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॥ श्रीः ॥
मनाचार्य - अ०भर्मदिवाकर पूज्य-श्री- घासीलालवतिविरचित-माध्यममलङ्कृत
श्रीव्यवहारसूत्रम्
Shree Vyavhar Sutram
अक्षम्
नियोजक
संसारा- प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात-प्रियव्यास्थानिपण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी महाराज उदयपुरमेवाडनिवासि-भूतपूर्व देवस्थानकमिश्नर -गलुंडियावंशभूषणश्री हिम्मतसिंहजी -महोदयमद चद्रव्य साहाध्येन
प्रफास
अ० मा० ० म्या० जैनशाम्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि- श्रीशान्तिलाल - मङ्गलदासभाई-महोदयः
प्रथष्णा-शावृतिः अनि १२००
बीर माद
विक्रम-संपण
मृव्यम-२०-००
ईस्वी सन् १९६९
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॥ श्रीः ॥ मनाचार्य-जैनधर्मादवाकर-पूज्य-श्री-घासीलालवति -
विरचित-भाष्यपपलकृत
श्रीव्यवहारसूत्रम् Shree Vyavhar Sutram
चूर्णिभाष्यावचूरिसमलङ्गकृतं
पवम्
नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि
..पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः उदयपुरमेवाडनिवासि-भूतपूर्वदेवस्थानकमिश्नर-गलुंडियावंशभूषण
श्रीहिम्मतसिंहजी-महोदयप्रदत्तद्रव्यसाहाध्येन
प्रकाशक:
अ. मा० श्वे. स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः
प्रथमा-मावृतिः प्रति ११००
वीर संबव
२४२५
विकम-संपत
२०.५
ईस्वीसन् १९६९
मूल्यम-२०-..
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મળવાનું ઠેકાણું:श्री. I. वे. स्थानास
र सोद्धार समिति. है. गठिया का रोड, श्रीन air, पासे, रा . (सौराष्ट्र)
Published by; Shri Akhil Bharat s. S. Jain Shastrodhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra) w. Rly. India.
卐 ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्स्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ।१॥
卐
(इरिगीतछन्दः ) करते अवज्ञा जो हमारी, यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ, फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई, तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुल पृथ्वी, ध्यानमें यह लायगा ॥१॥
भूस्य : ३६. २०-००
પ્રથમ આવૃત્તિઃ પ્રત ૧૧૦૦ વીર સંવત્ : ૨૪૯૫ વિક્રમ સંવત્ ૨૦૨૫ स्वीसन १८६९
: मुद्र: વૈદ્ય, શ્રાત્રિભુવનદાસ શાસ્ત્રીજી શ્રીમાનંદ પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ziरिया रोड, अमहापा-२२.
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हिम्मतसिंहजी
OD
पिताश्री शहाजी मोडीलालजी लुन्डिया
(१) चन्द्रसेन (२) कुसल सिंह (३) शिवसिंह (४) भोपालसिंह
प्रतापसिंह चेतनसिंह
सुमेरसिंह
(१) हरिसिंहजी (२) रुगनाथसिंहजी
जगन्नाथ सिंहजी
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॥ श्री ॥ गलुंडिया परिवार का संक्षिप्त जीवनचरित्र स्वातंत्र्य और स्वाभिमान का अमर पुजारी मेवाड, भारतीय गौरवगरिमा को आरावली की गिरिमालाओं को तरह उन्नत और अडोल रखने के लिये सदैव कटिबद्ध हो रहा है । इस वीर भूमि की भव्य गौरवगाथाओं से भारतीय इतिहास का अन्धकारमय युग भी जगमगा उठता है। स्वतन्त्रता और स्वाभिमान के बलिवेदी पर सर्वस्व अर्पण कर देने में इस भूमि की समानता करने वाला संसार भर में कोई दूसरा दृष्टि गोचर नहीं होता । अतः मातृभूमि की स्वतन्त्रता और आत्मगौरव के लिये निरन्तर जूझने वाले मेवाड का भारतीय इतिहास में सर्वोपरि स्थान है।
ऐसे गौरवान्वित प्रदेश के इतिहास का जब हम अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट झलक उठता है कि इन स्वतन्त्रा के पुजारियों के महान् सहयोगी और परामर्श दाता ओसवाल जाति के महापुरुष ही रहे हैं । इस जाति का केवल मेवाड ही नहीं किन्तु समस्त राजस्थान के निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा हैं। अपने देश और स्वामी के प्रति वफादार रहने वाले जैन वीरों में गलुंडिया परिवार का गौरवान्वित स्थान रहा है।
. इस परिवार का इतिहास बहुत पुराना हैं । कहा जाता है कि राठोडवंशीय राजपूत घुड़िया शाखा में राजा चन्द्रसेन ने कन्नोज नामक नगर में भारक श्री पूज्य शांति सूर्यजी के पास सं. ७३५ में जैनधर्म ग्रहण किया था। इससे उस समय घुड़िया से गुगलियाँ गोत्र को स्थापना हुई। इसके बाद राठौडवंशीय लोग मंडोवर आये । इस वंश के शाह कल्लोजी को अपनी वीरता के कारण गढसहित ग्राम गलुंड जागीर में मिला । ये वहीं रहने लगे। उनके वंशज गलुंडियां गढपति के नाम से प्रसिद्ध हुए । यहीं से गलंडियाँ गोत्र की उत्पत्ति हुई ।
गलंडिया परिवार अपनी वीरता के लिये प्रसिद्ध है। एक समय- का प्रसंग है कि होलकर सिंधियाँ की सेना जो पटेल सेना के नाम से प्रसिद्ध थी वह समय समय पर मेवाड के गावों में छापा मार कर लूट पाट किया करती थी। उसने एक बार वेगू नामक गाँव पर चढाई कर दी । अचानक गांव पर हमला हुआ जानकर ग्राम निवासी घबड़ाकर इधर उधर प्राण बचाकर भागने लगे । गाँववालों को भागते देखकर गलंडिया परिवार का एक व्यक्ति सामने आया
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और दोनों हाथों में तलवार लेकर पटेल सेना का कड़ाई के साथ सामना- करने लगा। पटेल सेना उस वीर सेनानी का सामना न कर सकी । अपनी सेना के एक एक वीर को मरता देख वह वहाँ से भाग गई गलुडियाँ वीर विजयी हुआ। राजपूत इस ओसवाल वीर सेनानी के रणकौशल को देखकर दंग रह गये । उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे ।
शाह कल्लोजी के वंश में शा, शूरोजी बडे प्रसिद्ध व्यक्ति हो गये । आप बडे उदार चरित्र वाले तथा दानी सज्जन थे । कहते हैं कि मंडोर के प्रधान भण्डारी समरो जी को मांडू के बादशाह ने पकड़ कर कैद कर लिया था। उस समय उसे अठारह लाख रुपये देकर सूरोजी ने छुडवाया । सूरोजी के लिये इस परिवार में ऐसी भी एक किवंदती चली आती है कि 'एक बार जगन हजारी नाम का सुप्रसिद्ध मांत्रिक (चारण) दिल्ली में रहता था। उसका यह नियम था कि जो एक लाख रुपया भेंट करे वह उसी के घर भोजन करता था। भामाशाह की माता ने तीन बार जगन हजारी को जिमाया और प्रत्येक बार एक-एक लाख रुपयों की दक्षिणा दी। एक बार जगन हजारी को भामाशाह की माता ने कहा-जगन हजारी जी ! क्या मेरा जैसा एक लाख रुपये दक्षिणा देकर जीमाने वाला घर आपने अन्यत्र भी कहीं देखा है! हजारोजी ने झट उत्तर देते हुए कहा - सेठानी जी ! संसार केवल एक दानी पर नहीं चलता। संसार में एक से एक महापुरुष पड़े हैं ।
उन्हें खोजने का हमारे पास समय नहीं। फिर भी अवसर आने पर ऐसे व्यक्ति को अवश्य बताऊँगा । सेठानी ने कहा--यदि ऐसा ही है मैं उस दानी सज्जन का अवश्य दर्शन करूँगी। और उस व्यक्ति के दान से चौगुना दान मापको दूंगी। जगनहजारी वहाँ से चल दिया ।
वहाँ से जब चले तो रास्ते में सोच ही रहे थे कि किसके पास चलूं। तब तक रास्ते में हरी भरी सस्यश्यामला दिगन्त व्यापी खेती के ऊपर उनकी दृष्टि आकृष्ट हो गई। सुन्दर कूँवा देखकर बोले-यह कौन सा गाम है, और इन क्षेत्रों का कौन सौभाग्यशाली मालिक है ? किसीने बतलाया-आपको मालूम नहीं यह 'गलुंड' ग्राम है, यहाँ के मालिक युद्धवीर के वंशज दानवोर सूराजी हैं सूराजी का नाम सुनते ही हजारी जी बोले-अरे ? सूगजी ? तब क्या है, ये तो अपने ही यजमान हैं। इन घोड़ों को इस सस्य में छोड़ दो। तुम लोग नहाओ धोओ। इनके साथ ३०० सौ घुड़सवार चलते रहते थे, इनके वे ३०० सौ घोड़े छोड़ दिये और सब कोई नहाने लगे। इस तरह इनको मन मानी कार्यवाही देख कर रक्षकों ने सूराजी को सूचना दी। वे बोले–मैं आता हूँ। तुम जाकर उनसे प्रार्थना करो
१ जिसके देवत्ता आराधित हो बह ऐसा दृश्य दिखा सकता है ।
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कि- घोड़ों को बन्धवा दीजिये और हम लोग खुद ही काट कर सस्य सहित घास इनको खिला देते हैं । इस तरह सस्य रौदे नहीं जायेंगे और घोड़ों को सुन्दर चारा मिल जायगा । हजारी जी मान गए और खुश हुए। बाहरी ! भक्लने कैसी युक्ति निकाल ली जिससे मेरी इज्जत की भी कदर हुई । घोड़ों को भी मन चाहा चारा मिल गया और बरबादी भी बची ।
मैंने तो दानवीरता की परीक्षा की थी, युद्ध वीरता की सनद तो इनके पूर्वज प्राप्त कर ही चुके हैं। मालूम पड़ता है दूसरी परीक्षा में भी ये सर्व प्रथम आवेंगे। क्योंकि नीति बतलाती है
निवारयेन्निष्कसहस्रतुल्याम् । मुक्तहस्तः तं राजसिंहं न जहाति लक्ष्मीः ॥
यः
काकिणीमप्यपथप्रयुक्तां कार्ये तु कवि
जो चतुर अर्थतन्त्रका पण्डित काकिणी को २० (कौड़ी की काकिणी होती है, चार काकिणी का एक पैसा बनता है) भी अनवसर में लापरवाही से जाते हुए देखकर उसको मूल्यवान मोती समझकर खर्च में नहीं जाने देते हैं और समयोचित कार्य के अवसर पर कोटि के कोटि द्रव्य को मुक्त हस्त से खरचते हैं, ऐसे राजसिंह को लक्ष्मी नहीं छोड़ती है ।
इतने में सूराजी सामने आगए और आदर सत्कार के साथ बोले - आज का निमन्त्रण दलबल के साथ मेरे घर का स्वीकृत हो । मैं आप से एक बार उपकृत तो हो जाऊँ, बड़े कामों में विघ्न होता ही रहता कृपा करें 1
हजारी जी बोले हाँ हाँ स्वीकृत होगा और अवश्य होगा, लेकिन.... सूराजी बोले । लेकिन क्या है तन मन धरा धाम न्योछावर करने के लिये सेवक खड़ा है सिर देकर भी निमन्त्रण स्वीकार करवाने का इरादा बाँधकर आया हैं । हजारी जी बोले- निमन्त्रण की दक्षिणा में अगर तेरी पत्नी तेरे परिवारों के सामने अपने हाथ से तेरा सर काट के दे, और किसी के नेत्रों से अनुपात न हो तो.... सुराजी ने ऐसा ही किया । इन्हें भोजन के उपरान्त दक्षिणा में सर मिल गया । वाह वाह धन्यवाद कहकर हजारो जी सर को रुमाल में बान्धते हुए बोले - "बाई - वीर पत्नी तूं है, जरा ठहर जाना, मुझे लौटकर आने देना, और खुद की परीक्षा देने देना, फिर सती होने की व्यवस्था करवाना ।
यों सुराजी के पत्नी को समझा कर जगन हजारी उसी समय लौटते पांवों से भामाशाहू की माता के पास पहुँचे, भामाशाह भी भोजन के लिए इष्ट मित्रों के साथ बैठ रहे
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थे । हजारी जी सब के समक्ष भामाशाह के माता के हाथ में सुराजी का सर जो कि ताजे खूनों से लथ पथ था, देते हुए बोले तूं दानवीर की माता है और तेरे सामने दुनियाँ में अपने आपको अकेला दानकीर समझने वाला तेरा लड़का भामाशाह भी अपने बन्धुवर्गों के साथ मौजूद ही है, फिर देर किस बात की। तेरे प्राग्रह से फिलहाल सूराजी के पास मैं पहले पहल गया और तेरी शर्ते सुनायीतो सुराजी ने कहा-भला कौन ऐसा गंवार होगा जो आपकी मांग पूरी नहीं करें जब कि एक दान के बदले चौगूना दान मिलने वाला है, सौभाग्य की बात है तो मेरा दान चौगुने शर्तका पहला सिद्ध होगा ।
यों अर्जू मित्रत करके अपना सर दान में दे दिया है इतना ही नहीं जिसकी छाया प्रवल शत्रुसैन्य व्यूह में दुश्मन नहीं पा सका उस वंशज का सर है। कुछ अधिक ही इसका बदला मिलना चाहिये । चौगुना देने की तो तूं ने सौगन्द ले ही चुकी है। ला उतना ही ला, देर मत कर । सुराजी के पत्नी को सती होने में इतनी ही देर है कि मैं लौटकर जल्दी जाऊँ और सिर लोटा हूँ।
भामाशाह उनकी माता और जनसमुदाय यह सब देखकर चकित हो गया और हाथ जोड़ कर हजारी जी के पाँव में पड़े । दानवीर का गर्व उतर गया । हजारी जी इनको दानवीर के नाटक खेलने वाला कह कर लौट गये और जाकर सुराजो के पल्नी से बोले—लेलो अपने पति का सर । इसे जोड़ दो । धड़ से सर जुड़ गया । जगन हजारीजीने सूराजीकी पत्नी की खूब खूब प्रशंसा की। सरजुड़ते ही सूराजी उठकर खड़े हो गये । जयजय कार हो गया ।
सूराजी के बाद पीढ़ी दरपीढ़ी में साहजी शिवलाल जी हुए जो महाराणा स्वरूपसिंह जी सा० के दरबार का अमात्य-प्रधान थे, इनके देहान्त पर इनकी पत्नी श्रीमती अमृताबाईजी जिन्दा ही सती हुई जिनकी छतरी उदयपुर में गंगू पर बनी हुई है। अभी भी सभी वर्ग अपने कार्य की पूर्ति के लिये वहाँ जाते हैं और सामायिक की मिन्नत लेते हैं । सा० जी शिवलाल जी के कोई सन्तान न होने से महाराणा स्वरूपसिंह जी सा० उनके नाम पर सा० जी गोपाल लालजीको गोद रख के मेवाड़ का प्रधान बनाना चाहते थे जसा कि सती माता का फरमान था । किन्तु सा० जी गोपाल लालजी पिता श्री सा० जी चम्पा लालजी साहब का एक मात्र पुत्र थे अतः गोददेने से इनकार हो गये पितृभक्ति के बस सा० जी गोपाललाल जी रुक गये । सा० जी गोपाललालजी के एक ही पुत्र सा० श्री मोडीलाल जो सा० थे जिन्होंने सोलह उमरावों की वकालत की और महाराणा फतेहसिंह जी के सलाहकार नियुक्त हुए बाद में महाराणा फतेहसिंह जी ने इन्हें जहाज पुर के हाकिम
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बनाये | जहाजपुर कोटा बुंदी के नीचे राणा के बराबर का
सरहद पर है, यहाँ फौजें रहती थी, यहाँ के हाकिम राणा समझे जाते हैं । जहाजपुर मेवाड राज्य की रीढ समझा जाता है ।
सा० जी मोडीलालजी सा० के
1
हरिसिंहजी रुगनाथजी, हिम्मतसिंहजी, ये तीन पुत्र हुए। इनमें हरिसिंहजी पिता के साथों साथ 'खमनोर' के हाकिम राणाजी के द्वारा नामजद हुए। रुगथसिंहजी सा० पिताजी को हाकिम बनने पर सोलह उमरावों की वकालत करने लगे । बड़े पुरुष थे। इन्होंने खान दान, धर्म समाज की पूर्ण सेवा की । हरिसिंहजी सा० को एक ही पुत्री भँवरबाई है । रुगनाथसिंहजी सा० को भी एक ही पुत्र जगन्नाथसिंहजी है । श्री हिम्मतसहजी सा० के चार पुत्र- शिवसिंहजी, कुशलसिंहजी, चन्द्र सिंहजी, भूपालसिंहजी तथा एक पुत्री विजयनन्दिनी हैं । श्री हिम्मतसिंह सा० की दो शादियाँ रीयांवाले सेठ के घराने में हुई, रीयां का घराना" मारवाड के ढाई घर में से एक घर समझा जाता है, किसी समय जरूरत से जोधपुर दरवार को द्रव्य सहायता देते समय रीयां से जोधपुर खजाने तक रुपयों से भरे हुए गाड़ा का ताँता लगा दिया था । पहली शादी सेठ भैरववक्षजी की पुत्री मोहनकुंवरजो से हुई इनका श्री हिम्मतसिंहजी सा० के विद्याध्ययन के समय में ही देहांत हुआ । आपका नियमित अध्ययन पिता श्री के देहान्त के बाद शादी हो जाने पर १८ साल की उम्र में प्रारम्भ हुआ । दूसरी शादी सेठ प्यारेलालजी रीयांवाले अजमेर निवासी की पुत्री माणककुंवर के साथ हुई, इन्हीं से ये उपर्युक्त सन्तान हुए ।
श्री हिम्मतसिंहजी सा० अपने परम पूज्य पिता श्री के अत्यन्त प्रिय पुत्र थे, इस कारण अपने जीवन काल में बाहर जुदा रखकर अपनी पढाई नहीं करवा सके। आप पिता श्री के साथ ही रहते थे, इस कारण स्कूल के दरेक विषय को पढाई नहीं हो सकी, सिर्फ हिन्दी और अंग्रेजी की पढाई मास्टर घर पर आकर करवाता था, पिता श्री के जीवन काल में जाकर शादी तो हो चुकी थी। बाद में पिता श्री का स्वर्गवास हो गया । तब ये स्कूल जाकर विद्याध्ययन करने लगे । मैौट्रक देहली रामजस हाईस्कूल से पास की । इण्टर अजमेर गवर्मेन्ट कॉलेज से की बी. ए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से तथा एम. ए. राजनीति में और एल. एल. बी. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में लखनऊ विश्वविद्यालय से सन् १९३३ ई० में उत्तीर्ण हुए।
इसके साथ साथ फौजी परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में पास की। इनकी प्रथम नियुक्ति फौज में हुई, किन्तु इन्होंने उस वक्त के रियासती वातावरण में रहना पसन्द नहीं किया । वहाँ से
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निकलकर अजमेर में आकर वकालत सन् १९३८ तक की। तत्पश्चात् मातुश्री के आग्रह से महाराणा सा० श्री भूपालसिंहजी ने हाकिम के पद पर नियुक्त किया । इसके बाद मेवाड़ राज्य में अनेक पदों पर काम किया । महाराणा स० ने इनको सेवा की सराहना में इनको और इनकी पत्नी को सोना पांव में पहनने की इज्जत बक्सी। राजस्थान बनने पर प्रतापगढ रियासत के एडमीनिस्टेस्टर बने, फिर टौंक के कलक्टर (जिलाधीश) बने । इसके पश्चात् डाइरेक्टर
ओफ रिलीपएडीस्नल कमीश्नर रहे। अन्त में देवस्थान कमीश्नर पद से रिटायर हो गये । तब से जयपुर में रहने लगे, और वहाँ गलुंडिया भवन का आकाशवाणी के आमने सामने निर्माण करवाया, एक बगीचा माणक वाटिका नामका अजमेर-रोड-पर और एक बंगला गोपाल वाडी में भी बनवाया ।
___ इनके बड़े लड़के शिवसिंहजी सा० के दो पुत्र प्रताप सिंहजी सुमेरसिंहजी तथा एक पुत्रो नीताबाई हैं । श्री शिवसिंहजी की शादी अहमदनगर निवासी उत्तमचन्द्रजी रामचन्द्रजी बोगावत जो कि लोकसभा के एक सदस्य थे, उनकी सुपुत्री के साथ हुई । श्री शिवसिंहजी जयपुर में उद्योग (इण्डस्ट्री) का कार्य कर रहे हैं, जिनकी दो शाखाएँ शिवइंजिनियरिंग और कमलइंजिनियरिंग हैं।
श्री हिम्मतसिंहजी सा० के द्वितीय पुत्र कुशलसिंहजी प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट पद पर जयपुर में हैं । इनके एक ही पुत्र चेतनसिंहजी है इनकी शादी मणासा निवासी वकील सा० श्री जमुनालालजी जैन की पुत्री से हुई है । तृतीय और चतुर्थ पुत्र श्री चन्द्रसिंह और भूपाल सिंह जयपुर में फिल हाल विद्याभ्यास कर रहे हैं ।
श्री हिम्मतसिंहजी सा० के बड़े भ्राता रघुनाथसिंहजी के सुपुत्र श्री जगन्नाथ सिंहजी उदयपुर गोपाल भवन में रहते हैं और कृषिकार्य सुचारु रूप से चला रहे हैं-इनकी शादी उज्जैन निवासी वापूलालजी की पुत्री से हुई है। इनके तीन पुत्र और दो पुत्रियां हैं । उदय पुर का गोपालभवन बंगला हिम्मतसिंहजी सा० के पितामह के नाम से प्रसिद्ध है ।
श्री हिम्मतसिंहजी को पाँच बहनें थी। श्रीमती रूप कुँवर बाईजी की एक ही पुत्री श्रीमती आनन्द कुँवर बाई है, जिसकी शादी रतलाम निवासी सेठ वर्धमानजी पीतलिया से हुई । २.-द्वितीय बहन श्री सज्जन बाईजी के पुत्र भूरेलालजी वया राजस्थान के मन्त्री पद पर रहे जो कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता हैं ।
द्वितीय पुत्र श्री गणेशलालजी जिनकी धर्म में अच्छी लगन है । ३--तृतीय बहन गुलाब कुंवरजी मुनिव्रत को अङ्गीकार किया है। इनके एक पुत्र मोहनलालजी वया तथा एक पुत्री
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तेज कुँवर हैं । चतुर्थ बहन मोहनकुँवरजी इनकी शादी रीयांवाले सेठ घनश्यामदासजी के साथ हुई थी, इनकी स्मृति में भूपाल पुरा उदयपुर में मोहनज्ञानमन्दिर का निर्माण हुआ । जिसमें सब कुटुम्बियों के साहाय्य और सहयोग रहे हैं । यह भवन उपाश्रय और पुस्तकालय के काम में आ रहा है । ५ पाँचवी बहन चन्द्रकुँवर उदयपुर गोपाल भवन में रहती है और धर्मध्यान करती हैं ।
श्री हिम्मतसिंहजी सा० की माता श्री श्रीमती सुन्दरवाई अपने जीवन काल में खूब धर्मध्यान करती थी ८५ पच्चासी वर्ष की अवस्था में कालधर्म को प्राप्त हुई । इन्हीं के धर्मध्यान के सुसंस्कार का यह सुपरिणाम है कि आगे के सन्तति भौतिक सुख साधनों से भरपुर होकर भी जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज (जो कि बत्तीस के बत्तीस स्थानकवासी जैन आगम की टीका सम्पन्न करके व्याकरण, साहित्य कोष न्याय आदि समूचे उपयुक्त शब्दजाल के ऊपर अस्सी से ऊँची उमर में भी लेखनी चला रहे हैं) की सेवा से भक्ति के साथ आध्यात्मिक उन्नति सम्मुख हो रही है । श्री हिम्मतसिंह जी का आग्रह है कि
इन गुरुचरणों की सेवा में, बची उमर अब जाय । इनके शुभ आदेश का पालन करने आय ॥१॥
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આઘમુરબ્બીશ્રીઓ
(
શ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ
અમદાવાદ
(સ્વ.) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ
વીરાણી-રાજકોટ
(સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર– અમદાવાદ,
શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ
વીરાણી-રાજકોટ,
વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સા. જોહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતાબચન્દ્રજીસા, નાના – અનિલકુમાર જૈન (દયત્તા )
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આધમુરબ્બીશ્રીએ
(સ્વ.) શ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિ
ભાણવડ.
(સ્વ.) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહુ
અમદાવાદ.
શેઠશ્રી જેસિ’ગભાઈ પાચાલાલભાઇ
અમદાવાદ.
(સ્વ.) શેઠ રંગજીભાઈ માહનલાલ શાહ
અમદાવાદ.
શ્રી વિનાદભાઈ વીરાણી
સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેક્લાલ અમદાવાદ
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આધમુરબ્બીશ્રીએ
શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ રાજકાય.
પટેલ ડાસાભાઈ ગેાપાલદાસ મુ. સાણંદ (જી. અમદાવાદ)
કાઠારી હરગાવિંદ જેચંદભાઇ રાજકોટ.
શેઠશ્રી મિશ્રીલાલજી લાલચંદજી સા. લુણિયા તથાશેઠશ્રી જેવતરાજજી લાલચંદ્રજી સા.
(સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ આરસી.
સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા. બાલિયા પાલી મારવાડ
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આઘમુરબ્બીશ્રીઓ
સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનોપચંદ શાહ
ખંભાત
સ્વ. શેઠ તારાચંદ્રની સાવ નેહા
मद्रास.
શ્રીમાન શેટ સ. મનીન્દગી સા. 89મચંન્ની સા. અનીતારું (સપરિવાર)
૧ અમીચંદભાઈ થા ૨ ગીરધરભાઈ બાટવિયા
વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઇ શ્રીમાનું મૂલચંદજી
- જવાહલાલજી બરડયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઈ મિશ્રી લાલજી બરડિયા ૩ ઉભેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ બરડયા
श्रीमान् सेठश्री खीमराजजी सा. चोरडिया
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॥ व्यवहारसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका ॥
सत्रसं०
विषयः ।
पृष्ठसं०
८-१०
॥ मङ्गलाचरणं, व्याख्या कारपतिज्ञा च ॥ १ भिक्षोर्मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने प्रायश्चित्तविधिः । २ एवं द्वैमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने , । ३ त्रैमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने
। ४ चातुर्मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने
। ५ पाश्चमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने ६ पाश्चमासिकपरिहारस्थानादूचं पाण्मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवने
सर्वत्र प्रतिकुश्चितेऽप्रतिकुञ्चिते वा षण्मासा एव प्रायश्चित्तम् । ७-१२ एवं बहुशोऽपि मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनविषयेऽपि
षद सूत्राणि । १३ मासिकादारभ्य पाण्मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्त
विषयकं समुच्चयसूत्रम् । १४ एवं बहुशो मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवने प्रायश्चित्तविधिः। १२ १५ चातुर्मासिकसातिरेकचातुर्मासिकपाञ्चमासिकसातिरेक
पाञ्चमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवने प्रायश्चित्तविधिः । .. १६ बहुशोऽपि चातुर्मासिकसातिरेकचातुर्मासिकादिपरिहारस्थान- .. प्रतिसेवने प्रायश्चित्तविधिः ।
१४-१८ १७ चातुर्मासिक -सातिरेकचातुर्मासिक-पाञ्चमासिक-सातिरेकपाञ्चमासिक. ____परिहारस्थानप्रतिसेवनेऽप्रतिकुञ्च्यालोचयतः प्रायश्चित्तविधिः।। १९-२१ १८ एवं प्रतिकुच्यालोचयतः प्रायश्चित्तविधिः ।
२२-२४
१०-११
Page #19
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पृष्ठसं.
शितविधिः।
पत्रसं.
विषयः १९ बहुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिक-पाश्चमासिकपरिहारस्थानप्रति__ सेवने अप्रतिकुञ्च्याऽऽलोचयतः प्रायश्चित्तविधिः ।
२५-२६ २० एवं प्रतिकुञ्च्याऽऽलोचयतः प्रायश्चित्तविधिः ।
२७-२९ २१ पारिहारकाऽपारिहारिकानां स्वाध्यायार्थमेकत्र निषदनादौ स्थविराऽऽज्ञामन्तरेण निषेधः ।
३०-३१ २२ परिहारकल्पस्थितभिक्षोर्बहिः स्थविरवैयावृत्यार्थ गमने
स्थविरस्मरणमाश्रित्य गमनप्रकारः । २३ एवं स्थविराऽस्मरणे गमनप्रकारः । २४ एवं स्थविरस्मरणाऽस्मरणे गमनप्रकारः ।
२५ भिक्षोर्गणादवक्रम्य एकाकिविहारप्रतिमां प्रतिपय विहरणे विधिः। ३७ २१-२७ एवं गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायविषयकं सूत्रद्वयम् ।
२८ भिक्षोर्गणादवक्रम्य पार्श्वस्थविहार प्रतिमामुपसंपद्य विहरतस्तद्विधिः । ३९ २९-३२ एवं यथाछन्दविहारप्रतिमा-कुशीलविहारप्रतिमा-ऽवसन्नविहार
प्रतिमा-संसक्तविहारप्रतिमाविषये चत्वारि सूत्राणि । ३९-४१ ३३ भिक्षोर्गणादवक्रम्य परपाषण्डप्रतिमामुपसंपद्य विहरतस्तद्विधिः । ४१-४२ ३४ भिक्षोर्गणादवक्रम्यावधावने तद्विधिः ।
४३ ३५ भिक्षोः किमप्यकृत्यस्थानप्रतिसेवनानन्तरमालोचनेच्छायाम् आलोचनाविषये प्रायश्चित्तविषये च षड़ विकल्पाः। ४४-१९
॥ इति व्यवहारसूत्रे प्रथमोद्देशकः ॥१॥
५०
॥ अथ द्वितीयोदेशकः ॥ १ एकतो विहरतोयोः साधर्मिकयोर्मध्यादेकस्याकृत्यस्थान
सेवने प्रायश्चित्तसेवनविधिः । २ एवं द्वयोर्मध्ये द्वंयोरपि अकृत्यस्थानसेवने प्रायश्चित्तसेवनविधिः । ५१ ३ एकतो विहरतां बहूनां साधर्मिकाणां मध्ये एकतमस्याऽकृत्यस्थान- .
सेवने प्रायश्चित्तसेवनविधिः । ४ एवं बहूनां साधर्मिकाणां मध्ये सर्वेषामकृत्यस्थानसेवने प्रायश्चित्तविधिः । ५२
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________________
सूत्रसं
विषयः
५ परिहारकल्प स्थित भिक्षोग्लयत एकतमाकृत्यस्थानसेवने प्रायश्चित्तविधिः ।
६ परिहारकल्पस्थितभिक्षोग्नावस्थायां गणावच्छेदकाय तन्निष्कासननिषेधः, तस्य वैयावृत्त्यपूर्वकं प्रायश्चित्तदानविधिः । ७ एवमनवस्थाप्यभिक्षुविषयकं सूत्रम् ।
८ एवं पाराश्चितभिक्षुविषयकं सूत्रम् ।
९ क्षिप्तचित्तभिक्षोग्नावस्थायां गणावच्छेदकाय तन्निष्कासन • निषेधस्तस्य वैयावृत्त्यपूर्वकं प्रायश्चित्तदानविधिश्व । १०- १३ एवं दीप्त-यक्षाविष्टोन्मादप्राप्तो-पसर्गप्राप्त - भिक्षुविषयेऽपि चत्वारि सूत्राणि ।
१४- १७ एवं साधिकरण - सप्रायश्चित्त- भक्तपानप्रत्याख्याता - ऽर्थजातभिक्षुविषयेऽपि चत्वारि सूत्राणि ।
१८ अगृही भूतानवस्थाप्यभिक्षोरुपस्थापने गणावच्छेदकाय निषेधः, गृहीभूतस्योपस्थापने चानुज्ञा ।
१९ एवं पाराञ्चितभिक्षुविषयकं सूत्रम् ।
२० गणस्य प्रतीतौ सत्यां गृहीभूताऽगृहीभूतयोरनवस्थाप्य - पाराञ्चितयोरुपस्थापनानुज्ञा ।
२१ एकतो विहरत्साधर्मिक द्वयमध्यादेके ना कृत्य स्थान प्रतिसेविrssोचना कालेऽन्योपरि मैथुनसेवनारोपे दत्ते तन्निर्णय - विधिः ।
२२ गणादवक भ्यावधावनेच्छुर्यदि अनवधावितो भवेत्तदाऽस्य पापप्रतिसेवनाऽप्रतिसेवनविषये निर्णयविधिः ।
२३ आचार्योपाध्याये मृते एकपाक्षिकस्य भिक्षोः पदवीदान विधिः ।
२४ बहुपारिहारिकाsपारिहारिकाणामेकत्र वासे विधिः । २५ परिहारकल्पस्थित भिक्षवे अशनादिदाने निषेधः, स्थविराज्ञयाSशनादिदानविधिश्च ।
पृष्ठसं.
५३
५५
५५
५६
५७
५७-५८
५९-६०
६१
६२
६३
६४-६५
६६
६७-६८
६९-७०
७१
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विषयः
. पृष्ठसं. २६ परिहारकल्पस्थितभिक्षुः स्वपात्रसमानीताऽशनादेर्भोजनपाने विधिः ७२ २७ एवं स्थविरपात्रसमानीताशनादेोजनपाने विधिप्रदर्शनम् । ७३-७५
॥ इति व्यवहारसूत्रे द्वितीयो देशकः ॥२॥
७८-८१
॥ अथ तृतीयोद्देशकः ॥ १ भिक्षोर्गणधारणविधिः । २ भिक्षोर्गणधारणेच्छायां स्थविराणामनापृच्छापृच्छाऽऽज्ञा-ऽनाज्ञा
अधिकृत्य विधिनिषेधप्रायश्चित्तप्रदर्शनम् । ३ त्रिवर्षपर्यायश्रमणनिम्रन्थस्य आचारकुशलत्वादिगुणवत्त्वे
सति उपाध्यायपददानानुज्ञा । ४ एवं पूर्वोक्तगुणाभावे त्रिवर्षपर्यायश्रमणनिर्ग्रन्थस्योपाध्याय
पददाननिषेधः । ५ पञ्चवर्षपर्यायस्याचारकुशलादिगुणयुक्तस्य जघन्यतो दशाक
ल्पव्यवहारधरस्याऽऽचार्योपाध्यायपददानानुज्ञा । ६ एवं तद्विपरीतस्य पञ्चवर्षपर्यायस्यापि-आचार्योपाध्यायपददान
निषेधः । ७ अष्टवर्षपर्यायस्याऽऽचारकुशलादिगुणोपेतस्य जघन्यतः
स्थानसमवायधरस्य आचार्योपाध्याय-गणावच्छेदकपददा- नानुज्ञा । ८ एवं तद्विपरीतस्याऽष्टवर्षपर्यायस्यापि अल्पश्रुताल्पागमस्या
ऽऽचार्यादिपददाननिषेधः । ९ निरुद्धपर्याय श्रमणनिर्ग्रन्थस्याचार्योपाध्यायपददानविधिः । १० एवं निरुद्धवर्षपर्यायश्रमणनिम्रन्थस्याचार्योपाध्यायपद
दानविधिः । ११ नवडहरतरुणनिम्रन्थस्याचार्योपाध्यायनिश्रामन्तरेण न
स्थातव्यमिति तद्विधिः ।
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विषयः
सूत्रसं.
१२ एवं नवडहरतरुणीनिर्ग्रन्थ्या आचार्योपाध्यायप्रवर्त्तिनीतिनिश्रात्रयमन्तरेण न स्थातव्यमिति तद्विधिः ।
१३ भिक्षोर्गणादवक्रम्य मैथुनसेवनानन्तरं पुनर्दीक्षाग्रहणे आचार्यादिपदाने विधिः ।
१४ गणावच्छेदकस्य स्वपदत्यागमन्तरेण मैथुनसेवनानन्तरं पुनदक्षाग्रहणे यावज्जीवमाचार्यादिपददाननिषेधः ।
१५ एवं गणावच्छेदकस्य स्वपदत्यागपूर्वकं मैथुनसेवने पुनर्दीक्षाग्रहणे आचार्यादिपददाने विधिः ।
२१ - २२ एवमाचार्योपाध्यायावधावनविषयेऽपि स्वपदत्यागात्यागमधिकृत्याचार्यादिपददाने निषेधविधिप्रदर्शकं सूत्रद्वयम् । २३ बहुश्रुतबह्वागमभिक्षोरागाढागाढकारणेऽपि बहुवारं मायामृषादिदोषसेवने यावज्जीवमाचार्यादिपदनिषेधः । २४ - २५ एवं बहुश्रुतबह्वागमगणावच्छेदकाचार्योपाध्यायविष
येsपि यावज्जीवमाचार्यादिपदनिषेधप्रतिपादकं सूत्रद्वयम् । २६ एवं बहुश्रुतबह्वागम बहुभिक्षुविषयेऽपि पूर्ववद् यावज्जीवमाचार्यादिपदनिषेधः ।
पृष्ठसं.
२७--२८ एवं बहुश्रुतबह्वागमबहुगणाबच्छेदक बह्वाचार्योपाध्याय
८९-९१
९२
९३
१६-१७ एवमाचार्योपाध्यायमैथुन सेवनविषयेऽपि स्वपदत्यागा
Sत्यागमधिकृत्याचार्यादिपददाने निषेधविधिप्रतिपादकं सूत्रद्वयम् । ७४-७५ १८ भिक्षोगणादव कम्या वधावने पुनर्दीक्षायामाचार्यादिपददाने विधिः ।
१९ गणावच्छेदकस्य स्वपदत्यागमन्तरेणावधावने पुनर्दीक्षा ग्रहणे यावज्जीवमाचार्यादिपददाननिषेधः ।
२० एवं गणावच्छेदकस्य स्वपदत्यागपूर्वकमवधावकस्य त्रिसंवत्सरानन्तरमाचार्यादिपददाने विधिः ।
९४
९६
९६
९७
९७-९८
९९
१००
१०१
विषयेऽपि यावज्जीवमाचार्यादिपदनिषेध प्रतिपादकं सूत्रद्वयम् । ४१०१
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सूत्रसं
विषयः
२९ एवं बहुश्रुतागम - बहुभिक्षु - बहुगणावच्छेक-बह्वाचार्थीपाध्याय - विषयेऽपि पूर्ववदेव यावज्जीवमाचार्यादिपददाननिषेधः ।
॥ इति व्यवहारसूत्रे तृतीयोदेशकः ||३||
पृष्ठसं.
१४ एवमेवाऽवधावमानाचार्योपाध्यायसूत्रम् ।
१५ आचार्योपाध्यायस्य स्मरतः कल्पाकोपस्थापने विधिः । १६ आचार्योपाध्यायस्यास्मरतः कल्पाकोपस्थापने विधिः । १७ आचार्योपाध्यायस्य स्मरतोऽस्मरतः कल्पाकोपस्थापने विधिः । १८ गणादवक्रम्याऽन्यगणमुपसंपद्य विहरतो भिक्षोरन्यसाधर्मिकेण सह प्रश्नोत्तरम् ।
१९ बहूनां साधर्मिकाणामेकत्राभिनिचरिकाचरणे विधिप्रदर्शनम् । २० चरिकाप्रविष्टस्य भिक्षोश्चतूरात्रपञ्चरात्रा वधिकालोचनादिविधिः ।
१०२
॥ अथ चतुर्थोदेशकः ॥
१-८ आचार्योपाध्यायस्य हेमन्तग्रीष्मकालविहरणविषये सूत्रद्वयम् । एवं गणावच्छेदकस्य हेमन्तप्रीष्मकाल विहरणविषये सूत्रद्वयम् । एवम् - आचार्योपाध्यायस्य वर्षाकाल विहरणविषये सूत्रद्वयम् । एवं गणावच्छेदकस्य वर्षाकालविहरणविषये सूत्रद्वयम् । ९ बहूनामाचार्योपाध्यायानामात्मद्वितीयानां, बहूनां गणावच्छेदकानामात्मतृतीयानां हेमन्तग्रीष्मकाले ग्रामादिषु विहरणानुज्ञा । १०६ १० एवं बहूनामाचार्योपाध्यायानामात्मतृतीयानाम्, बहूनां गणावच्छेदकानामात्म चतुर्थानां ग्रामादिषु वर्षावासानुज्ञा । ११ भिक्षुर्यन्निश्रया ग्रामानुप्रामं विहरति, तस्मिन् कालगते तत्र पदयोग्यान्याभावेऽधीयमानशेष कल्पपठनार्थमन्यत्र तद्योग्यमुनिपार्श्वे गमने विधिः ।
१०८ - १०६ १२ एवं यन्निश्रया वर्षावासे स्थितस्तस्य मरणेऽपि पूर्वोक्तो विधिः । ११० १३ ग्लायमानाचार्योपाध्यायसङ्केतित साघोराचार्योपाध्याय मरणे तत्पदवीदानादानविषये विधिप्रदर्शनम् ।
११०-१११
१--२
३--४
५-६
७-८
१०७
११३
११३ - ११४
११५
११६
११७
११८
११९
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बत्रसं.
विषय
पृष्ठस.
२१ चरिकाप्रविष्टस्य भिक्षोश्चतूरात्रपञ्चरात्रादधिकावधिकाऽऽलोचनादिविधिः ।
१२०-१२१ २२ चरिकानिवृत्तस्य भिक्षोश्चतूरात्रपञ्चरात्रावधिकाऽऽलोचनादिविधिः । १२२ २३ चरिकानिवृत्तस्य भिक्षोश्चतूरात्रपञ्चरात्रादधिकावधिकाऽऽलोचनादि
विधिः । १२२ २४ शैक्षरानिकयोरेकत्र विहरणे परिच्छिन्नस्यापि शैक्षस्य रानिक उपसंपदार्हः ।
१२३ २५ एवं परिच्छिन्नरात्निकस्य शैक्षोपसम्पत्स्वीकारास्वीकारे तस्येच्छैव कारणम् ।
१२४ २६ द्वयोभिक्षुकयोरेकत्र विहरणे यथारात्निकमुपसंपद्विधिः । १२५ २७-३२ एवं द्वयोर्गणावच्छेदकयोः, द्वयोराचार्योपाध्याययोः, एवं बहूनां भिक्षणां,
बहूनां गणावच्छेदकानां, बहनामाचार्योपाध्यायानाम् , तथा-प्रत्येक बहूनां भिक्षु-गणावच्छेदका-ऽऽचार्योपाध्यायेतित्रयाणां संमिलितानामेकत्र विहरणे पूर्वोक्तयथारात्निकोपसंपद्विधिप्रदर्शकानि षट् सूत्राणि ।
१२५-१२७ ॥ इति व्यबहारसूत्रे चतुर्थोद्देशकः ॥४॥
॥ अथ पञ्चमोद्देशकः ॥ १-२ प्रवर्त्तिन्या आत्मद्वितीयाया हेमन्तग्रीष्मकाले विहरणनिषेधः । आत्मतृतीयायाश्चानुज्ञा ।
१२८ ३-४ गणावच्छेदिन्या आत्मतृतीयाया हेमन्तप्रीष्मकाले विहरणनिषेधः, आत्मचतुर्थ्याश्च विहरणानुज्ञा ।
१२९ ५-६ प्रवर्त्तिन्या आत्मतृतीयाया वर्षावासनिषेधः, आत्मचतुर्थ्याश्च वर्षावासानुज्ञा ।
१२९ ७-८ गणावच्छेदिन्या आत्मचतुर्थ्या वर्षावासनिषेधः, आत्मपञ्चम्याश्च वर्षावासानुज्ञा ।
१३० ९ बहनामात्मतृतीयप्रवर्तिनीनां, बहूनामात्मचतुर्थगणावच्छेदिनीनां
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बगसं.
विषय
पृष्ठसं.
प्रामादिषु हेमन्तग्रीष्मकालेऽन्योन्यनिश्रया वासानुज्ञा । १३१ .. १० एवं प्रामादिषु आत्मचतुर्थबहुप्रवर्तिनीनाम् , आत्मपञ्चमबहुगणा
वच्छेदिनीनां वर्षावासेऽन्योन्यनिश्रया वासानुज्ञा । १३२ ११ निम्रन्थी यनिश्रया प्रामानुग्रामं विहरति तस्यां कालगतायां तत्र
तत्पदवीयोग्यान्यनिर्ग्रन्थ्यभावेऽधीयानशेषकल्पपठनार्थ तस्या अन्यत्र ___ गमने विधिः । १२ एवं निम्रन्थी यन्निश्रया वर्षावासे स्थिता तस्यां कालगतायां तत्र
तत्पदयोग्यनिर्ग्रन्ध्यभावेऽधीयानशेषकल्पपठनार्थ तस्या अन्यत्र गमने विधिः ।
१३३ १३ ग्लायमानप्रवर्तिनीसंकेतितनिर्ग्रन्थ्याः प्रवर्तिनीमरणे पदवी. दानादाने विधिः ।
१३४ १५ नवडहरतरुणनिर्ग्रन्थस्याचारप्रकल्पाध्ययने परिभ्रष्टे तत्कारण- पृच्छायामाचार्यादिपददानादानविषये विधिः ।
१३५ १६ एवमेव नवडहरतरुण्या निर्ग्रन्थ्या आचारप्रकल्पाऽध्ययने परिभ्रष्टे
कारणपृच्छायां प्रवर्त्तिन्यादिपददानादानविषयकं सूत्रम् । १३७ १७ स्थविरभूमिप्राप्तस्थविराणामाचारप्रकल्पाध्ययने परिभ्रष्टे तस्य संस्था___पने संस्थापने वा आचार्यादिपददानानुज्ञा ।
१३९ १८ एवं तेषां निषण्णादिविशेषणवतां परिभ्रष्टाचारप्रकल्पाध्ययनस्य द्वित्रिवारमपि प्रतिप्रच्छनप्रतिसारणानुज्ञा ।
१३९ १९ साम्भोगिकनिर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामन्योन्यान्तिके आलोचनानिषेधः,
आलोचनार्हसाधुसमीपे आलोचनानुज्ञा, तदभावेऽन्योन्यान्तिकेऽपि आलोचनानुज्ञा ।
१४०-१४३ २० निम्रन्थस्य निर्ग्रन्थ्या वा रात्रौ विकाले वा सर्पदंशने निर्ग्रन्थी
निम्रन्थस्य, निम्रन्थश्च निर्ग्रन्थ्या विषस्य स्वहस्तेनापमार्जने स्थविरकल्पिकानामनुज्ञा, जिनकल्पिकानां च निषेधः १४४-१४
॥ इति व्यवहारसूत्रे पञ्चमोद्देशकः ॥५॥
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विषयः
॥ अथ षष्ठोदेशकः ॥
१ भिक्षोः स्वजनमातापित्रादिगृहे गमनेच्छायां तद्विधिः ।
२ भिक्षोरल्पश्रुतापागमस्य एकाकिनः स्वजनादिगृहे गमननिषेधः । ३ बहुश्रुत बह्वागमेन सार्धं तत्र गमनानुज्ञा ।
४ भिक्षोस्तत्र भिलिङ्ग (मसूर) दालि - तन्दुलोदकयोर्मध्ये पूर्वायुक्तपश्चादायुक्तभेदमाश्रित्य कल्प्याकप्यविधिः ।
सूत्रसं.
५ पूर्वायुक्तभिलिङ्गसूपग्रहणाऽनुज्ञा ।
६ पूर्वायुक्तयोर्द्वयोरपि ग्रहणेऽनुज्ञा ।
पृष्ठसं.
१४६
१४७
१४७
१४८
१४८
७ पश्चादायुक्तयोर्द्वयोरपि ग्रहणे निषेधः ।
१४९
८- ९ पूर्वायुक्तस्य ग्रहणानुज्ञा, पश्चादायुक्तस्य ग्रहणनिषेध इति सूत्रद्वयम् । १४९ १०- १४ आचार्योपाध्यायस्य स्वगणे पञ्चातिशेषप्रदर्शकाणि
पञ्च सूत्राणि ।
१५-१६ गणावच्छेदकस्या तिशेषद्वयप्रदर्शकं सूत्रद्वयम् । १७ ग्रामादिषु एकवगडेकद्वारे कनिष्क्रमणप्रवेशवसतौ बहूनामकृतश्रुतानामेकत्र वासावासविधौ प्रायश्चित्ताप्रायश्चित्तप्रकरणम् ।
१८ एवं ग्रामादिषु अनेकवगडा-द्वार- निष्क्रमणप्रवेशर्वसतौ तेषामेकत्र वासावासविधौ प्रायश्चित्ताप्रायश्चित्तप्रकरणम् । १९ भिक्षोरेकाकिनो ग्रामादौ पूर्वप्रदर्शितवसतौ बहुश्रुतबहागमस्यापि वासनिषेधः ।
२० ग्रामादौ एकचगडा - द्वार - निष्क्रमणप्रवेश - वसतौ बागमबहुश्रुतस्य द्विकालं मिक्षुभावं सावधं परिपालयत एकाकिनौ भिक्षोर्वासानुज्ञा । १५७ २१ बहुस्त्रीपुरुषमैथुनसेवनस्थाने श्रमणनिर्ग्रन्थस्य वासे हस्तकर्म
१४९ - १५२
१५२
१५३ - १५४
१५५
१५६
प्रतिसेवनप्राप्तं प्रायश्चित्तम् ।
१५८
२२ एवं पूर्वोक्तस्थानवासे श्रमणनिर्ग्रन्थस्य मैथुनसेवनप्राप्त प्रायश्चित्तम् । १५९ २३ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनामन्यगणागतक्षताचारादिविशिष्टनिर्ग्रन्थ्याः
पापस्थानस्याऽऽलोचनादिकमन्तरेणोपस्थापनादिनिषेधः । १५९-१६०
Page #27
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________________
...पृष्ठसं.
विषयः. २४ अन्यगणागतक्षताचारादिविशिष्टनिम्रन्ध्याः पापस्थानस्यालोचनादिपूर्वकमुपस्थापनादेरनुज्ञा ।
॥ इति व्यवहारसूत्रे षष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥६॥
१६१-१६२
१६५
॥अथ सप्तमोद्देशकः॥ १ साम्भोगिकनिम्रन्थनिम्रन्थीनां मध्ये निम्रन्थीनां निम्रन्थानना पृच्छयान्यगणागतक्षताचारादिविशिष्टनिर्ग्रन्थ्याः पापस्थानस्यालोचनादिकमन्तरेण शातादिप्रच्छनाप्रमृतेनिषेधः।
१६३-१६४ २ एवं निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थपृच्छापूर्वक पूर्वोक्तनिम्रन्थ्याः पापस्था
नस्यालोचनादिपूर्वकं शतादिप्रच्छनाप्रमृतेरनुज्ञा । ३ साम्भोगिकनिम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां मध्ये निर्ग्रन्थानां निम्रन्थीः पृष्ट्वा
अपृष्ट्वा वा अन्यगणागतपूर्वोक्तनिम्रन्थ्याः पापस्थानस्यालोचनादि
पूर्वकं शातादिप्रच्छनाप्रभृतेरनुज्ञा । ४ साम्भोगिकनिम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां मध्ये साम्भोगिकनिग्रन्थस्य परोक्षं विसाम्भोगिककरणं निम्रन्थस्य न कल्पते, प्रत्यक्ष विसाम्भोगिक
करणाकरणे च विधिनिषेधौ । . ५ साम्भोगिकनिम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां मध्ये साम्भोगिकनिम्रन्थ्याः
प्रत्यक्षं विसाम्भोगिककरणं निर्ग्रन्थ्या न कल्पते, परोक्षं विसाम्भोगिककरणाकरणे विधिनिषेधौ।
१६९ ६ निम्रन्थानामात्मनोऽर्थाय निर्ग्रन्थ्याः प्रव्राजनादिनिषेधः । ७ निग्रन्थानामन्यासां निम्रन्थीनामर्थाय निग्रन्थ्याः प्रव्राजनादेरनुज्ञा । १७१ ८ एवं निर्ग्रन्थीनामात्मनोऽर्थाय निम्रन्थस्य प्रव्राजनादिनिषेधः । १७१-१७२ ९ निम्रन्थीनां निर्ग्रन्थानामर्थाय निर्ग्रन्थस्य प्रवाजनादेरनुज्ञा । १७२ १० निर्ग्रन्थीनां व्यतिकृष्टदिगुद्देशने निषेधः । ११ निर्ग्रन्थानां व्यतिकृष्टदिगुद्देशनेऽनुज्ञा ।
१७३ १२ निर्ग्रन्थानां व्यतिकृष्टाधिकरणव्यवशमने निषेधः । १३ निम्रन्थीनां व्यतिकृष्टाधिकरणव्यवशमनेऽनुज्ञा । .११ निम्रन्थानां व्यतिकृष्टकाले स्वाध्यायनिषेधः। .
१७४
१७३
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________________
११
सूत्रसंः
विषयः
१५ निर्मन्थीनां व्यतिकृष्टकाले निर्ग्रन्थनिश्रया स्वाध्यायाऽनुज्ञा । १६ निर्मन्थनिर्ग्रन्थीनाम स्वाध्यायकाले स्वाध्यायनिषेधः । १७ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां स्वाध्यायकाले स्वाध्यायकरणानुज्ञा । १८ निर्मन्थनिर्ग्रन्थीनां स्वात्मनोऽस्वाध्यायिके स्वाध्यायनिषेधः, अन्योन्यस्य वाचनादानस्य नुज्ञा च । १९ त्रिंशद्वर्षपर्यायिक निर्ग्रन्ध्यास्त्रिवर्ष पर्यायिकश्रमणनिर्ग्रन्थ उपाध्यायोद्देशनत्वेन कल्पते इति कथनम् ।
२० एवं षष्टिवर्षपर्यायिकनिर्ग्रन्थ्याः पञ्चवर्षपर्यायिकश्रमणनिर्ग्रन्थ आचार्योद्देशनत्वेन कल्पते, इति कथनम् ।
२१ ग्रामानुग्रामं विहरतो भिक्षोर्मृतशरीरपरिष्ठापनविधिः
१७७
२२ अवक्रय ( भाटक) गृहीतोपाश्रयविषये शय्यातरस्थापनविधिः । १७८ - १७९ २३ एवं विक्रीतोपाश्रयविषये शय्यातरस्थापनविधिः ।
१८०
१८१
१८२
२४ पितृगृहवा सिविधवदुहितुरपि - उपाश्रयावग्रहदानेऽधिकारः । २५ मार्गेऽपि वृक्षाद्यधः पूर्वस्थितगृहस्येषु शय्यातरस्थापनविधिः । २६ संस्तृता (समर्था)दिविशेषण विशिष्टराज्यपरिवर्त्तेषु - अवग्रहस्य पूर्वानु
ज्ञानैव
२७ एवम्-भसंस्तृतादिविशेषणविशिष्ठ राज्यपरिवर्त्तेषु भिक्षुभावार्थ द्वितीयवारमवग्रहस्यानुज्ञापना ।
॥ इति व्यवहारे सप्तमोदेशकः समाप्तः ॥७॥
॥ अथाष्टमोदेशकः ॥
१ ऋतुबद्ध कालप्राप्तवसतेरेकप्रदेशे स्थविराज्ञया शय्यासंस्तारकप्रहणविधिः ।
२ हेमन्तग्रीष्मकालनिमित्तमन्यप्रामनयनार्थ शय्य संस्तारकगवेषणविधिः ।
३ - ४ एवं वर्षावासनिमित्तं वृद्धावासनिमित्तं चान्यग्रामनयनार्थ
शय्यासंस्तारकगवेषणे सूत्रद्वयम् ।
५ स्थविरभूमिप्राप्तस्थविराणां दण्डकाद्युपकरणजातमन्यगृहस्थ
पृष्ठसं
१७४
१७५
१७५
१७५
१७६
१८२
१८३-१८४
१८५
१८६
१८७-१८८
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________________
सं.
विषयः
पृष्ठसं.
१८८
१९०
गृहे स्थापयित्वा भक्तपानार्थ गृहस्थगृहे प्रवेशाद्यनुज्ञा, प्रत्या___ वृत्तानामवग्रहानुज्ञापनापूर्वकं पुनस्तद्ग्रहणम् ।
६ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थोनां द्वितीयवारं सागारिकाज्ञामन्तरेण सागारिक..... सत्कप्रातिहारिकशय्यासंस्तास्कस्यान्यत्र नयने निषेधः । १८९
७ एवं सागारिकाज्ञापूर्वकं तस्यान्यत्र नयनेऽनुज्ञा । ८ निम्रन्थनिम्रन्थीनां प्रत्यर्पितशय्यासंस्तारकस्य सामारिकाज्ञा
मन्तरेण पुनरुपभोगनिषेधः, माज्ञापूर्वकं तदुपभोगानुज्ञा च । १९० ९ निम्रन्थनिर्ग्रन्थीनां पीठफलकादिग्रहणानन्तरमाज्ञाग्रहणे निवेधः । १९१ १० एवमाज्ञाग्रहणानन्तरं पीठफलकादिग्रहणेऽनुज्ञा । .. ११ निम्रन्थनिम्रन्थीनां प्रातिहारिकशय्यासंस्तारकस्य हुल भत्वे तत्पूर्व
गृहीत्वा पश्चादवाहानुज्ञापनाया अनुज्ञा । तत्स्वामिनः प्रतिकूलत्वे
चाचार्यस्यानुलोमवाक्यैः सान्त्वनानुज्ञा । १२ भिक्षार्थ गाथापतिकुलप्रविष्टनिन्थस्य परिभ्रष्टोपकरणजातस्य. __लाभे माधर्मिकेण किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिः ।
१९३ १३ एवं बहिर्विचारभूमिविहारभूमिगतस्य परिभ्रष्टोपकरणविषये
विधिप्रदर्शकसूत्रम् । १४ एवं ग्रामानुप्रामं विहरतो निम्रन्थस्य परिभ्रष्टोपकरणविषये
सूत्रम् । १५ निम्रन्थनिम्रन्थीनामतिरेकप्रतिग्रहस्यान्यान्यनिमित्त दूराध्व
परिबहनकल्पः, तदर्पणविधिश्च । १६ कुक्कुटाण्डप्रमाणकवलानधिकृत्य निर्ग्रन्थस्याल्पाहारादि- कथनम् ।
१९७-१९९ ॥ इति व्यवहारे अष्टमोद्देशकः समाप्तः ॥ ८॥
१९२
१९५
॥ नवमोद्देशकः ॥ १-४ शय्यातरस्य प्राघूर्णकादिनिमित्तसंपादिताहारस्य ग्रहणाग्रहणप्रकारविषये चत्वारि सूत्राणि ।
२००-२०२
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सूपसं०
विषय
५ - ८ एवं शय्यातरस्य दासादिनिमित्त संपादिताहारस्य ग्रहणाग्रहणविषयेऽपि चत्वारि सूत्राणि ।
९--१६ शय्यातरस्य एकानेक्रवगडादौ अन्तर्बहि रेकानेकचुल्हीसम्पा दिततज्ज्ञातकाहारस्य शय्यातरसम्बन्धासम्बन्धमाश्रित्य ग्रहणाग्रहणविषयेऽष्टौ सूत्राणि ।
१७-३२ शय्यातरस्य चक्रिकाशालात आरभ्य सौण्डिकशालापर्यन्ताष्टशालाः साधारणप्रयुक्त – निस्सधारणप्रयुक्तविशेषणद्वयविशिष्टा आश्रित्य तद्गततैला दिवस्तुजातस्य ग्रहणाग्रहणविषये षोडश सूत्राणि ।
३३-३४ शय्यातरभाग सहित रहितशाल्याद्योषधीनां ग्रहणाग्रहणविषये सूत्रद्वयम् ।
३५-३६ एवम् आम्रफलविषयेऽपि सूत्रद्वयम् ।
॥ भिक्षुप्रतिमाप्रकरणम् ॥ ३७ सप्तसप्तकिका भिक्षुप्रतिमासूत्रं तत्कोष्टकं च । ३८. अष्टाष्टकिकाभिक्षुप्रतिमासूत्रं तत्कोष्ठकं च । ३९ नवनव किकाभिक्षुप्रतिमासूत्रं तत्कोष्ठकं च । ४० दशदशकिकाभिक्षुप्रतिमासूत्रं, तत्कोष्ठकं, पूर्वोक्तभिक्षुप्रतिमाचतुष्टयस्य कालपरिमाण - दतिपरिमाणविषये पञ्च भाष्य
गाथाश्व ।
॥ इति भिक्षुप्रतिमाप्रकरणम् ॥ ४१ क्षुल्लिकमोकप्रतिमा परिवहनविधिः । ४२ महतिकमोकप्रतिमापरिवहनविधिः । ४३ प्रतिग्रहधारिसंख्यादत्तिकभिक्षोर्दश्चिस्वरूपम् । ४४ पाणिप्रतिप्रहिकसंख्यादत्तिकभिक्षोर्दत्तिस्वरूपम् । ४५ उपहृतस्य त्रैविध्यम् ।
४६ अवग्रहिताभिग्रहस्य वैविध्यम् ।
- ४७ अन्याचार्यमतेनाऽकारहितस्य दैविध्यम् ।
॥ इति व्यवहारे नवमोदेशकः समाप्तः ॥ ९ ॥
२०२-२०३
२०४ - २०९
२०९-२१३
२१३-२१४
२१४ - २१५
(२१५-२२२)
२१५-२१६
२१७
२१८
२१९-२२२
२२२-२२४
२२५
२२६-२२७
२२८
२२८
२२९
२२९-२३०
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सूत्रसं
विषयः ॥ दशमोद्देशकः ॥
१ यवमध्यचन्द्रप्रतिमाप्रतिपन्नानगारस्य समापति तदेवमनुष्यतिर्यगूजनितानुलोमप्रतिलोभपरीषहोपसर्गवर्णनम् ।
२ यवमध्यचन्द्रप्रतिमा परिवहन विधिः ।
३ वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमाप्रतिपन्नानगारस्य समापतितदेवमनुष्य तिर्यग्जनितानुलोम प्रतिलोम परीषहोपसर्गवर्णनम् ४ वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा परिवहनविधिः ।
५ पञ्चविधव्यवहारमध्ये उत्तरोत्तरव्यवहारप्रस्थापनविधिः । ६ अर्थकर-मानकरेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजात चतुर्भङ्गी । ७ गणार्थकर -- मानकरेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्भङ्गी । ८. गणसंग्रहकर - मानकरेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्भङ्गी । ९ गणशोभाकर - मानकरेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्भङ्गी । १० गणशोधिकर - मानकरेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्भङ्गी ११ रूपत्यागि- - धर्मत्यागीतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजात चतुर्भङ्गी । १२ धर्मत्यागि गण संस्थितित्यागीतिपदद्वयं मधिकृत्य पुरुषजातचतुर्भङ्गी । १३ प्रियधर्म- दृढधर्मेतिपदद्वयमधिकृत्य पुरुषजातचतुर्भङ्गी । १४ प्रवाजनों -पस्थापनपदद्वयमधिकृत्य - आचार्यचतुर्भङ्गी ।
A
१५. उद्देशन-वाचनापदद्वयमधिकृत्य – आचार्य चतुभङ्गी । १६ उद्देशन - वाचनपदद्वयमधिकृत्यान्तेवासि चतुर्भङ्गी । १७ स्थविरभूम्यास्त्रैविध्यम् । १८ शैक्षभूम्याखैविध्यम् ।
- १९ निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थी नामूनाष्टवर्षजातक्षुल्लकक्षल्लिक्योरुपस्थापनादेर्निषेधः ।
२० एवं सातिरेकाष्टवर्षजातयोस्तयोरुपस्थापनादेरनुज्ञा । २१–२२ एवमव्यञ्जनजातयोः क्षुल्लक क्षुल्लिक्योरा चारकल्पाध्ययनो
पृष्ठसं.
२३१-२३३
. २३३-२३७
२३७-२३८
२३८-२४०
२४०-२४४
२४४-२४६
२४६
२४७ २४८
२४९ - २५०
२५१
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२५४
२५५
२५६-२५७
२५७-२५८
२५८ - २५९
२५९-२६०
२६०
द्देशननिषेधः, व्यञ्जनजातयोश्च तयोस्तदनुज्ञेतिसूत्रद्वयम् । २६०-२६१
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१५
सूत्रसं
विषयः
पृष्ठसं.
(२३-२७)
॥ पर्यायमधिकृत्य शास्त्रोद्देशनप्रकरणम् ॥ ( २६२ - २६९) २३ त्रिवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य आचारकल्पाध्ययनो
देशनानुज्ञा ।
२४ एवं चतुर्वर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य सूत्रकृताङ्गोद्देशनानुज्ञा । २५ पञ्चवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य दशाकल्पव्यवहारोदेशनानुज्ञा । २६ अष्टवर्षपर्यायस्य श्रमण निर्ग्रन्थस्य स्थानसभवायोदेशनानुज्ञा । २७ दशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य विवाहाङ्गो (व्याख्याप्रज्ञप्त्यङ्गो) देशनानुज्ञा ।
२८ एकादशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य क्षुल्लिका विमानप्रविभक्ति प्रभृत्यध्ययनोद्देशनानुज्ञा ।
२९ द्वादशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य अरुणोपपाताद्यध्ययनो • ३० त्रयोदशवर्षपर्यांयस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य उत्थानश्रुताद्यध्ययनो • ३१ चतुर्दशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य स्वप्नभावनाध्ययनो० ३२ पश्चदशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य चारणभावनाध्ययनो ० ३३ षोडशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य तेजोनिसर्गाध्ययनो० ३४ सप्तदशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य आशीविषभावनाध्ययनो ० ३५ अष्टादशवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य दृष्टिविषभावना ध्ययनो ० ३६ एकोनविंशतिवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य दृष्टिवादाङ्गो ० ३७ विंशतिवर्षपर्यायश्च सर्वश्रुतानुपाती भवतीति कथमम् । ॥ इति पर्यायमधिकृत्य शास्त्रोद्देशनप्रकरणम् ॥
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३८ दशविधवैयावृत्त्यसूत्रम् । ३९ ४८ आचार्यवैयावृत्त्यादिदशविधवैयावृत्त्यफलप्रदर्शकानि दश सूत्राणि
शास्त्रसमाप्तिश्च ।
।। इति व्यवहारसूत्रे दशमोदेशकः समाप्तः ॥१०॥
इति व्यवहारसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका समाप्ता ॥
२६२
२६२
२६३
२६४
२६५
२६६
२६७
२६८
२६९
२६९
२७०-२७२.
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श्री चीतरागाय नमः
जैनाचार्य-जैनधर्मदिषाफर-पूज्यश्री घासीलालबतिविरचित-भाष्यसमलङ्कृतम्
. श्री व्यवहारसूत्रम्
___ मंगलाचरणम् वर्द्धमानं जिनं नत्वा, गणीशं गौतमं तथा ।
व्यवहारागमे भाष्यं, घासीलालेन तन्यते ॥१॥ इतः पूर्व बृहत्कल्पसूत्रं व्याख्यातम् । 'सम्प्रति व्यवहारसूत्रं विवियते-अस्य व्यवहारसुत्रस्य वहत्कल्पसूत्रेण सहाऽयमभिसम्बन्धः-बहत्कल्पे सामान्यत एव प्रायश्चित्तमुक्तम्, न तु तदानविधिरालोचनविधिर्धा, व्यवहारे तु प्रायश्चित्तदानमालोचनाविधिश्चाऽभिधास्यते । तदनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य व्यवहाराध्ययनस्य व्याख्या प्रस्तूयते -
अत्र व्यवहारग्रहणेन व्यवहारी, ध्यपहरणीयं चेति द्वयमपि सूचितम् । व्यवहारि-व्यवहरणीययोरभाव व्यवहारस्यैवाऽसंभवात् , ततो यथा व्यवहारस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या, तथा व्यवहारि-व्यवहरणीययोरपीति, तत् त्रयाणामपि प्ररूपणां कुर्वन्नाह भाष्यकार:-विवहारो' इत्यादि । भाष्यम्-ववहारो ववहारी, ववंहरणिज्जा य जे जहा पुरिसा।
एएसि तु पयांणं, पत्तेयं खलु पवणं वोच्छं ॥१॥ छाया-व्यवहारो व्यवहारी, व्यवहरणीयाश्च ये यथा पुरुषाः ।
एतेषां तु पदानां, प्रत्येकं खलु प्ररूपणां वक्ष्ये ॥१॥ अवचूरी-'ववहारो' · इति । व्यवहारः, व्यवहियते दीयते यद्यस्य प्रायश्चित्तमापतति तद्दानविषयीक्रियतेऽनेन स व्यवहारः । 'ववहारी' व्यवहारी व्यवहरतीत्येवंशीलः व्यवहारक्रियाप्रवर्तकः प्रायश्चित्तदायक इति यावत् 'य' च 'जे पुरिसा" ये पुरुषाः, अत्र पुरुषग्रहणं पुरुषोत्तमो धर्म इति ज्ञापनार्थम् । पुरुषपदेन स्त्रियोऽपि परांमृष्टा भवेयुः, तांसामपि प्रायश्चित्तदानविषयतया प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । 'जहा' यथा येन वक्ष्यमाणप्रकारेण 'ववहरणिज्जा' व्यवहरणीयाः व्यवहारविषयीकर्तव्याः- 'एएसि पयाणं' एतेषां पदानाम् व्यवहार-व्यवहारिव्यवहरणीयानां त्रयाणाम् 'तु' तु-अपि 'पत्तेय' प्रत्येकम्, एकैकस्य पदस्य 'परूवर्ण' प्ररूपणां याक्ष्यां संक्षेपतो विस्तरतश्च 'खलु' खल-निश्चयेन 'वोच्छं' वक्ष्ये कथयिष्यामि ॥१॥
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व्यवहारसूत्रे अथ त्रयाणामपि पदानां संक्षपप्ररूपणार्थमिदमाह-'ववहारी' इत्यादि । भाष्यम्- ववहारी खलु कत्ता, ववहारो हवइ करणभूओ उ ।
__ववहरणिज्जं कन्जं, कुंभाइतिगस्स जह सिद्धी ॥२॥ छाया-व्यवहारी खलु कर्ता, व्यवहारो भवति करणभूतस्तु ।
___ व्यवहरणीयं कार्य, कुम्भादित्रिकस्य यथा सिद्धिः ॥२॥
अवचूरी—'ववहारी' इति अस्मिन् शास्त्रे 'खलु' खल निश्चयेन । 'ववहारी' व्यवहारी 'कत्ता' कर्ता कथ्यते। 'ववहारो उ' व्यवहारस्तु 'करणभूओ' करणभूतः करणरूपो भवति । स च करणभूतो व्यवहारः पञ्चविधः, तद्यथा-आगमः, श्रुतम् , आज्ञा, धारणा, जीतं चेति । 'ववहरणिज्ज' व्यवहरणीयम् , करणभूतेन पञ्चविधव्यवहारेण व्यवहरन् कर्त्ता यन्निष्पादयति तत् 'कज्ज हवई' कार्य भवति । ननु व्यवहारग्रहणेन व्यवहारी व्यवहरणीयं चेति द्वे कथं गृह्येते ? नहि देवदत्तग्रहणेन यज्ञदत्तादयो गृह्यन्ते ? इति चेत् अत्रोच्यते-'जह कुंभाइतिगस्स सिद्धी' यथा-कुम्भादित्रिकस्य सिद्धिोके भवति, तथाऽत्राऽपि इति । अयं भावः-कुम्भ इत्युक्ते, : कुम्भ इति कार्य्यम् , कुलालस्तस्य कर्ता, मृदण्डचक्रादिकं करणं च सामर्थ्याद् गृह्यते, कृतस्य कार्यस्य कर्तृकरणव्यतिरेकेण चाऽसंभवात् । एवं व्यवहार इत्युक्ते व्यवहारी व्यवहरणीयश्च गृह्येते एव, कुत्रापि सकर्मकक्रियायाः साधकतम रूपस्य करणस्याऽपि कर्मकर्तृव्यतिरेकेणाऽसंभवात् ॥२॥
___ तदेवं व्यवहार-व्यवहारि-व्यवहरणीयानां निरूपणं कृत्वा संप्रति सूत्रं व्याख्यातुमाह'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा । अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासिय, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं ॥ २० १॥
___ छाया-यो भिक्षुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अपरिकुञ्च्यालोचयतो मासिकम् , प्रतिकुञ्च्यालोचयतो द्वैमासिकम् ॥ सू० १॥
अथास्य सूत्रस्य भाष्यरूपेण व्याख्या क्रियते, तल्लक्षणं चेदम्
"संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः।।
चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या सूत्रस्य पइविधा" ॥१॥
तत्र संहिता नाम-अस्खलितपदानां सामीप्येन उच्चारणम् १ । पदं च-पदच्छेदकरणम् , यथाऽत्रैव सूत्रे 'यः भिक्षुः मासिकं, परिहारस्थानं प्रतिसेव्य, आलोचयेत्' इत्यादि २। तथा पदार्थः-पदस्य वाच्यार्थः, यथा भिक्षुपदस्यार्थप्रतिपादनं, तथाहि-'भिक्ष याचने' इति धातोः भिक्षते यमनियमव्यवस्थितः कृतकारितानुमोदितपरिहारेण याचते इत्येवंशीलो भिक्षुः उ प्रत्यये भिक्षुरिति सिद्धम् ३ । पदविग्रहो-नाम-पदानां परस्परविश्लेषीकरणं, यथाऽत्रैव 'परिहा
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भाष्यम् उ०१ सू० १-३
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तविधिः ३ रस्य स्थानं परिहारस्थानम्' इति विग्रहवाक्यम् ४ । चालना-प्रश्नः, यथाऽत्रैव यदि 'परिहारः पापं प्रायश्चित्तं वा तदेव स्थानम्' इति विग्रहः क्रियेत तदा परिहारस्य स्थानस्य चेत्युभयोः पदयोः समानार्थकत्वाद् एकस्यैवाऽन्यतरस्य प्रयोगः करणीयो न तु द्वयोः 'उक्तार्थानामप्रयोगः' इति न्यायादिति ५ । प्रत्यवस्थानम्-तादृशप्रश्नस्योत्तरदानं, तथाहि-स्थानशब्दो नाम शब्दशक्तिस्वाभाव्यादनेकविशेषाधारसामान्याभिधायी, तेन एतद् ध्वनयति-अनेकप्रकाराणि नाम मासिकप्रायश्चित्तानि, अनेकप्रकारेण च मासिकेन उपन्यस्तेन प्रयोजनं, कल्पाध्ययनोक्तसकलमासिकप्रायश्चित्तविषयकदानालोचनयोरभिधातुमुपक्रमात् , अतोऽत्र स्थानग्रहणम् , इत्यादिरूपमुत्तरदानम् ६ । इति व्याख्यालक्षणम् ।
अथ सूत्रं व्याख्यायते-'जे भिक्ख' इति । यः कश्चिद् भिक्षुः पूर्वोक्तस्वरूपः, यद्वा नैरुक्ती शब्दव्युत्पत्तिर्यथा 'क्षुध बुभुक्षायाम्' क्षुध्यति बुभुक्षते भोक्तुमिच्छति चतुर्गतिकमपि संसारमस्मादिति संपदादित्वात् किपि क्षुत्-अष्टप्रकारकं कर्म, तां भिनत्ति ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभिर्विदारयतीति भिक्षः पृषोदरादित्वाद् भिक्षुरूपनिष्पत्तिः, एतादृशो भिक्षः साधुः, धर्मस्य पुरुषप्रधानत्वाद् भिक्षनिर्देशः, ततो भिक्षुकी साध्वी वा 'मासियं' मासिकं-मासेन निर्वृत्तं 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं परिहियते परित्यज्यते गुरुसमीपे गत्वा यः स परिहारः पापम्, तिष्ठन्ति जन्तवः कर्मकलुषिता अस्मिन्निति स्थानम् , परिहारस्य स्थानं परिहारस्थानं पापस्थानम् 'पडिसेवित्ता प्रतिसेव्य आचर्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् 'लोचदर्शने' धातुः, 'आङ् मर्यादायाम्' तेन आमर्यादया 'जह बालो जपंतो' इत्यादिरूपया आलोचयेत् , यथा आत्मनस्तथा गुरोः प्रकटीकुर्यात् शिष्यः, अत्र 'यः भिक्षुः' इत्यत्र यच्छब्दः 'यत्तदोनित्यसम्बन्धः' इति न्यायात् तच्छब्दापेक्षस्तेन यो भिक्षः मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् तस्य 'अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्च्य 'कुच कुरुच कौटिल्याल्पाल्पीभावयोः' इति धातोः प्रतिकुच्येति रूपम् , प्रतिकुञ्ष्य कौटिल्यमाचर्य, न प्रतिकुञ्च्य अप्रतिकुञ्च्य सर्वथा कपटमकृत्वा 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः भिक्षोः 'मासियं' मासिकं मासेन निर्वर्तनयोग्यं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारतो गुरुः प्रायश्चित्तं दद्यात् । यदि यो भिक्षुः शुद्धभावेन नालोचयेत् 'पलिउंचिय' प्रतिकुच्य कौटिल्यमाचर्य 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः 'दोमासियं' द्वैमासिकं मासद्वयनिर्वर्तनयोग्यं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवानुसारतः प्रायश्चित्तं गुरुर्दद्यात् , मायाकरणतोऽधिकस्य गुरुमासस्य सद्भावात् , प्रतिकुञ्च्य आलोचयतो यत् प्राप्तं तत्तु दीयत एव, अन्यश्च मायाप्रत्ययो गुरुको मास इति द्वैमासिर्फ प्रायश्चित्तं तस्याऽऽपद्यते इति ॥सू० १॥
सूत्रम्--जे भिक्खू दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं पलिउंचिय आलोएमाणस्स तिमासियं ॥ सू०२॥
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व्यवहारसूत्रे
छाया - यो भिक्षुद्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अपरिकुव्य आलोचयतः द्वैमासिकम् परिकुंच्य आलोचयतः त्रैमासिकम् ॥ सू० २ ॥
,
भाष्यम् – 'जे भिक्खू' इति । यः कश्चिद् भिक्षुः 'दोमासिय' द्वैमासिकम् 'परिहाराष्ट्राणं' परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोच्येत् आलोचनां कुर्यात् 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतः 'दोमासियं द्वैमासिकं 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स प्रतिकुञ्चय. सकपटमालोचयतः 'तिमासियं' त्रैमासिकं त्रिमासेन निर्वर्त्तनयोग्यं प्रायश्चित्तं दद्यात् प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नस्य गुरुमासस्य प्रक्षेपात् ।
अयं भावः- यदि कश्चित् साधुः द्वैमासिकं प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेव्य शुद्धभावेन गुरुसमीपे प्रायश्चित्तमभिलषति तदा गुरुस्तस्मै द्वैमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात् ।
यदि कदाचित् स एव सकपटमालोचयेत् तदा मायाप्रयोगापराधाद गुरुस्तस्मै त्रैमासिकं प्रायश्चित्तं दद्यादिति । इह द्वैमासिकं परिहारस्थानमात्रमापन्नस्य प्रतिकुञ्चकस्य दृष्टान्तः, तथाहि
अस्ति कश्चित् कुञ्चिको नाम तापसः, स फलान्यानेतुं वनं गतः । अरण्यं परिभ्रमता तेन नद्यां मृतो मत्स्यो दृष्टः, तं समादाय भक्षितश्च तेन तस्य रोगः समुत्पन्नः । ततस्तेन रोगपरिहाराय पृष्टो वैद्यः प्रोवाच किं त्वया भक्षितम् ? तापसोऽवदत्-फलमेव नान्यत्किश्चित् । वैद्येन कथितम् - घृतं पिब । तापसेन तथा कृतम्, किन्तु रोगो न नष्टः । तदा पुनस्तापसो वैद्यं कथितवान् - रोगो न गतः । वैद्यः प्रोवाच - तापस ! सत्यं वद, ततस्तापसो यथावृत्तं मत्स्यभक्षणमाख्यातवान् । ततो निदानज्ञवैथेन वमन विरेचनादिना रोगो निष्कासितः । एवमेव शुद्धभावेनोपस्थिताय शिष्याय गुरुद्वैमासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् येन तस्य विशुद्धिर्भवेदिति ॥ सू०२॥
सूत्रम् - जे भिक्खू तेमासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा । अपलिउंचि आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासि ॥ ०३॥
छाया - यो भिक्षुस्त्रैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुऊच्य आलोचयतः त्रैमासिकं, प्रतिकुरुच्य आलोचयतश्चातुर्मासिकम् ॥ सू० ३ ॥
भाष्यम् – 'जे भिक्खू' इति । यो भिक्षुः 'तेमा सियं' त्रैमासिकं परिहारद्वाणं परिहारस्थानं 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत्, 'अपलिचिजय' अप्रतिकुञ्चय 'आलोपमाणस्स' आलोचयतः 'तेमासिय' त्रैमासिकं त्रिमासेन निर्वर्त्तनयोग्यं प्रायश्चित्तं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि गुरुर्दद्यात्, 'पलिउंचिय' प्रतिकुञ्च्य मायामाचर्य 'आलोए - माणस्स' आलोचयतः 'चाउमा स्त्रियं' चातुर्मासिकं मासचतुष्टयेन निर्वर्त्तनयोग्यं प्रायश्चित्तं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि दथात् ।
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भाष्यम् उ० १ सू० ४-५
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तविधिः ५ अयं भावः- त्रैमासिकं पापस्थानं प्रतिसेय. यदि कश्चित्साधुः स्वकीयपापनिवारणाय गुरुसमीपे शुद्धभावेन प्रायश्चित्तमिच्छेत् तदा गुरुस्तस्मै त्रैमासिकं गुरुकं लघुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारेण दद्यात् । अथ कदाचित् मायापूर्वकमालोचयितुमिच्छेत् , तदा गुरुः प्रतिसेवनाऽनुसारि चातुर्मासिकं गुरुकं लघुकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात् मायादण्डरूपेण मासाधिक्यं वदेत् ।
अत्र प्रतिकुञ्चके दृष्टान्तो योधः, तथाहि-वसन्तपुरनामके नगरे वसन्तसेनो राजा, तस्य शूरसेननामक एको योधः शूरत्वेनातीव वल्लभः । स चैकदा तस्य राज्ञः एकेन प्रतिपक्षभूतेन राज्ञा सह युद्धे प्रवृत्ते तत्र सेनापतित्वमङ्गीकृत्य स्वसैन्यं परसैन्येन सह योधयन् स्वयमपि पर चक्रचूरणाय यो प्रवृत्तः । ततः परसैन्यं पराजित्य विजयलक्ष्मीमासादितवान् किन्तु तस्य शरीरे परसैन्यक्षिप्तानि अनेकानि शल्यानि प्रविष्टानि । राजा चातिप्रियत्वेन तच्छरीरगतशल्योद्धरणार्थ वैद्य आदिष्टः । वैद्यश्च शल्यानि निष्कासयितुं प्रवृत्तस्तेन तस्यातिवेदना जायते ततो वेदनाभयात् कानिचित् शल्यानि मायाभावेन वैद्याय न प्रकटितानि तेन स शल्यबाधया दुर्बलीभूय मृतः । एवमिहापि यः परिहारस्थानप्रतिसेवकः कौटिल्यभावेन स्वकृतं सर्वं पापं गुरवे न प्रकटीकरोति केवलमेकं द्विकं वा प्रदर्शयति असौ योधवत् तत्पापप्रभावेण संयमजीवितात् परिभ्रश्यतीति ॥ सू० ३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू चाउम्मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा। अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं ॥ सू० ४ ॥
छाया -यो भिक्षुश्चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुत्र्य आलोचयतश्चातुर्मासिकं, प्रतिकुञ्च्यालोचयतः पाञ्चमासिकम् ॥ सू० ४ ॥
भाष्यम्-'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'चाउम्मासियं' चातुमासिकम् 'परिहारद्वाणं' परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् 'अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्च्य 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकं 'पलिउंचिय' प्रतिकुञ्च्य 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः ‘पंचमासियं' पाञ्चमासिकं मासपञ्चकेन निवर्तयितुं योग्यं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्त वदेत् गुरुरिति ।
अयं भावः-यत्रैव कर्मणि मायारहितस्य शिष्यस्याऽन्यस्य वा चातुर्मासिकं गुरुकं लघुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं, तत्रैव मायासहितस्य पाश्चमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चिनं दद्यात्, मासाधिक्यस्य मायाप्रयोज्यत्वात् ।
अत्र दृष्टान्तमाह-एकस्मिन् उद्याने द्वौ मालाकारौ वसतः । तत्रैकदा 'कौमुदीमहोत्सव आसन्नीभूतः' इति कृत्वा द्वावपि तौ बनि पुष्पाणि उद्यानतः संगृहय माला विनिर्मितवन्तौ
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व्यवहारस्त्र तत्रैकेन महोत्सवसमये कस्मैचिद् राज्ञे सा माला विधिना प्रदर्शिता, स राज्ञा बहुव्येण पुरस्कृतः। द्वितीयेन सा माला न प्रकटीकृता संगोप्य रक्षिता तेन पुरस्कारो न लब्धः, एवं यो मूलगुणापराधमुत्तरगुणापराधं च न प्रकटीकरोति स निर्वाणलाभं न लभते, अपरः स्वापराधप्रकाशकस्तु परम्परया निर्वाणलाभ लभते इति ॥ सू०४ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू पंचमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा । अपलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासिय, पलिउंचिय आलोएमाणस्स छम्मासियं ॥ सू०५ ॥
छाया -यो भिक्षुः पाञ्चमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुच्य आलोचयतः पाञ्चमासिकं, प्रतिकुञ्च्यालोचयतः पाण्मासिकम् ॥ सू० ५॥
भाष्यम् 'जे भिक्ख' इति । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद्भिक्षुः 'पंचमासिय' पांचमासिकं 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् 'अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्च्य 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः 'पंचमासियं' पांचमासिकं मासपञ्चकसाध्यं प्रायश्चित्तं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि गुरुर्दद्यात् , 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्य मायां कृत्वा, मायापूर्वकमालोचयतस्तु 'छम्मासिय' पाण्मासिकं षड्भिर्मासैः साधनीय लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं दद्यात् ।
अत्र प्रतिकुश्चके मेघदृष्टान्तो यथा-एको मेघो नो गर्जति नो वर्षति; कश्चित् मेघो नो गर्जन कृत्वा नो वर्षति, एवं हे शिष्य ! त्वमपि आलोचयामीति कथयित्वा आलोचयितुमारभ्य मायां करोषि । यदि मायां करिष्यसि तदा नियमभ्रष्टो भविष्यसि अतः सम्यगालोचय, मायां मा कुरु । तत्र द्वैमासिकादिपरिहारस्थानेषु कुञ्चिते यथाक्रममिमे पूर्वोक्ता श्चत्वारो दृष्टान्ताः घटन्ते, तथाहि-द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य प्रतिकुञ्चकस्य दृष्टान्तः कुञ्चिकः तापसः १। त्रैमासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य योधो दृष्टान्तः २। चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य मालाकारो दृष्टान्तः ३ । पाञ्चमासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य मेघो दृष्टान्तः ४ । तत्र प्रतिकुञ्चनायां कृतायामाचार्येण–'सम्यगालोचय मा प्रतिकुश्चनां कुरु' एवमुपालब्धो यदि सम्यक् प्रत्यावृत्य वदेत्-भगवन् ! "मिच्छामि दुक्कडं" मिथ्या मे दुष्कृतम् , सत्यं भवतां कथनम् , सम्प्रति सम्यगालोचयामि । ततः स श्रुतव्यवहारी प्रतिकुञ्चिते तं तथा प्रत्यावृत्तं सन्तं पुनरपि वारत्रयमालोचनां कारयति । तत्र त्रिभिर्वारैः सदृशमालोचयति तदा ज्ञातव्यो यदयं सम्यक् प्रत्यावृत्त इति । तदनन्तरं तस्मै यद्देयं प्रायश्चित्त तदातव्यमिति । ननु वारत्रयमालोचनादेवाऽस्य श्रुतव्यवहारिणोऽन्तर्गतां मायां कथं लक्षीकुर्वन्ति ? तत्राह
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भाग्यम् उ० १ ० ६-७
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तविधिः ७
" आकारैश्च स्वरैश्व, पूर्वाऽपरव्याहताभिवगीर्भिः । ज्ञात्वा कुञ्चितभावं परोक्षज्ञानिनो व्यवहरन्ति ॥ १ ॥
परोक्षज्ञानिनः श्रुतव्यवहारिण आचार्याः परान्तःकरणे विद्यमानां मायामा कारादिभिर्जानन्ति । तत्राssकाराः - शरीरगता भावविशेषाः । तत्र यः शुद्धस्तस्य सर्वेऽप्याकाराः संविग्नभावोपदर्शका भवन्ति, इतरस्य तु न तथा । तथा स्वराः विविक्ताः विस्पष्टाः अक्षुभिताश्च निस्सरन्ति । अशुद्धपुरुषस्य तु अव्यक्ताः अविस्पष्टाः क्षुभिता गद्गदाश्च । तथा शुद्धस्य वाणी पूर्वापराऽव्याहता, अशुद्धस्य वाणी पूर्वापरविसंवादिनी । एवं परोक्षज्ञानिनः श्रुतव्यवहारिणः- आकारैः स्वरैः पूर्वापरव्याहताभिश्च वाणीभिः तस्याऽऽलोचकस्य अन्तःकरणगतं कुञ्चितभावं ज्ञात्वा तथा व्यवहरन्ति । पूर्वं मायाप्रत्ययेन प्रायश्चित्तदण्डेन दण्डयते, पश्चात् अपराधप्रत्ययेन प्रायश्चित्तदण्डेनेति ।
अथ यदि विसदृशमालोचयति तदा गुरुणा वक्तव्यं यद् - भो भोः ! अन्य मुनिसमीपे गत्वा स्वकीयपरिहारस्थानस्य शुद्धिं कुरु । नाहं तवैतादृश्या असद्दश्या आलोचनायाः सद्भावमजानानः शुद्धिकर्ते शक्नोमि, इति । शिष्यः पुनः प्रश्नयति - गुरो ! संसारपारावारसमुत्तरणकरण ! ता मासादीनि षण्मासपर्यन्तानि परिहारस्थानानि कुतः प्राप्तानि ! तत्राह - उद्गमादिरूपत्रिकस्थानात् एतानि परिहारस्थानानि प्राप्तानि भवन्ति । अयं भावः - उद्गमोत्पादनैषणासु यद् अकल्प्य प्रति सेवनाया आचरणं तस्मादेवैतानि परिहारस्थानानि प्राप्तानि भवन्तीति ॥ सू० ५ ॥
सम्प्रति षाण्मासिकप्रायश्छित्तादूर्ध्वं प्रायश्चित्तं न भवतीति प्रदर्शयति - ' तेण परं' इत्यादि । सूत्रम् - तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चैव छम्मासा || सू० ६ ॥ छाया -- ततः परं प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा त एव षण्मासाः ॥ सू० ६॥
भाष्यम् – ' तेण परं' इति । 'तेण परं' ततः परं, तेनेति पञ्चम्यर्थे तृतीया, अथवा 'तेन' इति अव्ययं ' ततः' इत्यर्थे, तथा च तेन ततः पाञ्चमासिकप्रायश्चित्तस्थानात् परमूर्ध्वं षाण्मासिकादिपरिहारस्थाने प्रतिसेविते सति, आलोचनाकाले प्रायश्चित्तसमये 'पलिउंचिए वा ' प्रतिकुञ्चिते वा, प्रतिकुञ्चनं माया तत्सहिते वा 'अपलिउंचिए वा' अप्रतिकुञ्चिते वा मायारहिते वा, मायापूर्वकम्, अमायापूर्वकं वा आलोचिते इत्यर्थः । ' ते चेव छम्मासा' त एव षण्मासाः त एव प्रतिसेवनानिष्पन्नाः स्थिता मासाः षण्मासा एव, ना प्रतिकुञ्चनानिमित्तमारोपणं कर्तव्यम् ।
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AARAMMAmrammar
व्यवहारसूत्रे कुतो नाधिकं प्रायश्चित्त दातम्यम् यथा “मासिकप्रतिसेवनानिमित्तप्रायश्चित्तावसरे समायस्य द्वैमासिकं प्रायश्चित्तविधानं कृतं तथा षण्मासंप्रायश्चित्तावसरे समायिकाय सप्तमासिकं प्रायश्चित्तं वक्तव्यं स्यात् किन्तु तथा न कृत्वा षण्मासावधिकमेव प्रायश्चित्तं प्रतिकुचनाया अप्रतिकुञ्च'नायाः कुतः कारणाद्विधीयते ! इति चेत् मंत्रीध्यते-सत्यं भवता तर्कितम् षण्मासादप्यधिक प्रायश्चित्तं दातव्यं प्रतिकुश्चिते, किन्तु इह जीतकल्पोऽयम्
अयं भाव-यस्य तीर्थकरस्य यावत्प्रमाणकमुत्कृष्टं तपःकरणं तस्य तीर्थकरस्य तीर्थे (शासने) अन्यसाधूनामुत्कृष्टं प्रायश्चित्तदानं तावत्प्रमाणकमेव, न ततोऽधिकं कदाचिदपि दातव्यम् । अन्तिमतीर्थकरस्य भगवतो महावीरस्वामिनः, उत्कृष्टं तपः पाण्मासिकं ततो भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः शासने सर्वोत्कृष्टमपि प्रायश्चित्तदानं पाण्मासिकमेवेति । पाण्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेवनयापि आलोचनां कुर्वतोऽपि नाधिकमारोपणम् , अतस्त एव षण्मासा इति कथितम् ॥ सू०६॥
सूत्रम् -जे भिक्खू बहुसोवि मासियं परिहास्टाणं पडि से वित्ता आलोएज्जा। अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं ॥ सू० ७॥
छाया-यो भिक्षुर्बहुशोऽपि मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रति कुञ्च्य आलोचयतः मासिकं, प्रतिकुञ्च्य आलोचयतो द्वैमासिकम् ॥ सू० ७॥
___भाष्यम्--'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'बहुमो' बहुशः त्रिप्रभृतिबहुवारानपि आस्ती के द्वौ वारौ, इत्यपिशब्देन संगृह्यते 'मासिय' मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात् तस्य 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्यालोचयतः प्रतिकुञ्चनं माया, तामकृत्वा मायामन्तरेण शुद्धान्तःकरणेन आलोचयतः आलोचनां प्रायश्चित्तविधानं कुर्वतः 'मासियं' मासिकमेकम् एकमासमात्रस्य प्रायश्चित्तं गुरुर्वदेत् । तत्रैव यदि-'पलिरंचिय' प्रतिकुञ्च्य मायापूर्वकम् आलोचयतः 'दोमासियं' द्वैमासिकम् , द्विमासेन निर्वर्तनयोग्यं गुरुकं लघुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तम् । अप्रतिकुञ्च्यालोचयतो मासिकमेकं प्रायश्चित्तम् प्रतिकुञ्च्यालोचयतो द्वितीयो मायानिष्पन्नो गुरुमासो दीयते इति द्वैमासिकम् ।
इयमंत्र भावना-केनाऽपि गीतार्थेन 'कारणेन “अयत्नतया त्रीन् वारान् , बहुवारान् वा, मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेवितम् , आलोचनाकाले 'च येनाऽप्रतिकुञ्च्यालोचितं तस्मै एकमेव मासिकं प्रायश्चित्तं दीयते, न तु "यावतो वारान् प्रतिसेवनां मासिकस्य कृतवान् , तावन्ति मासिकानीति । अथ प्रतिकुञ्चनया आलोचयति, ततो द्वितीयो मासो मायानिष्पन्नो दीयते इति द्वैमासिकमिति संक्षेपः ॥ सू० ७॥
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भाष्यम् उ० १ सू० ८-१२ ।
परिहारस्थानसविनः प्रायश्चित्तविधिः ९ सूत्रम्-जे भिक्खू बहुसोवि दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा। अपलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं, पलिउचिय आलोएमाणस्स तेमासियं ।। सू० ८॥
छाया- यो भिक्षुबहुशोऽपि द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतः द्वैमासिकं, प्रतिकुच्य आलोचयतः त्रैमासिकम् ॥ सू० ८ ॥
भाष्यम्--'जे भिक्खु' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'बहुसोवि' बहुशोपि त्रि-चतुः-पञ्च-वारानपि 'दोमासिय द्वैमासिकं मासद्वयेन संपादनयोग्यम् । 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं पापं पापप्रयोजकसावद्यकर्मानुष्ठानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य, तस्य प्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आलोचनां प्रायश्चित्तविधि संपादयेत् । तस्य 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य मायामकृत्वा विशुद्धान्तःकरणेनालोचयतः 'दोमासियं द्वैमासिकं मासद्वयेन निर्वर्तनीयं 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्य मायापूर्वकमालोचयतः 'तेमासिय' त्रैमासिकं प्रतिकुञ्च्यालोचयतो मायानिष्पन्नस्तृतीयो गुरुमासो दीयते ॥ सू० ८ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू बहुशोवि तेमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा । अपलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं ॥सू०९॥
छाया--यो भिक्षुर्बहुशोऽपि त्रैमासिक परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुच्य आलोचयतः त्रैमासिकं, प्रतिकुञ्च्य आलोचयतः चातुर्मासिकम् ॥ सू०९॥
भाष्यम्--'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'बहुसोवि' बहुशोऽपि द्वित्रिचतुर्वारान् ततोऽधिकान् पञ्चषट्सप्तादिवारान् वा 'तेमासियं' त्रैमासिकं मासत्रयकालेन संपादनयोग्यम् 'परिहारट्ठाणं' परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात् , 'अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्च्य मायामकृत्वा 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः मालोचनां कुर्वतः 'तेमासिय' त्रैमासिकम्, मासत्रयेण संपादनयोग्यं प्रायश्चित्तम् 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्य मायापूर्वकमालोचयतः 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम् , प्रतिकुञ्च्यालोचयतः चतुर्थो मायानिष्पन्नो मासः ॥ सू० ९॥
सूत्रम्--जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा। अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं ॥१०॥
HTHHTHHI
छाया--यो भिक्षुर्बहुशोऽपि चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । मप्रतिकुउच्य आलोचयतश्चातुर्मासिकं प्रतिकुञ्च्य आलोचयतः पाश्चमासिकम् ॥ सू०१०॥ __ भाष्यम्--'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'बहुसोवि' बहुशोऽपि त्रिचतुः पञ्चप्रभृतिवारानपि 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकं मासचतुष्टयेन संपादनयोग्यं 'परिहारहाणं
व्य, २
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१०
व्यवहारसूत्र परिहारस्थानं पापप्रयोजकसावधकर्मानुष्ठानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात् , 'अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्च्य, प्रतिकुञ्चना माया तामकृत्वा 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं मासचतुष्टयेन संपादनयोग्यं प्रायश्चित्तं दीयते, 'पलिउंचिय' प्रतिकुञ्च्य मायां कृत्वा 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः 'पंचमासियं' पाश्चमासिकम् , मासपञ्चकेन संपादनयोग्यं प्रायश्चित्तम् , अप्रतिकुञ्च्यालोचयतश्चातुर्मासिकं प्रायश्चित्तम् । प्रतिकुञ्च्यालोचयतः पश्चमो मायानिष्पन्नो गुरुमासो दीयते ॥ सू० १० ॥
सूत्रम्-जे भिक्ख बहुसोवि पंचमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा। अपलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं पलिउंचिय आलोएमाणस्स छम्मासियं ॥ सू० ११॥
छाया-यो भिक्षुर्बहुशोऽपि पाञ्चमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् । अप्रतिकुच्य आलोचयतः पाञ्चमासिकं, प्रतिकुच्य आलोचयतः पाण्मासिकम् ॥ सू० ११ ॥
भाष्यम्-'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'बहुसोवि' बहुशोऽपि पश्चषड्वारान् बहून् वा 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं पापस्थानं 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् तस्यालोचनासमये 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुच्य प्रतिकुञ्चनामकृत्वा, आलोचयतः 'पंचमासियं' पांचमासिकं मासपंचकेन संपादनयोग्यं प्रायश्चित्तं दद्यात् 'पलिउंचिय' प्रतिकुञ्च्य प्रतिकुञ्चना माया, तां पुरस्कृत्य आलोचयतस्तु 'छम्मासिय पाण्मासिकं मासषट्केन संपादनयोग्यं प्रायश्चित्तम् । अप्रतिकुञ्च्यालोचयतः पांचमासिकम्, प्रतिकुञ्च्यालोचयतः षष्ठो मायानिष्पन्नो गुरुमासो दीयते ॥ सू० ११ ॥
सूत्रम्-तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा, ते चेव छम्मासा ॥सू० १२॥ छाया-ततः परं प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा त एव षण्मासाः ॥ सू०१२॥
भाष्यम्-'तेण परं' इति । 'तेण परं' ततः परं पाण्मासिकादिपरिहारस्थाने प्रतिसेवितेऽपि आलोचनाकाले 'पलिउंचिए अपलिउंचिए वा' प्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चते वा, प्रति कुञ्चतया वा, अप्रतिकुञ्चतया वा आलोचिते 'ते चेव' ते एव प्रतिसेवनानिष्पन्नाः स्थिताः 'छम्मासा' षण्मासाः, नाधिकं प्रतिकुञ्चनानिमित्तम्-आरोपणम् एतादृशजीतकल्पत्वात् , महावीरशासने पाण्मासिकस्यैव प्रायश्चित्तस्य विधानात् ॥ सू० १२ ॥ ___सूत्रम्-जे भिक्खू मासियं वा, दोमासियं वा, तेमासियं वा, चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, एएसिं परिहारट्ठाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा, पलिइंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा
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भाष्यम् उ० १ सू० १३
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तविधिः १६ चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा छम्मासियं वा; तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥ सू० १३॥
छाया-यो भिक्षुर्मासिकं वा, द्वैमासिकं वा, त्रैमासिकं वा, चातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा, एतेषां परिहारस्थानानामन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत्, अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतः मासिकं वा, द्वैमासिकं वा, त्रैमासिकं वा, चातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा पाण्मासिकं वा, ततः परं प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा, त एव षण्मासाः ॥ सू०१३ ॥
भाष्यम् – 'जे भिक्खू मासियं' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः साधुः साध्वी वा 'मासियं वा' मासिकं मासेन निर्वर्तनयोग्यं वा 'दोमासियं वा' द्वैमासिकं मात्रद्वयेन निर्वत्तनयोग्यं वा 'तेमासियं वा' त्रैमासिकं मासत्रयेण संपादनयोग्यं वा 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं मासचतुष्टयेन संपादनयोग्यं वा 'पंचमासियं वा' पाश्चमासिकं मासपञ्चकेन संपादनयोग्यं वा 'एएसि' एतेषाम् मासिकादारभ्य पाश्चमासिकपर्यन्तानाम् 'परिहारद्वाणाणं' परिहारस्थानानाम् 'अन्नयरं' अन्यतरत् किञ्चिदेकम् एकमासिकं वा द्वैमासिकं वा, त्रैमासिकं वा, चातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य कस्यचिद् एकतरस्य पापस्थानस्य प्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् , स्वकीयं परिहारस्थानं आचार्यसमीपे प्रकाशयेत् । तत्र-'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्यालोचयतः कपटमकृत्वा आलोचनाविधि संपादयतः साधोः क्रमशः मासियं वा' मासिकं वा एकमासनिष्पाद्यम् 'दोमासियं वा' द्वैमासिकं वा मासद्वयसंपादनयोग्यम् 'तेमासियं वा' त्रैमासिकं वा मासत्रयवहनयोग्यं 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा मासचतुष्टयनिष्पादनयोग्य 'पंचमासियं वा' पाश्चमासिकं वा मासपञ्चकनिष्पादनीयं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि गुरुराचार्यों वा दद्यात् , शुद्धनिष्कपटभावेनोपस्थितत्वात् , 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुच्य आलोचयतः मायापूर्वकमाचार्यसमीपे पापस्थानं प्रकाशयतः मायापराधनिमित्तं मासिकस्थाने द्वैमासिकं मासद्वयवहनयोग्यं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि दद्यात् । 'तेमासिथं' त्रैमासिकं प्रायश्चितं द्वैमासिकपापस्थाने लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारिदद्यात् । 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा त्रैमासिकपापस्थाने लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि दद्यात् । 'पंचमासियं वा' पाञ्चमासिकं वा प्रायश्चित्तं चातुर्मासिकप्रायश्चित्तस्थाने लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि दद्यात् 'छम्मासियं वा'
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व्यवहारसूत्रे पाण्मासिकं वा पाञ्चमासिकप्रायश्चित्तस्थाने मायापराधजनितं पाण्मासिकं प्रायश्चित्तमेकमासाधिकं दद्यात् । मायापराधनिमित्तत्वेन हेतुना सर्वत्र मासाधिक्यं दद्यात् ।।
___ यथा-यदि मासिकं पापस्थानं सेवितं सकपटं चालोचयितुमाचार्यसमीपे स्थितस्तस्मै द्वैमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं गुरुर्दद्यात् । यदि वा द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य सकपटमालोचयितुमुपस्थितो भवति, तदा तस्मै त्रैमासिकं दद्यात् । यदि वा त्रैमासिकं परिहारस्थानमासेवितं सकपटं चालोचयितुमुपस्थितः तदा तस्मै चातुर्मासिक दद्यात् । चातुर्मासिकं प्रतिसेवितं तस्मै पाञ्चमासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात्। पाञ्चमासिकं पापस्थानं सेवितं मायापूर्वकमालोचयितुमुपस्थितस्तस्मै पाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । एवं क्रमश एकैकमासस्याधिकं प्रतिकुञ्चनानिमित्तकं प्रायश्चित्तं दद्यात् , इति । तेण परं' ततः परम् , ततः पाञ्चमासिकात् परिहारस्थानादूचं पाण्मासिकादिपाफ्स्थानप्रतिसेवक आलोचनाकाले 'पलिउंचिए अपलिउंचिए वा' प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा मायापूर्वकं मायारहितं वा मालोचिते 'ते चेव छम्मासा' त एव प्रतिसेवनानिष्पन्नाः स्थिताः षण्मासाः, नाधिकं प्रतिकुञ्चनानिमित्तं प्रायश्चित्तम् , वर्द्धमानस्वामिशासने एतादृशस्यैव जीतकल्पस्य विधानात् , अन्यान्यतीर्थकरशासने न्यूनाधिकमपि प्रायश्चित्तं भवति, यथा ऋषमतीर्थकरस्य द्वादश मासाः, वर्द्धमानस्वामिनः षण्मासाः। शेषाणां द्वाविंशतितीर्थकराणां तीर्थे अष्टौ मासा इति । इदानीं तु वर्द्धमानस्वामिनः शासनम् , तस्य तूत्कृष्टं तपः पाण्मासिकमेव, ततोऽस्य तीर्थे सर्वोत्कृष्टमपि प्रायश्चित्तदानं षण्मासा एवेति षाण्मासिकपरिहारस्थानं प्रतिसेव्य प्रतिकुञ्चनयाऽऽलोचयतोऽपि नाधिकमारोपणम् , अतस्त एव षण्मासाः प्रोक्ता इति ॥ सू० १३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू बहुसोवि मासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा, बहुसोवि तेमासियं वा, बहुसोवि चाउम्मासियं वा, बहुसोवि पंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा, दोमासियं वा, तेमासियं वा, चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा, तेमासियं वा, चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, छम्मासिय वा, तेण परं पलिउंचिए वा, अपलिउंचिए वा, ते चेव छम्मासाः॥ सू०१४ ॥
___ छाया-यो भिक्षुर्बहुशोऽपि मासिकं वा, बहुशोऽपि द्वैमासिकं वा, बहुशोऽपि त्रैमासिकं वा, बहुशोऽपि चातुर्मासिक वा, बहुशोऽपि पाञ्चमासिकं वा, एतेषां परिहारस्थानानामन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् , अप्रतिकुच्य आलोचयतः मासिकं वा, द्वैमासिकं वा, त्रैमासिकं वा, चातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा, पाण्मासिकं वा, तेन परं प्रतिकुञ्चिते वा, अप्रतिकुञ्चिते वा, त एव षण्मासाः ॥ सू० १४ ॥
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भाष्यम् उ० १ सू० १४-१५ परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तविधिः १३ ___भाज्यम् - 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः साधुः साध्वी वा 'बहुसो वे' बहुशोऽपि 'मासियं वा' मासिकं वा 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'दोमासियं वा' द्वैमासिकं व 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'ते मासियं वा' त्रैमासिकं वा 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'पंचमासियं वा' पाश्चमासिकं वा, 'एएसि परिहारहाणाणं' एतेषां मासिकादीनां परिहारस्थानानाम् 'अन्नयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता' अन्यतरत् क्रमशः एकं, द्विकं, त्रिकं, चतुष्कं, पञ्चकं वा परिहारस्थानं प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुच्य आलोचयतः मायामकृत्वाऽऽलोचनां कुर्वतः 'मासियं वा' क्रमशः मासिकं वा, अत्र वा शब्दः सर्वत्र विकल्पार्थः । 'दोमासियं वा' द्वैमासिकं वा 'तेमासियं वा' त्रैमासिकं वा 'चाउम्मासियं वा' चातु
सिकं वा 'पंचमासियं वा' पाञ्चमासिकं वा प्रायश्चित्तम् । 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रति कुञ्च्याले चयतः मायां कृत्वाऽऽलोचनां कुर्वतः सर्वत्राऽऽपन्नप्रायश्चित्तापेक्षयाऽधिको मायानिष्पन्नो लघुमासो गुरुमासो वा दीयते इति । कथमित्याह-मासिकपापस्थानसेवकस्य 'दोमासियं वा' द्वैमासिक वा, द्विमास प्रायश्चित्तयोग्यपापस्थानसेवकस्य 'तेमासियं वा' त्रैमासिकं वा, एवं क्रमेण “चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा 'पंचमासियं वा' पाश्चमासिकं वा 'छम्मासियं वा' मासिकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात् 'तेण परं' ततः परं पाञ्चमासिकात् परिहारस्थानात् परं पाण्मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवकस्य 'पलिउचिए वा अपलिउचिए वा' प्रतिकुञ्चिते वा अतिकुञ्चिते वा सति मायापूर्वकं वा मायारहितं वा कृतायामालोचनायाम् 'ते चेव छम्मासा' त एव षण्मासाः । तत् ऊर्ध्वम्-अस्मिन् भगवतो वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थे आरोपणाया असद्भावात्, इति पूर्वमुक्तमेवेति ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासिय वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता. आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं वा साइरेगपंचमासिग वा छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥ मू०१५॥ ___छाया “ यो भिक्षुश्चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं चा, एतेषां परिहारस्थानानां अन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् , अप्रतिकुच्य आलोचयतः चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, प्रतिकुञ्च्य आलोचयतः पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमानिकं वा, पाण्मासिकं वा, तेन परं प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा ते एव षण्मासाः॥सू०१५॥
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व्यवहारसूत्रे
भाष्यम् – 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा साइरेगचाउम्मासियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं वा, मासे अतिरेकता आधिक्यं दिवसादिभिः क्वचित् पञ्चरात्रिन्दिवैः, क्वचित् दशरात्रिन्दिवैः, क्वचित् पक्षेण, विंशतिदिनैः, पंचविंशतिदिवसात्मकभिन्नमासैर्वा भवति । पंचमासिय वा' पाञ्च मासिकं वा 'साइरेगपंचमासियं वा' सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, अत्राऽपि सातिरेकता पञ्चदिनादारम्य भिन्नमा सात्मिकैव ज्ञातव्या । 'एएसिं' एतेषां चातुर्मासिक-सातिरेक चातुर्मासिक- पाञ्चमासिक - सातिरेक पाञ्च मासिकानाम् 'परिहारहाणा' परिहारस्थानानां पापस्थानानां मध्ये 'अन्नयरं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता' अन्यतरत् एतेषु यत् किमप्येकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य यदि 'आलोएज्जा' आलोचयेत् पापापनोदनाय आचार्यसमीपे प्रकाशयेत्, तत्र - 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य मायामकृत्वा निष्कपटो भूत्वेत्यर्थः आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात् तदा तस्य तथाविधस्य प्रतिसेवकस्य 'चाउ - म्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा यत्प्रतिसेवितं तदेव 'साइरेगचाउम्मा सियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं वा पञ्चदिवसाद्यधिकं चातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । 'पंचमासियं वा' पाश्चमासिकं प्रायश्चित्तं यावन्मात्रं प्रतिसेवितं तावन्मात्रमेव, 'साइरेगपंचमासियं वा' सातिरेकपाचमासिकं वा पञ्च दिवसाद्यधिकं पाश्च मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्य कपटं कृत्वा आलोचयतः प्रतिसेवकस्य 'पंचमासियं वा' चातुर्मासिकपरिहारस्थानसेवने पाञ्चमासिकं प्रायश्चित्तं दातव्यम्, तत्र च चातुर्मासिकस्य प्रतिसेवनानिमित्तत्वात् मासाधिक्यस्य च मायापराधजनितत्वात् । 'साइरेगपं त्रमा सियं वा सातिरेकपाञ्च मासिकं वा, सातिरेकचातुर्मासिकपापस्थाने सेविते सति सातिरेक पाञ्चमासिकं प्रायश्चित्तं दातव्यमित्यर्थः । 'छम्मासिय वा' षाण्मासिकं वा पाञ्चमासिकसातिरेक पाश्चमासिकपापस्थानप्रतिसेवकस्य सकपटमालोचयतस्तस्य षाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दातव्यमित्यर्थः । ' तेण परं तेन ततः तस्मात् षाण्मासिकात् परिहारस्थानात् परं परस्मिन् सप्ताष्टादिके परिहारस्थाने प्रतिसेविते प्रतिसेवकस्य 'पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा' प्रतिकुञ्चिते सकपटे, अप्रतिकुञ्चिते निष्कपटे वा प्रतिसेवके 'ते चेव छम्मासा' एव षण्मासा एतदधिकप्रायश्चित्तस्य विधानाभावात् ॥ सू० १५ ॥
૪
सूत्रम् - जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं वा, बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोव पंचमासि वा बहुसोवि साइरेगपंचमा सियं वा, एएसिं परिहारद्वाणाणं अन्नयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा छम्मासियं वा तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चैव छम्मासा ॥ सू० १६ ॥
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भाष्यम् उ० १ सू० १६
परिहारस्थान सेविनः प्रायश्चित्तविधिः १५
छाया -यो भिक्षुर्बहुशोऽपि चातुर्मासिकं वा, बहुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिकं वा बहुशोऽपि पञ्चमासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकपाञ्चमासिकं वा एतेषां परिहारस्थानानां (मध्याद्) अन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत्, अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतः चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं, वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतः पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, प्रतिकुञ्च्य आलोचयतः पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, षाण्मासिकं वा, ततः परं प्रतिकुञ्चिते वा अप्रतिकुञ्चिते वा ते चेव षण्मासाः ॥ सू० १६ ॥
भाष्यम् 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'बहुसोवि' बहुशोऽनेकशोऽनेकवा रानित्यथः 'च उम्मासियं वा' चातुर्मासिकं मासचतुष्टयेन संपादन योग्यम् । 'बहुसोचि साइरेगचाउम्मायिं वा' बहुशोऽनेकवारान् सातिरेकचातुर्मासिकं चातुर्मासिकपरिहारस्थाने सातिरेकत्व रात्रिन्दिवपञ्चचादिभिर्भवति । रात्रिन्दिवपञ्चकादारभ्य भिन्नमासेनाऽधिकत्वमित्यर्थः । बहुसोवि पंचमासि वा' बहुशोऽपि अनेकवारमपि पाञ्च मासिकं वा मासपञ्चकेन संपादनयोग्यं परिहारस्थानम्, 'साइरेगपंचमासियं वा' सातिरेक पाञ्चमासिकं वा 'एएस परिहारट्ठाणाणं' एतेषां चातुर्मासकादिपरिहारस्थानानां मध्यात् 'अन्नयरं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता' अन्यतरत् यत्किमप्येकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आचार्यसमीपे दोषं प्रकाशयेत् । तत्र - 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य मायामकृत्वा निष्कपट भावेन आलोचयतः 'वाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा 'साइरेगचाउमा सियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं वा प्रायश्चित्तम् | 'पंचमा सियं वा' पाञ्चमासिकं वा 'साइरेगपंचमासियं वा ' सातिरेकपाञ्चमासिकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि दद्यादाचार्य: । 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रति कुञ्च्य मायापूर्वकम् आलोचयतः चातुर्मासिकपरिहारस्थाने 'पंचमासियं वा ' पाञ्चमासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात्, तत्र-मासचतुष्टयपापस्थानस्य प्रतिसेवनाजनितत्वात्, मासाधिक्यस्य च मायापराधजन्तित्वात् । सातिरेकचातुर्मासिकपरिहारस्थाने तु 'साइरेगपंचमासियं वा' सतिरेकपाञ्चमासिकं प्रायश्चित्तं दातव्यम् । सातिरेकपाञ्चमासिक परिहारस्थाने सकपटमलोचयतस्तु 'छम्मासियं वा' षाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दातव्यम् । ' तेण परं तेन ततः पञ्चमासाधिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनात् परं परस्मिन् परिहारस्थाने षट्सप्ताष्टादिमा सिके प्रति सेविते तु 'पलिउंचिए अपलिउंचिए वा' प्रतिकुञ्चिते सकपटे, अप्रतिकुञ्चिते निष्कपटे वा 'ते चैव छम्मासा' ते एव षण्मासाः प्रायश्चित्तरूपेण दातव्याः कारणं पूर्वमुक्तमेवेति ।
ननु यदे शिष्यः प्रतिकुञ्य आलोचनां कुर्यात् तदा गुरुणा कथं ज्ञायते यदयं मूलगुणविषयं पापं सेवितवान् उत्तरगुणविषयं वा ? एवं सति न तस्य सम्यक् पापशुद्धिर्जायते । यदि तेन उत्तरगुणविषयं पापं सेवितं भवेत् तदा तस्मिन्ननालोचिते परम्परया मूलगुणेषु दोष
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प्रसङ्गः, तेन चारित्रं कलुषितं भवति, उत्तस्मुणातिचारा हि मूलगुणानपि विराधयन्ति, मूलोत्तरगुणानां परस्परं संबद्धत्वात् । यदि मूलगुणविषयं पापं सेवितं भवेत्तदा चारित्रमेव समूलं विनश्यति । विशेषस्त्वेतावानेव यत् मूलगुणनाशे तत्कालमेव साधोश्चारित्रपर्वतादवपातो भवेत् , उत्तरगुणनाशे तु कालक्रमेण चरित्रनाशः संजायते, उक्तञ्च
"अग्गधाओ हणे मुलं, मूलघाओ य अग्गयं ।
मूलोत्तरगुणे नेव, विराहिज्जा कयाइ वि" ॥१॥ छाया-अग्रघातो मूलं हन्यात्, मूलपातश्च अप्रकम् ।
(तस्मात् ) मूलोत्तरगुणान् नैव विराधयेत् कदाचिदपि ॥१॥ अत्र तालो दृष्टान्तः-तालवृक्षस्याऽये सूच्या घातो मूलं हन्ति । मूलघातस्तु सर्व वृक्षमेव हन्ति अग्रभागस्य का कथा इति । अत्र विषभक्षिकुपथ्यसेविनोई योदृष्टान्ते गायामाह
"एगो य विसं भक्खइ, बीओ सेवइ कुपत्थमाहारं । . .
