ । शौर्यः-शौर्य पुरस्य शौर्यावतंसकोद्याने करोति सः । प्रश्न. १३ । सौर्यः-भ्रातृभगिन्यादिः । यक्षः । विषा० ७९ । शौर्यपुरे-सत्योदाहरणे नगरम् । सूत्र. १३ । शौकरिकः-स्वपचश्चाण्डालः खट्टिक इति । बाव. ७०५ । सूत्र. ३२१ । शौकरिकः । पिण्ड • ६८ । शौकरिक:- सोरियदत्त-शोर्यदत्तः-समुद्रदत्तमत्स्यबन्धसूतः । विपा. शूकरेण सन्निहितेन शूकरवधार्थ चरति, शूकरान् वा न. ७९ । शोरिकदत्तः मत्स्यबन्धपुत्रः दुःखविपाकानामष्टमम. तीति शौकरिकः । अनु० १३० । नि० चू० प्र० ध्ययनम् । विपा ३५ । शौर्यदत्त:-शौर्य पुराधिपतिः। २१४ था। वि० ७६ । सोयविण्णाण-श्रोत्रविज्ञान-धोत्रेन्द्रियोपयोगः । प्रज्ञा. सोरियपुर-सौर्यपुरं-वसुदेवराजधानी । उत्त० ४८९ । शौर्यपुरं-शौर्यदत्तराजधानी । विपा०.७६ ।। सोयविनाणावरण-भावेन्द्रियावरणः । भग० ६३ । सोरियव.सग-शौर्यावतंसक-शौर्यपुरे उद्यानम् । विपा सोविय-शौचम् । सूत्र० ३०१ । ७६ । सोयस-यानु कल्याणकारित्वात् । व्य० द्वि. ३९८ । सोराविओ । बृ०प्र०५१ मा । सोया-श्रोतासि-काश्रवद्वाराणि तानि च प्रतिभवा. | सोल-तुरगचिन्तकः । ६० प्र० ३११ । भ्यासाद्विषयानुबन्धादीनि गृह्यन्ते, तत उद्धं श्रोतांसि- | सोलसग-सूत्र कृताङ्गस्य षोडशममध्ययनम् । सम० ३१ । ( ११९२) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसम] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, भा०५ [सोहम्मकप्प सोलसम-षोडशः । पिण्ड• १२१ । आव० ३७६ । सोपचार-अनिष्ठुराविरुद्धालज्जनीयार्यसोलसि-षोडशी-षोडशपूरणम् । उत्त० ३१६ । बाचकं सानुप्रासं वा । सोपचारम् । अनु० १३३ 1 सोपसोलसिआ-षोडशिका-षोडशपलप्रमाणा । अनु० १५२ । चार-अनिष्ठुराविरुद्धालज्जनीयाभिषानं सोत्प्रासं वा। सोलसिया-घटकस्य-रसमानविशेषस्य षोडशभागमात्रो ठाणा. ३६७ । मानविशेषः । भग. ३१३ । सोवरिफोट-सोपविस्फोट: । आव २०७ । सोलोय-सावलोक-सोद्योतम् । ज्ञाता० २३० । सोवाग-यो शुनः पचति तन्त्रीश्च विक्रिणाति सः स्वपचः सोलोयरिदगा-सावलोक-सोद्योतं यद्रिष्टक-रत्नविशेषस्त- पण्डालः । व्य० प्र० २३१ अ। श्वपाक:-चाण्डालः। दो वर्णसापयात ते । ज्ञाता. २३० । उत्त० ३५७ । सोलग-मडिवीकृतम् । उत्त०४६१ । सोवाण-सोपानं-इष्टिकामयमवतरणम् । पिण्ड० ११०। सोल्लिति-ओदनमिव राध्यन्ति, खण्डशो वा कुर्वन्ति । तोवाणपंतो-सोपानपङ्क्तिः । जीवा० २६६ । विपा. ५८ । सोवान-सोपान:-उन्नतारोहणमार्गविशेषः । सम० १११ । सोलिय-पक्वम् । विपा. ४६ । कुसुमविशेषः । औप० सोवोर-सौवीरं-आरनालम् । आचा० ३४६ । सौवीर: देशविशेषः । उत्त० ४४८ । सौवीर:-जनपदविशेषः । सोवक्कस-सहोपक्रमेण-अपवर्तनाकरणाख्येन वर्तत इति | सोपक्रमः । उत्त० २३७ । सोवीरत-सौवीरक-काधिकम् । ठाणा० १४७ । सोवञ्चल-सेंधवसोवपन्चयाप अंतरंतरेसु लोणखाणी । दश सोवीरा-मध्यमग्रामस्य षष्ठी मूर्च्छना । ठाणा० ३६५ । | सोबए-श्रोतव्यः । बृ० द्वि० १९ अ । श्रोतव्या । बृ० सोधणियंतिय-स्वभिश्चरति पौवनिकः अन्तोऽस्यास्ती- द्वि) २८० आ । श्यन्तिकोऽनो वा चस्वास्तिकः पयंन्तवासीत्यर्थः, शोव. सोस-शोष:-क्षयरोग. । जं. प्र. १२५ । शोषः। भग निकान्तिक:-करसारमेयपरिग्रहः, प्रत्यन्तनिवासी च १९७ । शोष:-गवेषणाद्यायासः । व्य० प्र०२५०। प्रस्वन्तनिवासिभिर्वा स्वमिश्चरतीति । सूत्र. ३२२ । सोहइत्ता-शोधयित्वा-गुरुवदनुभाषणादिभिः शुद्ध विधाय । सोवणिय-शौवनिक:-सारमेयपापद्धिः। सूत्र. ३२१ । उत्त० ५७२ । शोधयित्वा उत्तरोतरशतिप्रापणेन । सोवग्जिओ-सौणिकः । बाव० ३५६ । उत्त० ५७२। शोधयित्वा-शुद्ध विधाय। उत्त० ५७२ । सोवस्थिअ-सोवस्तिकः । जं.प्र. ५३५ । सोहग्ग-सौभाग्यं-जनादेयत्वम् । प्रभः । १६१ । सौभाग्य। सोवस्थिअकूड-सोवस्तिककूडं विद्युत्प्रभवक्षस्कारकूटनाम। सर्वजनस्पृहणीयतारूपम् । उत्त० ५८० । जं० प्र० ३५५ । । सोहणागं-शोधनकम् । सूर्य० ११३ । सोवस्थिए-एकषष्ठीतममहाग्रहः । ठाणा० ७६ ।। सोहणगदुगं कर्ण दन्तशोधनके । बृ० दि० २५३ अ । सोवत्यिय-सौवस्तिक:-लक्षणविशेषः । जीवा ११ सोहम्म-कल्पः । ज्ञाता. २३४ । कल्पविशेषः। ज्ञाता. दृष्टिवादे सूत्रभेदे एकादशमभेदः । सम० १६८त्रीनिश्य २५३ । कल्पविशेषः । ज्ञाता. १७८ । सौधर्म:-दत्त। जन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा. वासुदेवागमनकल्पः । बाव. १६३ टी. । सौधर्म: देवलोकविशेषः । आव. ११५ । सौधर्मावतंसकाभिध: सोवत्थी-श्वतीस्याह चरति वा सोवस्तिका, माङ्गलिकाः विमानविशेषोपलक्षितो देवलोकविशेषः । अनु० ९२ । भिधायी मागधादिरन्या । ठाणा० २१४ । सुधर्मानाम शक्रस्य सभाऽस्मिन्नस्तीति सोधर्मः । उत्त. सोवयणपवेसकाल-शयनप्रवेशकाल: । आब० ३६४ । सोवयार-सोपचारं अग्राम्याभिधानम्, सूत्रे षष्टो गुणः ।। सोहम्मकप्प । ज्ञाता०३० । (अल्प० १५०) (११९३ ) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहम्मवडिसए ] आचार्यश्री प्रानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [स्तेनकबन्धः सोहम्मडिसए-सौधर्मदेवलोकस्यावतंसकशेखरक: स इव सोहेमाण-प्रतिपादयन् । ज्ञाता० १८० । प्रधानस्वात् सौधर्मावतंसकम् । सम० २६ । महाविमानः सौगत-बेन्नातटपुरे श्वेतपटभुल्लकपृच्छकः । नंदी० १५२ । विशेषः । भग १९४ । सौवास-जिह्वानष्टः । भक्त । सोहम्मडिसग-द्वीसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सौधर्म-सामान्येनाज्ञाग्राह्येऽर्थे दृष्टान्तः । श्राव० ८६२ । सम०८। सौधर्मकल्प-यत्र शक्रेन्द्रः । ज्ञाता० १२७ । सोहम्मा- सौधर्माः-कल्पोपन्नवैमानिकभेदविशेषः । प्रज्ञा० सौधर्मादिकल्पगतवक्तव्यतागोचरा-कल्पिकाः । नंदी. २०७ । सोहा-शोभा-पुलकादिरूपा । ज्ञाता० ३५ । सौधर्मावतंसक-विमान विशेषः । दश० २०७ । सोहिकर-शुद्धिकरं-अनन्तानुबन्धिक्षयप्रक्रमेण क्षायिक । व्य. द्वि० १७४ आ । सम्यक्त्वापादनम् । आचा. २६८ । शुद्धिकरं-अपनय- सौमनस-वृक्षस्कारपर्वतः । ठाणा० ६८ । मेरुसम्बन्धीनकर्तृ । उत्त. ३४३ ।। वनविशेषः । प्रभ० १३५ । सोहिठाण-शोधिस्थान-आयतनपर्यायः । बोध. २२२। सौमनता-वापीनाम । जं० प्र० ३७. । सोहिय-शोधितः-शोभावान्, शोधितो वा निराकृतातिचारो सौरभेय-बलोवर्दः । नंदी. १५४ । वा। भग० १२२ । शोधितः-अपनीतः। जीवा० ३५५ । सौरभ्यवतिभूत-पन्धवत्तिभूतः । जीवा. २०६ । गूर्वादिप्रशानशेषमोजनासेबनेन शोभितम् । आव०८५१ । सौवर्चलम् । आचा० ३४३ । सौहृदम् । आव. १९८ । शोभनं-चन्दनमालाचतुष्का सौवीरक-पानविशेषः । ठाणा० १०६ । पूरणादिना शोमाकरणम् । प्रभ. १२७। शोधका । सौवीराखन-अञ्जन विशेषः । प्रज्ञा. २७ । उत्त० २८८ । शोभितं-अन्येषामपि तदुचिताना दानात । नंदी. ६५ । अतिचारवजनाद्वा शोषितं वा निरतिचारं कृतम् । प्रभा स्कन्दक-तापसविशेषः । विशेक १०६४ । मुनिसुव्रतस्वा. ११३ । मिनोंतेवासी । व्य० वि० ४३२ अ । सोहिया-शोभिता-नानाविधगुच्छगुल्ममण्डलपकशोभिताः। स्कन्दकाचार्य-कर्कशत्वे दृष्टान्तः । भग० ३०५ । पालकेन राज. ७ । शोभिता-तत्समाप्ती गुर्वादिप्रदानशेषभोजना- । हत आचार्यः । सूत्र. २३९ । सेवनेन शोधिता वा-अतिचारवर्षनेन तदालोचनेन स्कन्दशिष्यगण-मार्यमाणे दृष्टान्तः । सूत्र० ६२ । था। ठाणा० ३८८ । सुहृद । आव० २६२ । स्कन्दा:-भूतभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । सोही-शुद्धिहेतुत्त्वेन शोदिः, सुहृद्वा मित्रम् । भग० १३६ । सकन्ध-शरीरेऽवयवविशेषः । आव० ८१९ । स्कन्धः । शुद्धिः-कषायकायुष्यापगमः । उत्त. १८५ । शुद्धिः । विशे. ४१६ । शोघ२२५ । शोधनं शुद्धिः-विमलीकरणम्, प्रतिमा स्कन्धशालिनः-महोरगभेदविशेषः । प्रज्ञा. ७० । गस्याष्टमनाम, षड्भेदमिन्नं प्रतिक्रमणमेव । आव० ५५२ । सकन्धावार-कटकः । व्य०प्र० १९८आ। स्कन्धावार:शुदः । विशे० ६ १। आत्मङ्गले दृष्टान्तः । विशे० २०२ । सोहेइ-शोभयति-शोषयति वा! उपा० १५ । शोभयति ! स्खलितः-प्रनिहत: । उत्त० ६८४ । शोषयति वा । भग० १२४ । स्तबक: पिण्ड०७२। सोहे-शोधयिस्वा-विविच्य । बोष. १७। होपयित्वा. स्तम्भनता-वातादिना । आचा० २५५ । कृत्वा । बोध० ८८ । शोषयित्वा-प्रत्युपेक्ष्य । बोध० स्तुभायिका-वनस्पतिजीवविशेषः । आचा० ५७ । स्तूपः-क्रीडापर्वतः । (?) । साहेति-शोषयति । बाब. २२४ । स्तेनकबन्धः- नि० चू० प्र० १२५७ । ( १९९४ ) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोति ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ स्नेह स्तौति-प्रशंसति-बहुमन्यते । भाव० ५८७ । स्थापिता-आगेपणायो भेदः । व्य० प्र० १२४ था। खोकला:-चतुःषष्टिस्त्रीस्वरूपप्रतिपादिकाः कला:। जं०प्र० स्थाप्य:-पञ्चाद्वक्षे इत्यर्थः । व्य०द्वि० ३३ । स्थाप्यते-मुच्यते । बोध. ११६ । स्च्याविलक्षणं-शब्दव्यवहारानुगतं वेदानुगतं च । प्रज्ञा स्थाल-भाजनविधिविशेषः । जीवा० २६६ । २५. । स्थास-घटे पूर्वावस्था । विशे० ९३८ । स्थगनं-संरक्षणम् । ओष. २१३ । स्थास्यति । नंदी० १६४ । स्थाण्डिलसं निवेश: । दश० १८३ ।स्थित-गतः । विशे. २.७ । स्थपतिः-शिल्पी । उत्त० ४१८ । स्थितकल्पिक-साधुभेदविशेषः । भग० ४ । स्थपुट । बाचा. २४७ । स्थितास्थितकल्प:-आचेलक्यादिनवविधकल्पः । आव० स्थलपत्तन-यथा मथुरा । आचा० २८५ । स्थविरकल्पं । बृ० प्र० २०१ आ ।|स्थितास्थितकल्पिक:-साधुभेदविशेषः । भग०४ । स्थविराहरणं- (?) १-१-१२ । स्थितिघात: । उत्त० १८० । स्थविरोपघातित्व-षष्ठमसमाधिस्थानम् । प्रश्न १४४ । । स्थितिपद-प्रज्ञापनायां पदविशेष: । जीवा० १४० । स्थाणु-स्तम्भः । ठाणा० २१९ । प्रज्ञापनायामष्टादशमकायस्थितिपदम् । जीवा० १०१ । स्थान-विशेष: वसतिः, स्थानशब्दो भेदार्थः पदम्, सादि. | स्थिरसंहननता-तपःप्रभृतिषु शक्तियुक्तता, शरीरसम्परषु . पर्यवसितादिरूपः, स्थानशब्दः कियावचनः । ठाणा० ३। त चतुर्थों भेदः । उत्त० ६६ । र , लौकिकं आलोढादिपञ्चस्थानानि । उत्त० २०४ ।। स्थुड स्कन्धा । राज. ९ । स्कन्धः । ठाणा. ५२१ । स्थानचंचल: ।६० प्र० १२४ अ । स्कन्धः । प्रज्ञा. ३१ । स्थानभङ्ग:-यथा पियधर्म नामकः, नोहढधर्मेत्यादि । स्थूण: । ठाणा० १२४॥ ' आव० ५९६ । स्थूलभद्र-रथिकगणिकायां दृष्टान्तः । नंदी. १६२ । स्थानभङ्गक: ।ठाणा० ४७८ । स्थूलभद्रस्वामो-युगप्रधानाद् सर्वश्रुतग्राहकः। विशे. स्थानसप्तकक-आचाराङ्गे द्वितीयश्रुतस्कंधे प्रथमः । ठाणा० ३८७ । स्थूलमारुक्क-प्रथमं क्षुद्रकुष्ठम् । प्रभ. १६१ । स्थानीयं ठवइज्ज ठवइत्ता पन्नेन हि नाचरणीयं तत्स्था स्थूलारुक-प्रयमक्षुदकुष्ठम् । आचा० २३५ । नीयम् । व्य. प्र. ११४ अ । स्नत्याघर्ष: । प्रशा० २६७ । स्थापक-पक्षं स्थापितवानिति स्थापकः । ठाणा० २६१।। स्नान-स्नानम् । जीवा० १९१ । स्थापत्यापुत्र-स्थिरीकरणे दृष्टान्तः । व्य०प्र० १४१ आ। स्नानाटिका । नंदी.१६३ । - स्थापत्यापुत्र: । व्य. प्र. १९९ अ । स्थापत्यापुत्र:- स्नानादि । व्य. द्वि० ८३ था। बोधने उदाहरणम् । व्य०३० २.० अ। स्नानादिक-सुगन्धिद्रव्येणाष्य: प्रघृष्यो वा ।आचा० ३६६। स्थापनक-सुप्रतिष्ठकम् । भग०५२४ । स्नायक-भार्यादेशकरः, अन्वर्थपुरुषविशेषः । पिण्ड० १३५॥ स्थापना-पर्यायः । ठाणा० ४ । स्नायु-शिराजालम् । जीवा० ४.१ । स्थापनानमस्कार:-नमस्कारकरणप्रवृत्तस्य संकोचितकर | स्निग्ध:-स्पर्शविशेषः । प्रज्ञा ४७३ । स्निग्ध:-संयोये चरणस्य काष्ठपूस्तचित्रादिगतः साध्वादेशकारः। जं.प्र. सति संयोगिनां बम्धकरणम् । ठाणा० २६ । | स्नेह-सामान्यतस्वपत्यादिगोचरः। आव० २७२। सामा. स्थापनिका-1 पिण्ड १५ । स्थापनिका । नवी० १५७ ।। न्येन तु प्रतिबन्धः । विशे० ८४३ । ( १९९५) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नेहबन्ध: ] | आव० ८२५ । स्नेहबन्ध:स्नेह राग:- अशस्त परिणाम विशेषः- विषयादिनिमित्तविक लोsविनीतेष्वप्यपत्यादिषु यो भवति । आव० ३८७ । स्पर्द्धक- नामावधिज्ञानप्रभाया गवाक्षजालादिद्वारविनिर्गत प्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः । प्रज्ञा० ५३७ । स्पर्द्धकपति-उपाध्यायादिकम् । व्य० द्वि० २६४ अ । स्पर्द्धकावधि:- अवधिविशेषः । प्रज्ञा० ५४२ । स्पर्शनीय अनुसरणीयः । ठाणा० ६२ । स्पर्शयन्तं - - रञ्जयन्तम् । आचा० ४१६ । स्पृशति - संघट्टयति । आव० ६१३ । स्पृष्टं बद्धम् । ठाणा ० ४३३ । समूहगता यः सूचितम्ब वत् स्पृष्टकर्मबन्धः । आव० २०६ टी० । स्पृष्टमात्रं - जीव प्रदेशैः आचाय श्रीमानम्यसागरसूरिसङ्कलितः - स्यन्दनं भ्रामरीषड्भ्रामरीपरिवादनीनां राज० ५२ । शुष्ककुयापतित चूर्णमुष्टिवत् । स्वमूढी स्वं कर्म आचा० ४३० । स्वगृह मिश्रम् - स्वगृहवृत्ति: स्वधर्मकाय ठाना० ४१३ । स्वयम्पच:- तापसः । दश० २६० । स्पृहणं- तच्छ्रद्धालुतयाऽऽत्मन आविष्करणम् । उत्त० ५८७ । स्वयम्बुद्धः - साधुभेदविशेषः । भग० ४ । स्वयम्बुद्ध:- स्वयंस्फीतीभूत-धानतिम् । जीवा० २४३ ! आमना बुद्ध:- तस्वं ज्ञानवान् स्वयम्बुद्धः । ठाणा० ३३ । स्वरूप भ्रष्टतेज ( - ध्या मतेजा । भग० ६८४ | स्वरूपसत्ता-पारम्पर्यप्रसिद्धिः । आव ० ५३३ । । स्फुटं - सद्भूतदोषोच्चारणम् । व्य० प्र० ५६ आ । स्फोट-वेदनाविशेषः । उत्त० १२० । स्फोटितं - कम्पितम् | नंदी० ४१ स्फोटितं - कम्पितम् । ( ? ) स्मरण - जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तादुस्कर्ष तोऽसङ्ख्येयकालात् परतो यत् स्मरणं सा धारणा । नंदी० १७७ । स्मृति - प्रागुपलब्धमित्यादिरूपं सा स्मृतिः । नंदी० १६८ । स्मृति: - पूर्वानुभूतालम्बनः प्रत्ययविशेषः । नंदी० १८७। धारणाभेटः । दश ० १२५ । स्मृतिकालः- स्मर्यते यत्र भिक्षाकालः सः स्मृतिकाल:मिक्षाकालः । दश० १५३ । स्वर्गः-सुखम् । (१) । स्वल्पः स्तोकः । आव० ५६८ । स्वल्पकुटीरकः - खुडलक: । ओघ० ४४ । स्वविज्ञानं : नंदी० १६५ । स्यन्दनम् । | बृ० प्र० ८३ आ | आव० ८३५ । । आव० ६५७ । स्वधीतं - सुष्ठु - कालविनयाद्याचाराचे नाघीतं गुरुसका शातु सूत्रतः पठितं स्वधीतम् । ठाणा० १७३ । स्वपक्ष- संयतवर्गः । आचा० ३२६ । स्वभावः-स्वात्मीयो भावः-स्वभावः स्वशीलम् । प्र० १२१ आ । स्वभावः- धम्मंः । ठाणा० ३७५ । धर्मः । (?) । स्वभाव :- निसर्गः । आव० ६०४ । स्वभाव:- स्वो भावः स्वभाव :- तस्यैवास्मीया सत्ता । नंदी० ४० | स्वभाव:यः स्वो भाव: स्वभाव: आत्मीयो भावः । नदी २२४ । स्वभाववादी - अस्ति स्वभावः स्वतो नित्य इति वादी । भाव० ८१६ | स्वभाववादी । ठाणा० २६८ । सम ११० । स्वभावानुपलब्ध्यनुमानम्स्वभावानुमानम् - 1 [ स्वैरिणी ( ११९६ ) । ठाना० २६३ । ठाणा० २६२ । । सूत्र० २७८ । स्वविषयं स्वोचिताहारयोग्यम् । प्रज्ञा० ५०३ । स्वस्तिकः - नाट्यविशेषः । जं० प्र० ४२४ । स्वस्तिकः । नि० चू० प्र २५५ अ । स्वस्तिक:- शुभनाम | भग० २८२ । स्वस्तिक :- सन्निवेशविशेषः । जं० प्र० २०६ । स्वस्तिकश्रीवत्सनन्दावर्त्तवर्द्धमानकभद्रासन कलशमत्यदर्पणरूपाष्टमङ्गलाकाराभिनयात्मकः - प्रथमो नाट्यविधिः । जीवा० २४६ । स्वाति वृत्तवैताव्यवास्तभ्यो देवः । ठाणा० ७१ । स्वापतेयम् स्विष्टं ᄒᄋ स्वीकरणं-ग्रहणम् । उत्त० ७११ । स्वैरिणी दुचारिणी । नंदी० १५५ । | आचा० १०५ । । आव० २४० । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपज्ञशम्दानुशासनविवरण ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ % D स्वोपज्ञशम्दानुशासनविवरण-आचार्यमल्लगिरिकतव्या. हंसपाक-हसेन-औषधसंभारभूतेन यतैलं पच्यते । बृ० तृ. करणम् । प्रशा० २५१ । २०९ अ । ई-आकारलोपदर्शनादहम् । शाता० १०६ । हंसरुत-मृदुस्पर्श दृष्टान्तः । उत्त० ६७७ । मृदुस्पर्शपरिणते हंत-हस्त:-सम्प्रेषणे । सूत्र. २७४ । दृष्टान्तः । प्रज्ञा० १० । हंता-हन्ता-सम्प्रेषणप्रत्यवधारणविपादार्थे । प्रज्ञा ४३७।। हंसलक्खण-विशेषवस्त्रः । आचा० ४३३ । विशेषवन।। ३२७ । वाख्यारम्भे कोमलामन्त्रणे वा । जं.प्र. १२२।। भग. ४७३ । हंसस्वरूप-शुक्लं हंसचिह्नम् । भग० कोमला मन्त्रणार्थः । भग० १६ । एवमेव तदिति-अम्यु- ४७६ । विशेषवस्त्रम् । आचा० ४२४ । . . गमवचनः इति बृद्धाः । मग० १६ । कोमलामन्त्रणः । हंसवण्ण-हंसवर्णः । ज्ञाता. २३१ । ज्ञाता०६। हन्ता-विनाशक: । ज्ञाता० ५५। हन्ता- हंपस्तर-हसस्येव मधुरः स्वरो यस्य स हंसस्वरः । सम्प्रेषणप्रत्यवधारणविवादेषु । प्रज्ञा० २४७ । जीवा० २०७ । हंता अस्थि-सद्भुतोऽयमर्थः । भग०११७ । हंसस्सरा-हंसस्वरा-सुवर्णकुमाराणां घण्टा । जं० प्र० हंव-कोमलामन्त्रणं वचनम् । ठाणा० ३००। आमन्त्रणे । ४०७। ज्ञाता. १९३ । आमन्त्रणे। नि० चू० प्र० २१३ आ। हंसावली-हंसावलिः-हंसपङ्क्तिः । जीवा० १६१ । हंबह-हन्वहं-गृहीत । आचा. ३५५ । हंसासणा-येषां आसनानामधोभागे हंसा व्यवस्थिताः । हंदि-आमन्त्रणे-प्रत्यक्षभावदर्शने वा । नि० चू० द्वि० | जं. प्र. ४५ । । ७. अ । हन्दि इति सत्य, तेन यथाशयं वदामीत्यर्थः, हंसोलोणं- । नि. चू० प्र०१५ । अथवा हनीति सम्बोधनं शृण्वन्तु भवन्तः । ६० प्र० ईसोवनीली-हंसोली । वाव. १६ । .. २०१ । हन्दी-उपप्रदर्शने । दश०६४ । ह-खेदे । बृ० तृ० १२३ भा । निपाता हिशब्दार्थवाद् हंदी-उपप्रदर्शने । दश० ३३ । अस्मादर्थे । विशे० ८३१ । हंस-लोमपक्षीविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । हंसः-परिवाजकाहओ-हत: यष्टपादिभिस्ताडितः । सत्त० ११४ । चपेटा. विशेषः । औप० ९१। हंसः-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० दिना हतः । वृ तृ० ११४ अ । ४१ । हंस:-रजकः । सूत्र० ११६ । हंस:-पतङ्गश्चतु- ओषहए-नानाध्याधिषद्भावक्षतशरीरत्वाखतः समस्तरिन्द्रियो जीवविशेषः । अनु० ३४ । हंस-श्वेतपक्षः । लोकपरिभसत्वादपहताहतोपहत।। याचा० १२० । प्रम. ८ । अण्डजखेचरपक्षी । भप० ३०३ । तेणगो। हकवी-बनस्पतिविशेषः । अनुत्त. . नि० चू० प्र० २२८ आ । हक्कविऊण-हक्कारयित्वा । आव० ६७५ । हंसगम्भ हंसगर्मकाण्डं-नरके षष्ठं हंसगर्भाणां विशिष्टो हैवकार-है' इति अधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हक्कारः । भूभागः । भूजीवा० ८६ । हंसगर्भ:-रत्नविशेषः । जीवा. ठाणा० ३९९ । ३५९ । हतगम:-रत्नविशेषः । ज्ञाता. ३१ । हंसगी- हक्कारिय-बाहूतः । पोष. १९८ । रस्नविशेषः । जीवा० २३ । हंसगर्भः । प्रशा० २७ । इ-हक्कारं करोति । जीवा० २४८ । हंसगर्भः-मणिभेदः । उत्त० ६८९ । हक्कोरेति-आकोश्यति । आव० ३५४ । हंसगम्भतूली-हंसगभंतूली। जीवा० १६२ । हंसग तूलो। हक्कारेमाणे । ज्ञाता. २४० । जं.प्र. ३६ । हक्खुत्तं-अभिक्षिप्तम् । बाव. १४५ । हंसतूली-मनोज्ञस्पर्श दृष्टान्त: । प्रज्ञा० ६२ । हक्खुवइ-रिक्षपति उत्क्षिप्य चोवं प्रक्षिपति । विशे० हंसतेल्ल-औषधसंभारभृतहंसपक्पम् । बृ० द्वि० ११६ । ३३६ । नि० चू० प्र० १६५ च । हगइ-हदति । माव. ३६८ । ( ११९७ ) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हच्छो ] . आचायश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [हत्थउड हच्छो-देशीपदम् हिसितः । ब्य० पृ. २४ अ । हणिहणि-अहन्यहनि-प्रतिदिनम् । प्रभ० १२४ ।। हट्ठ-हृष्ट-विस्मितम् | भग० ११९ । हृढीभूतः । ओष. हणुगा-हनुः । आव• ६८६ । ४२ । हृष्टः-विस्मितः नीरोगः । भग० ६६१ । हृष्टः- | हणुदाणि-तत इदानीम् । बृ० तृ. ३ आ । तत विस्मयमापन्नः । जीवा० २४३ । हृष्टः-निरोगः । ओष० | इदानीम् । बृ० तृ० १०५ बा । १२६ । हृष्टः-तुष्टः । अनु० १७६ । हृष्टः-बहिःपुल- | हणुय-हनुकम् । जीवा० २७२ । चिबुकम् । अनुत्त० ५। कादिकम् । उत्त०४४१। दृष्ट:-नीरुजः। आव०८४३।।हणुया-हनुः । आचा. २८३ । चिबुकः । अनुत्त० ५। हृष्टः-पुष्टधातुः । जं० प्र० ९.। अगिलाणो। नि० चू० | हणुयाजंतमाई-हनुयन्त्रादि । बाब. ४०५ । तृ० ६२ । निरोगो । नि० चू० प्र० २१२ मा । हए-हनु-चिबुकम् । प्रभ० ८१ ।। णिरोगो । नि० चू० प्र० २२४ आ ।। हणे-हन्ति । ओष० १४९ । हतुट्ट-अत्यथं तुष्टं हृष्टं वा विस्मितं तुष्टं च तोषवत् । हण्डिका-पात्रविशेषः । ओघ०.१६१ । भग० ३१७ । हृष्टतुष्टः- अतीवतुष्टः । जीवा० २४३ । हण्ण-मार्यमाणः । सूत्र० ६२ ।। पटा-मोकाभावेन हा इव इशाः। ठाणा० २४७ । आत- हत्थंय-हस्तान्दुक-लोहादिमयं हस्तयन्त्रणम् । प्रश्न करहिता । बृ० वि० २०७ (?)। हठ-वनस्पतिविशेषः । उत्त० ४६५ । हत्थ-हस्तम् । आचा० ३४२ । हस्त:-प्रधानावयवः । हड-हड:-वातप्रेरितः । दश०६७ । सम० ११६ । हसन्ति-तेनावृत्य मुखं नन्ति वा पात्यहरकारग-हठेन करोति यः स हठकारकः । उन० ४६। मनेनेति हस्तः । उत्त० २४३ । गदो। नि. चू०प्र. हडप्प-हडप्पो-द्रम्माविभाजनं ताम्बूलार्थ पूगफलादि- ५८ अ । हस्त:-चतुविशत्याममानः । अनु० १५४ । भाजनं वा । भग० ४९६ । नि० चू० प्र० २७७ छ। हस्त नक्षत्रविशेषः । सूर्य० १३० । हस्तः । ठाणा.७७ । हडप्फ-आभरणकरण्डकः । ज्ञाता०५७ । हडप्फ:-द्रम्मादि- शीघ्रम् । औप० ६२ । गणोक: । नि. चू० प्र०३८ भाजनं ताम्बूलार्थ पूगफलाविभाजनं वा । जं.प्र. २६४ । अ। हडाहड-अत्यर्थम् । ज्ञाता० १९९ । अत्यर्षम् । ज्ञाता | हत्थकप्प-हस्तिकल्पं- धृतिमतिविषये नगरम् । आव. १६६ । अस्यर्थम् । विपा० ३६ । ७०९ । हस्तकल्प-क्रोधपिण्डाष्टान्तोदाहरणे नगरम् । हडि-हडिः खोटकः । औप. ८७ । पिण्ड० १३३ । नगरविशेषः । ज्ञाता. २२६ । नि. हडिबंधण-हडीबन्धनं-खोटकक्षेपः । प्रभ० १६४ । चू० वि० १०० अ। हड्डि-काष्ठविशेषः । प्रभ० ५६ । हत्थकम्म-हस्तकम-प्रथमशबलः, हस्तक्रिया परस्परं हस्तहट-वनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा. ११४ । जलम्हविशेषः । प्यापारप्रधानः कलहः । सूत्र० १८१ । हस्तकर्म-हस्तेन प्रशा०३३ । हढ:-अनन्तजीववनस्पतिभेदः । आचा. शुकदलनिधातमकिपा । ठाणा. १६३ । हस्तकम्मै५६ । साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । हस्तमैथूनम् । बाव. ६५५ । . हट:-जलजवनस्पतिविशेषः। प्रसा. ४०। हत्थकिच्च-हस्तकृत्यं-हस्तकरणम् । भग० १९ । हणंति-घ्नन्ति । आव० ६५० । हत्थग-मुहपोत्तिया । दश. चू० १२ । हस्तक-मुखब. हण-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । हन-स्वरूपपरित्यागः। सिकारूपम् । दश० १७८ । स्यहरणं । नि. ५.प्र. सत्त. ४७० । हन: । ज्ञाता० २३८ । ५८ अ । हणरोमग-म्लेच्छविशेषः । प्रशा० ५५ । हत्थगा-हस्तका:-समूहाः । बं० प्र० ४४९ । हणाइ हन्ति । उत्त. ४७५ । हत्थच्छिन्नयं-हस्तच्छेदनम् । सूत्र० ३२८ । हणिहणि-महनि अहनि-प्रतिदिनं सर्वव्यापि ।प्रम० १५५| हत्थउड-हस्तपुटः । आव० ६३३ । ( १९९८) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थताल ] हत्थताल - हस्तेन ताडनं हस्तताखः । बृ० तृ० ८६ अ । हत्थपुड - हस्तपुटं वाद्यविशेषः । जं० प्र० १०१ । हत्थग्भास-हस्ताभ्यासः । आव० ४२५ अल्पपरिचित सैद्धान्निक शब्दकोषः, भा० ५ हत्थभद्दिय-हस्तेन मदितं-मलितम् । भग० ६८४ । हत्थमालग - हस्त मालकम् । जं० प्र० १०६ । हत्थमालय - हस्त मालक :- अङ्गणेत्रिका | औप० ५५ । हस्तमालकं भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६६ । हत्थलघुतण- हस्तलघुत्वं तृतीयाधर्मद्वारस्य पाठान्तरेणे कादशमनाम । प्रश्न० ४३ । हत्थलत्तणं - परधनहरणकुरिसतो हस्तो यस्यास्ति स हस्तलस्तद्भावो हस्तलत्वं तृतीयाधर्मद्वारस्यैकादशमं नाम । प्रभ० ४३ । हत्य संगेल्ली। ज्ञाता० ९३ । हत्थ संठित - हस्तसंस्थितः । सूर्य • १३० । हत्थाताल - हस्ते नाSSनाडनं हस्तातालः । ठाणा. १६२ । हत्थामरग-हस्ताभरणं - अङ्गुलीयकादीनि । ठाणा० ४२१ । हत्यामोस - हस्तामर्श: । जाव० ४२७ १ हत्थालंब - हस्तालम्ब इव हस्तालम्बः । ठाना० १६४ । हस्तालम्ब:- अशिवायुपशमायामिचारुकमन्त्रादिः । बृ० तृ० ८६ अ । हत्थिदु हस्तान्दुः- कर विषय काष्ठमयबन्धनम् । १५७ । हत्यिकन्न विव-अन्तरद्वीपः । ठाना० २२६ । हरिथखंधव रगत-वरहसि स्कन्धगतः । आव ३४१ । हत्थगडगडाइय- हस्तिगडगडापितम् । जीवा० २५७ । हत्थिञ्चता-हस्तयोग्यानि आभरणानि । पिण्ड० १२४ । हत्थिजाम - हस्तियाम: - राजगृहे वनखण्ड विशेषः । सूत्र० ४०६ । [ हरिथसीस हस्तिनापुर - सनत्कुमार "शान्ति' कुन्ध्वर' सुसुम राजधानी | आव० १६१ । हस्तिनापुरं - नगरविशेषः ब्रह्मदत्तभ्र नगरम् । आव ० ८११ । हस्तिनापुरं - सुमुखगाथापतिनगरम् । विपro ६१ । हस्तिनागपुरं सुनन्दराजधानी । विपाο ४८ । कुरुजनपदे नगरम् । ज्ञाता० १४२ । नगरविशेषः । ज्ञाता० २५३ । नगरविशेषः । ज्ञाता० २०८ | हस्तिनापुर - नगर विशेष: । आव० ३५८ । हस्तिनागपुरंअनन्तवीर्यं नरगम् । आव ० ३६२ । कार्तिकश्रेष्ठीवास्तव्या नगरी । भग० ७३७ गंगदत्तवास्तव्या नगरी । भग० ७०७ । यत्र सहस्रामवनोद्यानम् । भय० ५१४ । हत्थिनागपुर - बलराजराजधानि । मग० ५३५ । हत्थितावस - हस्तिनं मारयित्वा बहुकालं भोजनतो यापयन्तीति । भय० ५१६ । यो हस्तिनं मारयित्वा तेनेव बहुकाल भोजनतो यापयति हस्तितापसः । औप० ६० । हस्तिनं मारयित्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो यापयति । निरय० २५ । हत्थि पिप्पलीए - हस्तिपिपा ६५३ । हत्थियणा - गण्डी नदश्चतुष्पदविशेषः । जीवा० १८ । पिण्ड० हत्थिभूइ - हस्तिभूतिः- क्षुरपरिषहवोढा क्षुल्लकः । मणनगरम् । उत्त० ३७९ । हत्थिनाउर - हस्तिनापुर - राजाभियोगविषये हत्यिणउन - हस्तिनापुर - ऋषभस्य प्रथमपारणकस्थानम् । हत्थि मेंठ- हस्तिमेण्ठः । आव० ३५० । उस • ६५ । हत्थि मउ - हस्ति मृत:- मृत हस्ति देहः । जीवा० १०६ । हत्थिमित- हस्तिमित्र:-उज्जयिन्यां गाथापति : उत्त० उस० ८५० । हत्थिमुह - हस्तिमुखः - श्रन्तरी पविशेषः । जीवा० १४४ । हस्तिमुखनामा अन्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५० । हत्थिमुहदीन - अन्तरद्वीपः । ठाणा० २२६ । आव १४६ । हत्थिरयण - चक्रवतः पचमपडचेन्द्रियरत्नम् । ठाणा० ३६८ । हरियणपुर - हस्तिनापुरं कृष्ण वासुदेवनिदानभूमिः । आाय० १६३ टो० । हस्तिनागपुर - नगर विशेषः । अनुत्त ८। हस्तिनागपुरं - ब्रह्मदत्त निदान भूमिः । उत्तः ६७३ बसुत्तरोपपातियां पञ्चमवर्गे नगरम् । अनुत हत्थिबाउए - हस्तिव्यावृती - महामात्रः । प० ६२ । हत्थिसीस - नगर विवेषः । ज्ञाता ० २२७ । हस्तिशीर्ष ग्रामविशेषः । आव २१८ । हस्तिशीर्षनगरं यत्र ( ११६६ ) ५। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थोसीसनयर ] आचार्यश्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलित : दमदन्तराजा । आव० ३६५ । हत्थि सीसनयर - नगर विशेषः । ज्ञाता० २०८ | हत्यसुंडिया - हस्तिण्डिका-एकं पादमुत्पाट्योपवेशनं सा । बृ० तृ० २०० अ । हत्थि सोडगा - हस्तिसोंडिका | ठाणा० २१६ | हथिसोंडा - त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । त्रिन्द्रियजन्तु - विशेषः । जीवा० ३२ । - हय हतं खण्डितम् । जं० प्र० २४२ । प्रहारदानतः हृतः । भग० ३१९ । हतः दूषितः । बृ० प्र० १८५ आ । हतः - निन्दावाचकः । बृ० द्वि० १९८ आ । हतः - ताडितः । उस० ३६८ । हयइच्छित - हृदयेप्सितं - मनोवाञ्छितम् । ज्ञाता० ३१ । हयकंठ- हयकण्ठः हृयकण्ठप्रमाणः । जं० प्र० ५८ । हयकण्ठः- हथकण्ठप्रमाणरत्नविशेषः । जीवा० २१४,२३४ । कण्ठप्रमाणरत्नविशेषः । राज० ७७ । चम् । आव० २५५ । हत्थुत्तरा - हस्तोत्तरा- उत्तरफाल्गुनी-सुधर्मस्वामिजन्मनक्ष हयकण्ण-यकर्णः - अन्तरद्वीप विशेषः । जीवा० १४४ । हय+नवीन - अन्तरद्वीप विशेषः । ठाणा० २२६ । हयकन्ना - यहकर्णनामा अन्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५० । कर्णद्वीपव' स्तव्यामनुष्याः । ठाणा० २२६ । हयच्छाया - अश्वसरका छाया । प्रज्ञा० ३२७ । हयजोही - कलाविशेषः । ज्ञाता० ३८ । हयतेय - हततेजः । भग० ६८३ । हयपोंडरीय - हृदपुण्डरीकः - पक्षिविशेषः । प्रभ० ८ । हय महिय - हत मथितः - अत्यर्थं हतः । ज्ञाता० २२१ । डययदइए-1 ज्ञाता० २१३ । हययनिव्वुइयरे - हृदयनिर्वृत्तिकरं मनःस्वास्थ्यकरम् । ज्ञाता० १२ । रहितं धनवतां भवनम् । जीवा० २७६ हयलक्खण - कलाविशेषः । ज्ञाता० ३८ । हम्मतल भूमितले तरं वा हम्मतलं । नि० चू० हि० हयलाला अश्वलाला । ज्ञाता० २५ । ८४ अ । हम्मति हन्यते हनिष्यति । उत्त० ४९१ । हन्यते । बोघ० १५६ । हत्थी - गण्डीपदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । हस्ती - गण्डीपदचतुष्पदः । जीवा० ३८ । हत्थोपूपणया - गण्डी पदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । हत्थीसीस - हस्तिशीर्षनगरं अदीनशत्रु राजधानी । विपाο 5ε I हत्थुस्सेह - हस्तोच्छ्रयः । आव० ५२४ । हवज्ञ - भार्यादेशकरः - अन्वर्थः पुरुषविशेषः । पिण्ड० १३५ । हदुसरक्खो - विष्ठासरजस्कः | आव० ६३२ । नि०पू० प्र० १५६ अ । हट्टु - हृष्ट:- वनसि परितोषवान् । वृ० प्र० २४७ आ । हनुक - शरीरावयवः । आचा० ३५ | हनुमत् - महाविद्याधरराजः । प्रभ० ५९ । हन्त-कोमलामन्त्रणे - अभ्युपगमद्योतने वा । अनु० १६१ । हम्म हम्यं धनवतां गृहम् । सूर्य० ६९ हम्यं -शिखर [ हवा. हम्मियतलसंठिया - हम्यंतलसंस्थिता हम्यं - धनवतां गृहं तस्य तल - उपरितनो भागस्तत्र संस्थितं - संस्थानं यस्या । सा । सूर्य० ६६ । हमिहामि घानिषम् । आव० ३५४ । हयला लावेल वाइरेग - हलाला- अश्वलाला तस्या अर्पि पेलवमतिरेकेण - हलाला पेलवातिरेकं अतिविशिष्ट मृदुत्वलघुत्वगुणोपेतम् । जीवा० २५३ । हम्ममाण - हन्यमानः । आव० ८११ । हयविया - हतविहता । आव० ६८ । हम्मिअ-हम्यं शिखररहितं घनवतां भवनम् । जं० प्र० हयवीही - हथवीथी - अन्यत्र नागवीथी । ठाणा० ४६६ । १२१ । हम्मिए - धार्मिक:- धर्मेण चरति-भ्यवहरति वा धार्मिकः । विपा० ४६ । हयसंघाड - हयस वाट:- हययुग्मम् । जीवा० १५१ । हयसत्तु - हतशत्रुः, मुद्गशैल पुरनृपतिः । उत्त० १२१ । यहियओ - हृतहृदय: । आव० २६३ । हम्मितल - हम्यंतलं - भूमिहम् । आचा० ३६२ । हया - हताः - ताडिताः । उत्त० ३६८ । १२०० ) ( Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हयाणिय ) अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०५ [ हरिकूट हयाणिय-अश्वानिकम् । उ० मा० । हरि:-विद्युत्कुमारेन्द्रः । आव २२१ । हयणीय-चम्मियगुडिएहि हतेहिं बलदरिसणा हयाणीयं । हरिअसुहम-हरितसूक्ष्म-तच्चात्यन्ताभिनवोद्भिन्नं पृथिवी. नि० चू० द्वि० ७१ अ । समानवर्णमेव । दश० ३३० । हयानोक-सप्तनामनीकाना प्रथमः । जीवा० २१७ । हरिए-हरित दूर्यादि । दश ० १५५ । हरितः । जं० प्र. हरइ-हरति-गृह्णाति । पिण्ड० १३१ । हरति-उद्दालयति । ३०८ । हरितस्तु-शुकपिच्छवत् हरितालामः । जं. वृ तृ. ८१ था। प्र० २८ । हरए-ह्रद:-नदः । भग० ८३ । हरिएस-हरिकेशः-उत्तराऽपयनेषु द्वादशममध्ययनम् । हरणं-उदरान्तरसङ्क्रामणम् । ठाणा० ५२३ । उत्त० ९ । ओघ. २२३ । हरिकेश:-चाण्डालः । उत्त. हामविप्पणास-हरणेन-मोषणेन विप्रणाश:-परद्रव्यस्य ३.२ । हरिकेश:-अपरनाम बलः । उत्त० ३५७ । हरणविप्रणासः, तृतीयाधर्मद्वारस्य चतुर्दशमं नाम । हरिकेश-चाण्डालविशेष: ' प्रश्न०१३ । हरिकेश:-मातङ्ग. अभ० ४३ । जातीय: आम्रचोरकः पुरुषः । दश. ४२। हरिकेश:हरतणु-हरतनु:-भुवमुद्भिब तृणाग्रादिषु भवति । दश ० चाण्डाल: । आव० ७१८ । हरिएसा-हरिकेशा:-ब्रह्मदत्तस्याष्टाग्रमहिषीणो मध्ये प्रथमा हरतणुए-हरतनुर्यो भुवमुद्रुद्ध गोधूमाङ्कपतृणाम्रादिषु बद्धो । । उत्त० ३७६ । नि• चू• द्वि० ४३ मा । विम्दुरूपजायते तत् । प्रज्ञा० २८ । हरिएसिज्जं-उत्तराध्ययनेषु द्वादशममध्ययनम् ।सम ६४। हरतणुया-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० हरिकंत-हरिकान्त:-विद्युत्कुमारीणामधिपतिः । प्रज्ञा० ६४ । हरिकाः । जीवा० १७० । हरिकाम्न:-चतुर्थो. हरतरण-सलिलबिन्दवः । ओष. ११७ । हरतनुः-वर्षा- दक्षिणनिकायेन्द्रः । भग. १५७ । शरत्कालयोहरिताङ्कुरमस्तकस्थितो जलबिन्दुः भूमि- हरिकंतदोव-हरिकानद्वीपः । जं० प्र० ३०२ । स्नेहसम्पर्कोद्भूतः । आचा. ४० । हरतनु:-यो भुव हरिकंतष्पवायकुंड-हस्किान्ताप्रगतकुण्ड:-यत्र हरीका. मुद्भिव गोधूमाझुरतृणाग्रादिषु बद्धो बिन्दुः । जीवा० तामहानदेः प्रपात: । जं० प्र० ३०२ । २५ । हरिकंतप्पवायदह-हरिकान्तामहानदी हरिकान्ताप्रपात. हरतनु-स्नेहसूक्ष्मम् । दक्ष. २२६ । प्रात: सस्नेहपृथि- ह्रदः । ठाणा० ७५ । युद्भवस्तृणाग्रजलबिन्दुः । उत्त० ६९ । . हरिकंता-हरिकाता महानदी । जं० प्र० ३०२ । हरि. हरति-पात्मवशं नयति । जीवा. १८१ । काम्ता-महानदी । जं० प्र० ३०५ । हरवीदग-दोदकम् । आव० ६२० । हरिकन्न-हरिकर्ण:-अन्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५० । हरहरा-अतीव भिक्षाप्रस्तावः । विशेषः ८५३ । अतीव रकांत-इन्द्रविशेषः । ठाणा. २०५ । भिक्षाप्रस्ताव: । आव० २७४ । हरिकान्ता-महानदीविशेषः । अणा० ७४ । महाहिमहराहि-गृहाण । भग. ४८२ । वति कूटम् । ठाणा० ७२ । हरि-विद्युत्कुमारेन्द्रः । ठाणा० ८४ । पुरुषविशेषः । हरिकुंड-हरिकुण्ड:-कुण्डविशेषः । जं० प्र० ३०८ । ठाणा. ठाणा० ५२४ । हरि:-पिङ्गो वर्णः । ठाणा० ५०२ । हरिशब्देन सूर्यचन्द्रः । जं० प्र० ३०६ । महाहिमवत: करुणः । भक्त । कुटम् । ठाणा० ७२ । निषधवर्षधरे कुटम् । ठाणा हरिकट-विद्यत्प्रभाभिधाने गजदन्तीकारपर्वते कूटम-1 ७२ । हरिसलिलताऽपरपर्याया महानदी । जं.प्र.३०८। सम० १०५ । हरिनाम्नो दक्षिणश्रेण्यधिपविद्यरक्रमाहरि:- एकोनचत्वारिंशत्तममहाग्रहः । ६० प्र० ५३५ । । रेन्द्रस्य कूट-हरिकूटम्, विद्युत्प्रभवक्षस्कारकूटनाम । (अल्प० १५१) (१२०१ ) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकेशदृष्टान्तः ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [हरियग जं० प्र० ३५५ । | हरिताल-क्षारमृत्तिका । आचा० ३४२ । हरिकेशदृष्टान्त: (?) १-१-१३ । हरितालिया-हरितालिका-पृथिवीविकाररूपा प्रतीता । हरिकेशबल-सहायलब्धिकः । बृ० तृ. १५६ अ । अस्त- जीवा० १६१ । मितोदिते दृष्टान्त: । ठाणा० २३७ । हरितालियागुलिया-हरितालिका गुलिका-हरितालिका. हरिचंदण-हरिचन्दन:-अन्तकृशानां षष्ठवर्गस्याष्टममध्य- खारनिर्वत्तिता गुटिका । जीवा० १९१ । यनम् । अत १८ । हरिचन्दनः । अन्त० २३ ।। हरितालियाभेय-हरितालिकाभेद:-हरितालिकाछेदः । हरिडए-हरीतक:-कोकणदेशप्रसिद्धः कषायबहुलः वृक्षवि. जीवा० १६१ । शेषः । प्रज्ञा० ३१ । हरिदिव- हरिद्वीपः । जं० प्र० ३०८ । हरिणमिय-हरिणश्चासौ मृगश्च हरिंणमृगः । उत्त० ६३४।। हरिद्दा-हरिद्रा । जीवा० १६१ । हरिणेगमेसि-विद्याराज: । आव० ४११, १७६ । हरे:- हरिद्दागुलिया-हरिद्रागुलिका-हरिद्रासारनिवतिता गुलि. इन्द्रस्य निगम-पादेशं इच्छतीति हरिनगमेषी । जं.प्र. २६७ । हरिद्वाओ-हरिद्राभेद:-रिद्राच्छेदः । जीवा. १९१ । हरिणेगमेसी-सुलसाया इष्टदेवः । अन्त० ७ । पदानिका. हरिनैगमेषि-भगवन्महावी रगर्भसंकामको देवः सम० १.६॥ धिपतिः । ठाणा० ३०२ । सुघोषाघण्टावादकः । ज्ञाता० हरिप्पवायद्दह-हृदविशेषः । ठाणा० ७५ । १२७ । हरिनं गमेषी-महावीरगर्भपरावतंको इन्द्रसम्ब-हरिबेर-होवेर:-बालकः । उत्त० १४२। न्धीदेवः । भग० १२८ । हरिमंथा-कालचगया । दश० चू० ९२ । हरित-महानदी । ठाणा० ७४ । हरितं-दूर्वादि । भग. हरिमन्थ-हरिमन्श:-कृष्णचणकः । दश. १९३ । ३०६ । तं चेव अंकुरभिण्णं हरितं । नि. चू० द्वि० हरिमेल-हरिमेलक:-वनस्पतिविशेष: । भग० ४८० । ८३ अ । वास्तुलादि, सामान्यतस्तरुवनस्पतिः । ७. मेलओ-हरिमेलक:-वनस्पतिविशेषः । जं.प्र. ५३०। प्र. १६३०। हरितं-दूर्वादिवनस्पतिः। प्रभ० १२७ । रमेला-हरिमेला-वनस्पतिविशेष: । जं. प्र० २६५ । हरितः-तन्दुलोकवस्तुल प्रभृतिः । जीवा० २६ । हरितं- वनपस्पतिविशेषः । औप० ७० । दूर्वादि । जं० प्र० १७४ । हरिय-पिङ्गीभूतम् । भग. ६५१ । ज्ञाता० ११६ । हरितको-औषषिविशेषः । श्राव. ३९. । हरितं-तन्दुलेयकादि । उत्त०६९२ हरितं-बीहिकादि। हरितग-वनस्पतिकायविशेषः । भग० ८०२ । वनस्पति- पिण्ड० १९ । उद्धिन्नं बीजं । वृ० त०१६६ बा । विशेषः । भग ८०२ । हरितविशेषः । प्रशा० ३३।। हरित-शाकादि । ओष० ६३ । हरितं-मधुरतृणकटुहरितक-नीलकम् । भग. १००। माण्डादि । शाता०४६। हरितकः-हस्वतृणम् । ज्ञाता. हरितगरेरिजमारणे-हरितकाच ते नोखका रेरिजमानाम | २५ । हरि-नंतण्डुलीयकवस्तुलप्रभृतम् । प्रज्ञा० ३.. हरितकरेरीज्यमाना । भग. ३..। वस्थुलादि । नि० चू० दि० १४२ अ । हरितः-नीला हरितपणीय-हरित-तत्र शाकादि बाहल्येन पक्यते ।। जीवा. १८८ । हरितं-नीलतपत्रम् । बोप०७ । बोषः ६३ । हरियकंड-पिङ्गीभूतजालम् । भग० ६५१ । हरितभद्रा:-यक्षभेदविशेषः । प्रज्ञा. ७. । हरियक्कमण-हरिताक्रमणं सकलवनस्पतेः पादेन पीडनम् । हरितवत्थो-सटवे चेव वणसह कोमलो हरितवत्यो । आव० ५७३ । नि चू० द्वि० १४२ । हरियग-हरितक-जीरकादि । ठाणा० ११८ । हरितकहरितसुहम-हरित सूक्ष्म-प्रत्यन्ताभिनवोद्भिनपृथिवीसमा- जीरकादि । भग० ३२६ । हरितकम् । सूर्य २९३ । नवणं हरितमेवेति । ठाणा. ४३० । हरितक-जीरकादिहरितम् । प्रभ० १६३ । । ( १२०२) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरियगरेरिजमारणे ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ हर्षपुरीय था। हरियगरेरिजमाणे-हरितक इतिकृत्त्वा 'रेरिज्जमाणे त्ति' हरिवासकूड-हरिवर्षकूटं निषधे कूटम् । ज० प्र० ३०८ । आतिसयेन राजमानः । भग० ६६४ । हरिवाहण-हरिवाहन:-नन्दीश्वरे द्वीपेऽपरार्धाधिपतिर्देवः । हरियपण्णी-हरितपत्री-शाकादिहरितबाहुल्येन भक्ष्यते । जीवा० ३६५ । व्य. द्वि०७३ । हरिस-रूढिगम्यम् । औप० ५५ । वदनविकाशरोमाञ्चो. हरियपत्तीए-बाहुल्येन हरितपत्रशाकम् । बृ० प्र० २३१ दुगमादिचिह्नगम्यो मानसः प्रीतिविशेषो हर्षः । विशे० १३१ । रोगविशेषः । भग० १६७ । हरियभोयण-प्रतिषेधभोजनम् । ठाणा० ४६० । भग० हरिपय-हर्षकं -भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६६ । हर्षकम् । जं० प्र० १०६ । हरियभोयणा-हरितभोजना-हरितानि भोजने यस्यां सा। हरिसवसविसप्पमाणहियए-हरिवविषर्षहृदयः-हर्षव. आव० ५७६ । शेन विसर्पद्-विस्तारं व्रजद् हृदयं यस्य स । भग. हरियाल-हरिताल:-पृथिवीभेदः । आचा० २६ । हरि- ११६ । ताल । प्रज्ञा० २७ । हरिताल: धातुविशेषः। प्रज्ञा• | हरि पह-हरिषहः-उत्तरनिकाये चतुर्थों इन्द्रः । भय ३६१ । हरिताल: धातुविशेषः । उत्त० ६५३ । हरितालः ।। १५७ । हरिस्सहः-प्रियपृच्छकः । भाव. २२१ । उत्त० ६८९ । हरिसागओ-सातहर्षः । आव २६९ । हरियालगुलिया-हरितालमयीगुटिका । प्रज्ञा० ३६१ । हरिसेण-दशमचक्रवर्ती । सम. १५२। हरिसेण:-दशम. हरियालभेय-हरितालभेदः-हरितालस्य द्वैधीभावः । प्रज्ञा । चक्रवर्ती । आव० १५९ । हरिस्सह-लोकपालविशेषः । ठाणा० २०५ । विद्युत्कुमाः हरियालया-हरितालिका-पृथिवीविकाररूपा । ज० प्र० रेन्द्रः । ठाणा ८४ । हरिस्सहः-विद्युत्कुमाराणामधि३४ । पतिः। प्रज्ञा० ९४। हरियालसमुग्गय-हरितालस मुद्कम् । जीवा० २३४ । हरिस्सहकुड-हरिसहकूट:-माल्यवद्वक्षस्कारे कुटः । सम. हरियालिया-हरितालिका दूर्वा । भग० ५४२ । हरिता. १०५ । उत्तरश्रेणिपतिविद्युत्कुमारेन्द्रस्य कूट हरिस्सहलिका-दूर्वा । अनु० २४ । कूटम् । जं० प्र० २३८ । हरिस्सहकूट-माल्यवन्ते हरियाहडि-पूर्व हुतं पश्चादाहृतं अनीतं वस्त्रं हताहृतम्, | कूटम् । ज० प्र० ३३९ ।। हृताहृता हरिताहृतिका हृत्वा हरितेषु प्रक्षिप्ता । बृ° | हरी-एकोनचत्वारिंशत्तममहाग्रहः । ठाणा० ७६ । भग० दि. ११७ अ। ७००। सद्यग्रामस्य मूच्र्छना । ठाणा० ३६३ । हरि:हरियाहडिया-स्तेनानीतप्रतीच्छा हताहतिका । व्य द्वि. हुरित्सलिलामहानदीः । जं० प्र० ३०५ । ३४५ आ। हरीएसबलो- । नि० चू०प्र० ३०४।। हरिरेणु-हरिद्रेणु-नीलवर्णपांसुः । ज्ञाता० १३० । हरीतकी-वनस्पतिविशेषः । विशे. ११६६ । हरिवंश -उच्चैर्गोत्रविशेषः । सूत्र. २३६ । हरीमण-होमना:-ह्री:-लज्जा-संयमो मूलोत्तरगुणभेदभिहरिवंस-हरिवंश-अरिष्ठनेमिवंशस्थानीयः । आचा० ३२० ।। नस्तत्र मनो यस्याऽसौ, ह्रीमनः योऽनाचारं कुर्वनाचार्याहरिवंशः-कुलविशेषः । आव० १७६ । दिभ्यो लज्जते स । सूत्र. २३४ । हरिवष-रुक्मिशिखरिणोरन्तराले क्षेत्रम् । ठाणा. ६८।। हरे-हहो । आव० ६२७ । निषधे कूटम् । ठाणा० ७२ । हरेणुअ-हरेणुक:-प्रियङ्गः । उत्त० १४२ । हरिवस्स-हरिवर्षः । जं० प्र० ३०२ । हर्षपुरीय-गच्छविशेषः । अनु० २७१ । पच्छविशेषः । हरिवास-हरिवर्ष:-अकर्मभूमिविशेषः । प्रज्ञा० ५० । । विशे० १३५८ । ( १२०३ ) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्यधीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ हाउं हल-हल:-भूमिकर्षकशस्त्रविशेषः । आव० ८२६ । भग० हव्ववाह-हुतभुक् । आचा० १९७ । १८२ । लाङ्गलम् । प्रश्न० २१ । हलम् । जीवा हवाए-आरात तीराय । आचा० ११३ । एहिकसुख. ११७ । हन:-प्रतीतम्, अधोनिबद्धतिर्यक्तीक्ष्णलोहपट्टि भाजः । सूत्र० २६० । अक्तिटवर्ती । सूत्र. २७३ । कम् । अनु. ४८ । हले-नानादेशापक्षया गौरवकुत्सा- हसण-हसनं-स्वाभाविकहास्यम् । आव• ६३४ । मुहं दिगर्भशमन्त्रणवचनम् । दश० २१६ । विष्फालिय सविकारकहक्कहं हसणं । नि० चू० तृ० ६१ हलउलेमाणी । निरय०३२ ।। आ । हलबंभ-हलकर्षः । उत्त० ११६ । | हसन-अट्टहसादि । उत्त० ७१० । हलबोलं. । आचा० ३०२ । हसहसायइ-भृशं दीप्यते । बृ• • २०१ अ । हलहर कोसेज-हलधरकोशेयं-बलदेववस्त्रम् । ज्ञाता० ६ । हसहसेइ-देदीप्यते । बृ. प्र० ३१५ अ । हलहरबसण-हलघरवसनं-बलदेववस्त्रम् नीलत्वात् । | हसहसेऊण-जाज्वलित्वा । बृ० दि० २५९ । प्रज्ञा० ३६० । | डसहसेति-प्रज्वलति । वृ० तृ. २७ ऑ। हला-हले । आव० ९३ । | हसिय-हसितं-सप्रमोदं कपोलसूचितं हसनम् । सूर्य ख-वनस्पतिकायविशेषः । भग. ८०४ ।। २६४ । हसितं-हासः । प्रभ० १३७ । हसितं-हसनं हलिहा-हरिद्रा-इह पिण्डहरिद्रा । प्रज्ञा० ३६१ । हरिद्रा- कपोलविकासि प्रेमसन्दर्शी च जं.