सज्जो मरइ य पढमो, अवरो कालक्कमेणेव" ॥१॥ छाया-एकश्च विषं भक्षति, द्वितीयः सेवते कुपथ्यमाहारम् ।
सद्यो म्रियते प्रथमः, अपरः कालक्रमेणैव ॥ १॥ तथाहि--एकेन केनचित् पुरुषेण प्रच्छन्नं विषं भक्षितम् , वैद्येन पृष्टम्-किं त्वया भक्षितं सद्यः सत्यं वद येन तदुपशामकमौषधं दत्त्वा त्वां प्रगुणीकरोमीति । तेन 'न किमपि भक्षितम इत्युक्त्वा विषभक्षणं संगोपितं वैद्याय न प्रकाशितम् । ततः स तदोषेण तत्कालमेव जीविताद् ध्वस्तोऽभवत् । द्वितीयः पुनः प्रच्छन्नं कुपथ्यं सेवते तेन प्रतिदिनं तस्य शरीरे रोगो वर्धितुमारब्धः, वैयेन पृष्टम्-किं त्वं कुपथ्यं सेवसे येन तव शरीरे रोगः प्रतिदिनं वृद्धिमेति, सत्यं यथावस्थितं प्रकाशय येन त्वां प्रगुणीकरोमि । तेन मायां कृत्वा वैद्याय न किमपि प्रकाशितम् , क्रमेण तस्य स रोगः असाध्यतां प्राप्तः, ततः कालक्रमेण स मृतवानिति । एवं मूलोत्तरगुणदोषसेविनाऽपि गुरुसमीपे आलोचनाकाले गुरुणा पृष्टे सति मायाचरणं न कर्त्तव्यं, यथावस्थितं सर्व वदेदिति । शिष्यः पृच्छति भदन्त ! कीदृशो भिक्षुरालोचना) भवितुमर्हसि ? गुरुराह
"जाइकुलाईदसगुण, जुत्तो आलोयणारिहो सीसो ।
आलोयइ सो सम्म, भीरुत्तणो य पावस्स" ॥१॥ इति । छाया- जातिकुलादिदशगुणयुक्त आलोचनाहः शिष्यः।
आलोचयति सम्यक् भीक्त्वाच्च पापस्य ॥१॥
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भाग्यम् १०१० १६
आलोचनाऽहनिर्हशिष्यगुणदोषप्ररूपणम् १७ ॥ आलोचनाहस्य दश गुणा यथा-जाति१-कुल२-विनय३-ज्ञान४-दर्शन५-चारित्रक्षान्ति७-दमा ८-ऽमायित्व९-पश्चात्तापित्वाख्याः १० । ननु केन कारणेन एतावन्तो गुणा आलोचनार्हस्य इण्यन्ते? तत्राह-जातिसम्पन्नः-जातिः-मातृपक्षरूपा तया संपन्नः-विशुद्धमातृपक्ष इत्यर्थः एतादृशः प्रायोऽकृत्यं न सेवते, अथ कथमपि दोष आपतेत् तदा आलोचनाकाले सम्यगालोच-: यति १ । कुलसम्पन्नः-कुलेन-पितृपक्षरूपेण संपन्नः, विशुद्धपितृपक्षो हि प्रतिपन्नप्रायश्चित्तस्य सम्यग् निर्वाहको भवति २ । विनयसम्पन्नः-गुरोरभ्युत्थाननिषद्यादानादिविनयं सम्यक् करोति ३। ज्ञानसम्पन्न:-श्रुतानुसारेण सम्यगालोचयति यत् 'अमुकश्रुतानुसारेण मे दत्तं प्रायश्चित्तमतः शुद्धोऽह'-मिति जानीते ४ । दर्शनसम्पन्नः-प्रायश्चित्तात् स्वस्य शुद्धिं सम्यक् श्रद्धत्ते ५ । चारित्र-. सम्पन्नः-पुनरतिचारं न सेवते, अनालोचिते चारित्रं न शुध्यतीति सम्यगालोचयति ६ । शान्तिसम्पन्नः-कस्मिंश्चित्कारणविशेषे गुरुणा कठोरमपि भाषितं सम्यक् प्रतिपद्यते न तु रोषं कुरुते, यदपि प्रायश्चित्तमारोपितं तत् सम्यग् वहतीति ७ । दान्तः-इन्द्रियदमनसम्पन्नः-नोइन्द्रियदमनसम्पन्नः प्राप्तप्रायश्चित्ततपो मनोवलसम्पन्नत्वेन सम्यगाराधयति ८ । अ मायित्वसम्पन्नः-माया अस्यास्तीति मायी, न मायी अमायी, तस्य भावोऽमायित्वम् , तेन संपन्नः, मायारहितोऽप्रतिकुञ्चितमालोचयति ९ । अपश्चात्तापित्वसम्पन्नः-पश्चात्तापः प्रायश्चित्तप्राप्तौ मनोमालिन्यम् , सोऽस्यास्तीति पश्चात्तापी, गुरुदत्तप्रायश्चित्तप्राप्तौ पश्चात्तापकारकः यथा-'हा दुष्ठु मया कृतं यद् आलोचितम् , इदानीं कथमहं प्रायश्चित्ततपः करिष्यामि, इत्यादिचिन्तकः, यो न तथा सः अपश्चात्तापी, स एवं मनुते-कृत पुण्योऽहं यत् कृतपापस्य प्रायश्चित्तं प्रतिपन्नवानिति १० । एतादृशदशगुणसम्पन्नेन आलोचकेन भाव्यमिति । एवमेवोक्तं भगवता स्थानाङ्गस्य दशमे स्थाने इति ।
आलोचनानर्हस्य दोषा अपि दश भवन्ति तानाहगाथा--"आवज्जणाणुमाणा-इदोसजुत्तो हविज्ज जो सीसो।
सो आलोयणनरिहो, नालोयइ सुद्धभावेणं" ॥१॥ छाया-आवर्जनानुमानादिदोषयुक्तो भवेत् यः शिष्यः ।
स आलोचनानर्हः नालोचयति शुद्धभावेन ॥१॥ आवर्जनानुमानादिदोषयुक्तः इति । आलोचनाऽनर्हस्य ‘आवर्जना१-ऽनुमान२–दृष्ट३बादर४-सूक्ष्म५ -छन्न६-शब्दाकुल ७-बहुजना८-ऽव्यक्त९-तत्सेवि १० भेदाद् दश दोषाः भवन्ति । तथाहि-'आवर्जितः वशीकृतः सन् आचार्यो मेऽल्पं प्रायश्चित्तं दास्यति' इति बुद्धया ।
व्य. ३
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व्यवहारसूत्रे
आलोचना
विनयवैयावृत्यादिभिरालोचनाचार्यमाराध्य आलोचनाकरणं आवर्जनाख्यः प्रथम दोषः १। आलोचकोऽनुमानं करोति - यदयं ममाचार्यः अमुकप्रकारकवार्त्तालापादिचेष्टया मृदुदण्डप्रदायी भविष्यतीति विचार्य तथाविधां वार्त्ता कृत्वा आलोचनाकरणं स अनुमानाख्यो द्वितीय आलोचनादोषः २ । आचार्यादिना मया क्रियमाणं यदपराधजातं दृष्टं तस्यैवालोचनां करिष्यामोति मनसि निधाय आलोचनाकरणम् दृष्टाख्यस्तृतीय आलोचनादोषः ३ । बादरस्यैव बृहत एव दोषजातस्यालोचनाकरणं न सूक्ष्मस्येति चतुर्थो बादराख्य आलोचनादोषः ४ । आचार्यों ज्ञास्यति यः सूक्ष्ममालोचयति स बादरं कथं नालोचयिष्यतीति आचार्यस्य विश्वासोत्पादनार्थं सुक्ष्मस्यैव दोषजातस्यालोचनाकरणं सूक्ष्माख्यः पञ्चम आलोचनादोषः ५ । लज्जालुतामुपदर्श्य मन्दशब्देन पापं तथाऽऽलोचयति यथा केवलं स्वयमेव शृणोति न तु आलोचनादायक आचार्यादिः, इत्येवमालोचनाकरणं षष्ठः छन्नाभिघ आलोचनादोषः ६ । महता शब्देन आलोचनाकरणं, तथा आलोचयति यथा अन्येऽपि अगीतार्थादयः शृण्वन्तीत्येष शब्दाकुलाख्यः सप्तम आलोचनादोषः ७ । एकान्तेऽनालोच्य बहुजनमध्ये आलोचनाकरणम्, अथवा एकस्याचार्यस्य समीपे आलोच्य तस्यैवापराधजातस्य अन्यान्याचार्याणां सविधेऽपि पुनः पुनरालोचनाकरण बहुजनाख्योऽष्टम आलोचनादोषः ८ । अव्यक्तस्य अगीतार्थस्य समीपे आलोचनाकरणं नवमोऽव्यक्तास्य आलोचनादोषः ९। यमपराधमालोचयति तस्यैव पुनः सेवनं तत्सेविनामको दशम आलोचनादोषः १० । एतादृशदशदोषधारकः शिष्यः, आलोचना नहीं भवति, नासौ आलोचनायोग्य इति स्थानाङ्गस्य दशमे स्थाने प्रोक्तमिति । दशभ्यः कारणेभ्यो दोषाः समापयन्ते इति दश दोषान् गाथाद्वयेन दर्शयति—
१८
"कंदप्पो १ य माओ २, अन्नाणं ३ तह अकमहभावो ४ य । आवत्ती ५ तह संकड ६, छुहा ७ तहा रागदोसा ८ य ॥ १ ॥ णवमं च भयं यं ९, दसमं पुण परनिमित्तसंजयं १० । एयं कारणजायं, दोसुप्पाए मुणेयव्वं " ||२|| इति ।
छाया - कन्दर्पश्च १ प्रमादः २, अज्ञानं ३ तथा अकस्माद्भावश्च ४ । आपत्तिः ५ तथा संकटः ६ क्षुधा ७ तथा रागद्वेषौ ८ च ॥१॥
नवमं च भयं ९ ज्ञेयम्, दशमं पुनः परनिमित्त संजातम् १० । एतत् कारणजातं, दोषोत्पादे शातव्यम् ||२||
तत्र – कन्दर्पः कामविकारः तद्वशवर्त्ती पापं सेवते १ । प्रमादः - निद्राविकथादिरूपः २ ।
-
अज्ञानं दोषानभिज्ञत्वम् ३ । अकस्माद्भावः अचिन्त्यत्वेन समापतितम् ४ । आपत्तिः - दुष्टराजादि - जन्या ५ । संकटः- मरणादिरूपः ६ । क्षुधा - क्षुधापरीषहस्याऽसहनशीलत्वम्, यथा “बुभुक्षितः कि
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भाष्यम् उ० १ सू० १७ परिहारस्थानसेविनः प्रायश्वितारोपणविधिः १९ न करोति प पम्" इति न्यायात क्षुधाऽपि दोषोत्पत्तौ कारणं जायते ७ । रागद्वेषौ ८ । भयं-मनुष्यदेवतिर्यग्ज यम् ९ । परनिमित्त संजातम्-परोऽन्यो निमित्तं यत्र तत् परनिमित्तं, तेन संजातं समुत्पन्नं, र निमित्तीकृत्य पापं सेवते तत् १० । एतत् पूर्वोक्तं कारणजातं कारणसमूहः कारणदशकमित्यर्थः दोषोत्पादे-दोषोत्पनौ ज्ञातव्यम् ॥१-२॥ एतानि दश कारणानि दोषोत्पत्तौ संभवन्तीति भाव ।। सू० १६ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू चाउम्मासियं वा, साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, साइरेगपंचमासियं वा, एएनि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं, ठाविएवि पडि सेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुव्वं पडिसेवियं पुन्वं आलोइयं , पुव्यं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४। अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउचिए पठिउंचियं २, पलि रंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४ । अपलिउंचिए आलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्टवणाए पट्टविए निविसमाणे पडिसेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥ सू० १७ ॥
छाया--यो भिक्षुश्च तुर्मासिकं वा, सातिरेकचातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा, सातिरेकपाश्चमासिकं वा, पतेषां परिहारस्थानानाम् अन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत, अप्रतिकुच्य आलोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्त्यम्, स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य सोऽपि कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात् , पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २, पश्चात् प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् ३, पश्चात् प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् । अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् १, अप्रतिकञ्चिते प्रतिकञ्चितम २. प्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् ३, प्रतिकंचिते प्रतिकरिता अप्रतिकुन्धिते अप्रतिकुञ्चितम् आलोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहृत्य यः एतया प्रस्थापनया प्रस्थापितः निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपिकृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात् ।। सू० १७॥
भाष्य -'जे भिक्खू इति । जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा परिहारस्थानम् । 'साइरेगचाउम्मासियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं वा, पञ्चदिनाद्यधिकं चातुर्मासिक परिहारस्थानम् , 'पंचमासियं वा' पाश्चमासिकं वा 'साइरेगपंचमासियं वा' सातिरेकपाञ्चमासिकं वा. 'एएसि' एतेषां पञ्चमासिकान्तानाम् 'परिहारहाणाणं' परिहारस्थानानाम् 'अन्नयर' अन्य तरत् , एतेषु यत्कि मपि एकम् 'परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता' परिहारस्थानं प्रायश्चितस्थानं प्र तसेव्य 'आलोएज्ना' आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात्, तत्र 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य मायामकृत्वा निष्कपटभावेन आलोचयतः 'ठवणिज्ज ठावइत्ता'
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व्यवहारस्त्रे स्थापनीयं स्थापयित्वा परिहारतपसो दानसमये आचार्यः पारिहारिकाय एतादृशं नियमं श्रावयति-यः खलु प्रतिसेवकः परिहारतपःप्रायश्चित्तस्थान प्राप्तः तस्य परिहारनामकतपोदानाय सर्वेषां साधु-साध्वीजनानां परिज्ञानाय सकलगच्छसमक्षं निरुपसर्गप्रत्ययं निरुपसर्गनिमित्तं कायोत्सर्गः पूर्व क्रियते । कायोत्सर्गकरणानंतरं आचार्यः प्रतिसेवकं प्रति वक्ति-अहं ते कल्पस्थितः, अयं साधुरनुपारिहारिकः ततः स्थापनीयं स्थापयित्वेति यत्नेन सहाचरणीयम् तत्, स्थाप्यते इति स्थापनीयम् अग्रे वश्यमाणमालापनपरिवर्तनादि, तत् सकलगच्छसमक्षं स्थापयित्वा कल्पस्थितेनाऽनुपारिहारिकेण च यथायोगमनुशिष्टयपालम्भोपग्रहरूपं वक्ष्यमाणं वैयावृत्यं करणीयम् , 'ठाविएवि पडिसेवित्ता' स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य ताभ्यां क्रियमाणेऽपि वैयावृत्ये स्थापितेऽपि आलापनादौ कदाचित् किमपि प्रतिसेव्य गुरोः समीपमुपागच्छेत्-यथा भगवन् ! अहममुकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः । अतः 'सेवि' तदपि 'कसिणं' कृत्स्नं परिहारतपसि क्रियमाणे 'तत्थेव' तथैव परिहारतपसि एव 'आरुहेयन्वे सिया' आरोहयितव्यं-आरोपणीयं स्यात् , स्यादित्यव्ययमत्रावधारणे, तेनारोहयितव्यमेव, केवलं तत्कृत्स्नमारोपयितव्यमिति । अनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन वा । तस्य प्रतिसेवितस्य गुरुसमक्षमालोचनायां चतुर्भङ्गी भवति, तामेव दर्शयितुमाह
'पुन्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् । अत्र पूर्वमित्यत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् .. पूर्वाऽऽनुपूर्येति ज्ञातव्यम् । ततश्चाऽयमर्थः-गुरुलघुपर्यालोचनया - पूर्वानुपूर्व्या लघुपञ्चकादिक्रमेण यत् प्रतिसेवितं तत् पूर्व पूर्वानुयेति प्रतिसेवनानुक्रमेणाऽऽलोचितमिति प्रथमो भङ्गः १ ।
द्वितीयभङ्गमाह-'पुव्वं पडिसेवियं पञ्छा आलोइयं'. पूर्व . प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् , पूर्व गुरुलघुपर्यालोचनया -पूर्वाऽऽनुपूर्व्या मासलघुकादि प्रतिसेवितम् , तदनन्तरं च अल्पप्रयोजनोत्पत्तौ गुरुलघुपर्यालोचनयैव लघुपञ्चकादि प्रतिसेवितम् । आलोचनासमये तु पश्चात्पश्चानुपूर्व्या आलोचितं, पूर्व लघुपञ्चकाद्यालोचितं, पश्चात् लघुमासादिकमालोचितमिति द्वितीयो भङ्गः २।
तृतीयभङ्गमाह–'पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं' पश्चात्प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् । पश्चात् पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं गुरुलघुपर्यालोचनामन्तरेण पूर्व गुरुमासादिकं प्रतिसेवितं पश्चाल्लघुपञ्चकादीति आलोचनासमये आनुपूा आलोचितम्, पूर्व लघुपञ्चकाद्यालोचितं पश्चात् गुरुमासादीत्यर्थः इति तृतीयो भङ्गः ३ ।
- अथ चतुर्थभङ्गमाह-'पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालचितं, पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं गुरुलघुपर्यालोचनादिविरहितं यथाकथञ्चन प्रतिसेवित
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भाष्यम् उ० १ सू०१७ प्रतिकुश्चनाऽप्रतिकुश्चनायां प्रायश्चित्तदानविधिः २१ मित्यर्थः पश्चात् पश्चानुपूर्व्या आलोचितं प्रतिसेवनानुक्रमेणैवालोचितम् । अथवा स्मृत्वा स्मृत्वा यथाकथञ्चनाऽप्यालोचितमिति चतुर्थों भङ्गः ४।
अत्र प्रथमचतुर्थभङ्गौ अप्रतिकुञ्चनायाम् , द्वितीय-तृतीयभङ्गौ प्रतिकुञ्चनायाम् , इति प्रतिकुञ्चनाऽप्रतिकुञ्चनाभ्यामियं चतुर्भङ्गी भवति तामेवाह–'अपलिउंचिए अपलि चियं' इत्यादि ।
_ 'अपलिउंचिए अपलिउंचियं' अप्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितम् , यदा खलु अपराधान् प्राप्तः आलोचनाभिमुखस्तदा कश्चिदेवं संकल्पितवान् यथा-ये केचन मयि अपराधास्ते सर्वेऽपि मया आलोचनीयाः, एवं पूर्वसंकल्पकाले अप्रतिकुञ्चिते आलोचनासमये अप्रतिकुञ्चितमेव आलोचयतीति प्रथमो भङ्गः १।
द्वितीयभङ्गमाह-'अपलिउंचिए पलिउंचियं' अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम्, यथापूर्व संकल्पकाले अप्रतिकुञ्चितं निष्कपटभावेनोपस्थितः, आलोचनाकाले तु प्रतिकुञ्चितं सकपटमालोचयति, इति द्वितोयो भङ्गः २।
तृतीयभङ्गमाह–'पलिउंचिए अपलिउंचियं' प्रतिकुंचिते अप्रतिकुश्चितं, पूर्व संकल्पकाले केनापि प्रतिकुञ्चितम् यथा-न मया सर्वे अपराधा आलोचनीयाः, एवं पूर्व संकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते आलोचनावेलायां भावपरावृत्तेः सर्वमपि अप्रतिकुञ्चितं कपटरहितमालोचयतीतितृतीयो भङ्गः३।
. अथ चतुर्थभङ्गमाह- पलिठंचिए पलिउंचियं प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुंचितम् । पूर्व. संकल्पकाले केनापि प्रतिसेवकेन प्रतिकुञ्चितम् यथा-मया न सर्वेऽपराधाः आलोचनीया ततः एवं संकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते आलोचनावेलायामपि प्रतिकुञ्चितं सकपटमेवालोचयतीति चतुर्थों भङ्गः ४ ।
तत्र-'अपलिउंचिए अपलिउंचियं । आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् आलोचयतः । तत्राऽप्रतिकुञ्चितमालोचयतो वीप्सा साकल्येन व्याप्ता भवंति, ततश्चाऽयमर्थः-निरवशेषमालोचयतः 'सव्वमेयं' सर्वमेतद् यदापन्नमपराधजातम् , अथवा कथमपि प्रतिकुंचना कृता स्यात् ततः प्रतिकुंचनानिष्पन्नं, यच्च गुरुणा सह आलोचनाकाले समासनोच्चासननिष्पन्नं, या चाऽऽलोचनाकाले असमाचारी, तन्निष्पन्नं च सकलमेतत् सकयं' स्वकृतं स्वयमात्मना अपराधकारिणा कृतम् 'साहणिय' संहृत्य एकत्र मेलयित्वा यदि संचयितं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नस्ततः पाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । यत् पुनः पाण्मासिका. तिरिक्त तत्सर्वं शोषयेत् परित्यजेत् । अथ मासादिकं द्वैमासिकं त्रैमासिकं चातुर्मासिकं पाश्च
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२३
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व्यवहारसूत्रे मासिकं प्रायश्चित्तमापन्नस्ततस्तदेव मासादिकं प्रायश्चित्तं दातव्यमिति शेषः । 'जे' यः साधुः साध्वी वा यदि 'एयाए' एतया अनन्तरपूर्वकथितया पाण्मासिक्या मासिक्यादिकया वा 'पट्टवणाए' प्रस्थापनया प्राक् पूर्वकाले कृतस्य स्वयं संपादितस्याऽपराधस्य विषये या स्थापना प्रायश्चित्तदानप्रस्थापना, तया प्रस्थापनया 'पट्टविए' प्रस्थापितः प्रायश्चित्तकरणे प्रवर्तितः सः 'निव्विसमाणे' निर्विशमानः ततः प्रायश्चित्तवहनं कृत्वा निस्सरन् अन्तिमं प्रायश्चित्ततपः कुर्वन्नित्यर्थः, यत्पुनः प्रमादतो विषयकषायादिभिर्वा 'पडिसेवेइ' प्रतिसेवते पुनः पापमाचरति ततस्तस्यां प्रतिसेवनायां यत्प्रायश्चित्तं सेवते 'सेवि' तदपि 'कसिणं' कृत्स्नं सकलम् अनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रह कृत्स्नेन वा सर्वमपि 'तत्थेव' तत्रैव पूर्वप्रस्थापिते एव प्रायश्चित्ते 'आरु हियव्वे सिया' आरोहयितव्यमारोपणीयम् , तदपि सर्व संमेल्य पूर्वप्रस्थापितप्रायश्चित्त वर्द्धनीयं स्यादित्यर्थः ॥ सू० १७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्ख चाउम्मासियं वा, साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलो एज्जा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया पुव्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडि सेवियं पुव्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४।अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउचियं २, पलिउँचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४ । पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पढवणाए पट्टविए निव्विसमाणे पडसेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥ २०१८॥
छाया-यो भिक्षुश्चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा, पाञ्चमासिकं वा, सातिरेकपाश्चमासिकं वा, एतेषां परिहारस्थानानाम् अन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्यालोचयेत्, प्रतिकुञ्च्यालोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्यम्, स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैवारोपयितव्यं स्यात् । पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २, पश्चात् प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् ३, पश्चात् प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४ । अप्रतिकुंचिते अप्रतिकुञ्चितम् १, अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् २, प्रतिकुञ्चितेअप्रतिकुञ्चितम् ३, प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् । प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुंचितम् आलोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहृत्य य पतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात् ॥सू० १८॥
भाष्यम्-'जे भिक्खू' इति 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'चाउम्मासियं वा' चातुर्मासिकं वा 'साइरेगचाउम्मासियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं वा 'पंचमासियं वा' पाञ्चमासिकं वा 'साइरेग
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भाष्यम् उ० १ सू० १८
प्रतिकुञ्चनाऽप्रतिकुञ्चनायां प्रायश्वितदानविधिः २३
पंचमासियं वा सातिरेक पाञ्चमासिकं वा 'एएस परिहारद्वाणाणं' एतेषां चातुर्मासिकादिपरिहारस्थानानाम् 'अन्नयरं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता' अन्यतरत् एतेषु मध्ये यत् किमप्येकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् स्वकीयमपराधजातमाचार्यसमीपे प्रकाशयेत् । तत्र 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्च्य सकपटमालोचयतः 'ठवणिज्जं ठावइत्ता' स्थापनीयं स्थापयित्वा यः साधु साध्वी वा परिहारतपःपायश्चित्तस्थानं प्राप्तः तस्य परिहारतपोदानार्थ सकलसाधुसाध्वी जनपरिज्ञानाय सकलगच्छसमक्षं निरुपसर्गप्रत्ययं पूर्वं कायोत्सर्गः क्रियते, कायोत्सर्गकरणानन्तरं गुरुर्भूते – अहं ते कल्पस्थितः, अयं च साधुरनुपारिहारिकः । ततः स्थापनीयं स्थापयित्वेति यत्नेन सहाचरणीयम् । स्थाप्यते इति स्थापनीयं वक्ष्यमाणमालापन परिवर्त्तनादि, तत् सकलगच्छममक्षं स्थापयित्वोपवेश्य कल्पस्थितेनाऽनुपारिहारिकेण च यथायोगं अनुशिष्ट्युपालम्भरूपम् 'करणिज्जं वेयावडियं' करणीयं वैयावृत्यं तस्याऽऽहारादिना वैयावृत्यं करणीयम् | 'ठाविवि पडिसेवित्ता' स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य ताभ्यामाचार्य - वैयावृत्य कर्तृभ्यां क्रियमाणेऽपि वैयावृत्ये स्थापितेऽप्यालापनादौ कदाचित् किमपि दोषं प्रतिसेव्य गुरोः समक्ष - मुपस्थितो भवेत्, यथा- भगवन् ! अहम् अमुकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, ततः 'सेवि कसिणे तत्व आरोहियव्वे सिया' तदपि कृत्स्नं तत्रैवाऽऽरोपयितव्यं स्यात्, तदपि कृत्स्नं परिहारतपसि आरोप्यमाणे आरोपणीयं स्यात् । तत्र तस्य प्रतिसेवितस्याऽऽचार्यसमक्षमालोचनायां चतुर्भङ्गी भवति, तामेवाह - 'पुव्वं' इत्यादि । 'पुव्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं पूर्वं प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् तत्र पूर्वमित्यस्य पूर्वाssनुपूर्व्या इत्यर्थः । ततोऽयमर्थः, - गुरुलघुपर्यालोचनया पूर्वाऽऽनुपूर्व्या लघुपञ्चकादिक्रमेण प्रतिसेवितं, तत् पूर्वं पूर्वाऽऽनुपूर्व्या प्रतिसेवनाऽनुक्रमेणाऽऽलोचित - मिति प्रथमो मङ्गः १ ।
द्वितीयभङ्गमाह – 'पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं पूर्वं प्रतिसेवितं पश्चादालोचितं पूर्वं गुरुलघुपर्यालोचनया पूर्वाssनुपूर्व्या मासलघुकादि प्रतिसेवितं, तदनन्तरं च तथाविधाऽल्पप्रयोजनोत्पत्तौ गुरुलघुपर्यालोचनयैव लघुपञ्चकादि प्रतिसेवितम् । आलोचनाकाले तु पश्चात् पश्चाऽऽनुपूर्व्या आलोचितं, पूर्वं लघुपञ्चकाद्यालोचितं पश्चात् लघुमासादिकमालोचितमिति द्वितीयो भङ्गः २ ।
तृतीयभङ्गमाह - 'पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं' पश्चात् प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितं पश्चादानुपूर्व्या प्रतिसेवितं, गुरुलघुपर्यालोचनामन्तरेण पूर्वं गुरुमासादिकं प्रतिसेवितम् पश्चात् लघुपञ्चकादि प्रतिसेवितम् । आलोचनावेलायां आनुपूर्व्या आलोचितं पूर्वं लघुपञ्चकाचालोचितं पश्चात गुरुमासादीति तृतीयो भङ्गः ३ ।
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व्यवहारवे
चतुर्थभङ्गमाह - 'पच्छायडिसेवियं पच्छा आलोइयं पश्चात् प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् । तत्र - पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं गुरुलघुपर्यालोचनादिविरहितो भूत्वा तेन यथाकथञ्चन प्रतिसेवितम् पश्चात् पश्चानुपूर्व्या आलोचितं प्रतिसेवनाऽनुक्रमेणैवालोचितम्, अथवा स्मृत्वा स्मृत्वा यथाकथञ्चनाऽऽप्यालोचितमिति चतुर्थो भङ्गः ४ ॥
२४.
इह प्रथमचरमभङ्गौ अप्रतिकुञ्चने, द्वितीयतृतीयौ प्रतिकुञ्चनायामिति । यदिह प्रतिञ्चनाऽप्रतिकुञ्चनाभ्यां चतुर्भङ्गी कृता, तामेवाह - 'अपलिउंचिए' इत्यादि । 'अपलिउंचिए अपलिउचिय' अप्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितम् । यदा खलु अपराधान् प्राप्तः आलोचनाभिमुखः तदैवं संकल्पं कृतवान् कश्चित् - यथा सर्वेऽपि अपराधाः मया आलोचयितव्याः, एवं पूर्वसंकल्पकालेप्रतिकुञ्चिते आलोचनावेलायामप्रति कुञ्चितमेवालोचयतीति प्रथमो भङ्गः १ ॥
· द्वितीयभङ्गमाह – 'अपलिउंचिए पलिउंचियं' अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं, पूर्व संकल्प - कालेऽप्रतिकुञ्चितम् आलोचनासमये तु प्रतिकुञ्चितं सकपटमालोचनं कृतमिति द्वितीयो भङ्गः ।
तृतीयभङ्गमाह - 'पलिउंचिए अपलिउंचियं' । प्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितम् - पूर्वं संकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते आलोचनाकाले भावपरावर्त्तनात् सर्वमपि अप्रतिकुञ्चितम् आलोचयतीति तृतीयो भङ्गः ३ ।
चतुर्थभङ्गमाह – 'पलिउंचिए पलिउंचियं प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं यथा पूर्वं संकल्पकाले केनापि प्रतिकुञ्चितं सकपटं मया सर्वेऽपराधा नालोचनीयाः, ततः एवं संकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते, आलोचनाकालेsपि प्रतिकुञ्चितमेवालोचयतीति चतुर्थो भङ्गः ४ ।
तथा च- निरवशेषं परिहारस्थानमालोचयतः सर्वमेतत् यदापन्नमपराधजातं यदि वा कथमपि प्रतिकुञ्चना कृता स्यात् ततः प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नं यच्चाचार्येण सहालोचनासमये तुल्यासनोच्चासननिष्पन्नं या चालोचनाकाले असमाचारी तन्निष्पन्नं च । 'पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितमालोचयतः - 'सव्वमेयं' सर्वमेतत् उपरोक्तमपराधजातम् 'सकयं' स्वकृतं स्वयमात्मनाऽपराधकारिणा कृतमुत्पादितमिति स्वकृतमपराधजातम् 'साहणिय' संहृत्य सर्वमेकत्र मेलयित्वा यदि सञ्चयितं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, ततः षाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । यत्पुनः षाण्मासिकातिरिक्तमपराधजातं तत्सर्वमपि परित्यजेत् । अथ पुनर्यदि मासादिकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः ततस्तावन्मात्रं मासादिकमेव प्रायश्चित्ते दातव्यं नाधिकमिति । 'जे एयाए पट्टणाए पविए' यः साधुः साध्वी वा एतया अनन्तरपूर्वकथितया षाण्मासि मासिक्यादिकया वा प्रस्थापनया प्राकृतस्याऽपराधजातस्य विषये या स्थापना प्रायश्चित्तदान-
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भाष्यम् सू०११
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तदानविधिः २५
प्रस्थापना, तया प्रस्थापनया प्रस्थापितः प्रायश्चित्तकरणार्थं प्रस्थापितः सम्यक् प्रवत्तितः । 'निव्विसमाणे ' निर्विशमानः प्रायश्चित्तवहनानन्तरं ततो निस्सरन् प्रतिसेवको यदि पुनरपि प्रमादतो विषयक नायादिभिर्वा पडि सेवइ प्रतिसेवते ततस्तस्यां प्रतिसेवनायां यत् प्रायश्चित्तं सेवते 'विकसि तत्थेव आरुहियव्वे सिया' तदपि कृत्स्नमनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन वा तत्रैव पूर्वप्रस्थापित प्रायश्चित्ते एवा हयितव्यं स्यात् न तु प्रायश्चित्तान्तरे आरोपणीयमिति ।। सू०१८।।
सूत्रम्- -जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा, बहुसोव पंत्रमासि वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारट्ठाणणं अन्नयः परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्जं टावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुव्यं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ | अलिउंचिए अपरिचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४ | अपलिउंचिए अपलिउंचियं आलोएमा - स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पत्रणाए पहविए निव्विसमाणे पडिसेवइ सेवि कसेणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया || सू० १९ ॥
छाया - यो भिक्षुर्बहुशोऽपि चातुर्मासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिकं वा बहुशोऽपि पाञ्चमासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकपाञ्चमासिकं वा एतेषां परिहारस्थानानाम् अन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्याऽऽलोचयेत् अप्रतिकुञ्च्य आलोचयमानस्य स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्यं, स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात् । पूर्वं प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितं १, पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २, पश्चात्प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितं ३, पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितं ४ । अप्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितं, अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं २, प्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुंचितं ३, प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं । । अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् आलोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहृत्य य पतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात् ॥ सू० १९ ॥
भाष्यम् - - - ' जे भिक्खू' इति । 'जेभिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'बहुसोवि' बहुशोऽपि बहुशो - ऽनेकवारमिति यावत् ‘चाउम्मासि वा' चातुर्मासिकं वा 'बहुसोवि' बहुशोsपि 'साइरेगचाउम्मासियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं वा 'बहुसोवि पंचमासियं वा' बहुशोऽनेकवारं पाञ्चमासिकं वा, 'बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा' बहुशोऽनेकवारं सातिरेक पाञ्च मासिकं वा परिहार
व्य. ४
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२६
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व्यवहारसूत्रे स्थानम् । 'एएसिं परिहारहाणाणं' एतेषां बहुशःपदघटितचातुर्मासिकादीनां परिहारस्थानानां मध्यात् 'अन्नयरं परिहारहाणं पडि से वित्ता' अन्यतरत् यत् किमप्येकं परिहारस्थानं चातु
सिकाद्यन्यतमरूपं प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् स्वकीयासेवितपापनिवारणाय आचार्यसमीपे प्रकाशयेत् । तत्र-'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अप्रतिकुञ्च्य मायामन्तरेणालोचयतः 'ठवणिज्ज ठावइत्ता' स्थापनीयं स्थापयित्वा 'करणिज्ज वेयावडियं' वैयावृत्यं करणीयम् । 'ठाविएवि पडिसेवित्ता' स्थापितेऽपि यदि पुनरपि प्रतिसेव्य तादृशप्रतिसेवनां कृत्वा गुरुसमक्षमुपस्थितो भवेत् तदा 'सेवि कसिणे' तदपि प्रतिसेवितं कृत्स्नमेव संपूर्णमपि अपराधजातम् 'तत्थेव आरुहियव्वे सिया तत्रैव' पूर्वसंपादितापराधे षाण्मासिकादावेवारोपयितव्यम् आरोपणीयं स्यात् । तादृशारोपणे चत्वारो भङ्गा भवन्ति, तानेव दर्शयति-'पुव्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, 'पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २ । 'पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं' पश्चात्प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् ३ । 'पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पश्चातातिसेवितं पश्चादालोचितम् ४ । तत्राऽपि-'अपलिउंचिए अपलिउंचिय' अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम्, यदाऽपराधानापन्नः आलोचनाऽभिमुखः तदैवं कश्चित् संकल्पितवान् , यथा 'सर्वेऽपि अपराधाः मया आलोचनीयाः' एवं पूर्वसंकल्पकालेऽप्रतिकुञ्चिते आलोचनावेलायामपि अप्रतिकुंञ्चितमेवालोचयति १ । 'अपलिउंचिए पलिउंचियं' अप्रतिकुंचिते प्रतिकुंचितम्, पूर्वसंकल्पकाले अप्रतिकुञ्चितमालोचितम् , आलोचनाकाले तु प्रतिकुञ्चितमालोचयतीति २ । 'पलिउंचिए अपलिउंचियं' प्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितं पूर्वसङ्कल्पकाले केनाऽपि प्रतिकुञ्चितं यथा-मया सर्वेऽपराधा नाऽऽलोचनीयाः, पूर्वसङ्कल्पकाले प्रतिकुञ्चिते, आलोचनायां भावपरावृत्तेः सर्वमप्यप्रतिकुञ्चितमालोचयतीति ३ । 'पलिउंचिए पलिउंचियं' प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् , पूर्वसंकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते, आलोचनाकालेऽपि प्रतिकुञ्चितमेवालोचयतीति ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स अप्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितमालोचयतः 'सत्यमेयं सकयं साहणिय' सर्वमेतत् स्वकृतं संहृय, सर्वमेतत् यद्यदापन्नमपराधजातं, यदि वा कथमपि प्रतिकुञ्चना कृता स्यात् , ततः प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नमपराधजातं सकलमेतत् स्वकृतमपराधकारिणा कृतं सम्पादितं सर्वमपराधजातं संहृत्यैकत्र मेलयित्वा यदि संचयितं प्रायश्चित्तस्थानम् आपन्नः ततः पाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । यत्पुनः षण्मासातिरिक्तं तत्सर्वं परित्यजेत् । अथ मासादिकं प्रायश्चित्तमापन्नः ततः तदेव मासादिकं दातव्यमिति । जे 'एयाए पट्टवणाए पट्ठविए' यः कश्चित्साधुः साध्वी वा एतया अनंतरपूर्वकथितया प्रस्थापनया प्रस्थापितः प्रायश्चित्तकरणे प्रवर्त्तितः 'निव्विसमाणे निविंशमानः प्रायश्चित्तमुपसेव्य निस्सरन् 'पडि सेवइ' प्रमादतो विषयकषायादिभिर्वा पुनः पापं
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भाष्यम् स. २०
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तदानविधिः २७ प्रतिसेवते ततः प्रतिसेवनायां यत् प्रायश्चित्तं सेवते 'सेवि कसिणे' तदपि कृत्स्नम् अनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन वा तत्थेव' तत्रैव पूर्वप्रस्थापितप्रायश्चित्ते एव 'आरुहियव्वे सिया' आरोहयितव्य मारोपणीयं स्यात् पुरतो यत्प्रायश्चित्तं पाण्मासिकादि तावन्मात्रमेव देयं न ततोऽधिकमिति । सू० १९॥
सूत्र-जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारद्वाणं पडिसे वित्ता आठोएज्जा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता, करणिज्ज वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुव्वं पडिसे वियं पुव्वं आलोइयं १, पुव्वं पडि सेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४। अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४। परिउंचिए पलिउचियं आलोएमाणस्स सबमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पठवगाए पट्टविए निम्धिसमाणे पडिसेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियब्वेसिया ॥ सू. २०॥
छाया—यो भिक्षुर्बहुशोऽपि चातुर्मासिकं वा, बहुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिकं वा, बहुशोपि पाञ्चमासिकं वा, बहुशोऽपि सातिरेकपाञ्चमासिकं वा, एतेषां परिहारस्थानानामन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्यालोचयेत्, प्रतिकुञ्च्यालोचयमानस्य स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्यम् । स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात्, पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितं १, पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितं २, पश्चात् प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितं ३, पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४। अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितं १, अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् २, प्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् ३, प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् । प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितमालोचयमानस्य सर्वमेतत् स्वकृतं संहृत्य, य एतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निविंशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात् ।। सू० २०॥
भाष्यम् –'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः साधुः साध्वी वा । 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'चाउम्मासिथं वा' चातुर्मासिकं वा वा 'बहुसोवि' बहुशोऽपि 'साइरेग चाउम्मासियं वा' सातिरेकचातुर्मासिकं पञ्चदिवसायधिकं चातुर्मासिकप्रायश्चित्तस्थानं वा 'बहुसोवि पंचमासियं वा' बहुशोऽपि पाञ्चमासिकं वा 'बहुसोवि साइरेगपंचमासिथं वा'
बहुशोऽपि सातिरेकं पञ्चदिनाथधिकं पाञ्चमासिकं परिहारस्थानं वा । 'एएसि परिहारद्वाणाणं' एतेषांबहुशःपद घटितचातुर्मासिकादीनां परिहारस्थानानां प्रायश्चित्तस्थानानाम् । 'अन्नयरं
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२८
व्यवहारसूत्र परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा' अन्यतरत् अनेकेषु यत् किमप्यन्यतमं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् आचार्यसमक्ष प्रकाशयेत् । तत्र-'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्य सकपटमालोचयमानस्य 'ठवणिज्ज ठावइत्ता' स्थापनीयं स्थापयित्वा यः परिहारतपःप्रायश्चित्तस्थानमापन्नः तस्य परिहारतपोदानार्थं सकलसाधुसाध्वीजनपरिज्ञानाय सकलगच्छसमक्ष निरुपसर्गप्रत्ययं कायोत्सर्गः पूर्व क्रियते । कायोत्सर्गकरणानन्तरं गुरुः कथयति-अहं ते कल्पस्थितः, अयं च साधुः अनुपारिहारिकः । ततः स्थापनीयं स्थापयित्वेति यत्नेन सहाचरणीयम् , तत्, स्थाप्यते इति स्थापनीयं वक्ष्यमाणमालापनपरिवर्तनादि, तत्सकलगच्छसमक्ष स्थापयित्वा कल्पस्थितेनाऽनुपारिहारिकेण च 'करणिज्ज वेयावडिय' यथायोगमनुशासनानुप्रहरूपं वैयावृत्यं करणीयम् । ठाविए वि पडिसेवित्ता स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य ताभ्याम् आचार्यवैयावृत्त्यकारिभ्यां क्रियमाणेऽपि वैयावृत्त्ये स्थापितेऽप्यालापनादौ कदाचित् किमपि प्रतिसेव्य गुरोः समीपमुपस्थितो भवेत् । यथा-अहम् अमुकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः । ततः 'सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया' तदपि कृत्स्नं सेव्यमानं परिहारतपसि आरोहयितव्यम् आरोपणीयं स्यात् । कृत्स्नं कतिविधं भवति ? अत्र गाथामाह--
"कसिणं छव्विहमुत्तं, पडि सेवण संचयं च आरोवण ।
तत्तो अणुग्गरं चाऽणुग्घायं निरवसेसं च" ॥१॥ छाया-कृत्स्नं षड्विधमुक्तं प्रतिसेवनं संचयं च आरोपणम् ।
ततः अनुग्रहं च अनुद्घातं निरवशेषं च ॥१॥
तत्र-कृत्स्न षट्प्रकारकं भवति, तथाहि-प्रतिसेवनाकृत्स्नम् १ संचयकृत्स्नम् २, आरोपणाकृत्स्नम् ३, अनुग्रहकृत्स्नम् ४, अनुद्घातकृत्स्नम् ५, निरवशेषकृत्स्नम् ६ चेति । तत्रप्रतिसेवनाकृत्स्नम्-ततः परमन्यस्य प्रतिसेवनास्थानस्यासंभवात् सर्वमपि पञ्चमहाव्रतभङ्गरूपमिति प्रथमो भेदः १ । संचयकृत्स्नम्-अशीत्यधिकं मासशतं ततः परस्य संचयस्याभावादिति द्वितीयो भेदः २। आरोपणाकृत्स्नं-पाण्मासिकं ततः परं भगवतः श्रीवर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थे आरोपणाया अभावादिति तृतीयो भेदः ३ । अनुग्रहकृत्स्नं यत् षण्णां मासानां प्रायश्चित्तमारोपितं तत्र षड् दिवसा गताः, तदनन्तरम् अन्यान् षण्मासान् आपन्नः, ततो यद् अवहमानं तत्सर्वमपि त्यक्तम् , पश्चाद् यदन्यत् पाण्मासिकप्रायश्चित्तमापन्नं तद्वहति, पूर्व षण्माससेवितेषु षड्दिनेषु यदन्यत् पाण्मासिक सेवितं तद् वहति, यस्मात् पञ्च मासाश्चतुर्विंशतिर्दिवसाचारोपिताः, तद् एतद् अनुग्रहकृत्स्नम् , अन्यथा पूर्वषाण्मासिकस्य तथा अपरषाण्मासिकस्य चेत्युभयोर्वहने
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भाष्यम् सू० २०
परिहारस्थानसेविनः प्रायश्चित्तदानविधिः २९ द्वादशमासस्य प्रायश्चित्तप्रसङ्ग आपतेत, अत्र तु केवलमेकस्यैव पाण्मासिकस्य दानेनानुग्रहो जात इति अनुग्रहकृत्स्रमिति । एतावता अनुग्रहकृत्स्नविपक्षीभूतं निरनुग्रह कृत्स्नमपि सूचितमिति ज्ञातव्यम् , तथाहि-षण्मासे प्रस्थापिते षण् मासाः पञ्चविंशतिदिवसाश्च व्यूढाः, तदनन्तरमन्यत् पाण्मासिकमापन्नस्तद्वति, पूर्वषाण्मासिकस्य येऽवशिष्टाः षड् दिवसास्तेऽत्र षड् दिवसा एव त्यक्ताः, अवशिष्टाः षण्मासास्तु कारिता एव, अत एव तत् निरनुग्रहकृत्स्नं भवतीति चतुर्थो भेदः ४ । अनुद्घातकृस्नम्-यत् कालगुरुर्यथा मासगुर्वादिः, अथवा निरन्तरं प्रायश्चित्तदानमनुद्घातकृत्स्नम् , अत्र मासलघुकाद्यपि निरन्तरं दीयमानमनुद्घातकृत्स्नमेव ज्ञातव्यम् । अथवा अनुद्घातं त्रिविधम्-कालगुरु १ तपोगुरु २, उभयगुरु ३ चेति । तत्र-कालगुरुनाम यद् ग्रीष्मादौ अतेकर्कशे दीयते १, तपोगुरु यदष्टमादि दीयते, निरन्तरं वा यदष्टमादि दीयते २, उभयगुरु-यद् ग्रीष्मादौ काले निरन्तरं च दीयते तदिति ३, पञ्चमो भेदः ५ । निरवशेषकृत्स्नंनाम यदाप नं प्रायश्चित्तं तत् सर्वमन्यूनमनतिरिक्तं च दीयते इति षष्ठो भेदः ६ । अत्रतस्य प्रति सेवकस्य आचार्यममक्षमालोचनायां चतुर्भङ्गी भवति, तामेवाह-'पुव्वं' इत्यादि । 'पुव्वं पडि से वियं पुव्वं आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितं, तत्र पूर्वमित्यस्य पूर्वाss. नुपूर्व्या इत्यर्थः । ततश्च पूर्वाऽऽनुपूा गुरुलघुपर्यालोचनया लघुपञ्चकादिक्रमेण प्रतिसेवितं, पूर्व पूर्वाऽऽनुपूा प्रतिसेवनाऽनुक्रमेणऽऽलोचितम् १। 'पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् , पूर्व गुरुलघुपर्यालोचनया पूर्वाऽऽनुपूर्त्या मासलघुकादि प्रतिसेवितं, तदनन्तरं च तथाविधाल्पप्रयोजनोत्पत्तौ च गुरुलघुपर्यालोचनयैव लघुपञ्चकादि प्रतिसेवितम्, आलोचनाकाले च पश्चात् पश्चानुपा आलोचितं, पूर्व लघुपंचकाद्यालोचितं पश्चात् मासादीति २ । 'पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं' पश्चात् पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं पूर्वम् आलोचनाकाले पूर्व लघुपंच काद्यालोचितं पश्चात् गुरुमासादीति ३ । 'पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पश्चात् प्रत्सेिवितं पश्चादालोचितं, पश्चात् पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं, गुरुलघुपर्यालोचनादिविरहितो यथाकथञ्चन प्रतिसेवितं, पश्चात् पश्चानुपूर्व्या आलोचितं प्रतिसेवनाऽनुक्रमेणाऽऽलोचितम्, अथवा स्मृत्वा स्मृत्वा यथाकथञ्चनाऽप्यालोचितमिति ४ । इयं चतुभङ्गी प्रतिकुञ्चनाऽप्रतिकुञ्चनाभ्यां भवाते, अतस्तामाह-'अपलिउंचिए' इत्यादि । 'अपलिउंचिए अपलिउंचियं' अप्रतिकुञ्चितेऽप्रति कुञ्चितं पूर्व संकल्पकालेऽप्रतिकुञ्चितम् आलोचनाकालेऽपि अप्रतिकुञ्चितमेवालोचयतीति १ । 'अपलिउंचिए पलिउंचियं' अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं पूर्व संकल्पकालेऽप्रतिकुञ्चितम्, आलोचनाकाले प्रतिकुञ्चितं सकपटमालोचयतीति २। 'पलिउंचिए अपलिउंचियं' प्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चितं पूर्वसंकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते आलोचनाकाले कुतश्चित् कारणवशात् भावपरावर्तनात् अप्रतिकुञ्चितमालोचयतीति ३ । 'पलिउंचिए पलिउंचियं' प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितं पूर्वसंकल्पकाले प्रति
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व्यवहारसूत्रे कुञ्चिते पश्चात् आलोचनाकालेऽपि प्रतिकुञ्चितं सकपटमेवालोचयतीति ४। 'पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स' प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितमालोचयतः 'सव्वमेयं सकयं साहणिय' सर्वं निरवशेषमालो चयतः सर्वमेतद्यदापन्नमपराधजातं प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नं च तत्सर्वं स्वकृतं स्वयमपराधकारिणा संपादितं संहृत्य एकत्र मेलयित्वा यदि संचितं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, ततस्तदेव पाण्मासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् । यत्पुनः पाण्मासिकातिरिक्तं तत्सर्व परित्यजेत् । अथ यदि मासादिकं प्रायश्चित्तमापन्नः ततस्तदेव मासादिकं प्रायश्चित्त दातव्यम् । 'जे एयाए पवगाए पट्ठविए' यः साधुः साध्वी वा एतया अनन्तरपूर्वकथितया प्रस्थापनया पूर्वकृतापराधस्य विषये स्थापना: प्रायश्चित्तदानप्रस्थापना तया प्रस्थापितः प्रायश्चित्त करणे प्रवर्तितः सः 'निविसमाणे निर्विशमानः प्रायश्चित्तं कुर्वाणः यत्प्रमादतः विषयकषायादिभिर्वा पुनः 'पडिसेवई' प्रतिसेवते ततः तस्यां प्रतिसेवनायां यत्प्रायश्चित्तं प्रतिसेवते 'सेवि कसिणे' तदपि कृत्स्नम् अनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन वा 'तत्थेव' तत्रैव पूर्वप्रस्थापितप्रायश्चिते एव 'आरुहियव्वे सिया' आरोहयितव्यमारोपणीयं स्यात् नत्वन्यस्मिन् प्रायश्चित्ते आरोपणीयमिति ॥ सू० २०॥
इह पूर्वसूत्रे परिहारतपः कथितं, परिहारश्च परिहर्तव्यापेक्षः प्रतिषेध्यानान्तरीयकत्वात् परिहारस्य । तथा परिहारक्रियाग्रहणेन पारिहारिकोऽपि आक्षिप्यते, कर्तारं विना क्रियाया अनुपपत्तेः । तत्र ये परिहारेण परिहारनामकेन तपसा चरन्ति, ते पारिहारिकाः । एतद्विपरीता ये ते अपारिहारिकाः । न पारिहारिकाः अपारिहारिकैविना भवितुमर्हन्ति पारिहारिकस्यापारिहारिकानान्तरीयकत्वात्, एवमपारिहारिका अपि पारिहारिकैविना न भवन्ति अपारिहारिकाणामपि पारिहारिकानान्तरीयकत्वात्, अतोऽत्र पारिहारिकाऽपारिहारिकविषयं सूत्रमाह-'बहवे' इत्यादि ।
सूत्रम्-बहवे परिहारिया बहवे अपरिहारिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए नो ण्हं से कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, कप्पइ ण्हं से थेरे आपुच्छित्ता एगयो अभिनिसेज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, थेरा य ण्हं से वियरेज्जा एवं ण्हं कप्पइ एगयओ अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, थेरा य हं से नो वियरेज्जा एवं हं नो कप्पइ एगयओ अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए । जो ण्हं थेरेहिं अविइण्णे अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेएइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० २१॥
छाया-बहवः पारिहारिकाः बहवोऽपरिहारिका इच्छेयुः एकतः अभिनिषद्या वा अभिनषेधिकों वा चेतयितुम्, नो खलु तेषां कल्पते स्थविरान् अनापृच्छय एकतो अभिनिषद्यां वा अभिनषेधिकी वा चेतयितुम्, कल्पते खलु तेषां स्थविरान् आपृच्छय
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भाष्यम् सू० २१
पारिहारिकापारिहारिकानामेकत्रवासविधिः ३१ एकत अभिनिषद्यां वा अभिनैपेधिकी वा चेतयितुम्, स्थविराश्च खलु तान् वितरेयुः एवं खलु तेषां कल्पते एकतः अभिनिषद्यां वा अभिनषेधिकी वा चेतयितुम् , स्थविराः खलु तेषां नो वितरेयुः एवं खलु तेषां नो कल्पते एकतः अभिनिषद्यां बा अभिनषेधिकी वा चेतयितुम् , यः खलु स्थविरैरवितीर्णोऽभिनिषद्यां अभिनषेधिकी वा चेतयते तस्य स्वान्त. रात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० २१ ॥
भाष्यम् -'बहवो' इति 'बहवो परिहारिया' बहवोऽनेके पारिहारिका वा, परिहारः तपोविशेषः, तेन तपोविशेष्ण चरन्ति ये ते पारिहारिकाः, 'बहवे अपरिहारिया वा बहवोऽनेके अपरिहारिका पारिहारिकव्यतिरिक्तास्ते 'इच्छेज्जा' परस्परमिच्छेयुः इच्छां कुर्युः । किमिच्छेयुस्तत्राह-'एगयओ' एकतः एकस्थ ने तत्रैव वसतौ वसत्यन्तरे वा 'अभिनिसेज्जं वा' अभिनिषद्याम् अभि-रात्रिमभिव्याप्य स्वाध्यायनिमि तमागताः सन्तो निषीदन्ति तिष्ठन्ति यस्यां सा तामभिनिषद्यां वसतिमित्यर्थः, 'अभिनिसीहियं का' अभिनषेधिकी वा, निषेधः स्वाध्यायव्यतिरेकेण सकलव्यापारप्रतिषेधः, तेन निषेधेन निर्वृ ता नैषेधिकी केवलस्वाध्यायस्थानम् "मुत्तत्थं निसीहिया" इति वचनात् अत्र नषेधिकी सूत्रार्थप्रायोग्या ज्ञातव्या, न तु कालकारणप्रायोग्या, अभि-आभिमुख्येन सूत्रार्थप्रायोग्यतया नेपेधिकी अभिनैपेथिकी तामभिनैषेधिकीं वा ।
अयम थेः- तत्र दिवसे स्वाध्यायं प्रवचनं कृत्वा रात्रौ वसतिमेव साधवः प्राप्नुवंति सा अभिनषेधिकी, अभिनषेधिक्यामेव स्वाध्यायं कृत्वा रजनीमुषित्वा प्रातः काले वसतिमुपागच्छन्ति सा अभिनिषद्या, तामभिनिषद्याम्, अभिनैषेधिकीं स्वाध्यायस्थानविशेषं वा 'चेइत्तए' चेतयितुं कर्तुम्, यदि अनेके पारिहारिका अपरिहारिकाश्च एकस्मिन् स्थाने अभिनिषद्याम् अभिनषेधिकीं वा कत्तु वस्तुमिच्छेयुः तदा ‘णो णं कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए' नो खलु कल्पते स्थविराननापृच्छय एकतः एकस्थाने अभिनिषद्यां वा अभिनषेधिकी वा चेतयितुं कर्तुम् । तत्र नो नैव कथमपि एतेषां पारिहारिकाणामपरिहारिकाणां च कल्पते स्थविरान् आचार्यप्रभृतीन् अनापृच्छय तेषामाचार्यादीनामाज्ञामन्तरेण एकस्थाने स्ववसतौ अभिनिषद्याम् अभिनषेधिकीं वा कत्तु नो कल्पते इति भावः । साधूनामुच्छ्वासनिःश्वासनिमेषादि यतिरेकेण शेषाणां समस्तानामपि व्यापाराणां गुरुपृच्छाधीनत्वात् । तदेवं प्रतिषेध वयवं निरूप्य विधिं निरूपयितुमाह--'कप्पई ण्हं थेरे आपुच्छित्ता ते एगयओ अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, कल्पते खलु स्थविरानापृच्छ्य तेषाम् एकतः अभिनिषद्यां ना अभिनषेधिकी वा चेतयितुम् आचार्याज्ञया तेषामेकस्थानेऽभिनिषद्यादि कत्तु कल्पते इति । अथ यदि स्थविरा आपृष्टाः सन्त आज्ञां वितरेयुः तदा किं कुर्युः ? इत्याशङ्कायामाह-'थेरा य ण्हं से वियरिज्जा एवं हं कप्पइ अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेइ
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व्यवहारसूत्रे
तए' स्थविराश्च खलु तेषां वितरेयुः आज्ञां दद्युः, एवं तदा खलु कल्पते तेषां अभिनिषद्यां वा अभिनैषेधिकीं वा चेतयितुं कर्त्तुम्, स्थविराणामाज्ञया तैः सह वस्तुं कल्पते इति भावः । यदि 'थेरा य हूं' स्थविरा: खलु 'नो वियरेज्जा' नो वितरेयुः नैवाऽनुज्ञां कुर्युः ' एवं हं णो कप्पड़' एवमुक्तेन प्रकारेण अनुज्ञामन्तरेण खलु नो नैव कल्पते तेषाम् 'एगयओ' एकतः एकस्थाने 'अभिनिसेज्जं वा' अभिनिषद्यां वा 'अभिनिसीहियं वा' अभिनैषेधिकीं वा 'चेइत्तए' चेतयितुं कर्त्तुमित्यर्थः ‘जो 'हं थेरेहिं अत्रिइणे' यः कश्चित् खलु अपारिहारिकः स्थविरैराचार्यादिभिः अवितीर्णः अननुज्ञातः सन् पारिहारिकैः सह एकस्थाने 'अभिनिसेज्जं वा' अभिनिषद्यां वा 'अभिनिसीहियं वा' अभिनैषेधिकीं वा 'चेतइ' चेतयति करोति 'से' तस्य अपारिहारिकस्य 'संतरा छेए वा परिहारे वा' स्वान्तरात् स्वकृतमन्तरं स्वान्तरं तस्मात् यावदागत्य सन मिलति, यावद्वा स्वाध्यायभूमेर्नोत्तिष्ठति तावत् यद् व्यवधानं तद् अन्तरं तस्मात् स्वकृतादन्तरात् छेदो वा पञ्चदिवसात्मकः, परिहारो वा परिहारतपो वा मासलबुकादि प्रायश्चित्तमा सूत्रार्थः ॥ सू० २१ ॥
नन्वस्य प्रकृतसूत्रस्याऽनन्तरपूर्वसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति चेत् अत्रोच्यते - अत्र पूर्वपूर्वसूत्रेषु परिहारः कथितः, न च कुत्रापि मध्ये परिहारप्रकरणं परित्यक्तम्, ततः प्रकृतः परिहारः, परिहारनामकं तपोविशेषः, स च क्रियाविशेषरूप एव, क्रिया च कर्त्तारमन्तरेणाऽनुपपन्नेति परिहारक्रियाप्रकरणाऽनुरोधात् अत्र परिहारी परिहारक्रियायाः कर्त्ताऽभिधीयते, अयमेव पूर्वपूर्व - सूत्रैः सह प्रकृतसूत्रस्य संबन्ध इति । अथवा अनन्तरपूर्वसूत्रे इदमुक्तं यत् स्थविरैरनुज्ञातानामभिनिषद्यामभिनैषेधिकीं वा यदि गच्छति ततः प्राप्नोति परिहारमिति । अत्र प्रकृतसूत्रे तु स एव परिहारतामुपगत इति प्रतिपाद्यते । अथवा अनन्तरसूत्रे ऽभिनिषद्यादिगमनं कथितं स प्रत्यासन्नक्षेत्रनिर्गमः, इदं तु प्रकृतसूत्रं दूरे निर्गमनं कथयति, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्य प्रकृतसूत्रस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते - 'परिहारक पट्ठिए' इत्यादि ।
सूत्रम् - परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सज्जा कप्पर से एगराइयाए पडिमाए जं णं जं णं दिसं अण्णे साहम्मिया विहरंति तं णं तं णं दिसंउवत्तिए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पर से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निडियंसि परो वएज्जा साहि अज्जो एगरायं वा दुरावा, एवं स कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जे तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसई से संतरा छेए वा परिहारे वा || सू० २२ ॥
छाया - परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः बहिः स्थविराणां वैयावृत्याय गच्छेत् स्थविराश्च स्मरेयुः कल्पते तस्य एकरात्रिक्या प्रतिमया यां खलु यां खलु दिशम् अन्ये साधर्मिका
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भाष्यम् उ०१सू०२२-२३ परिहारकल्पस्थितस्य प्रामान्तरगमनविधिः ३३ विहरन्ति तां तां खलु दिशमुपलातुम्, न तस्य कल्पते तत्र विहारप्रत्ययिकंवस्तुम्, कल्पते तस्य कारणप्रत्ययिक वस्तुम्, तस्मिश्च खलु कारणे निष्ठिते परो वदेत् वस खलु आर्य एकरावं वा द्विरात्रं वा, एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम् , नो तस्य कल्पते परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वस्तुम् , यदि तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० २२ ।।
भाष्यम्-'परिहारकप्पठिए' परिहारकल्पस्थितः । तत्र-परिहारस्य कल्पः सामाचारी इति परिहारकल्पः, तस्मिन् परिहारकल्पे स्थित इति परिहारकल्पस्थितः परिहारतपसि वर्तमान इत्यर्थः 'भिक्खू' भिक्षुः 'बहिया' बहिरन्यत्र नगरादौ 'थेराणं' स्थविराणाम् अन्यग्रामादौ स्थितानामाचार्यादीनाम् 'वेयावडियाए' वैयावृत्याय ग्लानत्वादिकारणे वैयावृत्त्यकरणाय 'गच्छेज्जा' गच्छेत् 'थेरा य से सरेज्जा' स्थविराश्च तस्य स्मरेयुः परिहारतपः स्मृतिपथमानयेयुः यथा-एष परिहारकल्पस्थितो वर्तते, स्मरद्भिस्तैः स परिहारी वक्तव्यो यावत् प्रत्यागच्छसि तावन्निक्षिप्यतां परिह रतप इति । तत्र यदि परिहारिके सामर्थ्यमस्ति ततः परिहारतपः प्रपन्नो गच्छति । अथवा नास्ति चेत् सामर्थ्य ततः परिहारतपो निक्षिपति । परिहारतपो निक्षिप्य च 'कप्पइ से' तस्य कल्पते एगराइयाए पडिमाए' एकरात्रिक्या प्रतिमया, अत्र प्रतिमाशब्दोऽभिप्रहवाची, ततश्च एकराषिकेणाऽभिग्रहेणेत्यर्थः, अर्थात्-यत्रापान्तराले वसामि तत्र गोकुलादौ प्रचुरगोरसादिभोज्यवस्तुलाभेऽपि प्रतिबन्धमकुर्वता कारणं विना मया एकरात्रमेव वस्तव्यं नाधिकं वरतव्यमित्याकारेणाऽभिग्रहेण एकरात्रिकवासरूपमभिग्रहं कृत्वेत्यर्थः 'जणं जंणं दिसं' यां यां खलु दिशं 'जं णं' इत्यत्र द्वितीया वेभक्तिः सप्तम्यर्थे ज्ञातव्या तेन यस्यां यस्यां खलु दिशि दिशायामित्यर्थः, अथवा यां यां खलु दिशमाश्रित्य 'अन्ने साहम्मिया' अन्ये साधर्मिकाः लिङ्गसाधर्मिकाः प्रवचनसाधर्मिका वा संविग्नसंभोगेकादयो वक्ष्यमाणा: 'विहरंति' विहरन्ति तिष्ठन्ति 'तं णं तं गं दिसं उवलित्तए' तां तां खलु दिशम् उपलातुं ग्रहं तुम् आश्रयितुमित्यर्थः । 'नो से कप्पई' नो नैव 'से' तस्य परिहारकल्पस्थित् स्य निक्षिप्तपरिहारत पसो वा आहारादिलोभेन कल्पते 'तत्थ' तत्र ग्रामादौ 'विहारवत्तियं वत्थए' विहारप्रत्ययिकम् अवस्थाननिमित्तं तत्र वस्तुं न कल्पते इति, किन्तु 'कप्पई से तत्थ' कल्पते तस्यानन्तर दितस्य भिक्षोः यत्र भिक्षां कृतवान् उषितवान् वा तत्र-कारणवत्तियं वत्थए' कारणप्रत्ययिकं वयमाणसूत्रार्थप्रतिपृच्छादानवैयावृत्त्यादिकारणनिमित्तं वस्तुं वासं कां कल्पते इति । अथ च 'तंसि च णं कारणंसि निद्वियंसि' तस्मिंश्च खलु कारणे निष्ठितेयत् कारणविशेषमासाद्य ग्रामान्तरं स्थानान्तरं वा उषितः तस्मिन् कारणविशेषे निष्ठिते परिसमाप्ते सति यदि 'पर' वएज्जा' परः-तत्स्थानाधिष्ठित आर्चादिर्वदेत् आग्रहं कुर्यात् यथा 'वसाहि यज्जो' हे आर्य ! वसाऽत्र मदीयस्थाने 'एगरायं वा दुरायं वा' एकरात्रं वा द्विरात्रं वा, हे आर्य ! दूरादागतोऽसि महत्कार्य संपादितवान् , अतोऽत्र एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस, दूरादागतो
व्य. ५
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व्यवहारसूत्रे
ऽसि विहारजनितखेदमपनीय सुखेन तिष्ठ । ' एवं से कप्पर एगरायं वा दुरायं वा वत्थ' एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुम्, एवमुक्तप्रकारके ग्रामान्तराधिष्ठितस्थविराधाग्रहे सति 'से' तस्य परिहारकल्पस्थितस्य तत्र स्थानान्तरादौ परिसमाप्तकार्यस्यापि एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुं वासं कर्त्तुं कल्पते, किन्तु 'नो से कप्पर एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वत्थए' नो तस्य कल्पते एकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परं वस्तुम्, ततः परं पुनः स्थविराद्याग्र हे स्वेच्छया वा निष्कारणम् एकरात्रात् द्विरात्राद्वा परमधिकं वासं कर्ते परिहारकल्पस्थितस्य न कल्पते इत्यर्थः । यो निष्कारणमधिकं वसति तत्राह - " - 'जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसई' यस्तत्र एकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परमधिकं कालं त्रिरात्रं चतुरात्रादिकं वा निष्कारणं वसति 'से' तस्य 'संतरा छेए वा परिहारे वा' सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा यः परिहारकल्पस्थितः पुनस्तत्रत् द्विरात्राद्वा परमधिकं वसति तस्य भिक्षोः सान्तरात् स्वकृतादन्तरादपान्तराले निष्कारणवासरूपकारणात् यावत्कालं निष्कारणमेकद्विरात्रादधिकमुषितः तावत्कालिकः छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं वा परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं यथायोगं गुरुर्दद्यादिति ॥ सू० २२ ॥
सूत्रम् - परिहारक पहिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से नो सरेज्जा कप्पड़ से निव्विसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जं णं जं णं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तं णं तं णं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पर से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जावसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरावा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कष्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसई से संतरा छे वा परिहारे वा ॥ सू० २३ ॥
छाया - परिहारकल्पस्थितो भिक्षुर्बहिः स्थविराणां वैयावृत्याय गच्छेत्, स्थविराश्च नो स्मरेयुः कल्पते तस्य निर्विशमानस्य एकरात्रिक्या प्रतिमया यां खलु यां खलु दिशमन्ये साधका विहरन्ति तां खलु तां खलु दिशमुपलातुं, नो तस्य कल्पते तत्र विहरप्रत्यथिकं वस्तुम्, कल्पते तस्य तत्र कारणप्रत्यत्र वस्तुं तस्मिश्च कारणे निष्ठिते परो वदेत् वस आर्य ! एकरात्र वा द्विरात्रं वा, एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुं, नो तस्य कल्पते परमेरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वस्तु, यत् तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सु० २३ ॥
भाष्यम्- 'परिहारकप्पट्ठिए' इति । 'परिहार कप्पट्ठिए' परिहारकल्पस्थितः परिहारतपसि वर्त्तमानः ‘भिक्खू' भिक्षुः ‘बहिया' बहिरन्यत्र नगरादौ ग्रामान्तरे वा । 'थेराणं' स्थविराणामाचार्यादीनाम्, 'वेयावडिया ए' वैयावृत्त्याय, तत्र वैयावृत्त्यं गुरोरन्यस्य वा स्थविरस्य सेवा, तत्करणाय 'गच्छेज्जा' गच्छेत्'थेरा य' स्थविराश्च ‘से' तस्य परिहारकल्प स्थितस्य तपः 'नो सरेज्जा' नो स्मरेयु कार्यबाहुल्येन अयं परिहारतपोधारक इति न स्मरणं कुर्युः, असौ अपि गमनसंभ्रमेण निवेदनं विस्मरेत् यथा परिहारतपो
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भाष्यम् उ० १ सु० २४
परिहारकल्पस्थितस्य प्रामान्तरगमनविधिः ३५ नि क्षेपणीयमिति, तत्र यदि आ वार्याः स्मरेयुः भिक्षुर्वा स्मारयति तदा तत्तपो निक्षिप्य गच्छति, यदि द्वयोरपि विस्मृतं भवेत् तदा ‘कप्पइ से निविसमाणस्स' कल्पते तस्य निविंशमानस्य तपो वहमा नस्यैव 'एगराइयाए पडिमाए' एकरात्रिक्या प्रतिमया एकरात्रिकाभिग्रहेण शेषं सर्व पूर्वसूत्रवदेव व्याख्येम् ॥ सू०:३ ॥
सूत्रम् --परिहारकप्प'ए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा वा नो सरेज्जा वा कप्पइ से निविसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जणं जंणं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरते, तं ण त ण दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थर, कप्पइ से तत्य कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च ण कारणंसि निद्वियंसि परोवएज्जा वसाहि अज्जो एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पई परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुराया वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० २४॥
छाया–परिहारकल्प स्थतो भिक्षुबहिः स्थविराणां वैयावृत्याय गच्छेत् स्थविराश्च स्मरेटर्वा नो स्मरेयुवा कल्पते तस्य निर्विशमानस्य एकरात्रिक्या प्रतिमया यां खलु यां खलु दिशमन्ये लाधर्मि का विहरन्ति तां खलु तां खलु दिशमुपलातुम् , नो तस्य कलाते तत्र विहारप्रत्ययिकं वस्तुम्, कल्पते तस्य तत्र कारणप्रत्ययिक वस्तुम्, तस्मिश्च खलु कारणे निष्ठिते परो वदेत् वस आर्य! एकरात्रं वा द्विरात्रं वा, एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वस्तुमा, नो तस्य कल्पते परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वस्तुम्, यतू तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसांत तस्य स्वान्तरात् छेड़ो वा परिहारो वा ॥ सू० २४ ॥
भाष्यम् – 'परिहारकप्पडिए भिक्खू' इति । 'परिहारकप्पद्विए भिक्खू' परिहारकास्थितो भिक्षुः 'बहिया' बहिर्बाह्ये नगरादौ 'थेराण' स्थविराणामाचार्यादीनां 'वेयावडियाए' वैयावृत्त्याय 'गच्छेज्जा' गच्छेत् 'थेरा य' स्थविराश्च ‘से सरेज्जा वा नो सरेना वा' तस्य पारिहारिकस्य तपः स्मरेयुर्वा कार्यव्याक्षेपान्नो स्मरेयुर्वा यथा एषः परिहारतपोवाहक इति स्मरणं कुर्युः नो वा कुर्युः तदा कल्पते तस्य निर्विशमानस्य तपो वहतः सतः, इत्यादि सर्व पूर्ववदेव व्याख्येयम् । अत्रायं भावः-प्रथमसूत्रे वहनं कथितं तत्तप आचार्यों दे तो वाह येदपि सर्वतो वा वाहयेदपि १ । द्वितीयसूत्रे स्थापन भविष्यकालार्थं तदपि देशतः सर्वतो वा स्थापयेदपि २ । तृतीयसूत्रे-त्यागः, तदपि देशतः सर्वतो वा त्या नयेदप्याचार्य इति ।। तत्र देशतो वहनादि कथं स्यात्तत्राह-परिहारतपः प्रायः सर्व व्यूढं स्तोकमेवा पशिष्टम् , अत्रान्तरे बहिर्गमनप्रयोजनमुपस्थितं भवेत्तदाऽऽचार्यो वदेत्-मुञ्चाधिकृतं परिहारतपः यर : साम्प्रतमिदं गमन कार्यमुपस्थितम् । तत्र यदि स समर्थो भवेत्तदा पाह-न क्षिपामि
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व्यवहारसूत्रे भदन्त ! यदेतद्देशतोऽवशिष्टं तपो मार्ग एव सम्पूर्ण करिष्यामीति सोऽवशिष्टं देशतः तपो वहमान एव गच्छति । अथासमर्थश्चेत्तदाऽऽह-गमिष्यामि त्ववश्यमेवेति विचिन्तयन् तं तपोदेशं निक्षिप्य गच्छति । अथवा तस्य यदवशिष्टं स्तोकमव्यूढं तिष्ठति तत्तस्य महत्कार्यार्थ प्रस्थितस्याचार्याः कार्यस्य महत्त्वमाश्रित्य प्रसादबुद्धयाऽवशिष्टं तत्तपो समस्तमपि मोचयन्ति यथा महति वैयावृत्त्यादिप्रयोजने त्वं प्रस्थानं करोषीति मोचितं प्रसादतस्तव शेषमेतत्तप इति । एवं देशतो वहननिक्षेपण-त्यागाः प्रदर्शिता इति । अथ सर्वतस्ते प्रदर्यन्ते-कस्यापि साधोः परिहारतपो दत्तं वोढुमपि स प्रवृत्तः, अत्रान्तरे च वैयावृत्याद्यर्थ गमनप्रयोजनमुपस्थितं तदाऽऽचार्या ब्रुवतेहे देवानुप्रिय ! समुत्पन्नमिदमावश्यकं गमनप्रयोजनमतो निक्षिप परिहारतप इति । यदि स साधुः समर्थस्तदा पाह-भदन्त ! गच्छन्नपि समर्थोऽहं तत्तपो वोढुम् , मार्गस्य दूरत्वाच्च मार्ग एव तत्तपः समस्तं पूर्ण करिष्यामि, तथाहि-सर्व जघन्यं परिहारतपो मासिकं भवति तदापन्नोऽसौ, गन्तव्यं चानन्दपुरात् मथुरायां ततस्तत्तपो मार्ग एव समाप्तिमुपयातीति स तपो वहमान एव गच्छति । यदि सोऽसमर्थः तदा तत्तपो निक्षिपति । अथवा महत्प्रयोजनमुपस्थितं गरीयांश्चाध्या, एतस्य प्रयोजनस्यायमेव कर्ता गुणगरीयत्वात् ततः सम्यक् प्रवचनभक्तोऽयं दुष्करदुष्करकारी किन्तु सामर्थ्यविहीन इति विचिन्त्याचार्याः सर्वमपि तस्य तनपः प्रसादतो मोचयन्त्यपि । एवं सर्वतो वहननिक्षेपणत्यागा वेदितव्या इति । एवमेव ततः प्रतिनिवर्ति तस्य देशतः सर्वतो वा वहनत्यागौ वेदितव्यो, तथाहि-यदि गच्छता देशो निक्षिप्तस्ततः स तपसो देश: प्रतिनिवर्त्तितेन क्रियते । अथ समस्तं निक्षिप्तं तदा तत्सर्वमपि प्रतिनिवर्तितेन क्रियते । अथवा अहो दुष्करमिदं चतुर्विधसंघजिनप्रवचनप्रभावनासम्बन्धिकार्यमनेन संपादितमिति परितुष्टा आचार्या निक्षिप्तं तत्तपसो देशं वा सर्व वा मोचयन्ति । एवं प्रतिनिवर्तितस्य देशतः सर्वतो वहनत्यागौ भवत इति । अत्राऽऽशङ्का जायते यत् आचार्यादिप्रसादतो देशस्य सर्वस्य वा त्यागः कृतः किन्तु न खलु प्रसादतः पापनिवृत्तिः समुपजायते ? इत्यत्राह-यथा अनुद्घातिके परिहारतपःप्राप्तौ वैयावृत्त्यकराणां तस्य त्यागो भवति 'अणुग्याइयं उग्याइयं किज्जई' इति वचनात् संघादिवैयावृत्त्ये प्रवृत्तानामुद्घातिकमेव परिहारतपो भवति न तु अनुदातिकं वैयावृत्त्यस्य परमनिर्जराहेतुकत्वादिति ॥ सू० २४ ॥
अथास्य सूत्रस्य पूर्वसूत्रेण सह कः सम्बन्ध इति चेदत्रोच्यते-पूर्वसूत्रे पारिहारिकस्य वैयावृ. त्यादिनिमित्तनिर्गमनाधिकारः प्रोक्तः, इहापि निर्गमनमेव कथयिष्यते । अथवा पूर्वसूत्रे तपसोऽधिकारोऽनुवर्तते, अत्रापि सूत्रे स एव तपसोऽधिकारो वर्णयिष्यते । अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातमिदं सूत्रमाह 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
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भाष्यम् उ. १ सू० २५-२७
एकाकिविहारिणः पुनर्गच्छागमनविधिः ३७ सूत्रम् - जे भिक्खू य गणाओ अवकम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए अस्थिया इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिकमज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवहाएज्जा ॥ सू० २५॥
छाया-यो भिक्षुश्च गणादवक्रम्य एकाकिविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत् स चेच्छेत् द्वितीयमपि तमेवगणमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् अस्ति चात्र शेषं पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिकामयेत् पुनश्छेद परिहारस्य उपस्थापयेत् ॥ सू० २५ ॥
भाग्यम-"जे भिक्खू" इति 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः जघन्यतो दशपूर्वधरः उत्कृष्टतश्चतुर्दशपूर्वधारी,तथा श्रद्धा १, सत्यं २, मेधा ३, बहुश्रुतत्त्वम् ४, शक्तिमत्त्वम् ५, अल्पाधिकरणत्वम् ६, धृतिमत्त्वम् ७, वीर्यसम्पन्नत्वं ८ चेति, इत्येतावदष्टगुणधारको मुनिर्वा 'गणाओ प्रवक्कम्म' गणात् स्वकीयगच्छात् अवक्रम्य विनिर्गत्य पृथग्भूत्वा 'एगल्लविहारपडिम' एकाकिविहारप्रतिमाम् एकाकिविहारयोग्यां एकाकि भूत्वा विहरणरूप मभिग्रहविशेषम् ‘उवसंपज्जित्ता गं' उपसंपद्य स्वीकृत्य 'विहरेज्जा' विहरेत् ‘से य' स चैकाकिविहारी 'इछेज्जा' स्वकीयं गणं स्मरन् इ छेत् , किमिच्छेदित्याह-'दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विरहित्तए' द्वितीयमपि वारम् एकवारं पूर्व प्रव्रज्याप्रत्तिपत्तिकाले आश्रितवान् इदानीं तु द्वितीयं वारम् अत एक कथितं द्वितीयमपि वारं तमेव आत्मीयं पूर्वत्यक्तं गणमेव उपसंपद्य स्वीकृत्य पुनर्विहतम् तदा कि कुर्यात् पूर्वगच्छस्थित आचार्यादिः । तत्राह-'अत्थि या इत्थ सेसे' अस्ति चात्र तस्मिन् सुनौ शेषम् अवशिष्टं चारित्रं भवेत् तदा 'पुणो आलोएज्जा' पुनरालोचयेत् आचार्यादिः पुनस्तमेकाकिविहारप्रतिमाजातमतीचारमालोचयेत् पापस्यालोचनां कारयेत् , तस्य स्वकीयं पापं प्रकटं कारयेदित्यर्थः । आलोचनानन्तरं 'पुणो पडिकमेज्जा' पुनः प्रतिक्रामयेत् पुनः पुनरकरणतया तस्मात् स्थानात् प्रत्यावर्तयेत् पुनरपि किमित्याह-'पुगो छेयपरिहारस्स उवद्याएज्जा' पुनश्छेदपरिहारस्योपस्थापयत्, छेदश्च परिहारश्चेति समाहारद्वन्दे छेदपरिहारं तस्य, तत्र छेदस्य दीक्षाछे । कृत्वा तस्य परिहारस्य परिहारतपसो वा यथायोग्यं करणाय पुनरुपस्थापयेत दीक्षाछेदं परिहारतपो वा आरोपयेदितिभावः । पूर्वं यदुक्तम्-'अत्थि या इत्थ सेसे' इति किश्चिद्वशिष्टे चारित्रभागेऽयं विधिरुक्तः, यदि सर्वमपि चारित्रं नष्टं जातं नावशिष्ट किञ्चित्तदा सर्व पूर्वपर्यायं छित्त्वा पुनर्नुतने चारित्रे तमुपस्थापयेदिति निष्कर्ष इति । अत्र कोऽपि शङ्कतेयद्यपि प्रतिमा पतिपन्नस्य चारित्रविराधनायाः संभवः, न तु चारित्रं सर्वमपगतं किन्त शेषमवतिष्ठते, त्यवहारनयमतेन देशभङ्गेन सर्वभङ्गाभावात्, ततश्चारित्रस्य शेषे सति 'पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्राम्येत्' इत्यत्र पुनः शब्दो न द्वितीयवारापेक्षः आलोचनाप्रतिक्रमणयोः पूर्वमकरणात् , एकवारं कृतं कार्य द्वितीयवारं क्रियते तत्र पुनःशब्दः सापेक्षः, यथा च लोके वक्ति–'कृतमिदमेकवारमिदानी पुनः क्रियते' इति, अत्र तु प्रथममेवाऽऽलोचनां प्रथममेव च
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व्यवहारसूत्रे प्रतिक्रमणं ततः कथमत्र पुनः शब्दोपपत्तिः ? अत्रोच्यते-भिक्षुस्वभावस्य ऋजुत्वेन स यत्रैव स्थानेऽतिचारप्रसङ्गः समापतितस्तत्रैव स इत्थम् अचिन्तयत् यत् समापतितमतिचारजातं तदत्रैव आलोचयामि प्रतिक्रमामि पश्चाद् गुरुसमक्षमालोचनां प्रतिक्रमणं च करिष्यामीति । एवं चिन्तयित्वा पूर्वगच्छे आगच्छति ततो घटते एवात्र पुनः शब्दोपादानमिति । अथवा गच्छाद् गतस्य पुनस्तत्रागमनापेक्षया पुनः शब्दोपादानम् तथाहि-'पुणो आलोएज्जा' पुनरिति गत्वा पुनः प्रत्यावर्तितस्य आलोचनां कारयेत् युक्तमेव पुनःशब्दोपादानम् नहि तीर्थकरा एकमक्षरमपि व्यर्थ भाषन्ते इति । एवं पुनरपि स्वगच्छे प्रतिनिवृत्तं साधुं गच्छस्था मुनयो न निन्देयुः न गर्हेरन् यथा - 'समाप्तिं नीताऽनेन प्रतिमा, सांप्रतं पुनरागतो वर्त्तते' इत्यादिवाक्यैः प्रतिनिवृत्तस्य निन्दा गीं न कुर्युः, तस्य शुभपरिणामवत्त्वेन शोभनाध्यवसायवत्त्वेन च प्रतिनिवृत्तत्वादिति ॥ सू० २५ ॥
पूर्व भिक्षुसूत्रमुक्त्वा सम्प्रति गणावच्छेदकाऽऽचार्योपाध्याययोः सूत्रद्वयमाह-'गणावच्छेयए य' इत्यादि 'आयरिय उवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-मणावच्छेयएय गणाओ अक्वाम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव मणं उक्संपज्जित्ताणं विहरित्तए पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवष्ठावेज्जा ॥ सू० २६॥
आयरियअवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उपसंपज्जिता गं विहरेज्जा से इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ता ण विहरित्तए पुणो आलोएज्जा पुणो पडिकमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवमाएज्जा ॥ सू० २७ ॥
छाया-गणापच्छेदकाच गणादवक्रम्य एकाकिविहारप्रतिमामुपसंपच खलु विहरेत, स इच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु चिहत्तम् पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिकामेत् पुनः छेदपरिहारस्य उपस्थापयेत् ॥ सू० २६ ॥
आचार्योपाध्यायश्च गणादवक्रम्य एकाकिविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत् स इच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहत्तुं पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रामेत् पुनः छेदपरिहारस्य उपस्थापयेत् ॥ सू० २७ ॥
भाष्यम-गणाक्च्छे यए य' इति । 'आयरियउवज्झाए य' इति च । एतत् सूत्रद्वयमपि भिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयं, विशेषः केवलमेतावानेव यत् गणावच्छेदक एकाकिविहारप्रतिमाप्रतिपत्तिकाले गणावच्छेदकत्वं स्वपदं मुक्वा प्रतिमा प्रतिपद्यते, आचार्योऽन्यं गणधरं स्वपदे स्थापयित्वा प्रतिमा प्रतिपद्यते इति । शेषं सर्व सूत्रद्वयं भिक्षुसूत्रवदेव ज्ञातव्यम् । अथवा भिक्षुसूत्रादिदं नानास्वं यत् गणावच्छेदक आचार्यश्च प्रतिमाप्रतिपत्तिकाले पूर्वगृहीतमुपछि निक्षिप्यान्यमुपधि प्रायोग्यमुत्पाद्य प्रतिमा प्रतिपद्यते इति, शेषं पूर्ववदेव । सू० २६, २७ ॥
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प्रायस् उ० १ सू० २८-३२ पार्श्वस्थादिविहारप्राप्तस्यपुनरागमने विधि ३९
सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अवक्फम्म पासस्थविहारपडिम उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अस्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवट्ठावेज्जा ॥सू० २८॥
छाया-भिक्षुश्च गणादवक्रम्य पार्श्वस्थविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेस्, स च इच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहर्तुम्, अस्ति चात्र शेष पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रामेत् पुनश्छेदस्य वा परिहारस्य वा उपस्थापयेत् ॥ सू० २८ ॥
भाष्यम्-'भिक्खू य' इति । भिक्खू 'य' यः कश्चिद् भिक्षुश्च 'गणाओ अवक्कम्म' गणात् स्वगच्छात् अपक्रम्य बहिर्निर्गत्य, 'पासत्थविहारपडिम' पार्श्वस्थविहारप्रतिमाम्, पार्श्वस्थस्य, पार्श्वे ज्ञानादीनां समीपे नतु ज्ञानादिषु तिष्ठतीति पावस्थः, अथवा अस्य पाशस्थ इतिच्छाया, तत्र पाशाः बन्धहेतुभूता मिथ्यात्वादयः, तेषु तिष्ठतीति पाशस्थः चारित्राचारशिथिलस्तस्यप्रतिमा-तद्विषयाऽवस्था, ताम् 'उवसंपज्जित्ताणं' उपसं पद्य प्रतिपद्य खलु 'विहरेज्जा' विहरेत् । 'से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए' स च पार्श्वस्थचर्यारतो भूत्वा भूयोऽपि भावपरावृत्या इच्छेत् द्वितीयमपि वारं गणं स्वगणं यस्मिन् गणे पूर्वमासीत् तमेव गणं गच्छमुपसंपद्य सम्प्राप्य विहत्तुं स्थातुम् इच्छेत् तदा 'अस्थि या इत्थ से से' अस्ति चेदत्र शेषं चारित्रांशो विद्यमानस्तदा गच्छागतं तं 'पुणो' पुनरागतत्वात् 'आलोएज्जा' तस्याऽपराधजातस्याऽऽलोचनामाचार्यादिः कारयेत् 'पुणो पडिक्कमेज्जा' पुनः प्रतिक्रामेत् पुनरकरणतया पापात् प्रत्यावर्त्तयेत् 'पुणो छेयस्स परिहारस्स वा उवट्ठावएज्जा' ततः पुनः छेदस्य वा परिहारस्य वा उपस्थापयेत् छेदस्य दीक्षाछेदस्य स्वीकाराय परिहारतपसो वा करणाय प्रवर्तयेदिति भावः । यदि तस्य चारित्रं सर्वथा नष्टं भवेत्तदा पुनः पञ्चमहाव्रतेषु उपस्थापयेदिति विवेकः ॥सू० २८॥
इदं सूत्रं पार्श्वस्थविषयकम् । एवं यथाछन्दे, कुशीले, अवसन्ने, संसक्ते चाऽपि चत्वारि सूत्राणि वक्तव्यानि 'जे भिक्खू० अहाछंद० इत्यादि 'जेभिखू० संसत्त०' पर्यन्तम् ॥सू०२९-३२
सूत्रम्-भिक्खू यगणाओ अवक्कम्म जहाछंदविहारपडिम उवसंपज्जित्ता विहरेजा से य इच्छेजा दोच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अस्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवद्वावेज्जा ॥ सू० २९ ॥
भिक्खू य गणाओ अवकम्म कुसीलविहारपडिमं उपसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए अस्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वापरिहारस्स वा उवहावेज्जा॥सू०३० ॥
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५०
व्यवहारसूत्र भिक्खू य गणाओ अवकम्म ओसन्नविहारपडिमं उपसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए अत्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स बा उवट्ठावेज्जा ॥ सू० ३१॥
भिक्खू य गणाओ अवकम्म संसत्तविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गण उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए अत्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स परिहारस्स वा उवहावेज्जा ॥ सू० ३२ ॥
छाया-भिक्षुश्च गणादवक्रम्य यथाछन्दविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत् स च इच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् , अस्ति चात्र शेषं पुनरालोचयेत पुनः प्रतिक्रामेत् पुनश्छेदस्य वा परिहारस्य वा उपस्थापयेत् ॥ सू० २९ ॥
भिक्षुश्च गणादवक्रम्य कुशीलविहारप्रतिमामुपसंपध खलु विहरेत् स चेच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपश्च खलु विहर्तुम्, अस्ति चात्र शेषं पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रामेत् पुनश्छेदस्य वा परिहारस्य वा उपस्थापयेत् ।। सू० ३० ॥ __भिक्षुश्च गणादवक्रम्य अवसन्नविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत् स चेच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहतम् अस्ति चात्र शेषं पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रामेत् पुनश्छेदस्य वा परिहारस्य वा उपास्थापयेत् ॥ सू० ३१ ॥
भिक्षुश्च गणादवक्रम्य संसक्तविहारप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत् स चेच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य विहर्तम् अस्ति चात्र शेषं पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रामेत् पुनश्छेदस्य वा परिहारस्य वा उपस्थापयेत् ।। सू० ३२ ॥
भाष्यम्-'भिक्खू य गणाओ' इति । एतानि चत्वारि सूत्राणि पार्श्वस्थविहारप्रतिमासूत्रवदेव व्याख्येयानि नवरं विशेषः केवलमेतावानेव यदत्र यथाछन्दादयश्चत्वारो वाच्याः । 'अहाछंदो' ति यथाछन्दः छन्दोऽभिप्राय इच्छा वा, यथा- स्वाभिप्रायानुसारं स्वेच्छानुसारं वा यथैव स्वस्याभिप्रायः यथैव वा स्वस्येच्छा तथैव यो विचरति स यथाछन्दः आगमनिरपेक्षवर्तनशील इत्यर्यः ॥ सू० २९॥
'कुसीले'–त्ति कुशीलः कुत्सितम् आगमनिषिद्धं शीलम् आचारः समितिगुप्त्यादिरूपो विद्यते यस्य स कुशीलः ।। सू० ३०॥
'ओसण्णे'-त्ति अवसन्नः, 'काले विणए' इत्यादिरूपज्ञानादिसामा चार्यासेवने अवसीदति दुःखमनुभवति, अथवा सामाचारी वितथाम् असत्यां कुर्वन् वर्त्तते सः साध्वाचारपालने औदासीन्यवान् साध्वाचारपालननिरपेक्ष इत्यर्थः ॥ सू० ३१ ॥
'संसत्ते' त्ति संसक्तः संसक्त इव संसक्तः पार्श्वस्थादीनां संविग्नानां वा सांनिध्यमासाद्य तत्तद्रपेण संनिहितदोषगुणः तत्रैव संसक्तो भवति यथा पार्श्वस्थादिषु मिलितः पार्श्वस्थसदृशो
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भाष्यम् उ० १ सू० ३३
परपाषण्डताप्राप्तस्य पुनरागमनविधिः ४१
भवति, संविग्नेषु मिलितथ्थ संविग्नसदृशो भवति बहुरूपनट इव यथावसरवर्त्तनशील इति भावः स च संक्लिष्टा संक्लिष्टभेदेन द्विविधः, तम्र - संक्लिष्ट संसक्तस्वरूपमाह
गाथा - पंचासवपवत्तो जो, गारवत्तिगसंजुओ । इत्थी गहि संबद्धो, संसत्तो किलिगो ॥१॥
छाया - पञ्चाश्रवप्रवृत्तो यो गौरवत्रिकसंयुतः । स्त्रीहिषु संबद्धः संसक्तः संक्लिष्टकः ॥ १ ॥
यः पञ्चसु आश्रवेषु हिंसादिषु प्रवृत्तः स पञ्चाश्रवप्रवृत्तः - हिंसाद्याश्रवेषु प्रवर्त्तनशीलः, गौरवत्रिकेन ऋद्धिरससातरूपेण संयुतः सहितः, तथा स्त्रीषु स्त्रीरूपेषु गृहिषु पूर्वपश्चात्संस्तुतेषु गृहस्थेषु सम्बद्धः स्त्रीगृहिभिः सह सम्बन्धकारको भवति स संक्लिष्टः संसक्तो ज्ञातव्य इति ॥ १ ॥ अथाऽसंक्लिष्टसंसक्तस्य स्वरूपं गाथाद्वयेनाह—
गाथा - पासत्ये पासत्थो, अहछंदे होइ सोवि अहछंदो । एवं कुसीलमज्झे, ओसन्ने यावि एमेव ॥ १ ॥
संसत्ते संसत्तो, पियधम्मे होइ सोवि पियधम्मो । एवं अकिलिट्ठो, संसत्तो सो मुणेयवो ॥२॥
छाया -- पार्श्वस्थे पार्श्वस्थो, (भवति), यथाछन्दे भवति सोऽपि यथाछन्दः । एवं कुसीलमध्ये, अवसन्ने चापि एवमेव ॥ १ ॥
संसक्ते संसक्तः प्रियधर्मणि भवति सोऽपि प्रियधर्माः ।
एवमसं क्लिष्टः संसक्तः स ज्ञातव्यः ॥ २॥
अनायोरर्थ छायागम्य इति न वित्रियते इति ।
अत्रेदं विज्ञेयम् — पार्श्वस्थस्य यत्र स्थाने यत् प्रायश्चित्तं कथितं तस्मिन्नेव स्थाने यथाछन्दस्य प्रायश्चित्तं विवर्धयेत् 'अहाछंदे विवड्ढेज्जा' इति वचनात् कथमेवं क्रियते ? आगमनिरपेक्षवर्त्तित्वेन कुप्ररूपणाप्ररूपको भवति, कुप्ररूपणाया बहुदोषत्वात्तस्य प्रायश्चित्ताधिक्यं प्रोक्तम् । अत्राऽयं विवेकः–पार्श्वस्थवं भिक्षुगणावच्छेदकाचार्योपाध्यायानां सर्वेषामपि संभवति, यथाछन्दत्वं तु केवलं भिक्षोरेव भवति ततः पार्श्वस्थविषयकं सूत्र त्रिसूत्रात्मकं भवति, यथाछन्दसूत्र तु एकरूपमेवेति ॥ सू० २९-३२ ॥
सूत्रम् -- भिक्खू य गणाओ अवकम्म परपासंडपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नत्थि णं तस्स तप्पत्ति के छेए वा परिहारे वा नन्नत्थ एगाए आलोयणाए ।। सू० ३३ ॥
व्य, ६
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४२
व्यवहारसूत्रे छाया-भिक्षुश्च गणादवक्रम्य परपाषण्डप्रतिमामुपसंपद्य खलु विहरेत्, स चेच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य स्खलु विहर्त्तम्, नास्ति खलु तस्य तत्प्रत्ययिकः कश्चित् छेदो वा परिहारो वा नाऽन्यत्र एकया आलोचनया ॥ सू० ३३ ॥
भाष्यम्-'भिक्व य' इति । 'भिक्खू य' यः कश्चिद् भिक्षुः राजाद्युपप्लवाऽशिवादिकारणात् 'गणाओ अवकम्म' गणात् स्वकीयगच्छात् अपक्रम्य पृथग्भूतो निस्सृत्येत्यर्थः 'परपासंडपडिमं उवसंपज्जित्ता णं' परपाषण्डप्रतिमा स्वकीयलिङ्ग परित्यज्य अन्यदीयं परदार्शनिकलिङ्गम् उपसंपच स्वीकृत्य खलु 'विहरेज्जा' विहरेत् यथावसरमुपद्रवकाले परकीयं लिङ्गं स्वीकृत्याऽपि अन्तःकरणेन पञ्चमहाव्रतं पालयन् विहरन् ‘से य इच्छेज्जा' स च परित्यक्तस्वकीयवेषो गृहीतपरकीयवेषः, अन्तर्भावितचारित्रः, स यदि 'दोच्चंपि' द्वितीयमपि वारं 'तमेव गणं उपसंपज्जित्ता गं' लिङ्गपरिवर्तनकारणे परिसमाप्ते सति तमेव गणं यस्मिन् गणे पूर्वमासीत् तमेव गच्छं पुनरपि उपसंपद्य प्राप्य खल्लु विहतम् इच्छेत्-वाञ्छेत् तदा 'नत्थि णं तस्स तप्पत्तिए' नास्ति खल्ल तस्य कारणवशात् स्वलिङ्ग परित्यज्य परपाषण्डलिङ्गं स्वीकृत्य पुनरपि स्वगच्छे समागच्छतः तत्प्रत्ययिकः परपाषण्डप्रतिमाग्रहणनिमित्तकः 'केइ छेए वा परिहारे वा' कश्चिच्छेदो वा परिहारो वा, तस्य तन्मूलकं छेदनामकं परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं न भवतीत्यर्थः । तत् किमत्र सर्वथैव प्रायश्चित्ताऽभावः ? तत्राह-'नन्नत्थ एगाए आलोयणाए' नान्यत्रैकया आलोचनया, आलोचना गुरुसमीपे स्वदोषाणां प्रकटनरूपा, तां विहाय नान्यत् प्रायश्चित्तं भवति, इति आलोचनामात्रमेव तस्य प्रायश्चित्तं भवति । राजाऽशिवायुपद्रवकारणमाश्रित्य परकीयलिङ्गधारणेनापि तस्य भावचारित्रसद्भावात् । यदि भिक्षुः रागद्वेषादिकारणेन स्वकीयगणादवक्रम्य परपाषण्डलिङ्गम् उपसंपद्य विहरेत्, कषायकारणे परिसमाप्ते सति द्वितीयमपि वारं तमेव गणमुपसंपद्य विहर्तुमिच्छेत्, अथै कुर्वतस्तस्य छेदो वा परिहारो वा प्रायश्चित्तमापद्येत अन्यदपि प्रायश्चित्तं भवति रागद्वेषादिकारणतः परकीयलिङ्गस्य धारणात्, तादृशस्य परकीयलिङ्गप्रतिपत्तौ संयमयतनाया असंभवाचेति विवेकः ।
अत्रेदं बोध्यम्-भिक्षुः तादृशस्य परपाषण्डस्य वेषं गृह्णाति यस्मिन् क्षेत्रे साधवो विचरन्ति तत्रत्यो राजा यस्य परपाषण्डस्य मतावलम्बी भवेत् एवं करणे राजा भिक्षु नोपद्रवति । कियत्कालपर्यन्तं तं लिङ्गं धारयेदित्याह-यावत्कालपर्यन्तं तत्र राजाघुपदवो नोपशाम्यति तावत्कालपर्यन्तं तल्लिङ्गधारणमावश्यकम् । तथा-उपशान्तेऽपि राजाघुपद्रवे यावत्कालं साधर्मिकाणां सार्थों न मिलति तावत्कालं तेनैव लिङ्गेन कालक्षेपं कुर्यात्, तत्क्षेत्रस्य सहसा त्यक्तुमशक्यत्वात् । कथित च भगवतीसूत्रस्य पञ्चविंशतितमे शतके संजयाधिकारे—'गृहस्थलिङ्गेऽन्यलिङ्गे वा छेदोपस्थापनीयं चारित्रं लभ्यते' इति । कारणमाश्रित्य लिङ्ग मुक्तवान् किन्तु यस्य चारित्रं निर्दोषं वर्तते
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भाष्यम् उ० १ सू० ३४
अवधावितस्य पुनरागमने विधिः ४३ स तत्र यदि कस्यापि नवदीक्षितस्य छेदोपस्थापनीयसम्बधी कालः समाप्तो भवेत्तदा तल्लिङ्गस्थितस्यैव निर्ग्रन्था(नियंठा)पेक्षया, तथा स्थानाङ्गकथितचतुर्भङ्गयपेक्षया च तं नवदीक्षितं चारित्रे स्थापयितुं कल्पते इति । अत्रदं तात्पर्यम्-पार्श्वस्थादिसंसक्तपर्यन्तानि पञ्च सूत्राणि भावलिङ्गपरित्यागविषयकाणि ततस्तत्र प्रायश्चित्तदानमभिहितम्, इई परपाषण्डप्रतिमासूत्र तु द्रव्यलिङ्गपरित्यागविषयकमतोऽत्रालोचनां मुक्त्वा नान्यत् प्रायश्चितं प्रतिपादितम् ॥ सू०३३ ॥
पूर्व भावलिङ्गद्रव्यलिङ्गपरित्यागे विधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं द्रव्यभावोभयलिङ्गं परित्यज्य गतस्य तत्रैव गणे पुनरागन्तुमिच्छतो विधिमाह-'भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अवकम्म ओहावेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नस्थि णं तस्स तप्पत्तिए केइ छेए वा परिहारे वा नन्नत्थ एगाए सेहोवट्ठावणियाए ॥ सू० ३४॥
छाया-भिक्षुश्व गणादवक्रम्याऽवधावेत् स चेच्छेत् द्वितीयपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहतं नास्ति खलु तस्य तत्प्रत्ययिकः कश्चित् छेदो वा परिहारो वा नान्यत्र एकया शैक्षोपस्थापनिकया ॥ सू०३४ ॥
भाष्यम् --'भिक्खू य' इति । 'भिक्खू य' यः कश्चिद् भिक्षुः 'गणाओ अवकम्म' गणादपक्रम्य गणात् स्वकीयगच्छात् अपक्रम्य निर्गत्य 'ओहावेज्जा' अवधावेत् पञ्चमहाव्रतपर्यायात् पराङ्मुखो भूत्वा गृहस्थपर्यायं प्रति गच्छेदित्यर्थः 'से य इच्छेज्जा' स चेच्छेत् यः गृहस्थपर्यायमाश्रितः स पुनरपि साधूनां सदुपदेशात् भाग्यवशाच्च भावपरावर्तनेन इच्छेत् 'दोच्वंपि तमेव गर्ग' द्वितीयमपि वारं तमेव गणम् 'उपसपज्जित्ता णं विहरित्तए' उपसंपद्य स्वीकृत्य विहत्तुं पुनः तत्रैव गणेदीक्षां गृहीत्वा संयमयात्रां निर्वाहयितुमिच्छेत्, पुनरागमनप्रश्ने कोदृशं प्रायश्चित्तं दातव्यम् ! न वा दातव्यम् ! इत्याह-'णस्थि णं तस्स' नास्ति खल तस्य 'तप्पत्तइए' तत्प्रत्ययिकः संयमत्यागनिमित्तकः 'केइ छेए वा परिहारे वा' कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, न भवति खलु तस्य कश्चित् छेदनामकं परिहारनामकं वा प्रायश्चितं, तस्मिन् छेदपरिहारप्रायश्चित्तस्य कारणाभावात् । तहिं किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह-'णण्णत्थ एगाए सेहोवद्यावणियाए' नान्यत्र एकया शैक्षोपस्थापनिकया तस्य शैक्षोपस्थापनिकां विहाय नान्यत् किमपि प्रायश्चित्तं दात्तव्यं स्यात् , मूलत एव तस्मै पुनर्नुतनामेव दीक्षां दद्यात् , तस्य सर्वथा गृहस्थपर्यायस्वीकृतत्वादिति ॥ सू० ३४ ॥
पूर्व पार्श्वस्थादिप्रतिमाविषये आलोचनाविधिः प्रोक्तः, साम्प्रतं भिक्षुणा अकृत्यस्थाने सेविते तस्यालोचनादिकं कस्य पार्श्वे कर्तव्यम् ? इति तद्विधिमाह-'भिक्खू य' इत्यादि ।
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व्यवहारसूत्रे
सूत्रम् - भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चद्वाणं सेवित्ता इच्छेजा आलोइत्तए जत्थेव अपणो आयरियउवज्झाए पासेज्जा तेसंतियं आलोएज्जा पडिकम्मेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा विउडेज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अब्भुट्ठेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (१) ।
४४
नो चेव अप्पणो आयरियउवज्झाए जत्थेव संभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सु बभागमं तस्संतियं आलोएज्जा पडिक्कम्मेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउट्टेज्जा विसोज्जा अकरणयाए अब्भुट्टेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा ( २ ) ।
नो चेव संभोइयं साहम्मियं जत्थेव अन्नसंभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुसुयं बभागमं तस्संतियं आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा विउट्टेज्जा विसोज्जा अकरणयाए अब्भुट्टेज्जा अहारिहं तत्रोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (३) ।
नो चेव अन्नसंभोइयं जत्थेव सारुवियं पासेज्जा बहुस्सुयं बभागमं तस्संतिथं आलोएज्जा पडिकमेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अन्भुज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (४) ।
नो चेव सारुवियं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागमं जत्थेव समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्सु बभागमंतस्संतिए आलोएज्जा पडिकम्मेज्जा निंदेज्जा गर हेज्जा विउविसोज्जा अकरणयाए अब्भुट्टेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (५)।
नो चेव समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्सुयं बभागमं जत्थेव सम्मंभावियाई चेइयाई पासेज्जा ते संतिए आलोएज्जा पडिकमेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा विउट्टेज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अब्भुट्टेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (६)।
नो चैव सम्भावियाई चेहयाई पासेज्जा, बहिया गामस्स वा नगरस्स वा निगमस्स वा रायहाणीए वा खेडस्स वा कब्बडस्स वा मडबस्स वा पट्टणस्स वा दोण मु हस्स वा आसमस्स वा संबाइस्स वा संनिवेसस्स वा पाईणाभिमुद्दे वाउदीणाभिमुद्दे वा करयलपरिगहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वएज्जा - एवइया मे अवराहा एवइक्खुत्तो अहं अवरद्धो अरहंताणं सिद्धाणं अंतिए आलोएज्जा पडिकमेज्जा निदेशा गरहेज्जा विट्टेज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अन्भुटुज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जासि ( 9 ) त्ति बेमि ॥ सू० ३५ ॥
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भाग्यम् उ० १ सू. ३५
आवियोपाध्यायायेकै काभावे आलोचनाविधिः ४५
छाया-भिक्षुश्चाऽन्यतरमकृत्यस्थानं सेवित्वा इच्छेदालोचयितुं यत्रैवात्मन आचार्योपाध्यायान् पश्येत् तेषाम् अन्तिके प्रतिक्रामेत् निंदेत् गत व्यावर्तेत विशोधयेत् अकरणतयाऽभ्युत्तिष्ठेत् यथार्ह तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत १ । नो चैवात्मन आचार्योपाध्यायान् यत्रैव सांभोगिकं साधर्मिकं पश्येत् बहुश्रुतं बह्वागभं तस्य अन्तिके आलोचयेत् प्रतिकामेत् निंदेत् गर्हेत व्यावर्तेत विशोधयेत् अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत् यथार्ह तपःकर्म प्रायश्चितं प्रतिपद्येत २ । ना चैव सांभोगिकं साधर्मिकं यत्रैवाऽन्यसांभोगिकं सार्मिकं पश्येत् बहुश्रुतं बह्वागमं तस्य अन्तिके आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निदेत् गहेंत व्यावत्तेत विशोधयेत् अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत् यथाहं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपधेत ३ । नो चैवान्यसांभोगिकं यत्रैव सारूपिकं पश्येत् बहुश्रुतं बह्वागमं तस्य अन्तिके आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निन्देत् गहेंत व्यावतत विशोधयेत् अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत् यथाहं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत ४ । नो चैव सारूपिकं यत्रैव श्रमणोपासकं पश्चात्कृतं पश्येत् बहुश्रुतं बह्वागमं कल्पते तस्यान्तिके आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निदेत् गहेंत व्यावतत विशाधयेत् अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत् यथाहं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत ५ । नो चैव श्रमणोपासकं पश्चात्कृतं यत्रैव सम्यग्भावितानि चैत्यानि पश्येत् तेषाम अन्तिके आलोचयेत प्रतिक्रामेत निदेत गत व्यावर्तत विशोधयेत अकरणतया अभ्युत्तिष्ठेत् यथाहं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत ६। नो चैव सम्यग्भावितानि चैत्यानि पश्येत् बहिग्रमिस्य वा नगरस्य वा निगमस्य वा राजधान्या वा खेटस्य वा कर्बटस्य वा मडम्बस्य वा पत्तनस्य वा द्रोणमुखस्य वा आश्रमस्थ वा संबाधस्य वा संनिवेशस्य वा प्राचीनाभिमुखो घा उदीचीनाभिमुखो वा करतलपरिगृहीतं शिरावर्त मस्तके अंजलिं कृत्वा एवं वदेत्-पतावंतो मेऽपराधाः एतावत्कृत्वः अहमपराद्धः, अर्हतां सिद्धानाम् अन्तिके आलोचयेत् प्रतिक्रामेत् निदेत् गर्तेत व्यावत्तत विशोधयेत् अकरणतयाऽभ्युत्तिष्ठेत् यथाई तपाकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत ७ इति ब्रवीमि ॥ ० ३५॥
॥ इति प्रथमोद्देशः समाप्तः ॥१॥ भाष्यम्-'भिक्खू य अन्नयरं' इति। 'भिक्खू य अन्नयरं' भिक्षुश्च अन्यतरत् अनेकेषु प्राणातिपातादिष्वकृत्येषु मध्ये यत्किमप्येकम् 'अकिच्चट्ठाणं' अकृत्यस्थानं कर्तुमयोग्यमकृत्यम् , अकृत्यं च तत्स्थानमकृत्यस्थानं प्राणातिपातादिलक्षणम् ‘सेवित्ता' सेवित्वा 'इच्छेज्जा' इच्छेत् अभिलषेत् 'आलोइत्तए' आलोचयितुं पापस्यालोचनां कर्तुमिच्छेत् तथाहि-मोहनीयकर्मोंदयाद्वा प्राणातिपातादिलक्षणस्याऽकृत्यस्य प्रतिसेवनं कृत्वा विगलितप्रमादो दुष्कृतकर्मणः कटुविपाकमालोच्य तादृशकर्ममलमपनेतुं तस्य कर्मणः प्रायश्चित्तं ग्रहीतुमिच्छेदिति ।
सत्यामप्यालोचनेच्छायां कुत्र कस्याने आलोचनां कुर्यादिति जिज्ञासायामाह-'जत्थेव' यत्रैव स्थानविशेषे ग्रामादौ उपाश्रयविशेषे वा 'अप्पणो आयरिय उवज्झाए पासेज्जा' आत्मन आचार्योपाध्यायान् पश्येत् स च आलोचनां कर्तुमिच्छुः आत्मनः स्वकीयगणसम्बन्धिनो नतु परगणाऽवस्थितान् आचार्योपाध्यायान् पश्येत् अकृत्यस्य दूरीकरणे सत्कृत्यस्य च करणे काल.
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४६
व्यवहारसूत्रे
क्षेपस्य अयोग्यत्वात् 'ते संतियं आलोएज्जा' तेषाम् अन्तिके आलोचयेत् तेषामाचार्योपाध्यायानामन्तिके समीपे आलोचयेत् आलोचनां कुर्यात् आचार्योपाध्यायानां समीपे स्वकृताऽतिचारजातं म्लायता वदनेन वचनद्वारा नतु भावभङ्गया जनान्तरमुखेन वा प्रकटीकुर्यात् । 'पडिकमेज्जा' प्रतिक्रामेत् पापात् प्रत्यावर्त्तितुं मिथ्यादुष्कृतं दद्यात् 'निंदेज्जा' निंद्यात् स्वोपार्जितपापकर्मणः स्वात्मानमेव साक्षीकृत्य निन्दां कुर्यात् 'गरहेज्जा' गर्हेत गुरु साक्षिकं विनिर्माय स्वकृतपापकर्मणो जुगुप्सां कुर्यात्, सर्वत्रापि निन्दनं गर्हणं च एतदुभयमपि परमार्थतस्तदैव भवति यदा पुनः तादृशकर्मकरणतः सर्वथैव प्रतिनिवर्त्तते तत आह- 'विउट्टेज्जा' व्यावत्र्त्तेत तस्मादकृत्यप्रतिसेवनात् सर्वथैव प्रतिनिवृत्तो भवेत् । प्रतिनिवर्त्तनेऽपि पापकर्मकरणतस्तादृशात्पापात् तदा मुच्यते यदा स्वकीयात्मनो विशोधिर्भवति, आत्मनो विशुद्धयभावे प्रतिनिवर्त्तनमपि निरर्थकमेवेत्याह- 'विसोहेज्जा' विशोधयेदात्मानं, पापमलप्रक्षालनेनात्मानं निर्मलीकुर्यात् । यथा भूमिलुठिताश्व उत्थाय शरीरसंलग्नरजोऽङ्गानि विधूय पूर्वापररजोनिर्गमेन निर्मलीभवति तथैव भिक्षुः पापरजो विधूय निर्मलीभवेत् सेयमात्मनो विशुद्धिः कृतस्य पापस्याsपुनःकरणतायामेव संभवति, अन्यथा कृतकर्मणः पुनःकरणतायामात्मविशुद्धेरसंभवात् तत्राह — 'अकर - याए अभुट्टेज्जा' अकरणतया पुनरभ्युत्तिष्ठेत् अकरणतया 'पुनरेवं न करिष्यामीति निश्चित्याऽभ्युत्तिष्ठेत् सावधानो भवेदित्यर्थः । पुनरकरणतया - अभ्युत्थानेऽपि पापाद्विशोधिः प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यैव भवति, नतु प्रायश्चित्तमन्तरेण पापापनोदनम्, अत आह- ' अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा' यथार्हं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत, यथार्ह यथायोग्यम् पापानुसारि येन पापनिवृत्तिर्भवेत्तादृशं तपःकर्म, तत्र तपोग्रहणमुपलक्षणं तेन छेदादिकं प्रायश्चित्तं पापनाशकं कर्म प्रतिपद्येत स्वीकुर्यात् १ | यदि आत्मीया आर्योपाध्याया न लभ्यन्ते तदा किं कुर्यात् ?
तत्राह
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'नो चेव' इत्यादि 'नो चेत्र अप्पणो' नो चैव नैव यदि पुनः आत्मनः स्वगच्छस्य स्वगच्छ - संबन्धिनः ‘आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्याया आसन्नप्रदेशे न विद्यन्ते दूरादिदेशव्यवधानतो वा तान् न पश्येत् तदा - ' जत्थेव संभोइयं साहम्मियं पासेज्जा' यत्रैव सांभोगिकं साधर्मिकं पश्येत्, आचार्योपाध्यायानामलाभे यत्रैव खलु स्थानविशेषे उपाश्रये वा सांभोगिकं सामानसामाचारी कं साधर्मिकं पश्येत् कीदृशगुणसंपन्नं साधर्मिकम् ? तत्राह - ' - 'बहुस्सुयं' इत्यादि । 'बहुस्सुयं - बभागमं ' बहुश्रुतं बह्रागमं तत्र बहुश्रुतं नामाऽनेकविधछेदादिसूत्र मर्मकुशलम् उबतविहारिणं क्रियापात्रं, बह्वागमं सूत्रतोऽर्थतश्च प्रभूतागमज्ञातारं पश्येत्, 'तस्संतियं आलोएज्जा' तस्याऽन्तिके आलोचयेत् इत्यादि यथार्हं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत, इतिपर्यन्तं पूर्ववद् व्याख्येयम् २। 'नो वेव संभोइयं साहम्मियं ' नो चैव खलु नैव यदि खलु सांभोगिकं साधर्मिकं, यदि पुनः स्वकीयं सांभोगिकं साधर्मिकं बहुश्रुतं बह्वागमं न पश्येत् तदा कस्य समीपे आलोच
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भाग्यम् उ०१ सू० ३५ आचार्योपाध्यायाचेकैकाभावे आलोचनाविधिः ४ नादिकं कर्त्तव्यम् ? तत्राह-'जत्थेव' इत्यादि । यदि पुनः सांभोगिक साधर्मिकं न पश्येदालोचनार्थ तदा 'जत्थेव अन्नसंभोइयं साहम्मियं पासेज्जा' यत्रैवान्यसांभोगिकं साधर्मिकं पश्येत् तत्रैव स्थानविशेष अन्यसांभोगिकम् अन्यगच्छीयं स्वसंभोगमर्यादाभिन्नं किन्तु साधर्मिकं समानधर्मिकं जिनोक्तपञ्चमहाव्रताराधकं पश्येत्, तमपि कथम्भूतं साधर्मिकं तत्राह-'बहस्सुयं' इत्यादि 'बहुस्सुयं बब्भागम' बहुश्रुतं छेदादिप्रायश्चित्तसूत्रपठनपाठनकुशलं बह्वागमं सूत्रार्थतः आगमज्ञानिनं पश्येत् 'तस्संतिए 'आलोएज्जा.' तस्यान्यसांभोगिकसाधर्मिकस्य सविधे आलोचयेत् इत्यादि सर्व पूर्ववद व्याख्येयम् ३ ।
'नो चेव अन्नसंभोइयं' नो चैव अन्यसांभोगिकं यदि पुनरन्यसांभोगिकं साधर्मिकं बहुश्रुतं बह्वागमं नो पश्येत् नो लभेत तदा 'जत्थेव सारूवियं पासेज्जा' यत्रैव स्थाने उपाश्रये वा सारूपिकं समानं रूपं सरूपं तत्र भवः सारूपिकः तं सारूपिकं स्वसमानवेषम्, स्वसमानालोचनाकरणेच्छुकं वा कश्चिन्मुनिं पश्येत् कथम्भूतं सारूपिकम् ? तत्राह-'बहुस्सुयं' इत्यादि 'बहुस्सुयं बब्भागमं बहुश्रुत बह्वागमं पूर्वोक्तप्रकारकं पश्येत् 'तस्संतियं आलोएज्जा.' तस्यामन्तिके मालोचयेत्, परस्परमालोचनां कुर्यात् इत्यादि पूर्ववदिति ४ ।
'नो चेव सारूवियं' नो चैव खलु सारूपिकं यदि पुनः सारूपिकं बहुश्रुतं बह्वागमं नैव खलु पश्येत् नो लभेत तदा 'जत्थेव' यत्रैव स्थाने 'समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा' श्रमणोपासकं श्रावकं कीदृशम् ? 'पच्छार्ड'–पश्चात्कृतं यः पूर्व साधुपर्याये स्थितः बहुश्रुतो बवागम आसीत् ततस्तं साधुपर्यायं मुक्त्वा गृहस्थो भवति स पश्चात्कृतः कथ्यते, तं पश्येत् कीदृशम् ? 'बहुस्सुयं बब्भागम' बहुश्रुतं बह्वागमं 'तस्सतिए' तस्यान्तिके 'आलोएज्जा.' आलोचयेत् आलोचनादि सर्वविधिं पूर्वोक्तप्रकारेणैव कुर्यात् ५।।
'नो चेव समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा' यदि पूर्वोक्तं श्रमणोपासकं पश्चास्कृतमपि न पश्येत् तदा-'जत्थेव सम्मंभावियाई' यत्रैव खलु स्थानविशेषे सम्यग्भावितानि जिनवचनवासितान्तःकरणानि 'चेइयाई' चैत्यानि 'चितिसं ज्ञाने' इति धातोनिष्पन्नं चैत्य, तानि सम्यग्भावयुक्ताः गृहस्था इत्यर्थः, येषामन्तःकरणे न रागो न चेा स्वपरगुणावगुणविवेकज्ञाः केऽपि गृहस्था भवेयुस्तान् पश्येत्, तन्मध्यात् कश्चिदेकं विवेकबुद्धया आलोचनादानकुशलं निरीक्षेत, बहुवचनं चात्र तादृशगृहस्थानां बहुत्वात् 'तेसंतियं आलोएज्जा.' तेषामन्तिके समीपे आलोचयेत्, इत्यादिपदानि पूर्ववदेव व्याख्येयानीति ६ ।
अथ यदि 'नो चेव सम्मंभावियाई नैव सम्यग्भावितानि चैत्यानि तादृशान् गृहस्थान् नो पश्येत् तदा-'बहिया गामस्स वा' बहिर्गामस्य वा ग्रामः वृतिवेष्टितो जननियासः, तस्य ग्रामस्य
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व्यवहारसूत्रे बहिबाह्यदेशे ग्रामस्य बहिःप्रदेशे, अथवा 'नगरस्स वा' नकरस्य नगरस्य वा, न करो गोमहिण्यादीनां विद्यते यत्र तत् नगरं अष्टादशकरवर्जितं, तस्य, 'निगमस्स वा' निगमम्य वा, तत्र निगमः प्रभूततरवणिग्जननिवासः, तस्य वा, 'रायहाणीए वा' राजधान्या वा, तत्र राज्ञाधिष्ठितं नगरं राजधानी, तस्या वा, 'खेडस्स का' खेटस्य वा, तत्र पांशुप्राकारनिबद्ध खेट, तस्य वा, 'कब्बडस्त वा' कर्बटस्य वा, तत्र कर्बटे क्षुल्लकनगरम्, तस्य वा, 'मडंवस्स वा' मडम्बस्य, वा तत्र मडम्बः सार्धगव्यूत्यन्तर्गतग्रामान्तररहितः, तस्य वा, 'पट्टणरस वा' अस्य - पत्तनस्य वा पट्टनस्य वेतिच्छाया, तत्र पत्तनं समस्तवस्तुप्राप्तिस्थानं जलस्थलनिर्गमप्रवेशं नगरम्, पट्टनं यत् नौभिरेव गम्यम् , उक्तञ्च
पत्तनं शकटैर्गम्य, घोटकै नौंभिरेव वा। नौभिरेव च यद्गम्य, पट्टनं तत्प्रचक्षते ॥१॥ इति
तादृशस्य पत्तनस्य वा पट्टनस्य वा, 'दोणमुहस्स वा' द्रोणमुखस्य वा, तत्र द्रोणमुखं जलस्थलपथोपेतो जननिवासः, तस्य वा, 'आसमस्स वा' आश्रमस्य वा, तत्राश्रमो नाम आश्रयविशेषः तापसादीनां, तस्य वा, 'संबाहस्य वा' संबाधस्य वा, संबाधो जनसंमर्दः यथा यात्रादौ दिग्म्य आगत्य स्थानविशेषे जनानां समावेशः, तस्य वा, 'संनिवेसस्स वा' संनिवेशः सेनानिवेशः समागतसार्थवाहादि निवासस्थानं वा, तस्य बहिः पूर्वोक्तानां प्रामादीनां बहिःप्रदेशे गत्वा तत्र 'पाईणाभिमुहे वा' प्राचीनाऽभिमुखो वा पूर्वाऽभिमुखो वा अथवा 'उदीणाभिमुहे वा उदीचीनाऽभिमुखो वा उत्तराभिमुखो वा सन् पूर्वदिगभिमुखः अथवा उत्तरदिगाभिमुखो वा भूत्वेत्यर्थः । अत्र पूर्वोत्तरयोर्दिशोर्ग्रहणं तयोरेवालोचनायां प्रशस्तत्वज्ञापनार्थ, पश्चिमद क्षिणयोर्दिशोरालोचनायामनर्हत्वादिति । तत्र गत्वा किं कुर्यात् ? तत्राह-'करकल.' इत्यादि । 'करयलपरिग्गहियं' सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु' तत्र करतलाभ्यां संहताभ्यां हस्ततलाभ्यां प्रकर्षण गृहीतः स्थापित इति करतलपरिगृहीतस्तम् , तथा शिरसि आवर्त्तते दूरमिव सीमितदेशं गत्वा पुनस्तत्रैव निवर्त्तते स आवतः चक्राकृतिः, तद्वत् यस्य, स एव शिरसावर्त्तः, तादृशं मस्तके अंजलिं कृत्वा स्थापयित्वा 'एवं वएज्जा' एवं वदयमाणप्रकारेण वदेत् , तदेव दर्शयति-'एवइया मे' इत्यादि, ‘एवइया मे अवराहा' एतावन्तो ममापराधाः अकृत्यस्थानसेवनरूपाः एतावन्तः सन्ति 'एवइक्खुत्तो अहं अवरद्धो' एतावत्कृत्वः एतावतो वारान् यावदहमपराद्धः अकृत्यस्थानसेवनरूपाऽपराधयुक्तो जातोऽस्मि, एवं सविनयमुक्त्वा 'अरहंताणं सिद्धाणं अंतिए' अहर्ता सिद्धानां समीपे तान् साक्षी कृत्येत्यर्थः 'आलोएज्जा' आलोचयेत्, सर्व स्वापराधजातं स्ववचसा प्रकटीकुर्यात् , प्रतिक्रामेत्, निंदेत, गर्हेत,
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भाष्म् उ० १ सू० ३५
प्रथमोदेशकसमाप्तिः ४९
व्यावर्त्तेत विशोधयेत् अकरणत्याऽभ्युत्तिष्ठेत्, यथाईं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत, इति । तथा च अर्हतां सिद्धानां पुरत तत्साक्षिपूर्वकम् आलोचयेदात्मनो दोषजातं प्रकटयेत्, प्रतिक्रामेत् मिथ्यादुष्कृतं दद्यात्, अत्मानं निदेत्, गर्हेत, अकृत्यकरणादात्मानं व्यावर्त्तेत विनिवर्त्तेत, कृतातीचारविधूननेन आत्मानं विशोधयेत्, अकृत्यस्य पुनरकरणातयाऽभ्युत्तिष्ठेत् यथायोग्यम् अकृत्यस्थानानुसारि तपःकर्म तपःकरणरूपं छेदादिप्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत स्वीकुर्यादिति । 'त्ति बेमि' इति ब्रवीमि एवं प्रकारेण सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रोवाच - यदहं प्रायश्चित्तविषयेऽश्रौषं तीर्थ
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करमुखात् तत्ते कथयामि, इति सूत्रार्थः ॥ सू० ३५ ॥
इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ- - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा कलितललित कलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त" जैनाचार्य ” – पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलाल ति विरचितायां “व्यवहारसूत्रस्य” भाष्यरूपायां व्याख्यायां
प्रथम उद्देशकः समाप्तः ॥ १ ॥
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अथ द्वितीयोदेशकः प्रारभ्यतेअथ प्रथमोद्देशकस्यान्तिमसूत्रेण सहास्य द्वितीयोदेशकप्रथमसूत्रस्य कः सम्बन्ध ! इत्यत्राह भाष्यकारः 'पुच्वं' इत्यादि । गाथा-पुन्वं एगो सेवइ, पावट्ठाणं च किंपि तस्स विही ।
वुत्तोऽणेगाणं इह, सो वुच्चइ एस संबंधो ॥१॥ छाया-पूर्वम् एकः सेवते पापस्थानं च किमपि तस्य विधिः ।
प्रोक्तः अनेकेषां इह स प्रोच्यते एष सम्बन्ध्रः ॥ १ ॥ व्याख्या-पूर्व प्रथमोदे शकस्य चरमे सूत्रे एकः कश्चित् भिक्षुः किमपि प्राणातिपातादिकं पापस्थान सैवते तस्य विधिः प्रोक्तः । इह अत्र द्वितीयोदेशकप्रथमसूत्रे यादीनां पापस्थानसेवने स विधिः प्रोच्यते, एषः पूर्वापरोदेशकयोः सम्बन्धो वर्त्तते ॥१॥
अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य द्वितीयोदेशकस्येदमादिसूत्रम्-'दो साहम्मिया' इत्यादि ।
सूत्रम्-दो साहम्मिया एगयो विहरंति एगे तत्थ अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ॥ सू० १॥
छाया-द्वौ साधर्मिको पकतो विहरतः एकस्तत्राऽन्यतरत् अकृत्यस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् स्थापनीय स्थापयित्वा कर्त्तव्यं वैयावृत्त्यम् ॥ सू० १॥
भाष्यम्-'दो साहम्मिया' इति । 'दो साहम्मिया' द्वौ साधर्मिकौ, तत्र द्वौ द्वित्वसंख्याविशिष्टौ समानः सदृशो धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणो विद्यते ययोस्तौ द्वौ साधर्मिको समानधर्मिणौ एकसामाचारीकावित्यर्थः 'एगयओ' एकतः एकत्र समुदितौ सन्तौ । 'विहरंति' विहरतः तिष्ठतः, 'एगे तत्थ' एकः कश्चित् तत्र द्वयोर्मध्ये 'अन्नयरं' अन्यतरत् यत् किमप्येकम् 'अकिच्चट्ठाणं' अकृत्यस्थानं प्राणातिपातादिलक्षणम् 'पडिसेवित्ता'.प्रतिसेव्य 'आलोएज्जा' आलोचयेत् स्वकृतातिचारादिकं स्वचसा स्वकीयाचार्यादिसमीपे प्रकाशयेत् , तत्र यदि अगीतार्थकः प्रतिसेवनां प्राणातिपातादिलक्षणं पापं प्रतिसेवितवान् तदा तादृशाय आचार्योंदिः ? शुद्धमेव उपवासाऽऽचामाम्लादिकमेव तपो दद्यात् न तु परिहारतपः, तस्य जडमतित्वेन परिहारतपोऽयोग्यत्वात् । . अथ यदि स प्रतिसेवको गीतार्थो भवेत् तर्हि तस्मै गीतार्थाय परिहारनामकं तपो दद्यात् । 'ठवणिज्जं ठावइत्ता' स्थापनीयं तद् यथायोग्यं दातव्यप्रायश्चित्तं स्थापयित्वा दत्त्वा तत्र योऽन्यस्तदितरः साधुः स तस्य 'करणिज्ज वेयावडियं' वैयावृत्त्यं भक्तपानादिना शुश्रूषणं करणीयं भवेदिति ॥ सू० १॥
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भाष्यम् उ०२ सू०१-४
सहविहरतां व्यादीनां तपोवहनविधिः ५९ सूत्रम्-दो साहम्मिया एगयओ विहरंति दोवि ते अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा एगं तत्थ कप्पागं ठावइत्ता एगे णिव्विसेज़ा अह पच्छा सेवि णिव्विसेज्जा ॥ सू० २॥
छाया-द्वौ साधर्मिकौ एकतो विहरतः द्वावपि तौ अन्यतरत् अकृत्यस्थानं प्रतिसेव्याऽऽलोचयेताम्, एकं तत्र कल्पस्थितं स्थापयित्वा एको निर्विशेत् अथ पश्चात् सोऽपि निधिशेत् ॥ सू० २॥
भाष्यम्-'दो साहम्मिया' इति । 'दोसाहम्मिया' द्वौ साधर्मिकौ, तत्र द्वौ समानधर्मिणौ एकगच्छीयौ द्वौ श्रमणौ इत्यर्थः 'एगयओ विहरंति' एकतः एकत्र द्वौ मिलित्वा विहरतः तिष्ठतः, तयोर्द्वयोर्मध्ये 'दोवि ते' द्वावपि तौ उभावपि 'अण्णायरं' अन्यतरत् अष्टादशपापस्थानेषु किमप्येकं, मोहनीयोदयात् 'अकिच्चट्ठाणं' अकृत्यस्थानं प्राणातिपातादिकं 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य तादृशान्यतराकृत्यस्थानस्य प्रतिसेवनं कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेताम् , स्वकीयं स्वकीयमपराधमाचार्यादेः पुरतः क्रमशः प्रकटीकुर्याताम् । तत्र यदि द्वावपि श्रमणौ गीतार्थी भवेताम् , ततः 'एगं तत्थ कप्पागं ठावइत्ता' तत्र तयोर्द्वयोर्मध्यात् एकं यं कमप्येकं कल्पकं कल्पस्थितमानुपारिहारिकं स्थापयित्वा 'एगे णिविसेज्जा' एकः तदन्यः कल्पस्थितादितरः श्रमणो निर्विशेत् गृहीतपरिहारतपः समापयेत् तयोर्मध्ये एकं कल्पस्थितं कल्पयित्वा तदन्यः परिहारनामकं तपः कुर्यात् । यश्च कल्पस्थितः स एव चाऽनुपरिहारिको भवति, तत्र तृतीयादेः साधोरभावात्, स च कल्पस्थित आनुपारिहारिकस्तस्य परिहारतपःप्राप्तस्य तावत्कालं वैयावृत्यं कुर्यात् यावत्तस्य परिहारतपो न समाप्यते इति । 'अह पच्छा सेवि णिविसेज्जा' अथ पश्चात् सोऽपि निर्विशेष, अथ तस्य पूर्वप्रतिपन्नस्य परिहारतपःसमाफ्यमन्तरं सोऽपि कल्पस्थितोऽपि निर्विशेत् परिहारतपो गृहीत्वा तत्समापयेत् । यः परिहारतपःकरणाय प्रवृत्तः तस्य परिहारतपःसमाप्त्यनन्तरं स्वयमपि स्वस्य पापापनोदाय परिहारतपः कुर्यादित्यर्थः । यश्च पूर्व परिहारतपः कृतवान् स कृतपरिहारतपःकर्मा कल्पस्थितो भूत्वा आनुपारिहारिको भवति तेन तस्य वैयावृत्त्यं करणीयं, यावत्पर्यन्तं तस्य परिहारतपसः समाप्तिर्भवेत् तावत्तस्य वैयावृत्त्यमाचरेत् । तृतीयस्य कस्यचिदपि श्रमणस्याऽभावे द्वावेव परस्परं क्रमशः तपोवाहको वैयावृत्यकारकश्च भवेदिति भावः । .
अत्रायं विवेकः-यदि पुन योर्मध्ये एकतरः अगीतार्थो भवेत् तदा शुद्धतपोरूपमेव तस्य प्रायश्चित्तं भवेत् न तु परिहारतपः, अगीतार्थत्वेन परिहारतपोयोग्यताया अभावात् । अथ यदि द्वावपि अगीतार्थावेव भवेताम् तदा द्वाभ्यामपि शुद्धमेव तपः प्रतिपद्यते न तु परिहारतपः, द्वयोरपि परिहारतपोरूपप्रायश्चित्तस्यायोग्यत्वादिति ॥ सू० २॥
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व्यवहारसूत्र
सूत्रम् - बहवे साहम्मिया एगयओ विहरंति एगे तत्थ अण्णयरं अकिञ्चद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, तत्थ ठवणिज्जं ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ॥ सू० ३ ॥ छाया - बहवः साधर्मिकाः पकतो विहरन्ति एकस्तत्राऽन्यतरद् अकृत्यस्थान प्रतिसेव्याऽऽलोचयेत् तत्र स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्त्यम् ॥ सू० ३॥
५३
भाष्यम् -'बहवे साहम्मिया' इति । 'बहवे साहम्मिया' बहवोऽनेके त्रयश्चत्वारः पञ्चादिका वा साधर्मिकाः श्रमणाः 'एगयओ विहरंति' एकतः सहैव विहरन्ति - तिष्ठन्ति 'एगे तत्थ' एक स्तत्र तेषु बहुषु साधुषु मध्ये एकः कश्चित् श्रमणः 'अण्णयरं अकिच्चद्वाणं' अन्यतरत् अकृत्यस्थानम् अनेकेषु प्राणातिपातादिलक्षणाऽकृत्यस्थानेषु मध्याद् अन्यतरद् यत् किमप्येकमकृत्यस्थानं प्रति सेवितवान् । 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य तादृशाऽन्यतरदकृत्यस्थानं सेवित्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् आचार्यादीनां पुरतः प्रकटीकुर्यात्, आलोचनानन्तरं ' तत्थ' तत्र तस्मिन्नालोचके साधौ 'ठवणिज्जं ठावइत्ता' स्थापनीयं स्थापयित्वा स्थापनीयं दातुं योग्यं परिहारतपोरूपं प्रायश्चित्तं स्थापयित्वा आरोप्य तं परिहारतपसि प्रवेश्येत्यर्थः तदितरः कोऽपि साधुः कल्पस्थित आनुपारिहारिको भूत्वा तेन आनुपारिहारिकेण कल्पस्थितेन तस्य 'करणिज्जं वेयावडियं' वैयावृत्त्यम् आहारादिना शुश्रूषणं करणीयमिति ।
अयं भावः--ते बहवः साधर्मिका गीतार्था भगीतार्था मिश्रा वा भवेयुः तत्र यदि rat द्वौ त्रयश्चतुरादिका वा अकृत्यस्थानप्रतिसेविनो भवन्ति तदा तेषाम् आनुपारिहारिकत्वं कल्पस्थितत्वं तपोवाहकत्वं वैयावृत्यकारकत्वं च सर्वं यथायोग्यं यथोचितं विधिना करणीयमिति ॥ सू० ३ ॥
सूत्रम् - बहवे साहम्मिया एगयओ विहरंति सव्वेवि ते अण्णयरं अकिच्च - द्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, एगं तत्थ कप्पागं ठावइत्ता अवसेसा णिव्विसिज्जा अह पच्छा सेवि णिव्विसेज्जा ॥ सू० ४ ॥
छाया - बहवः साधर्मिका एकतो विहरन्ति सर्वेऽपि ते अन्यतरत् अकृत्यस्थानं प्रतिसेव्याऽऽलोचयेयुः, एक तत्र कल्पकं स्थापयित्वा अवशेषाः, निर्विशेयुः, अथ पश्चात् सोऽपि निर्विशेत् ॥ सू० ४ ॥
भाष्यम् -'बहवे साहम्मिया' इति 'बहवे साहम्मिया' बहवोऽनेके साधर्मिकाः 'एगयओ विहरंति' एकतः सहैव विहरन्ति - तिष्ठन्ति, कदाचित् 'सव्वेवि ते' सर्वेऽपि ते श्रमणाः 'अण्णयरं अकिच्चद्वाणं' अन्यतरद् अकृत्यस्थानं प्रति सेवितवन्तः 'पडिसेवित्ता' तादृशाऽन्यतरद् अकृत्यस्थानं प्रतिसेव्य ‘आलोएज्जा' आलोचयेयुः पापस्थानस्याssलोचनां कुर्युः, आलोचनां कर्त्तुमिच्छेयुः, तदा 'एगं तत्थ कप्पागं ठावइत्ता' एकं कमप्येकं श्रमणं तत्र प्रायश्चित्तकाले कल्पकं कल्पस्थितं स्थापयित्वा
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भाष्यम् उ० २ सू० ५-६
ग्लान परिहारकल्पस्थित भिक्षोस्तपोवाहनविधिः ५३ तत्रैकं कल्पस्थितं कृत्वा 'अवसेसा निव्विसिज्जा' अवशेषाः कल्पस्थिताऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि श्रमणा निर्विशेयुः परिहारतपो गृहीत्वा तत् समापयेयुः । 'अह' अथ ततः परिहारतपसि प्रविष्टानां सर्वेषां परिहारतपसः समाप्यनन्तरकाले 'पच्छा' पश्चात् 'सेवि णिव्विसेज्जा' सोऽपि कल्पस्थितोऽपि निर्विशेत् परिहारतपो गृहीत्वा तत्समापयेत् । सर्वेषां प्रायश्चित्तकरणमावश्यकमिति एकः कल्पस्थितो भूत्वा स सर्वानपि परिहारतपः कारयति । तदनन्तरं तेषां परिहारतपःसमाप्त्यनन्तरं स स्वयमपि परिहारतपः कुर्यादिति भावः ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम् - परिहारक पडिए भिक्खू गिलायमाणे अण्णयरं अकिच्चद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा से य संथरेज्जा ठवणिज्जं ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं,
से यणो संथरेज्जा अणुपारिहारिएणं करणिज्जं वेयावडियं, से य संते बले अणुपारिहारिएणं कीरमाणं वेयावडियं साइज्जेज्जा से य कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ।। ० ५ ॥
छाया - परिहारकल्पस्थितो भिक्षुग्लयन् अन्यतरत् अकृत्यस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् स च संस्तरेत् स्थापनोयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्त्यम्, ।
स च नो संस्तरेत् अनुपारिहारिकेण करणीयं वैयावृत्यम् स च सति बले अनुपारिद्वारिकेण क्रियमाणं वैयावृत्त्यं स्वादयेत् तच्च कृत्स्नं तत्रैवारोहयितव्यं स्यात् ॥ सू० ५ ॥
भाष्यम् -- 'परिहारकप्पट्ठिए' इति । 'परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू' परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः परिहारनामके तपसि स्थितो वर्त्तमानः परिहारतपो वहन् 'गिलायमाणे' ग्लायन् रोगादिकारणेन ग्लानः सन् 'अण्णयरं अकिच्चद्वाणं' अन्यतरत् यत् किमप्येकम् अकृत्यस्थानं प्रतिसेवितवान्, 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य आलोएज्जा' आलोचयेत् स्वकृतापराधजातं स्ववचसा आचार्यादिसमीपे प्रकाशयेत् 'से य संथरेज्जा' स च संस्तरेत्, स च ग्लानः रोगादिना पीडितोऽपि यदि तादृशाकृत्यस्थानप्रतिसेवनसं जातपापविशुद्धयर्थं संस्तरेत् परिहारतपसो वहने समर्थों भवेत् ग्लायन्नपि अकृत्यस्थानप्रतिसेवनविशुद्धिबुद्धया परिहारनामकतपोवहनाय समुद्यतो भवेत् इत्यर्थः तदा तस्य 'ठवणिज्जं ठावइत्ता' स्थापनीयं स्थापयित्वा तदुचितप्रायश्चित्तं दत्त्वा एकेन केन - चित् स्थापितेन कल्पस्थितेनाऽनुपारिहारिकेण परिहारतपो वहतः श्रमणस्य 'कर णिज्जं वेयावडिय' वैयावृत्त्यं भक्तपानादिना करणीयं तस्य पारिहारिकस्याऽनुपारिहारिकेण तथाविधा परिचर्या कर्त्तव्या येन निर्विघ्नं यथा भवेत् तथा परिहारतपसः संपूर्णता भवेदिति ।
'से य णो संथरेज्जा' स च परिहारतपोवाहको रोगादिपीडितत्वेन धृतिसंहननबला - भावात् न संस्तरेत् परिहारत पोवहने कष्टमनुभवन् समर्थो न भवेत् तदा 'अनुपारिहारिएणं करणिज्जं वेयावडियं' अनुपारिहारिकेण तस्य वैयावृत्त्यं यथायोग्यं परिचर्यारूपं शुश्रूषणं
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व्यवहारसूत्रे
करणीयम् । 'सेय संते बले' स चाऽधिकृतः पारिहारिकः सति धृतिसंहननादिसामर्थ्ये विद्यमानेऽपि निगूहितबलवीर्यः सन् 'अणुपारिहारिएणं कीरमाणं वेयावडियं' अनुपारिहारिकेण क्रियमाणं वैयावृत्त्यं स्वकीयपरिचर्या रूपम् 'साइज्जेज्जा' स्वादयेत् अनुमोदयेत् 'सम्यक् कृतं भवता यत् ग्लानस्य मे एतादृशं वैयावृत्त्यं कृतम्' इत्येवंरूपेणाऽनुमोदनं कुर्यात् । बलसद्भावे वैयावृत्त्यस्याऽनुमोदनेन प्रायश्चित्तमापद्यतेऽतः 'से य कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया' तदपि अनुमोदनादिजनितं प्रायश्चितं कृत्स्नं सर्वं तत्रैव वहमाने परिहारतपस्येवाऽनुग्रह कृत्स्नेनाऽऽरोपयितव्यं स्यात् अन्यतराऽकृत्य प्रतिसेवनजनितपापस्यापि निवृत्त्यर्थं यदपरं प्रायश्चित्तं प्राप्तं तस्यापि समावेशस्तस्मिन्नेव परिहारतपसि कर्त्तव्यः नतु प्रायश्चित्तान्तरं दातव्यमिति भावः ।
पारिहारकस्य वैयावृत्यप्रकारो यथा - यदि पारिहारको भाण्डं प्रत्युपेक्षितुं न शक्नोति तदाऽनुपारिहारिको भाण्डं प्रत्युपेक्षते, भिक्षार्थं हिण्डितुं न शक्नोति तदा भिक्षामानीय ददाति । एवमुत्तुं न शक्नोति तदा तमुत्थापयति, एवमुपवेष्टुमशक्तमुपवेशयति, लेपादिखरण्डितं पात्र बन्मादि प्रक्षालयितुं न शक्नोति तदा तत् प्रक्षालयति । एवं पारिहारको यद् यत् कार्यं कर्त्तुं न शक्नोति तत्तःसर्वं तस्यानुपारिहारिकः करोति । एवंविधं यथायोग्यं परिचर्याकरणरूपं वैयावृत्त्यमनुपारिहारिकेण करणीयं भवेत् । तच्च तावत् करणीयं यावत् परिहारिको बलिष्ठो जायते । यत्पुनः कर्त्तुं सामर्थ्यं भवेत् तदा तेन स्वयमेवानिगूहितबलवीर्येण करणीयं न तु स्वस्य बलवीर्थं गोपनीयमिति भावः || सू० ५ ॥
सूत्रम् - परिहारकष्पट्ठियं भिक्खु गिलायमाणं णो कप्पड़ तस्य गणावच्छेयमस्स णिज्जूहित्तए अगिला तस्य करणिज्जं वैयावडियं जाव तओ रोगायंकायो विष्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सए नामं चक्हारे पहवियच्वे सिया || सू० ६ ॥
छाया - परिहार कल्पस्थितं भिक्षं ग्लायन्तं न कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निर्यूहितुम्, अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यं तावद् यावत् ततो रोगातङ्काद्विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् तस्य यथा लघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू० ६ ॥
भाष्यम् – 'परिहारकप्पट्ठियं' इति । 'परिहारकप्पट्ठियं' रिहारकल्पस्थितं परिहारनामके तपसि स्थितं परिहारतपो वर्हतमित्यर्थः । 'भिक्खुं' भिक्षु' 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं ग्लानिं शरीरमान्यमुपागतं परिहारतपसा वातपित्ताद्युपचयापचयवशात् शरीराऽस्वास्थ्यमुपगतमित्यर्थः ' णो कपड' नो कल्पते नोपयुज्यते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य यस्य गणावच्छेदकस्य समीपे आगतो ग्लायन् साधुस्तं तस्य गणावच्छेदकस्य न कल्पते 'णिज्जूहितए' निर्यूहितु निवारयितुं वैयावृत्याSकरणादिना निष्कासयितुं न कल्पते । किन्तु 'अगिलाए' अग्लान्या ग्लानिरहितो यथा भवेत् तथा राजा षेष्टिमिव 'वेठ,' 'बेगार' इति प्रसिद्धं तद्वत् राजनिर्देशमिवानुमन्यमानेन ' सर्वज्ञादेश:' इति बुद्धया कर्म
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भाष्यम् उ० २ सू० ६-८ ग्लानाऽनवस्थाप्यपाराञ्चिकभिक्षोस्तपोवाहनविधिः ५५ निर्जरणनिमित्तं 'तस्स करणिज्ज वेयावडियं' तस्य रोगादिना ग्लानिमुपगतस्य साधोवीवृत्त्यं करणीयं गणावच्छेदकेन । कियत्कालपर्यन्तं वैयावृत्त्यं करणीयम् ? तत्राह-'जाव' इत्यादि, 'जाव तो रोगायंकाओ विप्पमुक्को' यावता कालेन तस्मात् शरीरसंस्थितात् रोगातङ्कात् विप्रमुक्तो विनिर्मुक्तो भवेत् सावत्तस्य रोगातको नोपशाम्यति तावदित्यर्थः 'तो पच्छा' ततः पश्चात् रोगविमुक्त्यनन्तरम् 'तस्स' तस्य पारिहारिकस्य वैयावृत्त्यकारकस्य च 'अहालहुस्सए नामं ववहारे' यथालघुस्वक; स्तोको नाम व्यवहारः प्रायश्चित्तं, यथालघुस्वक इति स्तोकोऽल्पः, व्यवहारः प्रायश्चित्तम् । उक्तञ्च
"ववहारो आलोयण, सोही पायच्छित्त होति एगट्ठा । थोवो अहालहुस्सो, पट्ठवणा होई तदाणं' ॥१॥ व्यवहारः अलोचना शोधिः प्रायश्चित्तं भवन्ति एकार्थाः । तोको यथालघुस्वकः प्रस्थापना भवति तदानं (प्रायश्चित्तदानम्) ॥
'पद्ववियव्वे सिया' प्रस्थापयितव्यो दातव्यः स्यात्, रोगविमुक्त्यनंतरं तस्मै पारिहारिकाय यथालघुस्वकं स्तोकं प्रायश्चित्तं दातव्यं भवेदिति भावः । अत्र यथा लघुस्वकनामकं यत् प्रायश्चितं दातव्यत्वेन कथितं तत् पारिहारिकस्य रोगातङ्कावस्थायां यदतिचारजातमापन्नं भवेत्तद्विषयकम्, वैयावृत्यकारकस्य तु तन्निमित्तमाहासनयनादिविषये यदापन्नं तद् वेदितव्यम् एवमग्रेऽपि सर्वत्र वाच्यम् । अयं यथालघुस्वको व्यवहारः पञ्चदिवसात्मको भवति, तं च सद्योरोगमुक्तत्वेन निर्विकृतिकं कुर्वन् पूरयतीति । उक्तञ्च "निव्विगियं दायव्वं, अहालहुस्संमि सुद्धो व" इति निर्विकृतिक दातव्यं यथालधुस्वके शुद्धो वा (क्रियते) इति च्छाया । अथवा यस्मिन् श्रमणे यथालघुस्वको व्यवहारः प्रस्थापयितव्यो भदेत् तदा यदि यः प्रवचनप्रभावनादिमहति कारणे समुपस्थिते मनसि पापभयं निधाय प्रतिसेवनमकरोत् तदा स आलोचनाप्रदानमात्रत व शुद्धः क्रियते तचाचार्याद्यधीनमिति विवेकः ॥ सू० ६॥
सूत्रम्--अणवठ्ठप्पं भिक्खू गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहितए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तो रोगायंकाओ विप्पमुक्को तओ पच्छा तस्स अहालहस्सए नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥ सू० ७॥
छाया -- अनवस्थाप्यं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निर्वृहितुम् अग्लान्या तस्य करणीयं वैगवृत्त्यं यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः ततः पश्चात् यथा लघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू० ७॥
भाष्यम्-'अणवठ्ठप्प' इति । 'अणवठ्ठप्पं' अनवस्थाप्यम्-अवस्थापयितुमयोग्यं चौर्यादिरूपं नवमं प्रायश्चित्तम् तद्विपयकतपोऽनाचरणेन तद् योगात् साधुरपि अनवस्थाप्यः पुनरुत्थाप
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व्यवहारस्ने नायामयोग्यः अनाचीर्णतपोविशेषत्वेन पुनर्महाव्रतेषु स्थापितुमनर्ह इत्यर्थः, स च त्रिविधो भवति, उक्तञ्च बहत्कल्पसूत्रे
"तो अणवट्टप्पा पण्णत्ता तं जहा--साहम्मियाणं तेणं करेमाणे १, अण्णधम्मियाणं तेणं करेमाणे २, हत्थादाणं दलमाणे" ३ इति ।
त्रयः अनवस्थाप्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-साधर्मिकाणां स्तैन्यं कुर्वाणः १, अन्यधार्मिकाणां स्तैन्यं कुर्वाणः २, हस्तातालं ददानः । इतिच्छाया। अस्य व्याख्या तत्रैव (बृहत्कल्पसूत्रे) तत्र द्रष्टव्या ।
तं तादृशं नवम-प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिपन्नं 'भिक्खु भिखं 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं रोगातङ्कादिना कदर्थितशरीरम् 'नो कप्पई' नो कल्पते 'तस्स गणाच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्जूहित्तए' निर्वृहितुं निराकर्तुम् । शेष सर्व परिहारकल्पस्थितसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० ७॥
सूत्रम्-पारंचियं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगातंकाओ विष्पमुक्के तओ पच्छा तस्स अहा लहुस्सगे नामं ववहारे पठवियव्वे सिया ॥ सू० ८ ॥ ___ छाया-पाराञ्चितं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निहितम् अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यं यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥सू० ८॥
भाष्यम्--'पारंचियं' इति । 'पारंचियं' पाराश्चितं, पाराञ्चितं नाम दशमप्रायश्चित्तं तद्योगात् साधुरपि पाराञ्चितः पाराञ्चिको वा, तत्र पारं तीरं तपःप्रतिसेवनेनापराधस्य अश्चति गच्छति ततो दीक्षते यः स पाराञ्चिः स एव पाराञ्चितः पाराञ्चिको वा, यद्वा पारम् , अन्तं प्रायश्चित्तानां तत उत्कृष्टतरप्रायश्चित्ताभावादपराधानां पारमञ्चति गच्छतीत्येवंशीलं पाराञ्चितं, तद्योगात् साधुरपि पाराञ्चितः । उक्तञ्च व्यवहारसुत्रे--
'तओ पारंचिया पण्णत्ता तंजहा-दुढे-पारंचिए १, पमते पारंचिए २, अन्नमन्नं करेमाणे पारंचिए ३' इति ।
__त्रयः पाराञ्चिताः प्रज्ञताः, तद्यथा-दुष्टः पाराञ्चितः १, प्रमत्तः पाराञ्चितः २, अन्योन्यं कुर्वाणः पाराञ्चितः ३ । इतिच्छाया । ... व्याख्या तत्रैव द्रष्टव्येति । तं तादृशं पाराञ्चितं दशमप्रायश्चित्तस्थानमापन्नम् 'भिक्खु' भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं रोगातङ्कादिना ग्लानिमुपगच्छन्तम् 'नो कप्पई' नो कल्पते 'तस्सगणावच्छे यगस्स निज्जूहित्तए' तस्य गणावच्छेदकस्य निर्वृहितम् । इत्यादि सर्व पूर्ववद् व्याख्येयम् ॥ सू० ८॥
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भाष्यम् उ० २ सू० ९-१३
क्षिप्तचित्तादिभिक्षूणां वैयावृत्त्यविधिः ५७ सूत्रम्-खित्तचित्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सए नामं ववहारे पट्टवियत्वे सिया॥ सू०९॥
छाया-क्षिप्तचित्तं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निहितुम् अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यं यावत्ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् । सू० ९॥
भाष्यम्--'खित्तचित्त' क्षिप्तचित्तं क्षिप्तं भयोद्वेगादिना विक्षिप्तमवशं चित्तं यस्य स क्षिप्तचित्तः भ्रान्तचित्त इत्यर्थः । यो रागतो भयतो राजाद्यपमानतो वा, इत्यादिकारणवशाद् भ्रान्तचित्तो भवेत् , तम् भिक्खुं' भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं रोगातकादिना ग्लानिमुपगच्छन्तं 'नो कप्पई' नो कल्पते तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य निज्जूहित्तए' निर्वृहितुं निराकर्तुम् इत्यादि सबै पूर्ववदेव व्याख्येयम् ।। सू० ९ ॥
सूत्रम्--दित्तचित्तं भिक्खु गिलायमाणं नोकप्पड तस्स गणावच्छेयगस्स निजूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज यावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तो पच्छा तस्स अहालघुस्सगे नामं वव हारे पट्टवियन्वे सिया ॥ सू० १०॥
छाया--दीप्तचित्त भिर्धा ग्लायंतं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निर्वृहितुम् , अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यम् यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः । ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू० १० ॥
भाष्यम्--'दित्तचित्तं' दीप्तचित्तम् , तत्र दीप्तं प्रदीप्तम् इन्धनेनाऽग्निरिव अकस्माल्लाभदुर्जेयशत्रुजय-मदादिना मानसिकरोगेण वा दीप्तमिव दीप्तं चित्तं यस्य स अकस्माल्लाभादिना विक्षिप्तचित्त इत्यर्थः, तं तादृशं दीप्तचित्तम् 'भिक्' भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं ज्वरादिरोगाभिभूतं 'नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निहित्तए' न कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य नियूहित्तुं निराकर्तुम् , इत्यादि सर्वं पूर्ववदेव ज्ञातव्यम् ॥ सू० १०॥
सूत्रम्-जक्खाइट्ट भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्य गगावच्छेयगस्स निज्जहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तो रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नामं क्वहारे पट्टवियव्वे सिया ॥ सू० ११ ॥
छाया- यक्षाविष्टं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निर्वृहितुम् , अग्लान्या तस्य करणीयम् वैयावृत्त्यं यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् । सू० ११ ।
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५८
व्यवहारवे
भाष्यम् – 'जक्खा इट्ठे' यक्षाविष्टम्, यक्षो नाम व्यन्तरदेव विशेषः, तेन पूर्वभवादिवैमाश्रितेन रागरञ्जितेन वा आविष्टः यक्षाविष्टस्तं तादृशं भिक्खु' भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं ग्लानिमुपगच्छन्तम् यक्षावेशेनैव ग्लानभावमुपगतं सन्तम् 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'तस्स मावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्जू हित्तए' निर्यूहितुं निराकर्तुम्, इत्यादि सर्वे पूर्ववदेव व्याख्यातव्यम् । सू० ११ ॥
,
सूत्रम् - उम्मायपत्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पर तस्स गणागच्छेयगस्स निहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्यमुक्को, तओ पच्छा अहालहस्सगे नामं ववहारे पद्वत्रियव्वे सिया || सू० १२ ॥
छाया - उन्मादप्राप्तं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य नियूंहितुम् अग्लान्या तस्य करणीय वैयावृत्त्यं यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू० १२ ॥
भाष्यम् – 'उम्मायपत्तं ' उन्मादप्राप्तम्, मोहनीय कर्मोदयेन वातपित्ताद्युद्रेकेण वा उन्माद प्राप्तः यः कश्चिद् तं तादृशमुन्मादप्राप्तं 'भिक्खु' भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं तद्वशाज्ज्वरादिरोमाकान्तं 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्जू हित्तए' नियूंहितुं निराकर्तुम्, इत्यादि सर्वं पूर्ववदेव व्याख्यातव्यम् || सू० १२ ॥
सूत्रम् - उवसग्गपत्तं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पर तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जू हित्तए, अगिलाए तरस करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पक्को, ओ पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियन्वे सिया || सू० १३ ॥
छाया - उपसर्गप्राप्तं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते गणावच्छेदकस्व नियूंहितुम् अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यम् यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू० १३ ॥
भाष्यम् – 'उवसग्गपत्त' उपसर्गप्राप्तम्, तत्रोपसर्गो देवमनुष्यतिर्यक्समुद्भूतः, थथा देवः पूर्वभववैरमासाद्य बीभत्स रूपदर्शनादिना उपसर्गं करोति, मनुष्यो वा द्वेषेण ईर्ष्याया वा उपसर्गं करोति, तिर्यक् - सिंहव्याघ्रादिर्वा उपसर्ग करोति तादृशं त्रिविधोपसर्गप्राप्तम् ' भिक्खु ' भिक्षु श्रमणं 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं ज्वरादिरोगेण दैन्यमुपगच्छन्तम् 'नो कप्पर' नो कप 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्जू हित्तए' निर्यूहितुं निराकर्त्तुम् । शेषं पूर्ववदेव || सू० १३ ॥
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माध्यम् उ० २ २०१४-१५
साधिकरणादिभिषगां वैयावृत्यविधिः ५९ सूत्रम्-साहिगरणं भिक्खं गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स, निहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तो रोगायंकाओ विषमुक्के तो पच्छा अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥ सू० १४ ॥
छाया-साधिकरण भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निहितम् , अम्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यं यावत् स तस्मात् रोगातङ्कद् विप्रमुक्तो भवेत्, ततः पश्चात् तस्य यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू० १४ ॥
भाष्यम् -'साहिगरणं' साधिकरणम् , अधिकरणं - कलहः, क्रोधमानमायालोभद्वेषादि. अनितः, तेन सह विद्यते इति साधिकरणः कलहजन्यक्रोधयुक्तस्तं साधिकरणं 'भिक्खु भिक्षु 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं कलहजनितज्वरादिभिग्लानिमुपगतम् 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्मूहित्तए' निहितुं निराकर्तुम् । शेष पूर्वक्त् ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम्-सपायच्छितं भिक गिलायमाणं नो कप्पई तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहिनए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावड़ियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के, तो पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नाम ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥ सू०१५।।
छाया-सप्रायश्चितं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य निहितुम् , मालाग्या तस्य करणीय वैयावृत्त्यं यावत् रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् तस्य यथाघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ।। सू० १५ ॥
भाष्यम् –'सपायच्छित सप्रायश्चित्तं, तत्र प्रायश्चित्तं परिहारकादितपोविशेषः, तेन प्रायश्चित्तेन सहितो युक्त इति सप्रायश्चित्तः, तं सप्रायश्चित्तम् 'भिक्खं' भिडं 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं प्रायश्चितबाहुल्याद्भयभीतत्वेन संजातज्वरादिकम् 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गगावच्छेदकस्य 'निज्जूहित्तए' निथुहितुं निराकर्तुम्, शेषं व्याख्यातपूर्वम् ॥ स ० १५॥
सूत्रम्-भत्तपाणपडियाइक्खियं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पड तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्नं वेयावडियं जाव तो रोगायंकाओ विप्पमुक्के, तो पच्छा अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥सू०१६॥
छाया -भक्तपानप्रत्याख्यातं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य नियूंहितम् , अग्लान्या तस्य करणीय वैयावृत्त्यम् यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ सू०१६ ॥
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व्यवहारसूत्रे भाष्यम्-'भत्तपाणपडियाइक्खियं' भक्तपानप्रत्याख्यातम् , भक्तमोदनादिकं, पानं च जलादिकम् इति भक्तपाने, ते उभे भक्तपाने प्रत्याख्याते परित्यक्ते येन स भक्तपानप्रत्याख्यातः प्रत्याख्यातभक्तपानः तं 'भिक्खु' भिडं 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं वातपित्तादिव्याधिना प्रस्यमानं 'नो कप्पई' नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेय गस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्जूहित्तए' निहितुं निराकत्तुं न कल्पते किन्तु यदि तस्य रोगादिकारणाद् चिरजीवनेन भयमुत्पद्यते यथा'नाद्याप्यहं म्रिये, न जानेऽग्रे रोगादिना का का व्यथा भोग्या भविष्यती'-ति व्यग्रचित्तं तं धैर्यगर्भितवाक्यैराश्वासयेत् यथा- भविष्यति रोगान्मुक्तिः सर्व समीचीनं भविष्यती-ति नोद्विग्नतां भजतु भवान्' इत्येवमाश्वास्य तं तत्र दृढोकुर्यात् किन्तु न नियूहेत् , न निस्सारयेत् , अपि तु 'अगिलाए' अग्लान्या 'कदायं नीरोगो भविष्यति, कियत्कालं यावदस्य वैयावृत्त्यं करणीयम्' इत्याद्यात्मसंकोचराहित्येन निर्जराभावं मनसि निधाय दृढमनोभावेनेत्यर्थः 'करणिज्ज वेयावडियं' तस्य वैयावृत्त्यं करणीयं येन तस्य तद् भक्तपानप्रत्याख्यानाख्यमनशनवतं चित्तसमाधिपूर्वकं समाप्यते । तद् वैयावृत्त्यं तावत् करणीयं यावत् स रोगान्मुक्तो भवेत् । रोगमुक्त्यनन्तरं तस्य यथालघुस्वकं प्रायश्चित्तं दातव्यमिति सूत्रसंक्षेपार्थः । अस्य यत् लघुस्वकं प्रायश्चित्तं कथितं तत् तस्य भक्तपानप्रत्याख्यानावस्थायां रोगकाले यत् किमपि प्रायश्चित्तन मापन्नं स्यात् तदपनोदनविषयकं विज्ञेयमिति भावः ॥ सू० १६ ॥
सूत्रम् -- अजायं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पई तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के, तो पच्छा अहालहुस्सगे नामं ववहारे पहवियत्वे सिया ॥सू०१७॥
छाया-अर्थजातं भिक्षु ग्लायन्तं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य नियुहितुम्, अग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्त्यं यावत् ततो रोगातङ्काद् विप्रमुक्तः, ततः पश्चात् यथालघुस्वको नाम व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यात् ॥ स. १७ ॥
भाष्यम्-'अट्ठजाय' अर्थजातम् , अर्थेन धनेन जातं-कार्य यस्य सः अर्थजातः यद्वा अर्थः किमपि प्रयोजनं धनार्जनादिरूपः, स जातो यस्य स अर्थजातः, तं धनार्जनवाञ्छाभिभूतं भिडं 'गिलायमाणं' ग्लायन्तं लोभोद्रेका रोगाक्रान्तं 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'निज्जूहित्तए' निर्वृहितुं निराकर्तुम् , किन्तु अर्थलुब्धं तम् अर्थस्य निस्सारताप्रदर्शनपूर्वकं प्रतिबोध्य 'अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं' तस्य रोगाक्रान्तस्य भग्लान्या आत्मसंकोचराहित्येन वैयावृत्त्यं करणीयम् । शेषं पूर्ववत् ।। सू० १७ ॥
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भाष्यम् उं० २०१८-२०
अनवस्थाप्य वराञ्चितयोः पुनरुपस्थापनविधिः ६१
पूर्वसूत्रेऽर्थजातभिक्षोर्वैयावृत्त्यकरणं प्रोक्तम्, साम्प्रतमनवस्थाप्यस्योपस्थापनविधिमाह, तत्राऽनवस्थाप्यसूत्रस्यार्थजातसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति सम्बन्धप्रतिपादिकां गाथामाह - 'अजाओ' इत्यादि ।
गाथा - अजाओ पुव्वमुत्तो, अट्ठास तेणियं भवे । तणे अणagप्पो संबंधोऽत्थ इमो सिया ॥ १ ॥
छाया - अर्थजातः पूर्वमुक्तः अर्थस्य स्तैन्यं भवेत् । तत्स्तैन्येऽनवस्थाप्यः सम्बन्धोऽत्रायं स्यात् ॥१॥
व्याख्या——‘अट्ठजाओ' पूर्वमर्थजातो भिक्षुरुक्तः अर्थजात भिक्षुविषये विधिः प्रोक्तः, अर्थस्य धनस्य कदाचित् स्तैन्यं चौर्यं भवेत्, ततः तत्स्तैन्ये धनस्य चौर्य भिक्षुरनवस्थाप्यो नवमप्रायश्चित्तभाक् स्यात्, अतोऽस्मिन् वक्ष्यमाणे सूत्रे अनवस्थाप्यभिक्षुविषये विधिः प्रतिपादयिष्यते । अयमेवात्र संबन्धः स्यादिति गाथार्थः || १||
अनेन सम्बन्धेनायातमिदमनवस्थाप्यसूत्रमाह-'अणवटु' इत्यादि ।
सूत्रम् -- अणवट्टप्पं भिक्खु अगिरिभूयं नो कप्पइ तस्स गणात्रच्छेयगस्स उवट्ठावेत्तए । अणवपं भिक्खु गिरिभूयं कप्पर तस्स गणात्रच्छेयगस्स उबद्वावित्तए । ० १८ ॥
छाया - अनवस्थाप्य भिक्षुम् अगृहीभूतं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्योपस्थापयितुम् । अनवस्थाप्यं भिधुं गृहीभूतं कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्योपस्थापयितुम् ॥ सु०१८ ।।
सः,
भाष्यम् – 'अणवट्टप्पं' अनवस्थाप्यम् - गृहिणः साधर्मिकस्य वा चौर्येण अनवस्थाप्यनामकनत्रमप्रायश्वित्तस्थानापन्नं भिक्खु" भिक्षु 'अगिरिभूयं' अगृहीभूतम् अप्राप्तगृहस्थवेषं साधुपर्याये एव स्थितम् साधुवेषत्यागयोग्ये नवमप्रायश्चित्ते प्राप्तेऽपि यः साधुवेषं न त्यक्तवान् तं तादृशं भिक्षु' 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'तस्स गणावच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य ‘उवट्ठावेत्तए' उपस्थापयितुम् - महात्रतेषु समारोपयितुम् पुनर्दीक्षां दातुमित्यर्थः । अयं भावःयदि कदाचिद् अनवस्थाप्यो भिक्षुश्चौर्यदोषशुद्धयर्थं पुनश्चारित्रप्रतिपत्तये गणावच्छेदकस्य समीप - मागच्छेत् तदा तस्य गणावच्छेदकस्य न कल्पते अगृहीतभूम् - अस्वीकृतगृहस्थवेषं तम् अनवस्थाप्यं भिक्षुमुपस्थापयितुं पुनः दीक्षां दातुं न कल्पते । स यदि गृहोभूतो भवेत् तदा किं कर्त्तव्यम् ? तत्राह - 'अणवपं' इत्यादि, 'अणवद्वयं भिक्खु ' अनवस्थाप्यम् अनवस्थाप्यनामकप्रायश्चित्तस्थापन्नं भिक्षु 'गिरिभूयं गृहीभूतं प्रतिपन्नगृहस्थवेषं 'कप्पड़' कल्पते 'गणावच्छेयगस्स' गणावच्छेदकस्य 'उवट्ठा वित्तए' उपस्थापयितुम् पुनः दीक्षां दातुमिति । प्रकृतसूत्रस्य
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व्यवहार पूर्वार्द्धभागेनेदं प्रतिपादितं यत् अनवस्थाप्यो भिक्षुः संवममार्गात् भ्रष्टत्वेन नवमप्रायश्चित्तभागी भवति स यदि साधुवेषेण समागत्य पुनः संयमप्रतिपत्यर्थ गणनायकस्य समीपमागच्छेत् तदा नास्ति अधिकारो गणनायकस्य यत्पुनरपि तथाविधं तं संयमे उपस्थापयेत् ।।
इदानी प्रकृतसूत्रस्यैवोत्तरभागेन चेदं प्रतिपादितम्-यत्.- यद्यनवस्थाप्यो भिक्षुर्गृहस्थवेषमादाय गणनायकस्य समीपं. पुनः संयमप्रतिपत्यर्थमुपस्थितो भवेत् तदा गणनायकेन तथाभूताय तस्मै पुनरपि संयमो दातव्यः। तत्र केन प्रकारेण पुनः स चारित्रे उपस्थापनीयः ! तदेवोत्तर. भागेन प्रतिपाद्यते-नवमप्रायश्चित्तस्थान प्राप्तं श्रमणं गृहस्थवेषसहश वेषं कारयित्वा गणावच्छेदकस्तं संयमे उपस्थापयेत्। गृहस्थवेषं कारयित्वा पुनः तस्मै दीक्षादाने कारणमिदम् यत्-अनवस्थाप्यश्रमणस्य ये दोषास्ते नागरिकाणां समक्ष प्रकटीभूताः आसन् ततो गृहस्थलिङ्गधारणेन तेषां नगरलोकानां विश्वासो जायेत यदनेच नवभप्रायश्चित्तभागित्वेन वान्तसंयम इति, ततः संघसमक्षं गणनायकेन तस्मै प्रायश्चित्तं दातव्यम् , दत्त्वा च प्रायश्चित्तं पुनस्तं संयमे उपस्थापयेत् । एवं करणे नान्येऽपि गच्छगता साधव एतादृशपापा चरणाद् भीता भवेयुः, 'पुत्रीभ्यो दण्डदानेन स्नुषा बिभ्यति नित्यशः' इति न्यायात् ॥ सू० १८ ॥
अमवस्थाप्यसूत्रमुक्त्वा सम्प्रति पाराञ्चितसूत्रमाह - पारंचियं इत्यादि ।
सूत्रम्-पारंचियं भिक्खं अगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स उवद्वावित्तए पारंचियः भिक्खं मिहिभूयं कप्पड़ तस्स ममावच्छेअगस्स. उवठ्ठाविचए ।। सू० १९ ॥
छाया-पाराञ्चितं भिक्षुमगृहीभूतं नो कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्योपस्था. यितुम् । पारास्चित भिक्षु गृहीभूत कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्योपस्थापयितुम्॥ सू० १२ ॥
भाष्यम-'पारंचियं पाराञ्चितं पाराञ्चितनामकदशमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तम् 'भिक्खु भिक्ष श्रमणम् 'अगिहिभूय' अगृहीभूतम् अपरिगृहीतगृहस्थवेषम् 'नो कप्पई' नो कल्पते 'तस्स गणांवच्छेयगस्स' तस्य गणावच्छेदकस्य 'उपहावित्तए' उपस्थापयितुं पुनः संयमे प्रवेशयितुम् । यदि कदाचिद् यः कश्चित्साधुर्दशमपाराश्चितप्रायश्चित्तस्थान प्राप्तवान् , प्राप्य चाऽगृहीत गृहस्थवेष एव प्रायश्चित्तं ग्रहोतुं पुनः संयमं प्रतिपतुं च गगनायकसमीपे समुपस्थितो भवेत् स यावत्पर्यन्तं गृहस्थवेषं न परिधारयेत् , साधुवेषे एव व्यवस्थितो भवेत् तावत्पर्यन्तं गणनायको न तमुपस्थापयेत्, न कथमपि संयम तस्मै दद्यादितिभावः । कथम्भूतं पाराञ्चितमु स्थापयेदिति सूत्रोत्तरार्द्धनाह – 'पारंचियं' इत्यादि ।
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भाग्यम् उ० २ सू० २१
द्वयोमैथुनाभ्याख्याने निर्णयविधिः ६३ _ 'पारंचियं भिक्खं पाराश्चितं भिक्ष दशमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तं श्रमणम् 'गिहिभूर्य' गृहीभूतं गृहस्थलिङ्गे वर्तमानं पुनः संयमप्रत्तिपत्तये गणनायकस्य समीपमागतम् 'कप्पई' कल्पते तस्स गणावच्छेयगल्सतस्य गणावच्छेदकस्य उवट्ठावित्तए' उपस्थापयितुं पुनः संयमे स्थापयितुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ सू० १९ ॥
सम्प्रति सूत्रकारः स्वयमेव अनवस्थाप्य-पाराश्चितविषयेऽपवादमाह-'अणवट्टप्यं' इत्यादि।
सूत्रम्-अणवठ्ठप्पं भिक्खु पारंचिय वा भिक्खु गिहिभूयं वा अगिहिभूयं वा कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स उवष्ठावित्तए जहा तस्स गणस्स पत्तियं सिया ॥ सू० २०॥
छाया-अनवस्थाप्यं भिक्षु पाराञ्चितं पा भिक्षु गृहीभूतमगृहोभूतं वा कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्योपस्थापयितुम् , यथा तस्य गणस्य प्रत्ययं स्यात् ॥ सू०२० ॥
भाष्यम् --'अणवठ्ठप्पं' अनवस्थाप्यम्-अनवस्थाप्यनामकनवमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तं भिक्षुम् , एवं पाराश्चितं वा दशमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तं वा भिक्षु 'गिहिभूयं वा' गृहीभूतं वा गृहस्थलिङ्गधारिणं वा 'अगिहिभूयं वा' अगृहीभूतं वा गृहस्थलिङ्गरहितं साधुवेषे एव स्थितं वा 'कप्पह सस्स गणावच्छेयगस्स' कल्पते तस्य गणावच्छेदकस्य 'उवट्ठावित्तए' उपस्थापयितुं पुनरपि संयमे प्रवेशयितुम् । कथं पुनस्तौ उपस्थापनायोग्यो भवेताम् ! तबाह -'जहा' इत्यादि । 'जहा तस्स गणस्स पत्तियं सिया' यथा येन प्रकारेण तस्य गणस्य यस्य स उपस्थापनीयो विद्यते तस्य गणस्य प्रत्ययं प्रतीतिः तद्विषयको विश्वासः स्यात् , तथा कृत्वा कल्पते नान्यथा । अत्र यद् अगृहीभूतस्योपस्थापनं कथितं तद् अपवादविषयकं स्यात् तस्योत्सर्गतः प्रतिषिद्धत्वात् ।
अयं भावः -नवमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तं दशमप्रायश्चित्तस्थानप्राप्तं वा भिक्षु गृहस्थलिङ्गवन्तं कृत्वा, यद्वा-गृहस्थलिङ्गवन्तमकृत्वैव गणनायकस्य कल्पते पुनस्तं संयमे उपस्थापयितुम् , तदत्र कारण माह-यदि स नवमदशमप्रायश्चित्तापन्नः श्रमणः राज्ञ उपकारी भवेत् तदा राजानुवृत्या तमगृहीभूतमेवोपस्थापयितुं कल्पते । यद्वा स अन्यतैर्थिकैः सह वादे वादलब्धिमान् भवेत् , तैः सह बादकरणं साधुवेषेणैवोचितं भवेत्तदा तस्य प्रवचनप्रभावकत्वादगृहीभूतस्यैवोपस्थापनं कल्पते, इत्यादिप्रवचनप्रभावनारूपकारणैरेवं करणे गणस्य विश्वासो भवेदिति । यद्वाऽन्यदपि कारणं भवेद् यथा-यदि कश्चिदाचार्यों नवमप्रायश्चित्तस्थानं दशमप्रायश्चित्तस्थानं वा नमापद्य गणावच्छेदकसमीपे तत्प्रायश्चित्तार्थ समुपस्थितो भवेत्तस्य गृहस्थलिङ्गदाने तस्थ शिष्या विवदेयुः-यदि ममाचार्य गृहस्थलिंग करिष्यथ तदा समुद्यता वयमधिकरणमुत्पादविष्यामः, एवं करणेऽस्माक्रमाचार्यस्य प्रायश्चित्तं लोके प्रकाशितं भविष्यति तेन लोके शङ्का
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व्यवहार समुत्पयेत-यदनेनाचार्येण नवमं दशमं वा प्रायश्चित्तस्थानं सेवितमिति वयं न सहिष्यामः । इत्यादि कारणैरपि प्रवचनोड्डाहभयादगृहीभूतस्याप्युपस्थापनं कर्त्तव्यं स्यादित्यपवादसूत्रस्य भावः ॥ सू० २० ॥
पूर्वमनवस्थाप्य-पाराश्चितयोः पुनरुपस्थापनविधिः प्रोक्तः, साम्प्रतमेकत्रविहरतोईयोः साधर्मिकश्रमणयोमैथुनप्रतिसेवनविषयकविवादे निर्णयप्रकारमाह-'दो साहम्मिया' इत्यादि ।
सूत्रम्-दो साहम्मिया एगयो विहरंति, एगे तत्थ अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अहणं भंते ! अमुएणं साहुणा सद्धि इमंमि य कारणमि मेहुणपडिसेवी, पच्चयहेउं च सयं पडिसेवियं भणइ तत्थ पुच्छियव्वे किं पडिसेवी ? अपडिसेवी ?, से य वएज्जा पडिसेवी परिहारपत्ते । से य वएज्जा णो पडिसेवी जो परिहारपत्ते । जं से पमाणं वयइ से य पमाणाभो घेतव्वे सिया से किमाइ भंते, सच्चपइण्णा ववहारा ॥ सू० २१॥ - छाया - द्वौ साधर्मिको एकतो विहरतः, एकः तत्राऽन्यतरमकृत्यस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् - अहं खलु भदन्त ! अमुकेन साधुना साद्धंमस्मिन् कारणे मैथुनप्रतिसेवो प्रत्ययहेतोश्च स्वयं प्रतिसेवितं भणति, तत्र प्रष्टव्यः किं प्रतिसेवी ? अप्रतिसेवी ?, सच वदेत् प्रतिसेवी परिहारप्राप्तः, स च वदेत् नो प्रतिसेवी नो परिहारप्राप्तः। यत् स प्रमाण वदति स च तस्मात् प्रमाणात् गृहीतव्यः स्यात् । अथ किमाहुर्भदन्त । सत्यप्रतिक्षा व्यवहाराः ॥ सू० २१॥
भाष्यम्—'दो साहम्मिया' द्वौ सामिकौ समानधर्मिणौ ‘एगयो विहरंति' एकत एकेन संघाटेन विहरतः तिष्ठतः ‘एगे तत्थ' तत्र तयोईयोर्मध्ये एकः कश्चित् इतरस्याऽभ्याख्याननिमित्तम् 'अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं' अन्यतरत् प्राणातिपातादिषु यत् किमप्येकमकृत्यस्थानं प्रतिसेवितवान् 'पडि से वित्ता' प्रतिसेव्य प्रतिसेवनं कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् स्ववचसा स्वकृतातिचारजातं गुरुसमीपे कृतपापस्थानस्यालोचनां कुर्यात् । आलोचनाप्रकारमेव दर्शयति-'अहण्णं भंते' अहं खलु भदन्त ! हे गुरो ! 'अमुएणं साहुणा' सद्धि अमुकेन येन केनचित् अनिर्दिष्टनामकेन साधुना सार्द्धम् अमुकेन साधुना सहितो भूत्वेत्यर्थः 'इममि य कारणंमि' अस्मिन् प्रतिसेवनार्थमाग्रहादिकरणे 'मेहुणपडिसेवी' मैथुनप्रतिसेवी मैथुनप्रतिसेवनं कृतवानित्यर्थः अमुकेन साधुना सह विचरन् तस्याग्रहेण मैथुनसेवी जातोऽस्मीति भावः ।। . स कस्मात् कारणात् आत्मानमप्रतिसेविनमपि प्रतिसेविनमभ्युपगच्छति न पुनः केवलं परस्याऽभ्याख्यानमेव कथं न ददाति ? तत आह-'पच्चयहेउं च' इत्यादि, 'पच्चयहेउं च सर्य पडिसेवियं भणई' प्रत्ययहेतुं च स्वयमात्मानमपि प्रतिसेविनं भणति परेषामाचार्याणां तथाऽ. न्येषां च साधूनाम् 'एषः सत्यमेव वदति अन्यथा को नाम स्वकीयमात्मानमप्रतिसेविनं प्रति
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भाष्यम् ३० २ ० २१-२२
मैथुनाभ्याख्याने तन्निर्णयविधिः ६५ सेविनमभिभन्येत । इत्याकारको यः प्रत्ययो विश्वासः स सर्वेषां भवतु, अस्मादेव कारणात् स्वस्याप्यकृत्यं भणति । एवमुक्ते तस्मिन् आचार्यः किं कुर्यादित्याह - ' तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ पुच्छियव्वे' तत्र तादृशपरिस्थितिप्रसङ्गे यस्योपरि अभ्याख्यानं तेन दत्तं स समाहूयाचार्येण प्रष्टव्यः, कथं प्रष्टव्यः ? इत्याह-'किं पडिसेवी अपडिसेवी' किं भवान् प्रतिसेवी वा अथवा अप्रतिसेवी ? इति भवान् मैथुनं सेवितवान् वा अथवा न सेवितवान् ! एवं पृष्टे सति यदि - ' से य वएज्जा पडिसेवी परिहारपत्ते' स च वदेत् प्रतिसेवी सत्यमयं वदति । इत्येवं कथने साधुः परिहारप्राप्तः परिहारतपोयोग्यो भवति ततः तस्मै तदकृत्य प्रतिसेवनजनितपापान्निवृत्त्यर्थं परिहारनोमकं तपः प्रायश्चित्तरूपेण दातव्यम् उपलक्षणमेतत् तस्मात् छेदमूलाऽनवस्थाप्यपाराञ्चितनामकमपि प्रायश्चित्तं यथोचितमकृत्यप्रतिसेवकाय आचार्येण दातव्यमिति भावः । अथ च ' से यवएज्जा णो पडिसेवी णो परिहारपत्ते' स च वदेत् नो प्रतिसेवी, नाहं प्रतिसेवी अभ्याख्यानमात्रमेतत् इति वदेत् तदा स न परिहारप्राप्तः परिहारनामकतपोभागू न भवति । अथेव स्थिते कथं निश्चेतव्यं यदयमकृत्यस्थानं प्रतिसेवितवान् न वा ? तत्राह - 'जं से पमाणं' इत्यादि,
से पमाणं वयइ से य पमाणाओ वेतव्वे सिया' सः प्रतिसेवी यत् प्रमाणं वदति तस्मात् प्रमाणात् स ग्रहीतव्यः, स च अभ्याख्यानदाता प्रतिसेवनायाः प्रमाणं वदति कथयति, तस्मात् प्रमाणात्गृहीतव्यो 'ने चेतव्यः स्यात्, तथा प्रतिसेवकस्य कथनानुसारेणैव निश्चयः कर्त्तव्यः यदयं मैथुनं प्रतिसेवितवान्, यद्वा न प्रतिसेवितवानिति, तत्र यदि प्रमाणाद् एवं निश्चयो जायते यदयं मैथुनं प्रतिसेवितवान् तदा तस्मै परिहाराद्यन्यतमप्रायश्चित्तं यथायोग्यं दातव्यम्, यद्यत्र प्रमाणात् अयमकृत्यस्थानं न प्रतिसेवितवान् इत्याकारको निषेधविषयको निश्चय आचार्यस्य भवेत् तदा तस्मै परिहारादि प्रायश्चित्तं न दातव्यमिति भावः । तद्वचनादेव सर्वव्यवस्था कर्त्तव्या भवेदिति । शिष्यः पृच्छति - ' से किमाहु भंते' अथ किमाहुर्भदन्त ? अथ कस्मात् कारणात् भवान् एवं कथयति यत् तत्कथनानुसारमेव प्रायश्चित्तं दातव्यं न वा दातव्यमिति अत्र किं कारणम् ? आह - 'सच्चपइण्णा ववहारा' सत्यप्रतिज्ञाः व्यवहाराः, हे शिष्य ! व्यवहाराः जिनशासनव्यवहाराः सत्यप्रतिज्ञाः सत्यप्रतिज्ञावन्तस्तीर्थ करैर्दर्शिता इति सत्यमेव प्रतिज्ञा प्रमाणं ये ते सत्य - प्रतिज्ञाः व्यवहाराः सत्यमूलका एवैते जिनशासने प्ररूपिता इति । अत्र कश्चित् शङ्कते - किमर्थ - कः सार यस्मिन्नभ्याख्यानमारोपयति ? तत्रेदं कारणं संभवेत् - यः कश्चित् रत्नाधिकः अन्यं रत्नाधिकमीर्यया अवमरत्नाधिकं कर्तुमिच्छेत् यदहं रत्नाधिकोऽस्मि नायं रत्नाधिक इति गर्वेण कषायोदयेन वा एवं कुर्यात् । अत्रायं भावः सद्भूतार्थे ज्ञाते सति यदि तत्प्रतिसेवनं द्वयोः सत्यं भवेत्तदा द्वयोरपि मूलं दीयते । अथालीकमभ्याख्यानं तदा योऽभ्याख्यातः स शुद्ध इतरोऽशुद्धः ।
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व्यवहारस्ने तस्याभ्याख्यानदातुर्मूलं प्रायश्चित्तं न दीयते किन्तु तस्मै अलीकनिमित्तकं मृषावादप्रत्ययं चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तं दातव्यमिति ॥ सू० २१॥
पूर्व मैथुनाभ्याख्यानविषये सनिर्णय प्रायश्चित्तविधिरुक्तः, संप्रति-अवधावकविषयं तद्विधिमाह-'भिक्खूयय' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहाणुपेही वएज्जा, से आहच्च अणोहाइओ से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । तत्थ णं पेराणं इमेयारूवे विवाए समुप्पज्जिज्जा-इमं अज्जो ! जाणह किं पडिसेवी किं अपडिसेवी ? से य पुच्छियव्वे-किं पडिसवी कि अपडिसेवी ? से य वएज्जा पडिसेवी परिहारपत्ते, से य वएज्जा नो पडिसेवी. नो परिहारपत्ते, जं से पमाणं वयइ से य पमाणाओ घेतव्वे, से किमाइ भंते ! सच्चपइण्णा ववहारा ।। मू० २२॥
छाया-भिक्षुश्च गणादवक्रम्याऽवधावनानुप्रेक्षी व्रजेत् सः आहत्य अनवधावितः स इच्छेत् द्वितीयमपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् , तत्र खलु स्थविराणामयमेतद्रपो विवादः समुत्पद्येत-इदम् आर्य ! जानासि किं प्रतिसेवी अप्रतिसेवी ? स च प्रष्टव्यः कि प्रतिसेवी अप्रतिसेवी ?, स च वदेत् प्रतिसेवी परिहारप्राप्तः, स च वदेत्-नो प्रतिसेवी नो परिहारप्राप्तः, यं स प्रमाणं वदति तस्मात् प्रमाणात् ग्रहीतव्यः । अथ किमाहुर्भदन्त ! सत्यप्रतिक्षा व्यवहाराः ॥ सू० २२ ॥
भाष्यम्-'भिक्खू य' भिक्षुश्च 'गणाओ अवक्कम्म' गणात् स्वकीयगच्छात् अपक्रम्य निःसृत्य 'ओहाणुपेही वएज्जा' अवधावनाऽनुप्रेक्षी व्रजेत् तत्राऽवधावनम् संयमादसंयमे गमनं तदनुप्रेक्षी सन् व्रजेत् गच्छेत् , मोहोदयाद् भोगावलिकर्मोदयाद्वा संयमत्यागेच्छया गच्छेदित्यर्थः, 'से आहच्च अणोहाइओ' स आहत्य-कदाचित् अनवधावितः स प्रबलशुभकर्मोदयाद् विषयवाञ्छोपशमनेन असंयममप्राप्तः, एतादृशः 'से य इच्छेज्जा' स च पुनरपि इच्छेत् , किं पुनरिच्छेत् ? तत्राह-'दोच्चंपि' इत्यादि, 'दोच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए' द्वितीयमपि वारं पुनरपि तमेव गणमुपसंपद्य खलु विहत्तु स्थातुम् शुभकर्मोदयात् संघाटकोपदेशाद्वा अपरित्यक्तसाधुलिङ्गः पापाप्रतिसेवी एव पुनरपि तमेव गणमागत्य संयम पालयितुमिच्छेत् इत्यर्थः, तस्यागमने 'तत्थ णं' तत्र खलु गच्छे विद्यमानानाम् 'थेराणं' स्थविराणां 'इमेयारूवे' भयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणस्वरूपः 'विवाए' विवादः अनेकप्रकारक ऊहापोहलक्षणः 'समुपज्जिज्जा' समुत्पधेत, कीदृशो विवादः समुत्पद्येत ? तत्राह-'इमं अज्जो' इत्यादि, 'इमं अज्जो, जाणह' इदं भो आर्याः ! यूयं जानीत 'किं पडिसेवी अपडिसेवी' किमयं प्रतिसेवी अत्रतो गत्वा अकृत्यप्रतिसेवनं कृतवान् ? अथवा 'अपडिसेवी' अप्रतिसेवी अकृत्यप्रतिसेवनं न कृतवान् वा ? इत्याकारको विवादः ऊहापोहरूपः परस्परं समुत्पद्यत तदा एवमुपयुक्तप्रकारेण विवादे जाते सति ‘से य
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भाष्यम् उ०२ सू० २३