प्र. ११६ हसितं हसनकन्दविशेषः । उत्त०६९१। हरिद्रा-हारिद्रवर्णपरिणता ।। कपोलविकासि प्रेमसंर्दाश च । जीवा. २७६ । प्रज्ञा० १० । हरिद्रा-पिण्डहरिद्रा । उत्त० ६५३ । हसियसद्द-हसितशब्द:-कलहादिकम् । उत्त० ४२५ । हरिद्राक:-ग्रामविशेषः । आव २०५ । हस्त-शरीरावयवः । आचा..। छा-मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ । हस्तकर्म-प्रथमशबलः । प्रभ० १४४ । हलियंड-बंभणिया अंडयं । दश• चू० १२।। हस्ततालं । आव० ७६४ । हलीमुह-हलीमुखम् । जं० प्र० २१२ । हस्तनिक्षेपः । (?) १-१-४८९ । हलोसागत-मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ । हस्तितापस हस्तिनं व्यापाद्यात्मनो वृत्ति कल्पयन्तीति हलोसागर-मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ । हस्तितापसः । सूत्र० ४०४ । हलोहलिअंडं-सरडीअंडगं । दश. चू. १२१ । हस्तिदन्तक-मूलकम् । जं० प्र० २४४ । हल्ल-हल:-चम्पायां कूणिकराज्ञो अनुजः । भग० ३१६। हस्तिनागपुर-कुरुजनपदे नगरम् । ज्ञाता० १२५ । पाण्डुगोवालिकातृणसमानाकार: कीटकः । भग. ६८४ । राजधानी । प्रभ० ८७ । हल्ल:-अनुतरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य षष्ठमध्ययं- हस्तिमित्र-धनशर्मपिता । मर० । नम् । अनुत० २। हल्ल:-शिक्षायोगहष्टान्ते श्रेणिक- हस्तिशिक्षा-लोकिकगुणचरणे उदाहरणम् । आचा०९। चेल्लणासुतः । आक० ६७९ । हस्तिसुण्डिका-यत्र तु पुताम्यामुपविष्टः सन् एकं पादहविपिंड-धृतपिण्डः । मर० । मुत्पाट्यास्ते सा हस्तिसुण्डिका । ठाणा० २९९ । हविप्रचुर-प्रतिस्निग्धः । आव० ५६८ । हस्स-महाकायेन्द्रः । ठाणा० ८५ । हव्व-शीघ्रम् । ज्ञाता०२२१ । शीघ्रम् । जीवा० २८२।। हस्तगइपरिणाम-हस्वगतिपरिणामः-दीघंगतिपरिणामास शीघ्रम् । उत्त० ५७७ । कदाचित् । जं० प्र०१२२।। द्विपरीतः । प्रज्ञा० २८६ । शीघ्रम् । जीवा० ३९६ । शीघ्रम् । भग० ७८ । हस्तट्टिय-हासाथिकः हासार्थी । प्रभ० ३० । शीघ्रम् । ठाणा० ११७ । शीघ्रम्। बु. तु. ३५ आ। हस्तरती-महाकायेन्द्रः । ठाणा० ५५ । हव्यं-शीघ्रम् । अनु० १६२ । हा-हापयित्वा-वयित्वा । बृ, तृ० १२ आ । ( १२०४ ) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाकट्ठ 1 अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५ [ हालाहल हाकट्ट-विलापम् । नि.चू०प्र० १५५ आ। | हारमहावर-हारे समुद्रेपरार्वाधिपतिर्देवः । जीवा० हाडहड-नक्कालं । नि० चू• तृ) ६५ आ । देशीपद ३६८ । तत्कालम् । व्य० प्र० ५६ अ । हारवर-हारवर:-द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च । जीवा. हाडहडा यत् लघुगुरुमासादिकमापनस्तत् सद्य एव यस्या ३६८ । हारवर:-हारवरे समुद्रे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । दीयते सा हाडहडा । ठाणा० ३२६ । नि० चू० तृक जीवा० ३६८ । हारसमुद्रे-पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा. १३६ आ । ३६८ । हाणि-घ्राणं-पोथ: । जं० प्र० २३७ । हारवरभद्द-हारवरद्वीपे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा. हाणी-होनि:-क्षुधा बाधनम् । ओष. १२७ । हानि- ३६८ । हिलना । ओघ० १६२ । | हारवरमहाभद्द-हारवरे दीपेऽपरार्धापतिर्देवः । जीवा० हादेव-मारेन्ज । नि० चू० प्र० २८० अ । ३६८। हायंतो । ज्ञाता. १७१ । हारवर महावर-हारवरे समुद्रे ऽपरा॰पतिर्देवः । जीवा. हायणि-हायनी-जन्तोः षष्ठी दशा । दश० ८ । हायणो-हापयति पुरुषमिन्द्रियेष्विति-इंद्रियाणि मनाक स्वा. | हारवरावभास-हावरावभासः-द्वोपविशेषः समुद्रविशे. र्थग्रहणापटूनि करोति हापयति हाणि । ठाणा० ५१९।। षश्च । जीवा० ३६८ । दशद सायां षष्ठी । नि० चू० दि० २८ आ। हारवरावभासभद्द-हारवरावभासे द्वीपे पूर्वार्दाधिपतिहार-भागः । भग. ५३५ । हार:-अष्टादशसरिकः ।। | वः । जीवा० ३६८ । ज्ञाता १६ हारः । आव० १२४ । हार:-अष्टादश- हारवरावभासमहाभ-हारवरावभासे द्वीपेपराषिसरिकः । जीवा० १८१ । हार:-अष्टादशसरिकः । | पतिर्देवः । जीवा० ३६८ । औप० ५५ । द्वीपविशेषः । जीवा० ३६८ । हाय:- | हारवरावभासमहावर-हारवरावभ उपराषि . भषणविधिविशेषः । जीवा० २६८ । हार:-मुक्ताकलापः । | पतिर्देवः । जीवा० ३६८ । उत्त० ६५३ । तन्नमाद्वीपः समुद्रोऽपि च । प्रज्ञा० ३०७ । हारवरावभासवर-हारवरावभासे समुद्रे पूर्वार्धाधिपतिअष्टादशसरिकः । भग० ४७७ । हार:-अष्टादशसरिकः। देवः । जीवा० ३६८ । जं० प्र० १०५ । हारवा-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । हार-धारणं-अङ्गीकरणम् । आचा० ५९ । हारवित-आहारितम् । आव० १०३ । हारद्धहार-हाराहारः । आव० १२४ । हारा-मृतवाहका: । व्य० दि० २६७ अ । हारद्धहारभूषण समोणयं- । आचा० ४२३ । । हरवलिः । जीवा. १९१ । हारपुड. । नि० चू० द्वि० १ आ । हारित-जिव्हेन्द्रियप्रीतिकारकमित्यर्षः । नि० चु० कि. हारपुडपाय-लोहपात्रम् । आचा० ४०० । १२४ आ । पराजितः । भग० ३१७ । . हारपुडय-हारपुटकं - मुकाशुक्तिपुटम् । ओप० ९३ । हारिता-कोच्छगोत्रे भेदः । ठाणा० ३६० । हारप्पभा-हारप्रभा-अपरिणीता दुहिता, चक्षुरिन्द्रयान्त· | हारित्ता-हारयित्त्वा-नाशयित्वा । उत्त० २७८ । दृष्टान्ते धनसार्थवाहपुत्री । आव० ३६६ । हारी-मनआल्हादकारी । आचा० २४२ । हारभद्द-हारभद्रः हारद्वीपे पूर्वार्दाधिपतिर्देवः। जीवा० । हारोद-हारोदः समुद्रविशेषः । जीवा० ३६८ । १६८ । हारोस-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । हारमहाभ-हारमहाभद्रः-हारे दीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । हालहला-त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । जीवा. ३६० । हालाहल-विस जातिभेओ । दश० चू. १३२ । त्रीम्ब्रियन ( १२०५) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हालाहला] आचायश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [हिंसा जन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । वस्तव्यादिक्कूमारी । आव. १२२। उत्तररुचकवास्तव्या हालाहला-सावस्त्यां कुम्मकारी । भग० ६५९ । गोशा पञ्चमा - दिक्कूमारी महत्तरिका । जं. प्र० ३९१ । लाकाधिकारे कुम्भकारी । भग० ६७५ ।। हासात् क्रीडातः । व्य० द्वि० ३५७ आ । हालिद्दगुलिया-हरिदागुटिका-हरिद्रानिर्वत्तिता गुटिका। | हासुस्सलिओ-हसितमुखः-हासेन युक्तः । बृ० तृ. ८५ अ । प्रज्ञा० ३६१ । हाहा-गन्धर्व भेदविशेषः । प्रज्ञा ९० । हालिद्दपत्त-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । हाहाभूए-हाहाभूतः-हाहा इत्येतस्य शब्दस्य दुःखात लोकेन चतुरिन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । करणं हाहोच्यते, तद्भूतः प्राप्तो यः काल सहाहाभूतः। हालिद्दभेद-हरिद्राभेद:-हरिद्राया द्वैधीभावः । प्रज्ञा०.६१ । जं० प्र० १६७ । हाहा इत्येतस्य शब्दस्य दुःखार्तलोकेन हालिद्दा-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । करणं हाहोच्यते, तद्भूतः प्राप्तो य: कालः स हाहा. भूत: । भग० ३०५ । हाव हावः-मुखविकारः । ज्ञाता. १४४ । हावः-मुख हाहिता । बृ० द्वि. २५ विकारः । प्रज्ञा० १४० । नि. चू० प्र० २०० आ। हाविजामि-हापयामि । आव० ३५८ । -वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । हासंकुहए-हास्यकुहक:-हास्यकारिकुहकयुक्तः भिक्षुविशेषः। हिंगलए-दिगुलकः । प्रज्ञा० २७ । हिङगुलकः-पृथिवीदश० २६६ । भेदः । आचा० २६ । हिङ्गुलकः । उत्त० ६८६ । हास-विमुणमालीणो अगमहिषी । नि० चू०प्र० ३४५ | हिंगूलयसमुग्गय-हिङगुलस मुद्गकम् । जीवा० २३४ । अहासा-दक्षिणात्यमहाकन्दितव्यन्त राणामिन्द्रः । प्रज्ञा. । नि. चू० द्वि० १११ । ९८ । हास:-कपोल विकासादिः । उत्त० ६२६ । हासो हिंगुलुय-हिगुलकः । उत्त० ६५३ । विस्मयादिषु वक्रविकोशात्मकः । उत्त० २६१ । हासो मालाकारकृतः । ठाणा. २५७ । मुख विकाशात्मकः । उत्त० ४६४ । हास:-प्रहसनिका• हिंगसिव-हिङगशिव:-वाणव्यंतरविशेषः । दक्ष. ४४ । मिथानो रसविशेषः । प्रश्न. १३९ । हास्यः-विकृता-हिंगोल-करुडागादियं । नि. चू०वि०२२ बा। मृतक. सम्बन्धपरवचनवेषालद्धारादिहास्याईपदार्थप्रभवो मन:- | भक्तं यक्षादियत्राभोजनं वा । आचा. ३३४ । प्रकर्षादिचेष्टात्मको रसः । अनु० १३५ । हर्ष:-प्रमोदः। | हिंडतो-हिण्डमानः । आव० ८५८ । माता० १०१ । हासः । आचा० १५६ । हास:-हास्यते हैस-हिंस्यत इनि हिंस्य:-जीवः, हिंसनशीलो हिंस्राहास्यम् । दश. ७८ । हास्यमिश्रितं मृषा । ठाणा० प्रमत्तः । प्रभ० ६ । हिनस्तीत्येवंशोलो हिंस्रः-स्वभावतः ४८९ । एव प्राणव्यपरोपणकृत । उक्त० २७४ । हासइत्ता-हासकाम् परिहासकारी। प्रभ० १२१ । । हिसइ-हिनस्ति-व्यापादयति । दश० १५६ । हासणकर-हासनकरो-वेषवचनादिना स्वपम्हासोत्पादकः । हिंसक-परपीडाकारि । दश. १८७-१९७ । ठाणा० २७५ । हिंसप्पयाण-हिंसाप्रदानं-आयुधादिप्रदानम् । आव० ८३०॥ हासमिस्सिया-हास्यनिसृता-यत्केविवशतोऽनुतभाषणम् । हिंसविहिसा-हिंस्याः-जीवास्तेषां विहिंसा-विधात: हिंस्य. प्रज्ञा० २५६ । विहिंसा, हिंसनशीलो हिंस्रः-प्रमत्तस्तस्कृता-विशेषवती हासनिस्सेया-हास्यनिसृतो-मृषाभाषाभेद। । दश० २०९ । हिंसा-हिंसाविहिंसा, प्राणवस्य तुरीयः पर्यायः । प्रभः ५। हासरई-हास्यरति:-औदिच्यमहाऋदितव्यन्तराणामिन्द्रः । | हिंसा-प्राणवधः । प्रभ० ४ । हिंसाय क्रिया, क्रियायाः प्रज्ञा १० । स्तृतीयो भेदः । आव०६४८ । प्रमत्तयोगात प्राणव्यप. हासा-पञ्चशैले देवी । नि.वि. ४२ मा । उत्तररुचक | रोपणं हिंसा । दश० २४ । प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरो( १२०६ ) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ हिय हितकराणि निर्वाह म्युदय हेतुत्वेनेति । (१) । हितय हृदयं - हृदयमांसम्प्रभ० ८ । हिताकुरए - कुहणविशेषः । प्रज्ञा० १३ । हित्तोतिता। नि० चू० प्र० २७१ अ । हिंसा दंड - हिंसादण्ड: - हिसामाश्रित्य हिंसितवान् हिनस्ति हिसिष्यति वा अयं वैरिकादिर्मामित्येवं प्रणिधानेन दण्डोविनाशनं हिंसादण्डः । सम० २५ । हिवय - हृदयम् । आव० ३१७ । हिम - हिमं स्त्यानोदकम् । जीवा० २५ । हिम- शिशिर समये शीतपुलसम्पर्कज्जलमेव कठिनीभूतम् । अचा ४० । नारके वेदना । जीवा० ११६ । हिमं स्थानो दकम् । दश० १५३ । हिंसा दण्ड - हिंसिष्यतीत्यादि यत् दण्डः, तृतीयं क्रिया. हिमए - शिशिरादी वातेरिता हिमकणाः । सूत्र० ३२८ । हिमं स्त्यानोदकम् । प्रज्ञा० प्रज्ञा० २८ । स्थानम् । प्रश्न० १४३ । हिंसादि हिंस्रमत्स्यादि । आव० ८२३ । हिमकुंड - हिमकुण्डं - नारके वेदना । जीवा० ११९ । हिंसा फल - साम्प्रायिकं - संसार जननं दुःखजननम् । ओघ० हिमकुडपुंज - हिमकुण्डपुजं नारके वेदना । जीवा० ११९। २२० । हिमगसं फासा - हिमसंस्पर्शाः - शीतस्पर्शवेदना | आचा० हि - हि: - हेती । आचा० १७७ । ३०६ । हिमचूलसुर हिअ - हितं - अभ्युदयः । नंदी० १६५ | हितं - अभ्युदयः । छाव० ४२६ । हितं परिणामसुन्दरम् । दश० २२३ । हिअकरो - हितकरः - परिणामपथ्यकरः प्रशस्त भावकरः । आव० ४६६ । हिअट्टम - अधिकं वादकाले यस्परप्रत्यायनं प्रस्यतिरिक्तं दृष्टान्तनिगमादि तद्दोषः । अष्टमदोषः । ठाणा० ४९२ । हिए - ह्रीक:- लज्जालुः । बोध० २१६ । हिएसए - हितैषक: - मुक्तिगवेषकः । उत्त० ६५७ हिओ - हितोपदेशेन सम्यग्प्ररूपणचा वा हितः । जीवा० २५५ । 1 (?) 1 हिमपक्वं शीतपक्वम् । विपा० ८० । हिमपडल - हिमपटलं नारके वेदना । जीवा० ११९ । हिमपडलपुंज - हिमपटल पुञ्ज - नाबके वेदना । जीव० ११६ ॥ हिमपुंजं - हिमपुञ्ज - नारके वेदना । जीवा० ११९ । हिमवंत - हिमवान् पर्वतविशेषः । आव० ३९१ । हिम० वान् गिरिविशेषः । अद्भुत कार्य का रिवनस्पतिविशेषाणामुरतिस्थानम् । प्रश्न० १३५ । अन्तकृशानां द्वितीयवर्गस्य चतुर्थममध्ययनम् । अन्त० ३। हिमवान्पर्वतविशेषः । प्रभ० १३२ । हिंसागं ] पणम् । तत्त्वा० ७-८ । हिंसागं- सौकरिकादिगृहम् । ओग० १५६ । हिंसाणुबंधि-हिसा - सत्वानां वघबन्धनादिभिः प्रकारैः पीड़ामनुबध्नः ति सतत प्रवृत्तं करोतीत्येवंशीलं यत्प्रणिधानं हिसानुबन्धो वा यात्रास्ति तत् हिसानुबन्धिः । १८६ । ठाणा ० अल्पपरिचितसद्धाकिशब्दकोषः, मा० ५ हिङ्गुल कोहितवर्ण परिणतः । प्रज्ञा० १० । क्षारमृत्तिका हिमवंतकूड- हिमवस्कूटम् । बाव० ४३४ । याचा० ३४२ । हिचा हिरवा-गरवा । बाचा० २४० । हित्वा गत्वा । चाचा० १६२ । हिल - ह्यः । आव० ३०१ । हिट्ठाहुतो अबस्तातु । उत्त० १०३ । हिट्टिल माणुसुत्तरे संजूहे - गोशालक शतकेऽधिकार । भग० ६७४ । हिमवत्-वर्षधर पर्वतविशेषः । प्रशा० ७३ । हिमवद्वर्ष धरविशेषः । ज्ञाता० १२५ । पर्वतविशेषः । विशे० ९१६ । पर्वतविशेषः । उत्त० १६६ । हिमवाम्-अन्तकृद्दशानां द्वितीयवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम् । अन्त० ३ । वर्वतविशेषः । नंदी० २२८ । हिमसीयल - हिमशीतलः - कृष्णपुद्गलप्रकारः । सूर्य ० २८७ ॥ हिय हितं परमार्थतो मुक्तिवासिस्ततकरणं वा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यम् । सूत्र• १६७ । हितं परिणाम सुंदरम् । व्य० प्र० 18 म हितः- एकान्तपथ्यः । उत्त० २९१ । ( १२०७ ) हित सुखम् । व्य० द्वि० ३९८ । अपीडाकरं । दश० चू० ११५ । यथावद्विकल्पेनाप्तः । उत्त० ५१८ | Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिउंड ] आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित : [ हिरन्नागर हितः - पथ्यः । उत्त० २६० । हितः - यथाभिलाषितवि | हिप हिययो - हृतहृदयः आयतः । आव ० ६८७ । हिया हिता पथ्यान्नवत् । भग० ४५६ | हिता - इहपर लोकाधकत्वेन मुक्ति राधिका प्रज्ञा० २४७ । हितापरिणामसुन्दरता । जीवा० १४२ । यावाक्याभ्युदयः । उत्त० २६१ । हियं हृतम् । ओघ० १७२ । हित:- मायातिपथ्यः । उत्त० ४१६ । हितःत्यति तद्राक्षाप्रकर्षे प्ररूपणेनानुकूलवर्त्ती । समा० ३ । हितं प्रापाराभावः । भग० ६०२ । हितं - अभ्युदयः । नंदी० १६५ | हितं - अभ्युदयम् । सम० ६२ । हितं - अनर्थ रतिघातार्थप्राप्तिरूपम् । सम० ११६ | हितंपथ्यम् । प्रभ० १३० । हितं -जन्मान्तर कल्याणवहम् । जं० प्र० ३६६ । हितं पथ्यम् । भग० ११५ । हितंजन्मान्तरेऽपि कल्याणवहं तथाविधकुशलम् । राज० २६ । हृत: - प्रदेशान्तरे स्थापितः । ज्ञाता ० २१५ । हितः - मोक्षः । उत्त० ६२१ । हिउंडए - हृदयमांसपिण्डः । विपा० ६८ । हिउड्डाण - हृदयोड्डापनं - चित्ताकर्षणहेतुः । ज्ञाता ० १५७ । प्र० ८२ अ । हिय कामए - सुखनिबन्धनं वस्तुवाञ्छति यः स भग० हिरण्णजुति कलाविशेषः । ज्ञाता० ३८ । हिरण्णबए - हैरण्यवतः - अकर्म भूमिः । प्रज्ञा० ५० । १६९ । हियणुपेही - हितं पथ्यं अनुप्रेक्षते - पर्यालोचयतीत्येवंशीलो हिरण्णविहो - हिरण्यविधिः- हिरण्यरूपो मङ्गलप्रकारः । हितानुप्रेक्षी । उत्त• ३८६ । हियते - आक्षिप्यते । व्य० प्र० २११ अ । हिय निस्सेस | - हितः - पथ्यो भावाऽऽरोग्यहेतुस्त्रात् निःश्रे यसो मोक्षः हितनिःश्रेयसः । निःशेषं समस्तं हितंसम्यग्ज्ञानादिनिश्शेषहितम् । उत्त० २६० 1 हियमिय भोई - हितमित भोजी - पथ्यस्तोक भोजी । आव ० हिययगमणीओ - हृदयङ्गमः । सम० ६२ । हिपय रक्खग - हृदय रक्षकः - हृदयस्य त्रायकः । ज्ञाता० १६५। हिययसूल - रोगविशेषः । भग० १६७ । हिययुड्डावण - हृदयोड्डापनं - शुभ्यचितताकारकम् । विपा ५४ । हियासए - हिनाशय:- परोपकारचेता । उत्त० ६५७ । हिरण्ण- हिरण्यं दीनारादिद्रव्यजातम् । आशा० ३६३ । हिरण्यं - घटित स्वर्णं स्वर्णम् । उत्त० ३१६ । हिरण्य. शब्देन स्वणं रूप्यमपि च । प्र० ३८१ । हिरण्यं - रूपकादि । दश० १९३ । हिरण्यं - प्रघटितं सुवर्णम् । जीवा० २८० । हिरण्यं - सुवर्णम् । उत्त० १८८ । हिरण्यं - रूप्यम् । जं० प्र० ४१४ । हिरण्यं - अघटितरूपम् । आव १८१ । हिरण्यं धर्मलाभादिकं वा । सूत्र० २९२ । हिरण्य-रूप्यमघटितसुवर्णं वा । जं० प्र० १२२ । खाका । नि० चू० प्र० १४४ आ । अधडियरूवं । नि० चू० ७६५ । हियय - हृदयं - पारमार्थिकाभिप्रायः । सूर्य ० २९६ । सम्य हिरन्न हिरण्यं - रजतमघटितं घटितं वा गभिप्रायम् । व्य० प्र० २५७ । हियसुहनिस्सेकका मये - हितसुखनिःशेषकामः हितं यत् सुखं - प्रदुःखानुबन्धमित्यर्थ, निःशेषाणां वाञ्छति यः स । भग० १६६ । जीवा० २४६ । हिरण्णागर - हिरण्याकरः । ज्ञाता २२८ । हिरण्या कारः - यस्मिन्निरन्तरं महामूषाषु हिरण्यदलं प्रक्षिप्य हिर यमुत्पाट्यते स । जीवा० १२३ । हिरण्यनाम - अरिष्टनगराधिपतिः राममातुलः । प्रश्न० ८८ sfer राजपुत्रः । प्रश्न० ९० । हिरण्यवत्-वर्षघरः । ठाणा० ६८ । अनेक प्रकारं द्रम्मादि । आव० ८२६ । शाता० ४६ । हिरन्नपागं- कलाविशेषः । ज्ञाता० २६ । हिरन्नपेड हिरनपेल- हिरण्यस्य मञ्जूषा । भग० ६२८ । हिरनमासहिरन्नवास - हिरण्यं रूप्यं घटितसुवर्णमित्यभ्ये वर्षोऽल्पतरहिरण्यवर्ष: । भग० १९९ । । ज्ञाता० १०७ । हिरन्नवुट्टो - हिरण्यं रूप्यं घटित सुवर्णं मित्यन्ये, वृष्टिः- महति वृष्टिः हिरण्यवृष्टिः । मग० १९९ । 1 भग० १९६ हिरन्नागर( १२०८ ) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरि अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशग्वकोषः, भा० ५ [ होलनं हिरि-ही-उत्तररुचकवास्तव्याऽष्टमी दिक्कुमारी महत्त- हिलोरी-मत्स्यबन्धविशेषः । विपा० ८१ । रिका । जं.प्र. ३९१ । हो-लजा संयमो वा । हिविप्पडं-विस्तरम् । नि० चू० दि० १५३ मा । छाणा० १३८ । ह्री-निरयावल्या चतुर्थवर्गे द्वितीयमध्य-हो-प्रशान्तभावातिशयद्योत्तकः । अनु० १४० । का. यनम् । निरयः ३७ । तिशयद्योतकं वचः । अनु० १३६ । नंदी. ६३ । हिरिबर-हिरिबरं-वालक: । ज्ञाता० २३३ ।। होण-होन:-असमग्रः । ज्ञाता. १३९ । हीनः । ज्ञाता० हिरिबेरपुड-हीबेरपुट:-वालपुटा । ज०प्र० ३५ । | १९२ । । हिरिमंथा- नि० पू० प्र० १४४ आ। होणगहण-हीनग्रहणं-विषमग्रहणम् । व्य० प्र० ८६ था। हिरिम-जे सलज्जया स्वभावेनैव सखजा। नि० चू० तृ. होणपुग्णचाउद्दसी-होना-असममा पुण्या-पवित्रा चतु६ अ । ह्री:-लज्या सा विद्यतेऽस्य ह्रीमान । उत्त० | दंशी । ज्ञाता० १३६ । ३४७ । होमान् लज्जावान् । उत्त० ६३५ । होणपेण-होनप्रेषणः-हीनगुर्वाशापरः । दश० २५१ । हिरिमण-सत्त्व:-ह्रिया-हसिष्यन्ति मामुत्तमकुलजातं | होणाइरित्तईसण-होनातिरिक्तदर्शनम् । आव० ६१२ । जनाः इति लज्जया मनस्येव न काये रोमहर्षकम्पादि. होयमाण-अवधिज्ञाने चतुर्थों भेदः । गणा० ३७० । भयलिङ्गोपदर्शनात् सत्त्वं यस्य स ह्रीमनः । ठाणा होर-होर:-विषमच्छेग्मुद्दन्तुरं वा । प्रज्ञा० ३६ । लघु २५१ । कुरिसतं तृणम् । जोवा० २८२ । होरोणाम असी । हिरिमगसत्त-हियाऽपि मनस्येव सत्वं यस्य न देहं | नि० चू• वि० १४१ ब । शीतादिशु कम्पादिविकारभावात् स होमनःसत्त्वः । होरइ-होयते-अपनीयते । दश. २२५ । रज्यति । ठाणा. ३४२ । | आव० ६७४ । हिरिमिक-यक्षः अपरनामा दैवतम् । व्य. दि. २४७ । होरक-वजः । प्रज्ञा० २७ । वजम् । जं० प्र०४१४ । हिरिमेक्क-हिमैक:-अस्वाध्याय विषये मातङ्गानामाड- गुरुस्वे दृष्टान्तः । उत्त० ६७७ । होरक:-वजमणिः । पराभिधानयक्षस्य अपरनाम | आव० ७४३ । उत्त० ६८९ । हिरिलि-हिरिलि-वनस्पतिविशेषः । जीवा० २७ । होरति-निद्रायते (१) बृ. ३०२१ ।। हिरोलो-कन्दविशेषः । उत्त. ६९१ । अनन्तकायवन ण-हीयमाणं-हीयमानम् । आचा. ३३७ ।। स्पति।। भग० ३०० । । होयमाणः । सूर्य• ६७ ।। हिरिवत्तिय-हीप्रत्ययं-लज्जानिमित्तम् । भग० ८६। होरविजय:-आचार्यप्रवरः । जं० प्र० ५४३ । सूरिवरहिरिसत्त-हिया-सम्जया सत्त्वं-परिसहादिसहने रणाङ्गणे जम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिकारकाणामाचार्यः । .. । वा अवष्टम्मो यस्य सो ह्रीसत्त्वः । ठाणा० २५१ । । हीरविजयसूरीश्वर:- पं. प्र. ४२४ । हिरिसिरि-परिवद्धिए- भग० १७२।। होरि-हीरिः । जं० प्र० १०७ । । हिरो-हारिणो-मनबाह्लादकारिणो होल्पा:-याचनाऽचे | होलंति-जात्यायुद्घाटनतः हीलयति । ज्ञाता. १४४ । चादयः । भाचा० २४१ । ह्रीरूपा:-याचनाऽचेलादयः । होलणा-एक्कं वारं दुबणियस्य भवइ। फरसं भणियस्स बाचा. २४२ । किपुरिसेन्द्रस्य तृतीयाप्रमहिषो । वा भवह । दश.पू. १४०। हीन-जास्यायुघाटना. ठाणा० २०४ । सस्पुरिसेन्द्रस्य तृतीयाऽमहिषी । भग• कुस्सा । मग० २२७ । अनम्युथानादि । अन्त० १८ । ५०४ । ज्ञातायां पञ्चमवर्गऽध्ययनम् । ज्ञाता. २५२ । हीखना-जास्युद्धाटनम् । प्रभ० १०६ । जन्मकर्ममर्मोद. महापदहवास्तव्या देवी । जं. ० ३०१ । ह्रोः- | घट्टनम् । औप. १० । उत्तररुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । घाव. १२२ । होलणिज्जे-हीलनीयः । ज्ञाता० ९४ । हिल्लोया-त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । होलनं-सुपया-असूयया वा सकृदुष्टाभिधानं हीलनम् । (अल्प० १५२) (१२०६ ) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीलना] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ हुहुग दश० २१४ । हुंवउटुं-कुण्डिकाश्रमणः । भग० ५१९ । कुण्डिकाश्रमणः । हीलना-प्रवचन हानि: । ओघ० १६२ । औप० ६० । हुण्डिकाश्रमणः । निरय० २५ । हीलिअवयण-हीलितं-सासूयवचनम् । ठाणा० ३७. । हु-ह:-निश्चितम् । व्य० प्र० ३२ आ । समर्थनम् । हीलिए-होलित:-कथितः । बाचा. ४३० ।। आव. ५०८ । निपातः एवकारार्थः । आव. १६७ । होलिय-हीलितं-सासूयं गणिन् ! वाचक ! ज्येष्ठायें हु शब्दः हेत्वर्थे । बृ० प्र० १२० आ। हु:-बहुल्यसूचकः । त्यादि । ठाणा. ३७० । हीलितं-यत् गणिन् कि उत्त० ३३७ । हु:-हेतो । आचा० २५१ । भवता वन्दितेनेत्यादि, होलयित्वा वन्देते, कृतिकर्मणि | हुच्चा-भूत्वा । सूत्र० ३६७ । एकविंशतितमोदोषः । श्राव. ५४४ । हुडसंठिय-सर्दत्रासंस्थितम् । भग० ७२ । होलियम्व-हीलितव्यं-अवज्ञाकार्या । प्रश्न० १६० । । हुडुअंग-चतुरशीत्या लक्षरवयः हुडूकाङ्ग। अनु० १००। होलिया-होलिता । आव० २२५ । हुडुक्का-महाप्रमाणो मईल: । जीवा० २४५ । हुड्डक्का । होलेति-जात्यायुघाटनतः कुरसति । भग० १६६ । औप० ६३ । हीलेह-हीयलयेत-अवधूतं पश्यत । उत्त० ३६५ । जात्या- हुत्तं-अभिमुखम् । प्रश्न० ६२ । नि• चू० प्र० १४० आ। शुद्घाटनं कुरुत । भग. २१९ । हुत्थिभागा-साधारणवादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० हुंकार-हुङ्कारं दद्याद, वदनं कुर्याद् । विषे० ३.४ । । हुंड-हुण्ड-षष्ठं संस्थानम्, यत्र सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाण- यवह-हुतवहः-वैश्वानरः । जीवा० १६४ । लक्षणपरिभूष्टास्तत् हुण्डसंस्थानम् । जीवा० ४२ । हुयवहरत्था-हुतवहरथ्या। उत्त० ३५४ । उत्त० ३५५ । हुण्डं-निम्नोन्तम् । मोघ० २११ । विषमस्थिति क्वचि हुयासण-हुताशनः वाणव्यन्त रविशेषः । आव० २६५ । निम्न क्वचिदुनतम् । बृ० द्वि० २४४ आ । समचउरंस हुताशन:-प्राचारोदाहरणे पाटलिपुत्रे ब्राह्मण: । आव. जंण भवति तं । नि. चू० प्र० १२५ आ। हुण्ड-सर्व. त्रासंस्थितं सस्वानम्, षष्ठं संस्थानम् । बाव. ३३७ ।। हुरत्थ-बहिः । आचा. २०१ । यत्र सर्वेऽयवयवाः प्रायो खक्षणविसंवादिन एव भवन्ति । हुरत्था-हुरवस्था-बहिः । आचा. २३० । अन्यत्र । तत् संस्थानं हुण्डम् । अनु० १०३ । हुण्डं-यत्र हस्त- | आचा० २७१ । पादाद्यवयव: बहु प्रायः प्रमाणा विसंवादिनश्च । सम | हरभ-उरभ्रः-मेषः । प्रभ० ७. हरभ्रा-बायविशेषः । १५० । यत्र सर्वेऽव्यवयवाः प्रमाणलक्षणपगिभृष्टास्तव, उपा० २१ । हुण्डं-षण्ठं संस्थानम् जीवा० । ४२ । क्वचिनिम्न हुलायिकी-वीरलसकुनिः । बृ० द्वि० २०५ आ। काचिदुन्न यतत् । ओष० २११ । हुण्डं-सर्वप्रासंस्थित हलितं-शीघ्रम् । प्रभः ।४ । संस्थानम् । प्रभ० १६ । सर्वत्रासंस्थितं, यस्य हि हुलियं-शीघ्रम् । औप० ५४ । शीघ्रम् । प्रश्न. ५.। प्रायेणकोप्यवयवः शरीरवाणोक्तप्रमाणेन न संवति तत् चविशेषः । दे। सर्वत्रासंस्थितं हुंडमिति । ठाणा० ३५८ । । हुसो-पोतलग्यो जो वाहिमो । दश० चू० ११० । हंडसंठाण-यत्र सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलणपरिभृष्टास्तद् हुहुए-चतुरशीत्या नक्यई हुकाङ्गः हुहुकम् । अनु० १४० । हुण्डसंस्थानम् । प्रज्ञा० ४१२ । हण्डसंस्थानम् । प्रशा. हुहुए-कालविशेषः । भग० ८८८ । ४७२ । हुहुकंग-हूहूकाङ्ग-चतुरशीखवशतसहस्राणि (?) जीवा. इंडिओ-हुण्डिकः-परलोकनमस्कारफसाष्टान्ते मथुरायो। ३४५ । चौरविशेषः । आव० ४५४ । हुजिक:-अधिकारणो. हुहुग-हूहक-चतुरशीतिकाङ्गशतसहस्राणि । जीवा. दाहरणे रायां चौरविशेषः । बाब. ४५२ । । ३४५ । ( १२१०) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५ [ हेज्जं हूहूअंग ह-हा-वाक्यालंकारे । उत्त० ४०६ । आव० ४२७ । अन्वयव्यतिरेकलक्षणहेतुगम्यत्वाद्धेतुः । हूण:-हूण:-चिलातदेशवासी म्लेच्छः । प्रभ० १४ । । भग० ११६ । अनुमानप्रतिपादकं वचो हेतुः । नंदी हूयवह-अग्निना यो जनित इति हृदयस्थम् । ज्ञाता० १६५ । बाह्याऽभ्यरभेदभिन्नो यः श्रुतज्ञानस्य हेतुः । विशे० २५१ । पाच्छित्तं वहतस्स पायच्छित्तमावण्णस्स हुहूः-गन्धर्वभेदविशेषः । प्रजा० ७० । जाव मणालोइयं ताव । नि० चू० प्र० ३०५ आ । । ठाणा० ८६ । हेतुः-पञ्चावयववाक्यरूपः। उत्त० ३०८ । हेतु:-अश्वय. हूहूए-काचमानविशेष: । भग० २७५ । भग० २१० । व्यतिरेकलक्षणः । उत्त० ३०८ । हेतुः । आव० ७९३ । हुहूयंग-कालविशेषः । भग० ८८८ । काबविशेषः । सूर्य. हेतु:-अन्यथानुपपत्तिलक्षणः । दशः । हेउकारणचोइओ-हिनोति-गमयति विविक्षितमयंमिति हूहूय-कालविशेषः । सूर्य० ९१ । ठाणा० ८६ । हेतुः, स च पञ्चावयवरूप: कारणं च-अन्यथाऽनुपपत्तिहहयमाण-हहामान-अतिशयेन जाज्वल्पमानम् । जीवा. मात्र ताभ्यां चोदितः-प्रेरितः हेतुकारणचोदितः । उत्त. १२४ । ३०८ । हृधणा-(?) मुद्गरा । बृ. प्र. १८४ अ । हेऊजुत्त-हेतुयुक्तं-अर्थगमकारणयुक्तम् । ठाणा० ३९७ । हृदट-शरीरावयवः । आचा० ३८ । गीतनिबद्धार्थ गमकहेतुयुक्ततया हुन्धं हेतुयुक्तम् । अनु० हृदयग्राहि-हृदयग्राहित्वं-श्रोतृमनोहरता, वचनस्य त्रयो- १३३ । अन्वयव्यतिरेकलक्षणहेतुयुक्तम् । आव० ३७६ । दशमगुणः । सम० ६३ । हेउजुत्ती-हेतुयुक्तिः-पक्षधर्मान्ययव्यतिरेक लक्षणा। आचा. हृदयङ्गम-किन्नरभेदविशेषः । प्रशा०७० । हृदयबाध-उरीविषातः । विशे० १३१ । हेतुवाद-त्रिविषसञ्चायो प्रथमा । सम.१८। हृष्ट-तुष्ट । आव० ७५६ । हेउदोस-हिनोति-गमयतीति हेतुः साध्यसद्भावभावतद हेट्ठा-अधस्ताद् भुवम् । ओष० १७५ । भावाभावलक्षणः तेषां दोषः स्वलक्षणकारणहेतदोषः । हे-निपातो वाक्यालंकारे । प्रभ० ३१ । ठाणा० ४६२ । हेउ-यत्रोपण्यासोपनये पर्यनुयोगस्य हेतुरुत्तरतयाभिधीयते | हेउनिजुत्तं-हेतुनियुक्तं-ज्ञोपपत्तिकम् । गद्यगुणः । दश० ८८) स हेतुरिती । ठाणा० २६० । हेतु:-अनुमानोस्थापकं | हेउप्पभव-हेतुप्रभवः-हेतुजन्मा । दश० १२० । लिङ्मुरचारादनुमानमेव वा। ठाणा. ४९१ । हेतु- | हेउवायसण्णी-हेतुनावोपदेशेन संज्ञिनः । विशे० २७६ । उपादानकरणम् । उत्त० २६८ । हेतुः-अभ्यथाऽनुपपत्ति- हेऊ-यत्रोपन्यासोपनये पर्यनुयोगस्य हेतुरुतरतयाऽभिधीयते लक्षणः । ठाणा० २६१ । हेतु:-अन्वयव्यतिरेकलक्षण: ।। स हेतुः । ठाणा० २५४ । हेतुः । ज्ञाता० ११० । अनु. २६२ । हेतुः-साध्यसद्भावभावतदमावाभावलक्षणः ।। हेतुः-साध्यविनाभूतत्वलक्षणः । प्रभ० ११७ । हेतुः हिनोति-गमयतीति हेतुः । ठाणा० ४६३ । हेतु:-अन्य. 'यत्र साधनं तत्र साध्यं भवत्येव' इत्येव लक्षणः साध्यस्य थाऽनुपपत्तिरूपो युक्तिमार्गः । दश० १२५ । हेतु:-अध्यवः | साधनेन सहाऽन्वयोऽनुगमः साध्यामावे साधनाभावरूपो सानादिमरणकारणं तद्योगान्मरणमपि हेतुः । भग० | व्यतिरेकः, अनुगमश्च व्यतिरेकश्च ती लक्षणं स्वरूप २३६ । हेतु:-उपपत्तिः । प्रज्ञा० ५३२ । हेनु:-साध्य- यस्य स एवंभूतो हेतुः । विशे० ४६३ । हेतु:-उपाधर्माश्वयव्यतिरेकलक्षणः । माव. ६२ । हेतूं-विवक्षिः दानकारणम् । विशे० ७२४ । तार्थगमकम् । प्रशा० ५९ । हिनोति-गमयति जिज्ञा- हेऊवन्नास-हेतूपण्यासः, उपन्यासस्य चतुर्थो भेदः । दश सितधर्मविशिष्टानर्थान इति हेत:-कारको व्यञ्जकश्च ।। ५५ । श्राव० ५६७ । हेतु:-परार्थ स्वार्थप्रतिपादकं वचः । हेज-हार्य-आवर्जनीयम् । पिण्ड० १३२ । (१२११) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेजा ] हेजा -हार्या - गृह्याः । बृ० तृ० २५६ अ । हे - गुझपदेसो । नि० चु० प्र० २६७ आ । हेट्ठा - आर्धा नापिताः । बृ० प्र० ३११ अ । हेट्ठावणि- अधोऽवनिः- महाराष्ट्रः । पिण्ड० १६७ | हेट्ठाहुत्तो-अधस्तात्- अर्वाङ्मुखी । बाव० ६७५ । हट्ठि मधस्तात् । ठाणा० ४३२ । हेट्ठिल्ल-अधस्तात्तन्नुः । अनु० १७७ । हेटिल्ला - अधस्तनी । बव० ६४७ । हेडग - वनस्पति कार्याविशेषः । भग० ८०३ । हेडिय - हेडितं बाधितं अधोनामितम् । उत्त० ३६१ । हेडी - हेठक:- बाधकः ऋक्संस्थानीयो मन्त्रः । सूत्र० १६६ । हेतु - हेतु - कृत कृस्वादिलक्षणहेतुत्वर्थप्रतिपादकं पदम् । ठाणा० ३९२ । हेतुः - इहान्यथाऽनुपपन्नस्वलक्षणहेतुजन्यवानुमानमेव वा कार्य कारणोपचारत्वाद् हेतुः । ठाणा० २६२ । निमित्तम् । विशे० २७६ । आयं - उपादानम् । विशे० ५४३ । हेतुनिउण-सकारणं । दश० ० ३५ । हेतुवात - हिनोति- गमयति जिज्ञासितमर्थमिति हेतु:- धनुमानोत्थापकं लिङ्गमुपचारादनुमानमेव वा तद्वादो हेतु हेमपुर - हेमकूडरायरायहाणी । नि० पू० द्वि० ३१ अ । हेमव हिमवान् - अष्टमशास्त्रीयमासनाम । जं० प्र० ४९० । हेमवान् - शास्त्रीयाष्टममासनाम । सूर्य० १५३ । हेमवए-हैमवतं नामवर्षम् । जं० प्र० २९९ । हेमनित्ययोग प्रशस्यं वाऽस्यास्तीति हेमवत् हेमवदेव हैम. वतम् । जं० प्र० ३०१ । हेमवत हैमवतं - हिमवन्महाहिमवतोमंध्ये क्षेत्रम् | ठाणा ० ६८ । हैमवतः - अकर्मभूमिविशेषः । प्रज्ञा० ५० । हेमवन्न- हेमवर्ण:- निषधजाम्बूनदागर्भः ( ? ) । सूत्र० १४७ । हेमवय हैमवतं - हिमवत्पवंतभामि । जीवा० ११२ । हेमवतं - हिमपगिरिजातम् । मग० ३२२ : वाद: । ठाणा० ४६१ । - हेतुसत्थ - अक्खपादादि । नि० चू० तृ० ३० मा । न्याय हेमवयकूड हैमवतवर्षेशसूरकूटम् । जं० प्र० २९६ । शास्त्रम् । नि० चू० तृ० ३३ । हेमसंभवा - हेमकूड भारीया । नि० चु० द्वि० ३१ म । । ठाणा० २५४ । हेरंग- हेरङ्गम् । विपा० ८० । हेमंत - हेमन्तः - शीतकालः । मग० २११ । हेमन्तः-शीत- हेरण्यवयकूड - हैरण्यवत्कूटं हैरण्यवत् क्षेत्राधिपदेवकूटे मकालमासः । जं० प्र० १५० । हेमन्त:- शिसिरः । णिकाञ्चनकूटम् । जं० प्र० ३५० । हैरण्यवत क्षेत्र सूरओ० २१२ । हेमन्तो- माघादि । भग० ४६२ । कूटम् । जं० प्र० ३८१ । हेमन्तः - शीतकालः | सूर्य० ६१ । हेमन्तः - पोषमाघी । हेरणिओ-सुवर्णकारः । आम० ४२७ । ज्ञाता० ६३ । शीतकालः । ज्ञाता• ६५ । शीतकाल | मासः । ज्ञाता० १२४ । पोषभाषी । शाता० १६० । हेमन्तः- चतुथी ऋतुः । सूर्य० २०९ । हेमंता - हेमन्ती - शीतकालभावी । सूर्य० २१९ । हेम - हेमसंनिभो हेमकूड कुमारो । नि० चू० द्वि० ३१ बा । हेमकुंड - हेमकुण्डम् । आव• ८२७ । हेमपुरनगरे राया । नि० चू० द्वि० ३१ बा । हेमगा- हिमं तुहिनं तदेव हिमकं तस्यैते हैमका हिमपात हेरिक हेरिक:- गुप्तचरः । पिण्ड० ४९ । विशे० ४३९ । हेरिय- हेरिका: - परराष्ट्रस्वरूपगवेषकः । बृ० द्वि० ८२ बा । रुताल - वृक्षविशेषः । जं० प्र० ९७ । हेरुया लवणं - वृक्षविशेषः । जीवा० १४५ । हेयलिति - विकोपयति । शाता० १४४ । हेलियमच्छं- मात्स्यविशेषः । जीवा० ६६ । हेवक - अभ्यासः । ठाणा २८५ । । नि० चु० प्र० ६ मा । आचार्यश्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलित : रूपा । ठाणा० २८७ । हेमचन्द्रसूरि :- अनुयोगद्वारथ्याख्याकारकः आचार्य विशेषः । अनु० २७१ । हेमजाल - सच्छिद्रः सुवर्णालङ्कारविशेषः । खोप० ५५ । सुवर्ण मदामसमूहः । राज० ६४ । हेममयदामसमूहम् । जीवा १९२ । हेमजालं- सच्छिद्र सुवर्णालङ्कारविशेषः । जं० प्र० १०५ । सर्वत्मना हेममयः लम्बमानः दामसमूहः । जीवा० १८१ । भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६६ । हेवाएण [ हेवाएण ( १२१२ ) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेवाक ] हेवाक -स्वभावः । ठाणा० २७६ । हेसासण - हंसासनं - यस्यासनस्याधोभागे हंसो व्यवस्तित: होडिओ - नाविकः | आव० २२३ | स । जीवा ० २०० । हेसिअ - हेषित:- हेसारखरूपः । जं० प्र० १४४ । १२ आ । हेसितं - अश्वशब्दः । आव० ३४३ । होढा - देशी पदम् - दत्तम् । क्य० प्र० १३४ आ । 时 भूतो- गुणदोषपरिज्ञानविकलोऽशठमाव । । व्य० प्र० ३८ होत्तिअ-वृणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । अग्निहोत्रकः । औप० ९० । अग्निहोत्रिकः । निरय० २५ । होप्पेह-गले धृत्वा प्रेयथ । बृ० तृ० २१५ अ । हयकुलं - हैहय कुलम् । आव० ६७६ । हैमवत - मोगभूमिविशेषः । प्रभ० १६ । ह्रिमतदूवर्ष धरे होम-होम:- अग्निहवनम् । अनु० २६ | अग्निकारिका । दशमकूटम् | ठाणा० ७१ । हैमवत् - महाहिमवति तृतीयकूटम् । ठाणा० ७२ । हैरण्यक - कर्मजबुद्धी दृष्टान्तः । नंदी० १६४ । हैरण्यवत् - शिखविषंधरे तृतीयकूटम् । ठाणा० ७२ । रुक्मिवर्षघरे सप्तमकूटम् । ठाणा० ७२ । हैरिक:-चारिकः । प्रश्न० ३० । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशश्वकोषः, भा० ५ हो - भोः । बाव० ४०६ । होइ - भवति-संजायते । दश० ३९ । होअव्ययं भाषितव्यं वर्तितव्यम् । दश० २२७ । होक्कारंत- हुङ्कारयति । आव० २७२ । 'होक्खामि भविष्यामि - मोक्ष्यामि पालयिष्यामि । उत० २४४ । हो भवेत् । व्य० वि० ४५६ म होगा - भवन्ति । अवपाहता । अनु० ६१ । - होडहड - किचित् ज्ञास्ये । व्य० प्र० १२४ आ । [ लसन होढ - गाढमलीकम् । बृ० तृ० २२१ आ । नि० चू० प्र० प्रश्न० ५१ । होमारणे - भवन् । प्रज्ञा० ३५७ । हो रंभा - रूढिगभ्या- ढक्काविशेषः । भग० २१७ । हो रम्भान महाढक्का | जं० प्र० ३०६ | दोरम्बा - महाठक्का । जीवा० २६६ । होरम्भा महाढक्का । राज० ४९ । होरंगा - महाढक्का - महानिस्वाना । जं० प्र० १०१ । होल - देशान्तरेऽवज्ञासं सूचकः । प्राचा० ३८८ । होलाततद्देशप्रसिद्धो नैष्ठ्र्यवाचकोऽयं शब्दः । दश० २१५ । नानादेशापेक्षया आमन्त्रणवचनम् । ज्ञाता• १६५ । होल:- नानादेशपेक्षया गोरखकुरसादिवमं मान्त्रणवचनम् । சு दश० ११६ । ह्री - महाहिमवति पचमकूटम् । ठाणा ७२ । महापद्म वास्तध्या देवता । ठाणा० ७३ । ह्लसन कम्पनम् । पिण्ड० १०९ । इति - आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित: अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः ( शतोः हृपर्यन्तः ) ( १२१३ ) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारक - आचार्यश्रीश्रानन्दसागरसूरिसङ्कलिते: अल्पपरिचितसैयान्तिकशब्दकोषे परिशिष्टाणि अ अंक - रत्नविशेष | ज्ञाता० ३१ । अंकणाहि| ज्ञाता० २३० अंकघाती मधात्री उत्सङ्गस्थापिका । ज्ञाता० ३७ । प्र० ११६ था । अंगुट्ठिी 10:1 प्रथमं परिशिष्टम् प्र० १६१ आ । अंगुठ मान-अष्टाभियों माहयिस्वा तं प्रस्तुतं व्यव हरति । व्य० प्र० ३१७ अ । अंगुलिको सगोअंगुलि सत्यं - अंचि - आवि: - पुनर्गमनम् गमनम् ६८३ । अंचेइ - उत्क्षिपती । ज्ञाता० २१० । अंजण - सौवीरकम् । ज्ञाता० २८ । मञ्जन:- रत्नविशेषा । ज्ञाता० ३१ । अञ्जनकः - वनस्पति विशेषः । राज० 8 ॥ अंजणक-अञ्जनको - वनस्पतिः । ज्ञाता० ६ । अंजन के सिया-अञ्जनकेशिका - वनस्पतिविशेषः । ३३ । नि० चू० द्वि० ९३ आ । अंकुस - वृक्षपल्लवच्छेदार्थे अङ्कुशः । ज्ञाता० १०५ । अंग - अङ्गजनपदविशेषः । ज्ञाता १२४ । जनपदविशेषः । ज्ञाता० १३२ । स्वरूपम् । व्य० प्र० ३१६ अ । अंग लिआ - अङ्गस्य - आचारादेवलिका अङ्गचुलिका, चूलिकानाम उक्तानुक्तार्थसङ्ग्रहारिमका ग्रन्थपद्धतिः । नंदी २०६ । अंगट्टयाए - अङ्गार्थतया - अङ्गार्थत्वेन । नंदी० २११ । अंगती - श्रावस्त्यां गाथापतिः । निरय० २२ । अंगद - अङ्गदः - केयूरः । उपा० २६ । अंगपडियारियाओअंगपटू - अङ्गप्रविष्टमङ्गभूतं मूलभूतम् । नंदी० २०३ | अंजली - प्रसुतिद्वयं, थूला बीयाणं वितियपव्वमेतेसु पगणं अंगमंग - अङ्गमङ्ग - अङ्गप्रत्यङ्गम् । राज० ११ । अंगराय - अंजणपुलग-अञ्जनपुलकः रत्नविशेषः । ज्ञाता० ३१ । अंजलि - द्वयोर्हस्तयोरन्योऽन्यन्त रिताङ्गुलिकयोः सम्पुट रूपतया यदेकत्र मीलनं सा अञ्जलिः । राज० १९ । । ज्ञाता० २८ । । ज्ञाता ०२०५ । अंगुलिमूले दस बाउरेहार पण्णस्स अंगुठतो बीसं पसतीए भिण्णमासो वितिय पसतीते मासो अंजलीत्यर्थ । नि० चू० द्वि० १२० आ अंगाणि - अङ्गानि - शिक्षादीनि । ज्ञाताः ११० । अंगादानं। नि० चू० द्वि० ३० आ । अंगाध सण- गंधियावणे अंगाघसणयं वुच्चति । नि० चू० अंजू - ज्ञातायां नवमवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५३ । अंछावेइ-जायतां कारयति । ज्ञाता० १६ । अंड - अण्डक - मयूराण्डं ज्ञाता० ६ । - मस्तक अवगुंणा, अथवा घुंघटो । नि० चू० ( १२१४ ) । नि० चू० द्वि० १८ आ । । नि० चु० द्वि० १८ जा । आगमनम् । म५० राज● ज्ञातायां तृतीयममध्ययनम् । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंत ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० १ [अक्खयाणहि अंत-अन्त:-अञ्चलः । ज्ञाता० २५ । अन्त:-पर्यन्तः । अंबुभक्खिण-तापसविशेषः । निग्य० २५ । जाता० ६३ । अन्त:-मध्यः । ज्ञाता० ७८ । अन्त:- अंमिया-प्राप्ता । नि० चू• द्वि० १० आ । वल्लचणकादि । ज्ञाता० १११ । अन्तः-मध्यः । ज्ञाता | अंस-अस्रयः-चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा द्रष्ट. २०४ । व्याः । राज० ५६ । अंतगडभूमी-अन्तकरभूमिः-अन्त करा:-भवान्तकरा: निः | अंसिया-गामततियभागादि । नि. चू० द्वि० ७० था। र्वाणयायितस्तेषां भूमि:-कालान्तरभूमिः । ज्ञाता० १५४ । अइए भवग्गहणे ।शात० ६२। अंतगमण-पारगमनम् । ज्ञाता० ३० । अइगमण-अतिपमनं-प्रवेशमार्गम् । ज्ञाता० ६ । अंतनिग्धातिए-निर्घातितान्तः । ज्ञाता. १८२। अइगुलिया-कुक्कुसाः । बृ० १० १९५ छ । अंतमकासी-अन्तमकार्षीत-भवान्तमकरोत् ।ज्ञाता० १५४॥ अइपगडा-एका पताकमतिक्रम्य या पताका सातिपताका । अंतर-भगवत्यां चतुर्दशशतके ऽष्टमोद्देशकः। भग० ६३० । ज्ञाता. ३ । अन्तरं-अवसरः अन्तरवर्षः अन्तरावासः । भग० ६६३ || अइयारा-अतिचारा-मिथ्यात्वमोहनीयोदयविशेषादात्मनोऽअवसरम् । निरया. १२ । शुमा: परिणामविशेषाः । उपा०६। अंतरतेण-गामदेसंतरे सुहरंतो। नि० चू.द्वि० ३८ आ।। अरि-समर्गखम् । उ० मा० । अंतरदीवा-अन्तरे-लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीता अन्तरद्वीपा:- वइरूगय-अचिरोदतः । ज्ञाता. २२ । एकोहकादयः षट्पञ्चाशत् तेषु जाताः अन्तरद्वीपजाः । अकज-अकार्यः तथाविधपुष्टप्रयोजनाभावः। व्य० प्र०९ नंदी० १०५ । ख। अन्तरद्धा-अन्तर्धा-अन्तर्धानं-भ्रंशः । उपा० । अकयलुय-अकृतज्ञः मदीयोपकारस्यानपेक्षणात् । माता. अंतरावण-परिखोदकमार्गान्तरामवती हट्टः कुम्भकार. १६५ । सम्बन्धीः । ज्ञाता० १७५ । अकलुण-अकरुणः । ज्ञाता० १६५ । अंतरावस्त्रां-अन्तराले यद् याप्यते तदन्तरावस्त्रम् । बृ. अकान्तरक-अकमनीयतरस्वरूपः । ज्ञाता० १३० । प्र. ९० था। अकामए-अकामको-निरमिलाप:। ज्ञाता०२.१ । अंतरिज्जं-अंतरिज्ज णाम पाउरणं, अथवा न सिजाए अकारए-अकारका-अरोषक: । उपा० ३५ । हेटिल्लापात्तं । नि० चू० द्वि० १६३ था। अफासुगा ।शाता० १०७ । अंतलिखपडिवन्ने-अन्तरिक्षप्रतिपन्ना-आकाशस्यः । अकिंचण-निद्रव्यस्वम् । ज्ञाता० १०३ । ज्ञाता० ३१ । अकिरिय-न विद्यतेऽनम्युगमात् परलोकविषय किया यस्य अंतिय-अन्ते भवा आरितकी-समीपाभ्युगता। उपा० १५ । स अक्रियः-नास्तिकः । नंदी० ३५ । अंतेउर-अन्त:पुरं-अवरोधनम् । ज्ञाता० ११ । अक्कुस्समाण ।निस्य० ३४॥ अंतेपुरकिड्डापदेस-अन्तःपुरकोडाप्रदेशः । आव० ६३ । अक्कोसणा-मृताऽसित्वमित्यादिभिर्वचनः आक्रोशनम् । अंधपुर . । नि. चू० वि०४२ मा। ज्ञाता. १९१ अंब-योवेण ऊणं अंबं भणति । नि० चू० वि० १२४ आ। | अक्खंड-सकता। ज्ञाता. ११६ । अंबगा-अम्बाः स्त्रियः । निरया० ३०। अक्ख-अक्षः फलविशेषः । अनुस. ६बक्षा-बीवा । अंबसालवण-आम्रकल्पानगा वनम् । ज्ञाता. २४८ ।। नंदी०७१ । अक्ष-पदनकम् । बोष. १३५। अंबसालवण-बामसकल्पानगा ईशान्यो वनम् । राज. अक्खए-सर्वपा प्रदेशानां क्षयमावः । ज्ञाता. १०७ । १। वविशेषः । निस्य. २३ । अक्खचम्म-अक्षचर्म-जमाकर्षणकोशः। बाता. १ अंबाग-बम्बास फलविशेषः। अनुस०६। अक्खयणिहि-अक्षयनिधि-अपय माण्डागारं बक्षयकि( १२१५) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्र ] आचाय श्री अनन्यसागरसूरिसङ्कलितः [ अच्छिवेयणा धिम् । ज्ञाता० ८१ । अग्गुजाण - हस्तिशीर्षनगरे उद्यानम् । ज्ञाता० २२८- १३५ । अक्खर न क्षरति न चलतीत्यक्षरं ज्ञानम् । नंदी० अग्घ- अघ - पुष्पादीनि पूजाद्रव्याणि । ज्ञाता० २०९ । अग्घाममानी - अजिघ्रम्स्य:- उत्सङ्घस्यः । ज्ञाता० १२५, ३३ । अघ - अषाभिधानः । भग० १४१ । अङ्कुटक - नागदन्तः । राज० ६४ । अङ्गभूत- मूलभूतम् । नंदी० २०३ । अङ्गारक- मायायां दृष्टान्तः । नंदो० १५७ । अचक्खुफास - अचक्षुः स्पर्शः - अन्धकारः । ज्ञाता० १६१ । अचला-ज्ञातायां नवमवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५३ । अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणया-पवविहाभिगमे द्वितीयः, अचितानां द्रव्याणामलङ्का वस्त्रादीनाम व्यवसरणेब अयुत्सजनेन । ज्ञाता० ४६ । भचोक्ख-अचोक्षं- अशुद्धम् । ज्ञाता० १६० । अकारियभट्टा-क्षितिप्रतिष्ठितनगरे घनश्रेष्ठिनः पुत्री । नि० ० प्र० ३५१ आ । १८६ । अक्ख विउकाम स्वीकर्तुं कामम् । निरया० १५ । अक्खाणि - अक्षाणि - इन्द्रियाणि । ज्ञाता० १३८ । । नि० चू० प्र० ८ अ अक्खुत्ता अक्खेतं - प्रक्षेत्र- उपाधयम् । व्य० द्वि० १७ आ । अक्खोर्डेति । ज्ञाता० १७ । अगड - अवट:- कूपः । ज्ञाता० २ । अवर्ट - कूटम् । ध्य० प्र० २३ अ । अगडददुर- कूपमण्डूकः । ज्ञाता० १४५ । अगस्थिओ - वृक्षविशेषः । अनुत्त० ५ । अगद:अगरला व्यक्तवर्णा । उपा० २८ । अगामिय - अग्रामिकम् । ज्ञाता० २४० अगारए-अकारयः - मक्तद्वेषः । शाता० अगरवणिए अगारिणो क्षत्रियादयः । सूत्र० १४३ । अगिलाए | बंदी० १६२ । । १०१ । । ज्ञाता० १०५ । अगुणवता - अगुणान् दोषान् वर्जयति गृह्णातीत्यगुणवर्षा । नंदी० ६४ । । ज्ञाता० ११२ । सतोऽपि न अगुरुवर - अगुरुवरः - कृष्णागरुः । ज्ञाता. २३२ । अगृपाण - बगोपायन्तः । ज्ञाता० ३० । अग्ग - अग्य्य:- प्रधानः । शाता० २३६ । अग्गहत्य - अग्रहस्तः- बाह्योप्रभूतम् । अनुस० ६ । अग्गाणीय - अप्रायणीयं- द्वितीयं पूर्वम्, अ- परिमाणं तस्यायनं - गमनं परिच्छेदनमित्यर्थः तस्मै हितमग्रायणीयं सर्वद्रव्यादिपरिणामपरिच्छेदकारीति भावार्थः । नंदी० अचिमाली - शातायां सप्तमवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५२ । अच्ची - अचि:- इन्धनप्रतिबद्धा ज्वाखा । ज्ञाता २०४ । अच्चीया - अर्चिष:- दीप्तिला । उपा० २६ । अच्चुय - इन्दविशेष: । शाता० १५१ । अच्छा -अच्छं- निर्मलम् । ज्ञाता० १७५ । अच्छण - आसनम् । ज्ञाता० ९३ । अच्छणघरक व्यवस्थानगृहकम् । राज० ७६ । अच्छभल्ल - वनजीव: । म० । अच्छमाणी- तिष्ठन्ति । ज्ञाता० ३३ । अच्छरगणा - अप्सरोगणा देवाङ्गना देवसङ्गाः । ज्ञाता● εε I अच्छरय २४१ । । ज्ञाता० १३ । अग्गचा लोकान्तिकदेव विशेषः । ठाणा० ४३२ । आग्रेय:- अच्छरसातदुला - अच्छो रसो येषु ते अच्छरसा :- बति अष्टमलोकान्तिकः । ज्ञाता० १५१ । निर्मलाः ते तन्दुला : अच्छरसा तन्दुखाः । राज० १०८ । अच्छरा - ज्ञातायां नवमवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता ० २५३ । अच्छा-रिक्षा । ज्ञाता० ६५ । अग्निमित्ता - सक्डालपुत्रभारिया । उपा० ३९ । अग्मिला - पूर्वतना । प० ७१-७४ । अग्गिवेस- अग्निवेशस्यापत्त्य वृद्धं अग्निवेश्यः । नंदी० ४८ । प्रच्छपत्त - नीरन्ध्रपर्णः । ज्ञाता० ५ । साहिए अग्नेः स्वामिनः साधारणम् । ज्ञाता० ४६ । | अच्छिवेयणा - योगविशेष: । शाता० १८१ । ( १२१६ ) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्युत ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० १ [ अणवदग्ग . अच्युत-इन्द्रविशेषः । ज्ञाता. १२८ । जाता २० । अजातिया ।शाता० १०७ । | अटुंगमहानिमित्त-अष्टभेदं महानिमित्तं शास्त्रविशेषः । अजीरए-आहारापरिणतिः । ज्ञाता० १८१ । ज्ञाता० २० । अल-आर्यः-प्रशान्त: प्रसशरूपः । ज्ञाता० १३४, ३८। । अट्ठ-अर्थ:-निवृत्यर्थः । ज्ञाता० ६६ । अर्थानु अर्यमाणअलग-मातामहः । निरय० १५ । स्वादधिगम्यमानत्वादित्यर्थः, प्रार्थ्यमानत्वाद्वा याच्यमानअझजवू-सुधर्मास्वाम्यन्तेवासी । ज्ञाता० ८ । स्वादित्यर्थः । ज्ञाता०११० । अज्जमंगू-आर्यमंगू आचार्यः । नि० चू० प्र.तृ. ५९० । अट्टसिर-अष्टशिरः-अष्टकोणः । ज्ञाता० ६ । अज्जय-आर्यक:-पितामहः । ज्ञाता० ४६ । अट्ठाण शब्द प्रतिबद्धा वसतिः । ७० प्र० १९७ आ। अज्जयाए-अद्यप्रभृति: । शाता० २१० । अट्ठावयं । ज्ञाता०३८ । अज्जव-आर्जवं मायानिग्रहः । ज्ञाता०७। अट्ठाहियामहिम-अष्टानामहां समाहारोऽष्टाहं तदस्ति यस्या अज्जमहम्म-महावीरस्यान्तेवासी स्थविरः । ज्ञाता०६। महिमायां साऽष्टान्हिका । ज्ञाता. १५४ । चम्पायां स्मथसस्क: । उपा० १ । श्रमणस्य भगवतो -अस्त्येषोऽर्थः, अर्थ-प्रद्योदितं वस्तु समर्ष:महावीरस्य अन्तेवासी पञ्चमगणधरः । निस्या१। सङ्गतः । उपा० ३१ । अन्जण-अर्जुनः तृण विशेषः । उपा०२२ । पाण्डपुत्रः। अडयालग-अट्टालकः प्राकारावयवः । उपा. २२॥ ज्ञाता० २०८। अडित्तए-अटन्ति-कुर्वाणः । ज्ञाता. १८८ । अज्झवसाण-अध्यवसाणं-मानसी परिणतिः । ज्ञाता | अरत्त-अर्धरात्रिक: । व्य. दि. २५५ । अणंगसेण-सुवण्णगारविसेसो । नि० चू० प्र. ३४५ अ । अभाववज्जह-अध्युपपद्यध्वम् । शाता. १४८। ज्ञाता० २०० । अज्झोववन्न-अभ्युपपन्न:-अधिकं तदेकाग्रतां गतः। शाता. | अणंगसेणा-गणिकाविशेषः । ज्ञाता.१००। अणंत-अनन्तगमपर्यायारकत्वादनन्तम्, अनन्तः-अपहिअझंझपत्त-अझज्झाप्राप्तः-वीतरागः । सूत्र. २३३ । मितम् । नंदी० ५२। अज्ञातोच्छ-भिक्षासमुहः । उत्त० ४३६ । अणंतर-भगवत्यां द्वादशमशते तृतीय उद्देशकः । अस्तअचनकपर्वत-नन्दीश्वरद्वीपे पर्वतः । ज्ञाता. १५५ । राहारा नारका इत्यारार्थ प्रतिपादनपरस्तुतीय उद्देशकः । अट्र-आत:-ध्यानविशेषः । ज्ञाता. १३४ । ऋत:-पीडितः। भग० ५६६ । अव्यवहितम् । ज्ञाता. १२४ । उपा० २३ बात:-शरीरतो दुःखितः, आतं: ध्यानविशेष।।। । अणईइपत्त-ईतिविरहितच्छदः । ज्ञाता. ५ । उपा. २६ । भट्टः । ज्ञाता०६६। अणगारविणए शाता. १५॥ अट्टआ-गोधूमचूर्णम् । उपा० ४ । ण-अननुशासन-शिक्षाया अभावः । ज्ञाता. अट्टवस । ज्ञाता०६६ १७८ । प्रदृझाण-आर्तध्यानं । ज्ञाता. २९ । अणत्यमियसंकप्प-सूर्यास्तमये भोजनत्यागसङ्कल्पवान् । अदालय-अट्टालक:-प्रकारोपरिवायविशेषः । ज्ञाता० । बृ.तृ. १७९ अ ! .२ । बट्टालक:-प्राकारोपरिस्थानविशेषः । ज्ञाता. २१९।। अणधारग-ऋणं-व्यवहरकदेयं-द्रव्यं तो धारयति ।। अट्टालक:-प्रकारोपरिभृत्याश्रयविशेषः । राज. ३ । ज्ञाता, २३६ । ट्रियचित्त-पासितचितः-शोकादिपीडितः । उपा. २६ । अणवट्टिय-अनवस्थित:-अल्पकालीन:-अनियतः । उपा० अट्टियुद्ध । ज्ञाता० ३८।। १० ।. अटुंग-अष्टग-अष्टाभेदं दिव्योपातान्तरिक्षादिभेदम् ।। अणवदग्ग-अनन्तम् । ज्ञाता. ८९। (अल्प० १५३) (१२१७) Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणह ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ अतिपांडुकंबला अणह-अनर्घत्व-निर्दषणता । ज्ञाता० १२ । सा । ज्ञाता० ४०। अणहिलपाटक-यत्र ज्ञातायाः टीका पूर्णीकृता । ज्ञाता | अणुदधूय-अनुषूत:-आनुरूपः । ज्ञाता० ४० । २५४ । अणुनवन-अनुशातम् । ओष० १६० । अणागलिय-अनर्गलिन:-अनिवारितः । अनाकलितो वा | अणपूव-आनुपूर्वी-मूल दिपरिपाटी । ज्ञाता. ४ । अप्रमेयः । ज्ञाता० १६० । अनाकलितः अपमितोऽनगंलितो अणुबद्ध प्रतिबद्धः । ज्ञाता० ७६ । वा । उपा० २५ । अणुभूयकल्लाण । ज्ञाता० ४९ । अगाढिए-निरयावल्या तृतीयवर्गस्य दशममध्ययनम् अणुमाण-लिङ्गालिङ्गिनो ज्ञानमनुमानम् । नंदी० १६५ । निरण. २१ । अणुवासण-अनुवासन:-चर्मयन्त्रप्रयोगेणापानेन जठरे तैल. अणाढित-निरयावल्यां तृतीयवर्ग दशममध्ययनम् । निरय. विशेषप्रवेशनम् । ज्ञाता० १८१ । अणुवूहेमाण-उपबृहयन्-अनुमोदयन् । ज्ञाता० १७ । अणादीय-अनादिकम् । ज्ञाता• ८६ । अणव्वय-अनुवजः । ज्ञाता० ९१ । अणाययणं-पशुपक्षिमद्गृहम् । बृ० तृ० १९५ आ। -अनेकनश्यन्नरनिर्गमापद्वारा। ज्ञाता. २३६ । अणावाए । ज्ञाता० १९७। भविए-अनेके भूता-अतीता भावा:-सत्ताः अणासव-हिंसा दिनिवृत्तिः । ज्ञाता० १.३ । परिणामा वा माव्याश्व-माविनो यस्य स तथा । ज्ञाता. अणाह-रङ्कः । ज्ञाता० १५० । अणि विखत्त-अविश्रान्तः । ज्ञाता० ७३ । अणेसण ।ज्ञाता. २२६ । अणिट्ठ-अनिष्ट:-अभिलाषाविषयभूतः अशुभ: स्वरूपेण अ- अणोज-अनवद्यो-निर्दोषः । ज्ञाता. १२५ । प्रियः । ज्ञाता० १३४ । अणोहट्टिय-भविद्यमानोऽपघट्टकः । ज्ञाता० २०६ । अकार्य अणितर-अनिष्टतर:-अभिलाषस्याविषयः शाता० १२५॥ प्रवर्तमानं तं हस्ते गृहोत्वा योऽपहरति-व्यावर्तयति तद. अणिसा-एकवणेनाव्यपदेश्यः । ज्ञाता० २३१। भावादनपहर्तृकः अनपघट्टको वा । ज्ञाता० २३६ । अगिसटु-अनिसृष्टः-प्रतिहारिकः । व्य० द्वि० २८७ अ । अणोहट्टिया-अपट्टिकामावाद् अनपट्टिका । निरय० अणुआस-मनुकाशो-विकाशः । ज्ञाता. १६ । अणुए-अनुशा-अनुमोदनम् । ज्ञाता० २३ः । अण्णउत्थिया-अन्ययूधिका:-तीर्थान्तरीयाः कपिलादिः । अणुओग-अनुयोगः-सूत्रस्य स्वेनाभिधानेन साद्धमनुरूपः ज्ञाता० १७१ । सम्बन्धः । नंदी० २४१ । अण्णोऽपि-द्वितीयः । ज्ञाता० ३१ । अणुओगिय-अनुयोजितः-प्रवत्तितः । नंदी० ५२। . अण्हा-अह्नाय । विशे० ७८२ । अणुकंप ण-अनुकम्पयन् । शाता० ३१। अतारं-यस्य तरणं नास्ति । ज्ञाता. १९०। अणुक्कोस-अनुक्रोश:-दया । उपा० २६ । अतिक्कंतं-अतीते पर्युषणादी कारणादतिकान्तम् । ठाणा. अणुगिलति-भक्षयति । जाता. ११६ । ४९८ । अणुगुज्जेमारणे ।शाता०२४०।। अतित्थसिद्धा-तीर्थस्याभावोऽतीथं तीर्थस्याभावश्चानुत्पाअणुजोग-अनुयोग:-विचारः । सम० ५० । दोऽपान्तराले व्यवच्छेदे वा तस्मिन् ये सिद्धाः तेऽतोच. अणुत्तर-केवलज्ञानम् । शाता. ५५ । नास्मादुत्तर सिद्धाः । नंदी० १३० । प्रधानतरं विद्यत इत्युनुत्तरम् । ज्ञाता० ४९ । अतिन्न-आकोण:-जास्यः समुद्रमध्यवर्तीअश्वः, शातायो अणु यमुइंग-अनुद्धता-आनुरूप्येण वादनार्यमुस्मिता बन | सप्तदशममध्ययनम् । शाता०६ । द्धता वा-वादनार्यमेव वादकैरत्यक्ता मृदङ्गा-मदला यस्यो | अतिपांडुकंबला-तीर्थकराभिषेकशीषा । ज्ञाता. १२८ । ( १२१८ ) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिवइत्ता] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, भा० ५, परि० १ [अध्यवसाय अतिवइत्ता-अतिपत्यातिक्रम्य । शाता० ११४। अवंडिमकुदं डिम ।शाता० ३७॥ अतिवाध्युपत्रः-पारिणामिकोबुद्धौ श्रावकाध्यवसाय: । अदत्त-भगवत्यामष्टमशतके सप्तमोद्देशकः । भग० ३२८ । नंदी. १६६ । अदिख-अदातव्यं-विक्रयनिषेधेनाविद्यमानदातव्यम् । भग अत्तए-आत्मजः-अङ्गजः । ज्ञाता. ११। अत्तचितोउ-मात्मनमेव केवलं चिन्तयन् मन्यते, यथाह | अदिन्नावाण-तृतीयं पापस्थानम् । ज्ञाता० ७५ । मम्यज्युतं निजरूपयथालब्दकल्पानामेकतरं विहारं प्रति आदोण-प्रदीन:-अदीनाकारयुक्तः । अनुत्त० ४ । परस्ये इति (प्रत्ये इति ) । व्यव० प्र० २८६ अ । अदीण सत्तू-कुरुराया। ज्ञाता १२४ । हस्तिनागपुरे राजा । अतिगो-कीटिकानगरं । बृ० तृ० १६६ बा। ज्ञाता० १४२ । जितशत्रुधारण्योः पुत्रः । ज्ञाता. १३ । अत्थओ-अत:-व्याख्यानतः । ज्ञाता० ३८ । अर्थत:- अद्दामलगमेत्तं- । नि० चू० द्वि० ६४ अ । व्याख्यानतः । राज० १४०। अद्दारिट-माद्रॉरिष्ठकः-कोमलः कालः । राज. ३२ । अत्यत्थिया-बर्याथिनो-द्रव्याथिनः । शाता. १८ । अदति-आदर्शविद्या तया आतुस आदर्श प्रतिष्ठितोऽपर्मा. अस्थमासा । ज्ञाता० १०७। ज्यये आतुरः (?) । य. दि. १३३ आ। अत्थसंपदा । ज्ञाता. १५०। अद्धचंद-अर्धचन्द्राकारः सोपानविशेषः। ६० प्र०४१ । अत्थसत्थ-अर्थशास्त्रं-अर्थविषयं नीतिशास्त्रम् । नंदी. | अद्वहार-पद्धहार:-नवसरिक: । ज्ञाता.१९ । अर्धहारः। १५८ । आव. १२४ । ग्या--म्या safaनावात । प्राता०६६। अद्धाण-अध्वः-प्रयाणकमार्गः । ज्ञाता० ११३ अत्थाह-प्रस्तं -निरस्तमविद्यमानमधस्तलं प्रतिष्ठानं यस्य अधम्म-अधर्म:-पापं सावद्यानुष्ठानम् । ज्ञाता. २३८ । तदस्ताघस्तापो वा-प्रतिष्ठानं तदभावादस्तापम् । ज्ञाता. आधम्मकेउ-अधर्मकेतुः-पापप्रधान: केत:-ग्रहविशेषः । १९० । अस्थाध:-अगाधः । ज्ञाता० ११४ । जाता. २३६ । अस्थि-अस्तयः-प्रदेशा: । आव० ६०० । अधम्मक्खाई-अधर्भमाख्यातुं शालं यस्य स । ज्ञाता. अत्थिनस्थिप्पवायं-अस्तिनास्तिप्रवादं चतुर्थ पूर्वम् ।। २३८ । , पवस्तु लोकेऽस्ति धर्मास्तिकायादि यच्च नास्ति खरशृङ्गादि | अधम्मपलखण-अधम्म प्रायेषु कर्मसु प्रकर्षेण राज्यते इस्यतत्प्रवदतीत्यस्तिनास्तिप्रवादम्। सर्व वस्तु स्वरूपेणास्ति धर्मप्ररजनः । ज्ञाता. २३८ । पररूपेण नास्तीति प्रवदतोति अस्तिनास्तिप्रवादम् । अधम्मपलोई-अधर्ममेव प्रलोकयितु शीलं यस्यासवधर्मनंदी. २४१ । प्रलोकी । ज्ञाता० २३८ । अत्थुगह-सकलरूपादिविशेषनिरपेक्षानिहश्यसामान्यमात्र | अधम्मसीलसमुदायारे-अधर्म एव शील-स्वभावः समुरूपार्थग्रहणमे कसामायिकं अर्थावग्रहः। नंदी० १६८ । । दाचारश्च यत्किञ्चनानुठानं यस्य स । ज्ञाता०२३८ । अत्थुय-आस्तृत:-आच्छादितः । ज्ञाता० १२५ । | अधम्मिट्ट-अम्मिठोऽति शयेन निद्धा निस्तूंशकर्मकारी। अत्रेतं । व्य. दि. ३७२ अ। ज्ञाता० २३६ । अथ-प्रकिया प्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपल्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु अधरिम-अविद्यमानं ऋणद्रव्यम् । ज्ञाता०३७ । इह चोपन्यासार्थः। नंदी. ७५ । अधारणित अविद्यमानो धारणीयः अधर्मणो यस्यां स। अथक्कच्छा -अनवरतमुपयुपरि पृच्छा । विशे० ६३३ ।। शता. ३७ । आयापनीयं यापना कमात्मनो न शक्यते । अथवणवेय-प्रथर्वणवेदः । ज्ञाता० १०५ । ज्ञाता० १४६ । अथाभिसंकी। ज्ञाता० २३६ । अधिक्षेप: ।नंदी०६३। अथामे |शाता० १९७। अध्यवसाय-परिणामिकीबुद्धो श्रावकस्याध्यवसाय: । नंदी. ( १२१९ ) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यवसाये आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ आणहण अपक्वकपित्थ-कषायरसपरिणतं फलम् । प्रज्ञा० १० । अध्यवसाये १ नंदी० १६० । | अपज्जुवासण-अपर्युपासन:-असेवनः । ज्ञाता० १७८ । अनंत-अनन्त:-अपरिमितो धृतिप्रधान: । (?। अपडिपुग्गल-दारिहता । नि० चू०प्र० २२६ मा । अनिआण-अनिदान:-भाविफलाशंसारहितः ।दश. २६७ ।। अपडिलद्ध-अप्रतिलब्ध:-असञ्जातः । शाता० ७० । अनिड्डा -कंदर्प बहुला मायिनश्च । वृ• तृ. १९५ आ। अपत्थधण-अशम्बलं अपथ्यदनम् । ज्ञाता. १९३ । अनिवः । दश० १०६।। अपराइया-ज्ञातायां पश्चमवर्गऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५२ । अनिलवेमाण-अनिनुवन्-अनपलपन् । ज्ञाता० ३० । अपरिक्कम-अपराक्रमो-निष्पादितस्वफलाभिमानविशेषर. अनिन्हुतं-अनिगूहितः । दश० १०६ । हितत्वात् । ज्ञाता० ६६ । अनिरुद्ध-यादवविशेषः । ज्ञाता० २१३ । अपरिग्गहिया-अपरिगृहीता-वेश्या अन्यसत्कपरिणीतमा. अनिविष्टं-अनुद्यमम् । ६० प्र० ५० आ। टिका कुलाङ्गना वा । उपा०८ । अनिवारिया-नास्ति निवारको मैवं कार्षीरित्येवं निषे. अपरिणय-अपरिणतम् । ओघ० २३ । धक: । ज्ञाता० २०६ । अपरितंतजोगी-अपरितन्तयोगी-अविश्रान्तसमाधिः । अनोहडं निष्कामितं व्यन्तरादिभ्यो निवेदितं वा । वृ० अनुत० ४ । दि० १९२ । अपसन्न-अप्रसन्न:-हीलनयाऽनुग्रहप्रवृत्त । दश. २४४ । अनु: । नंदी००८, | अपसिण-या विद्या मात्रा वा विधिना जप्यमाना अपधा अग्गमिय-अनुगच्छति । व्य० वि० ३६८ अ । एव शुभाशुभं कथयन्ति तेऽप्रभाः । नंदी. २३४ । अनुज्ञा-थरपुनर्वचसाऽनुज्ञाप्यते सानुज्ञा । बृ० प्र० १११ अ । | अपाक: ।नंदी० ५६ । अनुतपनं-तत्प्रति तपनम् । व्य. द्वि० २०६ आ। अपायातिशय-अपायो-विश्लेषः तम्यातिशय:-प्रकर्षभावोsअनुत्तर-अनुत्तरं समस्तज्ञान प्रधानम् । जाता. १५३ । पायातिशयो, रागादिभिः सहास्यन्तिको वियोग इत्यर्थः । अनुलिहंत-अनुलिखन्ति-अभिनङ्घयानि । जं० प्र० ५४ । नंदी. ३१ । अनृण: । नंदी० १६३।। अपारद्धं-अपराद्ध-विनाशितम् । ज्ञाता०२२ । अन्धकवृष्णिवशा-अन्धकवृष्णिनराधिपकुले ये जातास्तेऽपि | अपुरिसक्कारपरक्कमे । ज्ञाता. १९७। अन्धकवृष्णयः तेषां दशा: अवस्थाश्चरितगतिसिद्धिगमन | अपुवकरण-कर्म रजोविक्षेपककारी अपूर्वकरणमष्टमगुणलक्षणा यासु ग्रन्थपद्धतिषु वर्ण्यन्ते ता अन्धकवृष्णिदशाः।। स्थानकम् । ज्ञाता० १५२ । अन्धकवृष्णिवक्तव्यताप्रतिपादिका दशनि अध्ययनानि अन्ध । ज्ञाता. २२५ । कवृष्णिदशाः । नंदी० २०८। | अपोरिसियं-पुरुष: परिमाणं यस्य तत्पौरुषेयं तनिषेधाद. अत्रगहण-गलगस्स उमओ कण्णबंधेपु सरणीतो मतातो पौरुषेयम् । ज्ञाता० १९० । त सु वातसेंमहियासु या अ पायरी मुहं जंतं हवेजा। | अगेह-अपोहनमपोहः निश्चयः । नंदी० १८६ । नि० चू० तु. ६२ । अपोहए-अपोहते-एवमेतत् यदादिष्टमाचायेण नाम्यश्यवअन्नविहि ।ज्ञाता० ३८ । धारयति । नंदी० २५० । अनिमाण-अन्वीयमान:-अनुगम्यमानः । ज्ञाता. १९६ । अप्प-आप्तः । ज्ञाता० ७७ । अभ्यद्रव्यकारणं-वेमादि । आव० २७८ । अपकप्पियं-आरमसमीपस्थम् । निरय० ११ । अन्वयधर्माध्यासालोचनं-गवेषणं-तत उद्धवं सद्भूतार्थ- | अप्पछाएमाण-अप्रच्छादयन् । ज्ञाता. ३० । विशेषाभिमुखेन व्यतिरेकधर्मत्यागतोऽन्वयधर्माध्यासालोच अप्पडिहय-न प्रतिहतं-न प्रतिषेधितम् । ज्ञाता० २२० । नम् । मंदो० १७६ । | अप्पाहण-सन्देशकथनम् । ६० प्र० ३९ था। संदेशो। ( १२२० ) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पिच्छ ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशग्यकोषः, भा० ५, परि० १ [ अभिमुहनामगोत्ती नि० चू• दि०३ आ। अब्भुखत-अभ्युद्यत:-सुविहितः । अनुत्त० ३ । अपिपच्छ-अल्पेच्छ:-न्युनोदरतयाऽहारपरित्यागी । दश. अन्भुखए-अम्युद्यतः-ववितुं प्रवृत्तः । ज्ञाता० २४ । २३१ । अन्भुट्टिए-अभ्युस्थितः-प्रवर्षणाय कृतोद्योगः ।ज्ञाता० २४॥ अप्पिच्छया-अल्पेच्छा-परिभोग:-अतिरिक्ताग्रहणं वा । म्युत्तिष्ठामि अभ्युपगच्छामि । ज्ञाता० ४७॥ दश० २५३ । अब्मुन्नत-गगनमण्डलग्यापनेनोन्नतिमान् । ज्ञाता० २४ । अप्पुवणाणगहण-अपूर्वज्ञान ग्रहणं, विशतिस्थान के अष्टा• अम्भुन्नय-अभ्युग्नतः-उच्चः । ज्ञाता० ५४ । दशमस्थानकम् । ज्ञाता० १२२ । अब्मुवेजामि-अम्युमि । ज्ञाता० २०५ । अप्पोपालंभ-आप्तेन हितेन गुरुणेत्यर्थः उपालम्यो विने- अब्भूदए-अभ्युदयः-राजलकम्यादिलामः । ज्ञाता० ७६ । यस्याविहितविधायिनः बामोपालम्भः । ज्ञाता० ७६ । । अभए-श्रेणिकनन्दाया आत्मजः । ज्ञाता०११। अप्फुण्णा-जा साहूहि संथा रगप्पमाणं गेण्हमाणेहि अप्फुण्णा | अभक्खेया ।ज्ञाता. १०७ । वा वियत्ति वुत्तं भवनि सा जुसम्पमाणा। नि० चू०प्र० अभडप्पवेसं-अमटप्रवेशम् । ज्ञाता० ३७ । ११ आ । व्याप्ता । निरय. ९। अभय-असुत्तरोपपातिके प्रथमवर्ग दशममध्ययनम् । अनुत्त. अप्फोडत ।जाता० १३३ । १ । पगिणामिकोबुद्धी रष्टान्तः । नंदी. १६६ । विशिष्ट अप्रसाद । नंदी. १६२ । मात्मन: स्वास्थ्यम् । राज० १०६ । श्रेणिकननापा अफासुगं-अप्राशुक-अनेषणीयम् । ६० प्र० २६६ अ । आत्मजः । निरय०९। अबंधव-अबान्धवः । ज्ञाता० १६५। अभयदेव-ज्ञाताया: टीकाकारकाचार्य: । ज्ञाता० २५४ । अबद्धगाढलगोलच्छाया । सूर्य० ६५।। अभिक्खणणाणोवओग-अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगः, विशतिअब टुअ-अबद्धो अट्ठिलग्गो, अनिष्पन्नम् । नि० चू०प्र० स्थानके नवमम् । ज्ञाता० १२२ । ५६ आ । अभिगमण-अभिमुखगमनम् । शाता० ४४ । भवद्धिआ-अबधिका:-अस्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपकाः । विशे० अभिगमणट्ठय-अवगमलक्षणः अर्थः । शाता. १७५ । अभिचंद-महाबलराज्ञोः बालमित्र षष्ठः । ज्ञाता० १२१॥ मबल-अबलः अवष्टम्भवजित्वात् । ज्ञाता० ६६, १९७ । अभिजुत्त-अभियुक्त:-सम्पादितदूषणः । ज्ञाता० १९१ । अभ-अभ्रं-आकशम् । राज.२३ । अभिज्ञान । नंदी. १५६। अब्भक्खाण-अभ्याख्यानं-असदोषारोपणम् । ज्ञाता०७५ । अभिण्णवसपुषि-अभिन्नदशपूवी-सम्पूर्णदापूर्वधरः । अभ्याख्यानं-असदोषाध्यारोपणम् । उपा० ७ । नंदी. १९३ । अन्मथिए। ज्ञाता० २६ । अभितज्जेमाले । ज्ञाता०२४०। अन्भवद्दलग-प्रभ्ररूपं वाल अभ्रवाईखम् । राज० ५९। अभितासेमारणे । ज्ञाता० २४०। अभवन्न-अभ्रवर्णः । माता० २३१ । अभिधेय-अर्थ:-विभाषावातिकाभिधेयः । नंदी. ५३ । अन्भासवत्ति-अभ्यासवर्ती-गुरोम्यासे समीपे-वर्तते इति | अमिनं दिज्जमाण ज्ञाता०२३ । शीलः, गुरुपादपीठका प्रत्यासमवर्तीति भावः। व्य०प्र० मिनिवेश-उपयोगो-विवक्षितकर्मणि मनसोमिनिवेश।। २० था। नंदो० १६४ । अभितरवाणिज्जे-आभ्यन्तसनातान । ज्ञाता. १८४। अभिनिषद्या-अभि-रात्रिममिव्याप्य स्वाध्यायनिमित्तमावता अभृग्गत-अभ्यद्रता-अहरवल्पनः । ज्ञाता. २४॥ निषोदन्ति । य० प्र० १२७ । अग्भुग्गयमुसिय-अभ्युद्गतोच्छिताम् अत्युच्चानित्यर्थः । अभिन्ना । ज्ञाता• १३६। जाता० ३८ । । अभिमुहनामगोत्ती-भिक्खू भविसति, तस्य उववजिलं (१२२१ ) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमहवा ] आचार्य श्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः कामो समो हतोपदेसा णिच्छूढा अहवा सयणषणादि | अमयफलाईपरिचयं पव्वज्जाभिमुहो गच्छमाणो । नि० चू० तृ० ८५ आ । अभिरूत्रा - मनोज्ञरूपा ज्ञाता० ३। अभिरूपा-मनो शरूपा। ज्ञाता० १३ । .अभिसंधारण - ब्रव्यक्तेन व्यक्तेन वा विज्ञानेनालोचनम् । प्राप्ता । ज्ञाता० २४२ । अभिसमन्नागय- अभिसमभ्यागतः - सम्यगासेवनः । ज्ञाता | नंदी० १६३ । अमात्यःअमुगाअमुगा - अमुक अमुकः । नंदी० १७९ । अम्मय - अम्बाः पुत्रजन्मवती । ज्ञाता० १५७ । अभिलसति प्रभिलषति - दृष्टादृदृष्टेषु शब्दादिषु भोगेच्छां अम्मयाओ-अम्बाः पुत्रमातरः । ज्ञाता० २४ । अम्ल-अम्लवचनयोगाद् । व्यव० प्र० ३१७ म । नंदी० १६० । करोति । ज्ञाता० १६६ । अभिसमण्णा गया - अभिसमन्वागया- परिभोगतः उपयोगं | अम्हं - अस्माकम् । ज्ञाता० २०४ । अम्हे - अस्माकम् । पउ० २० ४६ । अयल - अचलम् । ज्ञाता० ५५ । वहाबलराशो बालमित्रे प्रथमः । ज्ञाता० १२१ । अयसि - कुसुम विशेषः । ज्ञाता० १०० । अयोध्या- कोशलजनपदे नगरी । ज्ञाता० १२५ । अरइ - सप्तमः परीषह । आव० ६५६ । अरए - अरत:- अप्रष्टतो निर्ममत्वा वा । आचा० २१२ । अरए पयासु - प्रजास्वरतः प्रजायन्त इति प्रजाः - प्राणिना तत्रारत :- तदारम्भाप्रवृत्तो निर्ममत्वो वा यश्व शरीरादिव्वपि ममत्वरहितः स निविणाचार्येव भवति, यदि वा प्रजा:- स्त्रियस्तास्वरतः आरम्भेऽपि निर्वेदमा गच्छति । आचा० २१२ । १३४ । अभिसमेइ - अमिसमेत अवगच्छति । ज्ञाता० ७१ । अभिसमेति-अवबुध यसे । ज्ञाता० ६४ । अभिसरन्ति-सम्वरन्ति स्तनजं पिबन्ति । ज्ञाता० ८१ । अभिसेय- अभिषेक इति - श्रियाः सम्बन्धी । ज्ञाता० २० । अभिषेक:- अभिसेचनं नाम शारीरलक्षणम् । जं० प्र० २३८ । । ज्ञाता० १३४ । अमीतेअभ्यन्तरकरणं-द्वयोः साधोः गच्छमेढीभूतयोरभ्यन्तरे कुशलादिकार्यनिमित्तं परस्परमूल्पपतो (मूल्पतो) स्तृतीयस्योपशुश्रूषयोः बहिःकरणम् । व्य० प्र० २९३ अ । अमइल सगल - अमलिनं सकलं - अखण्डं शकलं वा खण्डम् । ज्ञाता० २१३ । अमग्ग- उम्मार्ग: निर्वृत्तिपुरीं प्रति अवस्थाः वस्तुतस्त्वापेक्षना विपरीतश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपः । ठाणा० ४८७ अमन्च - अमात्य - राज्याधिष्ठायकः । राज १४० । अमणाम- अवनामयतीत्यवनाम: - पीडाविशेषकारी दुःख रूपः । सूत्र० २६२ । अमणामतर-अमनोज्ञतरकः - कथयाऽप्यनिष्टत्वम् । ज्ञाता अमरवति-मल्ली जिनसह प्रव्राजकः । ज्ञाता० १५२ : अमरसेन- मल्ली जिनसह प्रव्राजकः । ज्ञाता० १५२ । अमाधाए - अमारिः । उपा० ४६ । [ अरुण १२६ । अमन-ममेत्युले खस्याभिव्वङ्गतोऽप्यसद्भावः । ज्ञाता ० १०३॥ अरिसा - रोगविशेषः । ज्ञाता० १०१ । अमम्मणा अनवखयमाना । उपा० २५ । अमय अमृत -क्षीरोदधिजलः । राज० ३८ । । ज्ञाता० १५६ । अरवखुरी - ज्ञातायां सप्तमवर्गेऽध्ययनम् । ज्ञाता० २५२ । अरणि- अरणि: अग्नेः उत्पादनार्थं निर्ग्रध्यते यद्दारू । ज्ञाताः २४२ । अरति तिणिकः । बृ० प्र० १२७ अ । अरतिरतो - धर्माधर्माङ्गेषु । ज्ञाता० ७५ । अरस - हिग्वादिभिरसंस्कृत । ज्ञाता० १११ । अरह- अहंनु- महाप्रातिहार्यंरूपपूजार्हः । उपा० ४० । अ रहन्नग - सञ्जतो वनिकः । ज्ञाता० १३२ । अरि-अरि:- शत्रुः । ज्ञाता० ८७ । अरिनेमो द्वाविंशतितमतीर्थंकरः । ज्ञाता० १००, २२६ । ( १२२२ ) अरिहंत - विशतिस्थानके प्रथमः । ज्ञाता० १२२ । अरुण-आनन्दधाव कोपपातविमानम् । उपा० १९ । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरुणकंत] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, भा० ५, परि०१ [ अवस्सबरी अरुणकंत-सुरादेवोपपातविमानः । उपा० ३५ । अववियता-आक्षिपिता-आकृष्टा । ज्ञाता २१५ । बरुणकील-सालहीपितोपपातविमानम् । उपा० ५३ ।। अवगाढ-निमग्नम् । नंदी०४६। ' अरुणझय-कुण्डकोलिकोपपातविमानम् । उपा० ३९ ।। अवगुहिबमाण-आलिङ्म्यमानः । ज्ञाता० ४१ । अरुणप्पभ-सुलणीपितोपपातविमानः । उपा० ३४। अवग्रहकल्पिक: ।६० प्र. १०८ । अरुणवडेंसए-महाशतकोपपातविमानम् । उपा० ५२ । अवचूल-अवचूल-अधोमुखचूलं मुत्कलाञ्चलम् । माता. अरुणसिट-चुलशकोपपातविमानम् । उपा० ३६ । २१९ । अरुणाभ-कामदेवोपपातविमानम् । उपा० ३१ । अवच्छिय-सारितम् । ज्ञाता० १३८।। अरुणोववाए-अरुणोपपात:, अरुणो नाम देवः तद्वत्तव्य. अबज्ज-अवयं-पापं । विशे० १३१७ । ताप्रतिपादको यो ग्रन्थः परावर्यमानश्च तदुपपातहेतुः | अवज्झाए-अपध्यात:-दुचिन्तावान् । ज्ञाता. १६०। सअरुणीपपात: । नंदी. २०६ । अवट्टभाए-उपार्द्धभागः-पोषचतुर्थभागः । आचा० ३२६ ॥ अलंकारियकम्म शाता. ८६ अट्टिए-अवस्थितो-नित्यः । ज्ञाता• १०७ । अलंकारियसहा-नापितकर्मशाला। ज्ञाता. १७९, ८६। अवसग-अवतंसक:-शेखरकः शिरस्त्राणो वा । भग. अलद्धा ।शाता० १०७।। मलयापुरी-अलकापुरी-वैश्रमणपुरी । ज्ञाता. ६६ । अवण्हाण-अपस्नानम् । ज्ञाता. १८१ । अलसए-विधिकाविशेषलक्षणः । उपा० ५० । अववहण-दम्भनम् । शाता० १८१ । अलाए-अलात-उल्मकम् । ज्ञाता० २.४। अवदार-अपरद्वार द्वारिका । माता० ७९ । अलाहि-अलं-पर्याप्तं परिपूर्णम् । नाता० ४४, ३६ । अवधारणा-अवधारितमर्थमगच्छतो यो बोधविशेषः । आलिजर-अखिजरं-महदुदकभाजनम् । उपा० ४० । नंदी० १७६ । अल्ल-वाद्रम् । शाता. २३७ । अवपक्क-अवपाकी तापिका । ज्ञाता०४३ । अल्लू लट्रो-आण यष्टीः आयष्टीः । उषा० ३ । अवपदन-प्रोङ्खनकम् । ज्ञाता० ४३ । अल्ललट्ठीमहुए-आइँण यष्टीमधुना मधुररसवनस्पतिविशेषः । अवयवखंत-अवकाक्षत् । ज्ञाता. १६ । उपा०४। अवयक्खति-सम्बन्ध: । ज्ञाता. १६५ । अष्टोण-आलोनं-आभितम् । जाता. २१३ । अवयक्खह-अपेक्षध्वम् । माता० १६४ । अवंगुयदुवार-अप्रावृतद्वारः भिक्षुकप्रवेशार्थ कपाटापामपि अवयच्छिय-प्रसारितमुखत्वेन दृश्यमानम् । शाता. १३॥ पश्चात्करणात उद्घाटितशिरः । राज० १२३ । माता. अवयासिय-आलिङ्गय । शाता०८८ । अवरकंका-घातकीखण्डभरतक्षेत्र राजधानी, शातायो पोरअवंझ-अवन्ध्य एकादशेमं पूर्वम्, वन्ध्यनाम निष्फलं न शममध्ययनम् । ज्ञाता. ६ । पातकिखण्डे पूर्वार्षदक्षिविद्यते बन्ध्यं यत्र तदवमध्यम् । नंदी. २४१ । जाधभरते राजधानी । ज्ञाता. २१३।। अवती । व्य.प्र. १४९ था। अवरज्झति-अपराध्यति-अनयं करोति । शाता. ८६ अवएड-तापिकाहस्तक: । शाता० ४३ । अवलंबण-अवलम्ध्यते इति अवलम्बनम् । नंदी. १७४। अवकुजियं-उड्डाए तिरिय हुत्तकरणं । नि• चू० तु. ५६ | अवलेखित: ।नंदी० १५१॥ | अववाउस्सग्गियं-सूत्रभेदः । नि० चू.प्र. १२४ आ। अबकुमणं-अपक्रमणं अवतरणम् । भग. ४७७ । अववाओ-निच्छयकहा । नि० चू०प्र० २४० छ । अवक्कमामो-अपकमामो-यामः । ज्ञाता०५७ । | अवस्वाप्य साता० १२८॥ अखित्त-आक्षिप्त:-उपशोभितः । ज्ञाता. ८५। अवस्स बसे-अपस्ववश:-अपयतात्मतन्त्रवः क्षाता. २०॥ (१२२३) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवहडग ] आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित : [ असहाहुदंसण पश्चाद्भागनयनम् । ज्ञाता० ८६ । अवहडबंवण-अवझोटनेन-अवमोटनेन कुकाटिकायाः वाह्योच पश्चाद्भागनयनेन बन्धनम् । ज्ञाता० ८६ । अब हरेखा - अपहरेद् - चोरयेत् । उपा० ४२ । अवसई अवहडग - अबझोटनं - अवमोटनं कृकाटिकायाः बाहोश्व | अवच्छित्तिनयद्वय-अध्यवच्छिन्ति प्रतिपादनपरो नयो अara छतिनयस्तस्यार्थो अव्यवच्छित्तिनयार्थी द्रव्यमित्यर्थः तद्भावस्तत्ता द्रभ्यापेक्षा इत्यर्थः । नंदी० ११५ । अवृह - अपरोह: - निश्चयः । ज्ञाता० ११ । । ज्ञाता० २३५ । tray - अव्ययः कियताममि व्ययाभावः । ज्ञाता० १०७ । अव्वाबाह-अव्यावाधः सप्तमलोकान्तिकः । ज्ञाता १५०, १८६ । अशोक - खाद्यविशेषः । उपा० ५ । अश्लोक - अश्लोकः षष्ठः मयः । आव ० ४७२ | अश्ववाह अष्टापद - तार्थम् । नंदी० २४२ । असंकेमाण- अशङ्कमानः- विवक्षित प्राप्ती सन्देहमविदधतः । अवहार - अपहारः - अपलपनम् । उपा० ७ । अव हिए- अपहृतः । ज्ञाता० ८५ । अवहट्ठा 1 । ज्ञाता० २४० । अहिल्लेसे - संयमाद् बहिर्भू चित्तवृत्तिः । ज्ञाता ७२ । अव होलंत - प्रवघोल यतः - डोलायमानः । ज्ञाता० १३३ । अबाईणपत्त- अवाचीनपत्र:, अधोमुखपलाशः, अवातीनपत्र, अवतोपहत बर्हः । ज्ञाता० ५ । अवाउड- अप्रावृत्तम् । राज० १४० । अवाए- अपायो - निश्वयः । नंदी० १७६ । अवाय अवगृहीतस्येहितस्यार्थस्य निर्णय रूपोऽध्यवसायो अवाय:, अयमित्यादिरूपोऽवधारणात्मकः प्रत्ययः । नंदी० १६८ | प्रकान्तार्थं विशेषनिश्चयोऽपायः । राज० १३१ । अविदमाण - अलभमानः । ज्ञाता० २९ । अवि-अपि सम्भावने : ज्ञाता० ८६ । अविग्वन - अविग्धः - अन्तरायाभवः । ज्ञाता० १६६ । अविच्छिओ-अज्ञाततस्वः । उ०मा० । अविणिमाण - अविनीयमानः अनपनीयमानः । ज्ञाता० २५ । अि | ज्ञाता० ६३ । अवितह - अवितथं न वितथम् । ज्ञाता० १७५ । अवितहमेयं सत्यमेतदित्यर्थः । भय० १२१ । एवमेवैतत् ज्ञाता० ४७ । यवितथम् । ज्ञाता० ३० । अविन्ना - अविशा - अबीना: । (?) । अवियाउरी - अधिजननशीला । ज्ञाता० ७६ अविश्य-प्रविरतो- विशेषतस्तपस्यरतः । ज्ञाता० २२० । अविरलपत्त- निरन्तरदलः । ज्ञाता० ५ । अविरुद्ध - वैनयिकः । ज्ञाता० १९३ । बिहु - अविधववधूः जीवश्पतिकनारीः । ज्ञाता० ३६ । अवीरिए। ज्ञाता० १९७ । ง 1 ज्ञाता ३० । असंखपरिणाम असङ्ख्य परिणामम् । ज्ञाता० ३१ । असंगए - असङ्गतः - स्कन्धावस्थितः । ज्ञाता• २३७ । असंघयण - असंहननी - अस्थिसचयरहितः । सम० १५० । असंजय - असंयतः - संयमरहितः । ज्ञाता० २२० । असंदिद्ध-असनग्ध- असन्देहम् । ज्ञाता ३० । असंपन्न दोहला - असम्प्राप्तदोहदा । ज्ञाता० २८ । असं पुन्न दोहला - असम्पूर्णदोहदा । ज्ञाता० २८ । असंमाणिय दोहला - असम्मानितदोहदा । ज्ञाता० २८ । असंविग्गा - असंविग्नाः पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथा छंदाः । व्य० द्वि० ३२८ आ । असई - असृती - मापविशेषः । ज्ञाता० ११६ । असईजन - असतीजनः दासीजनः । उपा० १० । असणक - असनको वियका मिधानो वनस्पतिः । ज्ञाता० ६ । असणि सुअ-मिथ्याभूतं क्षायोपशमेनासंज्ञोश्रुतम् । नंदी० १९१ असत्थ परिणया । विशे० ४३७ । । ज्ञाता० १०७ । असम्भाव- असद् भावः - वस्तूः वस्तुधम्मंः । ज्ञाता० १७४ । असमन्नागए - असमभ्वागताः - शीतल विहारिणः । आचा० २५४ । असहेज असाय स्थान - ( १२२४ ) असाहुदंसण - असाधुः शंनं साधूनामदर्शनः । । ज्ञाता० १०९ । । नंदी० ९० । ज्ञाता.. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असि ] अल्पपरिचित संद्धान्ति कशब्दकोषः, भा० ५, परि० १ १७८ । असि खङ्गम् । ज्ञाता० १३३ । असिढिलोकय-निघत्तम् । भग० २५१ । असिता - खङ्गः । ज्ञाता० २०१ । । ज्ञाता० ३८ । असिपत्त - असि असिय-दात्रः । ज्ञाता० ११६ । असियसिरया - असितशिरोजा: कालकुन्तलाः ।ज्ञाता० १२६ । असिया - राइया ( ? ) । दश० ० ६२ । असि लक्खणंअसिलट्ठिग्गाह - खगयष्टिग्राहः । ज्ञाता० २३६ । असी - शस्त्रविशेषः । निरय० १६ । असुई - अशुचिकम् । ज्ञाता० १६० । असूयया- स्वमुख वक्रता । ज्ञता० १४६ असोग - वृक्षविशेषः । ज्ञाता० १०० । असोगवणिया | आचा० १३० । । ज्ञाता० १२६ । असोगवर पायव - पादपविशेषः । ज्ञाता० १५१ । अस्स - अस्व:-निर्ग्रन्थः । आचा० ३२५ । अस्सणी-नन्दिनीपिताभार्या । उपा० ५३ । अस्ताविणी - आश्रावणी, जलसङ्ग्रहिणी । उत्त० ५०९ । अस्सिणी-मल्लीनाथच्यवननक्षत्रम् । ज्ञाता० १२४ । मल्लीनाथदीक्षा नक्षत्रम् । ज्ञाता० १५२ । अस्सेसा - अश्लेषा । सूर्य ० १३० । अहत अहतं - मलमूषिकादिभिरनुपद्रुतं प्रत्यग्रम् । ज्ञाता० १९ । अहम्मिए-अधर्मेण चरतीत्यधार्मिकः । ज्ञाता० २३६ ॥ अहरी - अधरी - पेषणशिला । उपा० २२ । अहरीलोटू - अधरीलोष्ट :- शिलापुत्रकः । उपा० २२ । अहवण - अखण्डमव्ययमथवायें । बृ० प्र० ११३ अ । अहा उकाल - यथायुष्ककाल:- देवाद्यायुष्कलक्षणः । विशे० [ अहासंथड कारं नारकादिभेदेनायुः - कम्मं विशेषो यथायुस्तस्य रौद्रादिध्यानादिना निर्वृत्तिः - बन्धनं तस्याः सकाशाद्यः कालोनारकादित्वेन स्थितिर्जीवानां स यथाऽऽयुषो निर्वृतिस्तथा यः कालो :- नारकादिभवेऽवस्थानं स । ठाणा० २०१ । अहाकडं - यथाकृतम् - यथा येन प्रकारेण पृष्ट्वा वाऽपृष्ट्वा वा कृतं यथाकृतं - आधा कर्मादि । आचा० ३०५ । यथाकृतम् - यत् परिकर्म रहितमेव तथारूपं लब्धं तत् । पिण्ड० १५ । अहाकडगा -यथाकृतानि प्रतिकर्मरहितानि लब्धानि यानि तानि समुद्देशनार्थम् । ओघ० १५६ । अहाकप्पं यथाकल्पप्रतिमाचारानतिक्रमेण । ज्ञाता ०७२। अहाछंद-यथाच्छन्दः स्वरुचिविरचिताचारः । उत्त० ४८० अहाजाय - यथाजातम् । आत्र ५४२ । अहा ठिई - यथास्थिति:- स्वकालपरिपाकतः उत्त० ३२१ । । ज्ञाता० १६७ । अहापज्जतअहापडिरूवं यथा प्रतिरूपम् - उचितम् । भग० ११५ । यथाप्रतिरूपं यथोचितम् । ज्ञाता० ७ । अहापवत्तं येनाऽनादिसंसिद्धप्रकारेण प्रवृत्तं यथाप्रवृत्तम् । विशे० ५३५ । अहाबायर-यथा बादर:- असारः । ज्ञाता० ३१ । अहामग्गं - यथामागं - ज्ञानाद्यनतिक्रमेण क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण वा कायेन न मनोरथमात्रेण । ज्ञाता० ७२ । अहायए - यथा यतः - यथाप्रणिहितगात्रः । आचा० २६३ । अहारातिदयाए - एकादशमभिक्षुप्रतिमा । ज्ञाता० ७२ । अहारातिणियाए - यथारस्नाधिकतया यथा जेष्ठम् । ज्ञाता० ६० । अहालहुस - यथालघुक:- विंशतिदिनमान: । व्य० प्र० १८७ ८३७ । अहाउय - यथा यत्प्रकारं नारकादिभेदेनायुः - कर्म्मविशेषो अहालहुसोय- यथालघुस्वकः - पंचदिवसानि । व्य० प्र० यथायुः । ठाणा० २०१ । अहाउयउवक्कमकाल- यथायुष्कोपक्रमकालः उपक्रमस्य अहालहुस्सगं - यथाप्रकार : - लघुस्वरूपः । ज्ञाता० १६३ । द्वितीयो भेदः । ओघ० १ । अहासंथड - यथासंस्तृतं यत्तृणादि यथोपमोगाहं भवति अहाउय निव्वत्तिकाल - यथायुर्निर्वृत्तिकाल:- यथा - यत्र तथा । ठाणा० १५८ । अल्फ० १५४ अ । १८७ अ । पातरूपा । ( १२२५ ) Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहासुत्त ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [आऊसिय अहासुत्त-यथासूत्रं सूत्रानतिक्रमेण । ज्ञाता० ७२ । | अइविप्पगिट्ठ-अतिविप्रकृष्ट:-अतिदीर्घः । ज्ञाता. १९५ । अहासुह-यथासुखं सुखानतिक्रमेण । ज्ञाता० ७३ ।। अग्गिला-पूर्वतना । पउ० ७१-७४ । अहासुहुम-मनसा कषायान् कुर्वन् यथासूक्ष्मः । ठाणा० | अच्छिन्देजा-आच्छिन्द्यात् । उपा० ३९ । ३३७ । यथासूक्ष्म-सारः । ज्ञाता० ३१ । अप्पभूय-अल्पत्वम् । उत्त० ३८५ । अहासुहुमकुसोल-सूक्ष्मकुशीलः अयं तपश्ररतीत्येवमनुमो- | अल्फालिजमाणं-आस्फालनम् । राज. ५२ । द्यमानो हर्ष गच्छन् यथासूक्ष्मकुशीलः । ठाणा० ३३७ । । ज्ञाता० २० । अहासुहमबउस-किश्चित्प्रमादी अक्षिमला द्यपनयन् वा | असम्भूतं-अभूतोद्भावनरूप: अचौरेऽपि चौरोऽयमित्यादि, यथासूक्ष्मबकुशः । ठाणा० ३३७ । असद्भूतं-दुष्टाभिसन्धित्वादशोभनरूपम् । मग. २३२ । अहिगयट्ठज्ञाता० १०९ । आ अहिगरण । ज्ञाता. १०९ । आई-आईतिनिपातो वाक्यालङ्कारे अवधारणे वा। उपा० अहिच्छत्त-नगरविशेषः । ज्ञाता. १९३ । अहिच्छत्ता-नगरीविशेषः । माता० १६३ । आइ-आदि:-निवेशः । ज्ञाता० ३ । अहिद्विजमाण-अधिष्ठीयमानः-समाक्रम्यमाणः । ठाणा० आइक्खया-आख्यायिका-ये शुभाशुभमाख्यान्ति । राज० २॥ १८७ । आइच्च-आदित्य:-द्वितीयो लोकान्तिकः । ज्ञाता० १५१ । अहिमड-अहिमृतकः । ज्ञाता० १२६ । आइणग-आजिनक-चर्ममयं वस्त्रम् । राज०९। अहियासेसि-अविचलितकायतया अध्यासयसि । शाता० आइण्ण-आकीर्ण:-वेगादिगुणयुक्तः । ज्ञाता० ५७ । आइद्ध-आदिग्ध-व्याप्तम् । ज्ञाता. ६५ । अहिलाण-मुखबन्धन विशेषः । ज्ञाता० २३० । आइन्न-आकीर्णः । ज्ञाता. ३ । अहिलोडिया-गोपालिकाख्यो हिसकजीवः । वृ० तृ. आइयणं-प्रत्यापिबति । बृ० तृ० १५५ आ। १६. आ। अदने-भक्षणे । व्य. प्र. १८. अ. अहोलोगवत्थव्वया-गजदन्तकानामधः अधोलोकवा. आईन्न-पाकीर्णः जात्यश्वः । ज्ञाता० २२८ । स्तव्याः । ज्ञाता० १२६ । आउट्टइ-आ कुट्टयति, आलोचति । ग्य. द्वि० ३८६ आ। अहेसणिजाई-यथेषणीयानि-अपरिकर्माणि । आचा० आउट्टावेमि-आवर्तयामि । ज्ञाता० १११ । ३९७ । आउजाणि-बातोयानि । पाव. २०४ । अहोसिर । बाचा० ४२७ । त्य । ध्य० प्र०१६ मा ।। आडट्टियाठितो-उपेत्य स्थितः । व्य० वि० ३७० मा । अंकघाती। नि० चू० वि० ९३ आ। आउट्टे-आवर्तयेत् अनुकूलयेत् । व्य० द्वि. २०२ बा। अंगादानं ।नि० चू० वि० ३० आ। | आउर-आतुर:-क्रुधा पिपासया वा पीडितः । व्य० प्र. अंजली-प्रसृतिद्वयं-थूमा वीयाणं वितिय पव्वमेत्तेसु पणगं २३ बा । अंगुलि मूले दस बाउरेहाए पण्णग्स बंगुट्ठतो वीस | आउसणा । शाता. २३५. पसतीए भिण्ण मासो वितिय पसतोते मासो अंजलीत्यर्थः। आउसति । ज्ञाता० २३३ । नि. चू० वि० १२० आ। आउस्सति । ज्ञाता० २३५। एतरतेणो-पाम देसेतरे सुहरंतो। नि० चू० वि० ३८ आ। | आउह-आयुधं-खेटकादि । राज० ११८ । एधपुर ।नि० चू० द्वि० ४२ आ । | आऊसिय-प्रविष्टः । ज्ञाता० १३७ । सङ्कुचितम् । अंबं-योवेष ऊणं अंवं भण्णति । नि० चू.द्वि. १२४ आ।। ज्ञाता० १३८ । (१२२६ ) अ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आएस ] अल्पपरिचितसंद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०५, परि. १ [ आत्तो आएस-आयासकर:-छादेशः, मादेशितोवा, आदेशनं वा। | आघवणं । ज्ञाता० १०१ । व्य.द्वि. ३३६ मा। आघवणा-आख्याना-प्रज्ञापना-भेदतो वस्तुप्ररूपणाः । आओगपओगसंपउत्ते-आयोगप्रयोगसम्प्रयुक्त:-आवाहन. उपा० ८७ । ज्ञाता०४६ । विसर्जनकुशला । राज० ११ । आघायणं-वधस्थानम् । ज्ञाता० १६३ । आओसेजा-आक्रोशयामि मृतोऽसि त्वमित्यादिभिः शा- | आचारकुशलो-यो गुर्वादीनामागच्छतामभ्युस्थानं करोति । पैरभिशपामि । उपा०४२ । व्य० प्र० २९० आ। आकुंच-विहस्तविस्तारः। व्य०प्र० २२२ आ। आजिनक-चर्ममय वस्त्रम् । निरय. १ । आकृष्ठिविकृष्ट्रा । ध्यप्र.६४ो । आजीव:-आजीविक: अतीतादिभावकथने हटान्त: । आक्खलके । पिण्ड० १२९ । व्य. प्र. १६३ अ । आक्खाटके पिण्ड १२६ । आजीविय-आजीविक:-गोशालकशिष्यः । उपा० ३९ । आगतपण्हता-आगतप्रश्नवा-पुत्रस्नेहात स्तनागतस्तन्या। आजीवियसभा-पोलासपूरे आजीविकसमा । उपा. ४४ । अन्त० ७ । आडोलियातो-रुद्धा उन्नाइया इति वा उच्यते । ज्ञाता आगते । ज्ञाता० ३६ । २३५ । आगतो । व्य०प्र०१४६ मा।| आडाध-आटोप:-स्फारता । ज्ञाता० ३।। आगमणपवित्तिए-आगमनप्रवृत्तिको गृहितावार्तः । आढक-आठक:-चतुष्प्रस्थकम् । ज्ञाता० १२६ । ज्ञाता. ४१ । आढति-आद्रीयति । ज्ञाता. ६१ । आगमववहारी-आगमव्यवहारिण:-प्रत्यक्षज्ञानिनः। व्य. | आढाति-भाद्रीयते-आदरं करोति । ज्ञाता. २८ । प्र. ६३ अ। आणद-कप्पडिसयस्स नवममध्ययनम् । निरय. १९ आगमव्यवहारिणः-केवलज्ञानी-मन:पर्यायज्ञानी-अवधि- | पूप्फिए अतिदेशः । निरय० २२ । उपासकदशाया ज्ञानी-चतुर्दशपूर्वी च अतव्यवहारिणः । व्य० प्र०५ | प्रथममध्ययनम् । बानन्दाभिधानोपासकवक्तव्यताप्रतिबद्ध मध्ययनमानन्दः। वाणिजग्रामे गाथापती। उपा०१ आगमेस्संति-आगमिस्यामि-गृहीष्यामि । व्य० द्वि० | आणत्ति-आज्ञप्ति:-आदेशः। ज्ञाता. ११८। ४१८ आ। आणत्तियं-आज्ञप्ति-आदेशम् । ज्ञाता०१८। आगमो-अर्थरूपः । व्य० प्र.२८६ मा । आणपाण-प्राणापानी प्राणदयम् । बाचा० ५९। आगयगधी-बागतगन्धी-जाससुरभिगम्धी । ज्ञाता० ११६. आणा-आजा-अवश्य विधेयतया आदेशः । ज्ञाता० १५८ । १२६ । | आशापासू-उच्छ्वासनिश्वासः । ज्ञाता० १०४ । आगलणं-वैकल्यम् । व्य० प्र० १३२आ। आणिअल्लिया । ज्ञाता. ३६ । आगाढ-शरीरस्योष्मा येनोक्तेन जायते तमागाढम् | नि० | | अणिल्लियाणं । अन्त०४। चू० प्र० १७७ था । भृशम् । आव० ६२६ । अणुओगिए-व्याख्याने नियुक्ता:-कालिकश्रुतानुयोगिकः । आगाढप्रज्ञानि-शास्त्राणि । व्य० प्र० २२६ । कालिकश्रुतानुयोगः यस्य विद्यते इति भानुयोगो । आगायसमए-आसन्नीभूतोऽवसरः । ज्ञाता० १६३ । । नंदी। आगारा-आकारा-शरीरयता भावविशेषाः। व्य० प्र० आतंका-बात:-सद्योघातिनः । ज्ञाता. १४॥ ६४ा । आताडनं-तलतालकंसतालानामाताडनम् । राज०५२ । मागासथिग्गल-शरदि मेघविनिर्मुक्तमाकाशखण्डम् । राण. आतियणो-अदने अभक्षणे । व्य० प्र० १८० अ । | आत्तो-शानदर्शनचारित्राणि येनाप्तानि स भवति आप्त:(१२२७) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मवैयावृत्यकरः ] रागद्वेषप्रहीण, इष्टा: शोषौ शैषिविषये ये आसाः । व्य० द्वि० ३०६ आ । आत्मवैयावृत्यकरः - आत्मनो वैयावृत्येक्लान्तः । व्य० प्र० १४५ अ । [ आयवा बोधी-बोषविशेषोऽभिनिबोध:, अभिनिबोध एवाभिनिबो धिकम् । इन्द्रियमननिमित्तो योग्यदेशावस्थित वस्तुविषयः स्फटप्रतिभासः । नंदी० ६५ । अभियोतिए - पराभिभवनहेतुः । ज्ञाता० १८७ । आत्मार्थ:- निरतिचारकरणं विशोधनम् । व्य० प्र० ११५ आभिसेवकं - अभिषेक मर्हतीत्याभिषेक्यं मूर्द्धाभिषिक्तम् । अ 1 ज्ञाता० २१८ । आभूसिय- आभूषितं सङ्कुटितम् । ज्ञाता० १३८ । आभोए मारणे - आभोगयन् पव्यन् । ज्ञाता० ७९ । आमगमलगभूषा- आम मल्लकभूता-उपक्वशरावकल्पा । ज्ञाता० १५७ । आचार्य श्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलित: आदाण-आर्द्रहणं यदुद कतै खादिकमन्यतरद्रव्यपाकायाग्नावु साध्यते तद् । उपा० ३४ ॥ आदाननिक्षेपणासमितिः- रजोहरणपात्रचीवरदीनां पीठ. फलकादीनां चावश्यकार्थं निरीक्ष्य प्रमृज्य चादाननिक्षेप । तस्त्रा० १-५ । आदिगरा- आदिकरा:- तत्प्रथमतया प्रवर्तनशीलाः । व्य० द्वि० ३८५ अ । आदित्ययशा- पराभिषिक्ते दृष्टान्तः, भरत चक्रीपुत्रः । व्य द्वि० १२६ आ । आदेतो- आदेश :- नयान्न रविकल्पः । व्य० द्वि० ३५४ आ । आदेश:- मनुज्ञा । व्य० द्वि० ३४६ अ । आधारभूतं क्षेत्रम् । सम० १४२ आद्यषोडश परिकर्म - गणितविशेषः । नंदी० २३८ । आनंदपुर - प्रायश्चिते नगरम् । व्य० प्र० १४६ । उत्तरदिशि परिष्ठापने दृष्टान्तः । व्य० द्वि० २६६ अ । लोकों तरिके नगरम् । व्य० प्र० ४ आ । आनुपूर्वी - प्रश्तगंती गल्यन्तरमानुपूर्व्या प्रापणसामध्यं शरीरांगोपांगानां विनिवेशक्रमनियामकं वा कर्म । तस्वा० ८-१२ । आपको वगा - वनस्पतिविशेषः । राज० ८० । आमलकप्पा- राजप्रश्न्यो नगरम् । राज० १ । आमलकप्पा - जीतशत्रोः राजधानी । ज्ञाता० २४८, २५० ॥ रातीगाथापतिवास्तव्या नगरी। ज्ञाता २५० । रातनीगाथापतिवास्तव्या नगरी । ज्ञाता० २५१ । विद्युतगाथापतिवास्तव्या नगरी। ज्ञाता० २५१ । मेघगाथा: पतिवास्तव्या नगरी । ज्ञाता० २५१ । आमासं-आमर्श:- परामर्शः । ज्ञाता० १५२ । आमेल-शेखरकः । राज० ४६ । । राज० ४६ । आमेलग - आपीड:- शेखरः । ज्ञाता० ५४ । आमोडिज्जंताणंआमोसहिपत्ता - आमर्शः - संस्पर्शः स एवौषधिरिवोषधि :सर्व रोगापहा त्यात्तपचरणप्रभवो लब्धिविशेषः तां प्राप्ताः । प्रश्न. १०५ । आर्य- आतङ्क :- कृच्छ्रजीवितकारी । ज्ञाता० १२१ । आयंबिलं शुद्धोदनादि । अनुत्त० ३ । शुद्धोदनादि । अनुत्त । यत्रालवणारनाशोदनभक्षणमात्राणि आचा. म्वलानि । नवतत्स्वभाष्य | आयंबिलं । ज्ञाता० २१५ । आय - भूमिस्फोटक विशेषः । आचा० ५७ । आय: -लामः ॥ ज्ञाता० २६ । आबाहं - आबाधा - ईषद्वाषा । ज्ञाताः ६७ । आभज्ज - संयुक्य | उ० प्र० १५६ आ । आभरण विहि-त्रिशतितमा कला (३० मी कला ) । ज्ञाता० ३८ । आयश्चामि - आसिचामि । उपा० ३४ । आभरितः - सुवर्णसङ्कलिकादिभूषितः । अनु २५४ । आभवंतितो- आभवतिकः व्यवहारः । व्य० द्वि० ३८१ आयरिय- आचार्य:- अनुयोगाचार्यः । व्य० प्र० १३७ अ । आचार्थकं तद्द्मन्यव्याख्यातृश्वम् । व्य० प्र० १६६ अ । आचार्य:- कलाचार्यः । ज्ञाता० २२१ । आचार्य:- शिरुपी । ज्ञाता० ३ । आ । अभियोगिए-देव विशेषः । ज्ञाता० १५१ । आभिणिबोहिय- अर्थाभिमुखो नियतः - प्रतिनियतस्वरूपी | आयवा-धर्मकथायां द्वितीयमध्ययनम् । ज्ञाता० २५२ ॥ ( १२२८ ) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आया] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० १ [ आवनसत्ता आया-आत्मा । ज्ञात०६१ । आर्यशं-तगरायामाचार्यस्थ शिष्यः । व्य० प्र० ३१५ अ । आयाण-आदानम् आदिः। व्य० प्र०२१० । आलभिए । मग० ५११ । आयाणिहि-आजानीहि-अनुष्ठानद्वारेणावबुध्यस्व । ज्ञाता. आलभिया- क्षुल्लशतकगाथापतिवास्तव्या नगरी । उपा० १६१। आयार-प्राचार:-ज्ञानादिविषयमनुष्ठानम् । ज्ञाता० ६. । आलिंग-आलिङ्गो-मुरजनामा वाद्यविशेषः । राज० ३१ । आयारभंडग आलिंगणवट्टए-आलिङ्गनवत्ति:-शरीरप्रमाण उपधानः । आयारभंडय-आचाराय-ज्ञानादिभेदभित्राय भाण्डक- राज.६३। उपकरण वर्षाकल्पादि आचारभाण्डकम् । ज्ञाता० ७५, आलिंगिणि-प्रालिङ्गिनी । ठाणा० २३४ । १९७ । आलि-आलि: वनस्पतिविशेषः । राज. ७६ । आयावित्तिए-आतापयितुं-आतापनां कर्तुम् । ज्ञाता० आलिघर- आलोकदली-वनस्पतिविशेष: । ज्ञाता० ९३ । २०४ । आलित्त-आदोप्त: ईषद्दीप्तः । ज्ञाता० ६०। प्रायासंचेयतो-आत्मसंचेतनीय:-आत्मनैवात्मनी दुःखो- | आलित्तपलित-आदीप्त:-ईषद्दीप्तः प्रदीप्त:-प्रकर्षेण दीप्तः त्पादनम् । व्य० प्र० १६६ अ । आदीप्तप्रदीप्तोऽत्यात प्रदीप्तः । ज्ञाता०६०। आयाहिणपयाहिण-आदक्षिणाद्-दक्षिणहस्तादारभ्य प्रद- आलिताण । राज०४६ । क्षिण:-परितो म्राम्यतो दक्षिण आदक्षिणप्रदक्षिणम् । आलीण-आलीन: आश्रितः । ज्ञाता०७७ । राज०१३ । आलीयग-आदीपक:-अग्निदाता । ज्ञाता. ७६ । आरंभ:-प्राणिवधः । तत्त्वा० ६-६। आलुपंति । ज्ञाता० ६७। आरबी-धात्रीविशेषः । ज्ञाता० ४१ । आलुक-कन्दविशेषः। अनुत्त० ६ । आराप-आगत्यागत्य भोगपुरुषा वरतरुणीभिः सह यत्र | आलुका-कुण्डिका । अनुत्त० ५। रमन्ते कीडन्ति स आरामो-नगरान्नति दूरवर्ती कोडापयः । आलोइयपडिक्कते । ज्ञाता० १९८॥ राज० २३ । पारमन्ति ये तु माधवीलतागृहादिषु दम्प• | आलोए । ज्ञाता.१६ त्यादीनि ते आरामः । ज्ञाता० २१-३३,३६ । आरमन्ते यत्र आलोएहि-मालोचनं-गुरोनिवेदनम् । ज्ञाता २०६ । माधवीलतागृहादिषू दम्पत्यावित्यसावारामः ।राज० ११२ | आलोयणादोसा-आलोचनाविधेर्दोषाः मालोचनादोषाः । आराहणा-आराधना-अखण्डकालकरणमित्यर्थः । उपा० । व्य०० १०८ आ। आलोये-आलोके बहिः प्रस्थानसमयभाविनि । राज. माराहिते । अन्त०७ ।। आराहेइ-आराधयति सम्पूर्ण निष्ठां नयति । उपा० १५ । | आवक हिए । भग० १.६ आरंभित्ता ।ज्ञाता० १४६ । । य-यावस्कथिक-स्वाभयद्रव्यस्यास्तित्वकथां याव. आरुसिय-आरुष्टः । ज्ञाता. ७६ । दनुवर्तते । अनु० १३ । आरोग-मनाबाधः । ज्ञाता० १२५ । कालसहः । ज्ञाता | आवडिज्जंताणं-उत्ताडनम् । राज. ५२ । आवत्तणपेढिया-आवर्तनपीठिका नाम योन्द्रकीलको भाआयंखपट-विद्यासिद्धी दृष्टान्तः। व्य० प्र०१६अ। वति । राज०६२। आर्यचन्दना-मृगावत्या:-गुरुगी । य० प्र० ११७ आ। आवत्तो-आवर्तः । आव. २१७ । आर्यमहागिरे-पम्भोगोऽविनष्टे दृष्टान्त व्य० द्वि० २११॥ आवन सत्ता-आपन्न:-उत्पन्नः सत्त्वो-जीवः गर्भे यस्या आर्य रक्षित-मुरित। व्य० प्र० २८२ अ । सा । ज्ञाता० ८२ । ( १२२९ ) १२। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवर माचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ इक्खागराय आवर-अपर:-पत्राद्धाग: । ज्ञाता०६३ । आसियावण-निष्का शयितुमासादनं-गले गृहीत्वा बहिर्वने आवरण-कटः । ज्ञाता. २२१ । वावरणं-अङ्गरक्ष- | निक्षिपति । व्य० द्वि० ३६१ अ । कादि । ज्ञाता० १३२ । आसुरुत्त-स्फुरितकोपलिङ्गः । ज्ञाता० ६४ । कुद्धः । आवलगनादिका- आचा० १२३ । शाता० २१८। आवलिया-असंङ्गातसमयरूपा । ज्ञाता. १०४ । आहंमंताणं .. । राज. ४६ । आवस्सए-आवश्यक-अवश्यकर्त्तव्यं संयमव्यापारनिष्पन्नम्। | आहणह-विवेशयत । ज्ञाता०६२। ज्ञाता. १२२ । आहरक्कतिए-आहारापकान्या-देवाहारपरित्यागेन । आविद्ध-आविद्धः परिहितः । ज्ञाता० ८५ । परिहितम् । | शाता० १२५ । ज्ञाता. १९ । आहाकम्मिए । ज्ञाता०४६ आवीइयमरण-आ-समन्ताद्विचयः-प्रतिसमयमनुभूयमाना। आहारेति । अन्त०७। युषोऽपरापरायुर्दलिकोदयात्पूर्वपूर्वायुर्दलिकावच्युतिलक्षणा• | आहिंडा-सततं परिभ्रमणशीताः । बृ० तृ० १८४ था। ऽवस्था यस्मिन् तदावीचिकं । अथवाऽविद्यमाना वीचि: माणि-आधूयमाना कम्पमाना । ज्ञाता० १५६ । विच्छेदो यत्र तद्वीचिकं अवीचिकमेवावीचिकं तच आहुणिज्जे-आहवनीयं-संप्रदानभूतम् । ज्ञाता० ४ । तन्मरणं चेत्त्यावीचिकमरणम् । भग० ६२५ । | आहुणिय-प्रकम्प्य-चलायित्त्वा । ज्ञाता० ६५ । आवेढ-आवेष्टटनम् । आव०३६९ । आहुस्स-आहोता-दाता । ज्ञाता० ४ । आवेस-बावेशनं आवेशः। व्य. द्वि० ३३६ आ। आवेश:प्राणिनोऽधिष्ठानम् । भग०६३५ । इंगाल-अङ्कारो-विज्यालोऽग्निकणः । ज्ञाता० २०४ । आस-अश्वः । ज्ञाता० २२० । इंगाला-जत्थ दुज्संति कट्ठा तरथ फट्टति घडिज्जंति । आसखंधवरगते-आश्व एव स्कंध:-पुद्गलप्रचयरूपो वर:- | नि० चू० तृ० ६२ मा । प्रधानोऽश्वस्कन्धवरोऽथवा स्कन्धप्रदेशप्रत्यासत्तेः पृष्ठमपि इगित-इनितं-नयनादिचेष्टाविशेषः । ज्ञाता० ३७ । स्कन्ध इति । ज्ञाता० १७४ । इंताण-अतियतामागच्छताम् । ध्य० द्वि० ३६६ मा । आसण-आसन-स्कन्धादि । ज्ञाता. ६२ । इंतो-आगच्छत् । बृ.तृ. १७६ अ । आसणातो । अन्त० ५ ।। इंदकील-इन्द्रकोल:-गोपूरावयबविशेषः । ज्ञाता० ३। आसत्त-आसक्त:-भूमिलग्न: । ज्ञाता. ४० । इंदकुभ-वीतशोकायामुद्यानम् ।। ज्ञाता० १२१ । आसन्नसेवगो-प्रियः । नि. चू. द्वि०१३ मा । इदगोवग-इन्द्रगोपक:-वर्षाक्षु कीटकविशेषः । ज्ञाता० २४॥ आसम-साधमः-तापसावसथोपलक्षित बाश्रयविशेषः।। कीटकविशेषः । ज्ञाता० २५ । राज. ११४ । आसत्यामः । ज्ञाता० २०८ । इंदभूतो-समणस्स भगवयो महावीरस्स अंतेवासी । आसवाई-आस्ये मुखे । ज्ञाता० १६३ । ज्ञाता० ११३ । आसरह-अश्वप्रधानो रथोऽश्वरथः । ज्ञाता० ४६।। ।ज्ञाता०३९। आसाएमाणे । ज्ञाता० ३७ ।। इंदा-धरणस्य चतुर्थाऽप्रमहिषी । ज्ञाता २५१ । आसाढे। शाता०१०७॥ इंदाउह । ज्ञाता० २५ । आसाय-आस्वादः-रसः । ज्ञाता० २३२ । इंदाणि-इदानीम् । उत्त० १६७ । आसायति-प्राप्तानाश्रयति । ज्ञाता० १६६। इंदियजवणिजा-दुविहे जमणिज्जे पढमो भेो । ज्ञाता० आसारेति-ईषत्स्वस्थानस्याजनम् । ज्ञाता० ९४, ९७।। आसिय-बासिक्तमुदकच्छटेन । ज्ञाता० ३७ । | इवखागराय-इक्ष्वाकूणा-इक्ष्वाकुवंशजाना अथवा इक्ष्वाकु: ( १२३०) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इङ्गना ] अल्पपरिचित सेद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० ५, जनपदस्य राजा । ज्ञाता० १२४ । धर्म इङ्गना - ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः । स्याथ प्रयत्नस्य षण्णां भग इतीङ्गना । नंदी० १५ । इच्छंतए - इच्छया कदाचिदित्यर्थः । ज्ञाता २२४ । इच्छावगाहोना वगा - हाम्यस्तविष्कम्भस्य चतुर्गुणस्य मूलम् । तत्त्वा० ३-११ । इच्छियं इष्टं ईप्सितं वा । ज्ञाता० १७ । हड्डी - गुण: । ज्ञाता० १३५ । इति- इतिशब्द:- उपप्रदर्शनार्थः । ज्ञात ७६ । इतिरुप दर्शते । ज्ञाता० ८६ । इतिकट्टु - इति कृत्वा । ज्ञाना० ६५, ७० । इति शेषः । ज्ञाता १०२ । इतिकृत्वा - इतिहेतोः । ज्ञाता० १०२ । इतिकृत्वा इत्यभिधाय । जाता० १३२ । इतिहास-पुराणम्। निरय० २३ । इत्यिकुलत्था- दुविहे कुलत्ये पढमो भेओ । ज्ञाता० १०८ । इत्थिलक्खण| ज्ञाता० ३८ | इत्थी नामगोयं - स्त्री नाम: - स्त्री परिणामः स्त्रीत्वं यदुदयाद भवति गोत्रं - अभिधानं यस्य तत् स्त्रोनामयोत्रं अथवा यत् स्त्रीप्रायोग्य नामकर्म गोत्रं च तत् स्त्रीनामगोत्रम् । ज्ञाता० १२३ । इत्थोपसुविवज्जा - स्त्रीपशुविवर्जितः तत्रैव स्थितस्स्त्र्यादि. रहिते शून्यागारादि । उत्त० ६०८ । -इत्थीरूव निरवखव जन-स्त्रीरूपनिरीक्षणवर्जनं, तृतीय भावनावस्तु । प्रश्न० १३६ । इत्यवसणं-स्त्रीभ्यसनं महराजा अंतपुरस्त्रीषु नित्यमासक्त स्तिष्ठति तरस्त्रीव्यसनम् । बृ० प्र० १५७ अ । इन्द्रकीलकः। नंदी० १५० । इमं - इत: । ज्ञाता० २१३ । इमपि इदमणि - इतिपूर्वकोऽपि शब्दः । आचा० ६५ । -इमेणं कारणं - अनेन वक्ष्मणेन हेतुनाऽन्यथाप्रतिज्ञायान्य था करणलक्षणेन । ज्ञाता० १२३ । इय- आगत । म० । इल- इलावडेंसकमवने सिंहासनम् । ज्ञाता० २११ । वानारस्यां गाथापतिः । ज्ञाता० २५१ । इलसिरी - इलगायापतिभार्या । शाता० २५१ । [ उनक इला - धरणीराजधान्यां देवी । ज्ञाता० २५१ | गाथापतेः पुत्रीः । ज्ञाता० २५१ । इलादेवी - निरयावल्यां चतुर्थवर्गे सप्तममध्ययनम् । निरय० परि० १ ३१ । इलावडेंसए - धरणी राजधान्यां भवन: । ज्ञाता० १५१ । इसि - पश्यातीति ऋषिः - ज्ञानी । भग० ४६० । इसिणिया। ज्ञाता० २७ । इसिदास - अनुत्तरोपपातिके तृतीयवर्गे तृतीयमध्ययनम् । अनुत्त० २ । इहा- स्थाणुरयं पुरुषो वेत्येवं सदर्थालोचनाभिमुखा मतिचेष्टा । ज्ञाता० ११ । ईश्वरपुत्र:| नंदी ० १५६ । ईसर - ईश्वर:- युवराजा, मतान्तरेणाणिमाद्यैश्वर्ययुक्तः । ज्ञाता० १६ । | ज्ञाता० ३८ । ईसत्थंईसाण-धर्मकथायाः दशमवर्गे कल्पः । ज्ञाता० २१३ । ईहा - ईहनं ईहा सद्भूतार्थं पर्यालोचनरूपा चेष्टा । नंदी० १६८ । ईहनं ईहा - सदर्थपर्यालोचनम् । नंदी० १८६ । उ उंडी-उण्डी- यिण्डी । ज्ञाता० ९१ । उइट्ट - अपकृष्ट:- आपकवान् । ज्ञाता० १३८ । उउ - ऋतु: हेमन्तादिः । शाता० २३४ । उउबद्ध - ऋतुबद्धः - अवर्षाकालः । ज्ञाता० ११३ । उउवस - ऋतुवशः- कालविशेषबलः । ज्ञाता० २६ । उक्कंचण- उर्ध्वं कन्चनम् । ज्ञाता० ८० उत्कचनं उत्कोचा । ज्ञाता० २३८ । उत्कचम् उपरि कम्बिकाना बन्धनम् । बृ० प्र० ९२ अ । उक्थडं - उत्कटं - उत्कृष्टम् । मग० ४७७ । उक्कतत्ती-सज्झायादि संजमजोगकरणमुक्कतत्ती । निo चू० तृ० १ आ । उक्कत्तितो- उदकवी वापरकचितानि । व्य० प्र० १४१ अ । उक्करं - उरकरी - उन्मुक्तकयम् । ज्ञाता० ४० | उत्करंउन्मुक्त करस्तु प्रतिवर्ष गवादीनां राजदेयं द्रव्यम् । ज्ञाता० ४० । ( १२३१ ) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्किट्ठा ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्घलित: [ उत्कम्पनदीपा उक्किद्रा-उत्कृष्ट। ज्ञाता०३६ ।। उच्छढ-उज्झितमिवोज्झितम् । ज्ञाता.८ । उक्कोडिया-उक्कोडा-उत्कीटा-लञ्चेत्यर्थः तया ये | उच्छेवो-पगिपेलेवच्छातिते णेव्वे गलणं उच्छेवो । निल व्यवहरन्ति ते उत्कोटिकाः । ज्ञाता० २ । चू० प्र० २३२ था। उक्कोरण-केदारमृत्पिण्डाः । नि० चु० प्र० ३५१ था। उज्जलनेवत्थ-उज्वलनेपथ्यः-निर्मलवेषः । ज्ञाता० २२१ । उक्खित्त-उत्क्षिप्त:-उत्पाटितः । ज्ञाता० ७० । उज्जला-उज्ज्वला-विपक्षलेशेनापि अकलङ्किता। ज्ञाता. उक्खेव-सरक्षेप:-प्रस्तावना स च मतियममौचित्येन स्वयमेव वाच्यः । भग० ८१२ । उजाण-उद्यानं-पुष्पादिपवृक्षसंकुलमुत्सवादी बहुजनभोउगगतवे-उग्रतपा । ज्ञाता०६। ग्यम् । ज्ञाता. २ उग्गय-उद्गत:-व्यवस्थितः । ज्ञाता० १४ । उजाणजत्ता ज्ञाता०३६। उग्गयात्त-सूर्योद्गमात् परं प्रतिश्रयावग्रहाद् बहिः | उजितसेलसिहरे-नेमिनाथनिर्वाणभूमिः । ज्ञाता० २२६ । प्रचारवच्छरोरवान् । बृ० तृ. १७९ आ। उज्जुग-ऋजुकं-सरलम् । ज्ञाता० ६३ । उम्गविस-उग्रं दुर्जरत्वाद्विषं यस्य स उपविषः। ज्ञात उज्जुत्तो-स्वध्यायादौ सोत्साहः । बृ० तृ० ९२ आ। उज्जविता ।नंदी०१६० । उग्गसेण-राजेश्वरविशेषः । ज्ञाता०४९ राजाविशेषः ।। उज्झर- निरः । ज्ञाता. २६ । सदकस्य प्रपातः । ज्ञाता० २०७। ज्ञाता० ६७ । निर्झरः । ज्ञाता. १६१ । उग्गह-अवग्रह-आवासम् । ज्ञाता० ८ । उज्झितए-उजिझतं-सर्वस्या देशविरतेस्त्यागेन । ज्ञाता. उग्गहणंतर्ग-उगह इति जोणिदुवारस्स सामइकी संज्ञा १३६ । अहवा उदुयं ओगिण्हतीति उग्गहणंतगं, तच्च तनु पर्यन्ते उज्झियधम्मिय-उज्झितं-परित्यागः स एव धर्म:-पर्यायो मध्ये विशालं नौवत्, ब्रह्मचर्य संरक्षणार्थ गृह्यते, गणणा यस्य । अनुत्त० ३ । प्रमाणेनक, आर्तवबीचपातसंरक्षणार्थ घने वस्त्रे क्रियते, उझिया-धरणस्य प्रथमपूत्रधनपालस्य भार्या । ज्ञाता० पुरुषसमानस्पर्शपरिहरणार्थ समानस्पर्शत्वाच्य मसिणे ११५ । वस्त्रे क्रियते, प्रमाणतः स्त्रीशरीरापेक्ष्यम् । नि० चू० प्र० | उढवेसि-उद्धरसि । ज्ञाता० ६६ । १७९ आ। उडाए उट्ठति-उत्थानमुत्था-उध्वं वर्त्तनं तया उत्थया । ज्ञाता० १९७। उत्तिष्ठति उत्थाय च । ज्ञाता०८ । उच्चदाण-उच्चस्थानानि ग्रहणामादित्यादीनम् । ज्ञाता० | उद्राण-उत्थान-उत्पत्तिम् । ज्ञाता. १८६ ।। १२५ । उहाणपरियावणियं-उत्पत्ति परियापनिका च कालान्तरं उन्नतभयगो-तुमे ममं एच्चिरं कालं कम्मं कायव्वं, 'जं| यावत् स्थितिरित्युत्थानपरियापनिकम् । ज्ञाता. १८६ । एत्तियं तेण धणं दहामि । नि० चू० द्वि० ४४ आ। उहति-आपठ्ठीव्यति-निष्ठीवनं कुर्वति । भग० १६७ । उच्चार ।शाता० ६१। उडुप-कोट्टिवो । नि• चू० प्र० ४५ अ । तारणसाधनम् । उच्चावए ।ज्ञाता०१६६। ___ आव० ५६ । उच्चावाय-असमञ्जसम् । ज्ञाता. २०० । ।नि. चू०प्र० २१० । एचछायणया-उच्छादना-जातेरपि बावच्छेदनम् । ज्ञाता. | उड्डुचग-उड्डुञ्चकः (देशी०), उपहासः । बृ० प्र० ८६ आ। २३६ । उड्डुरुस्से-प्रद्वेष योयात् । बृ० प्र० १०० आ। उच्छगंडियं-इक्षुगण्डिय-सपर्वेक्षुसकलम् । आचा० ३५४ । उतओ-पव्वदेससहितं । नि० चू० तृ. २३ अ । उच्छहइ-अवष्टम्नाति विध्यतीत्यर्थः : ज्ञाता०६८। । उत्कम्पनदीपा:-ऊर्ध्वदण्डवन्तः पञ्जरदीपा: । ज्ञाता. ४४ । ( १२३२ ) उडुसद्धो Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्तोल्यं] अल्पपरिचितसंवान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० १ [लप्पुया उक्तोल्यं-गुणम् । स्थान. ३३५ । | उद्धंजाणू-उद्ध्वंजानुनी यस्य स उद्ध्वंजानुनो यस्य स उत्क्षेपक-दी त्रीन् वा शिष्यानु गुरुणामुपनयति शेषान | उद्धंजानुः । ज्ञाता० ८ । सर्वानपि आरमना गृह्णाति । व्यव. प्र. २८६ आ । उद्धंसण-दुष्कुलीनं कुलाभिमानपातनम् । ज्ञाता० २०० । उत्तमंग ।ज्ञाता० २४०। उद्धतं-उत्पाटितम् । ज्ञाता० ६६ । उत्तम-उर्ध्व तमसः-अज्ञानाद्यत्तत्तया नेन अज्ञानरहितः। उद्धाए-ऊर्वजाः । ज्ञाता० ८० । ज्ञाता. ७६ । । उद्धायमाण-उद्धावमान: प्रवर्द्धमानः । ज्ञाता० ७०। उत्तमा-धर्मकथायां पञ्चमवर्ग एकादशममध्ययनम् । उद्धय-उद्भूतः वायुता । ज्ञाता० ८० । उद्धृतः उद्भूतः। ज्ञाता० २१२ । ज्ञाता०१५। उत्तरकुरु उजाण-साकेतनगर उद्यानम् । ज्ञाता० २५२ । उद्ध्या-उस्कृष्टी-कर्मणां यः स्वगत्युत्कर्षः तद्वती । शाता. उत्तररुचक ।ज्ञाता. १२७। उत्तरिज-उत्तरीयं-उपरिकायाच्छादनम् । ज्ञाता० २७ । उद्धृयाए-उद्धता-दातिशया । ज्ञाता० ३६ । उत्ताण-उत्तान:-अनिमेषः । ज्ञाता०३। उद्घोसए । ओष. १८७। उत्तासणग-उत्तासनक-भयंकरम् । ज्ञाता० १३७ । उदभ्रामका-दंडपाशादयः। व्य०वि०१८ आ। उत्तहणं-गलके विलगनम् । वृ० प्र० २६६ अ । उधार इजसपञ्चया-उदारा यश: प्रत्यया अवदानं यशो. उत्सूनावस्था । प्रज्ञा०३८ । वदाता:। ध्य.द्वि०३२ आ। उदगणाए-उदक-नगरपरिखाजलं तदेव ज्ञात-उदाहरणं उन्नय-उन्नतः-तुङ्गः। ठाणा. १८२ । गुणवन्तं उच्चम् । उदकज्ञातम् । ज्ञाता० १० । ज्ञाता० २ । उदगरयण । शाता० १७५ । | उपधिः-पात्रनियोगादिः । व्यव० प्र० २६१ अ । उदगवत्थि-जलभृतहतिः जलाधारचर्ममयमानम् । उपरिपुंछनी-उपरिपुञ्छनी-निविडतराच्छादनहेतुश्लक्षणज्ञाता. २४१। तरतृणविशेषस्थानीया सर्वश्वेतं रजतमयं पुञ्छनीनामुउदगसंभारणिज्जे-उदकवासक:-वालकमुस्तादिभिः स- परि कवेल्लुकानामध बाच्छदनम् । जीवा० ३६०। म्भारयति सम्भृतं करोति । ज्ञाता. १७७ । उपशमयति-उदयोद्वतंनादिकरणाऽयोग्यान सतोऽप्यसत्क. उदग्ग-उदग्रं-तीव्रम् । शाता०७६ । ल्पान् करोतीति । विशे० ५६७ । उदरिय-पेढियमादिसु आरुभिउं ओआरेति । नि० चू० उपसङ्घात:-अनिष्टरूपस्तूपसङ्घातः । नंदी० १७१ । तृ. ५६ अ। उत्पणि-विद्याविशेषः । ज्ञाता० २१३ । उदार-उदार:-औदार्यवान् । ज्ञाता. ७६ । उम्पयमाणी-उत्पतन्ती । ज्ञाता० १५६ । उदाहु-ब्रवीति । ज्ञाता० १३६, २१७ । उप्पल-उत्पलं-नीलोत्पलम् । ज्ञाता० ९८ । उदाणदाहिण । ज्ञाता. ९९ । उप्पलकुट्ठ-उत्पल कुष्ठं-गन्धद्रव्यविशेषः । ज्ञाता० १२९ । उदाण ।बृ० द्वि०५७ अ। उप्पला-धर्मकथायां पञ्चमवर्गे तृतीयमध्ययनम् । ज्ञाता. उहायंत-शोभमानः । ज्ञाता० २७। २५२। उद्दायंति-अपद्रान्ति-प्राणविमुच्यते । आचा० २१७ ।। उपि-उपरि । ज्ञाता. ४४ । उहाल-अवदात:-अबदलनं पादादिन्यासेऽधोगमनमित्यर्थः।। उपिच्छ-भीतः । ज्ञाता० १६१ । ज्ञाता० १५ । उत्पीलिय-उत्पीडित:-आक्रान्तः । ज्ञाता. ८५ । एहिट्ठा-अमावस्या । ज्ञाता० ८४ । उप्पीलिया-उत्पीडिता:-गाढीकृताः । ज्ञाता० २२१ । सद्देसिए-ौदेशिकः । ज्ञाता० ५२ । उप्प्या -उत्प्लुतः-भीत: ।ज्ञाता०१६१ । अल्प० १५५ (१२३३) Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्फेस ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [उबरयसत्य उप्फेस-मुकुटः । औप० ५१। | उवंग-उपाण-तदुक्तापञ्चनपरः । ज्ञाता० ११०। उन्बुड्ड-अन्त: प्रवेशितः। अनुत्त. ७। उवओगट्ठा-उपयोगार्थता । ज्ञाता० १११ । उम्भड-उद्धटं-विकरालम मनसः । उद्धट-विकरा. उवक्कम-उपक्रमणम्पकमः, कर्मणामनदयमाप्तानामदयः लम् । ज्ञाता० १३० । प्रापणमित्यर्थः। सूत्र० ७८ । उम्भमे-व्युद्भमेत् स्थानान्तरं यायात् । आचा० २६४। | उवगाइलमाणे . ।ज्ञाता०४१। उम्भावण-उद्भाव:-सत्क्षेपणम् । शाता० १७४ । उद्भावनं | उवगूढा-वेष्टिता । ज्ञाता० २३८ । उत्क्षेपणम् । ज्ञाता० १७१ । उवगहिय-उपगृहितं-आलिङ्गितम् । ज्ञाता. १६८ । उमओ-उमी-शिरोन्तपदान्तौ । ज्ञाता० १५। उवग्यामओ-सम्बन्धः । ६० द्वि० १७८ म । उभओकालं-अहोरत्तं । व्य० वि० १६० म। उवचरे-उपचरेत-कुर्यात् । आचा० २६१ । उभयलक्षणसंकीर्णतादोषः । विशे०६६। उचिय-उपचितः- समृद्धः । ज्ञाता० ९८ । उपचित - उम्मद्दणोलालिया । ज्ञाता. १८२। उपनिहितः । ज्ञाता० ४०। उम्माण-न्मान-अद्धमारप्रमाणम् ज्ञाता०१२। उन्मानं । उवटाण-उपस्थान:-तथाविधमण्डपः । ज्ञाता १ । तुलामानन् । ज्ञाता० ३७ । उपस्थापना । शय्याया द्वितीयो भेदः । ६० प्र०६३ अ. उम्मुय माता० २१३।। उवटाणसाला-उपस्थानशाला-प्रास्थानमण्डपम् । ज्ञाता. उयचिय-परिमितम् । ज्ञाता. १५ । उरगवर-नागवरः । ज्ञाता० २२२ । उवढावणिय-उपस्थापनीयं-आरोपणीयम् । ठाणा० १६८। उरपरिसप्प-उरसी परिसर्पन्तीत्युरःपरिसर्पः-सापादयः ।। । ज्ञाता. ४१। जीवा० ३८॥ उवतेसहई-उपदेशा-गुर्वादिना कथनं तेन रुचियंस्य उराल-उदार:-प्रधान। । ज्ञाता०८। उपदेशरुचिः । ठाणा० ५०३ । उरुघंटिया-उरुघंटा-जङ्घाघण्टा । ज्ञाता. २३६ । उवदंसिज्जति-उपदय॑न्ते-निगमनेन शिष्यबुद्धो निःशवं उर्व सरकञ्चुक-कन्यानो च मस्तकसत्कपक्षेणाऽयं | व्यवस्थाप्यन्ते । नंदी० २१२ । प्रक्षिप्यते अय चोर्ध्वः 'सरकञ्चुक' इति व्यपदिश्यते | उवद्दगो-भयगो । नि० चू० वि० ४५ मा। चोर्ध्वसरकञ्चुकः । विशे० ३५४ । उपप्पयाण-उपप्रदानम् । ज्ञाता०११ । उर्ध्वस रकंचुक-उर्ध्वः सरकंचुकः कम्याचोलकोऽवगातव्यः । उवयंतं-अवपतन्तम् । ज्ञाता० १६६ । अय च मरूमण्डलादिप्रसिद्धश्चरणकरूपेण कन्यापरिधानेन | उवयति-ओवयइ-अवपतति-अवरतति । ज्ञाता. ३६ । सह सोवितो भवति, येन परिधानं न खसति; कन्यानां उवयार-उपचार:-पूजा। ज्ञाता० ४। लोकव्यवहारः । च मस्तकसकपक्षेणाऽयं प्रक्षिप्यते । अयं चोध्वः 'सर. ज्ञाता० १३ । चुक' इति व्यपदिश्यते। विशे० ३५१। उवयालि-अनुत्तरोपपातिके प्रथमवर्ग तृतीयमध्ययनम् । उल्लंछति-विगतलाञ्छनं करोति । ज्ञाता. ८८। अनुत्त० ।। उल्लपडताड्ए-सद्यः स्तानेन आद्रः पटशाटक:-उत्तरीय- | उवयालो-अन्तकृद्दशानां चतुर्थवर्गे तृतीयमध्मयनम् । परिधानः । ज्ञाता. २२२ । अनुत्त० १४ । उल्लाव-उल्लाप:-काकुवर्णनम् । ज्ञाता० ५७ । | उवयोगट्टयाए-उपयोगार्थतया-विविधविषयानुपयोगाना. उल्लिहिय-उल्लिखित:-घृष्टः । ज्ञाता० १३ । श्रित्य । ज्ञाता० १११ । उल्लोइयं-सेटिकादिना कुड्यादिषु धवलनम् । ज्ञाता. ४०। | उवरयसत्थ-उपरतशस्त्रः-शस्त्रादुपयतः शस्त्रोपरतः । आचा. उल्लोगो-प्रवलोक: । आव० २९४ । १७१ । ( १२३४) Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपराग ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० १ [ उस्सुय उपराग-उपराग:-उपरञ्जनं ग्रहणमू । प्रभ० ३६ ।। | उवायं-कारणं, क्रम वा । ज्ञाता. ३४ । उबरुद्ध-उपरुद्धः-पञ्चदशसुः परमाधार्मे केषु षष्ठः । उत्त० | उवोलण-अवपीडनम् । ज्ञाता० २३२ । . उवेहे-णिरक्खति । दश० चू० १२० । उवलंमणा-उपालम्भना युक्तमेतद्भवादृशामित्यादि ।ज्ञाता| उव्वटण-उद्वर्त्तनम् । ज्ञाता. १८३। २३८ । उन्धतति ।ज्ञाता० १४॥ उवललिय-उपललितं-कीडीतविशेषरूपम् ।ज्ञाता० १६८। उब्वलण-उद्वेलनं-देहोपलेपम् । ज्ञाता० १८३ । उवलालिजमारणे- ज्ञाता०३७, ४१। उवाहित्थ-उद्बाधयति । ज्ञाता० ८७ । उलिपंति-घटकमुखस्य तत्पिधानकस्य च गोमयादिना उविबग्ग-उद्विग्नः-उद्वेगवान् । ज्ञाता० १६१, ९४ । रन्ध्र मञ्जन्ति । ज्ञाता १२९ । उम्विद्ध-उद्विद्ध-उण्डम् । ज्ञाता० २ । उववण-उपवनं-भवनासन्नवनम् । ज्ञाता. २७ । उम्विहंताइ-उत्पतन्ति । ज्ञाता. २३२ । उववहाणं । नि० चू०८ था। उविहति-उद्विजहाति-उद क्षिपति । ज्ञाता० १६८ । उववाइयं-उपयाच्यते-मृग्यते स्म यत्तत् उपयाचितं- उब्धिहामि-नयामि । ज्ञाता० १३९ । ईप्सितं वस्तु । ज्ञाता० ८४ । उव्वेग-उद्वेगं-चलनम् । ज्ञाता०५१। उववाय-उपपातः सेवावचनं-अनियमपूर्वक आदेशः । उसंतासंते-एषणीयस्यालाभः । मागितिमपि न लभ्यते । ज्ञाता. १५९ । बृ० द्वि० २७२ आ। उववायसमा-चमरचंपायां कालडिसगमवणे समा । उसत्त-उरसक्तः-उपरिलग्नः । ज्ञाता० ४० । ज्ञाता० २५०। उसभ-वृषभ-वृषभपुरम्, अपरनाम क्षितिप्रतिष्ठितम् । उववूहणिया-शरीरं उपबृहयन्तीति उपबृहणीया। नि० आव० ६७० । द्वितीयं स्वप्नम् । ज्ञाता० २० । चू० प्र० २७४ अ। उसवणं । नि० चू० प्र०२३८ ब। उववेए-उपपेतो-युक्तः । ज्ञाता० ११ । उस्सग्गो-व्युत्सर्गः । दश० ३२ । उवसंते-उपसान्तः-कषायोदयाभावः । ज्ञाता० १०३ । उस्सण्ण-बाहुल्यम् वहुकालाचीर्णः । व्य० वि० २६५ अवसगा-उपसर्ग: उपद्रवो वचनचेष्टाविशेषरूपन्नः । ज्ञाता. आ। १६७ । उस्सण्णदोस-हिंसानुबन्ध्यादीनामन्यतरस्मिन् प्रवर्तमान उवसोहिय-उपशोभितः समारचितकेशत्वादिना जनित- उत्सन्न अनुपरतं बाहुल्येन प्रवर्तते इत्युत्सन्नदोषः । बाव. शोभा उपशोभिता:-निर्मलीकृतः । ज्ञाता०१५६ । ५९० । उवस्सय-उपाधयः-वसतिः । शाता० २०५ । उस्सव-उत्सवः । बृ० प्र०१०४ अ । प्रियसनमादिमहः । उवहिउवगरणं-उपध्युपेकरण:-उपधिः-वर्षाकल्पादि स भग० ४७३ । उत्सव:-इन्द्रोत्सवादि । ज्ञाता. ८१ । एव च उपकरणं धर्मशरीरोपष्टम्भहेतुरिति । उत्त. उत्सव:-प्रियसमागमादिमहः । ज्ञाता० ५६ । ३५८ । उसाग-यनिविशेषणं क्रियते । उ०मा० । उवहिए-उपधिको मायित्वेन प्रच्छनचारी। ज्ञाता० ८१ । उस्सिचिय-उत्सिञ्च्य । आचा० ३४६ । उवाइणावेत्तए-उपादापयितुं ग्राहयितुम् । ज्ञाता० १७७ । उस्तिय-उछित:-अर्गलास्थानादपनीय । ज्ञाता० १०६ । उवाइतए-उपयाचितुं प्राथयितुम् । ज्ञाता० ८४।। उस्सियफलह-उच्छ्रितं स्फटिकमिव स्फटिक-अन्त:करणं उवाइय-उपयाचितम् । ज्ञाता० १३६ । यस्य स तथा । ज्ञाता० १०६ । उवाडणे-अवपाटनं-विदारणम् । भग० १२० । उस्सुक्कं-उच्छूलक-उन्मुक्तशुल्कम् । ज्ञाता० ४० । स्वातिणावेति-अतिक्रामति । नि० चू० प्र० ३५४ आ। | उस्सुय-उत्सुकः । ज्ञाता० १६१ । (१२३५ ) Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सुयकरं ) भाचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [करणसत्ती एलुक उस्सुयकर-औत्सुक्यकर-पेक्षणलम्पटत्वकरम् । माता० | एरवयदह । जीवा० २९७ । २१६ । । व्य.दि. ३६२ । उस्सुयाएज-उस्सुकायेत-अनुत्सुकः उत्सुको मवेदुस्सुकायेत, एसण । ज्ञाता. २२६ । विषदानम् । भग• २९ । एसणा । अनुत्त० ३। । ज्ञाता०६५। ओ . ऊणोअरिआ-ऊनोदरस्य भावः ऊनोदरता । दश. २७ । ओगाढ-अवगाढः-अवस्थितः । ठाणा० ३४ । ऊस-पृथिवीभेदः । आचा० २६ । ऊस?-उज्झियधम्मिए । नि० चू०प्र० १७०।। ओगाहण-अवगाहणमवगाहः-अधस्तात प्रवेशः । दि. ऊसत्त-उपरि-उत्सक्तः । ज्ञाता०४। चू० प्र० १६ आ। ऊत्तविय-उत्सृतः । ज्ञाता० १७ । उत्तं- ऊर्वीकृतम् । ओगाहणा-अवगाहना-स्वप्रदेशसग्निचिति: ।उत्त० ६८६। अवगाहन्ते-आसते यस्या आश्रियन्ति वा यां जीवा: ज्ञाता० १३६ । ऊसास । ज्ञाता० ७५ । साऽवगाहना शरीरम् । ठाणा. २०६ । ऊपिओदग-उच्छितोदकः। जीवा० ३२।। ओघश्रतंऊसियं-उच्छिन:-अर्गलास्थानादपनीय ऊर्वीकृतो न तिर• ओजस्वी-बलवान् । आचा० २६४ । ओदरिया-जीविताहेउ पन्वइया । नि० चू०प्र० ३४ अ। श्विनः । याज• १२३ । उच्छ्रितं-उद्धं नीतम् । ज्ञाता० नि० चू० तु. ३७ आ। ऋज्वी-सामान्यग्राहिणी । नंदी० १०८ । ओभासति-याचयति । नि० चू०प्र०७८ अ । ओमच्छग-विपर्ययेण । नि० चू० प्र० १५१ आ। ओयण-ओदनः कूरः । व्य० द्वि० १४२ आ । एकलाभिक-प्रधानं शिष्यं आशया गृह्णाति, शेषां स्त्वा. ओलहिज्जति- ।नि० चू० वि० १२५ आ। चार्यस्य समर्थयति स एक लाभेन चरतीति । व्य. ओहरिय-अपहृतः-अपसारितः । उत्त० ५८१ । प्र० २८६ अ। एकलाभिन-यदि भक्तं लभन्ते ततो न वस्त्रादीनि । व्यव० प्र. २८६ आ। कंक-पक्षिविशेषः । अनुत० ४ । एकचेलुगादि-काहादि । नि० चू० प्र० ५। कङ्कतिका । नंदी० १५२ । गंतं । ज्ञाता. १६७।। कच्चायण-कात्यायनं कतस्यापत्य काव्यः । नंदी० ४८ । एगंतमणावाए। ज्ञाता. १९७।। कटक: । नंदो० १६१ । एगचक्खु-काणः । प्रभ. १६२ । कटाह-कच्छपपृष्ठं भाजनविशेषः । अनुत्त० ६ । एगट्टिय-नौः । ज्ञाता० २२७ । कट्ट-खण्डम् । अनुत्त० ५। एगपञ्चवतारो-एकप्रत्यवतारः । (?)। कटकोलंबए-शाखिशाखानामवनतमनं भाजनं वा । एगपासग अनुत्त० ५। एगाइयाओ-एकत्र । आव० (?) । कडग-कबको वंशदलमथः । अनुत्त० ६ । एडए-एडक:-उतरूपः । उत्त० २७५ । कडजोगि-कृतयोगि-गीतार्थः । व्य० प्र०२४ बा। एण्हि-अधुना । पाव० (?) । कडालो-कटालिका-अश्वानां मुखसंयमनोपकरणविशेषः । एतव्वं । (१) । अनुत्त० ६। एति। (१) । कण्डक: ।वंदी. १६३। ( १२३६) । (?) । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिरे ] । अनुत० ७ । . कतिरेकनिया - कणिका - मध्यगण्डिका । नंदी ४४ । कन्नीरह-वर्णीरयः - प्रवहणविशेषः । ज्ञाता० ९३ । कपणवाइओ कम्पनपातिकः- कम्पनवायुरोगवान् । अनुत्त० ६ । कपप ढमते अल्पपरिचित से शान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० १ । नि० ० तृ० ११ आ । कपिआकपिअं - कल्पाकरूपप्रतिपादकमध्ययनं कल्पाक ल्पम् । नंदी० २०४ । earट्ठी - लघवी दारिका । पिण्ड० ६१ । कम्मपवायें - कम्प्रवादं कम्मं ज्ञानावरणीयादिकमष्टप्रकारं तत्प्रकर्षेण - प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशादिभिर्भेदः सप्रपञ्चं वदतोति कर्मप्रवादम् । नंदी० २४१ । कम्मभूमिअ-कर्मभूमयः-मरतपश्वकै रवतपञ्चकमहा विदेहपश्वक लक्षणाः पञ्चदशः । नंदी० १०२ । कयनास - मोक्खनासाच । आव ० २७४ । करगगीबा-वाटिकाग्रीवा । अनुत्त० ५ । करणं - क्रियाविशेषः । भग० ६२८ । पिण्डविशुद्ध घादिपिण्डविशुद्धिः समितिर्भावना प्रतिमाश्च इन्द्रियनिरोधः । प्रतिलेखना गुप्तयः अभिग्रहाचैव करणं तु । नंदी० ५० । क्रिया | नंदी० १९०, १६३ । करणसत्ती करणं क्रिया तस्यां शक्ति:-प्रवृत्ति: करणशक्ति: । नंदी० १९० । करवाल: कराल - उन्नतम् | अनुत्त० ६ । करीरं प्रत्यग्रं कन्दलम् । अनुत्त० ४ । करीलो-वंशजातिः । व्यव० प्र० २७८ मा । कलमल - चेतः क्षोभः । उप० मा० गा० ३१८ । कलाव-कलापः । जीवा० २५९ । कलुस - कलुषम् - मलिनम् । भग० ३०६ । कल्पा: | नंदी० १६५ । । व्य० दि० १७ अ । कल्याणकारिन्। ज्ञाता० ५५ । - कल्याण विजय मुनिविशेषः । ज० प्र० ५४५ । कवडं मनोमायः । उप० मा० गा० ४५६ । कसिण - कुरनं नाम यदापन्नं तत्सर्वमन्यून मनतिरिक्तं दीयते । व्य० प्र० ११८ आ । कहका - गायकाः मधुरस्वराः । प्रश्न० १५६ । [ कुवकुसा कोकटुक यस्य व्यवहारः कोकटुक माप इव न सिद्धिमु पयाति । व्य० प्र० ३१६ आ । काई किञ्चित् । उप० मा० गा० ४२४ । काकजंघा - काकजङ्घा - वनस्पतिविशेषः । अनुत० ४ । कागंदी-भद्रासार्थवाही वास्तव्या नगरी । अनुत्त० २ । भद्रासार्थवाही वास्तव्या नगरी । अनुत्त० ८ | काणको चोरितमहिषो । व्य० प्र० २८५ आ । काय औदारिकादिः । आचा० ४२ । कारक - हेतुः । नंदी० १६५ । कारण इं- कारणानि विवक्षितार्थनिश्चयस्य जनकानि । ज्ञाता० ११० । कारणिक: । नंदी० १५२, १५५ । का रेलक- वल्लीविशेष फलम् । अनुत्त० ६ । कालिक - कालेन निर्वृत्त कालिकं यहिवसनिशा प्रथम. पश्चिमपोरुषीद्वय एव पठ्यते तत्कालिकम् । नंदी० २०४ । कालिपोरि - काकजङ्घावनस्पतिविशेषपर्वः । अनुत्त० ४ । काशन्ते स्वभाव लभन्ते । भग० ७७६ । काष्ठ-श्रेष्ठीविशेषः । नंदी० १६६ । कासव - कश्यपस्यापत्यं काश्यपः । नंदी० ४८ । किणिका ये वादित्राणि परिणाति वाद्यानां च नगरमध्ये नीयमानानां पुरतो वादयन्ति । व्यव० प्र० २८५ अ । | नंदी० १५८ । किरिआ - क्रिया- कायिक्यादयः । नंदी० २४१ । किरिआविसालं - क्रियाविशालं क्रिया- कायिक्यादयः संयम. कियाच ताभिः प्ररूप्यमाणाभिविशालम् । नंदी ० २४१ । किरियवाइ-क्रियावादी- क्रिया- आत्मसमवायिनीं वदन्ति तच्छौला ये ते क्रियावादिनः । नंदी० २१३ । किल-कटः । भग० ६२५ । किलकिलायमान:किलेस - क्लेशाः कर्माणि । वृ० प्र० १२६ मा । कीवो-श्वा । उप० मा० गा० १३६ । कुंड - कुण्डं गङ्गाकुण्डादि । नंदी० २२८ । कुंडिया- कुण्डिका - आलुका । अनुत्त० ५ । कुंभ - ललाटम् । बृ० तृ० १३ अ । कुरकुसा - अतिगुविकाः । बृ० तृ० १९५ अ । १२३७ ) Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुच्छि ] आचायधोमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः [खंषबीय कुश्चिका कुच्छि-कुक्षिः-दिहस्तप्रमाणा । नंदो० ६६ । नंदी० १६५ । | कोप्पर । नि० चू० प्र० ३२ । कुट्टयन्तिका-तिलादीनां चूर्ण कारिकाः । ज्ञाता० ११६ । | कोमल-मृदुः । नंदी० ५२ । कुडिया । नि० चू० प्र० ७ अ ।। कोरंटग-वृक्षविशेषः । मग. ८०३ । कुडो । नि० चू० प्र० ६ अ । कोलिय-कोलिक:-तन्तुवायः । नंदी. १६५ । कुणपनखा-कुणपेमांसे सूक्ष्मो नखावयवाः। व्य० प्र० कोस-कोश:-स्थानम् । जीवा० २३२ । ३१६ आ। कौडम्बिकः ।नंदी०५६ । कुतपान:। नंदी० १६२ । कौलिक: . नंदी० १५५ । कुतवं ।नि० चू०प्र० १२६ अ । कौलिकी-कौसिकभार्या । नंदी. १५५ । कुत्थं मरि-कुस्तुम्भरि-बहुबीजकवृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । विखण्णो । नि० चू०प्र० २६४ ब। कुब्ज-यस्कूटमुपरि कुब्जाग्रवद कुब्जम् । नंदी० २२८ । । क्रयाणकम् । नंदी० १०५. कुमार-मोदकप्रियकुमारः । नंदी० १६६ ।। क्रीकारः-उपहासपूर्वकमुत्कृष्टः । ७० प्र० ५६ अ । कुर्वांता ।व्य० प्र०१८ अ । क्षुलक-आचार्य: । व्य० प्र० २९२ ।। कुलजुत्तीए-कुलौचित्त्येन । ध्य० प्र० २७६ आ। कुलस्थि-एकत्रकुले तिष्ठन्वीति कुलस्थाः । ज्ञाता० ११० । कुलधुया ।ज्ञाता०१०७ । खंज-पादविकलः । ६० द्वि० ११६ अ । कुलमाउया । ज्ञाता० १०७। खंजणं-दीपमलः । बृ० द्वि० ९२ अ । कुलवधुया । ज्ञाता० १०७। खंडरक्खा-हिंडिकाः । बृ० द्वि० १८० आ। कुलायो । नंदी० ५७। खंतो-पिता । बृ० त० ३२ । कुलितं-सुरद्वाविसते दुहत्थप्पमाणं कट्ट। नि० चू० प्र० | खंद-स्कन्दः-स्वामिकार्तिकेयः । आचा० ३२८ । स्कन्द:२२ । कात्तिकेयः । अनु० २५। कुवलय-मणिविशेषः। नंदी ५१ । खंदिलं-तगराचार्यस्य शिष्यः। व्य० प्र० ३१७ अ। कुसण-दासी । नि० चू० तृ० ५० था। खंध-स्कन्धः-एकस्य स्तम्भस्थोपर्याश्रयः । आचा० ३६२ । कुहर-जिनमण्डपादिरूपम् । नंदी०४७ । स्कन्ध-थुडम् । ठाणा० १८७ । स्कन्धः-शरीरावयवः । कूट-वचोमाया । उप० मा० गा० ४५६ । कूट-पर्वतो- आचा० ३८ । स्कन्दति-शुष्यन्ति धीयते च पोष्यन्ते स्योपरि । नंदी० २२८ ।। च पुद्गलानां विचटनेन चटनेन च स्कन्धः । उत्त. कूडजाल-कूट जालं प्रतीतं बन्धनविशेषः । उत्त० ४६० ।। ६७३ । स्कन्धः-अर्द्ध पकारः । आचा० ३४४ । स्कन्धःकूडा-कूटा:-पर्वताः । जं० प्र०३५३ । समुच्चयः । ठाणा० ५२७ । कूडवालक-मुनिसुव्रतस्वामिपादुकोत्सातको मुनिः । नंदी० खंधकरणो-कुडभकरणी साध्व्युपकरणम् । वृ० वि० २५३ १६७ । कूविया-कुढिया । नि० चू० प्र० ७७ अ । खंधग्गी-स्कम्धाग्निः-महत्कणं प्रज्वाल्याग्निः । व्य. प्र. कृपारीतचेता-कृपावन्तः । नंदी. १५६ । १०१ आ । कोटु कोष्ठ इव कोष्ठः अविनष्टसूत्रार्थधारणमित्यर्थः । खंधजात-स्कन्धजातम् । आचा० ३४९ । नदी. १७७ । खंधबीय-स्कन्धबीजः-सल्लक्यादिः । ठाणा० १८७ ।। को पडविसेस-क:प्रतिविशेष:-प्रतिनियतो विशेषः। नंदी. स्कन्धबीज-सल्लल्यादि । आचा० ३४६ । ( १२३८ ) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंधार] अल्पपरिचितसेवान्तिकशम्बकोषः, मा० ५, परि० १ घंधसाला खंधार-स्कन्धावार:-अशेषखेडायु पलक्षितः। उत्त० ६०५।गृहपङ्क्ती भिक्षामटति सा । द्वितीया गोचरभूमिः। ६० स्कन्धावार:-कटकनिवेशः । ठाणा० ४४९ । प्र० २५७ ब। खउरकठिणयं-ख उरकठिनक-तापसानो भोजनादिनिमि.| गम-पाठः, वाचनाविशेषः । ज्ञाता. ३१। त्तमुरकरणविशेषः । विशे० ६३२ । गमण-आसेवनम् । आव०८२३ । खउय । नि० चू० प्र०६८। गमा:-सूत्रप्रकारा ज्ञातव्याः । (?)। खद्वा-लघुपयंङ्किका । आचा० ६० । गयाणीयं-गएहि बलदरिसणा गयागीयम् । नि. चू० द्वि० खरडग-पारसाकंबला । नि० चू• प्र० २५५ छ । ७१ अ। खलइंसु-स्खलितवन्त:-निपातितवन्तः । बाचा० ३१२। | गरुलपक्खं नि० चू० प्र० १९१ व । खलिका ।बृ.प्र. १०१ अ। गह-ग्रहः राहुः । प्रभ. ३६ । खवपुसा-चक्कपादिगा। नि० चू०प्र० १३६ आ। गहदंड-दण्डा इव दण्डाः तिर्यगायताः श्रेणयः गृहणाखाडहिला-पाडहिला । नंदी० १४८ । मङ्गलादीनां त्रिचतुरादीनां दण्डाः गृहदण्डाः भिग० १९६। खाणुसमाण-यस्तु कुतोऽपि कदाग्रहान्न पीतार्यदेशनया | गहनं -गुपिलम् । नदी० ४२ । चाल्यते सोऽनमनस्वभावबोपत्वेनाप्रज्ञापनीयः स्थाणु- गारव-गौरवं अशुभाध्यवसायविशेषः । प्रभ० ६२ । समान: । ठाणा० २४३ ।। गारी-क्षत्रियाविकः । सूर्य० १४३ । खिसति-खरण्टयति । बृ० प्र०६८ बा। गिहेलुको-घूणा । नि० चू० द्वि० ८३ आ । खित्तं-इन्द्रकोलादिशून्यं ग्रामादि । बृ• तृ० ३६ अ। गुणरयणं-तपविशेषः । अनुत्त० १ । खित्तचित्तं-रागभयापमानष्टचित्तम् । बृ० तृ. २३० अ । गुणसिलए-राजगृहे चैत्यम् । अनुत्त० १, ७ । गुणसोल: खित्तचित्ता-अपमानेनोन्मत्ता । बृ० द्वि० २१० अ । ग्रामविशेषः । उत्त० १६२ । खुज-कुब्जकरणी । बृ० प्र० ३१४ अ । गूढदंत-अनुत्तरोपपातिके द्वितीयवर्ग चतुर्थममध्ययनम् । खुण्ण-विषण्णम् । बृ० द्वि० २०५ आ । अनुत्त० २ । खुरखुरओ-धर्ममयभाजनं वाद्यम् । बृ० दि० २१६ ।। | गोतमसामी-अनुत्तरोपपातिकेऽतिदेशः । अनु० ३ । खुभियं-कलहः । बृ० द्वि० १६ । गोत्त-अपत्यसन्तानो गोत्रम् । नंदी० ४६ । खुलओ-घुटक: जानुरित्यर्थः । बृ० तृ० १६२ मा। गोपालादीकम्म- । नि० चु० वि० ४४ अ । खेलेल्ड-खेलयेद् । बृ० प्र० २३२ आ। गोपेन्द्रदत्तं-तगरायामाचार्यस्य शिष्यः ।व्य० प्र० ३१७ अ। खोमिय-क्षौमिकम् । सूर्य० २९३ । गोलावली-गोलका वर्तुलाः पाषाणादिमयाः । अनुत्त०५। खोल-किट्टविशेषः । बृ० प्र. २६८ अ । गोलिया-अहिलोडिका हिंसकजीवविशेषः । बृ• तृ. खोला-गोरसमावितानि पोतानि । बृ० प्र० १०. आ। १९१ अ । सोसखोला । बृ० द्वि० १०२ अ । गोसे-उदियमादिच्चे । नि० चू० तृ० ७७ अ । ग्रन्थविच्छेदविशेषः-वस्तु । नंदी० २४१ । गंडो-गण्डमादिकः । बृ० प्र० १७० । ग्रहणं-सूत्रम् । व्य० प्र० २८२ आ। गणान्तरस कमण-षण्मासान्तर्गणाद् गणान्तरसङ्कम ग्राहकः-ग्राहयतीति । व्य० प्र० ३१७ आ । णम् । अष्टमः शबलः । प्रभ० १४४ । गणी-उपाध्यायः । ६० प्र० १७७ आ। घंघसाला-जा अतिरित्तबसही बहुकप्पपडिसेविता यः सा गत्याप्रत्यागतिका-यत्र पुन रेकस्यां गृहपकतो परिपाट्या घंघसाला । नि० चू० तृ०७४ अ । नि० चू०प्र० १०६ भिक्ष्यमाणः क्षेत्रपर्यन्तं गत्वा प्रत्यागच्छन् पुन द्वितीयस्यो। आ । ( १२३९ ) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घट्टमट्ठ] माचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [छट्ठाण घट्टमट्ठ । भग० ५४० । | चार्वाक:-चर्वणशीलः । ध्य. प्र. ३१६ मा । घडं-अच्यत्यमलिनमित्यर्थः । नि० चू० द्वि० ११९ ।। चित्त-चित्तशब्देन किलिञ्जादिकं वस्तु । अनुत्त० ५। घणकुड्डा-पक्किट्ठगादि घणकुड्डा। नि० पू० प्र० २६७ अ । | चित्रप्रसुप्तिः-अस्पन्दने द्वितीयो भेदः । ध्य. द्वि० १९. घत्थं-ग्रस्तं-आपूरितम् । बृ० द्वि०२४१ अ । धय ।नि० चू० प्र० ३३२ आ। चियत्तदेहे-परीषहादिसहनत: त्यक्ते देहे । ठाणा० घयगोलिया । नि० चू० प्र०२४४ ।। ४६४। घयपुस्समित्तो-घृतपुष्पमित्रः आयरक्षितगच्छे मुनिः । चियाए-त्यागः-तत्र लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधिता भावतो आव० २०७ । गौरवत्यागः, सर्वसङ्गानां संविग्नः मनोज्ञसाधुदानं वा। घयमहूसंजुत्तं-धृतमधुसंयुक्तः । आव० २८८ । सम० १७ । घोटककंडूयिय-घोटककडूयितं नाम यथा वारंवारेण | चोणपिढ । दश० चू० २३ । परस्परं प्रच्छन्नं तत् घोटकयोः परस्परं कण्डूयितमिव | चुंबिता । नि० चू० प्र० ११३ अ । घोटककडूयितम् । व्य०द्वि० २१ । चुना-सुहुमाभेदकता । नि० चू० द्वि० ५० मा। चेटिका विशे० १००६ । चंदिमा-अनुत्तरोपपातिके तृतीयवर्गे षष्ठममध्ययनम् ।। चेलकण्ण-वस्त्रकणंः । आचा० ३४५ । अनुत्त० २ । चेल्लय-क्षुल्लकः । दश० १०२ । चउप्पय-चतुष्पदं-हस्त्यश्वमहिष्यादि । आव० ८३६ ।। | चोक्षः- स्वल्पस्यापि शङ्कितमलस्यापनयनात् । जीवा० चक्कभमे- ।नि० चू० प्र० ३४६ मा । २४३ । चक्कलीकरणं-उज्जुय उम्मप्फालियकरणं तरियं वा चोदक:-उपपन्नप्रनकारी । व्य० प्र० ३१ आ । चकलीकरणं । नि० चू० द्वि० १५१ आ। चोलपट्टो-अग्रपुरः । व्य० द्वि० ६१ अ । चक्कियासाला-चक्रिकाशाला-तोलविक्रयशाला । व्य० च्छंदना-पूर्वगृहीते नानशनादिनो साधूनामम्पर्थना । बृत द्वि० ३४० अ । प्र. २२२ । चक्खभिया-दर्शनभीता:-दर्शनादेव भीताः दर्शनभीताः । | च्छ डिय-छटिता-निस्त्वचिता । जं० प्र० ५७ । आचा० ३०२ । च्छरु-सरुः खड्गादिमुष्टिः। जं० प्र० १०१। चत्तदेहो-स्यक्तदेहः-सप धुपद्रवेऽपि नोत्सारयति अक्षिमल-च्छलत्थ-षडर्थः । विशे० ४२६ । दूषिकामपि नापनयति । ओघ० १७५।। च्छाए-छाया-आकारः । जं०प्र० २८ । चन्द्रगुप्त- । व्य० प्र० ३१६ आ। च्छाता-बुभुक्षिता । ध्य. द्वि० २.२ आ । चय-पिण्डोभवनम् । अनु० २६५ ।। च्छिवाडीय-पुथगपणमे चउत्थं । नि० चू०प्र० १८१ । चल-चलो नाम मुहर्तमात्रेण गन्ता । व्य.द्वि.१४६ अ। च्छीरबिरालि ।भग ८०४॥ चवेड-चपेटा-चापेटी विद्या, यया अन्यस्य चपेटायां दीयमानायामातुरः स्वस्थो भवति सा चापेटी। व्य० द्वि० | छकोडोए-षट्कोटोकः । जीवा० २३१ । १३३ आ । | छगणिया-पोमयप्रतरः । अनुत्त० ५ । चाउलधोवणे-संदुलधावनम् । ठाणा० १४७ । छज्जीवणिया-षड्जीवनिकायिका-एतन्नामाध्ययनम् । दश. चाहूं-(शीवचनम्) अनशनम् । व्य० प्र० १५५ आ।। १३७ । चाणक्य । व्य०प्र० ३१६आ। छद्राण-षट्स्थाना प्राणातिपातादिलक्षणा । मोष. चारग चारग:-कुड्यकुट: । प्रभ० १६ । । २२४ । ( १२४०) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छडिया ] छबडिया - सादडी । नि० चू० प्र० ४२ अ । छन्नाल- पटनाल:- त्रिदंड: । बृ० प्र० ५१ अ । छप्पर - षट्पादिका - यूका । आव० ५७४ । छप्पए - छम्बकः- वंशदलमयम् । व्य० द्वि० ३५२ अ । छप्पति- जुवा । नि० चू० प्र० ५८ आ । छन्मा सायंक विज्वप डिसेहो - षण्मासातङ्को-दाहज्वरात्मको रोगः षण्मासातङ्कः तत्र वैद्यैः - भिषग्भिः प्रतिषेधोनिराकरणम्, अचिकित्स्योऽयमित्यभिधानरूपः षण्मासातडूवैद्यप्रतिषेधः । उत्त० ३०४ । छलं - यत्राऽनिष्टस्याज्यन्तिरस्य संभवतो विविक्षितार्थोपघातः कर्तुं शक्यते तत् । विशे० ४६४ । छलंसे - षडस्रिकः । जीवा० २३१ । छविच्छेओ - छविच्छेदः - हस्तपादनासिकादिच्छेद इति । अल्पपरिचितसेद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० १ आव० ११४ । छिन्नमंडयो - छिन्नमण्डपः । व्य० द्वि० १३१ आ । छिरा - शिरा - नाड्यः । भग० ४६९ | व्हारुणि । नि० चू द्वि० १४० आ । छिवाडी-सेंगा । दश० चू० ८६ आ । छेवसंघयण- परस्परपर्यन्तमात्र संस्पर्श लक्षणां सेवाभागानि अस्थीनि निश्यमेव स्नेहाभ्यङ्गादिरूपां परिशीलमाकाक्षति तत्सेवासंसंहननम् । प्रज्ञा० ४७२ । ज जंत - यन्त्र - जलयन्त्रादि ठाणा० ४६३ । यभ्त्रं- इक्षुपी डनयन्त्रम् । जीवा० १२४ । यन्त्र-यंत्ररूपकपाटादि । पिण्ड० १०६ । यन्त्रं - सञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपः । भग० ४७८ । जंतकम्म - यन्त्रकर्म - बन्धनक्रिया । मग० ४८१ । जंति-यति-यस्मिनु । उत्त० ५०७ । जइ - यति:- धर्मक्रियासु प्रयत्नमान् । भग० ४६० । यदि । व्य० द्वि० १७५ मा । जुइम - बुतिमान् - संयमो मोक्षो वा । माषा० २७४ । जुई - बुतिः इष्टार्थसंप्रयोगलक्षणा । जीवा १६२ । जए - पतेत - संयमयुक्तः भवेदित्युपदेशः । आचा० ३२६ । यतः- अप्रमादी । आचा० १६१ । पापस्थानेभ्य उपरतो यतः । उत्त० ३४१ । अल्प १५६ [ जमल जओ - यतत इति यत: - यस्नवान् । उत्त० ३५७ । जक्ख - यक्षः - देवः । ठाणा० ३२८ । यक्षः - व्यन्तर- विशेषः । उत्त० ३५९ । यक्षः-श्वा । ओघ० १३६ । यक्षो-देवः । भग० ६३५ । उत्त० २५१, २५२ । जक्खलिते - यक्षा लिप्तं एकस्यां दिशि अन्तरान्तरा यद् दृश्यते विद्युत्सदृशः प्रकाशः । व्य० द्वि० २४१ अ । जक्खसलोगया-यक्षा: - देवाः समानो लोकोऽस्येति सलोकस्तद्भावः सलोकता यक्षः सलोकता यक्ष सलोकता । उत्त० २५६ । जवखा इट्ठे-यक्षाविष्टः - देवाधिष्ठितोऽयं तेनाक्रोशतीत्यादि । ठाणा० । ३०५ । यक्षाविष्ट:- पिशाचगृहीतः । ओष० १६३ । जक्खादित्ता यथादीसकं नभोदृश्यमानाग्निपिशाचः । अनु० १२१ । जक्खावेस - यक्ष | वेश: - देवताधिष्ठितत्वम् । ठाणा० ४७ ॥ यक्ष:-देवस्तेनावेशः प्राणिनोऽधिष्ठानं यक्षावेशः । भग० ६३५॥ जगण विहडणा- कदर्थनविबाधा । उ०मा० । जणवय - जनपद: - ग्रामवासी । बृ० प्र० १५५ अ । जण्ण-यज्ञ: - यूपरहितस्तु दानादिक्रियायुक्तः । विशे० ७८५ । जतिदोस- यतिदोषः - अस्थानविरतिः सर्वथाऽविरतिर्वा । अनु० २६२ । जन्तत्यं - यात्रार्थं - संयम निर्वाहणार्थम् । उत्त० ४२९ । जत्ता - यात्रा - देशान्तरगमनम् । ठाणा० २०३ ॥ जत्ताठाणं - यात्रास्थानं-यत्र लोक उद्यानका दियाrया गच्छति । बृ० प्र० १४६ आ जन-यज्ञ: - यागः । उत्त० ३१४ । जमइए - यमकीयं - यमकनिबद्धसूत्रम् । सम० ३२ । जमगस मग - यमकसमकं - युगपत् । भग० ४७६ | जं० प्र० ३९७ | यमकसमकं -- एककालम् । जीवा० २४५ । जमजम्न - यमा:- प्राणातिपातविरस्यादिरूपाः पश्व त एक यशो - भावपूजात्मकत्वाद्विवक्षितपूजां प्रति यमयज्ञः । उत्त० ५२२ । जमल - यमलं - समश्रेणीकम् । भग० ४७८ । अनु० १७७ । यमलं- समानजातीययोर्ल तयोर्युग्मम् । जीवा० १५२ । थमल - समश्रेणीकम् । ज्ञाता० ४२ । ( १२४१ ) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय ] जय-यत: - बारम्मादुपरतः । उत्त० ५४४ । यतः- यत्नवान् । ओष० ३७ । जयणा-यतः - तदनुष्ठानादरकरणरूपा । उत्त० ५२१ । जयमाण- यतमाना:- सविग्नाः । व्य० प्र० ५४ आ । जय - यव:- यवनालकः - कग्याचोलकः । खा० ४१ । जवजवा-यवयवा - यवविशेषाः । ठाणा ० १२४ । जवणा-यापनार्थ - शरीरसंधारणार्थम् । बोध० १८९ । जवणा-यापना- निर्वाहः । उत्त० ६६८ । जवणिज्जं - यापनीयं - मोक्षाण्यनि गच्छतां प्रयोजक इन्द्रि यादिवश्यतारूपो धर्मः । भग० ७५६ । जवमज्भे- यवमध्या-यवस्थेव मध्यं यस्याः सा । ठाणा० ६५ । यवमध्या या यववत्ति-कवलादिभिराद्यन्तयोहीना मध्ये च वृद्धेति । ठाणा० ११५ । यवमध्या - मध्यमावगाहना । उत्त० ६८३ । जवस - यवसं - गोधूमादिधान्यम् । बाचा० ३८१ । यवसं मुद्गमाषादिः । उत्त० २७२ । जवा। नि० पू० प्र० २७२ मा । जवोदगं -यवोदकं । आचा० ३४६ । यवोदकं यवप्रक्षालनं पानीयम् । उत्त० ४१६ । जवोदण-यवोदलम् - यवभक्तम् । उत्त० ४१९ । जसंसिनो - यशस्विनः श्लाघान्विताः । उत्त० २५२ । जसं सी - यशस्विनः पराक्रम प्राप्य प्रसिद्धि प्राप्तत्वात्। सभ० १५६ । जस- यशः - प्रख्यातिः । ठाणा० ११६ । यशः- पराक्रमकृत यशः । ठाणा० १३७ | यशः - सर्व दिग्गामी प्रसिद्धिविशेषः । भग० ५४१ | यश:- सामान्येन स्थातिः । प्रज्ञा० ४७५ । यशः - सर्व दिग्यामिनी प्रसिद्धिर्यशः । भग० ४८६ । यश:सर्व दिग्गामप्रख्यातिरूपः । भग० ६४३ । यशः-कमकृता प्रसिद्धिः ! उत्त० २६४ । जसस्सि - यशस्वी - कीर्तिमान् । आचा० ३६४ । जसो किचिणाम- तपःशीर्यत्यागादिना समुपार्जितेन यशसा कीर्तन - सशब्दनं यशः कीर्तिः, यश:- सामान्येन स्थातिः की:- गुणोत्कीर्तनरूपा प्रशंसा, अथवा सर्वदिग्गामिनी पराक्रमकृता वा सर्वजबोस्कीर्तनीयगुणता यशः एकदेश गामिनी पुण्यकृता वा कीर्तिः ते यदुदयवशाद्भवतस्तद्यश: आचाय धीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित : कीर्ति नाम । प्रा० ४७५ । जहाफुडं - यथा स्फुटम् - सत्यतामनतिक्रान्तमवितयमिति । उत्त० ४५९ । जहाजायं यथाजातं - श्रमणत्वभवनलक्षणं जन्माश्रित्य योनिनिष्क्रमणलक्षणं च । सम० २४ । महाथाम - यथास्थामं स्वसामर्थ्यानतिक्रमेण ६०६ । [ जाया I ( १२४२ जहानामए - यथानामकः - यथासम्भवनामधेयकः । नंदी० १७६ । यथानामकः - यत्प्रकारनामा ! अनु० १७६ । जहासुत्त सूत्रं - आगमस्तदनतिक्रमेण यथासूत्रं आगमाथिहितोद्गमेषणाद्यबाधातः । उत्त० ६६७ । जागरणं- यजन करणं । नि० चू० द्वि० ८७ अ । जाण - यान्त्यनेन मोक्षमिति यानं चारित्रम् । आचा० १७२ । यानं शकटादि । ठाणा० २४० । यानं गन्त्र्यादि । अनु० १५९ । यानानि - शिबिकादीनि । उत्त० २६१ । जाणविमाण - यानाय गमनाय विमानं यानविमानम् । ठाणा २५० । यानविमानं-यानं गमनं तदथं विमानं, यायतेऽनेनेति यानं तदेव वा विसानं यानविमानं पारि यानिकमिति । सम० ६ । जाणसाला - यानशाला:-यत्र यानानि निष्पाद्यन्ते । आचा० ३६६ । जात्यसुवर्ण| नंदी० १५७ ॥ जार्नागहाणि यानगृहाणि रथादीनि यत्र यानानि तिष्ठति । आचा० ३६६ । जाम - यामो- रात्रेदिनस्य च चतुर्थभागो यद्यपि प्रसिद्धः तथाऽपीह त्रिभाग एव विवक्षितः पूर्व रात्र मध्यरात्रापररात्रलक्षणः । ठाणा० १२८ । जामा-यम्यते - उपरम्यते संसारभ्रमणादेभिरिति यामा:ज्ञानदर्शनचारित्राणि । आचा० २६९ । यामा - व्रत विशेषाः, वयोविशेषः । आचा० २६९ । निवृत्तयः । ठाणा० २०२ । जायगयाजकः यष्टा । उत्त० ५२३ । जायणजीबिण याचनजीविनं याचनेन उत्त० जीवनशील म् । उत्त० ३६० । जाया - यात्रा - संयमयात्रा । ज्ञाता० ६१ | यात्रा - संयमन यात्रा | नंदी० २१० । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायामाया ] अल्पपरिचितसैदान्तिकशब्दकोषः, मा० ५, परि० १ । जोग जायामाया-यात्रा संयमयात्रा तस्यो मात्रा यात्रामात्रा । जुत्ति-द्युति: शरीरामरणादोनाम् । ठाणा० ११६ । बाचा० १६६ । जुत्तिलेव-युक्तिलेपः । ६० प्र० ८२ अ । युक्तिलेपा-पाषाजालि-अनुत्तरोपपातिके प्रथमवर्गे प्रथममध्ययनम् ।। णादि: खञ्जनलेपश्रा । ओघ० १४५ । युक्तिलेप:-प्रस्तराअनुत्त. १। दिरूपः शरिकालेपो वा। ओघ १४५ । जालीकुमारो-श्रेणिकधारिण्योः पुत्रः । अनुत्त० १। जुत्ती-बुति:-प्रमा महात्म्यमित्यर्थः । ठाणा. ३५४ । जावंतिया-यावतिको । बृ० प्र० ६३ आ। द्युतिः शरीकान्तिः । उत्त० २८४ । युक्ती: द्रव्यसंयोगान् जावकहिया-यावस्कथिकाः ये तु जिनकल्पं प्रतिपद्यन्ते । हेतून्वा वेत्ति । आचा. ४१६ । ते । बृ० प्र० २२७ मा । जुद्धकित्तिपुरिसा-युद्धजनिता या कीत्तिस्तत्प्रधानः पुरुषाः जा सा सा सा-या सा सा सा । आव०६५ । युद्धकात्तिपुरुषाः । सम० १५७ । जिअसत्त-काकंचांनुपतिः । अनुत्त० २। जुद्धनीती-योधानां-शूरपुरुषाणां योत्पत्तिरावरणानां-सन्ना. जिणसण्णिगासं-जिनसन्निकाशं-जिनसमीपम् ।आव० ११॥ दाना-प्रहरणानां खङ्गादोना सा युद्धनीतिः व्यूहरचनादिजीवं जीव-जीववीर्यः नतु शरीरवीर्यः । अनुत्त०७।। लक्षणा। ठाणा० ४५०। जुगए-जुङ्गितं खण्डीकृतं । व्य० द्वि० २०४ । जुम्म-युग्म-समराशिविशेषः । मग. ७४३ । बुंगित-पारदारिकादिभिरपराधः प्रवजितो जुंगति इति । | जुयल-युगलं-द्वयम् । ज्ञाता० ४२ । युगल-दयम् । अनु० व्य० द्वि० ३२६ अ । १७७। मुंजणता-योजनता-करणम् । ठाणा० ४०६ । जुबरायाणि-युवराजानि-यत्र नाद्यापि राज्याभिषेको जुगंतकरभूमो-पुरुषयुगं तदपेक्षया अन्तकराणां-भवान्त- भवति । आचा० ३७८ । कारिणां निर्वाणगामिन्यमित्यर्थः, भूमि:-कालो, युगान्त-जूआ-छप्पती। नि० चू० प्र० ९८ अ । करभूमिः । ठाणा. १७८ । जूमा-कुक्खिकिमिया । नि० चू० प्र० १८६ आ। जुग-युग-पञ्चवर्षमानं कालविशेषः लोकप्रसिद्धम् । ठाणा० | जूवतो-चंद्रः संध्याच्छेदावरुणः सयपकः। व्य• दि० २४१ १७८ । युगं-चतुहस्तप्रमाणम् । बोध० १२७ । जुगमाया-युगमात्रं-चतुर्हस्तप्रमाणं शकटोदिसंस्थितं भू. जूत-यूष:-मुद्गरसः । वृ०० २३४ आ। मागम् । अाचा० ३७७ । जूसमंडा-(?) । व्य. दि. ३५१ हैं। जुगमित्त-युगमात्रं चतुर्हस्तप्रमाणम् । उत्त० ५१५। जूह-यूथं-दृद्वं वधुवरांदिकं । आचा० ४१३ । यूथं-पदानो जुगलिआ-युगलिताः समवेणिस्था: । मोघ० १२२ । पदयोर्वा समूहः । ठाणा० ४९५ । जुगुंछिता-अस्पृश्याः । नि० चू० प्र० १९६ आ। जेकेह-ये केचित--सामस्त्योपदर्शकम् । उत्त० ३१३ । जुग्ग-युग्य-वाहनमश्वादि । ठाणा० २४०। जेट्टो-ज्येष्ट:-अग्रणीभूय चिंतनिका कारयति स इह ज्येष्टा। जुत्त-योत्रं-तथाविधसंयमनम् । उत्त० ५४८। युक्तं सङ्घतं | बृ.प्र. १२९ अ । समग्रसामग्रीक पूर्वकालापेक्षया वा । ठाणा. २४० । जोइए-यौगिको-प्रशस्तयोगवन्ती-प्रशस्तसदृशस्वात् । भय. युक्त-योत्रितवलीवर्दम् । ६.३० ७९ मा । युक्तो योग्यः । ४५६ । वृ० प्र०६३ अ । युक्त:-उचितः । अनु० ८। युक्त:- | जोए-योगः-व्यापारः । बोष० ७१ । - यत्नवान् । बोष० ११३ । युक्तं-सहितम् । अनु० २६२। | जोएइ-योजयति-योक्त्रयति । उत्त० ५५१ । योजयतियुक्तानि-अन्वितानि । उत्त० ३४२ ।। प्रवर्तयति । दश० १०६ । जुत्तजुगभंज-योत्रं-तथाविधसंयमनं युगं प्रतीतमेव ते भुन- जोएति-योजेति-कूर्वति । सम० १४। क्ति-विनाशयति योत्रयुगमनः। उत्त०५४८ । जोग-योमः-सम्बन्धः, स च य यद्यपायोपेयभावलक्षणो ( १२४३) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोगवाहियत्ता] आचार्यश्रीमानम्बसागरसूरिसङ्कलित: [ झाणविभत्ति - म यदुतानुयोग उपायोऽर्थावगमादि चोपेयमिति तदा स | योनि:-जाति: । ठाणा. ३९५ । युवन्ति-तेजसकार्मणअयोजनाभिधानादेवाभिहित इत्यवसरलक्षणः सम्बन्धः ।। शरीरवन्तः सन्त औदारिकशरीरेण वैवियशरीरारेण वाजठाणा०१। योयः-व्यापारः, सूत्रस्यार्थप्रतिपादनरूपः ।। स्थिति । योनय:-जीवानामेवीत्पत्तिस्थानानि । नंदी०८। ठाणा ३ । योगः-वीर्यान्तराय क्षयक्षयोपशमसमुस्थलब्धि. जोणोपमुह-योनिप्रमुखानि-उत्पत्तिस्थानप्रभवानि । सम० विशेषप्रत्ययममि सन्ध्यनभिसन्धिपूर्वमात्मनो वीर्य योगः।। २६ । ठाणा० १०६ । योग:-वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमजनितो | जोत्तरज्जुयजुग-योक्त्र रज्जुकायुग-योक्त्राभिधान रज्जुकाजीवपरिणामविशेषः । ठाणा. १०७। योग:-करण- युग्मम् । भग ४५६ । कारणानुमतिरूपो व्यापारः। ठाणा० १०७ । योग:- जोसिया-जोषित्वा-प्रोतयित्वा । व्य० द्वि. २०० । सुत्रस्याभिधेयाचं प्रति व्यापार । गणा० ४८।। योग:- जोह-युध्यतीति योध:-सुभटः । उत्त० ३५० । योषस्थानं सिद्धस्योदितिः। आव० २९ । योग:-मनोवाक्कायविषयं आलिढादि । उत्त० ६१६ । वीर्यम् । अनु० २४० । योगः-अलब्धस्य लामो योगः । हा-योधा:-सहस्रयोधादयः । भय ४६३ । उत्त० २८३ । योजनं योग:-व्यापारः समाधिः। उत्त० | जोज्ञानविसंवादयोगः अकालस्वाध्यायादिना । आव. ३४७। योग:-उपधानादिरूचित्तव्यापारः । उत्त०७१३।। ५८० । योग:-घटना । ओघ० १८ । व्यापारः । ठाणा० ४०६ । योग-कायादि । ओघ २२० । योप:-अञ्ज- | झंपणा-स्थागना: । बृ०४० ८८ अ। नादिः । आचा० ३५१ । योग:-शुभमनोवाक्काय- | झर-ध्वज: कल्पपालः । बृ० तृ० २११ आ। व्यापारः । उत्त. २६६ । योगः-पृथगे झय-ध्वजोत्सवः । भाव. १५७ । ध्वजः-चक्रसिंहादिलाञ्छव्यापायः । उत्त० २९६ । योग:-ग्लानयावृत्त्यादि नोपेतः । भग. ४७६ ।। व्यापारः । भय० ३१ । योगा:-बन्धाध्यवसायस्थानः। झरणं-स्मरणम् । ६० तृ० १७० अ । बाचा० १०२ । झवण-ध्यापनं-उपशमश्रेण्या कर्मानुदयलक्षणं विध्या, जोगवाहियत्ता-योगेन-समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वलक्षणेन | | पनम् । आचा० २६८ । वहतीत्येवशीलो योगवाही तद्भावस्तत्ता-योगवाहिता । | झांझगदेव-पृथ्वीपरपुत्रः । (१) १८८ । ठाणा० ५१४ । योगवाहिता-श्रुतोपधानकारिता । ठाणा. झाणंतर-ध्यानयो:-शुक्लध्यानद्वितीयतृतीय भेदलक्षणयोर११४ । स्तरं-मध्यं ध्यानान्तरम् । ठाणा० ४६५ । ध्यानान्तरंजोगवाहिया-योगवायिता-श्रुतोपधानकारित्वं समाधिस्था- अदृढाध्यवसायरूपा चिन्ता । वृ०प्र० २५५ आ। यिता वा । ठाणा० १२० । झाण-ध्यातिदंघानं-एकाग्रचिन्तानिरोधः । ठाणा० ३६५। जोगसच्चं-योगसत्य-योगाना-मनःप्रभृतीनामवितथत्वम् । १२ । ध्यातयो ध्यानानि-अन्तर्मुहूर्त्तकालं चित्तस्थिरता सम. ४६ । मनःप्रभृतीनामवितथत्वम् । प्रभ. १४५ । लक्षणानि । ठणा० १८८ । ध्यानम्-अर्थविषय एव जोगा-योगा-उपधानानि । व्य० प्र.६ अ। योगा मानसाविण्यापारणम् । उत्त० ५३६ । ध्यान-अचंचितपादयलेपप्रभृतयो गगनागमनादिफलाः । बु. प्र. २०३ नात्मकम् । व्य० प्र० १७१ आ । ध्यान-अन्तमहत्तं यावञ्चित्तस्यै काग्रता योगनिरोधश्च ध्यानम् । सम०१ । जोगी-योगी-महावंद्यः । ६०प्र० १६० । ध्यान-सूक्ष्मसूत्रार्थलक्षणं क्षितिवलयद्वीपसागरमवनादिया। नोगे-योगत:-संबन्धतः । ठाणा० ४६० । उत्त० ५३८ । जोग्ग-योग्या-गुणनिका । मग. ५४२ । झाणविमत्ति-ध्यानानि-आर्तध्यानादीनि तेषां विभजनं जोजो-योनि:-जीवस्योत्पत्तिस्थानम् । ठाणा. १२१ । । विभक्तिर्यस्यां ग्रन्थपद्धती सा ध्यानविभक्तिः । नदी० २०५। (१२४४) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झामण ] कामण-ध्यानं - प्रदीपनकम् । व्य० प्र० १९० छ । दाहः । व्य० प्र० १२० था । कामिए- ध्यातो- दग्धो व्यामितो वा ईषदृग्धः । भग० अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५, परि० १ ६८३ । कामियं दतं । नि० चू० प्र० १४१ अ । काया - ध्याता, चिन्तिता, अभिलषिता । उत्त० ३६५ । झियमाई - ध्यायेत् कुर्यात् । उत्त० ५३६ । 어 अनु० ३ । ठासवडतो -सन्मुखं तिष्ठ । उ० ५२-१३ | ठाणं - इत्थी अच्छणठाणं । नि० चू० प्र० १०६ आ । स्थानं आश्रयः । धाचा० ८८ । स्थानं आश्रयः कामगुणः । आचा० १६ । स्थानं-इष्टानिष्टविषयगुणभेदेन व्यवस्थितो गुणरूपः संसार एव । आचा० ९९ । स्थानं निषद्या । ठाणा. ४४५ । स्थानं वस्तु । ठाणा० ३५५ । स्थानंपरिहारसेवाश्रयवस्तू । सम० ३६ । स्थानं स्थानम् । ठाणा० ३७३ । स्थान:- भेदः । ठाणा० ३०२ । स्थान:आश्रयः कारणम् । सम० ११ । स्थानं कायोत्सर्गः । ठाणा० २६८ । स्थानं-ऊर्द्धस्थानं कायोत्सर्गादि । ठाणा० ४०९ । स्थान:-आश्रयः त्रसस्थावर कायलक्षणः ठाणा० १०१ । स्थानं प्रदेशः । आचा० २९४ । स्थानंनिमित्तम् । सम० ५२ । स्थान:- गुणः । ठाणा० ४४ । स्थान:- कारणः । ठाणा० ६३ । स्थानः- कारणः । ठाणा० ८६ । स्थान:- कारणम् । खोष १८९ । स्थानक :आख्यानादिक्रियाविशेषलक्षणः । ठाणा० २६६ । स्थानक:नारकत्वादिः पर्यायः । ठाणा० २८६ । स्थानं वस्तु । ठाणा० ४४१ । स्थान:- प्रकायः । ठाणा० ५२१ । स्थान:वस्तू 1 ठाणा • ४६ । स्थानं - आश्रयः भेदः । सम० १४ । स्थान - प्रकार: । ठाणा० ६१ । स्थानं-आश्रयभेदः पर्यायो वा । सम० ३८ । स्थानं हेतुः । ठाणा० ३८६ | स्थान:- भेदः । सम० ४० । स्थानं तिष्ठति यस्मिनु कर्मकृद्विकाररहितत्वेन सदाऽवस्थितो भवति तत्स्थानं क्षीणंकर्मणो जीवस्य स्वरूपं लोकाग्रं वा । सम० ५ । स्थानंकायोत्सर्गोपवेशनशयन भेदात् त्रिरूपम् । सम० १०७ । तिष्ठत्यस्मिन्नु नातः परं गच्छतीति स्थानम् । उत्त० ३१६ । स्थान:-आश्रयः कारणः । उत्त० ६१४ । स्थान:गुणविशेषः । ठाणा० ४१६ । स्थानं मिथ्याऽध्यवसायाधारभूतम् । उत्त० ४४३ । स्थानं कामावस्थितिभेदः । उत्त० ६०७ । स्थानं - कायोत्सर्गः । ओघ ० २१४ स्थानं वसनम् । ओघ० ५९ । स्थानं कायोत्सर्गादि । ओघ० १०६ । स्थानं - उत्कर्षापकर्षरूपम् उत्त ६५२ । स्थान - संसारः । ठाणा० ५१२ । स्थान- ऊध्वस्थानम् । उत्त० ५१६ । स्थानं कारणम् । ओघ० ६० । स्थानं( १२४५ ) ठप्पं- स्याप्यः - अनधिकृतः । अनु० १६१ । स्थाप्यंअसंव्यवहार्यम् । अनु० ३ । स्थाप्यं तिष्ठतु । अनु० १५१ । ठवण-स्थाप्यानि नैतेषु केनापि प्रवेष्टव्यम् । बृ० प्र० २४६ आ aणकुलाई - बृहत्प्रयोजनानि । उ०मा० । ठवणकुले - स्थापनाकुलानि - आचार्यादिप्रायोग्यदायकानि । बृ० प्र० २३२ मा । ठेवणा-स्थापनं स्थापना-अपायावधारितस्यार्थरूप हृदिस्थापना - वासना । नंदी० १७७ । स्थापनं स्थापना-काष्ठकर्मादिगतावश्यक वत्साध्वादिरूपा । अनु० १२ । ठवणाकम्म-स्थापनाकम् - आपन्नं दूषणमपोह्य स्वाभिम मतस्थापना कार्येत्येवं विधार्थप्रतिपत्तिर्यतो खायते तत् स्थापनाकमं, सव्यभिचारो हेतुर्य: सहसोपन्यस्तस्तस्य समर्थनार्थं यो दृष्टान्तः पुनरुपन्यस्यते स स्थापनाकर्क्स | ठाणा० २५७ । ठवणाकाय स्थापनाकाय:- चन्दन कादिस्थापनायां सदसद्भा वमाश्रित्य काय: । आव० ७६७ । ठवणाठाण - स्थापनास्थानं-यो यद्गुणोपेतो यस्मिनाचा. र्यादिपदे स्थाप्यते स एव तिष्ठत्यस्मिन् स्थान इति स्थापनास्थानम् । उत्त० ४२२ । ठवणादिणं पर्युषणा दिवसः । नृ० तृ० १७७ म । उवणासञ्च - स्थापना सत्यं - अक्षरमुद्राविन्यासादिषु माषकोऽयं कार्षापणोऽयं शतमिदं सहस्रमिदमिति । दश० यथा २०८ । ठवणिज्ज स्थापनीयं - अनधिकृतम् । अनु० ३ । स्थाप्यंखरं स्वस्वरूपप्रतिपादनेऽप्यसमर्थम् । अनु० ३ ॥ वणिजाई - स्वाप्यानि गुर्वनधीनत्वेनोद्देशाद्यविषयभूताि [ ठाणं Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाणचवल] माचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [णयप्पमाण अवरथारूपकालः । व्य० द्वि० ४४६ । स्थान-यात्म-| विशेष ५५६ । प्रवचनसंयमोगघातवजितो भूभागः । वृ० प्र० २५० अ । | ठियप्पा-स्थितास्मा-स्थितो ज्ञानादिके मोक्षादध्वन्यात्मा स्थानं-तिष्टंति स्वाध्यायव्यापत्ता अस्मिन्निति स्थानम् ।। यस्य स स्थितात्मा । बाचा. २५८ । ध्य. प्र. १२७ मा। ठियाई-स्थितानि-कि जोवप्रदेशावगढक्षेत्रस्याभ्यन्तरवर्तीनि । ठाणचवल-स्थानचपल:-तिष्ठधपि चलग्नेवास्ते हस्ता- | भग. ८५७ । दिभिः। उत्त० ३४६ । ठाणरए-स्थानरता:-कायोत्सर्गकारिणः । आचा० ६६९। डहरगं-प्रवज्या पर्यायेण यस्य त्रीणिवर्षानि यावत् परिपूर्णानि ठाणाइ-स्थानानि-अभिहितरूपाणि तिष्ठन्त्येषु सुकृतिनो पंचदशवर्षाणि । व्य० प्र० ३.२ । जन्तव इति स्थानानि-आवासात्मकानि । उत्त० २५२ । डिडिम-पोत्पत्तिः । ६० त० १९६अ। ठावइत्ता-स्थापयित्वा-निवेश्य, कृत्वा । उत्त० ३१३ ।। डोवा-येषो गृहाणि च सन्ति गीतं च गायंती । व्यव० प्र. ठिइ-स्थिति:-मर्यादा । ठाणा० २४४ । स्थितिः-मर्यादा । २८५ । भग० ५४५ । | डोड-महोदर:-भट्टः-ब्राह्मणः । आव० ४३४ । ठिपकप्प-स्थितिप्रकल्पं-अवस्थानविकल्पनम् । ठाणा. १४३ । स्थितिप्रकल्पं-अवस्थानविकल्पनमेतेष्वहं तिष्ठामि टेणियालिय-टेणिकाधिक:-पक्षिविशेषः । अनुत्त. ४ । एते वा मम तिष्ठन्तु स्थिरा भवन्तिवत्येवं स्थित्या वा ढोयं-समीपमागन्तुम् । नि० चू० द्वि० ४३ अ । मर्यादया प्रकृष्टः कल्प: आचारः स्थितिप्रकल्पः। ठाणा. ठिइसकम-मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनी वा स्थितेयंदुत्कर्षणं | णं-युस्मान् । पाव. १०८ । अपकर्षणं वा प्रकृप्यन्तरस्थिती वा नयनं स स्थितिसङ्ग- | गंदी-नन्दिः । राज. ६८ । कमः। ठाणा०२२२ । गरणिद्धिमण-नगरनिर्वमनं-नगरक्षासम् । ठाणा ठिई-स्थिति:-मर्यादा । ठाणी३७४ । स्थिति:-कर्म- २९४ । त्वापट्टनमात्ररूपा अनुभवरूपा च स्थिति:-अवस्थानम् । गग्गती-नग्गतिः-द्रव्यव्युत्सर्ग गान्धारजनपदे पुरिमपुरासम० ८१ । स्थिति:-नारकादिपर्यायेण जीवानामाव. | धिपतिः, य: पुष्पितानं दृष्ट्वा संबुद्धः। बाव. ०१६ । स्थानकालः । सम० १४१ । स्थिति:-स्थीयतेऽनयाऽर्थात | जग्गोहपरिमंडले-न्यग्रोधवत् परिमण्डलं न्यग्रोधपरि. देवमय इति देवायुः । उत्त० २७८ । मण्डलम् । ठाणा० ३५७ । ठित-स्थितं-अप्रच्युतम् । अनु. १५ । णट्ट-नृत्यन्तिस्म नृत्ताः-वृत्तविधायिनः । ०३० १२३ । ठिति-स्थिति: समाचारः, मासकल्पादिकः । ठाणा० ३००। णमंसमारणे-नमस्पन-पञ्चाङ्गप्रमाणादिना । जं० प्र० ठिती-स्थिति:-मर्यादा । ठाणा.१६७ । स्थिति:-व्यवस्था। १६० । ठाणा. २१४ । णय-ननगतीति नय:-वस्त्ववबोधगोचरं प्रापयति, अनेकठितीउदीरणा-वीर्यादेव चाप्राप्तोदयया स्थित्या सहा धर्मास्मकज्ञेया व्यवसायान्तरहेतुः । आव० २२ । नयःप्राप्तो यया स्थितिरनुभूयते सा स्थित्युदीरणा । ठाणा० नेपमादिः । दश० ८८ । २२१ । णयप्पमाण-नया-नंगमादयः सप्त-द्रव्यास्तिकपर्यायास्ति. ठिय-स्थितः । आचा० २२४ । कभेदात ज्ञाननयक्रियानयभेदानिश्चयव्यवहारभेदाद्वादी ते ठियकप-स्थितिकल्प:-कल्पविशेषः । भग० ८९४ । । एव तावेद वा प्रमाण-वस्तुतस्वपरिच्छेदनं नयप्रमाणम् । स्थितकल्प:-भरतैरावतप्रथमचरमतीर्थकरसाधूनां कल्पः।। सम० ११५ । (१२४६ ) Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवेवा अल्पपरिचितसैवास्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० १ [णिवुड्डो परदेवा-नराणां देवा नरदेवा:-कात्तिन इत्यर्थः । गिलवगो-जहा णिव्यहइ तहा पायच्छित्तं कारवेति सो ठाणा. ३०३ । णिज्जवगो । नि० चू० तृ० १२८ था। गवणवमिता-नवनवमिका-नवनवमानि दिनानि यस्यां णिवाण-निर्याण-मरणकाले शरीषिणः शरीरानिर्गमः । सा, नवनवमानि च भवन्ति नवसु नवकेन्विति तत् | ठाणा. ३४६ । परिमाणेयमिति । ठाणा०४५३ ।। णिजाणमग्ग-निर्याणमार्गः-पादादिकः । ठाणा० ३४६ । जवणीए-नवनीतं-म्रक्षणम् । जं.. ३६ । णिवाहि-निर्यास्यति-निर्गमिष्यति । ठाणा० ४६३ । माइलो-अणंपसेणवयंसो। नि० चू० प्र० ३४५ मा। णिजिओ-नितकाम्-अतिशयेन जित:-अभिभूतः निजितः। गागवोही-नागवीथी । ठाणा. ४६६ । उत्त० ३१८ । गाणत्तं-नानात्व-विशेषः । सम०४६ । नानात्वं-तुल्यता। णिट्ठाण-निष्ठान-सर्वगुणोपेतं संभृतमभम् । दश० २३१ । आव० ६३७ । णिण्हव-निह्नवः-व्यपलापः । आव. ५० । जातिया-नदितानि-शब्दवस्ति । प्रज्ञा० २७ । गिदाण-मोद्धिप्रार्थनास्वभावं आत्तध्यानं तव निदानम् । णाम-नाम-यादृच्छिकाभिधानः । बीप० ५७ । प्राकृत- ठाणा० १२० । निदायते-लूयते ज्ञानाचारापनासता स्वात् विभक्तिपरिणामेन नाम्नेति द्रष्टव्यम् । सूर्य० ४। भानन्दरसोपेतमोक्षफला येन पर्जुनेव देवेन्द्रादिगुणाद्धिगायति-नागवंश्याः । बोप० ५८ । प्रार्थना व्यवसानेन तमिदानम् । गणा० ५१४ । माराय-नाराव:-उभयतो मर्कटबन्धः । ठाणा० ३५७ । णिदाय-प्राप्य । सूत्र० ३६४ । गालिया-नामिका। आव० ३४५ । गिद्ध-स्निग्धः-पुषद्रव्याणं मिथः संयुज्यमानाना बधनिणितिक्क-नस्थिको ध्रुवकमिकः । व्य० दि. ३० । बन्धनं तैलादिस्थितः । मनु० ११० । णिकाइया-निकाचिता-नियुक्तिसमणिहेतूदाहरणादिभिः णिबंधो-अतिवाग्रहः । बृ० वि०१८ । जिम्माणणाम-यदुदयवशाजन्तुशरीरेषु स्वस्वपात्यनुसारे. प्रतिष्ठिता । सम. १०६ । णिकायिते-नितरी काचनं-बन्धनं निकाचितं-कर्मणः णाङ्गप्रत्यङ्गाना प्रतिनियतस्थानत्तिता भवति तनि मणिनाम | प्रज्ञा० ४७५ । सव्वंकरणानामयोग्यत्वेनावस्थापनम् । ठाणा २२२ । णियमणं-नियमन-संयमः । आचा० १७५ । णिक्कं-निष्क-परिमाणम् । वृ० दि० २६६ आ। णियया-नियता-नियतावस्थाना । जीवा.६ णिक्कंडा-निष्कङ्कटा-निष्कवचा, निरावरणा, निरुपधाता। णियाण-नितरां दीयते-लूयते मोक्षफलमनिन्दब्रह्मचर्यादिसम. १४० । साध्य कुशलकमकल्पतरुवनमनेन देवदर्यादिप्रार्थनपरिणिक्कटे-निष्कृष्टः-निष्कर्षितः तपसा कृशदेह इत्यर्थः ।। णामनिशितासिनेति निदानम् । ठाणा० १४९।प्राणाति. ठाणा० २७३। पातादि कर्मवन्धकारणम् । उत्त० ४१४ । SMकरम-निकान्त कम्मणो निकम्मा-मोक्षः संवरी शिपि-तापनि०००३२७ अ. वा । आचा. १९४ । णिवण्णो-निपालोः । दश० १०८ । नि• चु० प्र० २७४ णिक्खेवे-निक्षेप:-भङ्गः। ६० द्वि० १९६ आ । था। जिग्गंथ-निगंतो ग्रन्थाम्मोहनीयाख्यात् निग्रन्थः क्षीणक- | | णिवतेजा-निपतेयु:-सिसापरिणामात् ततो विचटेयु षाय उपशान्तमोहो वा । ठाणा० ३३७ । अभ्यतो वाऽऽगस्य तत्र लगेयुर्यन्त्रमुक्तमहोपलवत् । ठाणा. णिग्गहोअ-निग्रहीत:-उच्ङ्खलः । दश० २३४ । णिग्गुणा-निर्गुणा-उत्तरगुणाभावात् । ठाणा० १२६ । णिवुड्डित्ता-निर्वेष्ट्य-हापयित्वा । सूर्य. १४ । णिजरा-निर्जरा-देशत: कर्मक्षयः । और० ७६ ।। णिवुड्डी-निवृद्धिः-शरीरस्यैव हानिः । ठाणा० १३३ । ( १२४७) Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिवेययंति ] निवेययंति-निवेदयन्ति - निक्षिपति । बृ० द्वि० २६१ आ णिवेसणं- पाटकः । बृ० द्वि० १४७ आ । णिव्वता - निर्वृताः अविरताः प्राणातिपातादिभ्यः । ठाणto १२६ । णिव्वत्तित - निर्वर्तित: अर्जितः । ठाणा० १७६ । णिग्वाण-घनघातिकर्म चतुष्टयक्ष येण केवलज्ञानावाप्तिः । सूत्र १९७ । निर्वृतिर्निर्वाण:- निवृतिः स्वास्थ्यमिति, जीवन्मुक्तिरिति । उत्त० १८५ । णिविट्ठ - निविष्टं स्थितमवगाढमर्थोपार्जनोपाये मातापि प्राद्यभिष्वङ्गे वा शब्दादिविषयोपभोगे वा । आचा० १०२ । निविष्टा - आसेवितविवक्षितचारित्रा अनुपरि हारिका । ठाणा १६८ । निर्विष्ट:- आसेवितः प्रस्तुत - तपोविशेषः । अनु० २२१ । निविटुकाइए - निविष्ट:- आसेवितः प्रस्तुत तपोविशेषः कायो येषां ते निविष्टकायाः त एव निर्विष्टकायिकाः साधवः, तदाश्रयत्वात् प्रस्तुतचारित्रमपि निर्विष्टकायिकम् । अनु० २२१ । निव्विसए - निविशन्ति - उपभुंजते । बृ० द्वि० १९१ मा । विधिसति - निर्विशति - समस्तं प्रवेशयति । ठाणा० ३००। व्विस माणए - निर्विश्यमानं आसेख्यमानं, अथवा तदनुष्ठातारः साधवो निविदयमानकाः, तत्सहयोगात्तदपि निर्विश्यमानकम् | अनु० २२१ । निव्वुया - निर्वृताः- क्रोधाद्याद्यपगमेन शीतीभूताः । आचा० आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ णोतदन्नवयण ठाणा० ३६३ । निस्सेस- निःशेषः -शेषाभावः । उत्त० ३०५ । निःश्रेयसःमोक्षः । उत्त० २६०, ३०५ । णिही नितरां धीयते - स्थाप्यते यस्मिन् स निधिः - विशिष्टरत्नसुवर्णादिद्रव्यभाजनम् । ठाणा० ३४० । णिहुअ-निभृतं निश्चलं विषयाभिलाषादिभिरक्ष्योभ्यम् । उत्त० ४५७ । णीयाए - निदया- आभोगतः । सम० १४६ । णोसंक- नि.शङ्क- शरीरादिनिरपेक्षं शंकाख्यसम्यक्त्वातिचारविरहितं वा । उत्त० ४५७ । णीसिघियं नि: सिङ्घतं - निः सिङ्घनम् । आव० २५ । णोहारिम- निहारिम: - दूरदेशगामिनी । ओप० ८ । गोह-स्नुहिः- वनस्पतिकायिकभेद: । जोवा० २७ । णु-तु- निश्चितम् । वृ० प्र० ८० आ । उणिता-निपुणं - सूक्ष्मं ज्ञानं तेन चरतीति नैपुणिका । । ठाणा० ४५२ । उणियं - नैपुण्यानि - लिपिगणितादिकलाकौशलानि । बृ० तृ० ६२ आा । रोगम-नेकैः प्रभूतै मनि महासत्ता सामान्यविशेषा दिज्ञानमिमीते मिनोति वा वस्तूनि परिच्छिनत्तीति नैगमः । अनु० २६४ | नगमा - वाणिजकाः । भग० ७३६ । नंनमः - परिच्छेदभवः । अनु० २६४ । खेता - नेता - स्वयमस्तं गमनेनाहोरात्रपरिसमापको नक्षत्ररूपः । सूर्य ० १३३ । २६६ । सिग्ग - निसर्ग :- स्वभावः । आव० ६०४ । निसर्ग :- खेति - नयति- गमयति । सूर्य० ३३ । करेति, उप्पादयति । स्वभावोऽनुपदेशः । ठाणा० १६० । णिसङ्कं - निसृष्टं - दत्तम् । आचा० २७१ । मिसढ - निषध: - वर्षधरपर्वतविशेषः । ठाणा० ७० । णि सण्ण-निषण्णः - उपविष्टः । ओष० २२ । जिसीहिय- नैषेधिकी- शरीरम् । आव ० २६६ । निषिध्यन्ते-निराक्रियन्ते अस्यां कर्माणीति । नैषेधिकी - निर्वा भूमिः । निषेधे - सकलकर्म निराकरणलक्षणे भवा नंषेविकी - भुक्तिगतिः, प्रतिमा । उत्त० ३२२ । निस्सित निश्रितं शिष्यत्वादिप्रतिपन्नः रामः आहारादि लिप्सा । ठाणा ० ३१६ । निश्रितः- विङ्गप्रमि-तोऽभिधीयते । | णोतदन्नवयण-नोतदन्यवचनं घटे घटवचनवत् । ठाणा ( १२४८ ) नि० चु० प्र० २०५ आ । २६६ । म्मं - मं-चिह्नमुपलक्षणम् । बृ० तृ० १११ अ । स्पेस लिए - निषद्या- उपवेशन विशेषः । ठाणा प्राणिपत्य पृच्छा - निषद्या । आव० २७७ । सज्जी- नैषधिक: । आव० ६४८ । णोअवयणा-नोजवचनं - अभणन निवृत्तिर्वचनमात्रं डित्थादिवदिति वचनमात्रम् । निरर्थकम्। ठाणा० १४१ इंदिपचक्ख-नोइन्द्रिय प्रत्यक्षं - इन्द्रिय प्रत्यक्षं यन्न भवति तत् । अनु० २१२ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोतव्वयरणे] अल्पपरिचितसेवान्तिकशम्बकोषः, भा० ५, परि० १ [थलपट्टण | त्रितुला । भग० ६६० । णोतव्वयणे-नोतद्वचनं-घटापेक्षया पटवचनवत् । ठाणा तित्थं-पढमाणपरो वा । आव० हरि० टी० पृ०५९। १४१ । नि० चू०प्र० ३४६। णोथलं-नोथलं-पाषाणवालुकाशुद्धपंकमिश्रजलमार्गणामभ्य- तिवुणदा-तितुरुकदारुकम् । बृ० प्र० १२६ मा । तमो नदीमार्गः । बृ० तृ. १६२ अ । तृणस्पर्शा:-दुःखविशेषः-कदाचित् स्पृशन्ति । आचा० णोसुमणेणोदुम्मणे-नोसुमनानोदुर्मनाः-मध्यस्थः, सामा- २४५ । यिकवानित्यर्थः । ठाणा० १३१ । तेण-स्तेन:-पल्लीपतिकादिः । बोध० ११९ । स्तेनक:ण्हं-वाक्यालंकारे । ग्य० प्र० १२८ अ । म्लेच्छः । ओघ० ११६ । स्तेन-स्तंन्येनैवोकल्पितात्मवृत्तिः । ण्हवणं-स्नपनम् । बोष० १६१ । उत्त० २७४। व्हाण-स्नानं-वर्षान्त: प्रतिनियतदिवसभावी, भगवत्प्रति- तेणगबंधो-स्तेनकबंध:-बन्धविशेषः । बृ० प्र० ८२ अ । मायाः स्नानपर्वविशेषः । ६० प्र० २७५ आ। स्नात्य- तेणबंध-स्तेनकबन्ध:-मध्येनैव मात्रककाष्ठस्य दवरके याति नेनेति स्नानं गन्धोदकादि । उत्त०४७६ ।। तावद्यावत्साराजिः सीविता भवति । ओघ. १४६ । महाणिका-स्नातिका-स्नानक्रिया । प्रश्र० १३८ । तेणाणुबंधि-स्तेमस्य-चौरस्य कर्म स्तेनं तीवक्रोधाद्या. तगराय-सुव्यवहारिणा: । व्य. प्र. ३१७ मा । कुलतया तदनुबन्धवत् स्तेनानुबरिषः । ठाणा० १८६ । तडि-तटी-पार्वः । अनुत्त० ६ । त्तोप्पडयं-अनिष्पन्नम् । नि० चू० प्र० १२३ आ। तणरुहाणि-रोमावि । पाव० १६७ । त्थाणीय-स्थानीयः । आव. ३८५ । तत्प्रयोजनी-शब्दादिविषयः संयोगो मातापित्रादिमिर्वा स्थोम-स्तोभक:-चकारवाशब्दादिनिपातः तेन युक्तः अनु० तेनार्थी कालाकालसमुत्थायी धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्प- २६३ । दराज्ये भार्यादि संयोगस्तेनार्थी । आचा० १०१। स्वरवर्तनम् । ठाणा० ३। तरुणः-ततो जन्मपर्यायेण षोडशस्य वर्षाण्यारम्य यावच्च- त्रपुषी-विषयकटुता । आचा० १६४ । त्वारिशद्वर्षाणि तावत्तरुणः। व्यव०प्र० ३०२ अ। थंडिल-स्थण्डिलं-संस्तारकभुवम् । आचा० २६१ । तरुण:-मध्यमवयः । पउ०४६-२४ । थंभ-स्तम्भ-शैलदारुमयादि । आचा० ३४४ । स्तम्भ:तरुणय-अभिनवः कोमलः । अनुत्त.४ । स्थाणुः । ठाणा० २१६ । स्तम्भ:-अनम्रता । भग० । विषे० १३५६ । ५७२ । स्तम्भ:-मानः । उत्त० ३४५ । तवचनं-अस्य गमनिका तस्य-विवक्षितार्थस्य घटादेवंचनं- थण-स्तन: शरीरावयवः । आचा०३८ । भणनं, तद्वचनम् । ठाणा १४१ । थणिय-स्तनितं-मेघजितम् । अनु० २१६ । तहनाणे-यथा पृच्छनीयार्थे पृष्टव्यस्य ज्ञाने तथैव प्रच्छ- थणियसद्द-स्तनितशब्दः-मेघगजितम् । ठाणा० ११६ । कस्यापि ज्ञानं येन प्रश्ने स तथाज्ञानो जानत्प्रपना । स्तनितशब्द-रतिसमयकृतम् । उत्त० ४२५ । ठाणा. ३७६ । थय-स्तव:-चतुः श्लोकादिकः । व्य० द्वि० २२७ था। तालबॅट-तालपत्रशाखा । नि.चू.प्र.६० आ। थल-स्थल:-अत्युनतप्रदेशः । उत्त० २९३ । स्थल:.. तितिणिया-तिन्तिणिकता-स्निग्धमधुराहारादिसंयोजनल. आकाशः । बोम्० ३२ । स्थल:-जलावस्थितिविरहित क्षणा । बृ• तृ० गा० ६३४० । उच्चभूभागः । उत्त० ३६१ । स्थल-निर्जलो भूभाग। । तितिणी-यत्र तत्र वा स्तोकेऽपि कारणे करकरायणः । उत्त० ६६८ । व्य. प्र. २८४ । थलपट्टण-स्थलपत्तनं-निजलभूभागभाविपत्तनम् । उत्त. तिउल-त्रीन्-मनोवाक्कायलक्षगानास्तुमयति-जयतीति । ६०५ । अल्प. १५७ (१२४९ ) तलवर्ग Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थलि] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [थेर थलि-स्थली-उच्चभूभागः । उत्त. ६०५ । थिर-स्थिर:-प्रकृतपट पाटयतोऽकम्पः । अनु० १७७ । थली-स्थली-तत्र शाला । वृ० प्र० २७६ अ । स्थिर-नियततिथिमावि । जं.द्वि.४६४। स्थिर-निविडंथाणनिउत्ता-स्थाननियुक्ताः-प्रवर्तकस्थविरगणावच्छे- द्रढम् । बोध० १०८ । स्थिर:-नियतः । विशे० १२७५ । दकाः । वृ० प्र० ११२ अ । थिरणाम-यदुदयवशात् शरीरावयवाना शिरोऽस्थिरताना थाम-स्थाम-वीर्यम् । बृ० प्र. २९६ आ। स्थिरता भवति तत्स्थिग्नाम । प्रज्ञा० ४७४ । थाल-थावं-त्रटम् । भग०६८४ । थिरसंघयण-स्थिरसंहनन:-दृडकायः दृढधृतिश्च । आचा० यालो-स्थाली-पिठरी । ठाणा. ११८ । थावच्चापुत्तो-अनुत्तरोपपातिकेतिदेशः । अनुत्त. ३ । | थिरसत्त-चल-अस्थिरं परोषहादिसम्याते ध्वंसात् सत्त्वं थावर-स्थावरः-शीतातपाद्यपहतोऽपि स्थानान्तरं प्रत्य- यस स चलसत्त्वः एतद्विपर्ययात स्थिरसत्त्वः । ठाणा. नभिसपितया स्थानशील, स्थावरः । उत्त० २४४ । । थावरकाय-स्थावरकाय:-स्थावर:-पृथिव्यादिः तेषां कायो-थिरा-स्थिरा:-चरकादिभिर्दर्शनत: परिषहोपसर्गेश्वरणतोऽराशिः स्थावरो वा काय: शरीरं यस्य स स्थावरकायः ।। तिकर्कशप्रायश्चित्तदानत: शुभभावतो वा न चालयंते ते ठाणा. २६३ । स्थिराः। व्य० प्र० १२५ आ। थावरणाम-यदुदयादुष्णाद्यमितापेपि तत्स्थानपरिहारा-थिरीकरण-स्थिरीकरण-अभ्युपगम(त)धर्मानुष्ठानं प्रति समर्थाः पृषिव्यपतेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा जायन्ते | विषीदतो स्थैर्यापादनम् । उत्त० ५६७ । तत् स्थावरनाम् । प्रज्ञा० ४७४ ।। थिविरकप्पठिती-स्थविरकल्पस्थिति:-संयमकरणोद्योगाः। थावरा-स्थापनशीलत्वात स्थावरनामकर्मोदयाच्च, स्था-| ठाणा० ३०५। वरः । ठाणा. १३४ । थिविििवत-अनुकरणशब्दोऽयम् । विपा० ७४ । थासग-स्थासक:-प्रश्वामरणविशेषः । अनु० ४७ । स्था- थुती-स्तुति:-अष्टश्लोकादिका । व्य• वि० २२७ आ। सक:-दर्पणाकारः। भग. ४८० । थूभ-स्तूप:-व्यन्तरादिकृतम् । बाचा० ३८२ । थासयावलो-स्थासका-दर्पणाकृतयः स्फुरकादिषु भवन्ति | थूभाई-स्तूपादि । आव० ४० । __ तेषामुपयुपरिस्थितिनामावली-पद्धतिः स्थासकावली। थूमिया-स्तूपिका-शिखरम् । सम० १३९ । अनुत्त० ५। थूल-स्थुषः-ग्रन्थियुक्तः । षोध० २१८ । थिणगिद्धो-स्त्याना-यहुत्त्वेन सङ्घातमापना गृद्धिः- थूलभद्द-स्थूलभवः-परिणामिक्या यान्तः । नंदी० १६७। अभिकाङ्क्षा जाग्रदवस्थाऽध्यवसितार्थसाधननिषया यस्यां | स्थूलमद्रा-पौतमगोत्रवान्, सम्भूतविजयविनेयः । नंदी. स्वपावस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः तस्यां हि सत्त्या जाग्रद- | सम्भूतविजयस्य विनेयः स्थूलभद्रा । नंदी. ४९ । वस्थाध्यवसितमर्थमुत्थाय साधयति स्त्याना वा-पिण्डी-थेर-संयमावो सीदता साधूनां स्थिरीकरणास्थविरः । भूताः ऋषिः-आत्मशक्तिरूपाऽस्यामिति । ठाणा• ४४७ । बाचा. ३५३ । प्रतिव्यापारितान् साधून संयमयोगेषु स्त्याना संहतोपवितेत्यर्थः ऋद्धिद्धिर्वा यस्यां स | सीदतः स्थिरीकरोति इति स्थविरः। ठाणा० १४३ । स्त्यानदिः, स्त्यानगुद्धिर्वा । उत्त० ६४२ । स्थविरा:-बाचार्यादयः गच्छप्रतिबद्धाः। ठाणा० १६९ । थिणा-स्त्याना-बहुत्वेन सङ्घातमापन्ना । ठाणा० ४४७ । स्थिरीकरणात् अथवा जात्याषष्टिवार्षिक: पर्यायेण विशति स्त्याना-पिण्डीभूता । ठाणा. ४४८ । वर्षपर्यायेण यः श्रुतेन समवायधारीति । ठाणा० २९६ । थिमिचे-अन्तकृद्दशाना प्रथमवर्ग पञ्चममध्ययनम् । पन्त. प्रतिव्यापारितान् साधून संयमयोगेषु सीदतः स्थिरी करोति स्थविरः । ठाणा० २४४ । स्थविर:-स्थविर. :-बनस्पतिकायिकभेदः । जीवा० २७ । कल्पिकः। ठाणा०३०० । स्थविर:-यः सीदन्तं ज्ञानादी (१२५०) Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थेरकप्पठितो] अल्पपरिचितसंद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि०१ [नरवाहण स्थिरीकरोति । ओष. ६१ । | अनुत्त० २। थेरकप्पठिती-स्थविरा:-आचार्यादयी गच्छप्रतिबद्धास्तेषां दुब्भूठआणि-दुष्ट सस्वा उन्दरशलभप्रमुखा ईतयः । जं. कल्पस्थिति: स्थविरकल्पस्थितिः। ठाणा० १६६ प्र० १२५ । थेरा-स्थापयन्ति-दुर्व्यवस्थिथं जन सम्मार्ग स्थिरीकर्वन्तीति दम-अनत्तरोपपातिके द्वितीयवर्गसप्तममध्ययनम्। अनुत्त. स्थविराः । ठाणा० ५१६ । स्थविरा:-आचार्याः। ध्य. २. प्र० २०२ मा । दुमसेणं-अनुत्तरोपपातिके द्वितीयवर्गेऽष्टममध्ययनम् । थोवं-स्तोक-अपर्याप्तम् । आचा० १२९ । अनुत्त० २ । दंडालातो-गृहोतदण्डः राजा । व्य०.६७ बा। दुवक्खर-यक्षरको दासः । ध्य. द्वि० १६. बा। ईसी-पश्यति-आचरति । आचा. १७५ । दूता:-प्रामानुग्राम गच्छन्तः । ६० तृ० १०४ बा । दक्खिणापहयाणं- ।नि० चू० वि० १६६ मा। दूसणा-संसृष्टजलस्याम्फरसता । बृ० तृ० १९४ बा। वगफुसिया-उदकशोकराः । वृ• तृ० १९२ था। देसाभाए-देशमाग:-विभागः । अनुत्त० ६ । दगमट्टो-कदमः । ५० तृ० १६६ आ । देसियं-देशितं-सदेवमनुजासुरायां पर्षदि नानाविधनय. वगरए-उदकविन्दुः । वृ० तृ० १९२ था। प्रमाणरभिहितमू । प्रभ०११३ । दगवारगो-पानीयषटः । बृ० वि०६१ च । द्यति-भागिनी । व्य०प्र० ३.६ मा । दरिय-स्फुटितम् । अन्त०७ । घण्ण-अनुत्तरोपपातिके तृणीयवर्ग प्रथममध्ययनम् । बल-दल-खणं, तलम् । भष० ६९१ । अनुत्त०२। ववववचारि-द्रुतद्रुतगन्तृत्वमसाधिकारणत्वापदसमाधिस्था- धुनुःकण्ठं-रजुवर्गस्य षडगुणस्य ज्यावर्गयुतस्य मूखम् । नम् प्रथमसमाधिस्थानम् । पाव. १५४ । तत्त्वा० ३-११ । बविणं-असणादि, तंदुना गेहो गोरसो पच्छयणं । नि. | धन-भद्रासार्यवाहीपुत्रः । अनुत. ३ । चू. प्र. ८९ बा। धम्मसासण-धर्मशासनं-धर्माशा । दश• २७७ । बव्य-पर्यायो-प्रति-पच्छति तस्तानु पर्यायान ब्रूयते | धर्मवेगं-तगरायाचार्ययस्य शिष्यः । व्य०प्र० ३१७१। वा तैस्तेः-पर्यायद्रो-िसन्तायी अवयवो विकारो वा | धारिणोदेवी-बणिकराजराज्ञी । अनुत्त० १। वर्णादिगुणाना पा द्राक-समूह इति द्रव्यम् । गणा. | नंवणवण-रंवतकपर्वते उद्यानम् । अन्त० १,१८ । १०२। नंदमती-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य द्वितीयमध्ययनम् । बह-हृदः नचादिषु निम्नतरप्रदेशवक्षणः । भग० ३०३। अन्त २५ । हृदः-पोण्डरिकादिः । नंदी. २२८ । नंबसेणिया-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य चतुर्थमध्यय. वंत-दन्त:-मनाग्ग्रहितशिक्षः। ०३० २६५ । नम् । अन्त० २५ । वाएमि-दर्शयामि । बाव०९५ । नंदा-अन्तकृद्दशाना सप्तमवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । अन्त. हानप्रायश्चित्तं-बाखोचनाविधिः । व्य.०१था। | वासचेडी । नंदी. १६.1 नंदोत्तर-अन्तकद्दशानां सप्तमवर्गस्य तृतीयमध्ययनम् । वाहिणपञ्चत्थिमेल्लं सूय०२।। अन्त० २५ । विय-उदितः (मर०)। नया:-प्राणका:काएका साधकाः निर्वतका विर्मासका। बोहदंते-अनुत्तरोपपातिके प्रथमवर्ग षष्ठसमध्ययनम् । उपलभका व्यंजका (पर्यायाः)। तत्त्वा० १-३३। अनुत्त० ।। नर-पूरणार्थ निपातः । वृ० . १६६ मा। बोहसेण-अनुत्तरोपपातिके द्वितीयवर्ग प्रथममध्ययनम् । नरवाहण-भस्यस्थे राया । व्य. प्र. २८० था। (१२५१) Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल ) भाचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ पाणावली नल-नामविशेषः । अन्त०५ । | पउलं-पतलं । नि० चु०प्र० २५४ था। नवनवमिय-नवनवमिमिक्षप्रतिमा। अन्त० २९ । पगार-प्रकारः । ज्ञाता० ३८ । न संति परलोगवाती-न विद्यते शान्तिन-मोक्षः पर. | पग्गहिया-प्रगृहीता-प्रकर्षणाम्युपगता । अनुत्त० ३ । लोकश्न-जन्मान्तमित्येवं यो वदति स तथा। ठाणा. पट्ठिा -पट्टिका वंशानामुपरि कम्बास्थानीया। राज० ६२॥ ४२५। पडिवत्ती-प्रतिपत्ति:-प्रत्यावतारः । जोवा० ८। नाग-भदिसपुरे गाथापतिविशेषः । अन्त० ३ । पडिहारिय-प्रातिहारिकम् । प्रज्ञा० ६०६ ।। निदणा-निन्दना-स्वमनसि कुत्सा । अन्त० १८। पडुक्खेव-प्रत्युत्क्षेपः प्रतिक्षेपो वा । ठाणा० ३९६ । निक्कोयण-शूभ्याम् । व्य० प्र० १८० अ । पत्थडोदग-प्रस्तरोदक:-प्रस्तराकास्तथा स्थितमुदकम् । नित्तेया-निवर्तीया । भग० ४६७। जीवा. ३२१ । निन्नामिआ-निनामिका-श्रेयांसजीवः ललिताङ्गपानी पमाणाइक्कम-प्रमाणातिक्रमः । आव० ५२५ । स्वयंप्रभापूर्वभवः । आव. १४६ । पयत्ता-प्रदत्ता-गुरुभिरनुज्ञाता । अनुत्त० ३ । निरुद्धः-विनाशितः । व्य०प्र०२९० । पययया-प्रयतता प्रकृष्टयत्नवता । अनुत्त० ३। निवेश-रचना । नंदी. १६१ । परं-पर्यन्ता। व्य० द्वि० २२७ आ। निसृष्टः-अनुज्ञातः । व्य. प्र. २८८ अ । पर-पर:-प्रकृष्टः । प्रश्नः २४ । पर:-स्वापत्यव्यतिरिक्तनिह-स्निहः-स्नेहवानु, रागीत्यर्थः । आचा० १२५ । क्रमपत्यम् । आव. ८२५ । पर:-गृही। उत्त०६०। निहे-स्थापयेत-सनिधि कुर्यात् । आचा० १३४ । पर:-संयमः-उद्दिष्टविधिः । आचा• १७३ । सम्यग्दृष्टिनिहोउणं-होति निहेतिकम् । व्य० प्र० २७६ प । गुणस्थानम् । आचा० १७३ । पर:-अनन्तानुबन्धिक्षयः । निवारणम् । व्य. प्र. ३१३ आ । आचा० १७३। नोसठं-अत्यथं । व्य.तृ. १९६ मा । पवरवारुणि-एकोरुकद्वीपे दुमविशेषः । जीवा० १४६ । नीहारि-निर्बादी प्रतिरवः । प्रश्र. ५१ । परिच्छद-परिवारः । दश० १६८ । नु-वितर्के ।