मृते आचार्यादौ तत्पदप्रदानविधिः ६७ पुच्छियव्वे' तन्निर्णयाय स एव यः अवधावितः स एव, अथवा अस्य सार्धे साक्षिरूपेण प्रेषितो भवेत् स वा साधु प्रष्टव्यः। किं प्रष्टव्यः ? तत्राह-'किं पडिसेवी ? अपडिसेकी' ! प्रथमं तमेवाऽऽह्य गणनायकेन स प्रष्टव्यः-कि भोः! त्वमत्रतो गत्वा अकृत्यं प्रतिसेवितवानसि ! अथवा न प्रतिसेवितवानसि ? । यस्तेन साधं गतः सोऽप्येवमेव प्रष्टव्यः-यदयम् अकृत्य प्रतिसेवितवान् ! न वे ! ति । उपर्युक्तप्रकारेण सत्यस्वरूपं ज्ञातुं गणनायकेन पृष्टः सन् ‘से य वएज्जा' स च वदेत्, स पृष्टः साधुर्यदि धदेत्–'पडिसेवो' प्रतिसेवी अहमकृत्यप्रतिसेवनां कृतवानस्मि तदा 'परिहारपत्ते' परिहारप्राप्तः परिहारतपोयोग्यो जातः, आचार्येण पृष्टः प्रतिसेवको यदि स्वीकरोति प्रतिसेवनां तदा तदीयमेव वचनं प्रमाणीकृत्याऽऽचार्यः तस्मै परिहारनामकं तपः प्रायश्चित्तरूपेण दद्यादिति भावः । 'से य वएज्जा नो पडिसेवी नो परिहारपत्ते' स च यदि वदेत् नो प्रतिसेवी तदा नो परिहारप्राप्तो भवति, न परिहारतपःप्रायश्चित्तभाग् भवति । आचार्येण पृष्टः सः यदि कथयेत्यत् नाहमकृत्यं प्रतिसेवितवानस्मि तदा तद्वचनमेव प्रमाणीकृत्याऽऽचार्यों नो परिहारतपो दद्यात् , तस्मैं अप्रतिसेवकाय परिहारनामकं तपो न दद्यादिति भावः । कथमेवम् ! तत्राह–'जं से इत्यादि, ‘ज से पमागं वयइ से पमाणाभो घेत्तव्वे' यत्स प्रमाण वदति तस्मादेव प्रमाणात् स सत्योऽसत्योवेति निश्चेतव्यः, तद्वचनप्रमाणेनैव सत्यार्थाऽसत्यार्थयोनिर्णयः कर्त्तव्य इति भावः । 'से किं माहु भंते !' अथ किमर्थं कस्माद्धेतोरेवमाहुर्भदन्त ! हे भदन्त ! कथमेवमुच्यते यत् तस्य वचनप्रमाणेनैव सत्यासत्यनिर्णयः कर्तव्यः ? यावता एवं सति कुत्रापि सत्यार्थनिश्चयो न स्यात् नहि कोऽपि स्वकृतमकृत्यस्थान पतिसेवनं प्रकाशयिष्यति लज्जया लोकनिन्दाभयाद्वा तत्कथमेवं तद्वचनमेव प्रमाणीक्रियते भवता ? इति शिष्यस्य जिज्ञासायामाचार्यः प्राह-सच्चपइण्णा ववहारा' सायप्रतिज्ञा व्यवहाराः प्रायश्चित रूपा व्यवहाराः सत्यप्रतिज्ञाः प्रतिज्ञयैव सत्या जिनैर्निर्दिष्टा ॥ सू० २२॥
दिवंगते आचार्योपाध्याये तः पदेऽन्याचार्योपाध्यायस्थापनविधिमाह-एगपक्खियस्स'इत्यादि ।
सूत्रम्-एगपक्खियस्स भिक्खुयस्स कप्पइ आयरियउवज्झायाण इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा जहा बा तस्स गणस्स पत्तियं सिया ॥ सू०२३॥
छाया-एकपाक्षिकस्य भिक्षुकस्य कल्पते आचार्योपाध्यायानाम् इत्वरिकां दिशं अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा यथा वा तस्य गणस्य प्रत्ययं स्यात् ॥ स्० २३॥
भाष्यम् –'एगपक्खियस्स' एकपाक्षिकस्य एकः समानः पक्ष इत्येकपक्षः सोऽस्त्यस्येत्येकपाक्षिकः प्रव्रज्यया श्रुतेन च, तस्य इत्थंभूतस्य 'भिक्खुयस्स' भिक्षुकस्य आचार्य
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व्यवहारस्ने उपाध्याये वा मृते सति 'कप्पई' कल्पते 'आयरियउवझायाणं' आचार्योपाध्याययोः 'इत्तरियं' इत्वरिकां कियत्कालभाविनीम् अल्पकालिकीम् यावदन्यो विशिष्ट तर आचार्योपाध्यायपदयोग्यः प्रवज्याश्रुताभ्यामेकपाक्षिको न लभ्यते तावत्कालिकीम् इत्वरग्रहणमुपलक्षणं यावत्कथिकां च यावज्जीवभाविनीम् 'दिसं वा अणुदिसं वा' तत्र दिशम् आचार्यत्वमुपाध्यायत्वं वा, अनुदिश वा आचार्योपाध्यायपदद्वितीयस्थानवतित्वं वा 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टु कर्तुम्, यद्वा 'धारिचए वा' स्वयमेव धारयितुम् 'जहा तस्स गणस्स पत्तियं सिया' यथा येन प्रकारेण तस्य गणस्य प्रत्ययं विश्वासः स्यात्, तथा दिशमनुदिशं वा उदिशेत् , मृते आचार्योपाध्याये तत्पदेऽन्य कमपि स्थापयेत् स्वमात्मानं वा स्थापयेत् येन गणस्य विश्वासः स्यात् तथैव कर्त्तव्यम् योग्यस्यैकपाक्षिकस्याभावे भिन्नपाक्षिकमपि अपवादपदेन स्थापयेत्, किन्तु गणमाचार्योपाध्यायशून्यं न कुर्यादिति । अयं भावः-यद्याचार्योपाध्याययोराकस्मिकमरणादिमा गच्छे तदभावे जाते सनाथयितुं यावत्पर्यन्तं पदवीयोग्यः श्रमणो न मिलेत् तावत्कालं साधारणमपि यस्योपरि गणस्य विश्वासः स्यात् तादृशं साधुमाचार्योपाध्यायपदे स्थापयितुं कल्पते अनेन प्रकारेण स्थापितः आचार्यः उपाध्यायो वा इत्वरोऽल्पकालिकः इति कथ्यते । अथ यदि कश्चिघोग्यः सारणावारणादिगच्छकार्यदक्षो बहुश्रुत एकपाक्षिकः प्राप्यते यदुपरि गच्छस्य विश्वासश्च स्यात् . स. यावज्जीवमाचार्यपदे उपाध्यायादे वा स्थापयितुं कल्पते, स च यावज्जीवकः यावत्कथिक इति कथ्यते इति ।
अत्र प्रव्रज्यया श्रुतेन चेति पदद्वयस्य चतुर्भङ्गी जायते, यथा एकः प्रवज्यया श्रुतेन च एकपाक्षिकः १, द्वितीयो न प्रव्रज्यया किन्तु श्रुतेन २, तृतीयः प्रव्रज्यया किन्तु न श्रुतेन ३, चतुर्थो न प्रव्रज्यया न श्रुतेन ४ इति । अत्र प्रथमो भङ्गः शुद्धः, चतुर्थो भङ्गोऽशुद्धः, ततः आयेषु त्रिषु भङ्गेषु एकैकस्याभावे उत्तरोत्तरो ग्राह्य इति । एकपाक्षिको द्विविधः एकवाचनाकः, एकप्रव्रज्याकश्च, तत्र एकवाचनाकः एका समाना परस्परं वाचना यस्य स एकवाचनाकः एकगुरुकुलाधीनः, एकप्रव्रज्याकः एकस्मिन् कुळे प्रव्रज्या यस्य स एककुलवर्ती, उपलक्षणात् एकगच्छवर्ती, सहाध्यायी वा गृह्यते इति । गच्छाधिपतिराचार्यो द्विविधो भवति-अभ्युद्यतपरिकर्मा अभ्युद्यतमरणो वा, अभ्युवतः उद्युक्तः परिकर्मणि विहारादिपरिकर्मणि यः स अभ्युद्यतपरिकर्माः, द्वितीयः अभ्युद्यतमरणः-अभ्युद्यतः उद्युक्तः मरणे भक्तप्रत्या. ख्यानादिना असाध्यरोगविशेषेण वा यः स अभ्युद्यतमरणः । एष एकैको द्विविधः-गच्छसापेक्षो गच्छनिरपेक्षो वा, तत्रैको गच्छव्यवस्थायामपेक्षावान् , अन्यो गच्छव्यवस्था प्रति निरपेक्षः स्यात् । यो गच्छसापेक्षः स्यात् सः अभ्युद्यतविहारपरिकर्मा वा अभ्युद्यतमरणो वा जीवन्नेव यः कश्चिदेकपाक्षिकः प्रव्रज्याश्रुताभ्यां भवेत्तं स्वपदे पूर्वमेव स्थापयति येन तदनुरक्तो गच्छः कालगतेऽपि तस्मिन्नाचायें परस्परप्रेमानुभावतो न विनाशमुपैति । यः पुनर्गच्छनिरपेक्षो भवेत्
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भाष्यम् उ० २ सू०२४
पारिहारिकाऽपारिवारिक संभोगविधिः ६९ स गच्छस्य शुभाशुभव्यवस्थामुपेक्ष्य स्वयं जीवन् नान्यं गच्छयोग्यं साधुं स्वपदे युवराजत्वेन स्थापयति तेन तस्मिन् कालगते परस्परकलहभावतो गच्छो विनाशमुपैति तस्माज्जीविते एव स्वस्मिन् आचार्य उपाध्यायो वा स्थापनीय इति । प्रस्तुतं सूत्रं तु गच्छनिरपेक्षाचार्यविषयकम् । एवं सति गच्छवासिनो यस्मिन् विश्वासः स्यात्तमेकपाक्षिकम् अपवादे भिन्नपाक्षिकं वा साधुमाचार्योपाध्यायत्वेन स्थापयेयुः , येनास्वामिको गच्छो न भवेदिति ॥ सू० २३ ॥
सूत्रम् - बहवे परिहारिया बहवे अपरिहारिया इच्छेज्जा एगयओ एगमासं वा दुमासं वा तिमासं वा चाउम्मासं वा पंचमासं वा छम्मासं वा वत्थए ते अन्नमन्नं संभुजंति अन्नमन्नं नो संभुंजंति मासंते तो पच्छा सव्वेवि एगयओ संजति ॥सू०२४ ॥
छाया--बहवः पारिहारिकाः वहवोऽपारिहारिकाः इच्छेयुः एकत्र एकमासं वा द्विमासं वा त्रिमास वा चतुर्मासं वा पंचमासं वा षण्मास वा वस्तुम् ते अन्योऽन्य संभुञ्जते अन्योन्यं नो संभुञ्जते मासान्ते ततः पश्चात् सर्वेऽपि एकत्र संभुञ्जते ॥ सू० २४॥
भाष्यम्-'बहवे परिहारिया' बहवोऽनेके द्वित्रादयः पारिहारिकाः संप्राप्तपरिहारतपःप्रायश्चित्तवन्तः 'बहवे अपरिहारिया' बहवः प्रभूता द्वित्रादयोऽपारिहारिकाः पारिहारिकभिन्नाः दोषाभावात् परिहारतपोवर्जिताः शुद्धा इत्यर्थः सर्वं ते अशिवादिकारणवशात् तपोवहननिमित्तं वा 'इच्छेज्जा' इच्छेयुः, किमिच्छेयुस्ते स ? तत्राह-'एगयओ' इत्यादि, ‘एगयो' एकतः एकत्रस्थाने 'एगमासं वा' एकमासं वा मासैकमात्रं वा 'दुमासं वा' द्विमासं वा मासद्वयं वेत्यर्थः 'तिमासं वा' त्रिमासं वा मासत्रयमित्यर्थः, 'चाउम्मासं वा' चतुर्मासं वा मासचतुष्टयं यावदित्यर्थः 'पंचमासं वा' पञ्चमासं वा मासपञ्चकमित्यर्थः, 'छम्मासंवा' षण्मासं वा मासषट्कं वा 'वत्थए' वस्तुं यावद् अशिवादि निवत्तेंत तावत् एकत्र वासं कर्तुमिति, तत्र 'ते अन्नमन्नं संभुंजति' इति ते पारिहारिकाः अन्योऽन्यं परस्परं पारिहारिकाः पारिहारिकैः सार्धं 'समुंजते' सर्वप्रकारैः संभोगं कुर्वन्ति तेषां सादृश्यात् , 'अन्नमन्नं नो संभुजति' इति पारिहारिकाः यावत् कालपर्यन्तं परिहारतपो वहंति तावत्पर्यन्तं ते परस्परं पारिहारिकाः पारिहारिका मिलिवा संभुञ्जते इत्यर्थः वा अथवा अपारिहारिकैः साकं न संभुञ्जते । अयं भावः-ये प्रतिपन्नपरिहारतपोवन्तस्ते, तथा ये. परिहारतपोऽधुना न वोढुमारब्धवन्तस्ते, एते परस्परं न संभुजते, एवं पारिहारिका अपारिहारिकाश्च एतेऽपि परस्परं न संभुजते इति । प्रतिपन्नपरिहारतपसः पारिहारिकास्तु परस्परं संभुज्जते इति पूर्वमुक्तमेवेति । 'मासंते' यैः षण्मासाः सेविताः तेषां यः षण्मासोपरिवर्ती मासस्तं यावत् , षण्मासोपरि एकमासपर्यन्तमित्यर्थः ते पारिहारिकाः परस्परं पारिहारकैः सममपारिहारिकै सममेकत्र न संभुञ्जते, आलापादीनि तु परस्परं कुर्वन्ति । 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् षण्मासोपरि मासपरिपूर्णानन्तरम् 'सव्वेवि एगयो संभुंजंति' सर्वेऽपि प्रतिसेवितपरिहारतपसः अपरिहारिकाश्चैकतः एकत्र स्थाने संभुञ्जते सर्व प्रकारैः संभोगं कुर्वन्ति, अत्र ये पारिहारिकाs
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७०
व्यवहारस्त्रे पारिहारिका दुर्भिक्षादिकारणवशादेकत्र वसन्ति तेषां मध्ये प्रतिसेवितषाण्मासिकतपसः षण्मासोपरि एको मासः कथं भवेत् ! इति दर्शयितुं गाथामाह--'पणगं पणगं' इत्यादि ।
"पणगं पणगं मासे, दिवसाणं वड्ढणं च तं वज्जे । एवं छम्मासेसु य, एगो मासो य वड्ढेइ” ॥१॥ छाया--पञ्चकं पञ्चकं मासे, दिवसानां वर्धनं च तद् वर्जयेत्
एवं षण्मासेषु च, एको मासश्च वर्धते ॥१॥ व्याख्या---'पणगं पणगं मासे' दिवसाणं' मासे मासे यत् दिवसानां पञ्चकं पञ्चक रात्रिन्दिवपञ्चकम् , 'वड्ढणं' वर्धनं परिवर्धनं भवति 'तं वज्जे' तद् दिवसपञ्चकं प्रत्येकस्मिन् मासे परिपूर्णे तदुपरि पञ्च पञ्च दिवसान् वर्जयेत् संभोगे । ‘एवं छम्मासेसु य' एवम् अनेन क्रमेण षण्णां मासानामुपरि एको मासो वर्धते तं वर्जयेत् परित्यजेत् , षण्मासानन्तरं तदुपरितनमासेऽपि तैः सह संभोग वर्जयेत् आलापादिकं तु क्रियते । अयं भावः-यो हि कश्चित् श्रमणो मासिकमेव परिहारतपः प्राप्तवान् , तस्य मासं वहतः आलापनादिकं सर्व वर्जितं भवति । मासे व्यूढे सति यत् तदुपरि पञ्चरात्रिन्दिवे व्यतीते आलापनादीनि सर्वाणि क्रियन्ते, केवलं पञ्चरोत्रिन्दिवं यावत् भोजनमात्रमेव वय॑ते । एवं यो द्वौ मासौ आपन्नं परिहारतपस्तस्य मासद्वयोपरि दशरात्रिन्दिवं यावत् आलापनादीनि क्रियन्ते केवलं सहभोजनं वय॑ते । एवं यस्त्रीन्मासान् आपन्नस्तस्य मासत्रयोपरि पञ्चदशरात्रिन्दिवं यावत्, यश्च चतुरो मासानापन्नस्तस्य मास चतुष्टयोपरि विंशतिरात्रिंदिवं यावत् , यः पञ्चमासानापन्नस्तस्य पञ्चमासोपरि , पञ्चशितिदिवसान् यावत् , यस्तु षण्मासानापन्नः तस्य षण्मासेषु व्यूढेषु तदुपरि एक मासं यावदेकत्र स्थाने तैः सह केवलं भोजनमेव वय॑ते, आलापनादिकं तु सर्व सर्वत्र क्रियते एवेति । अत्रेदमुक्तं भवति-तपोवहनकाले तपोवाहकेन साध संलापादिकमपि कोऽपि न कुर्यात् किन्तु गृहीतमासतपोवहनानन्तरं तदुपरि प्रतिमासं पञ्चपञ्चदिवसक्रमेण तेषु दिवसेषु आलापनादीनि कर्त्तव्यानि भवेयुः, किन्तु सहभोजनं तु यथागृहीतमासोपरि यस्मिन् एकमासिकादितपसि यानि रात्रिन्दिवानि लभ्यन्ते तेषु व्यतीतेषु कत्तु कल्पते इति ।
ननु ऋतुबद्धेषु मासेषु कृतापराधस्य वर्षामासेष्वेव प्रायश्चित्तं दीयते इति श्रूयते तत्र किं कारणम्, उचितं तु येन यदैव यदाचरितं प्रतिसेवनादिकं तस्य तदैव प्रायश्चित्तं दातव्यं भवेत् ? तत्राह-वर्षाकाले परिहारतपःप्रायश्चित्तदाने नास्ति दोषाणां संभावना प्रत्युत बहवो गुणा एव भवन्ति।
अयं भावः- यदि ऋतुबद्धे काले परिहारतपो दीयेत, ततः तस्मिन् दत्ते सति यदि मासकल्पः परिपूर्णो भवति तदा तस्य तत्स्थानात् विहार आवश्यक इति कृत्वा विहरन्ति तदा सन्तापादयो दोषाः संभवन्ति ।
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भाष्यम् उ० २ सू० २५
परिहारकल्पस्थितायाऽशनादिदानविधिः ७१
मथ यदि विहारं न कुर्वन्ति तत्रैव तिष्ठन्ति तदा भद्रकप्रान्तकृतदोषा भवेयुः । तत्र भद्रकृता दोषा अतिपरिचयादुद्गमादिसंभवः, प्रान्तकृतदोषाः बहुचिरादेकत्रावस्थानेन क्षुद्रजनकृताक्षेपरूपाः 'यदेतेऽत्रैव तिष्ठन्ति न च कुत्रापि विहरन्ती'ति । वर्षाकाले तु एते दोषाः प्रायो न भवन्ति । वर्षाकाले प्रायो बहवः प्राणा उत्पद्यन्ते ततो भिक्षाचर्या दीर्घा न भवति ! वर्षाकालस्य स्निग्धतया स कालो बलिष्ठस्तेन तपः कुर्वतां बलोपष्टम्भं करोति । तथा वर्षा - कालस्य तपोऽनुष्ठानाश्रयतया सर्वेषां संगतत्वेन कस्याऽपि विशेषतो रागस्य द्वेषस्य चाऽसंभवादिति । तथा कल्पाध्ययनप्रतिपादिता गुणा अपि वर्षाकाले संभवन्ति । एतस्मादेव कारणात् वर्षाकाले एव विशेषतः परिहारतपो दीयते इति ॥ सू० २४ ॥
पूर्वसूत्रे पारिहारिकाऽपारिहारिकाणामाहारादिसभोगे विधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतं पारिहारिकस्तपश्चरणेन क्षीणशरीरो भवेत् तेन तस्य विकृतिकाहारग्रहणमावश्यकमिति तस्मै अशनादिदाने विधिमाह - - ' परिहारकप्पट्ठियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् - परिहार कप्प द्वियस्स भिक्खुस्स णो कप्पर असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउँ वा अणुप्पदाउँ वा थेरा णं वएज्जा इमं ता अज्जो ! तुम एएसिं देहि वा अणुष्पदेहि वा एवं से कप्पइ दाउँ वा अणुप्पदाउ वा कप्पर से लेवं अणुजाणावित्तए अणुजाणह मंते ! लेवाए एवं से कप्पर लेवं समासेवित्तर || सू०२५॥
छाया -- परिहारकल्पस्थितस्य भिक्षोनों कल्पते अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा दातुं वा अनुप्रदातुं वा, स्थविराः खलु वदेयुः इमं तावत् हे आर्य ! त्वमेतेभ्यो देहि वा अनुप्रदेहि वा, एवं तस्य कल्पते दातुं वा अनुप्रदातुं वा, कल्पते तस्य लेपमनुज्ञापयितुम्, अनुजानीत भदन्त ! लेपाय पवं तस्य कल्पते लेपं समासेवितुम् ॥ सु० २५ ॥
भाष्यम् – 'परिहार कप्पट्ठियस्स' परिहारकल्प स्थितस्य परिहारकल्पे परिहारनामतपोविशेषे स्थित इति परिहारकल्पस्थितः, तस्य परिहारतपसो वहनं कुर्वतः परिहारकल्पस्थितस्य समापन्नपरिहरतपस इत्यर्थः ' भिक्खुस्स' भिक्षोः 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनादिचतुर्विधाहारवस्तुजातं ' दाउँ वा अणुप्पदाउं वा दातुं वा अनुप्रदातुं वा परिहारकल्पस्थितस्य भिक्षोः अशनादिकं वस्तुं दातुं स्वहस्तेन न कल्पते न वा अनुप्रदातु परम्परयाऽन्यसकाशाद् वा दापयितुम् । अनुप्रदातुमित्यत्राऽनुशब्दः परंपरार्थबोधकः, तेन साक्षादपि दातुं न कल्पते न वा परम्परया दातुं कल्पते इत्यर्थः । एवं किं सर्वथा न कल्पते ? इत्यत्राह - 'थेरा णं' इत्यादि, 'थेरा णं वएज्जा' स्थविरा: खलु वदेयुः यदि पुनः स्थविराः गगनायकाः कञ्चित् साधुं वदेयुराज्ञापयेयुः । किं वदेयुः ? तत्राह - 'इमं
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व्यवहारसूत्र ता' इमं तावत् परिहारकल्पत्थितं भिक्षुम् 'अज्जो' हे आर्य ! 'तुम' त्वम् ‘एएसिं देहि वो अणुप्पदेहि वा' एतेभ्यः पारिहारकेभ्यः देहि अशनादिचतुर्विधमाहारम्, अनुप्रदेहि वा परम्परया अन्यसकाशाद्दापय, एवं पूर्वोक्तप्रकारेण स्थविरैः अनुज्ञाते सति 'से कप्पइ दाउं या अणुप्पदाउं वा' तस्याज्ञापितस्य साधोः कल्पते दातुं वा अनुप्रदातुं वा । यदि तद् अशनादिकं लेपमयं विकृति कादिरूपं भवेत् तदा पारिहारकस्य तद् विकृति कादिकं स्थविराज्ञामन्तरेण भोक्तुं न कल्पते, ततः किं कुर्यादित्याह-'कप्पइ से लेवं अणुजाणावित्तए' कल्पते तस्य लेपमनुज्ञापयितुं, तस्य पारिहारिकस्य कल्पते लेपरूपविकृतिकादिनिमित्तमनुज्ञापयितुं तद्भोजने आज्ञां ग्रहीतुं कल्पते, तदेवाह-'अणुजाणह भंते ! लेवाए' हे भदन्त ! यूयमनुजानीथ लेपाय विकृतिकाहारकरणाय, ‘एवं' एवंप्रकारेणानुझापने कृते सति 'से कप्पइ लेवं समासेवित्तए' तस्य पारिहारिकस्य कल्पते लेपं विकृतिकाहारं समासेवितुं भोक्तुं पारिहारिकतपो वहतो दुग्धादिगुरुकमाहारं गरिष्टत्वान्नोचित्तं भवेत् तस्मात् स्थविराज्ञामादायैव तत्सेवनमुचित्तं, स्थविराणां द्रव्यक्षेत्रादिबलाबलादिज्ञायकत्वादिति भावः ॥ सू० २५ ॥
पूर्व पारिहारिकस्याऽशनादिदानविधिरुक्तः, साम्प्रतं पारिहारिकपात्रगृहीताऽशनादिभोजने अपारिहारिकस्य विधिमाह-'परिहारकप्पढिए' इत्यादि ।
सूत्रम्- परिहारकप्पदिए भिक्खू सएणं पडिग्गहेणं बहिया अप्पणो वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य तं वएज्जा-पडिग्गाहेहि अज्जो ! अहंपि भोक्खामि वा पाहामि वा, एवं णं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए, तत्थ णो कप्पइ अपरिहारिएणं परिहारियस्स पडिग्गहसि असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा भोत्तए वा पायए वा, कप्पइ से सयंसि पडिग्गहंसि सयंसि पलासगंसि कमढगंसि वा सयंसि खुव्वगंसि पाणिंसि वा उद्धटु उद्धटु वा भोत्तए वा पायए वा, एस कप्पे अपरिहारियस्स परिहारियओ ॥ सू० २६॥
छाया-परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः स्वकीयेन प्रतिग्रहेण बहिरात्मनो वैयावृत्त्याय गच्छेत, स्थविराश्च तं वदेयः प्रतिगृह्णीयाः-आर्य ! अहमपि भोक्ष्ये वा पास्यामि वा, एवं खलु तेस्य कल्पते परिग्रहीतुम्, तत्र नो कल्पते अपारिहारिकेण पारिहारिकस्य प्रतिग्रह अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा भोक्तुं वा पातुं वा, कल्पते तस्य स्वकीये प्रतिग्रहे वा स्वकीये पलाशके कमढके वा स्वकीये खुव्वके वा पाणौ वा उद्धृत्य उद्धृत्य भोक्तुं वा पातुं वा एष कल्पोऽपारिहारिकस्य पारिहारिकतः ॥ सू० २६ ॥
— भाष्यम्--'परिहारकप्पट्टिए' परिहारकल्पस्थितः 'भिक्खू' भिक्षुः 'सएणं पडिग्गहेणं' स्वकीयेन स्वात्मसंबन्धिना प्रतिग्रहेण पात्रेण 'बहिया' बहिः उपाश्रयाद् बहिः अप्पणो वेयावडियाएं' आत्मनः स्वस्य वैयाघृत्त्याय संयमयात्रां निर्वाहयितुमशनाद्याहाराऽऽनयनाय 'गच्छेज्जा'
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भाष्यम् उ० २ ० २६-२) पारिहारिकपात्रेऽपारिहारिकस्य भोजननिषेधः ७३ गच्छेत् स्वकीयसंयमयात्रानिहाय पारिहारिको भिक्षः स्वकीयपात्रमादाय भिक्षामानेतुमाचार्याज्ञया उपाश्रयाद् बहिर्गच्छेदित्यर्थः, तत्समये 'थेरा य तं वएज्जा' तं परिहारिकं भिक्षामानेतुं बहिः प्रस्थितं ममार्थमाहाराधनेतु द्वितीयवारं पुनर्गमने कष्टसंभवः, इति विचार्य स्थविराः वदेयुः मधुरवचसा संबोध्य कथयेयुः । किं कथयेयुः ? तत्राह-'पडिग्गाहेहि'इत्यादि, 'पडिग्गाहेहि अज्जो ! अहंपि भोक्खामि वा पाहामि वा प्रतिगृह्णीयाः खलु आर्य ! मदर्थमप्यशनादि अहमपि भोदये पास्यामि वा, हे आर्य ! त्वं गच्छसि भिक्षामानेतुमतोऽस्मयोग्यमपि अशनादिकं स्वकीयपात्रके एव गृहीत्वा आनय, अहमपि त्वदानीतं भोक्ष्ये त्वदानीतं दुग्धादिकमपि पास्यामि, ‘एवं णं से कप्पड़ पडिग्गाहित्तए' एवं खलु पूर्वोक्तप्रकारेण स्थविरैः कथिते सति 'से' तस्य पारिहारिकस्य कल्पते स्थविरयोग्यमन्नपानादिकमपि स्वकीये पात्रे प्रतिग्रहीतुम् । अथ भोजनविधिमाह-'तत्थ णो कप्पई' तत्र तस्मिन् समानीतेऽशनादौ नो नैव कल्पते 'अपारिहारिएणं' पारिहारियस्स पडिग्गहंसि' अपारिहारिकेण सता पारिहारिकस्य प्रतिग्रहे पात्रे 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोत्तए वा पायए वा' अशनं वा पानं वा खाचं वा स्वाद्य वा भोक्तुं वा पातुं वा परिहारकस्य पात्रे अशनादिकं भोक्तुमपारिहारिकस्य स्थविरस्य न कल्पते इत्यर्थः किन्तु-'कप्पई से सयंसि पडिग्गहंसि' कल्पते, तस्याऽपारिहारादिकस्य स्थविरादेः स्वकीये पात्रे काष्ठमये पात्रे 'सयंसि पलासगंसि कमढगंसि' स्वकीये पलाशके कमढके शुष्कपलाशपत्रनिर्मिते कमढके द्रोणकाभिधपात्रविशेषे 'सयंसि खुव्वगंसि वा' स्वकीये खुवके संपुटितोर्द्धमुखकरतलद्वयरूपे खोवा इति प्रसिद्धे 'सयंसि पाणिसि वा' स्वकीये हस्ते वा 'उद्धटु उद्धटु भोत्तए वा पायए वा' उद्धृत्य उद्धृत्य अवकृष्याऽवकृष्य भोक्तुं वा पातुं वा कल्पते इति ‘एस कप्पे अपारिहारियस्स पारिहारियओ' एषः पूर्वोक्तः कल्प आचारः अपारिहारिकस्य परिहारतपोवर्जितस्य शुद्धस्य साधोः पारिहारिकतः पारिहारिकमधिकृत्य कथितस्तीर्थकरैरिति ॥ सू० २६ ॥
साम्प्रतमपारिहारिकाऽऽनीताशनादिभोजने पारिहारिकस्य विधिमाह-'परिहारकप्पट्टिए' इत्यादि ।
सूत्रम्-परिहारकप्पहिए भिक्खू थेराणं पडिग्गहेणं बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा थेरा य वएज्जा पडिग्गाहेहि अज्जो ! तुमंपि एत्थ भोक्खसि वा पाहसि वो एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए, तत्थ णो कप्पइ पारिहारिएणं अपारिहारियस्स पडिग्गहंसि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोत्तए वा पायए वा, कप्पइ से सयंसि
व्य, ११
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व्यवहार
सवा सयंस पलासमंसि कमढगंसि वासयंसि खुव्वगंसि वा सयंसि पार्णिसि क बन्द उदर भोत्तर वा पायए वा एस कप्पे पारिहारियस्स अपारिहारियओ तिमि ॥ सू० २७ ॥
वहारस्स बोओ उद्देसो समत्तो ॥२॥
छाया - परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः स्थविराणां प्रतिग्रहेण बहिः स्थविराणां वैयावृत्याय गच्छेत् स्थविराश्च वदेयुः परिगृहाण आर्य ! त्वमपि अत्र भोक्ष्यसे वा पास्यसि वा, यं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम्, तत्र नो कल्पते पारिहारिकेणाऽपारिहारिकस्य प्रतिग्रहे अशनं का पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा भोक्तुं वा पातुं वा, कल्पते तस्य स्वकीये प्रतिप्र स्वकीये पलाशके कमढके वा स्वकीये खुव्वके वा स्वकीये पाणौ वा उद्धृत्त्योद्धृत्य भोक्तुं वा पातु वा एष कल्पः पारिहारिकस्याऽपारिहारिकतः, इति ब्रवीमि ॥ सू० २७ ॥ व्यवहारस्य द्वितीय उद्देशः समाप्तः ॥ २ ॥
भाष्यम् – 'परिहार कप्पट्ठिए भिक्खू' परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः 'थेराण' स्थविराणां 'पंडिरहेणं' प्रतिग्रहेण पात्रेण 'बहिया' बहिर्वस तेर्बहिर्भागे 'थेराणं वेयावडियाए' स्थविराणां वैयावृत्त्याय स्थविरा भिक्षानयनाय 'गच्छेज्जा' गच्छेत् यदा गन्तुं प्रस्थितो भवेत् तदा 'थेरा य वएज्जा' "नूनं सर्वगृहेषु भिक्षायाः सममेककालमेव वर्त्तते ततोऽयं पारिहारिकोStraitri भिक्षां प्रथममादाय पश्चादयमात्मयोग्यां भिक्षामानेतुं नगरे प्रविष्टो न किमपि भोज्यजातं लप्स्यते" इति विचिन्त्य स्थविरा: पारिहारिकं वदेयुः कथयेयुः 'अज्जो' हे आर्य ! 'अत्थ' अत्र अस्मिन्नेव मदीये प्रतिग्रहे 'पडिग्गा हेहि' प्रतिगृहाण त्वदर्थमपि भिक्षां, ततः 'तुमपि एत्थ भोक्खसि वा पाहसि वा' त्वमप्यत्र मदीयपात्रे समानीतमशनादि भोक्ष्यसि वा पास्यसि वा 'एवं से कप्पर पडिग्गाहित्तए' एवं स्थविरैरुक्ते सति 'से' तस्य भिक्षार्थं गतस्य पारिहारिकस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् स्थविरपात्रे स्वनिमित्तमपि भिक्षां ग्रहीतुम् । भिक्षाऽऽनयना - नन्तरं भोजनविधिमाह – 'तत्थ णो कप्पड़' इत्यादि, 'तत्थ णो कप्पइ' तत्र समानीताशनादौ नो कल्पते 'पारिहारिएण अपारिहारियस्स' पारिहारिकेणाऽपारिहारिकस्य 'पडिग्गइंसि' प्रतिग्रहे पात्रे 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोत्तर वा पायए वा' अशनं वा पानं वा स्वाद्यं वा स्वाद्यं वा भोक्तुं वा पातुं वा । तर्हि कथं कल्पते ? तत्राह - ' कप्पड़' इत्यादि, 'कप्पर से सयंसि पडिग्गहंसि' किन्तु कल्पते 'से' तस्य पारिहारिकस्य स्वकीये प्रतिग्रहे पात्रे 'सयंसि पलासगंसि कमढगंसि वा स्वकीये पलाशके शुष्कपलाशपत्रनिर्मिते कमढके द्रोणकाभिधपात्रविशेषे वा 'सयंसि खुव्वगंसि वा' स्वकीये खुब्बगे संपुटितकरतलरूपे खोबा इति प्रसिद्धे वा 'सयंसि पार्णिसि वा' स्वकीये पाणौ वा 'उद्धट्टदु उद्धटु' उद्धृत्योद्धृत्य स्वपाणिना
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भाष्यम् उ० २ सू० २७
द्वितीयोद्देशसमाप्तिः ७५
अवकृष्यावकृष्य 'भोएत्तए वा पायत्तए वा' भोक्तुं वा पातुं वा कल्पते ॥ सम्प्रति उपसंहारमाह - 'एस कप्पे ' इत्यादि, 'एस कप्पे पारिहारियस्स अपारिहारियओ एषः पूर्वोक्तः कल्पः पारिहारिकस्य परिहारकल्पस्थितस्याऽपारिहारिकतः अपारिहारिकमधिकृत्य कथित इति । एतत् सूत्रद्वयं स्थविराणां पार्श्वे अन्यवैयावृत्त्यकारकाऽपारिहारिक श्रमणाभावे ज्ञातव्यमिति । 'शिवेमि' इति ब्रबीमि । सुधर्मस्वामी जम्बुस्वामिनं कथयति - यन्मयां भगवती वर्द्धमानस्वामिनो मुखात् श्रुतं तत्तव ब्रवीमि कथयामि न तु स्वमनीषिकया किञ्चिदपि कथयामि । एतावता श्रुतस्याsप्रामाणिकता निराकृता ॥ सू० २७ ॥
इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा कलितललितकला पालापकप्रविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनाचार्य”– पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालवति विरचितायां "व्यवहारसत्रस्व" भाष्यरूपायां व्याख्यायां द्वितीय उद्देशकः समाप्तः ॥ २॥
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॥ अथ तृतीयोद्देशकः प्रारभ्यतेव्याख्यातो द्वितीयोद्देशकः, सम्प्रति तृतीयः प्रारभ्यते, तत्र द्वितीयोद्देशकस्य चरमसूत्रेण सहास्यतृतीयोदेशकादिसूत्रस्य कः सम्बन्धः ! इति प्रथमं सम्बन्धप्रतिपादिकां गाथामाह भाष्यकारः-'परिहारिय.' इत्यादि । भाष्यम्- परिहारियथेराणं, असणाणयणे य तस्स परिभोगे।
वुत्तो विही य पुव्वं, गणस्स धारणविही एत्य ॥१॥ छाया-पारिहारिकस्थविरयोरशनानयने च तस्य परिभोगे।
____ उक्तो विधिश्व पूर्व गणस्य धारणविधिरत्र ॥ १॥ व्याख्या- 'परिहारिय०' इति । 'पुच्वं' पूर्व द्वितीयोदेशकस्य चरमसूत्रे पारिहारिकस्थविरयोः पारिहारिकतशेवहमानस्य स्थविरस्य च निमित्तमशनादीनामानयने, तस्याशनादेः परिभोगे परिभोगविषये च विधिरुक्तः-प्रतिपादितः । पारिहारिकः स्थविरश्च भिक्षुरेव भवतीति 'एत्थ' अत्र तृतीयोदेशकस्यादिसूत्रे तस्य भिक्षोः गणस्य धारणे विधिः कथयिष्यते, इत्येष एव सम्बन्धः पूर्वापरोद्देशकयोर्विज्ञेयः ॥१॥
अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य तृतीयोद्देशकस्येदमादिसूत्रम्-'भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य इच्छेजा गणं धारित्तए. भगवं च से अपलिच्छण्णे एवं से नो कप्पइ गणं धारित्तए। भगवं च से पलिच्छन्ने एवं से कप्पइ गणं धारित्तए ॥सू०१॥
__ छाया-भिक्षुश्च इच्छेत् गण धारयितुं भगाश्च स अपरिच्छिन्नः एवं तस्य नो कल्पते गण धारयितुम्, भगवाँश्च स परिच्छन्नः एवं तस्य कल्पते गण धार यितुम् ॥ सू० १॥
भाष्यम्-'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च कश्चित् साधुः 'इच्छेज्जा' इच्छेत् 'गणं धारित्तए' गणं साधुसमुदायं धारयितुं गणस्य गणधरत्वं कर्तुमिच्छेत् , अयं भावः-कोऽपि भिक्षुः कियतां साधूनां गणं कृत्वा 'इमं साधुसमुदायं ममाधीनं कृत्वाऽन्यत्र विहरिष्यामी'-ति बुद्ध्या साधुसमुदायस्य गणधरत्वं कर्तुंभिच्छेदिति । 'भगवं च से' गणधारणेच्छुः स अनगारो भगवान् यदि 'अपलिच्छण्णे' अपरिच्छन्नः परिच्छेदरहितो भवेत् परिवारवर्जितो भवेत् तत्र परिच्छदो द्रव्यभावभेदतो द्विविधः, द्रव्यतः परिच्छदः शिष्यपरिवारः, भावतः परिच्छदः आचाराङ्गादिच्छेदपर्यन्तं सूत्रजातम् , द्विधापि परिच्छेदरहितः, तत्र द्रव्यतः स्वप्रवाजितसाधुसमुदायरहितः, भावत आचाराङ्गादिसूत्रज्ञानरहितः स्यात् 'एवं से' एवम् एतादृशस्थितौ तस्यापरिच्छ. न्नस्य भिक्षोः 'नो कप्पई' न कल्पते 'गणं धारित्तए' गणम् अन्यदीयसाधुसमुदायरूपं गच्छं धारयितुम् तस्य द्रव्यभावतो द्विधापि गणधरणयोग्यताया अभावादिति । यदि 'भगवं
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भाष्यम् उ० ३ सू० १-२
भिक्षोणधारणविधिः ७७ च से' भगवांश्च सः अनगारः 'पलिच्छन्ने' परिच्छन्नः द्रव्यभावपरिच्छेदयुक्तो भवेत् ‘एवं से' एवं सति एतादृशस्थतौ द्रव्यभावपरिच्छेदयुक्तत्वे सति 'से' तस्य 'कप्पई' कल्पते 'गणं धारित्तए' गणं धारयितुम् , तस्य द्विधाऽपि गणधरणयोग्यतायाः सद्भावादिति ।
अत्र द्रव्यभावमधिकृत्य परिच्छन्नापरिच्छन्नविषया चतुर्भङ्गी प्रदर्श्यते, तथाहिएकः-द्रव्यतोऽपरिच्छन्नः, भावतोऽपि अपरिच्छन्नः १ । द्वितीयः-द्रव्यतोऽपरिच्छन्नः, भावतः परिच्छन्नः २। तृतीयः--द्रव्यतः परिच्छन्नः भावतोऽपरिच्छन्नः ३ । चतुर्थः-द्रव्यतः परिच्छन्नः, भावतोऽपि परिच्छन्नः ४ ।
अस्यां चतुर्भङ्गयां चतुर्थभगवर्ती शुद्धः, शेषा भङ्गत्रयवर्तिनः अशुद्धा इति । अत्र प्रस्तुतसूत्रे चतुर्थभगवर्ती एव गणधरपदे स्थापयितुं योग्य इति सूत्रार्थः ॥ सू० १ ॥
पूर्व द्रव्यभावपरिच्छन्नो भिक्षुर्गणधरणयोग्यो भवतीति प्रोक्तम् , साम्प्रतं स द्रव्यभावपरिच्छन्नो भिक्षुर्यदि मनस्येवं चिन्तयेत् -यत् सूत्रे प्रोक्तम् -यो भिक्षुर्द्रव्यभावपरिच्छन्नो भवेत्स गगं धारयितुं शक्नोति ततोऽहमुभाभ्यामपि परिच्छन्नोऽस्मि ततः किमहं तन्न कुर्याम् ! अतोऽहं गणं धारयामि किमत्र स्थविराणां परिपृच्छायाः प्रयोजनम् ! इति विचार्य भिक्षुर्गणं धारयेत्, तत्र स्थविरान् अनापृच्छय गणं धारयितुं भिक्षोर्न कल्पते इति प्रदर्शयति सूत्रकारः--'भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य इच्छेज्जा गगं धारित्तए नो से कप्पइ थेरे अणापुच्छिता गणं धारित्तए। कप्पइ से थेरे आपुच्छित्ता गगं धारितए । थेरा य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ गणं धारित्तए, थेरा य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ पणं धारित्तए । जण्ण थेरेहिं अविइण्णं गणं धारेज्जा से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० २॥ ... छाया-भिक्षुश्च इच्छेत् गण धारयितुं नो तस्य कल्पते स्थविरान् अनापृच्छय गण धारयितुम् । कल्पते तस्य स्थविरान् आपृच्छय गण धारयितुम् । स्थविराश्च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते गणं धारयितुम् । स्थविराश्च नो वितरेयुः एवं तस्य नो कल्पते गणं धारयितुम् । यत् खलु स्थविरैः अवितीर्ण गणं धारयेत् तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥सू० २ ॥
भाष्यम् –'भिक्खू य' इति । भिक्षुश्च 'इच्छेज्जा' इच्छेत् 'गणं धारित्तए' गणं धारयितुं साधुसमुदायरूपं गणं कृत्वा तदुपरि गणाधिपत्यं कर्तुमिच्छेत् तदा तत्र 'से' तस्य भिक्षोः 'नो कप्पई' नो कल्पते 'थेरे अणापुच्छित्ता' स्थविरान् अनापृच्छय स्थविराज्ञामनादाय 'गणं धारित्तए' गणं धारयितुम् । तहिं कथं कल्पते ! इत्याह-'से' तस्य
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व्यवहारस्व
गणधारणेच्छुकस्य भिक्षोः 'कप्पई' कल्पते 'थेरे आपुच्छित्ता' स्थविरान् आपृच्छय स्थविराशामादाय 'गगं धारित्तए' गणं धारयितुम् । पृष्टेषु तेषु यदि 'थेरा य' स्थविराश्च 'विय. रेज्जा' वितरेयुः गणधारणार्थमाज्ञां दधुः 'धारय इमं गणं त्वम्' इति तदा 'से' तस्य 'कप्पइ' कल्पते 'गणं धारित्तए' गणं धारयितुं स्वसत्तायां कर्तुम् । 'थेरा य' यदि पृष्टाश्च ते स्थविराः 'नो वियरेज्जा' प्रतिकूलद्रव्यभावादिकारणवशात् नो वितरेयुः गणधारणस्याज्ञां नो दधुः तदा 'नो से कप्पइ' नो तस्य कल्पते 'गणं धारित्तए' गणं धारयितुम्-'माज्ञाप्रधाना जिनव्यवहाराः' इत्यतः स्थविराज्ञामन्तरेण गगं धारयितुं भिक्षोनों कल्पते इति भावः ।
यद्याचार्यः पूर्वोक्तस्वरूपं द्रव्यभावपरिच्छन्नं भिक्षु स्मारणावारणा दिलब्धिसम्पन्नं गणनायकपदं धारयितुं योग्यं मत्वा गणधारणाज्ञां दद्यात् तदा स गणनायकपदे व्यवस्थितो भवितुमर्हति नान्यथेति तात्पर्यम् । यद्येवमकृत्वा 'जण्णं' यत् खलु 'थेरेहिं अविइण्ण' स्थविरैरवितीर्णम् अदत्तं 'गणं धारेज्जा' गणं धारयेत् स्थविराज्ञामन्तरेण तैरनाज्ञप्तं गणधारणं कुर्यात् तदा 'से' तस्य 'संतरा' सान्तरात् स्वकृतादन्तराद् , यद्वा यावत्कालं तेन गणो धारितः तावत्कालिकमन्तरमधिकृत्य प्रायश्चित्तं 'छेए वा परिहारे वा' छेदो वा परिहारो वा वाशब्दादन्यद्वा देशकालोचितं प्रायश्चित्तमापन्नं भवतीति सूत्रार्थः ॥ सू० २॥
पूर्व भिक्षोर्गणधारणविधिमुपदर्य साम्प्रतम् उपाध्यायः कीदृग्गुणसम्पन्नो भवितुमर्हतीति उपाध्यायसूत्रमाह-'तिवासपरियाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-तिवासपरियाए समणे निग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पन्मत्तिनुसले संगहकुसले उपग्गाकुसले अक्खयायारे अभिन्मायारे असबलायारे असंकिलिहायारे बहुस्सुए बब्भागमे जहन्नेणं आयारकप्पधरे कप्पइ उवज्झायताए उहिसित्तए ॥ सू०३॥
छाया-त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थ आवारकुशलः संयमकुशलः प्रवचन कुशलः प्राप्तिकुशलः संग्रहकुशलः उपग्रहकुशलः अक्षताचारः अभिन्नाचारः अशबलाचारः असंक्लिष्टाचारः बहुश्रुतः बह्वागमः जघन्येन आचारकल्पधरः कल्पते उपाध्यायतया उद्देष्टुम् ॥ सू० ३॥
___ भाष्यम्--'तिवासपरियार' इति । त्रिवर्षपर्यायः त्रीणि वर्षाणि पर्यायः दीक्षापर्यायो जातो यस्य स त्रिवर्षपर्यायः प्रव्रज्याग्रहणानन्तरं त्रिवर्षात्मकः कालः संयमाराधने यस्य व्यतीतो भवेत् स त्रिवर्षपर्यायः कथ्यते । इत्थम्भूतः कः ? इत्याह-'समणे' इत्यादि, 'समणे' श्रमणः, तत्र श्राम्यति तपस्यति संयमाराधनाय तपस्यां करोति यः स श्रमणो भिक्षुकः । श्रमणस्तु कदाचित् शाक्यादिभिक्षुरपि भवतीत्यतः तेषां व्यवच्छेदायाह-'णिग्गंथे' निर्ग्रन्थः, तत्र निर्गतः दूरं गतो ग्रन्थात् द्रव्यतो धनधान्यहिरण्यादिरूपात् , भावतः कषायमिथ्यात्वाऽविरत्यादिलक्षणात्
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भाग ३० ३ सू० ३
त्रिवर्षपर्यायस्योपाध्याय पददानविधिः ७९
यः स निर्ग्रन्थः, नहि भवति शाक्यादिभिक्षुर्दव्यभावो भयग्रन्थरहितः अतः स निर्ग्रन्थो न भवतीति निर्मन्थ इति कथितम् । स पुनः कथम्भूतः इति तद्विशेषणान्याह - ' आयार०' इत्यादि, 'आयारकुसले' आचारकुशलः ज्ञानादिपश्चाऽऽचारदक्षः । कुशलो द्विधा भवति - द्रव्यतो भाव तश्च । तत्र कुशल इति कुशं दर्भ लुनातीति कुशलः, यः कुशं दात्रेण यथा लुनाति न कचिदपि कुशो दात्रेण विच्छिन्नो भवति स द्रव्यकुशलः, यः पुनः ज्ञानादिपञ्चविधाचाररूपेण दात्रेण कर्मरूपं कुशं लुनाति स भावकुशल: ज्ञानाद्याचारेण कर्मकुशलः कर्मच्छेदको यः स आचारकुशलः, आचारविषयकसम्यदः परिज्ञानवान् इत्यर्थः, अन्यथा कर्म कुशच्छेदकाऽनुपपत्तेः । अथवाकुशलशब्दो दक्षवाची तेनाऽऽचारे ज्ञातव्ये प्रयोक्तव्ये वा कुशलो दक्षः स आचारकुशल इति ।
अयं भावः -- आचार कुशलः, तत्र आचारः - ज्ञानाद्याचारविनयाचारभेदेन द्विविधः । तत्र ज्ञानाद्याचारो यथा - यः स्वस्वोचिते काले स्वाध्यायं प्रतिलेखनादिकं स्वोचितं तपश्च करोति, आत्मनो ज्ञानादिकमधिकं निर्मलतरं च वाञ्छन् सदैव गुरुषु बहुमानपरो भवति । एष ज्ञानाचाचारः प्रतिपादितः । यो रत्नाधिकानामागच्छतामभ्युत्थानं करोति, आसनं ददाति, समागतानां पीठफलकाद्युपनयति, गच्छतां प्रति आसनादिकं नयति, तथा प्रतिलेखनानन्तरम् आगत्य आचार्यान् प्रार्थयति - आदिशतु भदन्त ! किं करोमीति, अभ्युपेतानामात्मसमीपवत्तित्वं करोति, यथानुरूपं रत्नाधिकानां कृतिकर्म करोति, मधुरं वदति, चापल्यकौ कुच्यवञ्चनारहितो वर्त्तते, इत्यादिः सर्वोऽपि वीर्याचारोऽवसेयः । एवं ज्ञानाद्याचारे विनयाचारे च कुशलः, स आचारकुशल: कथ्यते । 'संजमकुसले' संयम कुशलः, तत्र - संयमः पृथिवीकायसंयमादिमेदेन सप्तदशविधः, तस्मिन् संयमे ज्ञातव्ये परिपालने वा कुशलो दक्ष इति संयम कुशलः । अयं भावः -संयमकुशलो नामः यः उपकरणानामादानं निक्षेपणं च प्रतिलेख्य प्रमार्ण्य च करोति । अनेन प्रेक्षासंयमः प्रमार्जनासं यमश्वोक्तः । एतद्ग्रहणेन तज्जातीयाः शेषा अप्युपेक्षादिसंयमानां ग्रहणं भवति । तथा यः शय्यामुपधिमाहारं च उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धं गृह्णाति संयोजनादिमण्डलदोषरहितं च भुङ्क्ते, स्थानशयनाद्यपि कुर्वाणः प्रत्युपेक्ष्य प्रमार्ण्य च करोति । य एतेषु सर्वेष्वपि संयमेषु स्मृति - मान् भवति स संयमकुशलः कथ्यते 'स्मृतिमूलमनुष्ठानमवितथम्' इति वचनात् । पुनश्च - अप्रशस्तानां मनोवाक्काययोगानामपवर्जनम्, शुभानां चैषामभियोजनं करोति । तथा श्रोत्रादीन्द्रियाणां क्रोधादिकषायाणां च निग्रहं करोति । तथा श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि तत्तद्विषये नो व्यापारयति, प्राप्तेषु च शुभाशुभेषु तद्विषयेषु शब्दाद्यर्थेषु रागं द्वेषं च न करोति । उदयितुं प्रवृतान् क्रोधादीन् निरुणद्धि. उदयप्राप्तांस्तान् विफलीकरोति । तथा प्राणातिपाताद्याश्रवान् पिदधाति । आर्त्तरौद्रध्यानपरिहारेण धर्म्ये शुक्ले च ध्यानेऽनिगूहितबलवीर्यतया प्रवृत्तो भवति । ततस्त्रिकरणविशुद्धो यो इहलोकाद्याशंसादिविप्रमुक्तत्वात् मनसाऽप्यसंयमान् अभिलाषान् नाभि
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व्यवहार लषति स संयमकुशलः कथ्यते । 'पवयणकुसले' प्रवचनकुशलः, तत्र प्रवचनं जिनवचनं, तत्परिपालने कुशलः, तस्मिन् ज्ञातव्ये तदुपदेशे वा कुशलो दक्षो यः स प्रवचनकुशलः । अयंभावः-प्रवचनकुशलो नाम यः सूत्रस्य तदर्थस्य हेतुकारणप्रतिपादनपूर्वकं धारको न तु अक्षराराधनमात्रधारकः, अर्थनिर्णयप्रदानादिना श्रुतस्नानां निधानमिव पूर्णः पूर्वापराऽव्याहतत्वेन प्रवचनस्य निश्चायकः, बहुश्रुताचार्यसकाशाद् वाचनाग्राहित्वाद् विपुलवाचनादायकः, प्रवचनमधीत्यात्मनो हितमाचरति अन्येषां च हितमुपदिशति, प्रवचनाऽवर्णभाषिणां निग्रहे समर्थः. अनिगूहितस्वशक्तित्वेन प्रवचनप्रभावकः, स्वपरसंसारनिस्तारणे समर्थो भवति स प्रवचनकुशलः कथ्यते इति । 'पन्नत्तिकुसले' प्रज्ञप्तिकुशलः, तत्र प्रज्ञप्ति म स्वसमयपरसमयप्ररूपगारूपा, तथा च स्वकीयशास्त्रप्रतिपादितानि, तथा परदर्शनप्रतिपादितानि यानि पदार्थजातानि तेषां ज्ञाने कुशलो निपुणो यः स प्रज्ञप्तिकुशलः । यः स्वसमयप्ररूपणानियममधिकृत्य कुसमयान् मथ्नाति स प्रज्ञप्तिकुशलः कथ्यते इति भावः । 'संगहकुसले' संग्रहकुशलः-संग्रहे दक्षः तत्र संग्रहणं सम्यगरूपेणोपादानम् इति । स च संग्रहो द्विप्रकारकः, तद्यथा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः संग्रह आहारोपधिपात्रादीनाम् , भावतः संग्रहः सूत्रार्थयोः । तयोढिप्रकारकयोरपि संग्रहयोः करणे कुशलो दक्षो यः स संग्रह कुशलः । अयं भावः-संग्रहकुशलो नाम-द्रव्यभावतः सूत्रार्थादिवस्तुजातस्य स्वात्मनि संग्राहकः, तथाहि-गृहीतमौनव्रतस्याभाषणे केनापि कृतप्रश्नस्योत्तरभाषणम् , वाचनादानेन क्लान्ते गुरौ साधूनां वाचनादानम् , देशकालानुसारेण आचार्यादीनां ग्लानाद्यनुकम्पनस्य स्मारणम् , यथादेशकालं बालवृद्धाऽसहानामनुकम्पनम् , सामाचार्या सीदतां कथञ्चिद् रुष्टानां वा शास्त्रोपदेशतोऽनुशासनम् , ज्ञानाचारादिषु अभ्युद्यतानामुपवृंहणम् , यद् यस्योपकारकं भक्तमुपधिर्वा तत्तस्य स्वयमानीय प्रदानम् , सौवनलेपनादिकुर्वतो दृष्ट्वा-इच्छाकारेण भवत इदमहं करोमोति भणनं तत्करण कारापणं वाऽन्यसकाशात् इत्यादिगुणानां संग्रहो यस्मिन् विद्यते स संग्रहकुशल इति । 'उवग्गहकुसले' उपग्रहकुशलः, तत्रोप - सामीप्येन ग्रहणमुपग्रहः, स चोपग्रहो द्विप्रकारकः, तद्यथा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र येषां साधूनामाचार्य उपाध्यायो वा गणप्रवर्तको न विद्यते तान् आत्मसमीपे समानीय तेषामित्वरां दिशं इत्वरकालभाविनी दिशम् आचार्यत्वमुपाध्यायत्वं च प्रकल्प्य तान् तावत्पर्यन्तं धारयति यावदाचार्य उपाध्यायो वा निष्पाद्यते, अयं च द्रव्यत उपग्रहः । यः खलु विशेषेण सर्वेषामेव सूक्ष्मबादरजीवानामुपकारे वर्तते स भावत उपग्रहः, तत्र कुशल उपग्रहकुशलः, तत्र उपग्रहो नाम-बालासमर्थवृद्धमार्गगमनादिश्रान्ततपःक्लान्तवेदनातजातरोगातङ्कानां शय्यानिषद्योपधिभक्तपानौषधमैषज्यौपग्रहिकोपकरणादिभिरुपग्रहोपष्टम्भकरणम् । कथमित्याह-पूर्वोक्तबालादिभ्यः पूर्वोक्तं शय्यादिवस्तुजातं स्वयं ददाति, अन्यैर्वा दापयति, तथा स्वयं वैयावृत्त्यादि करोति अन्यैर्वा कारयति,
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भाष्यम् इ० ३० ३-५
त्रिवर्षपर्यायस्योपाध्यायपददानविधिः ८१ कुर्वन्तमन्यमनुमोदयति, उपहितविधि वा करोति तथाहि-यद् यस्य गुरुणा दत्तं तत्तस्योपनयति । तथा अनुपहितविधि वा करोति; तथाहि-यत्पुनर्यस्य दत्तं सोऽन्यस्मै गुरून् अनुज्ञाप्य उपनयति ददाति, यथा-इदं वस्तुजातं स्थविरैः त्वदर्थ दत्तमिति, एवमुपहितविधिरनुपहितविधिः । पूर्वोक्तगुणयुक्त च यो भवेत् स उपग्रहकुशलः कथ्यते । 'अक्खयायारे' अक्षताचारः, तत्र न क्षतः खण्डित आचारो यस्य सोऽक्षताचारः परिपूर्णाचारः, परिपूर्णाचारता च चारित्रे सति भवति, वारित्रवता नियमतः शेषाश्चत्वारोऽपि ज्ञानानाद्याचाराः सेव्याः 'चारित्रवतश्चारित्रं स्यात्' इति चनात् , ततश्चाऽक्षताचार इत्यस्य चारित्रवानित्यों बोध्यः, यः आधाकर्मादिद्विचत्वारिंशद्दोषरहितस्याऽऽहारस्य ग्रहीता भोक्ता च भवति सोऽक्षताचारः, साध्वाचारस्य परिशुद्धाहारग्रहणमुलकत्वादिति । 'अभिन्नायारे' अभिन्नाचारः, न भिन्नो न खण्डितः केनचिदपि अतिचारविशेषेण वनितत्वाद् आचारो ज्ञानाचारादिको यस्य सोऽभिन्नाचारः अखण्डितज्ञानाचारवानित्यर्थः 'असबलायारे' अशबलाचारः शबलदोषवर्जितः । 'असंकिलिहायारे' असंक्लिष्टाचारः, तत्राऽसंक्लिष्ट इहलोकपरलोकाऽऽशंसालक्षणक्लेशरहित आचारो यस्य सोऽसंक्लिष्टाचारः क्रोधादिवर्जनेन संक्लिष्टपरिणामरहित इत्यर्थः । 'बहुस्सुए' बहुश्रुतः बहु-अधिकं श्रुतं शास्त्रं यस्य स बहुश्रुतः आचारादिछेदपर्यन्तसूत्रधारकः । 'बब्भागमे' बह्वागमः-बहुरधिक आगमोऽर्थरूपो यस्य स बह्वागमः । बह्वागम इति किम् ? तत्राह-'जहन्नेणं आयारपकप्पधरे' जघन्येनाचारप्रकल्पधरः आचाराङ्ग निशीथाऽध्ययनसूत्रार्थधर इत्यर्थः । जघन्यत आचारप्रकल्पग्रहणाद् उत्कर्षतो द्वादशाङ्गधर इति ज्ञातव्यम् । अत्र आचारप्रकल्पधरस्त्रिविधः-सूत्रतोऽर्थतः तदुभयतश्च, अत्र सूत्रार्थधरत्वमधिकृत्य चतुर्भङ्गी भवति, तथाहि-सूत्रधरो नो अर्थधरः १, नो सूत्रधरः अर्थधरः २, सूत्रधरोऽपि अर्थधरोऽपि ३, नो सूत्रधरो नाप्यर्थधरः । एषु चतुर्थो भङ्गः शून्यः, उभयविकलतया आचारप्रकल्प. धारित्वविशेषणासंभवात् । आद्यानां तु त्रयाणां भङ्गानां मध्ये यस्तृतीयभगवर्ती स उपाध्यायत्वेन उद्देष्टुं योग्यः, अस्य सूत्रार्थोभयधारितया गच्छस्य सम्यक्परिवर्धकगुणसंपन्नत्वात् । तदभावे द्वितीयभगवर्त्यपि उपाध्यायत्वेन उद्देष्टुमर्हति तस्यार्थधारित्वेन गच्छपरिवर्द्धकत्वगुणसंभवात्, किन्तु प्रथमभङ्गवर्ती नोपाध्यायपदयोग्यः, तस्य सूत्रमात्रधारित्वेन शास्त्रमर्मानभिज्ञत्वात् । एवं दशाकल्पव्यवहारधरादिपदेष्वपि व्याख्यानं कर्त्तव्यमिति । पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टः श्रमणो निर्ग्रन्थः 'कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए' कल्पते उपाध्यायतया उद्देष्टुम् । त्रिवर्षपर्यायादिगुणगणविशिष्टो भिक्षुरुपाध्यायपदे स्थापयितुं युज्यते इत्यर्थः ॥ सू० ३ ॥
अथोपाध्यायपदायोग्यं श्रमणनिर्ग्रन्थ विवृणोति—'सच्चेव ण' इत्यादि ।
सत्रम्-सच्चेव णं से तिवासपरियाए समणे णिग्गंथे नो आयारकुसले नो संजमकुसले नो पवयणकुसले नो पन्नत्तिकुसले नो संगहकुसले नो उवग्गहकुसले खया
व्य, १
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व्यवहारस्त्रे यारे भिन्नायारे सबलायारे संकिलिहायारे अप्पसुए अप्पागमे नो कप्पइ उवज्झायत्ताए उदिसित्तए ॥ सू० ४ ॥
छाया-स एव खलु अथ त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थो नो आचारकुशलो नो संयमकुशलो नो प्रवचनकुशलो नो प्राप्तिकुशलो नो संग्रहकुशलो नो उपग्रहकुशलः क्षताचारो भिन्नाचारः शबलाचारः संक्लिष्टाचारोऽल्पश्रुतोऽल्पाऽऽगमो नो कल्पते उपाध्यायतया उद्देष्टुम् ॥सू० ४॥
भाष्यम्-'सच्चेव णं से' इति । 'से' अथ 'सच्चेव णं' इति स एव खलु त्रिवर्षपर्यायः यः श्रमणो निम्रन्थः तृतीयसूत्रे कथितः स एव त्रिवर्षपर्यायो यदि पूर्वोक्ताचारकुशलत्वादिगुणरहितो भवेत् स उपाध्यायतया उद्देष्टुं न कल्पते इति सूत्रभावार्थः । अत्र आचारकुशलादिपदानि निषेधपरत्वेन सर्वाणि व्याख्येयानि, तेषां पदानामर्थोऽत्रैव तृतीयसूत्रे विस्तारेण प्रति. पादितः । नवरम् 'अप्पस्सुए अप्पागमे' इति, अत्राल्पशब्दः अभाववाचकः श्रुतागमज्ञानविकलः, इति व्याख्येयम् ॥ सू० ४ ॥
पूर्व त्रिवर्षपर्यायविषयकमुपाध्यायसूत्रं व्याख्याय सम्प्रति पाञ्चवार्षिकपर्यायमाश्रित्य आचायोपाध्यायसूत्रमाह-पंचवासपरियाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-पंचवासपरियाए समणे णिग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पन्नत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खयायारे असवलायारे असंकिलिट्ठायारे बहुस्सुए बब्भागमे जहन्नेणं दसाकप्पववहारधरे कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ॥ सू० ५॥
छाया-पञ्चवर्ष पर्यायः श्रमणो निग्रंथ आचारकुशलः संयमकुशलः प्रवचनकुशलः प्रक्षप्तिकुशलः संग्रहकुशलः उपग्रहकुशलोऽक्षताचारोऽभिन्नाचारोऽशबलाचारोऽसं. क्लिष्टाचारः बहुश्रुतो वह्वागमो जघन्येन दशाकल्पव्यवहारधरः कल्पते आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् ॥ सू० ५॥
भाष्यम्-'पंचवासपरियाए' पञ्चवर्षपर्यायः पञ्च वर्षाणि पर्यायः प्रव्रज्यापर्यायो जातो यस्य स पञ्चवर्षपर्यायः, दीक्षाग्रहणकालादारभ्येदानीन्तनकालं यावत् यदि संगृह्यते, तदा स कालः पञ्चवर्षमितो यस्य भिक्षोर्व्यतीतो षष्ठश्च वर्षः प्रारब्धो भवति स पञ्चवर्षपर्यायः 'समणेणिग्गंथे' श्रमणो निर्ग्रन्थः 'आयारकुसले' आचारकुशलः, इत्यादिपदानां व्याख्या तृतीयसूत्रकृतव्याख्यावदेव ज्ञातव्या, नवरम् 'बहुस्सुए' बहुश्रुतः बहु-प्रभूतं श्रुतं सूत्ररूपं यस्य स बहुश्रुतः 'वभागमे' बहागमः बहुरागमोऽर्थरूपो यस्य स बह्वागमः 'जहन्नेणं दंसाकप्पववहारधरे'
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भाष्यम् उ०॥ सू० ६-८
__पञ्चाष्टवर्षपर्यायस्याचार्यादिपददानविधिः ॥ जघन्येन दशाकल्पव्यवहारधर: दशाश्रुतस्कन्धव्यवहारसूत्रधारकः एतादृशगुणगणविशिष्टः श्रमणो निम्रन्थः 'कप्पइ' कल्पते 'आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए' आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् आचार्योपाध्यायपदे स्थापयितुम् । यः श्रमणो निर्ग्रन्थः पूर्वोक्ताऽऽचारकुशलादिगुणगणविशिष्टः पञ्चवर्षात्मकदीक्षापर्याययुक्तश्च भवेत् स आचार्यपदमुपाध्यायपदं वा स्वीकत्ते योग्यो भवेदिति भावः ॥ सू० ५॥ ____ अथ पूर्वसूत्राद् वैपरीत्येनाचार्योपाध्यायपदायोग्यपरकं सूत्रमाह-'सच्चेव णं' इत्यादि ।
सूत्रम्-सच्चेव से पंचवासपरियाए समणे णिगंथे नो आयारकुसले नो संजमकुसले नो पवयणकुसले नो पन्नत्तिकुसले नो संगहकुसले नो उवग्गहकुसले खयायारे भिन्नायारे सबलायारे संकि लिट्ठायारे अप्पसुए अप्पागमे नो कप्पइ आयरिय उवज्झायत्ताए उदिसितए ॥ सू०६॥
- छाया–स एव खलु अथ पञ्चवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थो नो आचारकुशलो नो संयमकुशलो नो प्रवचनकुशलो नो प्रज्ञप्तिकुशलो नो संग्रहकुशलो नो उपग्रहकुशलः क्षताचारी भिन्नाचारः शवलाचारः संक्लिष्टाचारोऽल्पश्रुतोऽल्पागमो नो कल्पते आचार्योपाध्यायतयोद्देष्टुम् ॥ सू० ६॥
भाष्यम्-'सच्चेव ण से' अत्र 'से' शब्दः अथार्थवाचकस्तेन 'से' अथ स एव खलु 'पंचवासपरियाए' पञ्चवर्षपर्यायः पूर्ववत् पञ्चवर्षात्मककालदीक्षितः 'समणे णिग्गंथे' अमणो निर्ग्रन्थः आचारकुशलादिविशेषणविशिष्टो न भवेत्तदा तस्याचार्योपाध्यायपदं न कल्पते इति सूत्राशयः । अत्र आचारकुशलादिपदानि 'नो'-शब्दमधिकृत्य निषेधपरकत्वेन पूर्ववद् व्याख्येयानि । नवरम्, पूर्वोक्ताचारकुशलादिविकलः श्रमणो निर्ग्रन्थः 'नो कप्पइ आयरियउपज्झायत्ताए उदिसित्तए' नो कल्पते आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् आचार्योपाध्यायपदे स्थापयितुम् । आचारकुश सत्वादिगुणरहितः श्रमणो निम्रन्थः आचार्यपदे उपाध्यायपदे वा स्थापयितुं युक्तो न भवतीति भावः ।। सू०६ ॥
अथाष्टवर्षपर्यायमधिकृत्याचार्यादिपददानविधिमाह-'अट्ठवासपरियाए' इत्यादि ।
सूत्रम् --अट्ठवासपरियाए समणे णिग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पन्नत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खयायारे अभिन्नायारे असबलायारे बहुस्सुए बब्भागमे जहन्नेणं ठाणसमवायधरे कप्पइ आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणवच्छेयगत्ताए उद्दिसित्तए ॥सू०७॥
छाया--अष्टवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः आचारकुशलः संयमकुशलः प्रवचनकुशलः प्रज्ञ कुशलः संग्रहकुशलः उपग्रहकुशलोऽक्षताचारोऽभिन्नाचारः अशबलाचारः असंक्लिष्टाचारो बहुश्रुतः वह्वागमः जघन्येन स्थानसमवायधरः कल्पते आचार्यतया उपाध्यायतया गणावच्छेदकतया उद्देष्टुम् ॥ सू० ७ ॥
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व्यवहारसूत्रे
भाष्यम् – 'अठवासपरियार, अष्टवर्षपर्यायः तत्राऽष्टौ वर्षाणि पर्यायः प्रव्रज्यापर्याय यस्य सोऽष्टवर्षपर्यायः 'समणे मिग्मंथे' श्रमणो निर्मन्थः 'आयारकुसले' आचार कुशलः, इत्यादिपदानां तृतीयसूत्रे व्याख्या कृता तत्रतोऽक्सेया । नकरम् ' जहन्नेणं ठाणसमवायधरे' जघन्येन स्थानाङ्गसमवायाङ्गघर: स्थानाङ्गसूत्रस्य समवायानसूत्रस्य च सूत्राधारको भवेत् सः 'कप्पइ' कल्पते ‘आयरियत्ताए' आचार्यतया 'उवज्झायत्ताए' उपाध्यायतया 'गणावच्छेयगत्ताए' गणावच्छेदकतया 'उहिसित्तए' उद्देष्टुं, संस्थापयितुम् आचारकुशलादिमुणगणोपे - तोऽष्टवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः आचार्यपदे उपाध्यायपदे गणावच्छेदकपदे च संस्थापयितुं योग्यो भवति । अत्र गणावच्छेदकेति चरमपदग्रहणेन प्रवर्तकादीनि मध्यस्थानि पदान्यपि ग्रहीतव्यामि तेनायाति पूर्वोक्तगुणयुक्तः श्रमण आचार्यादीनि सर्वाणि पदानि गृहीतुं योग्यो भवतीति भावः ।। सू०७ ॥
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पूर्वोक्तगुणरहितस्तु आचार्यादिपदे समुपस्थापयितुं न योग्य इति प्रदर्शयति- 'सच्चेवणं' इत्यादि ।
सूत्रम् - सच्चेवणं अट्ठवासपरियाए समणे णिम्गंथे नो आयारकुसले नो संजमकुसले नो पत्रयणकुसले नो पन्नतिकुसले नो संगहकुसले नो उम्महकुसले खयायारे भिन्नायारे सबलायारे संकिलिट्ठायारे अप्पसुए अप्पागमे नो कप्पड़ आयरिया उवज्झायसाए गणावच्छेयगत्ताए उ सित्तए । सू०८ ॥
छाया - स एव अथ खलु अष्टवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थों नो आचारकुशलो नो संयमकुशलो नो प्रवचनकुशलों नो प्रज्ञप्तिकुशलो नो संग्रहकुशलो नो उपग्रहकुशलो क्षतावारो भिन्नावारः शबलाचारः संक्लिष्टाचारचितोऽल्पश्रुतोऽल्पागमः न कल्पले आचार्यतया उपाध्यायतया गणावच्छेदकतयोद्देष्टुम् ॥ सू० ८ ॥
भाष्यम् – 'सच्चेव णं' अथ स एव खलु ' अहवास परियार' अष्टवर्षपर्याया अष्ट वर्षाणि पर्यायः प्रव्रज्यापर्यायो यस्य सोऽष्टवर्षपर्यायः 'समणे निम्गये' श्रमणो निर्ग्रन्थः, शेषपदानि निषेधपरकत्वेन पूर्ववद् व्याख्येयानि त्रिवर्षपर्याय – पञ्चवर्ष पर्यायाऽष्टवर्षपर्याययुक्तस्य श्रमणनिर्ब्रन्थस्य आचार प्रकल्पादिवरस्य उपाध्यायादिपदस्थापनेऽयं निषेधपरको निष्कर्षो बोध्यः
अत्रोपाध्यायाचार्यादयो युगानुरूपा आचारप्रक्रपद शाकल्पम्यवहारघरादयः, तपोनियमस्वाध्यायादिषु उद्युक्ता द्रव्यक्षेत्रकालभावोचितयतनापरायणाः तत्तत्पदयोग्या ज्ञातव्याः, तथाहि त्रिवर्षपय यस्यएकमेवोपाध्यायलक्षणं स्थानमनुज्ञातं न तु द्वितीयमाचार्यत्वलक्षणं स्थानम्, , यतोऽसौ अल्पपर्यायतथा प्रभूतखेदसहिष्णुत्वाभावादाचार्यपदयोग्यताया अभावेन नाचार्यपदयोग्यों भवितुमर्हतीति । पञ्चवर्षपर्यायस्य द्वे स्थाने अनुज्ञाते, तथाहि उपाध्यायत्वमाचार्यत्वं चेति, तस्य बहुतरवर्षपर्याय
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भाष्यम् उ० ३ सू० ९ निरुद्धपर्याययस्य पुनःक्षायामाचार्यादिपदविधिः ८५ तया खेदसहिष्णुत्वशक्तिसंपन्नत्वादिति । अष्टवर्षपर्यायो विप्रकृष्टः पुनः सर्वाण्यपि स्थानामि वोढुं शक्नोति ततस्तस्य आचार्यत्वमुपाध्यायत्वं प्रवर्तकत्वं गणित्वं गणधरत्वं गणाक्च्छेदकावं चानुज्ञातम्, तादृशस्य तस्य बहुतमवर्षपर्यायत्वेन सकलगच्छसमापतितखेदसहिष्णुत्वाविशक्तिसंपन्नत्वादिति । यतश्च तस्याष्टवर्षपर्यायस्य दीर्घकालिकेनाष्टवर्षप्रमाणेन इन्द्रियनोइन्द्रियाणि निगृहीतानि भवन्ति, बहुभिः कर्त्तव्यैश्च तस्यात्मा खलु भावितो भवति ततस्तस्य योग्यत्वेन सर्वाणि स्थानान्यनुज्ञातानि भगवतेति भावः ॥ सू० ८॥
___ पूर्वसूत्रे दीक्षापर्यायमधिकृत्याचारकुशलत्वादिगुणयुक्तस्य आचार्यादिपददानविधिरुक्तः, सम्प्रति निरुद्धपर्यायस्याचार्यादिपददानविधिमाह-निरुद्धपरियाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-निरुद्धपरियाए समणे णिग्गंथे कप्पइ तदिवसं आयरियउवझायत्ताए उद्दिसित्तए, से किमाहु भंते !, अत्थिणं थेराणं तहारूवाणि कुलाणि कडाणि पतियाणि थेज्जाणि- वेसासियाणि संमयाणि सम्मुइयकराणि अणुमयाणि बहुमयाणि भवंति, तेहिं कडेहि तेहिं पत्तिएहि तेहिं येज्जेहिं तेहिं वेसासिएहिं तेहिं संमएहि तेहिं संमुइकरेहि तेहि अणुमएहिं तेहिं बहुमएहिं जं से निरुद्धपरियाए समणे णिग्गंथे कप्पा आयरियउवज्झायत्ताए उदिसित्तए तदिवसं ॥ सू०९॥
छाया-निरुद्धपर्यायः श्रमणो निग्रन्थः कल्पते तदिवसे आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् । अथ किमाहुः भदन्त ! सन्ति खलु स्थविराणां तथारूपाणि कुलानि मृतानि प्रत्ययिकाणि स्थैर्याणि वैश्वासिकानि संमतानि संमुदितकराणि अनुमतानि बहुमतानि भवन्ति । तैः कृतः, तैः प्रत्ययिकैः तैः स्थैः, तैर्वैश्वासिकैः तैः संमतै, तैः संमुदितकरैः, तैरनुमतैः, तैर्बहुमतैः यत् स निरुद्धपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः कल्पते आचार्योपाध्यायतयोहेष्टुं तहिवसे ॥ सू० ९॥
भाष्यम् --- 'निरुद्धपरियाए' निरुद्धपर्यायः, तत्र निरुद्धो विनष्टोऽतिचारादिसेवनेम पर्यायः प्रवज्यापर्यायो यस्य येन वा स निरुद्धपर्यायः क्निष्टदीक्षापर्यायः स पुनरागत्य दीक्षितो. भवेत्' तादृशः 'समणे जिग्गंथे' श्रमणो निम्रन्थः एतादृशः निरुद्धपर्यायः श्रमणः 'कप्पइ' कल्पते 'तदिवसं आयरियउबझायत्ताए उद्दिसित्तए' तदिवसे आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् , तत्र तस्मिन् दिवसे यस्मिन् दिवसे पुनः प्रघ्रज्यां गृहीतवान् तस्मिन् दिवसे, पूर्वपर्यायस्तस्य प्रभूततर आसीत् ततस्तस्मिन् दिवसे एव स कल्पते आचार्योपाध्यायतया उदेष्टुम् , आचार्यपदे उपाध्यायपदे वा व्यवस्थापयितुं कल्पते इत्यर्थः ।
अत्र शिष्यः-प्रश्नयति-'से किमाहु भंते' अत्र 'से' शब्दोऽथशब्दार्थकः, तथा च-अथ किमाहुभदन्त हेभदन्त ! किं कथं कस्मात् कारणात् भगवन्त एवमाहुर्यथा-तदिवसे एव कल्पते तस्य निरुद्धपर्यायस्याऽऽचार्योपाध्यायतया व्यवस्थापयितुम् , न खलु प्रवजितमात्रस्य तदिने एवा
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व्यवहारसूत्र ssचार्यत्वादीनि आरोप्यमाणानि घटन्ते, अगीतार्थत्वात् , इति शिष्यप्रश्नः । आचार्यः प्राह'अत्थि णं' इत्यादि, 'अस्थि णं' इति सन्ति खलु 'थेराणं' स्थविराणामाचार्याणां गच्छनायकानाम् 'तहारूवाणि' तथारूपाणि आचार्यादिप्रायोग्यानि 'कुलाणि' कुलानि साधुसाध्वीश्रावकश्राविकारूपाणि 'कडाणि' तेन कृतानि गच्छप्रायोग्यतया निर्वर्त्तिता नि संपादितानि येन यत् यथाकालं तेभ्यः तत्प्रायोग्यं भक्कादिकपधिश्चोपजायते, उपलक्षणमेतत्-तेन न केवलं तथारूपाणि कुलानि कृतानि अपि तु आचार्यबालवृद्धग्लानादयोऽप्यनेकथा संग्रहोपग्रहविषयीकृताः, इत्यपि द्रष्टव्यमिति । न केवलं तथारूपाणि कुलान्येव तानि कृतानि किन्तु-'पत्तियाणि' प्रत्ययि कानि गच्छस्य प्रीतिकराणि विनययुकानि कृतानि । 'थे जाणि' स्थैर्याणि नैकवारं द्विवारं वा गच्छस्य प्रीतिकराणि कृतानि अपितु स्थैर्याणि अनेकवारं गच्छस्य प्रीति कराणि विनयवैयावृत्त्यादिना स्थायित्वेन कृतानीति । अथवा स्थैर्याणि प्रीतिकरतया गच्छचिन्तायां प्रमाणभूततया स्थिरीकृतानि, यदा खलु गच्छे एव विचारणा भवेत् यत् गच्छस्य कः स्थायी प्रीतिकरः ? तदा एतान्येव कुलानि प्रमाणतया समुपस्थितानि भवन्ति । एवं गच्छचिन्तायां प्रमाणभूततया स्थिरीकृतानीति । न केवलमेतावदेव अपि तु 'वेसासियाणि' वैश्वासिकानि आत्मनः अन्येषां च गच्छवासिनां मायारहितीकृततया विश्वासयुक्तानि कृतानि । यत एव विश्वासयुक्तानि मत एव 'संमयाणि' संमतानि तेषु तेषु प्रयोजनेषु इष्टानि 'संमुइयकराणि' संमुदितकराणि जिनवचनेऽनुरागमुत्पाद्य जिनधर्मे प्रमोदकराणि कृतानि । 'अणुमयाणि' अनुमतानि यतो गच्छे बहुशः क्लेशादिषु समुत्पन्नेषु गच्छस्यानुकूलानि कृतानि, अत एव 'बहुमयाणि' बहुमतानि बहूनामनेकेषां बालवृद्धालानादीनाम् अतिशयत इष्टानीति बहुमतानि भवन्ति ततः 'जं से' यत् यस्मात् कारणात् स श्रमणो निम्रन्थः तेहिं कडेहिं तेहिं पत्तिएहि तेहिं थेज्जेहिं तेहिं वेसासिएहि तेहिं संमएहिं तेहिं संमुइयकरेहिं तेहिं अणुमएहिं तेहिं बहुमएहि तैः कृतैः, तैः प्रत्ययिकैः, तैः स्थैर्यैः, तैर्वैश्वासिकैः, तैः संमतैः, तैः समुदितकरैः, तैरनुमतैः, तैर्बहुमतैः पूर्वोक्तस्वरूपैः कुलैः गच्छप्रायोग्यकरणादिकारणात् कदाचित् तत्करणे मोहकर्मोदयात् , तत्तत्प्रसङ्गप्राप्तकारणविशेषाद्वा 'निरुद्धपरिचाए' निरुद्धपर्यायः त्यक्तसंयमपर्यायो भवेत् , पुनश्च शुभकर्मोदयात् सावधानीभूय दीक्षां गृह्णीयात् एतादृशः स श्रमणो निम्रन्थः 'कप्पइ' कल्पते 'आयरियउवज्झायत्ताए' आचार्योपाध्यायतया आचार्यतया उपाध्यायतया च 'उद्दिसित्तए तदिवस' उद्देष्टुं तदिवसे यस्मिन् दिवसे दीक्षा गृहीता तस्मिन्नेव दिवसे स गच्छोपकारकगुणवत्त्वात् आचार्योपाध्यायपदे स्थापयितुं योग्यो भवतीति भावः ।
अयं भावः-येन मुनिना पूर्वदीक्षाकाले साधुकुलानि साध्वीकुलानि श्रावककुलानि श्राविकाकुलानि चेति, चतुर्विधसङ्घकुलानि बहुश आचार्यगच्छादिप्रायोग्यानि कृतानि प्रीतिकरादिपदवाच्यानि कृतानि बहुशो बालवृद्धग्लानादयः संग्रहोपग्रहादिविषयीकृताः, तैः तादृशैः
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भाष्यम् उ० ३ ० १०-११
असमाप्तश्रुतनिरुद्ध पर्यायस्याचार्यादिषदविधिः ८७ कारणकलापैः यदि कदाचित् सोऽशुभकर्मोदयात् तत्तत्सम्बन्धिकारणविशेषाद्वा निरुद्धपर्यायो भूत्वा पुनः शुभकर्मोदयाद्दीक्षां गृह्णाति, एवं तस्य पूर्वपर्यायकाले समाचरितान् संघोपकारकगुणान् स्मृत्वा तस्य तद्दिवसे एव आचार्योपाध्यायपदवीं दातुं कल्पते इत्यनुज्ञातं भगवतेति न कोऽपि दोष इति शिष्यप्रश्नसमाधानमिति । सू० ९ ॥
पूर्व निरुद्धपर्यायस्य पुनर्दीक्षिते सति तद्दिवस एवाचार्यादिपददानविधिरुक्तः, साम्प्रतं तादृशस्यैव'समाप्तश्रुतस्य तद्वित्रिमाह - 'निरुद्धवासपरियार' इत्यादि ।
सूत्रम् - निरुद्धवास परियाए समणे णिग्गंथे कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसि - तर समुच्छेयक पंसि तस्स गं आयारपकप्पस्स देसे अवट्ठिए सेय 'अहिज्जिस्सामि' -त्ति अहिज्जेज्जा एवं से कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए, से य 'अहिज्जिस्सामि' - त्ति नो अहिज्जेज्जा एवं से नो कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए तद्दिवस ॥ सू० १० ॥
छाया - निरुद्धवर्ष पर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः कल्पते आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम्, समुच्छेदकल्पे तस्य खलु आचारप्रकल्पस्य देशोऽवस्थितः स च 'अध्येष्यामी' - ति अधीयीत, एवं तस्य कल्पते आचार्योपाध्यायतयोद्देष्टुम् । स च 'अध्येष्यामी' - ति नो अधीयीत एवं तस्य नो कल्पते आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुं तद्दिवसम् ॥ सू० १० ॥
भाष्यम् – 'निरुद्धवासपरियाए ' निरुद्धवर्षपर्यायः, निरुद्धो विनष्टो वर्षपर्यायो यस्य स निरुद्धवर्षपर्यायः । अयं भावः- त्रिषु वर्षेषु परिपूर्णेषु यस्य असमाप्तश्रुतस्य पूर्वपर्यायो निरुद्धो विनष्टो भवेत् । अथवा अपूर्णेषु त्रिषु वर्षेषु समाप्तश्रुतस्य वर्षपर्यायो निरुद्धः स्यादिति, एतादृशः 'समणे णिग्गये' श्रमगो निर्ग्रन्थः ' कप्पड़' कल्पते 'आयरियउवझायत्ताए उद्दिसित्तए' आचार्योपाध्यायतया आचार्यतया उपाध्यायतया वा उद्देष्टुं स्थापयितुम्, त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः आचार्यतयाउपाध्यायतया वा उद्देष्टुं कल्पते इति भावः । कदा कल्पते : इत्याह- 'समुच्छेयकप्पंसि' इत्यादि, 'समुच्छेयक पंसि' समुच्छेदकल्पे कल्पस्य समुच्छेदकाले आचार्ये गणनायके कालं गते सतीत्यर्थः अन्यस्य बहुश्रुत्स्य लक्षणपूर्णस्य चाऽसत्त्वे तस्य आचार्यतया उपाध्यायतया वा उद्देष्टु कल्पते । कथं कल्पते ! इत्यत्र विधिमाह - ' तस्स णं' तस्य खलु प्रस्तुत श्रमण निर्ग्रन्थस्य यद्यपि सः अबहुश्रुतो - sस्ति किन्तु अध्ययन समर्थो भवेत् तादृशस्य तस्य यदि ' आयारपकप्पस्स' आचारप्रकल्पस्य आचाराङ्गनिशीधाध्ययनस्य 'देसे' देशः किश्चित्प्रमाणोऽशः 'अवट्ठिए' अवस्थितः - अपठितरूपेण स्थितो वर्त्तते, किञ्चित्प्रमाणोऽशो नाधीतः, सूत्रमधीतम् अर्थस्तु नाद्याप्यधीत इति, 'से य' तं च
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2.
व्यवहारसूत्रे
योsर्थरूपोऽशोऽवशिष्ट वर्त्तते तम् अवशिष्टमर्थरूपमंशं यदि सः 'अहिज्जिस्सामि' अध्येष्ये इति कथयित्वा यदि 'अहिज्जेज्जा' अघीयेत आचाराङ्गादेः शेषभागं पठेत् यदवशिष्टं तत् सर्व पश्चात् अध्येष्ये इत्युक्त्वा यदि तत्कालमेवाऽधीते अध्येतुं प्रारमेत तदा - ' - ' एवं से कप्पर आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए' एवं सति तस्य कल्पते तद्दिवसे आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुं स्थापयितुम्। यदि पुनः 'सेय अहिज्जिस्सामि त्ति नो अहिज्जेजा' तच्चावशिष्टमंशम् अध्येष्ये इति कथयित्वाऽपिनो अधीयेत पठनवचनानन्तरं 'न मम तदध्ययनसामर्थ्यं वर्त्तते' इति वदेत् तदा एवं से नो पर आयरियउवज्झायत्ताए उद्दित्तिए तद्दिवसं' एवं सति तदा तस्य नो कल्पते आचायाचा उपाध्याय तथा वा उद्देष्टुं स्थापयितुं सद्दिने तस्मिन्नेव दिवसे इति ॥ सू० १० ॥
पूर्वं तदिवस एवाचार्यादिपददानविधिरुक्तः, सम्प्रति कालगते आचार्योपाध्याये नवदीक्षितादिभिराचार्योपाध्याय राहित्येन न भाव्यमिति तद्विधिमाह - 'निग्गंथस्स णं' इत्यादि ।
सूत्रम् -- णिग्गंथस्स णं नव - डहर - तरुणस्स आयरियउवज्झाए बिसभेज्जा नो से कप्पs अणायरियउवज्झायत्ताए होत्तए, कप्पर से पुव्वं आयरियं उद्दिसावेत्ता पच्छा उवज्झायं से किमाहुमंते 1 दुसंगहिए समणे णिग्गंचे तं जहा आय'रिएण उवज्झाएण य ॥ सू० ११ ॥
छाया - निर्ग्रन्थस्य खलु नव- डहर - तरुणस्य आचार्योपाध्यायो निष्कम्भेत् । मो तस्य कल्पते अनाचार्योपाध्यायतया भवितुम्, कल्पते तस्य पूर्वमाचार्यमुद्देशाप्य ततः कश्मात् उपाध्यायम्, अथ किमाहुर्भदन्त ! द्विसंगृहीतः श्रमणो निर्ग्रन्थः तद्यथा आचापोपाध्यायेन च ॥ सू०११ ॥
भाष्यम् -- 'णिग्गंथस्ल णं' निर्ग्रन्थस्य खलु 'नव - डहर - तरुणस्स' नब - डहर - तरुणस्य, तत्र नवी नवदीक्षितः अस्य श्रीणि वर्षाणि दोक्षापर्यायस्य व्यतीतानि भवेयुः स नव उच्यते । डहर :- जन्मपर्यायेण वर्षचतुष्टयादारभ्य यावत् परिपूर्णानि पञ्चदशवर्षाणि षोडशाद् वर्षादर्वा स डहरकः प्रोच्यते, ततो वर्षचतुष्टयादारभ्य परिपूर्ण पञ्चदशवर्षपर्यन्त जन्मदोक्षापर्यायवानिअर्थः । तरुणः - जन्मना पर्यायेण वा षोडशवर्षादारभ्य यावत् चत्वारिंशद्वर्षाणि तावत् स तरुणः प्रोच्यते इति नवडहरतरुणेति - पदत्रयस्य व्याख्या । ततः परं यावद एकोनषष्टिचर्माणि तावन्मध्यमः, ततः षष्टिवर्षादारभ्य तदुपरि यावज्जीवेत्तावत् स्थविरपदवाच्यो भवशांति | सादृशस्य नबस्य डहरस्य तरुपास्य च 'आयरिथउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः आचार्यः उपाध्याय वेत्यर्थः । 'वीसंभेज्जा' विष्कम्भेत् म्रियेत नवादिश्रमणानां मध्ये प्रत्येक यद्याचार्थी म्रियते तदा 'नो से कष्णइ अणायरिचन्द्रावतार होत
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भाग्यम् उ०३ सू० ११-१२
आचार्याद्यनिश्रया निर्ग्रन्थस्यावस्थाननिषेधः ८९
नो तस्य कल्पते अनाचार्योपाध्यायतया भवितुम् 'से' तस्य निग्रन्थस्य नवस्य डहरस्य तरुणस्य चाऽनाचार्योपाध्यायतया आचार्योपाध्यायविरहिततया भवितुं गणे वर्तितुं स्थातुं व कल्पते । आचार्योपाध्यायरहितः सन् स गणे न वसेत् अनायकस्थितो अनेकदोषसंभवात् तस्मात्कारणात् 'से पुव्वं. आयरियं उहिसावेचा' स नवादिः श्रमणः पूर्व प्रथमतः आचार्य गणनायकम् उद्देश्य गणे . गणनायकं स्थापयित्वा 'तो पच्छा उवज्झायं' ततः पश्चादाचार्यस्य स्थापनाऽनन्तरम् उपाध्यायमुद्देश्य स्थापयित्वा पुनः कल्पते स्थातुमिति भावः । एवमाचार्योपाध्यायस्य विद्यमानतया भवितुं कल्पते । एवमाचार्यस्य वचनं श्रुत्वा शिष्यः पृच्छति-'से किमाहु भंते' इति. 'से किमाइ भंते' ! अथ हे भदन्त ! किं कस्मात् कारणात् भगवन्त एवमाहुः कथयन्ति यत् निर्ग्रन्थस्य नबडहरतरुणस्य आचार्यमरणे प्रथममाचार्य स्थापयित्वा तत्पश्चात् उपाध्यायं स्थापयित्वा तयोनिश्रया स्थातुं कल्पते इति कथमेवम् ! तत्राऽऽचार्यः प्राह-'दुसंगहिए' इत्यादि । 'दुसंगहिए समणे णिग्गंथे' द्विसंगृहीतः श्रमणो निर्ग्रन्थः, द्वाभ्यां संगृहीतः संरक्षित एव श्रमणो निर्ग्रन्थः सदा भवति । श्रमणेन निम्रन्थेन सदैवाचार्योपाध्याययुक्तेनैव भवितव्यम् , न तु ताभ्यां विरहितेन कदाचिदपि भाव्यमिति । काभ्यां द्वाभ्याम् ? तत्राह-'तंजहा' इति । 'तंजहा' तद्यथा'आयरिएणं उवज्झाएम य' आचार्येण उपाध्यायेन च संगृहीत एव श्रमणो निम्रन्थः सदा भवतीति । ननु किमर्थमेवमुक्तम् यत् आचार्योपाध्यायरहिता नवदीक्षिता डहराः तरुणाश्च स्थातुं नार्हन्ति ? तत्राह -आचार्योपाध्यायसंरक्षणरहितानामस्वामिकानां तेषां स्वपरसमुद्भवा बहवो दोषाः समाप-' तन्ति, तथाहि-संरक्षणरहिता बालसाधवः 'अनाथा वय'-मिति कृत्वाऽन्यगणे गच्छन्ति, न शास्त्रमधीयते, प्रत्युपेक्षणादिकमपि यथासमयं न कुर्वन्ति, संयमे शिथिला भवन्ति, यथेच्छं भ्रमन्ति, . गृहस्थपर्याये वा गच्छेयुः, इत्यादिस्वसमुद्भवा दोषा इति । परसमुद्भवा दोषा यथा-पार्श्वस्थादयो गृहस्थाः परतीर्थिका वा क्षुल्लकान् 'अस्वामिका एते' इति कृत्वा तद्गच्छाद् निष्क्रामयेयुः, ततः पार्श्वस्थास्तान् पार्श्वस्थत्वे परिणमयन्ति, गृहस्थास्तान् गृहस्थपर्याये परिणमयन्ति, अन्यतीर्थिकाः अन्यतीर्थिकान् कुर्वन्ति, इत्यादिका बहवो दोषा नवानां विषये समुत्पद्यन्ते । तथा डहराणामिमे दोषाः-'अनाथा वयं जाताः' इति मनस्याघातेन क्षिप्तचित्ता भवन्ति, स्तेना वा स्वपक्षे परपक्षे चोत्तिष्ठन्ति, ते तान् विपरिणमय्य हरन्ति, अन्यत्र नयन्ति, अपरिपक्वबुद्धित्वेन परीषहै: खिन्नाः संयमे कम्पमाना भवेयुरन्यत्र वा स्वयं गच्छन्तीत्यादयः डहरदोषाः। तरुणानां तु दोषकलापसंभवः, तारुण्यस्य तथास्वभावात् , तथाहि-न वर्ततेऽस्माकमाचार्य उपाध्यायो वा, स्वतन्त्रा वयमिति बुद्धया न संयमं सुचारुतया परिपालयन्ति, गृहस्थैः सह राजकथादिकां चतुर्विधां विकथां यथेच्छं कुर्वन्ति, न यथासमयं प्रतिलेखनादिक्रियां कुर्वन्ति, आचार्यादिपदपिपासया वाऽन्यत्र गमनं
व्य. १२
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९०
व्यवहारस्त्रे
कुर्वन्ति, संयमयोगे सीदतां संयमाध्वनि अप्रवर्त्तमानानामपमाभू भवति तेनाऽधर्मश्रद्धाका भूत्वा गणादपक्रम्य स्वच्छन्दाः परिभ्रमन्ति । केचित्तरुणाः आचार्यपिपासया नास्माकमाचार्यमन्तरेणानुतरो ज्ञानदर्शनचारित्रलाभो भवति तस्मादवश्यमस्माभिरन्याचार्यसमीपे वर्त्तितव्यमित्याचार्यलाभवाञ्छया तेऽप्यन्यत्र गच्छेयुः । केचिद्धर्मश्रद्धालवोऽपि स्मारणावारणादिकर्तुरभावे गच्छान्तरं गच्छेयुरित्यादयस्तरुणदोषाः । तथा मध्यमाः स्थविराश्च केचिदेवं चिन्तयेयुः - यथा सर्वकालमद्यप्रभृति वयं गुरुभिः श्रावकैत्र मानिता आसन्, सम्प्रति गुरूणामभावे नास्त्यन्यः कोऽपि अस्माकमादरसस्कारकारकः, श्रावकेष्वपि न मानं लप्स्यामः इति चिन्तयित्वा स्वापमानभयादन्यत्र गच्छेयुः । यस्मादेते दोषास्तस्मात् नवडहरतरुणैः मध्यमैः स्थविरैश्च साधुभिराचार्योपाध्याय रहितैर्न स्थातव्यम्, अत एव सूत्रे प्रोक्तम्- 'नो से कप्पइ अणायरियउवज्झायत्ताए होत्तए' इति ॥ सू० ११ ॥ पूर्वं निर्ग्रन्थमधिकृत्य नवडहरतरुणसूत्रं कथितम् सम्प्रति निर्ग्रन्थीमधिकृत्य तदेवाह - 'णिग्गंथी णं' इत्यादि ।
"
सूत्रम् -- णिग्गंथीए णं नवडहरतरुणीए आयरियउवज्झाए वीसं भेज्जा नो से कप्पर अणायरियउवज्झायत्ताए होत्तए, कप्पर से पुवं आयरियं उद्दिसावेत्ता तओ उवज्झायं, तओ पच्छा पवित्तिणि, से किमाहु भंते ! तिसंगहिया समणी निग्गंथी तं जहा आयरिएणं उवज्झाएणं पवित्तिणीए य ।। सू० १२ ॥
छाया - निर्ग्रन्ध्याः खलु नवडहरतरुण्याः आचार्योपाध्यायो विष्कम्मेत् नो तस्याः कल्पते अनाचार्योपाध्यायतया भवितुम्, कल्पते तस्याः पूर्वमाचार्यमुद्दिशाप्य तत उपाध्यायम्, ततः पश्चात् प्रवर्तिनीम् । अथ किमाहु भदन्त ! त्रिसंगृहीता श्रमणी निर्ग्रथी तद्यथाभाचार्येण उपाध्यायेन प्रवर्त्तिन्या च ॥ सू० १२ ॥
भाष्यम् – 'णिग्गंथीए णं' निर्ग्रन्थ्याः स्खलु 'नवडहरतरुणीए' नवडहरतरुण्याः तत्र— निर्ग्रन्थसूत्रोक्तस्वरूपाया नवायाः डहरायास्तरण्याश्च - 'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः आचायसहित उपाध्यायः - आचार्य उपाध्यायश्च 'वीसंभेज्जा' विष्कम्भेत्, विष्वग्भवेद्वा कदाचिद म्रियेत कागतो भवेत् तदा 'नो से कप्पड़' नो तस्याः नवडहरतरुण्याः कल्पते 'अणायरियउवज्झायत्ताए होत्तए 'अनाचार्योपाध्यायतया, आचार्योपाध्याय रहिततया उपलक्षणमेतत् तेन प्रवर्त्तिनी रहिततया चापि न कल्पते गणे स्थातुमिति । किन्तु - ' कप्पड़ से पुव्वं आयरियं उद्दिसावेत्ता' कल्पते तस्याः पूर्वं प्रथमम् आचार्यं गणनायकमुद्दिशाप्य स्थापयित्वा 'तओ उवज्झायं' तत आचार्यस्थापनानन्तरम् उपापाध्यायमुद्देशाप्य स्थापयित्वा 'तओ पच्छा पवित्तिणि' ततः पश्चात् आचार्योपाध्यायस्थापनात् परं प्रवर्त्तिनीं स्थापयित्वा । ततः एतेषां स्थापनानन्तरं नवडहरतरुण्या निर्ग्रन्ध्याः गणे स्थातुं कल्पते, नाऽन्यथा । शिष्यःप्राह - ' से किमाहु भंते' अथ कस्मात् कारणाद् भदन्त । एवं कथ्यते
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भाष्यम् उ० ३ स० १२-१३ आचार्यानिश्रया:निम्रन्ध्या अवस्थाननिषेधः ११ यदाचार्यादीनां संस्थापनानन्तरमेव निम्रन्थ्या गणेऽवस्थानं कल्पते ! इति शिष्यस्य प्रश्नः । आचार्यः प्राह-'तिसंगहिया समणी निग्गंथी' त्रिसंगृहीता श्रमणी निर्ग्रन्थी, त्रिभिः संगृहीता संरक्षिता श्रमणी निर्ग्रन्थी भवति । कैत्रिमिः संगृहीता भवति ! तत्राह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहाआयरिएणं उवज्झाएणं पवित्तिणीए य' तद्यथा-आचार्येण उपाध्यायेन प्रवर्त्तिन्या च आचार्यादीनां त्रयाणां संरक्षणे एव श्रमणीनिर्ग्रन्थीभिरवस्थातव्यमिति । ननु किं कारणमत्र यन्निम्रन्थी त्रिभिः संगृहीता भवति ? अत्राह-आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीरहितायाः स्वपरसमुद्भवा बहवो दोषाः समापतन्ति, तत्र स्वसमुद्भवा दोषा यथा-संरक्षकरहितास्ताः स्वच्छन्दत्वेन स्त्रीस्वभावाद् राजकथादिविकथां कर्तुं प्रवर्तन्ते तेन तासां संयमघातसंभवः । क्रीडाकन्दपोंद्रेकोत्पादिनी वाक्कायचेष्टां वा कुर्वन्ति, बकुशत्वं शरीरोपकरणविभूषाकरणरूपं प्राप्नुवन्ति, इत्याद्यनेके दोषाः समापतन्ति । परसमुद्भवा दोषा यथा-अनायकां निर्ग्रन्थीं विज्ञाय कोऽपि असंयतः पुरुषः स्त्रियो हृदयसौकुमार्यात् तन्मनो विपरिणमय्य तस्या हरणं करोति, तां नीत्वा मातापित्रोर्वा समर्पयति, मातापित्रादयस्तां गृहस्थवेषां कुर्वन्ति । नारीशरीरस्य पुरुषलुब्धकत्वान्न नारी स्ववशा भवितुमर्हति । उक्तश्च--
"जाया पितिवसा नारी, दत्ता नारी पतिव्वसा ।
थेरा पुत्तवसा नारी, नस्थि नारी सयवसा" इति ॥ छाया-जाता पितृवशा नारी, दत्ता नारी पतिवशा।
स्थविरा पुत्रवशा नारी, नास्ति नारी स्वयंवशा ॥ इति । उक्तठचान्यदर्शनेऽपि
"पिता रक्षति कौमारे, भर्ती रक्षति यौवने । पुत्रश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति" ॥ इति ।
अतो निर्ग्रन्ध्या अनाचार्योपाध्यायप्रवर्त्तिन्या न कदाचिदपि भाव्यम् । अत्राऽऽचार्योपाध्यायसंग्रहे इमे गुणाः, तथाहि -यथपि आचार्य उपाध्यायो वा संयतीनां दूरेऽपि वर्तते तथापि दूरस्थस्यापि पुरुषस्य गौरवेण भयेन वा न कोऽपि संयतीनाम् उपसर्ग करोति यदिमा अमुकस्याऽऽचार्यस्योपाध्यायस्य वा संयत्यो वतन्ते इति बुद्धया, प्रत्युत स्वपक्षे परपक्षे वा सुबहुमानं तासां जायते-यदिमा अमुकाचार्योपाध्यायस्याऽऽज्ञावर्त्तिन्यः संयत्यः शुद्धसंयम पालयन्ति अतो बहुमानयोग्या एता इति । अथवा आचार्योपाध्यायभयतस्तासु न काचिदपि संयती आचारक्षति कत्तुं शक्नोति । यदि आचारक्षति कत्तुं प्रवृत्ता भवेत्तदा तृतीया संग्राहिका प्रवर्तिनी तां सावप्टम्भं शिक्षयति - 'यद्येवं करिष्यास तदाऽहमाचार्यस्य उपाध्यायस्य वा समीपे कथयिष्यामी'ति लोकभयेन धर्मभयेन च सा न तथा करोति प्रवर्त्तिन्या आज्ञायां तिष्ठति, इत्यादयनिसंग्रहेऽवस्थाने
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व्यवहार
निर्मन्ध्या बहवो गुणाः भवन्तीत्यतो निर्ग्रन्थ्या आचार्योपाध्यायप्रवर्त्तिनी सहितयैव स्थातव्यं न तद्रहितयेति भावः । सू० १२ ॥
. ५२
पूर्वं निर्ग्रन्थनिर्मन्थीभिराचार्यादिनिश्रां विना न स्थातव्यमिति प्रोक्तम्, साम्प्रतं गणान्निर्गत्य प्रतिसेवितमैथुनस्याचार्यादिपददाने विधिमाह - 'भिक्खू य' इत्यादि ।
सून्नम् - भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म मेहुणं पडिसेवेज्जा तिण्णि संवच्छराणि तस्य तप्पत्तियं नो कप्पड़ आयरियतं वा जाव गणावच्छेयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा, तिहिं संवच्छ रेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स - उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स णिन्त्रिगारस्स, एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयत्त वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥ सू० १३ ॥
छाया - भिक्षुश्च गणादवक्रम्य मैथुन प्रतिसेवेत त्रीणि संवत्सराणि तस्य तत्प्रस्यय नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा, त्रिषु संवत्सरेषु व्यतिक्रान्तेषु चतुर्थे संवत्सरे प्रथिते स्थितस्य उपशान्तस्य उपरतस्य प्रतिविरतस्य निर्विकारस्य एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यचित् गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० १३ ॥
भाष्यम् – 'भिक्खू य' भिक्षुश्च 'गणाओ' गणात् स्वकीयगच्छात् 'अवक्कम्म' अवक्रम्य गणाद्वहिर्निःसृत्य साधुवेषं स्वक्त्वेत्यर्थः 'मेहुणं' मैथुनं 'पडिसेविज्जा' प्रतिसेवेत मोहनीयकर्मोदयतो मैथुनप्रतिसेवनं कृतवानित्यर्थः, ततः पश्चात् शुभकर्मोदयाद्भावविपरिणामेन पुनर्दीक्षांगृह्णाति तदनन्तरम् 'तिष्णि संवच्छराणि' त्रीन् संवत्सरान् दीक्षादिवसादारभ्य त्रिसंख्यकानिवर्षाणि यावत् 'तस्स तष्पत्तियं' तस्य पुनर्गृहीतसंयमस्य श्रमणस्य तत्प्रत्ययिकं मैथुनसेवनका - रणकं मैथुनसेवनापराधजनितं कारणमाश्रित्येत्यर्थः 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'आयरियतं वा' आचार्यत्वं वा आचार्यस्य गणनायकस्य यत्पदं स्थानं तद्वा 'जाव गणावच्छेयगतं वा' यावत् गणाव - च्छेदकत्वं वा गणावच्छेदकस्य पदमित्यर्थः अत्र यावत्पदेन उपाध्यायत्वस्य प्रवर्त्तकत्वस्य स्थविरस्य गणिनो गणधरस्य च संग्रहो भवतीति तेनाचार्यादारम्यगणावच्छेद पदपर्यन्तं किमपि पदं तस्य दातुं वा पण सम्बन्धः । तत्राचार्यः - यो जघन्यतोऽष्टवर्षप्रत्रज्यापर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः आचारकुशलः संयम कुशलः प्रबचन कुशलः प्रज्ञप्ति कुशलः संग्रहकुशलः उपग्रहकुशलोऽक्षता चारोऽभिन्नाचारोऽबला चारोऽसंक्लिष्टाचारो बहुश्रुतो बहागमो जघन्येन स्थानसमवायघरः उत्कर्षेण द्वादशाङ्गधैरः स आचार्यः १ । उपाध्यायस्तु यः सूत्रपाठकः सः २ । प्रवर्तकस्तु य आचार्य कथनानुसारेण वैयावृत्यविषये साधून् प्रवर्त्तयति स प्रवर्त्तकः कथ्यते ३ । यः संयमें सीदतः श्रमणान् स्थिरीकरोति उपदेशादिप्रदानेन स स्थैर्यसंपादनात् स्थविर इति कथ्यते ४ | गणी तु स भवति यः सूत्रमर्थं
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भाष्यम् उ० ३ सू० १३-१५ मैथुनसेविभिक्षुकादेः पुनरागमने पददानविधिः ९३ च भाषते सूत्रार्थयोरुपदेष्टा गणी भवति ५। गणधरः गणस्य स्मारणावारणाकारकः ६। गणावच्छेदकस्तु यः परमादिशति, श्रमणसमुदायस्य गणवासिनः संरक्षणं करोति, तथा साधुसमुदाय गृहीत्वा तदाधाराय नवीनक्षेत्रस्योपध्युपकरणादीनां च गवेषणार्थमन्यान्यजनपदे सम्यक् विहृत्य गच्छार्थमवाहोपग्रहादिकं करोति स गणावच्छेदकः कथ्यते ७ । एतत् पूर्वोक्तं सर्वमाचार्यादि. पदसमूहम् 'उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा' उद्देष्टुं वा अनुज्ञातुमित्यर्थः धारयितुं वा तस्य स्वयं धारयितुं वा नो कल्पते इति किन्तु-तिहिं संवच्छरेहि' अत्र तृतीया सप्तम्यर्थस्य द्योतका ततश्च पुनर्गृहीतदीक्षापर्यायस्य त्रिषु वर्षेषु 'वीइक्कतेहिं' व्यतिक्रान्तेषु गतेषु वर्षत्रयेष्वित्यर्थः यस्मिन् दिने पुनर्दीक्षां गृहीतवान् तदिवसादारम्य यावत्पर्यन्तं वर्षत्रयं परिसमाप्तं भवेत् इति भावः 'चउन्थगंसि संवच्छरंसि' चतुर्थे संवत्सरे 'पट्टियंसि' प्रस्थिते संप्राप्ते चतुर्थे वर्षे प्रवतितुमारब्धे सति 'ठियस्स' स्थितस्य स्थितपरिणामस्य, पुनः किंविशिष्टस्य ? तत्राह-'उवसंतस्स' उपशान्तस्य उपशान्तवेदोदयस्य, तच्चोपशान्तत्वं मैथुनविषयक प्रवृत्तिप्रतिषेधमात्रेणापि संभवति ताह-'उवरयस्स' उपरतस्य मैथुनाभिलाषात् प्रतिनिवृत्तस्य, मैं थुनाभिलाषप्रतिनिवृत्तत्वं तु दाक्षिण्यवशमानतोऽपि भवितुमर्हति तत आह-'पडिविरयस्स' प्रतिविरतस्य प्रति-मैथुनाभिलाषप्रातिकूल्येन विरतः तद्विषयकविरतिमान् इति प्रतिविरतः तस्य, प्रतिविरतस्य, एतादृशप्रतिविरतत्वं विकाराऽदर्शनमात्रेणापि संभवेत् तत्राह-'णिघिगारस्स' निर्विकारस्य लेशतोऽपि मैथुनाभिलाषविकाररहितस्य श्रमणस्य ‘एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा' एवं पूर्वोक्तप्रकारके श्रमणे ज्ञाते सति चतुर्थवर्षारम्भे 'वस्तुतोऽयं पूर्वोक्तगुणविशिष्टो जातः' इति निर्णये सतीत्यर्थः तस्य ताहशस्य उपशान्तत्वादिगुणयुक्तस्य श्रमणस्याऽऽचार्यत्वं वा 'जाव गणावच्छेयगत्तं वा' यावत् उपाध्यायत्वं वा प्रवर्तकत्वं वा स्थविरत्वं वा गणित्वं वा गणघरत्वं वा गणावच्छेदकत्वं वा 'उदिसित्तए वो' उष्टुं वा समनुज्ञातुं वा 'धारित्तए वा' स्वयं वा धारयितुं तस्य कल्पते ॥ सू० १३ ॥
साम्प्रतमपरित्यक्तगणावच्छेदकपदस्य मैथुनसेवने आचार्यादिपदस्य निषेधसूत्रमाह-'गणावच्छेयए' इत्यादि ।
सूत्रम् - गणावच्छेयए गणावच्छेयगतं अनिक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तिय नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० १४॥
___ छाया-गणावच्छेदको गणावच्छेदकत्वमनिक्षिप्य मैथुनधर्म प्रतिसेवेत यावज्जीवं तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्व वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ ५० १४ ॥
भाष्यम्-'गणावच्छेयए' गणावच्छेदकः गणस्य साघुसमुदायस्य धारकः 'गणावच्छेयगत्त' गणाव छेदकत्वं स्वस्य गणावच्छेदकपदवीम् 'अनिक्खिवित्ता' अनिक्षिप्याऽपरित्यज्य गणावच्छे
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व्यवहार दकपदयुक्त एव साधुवेषेणैवेत्यर्थः 'मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा' मैथुनधर्म प्रतिसेवेत तदा 'जावज्जीवाए' यावज्जीवं जीवनपर्यन्तं 'तस्स' तस्य शुभकर्मोदयात् पुनर्गृहीतदीक्षस्य 'तप्पत्तियं' तत्प्रत्ययिकं तत्कारणम् तत्कारणमाश्रित्येत्यर्थः 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'आयरियत्तं वा' आचार्यत्वं वा 'जाव गणावच्छेयगत्तं वा' यावत् उपाध्यायत्वं प्रवर्तकत्वं स्थविरत्वं गणित्वं गणधरत्वं गणावच्छेदकत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा' उदेष्टुमनुज्ञातुं वा 'धारित्तए वा' स्वयं धारितुं वा नो कल्पते । मैथुनसेवनाऽनन्तरं पुनर्दीक्षितस्याऽयं विधिविज्ञेय इति भावः ॥ सू० १४ ॥
स्यक्तगणावच्छेदकपदस्य मैथुनसेवने अचार्यादिपददानविधिमाह-'गणावछेयए' इत्यादि ।
सूत्रम्-गणावच्छेयए गणावच्छेयत्त निक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उहिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयग वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ।। सू० १५॥
__ छाया-गणावच्छेदको गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्य मैथुनधर्म प्रतिसेवेत त्रीणि संवत्सराणि तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्व वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारियितु वा त्रिषु संवत्सरेषु व्यतिक्रान्तेपु चतुर्थके संवत्सरे प्रस्थिते स्थितस्योपशान्तस्योपरतस्य प्रतिविरतस्य निर्विकारस्य एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यावरणावच्छेदकत्व वा उद्देष्टुं वा धारयितु वा ॥ सू० १५ ॥
भाष्यम्-'गणावच्छेयए' गणावच्छेदकः 'गणावच्छेयगत्तं' गणावच्छेदकत्वं स्वकीयं गणावच्छेदकपदं 'निक्खिवित्ता' निक्षिप्य मुक्त्वा अन्यस्मै दत्त्वा गृहस्थवेषेणेत्यर्थः 'मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा' मैथुनधर्म प्रतिसेवेत, कश्चित् गणावच्छेदको गणावच्छेदकत्वं स्वकीयं पदं परित्यज्य ततो मैथुनधर्म प्रतिसेवेत तदा तस्य पुनर्दीक्षितस्य 'तिणि संवच्छराणि' त्रीणि संवत्सराणि पुनर्दीक्षाग्रहणानन्तरं तदिवसादारभ्य वर्षत्रयं यावत् । शेषं सर्वं त्रयोदशभिक्षुसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥ सू०१५॥
गणावच्छेदकस्य स्वपदसहितासहितभेदेन मैथुनसेवने आचार्यादिपदाऽदानदानविषयक सूत्रद्वयं कथितम् , संप्रति अचार्योपाध्याययोरपि विषये तदेव सूत्रद्वयं व्याख्यातुं प्रथममनिक्षितपदविषयकं सूत्रमाह -'आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम् -आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं अनिक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगतं वा उद्दिसित्तए बा धारित्तए वा ॥ सू० १६ ॥
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भाष्यम् उ० ३ सू० १६-१८
अवधावितभिक्षुकादेः पुनरागमने पदविधिः ९५
छाया --- आचार्योपाध्याय आचार्योपाध्यायत्वम् अनिक्षिप्य मैथुनधर्म प्रतिसेवेत यावज्जीवं तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावत् गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टु बा धारयितुं वा ॥ सू० १६ ॥
भाष्यम् – 'आयरिय उवज्झाए' आचार्योपाध्यायः, आचार्यश्च उपाध्यायश्चेत्यर्थः 'आयरियउवज्झायत्तं' आचार्योपाध्यायत्वम् आचार्य पदमुपाध्यायपदं च ' अनिक्खिवित्ता' अनिक्षिप्य अपरित्यज्यैव । इत्यादि सर्वं गणावच्छेदकस्य चतुर्दशसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० १६ ॥
आचार्योपाध्याय पदसहितस्याचार्यादिपददानविषयकं सूत्रं व्याख्याय साम्प्रतं त्यक्ततत्पदस्य द्विधिमाह - 'आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम् - आयरियउवज्झाए
आयरियउवज्झायत्तं निक्खिवित्ता मेहुणधम्मं पडि सेवेज्जा तिणि संवच्छ्राणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियतं वा जाव गणावच्छेयगतं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कतेहिं चउत्थगंसि सवच्छरंसिपद्वियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पड़िविरयस्स णिव्विगारस्स एवं से कष्पइ आयरियत्तं वा जाव गण वच्छेयगत्तं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा ॥ सू० १७ ॥
छाया - आचार्योपाध्यायः अचार्योपाध्यायत्वं निक्षिप्य मैथुनधर्म प्रतिसेवेत त्रीणि संवत्सराणि तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टु धारयितुं वा त्रिषु संवत्सरेषु व्यतिक्रान्तेषु चतुर्थके संवत्सरे प्रस्थिते स्थितस्य उपशान्तस्य उपरतस्य प्रतिविरतस्य निर्विकारस्य एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गुणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० १७ ॥
भाष्यम् – 'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः, आचार्यश्चोपाध्यायश्चेत्यर्थः । 'आयरियउवज्झायत्तं निक्खिवित्ता' आचार्यत्वमाचार्य पदवीम् उपाध्यायत्वमुपाध्यायपदवीं च निक्षिप्य परित्यज्य गृहस्थो भूत्वेत्यर्थः 'मेहुणधम्मं' मैथुनधर्म 'पडि सेवेज्जा प्रतिसेवेत । इत्यादि शेषं सर्वं त्रयोदशभिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० १७ ॥
9
पूर्वं मैथुनधर्मसेवनविषयाणि पञ्च सूत्राणि, तत्र भिक्षुविषयकमेकं गणावच्छेदकस्य स्वपदात्यागत्यागविषयकं सूत्रद्वयम्, एवमाचार्योपाध्यायस्य तादृशमेव सूत्रद्वयम् एवं पञ्च सूत्राणि व्याख्याय साम्प्रतमनेनैव प्रकारेणाऽवधावनविषयाणि भिक्षुकादीनां पञ्च सूत्राणि प्रोच्यन्ते तत्र प्रथमं भिक्षुसूत्रमाह–‘भिक्खु य' इत्यादि ।
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९६
व्यवहारस्
सूत्रम् - भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहायइ, तिष्णि संवच्छराणि तस्स तप्पaियं नो कप्पर आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा, तिहिं संच्छरेहिं बीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उत्ररयस्स पडिविरयस्स निव्विगारस्स एवं से कप्पर आयरियतं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसितए वा धारितए वा ॥ सू० १८ ॥
छाया - भिक्षुश्च गणादवक्रस्याऽवधावति, त्रीणि संवत्सराणि तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा, त्रिषु संवत्सरेषु व्यतिक्रान्तेषु चतुर्थ के संवत्सरे प्रस्थिते स्थितस्योपशान्तस्य उपरतस्य प्रतिविरतस्य निर्विकारस्य एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गुणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० १८ ॥
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भाष्यम् – 'भिक्खू य' भिक्षुश्च 'गणाओ अवक्कम्म' गणाद् अवक्रम्य 'ओहायइ' अवधावति-"अहं वेदोदयं धारयितुं न शक्नोमि गणस्थितेन मया मैथुनसेवनं न कर्तव्यं प्रवच नोड्डाहादिसद्भावात् मा भवतु प्रवचनोड्डाहः, अत्राहं साधुवेषेण विहरन् धर्मकथाप्रबन्धादिरनेकशः कृत इति अत्र निवासिनो जना मां जानन्ति देशान्तरे च सुखेन मैथुनं सेविष्ये" इति बुद्धया सदोरकमुखवस्त्रिकारजोहरणादिरूपं द्रव्यलिङ्गं परित्यज्य मैथुनसेवनभावनया देशान्तरं गच्छति, तत्र मैथुनधर्म प्रतिसेवते ततः कदाचिद्वेदोपशमनानन्तरं शुभकर्मोदयात् पुनरागत्य दीक्षां गृहीत्वा संयतो भत्ता 'स' तस्य उपशान्तवेदस्य पुनर्दीक्षितस्य 'तिष्णि संवच्छराणि' त्रीणि संवत्सराणि यद्दिवसे संयमो गृहीतः तदिवसादारभ्य वर्षत्रयं यावत् 'तप्पत्तियं' तत्प्रत्ययिकम् अवधावनकारणकम् अवधावनकारणमाश्रित्येत्यर्थः 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'आयरियतं वा जाव गणावच्छेयगतं वा' आचार्यत्वं वा यावत् उपाध्यायत्वं वा प्रवर्त्तकत्वं वा स्थविरत्वं वा गणित्वं वा गणधरत्वं वा गणावच्छेदकत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा' उद्देष्टुम् अनुज्ञातुं वा 'धारितए वा' धारयितुं वा । इत्यादि शेषं सर्वे मैथुन प्रतिसेवनविषयकत्रयोदशभिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् ।। सू० १८ ॥
अवधावनविषयकं भिक्षुसूत्रमुक्त्वा सम्प्रति पदवीसहितावधावनविषयकं गणावच्छेदकसूत्रमाह - 'गणावच्छेयए' इत्यादि ।
सूत्रम् - गणात्रच्छेयए गणावच्छेयगत्तं अनिक्खिवित्ता ओहाएज्जा जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगतं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ।। सू० १९ ॥
छाया - गणावच्छेदको गणावच्छेदकत्वं अनिक्षिप्यावधावेत् यावज्जीवं तस्य तत्प्रत्ययिकंनो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद् गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू. १९ ॥
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भाष्यम् उ० ३ सू० १९-२२
अवधावितस्य पुनरागमने पददानविधिः ९७
भाष्यम् – 'गणावच्छेइए' गणावच्छेदकः 'गणावच्छेयगत्तं' गणावच्छेदकत्वम् गणाव - च्छेदकपदवीम् 'अनिक्खिवित्ता' अनिक्षिप्य अपरित्यज्य साधुवेषेणैवेत्यर्थः 'ओहावेज्जा' अवधावेत् मैथुनार्थं देशान्तरं गच्छेत्, गत्वा च तद्वेषेणैव मैथुनं प्रतिसेवते, प्रतिसेव्य पुनरागत्य दीक्षां गृह्णाति तदा 'जावज्जीवाए तस्स' यावज्जीवं जीवनपर्यन्तं तस्य तादृशस्यावधावितस्य पुनर्गृहीतदीक्षस्य 'तप्पत्तियं' तत्प्रत्ययिकं मैथुनार्थमवधावनकारणकम् 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'आयरियत्तं वा उवज्झायत्तं वा । इत्यादि सर्वं पूर्वोक्तपदवी सहित मैथुनधर्मसेविगणावच्छेदकसूत्रचतुर्दशवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० १९ ॥
सम्प्रति त्यक्तपदवीकगणावच्छेदकस्यावधावनसूत्रमाह - 'गणावगच्छेयए' इत्यादि ।
सूत्रम् - गणावच्छेयए गणावच्छेयगत्तं निक्खिवित्ता ओहाएज्जा तिष्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दि सित्तए वा धारितए वा, तिर्हि संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स परिविश्यस्स निव्विगारस्स एवं से कप्पर आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगतं वा द्दित्तिए वा धारितए वा ।। सू० २० ॥
छाया - गणावच्छेदको गणावच्छेदकत्वं निक्षिप्याऽवधावेत् त्रोणि संवत्सराणि तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गुणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं . वा, त्रिषु संवत्सरेषु व्यतिक्रान्तेषु चतुर्थके संवत्सरे प्रस्थिते स्थितस्य उपशान्तस्य उपरतस्य प्रतिविरतस्य निर्विकारस्य एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गुणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० २० ॥
भाष्यम् – 'गणावच्छेइए' गणावच्छेदकः गणावच्छेयगत्तं गणावच्छेदकत्वं गणावच्छेदकपदवीम् 'निक्खिवित्ता' निक्षिप्य परित्यज्य 'ओहावेज्जा' अवधावेत् मैथुनसेवनार्थं देशान्तरं प्रत्यवधावनं कुर्यात्, तत्र मैथुनं प्रतिसेवते इति भावः । प्रतिसेव्य च शुभकर्मोदयात् पुनः प्रत्यावृत्य दीक्षितो भवेत्, तदा तस्य 'तिष्णि संवच्छराणि' त्रीणि संवत्सराणि इत्यादि सर्व पदवीपरत्यागपूर्वक मैथुनसेविगणावच्छेदकपञ्चदशसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥ सू० २० ॥
पूर्व पदवीसहित पदवी परित्यागपूर्व कावधावकगणावच्छेदकविषयकं सूत्रद्वयमुक्त्वा सम्प्रति तद्विषयकमेवाऽऽचार्योपाध्याय - सूत्रद्वयमुच्यते, तत्र प्रथमं पदवी सहितावधावनविषयकमाचार्योपाध्यायसूत्रमाह- 'आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम् - आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं अनिक्खिवित्ता ओहाएज्जा जावज्जीवre तस्स तप्पत्तियं नो कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छ्रेयगतं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा ॥ सू० २१ ॥
व्य. १३
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व्यवहार
छाया-आचार्योपाध्यायः आचार्योपाध्यायत्वमनिक्षिप्य अपधावेत् वाधज्जीवं तस्य तत्प्रत्यायकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा उपाध्यायत्वं पा यावद् गणापच्छेदकत्व वा उद्देषु वा धारयितुं वा ॥ सू० २१ ॥
भाष्यम्-'आयरिय उवज्झाए' आचार्योपाध्यायः, आचार्यश्च उपाध्यायश्च 'आयरिय उवज्झायत्त अनिक्खिवित्ता' आचार्यत्वमाचार्यपदवीम्, तथा उपाध्यायत्वमुपाहायपदवीम् अनिक्षिप्याऽपरित्यज्य 'ओहाएज्जा' अवधावेत् तदा यावज्जीवं तस्य नो कल्पते आचार्योपाध्यायत्वमुद्देष्टुं वा धारयितुं वेति अनिक्षिप्तपदवीकमैथुनसेव्याचार्योपाध्यायषोडशसूत्रवद् व्याख्या कर्त्तव्येति ॥ सू०२१ ॥ - सूत्रम्-आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्त निक्खिवित्ता ओहाएज्जा तिण्णि संबच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगतं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडि विरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पड़ आयरित्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू०२२॥
छाया-आचार्योपाध्यायः आचार्योपाध्यायत्वं निक्षिप्य अवधावेत् त्रीणि संवत्सराणि तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा, त्रिषु संवत्सरेषु व्यतिक्रान्तेषु चतुर्थके संवत्सरे प्रस्थिते स्थितस्य उपशान्तस्य उपरतस्य प्रतिविरतस्य निर्विकारस्य एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यावत् गणावच्छेद कत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० २२॥
भाष्यम् –'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः, आचार्यः उपाध्यायश्च 'आयरियउवज्झायत्तं' आचार्योपाध्यायत्वम् आचार्यत्वमुपाध्यायत्वं च, स्वकीय पदमाचार्यादि पदम् तत् 'निक्खिवित्ता, निक्षिप्य परित्यज्य 'ओहाएज्जा' अवधावेत् । शेष सर्व निक्षिप्तपदमैथुनसेव्याचार्योपाध्यायसप्तदशसूत्रवद् व्याख्येयम् ।
___ स्वपदस्यानिक्षेपणे निक्षेपणे च गणावच्छेदकाचायोपाध्यायविषये अजापालकदृष्टान्तद्वयं यथा-एकोऽजापालकः स्वकीयमजावर्ग कस्मै असमर्प्य गतः तस्याजावर्गश्चोरेण चोरितः । स पुनरावृत्तो यावज्जीवं सोऽजावर्ग न लब्धवान् । अन्योऽजापालकः स्वकीयम् अजावर्ग कस्मै समयं गतः । ततः प्रतिनिवृत्तेन तेन यथावस्थितोऽजावर्गो लब्धः। एवं गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायविषयेऽपि भावनीयम् । अत्र मैथुनधर्मप्रतिसेवनमधिकृत्य पञ्च सूत्राणि सन्ति, तत्रैकं सूत्रं सामान्येन भिक्षुविषयकम् १। गणावच्छेदकपदापरित्यागमधिकृत्यैकं गणावच्छेदकसूत्रम् २ । स्वपदपरित्यागमधिकृत्य द्वितीयं गणावच्छेदकसूत्रम् ३ एवमेव आचार्योपाध्यायसूत्रद्वयं पदाऽपरि
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भाष्यम् उ० ३ सू० २३-२५ बहुशो मायामृषादिसेवने आचार्यादिपदनिषेधः १ त्यागपरित्यागपरकमिति पञ्च सूत्राणि मैथुनसेवनविषयाणि सन्तीति ५ । एवमेवाऽवधावनमधिकृत्यैकं भिक्षुसूत्रम् १, पदाऽपरित्यागपरित्यागमाश्रित्य गणावच्छेदकसूत्रद्वयम् ३, आचार्योपाध्यायसूत्रद्वयं
चेत्यवधावनपरकाणि पञ्चसू त्राणि ५। एवं दश सूत्राणि त्रयोदशसूत्रादारभ्य द्वाविंशतिसूत्रपर्यन्तामि प्रायः समानव्याख्यानानि सन्तीत्यवधेयम् । अयं भावः-स्वपदाऽनिक्षेपणसूत्रद्विके गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायाः प्रत्यागता अनर्पिताजावर्गाजापालकवत् यावज्जीवमाचार्यादिपदानामनीं एव । स्वपदनिक्षेपणसूत्रद्वये तु अपिताजावर्गाजापालकदृष्टान्तेन पूर्वोक्तप्रकारेण त्रिसंवत्सरातिक्रमे आचार्यादिपदानां योग्याः भवन्तीति ॥ सू०२२ ॥
पूर्वमवधावनमधिकृत्य भिक्षुप्रभृतीनि पञ्च सूत्राणि व्याख्यातानि, साम्प्रतं मायादियुक्तबहुश्रुतबह्वागमभिक्षुगणावच्छेदकाचार्योपाध्यायविषयाणि सप्त सूत्राणि वक्ष्यन्ते, तत्रैषामेवैकवचनमाश्रित्य त्रीणि सूत्राणि ३ । एवं बहुवचनमाश्रित्य त्रीणि सूत्राणि ६ । तथा एषामेव समुच्चयेन बहुवचनमाश्रित्येकं सूत्रम् ७ । एवं सप्त सूत्राणि कथयिष्यन्ते, तत्र सप्तसु सूत्रेषु प्रथममेकवचनेन भिक्षुसूत्रमाह--'भिक्खू य बहुस्सुए' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य बहुस्सुए बब्भागमे बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेमु भाई मुसाबाई असुई पापजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगतं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० २३॥
छाया-भिक्षुश्च बहुश्रुतो बह्वागमः बहुशो बहुषु आगाढागाहेषु कारणेषु मायी मृषावादी अशुचिः पापजीवी यावज्जीवं तस्य तत्प्रयायकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्व वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० २३ ॥
भाष्यम्-'भिक्खू य' 'भिक्षुश्च 'बहुस्सुए' बहुश्रुतः बहु-अधिकं श्रुतं सूत्रमभ्यासे यस्य स बहुश्रुतः अनेकप्रकारकसूत्रज्ञातेत्यर्थः । तथा 'बब्भागमे बह्वागमः बहुरधिक आगमः आगमार्थपरिज्ञानं यस्य स बह्वागमः अनेकाऽनेकविधसूत्रार्थतदुभयज्ञातेत्यर्थः 'बहुसु' बहुषु बहुप्रकारकेषु 'आगाढागाढेसु कारणेसु' आगाढागाढकारणं यत् सचित्ताचित्तविषये विवादास्पदीभूतमपि कुलगणसंघस्याहारोपधिशय्याद्युपग्रहे वर्तते, तादृशेषु आगाढागाढेषु कारणेषु 'बहुसो' बहुशोऽनेकवारम् ‘माई' मायी मायावी परच्छिद्रान्वेषित्वात्, तेन मायित्वेन 'मुसावाई' मृषावादी असत्यभाषणकारी अत एव 'असुई' अशुचिः अशुद्धाऽऽहारादिसेवनादशुद्धान्तःकरणः, अत एव 'पावजीवी' पापजीवी पापकर्मणा जीवनशीलः मायादिकपटमाश्रित्य बहुशोऽकृत्यकरणात् पापिष्ठ इत्यर्थः । एतादृशो यो भिक्षः 'तस्स' तस्य भिक्षोः 'जावज्जीवाए' यावज्जीवं जीवनपर्यन्तम् 'तप्पत्तियं' तत्प्रत्ययिकं मायामृषादिकारणकम् 'नो कप्पई' नो कल्पते आयरियत्तं वा जाव मणा
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१००
व्यवहारसूत्रे
बच्छेयगत्तं वा आचार्यत्वमाचार्यपदवीं वा यावत् उपाध्यायत्वं वा प्रवर्त्तकत्वं वा स्थविरत्वं वा गणित्वं वा गणधरत्वं वा गणावच्छेदकत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा धारितए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं .वा स्वस्य वा आचार्यपदवीं धारयितुं तस्य भिक्षोर्न कल्पते || सू०२३||
अथ सप्तसु सूत्रेषु द्वितीयं गणावच्छेदकविषयं सूत्रमाह-- 'गणावच्छेइए' इत्यादि
सूत्रम् - गणावच्छेइए बहुस्सुए बभागमे बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कार - सु माई मुसावाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं व जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥ सू० २४ ॥
छाया -- गणावच्छेदकः बहुश्रुतः बह्नागमः बहुशः : बहुसु आगाढागाढेषु कारणेषु मायी मृषावादी अशुचिः पापजीवी यावज्जीवं तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावत् गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टु वा धारयितुं वा ॥ सु० २४ ॥
भाष्यम् – 'गणावच्छेइए' गणावच्छेदकः गणव्यवस्थाकारकः 'बहुस्सुए भाग मे' बहुश्रुतः बह्नागमः पूर्वोक्तस्वरूपः 'बहुसो' बहुशोऽनेकवारम् 'बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु इत्यादि शेषं सर्व भिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् । अयं भावः य -यदि गणावच्छेदको बहुश्रुतो बह्नागमो - ऽपि किमपि कारणमासाद्यापि बहुशो मायिमृषावादिप्रभृतिविशेषणविशिष्टो भवेत् तदा तस्य तत्कारणमाश्रित्य यावज्जीवमाचार्यादिपदवीदानं पुनः कथमपि न कल्पते ॥ सू० २४ ॥
साम्प्रतं तृतीयमाचार्योपाध्यायविषयं सूत्रमाह - ' आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम् - आयरियउवज्झाए बहुस्सुए बभागमे बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारसु माई मुसावाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पर आयरियत्तं वा जाव गणात्रच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ।। सू० २५ ॥
छाया - आचार्योपाध्यायो बहुश्रुतो बह्नागमो मायी मृपावादी अशुचिः पापजीवी यावज्जीवं तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्त्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० २५ ॥
भाष्यम् – 'आयरियउवज्झाए' इति । इदमपि सूत्रं भिक्षुसूत्रवदेत्र व्याख्येयम् । अयं भावः - आचार्यः उपाध्यायो वा बहुश्रुतो बह्वागमोsपि यं कमपि कारणविशेषमासाद्यापि किं पुनरकारणकं बहुशो मृषाभाषणादिकं करोति तस्य मृषावादादिविशिष्टस्याचार्यस्य उपाध्यायस्य वा मृषावादित्वप्रत्ययिकं यावज्जीवं पुनराचार्यादिपदवीदानं धारणं वा कथमपि न कल्पते इति ॥ सू० २५ ॥
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भाष्यम् उ० ३ ० २६-२९ भिक्षुकादीनां बहुशो मायादिसेवने पदनिषेधः १०१
अथ चतुर्थ भिक्षुमधिकृत्य बहुवचनेन सूत्रमाह-'बहवे भिक्खुणो' इत्यादि । . सूत्रम्--बहवे भिक्खुणो बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसावाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० २६॥
छाया-बहवो भिक्षवः बहुश्रुताः बह्वागमाः बहुशो बहुसु आगाढागाढेषु कारणेषु मायिनो मृषावादिनोऽशुचयः पापजीविनो यावज्जीवं तेषां तत्प्रत्यायकं नो कल्पते आचार्यत्व वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारीयतुं वा ॥ सू० २६॥
भाष्यम् -- 'बहवे भिक्खुणो' बहवोऽनेके भिक्षवः । इदमपि सूत्रं भिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् । विशेष एतावानेव यत् तत्रैकवचनमाश्रित्य व्याख्या कृता, अत्र बहुवचनमाश्रित्य व्याख्या कर्तव्येति ॥ सू० २६ ॥
अथ बहुवचनेन गणावच्छेदकविषयं पञ्चमसूत्रमाह-'बहवे गणावच्छेयया' इत्यादि ।
सूत्रम् -बहवे गणावच्छेयया बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहुमु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ ९० २७॥
छाया-बहवो गणावच्छेदकाः बहुश्रुताः बह्वागमाः बहुशो बहुसु आगाढागा. ढेषु कारणेषु मायिनो मृषावादिनः अशुचयः पापजीविनः यावज्जीवं तेषां तत्प्रत्ययिक नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुवा धारयितुं वा ॥सू० २७॥
भाष्यम्-'बहवे गणावच्छेयया' बहवोऽनेके त्रिचतुःप्रभृतयः गणावच्छेदकाः । शेषं सर्व बहुवचनेन भिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् । सू० २७ ॥
अथा चार्योपाध्यायविषयं षष्ठं सूत्रमाह-'बहवे आयरियउवज्झाया' इत्यादि ।
सूत्रम्-बहवे आयरियउवज्झाया बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माईं मुसाबाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० २८ ॥
छाया बहवः आचार्योपाध्यायाः बहुश्रुताः बागमाः बहुशो बहुषु आगाढागाढेषु कारणेषु मायिनो मृषावादिनोऽशुचयः पापजोविनो यावज्जोवं तेषां तत्प्रत्ययिक नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावत् गणावच्छेदकत्वं वा उद्दष्टुवा धारयितुं वा ॥ सू० २८॥
भाष्यम्- 'बहवे आयरियउवज्झाया' बहवोऽनेके त्रिचतुःप्रमृतयः प्राचार्योपाध्यायाः आचार्याः उपाध्यायाश्च । शेषं सर्व बहुवचनेन भिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० २८ ॥
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९०६
व्यवहारसूत्रे
अथ भिक्षुकादीन् सर्वान् संगृह्य बहुवचनेन सप्तमं समुच्चयसूत्रमाह - 'बहवे भिक्खुणो' इत्यादि ।
सूत्रम् - बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेयया बहवे आयरियउवज्झाया बहुबभागमा बहुसो बहुसु अगाढागाढेसु कारणे माई मुसावाई असुई पावजीवी जावज्जीवा तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगतं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा ॥ सू० २९ ॥
॥ ववहारकप्पे तइओ उद्देसो समत्तो ॥ ३ ॥
छाया - बहवो भिक्षुका बहवो गणावच्छेदकाः बहव आचार्योपाध्याया बहुश्रुताः बह्रागमाः बहुशो बहुषु आगाढागाढेषु कारणेषु मायिनो मृषावादिनः अशुचयः पापजीविनो यावज्जीवं तेषां तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद् गणावच्छेदकत्वं बा उद्देष्टु ं वा धारयितुं वा ॥ सू० २९ ॥
॥ व्यवहारकल्पे तृतीय उद्देशः समाप्तः ॥ ३॥
भाष्यम् – 'बहवे भिक्खुणो' बहवो भिक्षुकाः तथा 'बहवे गणावच्छेयया' बहवोऽनेके गणावच्छेदकाः 'बहवे आयरियउवज्झाया' बहवोऽनेके आचार्योपाध्यायाः । शेषं सर्वं भिक्षुबहुत्वमधिकृत्य बहुवचनेन भिक्षुसूत्रव्याख्यावद् व्याख्या करणीया । अयं भावः - अनेके भिक्षुका गणविच्छेदका आचार्योपाध्याया बहुश्रुताया अपि अभीक्ष्णं माया - मृषावादादिकं यदि कुर्युः तदा मिक्षुकादीनां सर्वेषामपि मृषावादादिजनितापराधेन जीवनपर्यन्तमेषामाचार्यादिगणावच्छेदका - सपदव्या दानं धारणं च न कल्पते इति ॥ सू० २९ ॥
इति श्री विश्वविख्यात -जगद्दल्लभ-प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा कलितललितकलामालापकप्रविशुद्ध गद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनाचार्य” – पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालव्रति विरचितायां "व्यवहारसुत्रस्य” भाष्यरूपायां व्याख्यायां तृतीय उद्देशकः समाप्तः ॥३॥
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॥ अथ चतुर्थीदेशकः प्रारभ्यतेव्याख्यातस्तृतीयोदेशकः, सम्प्रति चतुर्थ उद्देशः प्रारभ्यते, तत्रास्यादिसूत्रस्य कृतीयोदेशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धस्तत्राह भाष्यकारः- 'आयरिय०' इत्यादि । भाष्यम्-आयरियमाइयाणं, माइप्पभिईण नो पर्य देज्जा ।
उउबद्धाइयकाले, विहरेज्जा तेसि विहिमेस्थ ॥१॥ छाया-आचार्यादीनां मायिप्रभृतीनां नो पदं दद्यात् ।
ऋतुबद्धादिककाले विहरेयुस्तेषां विधिमत्र ॥ १॥ व्याख्या-'आयरियमाइयाणं' इति । पूर्व तृतीयोदेशकस्यान्तिमसूत्रे माणिप्रभृतीनां मायिमृषावाद्यशुचिपापजीविनाम् आचार्यादीनाम् आचार्यस्योपाध्यायस्य प्रवर्तकस्य स्थविरस्य गणिनो गणधरस्य गणावच्छेदकस्य चेत्यर्थः पदम् आचार्योपाध्यायादिपदं यावज्जीवं नो दद्यात् इति प्रोक्तम् , ते च 'उउबदाइयकाले' ऋतुबद्धादिकाले हेमन्तग्रीष्मकाले वर्षावासका च 'विहरेज्जा' विहरेयुः विचरेयुः तदा कथं विचरेयुः ? इति तेषां विचरणस्य विधिम् अत्र चतुर्थोद्देशकस्यादौ कथयिष्यते, इत्येष पूर्वापरोद्देशकयोः सम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य चतुर्थोद्देशकस्येदमादौ आचार्योपाध्यायादिविषयकं सूत्राष्टकमाह-'नो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइआयरिय उवज्झायस्स एगाणियस्स हेमंतगिम्हामु चरित्तए ॥१॥ कप्पइ आयरियउवज्झायस्स अप्पबिइयस्स हेमंतगिम्हासु चरित्तए ॥ सू० २॥ नो कप्पइ गणावच्छेययस्स अप्पबिइयस्स हेमंतगिम्हासु चरित्तए । सू०३॥ कप्पइ गणावच्छेययस्स अप्पतइयस्स हेमंतगिम्हासु चरित्तए ॥ सू० ४॥ नो कप्पइ आयरियउवज्झायस्स अप्पबिइयस्स वासावासं वत्थए । सू० ५॥ कप्पइ आयरियउवज्झायस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए ॥ सू० ६॥ नो कप्पड़ गणावच्छेययस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए ॥सू० ७॥ कप्पइ गणावच्छेययस्स अप्पचउत्थस्स वासावासं वत्थए ॥ सू० ८॥
छाया-नो कल्पते आचार्योपाध्यायस्य एकाकिनो हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम्॥सू०१॥ कल्पते आचार्योपाध्यायम्य आत्मद्वितीयस्य हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम् ॥ स० २॥ नो कल्पते गणावच्छेदकस्य आत्मद्वितीयस्य हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम् ॥ सू० ३॥ कल्पते गणावच्छेदकस्य आत्मतृतीयस्य हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम् ॥ सू०४॥ नो कल्पते आचार्योपाध्यायस्य आत्मद्वितीयस्य वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ५॥
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१०४
व्यवहारसूत्रे कल्पते आचार्योपाध्यायस्य आत्मतृतीयस्य वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ६॥ नो कल्पते गणावच्छेदकस्य आत्मतृतीयस्य वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ७ ॥ कल्पते गणावच्छेदकस्य आत्मचतुर्थस्य वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ८॥
भाष्यम्-'नो कप्पई' इति । 'नो कप्पई' नो कल्पते 'आयरियउज्वझायस्स' आचार्यस्य उपाध्यायस्य च 'एगाणियस्स' एकाकिनः अद्वितीयस्य 'हेमंतगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मेषु, अत्र वर्षस्य त्रय एव भागा विवक्षिताः, हेमन्तकालः ग्रीष्मकालः वर्षाकालश्चेति, तत्र हेमन्तग्रीष्मकालः शेषकालनाम्ना ऋतुबद्धकालनाम्ना वा प्रसिद्धः, सोऽष्टमासात्मको नवमासात्मको वा भवति तेन शेषकालेऽष्टमासात्मके नवमासात्मके वा हेमन्तग्रीष्मरूपे. सूत्रे बहुवचनं हेमन्तग्रीष्मयोरष्टनवमासात्मकत्वात् , तेषु अष्टसु नवसु वा मासेषु इत्यर्थः आचार्योपाध्या. यस्य एकाकिनः 'चरित्तए' चरितुं विहत्तै न कल्पते, आचार्योपाध्यायस्य हेमन्तग्रीष्मकाले मासकल्पेन विहरणं भवति गच्छश्च सबालवृद्धाकुलः ततस्तत्र तिष्ठतः तस्य वैयावृत्त्यादिकं बहु कर्त्तव्यं भवेत् सूत्रार्थतदुभयानां स्मरणे मा विघ्नो भूयादिति गच्छाद् बहिः पृथग एकाकी स्थातु मिच्छेत् तदा नैकाकित्वेन स्थातुं कल्पते, यतो गच्छः अनाचार्योपाध्यायो न कर्त्तव्य इति ॥ सू०१॥
तर्हि कथं कल्पते इति द्वितीय सूत्रमाह-'कप्पई' इत्यादि । कप्पइ कल्पते 'आयरियउवज्झायस्स' आचार्योपाध्यायस्य 'अप्पबिइयस्स' आत्मद्वितीयस्य 'हेमन्तगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मेषु अष्टसु मासेषु 'चरित्तए' चरितुं विहन्तुम् ॥ सू० २॥
__ अथ गणावच्छेदकविषयं निषेधरूपं तृतीयसूत्रमाह-'नो कप्पइ गणा०' इत्यादि । 'नो कप्पई' नो कल्पते 'गणावच्छेययस्स' गणावच्छेदकस्य 'अप्पविइयस्स' आत्मद्वितीयस्य आत्मा स्वयं द्वितीयो यत्र स आत्मद्वितीयः द्वितीयेन आत्मभिन्नेन साधुना सहितः, तस्य 'हेमंतगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मेषु 'चरित्तए' चरितुम् ॥ सू० ३॥
चतुर्थ गणावच्छेदकविषयमाज्ञासूत्रमाह-'कप्पइ गणाः' इत्यादि ।
'कप्पइ' कल्पते 'गणावच्छेययस्स' गणावच्छेदकस्य 'अप्पतइयस्स' आत्मतृतीयस्य, तत्र आत्मा स्वयं तृतीयो यत्र स आत्मतृतीयः द्वाभ्यामात्मभिन्नाभ्यां साधुभ्यां सहितः, तस्य 'हेमंतगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम् ॥ सू० ४ ॥
अथ वर्षावासमधिकृत्य निषेधविषयं पञ्चममाचार्योपाध्यायसूत्रमाह -'नो कप्पइ०' इत्यादि ।
'नो कप्पई' न कल्पते आयरियउवज्झायस्स' आचार्योपाध्यायस्य 'अप्पबिइयस्स' आत्मद्वितोयस्य द्वितोयसाधुसहितस्य 'वासावासं' वर्षावासं 'वस्थए' वस्तुं स्थातुम् ॥ सू० ५॥
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भाष्यम् उ० ४ सू० १-९ आचार्यादीनां शेषकालवर्षाकालविहरणविधिः १०५
षष्ठमनुज्ञासूत्रमाह- कप्पइ आयरिय०' इत्यादि ।
'कप्पइ' कल्पते 'आयरियउवज्झायस्स' आचार्योपाध्यायस्य 'अप्पतइयस्स' मात्मतृतीयस्य आत्मा स्वयं तृतीयो यत्र स आत्मतृतीयः द्वाभ्यामात्मभिन्नाभ्यां साधुभ्यां सहितस्तस्य 'वासावासं वत्थए' वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ६ ॥
अर्थसप्तमं वर्षावासमधिकृत्य निषेधविषयं गणावच्छेदकसूत्रमाह-'नो कप्पई' इत्यादि ।
नो कप्पई न कल्पते 'गणावच्छेययस्स' गणावच्छेदकस्य 'अप्पतइयस्स आत्मतृती यस्य आत्म भन्नसाधुद्वयसहितस्य 'वासावासं वत्थए' वर्षावासं वस्तुम् । सू० ७ ॥
अथाष्टममनुज्ञासूत्रमाह- 'कप्पइ गणा०' इत्यादि ।
'कप्पई' कल्पते 'गणावच्छेययस्स' गणावच्छेदकस्य 'अप्पचउत्थस्स' आत्मचतुर्थस्यआत्मा स्वयं चतुर्थो यत्र स आत्मचतुर्थः आत्मभिन्नैस्त्रिमिः साधुभिः सहितस्य 'वासावासं वत्थए' वर्षावासं वस्तुम् कल्पते इति सूत्राष्टकसंक्षेपार्थः ।
अयं भावः-हेमन्तग्रीष्मकालमधिकृत्याचार्योपाध्यायविषयं निषेधानुज्ञागर्भितं सूत्रद्वयम् , तत्राघसूत्रे हेमन्तग्रीष्मयोरेकाकिन आचार्योपाध्यायस्य विहरणनिषेधः, द्वितीयसूत्रे आत्मद्वितीयस्य तस्य विहरणानुज्ञेति सूत्रद्वयमाचार्योपाध्यायविषयकम् २ । एवं सूत्रद्वयं गणावच्छेदकस्य हेमन्तग्रीष्मकालविषये भावनी यम्, तत्राद्यसूत्रे आत्मद्वितीयस्य प्रतिषेधः, द्वितीयसूत्रे त्वात्मतृतीयस्यानुज्ञा ४। एवमेषामेव चत्वारि सूत्राणि वर्षावासविषयाणि वेदितव्यानि, तत्राये द्वे सूत्रे आचार्यपाध्यायस्य यथा -प्रथमसूत्रे आचार्योपाध्यायस्यात्मद्वितीयस्य प्रतिषेधः, द्वितीये त्वात्मतृतीयस्यानुज्ञा ६ । तृतीयसूत्रे गणावच्छेदकस्यात्मतृतीयस्य प्रतिषेधः, चतुर्थे त्वात्मचतुर्थस्यानुज्ञेति सूत्राष्टकभावार्थः ८ । अत्र ऋतुबद्धकाले वर्षाकाले चेति कालद्व ये जघन्यतो यथाक्रमं गच्छः पञ्चकः सप्तकश्च भवितुमर्हति, पञ्चपरिमाणमस्येति पञ्चकः, समपरिमाणमस्येति सप्तकः, किमुक्तं भवति-ऋतुबद्धकाले पञ्चको गच्छः पञ्चसाधुसमुदायरूपः, वर्षाकाले च सप्तकः सप्तसाधुसमुदायरूपो गच्छो भवति । कथमित्याह-ऋतुबद्धे काले जघन्यत आचार्य उपाध्यायो वा आत्मद्वितीयः गणावच्छेदकस्त्वात्मतृतीय इत्येवं पञ्चको गच्छो भवति । वर्षाकाले जघन्यत आचार्य उपाध्यायो वा आत्मतृतीयः, गणावच्छेदकश्चात्मचतुर्थ इत्येवं सप्तको गच्छो भवति । उत्कर्षतः कालद्वयेऽपि द्वात्रिशत्सहस्रसाधुसमुदायरूपो गच्छो भवति, यथाहि-भगवत ऋषभदेवस्वामिनो ज्येष्ठस्य गणधरस्य ऋषभसेनस्य पुण्डरीकाऽपरनाम्नो द्वात्रिंशत्सहस्रो गच्छ आसीत् । शेषपरिमाणो जघन्योत्कृष्टमध्यगतो गच्छो मध्यमो भवति । अत्र सूत्राष्टके जधन्यपरिमाणो गच्छः प्रतिपादित इति ॥ सू० १-८॥ -- व्य. ११
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१०६
व्यवहारसूत्रे पूर्वम् ऋतुबद्धकालवर्षाकालमधिकृत्य एकैकाचार्योपाध्यायगणावच्छेदकविषयं कल्पाकल्पसूब्राष्टकं प्रतिपादितम्, साम्प्रतं तदेव कालद्वयमधिकृत्याऽनेकाचार्योपाध्यायगणावच्छेदकविषय सूत्रद्वयमभिधातुकामः पूर्वं हेमन्तग्रीष्मकालमधिकृत्य सूत्रमाह-'से गामंसि वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संबाहंसि वा संनिवेसंसि वा बहूणं आयरियउवज्झायाणं अपबिइयाणं, बहूणं गच्छावच्छेययाणं अप्पतइयाणं कप्पइ हेमंतगिम्हामु चरित्तए अन्नमन्ननिस्साए ॥ सू० ९॥
छाया-अथ प्रामे वा नगरे वा राजधान्यां वा खेटके वा कब्बडे वा मडम्बे वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आश्रमे वा संबाहे वा संनिवेशे वा बहूनामाचार्योपाध्यायाना. मात्मद्वितीयानाम् बहूनां गणावच्छेदकानामात्मतृतीयानाम् कल्पते हेमन्तग्रीष्मेषु चरितुम् अन्योऽन्यनिश्रया ॥ सू० ९॥
भाष्यम्-'से गामंसि वा' इति । 'से' अत्र 'से' शब्दोऽथशब्दार्थकः, तथाच- अथानन्तरं प्रत्येकाचार्यादिविषयकविधिप्रतिषेधप्रदर्शनानन्तरम् ‘गामंसि वाः' प्रामे वा ग्रामविषये, तत्र ग्रामी वृतिवेष्टितः, तस्मिन् 'नगरंसि वा नगरे वा, तत्र नगरं गोमहिण्यादीनामष्टादशकरवर्जितम् , तस्मिन् 'निगमंसि वा' निगमे वा, निगमः वणिजां व्यापारस्थानम् , तस्मिन् वा, 'रायहाणीए वा' राजधान्यां वा, तत्र राजधानी राज्ञो निवासस्थानम् , तत्र वा, 'खेडंसि वा' खेटे वा, तत्र खेटो धूलिनिमितप्राकारपरिवेष्टितं जननिवासस्थानं, तस्मिन् , 'कब्बडंसिवा' कर्बटे वा कुत्सितनगरे 'मडंबंसिवा' मडम्बे वा, मडम्बः-सार्धक्रोशद्वयान्तर्गतग्रामरहितः प्रदेशः, तत्र, 'पट्टणंसि वा' पत्तने वा, पत्तनं जलपत्तनं स्थलपत्तनमिति द्विविधम् , नौभिः शकटैर्वा प्राप्यं नगरं पत्तनं भवति, तत्र वा, 'दोणमुहंसि वा' द्रोणमुखे वा, तत्र द्रोणमुखो नाम जलस्थलमार्गयोः संमेलनस्थानम् , तत्र वा, 'आसमंसि वा' आश्रमे वा तापसादीनां निवासस्थाने वा 'संवाहंसि वा' संबाहे वा, तत्र संबाहः कृषिवलैर्धान्यरक्षार्थ निर्मितं दुर्गभूमिस्थानम् , तत्र वा, 'संनिवेसंसि वा' सन्निवेशे वा, तत्र संनिवेश:समागतसार्थवाहादिनिवासस्थानम् , तत्र वा, 'बहणं' बहूनामनेकेषां द्वित्रिप्रभृतीनाम् 'आयरियउवज्झायाण आचार्योपाध्यायानाम् आचार्याणामुपाध्यायानां चेत्यर्थः । कथम्भूतानाम् ? तत्राह 'अप्पविइयाणं' आत्मद्वितीयानाम् , आत्मना द्वितीयानाम् आत्मभिन्नैकसाधुयुक्तानाम् 'बहूणं गणावच्छेययाणं' बहूनामनेकेषां गणावच्छेदकानाम् 'अप्पतइयाणं' आत्मतृतीयानाम् आत्मना सह तृतीयानाम् द्वौ सहायको तृतीयश्च स्वयं तेषाम् 'कप्पइ' कल्पते 'हेमंतगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मेषु ऋतुबद्धकाले इत्यर्थः 'चरित्तए' चरितुं विहर्तुम् । कथं कल्पते ! इत्याह-'अन्नमन्ननिस्साए' अन्योऽन्यनिश्रया परस्परोपसंपदमाश्रित्येति यथा-एकस्याचार्यस्यैकः शिष्यः, द्वितीयः स्वयम् , एवं प्रत्येकं द्वितीयादीनां द्वौ द्वौ मिलित्वा चतुःसंख्यकादय आचार्याः, एवमेकस्य गणावच्छेदस्य
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भाष्यम् उ० ४ सू० १०-११ आचार्यादौ कालधर्मप्राप्त विहरणविधिः १०७
द्वौ शिष्यो एकश्च स्वयमिति प्रत्येकं द्वित्रादीनां त्रयस्त्रयो मिलित्वा षट्संख्यकादयो गणावच्छेदकास्तेषां हेमन्तग्रीष्मेषु विहर्तुं कल्पते इति भावः ।। सू०९॥
सूत्रम्-से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि बा आसमंसि वा संबाइंसि वा संनिवेसंसि वा बहूणं आयरियउवज्झायाणं अप्पतइयाणं, बहणं गणावच्छेययाणं अप्पचउत्थाणं कप्पइ वासावासं वत्थए अन्नमन्ननिस्साए ॥ सू० १०॥
__छाया-अथ प्रामे वा नगरे वा राजधान्यां वा खेटे वा कब्बडे वा मडम्बे वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आश्रमे वा संबाहे वा बहूनामाचार्योपाध्यायानामात्मतृतीयानाम् बहूनां गणावच्छेदकानामात्मचतुर्थानां कल्पते वर्षावासं वस्तुमन्योऽयानश्रया ॥ सू० १० ॥
भाष्यम् – 'से गामंसि वा' इत्यादि । 'से' अथानन्तरम् गामंसि वा' ग्रामे वा पूर्वनिर्दिष्टस्वरूपेषु प्रामादिषु 'बहूणं' बहूनामनेकेषां 'आयरियउवज्झायाणं' आचार्योपाध्यायानां प्रत्येकमनेकेषामाचार्याणाम् तथा प्रत्येकमनेकेषामुपाध्यायानाम् 'अप्पतइयाणं' आत्मतृतीयानाम् आत्मना सह त्रित्वसंख्याविशिष्टानाम्, तथा 'बहूणं गणावच्छेययाणं' बहूनामनेकेषां गणावच्छेदकानाम् 'अप्पचउत्थाणं' आत्मचतुर्थानाम् आत्मना सह चतुष्कसंख्याविशिष्टानाम् 'कप्पई' कल्पते 'वासावासं' वर्षावासं चातुर्मास्यम् 'वत्थर' वस्तुं वासं कर्तुम् । कल्पते आत्मतृतीयानामाचार्याणां बहूनाम्, तथा-आत्मचतुर्थानां बहूनां गणावच्छेदकानां वर्षावासं वस्तुम् । कथमित्याह'अन्नमन्ननिस्साए' अन्योऽन्यनिश्रया परस्परोपसंपदा चातुर्मास्ये एकत्र वासं कत्तुं कल्पते । अत्रायं भावः यथा-एकस्याचार्यस्य द्वौ शिष्यो एकश्च स्वयमिति त्रयः, एवं प्रत्येक द्विवादीनां संख्यामेलनं भवतीति परस्परं मिलित्वा, एवमेकस्य गणावच्छेदस्य त्रयः शिष्याश्चतुर्थः स्वयमिति चत्वारः, एवं प्रत्येकं द्वित्रादीनां संख्यामेलनं भवतीति परस्परं मिलित्वा तेषां वर्षावास स्थातुं कल्पते इति । यत् क्षेत्रं यस्यानुकूलं भवति तन्निश्रया वर्षावासे स्थातव्यमिति ॥ सू० १०॥
सूत्रम्-गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खू जं पुरओ कटु विहरइ से आहच्च वीसंभेज्जा अत्थि या इत्थ अन्ने केइ उत्रसंपज्जणारिहे से उवसंपज्जियव्वे, णत्थि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपज्जणारिहे तस्स अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए जणं जगणं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तण्णं तण्णं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो एगरायं वा दुरायं वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एग
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व्यवहासूत्रे रायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू०११॥
छाया--ग्रामाऽनुग्रामं द्रवन् भिक्षुर्य पुरतः कृत्वा विहरति स आहत्य विष्वग्भवेत्, अस्ति चात्राऽन्यः कश्चित् उपसंपदार्हः उपसंपत्तव्यः, नास्ति कश्चित् उपसंपदार्हः तस्य आत्मनः कल्पोऽसमाप्तः कल्पते तस्यैकरात्रिक्या प्रतिमया यां यां खलु दिशमन्ये साधर्मिका विहरन्ति तां तां खलु दिशमुपलातुम्, नो तस्य कल्पते तत्र विहारप्रत्ययं वस्तुम्, कल्पते तस्य तत्र कारणप्रत्ययं वस्तुम, तस्मिश्च कारणे निष्ठिते परो वदेत घस आर्य! एकरात्रं वा द्विरात्रं वा एवं तस्य कल्पते एकरात्र वा द्विरात्र वा वस्तुम्, नो तस्य कल्पते परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वस्तुम्, यत्तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ।। सू०११ ॥
भाष्यम्-'गामाणुगाम' इत्यादि । 'गामाणुगाम' प्रामानुग्रामम् एकस्माद् त्रामाद्गामान्तरम् 'दूइज्जमाणे' द्रवन् गच्छन् एतावता ऋतुबद्धः कालः प्रदर्शितः । 'भिक्ख' भिक्षुः श्रमणः 'जं पुरओ कटु विहरइ' यं पुरतः कृत्वा पुरस्कृत्य यमाचार्यमुपाध्यायं वा पुरतः कृत्वा यन्निश्रयेत्यर्थः विहरति ‘से आइच्च विसंभेज्जा' स आचार्य उपाध्यायो वा गच्छनायकः
आहत्य कदाचिद् आयुर्दलिकपरिक्षयात् विश्वग्भवेत् शरीरात्पृथग् भवेत् कालगतो मृतो भवेदित्यर्थः तदा 'अत्थि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपज्जणारिहे' आस्त चाऽत्र समुदायेऽन्यः कश्चित् आचार्य उपाध्यायो गणी गणधरः प्रवर्तकः स्थविरो वा उपसंपदाऽर्हः उपसंपद्योग्यः पदवीयोग्य इत्यर्थः तदा 'से उवसंपज्जियव्वे' स एवोपसंपत्तव्यः आचार्यादित्वेन स्थापयिस्वा तन्निश्रायां स्थातव्यमित्यर्थः । 'नस्थि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपणारिहे' यदि नास्ति चात्र कश्चिदन्य आचार्यादिः, गणी प्रवर्तकादिर्वा समुदाये उपसंपदार्हः आचाराङ्गनिशीथादेता तदा 'अप्पणो कप्पाए असमत्ते' आत्मनः स्वकीयस्य कल्पः आचारकल्पः असमाप्तः आचारकल्पः पूर्णो न पठितो भवेत्तदा तदने पठनस्यावश्यकता वर्तते एवं सति 'कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए' कल्पते तस्य एकरात्रिक्या प्रतिमया एकरात्राभिग्रहेण 'अत्रतः प्रस्थितोऽहं गन्तव्यस्थानादर्वाग् अपान्तराले एकरात्रादधिकं न स्थास्यामि' इत्यभिग्रहमादायेत्यर्थः 'जणं जणं दिसं' यां यां खलु दिशं-यस्यां यस्यां दिशि यत्र यत्र प्रदेशे 'अन्ने साहम्मिया विहरंति' अन्ये केचित् साधर्मिकाः समानधर्माणो विहरंति 'तं णं तं गं दिसं उवलित्तए' तां तां खलु दिशं-तस्यां तस्यां दिशि उपलातुम् गन्तुमित्यर्थः किन्तु 'नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्यए' नो तस्य भिक्षुकस्य कल्पते अपान्तराले विहारप्रत्ययं निवासनिमित्तकं आहारोपकरणादिलोभात्तत्रावस्थानकारणकं वस्तुं वासं कर्तुम् । 'कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए' कल्पते तस्यान्तराले कारणप्रत्ययं कारणमासाद्य ग्लानादेवैयावृत्त्यादिकारणमालभ्य एकद्विरात्रादधिकमपि
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भाष्यम् उ० ४ सू० १२
araraat area प्राप्ते विहरणाविधिः
१०९
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वस्तुं वासं कर्त्तुम् । ‘तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि तस्मिंश्व खलु कारणे निष्ठिते समाते सति यदि 'परो वएज्जा' परोऽन्यः तत्रत्यः श्रमणः संघो वा वदेत् कथयेत्, किं वदेत्तत्राह'वसाही' - यदि, 'साहि अज्जो' वस निवासं कुरु हे आर्य ! ' एगरायं वा दुरायं वा' एकरात्रं वा द्विरात्रं वा यावद् अत्राधिकं वस, इति यदि परो वदेत् तदा एवं से कप्प
गरायं वा दुरायं वा थए' एवमन्येन प्रार्थनायां कृतायां तस्य श्रमणस्य कल्पते एकरात्रं वा द्वित्रं वा वस्तुम्, किन्तु 'नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए' नो कल्पते तस्य एकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परमधिकं तत्र वस्तुम्, 'जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसई यद् - यदि तत्र परमधिकमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा कारणं विना वसति तदा 'से' तस्य 'संतरा छेए वा परिहारे वा' सान्तरात् स्वकृतादन्तरात् अन्तररूपापराधात् गन्तव्यस्थानप्रापणे यावदैवसिकमन्तरं भवेत् यावन्ति दिनानि गन्तव्यस्थानप्रापणे तत्र व्यवधानीकृतानि तावद्दिवसपरिमितः छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं वा परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं भवेत्तस्येति ।
अत्रायं सूत्राशयः -- यन्निश्रया भिक्षुग्रमानुग्रामं विहरति तस्मिन् कालगते सति गच्छे यदि उपसम्पदाः पदवीयोग्यः कोऽप्यन्यो भवेत्तदा तं तत्र उपसंपदायां स्थापयित्वा तन्निश्रायां स्थातव्यम्, तदनन्तरं स्वस्य पठितुमारब्धकल्पस्याग्रे पठनं कर्त्तव्यम् । यदि उपसंपदाहः - पदवीयोग्योऽन्यः कोऽपि गच्छे न भवेत्, स्वकीयः कल्पश्चाऽसमाप्तो वर्त्ततेऽतस्तत्पूरणार्थमग्रे पठनमा - वश्यकं वर्तते स्वनिश्रायां कतिचित् साधवो भवेयुः, एवं सति स्वनिश्रागतान् सर्वान् साधून् गृहीत्वा गमनं कर्त्तव्यम् । तत्र एकरात्रिकाभिग्रहेण गच्छेत्, यथा अत्रतो निर्गमनानन्तरं गन्तव्यस्थानादर्वाग् अपान्तराले एकरात्रादधिकं कुत्रापि न स्थास्यामीति । एवंविधाभिग्रहेण यस्यां दिशि कल्पपाठकाः साधर्मिकास्तिष्ठन्ति तां दिशं प्रति प्रस्थातव्यम्, तत्रापान्तराले गोकुलादौ दुग्धदध्यादिलाभरूपं प्रतिबन्धमकुर्वन् गच्छेत् किन्तु मार्गे आहारादिलाभमपेक्ष्य स्थातुं न कल्पते । यदि मार्गे स्थितानां साधूनां ग्लानाद्यवस्थायां वैयावृत्त्यादिकारणमुपस्थितं भवेत्तदा तस्य तत्कारणप्रत्ययमेकरात्रादधिकमपि तत्र वस्तुं कल्पते । समाप्ते च कारणे तत्रतो निर्गन्तव्यम् । यदि तत्रत्याः श्रमणाः पुनरधिकं वस्तुमाग्रहं कुर्युः तदा एकरात्रं वा द्विरात्रं वा तत्र स्थातुं कल्पते । तत्राहारोपध्यादिलोभादेकद्विरात्रादधिकं वसेत् तदा तस्य भिक्षोरपान्तराले गन्तव्यस्थानप्राप्तौ यावदिनावधिकमन्तरं भवेत् तावत्परिमित छेदः परिहारतपो वा कल्पपठनान्तरायकारणकं समापद्येति सूत्राशयः ॥ सू० ११ ॥
तदेवं ऋतुबद्धकालसूत्रं व्याख्याय सम्प्रति वर्षावाससूत्रे व्याख्यातुमाह - ' वासावासं' इत्यादि । सूत्रम् - वासावासं पज्जोसविओ भिक्खू य जं पुरओ कटु विहरइ से आहच्च ariभेज्जा अस्थि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपज्जणारिहे से उवसंपज्जियब्वे, नत्थि या
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व्यवहारसूत्रे इत्थ अन्ने उवसंपज्जणारिहे तस्स अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए जण जणं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तणं तणं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए । तंसि च णं कारणंसि निहियंसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो एगरायं वा दुरायं वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पई परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसई से संतरा छेए वा परिहारे वा ।। सू० १२ ॥
छाया-वर्षावासं पर्युषितो भिक्षुश्च यं पुरतः कृत्वा विहरति आहत्य स विष्वग्भवेत् अस्ति चाऽत्राऽन्यः कश्चिदुपसंपदार्हः स उपसंपत्तव्यः, नास्ति चात्र कश्चिदुपसंपदार्हः तस्य चाऽऽत्मनः कल्पोऽसमाप्तः कल्पते तस्यैकरात्रिक्या प्रतिमया यां यां खलु दिशमन्ये साधर्मिका विहरन्ति तां तां खलु दिशमुपलातुम्, नो तस्य कल्पते विहारप्रत्ययं वस्तुम्, कल्पते तस्य कारणप्रत्ययं वस्तुम् , तस्मिश्च खलु कारणे निष्ठिते' परो
स आर्य ! एकरात्रं वा द्विरात्रं वा, एवं तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं या वस्तुम् नो तस्य कल्पते परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वस्तुम्, यस्त्तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ।। सू० १२ ॥
भाष्यम् –'वासावासं' इत्यादि । 'वासावासं' वर्षावासं वर्षाकालं 'पज्जोसविओ' पर्युषितः वर्षाकाले वासं कुर्वन् स्थितः 'भिक्खू य' भिक्षुश्च 'जं पुरओ कटु विहरइ' यमाचार्यादिकं पुरतः कृत्वा यन्निश्रयेत्यर्थः विहरति वर्षावासे तिष्ठति 'आहच्च से वीसंमेज्जा' आहत्य स विष्वग्भवेत् कदाचित् स आचार्यः शरीरात् पृथग्भवेत् म्रियेत इत्यर्थः ततः 'अस्थि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपज्जणारिहे' अस्ति विद्यते अत्र समुदाये कश्चिदन्यो नायकः उपसंपदाहः उपसंपत्तियोग्यः आचार्यादिपदयोग्यः तदा 'से उवसंपज्जियव्वे' स उपसंपत्तव्यः। शेष सर्वमेकादशसूत्रोक्तऋतुबद्धकालसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥ सू० १२॥
पूर्वमाचार्ये कालगते भिक्षुमधिकृत्य ऋतुबद्धकालवर्षाकालविहारविषयकं सूत्रद्वयं प्रतिपादितम् , साम्प्रतमाचार्योपाध्यायस्य मरणावस्थायां पदवीदानविधिमाह-'आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-आयरिय उवज्झाए गिलायमाणे अन्नयरं एज्जा अज्जो ! ममंसिणं कालगयंसि समाणंसि अयं समुक्कसियव्वे, से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियन्वे, से य नो समुक्कसणारिहे नो समुक्कसियव्वे, अत्थि या इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियन्वे । नत्थि या इत्थ अन्ने समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियव्वे । तंसि चणं समुक्किटुंसि परो वएज्जा दुस्समुक्किटुं ते अज्जो ! निक्खिवाहि, तस्स णं निक्खि
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भाष्यम् उ० ४ सू०१३ मरणासन्नाचार्यानुशाते तत्पश्चात्पददानविधिः १११ वमाणस्स नत्यि केइ छेए वा परिहारे वा, जे साहम्मिया आहाकप्पेणं नो अब्भुडाए विहरंति सम्वेसि तेसि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १३॥
छाय-अचार्योपाध्यायो ग्लायन् अन्यतरं वदेत्-मार्य ! मयि खलु कालगते सति अयं समुत्कर्षयितव्यः, स च समुत्कर्षणाहः समुत्कर्षयितव्यः । स च नो समुत्कर्षणाहनो समुत्कर्षयितव्यः, अस्ति चाऽत्राऽन्यः कश्चित् समुत्कर्षणार्हः समुत्कर्षयितव्यः । नास्ति चात्रान्यः कश्चित् समुत्कर्षणार्हः स एव च समुत्कर्षयितव्यः। तस्मिंश्च खलु समुत्कृष्टे परो वदेत् दुस्समुत्कृष्ट ते आर्यः! निक्षिप, तस्य खलु निक्षिपतो नाऽस्ति कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, ये सामिका यथाकल्पेन नो अभ्युथाय विहरन्ति सर्वेषां तेषां तत्प्रत्ययिक छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १३ ॥
भाष्यम्--'आयरियउवज्झाए' इत्यादि । 'आयरियउवज्झाए' आचार्यः उपाध्यायो वा 'गिलायमाणे' ग्लायन् धातुक्षोभादिना ग्लानिमुपगच्छन् आसन्नमरणः सन्नित्यर्थः 'अन्नयर' अन्यतरम् उपाध्याय-प्रवर्तक-स्थविर-गणि-गणधर-गणावच्छेदक-गीतार्थभिक्षूणां मध्यात् यं कमप्येकं गच्छसापेक्षः सन् 'वएज्जा' वदेत्-कथयेत् , कश्चिद्गणनायक आचार्यादिः धातुक्षोभादिनाऽनिष्टादिनिमित्तदर्शनेन वा स्वकीयं कालगमनं संभाव्य गच्छसंचालनार्थ गच्छवासिनमेकं कमपि श्रमणं समाह्य कथयतीत्यर्थः । 'अज्जो !' हे आर्य ! 'ममंसि णं कालगयंसि समाणंसि' मयि खल कालगते मयि मृते सति 'अयं समुक्कसियव्वे' अयं समुत्कर्षयितव्यः अयं परिदृश्यमानः श्रमणः मत्समीहितः समुत्कर्षयितव्यः आचार्यपदे स्थापनीयो भवद्भिः । ततः कालगते आचार्ये ‘से य समुक्कसणारिहे' स च यदि समुत्कर्षणार्हः समुत्कर्षणयोग्यः आचार्यादिपदवीयोग्यः अभ्युद्यतमरणमभ्युद्यतविहारं वा न स्वीकृतो भवेत् तदा स एव 'समुक्कसियन्वे' समुत्कर्षयितव्यः गणनायकपदे स्थापनीयो नान्यः, यदि स वदेत्-अहमभ्युद्यतविहारं जिनकल्पादिकमभ्युद्यतमरणं पादपोपगमनेङ्गितभक्तात्याख्यानरूपं वा प्रतिपत्स्ये इति तदा किं कुर्यात् ! तत्राह-'अत्थि या इत्थ' इत्यादि, 'अत्थि या इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे' अस्ति चाऽत्र गच्छेऽन्यः कोऽपि श्रमणः समुत्कर्षणार्हः गणनायकपदवोयोग्यः श्रमणसमुदायाभीष्टस्तदा ‘से समुक्कसियव्वे' स समुत्कर्षयितव्यः गणनायकपदे स्थापनीयः । अथ यदि 'नत्थि या इत्थ केइ समुक्कणारिहे' नास्ति चाऽत्र गच्छे. ऽन्यः कोऽपि श्रमणः समुत्कर्षणार्हः गणनायकपदवीयोग्यः तदा किं कुर्यादित्याह-तदा 'से चेव' स एव योऽभ्युद्यतविहारादिकं स्वीकर्तुकामः स एव संप्रार्थ्य 'समुक्कसियव्वे' समुत्कर्षयितव्यः गणनायकपदे स्थापनीयः, संप्रार्थना यथा-गीतार्थाः संप्रार्थनापुरस्सरं तं ब्रुवते-यूयं गणनायकपदं किश्चित् कालं यावत् स्वीकुरुत, परिपालयन्तश्च भवन्त एकमस्माकं कश्चन श्रमणं गीतार्थ निर्मा
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व्यवहारको पयत, तदनन्तरं तत्पदं निक्षिप्य भवद्भिरभ्युद्यतविहारादिकं यदिष्टं तत् प्रतिपत्तव्यम् । गीताभेरेवमुक्ते तेन गणनायकपदं प्रतिपद्य कश्चनाप्येकः श्रमणो गीतार्थत्वेन निर्मापितः । तत्पश्चात्तस्य मनसि एवं विचारः समुत्पद्येत-यथा अभ्युद्यतविहाराद्यपेक्षया गच्छपरिपालनं विपुलतरं निर्जहेतुकमित्यहमेव परिपालयामि गच्छमिति । एवमन्यगीतार्थे निष्पन्ने सति गच्छगता गीतार्थास्तं ब्रुवते-निक्षिप गणनायकपदमिति गीतार्थे रेवमुक्ते स ब्रूते-न निक्षिपामि पदवी किन्तु इच्छामि गच्छं परिपालयितुम् । एवमुक्ते ते गीतार्थाः क्षुभ्यन्ति, ततः 'तंसि च णं समुक्किटुंसि' तस्मिंश्च खलु समुत्कृष्ट पूर्व गणनायकत्वेन स्थापिते 'परो वएज्जा' परः गीतार्थः गच्छो वा वदेत् 'अज्जो' हे आर्य ? 'ते' तव 'दुस्समुक्किट' दुःसमुत्कृष्टम् अनुचितमिदं गणनायकपदं तस्मात् 'निक्खिवाहि' निक्षिप त्यजेदं पदम् , यत् पूर्व त्वया नेच्छितं गणनायकपदं पश्चादिदानों यद्यपि तव रोचते तथापि नास्माकं रोचते अतो दुःसमुत्कृष्टं खलु तवेदं गणनायकपदं वर्तते । एवं तैः कथिते यदि स स्वपदं निक्षिपति तदा 'तस्स णं' तस्य समुत्कृष्टस्य खल्लु 'निक्खिवमाणस्स' निक्षिपतः स्वपदवी विमुञ्चतः 'नत्थि केइ छेए वा परिहारे वा' नाऽस्ति कोऽपि छेदो वा दीक्षाछेदरूपः, परिहारो वा सप्तरात्रं वा तपः, न तस्य किमपि प्रायश्चित्तं समापतेदिति भावः । अथ 'जे साहम्मिया' ये साधर्मिकाः ये पुनः साधर्मिका गच्छसाधवः 'अहाकप्पेणं' यथाकल्पेन आवश्यकादिषु यथोक्तविनयकरणलक्षणेन, तथाहि-आवश्यके क्रियमाणे यो विनयः तस्याऽऽचार्यस्य कर्त्तव्यो भवेत्तं च न कुर्वन्ति, सूत्रमर्थ वा तत्समीपे न गृह्णन्ति, आचार्यप्रायोग्यं भक्तं तस्य न प्रयच्छन्ति, तस्य पुरतो नालोचयन्ति आचार्यस्य वस्त्रपात्रकम्बलादिप्रत्युपेक्षणाथै नोपस्थिता भवन्ति, नापि तस्य कृतिकर्म वन्दनकमन्यद्वा कुर्वन्ति, न च तस्य यास्तिस्रः संस्तारकभूमयस्ताअपि ददति एवं यथाकल्पेन यदि 'नो अब्भुटाए' नो अभ्युत्थाय तस्य पदवीत्यागं नो कारयित्वा 'विहरंति' विहरन्ति तिष्ठन्ति तदा 'सव्वेसिं तेसिं' सर्वेषां तेषां यथाकल्पमनभ्युत्तिष्ठतां पूर्वोक्तां क्रियां कुर्वतामित्यर्थः प्रत्येकं सर्वेषां पदवीधारकस्य च 'तप्पत्तिय' तत्प्रत्ययिकं यथाकल्पानभ्युत्थान कारणकं 'छेए वा परिहारे वा' छेदो वा दीक्षाच्छेदः, परिहारः सप्तरात्रं वा तपः प्रायश्चित्तं समापतति ॥ सू० १३ ।।।
पूर्व सापेक्षे आचार्योपाध्याये कालधर्मप्राप्ते तत्कथितानुसारेण तत्पदेऽन्याचार्यस्थापने विधिरुक्तः, साम्प्रतमाचार्योपाध्यायस्य अवधावने तद्विधिमाह,-अथवा पूर्व भवजीवितान्मरणविषयकं सूत्रमूक्तम् , साम्प्रतं संयमजीवितान्मरणविषयकं सूत्रं प्रतिपाद्यते-'आयरियउवज्झाए ओहायमाणे' इत्यादि । - सूत्रम्-आयरियउवज्झाए ओहायमाणे अन्नयरं वएज्जा अज्जो ! ममंसिणं
ओहावियंसि समाणंसि अयं समुक्कसियव्वे, से य समुकसणारिहे समुक्कसियत्वे, से य नो समुक्कसिणारिहे नो समुक्कसियव्वे, अस्थि या इत्थ अण्णे केइ समुक्कसरणारिहे से समुक्कसियन्वे, नत्थि या इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियव्वे
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भाष्यम् उ० ४ सू० १४-१५ मरणासन्नाचार्याद्यनुज्ञाते तत्पश्चात्पददानविधिः ११३ तेसिं च णं समुकिलुसि परो वएज्जा दुस्समुकिटं ते अजो निक्खिवाहि, तस्स णं निक्खिवमाणस्स नत्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जे साहम्मिया अहाकप्पेणं नो अब्भुटाए विहरंति सव्वेसि तेसि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १४ ॥
___ छाया--आचार्योपाध्यायोऽवधावन् अन्यतरं वदेत् आर्य! मयि खलु अवधाविते सति अयं समुत्कर्षयितव्यः, स च समुत्कर्षणाहः समुत्कर्षयितव्यः स च नो समुत्कर्षणाहों नो समुत्कर्षयितव्यः, अस्ति चात्रऽन्यः कश्चित् समुत्कर्षणार्हः समुत्कर्षयितव्यः, नास्ति चात्राऽन्यः कश्चित् समुत्कर्षणार्हः स एव समुत्कर्षयितव्यः, तस्मिंश्च खलु समुत्कृष्टे परो वदेत् दुःसमुत्कृष्टं ते आर्य ! निक्षिप, तस्य खलु निक्षिपतो नास्ति कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, ये साधर्मिकाः यथाकल्पेन न अभ्युत्थाय विहरन्ति सर्वेषां तेषां तत्प्रत्ययिकं छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १४ ॥
__ भाष्यम्-'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्याय आचार्य उपाध्यायश्च 'ओहायमाणे' अवधावन् मोहेन रोगेण वा लिङ्गं सदोरकमुखवस्त्रिकारजोहरणलक्षणं परित्यज्य गच्छा. निस्सरन् अयं गच्छसापेक्षोऽतो गमनात्प्रागेव 'अन्नयरं' अन्यतरम् उपाध्यायं प्रवर्तकं स्थविरं गणिनं गणधरं गणावच्छेदकं वा 'वएज्जा' वदेत् , किं वदेत् ! तत्राह 'अज्जो ! ममंसि णं ओहावियलि' हे आर्य ! मयि खलु अवधाविते चारित्रलिङ्ग मुक्त्वा गते सति 'अयं समुक्कसियव्यो' अयममुकः श्रमणः मत्स्थाने समुत्कर्षयितव्यः-मम स्थाने स्थापनीयः । शेषं सर्वं त्रयोदशसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू. १४ ॥
पूर्वमवधाविताचार्योपाध्यायविषयकं सूत्रमुक्तम् , अवधावितश्च स यदि भग्नव्रतो जायेत, भग्नवतो भूत्वा ततो यदि स शुभकर्मोदयात्पश्चात्तापपूर्वकं पुनरुपतिष्ठति, पुनरुपस्थिते सति तस्मिन् उपस्थापना कर्तव्या भवति, तत्प्रसङ्गाद् उपस्थापनाप्रतिपादनार्थं सूत्रमाह-'आयरियउवज्झाए सरेमाणे' इत्यादि ।
सूत्रम् - आयरियउन ज्झाए सरेमाणे परं चउरायपंचरायाओ कप्पागं भिक्खु नो उवट्ठावेइ कप्पाए, अस्थि याई से केइ माणणिज्जे कप्पागे णत्थि याई से केइ छेए वा परिहारे वा, णस्थि याई से केइ माणणिज्जे कप्पाए से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू०१५॥
छाया-आचार्योपाध्यायः स्मरन् परं चतुरात्रपञ्चरात्रात् कल्पाकं भिक्षु नो उपस्थापयति कल्पाके, अस्ति तस्य माननीयः कल्पाकः नास्ति चापि तस्य कोऽपि छेदो वा परिहारो वा, नास्ति चापि तस्य कश्चित् माननीयः कल्पाकः तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १५॥
व्य. १५
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व्यवहारसूत्रे
भाष्यम् -- 'आयरियउवज्झाए' आचार्यः उपाध्यायश्च 'सरेमाणे' स्मरन् अयमुपस्थापनाह इति जानान: नवदीक्षितोऽयं छेदोपस्थापनीयचारित्रं प्राप्तुं योग्योऽस्ति इत्येवं जामानः 'परं चउराय पंचरायाओ' 'परं चतूरात्रात् पश्चरात्राद्वा 'कप्पागं' कल्पाकं यः षड्जीवनिकादि - सूत्रार्थं प्राप्तस्तं 'भिक्खु' भिक्षु नवदीक्षितं मुनिम् 'णो उवद्वावेइ' नो उपस्थापयति--छेदोपस्थापनीयचारित्रं न समर्पयति तदा आचार्यस्योपाध्यायस्य वा छेदपरिहारादि प्रायश्चित्तमापद्यते । तत्र यदि कदाचित् 'कप्पागे' कल्पाके छेदोपस्थापनीयचारित्रप्राप्तियोग्ये तस्मिन् सति 'अस्थि याई से केइ माणणिज्जे कप्पागे' अस्ति चाऽपि 'से' तस्य महात्रतरोपणयोग्यनवदीक्षितश्रमणस्य कश्चित् माननीयः संसारपर्यायिकः पिता ज्येष्ठो भ्राता, अन्यो वा कश्चित् स्वामी कल्पाकः भावी पञ्चमहाव्रतारोपणयोग्यः सः नवदीक्षितः प्रतिक्रमणं न जानाति पञ्चरात्रेण दशरात्रेण पश्चदशरात्रेण वा सहैव महाव्रतारोपणमावश्यकं भवेत् तदा 'से' तस्य आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा 'णत्थि या से केइ छेए वा परिहारे वा' नास्ति न भवति कश्चित्तस्याचार्यस्योपाध्यायस्य वा छेदो वा परिहारो वा उपलक्षणादन्यदपि दशरात्रतपःप्रभृतिकं वा प्रायश्चित्तम् । यदि नवदीक्षितस्य महाव्रतारोपण योग्यतायुक्तस्याऽपि यदि माननीयः पितादिर्भवति स च दशरात्रात्परं प्रतिक्रमणाभ्यासाऽनन्तरं महाव्रतस्याधिकारी भविष्यतीति ज्ञात्वा आचार्यः 'उभयोः सहैव पञ्चमहाव्रतारोपणं करिष्यामि' इति कृत्वा पूर्वदीक्षितस्योपस्थापने विलम्बं करोति तदा आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा छेदादिकं प्रायश्चित्तं न भवति, माननीयेऽनुत्थापिते तस्योपस्थापनायाः अयोग्यत्वादिति । 'नत्थि याइं से केइ माणणिज्जे कप्पागे' अथ नास्ति चाऽपि कश्चित् नवदीक्षितस्य माननीयः भावी कल्पाकः उपस्थापनायोग्यः पितादिः तदा चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा परमपि नोपस्थापयति तदा 'से' तस्याचार्यस्योपाध्यायस्य वा 'संतरा छेए वा परिहारे वा' सान्तरात् स्वकृतात्-अन्तरात् अपराधात् यावन्ति दिनानि तस्योपस्थापनेऽन्तरितानि तावन्ति दिनानीत्यर्थः छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं परिहारनामकं पञ्चरात्रादिकं तपःप्रभृतिकं वा प्रायश्चित्तं भवति ।
अयं भावः - यदि चतूरात्रात्परमन्यानि चत्वारि दिनानि यावत् नोपस्थापयति तदा आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा प्रत्येकं प्रत्येकं दिनचतुष्टये - प्रथमचतुष्टये द्वितीयचतुष्टये च प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकं भवति । अथ यदि प्रथमद्वितीयचतुष्कादनन्तरमन्यानि चत्वारि दिनानि लङ्घयति तत्र नोपस्थापयति तदा षडूलघुकं प्रायश्चित्तं भवति, ततोऽप्यन्यानि चत्वारि दिनानि अतिवाहयति चेत् तदा षड्गुरुकं प्रायश्चित्तं भवति । ततोऽपि यद्यन्यानि चत्वारि दिनानि लङ्घयति तदा चतुर्गुरुकश्छेदः प्रायश्चित्तं भवति । ततः परं यद्यन्यानि चत्वारि दिनानि लङ्घयति, तदा षड्गुरुकश्छेदः प्रायश्चित्तं भवति । तदनन्तरमेकैकदिवसातिक्रमे मूलाऽनवस्थाप्यपाराचितानि प्रायचित्तरूपेण भवन्तीति ।
११४
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भाष्यम् उ० ४ सू० १६-१७
कल्पाकस्योपस्थापनाविधिः ११५ अयमाशयः-विवक्षिते भिक्षौ कल्पाके पश्चमहावतारोपणयोग्ये जाते सति यदि कदाचित् तस्य कल्पाकस्य माननीयो जनकादिरुपस्थापयितव्यो विद्यते परन्तु अद्यावधि कल्पाको न जातः आवश्यकसूत्रार्थयोञ्जता न सम्पन्नस्तहि स जघन्यतः पञ्चरात्रं यावत् प्रतीक्ष्यः, मध्यमतो दशरात्रं यावत् , उत्कर्षतः पञ्चदशरात्रं यावत् प्रतीक्ष्यः, तदनन्तरमपि यदि माननीयो जनकादिवर्गों न कल्पाक उपजायते तदा तत्प्रतीक्षां दूरतोऽपहाय स कल्पाको भिक्षुरुपस्थापनीय एव । तत्र यदि आचार्यः उपाध्यायो वा नोपस्थापयति तदा आचार्यस्य उपा. ध्यायस्य वा अनुत्थापननिमित्तकं छेदः छेदनामकं, परिहारः परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं भवति । अथ यदि तस्य कल्पाकस्य माननीयो जनकादिः भावी कल्पाको न विद्यते, तदा तेषां पित्रादीनामभावे यदि तं कल्पाकं चतूरात्रमध्ये पञ्चरात्रमध्ये वा नोपस्थापयति तदा तस्याचार्यस्य उपाध्यायस्य वा छेदः परिहारो वा प्रायश्चित्तं भवति ॥ सू० १५॥
सूत्रम्-आयरियउवज्झाए असरमाणे परं चउरायपंचरायाओ कप्पागं भिक्खु नो उवट्ठावेइ कप्पाए, अस्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए नत्थि से केइ छेए वा परिहारे वा, नस्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १६॥
छाया-आचार्योपाध्यायः अस्मरन् परं चतूरात्रपञ्चरात्रात् कल्पाकं भिक्षु नो उपस्थापयति कल्पाके, अस्ति चाऽत्र कश्चित् माननीयः कल्पाकः नाऽस्ति तस्य कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, नास्ति चाऽत्र तस्य कश्चित् माननीयः कल्पाकः तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ।। सू० १६ ॥