बृ० तृ० १२३ ।। परूढमंसू-प्ररूढश्मश्रुः । आव० ५१४ । नेत्रम्। बाचा० ३१७ । | पवादवदणकमले- । अनुत्त.७। नेह-स्नेहः-पुत्रादिविषयः । उत्त० ५६० । पसिणवागरण-प्रश्नव्याकरणं प्रपनोत्तरम ज्ञाता० ११०। नोइंदियत्थ- ठाणा. ३५६ ।। पसुभत्तपाण-पशवश्च भक्तपाने च, यदि वा पशूना न्यग्रोधपरिमण्डलं-न्यग्रोधवत् परिमण्मलं यस्य, यथा | भक्तपाने । आचा० ३६२, ३१२ । योग्रोध उपरि संपूर्ण प्रमाणोऽधस्तनहीनः तथा यमं- | पांसुलिकडया-पांशुलिका-पास्थिीनि तासा करका स्थानं नाभेरुपरि संपूर्णमधस्तुन्न तथा तस्यग्रोधपरि-| करा पाशुलिकाकरा । अनुत्त० ५ । मण्डलम् । उपरि विस्तारबहुलम् । जावा. ४२ । पाईण-प्राचीनं-पूर्वा । ज० प्र०६६ । पंकोसन्नो-यंके निमग्नः ।मर० । पाईणदाहिण-प्राचीनदक्षिण-पूर्वदक्षिणदिगन्तरम् । भग पंचपण्डिका-पंचकपर्दादयः पण्यं यस्यां एक वारं पतिसेवने सा च पञ्चपण्डिका । व्य. प्र०३०६ पाईणवडोणा-पूर्वपश्चिमम् । ज्ञाता. ६९ । पंड-बात्मा । मर० । पाउस-प्रावृट् श्रावणादिः वर्षारातः । भग० ४६२ । पहष्णपण्णो-च्छेदश्रुतान्तर्गतारहस्य वचनपद्धतिरुच्यते पाओसकालो-वर्षाकाल:-भाद्रवासोयमासो । नि० चू. . सा प्रकीर्णाविक्षिप्ता येन सा प्रकीर्णविशः प्रकीर्णप्रमः । प्रकाणविशः प्रकोप्रभः । प्र० ५५ब। व्य० बृ० प्र० १३०ब। | पाणावली-पाणशम्देन भाजनविशेषः तेषामावली । ( १९५२) २०७ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालको] अस्पपरिचितसेवान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० १ - [बगवगा अनुत्त० ५। फंदंत-स्पादतं-ईषच्चलन्तम् । ठाणा० ३८५ । पालको-उत्तरापथे कुंभकरकडे गगरे डंडगिस्स रण्णो | फंसणा-मालित्यम् । उ० मा। तस्स पुरोहिओ । नि० चू० तृ० ४४ । फलविशेषस्यास्थीनि । अनुत० ५। पासलो-पाव॑तः । आव० ६४८ ।। फलिह-स्फटिक:-रत्नविशेषः। जीवा० २३। पिट्टिमाइया-अनुत्तरोपपातिके तृतीयवर्गे सप्तममध्ययनम् ।। फास-स्पर्श:-गुरुशिष्यसंबन्धः। विशे० १.३९ । स्पर्शःअनुत्त० २। कर्कशादिस्पष्टविधः । अनु. ११०। पिठवणा-प्रस्थापना दानम् । व्य.प्र. ९८छ। फासणविनय-संस्पर्शनविनय:-यथा गुर्वाद सुखासिको यो पिहडं । व्य० प्र० १५५ था। जायते तथा मृदुसंस्पर्शनं प्रत्येकः संस्पर्शनविषयः। व्य० पिहडगसंठितो-पिहडसंस्थितः मावलिकाबाह्यस्य ससम | प्र० २२ अ । संस्थानम् । जीवा० १०४ । फासय-स्पर्शक:-अनुष्ठाता। उत्त० ३३७ । पुट्ठ-स्पृष्टशब्द:-पतिवचनः । आचा० ५५ । स्पृशेतु- | फासयइ-स्पृशति-आसेबते । उत्त० ४७८ । अनुभवेत् । आचा० २४३ । स्पष्टः-पतितः। आव०११।। फासा-स्पर्श:-दुःखविशेषः । आचा० २५५ । स्पर्शा:स्पृष्ट-आलिङ्गितम् । बाव. १२ । स्पृष्टं-जीवप्रदेश- गाढप्रहारादिजनिता दु:खविशेषाः । आचा० २३६ । रात्मीकृतम् । विशे० १००६ । स्पृष्टः-स्पर्शनमात्रेण फासाई-स्पर्शानु-दुःखान् । आचा० १६२ । संयुक्तोऽबद्धः । विशे० १००७।। फासे-स्पर्शा:-दुःखविशेषाः । बाचा० २४५ । स्पृश्यते'पुट्टपुष्वा-स्पृष्टपूर्वा:-आरब्धपूर्वाः । आचा० ३११ । गृह्यमाणतया युज्यते । उत्त० १९६ । स्पर्शन-दुःखानुपुट्ठिल-अनुतरोपपातिके तृतीयवर्ग नवममध्ययनम् । भवान् । आचा० १२० । स्पर्शान-दुःखविशेषान्-अनु. अनुत्त० २। कूलप्रतिकुलोपसर्गपरिषहापादितान् । आचा. २९३ । पुत्तलिया-शालमखिका । आव० ३४४ । स्पर्शान-दुःखानुभवान् । बाचा० २४३ । पुन्नसेणे-अनुत्त० २। फुट्टित्ता-स्फुटित्त्वा-प्रकाशीभूय, स्फोटयित्वा । ठाणा. पुप्फके । नि० चू० प्र० ३४४ । ३८४ । पुरिससेणे अनुत्त० १ । फूड-स्पृष्ट:-प्रतिप्रदेशं व्याप्तः । ठाणा. २५२ । स्पृष्टःपेढालपुत्त-अनुत्तरोपपातिके तृतीयवऽष्टममध्ययनम् । याप्तो मध्ये क्षिप्तः । भग० ७५७ । बनुत्त० २। फुरेत्ता-स्फुरितवा-वीर्यमुल्लास्य, स्फोरपित्वा । ठाणा. पेयल-विचारः । विशे० ५८५ । ३८४ । पेल्नए-अनुत्तरोपपातिके तृतीयवर्गे चतुर्थममध्ययनम् । फुसं-स्पृश्यं-स्पृष्टलक्षणबन्धावस्थायोग्यम् । ठाणा. १३७ । अनुत्त० २। फुसंत-स्पृशन्त:-आचमनादिषु पशामृशन्तः। उत्त०३७० । पेसिया-पेशिका-खण्डम् । अनुत्त० ५ । फुसति-स्पृशति-अभिभवति पीडयति । आचा० २०५ । -पेडियं-वीक्षितं-कटासवीक्षितादि । उत्त० ६२६ । स्पृशति-उपतापयन्ति । आचा० २७२, २४५, २५५ पोत्ति-शाटिकाम् । विशे० १०३७ । २३६ । स्पृशति-उतापयति । आचा० २४५। स्मशतिप्रतिकूलो-वितर्दः । आचा० २५२ । मृशति । उत्त. ३३८ । प्रभाविच्छरितम्- । नंदी० १६७ ।। बउस-बकुश:-शबलचरित्रः । ज्ञाता० २०५ । प्रभवो । नि० चू० प्र० २४३ ५। | बहु-बदुकः-द्विजातयः । व्य० वि० ७ आ। प्रभवाहनकुलाम्बुनिधिः- ।विशे. १३५८ । | बल-बलः-सहननोस्यप्राणः । जं० प्र० १५१ । 'प्साटान्तरितम् । ओष० २४ । । बलबगा-राजकुमपुरचातुविद्याश्रिता इत्यर्थः । नि० चु० (१२५३) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहले ] आचार्यश्रीआननसागरसूरिसङ्कलितः [ रत्नप्रकार प्र. ७५ मा । तं मंसादी भण्णति । नि० चू० दि० २२ अ । ।। नि.चू० प्र० १५० था। मंसु-मणि-कुर्च रोमाणि । सम० ६१ । । बाव. १८८। मई-मति--कृतिकर्म दृष्टान्ते क्षत्रियकल्पना । आव० ५१४॥ बहपरिकर्माणि-यानि विषा सिवितानि तुणितानि च । | मज्झण-मज्झनिकं स्नानान्तरं यत्परिधीयते पीतवस्त्रम् । मोष. १३२ । बृ० प्र० १०४ ब। बहमाण-बहुमान:-आन्तरः प्रीतियोगः । भग० ९२५ ।। मणोठई-मनसः-चेतसः गुरुसम्बन्धिनो रुचि:-प्रतिभासोऽ. बहुलमाहणगेह-बहुलब्राह्मणगृहम् । आव० १८८।। स्मिन्निति मनोरुचिः । उत्त० ६६ । बाहाया। अनुत्त० ५। मयालि । अनुत्त० १॥ बिट-वातं-फलबन्धनम् । उत्त० ५४६ । मलिखयकसाओ-क्षीणकषायः । आउ० । बिड-बिह-प्रासुकम् गोमूत्रादिपक्वं वा । दश. १९८ । महम्बले । अनुत्त०३ । बिडाल-सनखपदचतुष्पदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । बिडाल:- महाघोस-महाघोषः । जीवा० १७० । मार्जारः । प्रज्ञा०२५४ । महादुमसेणे । अनुत्त०२॥ बिराली-विराली-तप्रधानाविद्या । आव० ३१६ । महावीरः-वर्षमानस्वामी । सूत्र. ३८६ । बिल्ललो-विल्बला-चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः । महासोहसेणे । अनुत्त. २॥ प्रभ. १४.। महासेरणे । अनुत्त०२। बिल्ले-बिलु । प्रज्ञा० ३२ । माउयपयं । आणा. ६. बिहेलओ-विभेलक:-यक्षः । पाव० २०८ । माण-सप्तमं पापस्थानकम् । ज्ञाता. ७५ । बीजपूरकम्। अनुत्त०६। मातुलुङ्ग । अनुत्त०६। बोजसारो-बीजसार:-मिलापक्षण: । प्रभ. १५२ । मार्दवं-मृदुभावः,मृदुकर्म,मदनिग्रहः मानवियातः (पर्याया)। बटिय-उवकरणसोली । नि० चू०प्र०५९ वा। तस्वा०४-६ । बैंटिया-वेष्टविका । बोघ. ०४ । मितं-अच्छं । नि.चु.प्र. २७८ अ । बोरीकरोल्लेति । अनुत्त०४ । | मुंडावलि । अनुत्त. . बोल्लं.०३०वा। मुत्तोलि नि०पू० प्र. १५८ । बोलेइ-व्यतिजामति । वृ० वि० ९७ ब । मूल-मूल-मआई कारणम् । प्राचा०५३ । भइकन्ध-भाज्य:-विकल्पनीयः । अनु० २२० । मेर-भेदः विशेषः (पर्यायः) । विशे० २२० । भद्दा । बनुत्त० ३.। | मोहन-निधुवनं । शाता ६५ । भद्दाओ । अनुत्त००। यत्कभल्लं । अनुत्त० ५। भदाणाम। अनुत्त० ८। यत्सेफालकमिति . । अनुत्त०६। भद्रबाहुस्वामी । ६० प्र० १८० आ। यूती-काचित यूतीविद्यावति तया - यूतिविद्यया यो भसओ-जियसत्तरायपुत्तो । नि० चू० प्र० २५८ ।। दूत बागच्छति दंशस्थानमपमाज्यते सेनेतरस्य दंशस्थानभूमीविसम-गर्तापाषाणाव्याकुलो भूमापः । १० १० । मुपशाम्यति । व्य०वि०१३३ था। २२६ आ। योग:-प्रणिधानमायोपस्तद्धावः परिणामः तत्त्वा०३-१९॥ मंख-मङ्ख-यश्चित्रपटादिहस्तो मिक्षा चरति । अनु० ४६ ।। ।नि० चू०प्र०१३८ था। मंसरोम नि० चू०प्र०१८ । रत्ताकूडे-रक्तावर्तनकुटम् । ज०म० ३०१ । मंसादो-जमि पगरणे मंस आदीए दिजति पच्छा बोदणादि | रत्नप्रकार-आकारमात्रम् । विशेषा० ६५।। (१२५४ ) Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रणणवई ] अल्पपरिचितसमान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० १ [विनयित्त्वा रोलं लट्ठदंते रयणवई-रत्नवती यक्षहरिणस्य तृतीया सुता ब्रह्मदत्त- | वहिय-वधितो-हतः । ज्ञाता. १६६ । राज्ञी । उत्त० ३७६ । वाइंगणि-बनस्पतिविशेषः। भग.८०३ । रवडयं-वादु । नि० चू० दि०७० ब । वाणियग्गामे । अनुत्त० ८। रसवती- नि. चू० प्र० २३० था। वालकेन-बायकेन । व्य. दि. ३५२ म। रसिय-रसिरका-शरीरसविशेषः । प्रश्न. १६ । । अनुत्त० १। रहस्स-हृदयं अल्पम् । ठाणा०४४। वारिसेणे । अनुत्त० ।। रामपुत्त-अनुत्तरोपपातिके तृतीवर्गे पञ्चममध्ययनम् । | वालुकं । अनुत्त० ६ । अनुत्त० । मुक्तयं-परिहितं प्रसम्बितम् । औप० ५५ । रायगिहे । अनुत्त० १,७,८ बिघणं-व्ययनम् । आव० ६५१ । रुक्खमूल-वृक्षमूलें-पादपसमीपम् । उत्त० ६६५ । विंद-वृन्द-परिवारः । भप० ४६० । रुक्खा-वरचन्ते विरन्ते इति वृक्षः । ठाणा. १८२।। विउलं । अनुत्त० ७। रूपस्य । अनुत्त० ४। विकटना-योजनतो हस्तशताद्वहिर्गम नादौ गुरोरा नि. चू० प्र०१०९ आ। लोचना-विकटना मिथ्यादुष्कृतं च । आव. १६७ । लंछण-लाञ्छनः । आव० ५६६ ।। विगड-विकटः-मालोचना । बृ० वि० १७६ मा । लघुतरः-अनुपस्थापितकः । बृ० तृ० १२२ मा विगयतडिकरालेणं । अनुत्त०६। अनुत्त० १,२ । | विगिचनं-सर्वपरिष्ठापनं परिष्ठापनस्पर्शनधावनानां सकृ. लव-लूयन्त इति लवा: शाल्यादिनालमुष्टयः । भग० ६५०। | करणं वा । वृ० तु. १८३ ब । लाभान्तराय ।भग ७०६। विगेंचमाण-विवेचयत्-परिष्ठापयत् । ठाणा० ३३० । 'लिंगः-विङ्गः-रजोहरणमुखपोतिकादि: श्रमणरूपः। व्य. विग्धारिय-विनाशितम् । मर० । प्र० २४४ आ । विग्रहः-अवग्रहः श्रेण्यन्तरसंक्रान्त पर्यायः। तस्वा० २-२८ । लेषु-इष्टकाशकलं मृतिकापिण्डो वा । वृ० प्र० १५१ । विज्जियाव-(देशीवचनम्) इक्षुः। व्य००१मा। धंसाणिय-वनस्पतिविशेषः । मग० ८०४ । विज्ञः-जीवः । अग०११२ । वइर-वनस्वामी स्थावर्तानशनी । मर० । विज्ञाता-विविधो-मिशिषो वा ज्ञाता विझतः तत्राती. वइदेही-वैदेही-मिथिलापुरी। उत्त० ३२० । | यज्ञातभ्यः प्रधानतरः । सम. १०६ । वक्खारो-एकस्यां वक्षम्यामभिनिविंगतो विष्वक् अप- विज्ञानशतं-कुम्भकारशिल्यादिकम् । ०प्र० १३६ । परकः । व्य० वि० १९. बा। | विट्टरं-हस्थनम्प्रयोजनेषु कुंटपिटवादिषु प्रवर्तनं । व्य. वग्धरणसाला-तोसनिविसए गाममज्झे साला । नि० प्र. ३०४ म। चू० तृ. २१ आ। विट्टालिओ-विनष्टः । आव० ३७८ । वग्याणि-व्याघ्रचर्मविचित्रितानि । आचा० ३६४ । विडिम-विटपो-विस्तारः । राज०६ । वट्टय । अनुत्त० ५। वितंड:-यत्रकस्य पक्षपरिग्रहो नापरस्य दूषणमात्रप्रवृत्तः बद्धोसको । अनुत्त० । स । नि० चू० प्र. २४० ब । वय-व्रतं अव्यवं, प्रजम् । प्रश्न १९ । विदेहविन्न-महावीरप्रभोरपरनाम । बाचा. ४२२ । वलइ-अभिमुखो भवति । १० मा०५ । विहुमंता-विद्वान् विवेकी यथावतस्थितसंसारस्वभावस्य बलि-चक्रम् । व्य० द्वि० ३१६ अ । वेत्ता । सूय० ७५ । वखसोवनादि । माव० २६० । । विनयित्त्वा-साम्प्रतकालीनपुरुषयोग्यं विनयित्वा । प्रमा (१२५५) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिब्बोय ] आचायधोमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सरख विहारत्वात, इस्थमुरगाविसमश्च यतो भवति ततः श्रमणः । विब्बोय-विवोक:-स्त्रीणामनादरकृतः । प्रम० १३६ । दश. ५३ । श्रमणः निर्ग्रन्थ-शवयादिः। दश० १७३। विमोह-विमोक्षः आचारप्रकल्पे अष्टमो भेदः ।आव०६६० । श्रमण:-यथा मम न प्रियं दुःखं, प्रतिकूलत्त्वाद, विल्लहला-स्फीता । आव० ५६६ । ज्ञात्येवमेव सबंजीवानां दुःखप्रतिकूलत्वं न हन्ति स्वयं विस्मापक-इन्द्रजाली । ठाणा. २९५ । न घातयत्यन्यश्च शब्दाघ्नतं नानुमन्यतेऽन्यम्, इत्यनेन वीसुंभेज्झा-शरीरादिष्वग्भवेत् । व्य० द्वि० ३२ आ। प्रकारेण समम् अणति तुल्यं गच्छति यस्तेनासौ श्रमणः । वृत्तपरिक्षेपः-विष्कम्भकृतेर्दशगुणया मूलम् । तत्त्वा० दश० ८३ । स्वजने जने च समः समश्च मानापमानयोः ३-११ । श्रमणः । समिति-समतया शत्रुमित्रादिष्वणन्ति-प्रवर्तन्त वृत्तविष्कम्भ-ज्यावर्गचतुर्भागयुक्त मिषुवर्गमिषुविभक्तं तत्प्र- इति समणा: । "नास्ति च तस्य कोऽपि द्वेष्यः प्रियो तिकृतिः । तत्त्वा० ३-११ । वा सर्वेष्वपि जीवेषु । एतेन भवति सममा एषोऽन्योऽपि टिआ-उपधिवेण्टलिका । ओघ० ८२ । पर्यायः । ठाणा० २५२ । वेकच्छी । ओघ २०६। समणगो-श्रमणक: । आव० ५५८ । वेहल्ले । अनुत्त० १,२। समणधम्म-धमणधर्मः क्षान्त्यादिकः चरणकरणात्मको वेहासे । अनुत्त०१। वा । बाचा०६। वै-निपात:-हिशब्दार्थत्वात् यस्मादर्थे । विशे० ८३१।। समणधम्म-श्रमणधर्मः-साधुधर्मः क्षान्त्यादिकः। आव० संकरो-संकरः-संकीर्णत्वं, एकत्त्वम् वा । विशे० ६१७ । । ५७२ । २०। सट्ठिहायन-वष्टिहायनः षष्टिवर्षप्रमाणः । उत्त० ३४६ । | समणपडिलेहिया-श्रमणप्रतिलेखिता। दश० ४८.६ । समण-शमनं-चिकित्सा । आव० ६१० । शमनस्कं- समणभूए-श्रमणो-निग्रंन्यस्तद्वद्यस्तदनुष्ठानकरणात् स श्रमसमभावम् । प्रभ० १३६ । श्रमणः-साधुः । भग० १४१ । णभूत:-साधुकल्पः,उपासकस्य एकादशमपडिमा ।सम.१६॥ ठाणा० २३१ । धमग:-श्राम्यति-तपस्यति इति षमण:- समणवणीमते-यञ्चमवनीपकः । ठाणा० ३४१ । साधुः। दश०५२। श्रमण:-श्राम्यति-तपस्यति इति समणसढ-श्रमणश्राद्धः-चक्षुरिन्द्रियान्तहष्टान्ते वसन्तपुरे घमणः, प्रव्रज्यादिवसादारभ्य सकलसावद्ययोगविरतो जिनदत्तसार्थवाहपुत्रः । आव० ३६९-१२ । गुरूपदेशादनशनादि यथाशल्याप्राणोपरमात्तपधारति । समणसमय-श्रमणसमयकेतुः-साधुसिद्धान्तचिह्नम् । ८४७ । दश. २३ । श्रमण:-उरगसमः परकृतविलनिवासियादा. समणसेज-श्रमणशय्या-साधुवसतिः । आव० ७६५.२४ । हारानास्वादनात्संयमैकदृष्टित्वाच्च,गिरिसमः । दश० ८३ ।। समणा-शक्रेन्द्रस्याग्रमहिषीनां राजधानि । ठाणा० २३१ । गिरिसम:-परीषहपवनाकम्प्यत्वात, ज्वलनसम:-तपतेजः | समणाणूकंपा-श्रमणानुकम्पा-श्रमणेभ्योऽनुकम्पा-श्रमणप्रधानत्वात् तृणादिष्विव सूत्रार्थेष्वतृप्तेः एषणोयोशनादी | भक्तिः । दश० ६७ । चाविशेषप्रवृत्तेरिति, सागरसमो-गम्भीरत्वाज्ज्ञानादिरत्ना- | समणुगम्ममारणे-समनुगम्यमानः-जात्यन्तभवन स्वत एव करस्वात् स्वमर्यादानतिक्रमाच्च, नभस्तलसम:-सर्वत्र नि- सूत्रतः । जीवा० १३६ । रालम्बनत्वात्, तरुगणसमः-अपवर्गफलार्थिसत्त्वशकुनोल. | सम्प्रतिः-कुणालपुत्रः । विशे० ४१० । यत्वात वासीचन्दनकरूपत्वात, भमरसम:-अनियतवृत्ति- | सम्प्रतिनरेन्द्र-अन्यानमहोत्सवकारक: बृ०प्र०२७८ था। स्वात, मृगसम:-संसारभयोद्विग्न स्वात, धरणिसमः-सर्वखेद. सरक्ख-सरजस्क:पृथवीरजोगुण्डितः । दश । सरजस्क:सहिष्णत्त्वात, जलरुइसम:-काममोगोद्भवस्वेऽपि पङ्कज कपालपूजकः । आव० ३९६ । सरजस्क:-चक्षुरिन्द्रियान्त. लाभ्यामिव तदूर्ववृत्तः, रविसमः-धर्मास्तिकायादिलोकम- दृष्टान्ते सरजस्कः। आव. ३९९ । सरजस्क:-क्षारः । धिकृत्य विशेषेण प्रकाशकत्वात्, पवनसमः-अप्रतिवद्ध- | बृ. प्र. ३०६ मा ( १२५६ ) परि० १, समाप्त Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारक-आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्वकोषः परिशिष्टः-द्वितीयः कलिकालसर्वज्ञशब्दानुशासनादिवेदचतुष्टयविधातृ-श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीत देश्यनामसंग्रहाकारादि अंकारो-साहाय्यम् । अकि-परिरम्भः । अंकुसइअं-अकुशाकारम् । अंकेजी-अशोकतरुः । अंको-निकटम् । अंगवड्डणं-रोगः । अंगवलिज्ज-अङ्गवचनम् । अंगालिअं-इक्षुखण्डम् । अंगुठी-अवगुण्ठनम् । अंगुत्थलं-बंगुलीयम् । अंगुलिणी-प्रियङ्गु । । अंछिअं-आकृष्टम् । अंजणईसं-तापिच्छम् । अंजणइसिआ-तापिच्छम् । अंजणिआ-तापिच्छम् । अंजसं-ऋजु। अंडओ-मत्स्य: । अंतरिज्ज-कटीसूत्रम् । अंतोहरी-दूती। अंतेली-मध्य-जठरं तरङ्गश्च । अल्य० देश्य. १ । अंतोहुचं-अश्वोमुखम् । | अंधंधू-कूपः । अंबडो-कढिनः । अंबसमी-स्तिमितपर्युषितकणिका । अंबिरं-आम्रम् । अंबुसू-शरभः । अंबेट्टी-मुष्टिद्यूतम् । अंबेसी-गृहद्वारफलहकः। अंबोच्ची-पुष्पलावी अअं-विस्तारितम्, आदरणीयम् त्यक्तम् । अअंखो-नि:स्नेहः। अइगयं-मार्गपश्चाद्भागः समागतं प्रविष्टं च । अइणि-आनीतम् । अइणं-गिरितटम् । अइरजुवइ-अणुहुआ। अइराणी-इन्द्राणी सौभाग्यायमिन्द्राणी व्रतसिविनी पड़ी। अइरिम्प-कथाबन्धः । अइरो-आयुक्तः, ग्रामेशादिः। अइहारा-विद्युत् । अक्कतं-प्रवृतम् । अक्कंदो-परित्राता । | अक्कसाला-बलात्कारः, ईषन्मत्ता च त्री। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्का ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ अणुओ अक्का-भागिनी। अज्झत्थो-मागतः । अक्कुट्ट-अध्यासितम् । अज्भवसिअं-निवापितं, मुखम् । अक्को -दूतः। अज्झसि-दृष्टम् । अक्कोडो-ठायः। अज्झा-असती शुभा नववधूस्तरुणी एषा चेति पञ्चार्थः । अक्खणवेलं-सुरतं प्रदोषश्च । अज्झेल्ली-दुग्धदोह्या धेनुः या पुन:पुनर्बुह्यते। अक्खलिअं-प्रतिफलितम् । अज्झो -एषः । अक् खवाया-दिक् । अज्झोल्लिा-क्रीडाभरणे मोत्तिकरचना । अकंडतालमो-नि:स्नेहोऽकृतविवाहश्च । अट्ट-इत्यष्टास्वार्थेषु । कृशो-दुर्बलः, गुरु:-महान्, शुक:अकासि-पर्याप्तम् कृतमलमिति । पक्षी, सुखम्-सौख्यम्, धृष्टो-वियातः, अवस:-शीतकः, अगंडिनेहो-यौवनोन्मतः । शब्द:-ध्वनिः, असत्य-अनृतम् । अगो -दानवः । अट्टो-यातः। अगणो-कापालिकः। अडउझिअं-पुरुषायितम्, वियरीतस्तमिति । अगिला-अवज्ञा । अडखम्मिअं-प्रतिजागरितम् । अगुज्झहरो-रहस्यभेदः । अडणी-मार्गः । अग्गक्खन्धो-रणमुखम् । अडयणा-असती । अगवेओ-नदीपूरः । अडया-असती । अग्गहणं-अवज्ञा । अडाडो-बलात्कारः। अग्गिओ-इन्द्रगोपकीट: मन्दः । अड्ठ अक्कली-ऋद्यां हस्तनिवेशः। अग्घाण-तृप्तः । अणच्छिआरं-अछिन्नम् । अग्घाडो-अपामार्गः । अणडो-जारः । बचलं-गृहं उक्तम्, ग्रहपश्चिमप्रदेशा, निषुरः, नीरसः, | अणतं-निर्माल्यम् । पञ्चार्थः। अणप्पो-खडगः । अच्छं-अत्यर्थ, शीघ्र च । अणरामओ-अरतिः । अच्छिवडणं-निमीलनम् । अणराहो-शिरसि चित्रपट्टिका । अच्छिविअच्छी-परस्परमाकर्षणम् । अपरिक्क-क्षणरहितः निरवसरः । अच्छिहरुलो-यो वेषो वा। अणहं-अक्षतम् । (अच्छिवरुनो) द्वेष्यः। अणहप्पणयं अनष्टम् । (अच्छिारिल्लो) द्वेष्यः । अणहारओ-बल्लम्, निम्नमाध्यमित्यर्थः । अजराउरं-तरुणम् । अणाडो-जारः। अजुअलवण्णा-अम्लिकावृक्षः। अणिल्लं-प्रभातः। अजुओ सप्तच्छदः । अणिहं-सदृशं मुखम् च । अलओ-सुरसगुरेटकयो स्तृणभेदयोः । अणुअल्लं-प्रभातः । अञ्जो-जिनोऽर्हन्बुद्धश्च । अणुइओ-चणकः । अज्झओ-प्रातिबोई वेश्मिकः । अणूआ-यष्टिः । अज्झस्सं-आक्रुष्टम् । अणुओ-आकृतिः, धान्यविशेषः । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुदवि ] अल्पपरिचितसैवान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० २ [ अरिहइ अणुदवि-प्रभातः । अद्धन्तो-पर्यन्तः । अणुबधिअं-हिक्का। अधणो-आधुलः । अणुवजिअं-प्रतिजागरितम् । अधण्णो-आकुलः । अणुवहुआ-नववधूः । अधविआरं-मण्डनम् ( मण्डलकम् )। अणुवो-बलात्कारः । अधाओ-दर्पणः। अणुसंधि-अविरतं हिक्का च । अनसी-गृहद्वारफलहकः । अणसुत्ती-अनुकूलः । अपडिच्छिरो-अहमतिः । अणुसूआ-आसन्नप्रसवाः। अपारमग्गो-विश्रामः। अग-शालिभेदः। अप्पभो-आत्मवशः । अरणेकज्झो -चञ्चलः। अप्पगुत्ता-कपिकच्छु । अणोलय-प्रभातः। अप्पो-पिता । अण्णइअ-तृप्तः । अप्पुणो-पूर्णम् । अण्णइओ-तृप्तः । अबइत्तेअं-गोपालः । अण्णओ-तरुणो, धूर्ती देवरश्च । अब्बुद्धसिरि-मनोरथाधिकः फल प्राप्तिः । अण्णत्ती-अवशा। अब्भक्खणं-अकीतिः । अण्णमयं-पुनरुक्तम् । अब्मपिसाओ-राहुः । अण्णाणं-विवाहबधूदानम् विवाहकाले यदीय यते यद्वा अब्मायसो-प्रत्यागतः । विवाहार्थ वध्या एव वसाय यद्दानम् । अब्भायत्यो-पश्चादूत इति तु गोपालः । अण्णो (अण्णीआ)-देवरानी, देवमार्या, पतिमगीनी, अन्भुत्तइ-स्नाति प्रदीप्यते च । ननान्दा, पितृण्वसा । अभिण्णपुडो-रिक्तपुटः। अण्णोसरिअं-अतिक्रान्तम् । अमओ-चन्द्रः । अण्हेअओ-भ्रान्तः। अमर्याणगभो-चन्द्रः । अत्ता-चतुराः-माता-जननी, पितृष्वसा, श्वध-श्वसुर- अम्मणुचिअं-अनुगमनम् । मायाँ, सखी-वयस्सा। अम्मा-अम्बा, जननी । अत्यवक-अनवसरः । अम्माइआ-अनुमार्गगामिनी । अस्थग्ध-व्यर्थ:-अगाधम्, आयामम्, स्थानम् । अयक्को -दानवः । अत्थयारिआ-सखो। अयगो-दानवः । अत्थारो-साहाय्यम् । अयडो-कूपः। अत्थाई-अगाधम, आयामम्, स्थानम् । अयतंचि (अवअञ्चि)-उपचितम् मांसलम् । अत्थुड-लघु । अयाली-दुर्दिनम् । अत्थुवडं-मल्लातकम् । अरलं-चोरी मशकश्च । असणो-चौरः। अरलाया-चोरी । अद्धक्खणं-प्रतीक्षणम्, परिक्षणमिति । अरविंदर-दीघम् । अद्धक्खि -संज्ञाकरणम् । अरिअल्ली-व्याघ्रः। . अजंघा-मोचकाख्यं पादत्राणम् । | अरिह इ-नूनम् । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरुणं ] आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ अवसेहइ अरुणं-कमलम् । अलपो-कुक्कुटः । अलग्गं-कलक्षारोपः। अलमंजुओ-आलस्यवान् । अलमलवसओ-गोपालः । अलमलो-दुर्दान्तवृषभः। अलयं-विद्रुमः । अलसं-सिक्थं कुसुम्मरक्तम् । अलिअल्ली- कस्तूरीकाव्याघ्रश्च । अलिआ-सखी। अलिआरं-दुग्धम् । अलिणो-वृश्चिकः । अलीसओ-शाकवृक्षः। अल्लं-दिनम् । अल्लओ-परिचितः । अल्लई पलटुं-पार्श्वपरिनतनम् । अल्लत्थं-जलार्द्रा केयूरं च । अछल्लो-मयूरः । अल्ला-अम्बा । अल्लिअइ-आलीयत उपसर्पति च । अवंगो-कटाक्षः। अवअक्खिअं-निवापितं मुखम् । अवअच्छे-कक्षावस्त्रम्, कक्षा । अवअच्छइ-लादते ह्लादयति पश्यति । अवअच्छिअं-निवापितं मुखम् । अवअणिओ-असंघटितः । अवअण्गो -दूखसम् । अवासइ-पश्यति, श्लिष्यति ड । अवकरसो-सरकः । अवकोरिअं-विरहितम् । अवगणना-अवज्ञा । अवगदं-विस्तीर्णम् । अवगूढम्-व्यलीकम्, अपराधः । अवच्छुरणं-कोधे सति भङ्गया मणितम् । अवजसइ-गच्छति। अवज्झसं-कटी कठिनं च वस्तु । अवडओ-तृणपुरुषः । अवडक्किओ-निहतः । अवडाहिअं-उत्कृष्टम् । अबडिअं-खिन्नम् । अवडुओ-उदूखलम् । अवडो-कूप: आरामश्च । अवढंभो-ताम्बूलम् । अवणो-परीवाहो गृहफलकश्च । अवण्ण-अवज्ञा । अवत्तयं-विसंस्थुलम् । अवस्थरा-अवइत्थरा-इन्यन्ते पादघातः । अवदुसं-उदूखलादि, शूर्पप्रायमुपकरणजातम् । अवपुसिओ-संघटितः । अवढिअं-रणहृतम् । अवरिओ-विरहः । अवयाणं-आकर्षणरज्जु । अवयारो-माध्यामुत्सवविशेषो, यस्मिन्निक्षुदन्तधावनाद्याचारः क्रियते । अवयासिणी-नासारज्जुः । अवरजो-अतिक्रान्तं भविष्यच, दिनं दिनमुखम् । अवरत्तओ-पश्चातापः । अपराहो-कटी। अनरिक्को-क्षणरिहतः निरवसरः । अवरिजो अद्वितीयः । अवरुण्डिअं-परिरम्भः । अवरोहो-कटी । अवलयं-गृहम् । अवलिअं-असत्यम् । अवलुआ-कोपः । अवल्लावओ-अपलापः, कप्रत्यमाभावे 'अवल्लावों'। अवसमिआ-स्तीमितपर्युषितकणिका । अवसह-उत्सवो नियमश्च । अवसेहइ-गच्छति नश्यति च । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवहट्ठो] अल्पपरिचितसैदान्तिकशब्दकोषः, भा० ५; परि० २ [आमोरओ आ अवहहो-गवितः। अवहाओ-विरहः । अवहेअं-अनुकम्प्यम् । अवारी-आपणः। अवारो-आपणः। अवालुआ-सूक्क: ओष्ठपर्यन्तः। अवि-उक्तम् । अविणमबरो-जारः। अविणयवई-द्रोणः। अविलो-पशुः कठिनश्च । अविहाविअं-दीनमनालपेनऽपि तदेवेत्ति । अपंगयं-वस्त्रम् । असंगिओ-अश्वोऽव्यवस्थितश्च । असरासओ-खरहृदयः। असारा-कदली। अंअसि-दात्रम् । अहं-दुःखम् । अहरो असमर्थः । अहव्वा-असती। अहिअल-कोपः । अहिआरो-लोकयात्रा। अहिक्खणं-उपालम्भः, अभीक्षणम् । अहिपञ्चुअइ-गृह्णाति, आगच्छति । अहिपच्चुइअं-अनुगमनम् । अहिरीओ-विच्छायः । यहिलिअं-अभिभवः, कोपश्च । अहिल्लो-ईश्वरः ! अहिवणं-पीतरक्तम् । अहिविण्णा-कृतसापलया। अहिसन्धी-पौनः पुन्यम् । अहिसाय-पूर्णम् । अहिसिअं-गृहशङ्कारुदितम् । अहिहरं-देवकुलं, बल्मिकश्च । अहिहाणं-वर्णना। अहोरणं उत्तरीयम् । आअं-अति, दीर्घ , विषमम्, लोहम्, मुसलम् । आअड्डिअं-परवशचलितम् । आअल्ली-झाटभेद। आअल्लो-रोगश्वञ्जलश्व । आअहं-उद्खलम्, कूर्चम्, । आइपणं-पिष्टमुत्सवे, गृहमण्डनार्थ, सुधा छटा च । आइसणं-उज्झितम् । आउरं-संग्रामः । आउलं-अरण्यम् । आउसं कूर्चम् । आऊ-सलिलम् । आऊडिअं-बूत: पणः । आऊरं-अतिशयम्, उष्णम् । आगत्तो- कूपतुला । आडाडा-बलात्कारः । आडुआलो-मिथीभावः । आडोविअं-आरोपितम् । आढिअं-इष्टम्, गणनीयम्, अप्रत्तम्, गाढम् । आणंदवडो-प्रथमं वध्वा रुधिरारुणितं वनम् । प्रथम. परिणये म; कौमारे गृहीते यत्तत्परिमलरुधिररजित वस्त्रम्, बान्धवानानन्दयति, तत आणंदवडास्यम् । आणाइ-शकुनि काव्यः, पक्षी । आणिअं-इष्टम्, गणनीयम्, अप्रमत्तम्, गाढम् । आणिक्कं-तिर्यक्सुरतम् । आणुअं-मुखम्, आकारः। आरगवो-श्वपचः । आफरो-यूतम् । अभिडिअं-संगतं सभा। आमंडणं-भाण्डम् । आमलयं-नूपुरगृहम् । आमेलो-जूटः। आमोओ-हर्षः । आमोडो-जूटः । आमोरओ-विशेषः । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयड्ढी ] माचार्यबीवानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ इरिणं आसक्खओ-श्रीवदा, प्रशस्त:, पक्षीविशेषः। आसयं-निकटम् । आसरिओ-सम्मुखागतः। आसवणं-वासगृहः । आसिअओ-लोहमयः । आसोवओ-सूचीजीवकः । आहच्च-अत्यर्थम् । आहित्थो-चलितः, कुपितः, आकुलेश्चेति । आहुंदुरू-वालः । आहुडं-सीत्कारः, पणितम् । आहुडिअं-निपतितम् । आहुन्दुरो-वालः । आहू-उलूकः । आयड्ढी-विस्तारः । आयामो-बलम्, दीर्घः। आयावलो-बालातपः। आयासतलं-हम्यं पृष्ठम् । पायासलवो-पक्षिगृहम् । पारंदरं-बनेकान्तं, सट च । आरंभिओ-मालाकारः । आरणं-अधरः, फलकश्च । आरणालं-कमलम् । आरद्धं-प्रवृद्धं, सतृष्णं, गृहागतम् । आराइअं-गृहीतम, मासादितम् । आराडो-विलपितं, चित्रयुतं च । आरिल्लो-अर्वाक् । आरेइअं-मुकुलितं, मुक्तं, भ्रान्तं, सरोमाञ्चम् । आरोग्गिअं-भुक्तम् । आरोहो-स्तनः। आलं-अल्पस्रातो सृदु च । आलंकिअं-खजीकृतम् । मछत्रम् यवर्षासु प्ररोहति । आलत्यो-मयूरः। आलयणं-वासगृहः । आलासो-वृश्चिकः । आलोकं-निकटं, भयम् । आलीवणं-प्रदीप्तम्, प्रदीपकम् । आवंगो-अपामार्गः । आवट्टिआ-नववधूः, परतन्त्रा । आवडिअं-सङ्गत, सारं च । आवरेइमा-कारिका, मद्यपरिवेषमाण्डनम् । अवालयं (आवाल)-जलनिकटम् । आवि-प्रसवदुःखम, नित्यम्, दृष्टम् । आवि-इन्द्रगोपः, मथितं, प्रोतम् । आविअञ्झा-नववधूः, परतन्त्राः । आविद्धम्-प्रेरितम् । आसमो-वासगृहः । आसंघा-इच्छा, आस्था । इंगाली-इक्षुखण्डनम् । इंघिअं-घातम् . इंदगाई-युताः, कीटाः। इंदग्गिधूम-तुहीनम् । इंदग्गो-तुहीनम् । -इन्द्रोत्थापनम् । इंदमहं-कौमारमित्यवन्ति सुन्दरी । इंदमहो-कौमारः, कुमायाँ भव इति प्युत्पत्तिः । इंदमहकामुओ-श्वा । इंदोवत्तो-इन्द्रगोपकः। इरमदिरो-करमः । इल्लो-दरिद्रः, कोमयः, प्रतिहारो, लवित्रं, कृष्णवर्णश्च । इक्कणो-चोरः । इक्कुसं-सामान्याभिधानेऽपि नीलोत्पलम् । इग्गो-भीतः। इग्धि-मस्तितम् । इइंडो-भ्रमरः । इन्भो-वणिकः । इरावो-गजः । इरिआ-कुटी। इरिणं-कनकम् । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इल्लो ] अल्पपरिचितसैशान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० २ [च्छित इल्लो-शार्दूलः, सिंहः, वर्षभाणम् । ईसं-कोलकः । ईसओ-रोझाख्यो मृगः । ईसरो-मन्मथः। ईसिअं-शबरशिरः, पत्रपुटं, वशायितम् । उंच हआ-चक्रधारा। उंछओ-छिम्पकाख्यः कारुविशेषः । उंड-गम्भीरम् । उंडलं-मञ्चो निकरश्च । उंदुरओ-दीर्घमहः । उंबरं-बह। उंदा-बन्धनम् । उंबी-पक्वगोधूमः । उक्खंडिअं-आकान्तम् । उअअं-ऋजु । उचितो-अपगतः । उअरी-शाकिनी। उअह-पश्यतः । उअहारी-दोग्ध्री। उअक्किअं-पुरस्कृतः । उआलो-अवतंसः । उइंतणं-उत्तरीयम् । उक्कं-पादपतनम् । उक्कडा-लञ्चा। उपकंवो (उक्कत्ती)-कूपतुला । उक्का-कूपतुला । उक्कासिअं-उत्थितम् । उपकुंडो-मत्तः । उक्कुरुडो-अवकरराशिः। उक्कुरुडो-रत्नादीनामपि राशिः। उक्केरो-उपहारः। उक्कोडा-लजा । उकोडो-प्रतिशब्दः । उक्कोला-धर्म:। उक्खंडो-सङ्घातः, स्थपुटः । उक्खणि-कण्डितम् । उक्खली-पिठरम् । उक्खिण्णं-अवकीर्णम्, छन्नं पार्वप्रशिपिलम् । उक्खंडो-उलमुकं, निकरो, वस्त्रकदेशश्चेति । उग्गहिअं-निपुणगृहितम् । उग्गहिअं-रचितम् । उग्गाहिअं-गृहितमुरिक्षप्त, प्रवत्तितं चेति । उग्गुलुंछिआ-हृदयरसोच्छखनम् । उग्घाओ-सङ्घातः, स्थपुटापच । उग्घट्टो-अवतंसः। उग्घुट्ट-पुसितम्। उच्च-नामितलम् । उच्चपि-दीर्घः । उच्च ड्डियो-उरिक्षसः । उच्चत्तवरतं-पार्श्वयोः, स्थूलमसमञ्जसविवर्तनं च । उच्चत्थो-दृढः । उच्चप्पो-आरूढः। उच्चाडो-विपुषः। उच्चारिअं-गृहोतम् । उच्चारो-विमलः। उच्चुचो-दृतः । उच्चुप्पिओ-आरूढः। उच्चुल्ल-उद्विग्नमधिष्ठं, भीतं च । उच्चेवो-प्रकटः । उच्चेल्लरं-खिलभूमी, अपनरोमाणि च । उच्चोलो-नीवी, खेदश्च । उच्छंगिअं-पुरस्कृतः । उच्छटो-द्रुतचौर्यम् । उच्छडिसं-चोरितं वस्तु । उच्छवि-शयनीयम् । उच्छटो-चोरः। उच्छल्लिअं-छिन्नस्वक् । उच्छाहो-सूत्रतन्तुः । उच्छित्तं-विक्षिप्तमुक्षिप्तं च । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छिलं ] सच्छिल्लं छिद्रम् । छुडिओ - सपत्रितः, वाणादिना तिष्यथितः, इवेति । छच्छ्रअं - मयं, चौर्यम् । उच्छुरणं- इक्षुवादः । खच्छु आरं संछन्नम् । उच्छुरिअं - छादितम् । उच्छुरं - अविनश्वरम् । उच्छुरणं-इभुः । उच्छुरणं-इक्षुवाटः । उच्छुच्छ्र- दृप्तः । उच्छल्लो - अनुवादः, खेदश्च । उच्छ्र-वातः । उच्छेवणं घृतम् । उच्छो-अस्त्रावरणम्, ओज्झरीति । उज्जंगलं बलात्कारो दीर्घं च । उज्जडं -उद्वसम् । गिरं- ऐन्धिम् । उज्जग्गुज्जं - स्वच्छम् । उज्जल्ला - बलात्कारः । जाणिअं - निम्नीकृतम् । । उीणिअं - वक्रीभूतम् उजीरिअं - निर्भरितम् । उज्जुरिअं - क्षीणम्, शुष्कम्, । उज्जो मिआ - रश्मिः । उज्झमणं - पलायनम् । आचार्यश्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलित : उड्डुासो-संतापः । अपहृत उड्डो - कूपादिखनकः । उठ्डलो - उल्लासः । उठ्डल्लो - उल्लासः । उण०मो-समुलतः । एडिवो - माषधान्यम् । उड्डु हिअं - ऊठायाः, कुपितमुच्छिष्टं च । उडू - तृणपरिवारणम, तृणावच्छादनमित्यर्थः । उड्डुसो-मत्कुणः । उड्डुणो-चोरः । उज्झरिअं - काणाक्षि, दृष्टं विक्षिप्तं, क्षिप्तं व्यक्तं चेति । उद्दरिअं - उत्खातः । उज्झसो- उद्यमः । उड्डुओ- उद्गमः । उड्डाणी प्रतिशब्दः कुरसे विष्ठा पविष्ठो मनोरथश्च । उष्णालिअं - कृशमुप्ततं च । उइओ - हुंकारो, गगनाश्मुखस्य शूनः शब्दवच । उत्तंपिओ - खिन्नः । उत्तालं - निरन्तरस्वररुदिते । गर्वः । उत्ता हिओ - उत्क्षिप्तः । उत्तप्त: । उत्तरिद्धो-हत्य, उत्तहिअं- उत्खाटितम् । उत्तहो - अवटः, कूपः । उत्तप्पो-गत्रितोऽधिकगुणश्च । उत्थलिअं - उम्मुख गतम् । ऊत्थलिअं - गृहम् । उत्थग्धो सम्मर्दः । उत्थल्ला - परिवर्तनम् । उद्धरणं- उच्छिष्टम् । उद्धवओ - उत्क्षिप्तः । उद्धविअं - अधितम । उद्धच्छवी - विसंवादिता । उद्धच्छिअं-निषिद्धम् । उद्धत्थो - विप्रलब्धः । उद्धाओ - विषमोक्षत प्रदेशः भान्तः सद्घातवचेति । उद्दाणा-ली उद्दामो-सङ्घातः स्थूपुटचच । उद्विसिअं - उत्प्रेक्षितम् । उद्वही - उपदेहिका । उफुंदोलो - चलार्थ' । उफालो - दुर्जनः । उफुंकिआ - रजकी उप्फुंडिअं- आस्तृतम । | [ उफुंडिअं ( ८ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्फुण्णं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, भा० ५; परि० २ [ उवलुअं उप्फुण्णं-आपूर्णम् । 'उम्हाविअम्-सुरतम् । सप्फेसो-त्रासः। उर-आरम्भः । उप्फोओ-उद्गमः । उररो-पशुः । उप्पंको-पङ्कः, उच्छ्रयः, समूहो, बहुलं चेति । उरतं-स्फाटितम् । उपिगालिआ-करोत्सङ्गः । उरुपुल्ला-आपूपो, धान्यमिधा च । उप्पिजलं-सुरतं, रजोऽकी तिश्चेति । उमिल्लं-प्रेरितः । उप्पित्यं-त्रस्तं, कुपितं विश्वुरं च । उरुसोल्लं-प्रेरितः । उप्पोलो-सङ्घातः, स्थपुटः । उलिअं-निकूणिताक्षम् । उप्पहेड-उद्भटः। उलित्तं- उच्चस्थितः कूरः । उब्बिब-विन्न, शून्य, भीतमुद्भट, क्लान्तं, प्रकटवेषं च। उलुकसिअं-पुलकितम् । उब्बिबल-कलुषजलम् । उलुखंडो उल मुकम्। उब्बुरो-अधिकार्थः। पट-विनिपातित, प्रशान्तं च । उक्क-प्रलपित, सङ्कट, बलास्कारश्च । । उलुहंतो-काकः । उन्भंतो-म्लानः। उलुहलिओ-तृप्तिरहितः। उभग्गो-गुण्ठितः। उल्लरयं-कपर्दाभरणम् । उभाओ-शान्तः । उल्ललिअं-शिथिलस्थितिः । उन्मालणं-शूर्पादिनोत्पवनम , अपूर्वम् । उल्लसिअं-पुलकितम् । उब्भावि-सुरतम् । उल्ली-चुल्ली । उन्भासु-गतशोभम् । उल्लंटिअं-सञ्चूणितम् । उन्भुआणं-यदग्न्यादिना तप्तं दुग्धादि भोजनादुच्छलति । उल्लुराहो-लघुशङ्खः । उन्भुग्गो-चलार्थः । उल्लुक्कं-त्रुटितम् । उम्मंड-हठ, उद्धतं च । उल्लुटुं-मिथ्या । उम्मइअं-मूढम् । उल्लूडो-अङ्कुरित: आरूढः । उम्मरिअं-उत्खातम् । उल्लेवो-हासः । उम्मरो-गृहदेहली। उल्लेहडो-लम्पटः । उम्मल-स्त्यानम् । उल्लोचो-विसानम् । उम्मच्छं-असम्बद्ध, मङ्गोमणित, शोधश्चेति । उल्लोलो-शत्रुः । उम्मच्छविअ-उद्भटः । उल्हसिअं-उद्भटः। उम्मच्छिअं-षितमाकुलं च । उवउज्जो-पकारः । उम्मड्डा-बलात्कारः । उवएइआ-मद्यपरिवेषणभाण्डनम् । उम्मत्तो-धत्तूरक:, डोरण्डः । उवकसिओ-सनिहितः, परिसेवितः सजितश्च । उम्मत्य-अधोमुखम विपरीतम । उवजंगलं-दीर्घः। उम्मला-तृष्णा । उवदीवं-अन्यद्वीपम् । उम्मलो-नृपो, मेघः, पोवरश्चेवति, बलात्कारः, कोचित । | उवललयं-सुरतम् । उम्मुहो-दृप्तः । | उवलुअं-सलजम् । अन्य देश्य०२ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसग्गो आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ ओअग्षि उवसग्गो-मन्दः । ऊसाइअं-उरिक्षप्त इति, धनपाल: । उवसेरं-रतियोग्यम् । ऊसाइ-विक्षिप्तम् । उव्वर-धर्मः। ऊसारो-गर्तविशेषः । उज्वहण-महानावेशः । ऊसुमि-रुद्धगलं, रोदनम् । उन्धत्तं-नीरागम् । ऊसंरुसंभिअं-रुद्धगलं, रोदनम् । (उव्व ई) गलितं च । ऊसुक्कि-विमुक्तम् । उव्वा-धर्मः। ऊहष्ट-उपहसितम् । उव्वाओ-खिन्नः। उव्वाडलं-गोतमुपवनं ।। एक्कंग-चन्दनम् । उठवाड-पराङ्मुखं, मुरतं, निर्भदिसूरतं च । | एक्कधरिल्लो-देवरः। उवाढं-विस्तीणं, गतदुःखं च । एक्कणडो-कथकः। उठवाह-धर्मः । एक्कमुहो-निधों, दरिद्रः, प्रियश्चेति । उठवाहिओ-उत्क्षिप्तः । एक्कलपुडिंग-विरबिन्दुवर्षः । उव्वाहुलं-औत्सुक्यं, व्यं च । उविडिओ-अश्विकप्रमाणो विमुक्तमर्यादश्वेति । एक्कसाहिलो-एकस्थानवासी । उन्बीठं-उत्खातम्। एक्कसिबली-शाल्मलीपुष्पर्नवफलिका । एक्कारो-अयस्कारः । उव्वेत्तालं-निरन्तरस्वररुदिते । एक्केक्कम-अयोग्यम् । उविधे-शीघ्रम् । एक्को-स्नेहपरः । उसोरम-बिसमम् । एणुवासिओ-भेकः । उसणसेणो-बलभद्रः। एत्ताहे-इदानीम् । उसुओ-दूषणम् । एत्तोप्पं-एतत्प्रभृतीत्यर्थः । एद्वहं- इयत् । ऊआ-यूका । एमाणो-प्रविशम् । ऊणवि-आनन्दितम् । एमिणिआ-यस्याः, स्त्रियाः, सूत्रेण शरीरप्रमाणं गृहीत्वा ऊमुत्तिअं-उभयपार्श्वघातः । प्रक्षिप्यते, कस्मिंश्चिद्वेश आचारविशेषे सैवमुच्यते । ऊरणी-उरभ्रः । एराणी-इन्द्राणी, तव्रतस्तया च नीति । करो-प्रामः, सश्च । एलविलो-आढमो, वृषभश्च । ऊलो-गतिमङ्गः । एलो-कुशलः । ऊप-उपधानम्, शयने मस्तकोत्तम्मनाय यत्रिवेण्यते । ऊसणं-रणरणकः । ऊसलं-पीनम् । ओंडलं-केशगुल्फो, धम्मिलप्राया। ऊसलिअं-सरामोचम् । ओअं-वार्ता । ऊसविनं-उद्भ्रान्तमूर्वीकृतं ।। ओअंको-गजितम् । ऊपत्यो-म्मितमाकुलन । ओअग्गिअं-अ भभूतं, केशादिना पुञ्जीकर । ऊसातो खेदे सति शिविखः । | ओअग्धिसं-घातम् । ओ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओअल्लो ] ओअल्लो- पर्यस्त:, कम्पोवोवाटो, बम्बभानश्च । ओआअवः - अस्तसमयः । ओआली - खङ्गदोष:, पङ्क्तिनेति । ओआवलो- बालातपः । ओइतं परिघानम् । ओइन्तणं परिधानम् । । ओइल्ल - आरूढम् ओक्कणी यूका । ओविकअं- उषितम्, वातम् । ओग्गालो - बल्पं स्रोतः । ओगिओ - अभिभूतः । ओग्गीओ-नीहारः । ओद्यसरो- अनर्थो, गृहवारिप्रवाहश्च । ओचुल्ल - चुल्ल्येकदेशः । ओछि - केशविवरणम् । ओच्छन्तं-दन्तधावनम् । ओल्लो बलवान् । ओखाओ-गर्जितम् । - अल्पपरिचित से शान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० २ ओरली - दीर्घमधुरध्वनिः । ओरिल्लो - अचिरकालः । ओज्यं प्रचोक्षम् । ओज्झरो - अस्त्रावरण ओस्थरिओ-आक्रान्त आक्रममाणश्च । ओत्थरो - उत्साहः । ओविअं - माक्रान्तं नष्टं च । ओप्पा - शाणादिना माण्यादेर्मार्जनम् । 1 ओज्झायं-अभ्यं, प्रेयं, यश्करेण गृहितम् । ओडड्डू - रक्तम् । ओड्डणं-उत्तरीयम् । ओfoot-बाल्मीकः, पिपोलिसखातो, मृद्राशिरिस्यर्थः (१) । ओर्वाट्टि चाटु | ओणीवो-नीम् । अणुओ-अभिभूतः । ओत्थओ - अवसन्नः । ओत्थयं- पिहितम् । ओरं चारु । ओरं पिअं - आकान्तं नष्टं च । ओरतो - विदारितो, गर्विष्ठः, कुसुम्भश्च रक्तश्चेति । ( ओरंजं - नास्तीति भणितं, पर्धा, क्रीडा । ओलइणी - दयिती भूता । ओलक्षणी - नववधू । ओलओ - श्येनपक्षी अपलाप: । ओलत्थो - विदारितः । ओलावओ श्येनपक्षी । ओलित्ती- खङ्गादिदोषः । ओलिप्पं-हासः । ओलिप्पंतो- खङ्गादिदोष: । ओलिम्मा-उपदेहिका । ओलो - कुलपरिपाटी । ओको छन्नरमणम्, नंष्ट्रव्या यत्र शिशवः क्रीडेति, क्रीडन्ति चक्षुस्थगनम् । ओलंपओ तापिका, हस्तः । ओलुग्गो-सेवको निश्चायो, निस्थामा चेति । ओलुट्ट - आघट्टमाणं मिथ्या च । ओलेहडो- अन्यसक्त तृष्णापरः प्रवृद्धश्व । ओलोइअं - अङ्गे पिनद्धम् । ओल्लणी-मार्जिता । ओरिओ-सुतः । ओवं-गजादिन्धनाथं खातम् । ओagt - मेघजलसेकः । ओवडो - परिधानकदेशः । ओबरो-निकदः । [ ओसठियां ओवसेरं - चम्वनं, रतियोग्यं चेति । ओविअं-प्रारोपितं रुदितं चाटु, मुक्त, हृतं चेति । ओसण- उद्वेगः । ओसरिअं - अधोमुखमक्षिनिको च आकीणं चेति । ओसरिआ बलिन्दः । ओसक्को - अपसृतः । ओसणं- त्रुटितम् । ओस डिवअ - गतशोममवसाटव ११ ) 1 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसा आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ कच्छुरिज ओसा-निशाजल, हिमं च । ओसाअंतो-जम्मालसः, सीदन, सवेदनश्च । ओसाओ-प्रहारपीडा । ओसाणिहाणं-विधिवदनुष्ठित्तम् । ओसारो-गोवाटः । ओसिंधि-घ्रातम् । ओसिओ-अबल: । ओसित्तं-उपलिप्तम् । ओतिक्खिअं-गतिव्याघातोऽरतिनिहितम् । ओलीमो-अधोमुखः । ओसीस-अपवृतम् । ओसुंखअं-उत्प्रेक्षितन् । ओसुद्ध-विनिपतितम् । ओहंको-हासः । ओहंसो-चन्दनं, चादनघर्षणशिला च । ओहडणी-फलहकार्गला। ओहरणं-विनिपातनम् संभवतोऽप्यर्थस्य संभावनं च। ओहरियो-घातश्चन्दनवर्षण शीला च । ओहसिअं-अस्त्रं, धूतं च । ओहट्टि-अन्य, प्रेों, यस्करेणगृहीतम् । ओहट्टो-अपसृतोऽवगुण्डनं, जीवी चेति । मोहट्ठो-हासः। ओहत्तो-प्रवनतः । ओहाइओ-अधोमुखः । ओहाडणी-पिधानी । ओहारो-कच्छपो, नद्यादीनामन्तापमंशश्चेति । ओहित्य-विषादो, रमसो विवारितं च । ओहोरिअं-उद्गीतम् अवसन्नम् । ओहो- अभिभूतः । ओहुडं-विफलम् । ओहुरं-खिन्नम् । ओहुरं-अवनतं, त्रस्तं चेत्यवम्तिसुन्दरी । कंचो-मुसलमुखे लोहवक्षयम् । कंटउच्ची-कणकप्रोतः । कंटाली-कणकारिका। कंटोल-करणीरूपम् । कंठकंची-वस्त्रादीनां कण्ठोनिबद्धो अन्थिः । कंठमल्लं-मृतप्रवहणम्, येन मृतकमुह्यते । कंडपडवा-यवनिका । कंडूरो-बकः । कंडो-दुर्ललः, विपन्नः, फेनश्च । कढदोणारो-वृतिविवरः । कढिओ-दौवारिकः । कंढो-सुकरो मर्यादश्च । कंतु-कामः । कंदलं-कपालम् । कंदी-मूलकशाकम् । कंदो-दृढो मत्तश्च स्तरणे । कंदो,-नीलोत्पलम् । कंपडो-पथिकः । कंबरो-विज्ञानम् । कइअंकसई-निकरः। काअंको-निकरः। कइलबइल्लो-स्वच्छन्दचारीवृषभः । कइउल्लं-स्तोकम् । क उअं-प्रधान चिह्न च । कउलं करीषम् । कउह-नित्यम् । कक्कसो-दध्योदनः । करखंडी-सखी। कक्खडो-पीनः । कग्घाडो-अपामार्गः, किलाटश्च । कग्धायलो-क्षीरविकार:, किलाटास्यः । कच्च-कार्यम् । कच्छपो-भिक्षुभाजनं, दैत्यं च, कमठशब्दभव एव। कच्छरी-पः । ५.च्छुरिअं-ईषितम् । कंकेल्ली-अशोकवृक्षः । कंकाई-करणीरूपम् । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच्छुरी] अल्पपरिचितसेवान्तिकशम्बकोषः, मा० ५, परि० २ कराहतं कच्छुरी-कपिकच्छू । कजउडो-अनर्थः । कडवो-तृणाद्युत्करः, विष्ठा । कझालं-शेवासः । कटारी-भुरिका । कडतं- मूलशाकं, मुसलं च । कर्ड रं-जीर्णशूर्पाद्युपकरणम् : कडंभुअं-कुटकण्ठः । कडइओ-स्थपतिः । कडअल्ली-कण्ठः। कडअल्लो-दौवारिकः । कडइल्लो-दौवारिकः । कडतला-वक्रमेकधारम, लोहायुधम् । कडसी-मशानम् । कडच्छू-अयोदीं। कडप्पा-टप्रशदभवोऽप्यस्ति वस्त्रैकदेश इति । कडप्पो-निकरः। कडारं-नालिके रम् । कडाहपल्ह स्थि-पार्श्वद्वयाववृतम् । कडिखंभो-कटोभ्यस्तो हस्तः । कडिल्लं-निश्च्छिद्रम्, कटीवस्त्रम्, दौवारिकः, शत्रुराशीम हनम्, वनं चेति । कडुआलो-घण्टा, लघुमत्स्यश्च । कडो क्षीणः, मृतश्च । कण इ-लत्ता । कणइअं-आर्द्रम्, कृतम्, विचित्रम्, कक्षाकीर्ण च । क गइल्लो-शुकः । कणओ-कुसुमवाच्यः, इक्षुश्च । कणच्छुरी-गृहगीधा । कण्णंबालं-कर्णस्यामरणे कुण्डलादो वर्तन्ते । कण्णसरिअं-काणाक्षिद्रष्टः । कण्णाआसं-कर्णस्याभरणे कुण्डसादी वर्तन्ते । कण्णासो-पर्यन्तः । कण्गोटुिआ-नीरङ्गिका। कण्णोहत्ती-दत्ताकर्णा । ( कण्णोच्छडिआ-दत्तकणीया, भाषणार्थ, परवाक्यं गृह्णाति । कण्णोल्ली-चजुरवतंसश्च । कण्णोस्सारअं-काणाक्षिदृष्टम् । कणिआरिअं-काणाक्षिाष्टः। कणिसं-किशारुः । कणेटिआ-गुञ्जा। कणोवअं-उष्णोदकम, उदकमुपलक्षणम् । कतवरो-तृणाधुत्करः । कत्ता-अन्धिका द्यूतकपदिका । कत्सतरी-चेत्कल्होडी। कद्दामओ-महिषः । कप्परिअं-दारितम् । कफाडो-गुहा । कबिडं-गृहपश्चिमाङ्गणम् । कमढो-दधिकलशी, पिढरम्, हलन्मुखं च । कमणी-निःश्रेणिः । कमलो-पिठरः, पटहः, मुखम, हरिण । कम्मण-वक्ष्यादि । कम्हिओ-मालिकः । कमिओ-उपसर्पितः । कयलं-अलिञ्जरः । कयारो-तृणास्करः। करकं-भिक्षापात्रमशोकवृक्षश्चेति । करंजो-शुष्कारवक् । करअरो-स्थूलवस्त्रम् । करइल्ली-शुष्कवृक्षः । करघायलो-क्षीरविकारः किलाटाख्यः । करडो-व्याघ्रः, षदा, कबुरश्च । करमरी-हठहृता, स्त्री। करमो-क्षीणः । करयंदी-मल्लिका । कराइणो-शाल्मलीतरुः । कराली-दन्तपवनकाष्ठम् । कराहतं-वारि। १३ ) Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करिआ ] करिआ - मद्यपरिवेषणभाण्डम् । करिल्लं - वंशाङ्कुरः । करेडू-कृकलासः । करोडी - नालिकेरम्, काको वृषभा । करोडो की टिकाभेदः । कलंकवर्ड - वृत्ति: । कलंको-वंश: । कलंबू - पालिकाभिधाना, बल्ली । कलओ - अर्जुनवृक्षः, सुवर्णकारश्च । कलमो - चौरः । कलयन्दी - पाटला, प्रसिद्धच । कलबू - तुम्बीपात्रम् । कलहं - प्रत्याकारः, असिपरिवारः । कलावो- तूणः । कलिओ - गर्वितः, नकुलः, सखी चेति । कलि- लघुदारुः । कलिमं- नीलोत्पलम् | कली-शत्रुः । कलेरो - कङ्कालः, करावश्च । कल्लविअं - ती मितम्, विस्तारितम् । कल्ला-मद्यम् | कल्लोलो- शत्रुः । कल्होडो-वत्सतरः । कवयं भूमिच्छत्रं यद्वर्षाषु प्ररोहति । कवासो- अर्द्धजङ्घा | कविलो - - श्वा । कविसं - मद्यम् ! कविसा - अर्धजङ्घा । कव्वाओ - राक्षसः । कव्वाडो - दक्षिणहस्तः । कव्वालं कर्मस्थानम्, गृहं चेति । कसई - अरण्यचाफलम् । कसण सिओ-बलभद्रः । कसरो - अधमबलीवर्दः । कसव्वं स्तोकमाम्, प्रचुरम् । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित: कस्सयं - प्राभृतम् । कस्सो-पङ्कः । कसिआ - प्ररण्यचारीफलम् । कहेडो -तरणः । काइणी-गुजा । काउ-लोकः । काओ - लक्ष्यम्, वेद्यम् । काणत्थेनो-विलाम्बुकववृष्टिः । काणद्दो-परिहासः । काम किसोरो - गर्वभः । कायंचुलो - कामिञ्जुलाक्य: पक्षी । कायंदी-परिहासः । कायंधुओ का मिजुलाख्यः पक्षी 1. काय पिउच्छा-कोकिला । कायलो- प्रियः, काकश्च । कारक | कारंकडो - परुषः । कारा - लेखा । कारिमं - कृत्रिमम् । काल-तमिस्रम् | कालओ - धूर्तः, उकः । कालवट्ठे-धनुः । कालियो - शरीरम्, मेघं च । कालिआ - शरीरम् कालिञ्जणी - तापिच्छलता । कालेज्जं - तापिच्छकुसुमम् । कावलिओ - असहनः । कावी - नीलवर्णा । कासार - सीसपत्रकम् । कासिअं सूक्ष्मवस्त्रम श्वेतवस्त्रम् । कासिज्ज - काकस्थलाभिधानो देशः । काहली-तरुणी । काहलो-मृदुष्ठकः । काहल्ली - ध्ययार्थं, पचनभाण्ड च । ( १४ ) कालान्तरम्, मेवच । [ काहल्लो धाम्यादितवणीति, प्रसिद्धमप्पादि Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काहारोj अल्पपरिचितसशान्तिकशब्दकोषः, मा. ५, परि० २ [कुणो काहारो-परिखन्धः, जलादिवाही कर्मकरः । काहिलो-गोपालः । काहेरण-गुखा । किंकि-धवलम् । किंजक्खो-शिरीषः । किधरो-बघुमत्स्यः। किपओ-कृपणः । किंबोडो-स्वलितः । फिक्किडो-सर्पः। किष्ण-शोममानम् । किण्ह-सूक्मवस्त्रम्, श्वेतवर्ण । किरिईरिआ-कर्णोपकणिका, कौतुहलं च । किरो-सूकरः। किमि रायं-लाक्षारक्तम् । किमिहरवसणं-कोशेयवस्त्रम् । किलणी-रथ्या । किलिञ्चं-लघुदारुः । किलिम्मिअं-कथितम् । किविडं-धान्यखल तत्र पाण्यखले: पच्चजातम् । किविडी-पाश्वंद्वारं, पहपनिमाङ्गण चेति । कोरो-शूकः । कोलं-स्तोकम् । कोलणिआ-रख्या । कोला-सुरतः, उरः, प्रहणनविशेषः । कोलो-नववधूः। कुंचलं-मुकुलम् । कुटारं-म्लानार्थ म्। कुटी-पोट्टसम्, वस्त्रनिबलं द्रव्यम् । कुंर वेणुमयं, जीर्णमिथुपीडनकाणम् । कुंडिअपेसणं-बाह्मणविष्टिः। कुंडिओ-ग्रामाधिपतिः । कुठयं-तुल्ली, घुमा । कुंतलो-करोटिकास्यं परिवेषणोपकरणम् । कुंतलो-सातवाहनः । कुंती-मारा। कुंतीपोट्टलय-चतुष्कोणम् । कुतो-शुकः । कुंदओ-कृशः । कुंदोरं-बिम्ब्या फलम् । कुंभी-सीमन्तालकादिः, केशरचना । कुभिणी-जलगतः। कुंभिलो-चौरः, पिशुनन। कुंभिल्लं-खननीयम् । कुउआ-तुम्बीपात्रम् । कुऊलं-परिहितवस्त्रप्रातः नीवी । कुकुला-नववधूः। कुक्कुडो-मत्तः । जुक्कुठडो-निकरः। कुक्कुसो-धाम्यादि तुषः । कुक्खो-कुक्षिः । कुच्छिमई-गभिणी । कुच्छिल्लं-वृत्तिविवरम् । कुट्टपरी-चण्डी। कुट्टा-चण्डी। कुट्टाओ-कर्मकारः। कुडगं-लतागृहम् । कुडयं-लतागृहम् । कुडिआ-वृत्तिविवरम् । कुडिन्छ-वृत्तिविवर, कुटीवुब्तिं चेति । कुडिल्लयं-कुटिवम् । कुडोरं-वृत्तिविवरम् । कुटुं-आश्चर्यम् । कुडुचि-सुरतम् । कुडुगिलोई-गृहमोधा । कुडलेवणी-सुषा। कुणिमा-वृत्तिविवरम् । कुतत्ती-मनोरथः । कुत्थुअवत्यं-नोवो। कुद्वं-प्रभूतम् । कुद्वणो-रासकः । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुपढो ] कुप्पढो - गृहाचारः, समुदाचारः । कुप्परं - कोलाघातः, समुदाचारी, नर्म चेनि । । कुम्मणं - म्लानार्थम् कुमारी चण्डी । कुमुली - चुल्ली कुररी-पशु । । कुरुकुरिअं - रणरणकः । कुरुचिल्लं-ग्रहणम् । कुरु चिल्लो - कुलीरः । कुरुचचं - अनिष्टम् । कुरुडो - निर्दयो, निपुणश्च । कुरुमाणं - ग्लानः । कुरुलो- पुनरदयनिपुणयो:, कुटिलके । कुलफंक्षणो-कुलकलङ्कः । कुल संत-चुली कुल्लड-चुल्ली लघुभाण्डम् । कुल्लरिओ-कान्दविकः । कुल्लो-ग्रीवा, असमर्थ विच्छापुच्छन । कुल्हो - श्रृगालः । कुसणं-तीमनम् । कुसुंमिलो - पिशुनः । कुसुगणं-कुंकुमम् । कुसुमालिओ - शुभ्यमनाः । कुसुमालो-चौरः । कुहडो- कुब्जः । कुहिअं-लिप्तम् । कुहिणी - कूपरो, स्थ्या च । कुहेडो - गुरेटाख्यो हरितकविशेषः । कूडो-पा कूढो - हृतानुगमणं, हृतस्याजकश्चेति । कूणिअं - ईष मुकुलितम् । कूल - सैन्यस्य पश्चाद्भागः । कूवलं- जघनवसनम् । कुसारो - गर्ताकारः । केआ-रज्जुः । आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित: केआरवाणी- पकाशः । के ऊ· कन्दः । केली असती । कोंडलिआ कीटः श्वावित्संशः प्राणिविशेषः । कोंडिओ-भेदेन ग्रामभोक्ता । । कोंढुल्लू -उलूकः कोइला - काष्ठाङ्गारा: । कोउआ - करीषाग्निः । कोक्का सिअं - विकसितम । कोप्पं अलीफहीतम् । कोपं-स्त्री रहस्यम् । कोभरिअं - आपूरितम् । कोट- नगरम् । कोट्टो द्रोणि । कोट्टो दोहो विभास्खलना च । कोट्टुभं वा । को डल्लो - पिशुनः । 1 कोडु-कार्य को-लेखा कोणो - कृष्णवर्णः, लकुटः । कोण्णो-गृहकोणः । कोत्तलंका - मद्यपरिवेषणभाण्डम् । कोत्थरं - विशानम् । कोत्थलो-कुशूलः । कोप्यो - अपराधः । कोई सर्वा पूर्णिमा | कोलंबो - पिठरम् । कोलम्बो - गृहमित्यभ्ये । कोल्लरो - पिठरम् । कोल्हूओ - इक्षुपीडयन्त्र, शृगालश्च । कोलाहलो - खगरुतम् । कोलिओ - तन्तुवायो, जालकारकुमिपच कोलित्तं उल्मुकम् कोलीरं कुरुविन्दम् । कोलो - ग्रीवा । ( १६ ) [ कोलो Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोविआ ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५; परि० २ [ खूपा कोविआ-शृगालो । कोसट्टइरिआ-चण्डी। कोसयं लघुशरावः । कोसलं-नोवी । । कोसलिअं-प्राभृतम् । कोसो-कुसुम्मरक्तवस्त्रं जवधिश्च । कोहल्लो-तापिका । ख खजणो-कर्दमः। खंजरो-शुष्कद्रुमः । खंड-मुण्डं, मद्यमाण्डम् । खंडिओ-मागधोऽनिवारश्च । खंडई-असती। खंधमतो-बाहुः। खंधयट्टी-बाहुः । खंधग्गी-स्थूलेन्धाग्निः । खंधोधारो-अत्युष्णाजलधारा । खग्गीओ-प्रमिशः । खच्चलो-अच्छभल्लः । खच्चोला-व्याघ्रः । खजिअ-जीणमुपालब्धम् । खजोओ-नक्षत्रम् । खट्टे-तीमनम् । खटुंग-छाया। सट्टिको-सैनिकः । खडं-तृणम् । । खडइओ-संकुचितः। खडहडो-तरुमर्क खडक्को-लघुद्वारम् । खडुआ-मौक्तिकानि । खड्डे-मध । खड्डा-खानिः, पर्वतखतमित्यन्ये । खडिओ-मत्तः । खणसा-मनोदुःखम् । खण्ण-खातम । खण्णुओ-कालकः । खत्तं-खातम् । खर्च भुक्तम्, प्रचुरार्थेऽपि, लक्ष्येषु दृश्यते । खप्परो-रुक्ष: । खम्मवखमो-संग्रामो, मनोदुःखं च ! खरडिअं-कक्ष भग्नं च। खरहिओ-पौत्रः। खरिअं भुक्तम् । खरुलं-कठिनं स्थपुटम् । खलइअं-रिक्तम् । खलगंडिओ-मत्त इत्यन्ये ।। खली-तिलपिण्डिका । खल्लं-वृत्तिविवरं, विलासश्च । खल्ल इअं-संकुचितं प्रहृष्टं च । खल्ला-चर्मम् । खल्लिरी-संकेतः। खवओ-स्कन्धः । खडिसं स्खलितम् । खलिओ-कुपितः । खवो-वामकर, रासमश्च । खव्वुल्लं-मुखम् । खव्वा-वामकरो, रासभश्च । खाइआ-परिखा । खाडइसं-प्रतिफलितम् । खारंफिडी-गोधा । खारयं-मुकुलम् । खिखिणी-शृगाली। खिक्खिडो-कृकलासः । खिक्खिरी-डुम्बादिना स्पर्शपरिहारार्थ चिह्नयष्टिः । खिद्धि-उपालम्भः । खित्तयं-अनार्यों दीत्यं च । खुंखुणओ-ध्राणशिरा । खुंखुणी-रथ्या । खुंडयं-स्खलितम् । | खुंपा-तृणादिमयं वृष्टिनिवारणम् । अल्प० देश्य० ३ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुट्ट] खुट्ट - क्रूटितम् । खुड्डुं -लघु । खुड्डि- सुरतम् । खुणुक्खुडिया घ्राणम् । खुपरिवेष्टितम् । खुतं निमग्नम् । खुरुडुक्खडी - प्रणयकोपः । खुलुहो- गुरुफ: । खुल्लं -कुटी । खुल्लरी-संकेत: । खुवओ - गण्डुस्संज्ञतृणसदृशं कण्टकितृणम् । खेआलू-नि सहः असहनः । खेल्लिअं - हमितम् । खोट्टी- दासी । खोडपज्जाली - स्थूलेन्धाग्निः । खोडो सीमाकाष्ठं धार्मिकः खञ्जश्च । खोलो - लघुगर्दमो वस्त्रैकदेशश्च । खोसलओ - दन्तुरः । गंडी - इक्षुखण्डम् | गंडीवं धनुः । आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः गरी छागो । गड्डी - मन्त्री । गहूं - शय्या । गढो दुर्गम् । गणणा इआ-चण्डी । गणसमो-गोष्ठीरतः । गणायम हो- विवाहगणकः । गरणेत्ती - अक्षमाला | गतं - इषा, पङ्कश्च । गत्ताडी - गयिका गोपालः । गत्ताडी - गवादनी । गद्दहं-कुमुदम् । गद्दभो - कटुवनिः । - गतिः । गयं घूर्णित मृतं च । ई- मेघः । ग गंछश्रो- वरुडः । गजल-विधुरः । गंजो-गल्लः । गंजोलिअं - रोमाञ्चितं तथा हास्यस्थानेऽङ्गस्पर्शः । गंडो-वनं दण्ड्याशिको लघुमृगो नापितश्च । गंदोणी-चक्षुः स्थगनक्रीडा । गंधपिसाओ-गन्धिकः । गंधलया - नासा । गंध - दुगंध: । गंधेल्ली - छाया मधुमक्षिका च । गंधोल्लो-इच्छा रजनी च । गण सद्दो- मृगवारणध्वनिः । गज्जो-जवः । गडवडी - वज्रनिर्घोषः । गयसाउलो - विरक्तः । गलत्थलिओ - क्षिप्तः । गलिअं - स्मृतम् । गल्लष्फोडो - डमरुकः । गवन्तं - घासः । गव कल्लोलो-राहुः | गहणं - निर्जलस्थानम् । गहणी - हठहृता स्त्री । गहरो - गृध्रः । गहवई - ग्रामीणः गहिअं - वक्रितम् । गहिआ - काम्यमाना स्त्री । गागेज्जं -गथितम् । गागेला - नवपरिणीता । गाडिओ-विधु: । गाणी - गवादनी । गामउडो-ग्रामप्रधानः । गामगोहो- प्र गामणी - ग्रामप्रधानः । - ग्रामप्रधानः । ( १८ ) शशी च । [ गामणो Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गामरोडो अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० २ [ घग्घरं गामरोडो-अन्तर्भेदं कृत्वा यो मायाया गृमं भुनक्तिः । गोंजी-मञ्जरी । गामहणं-ग्रामस्थानम् । गोंडं-काननम् । गामेणी-छागी। गोंडी-मञ्जरी । गायरी-गर्गरी । गोंढो-मञ्जरी । गाहुली-क्रूरजलचरः । गोंदीणं-मयूरपित्तम् । गुंछा-बिन्द्धं धममो रुत ओष्ठमश्राणि चेति । गोअंटा-गोचरणः । गुंजेल्लिअं-पिण्डीकृतम् । गोअंटो-स्थल शङ्कारः। गुंड- गुस्तोद्भवं लचकाख्यं तृणम् । गोअग्गा-रथ्या । गुंढी-नीरङ्गी । गोअला-दुग्धविकयकी । गुडो-प्रधमहयः। गोआ-गगरी। गुंबा--बिन्दावधमे । गोआलिआ-प्रावृषि कीटविशेषः । गुंपा बिन्दावधमे । गोच्चओ-प्राजनदण्डः । गुंफो-शतपदी। गोच्छा-मञ्जरी । गुंफो-गुप्तिः । गोणिक्को-गोसमूहः । गुडदालिअं-पिण्डीकृतम् । गोणो-साक्षी वृषभश्च । गुडोलद्धिआ-चुम्बनम् : गोण्ह-उरः सूत्रम् । गुत्तण्हाणं-पितृभ्यो जलाञ्जलिदानम् । गोमद्धा-रथ्मा । गृत्ती-बन्धनमिच्छा वचनं लता शिरोमाल्यं चेति । गोरंफिडी-गोधा। गुत्थंडो-मासपक्षी । गोरा-लाङ्गलपद्धतिश्च क्षुर्गीवाचेति । गुप्पंतं-शयनीयं संमूढं गोपितं चेति । गोला-गोर्गोदावरी सामाण्येन नदी सखी चेति । गुफगुमिअं-सुगन्धिः। गोलो-मन्थनी । गुमिल-मूढं गहनं प्रस्खलितमापूर्ण च । गोलो-साक्षी। जुम्मइओ-संचलितः स्खलितो विघटितः पूरित: मूठश्च । गोल्हा-बिम्बो। गुम्मिअं-मुलोत्सन्नम् । गोवरं-करीषम् । गुम्मी-इच्छा। गोविओ-अजल्पाकः । गुल-बनम् । गोविल्लं-कञ्चुकः । गुलिआ-बुसिका विलोडितं कन्दुकः स्तबकश्च । गोवो-बाला। गुलुगुंछिअ-वृत्यन्तरितम् । गोसं-प्रभातम् । गुलुच्छं-भ्रमितम् । गोसण्णो-मूर्खः । गॅड-स्तनयोरुपरिवस्त्रग्रन्थिः । गोहुरं-गोविष्ठा । गेंडुई-पीडा । गोहो-प्रामप्रधान: मटः पुरुषः । गेंदुअं-स्तनयोरुपरिवस्त्रग्रन्थिः । गदुल्लं-कञ्चुकः । गेजल्लं-ग्रंवेयकम् । घंघोरो-भ्रमणशीलः । गेड-पङ्को यनश्च । घग्घरं-जघनस्थवस्त्रभेदः । ( १९ ) घ घंधो-गृहम् । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घट्टो] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिस लित: [चहल्ले घट्टो-कुसुम्भरक्तं वस्त्रं, नदीतीर्थ, वेणुश्च । घडिअघडा-गोष्ठी । घडी-गोष्ठी । घणवाहो-इन्द्रः । घणो-उर: : धम्मोई-गण्डुत्संज्ञं तृणम् । घम्मोडी-मध्याह्रो मशको ग्रामणीसंज्ञं तृणं चेति । घरघंटो-चटकः । घरयंदो-आदर्शः । घरिल्ली-पत्नी। घरोलं-गृहभोजनमेदः । घरोलो-गृहगोलिका । घल्लो-अनुरक्तः । घायणो-गायन: । घारंतो-धृतपूरः । घारी-शकुनिकाख्यः पक्षी । घारो-प्राकारः। घिअं-मत्सितम् । घिटो-कुन्जः। घुघुरुडो-उत्कर: । घुग्घुरी-मण्डूकः । घुग्घुच्छणय-खेदः । घुग्घुस्सुसयं-साशभणितम् । घुट्टघुणिअं-गिरेगंडम्, पृथुशिला । घुणधुणिआ-कर्णोपकणिका । घुत्तिअं-गवेशितम् । घुरघुरी-मण्डूकः। घुसिणिअं-गवेषितम् । घुसिरसा -प्रवस्नानं मसूरादीना पिष्टम् । घोरी-शलमविशेषः। घोरो-नाशितो गृध्रपक्षी च । घोलिअं-शिलातालं हठकृतं च । घोसालो-शरदुद्भवो वल्लिभेदः। चंचप्परं-असत्यम् । चंडिओ-कृत्तः । चंडिक्को-रोषः। चंडिजो-पिशुनः कोपश्च । चंडिलो-पीनः । चंदइल्लो-मयूरः । चंदवढ़ाया-अर्धप्रावृतदेहः । चंदसाला-जालकृता गृहोपरिकुटिका । चंदष्टुिआ भुजशिखरम् । चंदिलो-नापितः । चदोज्ज-कुमुदम् । चंभो-हलस्फाटित भूमिरेखा । चउरचिधो-सातवाहनः। चउक्कं-चस्वरम् । चउक्करो-कार्तिकेयः । चकप्पा-स्वक् । चक्क गभयं-नारङ्गफलम् । चवकणाहयं-मिः। चकल-कुण्डल वर्तुल दोलाफछक विशालं चेति । चक्कुलंडा-सर्पविशेषः । चक्कोडा-अग्निभेदः । चक्खडिअं-जीवितव्यम् । चक्खुडणं-प्रेक्षणीयम् । चक्खुरक्खणी-सज्जा । चच्चा-स्थासक: प्रसृतहस्ताघातश्च । चच्चिक्कं-मण्डितम् । चटू-दारुहस्तः । चडिआरो-आटोपः। चडुला-रत्नतिलकुम् । चडुलातिलयं-काञ्चनशृङ्खला बम्बिरनतिलकम् । चडो-शिखा । चत्तो-तकैः । चत्थरी-हासः । चप्फलं-शेखरविशेषोऽसत्यं च। । चरुल्लेवं-नाम । चंगं चारु । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चवेडी ] चवेडो-सपुटम् श्लिष्टं करसंपुटम् । चवेणं वचनीयम् । चट्टननं । चाउला- तण्डुलाः । चाडो - मायावी । चारणओ-ग्रन्थिच्छेदकः । चारवाओ - ग्रीष्मानिलः । अल्पपरिचित सेद्धान्तिक शब्दकोष:, भा० ५, परि० १ चिल्लिरी - मशकः । चिल्लूरं - मुसलम् । चिल्लो-बालः । चोट्टीभल्ली | चीही मुस्तोद्भवं तृणम् । चुंचुओ-शेखरः । चुंचुणिआ च्युतं प्रतिरवो रमणमम्लिका मुष्टिद्यूतं यूका चुंचुमाली - अलसः । चुंचुलिअं - अवधारितं सतृष्णता च । चुंचुलिपूरो- चुलुकः । छो- परिशोषितः । चारो - पियालवृक्षो बन्धनस्यानमिच्छ चेति । चालवासो - शिरोभूषणभेदः । चिचइओ - चलितः । चिचगी-घरट्टिका | चिचा-अम्लिका | चिचिणी-अम्लिका | चिधालं रम्यं मुख्यं च । चिफुल्लणी - स्त्रीणामधोरुकवस्त्रम् । चिक्का - अल्पं चिक्खल्लो - कर्दमः । चिचचं - रमणम् । चिचरो - चिपिटनासः । चिच्ची - हुताशनः । चिच्चो- चिपिटनासः । चित्तठिओ-परितोषितः । वस्तु तनुधारा चेति । चित्तदाऊ - मधुपटलम् । चित्तलं मण्डित रमणीयम् । चिद्दविओ-निर्नाशितः । चिमिणो- रोमशः । चिरया-कुटी । चिरचिरा-3 - जलधारा । चिरिक्का - चर्ममय जलभाण्डम्, तनुधारा प्रत्यूषश्चेति । चिरिचिरा - जलधारा । चिद्दिहि-दधि । चिरिहिट्टी - गुञ्ज । चिलिचिचलं - आर्द्रम् । चिलिचील आर्द्रम् । चिल्ला - शकुनिकारण: पक्षी । चुंभलो - शेखरः । चुक्कुडो-छागः । चुक्को - मुष्टि: । चुज्जं - आश्चर्यम् । थुञ्चुलो - चञ्चुवलकश्च । चुडुप्प-त्वग्विदलनम् । चुडुप्पा-श्वक् । चुडुलो - उल्का । चुग्णओ - विअरओ इति धनपाला आघात इति । चुणओ- चण्डालोऽल्पो बालो मुक्तम्छम्दोऽरोचको व्यक्ति करचेति । चुणिओ- विधारितः । चुणइओ - चूर्णाहतः । चुण्णाआ-कला | चुणासी दासी । चुप्प लिअं नवरक्तं वस्त्रम् । चुप्पलो - शेखरः । चुप्पालओ - गवाक्षः । चुप्पो - सस्नेहः । चुलुप्पो छागः । चुल्ली - शिला । [ चूओ चुल्लो - शिशुर्दासश्च । चुल्लोड्डूओ - ज्येष्ठः । चूओ - स्तनशिखा । ( २१ ) Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूडो ] জামাযগীমানৰণালঙ্কুিলিন: [छुरिमा चूडो-वलयाक्सी। देश्य एव वक्ष्यते ) चेडो-बालः । छिडं-चूग छत्रं धूपयन्त्रं च । चेलुंपुं-मुसलम् । छिप्पं भिक्षा पुच्छं च। चोट्टी-शिखा। छिक्क-स्पृष्टं भुतं च । चोढो-बिल्वः । छिक्कोअणो-असहनः । चोतं-प्रतोदः । छिक्कोट्टली-अहिरवः पादाम्या धान्यमलनं गोमयखण्डं च ।। चोप्फुच्चो-सस्नेहः । छिक्कोलिअं-तनु। चोरलो-श्रावणकृष्णचतुर्दशी। णिण्णच्छोडणं-शीघ्रम् । चोलो-वामनः । छिण्णालो-जाराः । छिण्णो-जार। छंकुइ-कपिकच्छुः । छिण्णाभवा-दूर्वा । छटो-जलच्छटा शीघ्रश्चेति । छित्तं-स्पृष्टम् । छहल्लो-विदग्धः। छिद्दो-लघुमत्स्यः । छिप्पंती-व्रातभेद उत्सवभेदश्चेति । छऊअं-तनु । छडक्खरो-स्कन्दः । छिप्पंदूर-गोमयखण्डं विषमं च । छडा-विद्युत् । छिप्पालुअं-पुच्छम् । छद्वी-शय्या । छिप्पालो-सस्यासक्तो पौः । छप्पती-नियमविशेषो यत्र पद्म विख्यते । छिप्पिडी व्रतोत्सवभेदः पिष्टं च । छप्पण्णो-विदग्धः। छिप्पोरं-पलालम् । छमलमओ-सप्तच्छदः । छिल्लं-छुद्रं कुटी च वृत्यन्तरमपाति । छलिओ-विदग्धः । छिल्लरं-पल्वसम् । छल्ली-स्वक् । छिल्ली-शिखा । छवडी-चर्म । छिवओ-समूहो नीवी च । छाइल्लो-प्रदीप: सहशः ऊनः सुरूपश्च । छिवि-इक्षुखण्डम् । छाईओ-मातरः। छि-कृत्रिमम् । छिन्वोल्लो-निन्दार्थ मुखविकृतणम् । छाओ-बुभुक्षितः कुशश्च । छाणं-धान्यादिगलनं पोमयं वस्त्रं चेति । छिहंडओ-दधिसरः । छाया-कोतिभ्रंमरी च। छिहिडिभिल्लं-दधि । छारयं-इक्षुशल्क मुकुल च । छुछई-कपिकच्छूः। छारो-अच्छमल्लः । छुछुमुसयं-रणरणकः । छासो-तक्रम् । छुद-बहु । छाही-गगनम् । छंद्धहीरो-शिशुः शशी च । छिछओ-देहो जारश्च । छुई-बलाका । छिछटरमण-चक्षुः स्थमन क्रीडा । छुरमड्डो-क्षुरहस्त: नापितः । छिछोली-राहली ( वाहली शब्द अघुजलप्रवाहवाचको छुरिआ-मृत्तिका । ( २२ ) Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छुहि ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० २ ई जोइसं छुहिअं-लिसम् । छेडा-शिखा नवमालिका च । छडी-लघुरध्या। छेओ-अन्तो देवरश्न । छेत्तरं-जीणं शूर्पाद्युपकरणम् । छत्तसोवणयं-क्षेत्रे जागरणम् । छेधो-स्थासकश्चौरश्च । छेभओ-स्थासकः । छलओ-छागः । छेलो-अल्पप्रसूना माला । छोइओ दासः । छोभत्थं-अप्रियम् । छोड्भाइत्तो-अस्पृश्या देश्या च । छोन्मो-पिशुनः । छोहो-ससूहो विक्षेपश्च । जंकयसुकओ-अल्पसुकृतग्राह्यः । जंगा-गोचरभूमिः । जंघाछेओ-चत्त्वरम् । जंघामो जङ्घालवाचकः । जंघालुओ-जङ्घालवाचकः । जंपण-अकीतिकं च । पिच्छओ-यथादृष्टमभिलषिता । जंबालं-जलनीली शेवाश्चम् । जंबुओ-बेतसवृक्ष: पश्रिमदिक्पालन । जंबुलं-मद्य भाजन मिति सातवाहनः । जबुलो-वानीरः । जभणओ-यथेष्टवक्ता। नभलो-जडः । जंभो-तुषः । जनवरत्ती-दीपालिका । जगडिओ-विद्रावित: कथितः। जगलं-पङ्किला, सुरा, पङ्किम सरकः । जनचदणं-मगुरुः कुङ्कुम च । जच्चा -पुरुषः । जच्छंदओ-स्वच्छन्दः । जडि-खचितम् । जणउत्तो-ग्रामप्रधानपुरुषो विश्व । जण्णोहणो-राक्षसः। जण्हं-लघुपिठरं कृष्णम् । जण्हली-नीवी। जयणं-हयसंनाहः । जरंडो-वृद्धः। जवओ-यवाङ्कुरः । जवणं-हमशिखा । जवरओ-यवाङकुरः । जहणसवं-अर्बकम् । जहाजाओ-जडः । जहिमा-विदग्धरचिता गाया। जाई-सुरा। जाऊरो-कपित्थः । जाडो-गुल्मम् । जालडिआ-चन्द्रशाखा । जिग्घिअं-घातम् । जिण्णोमबा- दूर्वा । जोवयमई-मृगाकर्षणहेतुाधमृगी । जुजुरुडो-उपरिग्रहः । जुअलिअं-द्विगुणितम् । जुअलो-तरुणः । जुण्णो-विदग्धः । जुरुमिल्लं-पहनम् । जूबओ-चातकः। जूरुम्मिलयं-गोपालः । जेमणयं-दक्षिणमङ्गम् इत्यादि । जो-र य: किरः । जोआणे-लोचनम्। जोइंगणो-इन्द्रगोपः । जोइओ-खद्योतः । जोइक्खो -दीप: । जोइसं-नक्षत्रम् । २३ ) ( Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोई ] जोई - विद्युत् । जोओ- चन्द्रः । जोक्खं मलिनम् । जोग्गा चाटु | जोडं-नक्षत्रम् । जोडिओ-व्याधः । - जोण्णलिआ - जोवारी धान्यम् । जीवो-बिन्दुः स्तोकं च । जोव्वणणोरं-पयः परिणामः । जोन्वणवे अं-वयः परिणामः । जोव्त्रणोवयं-वयः परिणामः । जोहरो - स्वचितः । झंकारिअं - प्रवचयनम् । । खरिअं - अवचयनम् भंखरो - शुष्कतरुः खो- तुष्टः । भंटलिआ - चङ्क्रमणम् । । डी- निरन्तरवृष्टि: । भत्यं गतं नष्टं च । कमाल - इन्द्रजालम् । झरं को- तृणमयः पुरुषः । भरओ- सुवर्णकारः । टिअं-प्रहृतम् । झंटी - लघु केशाः । भंडली असती । झंडुओ - पीलुवृक्षः । झंडुली - असती क्रीडा च । कंपणी-पक्ष्मम् । पिअं त्रुटितं घटितं च । झक्किअं- वचनीयम् । झञ्झरी-स्पर्शपरिहारार्थं चाण्डालादीनां हस्तयष्टिः । खिविखरीति । झरुओ-मशकः । झलकालिआ झोलिका । झ आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित : झला - मृगतृष्णा । भलं किअं- दग्धम् । झलुसिअं - दग्धम् । सिअं - पर्यस्तमाक्रुष्टुं च सुरं - ताम्बूलमर्थश्च । सो-टच्छिन्नमयशस्तटस्तटस्यो, दीर्घगम्भीरचेति । भाउलं - कर्पासफलम् । झाडं- लतागहनम् । कामरो - प्रवयाः । कामिअं- दग्धः । भारुआ - चोटी । झिखिअं - वचनीयम् भिरिडं - जीर्णकूपः । भिल्लिरिआ-चीही तृणं मशकश्च । कोण - अङ्ग कीटश्च । भीरा-लज्जा । भुंखो - तृणयाख्यो वाद्यविशेषः । झुंझुमु सयं मनोदुःखम् । -प्रवाहः । - अलीकम् । भुती छेदः । झुल्लुरी - गुल्मः । क्रूर-कुटिलम् " भूसरिअं अत्यर्थं स्वच्छं च । डुओ-कदुकः । भेरो-जरघण्टः । झोंड लिआ - रासकसदृशी क्रीडा । फोटो- अर्धमहिषी । कोप्पो चवक्कश्वान्यम् शुष्कचणक शाकम् । भोडिओ-व्याधः । ( २४ ) टंकि अं- प्रसृतम् टंको स्वाङ्गनं खातं जङ्घा खनित्रं, मित्तिस्मटं चेति । टंबरओ-मारिक: गुरुः । टवकारी - अरणिकुसुमम् । [ टक्कारी ट 1 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टट्टइआ ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०५; परि० २ [ ढंखरी टट्टइआ-तिरस्करणी। टप्परओ-करालकर्णः । टमरो-केशचयः। टसरं-विमोटनम् । सरोदें-शेखरः । टारो-अधमतुरङ्गः। टिंबरु-तुम्बुसः । टिक्कं-शिरसि स्तबकम् । टिक्कं-तिलकम् । टिग्घरो-स्थविरः । टिप्पो-तिलकम् टुटो-छिन्नकरः। टेंटा-छूतस्थानम् । टेषकरं-स्थलम् । टोक्कणं-मद्यपरािमभाण्डम् । टोलंबो-मधूकः। टोलो-शनमः पिशाच इत्यन्ये । डप्फं-सेलास्यमायुधम् । डल्ल-पिटिका । डम्वो-वामकरः। डहरी-अलिञ्जरम् । डहरो-शिशुः । डाअलं-लोचनम् । डाऊ-फलिहंसकवृक्षो गणपतिप्रतिमाविशेषन । डाली-शाखा । डावो-वामकरः । डिडिल्लिअं-स्खलिते हस्ते इति केचित् । डिंडी-सूच्या संघटित्तानि वस्त्रखण्डानि । डिफिअं-जलपतितम् । डिअली-स्थूणा । डिडिल्लिअं-चालिखचितं वस्त्रम् । डिड्डुरो-भेकः । डोणं-अवतीणंम् । डोणोवयं-उपरि । डोरं-कन्दलः । डुगरो-शैलः। डुंघो-उदश्चनविशेषो नामिकेरमयः । डुडुओ-जीणंघण्टः । डुबो-श्वपचः । डोगिलो ताम्बूलमाजनविशेषः ताम्बूलिनीत्येके । डोंगी-स्थासकस्ताम्बूलभाजनविशेषश्च । डोअलं-लोचनम् । डोओ-दारुहस्तः। डोला-शिबिका। डोलिओ-कृष्णसारः। डोलो-लोचनम् । ठइओ-उरिक्षप्तत: अवकाशः । ठरिअं-गौरविभूर्वस्थितं च । ठल्लो-निर्धनः । ठविआ-प्रतिमा। ठाणिजो-गौरवितः । ठाणो-मानः । ठिक्क-शिश्नम् । ठिविअं-उध्वं निकट हिक्का च । डडं-सच्या संघटितानि वनखण्डानि । उंडओ-रथ्या । डंबरो-धर्मः । डंभिओ-बूत कारः । डबकं दन्तगृहीतम् । डग्गलो-भवनोपरि भूमितवम् । डड्ढाडी-दवमार्गः । अल्प० देस्य० ४ ढंकणी-विधानिका । ढंकुणो-मत्कुणः ढंको-वायसः । | ढुंखरी-वीणाभेदः । ( २५ ) Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढंढणो] আলখাঙ্কুিলিনঃ [ णिरि ढंढणी-कपिकच्छूः । ढंढरिओ-कर्दमः । ढंढरो-पिशाच ईया । ढंढलिओ-ग्रामयक्षः । ढंढो-पङ्को निरर्थकन । ढंसयं-अयशः । ढक्कयं-तिमकम् । ढड्डो-भेरी। ढयरो-पिशाच ईया। ढमरं-पिठरमुष्णजलम् । ढिढयं-जलमध्यपतितम् । ढिक्कये-नित्यम् । ढेंका-हर्षः कूपतुला च । ढेको-बलाका । ढंकुगो-मत्कुणः। टॅढिओ--धूपितः । देलो-निर्धनः। ढोंघरो भ्रमणशोषः । पडली-कच्छपः । णण्णो-कूपो दुषंनो ज्येष्ठो भ्राता चेति । मत्था-नासारज्जुः । पद्धबवयं-अघूण: निन्दा चेति । णद्धो-आरुठः । द्विमओ-दुःखितः । णमसिब-उपयाचितकम् । णलयं-उशीरम् । णलिअं-गृहम् । जल्लयं-कर्दमितं वृत्तिविवरं प्रयोजनं निमित्तं चेति । णवरिअ-सहसा । वोद्धरणं-उच्छिष्टम् । जवाउत्तो-ईश्वर: नियोगिसुतः । पटवो-आयुक्तः । णहमुहो-घूकः । णहरी-क्षुरिका । महवल्ली - विद्युत् । गाओ-गबिष्टः । गाउड्डो-सद्भावोऽभिप्रायश्च मनोरथम् । पाउल्लो-गोमानम् । जामोक्कसि-कार्यम् । णारोट्टो-बिलम् कूसारम् । जालंपिअं-आकन्दितम् । जालंबी-कुन्तसः । जाहिदाम-उल्लोचमध्यदाम् । णाहिविच्छेओ-जधनम् । णाहीए-विच्छेयो जघनवाचकम् । गिदिणी-कुदृणोदरणम् । णिअंधणं-वस्त्रम् । णिसणं-वस्त्रम् । णिअक्कलं-वलम् । णिअढी-दम्भः । णिअत्थं-परिहितम् । |णिअयं-रतं शयनीयं शाश्वतं घटश्च । |णिअरिअं-निकरेण स्थितम् । गंद-इक्षुपीडनकाण्डं कुहास्यो भाण्डविशेषत्र । गंदओ-भृत्यः। जंदा-गोवाचकः । जंदिरं-सिंहरूतम् । णंदिक्खो-सिंहः। गंदिणी-गोवाचकः । णंदो-गोवाचकः । णहमासयं-जबोद्धवः फलभेदः । णको-घ्राणं मूकश्च । गवखत्तरणेमी-विष्णुः । ञ्चिरो-रमणशीलः। महारो-मस्विनः । णज्झरो-विमलः । णडिओ-वश्चितः। णडुरं-रसं दुदिनं । णड्डरो-भेकः। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिअलं अल्पपरिचितसेवान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि०२ [णिविद्धो णिअलं-मूपुरम् । णिआणिा -कुतृणोद्धरणम् । णिआरं-रिपुगृहम् । णिउक्कणो-बायसो मूकश्न । णिउक्को-तूष्णोकः । णिकडो-अनवस्थितः। णिककड-कठिनम् । णिक्खयं-निहतम् । णिक्खसरिओ-मुषितः अपहृतसारः । णिक्खुड-अकम्पम् । णिक्खुरिअं-अदृष्टम् । णिक्खो-चोरः काञ्चनं च । णिगढो धर्मः । णिग्गा-हरिद्रा । णिग्गणं-निर्गतम् । णिग्घटो-कुशलः । णिग्घोरा-निर्दयः । णिच्छुडो-निर्दयः । णिखाओ-उपकारः। णिज्जूहो-तीव्रम् । णिो-सुत्यः । णिखोओ-प्रकरः पुष्वावकरः । णिडोमी-रश्मिः । णिज्झर-जीर्णम् । णिज्झाओ-निर्दयः। णिज्भूरं-निर्दयः इत्यन्ये । गिट्टक-टङ्कच्छिन्नं विषम च । णिठूहिअं-धूस्कृतम् निष्ठचूतम । णिडो-पिशाचः । णिळूहो- स्तब्धः । णिण्णाला-चञ्चुः । णित्ति रडिअं-त्रुटितम् । णित्तिरडी-निरन्तरम् । णिबंधसो-निर्दयः । णिद्धओ-अविभिन्नग्रहः। |णिद्ध मणं-गुहजलप्रवाहः । णिद्धमाओ-अविभिन्नग्रहः । रिणद्धमो-अविभिन्नगृहः । णिद्धमो-एकमुखयायी। रिगप्पट्ठो-अधिकः । णिप्पिच्छं-ऋजू दृढं च । णिप्फरिसा-निर्दयः । णिप्फेसो-शग्दनिगमः। णिडमग्गं-उद्यानम् । णिभुग्गो-भग्नः । जिमेणं-स्थानम् । णिमेल-तमासम् । णिमेला-धनपालः। णिम्मंसा-चामुण्डा । हिम्मंसू-तरुणः । णिम्मओ-गतः। णिरंगो-शिरोऽवगुण्डनम् । णिरक्को-चोरः स्थितः पृष्ठं च । णिरप्पो-पृष्ठमुद्वेष्टितं । णिराओ-प्रकट ऋजू रिपुश्च । णिरादो-नष्टः । णिराह-निर्दयः । णिरिको-नतः। णिरिअं-अवशेषितम् । णिरुतं-निश्चितम् । णिरुली-मकराकृग्राहः । विक्कयं-अकृतम् । जिलंको-पतग्रहः । णिलेहणं-गृहं जघनं च । णिल्लंको-पतग्रहः । णिल्लसिअं-निर्गतम् । णिवच्छणं-अवतारणम् । णिवहो-समृद्धिः । णिवाओ-स्वेदः । णिग्विद्धो-सुप्तोस्थितो निराश उद्धरी नुशंसश्च । ( २७ ) . Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिन्वं ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ तण्णायं एण्डुरिआ-भाद्रपदोज्जवलशम्या, कश्चिदुत्सविशेषः। णेलच्छो-षण्डः वृषमः । लिच्छी-कूपतुला। ऐसत्थी-वणिक्सचिवः। सरो-रविः । णोउड्डो-सद्भावः । णाडालो-पट्टवासिता शिरोभूषणभेवः । णोमो-रश्मिः रज्जुः । णोलइआ-चञ्चुः । णोलच्छा-चञ्चुः । णोम्वो-आयुक्तः । णिव्व-ककुदं ब्याजश्च । णिवढो-तग्नः। णिवमि-परिभुक्तम् । णिज्वलिअं-जलधीतं प्रविमःणतं विघटितं च । णिव्वहणं-विवाहः । णिवाणं-दुःखकथनम् । णिन्विटुं-उचितम् । णिवित्तो-सुप्तोत्थितः । णिवूढं -गृहपश्चिमाङ्गनम् । णिन्वूढा- स्तब्ध: । णिवेढो-नग्नः । गिरिसो-अति निर्दयः । णिसत्तो-संतुष्टः । णिसामिअं-श्रुतम् । णि सायं-सुप्तप्रसुप्तम् । णिसुअं-श्रुतम् । णिसुद्ध-पातितम् । णिस्संको-निभरः । णिस्सरिसं-स्रस्तम् । णिहणं-कूलम् । णिहसो-वल्मीकः । णिहाओ-स्वेदः समूहश्च । णिहुअं-निव्यापार तूष्णीकं सुरतं । णिहुआ-कामिता। णिहुणं-व्यापारः । पिहू-सुरतम् । णोआरणं-बलीघटी। णोरंगी-शिरोऽवगुण्डनम् । णीलकंटी-बाणवृक्षः । णोसंपायं-परिश्रान्तजनपदम् । जोसणिआ-निःश्रेणी। णीसारो-मण्डपः । णोसीमिओ-निर्वासितः । णीहरिअं-शब्दः । पुवष्णो- सुप्तः । तंट पृष्ठम् । तंडं-कविकासालकं स्वरोविहीनं स्वराधिकं चेति । तंतडी-करम्बः। तंतुक्खोडी-वायकतन्त्रोपकरणम् । तंबकिभी-इन्द्रगोपः। तंबकुसुमो-कुरवकः । तंबटक्कारो-शेफाखिका । तंबा-गोः । तंबिरा-गोधूमेषु कुकुमच्छाया । तंबेही-शेफालिका। तक्करणा-इच्छा। तग्ग-सूत्रम् । तच्छिडं-करालम् । तट्टी-वृतिः । तडमडो-क्षुभितः। तडवडा-आउलिवृक्षः। तणं-उत्पलम् । तरणयमुद्विआ-अगुतीयकम् । तरणरासो-प्रसारितम् । तणवरंडो-उदुपः । तरणसोली-मल्लिका । तरणेसी-तृणप्रकरः। तण्णायं-आद्रम् । ( २८ ) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्तिल्लो] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० २ तत्तिल्लो-तस्परः। तालूरो-आवर्तः फेनः कपित्थतन्त्र । तत्तो-तत्परता आदेशश्च । तिगिआ-कमक्षरजः । तत्तु डिल्लं-सुरतम् । तिगिच्छी-कमलरणः । तद्विअचयं-नृत्यम् । तिक्खालिअं-तीक्ष्णीकृतम् । तद्विअसं-अनुदिवसम् । तिणिसं-मधुपटक्षम् । तमणं-चुलिः । तित्तिरिसं-स्नानाम् । तमरणो-भुजो भूषं च। तित्ती-सारम् । तमो-शोकः । तितु-गुरुः। तरफडिअं-परितनलितम् । तिमिगिलो-मोनः । तरवट्टो-प्रभुनाटः । तिमिच्छाहो-पथिकः। तरसं-मासम् । तिमिणं-बादारुः। तरिअव्वं-उडुपः। तिमिरिच्छो-करअद्रुमः। तल-ग्रामेशः शय्या च। तिरिडिअं-तिमिरयुतं विचित । तलआगत्ती-कृपः । तिरिडो-तिमिरवृक्षः। तलक्तो-कर्णाभरणविशेषो वराङ्ग । तिरिड्डी-उष्णवातः। तलप्फुलो-शालिः। तिरोवेई-वृत्यन्तरितः। तलसरि-गालितम् । तिविडा-सूचीति । तलारी-नगरारक्षकः। तिविडी-पुटिका । तलिमो-कुट्टिमं शय्या गृहोर्श्वभूमिवसिमवनं प्राष्ट्रम। | तिव्वं-दुर्विषहम्, अत्यर्थमिति सातवाहनः । तल्लं-पल्वलं बरुकास्यं तृणं शम्या चेति । तुंगी-रात्रिः। तल्लड-शय्या । तुंडीरं-मधुरबिम्बम् । तल्लिच्छो-तस्परः । तुंडूओ-जीणंघटः। तवओ-व्यापृतः। तुतुक्खुडिओ-स्वरायुक्तः। तवणी-भक्षणयोग्यम् कणादि । तुंबिल्ली-मधुपटनमुखा । तसि-शुष्कम् । तुच्छं-अवसुष्कम् । तहरी-पङ्किला सुरा । तुच्छयं-रञ्जितम् । तहलिआ-गोवाटः। तुणेओ-मुकास्यस्तूयं विशेषः । ताडिअयं-रोदनम् । तुहिक्को-मृदुनिश्चमः। तमरं-रम्यम् । तुण्हो सूकरः । तामर सं-जसोद्भवपुष्पम् । तुप्पो-कौतुकं विवाहः सर्षपोदे, नक्षितः स्निग्धा स्तुपश्च । तारत्तो-मुहूर्तः । तुरी-पीनं तूलिकानामुपकरणम् । तालप्फलो-दासी । तुलग्ग-काकतालीयम् । तालहलो-शालिः । तुलसी-सुरसलता । ताला लाजाः । थुसे अजंभ-दारुः । तालूरो-आवर्तः। तूओ-इक्षुकर्मकरः । ( २९ ) Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तूलिणी ] तुलिणो- शास्मलिः । तूहणो- पुरुषः । तेंडुअं-तुम्बरुः । तेड्डो - शमभः पिशाच । तोंतडी - करम्बः । तोअओ-पातकः । तोक्कओ - अनिमित्ततत्परः । तोडणी - असहनः । तोमेरिओ शमार्थकः । थंडिल्लं - मण्डलम् । थं वं- विषमम् । थउडुं - भल्लातकम् । थक्को - अवसरः । तोमरी - वल्ली । तोलणो- पुरुषः । तोट्टो पट्टिकाः कर्णाभरणभेदः, कमलकणिका चेति । थुण्णो-हसः । तो सं-धनम् । थग्गया चतुः । थग्धो- गावः । थट्टी- पशुः । यत्तिअं - विश्रामः । थमिअं- विस्मृतम् । थरहरिअं - कम्पितम् । थरू-रसरुः । थरो- दधिसरः । थलओ - मण्डपः । थवलो- प्रासारितयोपविष्टः । ' थवी - प्रसेविका । थबो- पशुः । थसलो - विस्तीर्णः । सो विस्तीर्णः । आचार्यश्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलितः थहो - नमः । थामो - विस्तीर्णः । थारो घनः । थाहो - दीर्घः । front - निःस्नेहहृदयो हताश्वति । थिमि - स्थिरतम् । थिरणामो - चलचितः । थिरसीसो- निर्भीको निर्भो बद्धशिरस्त्राणा । थुक्कअं - उन्नतम् । थुडुं किअं - दरकुपितवदन संकोचन मौनं चेति । थुडहीरं चामरम् । थुरुणुल्लणयं - शय्या | थुमो- पदकुटी । युलो परिवर्तितः । - अश्वः । थूरी - तन्तुवायोपकरणम् । थूलघोणो-सूकरः । यूहो- प्रासादशिखरं जातको बाल्मीकं च । यो णिनिअं - हृतं भीतं च थेरासणं- पद्मम् । थे-ब्रह्मा । थेरिअं जन्मनि तुर्यम् । थेवो - बिन्दुः । थोओ-रजको मूलका । थोरो - कमप्रयुपरिवर्तुलः । थोलो - वत्रेकदेशः । थोहं-बलम् । दंडी - सूत्र कनकम् । दंतोपदेशः । दरं - अर्धम् 1 व१ १ अहिं सुधि अकारादि व्यवस्थित हता तेथी तपास्या नहि पण प्रुफ बखते तेमां भूलदेवातां ते जेय हता तेम जे राख्या छे. तो वाचनार पुण्यवानो अवसरे शब्दो जोड़ने उपयोग करशे एहवी आशा अस्थाने न गणाय । ( ३० ) [ दरं Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दयं। अल्पपरिचितसैदान्तिकशब्दकोषः, मा० बयं-जल शोकइत्यन्ये । दवो-गद्गदः। दच्छ-तीक्ष्णम् । बसेरो-सूत्रकनकम् । वसू-शोकः । बअरी-सुरा । दमो -दरिद्रः । दत्थरो-हस्त शाटकः । दक्खडो-गृध्रः । दंतियो-शशकः । बवरो-तन्तुः। बहित्थो-कपिस्थ । दइ-रक्षितम् । दयाइयं-रक्षितम् । दहवडो-घाटी। दहिउप्फ-नवनीतम् । क्यावणो-दीनः । दवहुत-प्रीममुखम् । दहित्थारो-दधिसः। दहबोल्ली-स्थानो। दरवल्लो-ग्रामस्वामी । दअच्छरो-ग्रामस्वामी। दमिल्लं-धनम् । दरमत्ता-बलात्कारः। दरंदरो-उल्लासः। दरवल्लहो-दयितः। दरवाणहेलणं-शून्यगृहम् । दाओ-प्रतिभूः । दारो-कटिसूत्रम् । दोरो-कटिसूत्रम् । दालिअं-चक्षुः । दारिआ-वेश्या । दारद्धंता-पेटा। दादलिया-अङ्गतिः । दिओ दिवसः । दिवा-सुवर्णकारः । दिपंतो-अनर्थः। विश्वासा-चामुण्डा । दिअलिओ-मूर्खः। दिआहमो-चासपक्षो। दिअसि-सदाभोजनं बनुदिनम् । दिआहुत्तं-पूर्वाह्नभोजनम्। विल्लिदिलिओ-बारः। दिअधुत्तो-काकः । दीवओ-कृकमासः । दोहजीहो-शबः। दुल्लं-वस्त्रम् । दुत्ति-शीघ्रम् । दुत्थं-जघनम् । दुक्खं-जधनम् । दुलो-कूर्मः । धुद्धओ-समूहः । दुक्कर-माधे रात्री चतुर्यामलानम् । दुब्बोलो-उपालम्भः। दुद्दोलो-वृक्षपतितः। दुल्लग-अघटमानम् । दुत्थोहो-दुर्भगः। दूसलो-दुर्भगः । दूहलो-दुर्भगः । दुम्मुहो-मर्कटः । दुमणी-सुधा । दुग्घुट्टो-हस्ती । दूगो-हस्ती। दुजायं-व्यसनम् । दुक्कुहो-असहनः। दुद्दमो-देवरः । दुहओ-चूर्णितः । दुणिक्को-दुश्चरितः। दुण्णिक्खित्तो-दुश्चरिता। दुंदुमिणो-रूपवती । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुंदुभिवं] माचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ पथमरो दुद्धिणी-तुम्बी। दुच्चंडिओ-दुर्लक्षितो दुर्विदग्धत्र । दुप्परिअल्लं-अशक्यं तडागश्च । दोसो-अ, कोपश्च । दोहणहारी-जलहारिणी परिहारिणी छ । दुंदुभिअं-गलगजितम् । दुल्लसिआ-दासी । दुरंदरं-दुःखोत्तीर्णम् । दुखोलणी-यो दुग्धापि दुपते । दुरालोओ-तिमिरम् । दुअक्खरो-षण्डः । दुर्मतओ-केशबन्धः। दुम्मइणो-कलहशीला स्त्री। दुत्थुव्हहो-पुरुषः । दुंबवत्ती-सरित् । दुक्कुक्कणिया-पतग्रहः । दूहट्टो-लज्जादुमनाः । देहणी-पकः । दोहणी-पङ्कः । देवउप्पं-पक्वपुष्पम् । दोगं-युग्मम् । बोद्धिओ-चर्मकूपः। दोएओ-शवः । दोओलो-वृषभः । दोवेली-सायं भोजनम् । दोरगओ-आयुक्तः । दोसिणी-ज्योत्सना। दोहासलं-कटीतटम् । दोसारिणअं-निर्मलीकृतम् । दोणक्का-सरघा । दोसाकरणं-कोपः । दोसणिज्जतो-चन्द्रः । दलिअं-निफूणिताक्षं दारु अगुती ।। दरविंदरं-दर्षि विरलं च । दामणी-प्रसवो नयनं . दोविआ-उपदेहिका मृगाकर्षणीव्याधमृगी च। दुग्गं-दुःखं कटी च । दुअित्थं-जघनस्थितवस्त्रं जघनं च । दुच्चबालो-कलहनिरतो दुश्चरितः पुरुषवचन ।। दुद्धिणा -स्नेहस्यापन भाण्ड । ( धओ-पुरुषः । धणिया-प्रिया । धणिों -गाढम् । धणी-भार्या पर्याप्तिर्वोऽपि निशखश्च । घण्णा-आशीरेवेति, कध्यमानाशीर्वादः। धम्मओ-चतुरङ्गुमो हस्तव्रणश्चण्डो पुरुषोपहारश्च । धयणं-गृहम् । धरग्गो-कार्यासः । धरं-तूलम् । थवलसउणो-हंसः । धवलो-यो यस्या जातानुत्तमः । धन्यो-वेगः । घसलो-विस्तीर्णः। भाडिओ-बारामः । धाडी-निरस्तम् । धागरिक-फलभेदः । धारा-रणसुखम् । घारावासो-मेषो भेकश्च । धार-लघु । धुअगाओ-भ्रमरः । धुक्कुधुआं-उल्लसितम् । धुक्कुदधुगिअं-उल्लसितम् । धुंधुमारा-इन्द्राणी। धूणो-गजः । धूमहारं-गवाक्षः । धूमद्धओ-तटाको महिषश्च । धूमद्धयमहिसोओ-कुत्तिया । | धूममहिसो-नीहारः। धूमरी-नीहारः। ३२ ) Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूमसिहा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकान्दकोषः, मा० ५, परि०२ दिवं धूमसिहा-नीहारः। पञ्चवरं-मुसलम् । धूमिआ-नीहारः । पञ्चवल्लोको-आसक्तचित्तः । धूमंगो-भ्रमरः । पच्चुच्छहणो-नवसुरा। धूरिअं-दीर्घम् ।। पच्चुत्थं - प्रत्युप्तम् । धूलोवट्टो-अश्वः । पच्चुद्धारो-संमुखागमनम् । धंगो-भ्रमरः । पच्चुहिअं--स्प्रतुतम् । धंधा-लज्जा । पच्चूढो-स्थालम् । घंसाडिओ-व्यपगतः। पच्चूहो-रविः। पच्चेडं-मुसलम् । पइअं-मत्सितं रथचकं च । पच्चोवणो-संमुखागमनम् । पइट्ठाणं-नगरम् । पन्छी-पिटिका । पइट्ठो-शातरसो विग्लं मार्गश्च । पच्छेणयं-पाहेज्वं पाथेयम् । पइण्णो-विपुलः । पजणं-पानम् । परिक्कं-विशालमेकान्तं शून्यं च । पखा-अधिरोहिणी। पइहंतो-जयन्तः । पज्जुणसरं- इक्षुसदृशं तृणम् । पउओ-दिनम् । पट्टिसंग-ककुदम् । पउणो-द्रणप्ररोहो, नियमभेदश्च । पडच्चरो-श्यालप्रायी विदूषकादिः । पउत्थं-गृह प्रोषितं च । पडलं-नीव्रम् । पउढो-गृहस्य पश्चिम प्रदेः । पडवा-पटकुटी। पउढं-गृहम् । पडु-धवलम् । पउमलओ-वसन्तः । पड्डत्थी-नहुदुग्धा दोहनहारिणी च । पएरो-वृतिविवरमार्गों दुःशीख: कण्ठदीनाराख्यभूषणभेद: पड्डुला-चरणघातः । कण्ठे विवरं दीननाद । पड्डल्ल-लघुपिठरम् चिरप्रसृतं च । पएतो-प्रातिधिमकः । पड्डसं-सुसयमितम् (?)