भाष्यम्-'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्याय आचार्यो वा उपाध्यायो वा 'असर. माणे' अस्मरन् प्रमादवशात् कार्यव्यग्रत्वेन वा नवदीक्षितोपस्थापनस्य स्मरणमकुर्वन् 'परं चउरायपंचरायाओ' चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा परम् 'कप्पागं भिक नो उबदावेई' कम्पार्क सूत्रार्थप्राप्तम् सम्यक् षइजीवनिकादिज्ञातारं भिक्षु नवदीक्षितं श्रमणम् नो उपस्थापयति छेदोपस्थापनीयचारित्रारोपणं न करोति, अथ 'कप्पाए' कल्पाके अभ्यस्तषड्जीवनिकादिके तस्मिन् विद्यमाने 'अस्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए' अस्ति विद्यते चाऽत्राऽस्मिन् गच्छे 'से' तस्य नवदीक्षितस्य कश्चित् कोऽपि माननीयः पितृभ्रातृप्रभृतिकः भावी कल्पाकः तदा अस्मरतः आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा 'नत्थि से केइ छए वा परिहारे वा' नास्ति न भवति तदा 'से' तस्याचार्यस्य उपाध्यायस्य वा छेदो वा परिहारो वा । यदि नवदीक्षितस्य कश्चित् पितृभ्रातृप्रभृतिको माननीयः तस्मिन् गच्छे भावो कल्पाक उपस्थापनायोग्यो भवेत् तदा पञ्चरात्रात् परमपि नवदीक्षितस्याऽनुपस्थापने अस्मरतोऽपि आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा छेदनामकं परिहारनामकम् अन्यद्वा सप्तरात्रादिकतपःप्रभृतिकं प्रायश्चित्तं न भवतीति भावः ।
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व्यवहारसूत्रे 'नथि य इत्थ से माणणिज्जे कप्पाए' अथ यदि नाऽस्ति न विद्यते अत्राऽस्मिन् गच्छे 'से' तस्य माननीयः पिता ज्येष्ठभ्रातादिर्वा कल्पाकः सूत्रार्थप्राप्तः कश्चित् तदा चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा परमस्मरतः 'से' तस्य आचार्यस्य उपाध्यायस्य वा 'संतरा छेए वा परिहारे वा' सान्तरात् यावन्ति दिनानि तस्योपस्थापने व्यवधानीकृतानि तावदिनपरमितः छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं परिहारनामकं सप्तरात्रं वा तपः प्रायश्चित्तं भवतीति ॥ सू० १६ ॥
सूत्रम्-आयरियउवज्झाए सरमाणे वा असरमाणे वा परं दसरायकप्पाओ कप्पागं भिक्खु नो उवट्ठावेइ कप्पाए, अस्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए नत्थि य इत्थ से केइ छेए वा परिहारे वा, नत्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए संवच्छरं तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा उवज्झायत्तं वा पवत्तयत्तं वा थेरत्तं वा गणित्तं वा गणहरत्तं वा गणावच्छेययत्तं वा उद्दिसित्तए वा ॥ सू० १७ ॥
__छाया-आचार्योपाध्यायः स्मरन् वा अस्मरन् वा परं दशरात्रकल्पात् कल्पाकं भिक्षुनो उपस्थापयति कल्पाके, अस्ति चाऽत्र कश्चित् माननीयः कल्पाकः नाऽस्ति तस्य कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, नास्ति चाऽत्र तस्य कश्चित् माननीयः कल्पाकः संवत्सरं तस्य तत्प्रत्ययिकं नो कल्पते आचार्यत्वं वा उपाध्यायत्वं वा प्रवर्तकत्वं वा स्थघिरत्वं वा गणित्वं वा गणधरत्वं वा गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुम् ॥ सू० १७ ॥
भाष्यम्-'आयरियउयज्झाए' आचार्यः उपाध्यायो वा 'सरमाणे वा असरमाणे वा' स्मरन् 'अयं नवदीक्षितः श्रमण उपस्थापनायोग्यः' इत्येवं स्मरन्, विस्मरन् वा यस्मिन् काले स्मरण करोति 'अयमुपस्थापनयोग्यः' इति तत्समये उपस्थापनासाधकं प्रशस्तलग्ननक्षत्रमुहर्तादिकं न मिलति, यदा तु साधकं लग्ननक्षत्रादिकमनुकूलमुपस्थितं भवति, तदा संघकार्यादिव्याक्षेपात् न स्मरति तत एवं कथ्यते यत् स्मरन् वा अस्मरन् वा 'परं दसरायकप्पाओ' परं दशरात्रकल्पात् कालः समयः अद्धा, कल्पः, इति समानार्थकाः कालवाचकाः शब्दाः, ततोऽत्र कल्पशब्दः कालार्थकः तथाच-स्मरणेऽपि पञ्च, अस्मरणेऽपि पञ्चेति स्मरणास्मरणमिश्रसूत्रत्वेन दशरात्रात्कल्पादिति दशरात्रात्मककालात् परमधिकं कालं यावत् 'कप्पागं' कल्पाकं प्राप्तसूत्रार्थम् 'भिक्खु” भिक्षु 'नो उवट्ठावेइ' नो उपस्थापयति महावते नाऽऽरोपयति 'कप्पाए' कल्पाकेऽधिगतसूत्रार्थे तस्मिन् विद्यमाने सति तत्र यदि 'अस्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए' अस्ति चाऽत्र तस्य कश्चित् माननीयः कल्पाकः, यद्यत्र गच्छे तस्य अभिनवदीक्षितस्य माननीयः पितृभ्रातृप्रभृतिकः समीपतरकाले भाविकल्पाको विद्यते तदा नोपस्थापयति अभिनव दीक्षितं तर्हि तु 'नत्थि इत्थ से केइ छेए वा परिहारे वा' नास्ति न भवति तस्याऽनुपस्थापयितुराचार्यस्योपाध्यायस्य वा कश्चित् छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं परिहारनामकं
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भाष्यम् उ० ४ २०१८
भिक्षोगणान्तरगमने तत्रावस्थानविधिः ११७ दशरात्रप्रभृतिकं वा प्रायश्चितम् । अत्र तस्य भाविकल्पाकस्य माननीयपित्रादिकस्य सद्भावे यदि नवदीक्षितं तत्कारणमाश्रित्य नोपस्थापयति तदाऽऽचार्यादर्न किमपि छेदपरिहारादिकं प्रायश्चित्तमापतति, माननीयकल्पाकोपस्थापनानन्तरमेव लघुवयस्कनवदीक्षितस्याधिकारप्राप्तत्वादिति भावः । अथ 'नत्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए' नास्ति न विद्यते चाऽत्र गच्छे तस्याऽभिनवदीक्षितस्य कश्चिन्माननीयः पित्रादि विकल्पाकः तर्हि तस्याऽभिनवदीक्षितस्य तत्कालमेवोपस्थापनमकर्तराचार्यस्य उपाध्यायस्य वा छेदनामकं परिहारनामकं दशरात्रं वा यद्यत्तपः तत्तप्रभृतिकं प्रायश्चित्तं भवत्येव । अथ यदि स छेदं परिहारं तदुभयं वा तपो धृतिकायबलाधभावेन वोढुं न शक्नुयात् तदा 'संवच्छरं तस्स तप्पत्तियं' संवत्सरं वर्षपर्यन्तं यावत् तस्याऽनुपस्थापयितुराचार्यस्य उपाध्यायस्य वा तत्प्रत्ययिकम्-अनुपस्थापननिमित्तकम् 'नो कप्पई' नो कल्पते 'आयरियत्तं वा' आचार्यत्वं वा गणनायकपदं वा 'पवत्तयत्तं वा' प्रवर्तकत्वं वा 'थेरत्तं वा' स्थविरत्वं वा 'गणित्तं वा गणित्वं वा 'गणहरत्तं वा' गणधरत्वं वा 'गणावच्छेययत्तं वा' गणावच्छेदकत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा संवत्सरपर्यन्तम् आचार्यादिपदं त्याजयित्वा तत्सकाशाद् गणो हियते, अमुस्मिन् अपराधे तपोवहनाशक्तस्य आचार्यादेः पदापहरणमात्रदण्डस्यैव विधानादिति ॥ सू० १७ ॥
पूर्वसूत्र आचार्यस्य गणापहरणमुक्तम्, ततो गुरोर्गणहरणं दृष्ट्वा गणस्थो भिक्षुः 'मे गुरोर्गणः किमिति हृतः' इति विचिन्त्यास्मादेवापमानकरणाद् भिक्षुरन्यत्र गणान्तरे गच्छेत्, यद्वा यस्य गणो हृतः स एव वा गणहरणापमानेन कलुषितः सन् अन्य गणं व्रजेदित्यन्यगणोपसम्पत्प्रतिपादनार्थमाह—'भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अवकम्म अन्नं गणं उवसंपज्जिचा णं विहरेज्जा तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा-कं अज्जो ! उवसंपज्जित्ता गं विहरसि ? जे तत्थ सव्वराइणिए तं वएज्जा, अह भंते कस्स कप्पाए ! जे तत्थ बहुस्सुए तं वएज्जा जं वा से भगवं वक्खइ तस्स आणाउववायवयणनिदेसे चिहिस्सामि ॥ सू०१८ ॥
छाया-भिक्षुश्च गणादवक्रम्य अन्यं गणमुपसंपद्य खलु विहरेत् तं च कश्चित् साधर्मिको दृष्ट्वा वदेत् कम् आर्य ! उपसंपद्य विहरसि । यः तत्र सर्वरत्नाधिकः तं वदेत्, अथ भदन्त ! कस्य कल्पेन यस्तत्र बहुश्रुतस्तं वदेत् यं वा स भगवान् वक्ष्यति तस्याशोपपातवचननिर्देशे स्थास्यामि ॥ सू० १८॥
भाष्यम्-'भिक्खू य' भिक्षुश्च 'गणाओ अवक्कम्म' गणात् स्वकीयगच्छात् अवक्रम्य निष्क्रम्य 'अन्नं गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा' गणहरणकारणं, यद्वा विशिष्टसूप्रार्थनिमित्तमन्यकारणनिमित्तं वा अन्यम् अन्यदीयं गणं गच्छमुपसंपद्य परकीयगच्छं प्राप्य विहरेत् तिष्ठेत् 'तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा' तं श्रमणं च कचित् अनेकभिक्षाचरादि
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व्यवहारसूत्रे समाकुले ग्रामे भिक्षाद्यर्थ भ्रमन्तं दृष्ट्वा सम्यगवलोक्य कश्चित्साधर्मिको वदेत् पृच्छेदित्यर्थः, किं पृच्छेदित्याह – 'कं' इत्यादि, 'के अज्जो ! उवसंपज्जित्ता णं विहरसि' हे आर्य ! कमाचार्यविशेषमुपसंपद्य कस्याचार्यस्य निश्रायां तिष्ठन् खलु त्वं विहरसि एवं साधर्मिकेण पृष्टः सन् 'जे तत्थ सव्वराइणिए' यस्तत्र यत्र गच्छे गतस्तस्मिन् स्थाने सर्वरत्नाधिको गीतार्थ आचार्यो भवेत्तं वदेत् अमुकस्य रत्नाधिकस्य निश्रायां तिष्ठामीति वदेत् । तस्मिन्नेवमुक्ते स परिकल्पयति-यमयं व्यपदिशति स तु अगीतार्थः, न चाऽयमगीतार्थनिश्रया विहरति ततः स साधर्मिकः पुनरपि पृच्छति-'अह भंते' इत्यादि 'अह भंते कस्स कप्पाए' अथ भदन्त ! कस्याचार्यस्य कल्पेन कस्य निश्रया विहरसीति । सूत्रे 'कप्पाए' इत्यत्र स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् । एवमुक्ते 'जे तत्थ बहुस्सुए तं वएज्जा' यः कोऽपि तत्र स्थाने बहुश्रुतस्तं वदेत् तस्य सर्वरत्नाधिकस्याचार्यस्याऽगीतार्थस्य यो गीतार्थः शिष्यः सूत्रार्थनिष्णातः समस्तस्यापि गणस्य तृप्तिकारकस्तस्य नाम गृह्णीयात्, यद् अमुकस्य निश्रयाऽहं विहरामीति वदेत् -'जं वा से भगवं वक्खइ' यं वा स भगवान् ज्ञानादिसंपदासम्पन्नः वक्ष्यति कथयिष्यति यथाऽमुकस्याऽऽज्ञा त्वया परिपालनीये-ति, 'तस्स आणाउववायवयणनिदेसे चिहिस्सामि' तस्यैव आज्ञोपपातवचननिर्देशे आज्ञा च उपपातश्च वचननिर्देशश्चेति समाहारद्वन्द्वः, तेन माज्ञायाम् उपपाते-समीपे, वचननिर्देशे आदेशप्रतीक्षायां च स्थास्यामीति ॥ सू०१८॥
पूर्वसूत्रे माज्ञायां स्थास्यामीन्युक्तम् , इत्यनेन गुरूणामाज्ञा बलवती भवति-'आज्ञासारश्च गच्छवासः' इति ध्वनितम् ततः शरीरस्य प्रतिरोद्धुमशक्तं श्वासोच्छासनिमेषादिक्रियाव्यापार मुक्त्वा सर्वेषु व्यापारेषु गुर्वाज्ञा पालनीयेति तदर्थप्रतिपादनार्थमिदं सूत्रमाह-'वहवे साहम्मिया' इत्यादि ।
सूत्रम्--बहवे साहम्मिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिचरियं चारए णो ण्हं कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभिनिचरियं चारए, कप्पइ ण्हं थेरे आपुच्छित्ता एगयओ अभिनिचरियं चारए, थेरा य से वियरेज्जा एवं हं कप्पइ एगयओ अभिनिचरियं चारए, थेरा य से नो वियरेज्जा एवं हं नो कप्पइ एगयओ अभिनिचरियं चारए, जं तत्थ थेरेहि अविइण्णे एगयओ अभिनिचरियं चरंति से अंतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १९ ॥
छाया-बहवः साधर्मिका इच्छेयुरेकतोऽभिनिचरिका चरितुम् नो खलु कल्पते स्थविराननापृच्छय एकतोऽभिनिचरिकां चरितुम् , कल्पते खलु स्थविरानापृच्छय एकतोऽभिनिवरिकां चरितुम् , स्थविराश्च ते वितरेयुः एवं खलु कल्पते एकतोऽभिनिचरिकां चरितुम् स्थविराश्च ते नो वितरेयुः एवं खलु नो कल्पतेऽभिनिचरिकां चरितुम् , यत्तत्र स्थविरैरवितीणे एकतोऽभिचरिकां चरन्ति तेषां सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ।। सू०१९॥
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भाष्यम् उ० ४ सू० १९-२०
अनेकसाधर्मिकाणामेकतो विहरणविधिः ११९
भाष्यम् – 'बहवे' बहवोऽनेके त्रिप्रभृतिकाः 'साहम्मिया' साधर्मिकाः समानधर्मवन्तः साम्भोगिकाः 'इच्छेज्जा' इच्छेयुः, किमिच्छेयुः ? तत्राह - ' एगयओ' इत्यादि । एगयओ एकतः एकत्र सहिता इत्यर्थः 'अभिनिचरियं चारए' अभिनिचरिकां चरितुम्, तत्र एकत्र मिलित्वा विचरणम्, एकत्र मिलित्वा वासकरणम्, एकत्र मिलित्वा चलनं अभिनिचरिका, तां कर्त्तुं बहवः श्रमणा इच्छेयुः, एवं प्रकारेण तेषामिच्छताम् ‘नो हें कप्पइ येरे अणापुच्छित्ता' नो खलु सूत्रे 'पह' इति सर्वत्र खल्वर्थे' तेषामभिनिचरिकां चरितुं कल्पते स्थविरान् गच्छनायकान् अनापृच्छ्य अनामन्त्र्य, स्थविराणामाज्ञां विना तेषामिच्छतामपि अभिनिचरिकां चरितुं कथमपि न कल्पते स्वच्छन्दचारित्वदोषसंभवात् । तर्हि कथं कल्पते ? इत्याह- ' कप्पर हूं' इत्यादि, 'कप्पइ ह थेरे आपुच्छित्ता ears अभिनिचरियं चारए' यस्मात् कारणात् स्वच्छन्दचारित्वदोषापातस्तस्मात् कारणात् कल्पते खलु तेषां स्थविरान् गणनायकान् आपृच्छय आमन्त्र्य तदाज्ञां लब्ध्वेत्यर्थः एकतोऽभिनिचरिकां चरितुमिति । 'थेरा य से वियरेज्जा एवं हं कप्पइ एगयओ अभिनिचरियं चारए' आपृच्छायां कृतायां सत्यां यदि स्थविराश्च तेषां वितरेयुरनुजानीयुरनुज्ञां दद्युरित्यर्थः तदा एवं खलु कल्पते तेषा - मिच्छतां बहूनामेकत्र मिलित्वा एकतोऽभिचरिकां गमननिवासादिरूपां चरितुम् । अथ यदि आप - च्छायां कृतायामपि 'थेरा य से नो वियरेज्जा' स्थविराश्च तेषां नो वितरेयुः अनुज्ञां यदि नो दस्तदा एवं हं नो कपड़े एगयओ अभिनिचरियं चारए' एवं खलु तेषां न कल्पते न कथमपि युज्यते एकतः एकत्र मिलित्वा अभिनिचरिकां चरितुम् । 'जं तत्थ थेरेहिं अविइण्णे' यत् पुनः तत्र स्थविरैः गणनायकैरवितीर्णेऽननुज्ञाते सति 'एगयओ अभिनिचरियं चरंति' एकत एकत्र - मिलित्वा अभिनिचरिकां चरन्ति कुर्वन्ति 'से संतरा छेए वा परिहारेवा' से तेषां प्रत्येकं सान्तरात् तत्स्थानादप्रत्यावर्त्तनरूपात् यावन्ति दिनानि तेऽभिनिचरिकां चरन्ति तावद्दिनपरिमितकालमाश्रित्येत्यर्थः छेदो वा परिहारो वा छेदनामकं परिहारनामकं दशरात्रिकं तपः प्रभृतिकं वा प्रायश्चितं भवतीति ॥ सू० १९ ॥
पूर्वसूत्र स्थविराज्ञयाऽभिनिचरिका प्रोक्ता, साम्प्रतमनाज्ञाविचरतो भिक्षोः प्रायश्चित्तमाह'चरियापविट्टे' इत्यादि ।
सूत्रम् - चरियापविट्ठे भिक्खू जाव चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा सच्चेव आलोयणा सच्चेव पडिक्कमणा सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुन्नवणा चिट्ठा अहालंदमवि उग्गहे ।। सू० २० ॥
छाया -- चरिकाप्रविष्टो भिक्षुर्यावत् चतूरात्रपञ्चरात्राद्वा स्थविरान् पश्येत् सैव आलोचना तदेव प्रतिक्रमणम् सैवोपग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति यथालन्दमप्यव - प्रहे ॥ सू० २० ॥
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१२०
व्यवहारसूत्रे भाष्यम् –'चरियापविटे भिक्खू' चरिकानिमित्तं ये श्रमणा ग्रामानुग्रामगताः तेषां मध्यात् एकतरं श्रमणमधिकृत्य कथ्यते चरिकाप्रविष्टो भिक्षुः श्रमणः स्वगच्छीयस्थविराणामाज्ञामन्तरेण विहत्तुं प्रवृत्तः साधुः 'जाव चउरायपंचरायाओ' यावत् चतूरात्रात्पश्चरात्राद्वा, अत्र यावत्पदेन- 'एकद्वित्रि' इति पदं गृह्यते ततश्चायमर्थः-एकद्वित्रिचतुःपञ्चरात्रात् , यथा एकरात्रात् द्विरात्रात् त्रिरात्रात् चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा परं 'थेरे पासेज्जा' स्थविरान् स्वकीयगणनायकान् पश्येत् एकादिपञ्चरात्रानन्तरं यदा पूर्वथविरैः सह मिलेदित्यर्थः तदा तस्य स्थविरैः सह मिलितस्य 'सच्चेव आलोयणा' सैवालोचना तिष्ठति या खलु आलोचना अन्यस्माद्गणादागते उपसंपद्यमाने वितीर्णा 'सच्चेव पडिक्कमणं' तदेव परिक्रमणम् अन्यगणादागत्य तस्मिन् गणे उपसंपद्यमाने यत् तस्मात् पापस्थानात् प्रत्यावर्त्तनरूपं तदेव, 'सच्चेव ओग्गहस्स पुवाणुन्नवणा चिट्टई' सैव चावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति या अनुज्ञापना अन्यदीयगणादागते उपसंपद्यमाने च साधर्मिकावग्रहस्याऽनुज्ञापनाकृता आसीत् सैवेति 'अहालंदमवि उग्गहे' यथालन्दमप्यवग्रहे यथाकालमपि, अत्रापिशब्दः संभावनायाम् तेन न केवलं यथाकालमेव किन्तु चिरमपि यथाकालं यावत्ततो गच्छात् तस्य भावो न विपरिणमति तावदवग्रहे अवग्रहस्य सैव पूर्वाऽनुज्ञापना तिष्ठति, आज्ञामन्तरेण विहारप्रवृत्तः साधुवित् एकद्वित्रिचतूरात्रपञ्चरात्रपर्यन्तं विहृत्य स्थविरान् दृष्ट्वा भवदाज्ञामन्तरेणाहं विहारं कृतवान् इत्येवंरूपेणाऽऽलोचना कर्त्तव्या, प्रतिक्रमणं कर्त्तव्यम् । तथा यत्रैतावत्कालं स्थितः तत्रत्यस्थविराज्ञामादाय पुनः यस्य स्थविरस्य पार्श्वे पूर्वमासीत् तदाज्ञायामेव भूयोऽवस्थितो भवेत् । तथा यावत्पर्यन्तं हस्तरेखा शुण्येत् तावत्कालमपि स्थविराज्ञामन्तरेण न तिष्ठेदिति भावः ॥ सू० २०॥
सूत्रम्-चरियापविहे भिक्खू परं चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स परिहारस्स उवट्ठाएज्जा भिक्खुभावस्स अट्टाए दोच्चंपि ओग्गहे अणुन्नवेयव्वे सिया, कप्पइ से एवं वदित्तए-अणुजाणह भंते ! मिओग्गहं अहालंद धुवं निययं निच्छइयं वेउट्टियं तओ पच्छा कायसंफासं ॥ सू० २१॥
छाया-चरिकाप्रविष्टो भिक्षुः परं चतूरात्रपञ्चरात्राद्वा स्थविरान् पश्येत् पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रमेत् पुनश्छेदस्य परिहारस्योपतिष्ठेत् भिक्षुभावस्यार्थाय द्वितीयमप्यवग्रहोऽनुज्ञातव्यः स्यात् कल्पते तस्य एवं वक्तुम्-अनुजानीत भदन्त ! मितमवग्रहम् यथालन्द ध्रुवं नियतं नैश्चयिकं व्यावृत्तम् ततः पश्चात् कायसंस्पर्शम् ॥ सू० २१॥
भाष्यम्-'चरियापविद्वे भिक्खू' चरिकाप्रविष्टः स्थविराज्ञामन्तरेण एकतो विहारादिनिमित्तं गतो भिक्षुः 'परं चउरायपंचरायाओ' परं चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा इत्यत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिस्ततः परमित्यस्यायमर्थः-परम् परिणते भावे चतुःपञ्चरात्रात् पूर्व परतो वा यदि चरिकाप्रविष्टस्य श्रमणस्य भावो विपरिणतो भवेत् यथा कोऽत्र स्थास्यति, अत्रतो मया निष्क्रमितव्य
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.. भाष्यम् उ०४ सू० २१-२२
परिकानिवृत्तस्य पुनरागमने विधिः १२५ मिति परिभूतः सन् ततश्चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा परतः 'थेरे पासेज्जा' स्थविरान् स्वकीयगणनायकान् पश्येत् पुनरपि च तस्य भावः प्रत्यावृत्तो भवेत् तदा स भूयोऽपि प्रथमोपसंपदीव यथा पूर्व तत्प्रथमतया उपसंपदि स्थितः तद्वत् तेषां स्थविराणां पार्वे 'पुणो आलोएज्जा' पुनरपि प्रथमोपसंपदीव भूयोऽप्यालोचयेत् आलोचनां कुर्यात् स्वकीयापराधं गुरुसमीपे वचसा प्रकाशयेत् 'पुणो पडिक्कमेज्जा' पुनर्भूयोऽपि प्रतिकामेत् तत्पाफ्स्थानात् पुनरकरणतया प्रत्यावर्तनरूपं प्रतिक्रमणं कुर्यात् 'पुणो छेयस्स परिहारस्स उवद्वाएज्जा' पुनभूयोऽपि छेदाय छेदप्रायश्चित्तग्रहणाय परिहाराय वा परिहारतपोग्रहणाय वा उपतिष्ठेत उपस्थितो भवेत् , विपरिणते अपरिपते वा भावे यत्किञ्चित् प्रायश्चित्तस्थानं प्राप्तवान् , तस्मिन् पापस्थाने आलोचिते प्रतिक्रान्ते सति गणनायकेन यत् छेदनामकं परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं निर्दिष्टम् तत्सम्यक् श्रद्धाय तस्य करणार्थमुपतिष्ठेत अभ्युद्यतो भवेत् । प्रथमं स्वगच्छात् विनिर्गतः पुनर्भावपरावर्त्तनेन स्वगच्छं समागतः तदनन्तरमाचार्येण यत् प्रायश्चित्तं दीयते तस्य सर्वस्यापि परिपालनाय समुद्यतो भवेदिति भावः । किमर्थं छेदादिप्रायश्चित्तार्थमभ्युद्यतो भवेत् ! तत्राह-'भिक्खुभावस्स अट्ठाए ' भिक्षुभावस्य भिक्षुत्वस्याऽर्थाय प्रयोजनाय 'यथाऽवस्थितं मे भिक्षुत्वं पुनरपि भूयात्' इत्येवमर्थम् , अथवा भिक्षुभावो नाम-स्मारणा, वारणा, नोदना, प्रतिनोदना, तत्र विस्मृतेऽथे स्मारणा १, अतिचारादेः प्रतिषेधनं वारणा २, स्खलितस्य पुनः शिक्षणं नोदना ३, स्खलितस्य पुनः पुनर्निष्ठुरं शिक्षापणं प्रतिनोदना ४ । एताभिर्यथावस्थितो भावो भिक्षुभावः, एता यथा पूर्वमासीरन् तथेदानीमपि स्युरित्येवमर्थम् 'दोच्चंपि ओग्गहे अणुन्नवेयन्वे सिया' द्वितीयमपि वारमवग्रहोऽनुज्ञातव्यः स्यात् भवेत् , द्वितीयवारमवग्रहानुज्ञां गृह्णीयात् 'कप्पइ से एवं वदित्तए' कल्पते 'से' तस्य एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वक्तुम् । कथमित्याह-'अणुजाणह भंते' अनुजानीत भदन्त ! हे भदन्त ! 'मिओग्गई' मितमवग्रहम् , अत्रावाहेत्युपलक्षणं गमनादीनाम् , तथाचाऽयमर्थः-मितं प्रमाणयुक्तं मर्यादायुक्तमवग्रहम् , मितं गमनं प्रयोजनवशतः, मितमवस्थानम् विश्रामनिमित्तम् , मितं निषीदनं, मितं- त्वग्वर्तनादिकम् । तत्र मितनिषीदनं स्वाध्यायादिनिमित्तम् , मितत्वग्वर्त्तनं पार्श्वपरितापकारणात् , आदिशब्दात् मितभाषणं कार्ये समापतिते भाषणावसरभावात् , मितभोजनम् एककुक्षिपूरणमात्रस्य भगवताऽनु. ज्ञातात् , हे भदन्त ! तत्सर्वमनुजानीत 'अहालंद' यथालन्दं यथाकालं 'धुवं' ध्रुवम् गच्छमर्यादया यदवश्यं कर्त्तव्यम् 'निययं' नियतं यावदवधावनिकामर्यादा तावदहमपि न त्यक्ष्यामि अवश्यकरणीयम् 'निच्छइयं' नैश्चयिक यावत् सहायान् न लभे तावत् अवश्यं निश्चयभावेनाऽनुष्ठेयम् तथा 'वेउट्टियं' व्यावर्तितम् प्रतिदिनं पक्षचातुर्मासिकसंवत्सरादौ क्षामणादिषु वा अनेकप्रकारमाज्ञाविलोपनं कृतम् , इत्येतत्सर्वमनुजानीत क्षमध्वमित्यर्थः । 'तओ पच्छा कायसंफासं'
व्य. १६
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१२२
व्यवहार ततो गुरुणाऽभ्युपगते सति पश्चात् कायसंस्पर्शम् कायस्य चरणयुगललक्षणस्य शिरसा संस्पर्श करोति गुरोश्चरणद्वयं शिरसा वन्दते इत्यर्थः, अथवा कृतिकर्मादिषु आगमने गमने च यः कायसंस्पर्शः शरीरसंघट्टादिर्जातस्तमप्यनुजानीत गमनागमने च भवदासनादीनां संघट्टादिकं जातं तस्याऽपि क्षमा ददतु इत्यर्थः ॥ सू० २१ ॥
पूर्व चरिकाप्रविष्टस्य सूत्रद्वयेनाऽऽलोचनादिकं प्रोक्तम् , सम्प्रति चरिकानिवृत्तस्य सूत्रद्वयेनाऽऽलोचनादिकमाह-'चरियानियट्टे भिक्खू' इत्यादि ।
___ सूत्रम्-चरियानियट्टे भिक्खू जाव चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा सन्चेव आलोयणा सच्चेव पडिक्कमणा सच्चेव उग्गहस्स पुन्वाणुण्णवणा चिहइ आहालंदमवि उग्गहे ॥सू० २२॥
छाया-चरिकानिवृत्तो भिक्षुः यावत् चतूरात्रपञ्चरात्रात् स्थविरान् पश्येत् सैवा. ऽऽलोचना तदेव प्रतिक्रमणम् सैवाऽवग्रहस्य पूर्वाऽनुज्ञापना तिष्ठति यथालन्दमप्यवआहे ॥ सू० २२॥
भाष्यम्-'चरियानियट्टे भिक्खू' चरिकानिवृत्तो भिक्षुः यः साधुः स्थविराज्ञां विना गत्त्वा तत्स्थानतो निवृत्तः 'जाव चउरायपंचरायाओ' यावत् चतूरात्रपञ्चरात्रात् यावत्पदेन एकरात्रात् द्विरात्रात् त्रिरात्राद्वा परं इत्यस्य संग्रहो भवति । शेषं सर्वं चरिकाप्रविष्टविषयकविंशतितमसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० २२ ॥
अथ चरिकानिवृत्तविषयकं द्वितीयसूत्रमाह-'चरियानिय? भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम् –चरियानियट्टे भिक्खू परं चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवटाएज्जा भिक्खुभावस्स अट्टाए दोच्चंपि ओग्गहे अनुन्नवेयव्वे सिया, अणुजाणह भंते ! मिओग्गहं अहालंद धुवं नितियं नियच्छियं वेउट्टियं तओ पच्छा कायसंफासं ॥ सू० २३ ॥
__छाया-चारिकानिवृत्तो भिक्षुः परं चतूरात्रपञ्चरात्रात् स्थविरान् पश्येत् पुनरालोचयेत् पुनः प्रतिक्रमेत् पुनश्छेदपरिहारस्थोपतिष्ठेत् भिक्षुभावस्यार्थाय द्वितीयमपि अवग्रहः अनुज्ञातव्यः स्यात् अनुजानीत भदन्त ! मितमवग्रहं यथालन्दं ध्रुवं नियतं नैश्चयिकं व्यावृत्तम् ततः पश्चात् कायसंस्पर्शम् ॥ सू० २३ ॥
भाष्यम्- 'चरियानियट्टे भिक्खू' चरिकानिवृत्तो भिक्षुः आज्ञामन्तरेण अन्यगणे ग्रामानुग्रामविहारे वा गत्वा ततः प्रतिनिवृत्तो भिक्षुरित्यर्थः 'परं चउरायपंचरायाओ' चतूरात्रपञ्चरात्रात् । पूर्व परतो वा 'थेरे पासेज्जा' स्थविरान् पश्येत् । शेषं सर्वं चरिकाप्रविष्टविषयकविंशतितमसूत्रवद् व्याख्येयम् ।
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भाष्यम् उ० ४ सू० २३-२५
धर्मद्वयस्यैकत विहरणविधिः १२३
अथ यदि चरिकाप्रविष्टसूत्रद्वयवदेव चरिकिानिवृत्तसूत्रद्वयमपि वर्त्तते तदा किमर्थमनयोः सूत्रयोः पृथगुपादानं क्रियते चरिका प्रविष्टसूत्राभ्यामेव अनयोश्च रिकानिवृत्तसूत्रयोर्गतार्थत्वात् यतो यैव चरिकाप्रविष्टानां श्रमणानां सामाचारी सैव सामाचारी चरिकानिवृत्तानां साधूनामपीति । अत्रोच्यते - केवलमुच्चारिते चरिकाप्रविष्टसूत्रद्वये, अनुच्चारिते च चरिकानिवृत्तसूत्रद्वये यथैव प्रायश्चित्तदानसामाचारी चरिकाप्रविष्टानाम् सैव सामाचारी चरिकानिवृत्तानामपीत्यर्थो न लभ्यते एतादृशार्थप्रतिपादकसूत्रपदाऽभावात्, पदेन हि पदार्थों ज्ञायते पदाऽभावे पदार्थज्ञानस्यासंभवात् ततः सूत्रद्वयमुच्चार्य यैव सामाचारी चरिकाप्रविष्टानां सैव सामाचारी चरिकानिवृत्तानामपीति बोधनाय चरिकानिवृत्तसूत्रद्वयं निहितम्, अन्यथा - एतत्सूत्रद्वयाभावे चरिकानिवृत्तानामन्यैव कापि सामाचारीति कल्प्येत ततः कल्पनान्तरं मा भूदित्येवमर्थ चरिकानिवृत्तसूत्रद्वयमिति ॥ सू० २३ ॥
"
सूत्रम् - दो साहम्मिया एगयओ विहरंति तं जहा सेहो रायणिए य, तत्थ सेहत ए पलिच्छन्ने रायणिए अपलिच्छन्ने, सेहतराएणं रायणिए उवसंपज्जियव्वे भिक्खोववायं च दलयइ कप्पागं ॥ सू० २४ ॥
छाया - द्वौ साधर्मिको पकतो विहरतः तद्यथा - शैक्षो रात्निकश्च तत्र शैक्षतर:परिच्छन्नः रत्निकोऽपरिच्छन्नः, शैक्षतरेण रात्निक उपसंपत्तव्यः भिक्षामुपपातंच ददाति कल्प्यकम् ॥ सू० २४ ॥
भाष्यम् – 'दो साहम्मिया' द्वौ साधर्मिकौ समानगुरुकुलौ सहाध्यायिनौ एकस्य गुरोरन्तेवासिनो 'एगओ विहरंति' एकतः सहैव द्वावपि विहरतः 'तंजहा' तद्यथा - 'सेहो रायणिए य' शैक्षकः पर्यायविद्यादिमिश्च न्यूनः रात्निकश्च रत्नाधिकः, 'तत्थ' तत्र तयोर्द्वयोः शैक्षरात्नि कयोर्मध्ये यः शैक्षतरः लघुपर्यायः सः 'पलिच्छन्ने' परिच्छन्नः द्रव्यपरिच्छदेन शिष्यादिना परिवृतः संयुक्तः तथा 'रायणिए अपलिच्छन्ने' रात्निको रत्नाधिकः अपरिच्छन्नः द्रव्यपरिवारेण शिष्यरूपेणाऽपरिच्छन्नः शिष्यपरिवाररहित इत्यर्थः, तत्र 'सेहतरएणं रायणिए उवसंपज्जियध्वे सिया' शैक्षतरकेण लघुपर्याय साधुना 'रायणिए' रात्निको रत्नाधिक उपसंपत्तव्यः स्यात् शैक्षतरको रत्नाधिकमुपसंपद्येत रत्नाधिकस्य परिवारत्वेन स्थातव्यमित्यर्थः तथा शैक्षतरः रत्नाधिकाय ' भिक्खोववायं च दलयइ कल्पागं' भिक्षामुपपातं ददाति कल्पाकम् शैक्षतरको रत्नाधिकस्य भिक्षाम् अशनादिचतुर्विधमाहारम् उपपातं समोपोपवेशनं विनयादिकं च ददाति, भिक्षादिकं सर्वमपि कल्पनीयं रत्नाधिकस्य ददाति तत्समीपे दैवसिकी रात्रिकी चालोचना कर्त्तव्या सर्वमपि विनयवैयावृत्त्यादिकं रत्नाधिकस्य कुर्यादिति भावः ॥ सू० २४ ॥
पूर्वसूत्रे शैक्षः परिवारसहितः रत्नाधिकश्च परिवाररहितः इति तयोर्द्वयोरेकत्र वासविधिः प्रदर्शितः, साम्प्रतं तद्वैपरीत्येन तयोरेकत्र वासविधिमाह - 'दो साहम्मिया' इत्यादि ।
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१२४
namaha
व्यवहारसूत्र सूत्रम्--दो साहम्मिया एगयो विहरंति, तंजहा-सेहे य रायणिए य, तत्थ रायणिए पलिच्छण्णे सेहतराए अपलिच्छण्णे, इच्छा रायणिए सेहतरागं उवसंपज्जेज्जा, इच्छा नो उवसंपज्जेज्जा इच्छा भिक्खोववायं दलयइ कप्पागं इच्छा नो दलयइ कप्पागं ॥२५॥
छाया-द्वौ साधर्मिको एकतो विहरतः, तद्यथा-शैक्षश्च रात्निकश्च, तत्र रात्निकः परिच्छन्नः शैक्षतरकोऽपरिच्छन्नः, इच्छा रात्निकः शैक्षतरकमुपसंपद्येत इच्छा नो उपसंपधेत इच्छाभिक्षोपपातं ददाति कल्प्यकम् इच्छा नो ददाति कल्प्यकम् ॥ सू० २५ ॥
भाष्यम्-'दो साहम्मिया' द्वौसाधर्मिको 'एगयओ विहरंति' एकतः सहैव विहरतः 'तंजहा' तद्यथा 'सेहे य रायणिए य' शैक्षश्च रानिकच, तत्र शैक्षः लघुपर्यायः रानिकः रत्नाधिकः पर्यायज्येष्ठः 'तत्थ' तत्र तयोईयोः शैक्षकरात्निकयोर्मध्ये रायणिए' रात्निको रत्नाधिकः पर्यायज्येष्ठः 'पलिच्छण्णे' परिच्छन्नः परिच्छदेन शिष्यपरिवारेण सहितः 'सेहतराए अपलिच्छण्णे' शैक्षतरकोऽपरिच्छन्नः शिष्यपरिवारेण रहितो भवेत् , एवं सति तत्र 'इच्छा' इच्छा-रानिकस्य इच्छा यदि भवति तदा 'रायणिए' रात्निकः ‘सेहतरागं उवसंपज्जेज्जा' शैक्षतरकमुपसंपद्येत यदि रानिकस्येच्छा भवेत् तदा स रत्नाधिकः शैक्षतरकं स्वमर्यादायां गृह्णीयात् 'इच्छा' इच्छा पर्यायज्येष्ठस्य वाज्छा तं शैक्षतरकं 'नो उवसंपज्जेज्जा' नो उपसंपद्येताऽपि । तथा 'इच्छा भिक्खोववायं दलइ कप्पागं' इच्छा भिक्षामुपपातं च ददाति कल्प्यकम् । यदि रत्नाधिकस्येच्छा भवति तदा शैक्षकाय भिक्षामशनादिचतुर्विधाहारमानीय शिष्यद्वारा आनाय्य वा कल्पनीयं ददाति, 'इच्छा नो दलयइ कप्पागं' इच्छा नो ददाति कल्प्यकम् , यदि कदाचित् रत्नाधिकस्याऽदातुमिच्छा तदा कल्पनीयं भिक्षादिकमानीय नापि ददाति शैक्षकाय ।
अयं भावः-शैक्षको यदि सपरिवारो भवेत्तदा निष्परिबारं रत्नाधिकमुपसंपद्य विहत्तुं कल्पते किन्तु रत्नाधिकः सपरिवारः शैक्षकोऽपरिवारः एतादृश्यां स्थितौ रत्नाधिक इच्छानुसारं वर्तते, शैक्षकं स्वोपसंपादायां गृह्णीयात् नो गृह्णीयात् , पर्यायज्येष्टस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावादिज्ञातृत्वेन ऐच्छिक प्रवृत्तित्वविधानात् , इदमुक्तं भवति-यदि स शैक्षतरकोऽल्पपर्यायः किन्तु तुल्यश्रुतः तदा स रत्नाधिकश्चिन्तयति-एतस्य भिक्षाहिण्डनव्याक्षेपेण मा सूत्रार्था नश्येयुः, ततः संघाटकं ददाति, अथवा एष मम समानगुरुकुलवासी सहाध्यायी द्रव्यपरिच्छेदेनाऽपरिच्छदो मा भूयादिति सहाध्यायान्तेवासिस्नेहेन संघाटं साधुपरिवार ददाति, आलोचनां च प्रयच्छति, यद्यल्पश्रुतस्तदा तु परिवारमुपसंपदं वा ददातीति । अथ स शैक्षतरको रत्नाधिकाद्बहुश्रुतस्तदा नियमत उपसंपत्तव्यः, परिवारश्च तस्य दातव्यः, रत्नाधिकस्य सूत्रार्थग्रहणकामुकत्वादिति । यदि शैक्षतरकोऽबहुश्रुतस्तदा न ददातीति 'इच्छा नो इच्छा' इत्यस्य विवेकः ॥ सू० २५॥
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भाग्यम् उ० ४ सू. २६-३२ द्विबहुगणावच्छेदकादीनामेकतो विहरणविधिः १२५
इतः परं चतुर्थोदेशकसमाप्तिपर्यन्तं भिक्षुगणावच्छेदकाचार्योपाध्यायानां द्वित्वबहुत्वसंख्यामधिकृत्य सप्तसूत्री प्रोच्यते, तत्र प्रथमं भिक्षुसूत्रमाह-'दो भिक्खुणो' इत्यादि ।
सूत्रम्--दो भिक्खुणो एगयओ विहरति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहाराइणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जिता णं विहरित्तए ॥ सू० २६॥
छाया-द्वौ भिक्षुको एकतो विहरतः नो खलु कल्पते अन्योऽन्य उपसंपद्य खलु विहर्तुम् । कल्पते खलु यथारत्नाधिकतया उपसंपद्य खलु विहर्तुम् ॥ सू० २६॥
भाष्यम् – 'दो भिक्खुणो' द्वौ भिक्षुको अन्यान्याचार्यनिश्राको ‘एगयओ विहरन्ति एकतः संमिलितो सन्तौ विहरतः । कथमेकतो मिलितौ ! इति चिन्त्यते-द्वावाचार्यों अन्यस्मिन्नन्यस्मिन् क्षेत्रे स्थितौ भवेताम् , तौ च परस्परं सांभोगिकौ तौ द्वावयाचारों स्वं स्वं भिक्षु क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाकरणार्थमुपधिगवेषणार्थ वा प्रेषितवान् तयोर्गन्तव्यमार्गस्यैकत्वात् पथि संमिलितो भवेतामिति । संमिलितौ यदि तिष्ठेतां तदा 'नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपजित्त णं विहरित्तए' नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यं परस्परमुपसंपद्य समानतां स्वीकृत्य खल्लु विहर्तुम् । तर्हि कथं कल्पते ? इत्याह-'कप्पइ णं अहाराइणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विह रित्तए' कल्पते खलु यथारात्निकतया लघुज्येष्ठपर्यायमर्यादयाऽन्योऽन्यं परस्परमुपसंपद्य परस्परमर्यादां स्वीकृत्य विहर्तुम् । द्वौ साधू सहैव विहरतो समतयाऽपि लघुज्येष्ठमर्यादया वन्दनादिकरणं विना भवस्थातुं न कल्पते किन्तु पर्यायज्येष्ठमेकं रत्नाधिकमङ्गीकृत्य विहर्तुं कल्पते इति भावः ॥ सू० २६ ॥ . मथ गणावच्छेदकादीनाश्रित्य शेषं सूत्रषट्कमाह-दो गणावच्छेयया' इत्यादि ।
सूत्रम्-दो गणावच्छेयया एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० २७॥
दो आयरियउवज्झाया एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए॥ सू० २८ ।।
बहवे भिक्खुणो एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए कप्पइ अहाराइणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० २९॥
बहवे गणावच्छेयया एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए, कप्पइ णं अहाराइणियाए अनमन्न उक्संपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० ३०॥
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व्यवहारसूत्रे बहवे आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहाराइणियाए अन्नमन्नं उसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० ३१ ॥
बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेयया बहवे आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ अहाराइणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ मू० ३२ ॥
॥ ववहारे चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ ४ ॥ छाया-द्वौ गणावच्छेदको एकतो विहरतः नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपद विहर्तुम् , कल्पते यथा रात्निकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्त्तम् ॥ सू० २७ ॥
द्वावाचार्योपाध्यायौ एकतो विहरतः नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् , कल्पते यथारानिकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य विहर्तुम् ॥ सू० २८ ॥
बहवो भिक्षुका एकतो विहरन्ति नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहत्तुम् , कल्पते यथारानिकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ॥ सू० २९॥
बहवो गणावच्छेदका एकतो विहरन्ति नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् , कल्पते यथारानिकतयाऽन्योन्यमुपस पद्य खलु विहर्त्तम् ॥ सू० ३० ॥ ___ बहव आचार्योपाध्यायाः एकतो विहरन्ति नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यम् उपसंपद्य खलु विहर्त्तम् , कल्पते यथारानिकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ।। सू० ३१ ॥
बहवो भिक्षुकाः बहवो गणावच्छेदकाः बहव आचार्योपाध्यायाः एकतो विहरन्ति नो खलु कल्पते अन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्त्तम्, कल्पते यथारानिकतया अन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ॥सू. ३२॥
॥ व्यवहारे चतुर्थ उद्देशः समाप्तः ॥४॥ भाष्यम्--एतानि 'दो गणावच्छेयया' इत्यादीनि चतुर्थोद्देशसमाप्तिपर्यन्तानि षडपि सूत्राणि षड्विंशतितमभिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयानि । एषाभयं भावः-'दो गणावच्छेयया' इति द्वयोर्गणावच्छेदकयोः एक रत्नाधिकं प्रकल्प्य विहत्तं कल्पते ॥ सू० २७॥ एवमेव 'दो आयरियउवज्झाया' इति द्वयोराचार्ययोः द्वयोरुपाध्याययोरपि एक पर्यायज्येष्ठमाचार्यमुपाध्यायं च स्वीकृत्य विहत्तुं कल्पते ॥ सू० २८ ॥ एवं 'बहवे भिक्खुणो' इति बहूनाम् एकद्वित्रिप्रभृतीनां भिक्षुकाणां यथारास्निकमर्यादया विहत्तुं कल्पते ॥ सू० २९ ॥ तथा 'बहवे गणावच्छेयया' इति बहूनां गणावच्छेदकानां यथारात्निकमर्यादया विहर्तुं कल्पते ॥ सू० ३० ॥ तथा 'बहवे आयरियउव
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भाष्यम् उ० स० ३२
चतुहिशकसमाप्तिः १२७ ज्झाया' इति बहूनामाचार्याणां बहूनामुपाध्यायानां च यथारात्निकमर्यादया विहन्तुं कल्पते ॥ सू० ३१ ॥ एवमेव 'बहवे भिक्खुणो, बहवे गणावच्छेयया बहबे आयरियउवज्झाया' इति बहवो भिक्षुकाः, बहवो गणावच्छेदकाः, बहवः आचार्याः, बहवः उपाध्यायाश्च, एते सर्वे मिलित्वा एकतो विहरन्ति तदाऽपि तेषां यथोचितां रात्निकमर्यादां लघुज्येष्ठादिरूपां मर्यादा स्वीकृत्यैव विहत्तुं कल्पते नान्यथा । इति सूत्रषट्कस्य भाव इति ॥ सू० ३२॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त
"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालचतिविरचिताया "व्यवहारसूत्रस्य" ..
भाष्यरूपायां व्याख्यायां चतुर्थ
उद्देशकः समाप्तः ॥४॥
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॥ अथ पञ्चमोद्देशः प्रारभ्यतेव्याखातश्चतुर्थोद्देशकः, सम्प्रति पञ्चमोद्देशको व्याख्यायते, तत्र पूर्व चतुर्थोदेशकस्य चरमसप्तसूत्र्यामेकतो विहरतां भिक्षुप्रभृतीनां यथारात्निकमर्यादा प्रतिपादिता । अत्र पञ्चमोदेशक प्रवर्तिनीप्रमृतीनां ऋतुबद्धकालविहरणवर्षाकालनिवासपरकां मर्यादामाह-तत्र भाष्यकारो द्वयोरुद्देशयोः सम्बन्धप्रतिपादनार्थ गाथामाह-'एगविहारे' इत्यादि । गाथा-एगविहारे वुत्ता, भिक्खुयमाईण वसणमज्जाया ।
उउबद्धाइसु वुच्चइ, पवत्तिणीए य सा चेव ॥ १ ॥ छाया- एकविहारे प्रोक्ता, भिक्षुकादीनां वसनमर्यादा ।
ऋतुबद्धादिषु प्रोच्यते, प्रवतिन्याश्च सैव ॥ १॥ भाष्यम्--पूर्वम् ‘एगविहारे' इति एकतो विहारे एकत्र संमील्य विहरणे भिक्षुकादीनां भिक्षकगणावच्छेदकाचार्योपाध्यायानां वसनमर्यादा यथारात्निकत्वेन एकत्र वासमर्यादा प्रोका, अत्र निर्ग्रन्थानन्तरं निर्ग्रन्थीनां प्रसङ्ग इति पञ्चमोद्देशके ऋतुबद्धादिषु ऋतुबद्धकाले हेमन्तग्रीष्मयोर्विहरणे आदिशब्दाद् वर्षावासे च प्रवर्तिन्याश्च प्रवर्तिन्याः चकाराद् गणावच्छेदिन्याश्च सैवेत्ति मर्यादा विहरणस्य निवासस्य च मर्यादा प्रोच्यते, एष एव चतुर्थोदेशकान्तिमसूत्रैः सहास्य पञ्चमोदेशकादिसूत्राणां सम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य पञ्चमोद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम्-'नो कप्पइ पवित्तिणीए' इत्यादि ।
सूत्रम्--नो कप्पइ पवत्तिणीए अप्पबिइयाए हेमंतगिम्हासु चरिए ॥ सू० १॥ छायानो कल्पते प्रवर्तिन्या आत्मद्वितीयायाः हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितुम् ॥ सू० १॥
भाष्यम्--'नो कप्पई' नो नैव कल्पते 'पवत्तिणीए' प्रवर्त्तिन्याः प्रवर्तिनीपदधारिण्याः श्रमण्याः 'अप्पबिइयाए' आत्मद्वितीयायाः आत्मना स्वेन सह द्वितीयायाः 'हेमन्तगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मयोः हेमन्तकाले ग्रीष्मकाले चाष्टमासरूपे 'चरिए' चरितुं विहर्तुम् ।। सू० १॥
कथं कल्पते ? तत्राह- 'कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ पवत्तिणीए अप्पतइयाए हेमन्तगिम्हासु चारए । सू० २॥ छाया- कल्पते प्रवर्त्तिन्या आत्मतृतीयायाः हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितुम् ॥ सू० २॥
भाष्यम्--'कप्पइ पवत्तिणीए' कल्पते प्रवर्तिन्याः 'अप्पतइयाए' आत्मतृतीयायाः मात्मना सह त्रित्वसंख्याविशिष्टायाः एका स्वयम् द्वे च सहकारिण्यौ इत्यर्थः तादृश्यास्तस्याः 'हेमन्तगिम्हास' हेमन्तग्रीष्मयोः 'चारए' चरितुम् ॥ सू० २॥
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भाष्यम् उ०५०३-८
साध्वीनां हेमन्तग्रीष्मवर्षावासनिवासविधिः १२१ सूत्रम्-नो कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पतइयाए हेमन्तगिम्हासु चारए ॥ सू०३॥ छाया--नो कल्पते गणावच्छेदिन्याः आत्मतृतीयायाः हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितुम् ॥ सू०३।
भाष्यम्--'नो कप्पइ' नो कल्पते 'गणावच्छेइणीए' गणावच्छेदिन्याः 'अप्पतइयाए' आत्मतृतीयायाः सहायिकाद्वययुक्तायाः हेमंतगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मयोः शेषकाले इत्यर्थः 'चारए' चरितुं विहर्तुम् । सहायिकाद्वयायुक्ताऽपि गणावच्छेदिनी हेमन्ते ग्रीष्मे च विहत्तुं न शक्नोति इति भावः ॥ सू० ३ ॥
गणावच्छेदिन्याः कथं कल्पते ? इत्याह–'कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थीए हेमंतगिम्हासु चारए ॥ सू० ४॥ छाया-कल्पते गणावच्छेदिन्याः आत्मचतुर्थायाः हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितुम् ॥ सू०४॥
भाष्यम्--'कप्पड़ गणावच्छेइणीए' कल्पते गणावच्छेदिन्याः 'अप्पचउत्थीए' आत्मचतुर्थायाः आत्मना स्वेन चतुर्थसंख्याविशिष्टायाः सहायकश्रमणीत्रयसहितायाः 'हेमन्तगम्हासु' हेमन्तग्रीष्मयोः 'चारए' चरितुं विहर्तुम् । यदा खलु गणावच्छेदिनी आत्मना सह चतुर्थसंख्याविशिष्टा भवेत् एका स्वयम् सहचारिण्यस्तिस्रस्तदा गणावच्छेदिन्या हेमन्तग्रीष्मकाले तस्याः विहारः कल्पते इति भावः ॥ सू० ४ ॥
अथ प्रवर्त्तिन्या वर्षावाससूत्रद्वये प्रथमनिषेधसूत्रमाह--'नो कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पई पवत्तिणीए अप्पतइयाए वासावासं वत्थए ॥ सू० ५॥ छाया--नो कल्पते प्रवर्तिन्या आत्मतृतीयायाः वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ५॥
भाष्यम्--'नो कप्पइ' नो कल्पते 'पवत्तिणीए अप्पतइयाए' प्रवर्त्तिन्याः आत्मतृतीयायाः आत्मना सह तृतीयायाः एका स्वयम् द्वे च सहकारिण्यौ एतादृश्याः 'वासावासं' वर्षावासं वर्षाकाले 'वत्थए' वस्तु वासं कर्तुम् आत्मतृतीयायाः प्रवर्त्तिन्या वर्षासमये वासं कत्तुं न कल्पते इति भावः ॥ सू० ५॥
अथ द्वितीयं प्रवर्त्तिन्या वर्षावासे विधिसूत्रमाह- 'कप्पई' इत्यादि । सूत्रम्--कप्पइ पवत्तिणीए अप्पचउत्थीए वासावासं वत्थए ॥ सू० ६॥ छाया- कल्पते प्रवत्तिन्या आत्मचतुर्थायाः वर्षावासं वस्तुम् ॥ सू० ६॥
भाष्यम् --'कप्पइ' कल्पते 'पवत्तिणीए अप्पचउत्थाए' प्रवर्त्तिन्याः आत्मचतुर्थायाः आत्मना स्वेन सह चतुर्थसंख्याविशिष्टायाः 'वासावासं वत्थए' वर्षावासे चातुर्मास्ये वस्तुं
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व्यवहारमा वार्स कर्तुम् । यदा खेलु प्रवर्तिनी आत्मचतुर्थी भवति सदैव तस्या चातुर्मास्यं कर्तुं कल्पते न तु तन्यूनाया इति भावः ॥ सू० ६ ॥
गणावच्छेदिन्या वर्षावाससूत्रद्वये प्रथमं निषेधसूत्रमाह--'नो कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्--नो कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पचंउत्थीए वासावासं वत्थए ॥ सू० ७॥ छाया- नो कल्पते गणावच्छेदिन्याः आत्मचतुर्थायाः वर्षावास वस्तुम् ॥ सू० ७॥
भाष्यम्- 'नो कप्पई' नो कल्पते 'गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थीए' गणावच्छेदिन्याः आत्मचतुर्थायाः आत्मना सह चतुःसंख्यकायाः 'वासावास वस्थए' वर्षावासं वस्तुं वासं कर्तुम् यदा खलु गणावच्छेदिनी चतुःसंख्याविशिष्टा भवेत् तदा तस्या वर्षाकाले वासो कल्पनीयो भवतीति भावः ॥ सू० ७॥
अथ द्वितीयं गणावच्छेदिन्या वर्षावासे विधिमाह-कंप्पइ' इत्यादि । सूत्रम्-कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पपंचमाए वासावासं वत्थए ॥ सू० ८ ॥ छाया - कल्पते गणावच्छेदिन्याः आत्मपञ्चमायाः वर्षावासं वस्तुम् ।। सू० ८।
भाष्यम्--'कप्पई' कल्पते 'गणावच्छेइणीए' गणावच्छेदिन्याः 'अप्पपंचमाए' आत्मपञ्चमायाः आत्मना स्वेन सह पञ्चत्वसंख्याविशिष्टायाः 'वासावासं वत्थए' वर्षावासं वर्षाकालं यावत् वस्तुं वास कत्तुम् । यदा खलु गणावच्छेदिनी आत्मपञ्चमा भवेत् तदैव वर्षाकाले वासं कर्तुं शक्नोति न तु ततो न्यूना।
इदमुक्तं भवति-एषु अष्टसु सूत्रेषु प्रथमं सूत्रं प्रवर्त्तिन्या हेमन्तग्रीष्मयोरात्मद्वितीयाया विहरणनिषेधपरकम् १। द्वितीयमात्मतृतीयाया विहरणविधिपरकमिति प्रवर्तिनीमधिकृत्य हेमन्तग्रीष्मविषयकं सूत्रद्वयम् २ । तृतीयं सूत्रं गणावच्छेदिन्या आत्मतृतीयाया हेमन्तग्रीष्मयोर्विहरणनिषेधपरकम् ३ । चतुर्थ सूत्रमात्मचतुर्थाया विहरणविधिपरकमिति गणावच्छेदिनीमधिकृत्य हेमन्तग्रीष्मविषयकं सूत्रद्वयम् ४ । पञ्चमं सूत्र प्रवर्त्तिन्या आत्मतृतीयायाः वर्षावासनिषेधपरकम् ५। षष्ठमात्मचतुर्थाया वर्षावासविधिपरकमिति प्रवर्तिनीमधिकृत्य वर्षावासविषयकं सूत्रद्वयम् ६ । सप्तमं सूत्रं गणावच्छेदिन्या आत्मचतुर्थाया वर्षावासनिषेधपरकम् ७ । अष्टमं चात्मपञ्चमाया वर्षावासविधिपरकमिति गणावच्छेदिनीमधिकृत्य वर्षावासविषयकं सूत्रद्वयम् ८। इत्यष्टानां सूत्राणां निष्कर्षः ॥
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भाष्यम् उ० ५ ० ९-१० बहुप्रवत्तिन्यादीनां हेमन्तपोष्मवर्षावासनिवासविधिः १३१
___ अत्र द्वितीयचतुर्थसूत्रयोरयं भावः- संयतीनां ऋतुबद्धकाले सप्तकः समाप्तकल्प इति ऋतुबद्धकाले प्रवर्त्तिन्या आत्मतृतीयायाः गणावच्छेदिन्याश्चाऽऽत्मचतुर्थाया विहरणं कल्पते इत्युक्त तत् ऋतुबद्धकाले प्रवर्तिनीगणावच्छेदिन्योः सप्तकरूपस्य समाप्तकल्पस्य सद्भावादुक्तम् ।
षष्टाष्टमसूत्रयोरयं भावः-संयतीनां वर्षाकाले नवकः समाप्तकल्पो भवतीति वर्षाकाले प्रवर्तिन्या आत्मचतुर्थायाः, गणावच्छेदिन्याश्चात्मपञ्चमायाः स्थातुं कल्पते इत्युक्तं तत् नवकरूपस्य समाप्तकल्पस्य सद्भावादुक्कमिति ।। मू० ८ ॥
अथ प्रवर्तिनी गणावच्छेदिनीनां बहुत्वमधिकृत्य हेमन्तग्रीष्मकाले प्रामादिषु विहरणविधिमाह'से गामंसि वा' इत्यादि।
मूत्रम्-से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणं सि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाहंसि वा संमिवेसंसि वा बहूणं पवत्तिणीणं अप्पतइयाणं, बहूणं गणावच्छेइणीणं अप्पचउत्थीणं कप्पइ हेमंतगिम्हासु चारए अन्नमन्ननिस्साए ॥ सू० ९॥
छाया-अथ ग्रामे वा नगरे वा निगमे वा राजधान्यां वा खेटे वा कर्बटे वा मडम्बे वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आश्रमे वा संबाहे वा संनिवेसे वा बहूनां प्रवर्तिनीनाम् आत्मतृतीयानाम्, बहूनां गणावच्छेदिनीनामत्मचतुर्थानां कल्पते हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितु. मन्योऽन्यनिश्रया ॥ सू०९॥
भाष्यम्--'से गामंसि वा' इति । 'से' अथानन्तरम् एकेकस्याः प्रवर्त्तिन्याः ऋतुबद्धकाले विहरणप्रतिषेध-विधिकथनानन्तरम् 'गामंसि वा' ग्रामे वा 'नगरंसि वा' नगरे वा 'निगमंसि वा' निगमे वा 'रायहाणीए वा' राजधान्यां वा 'खेडंसि वा' खेटे वा 'कब्बडंसि वा' कर्बटे वा 'मडंबंसि वा' मडम्बे वा 'पत्तणंसि वा' पत्तने वा पट्टने वा 'दोणमुहंसि वा' द्रोणमुखे वा 'आसमंसि वा' आश्रमे वा 'संबाहंसि वा' संबाहे वा 'संनिवेसंसि वा' संनिवेशे वा चतुर्थोदेशकनवमसूत्रोक्तार्थविशिष्टेषु प्रामादिषु 'बहूणं पवत्तिणीणं' बहूनामनेकासाम् एकद्वित्रिप्रभृतीनां प्रवर्तिनीनां 'अप्पतइयाणं' आत्मतृतीयानां सहायकद्वययुक्तानाम् । 'बहूणगणावच्छेइणीणं' बहूनामनेकासाम् एकद्वित्रिप्रभृतीनां गणावच्छेदिनीनाम् 'अप्पचउत्थीणं' आत्मचतुर्थानाम् आत्मना च चतुःसंख्यायुक्तानाम् 'कप्पइ हेमंतगिम्हासु' कल्पते हेमन्तग्रीष्मयोः ऋतुबद्धकाले इत्यर्थः 'चारए' चरितुं विहर्तुम् तच्च 'अन्नमन्ननिस्साए' अन्योऽन्यनिश्रया परस्परोपसंपदा परस्परं समानतया मिलित्वा पर्यायज्येष्ठां पुरस्कृत्य ततस्तदाज्ञया विहत्तुं कल्पते तासामित्यर्थः। यदा खलु अनेकाः प्रवर्तिन्यो आत्मतृतीया आत्मतृतीयाः सर्वाः, अनेका गणा
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व्यवहारसूत्र वच्छेदिन्य आत्मचतुर्थाः आत्मचतुर्थाः सर्वाः, तदा सर्वा अपि पर्यायज्येष्ठाया उपसम्पत्त्वेन परस्परं मिलित्वा ऋतुबद्धकाले विहारं कर्तुं शक्नुवन्तीति भावः ॥ सू० ९ ॥
अथ आत्मचतुर्थानां बहूनां प्रवर्तिनीनाम् आत्मपञ्चमानां बहूनां गणावच्छेदिनीनां वर्षासमये वासानुज्ञां दर्शयति-से गामंसि वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडं सि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संबाहंसि वा संनिवेसंसि वा बहूणं पवत्तिणीणं अप्पचउत्थीणं, बहूणं गणावच्छेइणीणं अप्पपंचमाणं कप्पइ वासावासं वत्थए अन्नमन्ननिस्साए ॥ सू० १० ॥
छाया-अथ ग्रामे वा नगरे वा निगमे वा राजधान्यां वा खेटे वा कर्बटे वा मडम्बे वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आश्रमे वा संबाहे वा संनिवेशे वा बहूनां प्रवर्तिनीनामात्मचतुर्थानाम्, बहूनां गणावच्छेदिनीनामात्मपञ्चमानां कल्पते वर्षावासं वस्तुमन्योन्यनिश्रया । सू० १० ॥
भाष्यम्-'से गामंसि वा' अथ ग्रामे वा 'नगरंसि वा' नगरे वा 'निगमंसि वा' निगमे वा 'रायहाणीए वा' राजधान्यां वा 'खेडंसि वा' खेटे वा 'कब्बडंसि वा' कर्बटे वा 'मडबसि वा' मडम्बे वा 'पट्टणंसि वा' पत्तने वा पट्टने वा 'दोणमुहंसि वा द्रोणमुखे वा 'आसमंसि वा' आश्रमे वा 'संबाहंसि वा' संबाहे वा 'संनिवेसंसि वा' सन्निवेशे वा अत्राऽपि 'गामंसि वा' इत्यारभ्य 'सनिवेसंसि वा' इत्यन्तपदानामाः विस्तरतः चतुर्थोंदेशके नवमसूत्रे प्रदर्शिताः तादृशेषु प्रामादिषु इत्यर्थः 'बहूणं पवत्तिणीणं अप्पचउत्थाणं' बहूनामनेकासां प्रवर्तिनीनामात्मचतुर्थानां, तथा 'बहूर्ण गणावच्छेइणीणं अप्पपंचमाणं' बहूनामनेकासां गणावच्छेदिनीनामात्मपञ्चमानाम् 'कप्पइ वासावासं वत्थए' कल्पते वर्षावासं वस्तुम् अन्योऽन्यनिश्रया परस्परोपसंपदा लघुज्येष्ठपर्यायमर्यादया परस्परं मिलित्वा तासामनेकासां प्रवर्तिनीगणावच्छेदिनीनां वर्षावासे वस्तुं कल्पते ॥ सू० १०॥
पूर्व संयत्या ऋतुबद्धकालविहरणविधिः वर्षावासविधिश्च प्रदर्शितः, विहरन्न्याश्च तस्याः प्रवर्तिनी कदाचित् कालधर्म प्राप्नुयात् तदा किं कर्त्तव्यमिति तद्विधि प्रदर्शयति-'गामाणुगाम दूइज्जमाणा' इत्यादि । - सूत्रम्--गामाणुगाम दुइज्जमाणा णिग्गंथी य जं पुरओ काउं विहरेज्जा सा य आहच्च वीसंभेज्जा अत्थि य इत्थ काइ अन्ना उवसंपज्जणारिहा सा उपसंपज्जियव्वा, नत्थि य इत्थ काइ अन्ना उवसंपज्जणारिहा तीसे य अप्पणो कप्पए असमत्ते एवं से
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भाष्यम् उ० ५ सू०११-१३
प्रवर्तिनीमरणे निग्रन्थ्या विहरणविधिः १३३ कप्पइ एगराइयाए पडिमाए जणं जंणं दिसं अन्नाओ साहम्मिणीओ विहरंति तं णं तं गं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए कप्पइ, से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परा वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाश्रो वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० ११॥
___ छाया-ग्रामानुग्राम द्रवन्ती निर्ग्रन्थी च यां पुरतः कृत्वा विहरेत् सा चाऽऽहत्य विष्वग्भवेत् अस्ति चाऽत्र काचित् उपसंपदार्हा सा उपसंपत्तव्या, नाऽस्ति चाऽत्राऽन्या उपसंपदार्हा तस्याश्चात्मनः कल्पोऽसमाप्तः एवं तस्याः कल्पते एकरात्रिक्या प्रतिमया यां खलु यां खलु दिशमन्या साधर्मिण्यो विहरति तां खलु तां खलु दिशमुपलातुम् , नो तस्याः कल्पते तत्र विहारप्रत्ययं वस्तुम् , कल्पते तस्याः तत्र कारणप्रत्ययं वस्तुम तस्मिथ कारणे निष्ठिते परावदेत् वस आर्ये ! एकरात्रं वा द्विरात्रं वा एवं तस्याः कल्पते एकरात्र वा द्विरात्र वा वस्तुम् , नो तस्याः कल्पते परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वस्तुम , यत् तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्याः सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा । सू०११ ॥
भाष्यम्--'गामाणुगाम' प्रामाद्नामान्तरम् एकस्मात् प्रामादपरं ग्रामम् 'दइज्जमाणा णिग्गंथी य' द्रवन्ती विहारं वुर्वन्ती निर्ग्रन्थी च 'जं पुरओ काउं विहरेज्जा' यामधिष्ठात्री प्रवत्तिनी पुरतोऽग्रे कृत्वा विहरेत् यस्या निश्रायां विहरेदित्यर्थः । शेषं सर्व व्याख्यानं चतुर्थोदेशगतैकादशसूत्रवदेव स्त्रीलिङ्गव्यत्ययेन कर्त्तव्यम् ॥ सू० ११ ॥
सूत्रम्--वासावासं पज्जोसविया णिग्गंथी य जं पुरओ काउं विहरइ सा आइच्च वीसंभेजा अस्थि य इत्थ काइ अन्ना उपसंपणारिहा उवसंपज्जियव्वा, नत्थि य इत्थ काइ अन्ना उवसंपणारिहा तीसे य अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए ज णं ज णं दिसं अन्नाओ साहम्मिणीओ विहरंति तं गं तं णं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि चणं कारणंसि निहियंसि परा वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १२॥
छाया--वर्षावर्ष पर्युषिता निर्ग्रन्थी च यां पुरतः कृत्वा विहरति सा आहत्य विष्वग् भवेत् अस्ति चाऽत्र काचित् अन्या उपसंपदर्हा सा उपसंपत्तव्या, नाऽस्ति चाऽत्र काचिदन्या उपसंपद: तस्याश्चात्मनः कल्पोऽसमाप्तः कल्पते तस्या एकरात्रिक्या प्रतिमया यां खलु
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१३४
व्यवहारसूत्रे यां खलु दिशम् अन्याःसाधर्मिण्यो विहरंति तां खलु तां खलु दिशमुपलातुम् , नो तस्याः कल्पते तत्रविहारप्रत्ययं वस्तुम् , कल्पते तस्यास्तत्र कारणप्रत्ययं वस्तुम् . तस्मिश्च कारणे निष्ठिते परा वदेत् वस आर्ये ! एकरात्रं वा द्विरात्रं वा, एवं तस्याः कल्पते एकरात्र वा द्विरात्र वा वस्तुम् , नो तस्याः कल्पते परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वस्तुम् , यत्तत्र परमेकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा वसति तस्याः सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १२ ॥
भाष्यम् -'वासावासं पज्जोसविया' वर्षावासं वर्षावासनिमित्तं पर्युषिता निवासार्थ स्थिता 'निग्गंथी' निर्ग्रन्थी। शेषं सर्वं चतुर्थोद्देशगतद्वादशसूत्रव्याख्यानवत् स्त्रीत्वनिर्देशेन व्याख्यातव्यम् ॥ सू० १२ ॥
सूत्रम्--पवत्तिणी य गिलायमाणी अन्नयरं वएज्जा मए णं अज्जो ! कालगयाए समाणीए इमा समुक्कसियव्या सा य समुक्कसणारिहा समुक्कसियव्वा, सा य नो समुक्कसणारिहा नो समुक्कसियव्या, अत्थि या इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा समुक्कसियव्वा, नत्थि या इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा साचेव समुक्कसियवा, ताए णं समुक्किठाए परा वएज्जा दुस्समुक्किडं ते अज्जे ! निक्खिवाहि, ताए णं निक्खिवमाणीए नत्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जाओ साहम्मणीओ अहाकप्पेणं नो उट्ठाए विहरंति सम्बासि तासिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १३ ॥
छाया-प्रतिनी च ग्लायन्तीअन्यतरां वदेत् मयि खलु आयें ! कालगतायां सत्यामियं समुत्कर्षयितव्या। सा च समुत्कर्षणार्हा समुत्कर्षयितव्या, सा च नो समुत्कर्षणाऱ्या नो समुत्कर्षयितव्या, अस्ति चाऽचाऽन्या काचित्समुत्कर्षणार्हा सा समुत्कर्षयितव्या नास्ति चात्राऽन्या काचित् समुत्कर्षणार्हा सैव समुत्कर्षयितव्या , तस्यां च खलु समुत्कृष्टायां परा वदेत् दुःसमुत्कृष्टं ते आर्ये ! निक्षिप, तस्या निक्षिप्यमाणायाः नास्ति कश्चित् छेदो चा परिहारो वा, ता यदा साधर्मिण्यो यथाकल्पेन नो उत्थाय विहरन्ति तासां सर्वासां तत्प्रत्यय छेदो वा परिहारो वा ।। सू० १३॥
भाष्यम् –'पवत्तिणी य' प्रवर्तिनी च 'गिलायमाणी' ग्लायन्ती रोगादिना ग्लानिमुपगता मरणासन्ना सतीत्यर्थः 'अन्नयरं वएज्जा' अन्यतरां संयती वा वदेत् कथयेत् । शेष सर्वं चतुथोदेशगताचार्योपाध्यायात्मकत्रयोदशसूत्रवदेव व्याख्येयम् नवरं केवलमत्र विशेषोऽयम्-यत्तत्र 'से य नो समुक्कसणारिहे' इत्यस्यार्थे समुद्यतविहारजिनकल्पसमुद्यतमरणं प्रत्तिपत्तुकामः, इत्युक्तम् अत्र च प्रवर्तिनीसूत्रे 'सा य नो समुक्कसणारिहा' इत्यस्य भक्तप्रत्याख्यानं प्रतिपत्तुकामा यदि भवेत् इत्यर्थः कर्त्तव्यः, एतावानेवात्र भेदः, अन्यच्च तत्र पुंस्त्वेन निर्देशः अत्र तु स्त्रीत्वेन निर्देशः कुर्तव्यः ॥ सू० १३ ॥
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भाष्यम् उ० ५ सू० १४-१५
प्रवर्त्तिन्वधावने तत्पश्चात्पददानविधिः १३५
सूत्रम् -- पवत्तिणीय ओहायमाणा अन्नयरं वएज्जा मए णं अज्जो ! ओहावियाए समाणीए इमासमुक्कसियन्वा, साय समुक्कसणारिहा समुक्क सियव्वा, सा य नो समुक्सणारा नो मुक्कसियन्वा, अस्थि य इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा सा समुक्कसिया, नत्थि य इत्थ अन्ना काई समुक्कसणारिहा सा चैव समुक्कसियव्वा, ताए णं समुfarare परावज्जा दुस्समुक्किद्वं ते अज्जे ! निक्खिवाहि, ताए णं निक्खिवमाणीए नत्थि के छेए वा परिहारे वा, जाओ साहम्मिणीओ अहाकपेणं नो उडाए विहरंति सव्वासि तासिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ।। सू० १४ ॥
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छाया - प्रवत्तिनी चाऽवधावमाना अन्यतरां वदेत् मयि खलु आयें ! अवधावितायां सत्याम् इयं समुत्कर्षयितव्या, सा च समुत्कर्षणार्हा समुत्कर्षयितव्या, सा च नो समुकर्षणानो समुत्कर्षयितव्या, अस्ति चात्राऽन्या काचित् समुत्कर्षणा समुत्कर्षयितव्या, नाऽस्ति चाऽत्राऽन्या काचित् समुत्कर्षणा- सैव समुत्कर्षयितव्या, तस्यां च समुत्कृष्टायां परा वदेत् दुःसमुत्कृष्टं ते आयें ! निक्षिप, तस्याः खलु निक्षिप्यमाणाया नास्ति कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, याः साधर्मिण्यो यथाकल्पेन नोत्थाय विहरन्ति सर्वासां तासां तत्प्रत्ययं छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १४ ॥
भाष्यम् – 'पवत्तिणी य' प्रवर्त्तिनी च 'ओहायमाणा' अवधावमाना द्रव्यलिङ्गं सडोरकमुखवस्त्रिकारजी हरणादिलक्षणं परित्यज्य मोहनीयकर्मोदयात् । शेषं सर्वं चतुर्थोद्देशगतावधावमानाचार्योपाध्यायस्य चतुर्द्दशसूत्रवदेव व्याख्येयम्, आचार्योपाध्यायसूत्रात्प्रवर्तिनी सूत्रे यो विशेषः सोऽत्रैव त्रयोदशसूत्रे प्रदर्शित एव शेषं सर्वं तद्वदेव ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम् - णिग्गंथस्स नवडहरतरुणस्स आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिब्भट्ठे सिया से य पुच्छियव्वे - केण ते अज्जो ! कारणेणं आयारपकप्पे णामं अज्झयणे परिब्भट्ठे किं बाहेणं उदाहु पमाएणं ? से य वएज्जा-नो आवाहेणं पमाएणं, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेययत्तं वा उद्दिसित्तर वा धारितए वा, से य वएज्जा - आवाहेणं नो पमाएणं, से य संठवेस्सामीति संठवेज्जा एवं से कप्पड़ आयरियतं वा जाव गणावच्छेययत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा, से य संठवेस्सामीति नो संठवेज्जा एवं से नो कप्पर आयरियतं वा जाव गणावच्छेययत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित वा ।। सू० १५ ।।
छाया -- निर्ग्रन्थस्य नवडहरतरुणस्य आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं परिभ्रष्टं स्यात् स च प्रष्टव्यः - केन ते आर्य ! कारणेन आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं परिभ्रष्टम् किम्आबाधेन उताहो प्रमादेन ? । स च वदेत्-नो आबाधेन प्रमादेन, यावज्जीवं तस्य तत्प्रत्ययं
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व्यवहारसूत्रे नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा । स च वदेत्आबाधेन, नो प्रमादेन, स च-संस्थापयिष्यामीति संस्थापयेत् , एवं तस्य कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा, स च-संस्थापयिष्यामीति नो संस्थापयेत् एवं तस्य नो कल्पते आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० १५॥
भाष्यम्-'निग्गंथस्स' निर्ग्रन्थस्य श्रमणस्य 'नवडहरतरुणस्स' नवडहरतरुणस्य, तत्र नवः-दीक्षापर्यायेण त्रिवार्षिकः, डहरः-जन्म-पर्यायेण षोडशवार्षिकः, तरुणः-चतुश्चत्वारिंशद्वार्षिकः उक्तञ्च-"तिवरिसो होइ नवो, आसोलसगं डहरगं बेंति ।
तरुणो चउचत्तालो, मज्झिमो थेरओ सेसो ॥१॥ ___ छाया--त्रिवर्षों भवति नवः, आषोडशकं डहरकं अवन्ति ।
तरुणश्चतुश्चत्वारिंशत्को मध्यमः स्थविरः शेषः ॥१॥ इति । तस्य तादृशस्य निर्ग्रन्थस्य यदि 'आयारपकप्पे नामं अज्झयणे' आचारप्रकल्पो नामा. ध्ययनम्-आचाराङ्गनिशीथादिसूत्रम् 'परिभढे सिया' परिभ्रष्ट-पटितं सद् विस्मृतं स्यात् तदा 'सेय पुच्छियव्वे' स च अधीतविस्मृतो निर्ग्रन्थः स्थविरेण प्रष्टव्यः, किं प्रष्टव्यस्तत्राह-'केण ते कारणेणं अज्जो' हे आर्य ! ते तव केन कारणेन 'आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिब्भटे'-आचारप्रकल्पो नामाध्ययनं परिभ्रष्टं-त्वया विस्मृतम् !, किं कारणमाश्रित्य त्वयाऽऽचारप्रकल्पाध्ययनं विस्मृतमिति पृच्छेदित्यर्थः। तत्र कारणमेव विविच्य पृच्छति-किमित्यादि, 'कि आबाहेण उदाहु पमाएणं' किम् आबाधेन-रोगादिकारणेन विस्मृतम् ? उताहो-अथवा किं प्रमादेन-आत्मनः प्रमादभावेन विस्मृतम् !। एवं स्थविरेण पृष्टः सन् ‘से य वएज्जा' स च श्रमणो वदेत्-कथयेत् हे भदन्त ! 'नो आबाहेणं पमाएणं' आबाधेन रागादिकारणेन नो विस्मृतं किन्तु प्रमादेन आत्मनः प्रमादभावेन विस्मृतम् । एवं कथिते सति 'जावज्जीवाए तस्स' यावज्जीव-जीवनपर्यन्तं तस्य श्रमणस्य 'तप्पत्तियं' तत्प्रत्ययं प्रमादतो विस्मरणनिमित्तं 'नो कप्पई' नो कल्पते 'आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेययत्तं वा' आचार्यत्वं वा यावत् उपाध्यायत्वं वा प्रवर्तकत्वं वा स्थविरत्वं वा गणित्वं वा गणधरत्वं वा एवं गणावच्छेदकत्वं वा 'उदिसित्तए वा' उद्देष्टुं वा अनुज्ञातुम् 'धारित्तए वा' स्वयं धारयितुं वा न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः ।
___ अथ कदाचित् ‘से य वएज्जा' स च वदेत्-हे भदन्त ! अधीतमाचारकल्पो नामाध्ययनं मया 'आबाहेणं णो पमाएणं' आबाधेन-रोगादिकारणेन विस्मृतं किन्तु नो प्रमादेन प्रमादभावमाश्रित्य नो विस्मृतमिति, 'से य संठवेस्सामीति संठवेज्जा' स च संस्थापयिष्यामि विस्मृत
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भाष्यम् ० ५ सू० १६
निर्ग्रन्ध्या आचारप्रकल्पे नष्टे पददानाऽदानविधिः १३७
माचारकल्पाध्ययनं पुनः स्मरिष्यामीति कथयित्वा यदि संस्थापयेद् विस्मृतं पुनरपि संस्मरेत् ' एवं से कप्प' एवं प्रकारेण पुनः स्मृते आचारकल्पाध्ययने सति तस्य कल्पते 'आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेययत्तं वा' आचार्यत्वं वा याबद् गणावच्छेदकत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा धारितए वा' उद्देष्टुं वा धारयितुं वा कल्पते इति सम्बन्धः 'से य' स च यदि 'संठवेस्सामीति नो संठवेज्जा' संस्थापयिष्यामीति कथयित्वा नो संस्थापयेत् तदा 'एवं से नो कप्पइ' एवं संस्मरणाभावे तस्य नो कल्पते 'आयस्यित्तं वा जाव गणावछेययत्तं वा' आचार्यत्वं वा यावद् गणावच्छेदकत्वं वा 'उद्दिसितर वा धारित वा' उद्देष्टुं वा धारयितुं वेति ॥ सू० १५ ॥
निर्मन्थसूत्रमभिधाय सम्प्रति निर्ग्रन्थीसूत्रमाह – 'निग्गंथीए णं' इत्यादि ।
सूत्रम् - णिग्गंथीए णं नक्डहरतरणीए आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिभट्ठे सिया, साय पुच्छ्रियव्वा केणं ते कारण अज्जे ! आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिब्भट्ठे किं वाणं उदाहु पमाएं ? सा य वएज्जा नो आबाहेणं पमाएणं, जावज्जीवाए तीसे तप्पत्तियं नो कप्पर पवतिणितं वा गणावच्छेइणित्तं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा, साय वएज्जा - आवाहाणं नो पमाणं सा य संठवेस्सामित्ति संठवेज्जा एवं से कप्पइ पवत्तिणितं वा मणावच्छेइणित्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा, साय संठवेस्सामीति नो सठबेज्जा एवं से नो कप्पर पवत्तिणित्त वा गणावच्छेइणित्तं वा उद्दिसित्तए वा धारिए वा ॥ सू० १६ ॥
छाया -निर्ग्रन्ध्याः खलु नवडहरतरुण्याः आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं परिभ्रष्ट स्यात् सा च प्रष्टव्या - केन ते कारणेन आयें ! आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं परिभ्रष्टम् ? किम् आबाधेन उताहो प्रमादेन ? सा च वदेत् नो आबाधेन प्रमादेन, यावज्जीवं तस्यास्तत्प्रत्ययं नो कल्पते प्रवर्तिनीत्वं वा गणावच्छेदिनीत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा । सा च वदेत् आबाधेन नो प्रमादेन सा च संस्थापयिष्यामीति संस्थापयेत् एवं तस्याः कल्पते प्रवत्तिनीत्वं वा गणावच्छेदिनीत्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा, सा च संस्थापयिष्यामीति नो संस्थापयेत् एवं तस्याः नो कल्पते प्रवर्त्तिनीत्वं वा गणावच्छेदिनीत्वं वा उद्देष्टु वा धारयितुं वा ॥ सू० १६ ॥
भाष्यम् – 'णिग्गंथीए णं' निर्ग्रन्ध्याः खलु श्रमण्याः 'नवडहरतरुणीए' नवडहरतरुण्याः तत्र नवदीक्षिता नवा त्रिवर्षात्मक दीक्षापर्यायवती, डहरा - जन्मपर्यायेण अष्टादशवार्षिका, तरुणी-अधिगतयुवावस्था, जन्मतश्चत्वारिंशद्वर्षिका वा, उक्तञ्च -
व्य. १५
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१३८
"तिवरिसा होइ नवा, तरुणी य जाव जुवई,
अट्ठारसिया य डहरिया होई । चत्तालिसिया य वा तरुणी" ॥१॥
छाया -- त्रिवर्षा भवति नवा, अष्टादशिकाच डहरिका भवति ।
तरुणी च यावद युवतिः, चत्वारिंशा च वा तरुणी ॥ १ ॥
व्यवहारस्त्रे
तस्याः 'आयरपकप्पे णामं अज्झयणे' आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनम् आचाराङ्ग निशीथादिकम् 'परिब्भट्ठे सिया' परिभ्रष्टं स्यात् अधीतमाचारप्रकल्पाऽध्ययनम् विस्मृतं भवेत्तदा 'साय पुच्छियव्वा' सा चाऽधीतविस्मृता संयती स्थविरेण प्रष्टव्या - 'केण ते कारणेण अज्जे !' हें आर्ये ! केन खलु कारणेन ते तव, 'आयारप कप्पे नामं अज्झयणे परि०भट्ठे' आचारप्रकल्पो नामाध्ययनं परिभ्रष्टम् - अधीतमाचारप्रकल्पाsध्ययनं त्वया विस्मृतं केन कारणेन विस्मृतमिति पृच्छेदि - त्यर्थः । तत्र कारणमेव विविच्य पृच्छति - किमित्यादि, 'किं आबाहेणं उदाहु पमाएणं' किमाबाधेन—रोगादिकारणेन उताहो - यद्वा प्रमादेन विस्मृतमिति । एवं पृष्टा सती - 'साय वएज्जा' साच वदेत् - 'नो आबाहेणं पमाएणं' नो आबाधेन रोगादिकारणेन किन्तु प्रमादेन मयाऽधीतमपि-आचारप्रकल्पाध्ययनं विस्मृतमिति, एवं कथिते सति 'जावज्जीवाए' जावज्जीवं - जीवन - पर्यन्तमित्यर्थः तस्या विस्मृतकल्पाऽध्ययनायाः श्रमण्याः 'तप्पत्तियं' - तत्प्रत्ययं प्रमादतो विस्मरणनिमित्तम् 'नो कप्पइ' नो कल्पते 'पवत्तिणीत्तं वा' प्रवर्त्तिनीत्वं वा 'गणावच्छेणित्तं वा ' गणावच्छेदिनीत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा धारितए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा स्वयं धारयितुं वा एतादृश्याः पुनः प्रवर्त्तिनीपदस्याऽनुज्ञापनं न कर्त्तव्यमाचार्येण न वा सा स्वयमेव पुनः प्रवर्त्तिनीत्वं गणावच्छेदिनीत्वं वा धारयितुं शक्नोतीति । 'सा य वएज्जा' अथ यदि सा संयती एवं वदेत्–हे भदन्त ! मया 'आबाहेण नो पमाएणं' आबाधेन रोगादिना अधीतमपि पुनविस्मृतम्, नतु प्रमादेन विस्मृतमिति 'साय संठवेस्सामीति संठवेज्जा' सा च संयती विस्मृतमध्ययनं संस्थापयिष्यामि - पुनरपि स्मरिष्यामीति कथयित्वा संस्थापयेत् - पुनरपि संस्मरेत् ' एवं से कप्पइ' एवं प्रकारेण पुनः स्मृतेऽध्ययने सति तस्याः कल्पते 'पवत्तिणीत्तं वा गणावच्छेइणित्तं वा' प्रवर्त्तिनीत्वं वा गणावच्छेदिनीत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा धारितए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा स्वयं धारयितुं वा । अथ कदाचित् नष्टमध्ययनम् 'सा य संठवेस्सामीति नो संटवेज्जा' संस्थापयिष्यामीति कथयित्वा नो संस्थापयेत् न तस्य संस्मरणं कुर्यात् ' एवं से नो कप्पइ पवत्तिणीत्तं वा गणा - वच्छेणित्तं वा उद्दिसित्तर वा धारित्तए वा' एवं तहिं तस्याः संयत्याः नो कल्पते प्रवत्तिनीत्वं वा गणावच्छेदिनीत्वं वा उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा स्वयं धारयितुं वा ॥ सू० १६ ॥
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पूर्वं नवडहरतरुण निर्गन्थनिर्ग्रन्थीनाम् आचारप्रकल्पाऽध्ययनं प्रमादतो विस्मरणेन असंस्थापनेन च यावज्जीवं पददानाऽभावः प्रतिपादितः अस्मिन् सूत्रे तु स्थविराणां स्थविरभूमिप्रा
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भाष्यम् उ० ५ सू० १७-१८ स्थविराणामाचारप्रकल्पे नष्टेऽपि पददानविधिः १३९ सानां च आचारप्रकल्पनामकाऽध्ययनस्य विस्मृतौ संस्थापने असंस्थापने वापि आचार्यादिपदं दातव्यं भवेदिति प्रदर्शयन्नाह—'थेराणं' इत्यादि । .. - सूत्रम्-थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिभहे सिया कप्पइ तेसि संठवेत्ताण वा असंठवेत्ताण वा आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेययत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० १७ ॥
छाया-स्थविराणां स्थविरभूमिप्राप्तानामाचारप्रकल्पो मामाभ्ययनं परिभ्रष्ट स्यात् कल्पते तेषां संस्थापयतामसंस्थापयतां वा आचार्यत्वं वा यावद्गणावच्छेदकत्वं घा उद्देष्टुं वा धारयितुं पा ॥ सू० १७ ॥
भाष्यम्-'थेराणं' स्थविराणाम्-ये ज्ञान-दर्शन-चारित्रे सीदतामिहलोकपरलोकाऽपायं प्रदर्य तान् संयमे संस्थापयन्ति तेषाम्-श्रुतस्थविराणां षष्टिवर्षाणां वा 'थेरभूमिपत्ताणं' स्थविरभूमिप्राप्तानाम्-आचार्यपदप्राप्तानाम् 'आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिभट्टे सिया'-आचारप्रकल्पो नामाध्ययनम्-आचाराङ्गनिशीथसूत्रादिकं परिभ्रष्ट-नष्ट-विस्मृतं स्यात्भवेत् 'कप्पइ तेर्सि' कल्पते तेषां स्थविराणां स्थविरभूमिप्राप्तानाम् 'संठवेत्ताण वा' संस्थापयतां पुनरधीत्य संस्मरताम् 'असंठवेत्ताण वा' असंस्थापयतां पुनरसंस्मरतां वा 'आयरियत्तं जाव गणावच्छेययत्तं वा-आचार्यत्वं वा उपाध्यायत्वं वा प्रवर्तकत्वं वा स्थविरत्वं वा गणित्वं वा गणधरत्वं वा गणावच्छेदकत्वं वा 'उद्दिसित्तए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा, जीर्णत्वमहत्त्वकारणेन तेषां सूत्रधारणायाः सामर्थ्याभावात् 'धारितए वा' स्वयं धारयितुं वा । स्थविरविषये अत्र चतुर्भङ्गी यथा... जीणों नो महान् , यस्तरुण एव सन् जरया परिणतः, इत्येकः १ .
नो जीर्णः किन्तु महान्, यो वृद्धोऽपि सन् दृढशरीर इति द्वितीयः २। ... जीर्णोऽपि च महानपि चेति तृतीयः ३ । नो जीर्णो नो महान् इति चतुर्थः ४।
..मयं चतुर्थो भङ्गः शून्यः । शेषाणां तु त्रयाणामेकतरो न शक्नोति संस्थापयितुमिति तस्याचारप्रकल्पो नामाध्ययनं परिभ्रष्टं भवेदिति. कल्पेत तादृशस्यासंस्थापनेऽपि माचार्यादि• पदमुद्देष्टु वा धारयितुं वेति ॥ सू० १७ ॥.. ...
सूत्रम्-थेराणं थेरभूमिपत्ताण आयरपकप्पे गाम अज्झयणे परिभट्टे सिया कप्पइ तेसिं संनिसण्णाण वा संतुयधाण वा उत्ताणयाण वा पासल्लियाण वा आयारपकप्पे नाम अज्ययणे दोच्चंपि तच्चपि पडिपुच्छित्तए वा पडिसारेत्तए वा ॥सू०१८॥
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व्यवहारस्त्रे छाया-स्थविराणां स्थविरभूमि प्राप्तानाम् आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं परिभ्रष्ट स्यात् कल्पते तेषां सन्निषण्णानां वा त्वग्वतयतां वा उत्तानकानां वा पार्श्ववतां (पार्श्वतः स्थितानाम्) वा आचारप्रकल्पो नामाऽध्ययनं द्वितीयमपि तृतीयमपि प्रतिप्रष्टुं वा प्रतिसारयितुं वा ॥ सू० १८ ॥
भाष्यम्--'थेराणं' स्थविराणाम् 'थेरभूमिपत्ताणं' स्थविरभूमिप्राप्तानाम्-आचार्यपदप्राप्तानाम् , अथवा-अतिवृद्धभावं प्राप्तानाम् , 'आयारपकप्पे नाम अज्झयणे' आचारप्रकल्पः-आचाराङ्गनिशीथादिसूत्रं नामाऽध्ययनम् 'परिब्मटे सिया' परिभ्रष्ट-विनष्टं विस्मृतमित्यर्थः स्यात्-भवेत् 'कप्पइ तेर्सि' कल्पते युज्यते तेषां विस्मृताध्ययनानाम् 'संनिसण्णाण वा'-सन्निषण्णानां वा-निषधागतानां समुपविष्टानामित्यर्थः 'संतुयहाण वा' त्वग्वर्त्तनेन स्थितानां सुप्तानामित्यर्थः 'उत्ताणयाण या' उत्तानकानां वा-हृदयभागमूवीकृत्य शयनं कुर्वताम् 'पासल्लियाण वा' पार्श्ववतां वामादिपार्वतः स्थितानाम् आश्रयमादायोपविष्टानां वा 'आयरपकप्पे नाम अज्झयणे'-आचारप्रकल्पनामकमध्ययनम् 'दोच्चपि तच्चपि' द्वितीयमपि वारं तृतीयमपि वारम् अपिशब्दात् चतुर्थादिवारमपि 'पडिपुच्छित्तए वा' प्रतिप्रष्टुं वा तद्विषयां पृच्छां कर्तुम् 'पडिसारेत्तए वा' प्रतिसारयितुं वा संस्मत् ग्रहीतुं वा कल्पते इति पूर्वेण संबन्धः ॥ सू० १८॥
पूर्व निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां विस्मृताचारप्रकल्पाध्ययनस्य पठनमाश्रित्य कथितम् , साम्प्रतं निम्रथनिम्रन्थीनां द्वादशविधः सम्भोगो भवति तत्र कोऽपि दोष आपतितो भवेत्तदा तस्याऽऽलोचना कर्तव्येत्यालोचनाविधिं प्रदर्शयति-'जे णिग्गया णिग्गंधीओ य' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे णिग्गंथा णिग्गंधीओ य संभोइया सिया, नो ण्हं कप्पड अन्नमन्नस्स अंतिए आलोएत्तए, अस्थि या एत्थ केइ आलोयणारिहा कप्पइ से तेसि अंतिए आलोएत्तए, नत्थि या एत्थ केइ आलोयणारिहा एवं ण्हं कप्पइ अन्नमन्नस्स अंतिए आलोएसए ॥ सू० १९॥
छाया-ये निर्ग्रन्था निम्रन्ध्यश्च सांभोगिकाः स्युः नो खलु कल्पते अन्योऽन्यस्याऽन्तिके आलोचयितुम् , सन्ति चात्र केचित् मालोचनार्हाः कल्पते तस्य तेषामति भालोचयितुम् , न सन्ति वा केचित्र आलोचनार्हाः एवं खलु कल्पते अन्योऽन्यस्या. न्तिके आलोचयितुम् ॥ सू० १९ ॥
भाष्यम्-'जे णिग्गंथा' ये निम्रन्थाः ‘णिग्गयीभो य' निम्रन्थ्यश्च 'संभोइया सिया'-साम्भोगिकाः स्युः, तत्र संभोगः उपध्यादिवस्तूनां परस्परमादानप्रदानम् , स च भोधतो
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मान्यम् उ०५ सू०१९
निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां परस्परमालोचनाविधिः पर द्वादशविवः, उक्तश्चमाथा-'उवहि-सुय-भत्तपाणं, अंजलिपगहो य दाक्णा णेया ।
छठें निकायणं तह, अब्भुट्ठाणं च किइकम्मं ॥१॥ वेयावच्च चसमो-सरो निसज्जा कहापबंधौ य ।
बारसविहो य एसो, संभोगी मोघओ णेओ ॥२॥ इति, छाया-उपधि-श्रुत-भक्तपानम् अञ्जलिप्रग्रहश्च दापना ज्ञेया।
षष्ठं निकाचनं तथा, अभ्युत्थानं च कृतिकर्म ॥१॥ वैयावृत्त्यं समवसरणं निषद्या कथाप्रबन्धश्च ।
द्वादशविधश्चैष संभोग ओघतो ज्ञेयः ॥२॥ इति । तथाहि-उपधिविषयः १, श्रुतविषयः २, भक्तपानविषयः ३, अञ्जलिप्रग्रहविषयः ४, दापनाविषयः, दापना-शय्याहारोपधिस्वाध्यायशिष्यगणानां प्रदाफ्नं तद्विषयः ५, निकाचनविषयः, निकाचनं निमन्त्रण तद्विषयः ६, अभ्युत्थानविषयः ७, कृतिकर्मविषयः ८, वैयावृत्यविषयः ९, समक्सरणं व्याख्यानादिकरणे गृहस्थसाक्षात् परस्पस्मन्तिके उपवेशनं, तद्विषयः समवसरणविषयः १०, संनिषद्याविषयः ११, कथाप्रबन्धविषयश्चेति १२ द्वादशविधः संभोगस्तद्विशिष्टाः सांभोगिका भवेयुः 'नो ण्हं कप्पइ अन्नमन्नस्स अंतिए आलोएत्तए' नो-नैव 'ई' इति वाक्यालङ्कारे कल्पतेऽन्योऽन्यस्य-परस्परस्य अन्तिके-समीपे निम्रन्थस्य निम्रन्थीसमीपे, निम्राश्च निम्रन्थसमीपे मालोचयितुम्-आलोचनां कत्तुम् स्वकीयं स्वकीयमतीचारजातं प्रकटयितुं नो कल्पते इति सम्बन्धः । एवं तर्हि कुत्र कल्पते ! इत्याह-'अस्थि या' इत्यादि । 'अत्थि या एल्थ का मालोयणारिहे' सन्ति-बिद्यन्ते चेत्र समुदाये केचिदालोचनाहर्हाः मालोचनादानयोग्याः स्थानाङ्गसूत्रस्य दशमस्थानोक्तदशविषगुणवन्तो निर्मन्थास्तदा-'कप्पड़ से तेर्सि अंतिए आलोएत्तए' कल्पते तस्य-आलोचकस्य तेषाम् मालोचनार्हाणामन्तिके समीपे आलोचयितुम् । आलोचनाहः स्थानाङ्गसत्रस्य दशमस्थानोक्तदशविधगुणधारको मवेत् । उक्तञ्च
"दसहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहइ आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा-आयारवं १, अवहारवं २, ववहारवं ३, ओवीलए ४, पकुव्वए ५, अपरिस्साई ६, निग्जावए ७, भवायदंसी ८, पियधम्मे ९, दढधम्मे १०" ॥
छाया-आचास्वान् १, अवभारवान् २, व्यवहारवान् ३, अपनीडकः ४, प्रकुर्वकः ५, मारिनावी ६, निर्यापकः ७, अपायदर्शी 4, प्रियधर्मा ७ धर्मा १० इति ।
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१४२
व्यवहारसूत्रे
व्याख्या - दशस्थानसंपन्नोऽनगारः आलोचकेन दीयमानामालोचनां प्रहीतुमर्हति, कीदृशः स भवितुमर्हति ? 'तं जहा' तद्यथा - आचारवान् - ज्ञानाद्याचारवान् १, अवधारवान् - अवधारणावान् २, व्यवहारवान् - आगमादिपश्चप्रकारव्यवहारखान् ३, अपत्रीडकः - लज्जापनोदकः यथा परः सुखमालोचयति ४, प्रकुर्वकः - आलोचितेऽतिचारे शुद्धिकरणसामर्थ्यवान् ५, निर्या - पकः - निर्यापनकारकः तथा प्रायश्चित्तं ददाति यथा स निर्वोढुं शक्नोति ६, अपरिस्रावी - श्रुतालोचकदोषाणां न कस्मैचित्कथनशीलः ७, अपायदर्शी - आलोचकस्य पारला किकाsपायदर्शकः ८, प्रियधर्मा-धर्मप्रियः ९, दृढधर्मा - आपद्यपि धर्मे विचल १० इति । तस्य, तथा ज्येष्ठस्य च समीपे आलोचना कर्तव्या । यदि तत्र दशविधगुणयुक्तो न भवेत्तदा पर्यायज्येष्ठस्य समीपे दैवसिकं रात्रिकं सामान्यम तिचारजातमालोचयेदिति । अथापवादमाह - अथ यदि - 'नत्थि या इत्थ के आलोयणारिहे' न सन्ति न विद्यन्ते चेदत्र ं केचिदालोचनार्हा निर्ग्रन्थाः ' एवं हूं कप्पर अन्नमन्नस्स अंतिए आलोएत्तर' एवम् - एतादृश्यां परिस्थितौ खलु कल्पतेऽन्योऽन्यस्याऽन्तिके-समीपे आलोचयितुम् - आलोचनां कर्त्तुमिति ।
--
अयं भावः - आलोचना च न विपक्षे, सपक्षेऽपि नागीतार्थेषु भवितुमर्हति तत्र गुप्तातिवारस्य प्रकटनायोग्यत्वात् । तत्र विपक्षः संयताः संयतीनाम्, संयत्यश्च संयतानामिति । सपक्षः संयताः संयतानाम् संयत्यश्च संयतीनां भवति । यतः - विपक्षे आलोचनायां चतुर्थत्रतादिगुप्तातिचाराणां प्रकटने परस्परं भावभेदः संभवति, तस्माद् भगवता अन्योऽन्यालोचनाप्रतिषेधकमिदं सूत्रं प्रतिपादितम् । अपवादपक्षे गाढागाढकारणे समुत्पन्ने परस्परालोचना विधिप्रतिपादकं सूत्रं प्रवर्त्तितम् । तत्रापि विवेकः प्रवर्त्तयितव्यः, यथा - आलोचको युवको वृद्धो वा आलोचना निर्ग्रन्थी वृद्धाऽवश्यम्भाविनी । आलोचिका युवतिर्वृद्धा वा आलोचनाहों निर्ग्रन्थो वृद्धोंSवश्यंभावी युज्यते, एवं परस्परालोचनाविधिप्रतिपादकं सूत्रं प्रवर्त्तनीयमिति । आलोचनाहैः कीदृशैर्भवितव्यम् ? तत्राह भाष्यकारः - 'गीयत्था' इत्यादि ।
गाथा - " गीयत्था कयकरणा, पोढा परिणामिया य गंभीरा ।
चिरदिक्खिया य वुड्ढा, जइणो अलोयणाजोग्गा ॥ १ ॥ " छाया—गीतार्थाः कृतकरणाः, प्रौढाः पारिणामिकाश्च गम्भीराः । चिरदीक्षिताश्च वृद्धाः, यतय आलोचनायोग्याः ॥ १ ॥ व्याख्या - गीयत्था' इति । गीतार्थाः - सूत्रार्थतदुभयनिष्णाताः कृतकरणाः - अनेकवारमालॊचनादाने सहायीभूताः, प्रौढाः - समर्थाः सूत्रतोऽर्थतश्च प्रायश्चिसदाने पश्चात्कर्त्तुमशक्याः, पारिणामिका:- आलोचनायाः परिणाम चिन्ताकुशलाः, गम्भीराः आलोचकस्थ महति
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माष्यम् उ० ५ सू १९-२० निर्ग्रन्थनिम्रन्थीनां स्वपक्षविपक्षे चैयावृत्त्यविधिः १४३ दोषेऽपि श्रुते अपरिस्राविणः न कस्मैचिदपि प्रकटनशीला इत्यर्थः, चिरदीक्षिताः-प्रभूतकालपत्रजिताः, वृद्धाः-श्रुतेन पर्यायेण वयसा च महान्तः, एवम्भूता यतयः-साधवः उपलक्षणात् साध्व्यश्च
आलोचनादानयोग्याः आलोचनादाने समुचिता भवन्तीति ॥ १॥ अत्राह भाष्यकारः'आलोयणाए' इत्यादि ।
गाथा-"आलोयणाए जे दोसा, वेयावच्चेवि ते पुणो।' - तम्हा अन्नोन्नभावेणं, वेयावच्चं न कारए" ॥१॥ छाया-आलोचनायां ये दोषा वैयावृत्त्येऽपि ते पुनः।
तस्माद् अन्योऽन्यभावेन वैयावृत्त्यं न कारयेत् ॥१॥ व्याख्या-ये च खलु-विपक्षे-आलोचनायां दोषाः कथिताः, ते सर्वेऽपि दोषाः वैयावृत्त्येऽपि परस्परं वैयावृत्त्यकारणेऽपि भवन्ति तस्माद् अन्योऽन्यभावेन विपक्षे वैयावृत्त्यं न कारयेदिति सूत्राक्षरार्थः ।
अयं भावः-विपक्षातू-वैयावृत्त्यं शारीरिकं हस्तपादादिसंवाहनरूपं कारयतः साधोः कदाचित् चञ्चलचित्तायाः साध्व्या विषये मनो विकृतं भवेत् तेन व्रतभङ्गदोष आपयेत, माहाराघानयनविषये च श्रमण्या समानीतमन्नादिकं भुञ्जतः साधोराज्ञाभङ्गादिदोषाः, शङ्कितादिदोषाश्च भवेयुः । उक्तञ्चात्र
समणीए आणीय, मुंजइ असणाइ जत्थ समणो य । गच्छो नपुंसओ सो, एवं समणीण धम्मकहा ॥१॥
छाया--श्रमण्या आनीतं भुङ्क्ते अशनादि यत्र श्रमणश्च ।
___ गच्छो नपुंसकः सः, एवं श्रमणीनां धर्मकथा ॥१॥
अयं भावः–यस्मिन् गच्छे श्रमण्या समानीतमशनादिकमकारणे श्रमणो भुङ्क्ते स गच्छो नपुंसको विज्ञेयः । एवं श्रमणानां सद्भावे श्रमण्या धर्मकथाऽपि बोध्या । श्रमणसत्तायां श्रमणी यदि पट्टोपर्युपविश्य परिषदि धर्मकथां करोति यस्मिन् गच्छे स गच्छोऽपि नपुंसक एवेति ॥ १॥
पुनश्च-आहारानयने-'अन्यन्मनसि-अन्यद्वचसि' इत्यादिदुष्टलक्षणलक्षिता संयती कदाचिद् अनेषणीयमप्यशनादिकमानीय समर्पयति, इत्यादि दोषबाहुल्यात् कथमपि किमपि संयतेन संयतीभिः किमपि वैयावृत्त्यं न कारयितव्यमिति। एवं संयत्याः संयतेर्वैयावृत्त्यकारणे दोषाः
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समुन्नेयाः । अपवादे मायमाढकास्मे विवेकः कर्त्तव्य इति । विशेषत मालोचनादोषा वैयाइलादोषाश्च स्थानाङ्गसूत्राज्ञातव्याः ॥ सू० १९ ॥
। पूर्व विपक्षेऽन्योऽन्यवैयावृत्त्यकरणं निषिद्धम् , गाढकारणे चाज्ञा प्रतिपादिता, साम्प्रतं स्थविरकल्पिकजिनकल्पिकयोरपवादोत्सर्गों प्रतिपादयन्नाह-'णिग्गंथं च णं' इत्यादि ।
सूत्रम्-णिग्गंथं च गं राओ ना विनाले चा दीहपट्ठो का लूसेज्जा इत्यी वा पुरिसस्स ओमावेज्जा पुरिसो का इत्थीए भोगावेज्जा, एवं से कप्पइ एवं से चिट्ठई परिहारं च नो पाउणइ एस कप्पे थेरकप्पियाणं । एवं से नो कप्पइ एवं से नो चिट्ठइ परिहारं च नो पाउणइ एस कप्पे जिणकम्पियाणं ति बेमि ॥ सू० २१॥
ववहारस्स पंचमो उद्देसो समत्तो ॥५॥ छाय-निर्ग्रन्थं च खलु रात्रौ वा विकाले वा दीर्घपृष्ठो लूपयेत् स्त्री या पुरुपस्यापमार्जयेत् पुरुषो वा स्त्रिया अपमार्जयेत्, एवं तस्य कल्पते एवं तस्य तिष्ठति परिहारं च नो प्राप्नोति एष कल्पः स्थविरकल्पिकानाम् । एवं तस्य नो कल्पते एवं तस्य नो तिष्ठति परिहारं च नो प्राप्नोति एषः कल्पो जिनकल्पिकानाम्, इति ब्रवीमि ॥ सू० २०॥
व्यवहारस्य पञ्चम उद्देशः समाप्तः ॥ ५॥ भाष्यम्-'णिग्गंथं च णं' निम्रन्थं श्रमणम् चकारात्-निर्ग्रन्थीं च खलु 'राओ वा वियाले वा' रात्रौ वा विकाले-सायंकाले प्रातःकाले तदन्यकाले वा यदि-दीडपट्ठो वा लूसेज्जा' दीर्घपृष्ठः सर्पः लूपयेत्-दशेत् तत्र-'इत्थी वा पुरिसस्स ओमावेज्जा' स्त्री श्रमणी पुरुषस्य साधोः स्वहस्तेन तं विषमपमार्जयेत् मन्त्रौषधादिना निवारयेत् 'पुरिसो इत्थीए ओमावेज्जा' पुरुषः साधुः स्त्रियाः श्रमण्याः स्वहस्तेन विषमपमार्जयेत् । यदि-साधुः साध्वी वा सर्पदष्टा भवेत् तत्राऽसति व्यक्त्यन्तरे साधुः श्रमण्याः विषं हस्तेन प्रमार्जयेत् , श्रमणी वा श्रमणस्य विषं हस्तेनाऽपसारयेदिति भावः । ‘एवं से कप्पई' एवम् एतादृश्यां परिस्थितौ तस्य स्थविरकल्पिकस्य कल्पते, ‘एवं से चिहई' एवम्-अनेन प्रकारेण अपवादमासेवमानस्य तस्य स्थविरकल्पिकस्य तिष्ठति पर्यायः न तु सः स्थविरकल्पिकत्वात् पर्यायपरिभ्रष्टो भवति अत एव 'परिहारं च से नो पाउणई' परिहारं च तपः स स्थविरकल्पिकः प्रायश्चित्तरूपेण न प्राप्नोति परिहारनामकं प्रायश्चित्तं च तस्य न भवति 'एस कप्पे थेरकप्पियाणं' एषः-सूत्रोक्तः कल्पः-आचारः स्थविरकल्पिकानां कथितः । सम्प्रति जिनकल्पिकमधिकृत्य उत्सर्गमार्ग प्रदर्शयितुमाह-'एवं से नो' इत्यादि, 'ए से नो कप्पई' एवम्-उत्तप्रकारेण सपक्षेण विपक्षेण वा वैयावृत्त्यकारणं 'से' तस्य बिनकल्पिकस्य नो नैव कथमपि कल्पते, 'एवं से नो चिटई' एवम्-अनेन प्रकारेण अपवादपदासेवनेन तस्य जिनकल्पिकस्य जिनपर्यायो न तिष्ठति, जिनकल्पिकत्वात् पतितो भवतीत्यर्थः ।
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भाष्यम् उ० ५ सू० २०
पञ्चमोद्देशकसमाप्तिः १४५ 'परिहारं च से नो पाउणइ' परिहारं च-परिहारनामकं तपोविशेष स न प्राप्नोति अपवादानासेवित्वात्, 'एस कप्पे जिणकप्पियाणं' एष कल्पः-प्रकारो जिनकल्पिकानामुक्तः । 'त्तिव बेमि'सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति-हे शिष्य ! इति-उक्तप्रकारेण अहं तीर्थकरमुखाद् यथा यत् श्रुतम् तत्तथा तुभ्यं ब्रवीमि -कथयामि, इति । सू० २० ॥
इति श्री विश्वविख्यात-जगदल्लभ प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनाचार्य" पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां "व्यवहारसूत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायां पश्चम
उद्देशकः समाप्तः ॥५॥ ..
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अथ षष्ठोदेशकः प्रारभ्यते
व्यथ पञ्चमोद्देशकस्य चरमसूत्रेणास्य षष्ठोदेशकस्यादिसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति सम्बन्धं प्रदर्शयन्नाह भाष्यकारः - 'पंचम' इत्यादि ।
गाथा- - "पंचमउद्देसंते, गिलाणभावो पदंसिओ मुणिणो ।
सो इच्छइ नायविर्हि संबंधो एस नायव्वो" ॥ १ ॥
छाया - पञ्चमोद्देशकान्ते ग्लानभावः प्रदर्शितो मुनेः । स इच्छति ज्ञातविधि, सम्बन्ध पष ज्ञातव्यः ॥ १ ॥
व्याख्या - 'पंचम उद्देसंते' - पञ्च मोद्देशकस्यान्ते चरमसूत्रे 'मुणिणो' मुनेः-निर्यन्थस्य 'गिलाणभावो' ग्लानभावः - सर्पदंशेन मनोदौर्बल्यरूपः 'पदंसिओ' प्रदर्शितः । 'सो' सः - मरणाशङ्कादिना खिन्नः सन् 'णायविहिं' ज्ञातविधि, तत्र - ज्ञाता :- मातापित्रादयः तत्संबन्धीभूतावा, तेषां विधिं ज्ञातसम्बन्धमाश्रित्य तत्तत्संबन्धीभूतं ज्ञातभेदम् अन्यस्वजनान् वा 'इच्छा' इच्छति तेषां समीपे गन्तुमिच्छेदित्यर्थः । अथवा स्वजना ग्लाना मरणासन्ना वा भवेयुस्तेषां दर्शनदानाद्यर्थं वा गन्तुमिच्छेदिति षष्ठोदेशकस्यादौ ज्ञातविधिः प्रदर्श्यते, एष सम्बन्धः पूर्वापरोदेशकयोर्ज्ञातव्य इति ।। १ ।। तत्रादिमं सूत्रमाह - "भिक्खू य इच्छेज्जा' इत्यादि ।
सूत्रम् - भिक्खू य इच्छेज्जा नायविहिं एत्तए, नो से कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता नाय - विहिं एत्तए, कप्पर से थेरे आपुच्छित्ता नायविहिं एत्तए, थेरा य से त्रियरेज्जा एवं से nous नायविहिं एत्तए, थेराय से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ नायविहिं एत्तए, जं तत्थ थेरेहिं अविणे नायविहिं एइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १॥
"
छाया -- भिक्षुश्च इच्छेत् ज्ञातविधि नो तस्य कल्पते स्थविराननापृच्छय ज्ञातविधिमेतुम् कल्पते तस्य स्थविरान् आपृच्छ्य ज्ञातविधिमेतुम् स्थविराश्च तस्य वितरेयुः, एवं तस्य कल्पते ज्ञातविधिमेतुम्, स्थविराश्च तस्य नो वितरेयुः, एवं तस्य नो कल्पते ज्ञातविधिमेतुम्, यत्तत्र स्थविरैः अवितीर्णो ज्ञातविधिमेति तस्य सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १ ॥
भाष्यम् -- ' भिक्खू य इच्छेज्जा' भिक्षुः - श्रमणः च - शब्दात् श्रमणी च इच्छेत्, किमिच्छेत्तत्राह - 'नायविर्हि' इत्यादि, 'णायविहिं एत्तए' ज्ञातविधिं स्वजनभेदम्, ज्ञाता - मातापित्रादयः,
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माज्यम् उ० ६ सू० १-५
भिक्षोः स्वजनमिलनार्थगमनविधिः १४७ अथवा पूर्वसंस्तुता मातापित्रादयः, पश्चात्संस्तुताः श्वश्रूश्वशुरश्यालकादयः, तन्नि मित्तेन यः सम्बन्धः स ज्ञातविधिरुच्यते, माता पितृश्वश्रूश्वशुरादिविषयेऽनेके भेदा भवन्ति, अतो विधिशब्दोऽत्र भेदवाचको ज्ञातव्यः, तेषां गृहे दर्शनदानाद्यर्थम् एतुं-प्राप्तुं गन्तुमित्यर्थः तदा-'नो से कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता नायविहिं एत्तए' 'नो'-न कथमपि 'से' तस्य-श्रमणस्य कल्पते स्थविरान् गच्छनायकान् अनापृच्छय स्थविराज्ञामन्तरेणेत्यर्थः ज्ञातविधिमेतुम् आत्मनः स्वजनगेहे गन्तुम् । 'कप्पड़ से थेरे आपुच्छित्ता नायविहिं एत्तए' कल्पते तस्य स्थविरान् गच्छनायकान् आपृच्छय गच्छनायकस्याऽऽज्ञां लब्ध्वा इत्यर्थः ज्ञातविधिमेतु-स्वजनगृहे गन्तुमिति । प्रच्छने यदि-थेराय से वियरेज्जा' स्थविराश्च 'से' तस्य वितरेयुः-गमनायाऽऽज्ञां दद्यः ‘एवं से कप्पइ नायविहिं एत्तए' एवं गच्छनायकस्याऽऽज्ञासंप्राप्त्यनन्तरम् ‘से' तस्य श्रमणस्य कल्पते ज्ञातविधिमेतुम् 'थेरा य से नो वियरेन्जा' यदि स्थविराश्च तस्य स्वजनगृहे गन्तुमाज्ञां नो वितरेयुः नो दधुः ‘एवं से नो कप्पइ नायविहिं एत्तए' एवम्-आज्ञावितरणाभावे तस्य नो कल्पते ज्ञातविधिमेतुम् । 'जं तत्थ थेरेहिं अविइण्णे नायविहिं एइ' यत् यदि श्रमणस्तत्र स्थविरैरवितीर्णोऽननुज्ञातः ज्ञातविधिमेति प्राप्नोति स्थ वेराज्ञामन्तरेण यदि कश्चित् श्रमणः स्वजनगृहं याति गच्छति 'से संतरा छेए वा परिहारे वा' 'से' तस्य-श्रमणस्याज्ञामन्तरेण ज्ञातविधिं कुर्वतः सान्तरात् स्वकृताद् अन्तरात् आज्ञोल्लञ्चनरूपाऽपराधात् छेदो वा परिहारो वा, गच्छनायकाज्ञामुल्लंध्य ज्ञातविधिकरणे श्रमणस्य छेदनामकं परिहारनामकं वा प्रायश्चित्तं भवति, इति भावः ॥ सू० १॥
ज्ञातविधिमेतुं कस्य न कल्पते ? तत्राह-'नो से कप्पई' इस्यादि । सूत्रम्-नो से कप्पइ अप्पमुयस्स अप्पागमस्स एगाणियस्स नायविहिं एत्तए ॥२०२॥ छाया-नो तस्य कल्पते अल्पश्रुतस्य अल्पागमस्य एकाकिनो शातविधिमेतुम् ॥सू०२॥
भाष्यम्-'नो से कप्पई' नो-न कल्पते कथपि 'से' तस्य श्रमणस्य, कीदृशस्येत्याह'अप्पमुयस्स' अल्पश्रुतस्याऽगीतार्थस्य, 'अप्पागमस्स' अल्पागमस्य-आगमज्ञानविकलस्य लौकिकशास्त्रेष्वतिपर्राि चतस्य स्वशास्त्रविषयकज्ञानवञ्चितस्य, पुनश्च गीतार्थे सत्यपि 'एगाणियस्स' एकाकिनः सहायकरहितस्याद्वितीयस्य 'णायविहिं एत्तए' ज्ञातविधिमेतुम्-प्राप्तुम्, अल्पश्रुतेनअल्पागमेन एकाकिनाऽगीतार्थेन श्रमणेन स्वजनगृहे गमनं न कर्त्तव्यमित्यर्थः ॥ सू० २ ॥
ज्ञातविधेमेतुं कस्य कल्पते ! इति तद्विधिमाह--'कप्पइ से जे तत्थ' इत्यादि । सूत्रम्-कप्पइ से जे तत्थ बहुस्सुए बब्भागमे तेण सद्धिं नायविहिं एत्तए।०३॥ छाया - कल्पते तस्य यस्तत्र बहुश्रुतो बबागमः तेन सार्च हातविधिमेतुम् ॥ सू०३॥
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व्यवहारसूत्रे
भाष्यम् – 'कप्पर से जे तत्थ बहुस्सुए बहागमे' कल्पते 'से' तस्य श्रम णस्य यस्तत्र - गच्छे बहुश्रुतः सूत्रापेक्षया, बह्नागमः अर्थापेक्षया 'तेण सद्धिं नायविहिं एत्तए' ते बहुश्रुतेन बह्वागमेन सार्धं ज्ञातविधिमेतुम् - स्वजनगृहं गन्तुं कल्पते इति संबन्धः, नैकाकिना श्रमणेन स्वजनगृहे गन्तुं शक्यते किन्तु - तस्मिन् गच्छे यो बहुश्रुतो बह्वागमः तेन साकं मिलित्वा गन्तुं शक्यते इति भावः || सू० ३ ॥
૪૮
स्वजनगृहे गते सति तत्राहारग्रहणविधिमाह - ' तत्थ से' इत्यादि ।
सूत्रम् -- तत्थ से पुव्वागमणेणं पुव्वाउते चाउलोदणे, पच्छाउने भिलिंगसुवे कप्पर से चाउलोदणे पडिग्गाहित्तए नो से कप्पर भिलिंगस्वे पडिग्गाहित्तए । ० ४ ॥
छाया - तत्र तस्य पूर्वागमनात् पूर्वायुक्तः तन्दुलौदनः पश्चादायुक्तः भिलिङ्गसूपः कल्पते तस्य तन्दुलौदनः प्रतिग्रहीतुम्, नो तस्य कल्पते भिलिङ्गसूपः प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ४ ॥
भाष्यम् - ' तत्थ से' इति तत्र - -गृहस्थगृहे तस्य - भिक्षार्थमागतस्य साधोः 'पुव्वागमणेणं' सूत्रे पञ्चम्यर्थे तृतीया आर्षत्वात् तेन आगमनात्पूर्वं साधोरागमनात्प्रागेव पुव्वाउत्ते' पूर्वायुक्तः पूर्वं रन्धनकाले एव आयुक्तः रध्यमानः गृहस्थैः स्वनिमित्तं पक्तुमारब्धः 'चाउलोदणे' तन्दुलौदनः वर्त्तेत 'पच्छाउने भिलिंगसवे' पश्चादायुक्तः साधोरागमनानन्तरं रध्यमानः 'भिलिंगसू वे' इति मसूर दालिर्भवेत् उपलक्षणमेतत् सर्वदालीनाम्, तत्र तयोर्मध्ये 'कप्पइ से' कल्पते तस्य साधोः 'चाउलोदणे' तन्दुलौदनः 'पडिग्गाहित्तए' प्रतिग्रहीतुम् तन्दुलौदनस्य पूर्वायुक्तत्वात्, किन्तु 'नो से कप्पइ' नो - नैव - तस्य - साधोः कल्पते 'भिलिंगस्वे' मसूर - सूपः 'पडिग्गाहित्तए' प्रतिग्रहीतुं तस्य पश्चादायुक्तत्त्वात् ॥ सू० ४ ॥
पुनरेवाह--' तत्थ पुन्वागमणेणं' इत्यादि ।
सूत्रम् - तत्थ पुव्वागमणेणं पुव्वाउत्ते मिलिंगसूवे, पच्छाउने चाउलोदणे, कप से मिलिंग पडिग्गाहित्तए, नो से कप्पइ चाउलोदणे पडिग्गाहित्तए । सू० ५ ॥
छाया - तत्र पूर्वागमनेन पूर्वायुक्तो भिलिङ्गसूपः पश्चादायुक्तस्तन्दुलौदनः कल्पते तस्य भिलिङ्गसूपः प्रतिग्रहीतुम्, नो तस्य कल्पते तन्दुलौदनः प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ५ ॥
भाष्यम् – अस्मिन् सूत्रे भिलिङ्गसूपः साधोः प्रतिग्रहीतुं कल्पते पूर्वायुक्तत्वात् किन्तु तन्दुलौदनो न कल्पते तस्य पश्चादायुक्तत्वादिति सूत्रभावः || सू० ५ ॥
सूत्रम् - तत्थ से पूव्वागमणेणं दोवि पुव्वाउत्ते कप्पर से दोवि पडिग्गाहित्तए | सू० ६ ॥
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भाष्यम् उ० ६ सू० ६-११
तन्दुलौदनभिलिङ्गसूपयोर्ग्रहणविधिः १४९
छाया - तत्र तस्य पूर्वागमनेन द्वावपि पूर्वायुक्तौ कल्पते तस्य द्वावपि प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ६ ॥
भाष्यम् – अस्मिन् सूत्रे तन्दुलौदनो भिलिङ्गसूप चेति द्वावपि प्रतिग्रहीतुं कल्पते तयोद्वयोरपि पूर्वायुक्तत्वात् ॥ सू० ६ ॥
सूत्रम् -- तत्थ से पूव्वागमणेणं दोवि पच्छाउते नो से कप्पर दोवि पडिगात्तिए | सू० ७ ॥
छाया - तत्र तस्य पूर्वागमनेन द्वावपि पश्चादायुक्तौ नो तस्य कल्पते द्वावपि प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ७ ॥
भाष्यम् -- अस्मिन् सूत्रे भिलिङ्गसूपस्तन्दुलौदनश्च द्वावपि नो कल्पते द्वयोरपि पश्चादायुक्तत्वात् ॥ सू० ७ ॥
अत्र कल्पने कारणं प्रदर्शयति- 'जे से तत्थ' इत्यादि ।
सूत्रम् -जे से तत्थ पुव्त्रागमणेणं पुव्त्राउत्ते, से कप्पड़ पडिग्गाहित्तए । सू० ८ ॥ छाया - यः सः तत्र पूर्वागमनेन पूर्वायुक्तः स कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ८ ॥ भाष्यम्- यः सः कोऽपि पदार्थो गृहस्थगृहे साधुप्रायोग्यः अशनादिः स सर्वोऽपि साधोरागमनात्पूर्वमायुक्तः - सम्पन्नः स कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति तात्पर्यार्थः ॥ सू० ८ ॥
अथाऽकल्पने कारणमाह-- ' जे से' इत्यादि ।
सूत्रम् --जे से तत्थ पुन्वागमणेणं पच्छाउने, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए | ०९ ॥ छाया - यः स तत्र पूर्वागमनेन पश्चादायुक्तो नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥सू०९ ॥
भाष्यम् – यः स कोऽपि पदार्थः साधोर्ग्रहणयोग्योऽशनादिर्गृहस्थगृहे साधोरागमनात्पश्चादायुक्तः - सम्पन्नः स कोऽपि पदार्थः साधोर्न कल्पते इति भावः ॥ सू० ९ ॥
पूर्वं बहुश्रुतबह्वागमस्य ज्ञातविधिगमने विधिः प्रदर्शितः । ज्ञातविधिं कृत्वा ततः प्रत्यावर्त्य उपाश्रये आगच्छति तत्र पादप्रस्फोटनादि चावश्यं करोतीति तद्विषये आचार्योपाध्यायस्य पञ्चातिशेषान् दर्शयति-- 'आयरियउवज्झायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् - आयरियउवज्झायस्य गणंसि पंच अइसेसा पन्नत्ता, तं जहा आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाए निगिज्झिय निगिज्झिय पष्फोडेमाणे वा पमज्जमाणे वा नो अइक्कमइ ॥ सू० १० ॥
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१५०
व्यवहारस्त्रे छाया-आचार्योपाध्यस्य गणे पञ्च अतिशेषाः प्राप्ताः तद्यथा-आचार्योपाध्यायः अन्त उपाश्रयस्य पादौ निगृह्य निगृह्य प्रस्फोटयन् वा प्रमार्जयन् वा नो अतिक्रामति ॥सू०१०॥
भाष्यम्-'आयरियउवज्झायस्स' आचार्योपाध्यायस्य आचार्यश्चोपाध्यायश्चेत्याचार्योपाध्यायः आचार्यरूप उपाध्यायः यद्वा आचार्येण सहित उपाध्यायः आचार्योपाध्यायः, तस्याचार्योपाध्यायस्य 'गणंसि' गणे-गच्छमध्ये इत्यर्थः 'पंच अइसेसा पन्नत्ता' पञ्च-पञ्चसंख्यका अतिशेषाः- अतिशयाः सामान्यसाधोरनाचरणीयत्वात् प्रज्ञप्ताः-कथिताः । तानेव पञ्चातिशयान् दर्शयितुमाह-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'आयरिय उवज्झाए' आचार्योपाध्यायः, आचार्यश्चोपाध्यायश्चेत्यर्थः, 'अंतो उवस्सयस्स' अन्तः उपाश्रयस्य वसतेमध्ये इत्यर्थः, 'पाए' पादौ स्वकीयचरणौ 'निमिज्झिय निगिन्झिय' निगृह्य निगृह्य-भूमौ यतनया-आस्फाल्यास्फाल्य 'पप्फोडेमाणे वा' प्रस्फोटयन्-तद्गतधूल्यादिमपनयन् 'पमज्जमाणे वा' प्रमार्जयन् वा वस्त्रादिना प्रोञ्छयन् वा 'नो अइक्कमई' नो अतिक्रामति-तीर्थकराज्ञा नोलत्यति, बाह्यत आगतस्य साधोः पादप्रमार्जनमुपाश्रयावहिरेव करणीयं भवेत् किन्तु आचायोपाध्यायस्य तदतिशयत्त्वेन प्रतिपादनान्न दोषः, यत आचार्योपाध्याया न किमपि कारणं विना एवं कुर्वन्ति, बहिगृहस्थानामुपस्थितौ एवं करणे शासनोड्डाहो भवति, यदेते असभ्या जैनसाधवः ये उपस्थितजने धूलिमुड्डापयन्तीत्यादि कारणवशात्ते एवं कुर्वन्ति ततो न तेषामाज्ञाभङ्गादि दोषः समापद्येत तेषामतिशयत्वेन भगवता प्रतिपादितत्वात् । एषः एकोऽतिशयः ॥सू०१०॥
अथ द्वितीयमाह-'आयरिय' इत्यादि ।
सूत्रम्-आयरियउवज्झाए अन्तो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ ॥ सू० ११ ॥
छाया--आचार्योपाध्यायः अन्त उपाश्रयस्य उच्चारप्रस्रवणं विगिञ्चयन् वा विशोधयन् वा नो अतिक्रामति ॥ सू० ११ ॥
भाष्यम् –'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः 'अंतो उवस्सयस्स' अन्तःमध्ये उपाश्रयस्य 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'विगिंचमाणे वा' विगिञ्चयन्-व्युत्सृजन् वा, 'विसोहेमाणे वा' भूमि विशोधयन् वा 'नो अइक्कमइ' नो अतिक्रामति, उपाश्रयमध्ये उच्चारप्रस्रवणं कुर्वन् आचार्यः तस्य यत् पुरीषादिकं विशोधयन् उच्चारादिपरिष्ठापकोऽपि नातिक्रामति । आचार्योपाध्यायस्य यदि प्रस्रवणादिवेगो भवेत् , तदा स उपाश्रयमध्य एव तत् कुर्यात् , यदन्यः कश्चिद् उच्चारादि परिष्ठापको भवेत्तर्हि -आचार्यः,
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भाष्यम् उ० ६ सू० १२-१६
आचार्योपाध्यायस्यातिशयनिरूपम् १५१ द्वितीयवारं तृतीयवारं वा उपाश्रयाद्वहिरुच्चाराद्यर्थं गन्तुं न शक्नुयात्, यतो हि-मुहुर्मुहुर्बहिर्गमने श्रावकैर्वारं वारं विनयादिकं कर्तुं न पार्येत, इत्यवज्ञया शासनस्य लघुता स्यात्, अत एव द्वितीयादिवारं यद्युच्चारादिशङ्का भवेत् तदा तत्रैव तत् तेन कर्त्तव्यम्, तस्य बहिर्गमने तदनुपस्थितौ यदि कोऽपि अन्यतैर्थिको वादी सामायाति कस्तं निवारयेत् इत्यादिकारण संभवात् तस्य विशोधकोऽपि शिष्यो विशुद्धिं कुर्वन् तीर्थकराज्ञां नातिक्रामति प्रत्युत महानिर्जरां करोतीति भावः । इति द्वितीयोऽतिशयः २ ॥ सू० ११ ॥
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अथ तृतीयमतिशयमाह – 'आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम् - आयरियउवज्झाए पभू वेयावडियं इच्छा करेज्जा इच्छा नो करेज्जा ॥ सू० १२ ॥
छाया -- आचार्योपाध्यायः प्रभुः वैयावृत्त्यम् इच्छा कुर्यात् इच्छा नो कुर्यात् ॥ सू० १२ ॥
भाष्यम् --- 'आरिय उवज्झाए पभू' आचार्योपाध्यायः प्रभुः समर्थः शरीरसामर्थ्यवानपि 'वेयावडियं इच्छा करेज्जा' वैयावृत्त्यम् अन्यसाधुम्यो भक्तपानादीनामानयनादिकम् इच्छा कुर्यात् यदीच्छा भवेत्तदा कुर्यात् कर्त्तुं शक्नोति, 'इच्छा नो करेज्जा' इच्छा नो कुर्यात्, यदीच्छा न भवेत्तदा न कुर्यात्, आचार्योपाध्यायस्य सामर्थ्येऽपि वैयावृत्त्यकरणप्रतिबन्धाभावात्, यदीच्छेत् तस्येच्छा भवेत् तदा वैयावृत्त्यं कुर्यात् यदि नेच्छा भवेत्, तदा न कुर्या तस्यातिशयवत्त्वात् । एष तृतीयोऽतिशयः ३ ॥ सू० १२॥
अथ चतुर्थमतिशयमाह - 'आयरियउवज्झाए' इत्यादि ।
सूत्रम् -- 'आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमइ ।। सू० १३ ॥
छाया-- आचार्योपाध्यायः अन्तः उपाश्रययस्य एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसन् नो अतिक्रामति ॥ सू० १३ ॥
भाष्यम् – 'आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स' आचार्योपाध्यायः अन्तः- मध्ये उपाश्रयस्य वसतेः 'एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे' एकरात्रं वा द्विरात्रं वा एकाकी वसन् 'नो अक्कम ' नातिक्रामति कथमपि तीर्थङ्कराज्ञां नोल्लङ्घयति, तस्योपाश्रयमध्ये एका किवासोऽपि कल्पते अतिशयवत्त्वात् । एषश्चतुर्थोऽतिशयः 8 ॥ सू० १३ ॥
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१५२
व्यवहारसूत्रे
अथ पञ्चममतिशयमाह-- 'आयरियउवज्झाए' इयादि ।
सूत्रम् - - आयरियउवज्झाए बार्हि उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कम || सू० १४ ॥
छाया -- आचार्योपाध्यायो बहिरुपाश्रयस्य एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसन् नो अतिक्रामति ॥ सू० १४ ॥
भाष्यम् – 'आयरियउवज्झाए' आचार्योपाध्यायः 'बाहि उवस्सयस्स' बहिरुपाश्रयस्य वसतेर्बहिर्भागे 'एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमइ, एकरात्रं वा द्विरात्रं वा कारणवशाद् एकाकी वसन् नो अतिक्रामति न कथमपि अतिचारादिकं प्राप्नोति कारणिकज्ञानवत्त्वात् । इति पञ्चमोऽतिशयः । ५ । इत्येते पञ्चातिशया आचार्योपाध्यायानामेव भवन्ति तेषामागमकुशलत्वेन औचित्यतो वर्त्तनशीलत्वात् ॥ सू० १४ ॥
उक्ता आचार्योपाध्यायस्य पञ्चातिशयाः, सम्प्रति गणावच्छेदकस्यातिशयद्वयं भवेदिति प्रदर्शयन्नाह - 'गणावच्छेययस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् - गणावच्छेययस्स णं गणंसि दो अइसेसा पन्नत्ता तं जहा - गणावच्छेछेयए अंतो उवस्सस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमइ । सू० १५॥ गणावच्छेयए बाहिं उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमइ || सू० १६॥
छाया - गणावच्छेदकस्य खलु गणे द्वावतिशेषौ प्रशप्तौ तद्यथा - गणावच्छेदकः अन्त. रुपाश्रयस्य एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसन् नो अतिक्रामति ॥ सू० १५ ॥
गावच्छेदको बहिरुपाश्रयस्य एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसन् नो अतिक्रामति ॥०१६ ||
भाष्यम् – 'गणात्रच्छेययस्स' गणावच्छेदकस्य 'गणंसि' गणे स्वगणमध्ये 'दो अइसेसा पन्नत्ता' द्वौ - द्विसंख्यकौ अतिशेषौ - अतिशयौ प्रज्ञप्तौ नतु साधारणतः आचार्योपाध्यायवदस्य पश्चातिशया भवन्ति । तदेवातिशयद्वयं प्रदर्शयति- 'तं जहा ' इत्यादि । तं जहा ' तद्यथा - 'गणाव - च्छेयए अंतो उवस्सयस्स' गणावच्छेदकोऽन्तः - मध्ये उपाश्रयस्य ' एगरायं वा दुरायं वा ' एकरात्रम् - एकरात्रिपर्यन्तं वा, द्विरात्रं वा रात्रिद्वयं वा 'वसमाणे' वसन् निवासं कुर्वन्, 'नो अइक्क - मइ' नो अतिक्रामति - अतिचारभाग् न भवति, इति प्रथमोऽतिशयः १ ॥ सू० १५ ॥
द्वितीयमाह - 'गणावच्छेयए' गणावच्छेदकः 'बाहि उवस्सयस्स' बहिर्बाह्यभागे उपाश्रयस्यवसतेः, 'एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे एकरात्रम् - एकरात्रिपर्यन्तं वा, द्विरात्र रात्रिद्वयं वा
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भाष्यम् उ० ६ सू० १७
अगोतार्थानामेकप्राकारादिवसतिवासविधिः १५३ वसन् निवासं कुर्वन् ‘नो अइक्कमइ' नो कथमपि अतिक्रामति अतिचारवान् न भवति, कारणाकारणज्ञानकुशलत्वात् । एतौ द्वावपि सूत्रोक्तावतिशयौ तस्यैव गणावच्छेदकस्य भवतः, यो हि गणावच्छेदको नियमतः आचार्यों भविता भविष्यति वा । यः पुनर्गणावच्छेदको गणावच्छेदकत्वे वर्तमान आचार्यपदानहः तस्य सूत्रोक्तो अतिशयो न भवतः ॥ सू० १६ ॥
___ उता आचार्योपाध्यायगणावच्छेदकानामतिशयाः, सम्प्रति वसतिवासप्रसङ्गात् अगी. तार्थानामेकप्राकारादियुक्तवसतौ वासनिषेधमाह-'से गामंसि वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगबगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणप्पवेसाए नो कप्पइ बहूणं अगडसुयाणं एगयओ वत्थए, अस्थि य इत्य ण्हं केइ आयारपकप्पधरे नत्थि य इत्थ ण्हं केइ छेए वा परिहारे वा, नत्थि य इत्थ ण्डं केइ आयारपकप्पधरे से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ सू० १७ ॥
छाया-अथ ग्रामे वा यावद्राजधान्यां वा एकवगडायां वा एकद्वारायां वा एकनिष्क्रमणप्रवेशायां वा नो कल्पते बहूनाम्-अकृतश्रुतानामेकतो वस्तुम् , अस्ति चात्र खलु कश्चिदाचारप्रकल्पधरः नास्ति चात्र खलु कश्चित् छेदो वा-परिहारो वा, नास्ति चात्र कश्चिद् आचारप्रकल्पधरः तेषां सान्तरात् छेदो वा परिहारो वा ॥ सू० १७ ॥
भाष्यम्-‘से गामंसि वा' अत्र 'से'-शब्दोऽथशब्दार्थवाचकः, ततश्च 'से' अथ ग्रामे, 'जाव रायहाणिसि वा' यावद् राजधान्यां वा, अत्र यावत्पदेन-'नगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसिवा दोणमुहंसि वा पट्टणंसि वा णिगमंसिवा आसमंसि वा संबाहंसिवा संनिवेसंसि वा' इति संग्राह्यम् । नगरे वा खेटे वा कर्बटे वा मडम्बे वा द्रोणमुखे वा पट्टने वा (पत्तने वा) आश्रमे वा संबाहे वा संनिवेशे वा, इतिच्छाया। तत्र ग्रामः-वृतिवेष्टितः, आकरः-सुवर्णरत्नाद्युत्पत्तिस्थानम् , नगरम्-अष्टादशकरवर्जितं जननिवासस्थानम्, खेटं-धूलिप्राकारपरिक्षिप्तम्, कर्बटम्-- कुत्सितनगरम् , मडम्बं-सार्धक्रोशद्वयान्तनामान्तररहितम्, द्रोणमुखं-जलस्थलपथोपेतो जननिवासः, पत्तनं-समस्तवस्तुप्राप्तिस्थानम् तद् द्विविधं भवति- जलपत्तनं स्थलपत्तनं चेति, नौभिर्यत्र गम्यते तज्जलपत्तनम् , यत्र च शकटादिभिर्गम्यते तत् स्थलपत्तनम् , यद्वा शकटादिभि भिर्वा यद्गम्यं तत् पत्तनम् , यत् केवलं नौभिरेव गम्यं तत् पट्टनम् , उक्तञ्च - "पत्तनं शकटैर्गम्यं, घोटकैनै:भिरेव च । नौभिरेव तु यद्गम्यं, पट्टनं तत् प्रचक्षते" ॥१॥
व्य, २०
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व्यवहारसूत्रे निगमः-प्रभूततरवणिग्जननिवासः, आश्रमः-तापसैरावासितः, पश्चादपरोऽपि लोकस्तत्रागत्य वसति, संबाहः-कृषीवलैर्धान्यरक्षार्थ निर्मितं दुर्गभूमिस्थानम् पर्वतशिखरस्थितजननिवासः, समागतप्रभूतपथिकजननिवासो वा, संनिवेशः-समागतसार्थवाहादिनिवासस्थानम् । एषु ग्रामादिषु, 'एगबगडाए' एकवगडायाम् एका वगडा परिक्षेपः प्राकारः प्रकोटा इति लोकप्रसिद्धो यस्यां सा-एकवगडा, तस्यामेकवगडायाम् । तथा-'एगदुवाराए' एकद्वारायाम् एकं द्वारं यस्याः सा एकद्वारा तस्याम्, तथा 'एगनिक्खमणपवेसाए' एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् , एक निष्क्रमणं-बहिनिगमनमार्गः, एकः प्रवेशः-प्रवेशमार्गों यस्याः सा एकनिष्क्रमणप्रवेशा तस्याम् एतादृश्यां वसतौ इति शेषः, 'नो कप्पई' नो कल्पते-न युज्यते । केषामेतादृशवसतौ वासो न कल्पते ? तत्राह-'बहूणं' इत्यादि, 'बहूणं अगडमुयाणं' बहूनाम्-अनेकेषाम् अकृतश्रुतानाम्-अनधिगताचाराङ्गनिशीथादिसूत्राणाम् अगीतार्थानामशिवादिकारणवशादेकत्र संप्राप्तानाम् 'एगयओ' एकतः-एकत्र एकस्थाने मिलित्वा वस्तुं-वासं कर्त्तम् ऋतुबद्धकाले वर्षाकाले वा न कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । यतः अगीतार्थसंगस्य दोषबाहुल्यात् तेषाम् ऋतुबद्धकाले वसतां मासलघु, वर्षाकाले चतुर्लघुकं प्रायश्चित्तं भवतीति । अपवादमाह---'अस्थि य इत्थ ण्हं केइ आयारपकप्पधरे' अत्र 'हं' शब्दो वाक्यालङ्कारे, अस्ति चात्र यथोक्तविशेषणविशिष्टायां वसतौ कश्चित् आचारप्रकल्पधरः-आचाराङ्ग-निशीथादिसूत्रधारकः एकोऽपि यदि भवेत् तदा तादृशवसतौ ऋतुबद्धकाले वर्षाकाले वा निवासकरणेऽपि, 'नस्थि य इत्य ण्ह केइ छेए वा परिहारे वा' नास्ति-न भवति अत्र वसतो वासेऽपि तेषां वसतां कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, आचारप्रकल्पधराधिष्ठितयथोक्तवसतौ बहूनामकृतश्रुतानां वर्षाकाले ऋतुबद्धकाले वा निवसतां छेदनामकं परिहारनामकमन्यद्वा प्रायश्चित्तं न भवतीति भावः । गीतार्थेन सह वसतां केन कारणेन प्रायश्चित्तं न भवति, यतो हि-गीतार्थस्तेषां मार्गदेशको भवति, यथा केचित्पुरुषा अटव्यां मार्गभ्रष्टा भवन्ति तत्र कश्चिन्मार्गदेशकस्तान् मार्ग प्रदर्य नगरं प्रवेशयति, एवं गीतार्थोऽपि मोक्षपथपरिभ्रष्टानां मोक्षपथप्रदर्शको भवति तेन सह वसतां न किमपि प्रायश्चित्तं भवति, न तथा अगीतार्थ इति । 'नत्थि य इत्थ ण्हं केइ आयारपकप्पधरे' नास्ति-न विद्यते चात्र यथोक्तवसतौ खलु कश्चिदाचारप्रकल्पधरः -आचाराङ्गनिशीथादिसूत्रार्थज्ञाता, तदा तादृशवसतौ वासकरणे 'से संतरा छेए वा परिहारे वा' तेषां सान्तरात् यावतो दिवसान् तत्र स्थितास्तावत्प्रमाणरूपात् स्वकृतात् अपराधात् छेदो वा परिहारो वा, आचारप्रकल्पधराऽनधिष्ठितवसतौ वासकरणात् तेषां छेदनामकं परिहारनामकमन्यद्वा यथाशास्त्रं यथाकालं च प्रायश्चित्तं भवतीति भावः ॥ सू० १७॥
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भाष्यम् उ० ६ सू० १८ अगोतार्थानां पृथक्प्राकारादिवसतिवासविधिः १५५
पूर्वसूत्रे अगीतार्थानामे कप्राकारैकद्वारादिविशिष्टवसतिमधिकृत्य निषेधः कृतः, सम्प्रति अनेकद्वारानेकपाकारविशिष्टवसतौ गीतार्थनिश्रिता ये वसन्ति तानधिकृत्य प्रदर्शयितुमाह'से गामंसि वा' इत्यादि।
सूत्रम्-से गामसि वा जाव रायहाणिसि वा अभिनिव्वगडाए अभिनिदुवाराए अभिनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ बहूणंपि अगडसुयाणं एगयो वत्थए, अस्थि य इत्थ ण्हं केइ आयारपकप्पधरे, जे तइयं रयणि संवसइ, नत्थि य इत्थ केइ छेए वा परिहारे वा, नत्थि य इत्य केइ आयारपकप्पधरे जे तइयं रयणि संवसइ सव्वेसिं तेसिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥सू० १८ ॥
छाया-अथ ग्रामे वा यावद् राजधान्यां वा अभिनिवगडायाम् अभिनिद्वारायाम् अभिनिष्क्रमणप्रवेशायाम् नो कल्पते बहूनामपि अकृतश्रुतानाम् एकतो वस्तुम् , अस्ति चात्र कश्चिद् आचारप्रकल्पधरो यस्तृतीयां रजनी संवसति, नास्ति चात्र कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, नास्ति चात्र कश्चिद् आचारप्रकल्पधरो यस्तृतीयां रजनी संवसति, तेषां सर्वेषां तत्प्रत्ययं छेदो वा परिहारो वा ॥ सू०१८॥
भाष्यम् – 'से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा' अथाऽनन्तरं ग्रामे वा अत्र यावत्पदेन नगरे वा खेटे वा, कर्बटे वा, मडम्बे वा, द्रोणमुखे वा, पट्टने वा (पत्तने वा) निगमे वा आश्रमे वा, संवाहे वा, संनिवेशे वा, इति संग्राह्यम् , प्रामादिराजधानीपर्यन्तेषु जननिवासस्थानेषु 'अभिणिन्वगडाए' अभिनिवगडायाम् , तत्राऽभि-प्रत्येकं पृथक् पृथक् नियता वगडा परिक्षेपो यस्यां सा अभिनिवगडा तस्यां पृथक् पृथक् परिक्षेपवत्यां वसतौ 'अभिनिदुवाराए' अभिनिद्वारायाम् प्रत्येकं पृथक् पृथग नियतद्वारवत्याम्, 'अभिणिक्खमगपवेसाए' अभिनिष्क्रमणप्रवेशायाम्, तत्राऽभि-प्रत्येकं पृथक् पृथग् निष्क्रमणं बहिर्गमनं प्रवेशोऽन्तर्गमनं निष्क्रमणप्रवेशमागों यस्यां सा-अभिनिष्क्रमणप्रवेशा तस्यां वसतो . 'नो कप्पई' नो कल्पते, 'बहूणंवि अगडसुयाणं' बहूनामनेकेषामपि अकृतश्रुतानाम्, न कृतानि-नाधीतानि श्रुतानिआचाराङ्गनिशोथादिसूत्रजातानि यैस्ते-अकृतश्रुताः अनधीतसूत्रार्थाः- अगीतार्था इत्यर्थः, तेषामकृतश्रुतानामनेकेषामपि 'एगयओ वत्थए' एकत एकत्र वस्तुं-निवासं कत्तुं न कल्पते इति, किं सर्वथैवाऽकृतश्रुतानाम् एकत्र वसतौ निवासो न कल्पते ? इति न, यदि तत्र तन्मध्ये कोऽपि-आचारप्रकल्पधरो विद्यते, तदा-तेषां तत्र गीतार्थस्य निश्रया एकत्र वासः कल्पते,
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व्यवहारसूत्रे तदेव दर्शयति-'अत्थि' इत्यादि, 'अस्थि य इत्थ केइ आयारपकप्पधरे' अस्ति-विद्यते चाऽत्र कश्चिद् आचारप्रकल्पधरः-आचाराङ्गनिशीथादिसूत्रार्थयोर्शाता गीतार्थः, 'जे तइयं रयणि संवसई' य आचारप्रकल्पधरः तृतीयां रजनीं रात्रि तृतीयरात्रौ इत्यर्थः अकृतश्रुतसंवासानन्तरं रात्रिद्वयं मुक्त्वा तृतीयस्यां रजन्यामागत्य तैरनेकैरकृतश्रुतैः सह संवसेत् तैः सह मिलित्वा तत्र निवासं कुर्यात् , यदि-एतादृशः कश्चिदाचारप्रकल्परो भवेत् यस्तृतीयदिवसे तैः सह मिलेत् तदा-'नत्थि य इत्य केइ छेए वा परिहारे वा' नास्ति चात्र कश्चित् छेदो वा परिहारो वा, अकृतश्रुतसहवासजनितं छेदनामक परिहारनामकमन्यद्वाऽपि प्रायश्चित्तं न भवति, तेषां गीतार्थनिश्राप्राप्तत्त्वात् । अथ च 'नत्यि य इत्थ केइ आयारपकप्पधरे' नास्ति चात्र कश्चिदाचारप्रकल्पधरः 'जे तइयं रयणि संवसई' य आचारप्रकल्पधरस्तृतीयां रजनीरात्रिं संवासानन्तरं तृतीयस्यां रजन्यामित्यर्थः तैः सह संवसति, यदि-तत्र कश्चिदाचारप्रकल्प. धरस्तृतीयस्यां रात्रावपि समागत्य तत्र न वसेत्, यो हि तैः सह तृतीयदिवसेऽपि संमिलितो न भवेत् तदा-'सव्वेसिं तेर्सि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा' सर्वेषां तेषां तत्र वसतां निर्ग्रन्थानां तत्प्रत्ययम्-अगीतार्थसहवासनिमित्तकं छेदो वा परिहारो वा, यदि तत्र कश्चिद् गीतार्थो न भवेत् तदा-तत्र वसतां सर्वेषामपि अकृतश्रुतानां छेदनामकं--परिहारनामकमन्यदपि देशकालोचितं प्रायश्चित्तं भवत्येवेति ॥ सू० १८.॥
पूर्वमकृतश्रुतानामकृतश्रुतसंबन्धेनः एकाकिनां गीतार्थसहवासमन्तरेण वस्तुं न कल्पते इति प्रोक्तम् , एकाकिप्रसङ्गादत्र पृथक् पृथग् द्वारादियुक्तायां वसतौ बहुश्रुतबह्वागमस्य भिक्षुकस्यैकाकिनो वस्तुं न कल्पते इति प्रदर्शयन्नाह-से गामंसि वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा अभिनिव्वगडाए अभिनिदुवाराए अभिनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ बहुस्सुयस्स बब्भागमस्स भिक्खुयस्स वत्थर. किमंग पुण अप्पागमस्स अप्पसुयस्स ॥सू० १९॥
छाया-अथ ग्रामे वा यावद् राजधान्यां वा अभिनिवगडायाम् अभिनिद्वारायाम् अभिनिष्क्रमणप्रवेशायाम् नो कल्पते बहुश्रुतस्य बागमस्य भिक्षुकस्य वस्तुम् किमङ्ग पुनरल्पागमस्याऽल्पश्रुतस्य ॥ सू० १९॥
भाष्यम्-'से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा' अथ ग्रामे वा यावद् राजधान्यां वा 'अभिनिव्वगडाए' अभिनिवगडायाम्-अनेकप्राकारपरिक्षिप्तायाम् 'अभिनिवाराए' अभिनिद्वारायाम्-अनेकद्वारवल्याम्, 'अमिनिक्खमणपवेसाए' अभिनिष्क्रमणप्रवेशायाम्
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भाष्यम् उ० ६ सू० १९-२१ बहुश्रुतस्यैकप्राकारादियुक्तवसतिवासानुज्ञा १५७ यत्राऽनेको निष्क्रमणस्य प्रवेशस्य च मार्गो भवति तस्यामनेकनिष्क्रमणप्रवेशमार्गायां वसतौ नो कप्पई' नो कल्पते 'बहुस्सुयस्स' बहुश्रुतस्य- सूत्रतोऽधीताऽनेकागमस्य 'बभागमस्स' बह्वागमस्य -अर्थतो ज्ञाताऽनेकागमस्य, य आवश्यकदशवैकालिकोत्तराध्ययनज्ञानवान् स बह्वागम आख्यायते, यः पुनर्द्वि त्रिसूत्रज्ञानवान् सोऽल्पश्रुतः, यस्तु सूत्राणि अनेकानि जानाति, अर्थ तु द्वित्राणामेव सोऽल्पाऽऽगमस्तस्य 'भिक्खुयस्स' भिक्षुकस्य साधोरेकाकिनः 'वस्थए' वस्तुं--निवासं कत्तुं न कल्पते 'किमंग पुण अप्पागमस्स अप्पसुयस्स' किमङ्ग पुनः -किमुत अल्पश्रुतस्याऽल्पागमस्य एकाकिनः सामान्यभिक्षुकस्य पृथग निवासः कल्पते तस्य सुतरामेव न कल्पते--इति तात्पर्यम् । यदा--बहुश्रुतस्य बागमस्यैकाकिनो निवासो न कल्पते तदा--अल्पश्रुतस्याऽल्पागमस्यैकाकिनस्तु कथमपि न कल्पते इति भावः ॥ सू० १९ ॥
पूर्वमेकाकिना वसतेरन्तर्बहिर्वा न वस्तव्यमित्यधिकृत्य कथितम्, सम्प्रति--बहुश्रुतस्योभयकालं भिक्षुभावप्राप्तस्यैकाकिनोऽपि एकवगडादियुक्तायां वसतौ वासः कल्पते, इत्यधिकृत्य सूत्रमाह--'से गामंसि वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-से गामंसि वा नगरंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए कप्पइ बहुस्सुयस्स बभागमस्स एगाणियस्स भिक्खुस्स वत्थए, दुहओ कालं भिक्खुभावं पडिजागरमाणस्स ।। सू० २० ॥
छाया-अथ ग्रामे वा नगरे वा यावद् राजधान्यां वा एकवगडायाम् पकद्वारायाम् एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् कल्पते बहुश्रुतस्य बह्वागमस्य एकाकिनो भिक्षोर्वस्तुम् , उभयकालं भिक्षुभावं प्रतिजाग्रतः ॥ सू० २० ॥
भाष्यम् -'से गामंसि वा नगरंसि वा जाव रायहाणिसि वा' अथ ग्रामे वा नगरे वा यावद् राजधान्यां वा 'एगवगडाए' एकवगडायां वा-एकप्राकारविशिष्टायां वसतो, 'एकवाराए' एकद्वारायां एकमेव द्वारं यत्र तस्याम्, 'एगनिक्खमणपवेसाए' एक निष्क्रमणप्रवेशायाम् यत्र एक एव निष्क्रमणमार्गः प्रवेशमार्गश्च तथाविधायां वसतो, 'कप्पइ' कल्पते 'बहुस्सुयस्स' बहुश्रुतस्य-सूत्रापेक्षयाऽनेकशास्त्रकुशलस्य 'बब्भागमस्स' बह्वागमस्य-अर्थापेक्षयाऽनेकागमज्ञानवतः, 'एगाणियस्स' एकाकिनः सहायकरहितस्येत्यर्थः, 'भिक्खुस्स' भिक्षोः-श्रमणस्य 'वत्थए' वस्तु-वासं कर्तुम् । कथमेकाकिनः कल्पते तत्राह-'दुहओ' इत्यादि, 'दुहओ कालं' उभयकालम् उपलक्षणादहोरात्रम् , 'भिक्खुभावं' भिक्षुभावम्-भावभिक्षुतां निरतिचारचारित्रमित्यर्थः 'पडिजागरमाणस्स' प्रतिजाग्रतः-दत्तावधानेन परिपालयतः, चारित्राराधनार्थ या सामाचारी तां कुर्वतः, चारित्रे दोषलेशो नापद्यतेति, तत्र अहर्निशं यतनां कुर्वतः एवम्भूतस्य एकवगडादिविशेषगविशिष्टायां वसतौ वस्तुमेकाकिनोऽपि कारणे कल्पते नान्यस्येति भावः।
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व्यवहारसूत्र अष्टगुणवान् भिक्षुरेकाकिविहारप्रतिमाप्रतिपन्नो भवितुमर्हति उक्तञ्च-स्थानाङ्गे दशमे. स्थाने--'अहहिं ठाणेहिं अणगारे अरिहइ एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए तंजहा-सड्ढी पुरिसजाए १, सच्चे पुरिसजाए २, मेहावी पुरिसजाए ३, बहुस्सुए पुरिसजाए ४, सत्तिमं ५, अप्पाहिगरणे ६, धिइमं ७, वीरियसंपन्ने ८, छाया-श्रद्धी पुरुषजातम् (पुरुष-प्रकारः) १, सत्यः पुरुषजातम् २, मेधावी पुरुषजातम् ३, बहुश्रुतः पुरुषजातम् ४, शक्तिमान् ५, अल्पाधिकरणः ६, धृतिमान् ७, वीर्यसंपन्नः ८ ॥ इति सू० २० ॥
पूर्व बहुश्रुतबह्वागमस्याऽहर्निशं भिक्षुभावं प्रतिजाग्रत एकाकिवासः प्रतिपादितः, एवं तर्हि एकवगडादियुक्तवसतौ सामान्यश्रमणस्यैकाकिवासे को दोषः ? इति श्रमणस्यैकाकिवासे दोषान् प्रदर्शयन्नाह-'जत्थ एए बहवे' इत्यादि ।
सूत्रम्-जत्थ एए बहवे इत्थीओ पुरिसा य पण्हावेंति तत्थ से समणे निग्गंथे अन्नयरंसि अचित्तसि सोयंसि मुक्कपोग्गले णिग्यायमाणे हत्थकम्मपडिसेवणपत्ते आवज्जइ मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥ सू० २१ ॥ . छाया-यत्र एते बहवः स्त्रियः पुरुषाश्च प्रश्नुवन्ति तत्र स श्रमणो निर्ग्रन्थोऽन्य. तरस्मिन् अचित्ते स्रोतसि शुक्रपुद्गलान् निर्घातयन् हस्तकर्मप्रतिसेवनप्राप्तः आपद्यते मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ॥ सू० २१ ।।।
भाष्यम्-'जत्थ एए बहवे' यत्र-यस्याम् एकवगडादिविशेषणविशिष्टायां वसतौ एते प्रत्यक्षतः परिदृश्यमानाः बहवोऽनेके 'इत्थीओ पुरिसा य स्त्रियः पुरुषाश्च 'पण्हावंति' प्रश्नुबन्ति-प्रस्पन्दन्ते-एकान्तस्थानत्वेन तत्र संमील्य मैथुनं सेवितुमारभन्ते 'तत्थ से समणे निग्गंथे' तत्र तस्मिन् प्रदेशे यत्र प्रदेशे बहवः स्त्रीपुरुषाः मैथुनं प्रारभमाणास्तिष्ठन्ति तादृशक्षेत्रविशेषे तेषां मैथुनकर्म चक्षुषाऽवलोक्य य एकाकी स्थितः स श्रमणो निग्रन्थः तत उदीर्णवेदः सन् 'कोऽत्र मां पश्यति' इति कृत्वा 'अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयंसि' अन्यतरस्मिन् अचित्ते स्रोतसि, तत्रान्यतरस्मिन्-हस्तकर्माधुचिते युगनालिकादिछिद्रे 'सुक्कपोग्गले णिग्यायमाणे' हस्तकर्मभावनया शुक्रपुद्गलान् निर्घातयन्-निष्कासयन् 'इत्थकम्मपडिसेवणपत्ते' हस्तकर्मप्रतिसेवनप्राप्तः-हस्तकर्मभावनया तत्रासक्तत्वात् हस्तकर्मप्रतिसेवनादोषं प्राप्तः सन् 'आवज्जइ' मापद्यते-प्राप्नोति 'मासियं' मासिकम् 'परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं' परिहारस्थानम् अनुद्घातिकम् , गुरुचातुर्मासिकमनुद्घातिकं परिहारनामकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीति भावः, तस्मात् श्रमणेन एकाकिना एकान्तस्थाने न स्थातव्यमिति सूत्राशयः ॥ सू० २१ ॥
पूर्व हस्तकर्मप्रत्ययिकं प्रायश्चित्तसूत्रमुक्तम् , सम्प्रति मैथुनप्रत्ययिकप्रायश्चित्ताभिधायक सूत्रमाह-'जत्य एए बहवे' इत्यादि।
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भाष्यम् उ० ६ सू० २२-२३
निर्ग्रन्थस्य हस्तकर्मादिप्रत्ययिक प्रायश्चित्तविधिः १५९
सूत्रम् - जत्थ एए बहवे इत्थीओ पुरिसा य पण्हावेति तत्थ से समणे णिग्गंथे अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयंसि सुकपोग्गले णिग्धायमाणे मेहुणपडि सेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० २२ ॥
छाया - यत्रैते बहवः स्त्रियः पुरुषाञ्च प्रश्नुवन्ति तत्र स श्रमणो निर्ग्रन्थोऽचित्ते aafe शुक्रलान् निर्घातयन् मैथुन सेवनाप्राप्तः आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ॥ सू० २२ ॥
भाष्यम् – 'जत्थ' यत्रप्रदेशे 'एए' एते - प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाः 'इत्थीओ पुरिसाय' स्त्रियः पुरुषाश्च 'पण्हावेंति प्रश्नुवन्ति मैथुनाख्यमब्रह्मकर्म समाचरन्ति 'तत्थ से समणे णिग्गंथे' तत्र - तस्मिन् प्रदेशे मैथुनकर्म दृष्ट्वा उदीर्णमोह :- संयमाच्चलितमनाः स श्रमणो निर्ग्रन्थः 'अन्नयरंसि' अन्यतरस्मिन् 'अचित्तंसि सोयंसि' अचित्ते - मैथुनाद्युचिते स्रोतसि युगनालिका छिदे 'सुक्क - पोगले णिग्वायमाणे' शुक्रपुद्गलान् निर्घातयन् 'मेहुणपडि सेवणपत्ते' मैथुन प्रतिसेवनप्राप्तः मैथुनकर्मप्रतिसेवनभावनया प्रसक्तो भवति, स च तथा प्रसक्तः 'आवज्जइ' आपद्यते - प्राप्नोति, 'चाउमासि परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं' गुरुचातुर्मासिकं परिहारस्थानं परिहारनामकं प्रायश्चित्तस्थानम् अनुद्घातिकम् । इदं सूत्रद्वयं निर्ग्रन्थीविषयेऽपि अनुसन्धातव्यमिति ॥ सू० २२ ॥
पूर्व भिनिवगडादिका वसतिरुक्ता, तत्र वसतो निर्ग्रन्थस्य प्रायश्चित्तविधिः प्रतिपादितः, सम्प्रति-ताग्वसतौ निर्गन्थ्योऽपि संवसन्ति, तत्र तासां मध्ये काचिन्निर्ग्रन्थी वसतिदोषेण उदीर्णप्रबलोदा दोषबहुला सामाचारीप्रमादपरा सती गणादपक्रामेत्, तया सह निर्ग्रन्थ-निर्यन्थीभिः कथं वर्त्तितव्यमिति तद्विधिसूत्रमाह-- 'नो कप्पड़' इत्यादि ।
सूत्रम् - नो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा निम्गंथिं अम्नगणाओ आगयं खुयायारं सबलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरितं तस्स द्वाणस्स अणालोयावेत्ता अडिक्कम वेत्ता अनिंदावेत्ता अगरिहावेत्ता अविद्यावेत्ता अविसोहावेत्ता अकरणाए अट्ठावेता अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं अपडिवज्जावेत्ता उवद्वावेत्तए वा संभुजित्त वा संवसिएत्त वा तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारिए वा ।। सू० १३ ।।
छाया -नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा निर्ग्रन्थीम् अन्यगणादागतां क्षताचारां शबलाचारां भिन्नाचारां संक्लिष्टाचारचारित्रां तस्य स्थानस्य अनालोच्य अप्रतिक्राम्य अनिन्दयित्वा अगर्हयित्वा अविकुटय अविशोध्य अकरणाय अनभ्युत्थाप्य
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व्यवहारसूत्रे
यथा प्राश्चित्तं तपःकर्म अप्रतिपाद्य उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा संवस्तुं वा तस्या इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा । सू० २३ ॥
भाष्यम् – 'नो कप्पड़' नो कल्पते णिग्गंथाण वा निग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थानां श्रमणानां पुनश्च निर्ग्रन्थीनां श्रमणीनाम् 'णिग्गंथिं' निर्ग्रन्थीं - श्रमणीम् 'अन्नगणाओ आगयं' अन्यगणात् गणान्तराद् आगताम् पापस्थानसेवने प्रायश्चित्तग्रहणभयात् आगताम् कीदृशीमित्याह--'खुयायारं' क्षताचाराम्-क्षतो विनिष्ट आचारो - ज्ञानाद्याऽऽचारो यस्याः सा क्षताचारा ताम् । 'सबलायारं '' शबलाचाराम् शबलः- व - कर्बुर: दूषितः आचारो विनयादिरूपः साध्वाचारो यस्याः सा शबलाचारा दूषिताचारा ताम् । 'भिन्नायारं ' भिन्नाssचाराम् - भिन्नः - भेदमापन्न आचारो यस्याः सा भिन्नाचारा ताम् । 'संकिलिट्ठायारचरितं' संक्लिष्टाऽऽचारचारित्राम् संक्लिष्टं क्रोधादिना मलिनम् आचारविशिष्टं चारित्रं यस्याः सा तथा ताम्, पुनश्च तस्स ठाणस्स' तस्य स्थानस्य यस्मिन् स्थाने प्रतिसेविते सति क्षताचारादिविशिष्टा जाता तस्य स्थानस्य 'अणालोएत्ता वा ' अनालोच्य - तस्य पापस्थानस्याssलोचनामकारयित्वा 'अपडिक्कमावेत्ता' अप्रतिक्रम्य तस्मात्पापस्थानादपरावर्त्य 'अनिंदावेता' अनिन्दयित्वा तस्य पापस्थानस्याऽऽत्म साक्षिकीं निन्दामकारयित्वा 'अगरिहावेत्ता' अगर्हयित्वा - गुरुसाक्षिकीं गर्हामकारयित्वा 'अविउट्टावेत्ता' अविक्रुटच-अतिचारसम्बन्धमविच्छेद्य अतिचारात् पृथग् अकृत्त्वेत्यर्थः ' अविसोहावेता' अविशोध्य तस्य पापस्थानस्य शोधन मकारयित्वा 'अकरणाए अणभुट्टावेत्ता' तस्य पापस्थानस्य पुनरकरणाय अभ्युत्थाप्य 'अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं अपडिवज्जावेत्ता' यथाहै - यथायोग्यं प्रायश्चित्तं तपःकर्म अप्रतिपाद्य - अस्वीकार्य तां निर्ग्रन्थीम् 'उवद्वावेत्तए वा' पुनर्महाव्रतेषु उपस्थापयितुम्, 'संभुंजित्तए वा' संभोक्तुं वा तया अकृतप्रायश्चित्तया सह एकमण्डले आहारादि कर्त्तुम्, 'संवसित्तए वा' संवस्तुं वा तया सह वसतौ स्थातुं वा, पुनश्च - 'तीसे' तस्याः 'इतरियं दिसं वा' इत्वरिकां दिशं वा अल्पकालिकीं प्रवर्तिन्यादिपदवीम् 'अणुदिसं वा' अनुदिशं वा यावज्जीविकां वा प्रवर्त्तिन्यादिपदवीम् 'उद्दिसित्तए वा' उद्देष्टुं दातुं न कल्पते एवम् ' धारितए वा' धारयितुं वा तस्याः स्वस्याः पदवीं धर्तुं वा न कल्पते, पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टया निर्ग्रन्थया सह किमपि प्रकारकं परिचयजातं निर्ग्रन्ध्या निर्ग्रन्थस्य न कल्पते, यथा कुथितनागवल्लीदल संपर्केण अकुथितान्यपि दलानि कुथितानि जायन्ते तथैव क्षताचारादिविशेषणविशिष्टाया निर्ग्रन्ध्याः सहवासादन्या अपि निर्ग्रन्थ्यस्तादृश्यो भवन्ति । अत्राशङ्कते कोsपि - ' पमायर हिया जा उ सा कहं सबला भवे' प्रमादरहिता या तु सा कथं शबला भवेत् ? उत्तरमाह-'संबासमा इदोसेणाऽसबला सबला भवे' संवासादिदोषेण अशबला शबला भवेत्, इति ॥ १ ॥ तस्मात्तादृश्या निर्ग्रन्थ्याः सहवासो वर्जनीय इति । एवं पूर्वोक्तविशेषण- विशिष्टस्य निर्ग्रन्थस्य विषयेऽपि सूत्रमनुसंधातव्यमिति ॥ स्रु० २३ ॥
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भाष्यम् उ० ६ ० २४
अन्यगणागतनिर्ग्रन्थीग्रहणविधिः १६१ पूर्व क्षताचारादिविशेषणविशिष्टाया निम्रन्थ्याः सहवासो निषिद्धः, साम्प्रतं तद्विपर्यये सूत्रमाह-कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ णिग्गंथाण वा णिगंथीण वा णिग्गंथि अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सबलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरित्तं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता पडिक्कमावेत्ता निंदावेत्ता गरिहावेत्ता विउट्टावेत्ता विसोहावेत्ता अकरणाए अन्भुटावेत्ता अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जावत्ता उवट्ठावेत्तए वा संभुंजित्तए वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ।। सू० २४ ॥
॥ व्यवहारे छट्टो उद्देसो समत्तो ॥६॥ छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा निर्ग्रन्थीम् अन्यगणादागतां शताचारां शबलाचार भिन्नाचारां संक्लिष्टाचारचरित्रां तस्य स्थानस्याऽऽलोच्य प्रतिकाम्य निन्दयित्वा गर्हयित्वा विकटय, विशोध्य अकरणाय अभ्यत्थाप्य यथाई प्रायश्चित कर्म प्रतिपाद्य उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा संवस्तुं वा, तस्या इत्वरिकां दिश वा अनुदिशं वा उदेष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० २४॥
व्यवहारे षष्ठ उद्देशकः समाप्तः॥६॥ भाष्यम्-'कप्पई' कल्पते 'णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा 'णिग्गंथि अन्नगणाओ आगयं' निर्ग्रन्थीं-श्रमणीम् अन्यगणात् -परकीयगच्छादागताम् 'खुयायारं' क्षताचाराम्-विनष्टाचारवतीम् , इत आरभ्य संक्लिष्टाचारचरित्रामितिपर्यन्तानां व्याख्या पूर्व सूत्रे गता, 'तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता' तस्य स्थानस्य यस्मिन् स्थाने प्रतिसेवनां कृतवती तस्ट पापस्थानस्य आलोच्य-अलोचनां कारयित्वा 'पडिक्कमावेत्ता' प्रतिक्राम्य-पापस्थानात् परावर्त्य 'निंदावेत्ता' निंदयित्वा-आत्मसाक्षिकी निन्दा कारयित्वा 'गरिहावेत्ता' गर्हयित्वा गुरुसाक्षिकी निन्दा कारयित्वा 'विउट्टावेत्ता' विकुट्य-चारित्रं निर्मलं कारयित्वा 'विसोहावेना' विशोध्य-पापन्य विशोधि कारयित्वा 'अकरणाए अब्भुटावेत्ता' अकरणाय भविष्यति पुनरकरणाय अभ्युत्थाप्य पुनर्न करिष्यामीति प्रतिज्ञाम् कारयित्वा 'अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म' यथार्ह- यथायोग्यम् यस्य पापस्थानस्य यादृशं प्रायश्चित्तं शास्त्रे कथितम् तादृशं प्रायश्चित्तं तपःकर्म 'पडिवज्जावेत्ता' प्रतिपाद्य प्राप्य दत्त्वेत्यर्थः 'उवट्ठावेत्तए वा' उपस्थापयितुं वा-महाव्रतेषु पुनः स्थापयितुम् 'संभुंजित्तए वा' संभोक्तुं वा एकमण्डल्यामाहारादि कर्तुं वा 'संवसित्तए वा' संवस्तुं वा तया सह एकत्र वसतौ निवासं कर्तुं वा, तथा
व्य. २०
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'तीसे इत्तरियं दिसं वा' तस्याः प्रायश्चित्तदानेन विशुद्धाया निम्रन्ध्याः इत्वरिकां दिशम्अल्पकालिकी पदवीम् 'अणुदिसं वा' अनुदिशं वा-यावत्कालिकी प्रवर्त्तिन्यादिपदवीं वा 'उद्दिसित्तए वा' उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा 'धारित्तए वा' धारयितुं वा दातुं वा कल्पते इति । अनेन-निर्ग्रन्थीकथितप्रकारेण निर्थन्थस्य अन्यगणादागतस्य क्षताचारादिमतोऽपि विधिर्ज्ञातव्यः ॥ सू० २४ ॥
इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "व्यवहारसूत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायां षष्ठ उद्देशकः समाप्तः ॥६॥
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॥ अथ सप्तमोद्देशकः ॥
गतः षष्ठ उद्देशः, साम्प्रतं सप्तमो व्याख्यायते, पूर्वोद्देशेनास्य कः सम्बन्धस्तत्राह गोथद्वयं भाष्यकारः-‘सामन्नओ' इत्यादि ।
गाथा -- सामन्नओ दुयाणं, णिम्गंथी आगया आलोयणं कराविय, कप्पर तीए य
खुयायारा । संभोगो ॥ १ ॥
इइ बुत्तं पुब्वं इह, निग्गंथीए न कप्पए एवं | निग्गंथमणापुच्छिय, संबंधो एत्थ विन्नेओ ॥ २ ॥
छाया - सामान्यतो द्वयानां, निर्ग्रन्थी आगता क्षताचारा । आलोचनां कारयित्वा, कल्पते तया च संभोगः ॥ १ ॥
इत्युक्त पूर्वमिह निर्ग्रन्थया न कल्पते एवम् | निर्मन्थमनापृच्छय, सम्बन्ध विज्ञेयः ॥ २ ॥
व्याख्या—सामान्यतः समुच्चयेन द्वयानां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च या काचिद् निर्ग्रन्थी आगता - अन्यगणात् समागता कीदृशीत्याह - 'खुयायारा' क्षताचारा उपलक्षणात् शबलाचारादिविशेषणविशिष्टा भवेत्तदा 'आलोयणं कराविय' आलोचनाम् उपलक्षणात् प्रतिक्रमणादिकं कारयित्वा कल्पते तया सह संभोगो नान्यथेति ॥ १ ॥
'इइ वृत्तं ' इत्यादि, इति एवं प्रकारेण पूर्वं षष्ठोद्देशकस्य चरमसूत्रे उक्तम्, इहअस्मिन् सप्तमोद्देशकस्यादिसूत्रे निर्ग्रन्ध्याः केवलं निर्ग्रन्ध्याः निर्ग्रन्थम्, अत्र जातावेकवचनं तेन निर्ग्रन्थान् साम्भोगकान् आचार्यादिकान् अनापृच्छय अपृष्ट्वा एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण अनालोचित - पापस्थानया निर्ग्रन्ध्या सह संभोगः कर्त्तुं न कल्पते, स यथा आदिशेत् तथा कुर्यादिति भावः, एषोऽत्र सम्बन्धो विज्ञेय इति ॥ २ ॥
अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य सप्तमोद्देशकस्य इदमादिमं सूत्रम् - "जे णिग्गंथा य इत्यादि ।
सूत्रम् - जे णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया नो कप्पs णिग्गंथीणं णिग्गंथे अणापुच्छित्ता णिग्गंथिं अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सबलायारं भिन्नायारं संकि लिहायारचरितं तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म अपडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा वाएत्तए वा उवद्वावेत्तए वा संभुंजित्तए वा संबसितए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥ सू० १ ॥
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१६४
व्यवहारसूत्रे छाया ये निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च साम्भोगिकाः स्युः नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां निम्रन्थाननापृच्छय निर्ग्रन्थीमन्यगणादागतां क्षताचारां शबलाचारां भिन्नाचारां संक्लिष्टाचार. चरित्रां तस्य स्थानस्य अनालोच्य यावद् यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म अप्रतिपाद्य प्रष्टुं वा वाचयितुं वा उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा संवस्तुं वा, तस्या इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारियतुं वा ॥ सू० १ ॥
__ भाष्यम्- 'जे णिग्गंथा य णिग्गंधीओ य' ये निर्ग्रन्थाः श्रमणाः तथा निम्रन्थ्यः श्रमज्यश्च, 'संभोइया सिया' साम्भोगिकाः स्युः द्वादशप्रकारकसम्भोगयुक्ता एकत्र प्रामादिषु भवेयु:तिष्ठेयुः, उपलक्षणात् कल्पानुसारेण सार्द्धक्रोशद्वयपरिमिते दूरेऽपि वा तिष्ठेयुः, तेषां मध्ये 'नो कप्पइ णिग्गंथीणं णिग्गंथे अणापुच्छित्ता' नो न कथमपि कल्पते निम्रन्थीनां निम्रन्थान् साम्भोगिकान् आचार्यादिकान् अनापृछ्य तेषामाज्ञामन्तरेणेत्यर्थः । किं न कल्पते ! तत्राह-णिग्गंथि' इत्यादि, 'णिग्गंथि अन्नगणाओ आगय' निग्रन्थों श्रमणीमन्यगणाद् -अन्यगच्छाद् आगतां - समागताम्, कथम्भूतामन्यगणादागतां श्रमणीम् ? तत्राह-'खुयायारं' इत्यादि, 'खुयायारं' क्षताचाराम् शबलाचाराम् भिन्नाचाराम् संक्लिष्टाचारचरित्राम्, एषां पदानां व्याख्या षष्ठोदेशके त्रयो. विंशतितमसूत्रे गता, एतादृशक्षताचारादिविशेषणयुक्तामन्यगणादागतां श्रमणीम् , 'तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता' तस्य पापस्थानस्यानालोच्य येनापराधेन सा मलिना जाता तादृशापराधस्थानस्य मालोचनामकारयित्वा तत्पापस्थानमप्रकटयित्वेत्यर्थः जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं अपडिवज्जावेत्ता' यावद् यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म अप्रतिपाद्य-अदत्त्वा, अत्र यावत्पदेन 'अपडिक्कमावेत्ता अनिंदावेत्ता अगरिहावेत्ता अविउद्यावेत्ता अविसोहावेत्ता अकरणाए अणब्भुटावेत्ता' इत्येतेषां विशेषणानां सङ्ग्रहो भवति, एषां पदानामपि व्याख्या षष्ठोद्देशकस्य त्रयोविंशतितमे सूत्रे गता, येन पापस्थानेन सा दूषिता तादृशपापस्थानस्य प्रतिक्रमणादिकमकारयित्वेत्यर्थः, यथार्ह-यथायोग्यं शास्त्रोक्तं प्रायश्चित्तं तपःकर्म अप्रतिपाद्य तस्य पापस्थानस्य यथायोग्यं प्रायश्चित्तरूपेण तपःकर्माsदत्त्वेत्यर्थः 'पुच्छित्तए वा वाएत्तए वा' प्रष्टुं वा वाचयितुं वा, यदि पूर्वोक्तक्षताचारादियुक्ता अन्यगणात् काचित् श्रमणी समागच्छेत् तां गणनायकस्याऽऽज्ञामन्तरेण सुखशातादिकं प्रष्टुं न कल्पते, तथा तस्यै वाचनामपि दातुं न कल्पते श्रमणीनामित्यर्थः, तथा-'उवहावेत्तए वा' उपस्थापयितुं वा महावतेषु आरोपयितुं न कल्पते, तस्याश्छेदोपस्थापनीयचारित्रमपि न देयम् , 'संभुंजित्तए वा संवसित्तए वा' संभोक्तुं वा संवस्तुं वा एतादृशपूर्वोक्तदूषणविशिष्टश्रमण्या सह एकमण्डल्यां नाऽऽहारादिव्यवहारः करणीयः, तथा तया सह एकस्मिन्नुपाश्रयादौ निवासोऽपि न करणीय इति, 'तीसे इत्तरियं दिसंवा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा' तस्याः इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा, एतादृशदोषोपेतायै श्रमण्यै इत्वरिकां दिशम् अल्पकालिकी प्रवर्त्तिन्यादिपदवीम् , अनुदिशम् यावज्जीवनकालिकी वा पदवीम् , उद्दष्टुम्-अनुज्ञातुम् धारयितुं पदवी दातुं वा न कल्पते ॥ सू० १ ॥
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भाष्यम् उ० ७ सू० २-३
अन्यगणागतनिग्रन्थीग्रहणविधिः १६५
पूर्वमन्यगणादागताया अनालोचितपापस्थानायाः साम्भोगिक निर्ग्रन्थाज्ञामन्तरेण सुखशाताप्रच्छनादि निर्ग्रन्थीनां न कल्पते इति प्रोक्तम्, सम्प्रति तद्विपर्यये सूत्रमाह - 'जे णिगंथा य णिग्गंथोओ य' इत्यादि ।
सूत्रम् - जे णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया कप्पर णिग्गंथीणं णिग्गंथे आपुच्छित्ता णिग्गंथिं अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सबलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरितं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा वाएत्तए वा उवद्यावेत्तए वा संभुंजित्तए वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ।। सू० २ ॥
छाया - ये निर्ग्रन्थारच निर्ग्रन्थ्यश्च सांभोगिकाः स्युः कल्पते निर्ग्रन्थीनां निर्यन्थानाऽऽपृच्छय निर्ग्रन्थीमन्यगणादागतां क्षताचारां शबलाचारां भिन्नाचारां संक्लिष्टाचारचरित्रां तस्य स्थानस्याऽऽलोच्य यावद् यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपाद्य प्रष्टुं वा वाचयितुं वा उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा संवस्तु वा तस्या इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० २ ॥
भाष्यम् – जेणिग्गंथाय' ये निर्ग्रन्थाश्च श्रमणाः, 'णिग्गंथीओ य' निर्ग्रन्ध्यः श्रमण्यश्च 'संभोइया सिया' साम्भोगिकाः स्युः तन्मध्यात् 'कप्पड़' कल्पते 'णिगंथीणं' निर्ग्रन्थीनां श्रमणी - नाम् 'णिग्गंथे आपुच्छित्ता' निर्ग्रन्थान् साम्भोगिकाचार्यान् आपृच्छय -- पृष्ट्वा तदाज्ञामादायेत्यर्थः, किमित्याह - 'णिग्गंथिं' इत्यादि, 'णिग्गंथिं अन्नगणाओ आगयं' निर्ग्रन्थीमन्यगणात्- गच्छान्तरात् आगताम् 'खुयायारं ' क्षताचाराम् शबलाचाराम् भिन्नाचाराम् संक्लिष्टाचारचरित्रामित्येषां पदानां व्याख्या षष्ठोद्देशकस्य चतुर्विंशतितमसूत्रे विलोकनीयेति, 'तस्स ठाणस्स' तस्य स्थानापराधस्थानस्य संसेवनेन क्षताचारादिका जाता तस्यापराधस्थानस्य 'आलोयावेत्ता' आलोच्य - आलोचनां कारयित्वा 'जाव' यावत्, अत्र यावत्पदेन 'पडिक्कमावेत्ता निंदावेत्ता गरि
वेत्ता विट्टावेत्ता विसोहावेत्ता अकरणाए अन्भुट्ठावेत्ता' एतेषां पदानां संग्रहः, व्याख्या च षष्ठोद्देशकस्य चतुर्विंशतितमे सूत्रेऽवलोकनीयेति, 'अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जावेत्ता' तस्य पापस्थानस्य यथार्ह-यथायोग्यं प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपाद्य पापस्थानोचितं प्रायश्चिरूपेण तपो दत्त्वेत्यर्थः, तदनेन क्रमेण तपःकर्मणा सम्यक् तां विशुद्धीकृत्य ततः पश्चात् 'पुच्छित्तए वा ' सुखशातादि प्रष्टुं वा, 'वात्तए वा' वाचयितुं वा वाचनां दातुं वा 'उवडावेत्तए वा' उपस्थापयितुं वा पुनर्महाव्रतेषु समारोपयितुं वा, ‘संभुंजित्तए वा' संभोक्तुं वा तया सह एकमण्डल्यामाहारादिकं कर्त्तुं वा ‘संवसित्तए वा' संवस्तुं वा एकत्र मिलित्वा वासं कर्तुं वा 'ती से इत्तरियं दिसं वा' तस्या उपयुक्तप्रकारेण प्रायश्चित्तादिना विशुद्धायाः कृते इत्वरिकाम् अल्पकालिकीं प्रवर्त्तिन्यादिपदवीम्, 'अणुदिसं वा' अनुदिशं वा यावज्जीवन कालिकों प्रवर्त्तिन्यादिपदवीं वा 'उद्दिसित्तए वा' उद्देष्टुं वा अनुज्ञातुं वा, 'धारितए वा' धारयितुं वा - तादृशपदव्याः धारणं कारयितुं वा कल्पते ॥ सू० २ ॥
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व्यवहारसूत्रे __ पूर्व निर्ग्रन्थीमधिकृत्यान्यगणादागतक्षताचारादिदोषवत्याः स्वगणे स्थापने विधिरुक्तः, सम्प्रति निम्रन्थमधिकृत्य तद्विधिमाह--'जे णिग्गंथा य' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे णिग्गंथा यणिग्गंधीओ य संभोइया सिया, कप्पइ णिग्गंथाणं णिग्गथीओ आपुच्छित्ता वा अणापुच्छित्ता वा णिग्गंथि अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सबलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरितं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा वाएत्तए वा उवट्ठावेत्तए वा संजित्तए वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, तं च णिग्गंथीओ नो इच्छेज्जा सेवमेव नियं ठाणं ॥ सू० ३ ॥
_ छाया-ये निम्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च साम्भोगिकाः स्युः, कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीः आपृच्छय वा अनापृच्छय वा निम्रन्थीमन्यगणादागतां क्षताचारां शबलाचारां भिन्नाचारां संक्लिष्टाचारचरित्रां तस्य स्थानस्याऽऽलोच्य यावत् यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपाद्य प्रष्टुवा वाचयितुं वा उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा संवस्तुं वा, तस्या इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुवा धारयितुं वा, तां च निर्ग्रन्थ्यो नो इच्छेयुः सेवेत एव निजं स्थानम् ॥ सू०३॥
भाष्यम्--'जे णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया' ये निम्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च द्वयेऽपि साम्भोगिका एकस्मिन् प्रामादौ स्युः, तत्र 'कप्पइ णिग्गंथाणं' कल्पते निम्रन्थानाम् 'णिग्गंधीओ आपुच्छित्ता वा अणापुच्छित्ता वा' निर्ग्रन्थीः श्रमणोः आपृच्छय वा अनापृच्छ्य वा, निम्रन्थीः पृच्छेयुर्न वेति स्वेच्छा श्रमणानाम् 'णिग्गंथिं अन्नगणाओ आगयं' निर्ग्रन्थीमन्यगणादागताम् 'खुयायारं' क्षताचाराम् 'सबलायारं' शबलाचाराम् 'भिन्नायारं' भिन्नाचाराम् 'संकिलिछायारचरित' संक्लिष्टाचारचरित्राम् , व्याख्या पूर्ववत् 'तस्स ठाणस्स' तस्य स्थानस्य यादृशप्रतिसेवनाजनितेन मलिना जाता तस्य पापस्थानस्य 'आलोयावेत्ता' आलोच्यआलोचना कारयित्वा 'जाव' यावत् यावत्पदेन प्रतिक्राम्यादिपदानां संग्रहोऽर्थश्च पूर्ववदेव 'अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जावेत्ता' यथाहं तस्य पापस्थानस्य यथायोग्य प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपाद्य, तदनन्तरम्-'पुच्छित्तए वा' प्रष्टुं वा सुखशातादिकं प्रष्टुं कल्पते 'वाएत्तए वा' वाचयितुं वा-सूत्रादिवाचनां दातुं वा, 'उपहावेत्तए वा' उपस्थापयितुं वा-महाव्रतेषु समारोपयितुं वा, 'संभुंजित्तए वा' संभोक्तुं वा-एकमण्डले भोजनादिव्यवहारं श्रमणीभिः सह कारयितुमित्यर्थः, 'संवसित्तए वा' संवस्तुं वा एकत्र श्रमणीभिः सह निवासं कारयितुमित्यर्थः कल्पते, 'तीसे इत्तरियं दिसं वा' तस्याः कृतप्रायश्चित्तायाः श्रमण्याः इत्वरिकाम्-अल्पकालिकी दिशम् प्रवर्तिन्यादिपदवीम् 'अणुदिसं वा' यावत्कथिकां प्रवर्त्तिन्यादिपदवीम् 'उदिसित्तए वा'
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मायम् ७० ७ सू०४
साम्भोगिकस्य विसाम्भोगिककरणे विधिः १६७ उद्देष्टुमनुज्ञातुं वा, 'धारित्तए वा' धारयितुं वा-तस्याः प्रवर्तिनीपदं दातुं कल्पते '
तंच णिग्गंधीओ नो इच्छेज्जा' तां च निम्रन्थ्यो नेच्छेयुः, यदि कदाचित् श्रमणेन प्रायश्चित्तदानादिना कृतशुद्धामपि अन्यगणादागतां तां श्रमणीं ताः साम्भोगिका निर्ग्रन्थ्यः अनापृच्छादिकारणवशात् स्वगणे स्थापयितुं नेच्छेयुः तदा 'सेवमेव नियं ठाणं' सेवेत एव निजं स्थानम् , तत्र स्थानमलभमाना सा स्वकीय यत्स्थानं-स्वकीयगच्छरूपं, तदेव सेवेत तत्रैव पुनः परावृत्त्य गच्छेदिति भावः । तासां तस्याः निर्ग्रन्थ्याः स्वसमीपे आश्रयादाने इमानि कारणानि संभवन्ति-प्रथमं तु कारणं निम्रन्थीरनापृच्छय तस्याः शुद्धिः कृतेति नेच्छेयुः, पुनश्च यस्याः सा शिष्या तया सह तासां मैत्री ततस्तस्या अत्र रक्षणे अस्याः प्रवर्तिनी गुरुर्वा अस्माकमुपरि कोपं करिष्यतीति मत्वा तां नेच्छेयुः, अथवा सा कर्मानुभावेन स्वभावतः प्रायः सर्वजनस्याऽपि द्वेष्येति तां नेच्छेयुः । यदि वा पूर्व भावानुभावतः प्रवर्त्तिन्या अप्रियेति, अथवा सा प्रवर्तिनी शुद्धिकर्त्तणां साम्भोगिकानां विषये केनापि कारणेन परम्परातः कुपिता वर्तते । यदि वा गच्छस्योपरि कुपिता वर्त्तते, अथवा संयत्या यो निम्रन्थीसमुदायस्तस्य तद्विषये प्रवर्त्तिन्याः प्रतिस्पर्धा भवेत्-यदियं न कस्या अपि शिष्या कर्त्तव्येति, अथवा ताः सर्वा अपि संयत्यः शृङ्खलाबद्धाः परस्परं गृहावस्थासम्बन्धिन्यस्ततः 'नूतनैषाऽस्माकमपमानं करिष्यति, नास्माकं यादृच्छिकमाहारविहारादिकं भविप्यति' इस्यादिकारणैर्यदि तामुद्यतामपि नेच्छेयुस्तदा स्वगच्छे एव तया प्रसन्नचेतसा प्रत्यावर्तितव्यं तदेव तस्याः श्रेय इति । उपलक्षणादिदं सूत्रत्रयं निम्रन्थविषयेऽपि अनुसन्धातव्यम् ॥ सू० ३॥
पूर्वमन्यगणादागतां निर्ग्रन्थीम् आलोचनादिना विशोध्य तया सह सम्भोगः कल्पते इति प्रतिपादितम् . साम्प्रतम् निर्ग्रन्थानुसन्धानात् साम्भोगिकनिम्रन्थस्यासाम्भोगिककरणे विधि प्रदर्शयन्नाह-'जे णिग्गंथा य' इत्यादि।
सूत्रम्--जे णिग्गंथा य णिग्गंधीओ य संभोइया सिया, नो ण्हं कप्पइ परोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, कप्पइ ण्हं पचक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-अहं णं अज्जो ! तुमाए सद्धिं इमंमि कारणंमि पच्चक्खं संभोइयं विसंभोइयं करेमि । से य पडितप्पेज्जा एवं से नो कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, से य नो पडितप्पेज्जा एवं से कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए ॥ सू० ४ ॥
छाया-ये निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च साम्भोगिकाः स्युः, नो खलु कल्पते परोक्षे प्रत्येकं साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्तुम् । कल्पते खलु प्रत्यक्षप्रत्येकं सांभोगिकं विसाम्भोगिकं कतम् । यत्रैवाऽन्योऽन्यं पश्येत् तत्रैव एवं वदेत्-अहं खलु आर्य! त्वया सार्चमस्मिन् कारणे
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૬૮
व्यवहारसूत्रे
प्रत्यक्षं साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं करोमि, स च प्रतितपेत् एवं तस्य नो कल्पते प्रत्यक्ष प्रत्येकं साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्तुम्, स च नो प्रतितपेत् एवं तस्य कल्पते प्रत्यक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्तुम् ॥ सू० ४॥
भाष्यम् – 'जे णिग्गंथाय णिग्गंथीओ य' ये निर्ग्रन्थाश्च निर्ग्रन्थ्यश्च 'संभोइया सिया' सम्भोगिकाः द्वादशप्रकारक संभोगवन्तो भवेयुः, तेषां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां द्वयानां मध्ये निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थपदस्य पूर्वं प्रयुक्तत्वात्, 'नो हूं कप्पर परोक्खं' अत्र 'ई' शब्दो वाक्याsलङ्कारे नो कल्पते खलु परोक्षे अनुपस्थितौ यदा स उपस्थितो न भवेत्तदेत्यर्थः 'पाडि एक्कं ' प्रत्येकम्, अत्र निर्ग्रन्थमुद्दिश्य सूत्रप्रवृत्तेः कमपि निर्ग्रन्थम् 'संभोइयं विसंभोइयं करेत्तए' साम्भोगिकं -सम्भोगयोग्यमपि श्रमणं विसाम्भोगिकं - भक्तपानादिसम्भोगरहितं कर्त्तुं न कल्पते इति पूर्वेणान्वयः । तर्हि कथं कल्पते ! तत्राह – यदि विसम्भोगविषयं किमपि कारणमुत्पद्यते तदा - ' कप्पड़ पं पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' कल्पते खलु प्रत्यक्षं तदुपस्थितौ तत्संस्खमित्यर्थः प्रत्येकं निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी-साम्भोगिकेति त्रयाणां मध्ये एकैकस्य साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्त्तुम् । कया रीत्या कल्पते ? तत्राह – ' जत्थेव ' इत्यादि, ' जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा' यत्रैव स्थलविशेषेऽन्य एकः, अन्यमपरं पश्येत् 'तत्थेव एवं वएज्जा' तत्रैव स्थले एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदेत्-कथयेत्, किं वदेत् तत्राह - ' अहं णं अज्जो ' अहं खलु हे आर्य ! 'तुमाए सद्धिं इममि कारणंमि पच्चक्खं संभोइयं विसंभोइयं करेमि अद्यानन्तरं त्वया सार्द्धम् अस्मिन् कारणे- अतिचारादिकारणे- अतिचारादिकारणविशेषमासाद्य 'पच्चक्खं' प्रत्यक्ष त्वत्संमुखमेव 'संभोइयं विसंभोइयं करेमि' साम्भोगिकं त्वां विसाम्भोगिकं - संभोगरहितं करोमि अतिचारादिकारणविशेषमासाद्य त्वया सहाऽऽहारादिव्यवहारं पृथक्करोमीत्यर्थः । ' से य पडितप्पेज्जा' कारणे कथिते सति स श्रोता साम्भोगिकः श्रमणो यदि परितपेत् परितापं कुर्यात् यथा 'मया नेदं सुष्ठु कृतं येनेदानीं परित्यक्तो भवामि, नाद्य प्रभृति एवं करिष्यामि, कृतस्य चाऽशुभकर्मणो मिथ्यादुष्कृतं ददामि न पुनरेतादृशं दुष्टं कर्म करिष्यामी' - ति पश्चात्तापं कुर्यादिति भावः ' एवं से नो कप्पड़ पच्चक्खं पाडि एक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' एवं - मिथ्यादुष्कृतादिदाने 'से' तस्य विसां भोगिकं कर्त्तुं प्रवृत्तस्य न कल्पते प्रत्यक्षं प्रत्येकं त्रयाणां मध्ये एकैकस्य साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्त्तुम् । यदि प्रतिपन्नपापस्थानः श्रमणः पश्चात्तापं कुर्यात् मिथ्यादुष्कृतं दद्यात् प्रायश्चित्तं च स्वीकुर्यात् तदा साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्त्तुं न कल्पते श्रमणानां श्रमणीनां वेति भावः । यदि प्रत्यक्षं पूर्वोक्तप्रकारेण कथितेऽपि 'से य नो पडितप्पेज्जा' स च यदि नो परितपेत्यदि कदाचित् कृतकर्मणो निमित्तं पश्चात्तापं पूर्वोक्तरूपेण न कुर्यात्, स्वकृतातिचारस्याssलोचनया प्रतिक्रमणेन तदुभाभ्याम्, व्युत्सर्गेण तपसा एवं प्रकारेण यावत् पाराश्चितेन प्रायश्चित्तेन विशोधि नं कुर्यात् एवं से कप्पड़ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करितए' एवं तदा ' से ' तस्य विसाम्भोगिककर्तुः कल्पते प्रत्यक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकं विसाम्भोगिकं कर्त्तुमिति ॥ सू० ४ ॥
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Manoramanar
भाष्यम् उ० ७ सू० ५
साम्भोगिकस्याऽसाम्भोगिककरणे विधिः १६९ पूर्व निर्ग्रन्थमधिकृत्य सांभोगिकस्य प्रत्यक्षं तत्संमुखं विसांभोगिककरणे विधिरुक्तः, सम्प्रति निर्ग्रन्थीमुद्दिश्य सांभोगिकायाः परोक्षम्-तस्या अनुपस्थितौ विसांभोगिककरणे विधिमाह-'जाओ णिग्गंथीओ वा' इत्यादि ।
सूत्रम्--जाओ णिग्गंधीओ वा णिग्गंथा वा संभोइया सिया, नो हं कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, कप्पइ ण्हं पारोक्खं, पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, जत्थेव ताओ अप्पणो आयरियउवज्झाए पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जाअहं णं भंते ! अमुगीए अज्जाए सद्धिं इममि कारणंमि पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करेमि। सा य से पडितप्पेज्जा एवं से नो कप्पइ पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, सा य से नो पडितप्पेज्जा, एवं से कप्पइ पारोक्खं पाडि एक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए ॥ सू०५॥
छाया--या निर्ग्रन्थ्यो वा निर्ग्रन्था वा सांभोगिकाः स्युः, नो खलु कल्पते प्रत्यक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकी विसंभोगिकी कर्तुम् , कल्पते खलु परोक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकी विसांभोगिकी कर्तम, यत्रैव ता आत्मनः--आचार्योपाध्यायान पश्येयः तत्रैव एवं वदेत-अहं ख भदन्त ! अमुक्या आर्यया सार्द्धम् अस्मिन् कारणे परोक्षं प्रत्येकं सांभोगिकी विसांभोगिकी करोमि। सा च तस्याः प्रतितपेत् , एवं तस्याः नो कल्पते परोक्ष प्रत्येकं सांभोगिकी विसांभोगिकी कर्तुम् । सा च तस्याः नो प्रतितपेत् , एवं तस्याः कल्पते परोक्ष प्रत्येक साम्भोगिकी विसांभोगिकी कर्त्तम् ॥ सू० ५॥
भाष्यम् – 'जाओ णिग्गंधीओ वा णिग्गंथा वा' याः काश्चन निम्रन्थ्यः श्रमण्यः निर्ग्रन्थाः श्रमणा वा 'संभोइया सिया' साम्भोगिकाः स्युः-भवेयुः, तेषां द्वयानां मध्ये निर्ग्रन्थीनाम् , अत्र निग्रन्थीपदस्य पूर्व प्रयुक्तत्वात् , 'नो ण्हं कप्पइ पञ्चक्खं पडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' नो खलु कल्पते प्रत्यक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकी विसांभोगिकी कर्तुम् । तासां श्रमणीनां नो कथमपि कल्पते प्रत्यक्षं -तस्याः संमुखमित्यर्थः प्रत्येकम्-एकैकस्याः संयत्याः प्रत्यक्षरूपेण सांभोगिकी-भक्तपानादिव्यवहारवती श्रमणी विसांभोगिकी-संभोगरहितां परित्याजितभोजनादिव्यवहारां कर्तुम् । तर्हि कथं कल्पते ? इत्याह-'कप्पइ ण्डं पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' कल्पते खलु परोक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकी विसांभोगिकी कर्तुम्, कल्पते परोक्षं-परोक्षरूपेण तदनुपस्थितौ प्रत्येकं सांभोगिकी विसांभोगिकी कर्तुम् । तद्विधिमाह-'जत्थेव ताओ अप्पणो आयरियउवज्झाए पासेज्जा' अथ यत्रैव स्थले ताः आत्मनः स्वसंघाटकस्य आचार्योपाध्यायान्-आचार्यान्-गच्छनायकान् उपाध्यायान् वा पश्येयुः 'तत्थेव एवं वएज्जा' तत्रैव स्थले तासु मध्ये एका एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदेत् । किं वदेदित्याह-'अहं णं' इत्यादि ।
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१७०-.
म्यवहारसूत्र 'अहं णं भंते !' अहं खलु भदन्त ! 'अमुगीए अज्जाए सद्धिं इमंमि कारणमि' अमुक्यानिर्दिष्टनाम्न्या आर्यया सार्द्धम् अस्मिन् कारणे अतिचारादिरूपे 'पारोक्खं पडिएक्कं संभो. इयं विसंभोइयं करेमि' परोक्षं-परोक्षरूपेण तदनुपस्थितौ भवत्पाचे, न तु तत्संमुवं, प्रत्येकम् एककेत्यर्थः सांभोगिकी विसांभोगिकी करोमि । अथ साध्वीनाम् एवं प्रकारकं वचनं श्रुत्वा आचार्योपाध्यायास्तदुक्तं तस्याः कथयन्ति, कथिते सति यदि 'सा य से पडितप्पेज्जा' सा च संप्राप्तदोषा 'से' तस्याः कथने प्रतितपेत् , तत्प्रदत्तदोषविषये परितापं कुर्यात् पश्चातापवती भवेदित्यर्थः 'सत्यं दुष्ठ मया कृतं, नैवं मम कर्तुं युज्यते' इत्येवं यदि मिथ्यादुष्कृतदानेन पश्चात्तापं कुर्यात् । यदि पापस्थानं न सेवितं भवेत्तदा असत्तदाख्यानमित्युक्त्वा प्रत्याख्यायेत् तत्कथनं निराकुर्यात् आचार्योपाध्यायेभ्यस्तदकरणे विश्वासं कारयेदित्यर्थः ‘एवं से नो कप्पइ पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' एवं सति 'से' तासां समुदायस्य नो कल्पते परोक्षं प्रत्येकं सांभोगिकी विसांभोगिकी कर्तुम् । 'सा य से नो पडितपेज्जा' सा च तासां कथने नो परितपेत् , अथ यदि सा श्रमणी तत्कथने मिथ्यादुष्कृतदानादि न समाचरेत् 'एवं से कप्पइ पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए' एवं स्थितौ तासां कल्पते परोक्षं प्रत्येकं सांभोगिकी विसांभोगिकी कतै कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः, एवं रीत्या करणे आचार्योपाध्यायास्ताभ्यो न कमपि उपालम्भं प्रयच्छन्ति ।
अत्र परोक्षप्रत्यक्षविषये शङ्कापूर्वकं समाधत्ते भाष्याकरः- 'णिग्गंथाण य' इत्यादि । गाथा-"णिग्गंथाण य पच्चक्खं, परोक्खं संजईण किं ।
णिग्गंथा सहणं कुज्जा, असहा सा य भंडए" ॥१॥ छाया-निर्ग्रन्थानां च प्रत्यक्षं, परोक्षं संयतीनां किम्।
निर्ग्रन्थाः सहनं कुर्यात् , असहा सा च भण्डयेत् ॥ १ ॥ अयं भावः-अत्राशङ्कते-संयतसंयतीनां विषये विपर्ययेण कथने किं प्रयोजनम् ।। उत्तरमाह-संयताः सहनशीला भवन्ति परिशीलितशास्त्रत्वात्, संयत्यश्च न तथा सहनशीला भवन्ति स्त्रीस्वाभाव्यात्, ततस्ताः कुपिताः सत्यः भण्डयेयुः धर्मस्य, संयतसंयतीनां च भण्डनां कुर्युरतोऽत्र विपर्ययेण प्रोक्तमिति ॥ सू० ५ ॥
___ पूर्व निर्ग्रन्थीनां सांभोगिकीनां विसाम्भोगिककरणे विधिः प्रदर्शितः, अथ निम्रन्थानां स्वशिष्याकरणनिमित्तं निर्ग्रन्थ्याः प्रव्राजननिषेधमाह-'नो कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथिं अप्पणो अट्ठाए पयावेत्तए वा, मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए वा, उवट्ठावेत्तए वा, संभुजित्तए वा, संवसित्तए वा, तीसे इत्तरिय दिसं वा अणुदिसं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० ६॥ .