। पक्कग्गाहो-मकरः । पहुंसो-गिरिगुहा । पक्कणो-अतिशयशोभमानो मग्नः प्रियंवदश्च । पडाली-पङ्क्तिः । पक्कणो-असहनः समर्थश्च । पडिअग्गि-परिभुक्तं बर्धापितं पाक्षितं चेति । पक्को-दृप्तः समर्थश्च । पडिअज्झओ-उपाध्यायः । पक्कसावओ-शरभो व्याघ्रश्च । पडिअरो-चुल्लीमूलम् । पक्खडिअं-प्रस्फुरितम् । पडिअली-त्वरितः। पक्खरा-तुरगसन्नाहः । पडिअं-निर्घाटितम् । पक्वोडिअं-निर्घाटितम् । पडिअंतओ-कर्मकरः । पग्गेजो-निकरः । पडिएल्लिओ-कृतार्थः । पञ्चत्तरं-चाटुः। पडिक्खरो-क्रूरः। पञ्चलो-असहनः समर्थश्च । | पडिखधं-जलवहनम् । अल्प० देश्य० ५ ( ३३ ) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढिसंधी ] पाडलधा - जलहनम् । पडिछंदो-मुखम् । पडिच्छिआ-प्रतिहारी । पच्छिआ - चिरप्रसूता महिषीत्यन्ये । पडिच्छओ - समय: । पडिणिअसणं-रात्रोपरिधेयवस्त्रम् । पडित्थिरो - सदृश: । पडिपिडि प्रवृद्धम् । पंडिरंजिअं- भग्नम् । पडिलग्गलं-वरभीकम् । पडिलग्गलं-वल्भीकम् । पडल्ली - वृत्तिस्तिरस्फरिणी च । पडिवेसो-विक्षेपः । पडसाओ - घघरकण्ठः । पडिसारिअं स्मृतम् । पडिसारी जवनिका । पडिसारो - पटुत: । पडिसिद्धं भीतं भग्नं च । पडित्तो - प्रतिकूलः । पडसूरो - प्रतिकूल: । पडितं प्रतिकूल: । पडत्थी - वृद्धिः । पडित्यो पूर्णः । पडीरो- चोरसमूहः । पड्डी- प्रथम प्रसृता । पडुजुवई - तरुणी । पडुआलिअं - पकृतं ताडितं धारिधं चेति । पडुवइअ - तीक्ष्णः । पडुबत्ती - जवनिका । पड्डुआ - चरणघातः । पडोओ-बालः । पडोहरं - गृहपश्चिमाङ्गणम् । पहुंचा ज्या । वाचार्य श्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलित: पाया। पण अत्तिअं - प्रकटितम् । पणओ-पङ्कः । पणमणिआ-स्त्रीषु प्रणय: पहओ - स्तनधारा । पणिआ-करोटिया | पणिअं - प्रकटम् । पत्तट्ठो - बहुशिक्षित: सुंदरा । पत्तपसाइआ - पुलिन्दशिरसि पर्णपुटं । पत्तणं बाणस्य फलं पुङ्खच । पत्त पिसालसं - पुलिन्दशिरसि यत् पर्णपुटम् । पत्थर भल्लिअं - कोलाहलकरणम् । पत्थरिओ- पलव: । पत्थरा चरणघातः । पत्तलं - तीक्ष्णः कृशम् पत्रबहुलम् । पत्तिभिर्द्ध- तीक्ष्णः । पत्ती - पुलिन्दशिरसि यत्पर्ण पुढं तद्वाचकः । पत्थरी-निकरः प्रस्तरश्च । पत्थिओ - शीघ्रः । पत्थीणं - स्थलवस्त्रम् । पहुं- ग्रामस्थानम् । पद्धरं ऋजु । पद्धारो - छिन्नलाङ्गुलः । पवीओ- चातकः । परफाडो - अग्निभेद: । परिफडिअ - प्रतिफलितम् । पप्फुअं - दीर्घ मुडीयभानं च । परफोडिअं-निर्झटितम् । भारो - संघातो गिरिगुहा च । प०मोओ-भोगः । पम्हरो - अपमृत्युः । पहलो- किञ्जल्कः । पम्हारो - अपमृत्युः । - प्रवर्ततः । पयडूणी - द्वाःस्था प्रतिहारी, आकृष्टिराकर्षणम् महिषी, सामान्यतापि विप्रसूतो गृह्यते । पथयं अनिशम् । ( ३४ ) [ पययं Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयला ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०५; परि०२ [ पहदं मा पयला-निद्रा । पयलाओ-हरः सर्वत्र पयलायभत्तो-मयूरः । पयलो-नीडम् । . पयवई-सेना । पयायं-लनुपूर्वम् । - पवद्धो-घनः लोहफुट्टनोपकरणम् । पवरंग-शिरः। एवहाइअ-प्रवृत्तम् । पवइसेल्लं-बालमयकण्डकम् । पवल्लो-नखः शरो बालमृगश्च । पविआ-पक्षिणां पानभाजनम् । पविद्धं-प्रेरितम् । परक्कं-मल्पं स्रोतः । परडा-सर्प विशेषः। परभाओ-सुरतम् । परसुहत्तो-वृक्षः । परद्धं-पीडितं पतितं भोरु च । परिअडी-वृत्तिमूर्खश्च । परिअलिअं-परिच्छिवम् । परिअली-स्थालम् मोजनभाण्डम् । परिउत्थो-प्रोषितः । परिभंतो-निषिद्धो भीमच परिवारिओ-घटितः । परिअट्रो-रजकः। परिच्छुढो-उरिक्षप्तः । परिलिओ-लीनः । -अज्ञातगतिः । परिवासो-क्षेत्रशयः । परिवाहो-दुविनयः । परिहच्छं-पटुर्मन्युश्च । परिहट्टो-आकृष्टिः । परिहणं-परिधानम् । परिहलाविओ-जलनिर्गमः । परिहारइत्तिआ-ऋतुमती । परिहारिणो-चिरप्रसूता महिषी । परिहाओ-क्षीणः। परिहालो-जलनिर्गमः । परिहो-रोषः । परेओ-पिशाचः । परेवयं-पादपतनम् । पल-स्वेदः । पलसू-सेवा । पलही-कासः । पलसं-कसफल स्वेदश। पलहिअं-विषमम् । पल्लवाय-क्षेत्रम् । पल्लाव-लाक्षारक्तम् । पलाओ-चोरः । पलासी-मल्ला । पलिहओ-मूर्खः । पलिहाओ-उर्वदाहः । पलिहस्सं-ऊर्ध्वदारुः । पलाट्टजीहो-रहस्यभेदी। पविरइओ-त्वरितः । पविरजिओ-स्निग्धः कृतनिषेधः । पसओ-मृगविशेषः। पसरेहो-किअल्कः। पसवडक्कं-विलोकनम् । पसाइआ-पुलिन्दशिरसि पर्णपुटम् । पसिअं-पूगफलम् । पसुहत्तो-वृ। पसू-सुम म् । पसेवओ-बह्मा । पसंडि-कनकम् । पहएल्लो-पूपः । पहट्टो-दृप्तः । पहणं-कुलम् । पहणी-समुखागनिरोषः। पहद-सदा दृष्टम् । परिल्लवासो Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहम्मं ] पहम्मं - सुरखातम् । पहयरो - निकरः । पहिअं - मथितम् । पहेणयं भोजनोपायनमुत्सवंश्च । पहोइअं - पर्याप्तं प्रभुत्वम् । पाइअं - वदनविस्तारः । पाउअं-हिमम् । प। उक्के मार्गीकृतम् । पाउग्गिओ-सभिक: द्यूतकारयिता । पाउग्गो-सभ्यः । पाउरणो-कवचम् | पाओ - रथचक्रम् । पाडच्चरो बासक्तचित्तः । पाउलो हंसो वृषभ: कमलं च । पाडवणं पादपतनम् । पाडलसउणो-हंसः | पाडिअग्गो - विश्रामः । वाचार्यश्री आनन्दसागरसरिसङ्कलित : पाडसारो - पटुता । पाडि सिद्धी - स्पर्धा सदृशः समुदाचारश्च । पाडिसिरा - खलीनयुक्ता । पाडिहच्छी - शिरोमाल्यम् । पाडुक्को - समालम्भनं पटुख । पाडुहुओ-प्रतिभूः पारिहच्छी माला । पाडुकी - णिशिम्बिका । पाहुंगोरी- विगुणो मद्यासक्तो दृढकृता वेष्टना च वृति: । पाडुच्ची - तुरगमण्डनम् । पाणी - रथ्या | पाणाअओ - श्वपचः । पाणी - श्वपचार्थः । पाणाली हस्तद्वयप्रहारः । पायपणो-कुक्कुटः । पायडं-अङ्गनम् । पायद्दा- पादाभ्यां धान्यमर्दनम् । पायलं-चक्षुः । पारद्ध - पूर्वकृत कर्म परिणाम आखेटक: पीडितश्च । ( पारपासा-चुडा पारयं - सुराभाण्डम् । पारंकं - सुरामानभाण्डम् | पारंपरी - राक्षसः । पारावरो- गवाक्षः । पारिहट्टी - द्वाःस्था: प्रतिहारी आकृष्टिराकर्षणं माहिषी सामान्योक्तापि चिरप्रसूतेह गृह्यते । पारी - दोहनभाण्डम् | पारु अग्गो - विश्रामः । पाठअल्लो - पृथुकः । पाठहल्ले - मालीकृतम् । पालप्पो - विप्लुतः प्रतिसारश्च । पासलं द्वारं तिर्यक् च । पाली - दिक् । पालीबंधो-तटाकः । पालीहम्मं - वृत्तिः । पावो-सर्पः । पालो - शौण्डिको जीणंश्च । पाऊ - मक्तभिक्षुच । पासणिओ साक्षी । पासं- अक्षि विशोभं च । पासाणिओ साक्षी । पासावओ - गवाक्षः । पासाला भल्ली । पाहुणं विक्रेयम् । पिअणं- दुग्धम् । पिअमा-फलिनी । पिमाहवी - कोकिला । पिउली - कर्पासस्तूललतिका च । पिच-पक्वकरीरम् | पिच्छिली-लज्जा । पिच्छिलो - देश: । पिच्छी-चूडा पिट्ठखउरा - कलुषा सुरा । पिट्ठतं - गुदः । ३६ ) [पितं Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडच्छा] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० २ [ पेरुल्लो - - पिडच्छा-सखी । पिण्ठो क्षामा । पिणाई-आशा । पिणाओ-बलात्कारः। पिप्पडा-ऊर्णापिपीलिका । पिप्पओ-मशक सम्मत्तश्च । पिप्पडिअं-यत्किञ्चित् पठितम् । पिप्परो-वृषभ: हंसन। पिब्ब-जलम् । पिरिडी-शकुनिका। पिलणं-देशः । पिल्लरी-गडुत्संज्ञ तृणं चोरीधर्मश्च । पिल्ह-लघुपक्षिरूपं । पिहलं-मुखमारुतापूरिततृणवाद्यवाचकः । पिहंडो-वायविशेषो विवर्णश्च । पिहोअरो-तनुः । पिंगंगो-कर्कटः। पिच्छोली-मुखमारुतापूरिततृणवायवाचकः । पिंजरुडो-मेरुण्ड: वदनदयो चेती भारुण्डाख्यः पक्षो। पिजिअं-विधुतम् । पिंडी-मञ्जरी। पिंडीरं-दाडिमम् । पिंसुली-मुखमारुतापूरिततृणवाद्यवाचकः । पोई-तुरंगमः। पोडरई-चोरभार्या । पीणं-चतुरस्रम् । पीढं-इक्षुनिपीडनयन्त्रम् । पीलुटुं-प्लुष्टम् । पुआइणी-पिशाचगृहोता । पूआई-तरुण उन्मत्तः पिशाचश्च । पुअंडो-तरुणः । पुडइअं-पिण्डीकृतम्। पुडइणी-लिनी । पुंडइअ-पिण्डोकृतम् । पुडिंग-वदनं बिन्दुश्च । पुगइ-श्वपचः । पुणवत्तं-प्रमोदहतवस्त्रम् । पुण्णाली-असती। पुत्थं-मृदुः। पुप्पुआं-पीनम् । पुप्फा-पितृश्वसा । पुरिल्लदेवो-असुरः । पुरिल्लपहाण-बहिवंष्ट्रा। पुरिलो-प्रवरः । पुरुपुरिआ-उत्कंठा । पुरोहडं-विषमम् । पुलासिओ-अग्निकणः । पुल्लो-व्याघ्र: सिंहश्च । पुवाडं-पोनम् । पुरुहूओ-घूफः । पूअं-दधिः । पूआ-पिशाचगृहीता। पूआइणी-उन्मत्ता दुःशीषा च । पूणी-तूललता यन्मध्यात्सूत्रसन्तुनिःसरति । पूणो-हस्ती । पूरणं-शूर्पम्। पूरी-तन्तुवायोपकरणं । पूरोट्टो-अवकरः। पूसो-सातवाहनः शुकच । पेआलं-प्रमाणम् । पेच्छओ-दृष्टमात्राभिलाषी । पेखलं-प्रमाणम् । पेलालो-विपुलः। पेडइओ-कणादिविक्रेता पणि । पेड्डा-भित्तीद्वारं महिषी च। पेढालो-विपुलः। पेढाल-वर्तुलम् इति द्रोणा। पेरणं-उर्ध्वस्थानम् । पेरिज्ज-साहाय्यम् । पेरुल्लो-पिण्डीकृतः । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पे}ि पेल्लिअं - पीडितम् । 1 पेसणं- कार्यम् पेसणआरी-दूती । पेणं - पिच्छम् । पोअइआ - निद्राकरी खता । पोअलओ - आश्विन मासोत्सवोऽपूपच । पोआओ - ग्रामवृधानः । पोलो-वृषभः । पोओ-घववृक्षो लघुसपैा । पोअंडो - मुक्तभयः । पोअंतो- शपथः । पोइआ - निद्राकरीलता । पोइओ - कान्दविकः पोउआ - करीषाग्निः । । । बोतः । पोच्चं - मुकुमारम् पोट्टं - उदरम् । पोनिआ - सूत्रभृत्तर्कः (?) । पोनिओ-पूर्णः । षोत्तओ - वृषणः । पोती- काचः । पोमरं - कुसुम्भरक्तं वस्त्रम् । पोरच्छो- दुर्जनः । पोरयं-क्षेत्रम् । पोलच्चा - खेटित भूमि: । पोलिओ - सौनिकः । आचार्य आनन्दसागररिसङ्कलित : पोसिओ-दुस्यः । पोहणो-बघुमत्स्यः । पंखुडी - पत्रम् । पंचगुली - एरण्डवृक्ष । पंचवण्णा-पश्चाषिकपञ्चाशत् । पंडरंगो-रुद्रः । पंडविअं - जलार्द्रम् । पंती-वेणी । पंपुच्छहणी - श्वसुरकुखात्प्रथममानिता वधूः । पंअं - दीर्घम् । पंफुल्लिअं - गवेषितम् । पसुलो-कोकिलो जारश्च । पांडविअं - जलार्द्रम् । पुंडरिअं - कार्यम् । पुंडे - व्रजेत्यस्मिन्नर्थे । ढोगः । ( ३८ पुंअं - संगमः । पेंडओ-तरुणः । पेंडओ - षण्ढ इत्यन्ये । पॅडधवो- खङ्गः । पॅडबालं - पिण्डीकृतः । पेंडारो - महिषीपाल इति देवराजः । पेंडारो-बोपः । पॅड लिअं - पिण्डीकृत: । पेंडलो - रसः । पेंडोलो-क्रीडा । पेंड - खण्ड बलया । पेंढा - कलुषासुराः । पोंडो-यूथाधिपतिः । फग्गू - वन्तोत्सवः । फड - सर्पस्य सर्वशरीरं फणा । फरओ-फलकः । फलही - कर्पास: । फलिआरी - दूर्वा । फली - लिङ्गं वृषभ । फसलं सारं स्थासकश्च । फसला णिओ - कृतविभूषः । फलो-मुक्तः । फंफलओ - लताभेदः । फंसणं- युक्तं मलिनं च । फंसुली - नवमालिका | फंसुलो-मुक्तः । फिक्की-हर्ष फिड्डो - वामनः । [ फिड्डो Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरपं. अल्पपरिचितसैदान्तिकशब्दकोषः, मा० ५, परि० २ बोली - फिरपं-कृत्रिमम् । बव्वाडो-दक्षिणहस्तः। फुफ्फा-मिथ्या । बहलं-पा। .फुप्फो-रजको । बहुणो-चोरो धूर्तश्च । फुरिअं-निन्दितम् । बहुमुहो-दुर्जनः । फुल्लंधुओ-भ्रमरः। बहुराणा-खङ्गधारा । फुटा-केशबन्धः । . बहुरावा-शिवा । फुआ-फरीषाग्निः । बंधो-भृत्यः । फूओ-लोहकारः । बंधोल्लो-मेलकः । फेणबन्धो-वरुणः । बंभहरं-कमलम् । फेणवडो-वरुणः। बाउल्ली-पञ्चालिका। फेलाया-मातुलानी । बाणो- सुभग: पनसश्च । फेल्लुसणं-पिच्छिलो देशः । बालओ-वणिक्पुत्रः। फेल्लो-दरिद्रः । बिआया-युतो कीटो। फेसो-त्रासः सद्भावश्च । बिग्गाइ-युतौ कोटी । फोइअयं-मुक्तं विस्तारितं च। बीअओ-असनवृक्षः । कोडिअयं-राजिका धूमितं शाकादि रात्रावटव्या सिंहादिरक्षा बिवोवणयं-क्षोभो विकार उच्छीर्षकं च । प्रकारश्च । बिअजमणं-बीजमखनखलम् । फोसो-उद्गमः । बोलओ-ताडङ्कः । फोंका-भीषयितुं शब्दः । बुक्कणो-काकः। बुक्का-मुष्टिः । बइलो-बलीवदः । बुक्कासारो-भीरुः । बक्कर-परिहासः । बुत्ती-ऋतुमती । बद्धओ-त्रपुपट्टाल्यः कर्णाभरणविशेषश्च । बुंदिणी-कुमारी समूहा । बप्पीहो-घातकः । बुंदी-चुम्बनं सूकरश्च । बप्पो-सुमटः पितेत्याये । बुंदीरो-महिषो महांश्च । बण्फाउलं-अतिशयोष्णम् । बुबुअं-बृन्दम् । बब्बरी-केशरचना । बुलंबुला-बुबुदः । बमो-वज्रः । बेडो-नोः। बजिओ-हालाहसः । बेड्डा-मथुः। बमलो-कलकलः। बेली-स्थूणा । बरुअं-इक्षुसहशतृणम् । बोक्कडो-छागः । बलमड्डा-बलात्कारः। बोडो-धार्मिकः । बलवट्टी-सखी व्यायामसहा । बोड्डर- मथः । बलामोडी-बलात्कारः। बोदरं-पृथु । बलिओ-पीनः । | बोलो-कलकला। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोल्लइ आचार्यश्रीयानन्यसागररिसङ्कलितः [भोल्लयं बोल्लह-कथयति । बोटब्वं-क्षेत्रम् । बोहहरो-मायः। बोहारी-सम्मानी । बउहारी-सम्मानी। बोहित्थो-प्रवहणम् । बोंगिल्लो-भूषित बाटोपश्च । बोंड-चुचुकम् । बोंदं-मुखम् । बोंदी-रूपं मुखं शरीरं च । भग्गं-लिप्तम् । भट्टिओ-विष्णुः । भदृसिरी-धोखण्डम् । भई-आमलकम् । भद्दाकरी-प्रबम्बः । भममुहो-आवर्तः । भमासो-इक्षुसदृशतृणम् । मयवग्गामो-मोढेरकम् । भरोच्छयं-तालफलम् । भलंतं-प्रस्खलत्। भल्लुंकी-शिवा । भल्लू-ऋक्षः । . भव्वा-भागिनेयः। भसुआ-शिवा । भंडणं-कलहः । भंड-वृन्ताकम् । भंडी-शिरीषवृक्षोइटवी असती गात्री च । भंडं-मुण्डनम् । भंडो-छिमभूर्धा मापषी बन्न सखा दौहित्रश्च । भंभलं-अप्रियम् । भंभलो-मूल् भितं हारं ग्रहं च । भंभा-तूर्यविशेषः । भंभो-असती । भाओ-ज्येष्ठगिनीपतिः । भाइल्लो-हालिकः । भाउअं-आषाढे गोर्या उत्सवविशेषा । भाउजा-म्रातृजाया । भायलो-जात्यतुरंगमः । भावइआ-धार्मिकगृहिणी। भाविअं-गृहीतम् । भासलं-दीप्तम्। भासि-दत्तम् । भासुंडो-निःसरणम् । भित्तरं-द्वारम् । भित्तिरूवं-टङ्कच्छिन्नम् । भिसंतं-अनर्थः । भिसिआ-बृसी । भिगं-कृष्णम् । भिगारी-चोरी मशकः । भु-भुजम् । भुक्कणो-श्वामधादिमानम् । भुक्खा -क्षुत् । भुतगो-भृत्यः । भुरुहुंडिअं-उद्धूलितम् । भुरुंडिआ-शिवा । भुंडीरो-सूकरः । मुडो-सूकरः । भूअण्णो-कृष्टे खले यज्ञः । भूओ-यन्त्रवाहः । भूमिपिसाओ-तालः । भेजलओ-भीरुः। भेजो-मीरुः । भेडो-भीमः । भेरंडो-चित्रकः । भेलो-आज्ञा बेडा चेटी च । भोइओ-ग्रामप्रधानम् । मोओ-माटिः। भोरुडो-भारण्डपक्षी । भोल्लयं-प्रबन्धप्रवृत्तं पाथेवम् । (४० ) . Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मआई अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ५, परि० २ [ मसिणं मडहं-लघु । मआई-शिरोमाला। मडा-बलात्कार आज्ञा । मइ-सितम् । मडो-कम्मो सृतश्च । मइमोहणी-सुरा । मडुवइअं-हतं तीक्ष्णं च । मइलो-कलकलो गततेजश्च । मणिणायहर-समुद्रः । मइहरो-ग्रामप्रवरः। मणिरइआ-कटीसूत्रम्। मई-सुरा । मत्तबालो-मत्तः । मऊ-पर्वतः। मत्तल्ली-बलात्कारः। मऊ-दीनम् । मत्तालंबो-मत्तवारणः । मउडी-जूटः। मंधाओ-आत्यः । मउरो-अपामार्गः । मम्मक्का-उस्कण्ठा गर्वश्न । मउरंदो-अपामार्गः। मम्मणिआ-नीलमक्षिका । मउलो-हृदयरसो छलनम् । मम्मणो-मदनो रोषश्च । मक्कडबंध-शृंखलारूपं ग्रीवाभरणम् सम्वापसव्वं यज्ञोप- | मम्मी-मातुलानी । वीत कारम् । मयडो-आरामः। मक्कोडा-ऊर्गापिपीलिका । मयणसलाया-सारिका। मक्कोडो-यात्रगुम्फनाथं राशिश्च । मर्याणवासो-कन्दर्पः । मगणिर-अनुगमनशीबः । मयलवुत्ती-रजस्वला । मग्गो-पश्चात् । मयरंदो-कुसुभरजः । मच्चं--मलः । मयाली-निद्राकरीलता । मडा-मर्यादा । मरट्ठो-गर्वः । मलिअं-अवलोकितं पीतं च । मराली-सारसी दूती सखी च । मजोक्कं-प्रत्यग्रम् । मरालो-अलसः । मज्झमारं-मव्यम् । मरो-मशकः उलूकश्च । मज्झओ-नापितः । मरुलो-भूतम् पिशाचादि । मज्झिमगडं-उदरम् । मलओ-गिर्येकदेश उपवन च । मज्झतिअं-मध्यं दिनम् । मलवट्टी-तरुणी। मटूहिअं-परिणीताया: कोप: कलुषमशुचि चेति । मलहरो-तुमुलः। मट्टी-शृगविहीनः । मल्हणं-लीला । मट्ठो-अवसः । मल्लाणी-मातुलानी। मडो-आरामः। मल्लयं-अनुरभेदः शराव कुसुम्मरक्त चषकश्च । मांडआ-समाहता। मलिअं-लघुक्षेत्रं कुण्ड च । मडफरो-गर्व । मलो-स्वेदः । मडवोज्झा-शिविका । मलंपिओ-गर्वी। मडहरो-गवः। मसिणं-रम्यम् । अल्प० देश्य० ६ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महअरो] आचार्यश्रीआनम्बसागरसूरिसङ्कलित: [ मुरई महअरो-पम्हरपतिः । महरं-पितृर्गहम् । महत्थारं-भाण्डम् । महरो-असमर्थः । महल्लो-वृद्धो निवहः पृथुलो मुख जलषिश्च । महाअत्तो-आढ्यः । महाणडो-रुद्रः। महाबिलं-व्योमः । महालक्खो-तरुणः । महावक्खो-माद्रपदे श्राद्धपक्षः । महावल्ली-नलिनी। महालो-जारः । महासउओ-उलूकः । महासद्दा-शिवा । महिसंदो-शिगुतः । महिसिक्कं-महिषीसमूहः। महुओ-श्रीवदास्य: पक्षीमागपश्च । महुमुहो-पिशुनः । महुरालि-परिचितम् । महेड्डो-पङ्कः । महंगो-रष्ट्रः। माअलिआ-मातृध्वसा । माई-रोमशः। माइच्छो-मृदुः। माइली-मृदुः । माइंदा-यामलकी। माउआ-सखी दुर्गा च । माउक्क-मृदुः । माडि-गृहम् । माणंसो-मायावी चन्द्रवधूश्च । माणि-अनुभूतम् । मादलिया-माता । माभाई-अमय प्रदानम् । मामा-मातुलानि (को)। मामी मातुलानी । मायंदो-आम्रः । मायंवी-श्वेतपटा । मारिलग्गा-कुत्सिका । माला-ज्योत्स्ना। मालाकुंकुम-प्रधानकुंकुमम् । मालूरो-कपित्थः । मालो-आरामो मञ्जुर्मञ्चश्चेति । मासिओ-पिशुनः । मासुरी-मधुः। माह-कुन्दकुसुमम् । माहारयणं-वस्त्रम् वस्त्रविशेषः । माहिवाओ-शिशिरवातः । माहिलो-महिषीपासः । माहुरं-शाकम् । मिणायं-बलात्कारः। मित्तिवओ-ज्येष्ठः । मिरिआ-कुटी। मिहिआ-मेघसमूहः । मोअं-समकालम् । मुआइणी-डुम्बी। मुअंगी-कोटिका। मुक्कयं-यासो वोढुप्रकृता तजिता नामन्यासां निमन्त्रि तानां वधूनां विवाहः। मुक्कलं-उचितं स्वरं च। मुक्कुडो-जूटः । मुक्कुरुडो-राशिः । मुग्गसो-नकुलः । सुग्गुसू-नकुलः । मुग्घुरुडो-राशि: । मुट्टिका-हिक्का। मुणो-अगस्तिद्रुमः। मुद्दो-चुम्बितम् । मुन्भो-गृहमध्ये तिर्थग्दारुः । मुम्मुरो-करीषं करीषाग्निश्च । मुरई-असतो। ( ४२ ) Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरि ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०५, परि. २ [ रयणिद्धयं मुरिअं-त्रुटितम् । मोरो-श्वपचः। मुरुमुरिअं-रणरणकः । मंखो-अण्डः । • मुरुमुंडो-जूटः । मगलसझं-बीजवावशेष क्षेत्रम् । मुलासिओ-स्फुलिङ्गः । मंगलं-सदृशम् । मुसहं-मनस आकुलता। मंगुलो-चौरः। मुहत्थडी-मुखेन पतनम् । मंगुलं-अनिष्टं पापं च । मुहरोमराई-म्रः । मंगुसो-नकुखः । मुहल-मुखम् । मंचो-बन्धः। मुहिअं-एवमेवकरणम् । मंजुआ-तुलसी: मुहिआ-अन्येषाम् । मजार-शृङ्खलकम् । मुंडा-मृगी । मंडलो-श्वा । मुंडो-नीरङ्गी । मंडी-पिधानिका । मूआलो-मूकः । मंडिल्लो-अनूपः । मूअल्लो-मूकः । मंठो-शठः । मूसरी-भग्नः । मंतक्खं-लज्जा दुःखं च । मूसलो-उपचितः । मंती-विवाहगणकः । मूसा-लघूद्वारम् । मंतआ-सज्जा । मसा-लघूतारम् । मंतेल्ली-सारिका । मेअज्ज-धान्यम् । मंथरं-बहु कुसुम्मं कुटिलं चेति । मेरो-असहनः । मंदोरं-शृङ्खलं मन्थानश्च । मेहच्छीरं-जलम् । मेडभो-मृगतन्तुः । रइगेल्ली-रतितृष्णा। मेढो-वाणिक्सहायः । रइगेल्लं-अभिलषितम् । । मेरा-मर्यादा। रइलक्खं-रतिसंयोगो जघनं च । मेली-संहतिः । रग्गयं-कोसुम्भवस्त्रम् । मेहुणओ-पितृष्वसृसुत इति सिंगपरिणामेन ध्याश्येयम् । रच्छमओ-चा। मेहुणिआ-परल्या भगिनी मातुलात्मजा । रत्तक्खरं-सीधु । मेंढो-मेण्डी। रत्तच्छो-हंसो व्याघ्रश्च । मेंढो-हस्तिपकः । रत्तयं-बन्धूकम् । मोओ-अधिगतश्चिमियदीना बीजकोशन । रत्ती-आज्ञा । मोक्कणिआ-असितं पयोदरम् । रत्तीओ-नापितः । मोग्गरो-मुकुलम् । रद्धो-प्रधानम् । मोच-अजही। रएफडिआ-गोधा । माडो-जूटः । रप्फो-वल्मीकः । मोरत्तओ-श्वपचः । रयणिद्धयं-कुमुदम् । ( ४३ ) र Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गयवली ] गयवली - शिशुत्वम् । रल्ला प्रियङ्गवः । रवओ-मन्थानः । गसहं - चुल्लीमूलम् । रसाऊ - भ्रमरः । रसाला - मार्जिता । रंग- त्रपुः । रंजणो-घटः । रंदुअं-रज्जुः । रंभो - अन्दोलन फलकम् । राअला प्रियङ्गवः । राओ- चटकः । राडी - संग्रामः । रायगई - जलौफा: । राला- प्रियङ्गवः । राविअं -आस्वादितम् । रिक्कं स्तोकम् । रिविकअं- शटितम् । रिक्खो-वृद्धः । रिग्गो-प्रवेशः । रिच्छभल्लो - ऋक्षः । रिच्छो-वृद्धः । रिट्ठो - खङ्ग इति । रिट्ठो - काकः । रित्तूडिअं- शातितम् । रिद्धी-समूहः । रिद्ध पक्वम् । रि:- पृष्ठम् । रिमिणो - रोदनशीलः । रिरिअं - लीनम् । रिगिअं- भ्रमणम् । रिछोली- पङ्क्तिः । रिडी - कन्याप्राया । रोढं अवगणनम् । अरुइआ - उत्कण्ठा । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः संचणी-घरट्टी रुंढिअं सकलम् । रुढो - आक्षिक:, कितवः । रुंदो - विपुलो मुखरश्च । रूअं - तूलम् । रूवमिणी- रूपवती । रूवी - अदुमः । अविअं - क्षणीकृतम् । रेणी-पङ्कः । रेवईओ-मातरः । रेवलिअं - उपालब्धम् । रेवयं-प्रणामः । रेवलिआ - वालुकावर्त: । रेणी - अक्षिनिकोच: करोटिकाख्यं कंस्यभाजनं च । रेसिअं छिन्नम् । रेहिअं-छिन्नपुच्छम् । कि- आक्षिप्तं लीनं व्राडितं च । अणिआ - डाकिनी । रोकणी - शृङ्गी नृशंसश्च । रोधतो-रङ्कः । रोज्झो - ऋश्यः । - दुष्टम् रोडो - इच्छाप्रणिशिबिका च । रोडं-ग्रटप्रमाणम् । रोद्धुं - कूणिताक्षं मलश्च । रोमराई - जघनम् । - जघनश । रोमलयासयं - उदरम् । रोमसलं - रोरो-रङ्कः । रोलम्बो - भ्रमरः । रोलो - कलहो । रोहो - प्रणामं नमनं च । रोही-मागंणः । रोहिओ - ऋश्य । रोंकणो-रङ्कः । ( 88 ) [ रोंकणो Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इअं | लइअं - परहितम् । "लइ अल्ल - वृषभ: । लइणी-बता । - लक्कुडं - लकुटः । लक्खं कायः । लग्गं-चिह्न । लचयं गण्डुरसंज्ञं तृणम् । लंचो - कुक्कुटः । लट्टयं-कुसुम्भम् । लट्ठो - अभ्यासक्त: मनोहरः प्रियंवदा । लंबाली - पुष्पभेद: । लंबो - गोवाटः । लडह - रम्यम् । लक्खमि विघटितम् । लडहो - विदग्धः । लंपिक्खो - बीरः । लंबा-केशाः लंबो गोवाहा । अल्पपरिचितसे द्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ५, परि० २ लिक्खा - तनुस्रोतः । लिकिअं-आक्षिप्तं वीनं श लिको - बालः । लल्ल - सस्पृहम् न्यूनम् । लल्लक्कं भीमम् । ल लयं - नवदम्पत्योः परस्परं नामग्रहणोत्सवः । लय-तनुः मृदुः वल्बी चेति । लयापुरिसो-यत्र पद्मकरा वधूलियते । लसई - कामः । लसकं - तरुक्षीरम् । लसुअं-तैलम् । लहुअ वडो - न्यग्रोधः । लाइअं -भूषा गृहीतम् चर्माम् अति । लाइलो - वृषभ: लामा डाकिनी । लालसं - मृदु इच्छा | लाल पिअं - प्रवालं खलोनमाक्रन्दितं च । लावजं - उशीम् । विहओ-मयूरः लाटणं भोज्यभेदः । लिहिअं-चाटुः । । लित्ती - खङ्गादीनां दोषः । लिसयं - ननूकृतम् लिहिओ-तनुः सुप्त । 'लोलो-पगः । लोवो-बालः । लुअं-लूनम् । लुंकणो-लयनम् । को-सुप्तः । खाओ-निर्णय: । लुंखो - नियमः । लुग्गं भग्नम् । लंबी स्तबको लता च । रणी-वाद्यविशेष: । लुआ-मृगतृष्णा । डुओ-नष्ट: । | लेडुबको लम्पटो लोट । लेढिअं- स्मरणम् । ढुक्को-लोष्ट: । - लम्पटः । लेसो- खिखितमायस्तो निद्रा निःशब्बा लेटडोलेहुडो- लोg: । ओ - उपविष्टः । 1 लोढो - स्मृतः शयिता । लोलंठि-बादुः । लोलुं चाविरचितम् । लोहिल्लो - सम्पटः । बहुओ-पीतः । वइरोअणो-बुद्धः । वइरोडो- जारः । वइवलओ - दुदुभसर्पः । ( ४५ ) [ वहवलओ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहवेला ] आचायोगानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [बद्ध वह वेला-सीमः। वउलिअं-शूलप्रोतं मासम् । वऊ-लावण्यम् । वओ-पध्रपक्षी। वओवरफं-विषुवत समरात्रिविकः कालः । वओवत्य-विषुवत् समरात्रिदिवः काम। पंका-कलङ्कः । वक्कडबंध-कर्णाभरणम् । वक्कडं-निरन्तरवृष्टिः। मक्कडं-दुर्दिनम् । वक्कलयं-पुरस्कृतम् । वक्खाश्य-रतिग्रहम् अम्तःपुरम् । वंग-वृन्ताकम् । वग्गयं-वात्ती । वंगच्छा -प्रथमा । वंगेवडू-सूकरः। बग्गेखो-प्रचुरः । वग्गोओ-नकुलः । वग्गोरमयं-सक्षम् । वगंसिअं-युटम् । वग्घाओ-साहाय्यं विकसित। वच्छं-पार्श्वम् । वच्छिउडो-गर्भाशयः । वच्छिमओ-गर्भशय्या। वच्छिउत्तो-नापितः । वच्छीवो-गोपः। वंजरं-नीवी। बञ्जरा-नपी। वखा-अधिकारः। वलि-अवलोकितम् । वट्टमाण-अङ्गगन्धद्रव्यादि वासभेवन । वट्टा-पन्थाः । वट्टिम-अतिरिक्तम् । ट्टिवं-परकार्यम् । बडप्पं-लतागहनं निरन्तरवृष्टिः । बडहल्लो-मालाकारः। वडहो-पक्षिभेदः । वड्डवासो-मेषः । वडाली-पंक्तिः। वडिसर-चुल्लीमूलम् । वंडुअं-राज्यम् । वडो-द्वारकदेशः क्षेत्रं च । बड्डो-महान् । वंढो-बन्धः । वंढो-अकृतविवाहो नि:स्नेहः खण्डो गण्डो भृत्यश्च । वइओ-धर्मकारः। वडणमीरं-पीनम् । वड्ढणसालो-छिन्नपुच्छः । वडवणं-वबाहरणमभ्युदया वेधलं । वड्डावि-समापितम् । पतुला। वणई-वृक्षपङ्क्तिः । वणखी-गोवृन्दम् । बणपक्कसावओ-शरमा। वणवो-दवाग्निः । मणसवाई-कलकण्ठी । वग्णं-अच्छं रक्तं च। बण्णय-श्रीखण्डम् । वणायं-व्याधाकुलम् । वणारो-दस्यो वस्सः । वणो-अधिकार: श्वपचन । वतू-निवहः । वत्तद्धो-सुवरी बहुशिक्षितश्च । वतारो-गवितः । वत्ती-सीमः । वत्थउडो-वस्त्राश्रयः वस्त्रनिर्मित आधयः । वत्थो-तापसानामुटजम् । वदिकलि-वखितम् । बद्दलं-दुर्दिनम् । वद्धयं-प्रधानम् । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वद्धिओ] अल्पपरिचितसैवान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० २ [वाडिमो वद्धिओ-पदः । बद्धी-अवश्यकृत्यम् । वप्पिणो-क्षेत्रभूषितश्च । वप्पोओ-चातकः। वप्पीडि-क्षेत्रम् । वप्पीहो-स्तूपः मृदादिकूटः । बप्पो-तनुर्नलवान् भूतपहीतश्च । वंफिअं-भुक्तम् । बन्भयं-कमलोदरम् । वम्मीसरो-कामः । बम्हलं-केसरम् । बम्ह-वल्मीकम् । वयडो-शाटिका। वयणं-मन्दिर शय्या च । वयरं-चूणितम् । वयली-निद्राकरी लता। वयलो-विकसन् कलकलश्च । बरइओ-धान्यविशेषः । वरइत्तो-अभिनववरः । वरउष्फो-मृतः । वरओ-शालिभेद: योऽसावरिति प्रसिद्धः। बरडी-तलाटी देशभ्रमरश्च । वरेइत्थं-फलम् । वरंडो-प्रकार: कपोतपाली। वलअंगो-वृत्तिमती। वलग्गंगणी-वृत्ति। वलमयं-शीघ्रः। वलयणो-वृत्तिः। वलयबाहू-चूडकास्यं भूजामरणम् । वलयं-क्षेत्रं गृहं च। बलवाडी-वृत्तिः। बलविअं-शीघ्रम् । बलही-कतिम् । बल्हं-धवलम् । बलंगणिआ-वृत्तिमती। बलिआ-ज्या । वलिअं-भूक्तम् । वल्लई-गौः । वल्लरी-केशः । वल्लरं-अरण्यं महिषः क्षेत्र युवा समीरोनिलदेशो वनं च । बल्लाओ-श्येनो नकुसः । चल्लादयं-आच्छादनं । वल्ली-केशः । वल्लो-शिशुः। ववणी-कासः। ववत्थंभो-बलम् । ववसिअं-बलात्कारः। वहिओ-मत्तः । वल्वाडो-अर्थः। वंसकाल-प्रकटम् । वसभुदो-काकः। वसलं-दीर्घः । वंसी-शिरसिमाला । वंसो-कलङ्गः । वहडो-दम्यो वत्सः। वहढोलो-वाताली। वहुण्णो-ज्येष्ठभार्या । वहुधारिणी-तकवधूः । बहमासो-यत्र पति रममाणो नवोढवधूग्रहावहिनं पाति । वहुरा-शिवा । बहुन्धा-कनिष्श्वभुः। वहाहिणी-वष्वा उपरि या परिणीयते । वहू-धिविडा गन्धद्रव्यविशेषा। वहो-स्कन्धप्रणः। वहोलो-लघुजलप्रवाहः । वाउत्तो-विटो जारश्च । बाउल्लो-प्रलपनशीलः । घाऊ - इक्षुः । वाडंतरा-कुटीरम् । वाडिमो-गण्डकमृगः । ४७ ) ( Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाडिलो] माचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: ] विडिचिरं बाडिलो-कृमिः। वाडी-वृत्तिः । वाढो-वणिक्सहायः । वाणओ-वलयकारः । वाणवालो-इन्द्रः । वाणोरो-जम्बूवृक्षः। वामणिआ-दीर्घकाष्ठवृतिः। वामणिओ-नष्टप्रत्यादाता । वामरी-सिंहः । वामी-स्त्री। वामो-मृतः । वायडघडो-द१रकारल्यो वाचविशेषो मरते प्रसिद्धः । वायं-गन्धः। वायणं-भोज्योपायनम् । वायाडो-शुकः । वायारो-शिशिरवातः । वारसिआ-मल्लिका। वारिओ-नापितः । वारिडो-विवाहः । वार-शीघ्रम् । वारो-चषकः । वालप-पुच्छम् । पालंवोस-कनकम् । वालवासो-शिरज भरणम् । वालिआकोस-कनकम् । बाला-मुवमारुतापूरिततृणवायम् । वावओ-आयुक्तः । वावडयं-विपरीतरतम् । वावडो-कुटुम्बो । वावणी-छिद्रम् । वावि-विस्तारितम् । दावोणम्-विकीर्णम् । बासन्दी-कुन्दः । वासवारो-तुरयः । वासघालो-या। ( । वासाणो-रच्या । वासुली-कुन्दः । वाहगणो-मन्त्री। वाहणा-गोवा । वाहली-सघुजलप्रवाहः । वाहा-वालुका । विओलिअं-मलिनम्। विअलंवल-दीर्षः । विधि-निन्दितम् । विअंसओ-व्याधः । विआरिआ-पूर्वाह्लमोजनम् । विआरिआ-केशाः । विआलुओ-असहनः । विआलो-संध्या चौरश्च । विऊरिअं-नष्टम् । विओलो-आविग्नः । विक्कमणो-चतुरगतिस्तुरयाः । विक्केणुअं-विक्रयम् । विक्खणं-कार्यम् । विक्खंभो-स्थानमन्तरालं च। विक्खासो-विरूपः । विविखण्ण-आयतं अधनं च । विग्गोवो व्याकुलभावः । विचिणिअं-पाटितं धारा । विच्चोअओ-उपधानम् । विच्छड्डो-निवहः । विच्छिअं-पाटितं विचितं विरस प । विच्छेओ-विलासो जघनं च। विच्छोरो-विरहः । विज्जुला-विद्युत् । विडओ-राहु । विडप्पो-राह । विडंकि-वेदिका। विडं-दीघम् । विडिचिरं-विकरालम् । ४८ ) Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विडिमो अल्पपरिचित द्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० २ [ वेआडिअं - विडिमो-बालमृगो गण्डकः च । विडिर-आमोगो रोद्रं च । विड्डुिरिल्ला-रात्रिः। विडोमिओ-गण्डकमृगः । विढण-पाणि । विणिव्यरं-पश्चातापः । विततं-कार्यम् । वित्तई-गवितो विलासितं च । विहंडिअं-नाशितः। विदणा-सज्जा । विप्प-पुच्छम् । विप्पयं-खलभिक्षा वैद्यो वापितं दानं च। विपवर-भालातक: । विपित्त-विकसितम्। विपिडिअं-नाशितः । विष्फाडि-नाशितः । विभवणं-उपधानम् । विभेइअं-सूच्या सिद्धम् । विमईअं-भत्सितम्। विमलहरो-कलकल:: विलिअ-मत्सरणितं सशब्दं च । विरओ-लघु जलप्रवाहः । विरलिअं-जला । विरसमहो-काकः । विरसं-वर्षम् । विरहालं-कुसुम्मरक्तं वस्त्रम् । विरहो-एकान्तं कसुम्भरक्तं वस्त्रम् च । विरिक्क-पाटितम् । विरिचिओ-विमलो विरक्तश्च । विरिचिरो-अश्वो विरलं च । विरिजओ-अनुचरः। विरुओ-विरूपः । विलइअं-अधिज्यं दोनं च। विलओ-सूर्यास्तमयः । विलमा-ज्या । विलया-बनिता। विल्लं-अच्छं विलसितं च । विज़री-केशः। विलिअं-लज्जा। विलिजरा-धानाः। विलुत्तहिअओ-य काले कार्य कतुं न जानाति । विलुपओ-कीटः। विलुपिअं-अभिलषितम् । विलिविलो-कोमलनिःस्थामतनुः । विव्वाआ-अवलोकितो विधान्तश्च । विस ढो-निराग:। विसमयं-भल्लातकः । विसमिअं-विमल मुस्थितं च । विसरो-सभ्यम् । विसंवाय-मलिनम् । विसारओ-धृष्टः । विसारी-कमलासनः । बिसालओ-जलधिः । विसिणो-रोमशः । विसो-करिशारिः। विहई-वृन्ताकी। विण्हण्णा-पिञ्जितम् । विहरि-सुरतम् । विहसि बिअं-विकसितं च । विहाडणं-अनर्थः । विहाणो-विधिः प्रभातं च । विडुओ-राहु । वोज-विधुरं तत्कालं . । वीची-लघुरध्या। वोलाणं पिच्छिलम् । वीनी-तरङ्गः। वीमुं-युतकम् पृथक् । वण्णो-मीत उद्विग्नश्च । वृष्फ-शेखरम् । वेआडिअं-प्रत्युप्तम् । ( ४९ ) अन्म० देश्य० ७ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेअड्डे' आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसडुलित: [ सइसुहं वेअड्ड-भल्ल तक । वेलू-चौरी मुसलं च । वेअल्लं-असामयम् । वेल्ला-विलासः । वेअल्लं-मृदु । वेल्ला -पल्लवः । वेआरिअं-पतारितम् । वेवाइअं-उल्लसितम् । वेआलो-अनमोऽधकारश्च । वेसक्खिज्ज-द्वेष्यत्वम् । वेइआ-जल हारिणी। वेसणं-वचनीयम् । वेइद्धो-ऊ/कृतो विसंस्थुल आदि विद्धः-शिथिललता वेसंभरा-गृहगोधा। गतश्च । वेहविओ-अनादरो रोषाविष्टश्च । बंगो-वृतीमती। वोकिल्लिअं-रोमन्थः । वेडइओ-वाणिजकः । वोकिल्लो-अलीकशूरः । वेडिओ-मणिकारः। वोच्चत्यं-विपरितरतम् । वेडिकिल्लं-सकटम् । वोझओ-भारः । वेडुलो-गर्वितः । वोज्झमल्लो-मार: । वटसुरा-कलुषसुरा । वोझरं-अतीत भीतं च। वेढिअं-वेथितम् । वोद्रहो-तरुण: ओष्ठयादिप्रायेण । वें ढ पशुः । वोभोसणो-वराकः। वेगिअं-वननीयम् । वोमज्झो -अनुचितो वेषः (वेष:) वेणूणसो भ्रमरः। वोरच्छो-तरुणः। वेणो-विषम: सरिदवतारः । वोरल्ली-श्रावणशुक्लपक्षचतुर्दशीभव उत्सवविशेषः । वेत्तं-अच्छवनम् । वोवालो-वृषभ । वेदणा-लज्जा । वोस-भृतोल्लुठितम् । वेपुरं-शिशुस्वम् भूतगृहीतम् । वोसेअं-मुआणम् उन्मुखगतम् । वेप्पो-भूगादिगृहीतः । वोहारं-जलस्य वहनम् । वेरिज्ज-साहायकम् । वेरिडो-प्रसहायः एकाकी । सअ-शिलापूणितं प। वेलं-दन्तासम् । सअक्खगत्तो-कितवः । वलम्बो-विडम्बना । सअढा-लम्बकेशाः। वेलरी-मैश्या । सइज्झिअं-प्रातिवेश्यम् । वेल्लहलो-कोमलो विलासी च । सइज्झो-प्रातिश्मिकः । वेनो-निद्राकरीलता। सदसणं-चित्तावलोकितः । वेला-केशा: । सइदिटुं-चित्तावलोकितः । वेल्ला-बल्ली । सइखसहो-मायत्यक्तो वृषभः । वेल्लाइअं. सकुचितम् । सइलंभ-चित्तावलोकितः । वेलुको विरूपः । सइलासओ-मयूरः। वेलुलि-वैडूर्यम् । । सइसुह-चित्तावलोकितः । ( ५० ) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सइसिलियो । अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० २ [संकाली CD सइसिलिवो-स्कन्दः । सउणं-रूढम् । सउलिअं-प्रेरितम् । सउलो-शकुनिका । सएहाई-दूती। संकडिल्ल-निच्छिद्रम् । संकरो-रथ्या । संखबइल्लो-हालिकच्छन्दोत्यायीवलीवदः । संखदहो-गोदावरी हृदः । संखलयं-शम्बूकः शुक्स्याकारो जलजः-प्राणिविशेषः । संखली-संखपत्रताङ्कः । सखालो-शम्बरास्योमृगविशेषः । संखो-मागधः । सगय-श्रद्धा । सगय-मसृणम् । संगहो-गृहोपरि तिर्यग्दारुः। संगा-बसगा। सगे-निकटम् । संगेल्लो-समूहः । संगोढणो-प्रणितः। संगोल्ली-समूहः । संघयण-शरीरम् । संघाडो-युगलम् । संघासओ-स्पर्धा । संघोडो-व्यतीकरः। सच्चवि-अभिप्रेतम् । सचिल्लयं-सत्यम् । सच्चेविअं-रचितम् । सच्छहो-सदृशः। संजत्थो-कोपः। संजत्थो-कुपितः । संजमि-संगोपित्तम् । सजिओ-नापितो रजक: पुरस्कृतो दीप्तश्च । संजुद्ध-सस्पन्दम् । संजोक्क-प्रत्यग्रम् । । संडी-वलगा। संडोलिओ-अनुगतः । सढं-विषमम् । सढयं-कुसुमम् । सढा-केशाः । सढी-सिंहः । सढो-स्तम्भः । सण्णतिअं-परितापितम् । सण्णवि-चिन्तितं सान्निध्यं च ।। सण्णि-आर्द्रम् । सणिओ-साक्षी ग्राम्यश्च । सण्णुमिअं-सनिहितं मापितमनुनीतं च । सणेझो-यक्षः। सत्तस्थो-अभिजातः । सत्तल्ली-शेकालिका । सत्तायीसंजोअणो-इन्दुः । सत्तिअणा-बाभिजात्यम् । सत्तो-वकपादत्रयं कृतं दारू । सत्थइअं-उत्तेजितम् । सत्थरो-समूहः । सत्थो-गतः। संवट्टयं-संलग्नम् । सद्दाल-नूपुरम् । संदेवो-सीमा । संधारिओ-योग्यः । संधिअं दुर्गन्धम् । संपडिअं- लब्धम् । संरणा-घृतपूरार्थगोधूमपिष्टम् । संपण्णा-धृतपूरार्थ गोधूमपिष्टम् । संपत्तिा -बाला । संपत्थिअं-शीघ्रम् । संपा-काञ्ची। सपासंग-दीर्घम् । संकं कुमुदम् । | संकालो-पङ्क्तिः Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभरो] आचायश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ साला सभरो-गृध्रः। संभली-दूती। संभवो-मृसवजरा । संभुल्लो-दुर्जनः। समइच्छिअं-अतिक्रान्तम् । समरसद्दहओ-समानवयाः । समसीसं-सदृशं निर्भरं च । समसोसी-स्पर्धा। समुग्गि-प्रतीक्षिप्तम् । समुच्छणो-संमानी। समुच्छिअं-तोषितं समारचित्तमञ्जलिकरणं च । समुणवणिअं-अमृतं चन्द्रश्च । समुद्दहरं-पानोयगृहम् । समुपिजलं-अयशो रजश्च । समोसमो-प्रातिवेश्मिक: प्रदोषोवध्यश्च । सयग्घो-घरट्टी। सयत्तो-मुदितः । सयराहं-शोघ्रम् । सयली-मीनः । सरडो-कृकलासः । सरत्ति-सहसा । सरभेअं स्मृतम् । सरली-चीरिका । सरलोआ-श्रावित्संज्ञं प्राणी। सरहो-वेतसवृक्षः सिंहश्च । सरा-माला । सराहओ-सर्पः । सराहो-दप्पोधुरः। सरिवाओ-आसारः। सरिसाहलो-सदृशः। सरेवओ-हंसोगृहजलप्रवाहश्च । सलली-सेवा । सलहत्थो-दादीनां हस्तकः । संवट्टि सवृतम् । सवडमुहो-अभिमुखः । | सव्वला-कुशी । सविसं-सुरा । संवाअओ-नकुलः श्येनश्च । सवाओ-श्येन । सवासो-ब्राह्मणः। संवेल्लि अं-संवृत्तम् । संसपिअं-मङ्कितम् । ससराइअ-निष्ठितम् । संप्ताहण-अनुगमनम् । सह उत्थिआ-दूती। सहगूहो-घूकः । सहरला-महिषी। सहो-योग्यः । साइअं-संस्कारः। साइजिअं-आलम्बितम् । साई-केसरम्। साउल्लो-अनुरागः । साणइअं-उत्तेजितम् । साराह-देवगृहम् । सामग्गिअं-चलितमवलम्बितं पालितं च। सामती-समभूमि । सामली-शाल्मलिः । सामिअं-दग्धम् । सामुद्द-इक्षुसहशतृणम् । सायं-महाराष्ट्रदेशेपत्तनविशेषो दूरं च । सायंदूला-केतकी। सारमिअं-स्मारितम् । साराडो-प्राटिः। सारिच्छआ-दूर्वा । सारो-मृत्तिका । सारो-बृसी ऋषीणामासनम् । सालंको-सारिका । सालंगणी-अधिरोहिणी। सालही-सारिका। साला-शाखा । ( ५२ ) Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सालाणओ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५, परि० २ [ सोहलिआ सालाणओ-स्तुतः । सालुअं-शम्बूकः शुष्कयवादिशीर्ष च । सावओ-शरभः । सासवूलो-कपिकच्छः । साहजओ-गोक्षुरः। साहजणो-गोक्षुरः । साहरओ-गतमोहः । साहिलयं-मधु । साहो-रथ्या। साहुली-वस्त्रं 'मूर्भुजः शाखापिकीसहशः सखी च । साहेजओ-अनुगृहीतः । साहो-वालुका उलूको दधिसरश्न । सिअगो-वरुणः । पिआली-डमरः । खिल-तुपुरम् । सिंग-कृशम् । सिगणो-तरुणः । सिंगिणी-गौः। सिंगेरिवम्म-वल्मीकः ।। सिग्गो-श्रान्तः । सिंघुओ-राहुः । सिज्जूरं-राज्यम् । सिंड-मोहितम् । सिंढा-नासिका नादः । सिंढो-मयूरः। सिन्हा-हिममवश्यायश्च । सित्था-लाला जीवा । सित्थी-मत्स्यः । सिदो-खजूरो। सिंदरं-नुपुरम् । सिंदु-रज्जुः । सिंदुवणो-अग्निः। सिंदूर-राज्यम् । सिदू यं-रज्जू राज्यम् । सिंदोला-खजूरी। सिद्धं-रिपाटितम् । सिद्धत्थो-रुद्रः । सिप्प-पलालम् । सिंपुअ-भूतगृहीतम् । सिंबाडी-नासिका नादः । सिंबोरं-पलालम् । सिरिंगो-विहः । सिरिद्द हो-खगपानभाजनम् । सिरिमुहो-मदमुखः। सिरिवओ-हंसः । सिरिवच्छीवो-पोपालः । सिलओ-उञ्छः। सिलिंबो-शिशुः । सिविणी-सूची। सिव्वी-सूची। सिसिरं-दधि । सिहडइल्लो-बालो दधिसरो यूरश्च । सिहरणी-माजिता । सिहरिला-मार्जिता। सिहिणा-स्तनाः। सिहो-कुक्कुटः । सि-सिक्थकम् । सोअणयं-दुग्धपारी श्मशानं च । सोअल्ली-हिमकालदुदिनं झाटविशेषश्च । सीइआ-झडी निरन्तरवृष्टिः । सीउग्गयं-सुजातम् । सोमंतयं-सीमन्ते भूषणभेदः । सोरोवहासिआ-लज्जा । सोलुट्टयं (सोलुटुं)-त्रपुसम् । सोसक्कं-शिरस्कम् शिरस्त्राणम् । सीसयं-प्रवरम् । सीहंडओ-मत्स्यः । सोहणही-करमन्दिका । सोहलयं-वस्त्रादिधूपयन्त्रम् । | सीहलिआ-शिखा नवमालिका । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअणा ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ सोसणी सुअणा-अतिमुक्तः । सुइज्झओ-रजकश्च । सुई-बुद्धिः । सुंकअं-किशारः। सुकुमालिअं-सुटितम् । सुग्गं-आत्मकुशलं निर्विघ्नं विसर्जितं चेति । सुंघिअं-घ्रातम् । सुज्झयं-रोप्यम् । सुज्झरओ-रजकः । सुढिओ-धान्तः। सुण्हसिओ-स्वपनशीलः । सुदारुणो-चण्डालः । सुदुम्मणिआ-रूपवती । सुद्धबालो-शुद्धपूतः । सुद्धो-गोपालः। सुरंगी-शिग्रतरुः । सुरजेटो-वरुणः । सुलस-कुसुम्भरक्त वस्त्रम् । सुलसमञ्जरी-तुलसी ।। सुली-उल्का । सुक्ष्णबिंदू-विष्णुः । सुवण्णा-सकेतः। सुषण्णो-अर्जुनतरुः सुम्विआ-अम्बा । सुसंठिा -शूलपोतं मांसम् । सुहउत्थिआ-दूती। सुहरा-चटकाभेदः। सुहराओ-बेश्यागृह चटकश्च । सुहेल्ली -सुखम् । सूअरी-यन्त्रपीडनम् । सूरूलं-किंशारुः । सुइओ-चण्डालः। सूई-मञ्जरी। सूरंगो-प्रदीपः । सूरणो-कन्दः । सूरद्धओ-दिनः । सूरल्लो-मध्याह्नो ग्रामणीतृणं शकाकृतिकीटश्च । सूलच्छं-पल्वलम् । सूलत्यारी-चण्डी। सूला-मैश्या। सेआली-दुर्वा । सेआलुओ-उपयाचितसिद्धयर्थ वृषभः । सेआलो-ग्रामप्रधान सानिध्यकर्ता च यक्षादिरिति । सेओ-गणपतिः । सेजारिश्र-आन्दोलनम् । सेट्री-ग्रामेशः । सेरिभओ-धूयंवृषमः । सेरिभो-महिषे । सेरी-दीर्घा भद्राकृतिश्च । सेलूसो-कितवः । सेल्लो-मृगशिशुः शरश्च । सेवाडओ-चप्पुटिकानादः । सेवालो-पङ्कः । सेहरओ-चक्रवाकः । सेहिओ-गतः । सोअं-स्वपनम् । सोत्ती-नदी। सोमहिड्डो-पङ्कः । सोमहिंद-तदरम् । सोमाणं-मशानम् । सोमालं-मांसम् । सोल्लं-मांसम् । सोलहावत्तओ-शङ्खः । सोवओ-पतितदन्तः । सोवण-वासगृहम् । सोवणो-स्वप्नो मल्लश्च । सण्णमक्खिआ-मधुमक्षिकाभेदः । सोवत्थं-उपकारः । सोवत्थं-उपभोग्यम् । सोसणी-कटी । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोसणो अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ५. परि०२ [हिल्ला सोसपो-पवनः । । सोहंजणो-शिग्रुतरुः । . सोहणी-संमार्जनी। सोही-भूत भाविनी च काले प्रयुज्यते । हक्कोद्धं-अभिलाषितम् । हवखुत्तं-उत्पाटितम् । हजओ-साङ्गस्पर्शः शपथः । हट्ठमहल्लो-कल्पः (कल्यः)। हड-हृतम् । ह९-अस्थि: । हडहडो-अनुरागगस्तापश्च । हणं-दूरम् । हणु-साविशेषम् । हत्थं-शीघ्रम् । हत्थल्लं-कोडया हस्ते गृहीतम् । हत्थल्लिअं-हस्तप्रसारितम् । हत्यल्ली-हस्तबृसी। हत्यलो-हस्ते कीडाथ गृहीत: पदार्थो हस्तलोषन । हत्थारं- साहाय्यम् । हत्थिअचक्खु-चकावलोकनम् । हत्यिमल्लो-इन्द्रगजः । -हत्थि वओ-ग्रहभेदः । हस्थिहरिल्लो-वेषः । हत्थुच्छुहणी-नववधूः। हत्थोडी-हस्ताभरणं हस्तप्राभृतं । हद्धओ-ह्यसः ।। हम्मिश्र-रहम् । हरपच्चुअं-स्मृतं नामोद्दे शेन दत्तं ।। हरिआली-दूर्वा । हरिचदणं-कुडकुमम् । हसिमग्गो-लगुडः। हरी-शुकः । हलप्यो-बटुमाषो। हल्लोलअं-शीघ्रम् आकुमत्वम् । हलबोलो-कलकलः । हलहलं-तुमुलं कौतुकं च । हलाहला-बणिका । हल्लिअं-चलितम् । हल्लीसो-रासकः मण्डलेनस्त्रीणां नृत्तम् । हल्लरो-सतृष्णः । हविअं-म्रक्षितम्। हसिरिआ-हासः । हारा-लिशा। हालाहला-बंणिका । हालाहलो-मालिकः । हालुओ-क्षीवः । हालो सातवाहनः । हाविरो-जंघालो दी? मन्थरो विरता। हासोअं-हास: । हिषका-रजकी। हिक्कासो-पङ्कः । हिक्किअं-हषाखः । हिंचिअं-एकपदगमनकोग। हिजो-कल्यम् ( फल्यम्) । हिट्ठो-आकुप्तः । हिड्डो-वामनः। हिडोलं-क्षेत्ररक्षणयन्त्रम् । हिंडोलणं-रत्नावली क्षेत्ररक्षणनादन। हिडोलयं-क्षेत्र मृगनिषेध इव । हिंडोलय-रत्नावली क्षेत्ररक्षणनादत्र। हित्था-सज्जा । हित्थो-सज्जितः । हिबिअं-एकपदयमनकी। हिरडो-शकुनिका । हिरिबं-पस्वलम् । हिरिमन्या-पणकाः । हिरिवंगो-बगुहः । हिला-वालुकाः । हिल्ला-वालुका:। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिल्लूरो] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ होरण हिल्लूरी-बहरी। हुत्तो-अभिमुखः । हिल्लोडणं-क्षेत्रे मृगनिषेध इव ।। हुण्डो-विपादिका । हिसमणं-हषाखः । हुलिअं-शीघ्रम् । हिंसोहिसा-स्पर्धा । हुलुव्वी-प्रसवपरा । होरणा-सज्जा। हुमो-लोहकारः। होरो-सूचीमुखामंदादिवस्तु । हेआलं-सर्पशिरः संज्ञेन हस्तेन निषेधः । हुंकओ-अंजलिः। हेरंबो-महिषो डिण्डिभश्च । हुंकुरुवो-अजलिः । हेरिडो-विनायकः । हुड्डा-पणः। हेला-वेगः । हुडुओ-प्रवाहः । हेलुअं-क्षुतम् । हडमो-पताका । हेलुक्का-हिक्का । हुडो-मेषः । होरणं-वनम् । परिशिष्टद्वयोपेतं पञ्चममागः समाप्तः देवसूरसामाचारीसंरक्षक-आगमवाचनादाता-आगममंदिरसंस्थापक-ध्यानस्थ स्वर्गत-आगमोद्धारक-आचार्य-श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरसंकलीत अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः सम्पूर्णः शेठदेवचन्द्रलालभाइजैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाकः १२६ शेठ देवचंद्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड क्रमांक रु० पैसा क्रमांक रु. १० ११५ अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः १०८ आवश्यक अवचूर्णि भा० २ .... ३-०० भाग २ .... ५-०० । ११० सुयगडांगदीपिका भा० २ .... ३-०० ११६ अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः ११७ भगवतिअवचूरि .... प्रेसमां भाग ३ .... ७-०० १२१ ओधनियुक्तिअवचूरि .....७-०० ११२ उत्तराध्ययन अवचूरि भाग २ .... ५/७ १२५ अल्पपरिचितासै०शब्दकोष भा०४९-०० १०५ पिंडनियुक्ति अवचूरि .... ३-०० १२२ स्थानांगदीपिका भाग १ ९-०० १०६ श्राद्धविधिकौमुदी....मराठी .... १-०० १२३ आवश्यक अवचूरि भाग १ ३-०० १०७ नंदी अवचूरि ११८ आचारांगदीपिका प्रेसमा ११३ नंदी सूत्र दुर्गपद व्याख्या .... २-०० ११९ जंबुवित्ति प्रेसमा १०८ आवश्यक अवचूर्णि भा० १ .. ५-०० । १२२ स्थानांगदीपिका भाग २ प्रेसमां ( ५६ ) Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી આશાપ શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જ્ઞાન ભંડાર દ્93 | લેખક : | શા. વિમળાબેન ? હારાજૈન સોસાથટી Ja- Interational Fan Polvate Personal use only www.janorary.org