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भाष्यम् उ० ७ ० ६-१०
निग्रन्थनिर्ग्रन्थ्योः प्रवाजनविधिः १७१
छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीमात्मनोऽर्थाय प्रव्राजयितुं वा मुण्डापयितुं वा उपस्थाययितुं वा संभोक्तुं वा संवस्तुं वा, तस्या इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं घा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० ६ ॥
भाष्यम् – 'नो कप्पइ णिग्गंथाणं' नो कल्पते निर्ग्रन्थानाम् 'निम्गंथिं' निर्ग्रन्थीम् 'अपणो अडाए' आत्मनोऽर्थाय - स्वस्य शिष्याकरणाय ' इयं मम शिष्या भविष्यती' - तिबुद्धया' 'पव्वावेत्तए वा' प्रव्राजयितुं वा - सामायिकारोपणेन प्रव्रज्यां दातुं' वा 'मुंडावेत्तए वा' मुण्डा - पयितुं वा–लोचादिकरणेन मुण्डितां कर्तु वा 'सेहावेत्तए वा' शिक्षयितुं वा - ग्रहणासेवन शिक्षां दावा, 'उवद्वावेत्तवा' उपस्थापयितुं वा छेदोपस्थापनचारित्रे आरोपयितुं वा 'संभुंजित्तए वा' संभोक्तुं वा द्वादशविध संभोगानां मध्येऽन्यतमं संभोगमाचरितु वा प्रदानरूपं व्यवहारं कर्त्तुमित्यर्थः, 'संवसित्तए वा' संवस्तु वा - तया सह वासं कर्तुम् - एकत्र स्थातु ं न कल्पते । तथा-'तीसे इत्तरियं दिसं वा' तस्याः संयत्या इत्वरिकाम् - अल्पकालिक दिशं प्रवर्त्तिन्यादिपदवीम् ‘अणुदिसं वा' अनुदिशं वा - यावज्जीविकां पदवीं वा 'उद्दिसित्तए वा धारित वा' उद्देष्टुम् - अनुज्ञातुं वा धारयितुं वा न कल्पते ॥ सू० ६ ॥
भक्तपानाद्यादान
पूर्वं निर्ग्रन्थानां स्वनिमित्तं निर्ग्रन्ध्याः प्रव्राजनादिनिषेधः कथितः सम्प्रति - अन्यप्रवर्त्तिन्यादिनिमित्तं तत्कल्पते, इति विपर्यये सूत्रमाह - ' कप्पर णिग्गंथाणं' इत्यादि । सूत्रम् - कप्पर णिग्गंथाणं णिग्गंथिं अन्नासिं अट्ठा पवावेत, वा, मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्त वा उवद्वावेत्तए वा, संभुंजित्तए वा, संवत्तिए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा, अणुदिसं वा, उद्दित्तिए वा धारितए वा ॥ सू० ७ ॥
छाया -कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीम् अन्यासामर्थाय प्रव्राजयितुं वा, मुण्डापयितुं वा, शिक्षयितुं वा, उपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा, संवस्तु वा तस्या इत्वरिका दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० ७ ॥
भाष्यम् – 'कप्पर णिग्गंथाणं' कल्पते निर्ग्रन्थानाम् 'णिग्गंर्थि' निर्ग्रन्थीम् ' अन्नासि अट्टाए' अन्यासामर्थाय तत्र अन्यासाम् प्रवर्त्तिन्यादीनाम् अर्थाय प्रयोजनाय. 'एता एतस्या उपग्रहं करिष्यन्ती'- त्यभिप्रायेण, न तु स्वात्महितायेत्यर्थः, 'पव्वावेत्तए वा' इत्यादि स पूर्ववदेव व्याख्येयम् ॥ सू० ७ ॥
निर्ग्रन्धानां निर्ग्रन्थीविषये प्रवाजनादिविधिरुक्तः, सम्प्रति निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थविषये तन्निषेधमाह - 'नो कप' इत्यादि ।
सूत्रम् - नो कप्पइ णिग्गथीणं णिग्गंथ अपणो अट्ठार पवावेत्तए वा मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए वा, उवद्यावेत्तए वा, संभुंजित्तए वा, संवसित्तए वा, तस्स इतरिय दिसं वा, अणुदिसं वा, उद्दित्तिए वा धारितए वा ॥ सू० ८ ॥
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१७२
व्यवहारसूत्रे - छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थमात्मनोऽर्थाय प्रवाजयितु वा, मुण्डापयितु वा, शिक्षयितु वा, उपस्थापयितुं वा, संभोस्तु वा, संवस्तु वा, तस्या इत्वरिकां दिशं वा, अनुदिशं वा, उद्देष्टुं वा धारयितु वा ॥ सू० ८ ॥
भाष्यम्-"नो कप्पइ णिग्गंथीणं' नो कल्पते निम्रन्थीनाम् णिग्गंथ' निम्रन्थम् 'अप्पणो अट्ठाए' आत्मनोऽर्थाय-आत्मनः-स्वस्याः प्रयोजनाय 'पव्वावेत्तए वा' प्रवाजयितुं वा, इत्यादि सर्व पूर्ववदेव व्याख्येयम् ॥ सू० ८॥
पूर्व निर्ग्रन्थीनां स्वनिमित्तं निम्रन्थस्य प्रव्राजनादि न कल्पते इति प्रोक्तम् , सम्प्रति परनिमित्तम्-आचार्यादिनिमित्तं कल्पते इति तद्विपर्य ये सूत्रमाह- 'कप्पइ णिग्गथीणं' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पई णिग्गंथीणं णिग्गंथं णिग्गंथाणं अट्ठाए पवावेत्तए वा, मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए वा, उवट्ठावेत्तए वा, संभुंजित्तए वा, संवसित्तए वा, तस्स इत्तरिय दिसं वा, अणुदिसं वा, उदिसित्तए वा, धारित्तए वा ॥ सू० ९॥
___ छाया--कल्पते निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थं निर्ग्रन्थानामर्थाय प्रव्राजयितुवा, मुण्डापयितु वा, शिक्षयितु वा, उपस्थापयितुवा, संभोक्तुंवा, संवस्तुं वा, तस्य इत्वरिकां दिशं वा अनुदिशं वा, उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० ९ ॥
भाष्यम्--'कप्पइ निग्गंथीणं' कल्पते-निर्ग्रन्थीनाम् 'णिग्गं' निम्रन्थम् णिग्गंथाणं अहाए' निर्ग्रन्थानां श्रमणानामाचार्योपाध्यायादीनामर्थाय-प्रयोजनाय 'पव्वावेत्तए' वा प्रव्राजयितुं वा, इत्यादि सर्व पूर्ववद् व्याख्येयम् ॥ सू० ९॥
पूर्व स्वनिमित्तं दीक्षादानं निषिध्य अन्यार्थ दीक्षादानमुक्तम् , अन्यार्थ दीक्षादानं दत्वा च यन्निश्रामधिकृत्य दीक्षा दत्ता तदाचार्यादिसमीपे प्रेषणार्थ नियमात्तस्य विहारः कारयितव्यः, इति प्रथमं निम्रन्थीमधिकृत्य विहारविधिमाह-'नो कप्पई' इत्यादि।
सूत्रम्-नो कप्पइ णिग्गंथीणं विइकिट्ठियं दिसं वा, अणुदिसं वा, उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ सू० १०॥
___ छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थोनां व्यतिकृष्ट दिशं वा, अनुदिशं वा, उद्देष्टुं वा, धारयितु वा ॥ सू० १० ॥
भाष्यम्-'नो कप्पइ णिग्गंथीणं" नो कल्पते निम्रन्थीनाम् “विइकिद्वियं दिसं वा अणुदिसं वा" व्यतिकृष्टां दूरस्थां दिशं वा, अनुदिशं वा, तत्र व्यतिकृष्टाम् , व्यतिकृष्टा दिग् द्विविधा भवति क्षेत्रतो भावतश्च, तत्र क्षेत्रतः क्षेत्रमाश्रित्य दूरदेशरूपा, भावतो दूरसम्बन्धगताचार्यादिरूपा, तत्र संयतस्य-आचार्योपाध्यायरूपा द्विविधा । संयत्याश्च आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीरूपा त्रिविधा दिग् भवति, तां क्षेत्रतो भावतश्च विप्रकृष्टां-दूरस्थां दिशम् 'अणुदिसं वा' अनुदिशम्-विशेषतो विप्रकृष्टां दिशम् “उद्दिसित्तए वा" उद्देष्टुम्-अन्यमन्यां वाऽनुज्ञातुं तादृशदिग्ग
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भाष्यम् उ० ७ सू० ११-१५
व्यतिष्ठदिग्गमनाधिकरणग्यवशमनविधिः १७३
माज्ञां दवा, “धारित्तए वा ” धारायितुं स्वस्य गमनं स्वीकर्तुं स्वस्य गन्तुमित्यर्थः न कल्प इति पूर्वेण सम्बन्धः । क्षेत्रतो विप्रकृष्टा दिग्- दूरदेशरूपा, तत्र गच्छन्तीनां संयतीनां स्त्रीशरीरत्वाद् बहवो दोषा आत्मसंयमविराधनादयो भवन्ति । भावतो विप्रकृष्टा - अन्यगच्छीयाचार्यादिरूपा तत्राधिकरणादि संभवादिति ॥ सू० १० ॥
सम्प्रति निर्ग्रन्थमधिकृत्य विहारविधिमाह - ' कप्पड़' इत्यादि ।
सूत्रम् - कप्पर णिग्गंथाणं विइगिट्टियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥ सू० ११ ॥
छाया - कल्पते निर्ग्रन्थानां व्यतिकृष्टां दिशं वा अनुदिशं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा ॥ सू० १९ ॥
भाष्यम् – ' कप्पइ' कल्पते 'णिग्गंथाणं' निर्ग्रन्थानाम् ' विइगिट्ठियं दिसं वा व्यतिकृष्टां दिशं वा व्यतिकृष्टाम् क्षेत्रतो भावतश्च विपरीतां, क्षेत्रतो दूरस्थाम्, भावतोऽन्यगच्छीयाचार्यादिरूपाम् 'अणुदिसं वा' अनुदिशं वा - अतिविपरीताम् 'उद्दित्तिए वा धारितए वा ' उद्देष्टुमनुज्ञातुम् धारयितुं स्वयं गन्तुं वा ॥ सू० ११ ॥
पूर्वं निर्ग्रन्थानां विप्रकृष्टदिग्गमने विधिः प्रोक्तः, सम्प्रति, विप्रकृष्टप्रसङ्गाद् विप्रकृष्टाधिकरणजन्यापराधक्षमापने निर्ग्रन्थमधिकृत्य सूत्रमाह – 'नो कप्पइ णिग्गंथाणं' इत्यादि ।
सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथाणं विइगिट्ठाई पाहुडाई विओसवित्तए ||०१२ ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां व्यतिकृष्टानि प्राभृतानि व्यवशमयितुम् ॥ स्० १२ ॥ भाष्यम् – 'नो कप्पड़' न कल्पते 'णिग्गंथाणं' निर्ग्रन्थानाम् 'विइगिट्ठाई ' व्यतिकृष्टानि - दूरदेशकृतानि 'पाहुडाई' प्राभृतानि कठोरवचनादिजनिताधिकरणानि 'विओसंवित्तए' व्यवशमयितुम् तत्रस्थानामेव उपशमयितुम्, किन्तु - यत्रैव स्थानविशेषेऽधिकरणं समुस्पन्नं तत्रैवोपशमयितुं कल्पते, क्लेशमुत्पाद्य नान्यत्र गमनं युक्तियुक्तमिति भावः । अत्रापि व्यतिकृष्टाधिकरणक्षमापनं द्विविधम्- क्षेत्रतो भावतश्च, एषः क्षेत्रतो व्यतिकृष्टाधिकरणक्षमापनविधिरुक्तः । भावतस्तु अन्येन श्रमणेन सार्द्धं कृताधिकरणस्याऽन्यसमीपे क्षमापनम् एवमपि कर्त्तु न कल्पते इति सूत्राशयः ॥ सू० १२ ॥
"
सम्प्रति निर्ग्रन्थीमधिकृत्य व्यतिकृष्टाधिकरणक्षमापनविधिमाह - ' कप्पइ णिग्गंथीणं' इत्यादि । सूत्रम् - कप्पर णिग्गंथीणं विइगिट्ठाई पाहुडाई विओसवित्तए | सू० १३ ॥ छाया — कल्पते निर्मन्थीनां व्यतिकृष्टानि प्राभृतानि व्यवशमयितुम् ॥ सू० १३ ॥ भाष्यम् – 'कप्पइ' कल्पते 'णिग्गंथीणं' निर्ग्रन्थीनाम् ' विइगिट्ठाई' व्यतिकृष्टानि क्षेत्रठो भावतश्च दूरदेशकृतानि 'पाहुडाई' प्राभृतानि - अधिकरणानि तत्रस्थिताया एव 'विओ -
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१७४
व्यवहारसूत्रे
सवित्तए' व्यवशमयितुम् - उपशमयितुं क्षमापयितुमित्यर्थः, निर्ग्रन्थीनां दूरदेशगमने स्त्रीशरीरत्वात् संयमात्मविराधनादि बहुदोष संभवादिति ॥ सू० १३ ॥
पूर्वं निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां व्यतिकृष्टाऽधिकरणक्षमापनविधिः प्रदर्शितः, सम्प्रति निर्ग्रन्थमधिकृत्य व्यतिकृष्टकाले स्वाध्यायनिषेधमाह – 'नो कप्पर निग्गंथाणं' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पर णिग्गंथागं विइगिट्ठे काले सज्झायं करिए ॥ सू० १४ ॥ छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां व्यतिकृष्टे काले स्वाध्यायं कर्त्तुम् ॥ स्० १४ ॥ भाष्यम् – नो कप्पइ' नो कल्पते 'णिग्गंथाणं' निर्ग्रन्थानाम् 'विइगिट्ठे काले' व्यतिकृष्टे काले - विकृते विपरीते काले अस्वाध्यायकाले यस्य स्वाध्यायस्य यः कालविशेषो निर्णीतः शास्त्रे तदतिरिक्ते काले, विकृतकालो द्विविधः - कालिक उत्कालिकश्चेति । तत्र कालिकः प्रथमपौरुष्या अनन्तरं चतुर्थपौरुषीतः पूर्वो यः कालः सः । विकृतोत्कालिकः - सूर्योदय सूर्यास्तयोः सन्धिकालः अर्द्धरात्रिश्चेति । एवम्भूते विकृते काले 'सज्झायं' स्वाध्यायम् - आचाराङ्ग निशीथसूत्रप्रभृतीनां मूलपाठस्याऽध्ययनम् 'करितए वा' कर्तुम् ॥ सू० १४ ॥
निर्ग्रन्थीनां व्यतिकृष्टे काले स्वाध्यायं कर्त्तुं कल्पते इति तद्विधिमाह - ' कप्पड़ णिग्गंथीणं' इत्यादि ।
सूत्रम् - कप्पर णिग्गंथीणं विइगिट्ठे काले सज्झायं करित णिग्गंथनिस्साए ॥१५॥ छाया -कल्पते निर्मन्थीनां व्यतिकृष्टे काले स्वाध्यायं कर्त्तु निग्रन्थनिश्रया ॥ १५॥
भाष्यम्--‘कप्पइ’ कल्पते 'णिग्गंथीण' निर्ग्रन्थीनाम् 'विइगिट्टे काले' व्यतिकृष्टे काले-विकालेऽपीत्यर्थः 'सज्झायं करित्तए' स्वाध्यायं आचाराङ्ग - निशीथसूत्राणामध्ययनं कर्तुम् ।
ननु पूर्वसूत्रे व्यतिकृष्टकाले निर्ग्रन्थानां स्वाध्यायस्य निषेधः कृतः, प्रकृतसूत्रेण श्रमण्याः कृते स्वाध्यायस्य विधानं क्रियते अस्वाध्यायकालस्तु सर्वेषां समान एव भवतीति न्यायस्य समानत्वात् कथमस्वाध्यायकाले निर्ग्रन्थीनां स्वाध्यायस्य विधानं कृतम् ? तत्राह -- कारणिकमिदं सूत्रम्, यथां काचिन्नवदीक्षिता सूत्रावृतिं करोति स्त्रीस्वभावत्वाद् विस्मरणशीला च सा, संप्रति स्वाध्यायाकरणेऽस्याः सूत्रं विस्मृतं भविष्यतीत्यादिकारणमादाय निर्ग्रन्थ आज्ञां ददाति तदा तदाज्ञया तस्याः कृते व्यतिकृष्ट कालेऽपि स्वाध्यायस्य विधानं कृतमिति नात्र दोषापत्तिरत आह- ' णिग्गंथ ० ' इत्यादि, 'णिग्गंथनिस्साए' निर्ग्रन्थनिश्रया - श्रमणस्याज्ञया श्रमण्या सूर्योदय सूर्यास्तसन्धिकालार्द्धरात्ररूपास्वाध्यायेऽपि काले स्वाध्यायः कल्पते, निषेधोऽत्र स्वातन्त्र्येण संयत्याः विकृतकाले स्वाध्याय - करणविषयको विज्ञेय इति ॥ सू० १५ ॥
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मान्यम् 3. ७सू० १६-२०
स्वाध्यायास्वाध्यायविधिनिषेधनि० १७५ ... सम्प्रति समुच्चयेन स्वाध्यायनिषेधमाह-'णो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा असज्झाइए सज्झायं करितए ॥ सू० १६॥
. छाया-नो कल्पते निग्रंथानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अस्वाध्यायिके स्वाध्यायं कर्तुम् ॥ सू० १६ ॥
भाष्यम्-'नो कप्पई' नो कल्पते ‘णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा' निम्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा 'असज्झाइए' अस्वाध्यायिके स्वाध्यायेन निर्वृत्तं स्वाध्यायिकं, न स्वाध्यायिकम् अस्वाध्यायिकम् , तस्मिन्-यदा यत्र वा अस्वाध्यायसम्बन्धि किमपि कारणं भवेत् तत्समये तत्स्थाने वा 'सज्झायं करित्तए' स्वाध्यायं कर्तुम्, यः खलुः अस्वाध्यायिकः कालस्तस्मिन् काले स्वाध्यायं कर्तुं संयतानां संयतीनां वा न कल्पते । अस्वाध्यायिकप्रकरणं सविस्तरमुत्तराध्ययनसूत्रस्यैकोनत्रिंशत्तमेऽध्ययने मत्कृतायां प्रियदर्शनीव्याख्यायामालोकनीयम् ॥ सू० १६॥
अथ स्वाध्यायकाले स्वाध्यायोऽवश्यं कर्त्तव्य इति स्वाध्यायसूत्रमाह-'कप्पइ' इत्यादि । सूत्रम् – कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा सज्झाइए सज्झायं करित्तए ॥१७॥ छाया- कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा स्वाध्यायिके स्वाध्यायं कर्तुम् ॥१७॥
भाष्यम्-'कप्पई' कल्पते 'निग्गंथाण वा' निर्ग्रन्थानां वा 'निग्गथीण वा' निर्ग्रन्थीनां वा 'सज्झाइए' स्वाध्यायिके-स्वाध्यायकाले 'सज्झायं' स्वाध्यायम् 'करित्तए' कर्तुम् कल्पते, स्वाध्यायकाले निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीभिरवश्यं स्वाध्यायः कर्तव्यः, नाऽत्र प्रमादः कार्य इति भावः । कस्य सूत्रस्य कः स्वाध्यायकालः ? कस्य सूत्रस्य कोऽस्वाध्यायकालः ? इत्यादि सर्वं नन्दीसूत्रे द्रष्टव्यम् ॥ सू०१७॥
अस्वाध्यायिकं द्विविधं भवति-आत्मसमुत्थं परसमुत्थं च, तत्राऽऽत्मसमुत्थमस्वाध्यायिकमाह-'नो कप्पइ' इत्यादि । - सूत्रम्-नो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अप्पणो असज्झाइए सज्झायं करित्तए, कप्पइ ण्हं अण्णमण्णस्स वायणं दलइत्तए ॥ सू०१८॥
छाया- नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा आत्मनोऽस्वाध्यायिके स्वाध्यायं कर्तुम् , कल्पते खलु अन्योऽन्यस्य वाचनां दातुम् ॥ सू० १८ ॥
भाष्यम्-'नो कप्पई' नो कल्पते 'णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थानां वा निम्रन्थीनां वा, 'अप्पणो' आत्मनः स्वसंबन्धिनि स्वस्मादुत्थिते इत्यर्थः 'असज्झाइए' अस्वा
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१७६
व्यवहारसूत्र ध्यायिके 'सज्झायं करित्तए' स्वाध्यायं कर्तुं न कल्पते इति सम्बन्धः, किन्तु 'कप्पइ ण्इं अन्नमन्नस्स' कल्पते खलु अन्योऽन्यस्य-परस्परस्य 'वायणं दलइत्तए' वाचनां दातुम् अन्यत्र अन्यस्थाने अन्यद्वारा वा । तत्रात्मसमुत्थमस्वाध्यायिकं श्रमणस्यैकं भवति रोगजम्, श्रमण्याश्च द्विविधम्-रोगजम् ऋतुजं च, तत्र रोगजम् अर्शोभगन्दरवणादिविषयम् , ऋतुजं च ऋतुविषयम् । तत्र श्रमणस्य रक्तपूयादिदर्शनं यावत् , श्रमणीनां च रक्तप्यरजोदर्शनं यावद् अस्वाध्यायिक भवति, तस्मिन् काले निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीनां स्वाध्यायं कर्तुं न कल्पते, किन्तु व्रणादिस्थानमष्टपुटवस्त्रेणाच्छाद्याऽन्योऽन्यस्य-परस्परस्य वाचनां अर्थरूपां दातुं श्रोतुं वा कल्पते ॥ सू०१८ ॥
पूर्वमस्वाध्यायिके स्वाध्यायनिषेधः, स्वाध्यायिके स्वाध्यायविधिश्च प्रदर्शितः, सम्प्रति स्वाध्यायिके नित्यस्वाध्यायकारकः श्रमणः पदवीयोग्यो भवति, स चाऽल्पपर्यायोऽपि बहुपर्यायवत्याः श्रमण्या उपाध्यायतया आचार्यतया च उद्देष्टुं कल्पते इति सूत्रद्वयेनाह-'तिवास.' इत्यादि।
सूत्रम्-तिवासपरियाए समणे णिग्गंथे तीसंवासपरियायाए समणीए णिग्गंथीए कप्पइ उवज्झायचाए उदिसित्तए ॥ सू०१९ ॥
छाया-त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः त्रिंशद्वर्षपर्यायायाः श्रमण्याः निर्ग्रन्थ्याः कल्पते उपाध्यायतया उद्देष्टुम् ॥ सू० १९ ॥
भाष्यम्--'तिवासपरियाए' समणे णिग्गंथे' त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निम्रन्थः, त्रिवर्ष--वर्षत्रयं यथा स्यात् पर्यायो-दीक्षाग्रहणसमयो विद्यते यस्य स त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निम्रन्थो भवेत्तदा सः 'तीसंवासपरियार' त्रिंशद्वर्षपर्यायायाः-त्रिंशद्वर्षदीक्षापर्यायवत्याः 'समणीए णिग्गंथीए' श्रमण्या निम्रन्थ्याः 'कप्पइ उवज्झायत्ताए उदिसित्तए' कल्पते उपाध्यायतया उद्देष्टुंस्वीकर्तुम्, त्रिंशद्वर्षपर्यायवत्याः श्रमण्याः त्रिवर्षपयायः श्रमणः उपाध्यायो भवितुमर्हतीति भावः ॥१९॥
पुनराह-पंचवासपरियाए' इत्यादि ।
सूत्रम्-पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे सहिवासपरियायाए समणीए निगंथीए कप्पइ आयरियत्ताए उद्दिसित्तए ॥ सू०२० ॥
छाया–पञ्चवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः षष्टिवर्षपर्यायायाः श्रमण्या निन्थ्याः कल्पते आचार्यतया उद्देष्टुं ॥ सू० २० ॥
भाष्यम्-'पंचवासपरियाए' पञ्चवर्षपर्याय:--पञ्चवर्षदीक्षापर्यायः 'समणे निग्गंथे' श्रमणो निर्ग्रन्थो यदि भवेत्तदा सः 'सद्विवासपरियायाए' षष्टिवर्षपर्यायायाः- षष्टिवर्षदीक्षापर्यायवत्याः 'समणीए निग्गंथीए' श्रमण्या निम्रन्थ्याः 'कप्पई' कल्पते, 'आयरियताए' आचार्यतया
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भाग्यम् उ०७ सू० २१-२२
भिक्षोमतदेहपरिष्ठापनविधिः १७७
आचार्यरूपेण 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुं--स्वीकर्तुम्, पञ्चवर्षपर्यायः श्रमणः षष्टिवर्षपर्यायवत्याः श्रमण्याः आचार्यों भवितुमर्हतीति भावः । अत्र विषये अस्यैव व्यवहारसूत्रस्य तृतीयोदेशकस्य तृतीयसूत्रे त्रिवर्षपर्यायस्य श्रमणनिग्रन्थस्योपाध्यायत्वम् , पञ्चमे सूत्रे च पञ्चवर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य च आचार्योपाध्यायत्वं कल्पते इति प्रोक्तमित्युभयोर्भेदः। ननु त्रिंशद्वर्षपर्यायायास्त्रिवर्षपर्याय उपाध्यायः, पश्चवर्षपर्यायश्च षष्टिवर्षपर्यायाया आचार्यश्च भवेत्तदाऽधिकपर्यायवती श्रमणी अल्पपर्यायस्य श्रमणस्य कथं वन्दनादिव्यवहारं कुर्यात , एतदनुचितं प्रतिभाति ? तत्राह-नैवं शङ्कनीयम् जिनशासने पुरुषज्येष्ठस्य धर्मस्य तीर्थकरैः प्रतिपादितत्वादिति, किं बहुना--श्रमण एकदिवसपर्यायोऽपि शतवर्षपर्यायायाः श्रमण्या वन्दनीयो भवतीति शास्त्रसंमतम् ॥ सू० २० ॥
पूर्व पर्यायमाश्रित्य पदवीदानविधिः प्रदर्शितः, सम्प्रति--मृतश्रमणदेहस्य परिष्ठापनविधिमाह'गामाणुगाम' इत्यादि ।
सूत्रम्-गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खू य आहच्च वीसंभेजा तं च सरीरगं केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पइ से तं सरीरगं न सागारियमिति कटु थंडिले बहुफासुए पडिले हित्ता पमज्जित्ता परिहवेत्तए, अत्थि य इत्थ केइ साहम्मियसंतिए उवगरणजाए परिहरणारिहे कप्पइ से सागारकडं गहाय दोन्चंपि ओग्गहे अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरित्तए ॥ सू० २१॥
छाया-ग्रामानुग्रामं द्रवन् भिक्षुश्चाहत्य विष्वग्भवेत्, तं च शरीरकं कश्चित्साधमिकः पश्येत् कल्पते तस्य तच्छरीरकं न सागारिकमिति कृत्वा स्थण्डिले बहुप्रासुके प्रतिलेख्य प्रमाणं परिस्थापयितुम् । आस्ति चात्र किञ्चित् साधर्मिकसत्कमुपकरणजातं परिहरणाहम्, कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा द्वितीयमपि अवग्रहमनुज्ञाप्य परिहार परिहर्तम् ॥ सू० २१ ॥
भाष्यम्--'गामाणुगाम' ग्रामानुग्रामम्-एकस्माद् प्रामाद् प्रामान्तरम् 'दइज्जमाणे द्रवन्-विहारवृत्त्या गच्छन् , 'भिक्खू य' भिक्षुश्च श्रमणः 'आहच्च' माहत्य-कदाचित् 'वीसंभेज्जा' विष्वग्भवेत्-शरीराद् विष्वक्-पृथग्भवेत्-म्रियेत-कालगतो भवेदित्यर्थः 'तं च सरीरंग केइ साहम्मिया पासेज्जा' तच्च शरीरकं कश्चित् साधर्मिकः-सहगतः श्रमणः पश्येत्-अयं मृत इति जानीयात्तदा 'कप्पई' कल्पते 'से' तस्य साधर्मिकस्य भिक्षोः 'तं सरीरगं' तन्मृतशरीरम् 'न सागरियमिति कटु' न सागारिक-सागारसंबन्धि-गृहस्थसंबन्धि मा भवतु गृहस्था इदं मृतकशरीरं मा स्पृशन्तु 'इति कटु' इति कृत्वा-इति बुद्धया
क्य. २३
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१७८
व्यवहार 'थंडिले' स्थण्डिले-एकान्तभूमिरूपे, कीदृशे ! इत्याह-'बहुफासुए' बहुप्रासुके-दीन्द्रियादिजीवविवर्जिते 'पडिलेहित्ता' तत्स्थण्डिलं प्रतिलेख्य-प्रत्युपेक्ष्य द्वीन्द्रियादिप्राणिवर्जितं सम्यगवलोक्य ततः ‘पमज्जित्ता' प्रमार्य-प्रमार्जनं कृत्वा तत्स्थानात् द्वीन्द्रियादिकं पृथक् कृत्वा, 'परिहवित्तए' परिस्थापयितुम् साधूनां साधर्मिकस्य मृतस्य संयतस्य शरीरं गृहस्था मा स्पृशन्तु इति बुद्धया द्वीन्द्रियादिजीवविवर्जितप्रदेशे प्रतिलेखनप्रमार्जनं कृत्वा तत् शरीरं परिष्ठापयितुं कल्पते इत्यर्थः । परिष्ठापनानन्तरम् 'अस्थि य इत्थ केइ साहम्मियसंतिए उवगरणजाए परिहरणारिहे' अस्ति चात्र किञ्चित् सावर्मिकसत्कमुपकरणजातं परिहरणार्हम् , अस्ति-विद्यते चात्र मृतसाधुशरीरसमीपे किञ्चित् साधर्मिकसंयतसबन्धि-उपकरणजातं भण्डोपकरणादिकं परिहरणाई-परिभोगार्हम् उपभोगयोग्यं भवेत्तदा 'कप्पइ से सागारकडं गहाय' कल्पते 'से' तस्य सागारकृतं गृहीत्वा, तत्र-सागारकृतं नाम नास्मना स्वीकरोति किन्तु आचार्यसम्बन्धि एतत् , आचार्य एव तस्य ज्ञायकः, एवमवग्रहपूर्वकं गृहीत्वाऽऽचार्याणां समर्पयेत् , आचार्यों यदि यस्मै कस्मैचिद्दद्यात् तदा सः 'मत्थएण वन्दामि तहति' इति बुवाणः आचार्यवचः स्वीकुर्यात् गृहीते सति 'दोच्चंपि ओग्गई अणुण्णवेत्ता' द्वितीयमपि वारम् अवग्रहम्-आज्ञां भण्डोपकरणाघुपभोगार्थमनुज्ञाप्य-गृहीत्वा 'परिहारं परिहरितए' परिहारं परिहर्तुम्-आचार्यानुज्ञापनानन्तरमुपभोगयोग्यं वस्तु आचार्यप्रदत्तमुपभोक्तुं कल्पते परिह मिति त्यागानुज्ञायां त्यक्तुं कल्पते, अन्यस्मै दातुं परिष्ठापयितुं वा कल्पते ।। सू० २१॥
सम्प्रति- उपाश्रयस्य अवक्रयविक्रयविषयमधिकृत्य शय्यातरविधि प्रदर्शयितुमाह'सागारिए' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारिए उवस्सयं वकएणं पउंजेज्जा, से य वक्कइयं वएज्जा इमम्मि य इमम्मि य ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसंति से सागारिए परिहारिए, से य नो वएज्जा चक्कइए वएज्जा से सागारिए परिहारिए, दोवि ते वएज्जा दोवि सागारिया परिहारिया ॥ सू० २२ ॥
छाया-- सागारिकः उपाश्रयमवक्रयेण प्रयुञ्जीतः स चाऽवक्रयिकं वदेत्-अस्मिश्च अस्मिश्च अवकाशे श्रमणा निर्ग्रन्थाः परिवसन्ति, स सागारिकः परिहार्यः, स च नो वदेत् अवक्रयिको वदेत् स सागारिकः परिहार्यः, द्वावपि तौ वदेयाताम् द्वावपि सागारिको परिहाय्यौ ॥ सू० २२॥
भाष्यम्-'सागारिए' सागारिकः उपाश्रयस्वामी 'उवस्सयं' उपाश्रयम्-वसतिम् 'वक्कएणं' अवक्रयेण, कियत्कालमवक्रयेण-भादकप्रदानेन 'पञ्जेज्जा' प्रयुञ्जीत-व्यापारयेत् ,
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भाष्यम् उ० ७ सू० २२-२३ ।। शय्यातराऽशय्यातरपरिज्ञानविधिः १७९ श्रावको भाटकप्रदानपूर्वकमन्यस्मै उपाश्रयं दद्यात् इत्यर्थः, 'से य वक्कइयं वएज्जा' स च सागारिकः, . अवक्रयिक भाटकेनोपाश्रयप्रतिग्राहिणं वदेत् उपाश्रयग्रहणसमये कथयेत् । किं वदेत् ! तत्राह-'इमम्मि' इत्यादि, 'इममि य इममि य ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसति' अस्मिश्च अस्मिंश्च अवकाशे-उपाश्रयस्याऽमुकामुकप्रदेशे श्रमणा निर्ग्रन्थाः परिवसन्ति-निवासं कुर्वन्ति, स सागारिकः यस्मै भाटकग्रहणाय उपाश्रयं ददाति, तं प्रति उपाश्रयप्रदानसमये एवं वदेत्-यदहं तुभ्यं भाटकप्रदानपूर्वकमुपाश्रयं ददामि किन्तु उपाश्रयस्याऽमुकप्रदेशे साधवो वसन्ति अतस्तं प्रदेशं विहायोपाश्रयं ददामीति । तस्मात् साधुस्थितिकमुपाश्रयस्य प्रदेशं विहायाऽवशिष्ट एवोपाश्रयस्य प्रदेशो भाटकप्रदानपूर्वकं त्वया ग्रहीतव्यः ‘से सागारिए परिहारिए' एवमुक्त स सागारिकः परिहार्यः-परिहर्त्तव्यः । उपाश्रयं भाटकप्रदानपूर्वकं ददतः शय्यातरस्य गृहात् साधुभिर्भक्तपानादिकं न ग्रहीतव्यमित्यर्थः । 'से य नो वएज्जा वक्कइए वएज्जा' कदाचित् स चोपाश्रयस्वामी नो वदेत् अवक्रयिक एव-भाटकेनोपाश्रयग्रहीतैव वदेत् , यथा-अस्मिंश्च अस्मिंश्चावकाशे श्रमणा निवासं कुर्वन्तु, 'से सागारिए परिहारिए' स सागारिकः-सोऽवक्रयिकः सागारिकः शय्यातर इति परिहार्यः -परिहर्त्तव्यः, तद्गृहादपि भक्तपानादिकं साधुभिन ग्रहीतव्यमिति । 'दोवि ते वएज्जा दोवि सागारिया परिहारिया' द्वावपि तौ वदेयाताम् , द्वावपि सागारिको परिहार्यो । अथ द्वावपि भाटकदाता भाटकेन प्रतिग्रहीता च वदेयाताम् प्रथममुपाश्रयस्वामी वदेत्-एतावति उपाश्रयस्याऽवकाशे श्रमणा निम्रन्थाः स्थास्यन्तीति, पश्चादवक्रयिको ब्रूयात्-एतावति प्रदेशे श्रमणा निग्रन्थास्तिष्ठन्तु न मे काऽपि हानिः, एवं यदि तौ द्वावपि वदेयाताम् तदा तौ द्वावपि सागारिको शय्यातरौ इति द्वावपि परिहाय्यौं, तयोर्द्वयोरपि गृहात्साधुभिर्भक्तपानादिकं न ग्रहीतव्यमिति ।
यदि-शय्यातरो भाटकेनोपाश्रयं कस्मैचिद्ददाति तथा प्रदान समये कथयेत्-यामहं ददामि वसतिम् , तस्या वसतेरमुकाऽमुकप्रदेशे श्रमणा निर्ग्रन्थाः परिवसन्ति, अतस्तत्तत्प्रदेशं परित्यज्योपाश्रयस्य प्रदेशान्तरमेव त्वया ग्रहीतव्यम् , इत्थं कथयतः शय्यातरस्य भक्तपानादिकं श्रमणैन ग्रहीतव्यम् । यदि शय्यातरः सम्पूर्णमेवोपाश्रयं भाटकेन दद्यात् अतोऽमुकप्रदेशे श्रमणा स्तिष्ठन्तीति वक्तुं न पारयेत्-कथयितुं न शक्नुयात् , किन्तु-यो भाटकेन गृह्णाति स एव वदेत्-यदमुकाऽमुकप्रदेशे श्रमणा निर्ग्रन्थास्तिष्ठन्तु, तदा स भाटकेन उपाश्रयप्रतिग्रहीता शय्यातर इति तस्याऽपि भक्तपानादिकं ग्रहीतुं साधूनां न कल्पते । यदि उपाश्रयस्याधिपतिः भाटकेन ग्रहीता च उभावपि वदेयाताम् तत्र प्रथमो वदेत्-अमुकप्रदेशे श्रमणा निग्रन्थाः स्थास्यन्तीति, उपाश्रयग्रहीताऽपि वदेत्-यदुपाश्रयस्याऽमुम्मिन् अवकाशे
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व्यवहारसूत्र श्रमणा निम्रन्थास्तिष्ठन्तु तदोभावपि शय्यातरौ इति द्वयोरपि तयोर्भक्तपानादिकं साधुभिर्न ग्रहीतव्यमिति भावः ॥ सू० २२ ॥
सूत्रम्-सागारिए उवस्सयं विक्किणिज्जा से य कइयं वएज्जा इममि य इमंमि य ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसंति, से य सागारिए परिहारिए, से य नो वएज्जा कइए वएज्जा से सागारिए परिहारिए, दोवि ते वएज्जा दोवि सागारिया परिहारिया ॥ सू० २३॥
छाया-- सागारिक उपाश्रयं विक्रीणीत, स च क्रयिकं वदेत्-अस्मिश्च अस्मिश्च अवकाशे श्रमणा निर्ग्रन्थाः परिवसन्ति, स च सागारिकः परिहार्य्य:, स च नो वदेत् , अवक्रयिको वदेत् स सागारिकः परिहार्यः, द्वावपि तौ वदेयाताम् द्वावपि सागारिको परिहाय्यौं । सू० २३॥ - भाष्यम्-'सागारिए' सागारिकः-शय्यातरः ‘उवस्सयं' उपाश्रय--वसतिम् 'विकिणिज्जा' विक्रीणीत-उपाश्रयस्य विक्रयं कुर्यात् मूल्येन दद्यादित्यर्थः तस्योपाश्रयस्य यावन्मूल्यं तद् गृहीत्वा तमुपायं मूल्यदात्रे दद्यात् , 'से य कइयं वएज्जा' स च क्रयिकं वदेत् स चोपाश्रयस्य विक्रेता सागारिकः यो मूल्यं दत्वा उपाश्रयं गृह्णाति तं प्रति वदेत्-'इमंमि य इममि य ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसंति' त्वया मूल्येन गृहीतस्यास्योपाश्रयस्य अस्मिंश्चास्मिंश्च अवकाशे श्रमणा निम्रन्थाः परिवसन्ति-अस्योपाश्रयस्यामुकप्रदेशे साधवस्तिष्ठन्ति, अतस्तादृशं देशं परित्यज्योपाश्रयं भवते ददामि, ‘से य सागारिए परिहारिए' स च सागारिकः शय्यातरः इति शय्यातरत्वात् स परिहार्यः-परिहर्तव्यः भक्तपानादिकं गृह्णद्भिः तस्य प्रतिषेधः कार्यः । ‘से य नो वएज्जा' स च-पूर्वस्वामी यदि किश्चिदपि न वदेत् किन्तु 'कइए वएज्जा' क्रयिकः-यो मूल्यं दत्त्वा उपाश्रयं गृह्णाति स एव वदेत्-यथा-अस्योपाश्रयस्याऽमुकप्रदेशे मत्क्रीतेऽपि श्रमणा निम्रन्थाः यथासुखं तिष्ठन्तु, तदा-'से सागारिए परिहारिए' स च क्रेता सागारिकः शय्यातर इति कृत्वा परिहार्यः-परिहर्त्तव्यः, तद्गृहं भक्तपानाद्यर्थे परिवर्जनीयमिति । 'दोवि ते वएज्जा दोवि सागारिया परिहारिया' अथवा द्वावपि तौ पूर्वप्रकारेण वदेयाताम् तदा द्वावपि सागारिको शय्यातरौ परिहार्यो-परिहर्त्तव्यौ । अथ यदि द्वावपि वदेयाताम् यथा पूर्वस्वामिना कथितम्'एतावत्येकदेशे श्रमणा निर्ग्रन्थास्तिष्ठन्तु' परन्तु तावति प्रदेशे श्रमणानां समावेशमदृष्ट्वा मूल्येन ग्रहीता वदेत्-एतावति मदीयेऽपि प्रदेशे तिष्ठन्तु श्रमणा निर्ग्रन्थाः, तदा द्वावपि सागारिकोशय्यातरौ इति तो द्वावपि परिहारों-परिहर्तव्यौ, तद्गृहेभ्यो भक्तपानादिकं कदाचिदपि न प्रायम् ॥ सू० २३ ॥
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भाष्यम् उ०७ सू० २५-२६
वसतिवासावग्रहानुज्ञापनाविधिः १८५ पूर्वमुपाश्रयमधिकृत्य शय्यातरविधिः प्रदर्शितः, साम्प्रतमुपाश्रयस्याऽवग्रहविधिमाह'विहवधूया' इत्यादि ।
सूत्रम्--विहवधूया नायकुलवासिणी सावि यावि ओग्गहं अणुन्नवेयव्वा किमंग! पुण पिया वा भाया वा पुत्ते वा सेवि यावि ओग्गरं ओगिहियव्वे ॥ सू० २४ ॥
छाया-विधवदुहिता ज्ञातकुलवासिनी साऽपि चापि अवग्रहमनुशापयितव्या किमा? पुनः पिता वा भ्राता वा पुत्रो वा सोऽपि चापि अवग्रहमवग्रहीतव्यः। सू०२४ ॥
भाष्यम्-'विहवध्या' विधवदुहिता तत्र विगतः धवः-पतिर्यस्याः सा विधवापतिरहिता, दुहिता-उपाश्रयस्वामिनः कन्या, कीदृशीत्याह-'नायकुलवासिणी' ज्ञातकुलवासिनीपतिपक्षरहितत्वेन पितृगृहवासिनी पितृपक्षवासिनी पितृपितामहादिगृहवासिनी वा 'सावि यावि
ओग्गहं अणुन्नवेयव्वा' साऽपि चापि-साऽपि चावग्रहमनुज्ञापयितव्या-अवग्रहम्-आज्ञा प्रति अनुज्ञापयितव्या-आज्ञाग्रहणयोग्या भवति, साधुभिर्वासाय एषाऽपि प्रष्टव्येत्यर्थः, एतस्या अनुज्ञामादाय उपाश्रये वासः करणीयो न त्वाज्ञामन्तरेण निवसेदितिभावः । यदि पितृगृहस्थिता विधवाऽपि आज्ञाग्रहणार्थ योग्या भवति तर्हि--'किमंग ! पुण पिया वा भाया वा पुत्ते वा' किमङ्ग पुनः पिता वा भ्राता वा पुत्रो वा, 'सेवि यावि' सोऽपि च सुतराम् 'ओग्गहं ओगेण्हियव्वे' अवग्रहमवग्रहीतव्यः । यदि विधवा दुहिता स्थानार्थमनुज्ञापयितव्या भवेत्तदा का कथा पितृभ्रातृपुत्रा दीनाम्, अतस्ते सर्वेऽपि निवासार्थमनुज्ञापयितव्याः। तत्र पुत्रादयो द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः प्रभवः सत्ताधारिणः, अप्रभवः--सत्तावर्जिताः, तत्राऽप्रभव एते गृहीतभागः पृथग्भूतो भ्राता १, पुत्रो वा २, प्राधूर्णकः ३, दासः ४, भृतकः ५, जामात्रे दत्ता पितृपक्षद्विष्टा कन्या च ६, एते निस्सत्ताका अप्रभवो नानुज्ञापनीयाः, एतेषामुपाश्रयाज्ञा न ग्रहीतव्या श्रमणैरिति भावः । अथ च-अप्रभूणामनुज्ञापने सम्भवन्त्येते दोषाः, तथाहि-अप्रभूननुज्ञाप्य यदि कुत्रचित् उपाश्रये गृहे वा श्रमणः स्थास्यति तदा--यदा गृहस्वामी आगमिष्यति, अथ यदि तस्य साधुनिवासो नानुमतो भवेत् तदा स गृहस्वामी दिवा रात्रौ वा उपाश्रयात् श्रमणान्निष्कासयेत् । तत्र--निष्काशने लोके महती निन्दा स्यात् , कथयिष्यन्ति च लोकाः यत् इमे साधवो दुष्टाः अशुभकर्मकारिणः सन्तीति प्रतिभाति, अत एव अमुकेन श्रावकेन स्वोपाश्रयान्निष्का-- सिता इति, कदाचित् स्थानान्तरमलभमानानामकिञ्चनानामिव यत्र तत्र परिभ्रमणं स्यात्, इत्यादिबहवो दोषाः संभवेयुः। तथा-अद तादानदोषोऽपि स्यात्, तेनाऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषा अपि समापतेयुः, तस्मात् गृहस्वामिनो वा तन्निर्दिष्टाद्वा वसतेराज्ञा ग्रहीतव्येति भावः ॥ सू० २४ ॥
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१८२
व्यवहारसूत्र पूर्व चतुर्विशतितमसूत्रे नगरे वसता श्रमणेनाऽवग्रहयाचना कर्त्तव्येति कथितम् स च श्रमणो यथानगरे तिष्ठति तथा विहारं कुर्वन् श्रमणः कदाचिदटव्यामपि वसेदिति वनेऽपि तिष्ठता श्रमणेन तत्रापि अवग्रहयाचना कर्तव्येति दर्शयितुं पञ्चविंशतितम सूत्रं व्याख्यातुमाह-'पहेवि ओग्ग इत्यादि ।
सूत्रम-पहेवि ओग्गहं अणुन्नवेयवे ॥ सू० २५॥ छाया-पथि अपि अवग्रहमनुशापयितव्यः ॥ सू० २५॥
भाष्यम्-पथि अपि, तत्र पथि-मार्गे अपिशब्दाद् वृक्षाद्यधः अटव्यादौ च 'ओग्गहं' अवग्रहम्-निवासार्थमात्मनो निवासविषयकं याचनं प्रति कोऽपि वृक्षादिस्वामी भवेत् सः 'अणुन्नवेयव्वे' अनुज्ञापयितव्यः, तत्सकाशान्निवासविषयाज्ञा ग्रहीतव्येति भावः । मार्गे यत्र वृक्षादौ छायायां विश्राम्यन्तो ये यत्र पथिकाः प्रथमं स्थितास्तिष्ठन्ति तानपि पृष्ट्वा तत्र श्रमणस्तिष्ठेत्, अपृष्ट्वा तु तत्रापि न स्थातव्यम् । यत्र ते सागारिका वसेयुर्वृक्षादिमूले ते तु सुतरामेव अनुज्ञापयितव्याः, ततो भवन्ति ते शय्यातराः । यत्र वृक्षस्याऽधस्तात् अन्यत्र वा एकस्य परिग्रहे अनेकेषां वा परिग्रहे साधवो रात्रौ वसन्ति तर्हि यदिसंस्तरेयुस्तदा सर्वानेव तान् शय्यातरान् कुयुः अथाहाराद्यलाभेन न संस्तरेयुस्तदा तन्मध्ये एक एव शय्यातरत्वेन स्थापयितव्यः, इत्येषा शेषेषु सागारिकेषु भजनेति ॥ सू० २५ ॥
पूर्व शय्यातरावग्रहानुज्ञापनाविधिरुक्तः, सम्प्रति राजपरावर्तेऽवग्रहानुज्ञापनाविधिमाह-'से रज्जपरिपपट्टेसु' इत्यादि।
सूत्रम्-से रज्जपरिपट्टेसु संथडेसु अब्बोगडेसु अवोच्छिन्नेसु अपरपरिग्गहिएसु सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुन्नवणा चिट्ठइ अहालंदमवि ओग्गहे ॥ सू० २६ ॥
__छाया-तस्य राजपरावर्तेषु संस्तृतेषु अव्याकृतेषु अव्यवच्छिन्नेषु अपरपरिगृहीतेषु सैवाऽवग्रहस्य पूर्वानुमापना यथालन्दनमपि अवग्रहः ॥ सू० २६ ॥
भाष्यम्-‘से रज्जपरिपट्टेसु' 'से' तस्य श्रमणस्य राजपरावर्तेषु राज्ञः परावर्त्तने जाते सति, तत्र-राजपरावत्तों नाम पूर्व यो राजा शासनं कुर्वन्नासीत् स राजा कालगतोऽभूत् नवीनश्च राजा तस्मिन् स्थानेऽभिषिक्तः, तेषु राजपरावर्तेषु । पुनः कथम्भूतेषु ! तत्राह -'संथडेसु' संस्तृतेषु-सम्यगुरूपेण समर्थेषु-न कोऽपि प्रत्यन्तरराजा तदीयराज्यं विलुम्पितुं शक्नोति ताहशेषु सामर्थ्यवत्सु । पुनः कथम्भूतेषु राजपरावर्तेषु ? 'अयोगडेसु' अव्याकृतेषु--व्याकृतरहितेषु येषां दायादानां तदाज्यसामान्य तैर्दायादैरविभक्तेषु दायादभागवर्जितेषु । पुनः कथम्भू. तेषु राजपरावर्तेषु ? तत्राह-'अवोच्छिन्नेसु'अव्यवच्छिन्नेषु-वंशपरम्परागतं तदाज्यमद्यावधि न
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भाष्यम् उ०७ सू० २७
राज्यपरावर्तेऽवग्रहानुज्ञापनाविधिः १८३ व्यवच्छिन्नं परम्परागतमेव वर्तते तादृशेषु, अत एव 'अपरपरिग्गहिएम' अपरपरिगृहीतेषु-न परेण केनापि राज्ञा परिगृहीतेषु राज परावर्तेषु 'सच्चेव ओग्गहस्स पुन्वणुन्नवणा' सा एव पूर्वावग्रहस्याऽनुज्ञापना या पूर्वराज्ञः सकाशाद् गृहीता-अनुज्ञापना कृता सैवाऽवग्रहस्याऽनुज्ञापना तिष्ठति । कियन्तं कालं सैव पूर्वाऽनुज्ञापना तिष्ठति ? तत्राह-'अहालंदमवि ओग्गहें' यथालन्दमप्यवग्रहः, लन्दशब्दोऽत्र कालवाचकस्तेन यावन्तं कालं स राजवंशोऽनुवर्तते तावन्तं कालम्, अथवा यावत्कालं श्रमणस्तत्र तिष्ठेत् तावत्कालपर्यन्तमपि अवग्रहे पूर्वराजाऽवग्रहे सैव पूर्वाऽनुज्ञापना वर्तते, न पुनरस्मिन् राज्ञि सिंहासने उपविष्टे स भूयोऽपि अवग्रहं प्रति अनुज्ञापयितव्यः । साधुः साध्वी वा पूर्वराजा कालगतः, द्वितीयो राज्येऽभिषिक्तः अनेन प्रकारेण राज्ये परिवर्तनं जातम् परन्तु सम्प्रति-तस्मिन् देशे प्रथमस्य राज्ञ आज्ञा न गता, दायादेषु विभागो न जातः, वंशपरम्परागतस्य राज्ञो विच्छेदो न जातः, वंशपरम्परागत एव तत्राभिषिक्तः, प्रत्यन्तरराजन्येन केनापि राज्यं न परिगृहीतम् तावत्कालपर्यन्तं पूर्वराज्ञ एव अवग्रहानुज्ञपनया स्थातव्यं श्रमणैरिति भावार्थः ॥ सू० २६ ॥
अथ पूर्वोक्तस्य विपर्यये सूत्रमाह-'से रज्जपरियट्टेसु' इयादि ।
सूत्रम्--से रज्जपरियट्टेसु असंथडेसु वोगडेसु वोच्छिन्नेसु परपरिग्गहिएसु भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चंपि ओग्गहे अणुनवेयवे सिया ॥ सू० २७॥
॥ ववहारे सत्तमो उद्देसो ॥७॥ छाया-तस्य राजपरावर्तेषु असंस्तृतेषु व्याकृतेषु व्यवच्छिन्नेषु परपरिगृहीतेषु भिक्षुभावस्याऽर्थाय द्वितीयमपि अवग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः स्यात् ॥ सू० २७ ॥
__॥ व्यवहारे सप्तम उद्देशः ॥७॥ भाष्यम्-‘से रज्जपरियटेसु' 'से' तस्य श्रमणस्य राजपरावर्तेषु यत्र पूर्वराज्ञः परिवर्तनं जातम् पूर्वराज्ञि कालंगते सति तत्रापरो राजाऽभिषिक्तस्तद्देशेषु 'असंथडेसु' असंस्तृतेषु असमर्थेषु - अपरराजाऽऽक्रमणनिवारणार्थमशक्तेषु, कोऽप्यन्यो राजा तत्रागत्य तद्राज्यं विलुम्पितुं शक्नोति तादृशेषु त्रुटितपूर्वराज्यसंस्थितिष्वित्यर्थः 'वोगडे' व्याकृतेषु-विकृति प्राप्तेषु अन्यवंशीयैर्दायादैा विभज्य स्वायत्तीकृतेषु 'वोच्छिन्नेसु' व्यवच्छिन्नेषु-व्यपगतेषु पूर्ववंशीयराजशासनेषु, अतएव 'परपरिग्गहिएम' परपरिगृहीतेषु, परेण प्रत्यन्तरराज्ञा स्वाधीनीकृतेषु 'भिक्खुभावस्स अट्ठाए' भिक्षुभावस्याऽर्थाय, तत्र भिक्षोः-श्रमणस्य भावः-ज्ञानदर्शन-चारित्ररूपः, तस्याऽर्थाय प्रयोजनायय थाऽवस्थितभिक्षुभावसंपादनायेत्यर्थः 'मम भिक्षुभावो मा खण्डितो भूयात् परिपूर्णो भवतु तदर्थ'मिति, अथवा भिक्षुभावोऽचौर्याख्यं तृतीयं व्रतं तस्याऽर्थायअचौर्यव्रतपरिरक्षायै 'दोच्चपि' द्वितीयमपि वारम् , एकवारं पूर्वराजसमीपे अवग्रहस्याऽनुज्ञापना
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कृताऽऽसीत् , राजपरावर्ते जाते द्वितीयमपि वारम्-तसिंहासना सीनराजसमीपे 'ओग्गहे अणुन्नवेयवे सिया' अवग्रह:--अनुज्ञापयितव्यः स्यात् , तादृशपरिस्थितिसद्भावे द्वितीयमपि वारमवनहस्याऽनुज्ञापना कर्तव्येति भावः । यत्र प्रदेशे पूर्वराजा कालं गतः तस्य पूर्वावस्थितस्य राज्ञो राज्यस्थितिरपि परावृत्ता दायादैविभागोऽपि कृतः, अन्येन वा केनचित् राज्ञा तदासनं समासादितं तादृशेषु राजपरावर्तेषु द्वितीयमपि वारं श्रमणैः स्वकीयभावस्य ज्ञान-दर्शन-चरित्ररूपस्याऽचौर्यव्रतस्य च रक्षार्थमवग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः, अन्यथा अदत्तादानदोषः समापतेति भावार्थः । एवं द्वितीयमपि वारम् अनुग्रहाऽननुज्ञापनायामात्मविराधना संयमविराधना च संभवति, यथा-स नूतनो राजा निर्विषयत्वं कुर्यात् , जीवनस्य भेदं वा कुर्यादित्याद्यात्मविराधनासंभवः, संयमविराधना चाज्ञाभङ्गादिरूपेति तस्मात् यत्र स्थिरो जातः स एव पुनरनुज्ञापयितव्यः ॥ सू० २७॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "व्यवहारसूत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायां सप्तम उद्देशः समाप्तः ॥७॥
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॥ अथ अष्टमोद्देशकः॥ व्याख्यातः सप्तमोदेशकः, अथाष्टमः प्रारभ्यते, अस्य सप्तमोद्देशकेन सह कः सम्बन्धः ! इति सम्बन्धप्रतिपादनार्थमाह भाष्यकारः-'पुव्वं चरमे' इत्यादि । गाथा-पुव्वं चरमे रणो, ओग्गहऽणुण्णावणा तो पच्छा ।
संथारग कायव्वं, किज्जइ इह वण्णणं तस्स ॥१॥ छाया-पूर्व चरमे राशः अवग्रहानुज्ञापना ततः पश्चात् ।
संस्तारकं कर्त्तव्यम्, क्रियते इह वर्णनं तस्य ॥१॥ व्याख्या-'पुब्छ' इति । पूर्व सप्तमोद्देशके चरमे-चरमसूत्रे सप्तमोद्देशकस्याऽन्तिमे सूत्र 'रण्णो' राज्ञः •अवग्रहानुज्ञापना-वसतिवासार्थमाज्ञामार्गणा कथितेति शेषः 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् तदनन्तरं 'संथारग' लुप्तविभक्तिकमिदंपदं तेन संस्तारकं पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् शय्यासंस्तारकं शय्या च संस्तारकश्चेति समाहारे तत् कर्त्तव्यं भवेदिति । इह-अस्मिन् अष्टमोद्देशकस्यादिसूत्रे तस्य शय्यासंस्तारकस्य वर्णनं क्रियते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्याऽस्याष्टमोदेशकस्येदमादिमं सूत्रम्-'गाहा' इत्यादि ।
सूत्रम्-गाहा उ पज्जोसविए ताए गाहाए ताए पएसाए ताए ओवासंतराए जमिणं जमिणं सेज्जासंथारगं लभेज्जा तमिणं तमिणं ममेव सिया, थेरा य से अणुजाणेज्जा तस्सेव सिया, थेरा य से नो अणुजाणेज्जा एवं से कप्पइ अहारायणियाए सेज्जासंथारगं पडिगाहेत्तए ॥ सू०१॥
छाया-गाथायाम् ऋतौ पर्युषितः तस्यां गाथायां तस्मिन् प्रदेशे, तस्मिन् अबकाशान्तरे यदिदं यदिदं शय्यासंस्तारकं लमेत तदिदं तदिदं ममैव स्यात्, स्थविराश्च तस्याऽनुजानीयुः तस्यैव स्यात् , स्थविराश्च तस्य नो अनुजानीयुः एवं तस्य कल्पते यथारात्निकतया शय्यासंस्तारकं परिग्रहीतुम् ॥ सू०१॥
भाष्यम्-'गाहा' गाथा, गाथाशब्दोऽत्र गृद्ववाचकः 'गाथापतिः-गृहपति'रिति सर्वत्र लभ्यमानत्वात् , तेन गाथा-गृहं यदवग्रहेण प्राप्तम् , गृहस्य त्रिविधोऽवग्रहो भवति, तथाहि-ऋतुबद्धसाधर्मिकावग्रहः १, वर्षावाससाधर्मिकावग्रहः २, वृद्धावाससाधर्मिकावग्रहश्च ३ इति । तत्र 'उउ' ऋतौ ऋतुबद्धे काले, वर्षावासातिरिक्ते हेमन्तग्रीष्मरूपे, उपलक्षणाद् वर्षाकाले वृद्धावासे वा 'पज्जोवसिए' पर्युषितः-निवसित इति गाथायाम् ऋतौ पर्युषितः 'ताए गाहाए' तस्यां गाथायां
व्य, २४
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१८६
व्यवहारसूत्रे
यस्मिन् गृहे ऋतुबद्धेकाले निवसति तस्मिन् गृहे 'ताए पसाए' तस्मिन् प्रदेशे यस्मिन् गृहप्रदेशे तिष्ठति तस्मिन् प्रदेशे - अन्तर्बहिरादिलक्षणे 'ताए ओवासंतराए' तस्मिन् अवका शान्तरे - द्वयोर्मध्यभागलक्षणे 'जमिणं जमिणं सेज्जासंथारगं लभेज्जा' यदिदं यदिदं शय्यासंस्तारकम् - शय्या च संस्तारकश्चेति समाहारे शय्यासंस्तारकम् यद् यत् शयनोपयोगि स्थानं मदभिलषितं लभेत प्राप्नुयात् 'तमिणं तमिणं ममेव सिया' तदिदं तदिदं सर्वं ममैव स्यात् - भवतु इति ब्रूते श्रमणस्तदा यदि 'थेरा य से अणुजाणेज्जा' स्थविराश्च गच्छनायका आचार्याः तस्याशठभावम् अवगम्य, अशठेभावो नाम - मम श्लेष्मा प्रस्पन्दते स्वपतो मम श्लेष्माधिक्यं जायते अतो निर्वातस्थानमनुजानीत, अथवा अमुकं साधुमहं सदैव प्रतिपृच्छामि तत एतत्पार्श्वे मम शय्या संस्तारकभूमिं यूयमनुजानीत, इत्यादिविषये तस्य ऋजुभावं ज्ञात्वा 'अणुजाणेज्जा' अनुजानीयुः - आज्ञां दद्युः, यथा - ' यदिदं यदिदं त्वया लब्धं तत्सर्वं शय्यासंस्तारकं तवैव भवतु ' तदा तत्सर्वं शय्यासंस्तारकम् ' तस्सेव सिया' तस्यैव - यो हि श्रमण एवं ब्रूते - ममेदं सर्वं तस्यैव तत् शय्यासंस्तारकं स्यात् भवेत् । अथ यदि कदाचित् याचकस्य श्रमणस्य पूर्वोक्तविषये शठभावो लक्ष्यते तदा 'थेरा य से णो अणुजाणेज्जा' स्थविराश्च तस्य श्रमणस्य शठभावेन कथनात् नो अनुजानीयुः - नाज्ञां दधुः तदा एवं से कप्पर अहारायणियाए' एवम् स्थविरा - ज्ञाया अभावे तस्य कल्पते यथारात्निकतया : रत्नाधिकमर्यादया यल्लभ्यते तत् 'सेज्जासंथारगं पडिग्गाहिए' शय्यासंस्तारकं प्रतिग्रहीतुम् स्वीकत्तु कल्पते, न तत्रेतस्ततः कर्त्तव्यमिति भावः । ऋतुबद्धे काले वर्षाकाले वा गृहे वसन् साधुः तत्र गृहे तत्प्रदेशे तदवकाशान्तरे वा यद् यत् शय्यासंस्तारकं लभते तत्तत् सर्वं स्थविरानुज्ञयैव लघुज्येष्ठादिमर्यादया प्रतिग्रहीतुं कल्पते न तु स्वेच्छयेति तात्पर्यम् ॥ सू० १ ॥
पूर्वं शय्या संस्तारकस्थानविधिरुक्तः सम्प्रति शय्यासंस्तारकगवेषणविधिमाह - 'से य'
सूत्रम् —से य अहालहुस्सगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा जं चक्किया एगेणं हत्थेणं ओगिज्झ जाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा परिवहित्तए एस मे हेमंतगिम्हासु भविस्सइ ॥ सू० २ ॥
छाया- - स च यथालघुस्वकं शय्यासंस्तारकं गवेषयेत् यत् शक्नुयात् एकेन हस्तेनाऽवगृह्य यावदेकाहं वा द्वयह वा त्र्यहं वा अध्वानं परिवोढुम् एतन्मे हेमन्त -- ग्रीष्मेषु भविष्यति ॥ सू० २ ॥
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भाष्यम् उ० ८ सू०२-५
अल्पभारशय्यासंस्तारकग्रहणविधिः १८७ भाष्यम्-'से य' स च भिक्षुः 'अहालहुस्सगं' यथालघुस्वकम्-एकान्ततो लघुकमिति यथालघुस्वकम् अत्यन्ताऽल्पभारमित्यर्थः 'सेज्जासंथारगं' शय्यासंस्तारकम् तत्र शय्या शरीरप्रमाणा संस्तारकः सार्धतृतीयहस्तप्रमाणकः, उभयोः समाहारे शय्यासंस्तारकं तत् 'गवेसेज्जा' गवेषयेत् , कीदृशं यथालघुस्वकम्-'जं चक्किया एगेण हत्थेण ओगिज्झ' यत्-यादृशं शय्यासंस्तारकं शक्नुयात्-समर्थो भवेत् एकेन हस्तेनाऽवगृह्य-गृहीत्वा 'जाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा' यावदेकाहम्-एकविश्रामपर्यन्तम्, व्यहम् द्विविश्रामम् त्र्यहम्त्रिविश्रामं यावत् , 'अद्धाणं परिवहित्तए' अध्वानम्-मार्ग परिवोढुं शक्नुयात् । 'अहन्'शब्दोऽत्र विश्रामवाचकः आहारशय्यासंस्तारकादेः क्रोशद्वयादुपरि नयनस्य शास्त्रे प्रतिष्ठिद्धत्वादिति । किमर्थमेवं कुर्यात् ! तत्राह-'एस मे हेमंतगिम्हासु भविस्सई' एतन्मे शयसंस्तारकं हेमन्तग्रीष्मेषु-हेमन्तग्रीष्ममासेषु उपयोगि भविष्यति ॥ सू० २ ॥
एतदेव वर्षावासमधिकृत्याऽऽह से य' इत्यादि ।
सूत्रम-से य अहालहुस्सगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा जं चक्किया एगेण हत्थेण ओगिज्झ जाव एगाई वा दुयाह वा तियाई वा अद्धाणं परिवहित्तए, एस में वासावासासु भविस्सइ ॥ सू० ३॥
छाया-स च यथालघुस्वकं शय्यासंस्तारकं गवेषयेत् यत् शक्नुयात् एकेन.हस्तेनाऽवगृह्य यावत् एकाहं वा द्वयहं वा व्यहं वा अध्वानं परिबोदुम्, एतन्मे वर्षावासेषु भविष्यति ॥ सू० ३॥
भाष्यम्-'से य' स च भिक्षुः 'अहालहुस्सगं' यथालघुस्वकम् एकान्ततो लघुकम्, इत्यादि सर्व पूर्वसूत्रवदेव व्याख्येयम् , नवरम्-अयं विशेषः-'एस मे वासावासासु भविस्सई' एतत् शय्यासंस्तारकं मे-मम वर्षावासेषु-वर्षाकालिकमासेषु उपयोगि भविष्यतीति ॥ सू० ३ ॥
एतदेव पुनः वृद्धावासमधिकृत्याऽऽह—'से य' इत्यादि ।
सूत्रम् –से य अहालहुस्सगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा जं चक्किया एगेण हत्थेणं ओगिज्झ जाव एगाह वा दुयाहं वा तियाहं वा चउयाह वा पंचाहं वा दरमवि अद्धाणं परिवहित्तए, एस मे वुड्ढावासेसु भविस्सइ ।। सू० ४॥
छाया-स च यथालघुस्वकं शय्यासंस्तारकं गवेषयेत् यत् शक्नुयात् एकेन हस्तेन अवगृह्य यावदेकाहं वा द्वयहं वा व्यहं वा चतुरहं वा पञ्चाहं वा दूरमपि अध्वानं परिबोदुम् , पष मे वृद्धावासेषु भविष्यति ॥ सू० ४॥
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व्यवहारसूत्रे
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भाष्यम् – 'से य' स च श्रमणः 'अहालहुस्सगं' यथालघुस्वकम् इत्यादि सर्वं द्वितीय सूत्रवदेव व्याख्येम्, विशेषोऽत्रायम् - यत्पूर्वसूत्रद्वये त्र्यहं यावद वहनं प्रतिपादितम् अत्र तु - 'एगाई वा दुयाहं वा तियाहं वा चउयाह वा पंचाहं वा' इति एकदिवसादारभ्य पञ्चदिवसान् यावत्, पञ्च विश्रामान् यावत् इति कथितम्, पुनश्चायं विशेषः - ' दूरमवि अद्धाणं परिवहित्तए' पञ्चविश्रामपर्यन्तं दूरमपि अध्वानं परिवोढुं शक्नोति चेत् तं गवेषयेदिति । अयं भावः - वृद्धत्वेन पञ्चविश्रामान् कृत्वा नेतुं कल्पते किन्तु ते पञ्च विश्रामा अपि कोशद्वये एव भवितुमर्हन्ति न तु तदुपरि नेतुं कल्पते, अथवा शरीरदौर्बल्याद् द्वित्रादिदिवसानपि मार्गे स्थित्वा स्थित्वा गम्यते किन्तु तेन मार्गेण क्रोशद्वयपरिमितेनैव भाव्यम्, एषा शास्त्रमर्यादेति । किमर्थमित्याह'एस मे वुड्ढावासेसु भविस्सई' एतत् शय्यासंस्तारकं मे वृद्धावासेषु उपयोग भविष्यतीति ॥ सू० ४ ॥
૧૦૮
पूर्वं शय्या संस्तारकस्य मार्गवहनसूत्रं प्रोक्तम्, मार्गवहनप्रसङ्गात् स्थविरभावेनाऽसहायानां स्थविराणां दण्डकादि कल्पते इति भिक्षाचर्यायां तद्ग्रहणस्थापनविधिमाह-- 'थेराणं' इत्यादि ।
सूत्रम् - थेराण र भूमिपत्ताणं कप्पर दंडए वा भंडए वा छत्तए वा मत्त वा लट्ठियं वा भिसे वा चेले वा चेलचिलिमिलि वा चम्मे वा चम्मकोसे वा चम्मपलिच्छेयण वा अविरहिए ओवासे ठवेत्ता गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा पविसित्तए वा निक्खमित्त वा, कप्पर ह संनियट्टचाराणं दोच्चंपि ओग्गह अणुन्नवेत्ता परिहारं परिहरिए । सू० ५ ॥
छाया - स्थविराणां स्थविरभूमिप्राप्तानां कल्पते दण्डकं वा भाण्डकं वा छत्रकं वा मात्रकं वा यष्टिकां वा भिसं वा चेलं वा चेलचिलिमिलीं वा चर्म वा चर्मकोषं वा चर्मपरिच्छेदनकं वा अविरहिते अवकाशे स्थापयित्वा गाथापतिकुलं भक्ताय वा पानाय वा प्रवेष्टुं वा निष्क्रमितुं वा, कल्पते खलु संनिवृत्तचाराणां द्वितीयमपि अवग्रहमनुशाप्य परिहारं परिहर्तुम् ॥ सू० ५ ॥
भाष्यम् – 'थेराणं' स्थविराणां वृद्धानाम् - जङ्घाबलक्षीणानाम् - जरसा जीर्णानाम् 'थेरभूमिपत्ताणं' स्थविरभूमिप्राप्तानाम् दीक्षा - श्रुत-वयोभिर्वृद्धानां ज्वरादिकारणेन गन्तुमशक्नुवतां वा 'कप्पड़' कल्पते 'दंडए वा' दण्डकं - रजोहरणदण्डकं वा 'भंडए वा' भाण्डकं वा - अनेकविध - मुपकरणजातं मृत्पात्रं वा 'छत्तए वा' छत्रकं वा मस्तकाच्छादनकं वस्त्रम् नतु लोकप्रसिद्धं छत्रं तस्याऽनाचीर्णरूपत्वेन दशवैकालिके निषेधात् 'मत्तए वा' मात्रकं वा तत्र मात्रकमुच्चारप्रस्रवण
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भाष्यम् उ० ८ ० ५--७
स्थविराणामुपकरणप्रकारविधि १८९
खेलसम्बन्धिपात्रम् 'लट्ठियं वा यष्टिका - र्सार्द्धद्विहस्तप्रमाणा यदालम्बनेन गम्यते ताम् 'भिसे वा' 'भिस' इति मुनीनामुपवेशनपट्टिका, या माश्रित्यो पविशति ताम्, 'चेले वा' चेलं वा-चेलं - देहाच्छादनवस्त्रं 'पछेवडी' 'चादर' इति प्रसिद्धम्, 'चेलचिलिमिलिं वा' वस्त्रनिर्मितां जवनिकां 'चम्मे वा' चर्म वा तत्र चर्म - सूचिकया वस्त्रसन्धानसमये अंगुलीरक्षार्थं चर्मनिर्मिताङ्गुलीयकं वा, 'चम्मको सेवा' चर्मकोषं चर्मकुत्थलिकां या कण्टकोद्धरणकण्टकरक्षणार्थं धियते ताम्, 'चम्मपरिच्छेयणए वा' चर्मपरिच्छेदनकं वा चर्मवेष्ठनकम् एतानि वस्तूनि 'अविरहिए ओवासे' अविरहितेऽवकाशे स्थापयित्वा तत्र अविरहिते - जनविरहवर्जिते यत्र जना गृहपतिर्वा वर्त्तते तत्र निरापदि अवकाशे प्रदेशे 'ठवेत्ता' स्थापयित्वा 'गाहावइकुलं' गाथापतिकुलं गृहस्थगृहम् 'भत्ताए वा पाणाए वा' भक्ताय वा पानाय वा भक्तपानादिप्राप्तये 'पविसित्तए वा' प्रवेष्टुं वा-गाथापतिगृहे प्रवेशं कर्तुम् 'निक्खमित्तए वा' निष्क्रमितुं वा प्रविष्टानां प्रत्यावर्त्तितुं वा कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । स्थविरादिकारणेन कल्प्यत्वेन प्रतिपादितानि दण्डादिवस्तूनि अशून्ये गृहादौ स्थापयित्वा भिक्षाचर्यार्थे गृहस्थगृहे गमनं कल्पते न तु तानि गृहीत्वेत्यर्थः । भिक्षातः पूर्वं यद् यद् वस्तु दण्डादिकं गृहस्थगृहे स्थापितं तत् पुनर्गृहस्थाज्ञामादायैव उपभोक्तुं कल्पते इत्याह-- ' कप्पर' इत्यादि, 'कप्पर ह' कल्पते खलु 'संनियहचाराणं' संनिवृत्त चाराणाम् - संनिवृत्तः - प्रतिनिवृत्तः चारः - चरणं - भ्रमणं येषां ते संनिवृत्तचारास्तेषाम् - भिक्षाचर्यातः प्रत्यागतानामित्यर्थः स्थविराणाम् ' दोच्चंपि' प्रथमं तु आज्ञया गृहीतान्येवेति प्रथमतः 'दोच्चपि' इति कथितम्, द्वितीयमपि वारम् 'ओग्गह' अवग्रहम्, 'अणुन्नवेत्ता' अनुज्ञाप्य - अनुज्ञामादायेत्यर्थः ' परिहारं' परिहारम् - उपभोग्यं वस्तुजातम् 'परिहरित्तए' परिहर्तुम्धारणेन परिभोगेन चोपभोक्तुं कल्पते, स्वस्य स्थापितस्यापि वस्तुनः पुनर्ब्रहणसमये श्रमणै गृहस्थाज्ञा अनुज्ञातव्येति भावः । सू० ५ ॥
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पूर्वं स्थविरानधिकृत्योपकरणग्रहणस्थापनविधिरुक्तः, साम्प्रतमुपाश्रय स्थितशय्यासंस्तारकस्यान्यत्र नयने निषेधमाह - 'नो कप्पर णिग्ग' याण वा' इत्यादि ।
सूत्रम् - नो कप्पर णिग्गंथाण का णिग्गंथीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं दोच्चंपि ओग्गहं अणणुन्नवेत्ता बहिया नीहरित्तए । सू० ६ ॥
छाया - नो कल्पते निर्मन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं वा सागारिकसत्कं वा शय्यासंस्तारकं द्वितायमपि वारमननुज्ञाप्य बहिर्निर्हर्तुम् ॥ सू० ६ ॥
भाष्यम् – 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा 'पाडिहारियं वा' प्रातिहारिकं वा अल्पकालायोपभोगार्थं गृहस्थगृहादा
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व्यवहारस्त्रे नीतम् , 'सागारियसंतियं वा' सागारिकसत्कं वा-शय्यातरसम्बन्धि वा यदुपाश्रये स्थितं, यद् अन्यसत्कं वा तस्य शय्यातरस्य तदन्यस्य वा संबन्धि यत् 'सेज्जासंथारग' शय्यासंस्तारकम् पीठफलकादिकमुपकरणजातं तद् यदि पूर्णे मासे बहिरन्यत्र गन्तुकामो मुनिर्यत् शय्यातरादिदत्तं शय्यातरादिसंबन्धि वा तत्र पूर्वीपाश्रये स्थितं शय्यातरादिसंस्तारकमन्यत्राऽलामसंभवे बहिर्नेतुमिच्छेत्तदा पूर्वमवग्रहोऽनुज्ञापितोऽपि 'दोच्चंपि' द्वितीयमपि वारं पुनरपीत्यर्थः 'ओग्गह अणणुन्नवेत्ता' अवग्रहमननुज्ञाप्य पीठफलकादिस्वामिन आज्ञा न गृहीत्वा 'बहिया नीहरित्तए' बहिामान्तरादौ पोठफलकादि निर्हर्तुम्-नेतुं न कल्पते इति सम्बन्धः । अयं भावः-कोऽपि साधुः साध्वी वा पूर्णे मासेऽन्यत्र गन्तुमिच्छेत्तदा-अन्यत्र तदलाभसम्भवे तस्य तस्या वा शय्यातराऽन्यश्रावकसम्बन्धिपीठफलकादेः पूर्वमाज्ञा गृहीताऽपि बहिर्नयनसमये पुनर्द्वितीयवारमपि पीठफकादिस्वामिन आज्ञामन्तरेण वसतेर्बहिस्तादृशमुपकरणजातं नीत्वा गन्तुं न कल्पते इति ॥ सू० ५ ॥
___पूर्व पूर्वगृहीतशय्यासंस्तारकस्याऽऽज्ञामन्तरेणाऽन्यत्र नयनं निषिद्धम् , सम्प्रति अन्यत्र तदलाभे किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिमाह - 'कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं दोच्चंपि ओग्गहं अणुन्नवेत्ता बहिया नीहरित्तए ॥ सू० ७ ॥
छाया- कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं वा सागारिकसत्कं वा शय्यासंस्तारकं द्वितीयमपि अवग्रहमनुज्ञाप्य बहिनिहर्तुम् ॥ सू० ७॥
भाष्यम्-अत्रास्मिन् सूत्रे पूर्वोक्तं शय्यासंस्तारकमाज्ञामादाय बहिर्नेतुं कल्पते, एतावानेव विशेषः, शेवं पूर्ववदेव ॥ सू० ७ ॥
शश्यासंस्तारकस्य समर्पणानन्तरं तस्य पुनर्ग्रहणे निषेधमाह-'नो कप्पई' इत्यादि ।
सूत्रम् -- नो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गथीण वा पाडिहारियं बा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं सव्वप्पणा अप्पिणित्ता दोच्चंपि ओग्गहं 'अणणुन्नवेत्ता अहिद्वित्तए, कप्पइ अणुनवेत्ता ॥ सू० ८॥
___ छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिकं वा सागारिकसत्कवा शय्यासंस्तारकं सर्वात्मना-अर्पयित्वा, द्वितीयमपि वारम् अवग्रहम ननुशाप्या. ऽधिष्ठातुम् , कल्पतेऽनुज्ञाप्य ॥ सू० ८॥
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भाग्यम् ३०८ सू० ८-११
शय्यासंस्तारकावप्रहानुज्ञापनाविधिः १९१
भाष्यम् – 'नो कप्पड़' नो कल्पते 'णिग्गंथाण वा' निर्मन्थानां वा 'णिग्गंथीण बा' निर्ग्रन्थीनां वा, 'पाडिहारियं वा' प्रातिहारिकं वा कार्यानन्तरं प्रत्यावर्त्तनीयम् ' सागारियसंतियं वा' सागारिकत्सकं वा शय्यातरसम्बन्धि वा 'सेज्जासंथारगं' शय्या संस्तारकम् - पीठ - फलकादिकम् 'सव्वपणा अप्पिणित्ता' सर्वात्मना सर्वस्वत्वनिवृत्तिपूर्वकं यथा स्यात् तथा वस्तुस्वामिने समय यदि दत्तोपकरणस्य पुनरप्यावश्यकता भवेत् तदा 'दोच्चंपि द्वितीयमपि वारम् 'ओग्गहं अणणुन्नवेत्ता' अवग्रहमननुज्ञाप्य - पुनरपि आज्ञामनादाय ' अहित्तिए' अधिष्ठातुम् पुनस्तस्योपकरणस्योपभोगं कर्त्तुं न कल्पते । तर्हि कथं कल्पते ? तत्राह - 'कप्पड़' इत्यादि, 'कप्पइ अणुन्नवेत्ता' कल्पतेऽनुज्ञाप्य - आज्ञामादाय उपभोक्तुं कल्पते इति भावः ॥ सू० ८ ॥
पूर्वसूत्रे पीठफलकादिकमाश्रित्य विधिनिषेधौ कथितौ सम्प्रति - उपाश्रयमाश्रित्य ग्रहणाग्रहणयोर्विधिनिषेधौ कथयितुमाह - 'नो कप्पड़' इत्यादि ।
सूत्रम् - नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुव्वामेव ओग्गह ओगिहित्ता त पच्छा अणुन्नवेत्तए || सू० ९ ॥
छाया--नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पूर्वमेव अवग्रहमवगृह्य ततः पश्चात् अनुज्ञापयितुम् ॥ सू० ९ ॥
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भाष्यम् – 'नो कप्पर' नो कल्पते 'णिग्गंथाण वा' निर्ग्रन्थानां वा 'णिग्गंथीण वा ' निर्ग्रन्थीनां वा ‘पुव्वामेव' पूर्वमेव - आज्ञा ग्रहणात्पूर्वकाल एव 'ओग्गहं ओगिण्हित्ता' अवग्रहमवगृह्य-पीटफलकादिकं गृहीत्वा 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् तदनन्तरम् ' अणुन्नवेत्तए' अनुज्ञापयितुम् - आज्ञां ग्रहीतुं न कल्पते । अयं भावः - पूर्वं वस्तुस्वामिसकाशात् पीठफलकादि प्राप्यर्थम् अनुज्ञा ग्रहोतव्या । आज्ञां विनैव किमपि वस्तुजातं गृहीत्वा तदनन्तरं तद्विषये आज्ञां गृह्णीयात्तन्न कल्पते, अदत्तादान दोषापत्तेः, एवं करणे श्रावकसंयतयोः कलहसम्भवोऽपि ॥ सू० ९ ॥
पूर्वं वस्तु स्वायत्तीकृत्य पश्चादनुज्ञापनं निषिद्धम्, सम्प्रति तद्विपर्यये सूत्रमाह - ' कप्पड़' इत्यादि ।
सूत्रम् - कप्पर णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पुव्वामेव ओग्गह अणुन्नवेत्ता aa पच्छा ओगoिहत्तए | सू० १० ॥
छाया – कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पूर्वमेवाऽवग्रहमनुज्ञाप्य ततः पश्चाद् अवग्रहीतुम् ॥ सू० १० ॥
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व्यवहारसूत्र भाष्यम् –'कप्पई' कल्पते- 'णिग्गयाण वा' निर्ग्रन्थानां वा 'णिग्गयीण वा' निर्मन्थीनां वा 'पुवामेव ओग्गरं अणुन्नवत्ता पूर्व प्रथमम् वस्तुग्रहणात् प्रागेव अवग्रहम् अनुज्ञाप्य-श्रावकेभ्यः पीठफलकादिग्रहणविषयिणीमाज्ञामादाय 'तओ पच्छा' ततः पश्चात्-अनुज्ञापनानन्तरम् , 'ओगिण्हित्तए' अवग्रहीतुम्-पीठफलकादि ग्रहीतुं कल्पते इति ॥ सू० १० ॥
पूर्वमाज्ञामादाय पश्चात् पीठफलकादि ग्रहीतव्यमित्युक्तम् , सम्प्रति पीठफलकादीनामन्यपालामे किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिमाह-'अह पुण' इत्यादि ।
सूत्रम्-अह पुण एवं जाणेज्जा इह खलु णिग्गथाण वा णिग्गंथीण वा णो मुलभे पाडिहारिए सेज्जासंथारए-त्ति कटु एवं ण्ह कप्पइ पुन्नामेव ओग्गह
ओगिण्हित्ता तओ पज्छा अणुन्नवेत्तए, मा दुहओ अज्जो ! वइ अणुलोमेण अणुलोमियव्वे सिया ॥ सू०११॥
छाया--अथ पुनरेवं जानीयात् इह खलु निर्ग्रन्थानां वा निग्रन्थीनां वा नो सुलभं प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकम् , इति कृत्वा खलु कल्पते पूर्वमेव अवग्रहमवगृह्य ततः पश्चात् अनुज्ञापयितुम्, मा द्विधात आर्याः ! वदत अनुलोमेन अनुलोमयितव्यः स्यात् ॥ सू० ११॥
भाष्यम्-'अह पुण एवं जाणेज्जा' अथ यदि कदाचित् पुनः एवमेतजानीयात् , किं जानीयात्तत्राह-इहेत्यादि, 'इह खलु' इह-अत्र ग्रामादौ खलु 'णिग्गथाण वा' निर्ग्रन्थानां वा, 'णिग्गीण वा' निर्ग्रन्थीनां वा, 'नो सुलभे' नो सुलभः-न सुखेन लभ्यः-सरलतया न प्राप्तव्यः 'पाडिहारिए सेज्जासंथारए' प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकं पीठफलकादिकमुपकरणजातम् ऋतुबद्धकालग्राह्यं वर्षाकालग्राह्यं वा, 'त्ति कटु' इति कृत्वा-इति विज्ञाय ‘एवं ण्हं कप्पइ' एवम् अनेन कारणेन खलु 'कप्पइ' कल्पते, 'पुवामेव ओग्गहं ओगिंण्हित्ता' पूर्वमेवाऽनुज्ञापनतः प्रथममेव अवग्रह-पीठफलकस्थानकादिकमवगृह्य-गृहीत्वा 'तो पच्छा' ततः पश्चात्-अवग्रहग्रहणानन्तरम् 'अणुन्नवेत्तएं अनुज्ञापयितुम् अनुज्ञां ग्रहीतुम् । प्रथममवग्रहग्रहणं कर्तव्यम् तदनन्तरमनुज्ञापना कर्त्तव्येत्यर्थः, एवं करणे यदि तददाने साधुसंयतानां विवादो भवेतदा आचार्याः श्रमणान् प्रति बुवते-'मा दुह ओ अज्जो वई' मा हे आर्याः ! द्विधातो वदत, एक तु-अस्य शय्यासंस्तारकं वसतिं वा गृह्णीथ द्वितीयं परुषाणि भाषध्वे, हे आर्याः ! अयं गृहस्वामी एतदाज्ञयैव वस्तुजातं ग्रहीतव्यम् इति परम्पराप्राप्तो मुनीनां व्यवहारस्तस्मात् क्षमध्वम् , इत्यादिना 'अणुलोमेण' अनुलोमेन- अनुकूलेन वचसा, यदि भवद्भिः कारणवशाद् गृहस्वामिन अज्ञामन्तरेण वसत्यादिवस्तुजातस्य ग्रहणं कृतम् तदाऽनेन गृहस्वामिना सह
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भाष्यम् उ० ८ सू० १२
पतितोपलब्धोपकरणविषयो विधः १९३ विवादो न विधातव्यः, किन्तु शमतां पुरस्कृत्यैव आज्ञा याचध्वम् , एवं प्रकारेणाऽनुकूलेन वचसा स वस्तुस्वामी 'अणुलोभेयव्वे सिया' अनुलोभयितव्योऽनुकूलयितव्यः स्यात् अनुकूलवचोभिः सागारिकसंयतानां कलहः समूलमुपशमयितव्यो भवेत् , तमनुकूलेन वचसाऽनुकूलयित्वा तत्र तिष्ठेयुः संस्तारकं वा गृह्णीयुरिति ।। सू० ११ ॥
उपर्युक्तसूत्रे वसतिमाश्रित्य कथितम् , सम्प्रति यदि कश्चिद् भक्तपानादिकमानेतुं श्रावकगृहं गतो भिक्षार्थं हिण्डन् वा यदि कस्यचित्साधोः किमप्युपकरणजातं तत्र पतितं पश्येत्तदा कि कर्त्तव्यमिति तद्विधिं दर्शयितुमाह-'णिग्गथस्स णं गाहावइकुलं' इत्यादि ।
सूत्रम्-णिग्गथस्स णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स अहालहुस्सए उपगरणजाए परिब्भटे सिया तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पइ से सागारकंडं गहाय जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-इमे भो अज्जो ! किं परिन्नाए ? से य वएज्जा-परिन्नाए तस्सेव पडिणिज्जायत्वे सिया, से य वएज्जा-नो परिन्नाए तं नो अप्पणा परिभुजेज्जा नो अन्नमन्नस्स दावए एग ते बहुफामुए थंडिले परिटबेयव्वे सिया ॥ सू० १२ ॥
छाया--निर्ग्रन्थस्य खलु गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिक्षया अनुप्रविष्टस्य यथा लघुस्वकमुपकरणजातं परिभ्रष्टं स्यात् तच्च कश्चित् सार्मिकः पश्येत् कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा यत्रैव अन्यमन्यं पश्येत् तत्रैव एवं वदेत्-इदं भो आर्य ! किं परिक्षातम् ? स च वदेत्-परिज्ञातम् तस्यैव प्रतिनिर्यातव्यं स्यात् । स च वदेत्-नो परिक्षातम् तन्नो आत्मना परिभुञ्जीत नो अन्यस्याऽन्यस्य दद्यात् एकान्ते वहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यात् ।। सू० १२ ॥
भाष्यम्-'णिग्गथस्स णं' निर्ग्रन्थस्य खलु 'गाहावइकुलं' गाथापतिकुलम्-गृहस्थगृहम् 'पिंडवायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया, तत्र-पिण्डम्-भक्तं पानं वा, तस्य पातप्रतिज्ञया ग्रहणेच्छया 'अणुपविट्ठस्स' अनुप्रविष्टस्य-भक्तं पानं वा आनेष्यामीत्याकारबुद्धया गृहपतिगृहं प्रविष्टस्य भिक्षाची हिण्डतो वा यस्य कस्यचित् श्रमणस्य 'अहालहुस्सए' यथालघुस्वकम् -एकान्तलघुकं जघन्यं मध्यमं वा 'उवगरणजाए' उपकरणजातम्-उपकरणविशेषः लघुपात्रादिकं वा 'परिन्भटे सिया' परिभ्रष्टं-गृहस्थगृहे मार्गे वा पतितं स्यात् । अथ च यस्य कस्यचिदुपकरणजातं पतितं तस्य मदीयमुपकरणं पतितमेवंप्रकारिका स्मृतिरपि अपगता भवेत्तदा 'तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा' तच्च पतितं श्रावकगृहेऽन्यत्र वा उपकरण१ यहाँ पूर्वाचार्यभाष्यगा. १४७ से १५२ में साधुभाषा के विरुद्ध भाचरण लिखा है। व्य. २५
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व्यवहारसूत्रे
जातं कश्चिदन्यो मुनिर्भिक्षापानार्थ हिण्डन् तत्र गतो वा साधर्मिकः श्रमणः पश्येत् तथा इदमुपकरण न गृहस्थस्य, किन्तु कस्यचित्साधोरेव इत्येवंलक्षणपरिज्ञानेन जानीयात्, तदा 'कप्पर से सागारकडं गहाय' कल्पते 'से' तस्य उपकरणजातदर्शकस्य साधर्मिकस्य साधोः सागारकृतम् अगारसहितम् यथा-यस्येदमुपकरणजातमस्ति स यदि मिलिष्यति तदा तस्मै दास्यामीति बुद्ध्या गृहीत्वा तदनन्तरम् ' जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा' यत्रैव स्थानेऽन्यमन्यम् अपराऽपरं श्रमणं पश्येत् तत्रैव स्थाने एवम् - वक्ष्यमाणप्रकारेण वदेत् यं यं पश्येत् श्रमणं तं तमेव पृच्छेदित्यर्थः । किं पृच्छेत्तत्राह – 'इमे भो अज्जो ! परिन्नाए' इदमुपकरणजातम् भो आर्य ! परिज्ञातम् ? उपलब्धमुपकरणजातं निष्काश्य साधर्मिकान्तरं दर्शयित्वा पृच्छेत् - यद् भो आर्य ! परिज्ञातं - स्वसकाशात्पतितमुपकरणजातं त्वया स्मृतं किम् ? जानासि किम् इदमुपकरणजातं मम ? इत्येवं तं श्रमणं पृच्छेदित्यर्थः एवं पृष्टे सति 'से य वएज्जा' स च वदेत् 'परिन्नाए ' परिज्ञातम् - अहं जानामि एतदुपकरणजातं मदीयं पतितम् इत्येवं वदेत् तदा 'तस्सेव पडिणिज्जायन्वे सिया' तस्यैव एवं वदतः प्रतिनिर्यातव्यम् - तस्मै समर्पयितव्यं स्यात्, यो वदेद् मदीयमेतदुपकरणम् तत्तस्मै तदा दातव्यमिति भावः ।
अथ यदि 'सेय वज्जा' स च वदेत् पृष्टः सन् कथयेत्, 'नो परिन्नाए' नो परिज्ञातम् यस्योपकरणविषये भवान् पृच्छति तदहं कस्येति न जानामि, तदा तत्तस्मै न समर्पणीयम् । तर्हि किं कर्त्तव्यमित्याह- 'तं नो' इत्यादि, 'तं नो अप्पणा परिभुंजेज्जा' तदुपकरणजातं नो आत्मना स्वयं परिभुञ्जीत न व्यवहियात्, 'नो अन्नमन्नस्स दावए' न वा अन्या - न्यस्य - अन्यान्यस्मै दद्यात् तद् उपकरणजातं न वाऽन्यस्मै दातव्यमित्यर्थः । अथ - यदि उपलब्धं तदुपकरणम् अनधिकारिणे न दद्यात्, न वा स्वयमुपभुञ्जीत तदा किं कर्त्तव्यमित्याह'एगंते' इत्यादि, 'एगंते बहुफासुए थंडिले परिद्ववेयन्वे सिया' एकान्ते बहुप्रासु स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यात्, तत्रैकान्ते - विजने - जनसंचरणरहितप्रदेशे बहुप्रासुके- द्वीन्द्रियादिजीवपरिवर्जिते स्थण्डिले - भूभागे परिष्ठापयितव्यमिति ॥ सू० १२ ॥
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पूर्व भिक्षाचर्यायां गतस्य साधोः पतितलब्धोपकरणविषये विधिरुक्तः, सम्प्रति विचारभूमि विहारभूमिं वा गतस्य पतितोपकरणविषये विधिमाह - 'णिग्गंथस्स णं बहिया' इत्यादि ।
सूत्रम् - णिग्गंथस्स णं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमिं वा निक्खंतस्स अहाल हुस्सए उबगरणजाए परिभद्वे सिया तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पड़ से सागारकडे गहाय जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा- वत्थेव एवं वएज्जा - इमे भो अज्जो !
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भाष्यम् उ० ८ सू०१३-१५
पतितोपलब्धोपकरणविषयो विधिः १९५ किं परिन्नाए ? से य वएज्जा-परिन्नाए तस्सेब पडिणिज्जायव्वे सिया, से य वएज्जा नो परिन्नाए तं नो अप्पणा परिभुजेज्जा नो अन्नमन्नस्स दावए एगंते बहुफासुए थंडिले परिदृवेयब्वे सिया” ॥ सू० १३ ॥
छाया --निर्ग्रन्थस्य खलु बहिर्विचारभूमि वा विहारभूमि वा निष्क्रान्तस्य यथालघुस्वकमुपकरणजातं परिभ्रष्टं स्यात् तच्च कश्चित् साधार्मिकः पश्येत् , कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा यत्रैवाऽन्यमन्यं पश्येत् तत्रैव एवं वदेत्-इदं भो आर्य ! किं परिक्षातम् ?, स च वदेत् परिज्ञातम् , तस्यैव प्रतिनिर्यातव्यं स्यात् , स च वदेत् नो परिक्षातम् तत् नो आत्मना परिमुञ्जीत, नो अन्यस्याऽन्यस्य दद्यात् एकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यात् ॥ सू० १३॥
भाष्यम् -'णिग्गंथस्स गं' निर्ग्रन्थस्य-श्रमणस्य खलु 'वियारभूमि वा' विचारभूमि वा बाह्यभूमिम् उच्चारप्रस्रवणभूमिम् , अथवा 'विहारभूमि वा' विहारभूमि वा स्वाध्यायादिभूमि प्रति 'णिक्खंतस्स' निष्क्रान्तस्य विचाराद्यर्थ बहिर्गतस्य श्रमणस्य,अवशिष्टं सर्वं पूर्ववद् व्याख्येयम् । सू० १३ ॥
पूर्व विचारभूमि विहारभूमि वा गतस्य साधोः परिभ्रष्टोपलब्धोपकरणजातविषये विधिरक्तः, सम्प्रति ग्रामानुग्रामं विहरतस्तद्विधिमाह-'णिग्गंथस्स णं गामाणुगाम' इत्यादि ।
सूत्रम् --णिग्गंथस्स णं गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स अन्नयरे उवगरणजाए परिन्भटे सिया तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पइ से सागारकडं गहाय दूरमेव अद्धाणं परिवहित्तए, जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेब एवं वएज्जा-इमे भे अज्जो ! किं परिन्नाए?, से य वऐज्जा परिन्नाए तस्सेव पडिणिज्जायव्वे सिया, से य वएज्जा-नो परिनाए तं नो अप्पणा परिभुजेज्जा नो अन्नमानस्स दावए, एगंते बहुफासुए थंडिळे परिद्ववेयव्ये सिया ॥ सू० १४ ॥
छाया-निर्ग्रन्थस्य खलु ग्रामानुग्राम द्रवतोऽन्यतरद् उपकरणजातं परिभ्रष्टं स्यात् तत् कश्चित् साधर्मिकः पश्येत् कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा दूरमेवाध्वानं परिवोदुम् , यत्रैवाऽन्यमन्यं पश्येत् तत्रैव एवं वदेत्-इदं भो आर्य ! किं परिज्ञातम् ? स च वदेत् परिक्षातम् तस्यैव प्रतिनिर्यातव्यं स्यात् , स च वदेत् -नो परिक्षातम् तत् नो आत्मना परिभुजीत नो अन्यस्याऽन्यस्य दद्यात् , एकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यात् । सू० १४ ॥
भाष्यम् –'णगंथस्स णं' निम्रन्थस्य खलु 'गामाणुगाम दुइज्जमाणस्स' ग्रामानुग्राम द्रवतः-एकस्माद् ग्रामाद् प्रामान्तरं प्रति विहारं कुर्वतः, 'अन्नयरे उवगरणजाए' अन्यतरत्-यत्
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व्यवहारसूत्रे किमपि प्रकारकमुपकरणजातं-वस्त्रपात्रादिकम् 'परिभट्टे सिया' परिभ्रष्टं-पतितं-विस्मृतं वा स्यात् 'तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा' तच्च पतितमुपकरणजातं यः कोऽपि साधर्मिकः श्रमणः पश्येत् तदा 'कप्पइ से सागारकडं गहाय' कल्पते तस्य सागारकृतं गृहीत्वा 'दूरमेव अद्धाणं परिवहित्तए' दूरमेवाध्वानं परिवोढुम्-दूरमार्गपर्यन्तं तस्योपकरणस्य वहनं कर्तुम् , तदनन्तरम् 'जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा' यत्रैव मार्गेऽन्यमन्यं-साधर्मिकान्तरं पश्येत्, इत्यादि सर्व द्वादशसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥ सू० १४ ॥
पूर्व प्रामानुग्राम विहरतो मुनेः परिभ्रष्टोपलब्धोपकरणजातविषये विधिरक्तः, सम्प्रति निम्रन्थनिर्ग्रन्थीभिरन्योऽन्यस्य गृहीताधिकपात्रादि यमुद्दिश्य गृहीतं तस्याऽऽज्ञामन्तरेणाऽन्यस्मै न दातव्यमिति तद्विधिमाह-'कप्पइ णिग्गंथाण वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-कप्पइ णिगंथाण वा, णिग्गंथीण वा अइरेगं पडिग्गई अनमन्नस्स अट्ठाए दूरमवि अद्धाणं परिवहित्तए वा धारित्तए वा परिग्गहित्तए वा, सो वा णं धारेस्सइ अहं वा णं धारेस्सामि अन्नो वा णं धारेस्सइ, नो से कप्पइ तं अणापुच्छिय अणामंतिय अन्नमन्नेसि दाउं वा, अणुप्पदाउं वा, कप्पइ से तं आपुच्छिय आमंतिय अन्नमन्नेसि दाउं वा अणुप्पदाउं वा ॥ सू० १५ ॥
छाया-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अतिरेकं प्रतिग्रहम् ( पतद्ग्रहम् ) अन्योन्यस्यार्थाय दूरमप्यध्वानं परिवोदुवा धारयितुं वा परिग्रहीतुं वा, स वा तद् धारयिष्यति, अहं वा तद् धारयिष्यामि, अन्यो वा तद् धारयिष्यति, नो तस्य कल्पते तमनापृच्छय, अनामन्त्र्य अन्यान्येषां दातुं वा, अनुप्रदातुं वा, कल्पते तमापृच्छय आमन्त्र्य अन्यान्येषां दातुं वा अनुप्रदातुं वा ॥सू. १५ ॥
भाष्यम्-'कप्पई' कल्पते 'निग्गथाणं वा' निम्रन्थानां वा 'णिग्गंथीण वा' निम्रन्थीनां वा 'अइरेग पडिग्गह" अति रेकं प्रतिग्रहं-पतद्ग्रहं वा, उपलक्षणाद् वस्त्रादिकं वा, तत्रातिरेकं नाम यावत्प्रमाणकं वस्त्र-पावाद्युपकरणं शास्त्रसंमतं ततोऽधिकं यत् तद् अतिरेक प्रतिग्रहम्, 'अन्नमन्नस्स अट्ठाए' अन्यान्यस्य अर्थाय-प्रयोजनाय, तत्राऽन्यस्याऽन्यस्यममुकाऽमुकस्य श्रमणाऽन्तरस्य प्रयोजनमुद्दिश्य, तत्र-अन्यस्याऽर्थाय-इदमविशेषितं सामान्यवचनम्, तेनान्यस्यान्यस्येति अमुकस्याऽमुकस्य साधर्मिकस्याऽर्थाय प्रयोजनाय गृहीतं नतु समुच्चयरूपेण गृहीतमित्यों बोध्यः, तत् 'दरमवि अद्धाणं परिवहित्तए' दूरमपि अध्वानं-मार्ग परिवोढुम्गृहीत्वा दूरमपि मार्ग गन्तुम् , 'धारेत्तए वा परिग्गहित्तए वा' धारयितुं वा परिग्रहीतुं वा, कल्पते अन्यस्य श्रमणस्य अन्यस्याः श्रमण्या वा कृते प्रमाणादधिकमपि वस्त्रपात्रादिकं परिवोढुम्
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भाष्यम् उ० ८ सू०१६
अधिकपात्रादिवहनतदानविधिः १९७ धारयितुं परिग्रहीतुं वा कल्पते इत्यर्थः, यदुद्दिश्य गृहीतं तत्प्रकारं प्रदर्शयति-'सो वाणं धारेस्सइ' स वाऽमुको निम्रन्थो यन्मया गृहीतं तद् धारयिष्यति ग्रहीष्यति, 'अहं वा णं धारेस्सामि' अहं वा तद् धारयिष्यामि, 'अन्नो वा धारेस्सई' अन्यो वाऽमुको गणी वाचक उपाध्यायो वा तद् धारयिष्यति, स वा धारयिष्यति, इत्यादि विशेषितवचनम् , तेनाऽमुको गणी वाचकोऽन्यो वा श्रमणः स्यात्तस्येदं भविष्यतीति भावः, अहं वा धारयिष्यामि ममैव भविष्यतीत्यर्थः, स वा धारयिष्यति, इत्येवंप्रकारेण गृहीतं वस्त्रपात्रादिकम् 'नो से कप्इइ तं अणापुच्छिय अणामंतिय' नो- नैव तस्य-पात्रादिवाहकस्य कल्पते तं यदर्थे गृहीतं तं श्रमणं-वाचकं-गणिनमुपाध्यायं वा अनापृच्छय-तस्य पृच्छामन्तरेण, अनामन्त्र्य-यथा-गृह्णातु भो इदं वस्त्रपात्रादिकं यन्मम समर्पितम्, इत्येवं तमकथयित्वा 'अन्नमन्नेर्सि दाउं वा अणुप्पयाउं वा' अन्येषा. मन्येषां दातुं वा एकवारम्, अनुप्रदातुं वा वारं वारम्, यदर्थमतिरेकं पात्रादिकमुपकरणं गृहीतं धारितं तं व्यक्तिविशेषमनापृच्छयाऽनामन्त्र्य अन्यस्मै दातुमनुप्रदातुं वा न कल्पते 'कप्पइ से तं आपुच्छिय आमंतिय अन्नमन्नेसिं दाउं वा अणुप्पदा उं वा' कल्पते तस्य पात्रादिवाहकस्य तमापृच्छय आमन्त्र्य अन्येषामन्येषां दातुं वा अनुप्रदातुं वा, स श्रमणो यं व्यक्तिविशेषमुद्दिश्याऽतिरेकं वस्त्रपात्रादिकं गृहीतवान् तं व्यक्तिविशेष गणिनं वाचकमुपाध्यायं वा पृष्ट्वा आमन्त्र्य-सम्यक् कथयित्वा ततो यस्मै कस्मैचिन्निम्रन्थाय निर्ग्रन्थ्या वा तदुपकरणं दातुं कल्पते इत्यर्थः ॥ सू० १५ ॥
पूर्वमुपधेरतिरेकविषये सूत्रमुक्तम् , सम्प्रति उपधेरतिरेकवदाहारातिरेको मुनिना न कर्त्तव्यः, यतः साधोत्रिंशत्कवलपरिमित आहारः प्रमाणप्राप्तः कथ्यते, ततो न्यूनाहारे साधुरल्पाहारादिविशेषणविशिष्टो भवतीति तत् प्रकारं प्रदर्शयन्नाह– 'अट्ठकुक्कुडिअंड०' इत्यादि ।
सूत्रम् -अट्ठकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिगंथे अप्पाहारे, दुवालसकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे अवडूढोमोयरिए, सोलसकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे दुभागपत्ते, चउवीसंकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे तिभागपत्ते सिया ओमायरिए, एगतीसंकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे किंचूणोमोयरिए, बत्तीसं कुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गथे पमाणपत्ते । एत्तो एगेण वि कवलेणं ऊणगं आहारं आहारेमाणे समणे णिग्ग थे नो पकामभोई-त्ति वत्तव्वं सिया ॥ सू० १६॥
॥ ववहारे अहमो उद्देसो समत्तो ॥८॥
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व्यवहारसूत्रे
छाया - अष्टकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निर्ग्रन्थोऽल्पाहार:, द्वादशकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निर्ग्रन्थोऽपार्घाऽवमौदर्यः, षोडशकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निर्ग्रन्थो द्विभागप्राप्तः, चतुर्थिशतिकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निर्ग्रन्थस्त्रिभागप्राप्तः स्यादवमौदर्यः, एकत्रिंशत्कुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निर्ग्रन्थः किञ्चि दूनाsanौदर्यः, द्वात्रिंशत् कुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् निर्ग्रन्थः प्रमाणप्राप्तः । इत एकेनाऽपि कवलेन ऊनकमाहारमाहरन् श्रमणो निर्ग्रन्थो नो प्रकाम भोजी - ति वक्तव्यं स्यात् ॥ सू० १६ ॥
॥ व्यवहारे अष्टम उद्देशकः समाप्तः ॥ ८ ॥
१९८
भाष्यम् – 'अद्वकुक्कुडिप्पमाणमेत्ते कवले' अष्टकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान्-कुक्कुटाण्डप्रमाणान्, यः पुरुषस्य मुखे क्षिप्तः सन् सुखेन चर्यते तथा गलान्तराळे अविलग्न एव गले प्रविशति एतावत्प्रमाणमेव कवलमश्नीयादित्येतावत्प्रमाणः कवलः कुक्कुटाण्डशब्देनोपमीयते यतः कुक्कुट्या अण्डकमाकारप्रमाणेन सदा सर्वदा समानमेव भवति न न्यूनं नाधिकमिति तत्प्रमाणेन गृहीतम्, अन्यत्रापि चान्द्रायणवतादौ कवलोऽनेनैव शब्देनोपमितो लभ्यते उपमामात्रमेवेति । यस्य प्रमाणप्राप्त आहारो यावत्परिमितो भवेत्तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागः कवलशब्देन गृह्यते ततस्तादृशान् अष्टौ कवान् ' आहारं आहारेमाणे' प्रमाणप्राप्ताहाराच्चतुर्थीशरूपम् अहरन् - आहारं कुर्वन् 'णिग्गंथे' निर्ग्रन्थः श्रमणः 'अप्पाहारे ' अल्पाहारो भण्यते । 'दुवालसकुक्कुडिअडप्पमाणते कवले आहारं आहारे माणे' कुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् द्वादश कवलान् आहार- प्रमाणप्राप्ताहारचतुर्थांशतः किञ्चिदधिकं द्वादशकवलप्रमितम् अहरन् 'णिग्गंथे' निर्ग्रन्थः ' अवड्ढोमोयरिए' अपार्घावमौदर्यः कथ्यते । 'सोलसकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे' षोडशकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलानाहारं - प्रमाणप्राप्तादर्धम् आहरन् - आहारं कुर्वन् 'णिग्गये' निर्मन्थः 'दुभागपत्ते' द्विभागप्राप्तः - द्विभागेन ऊनोदरः कथ्यते । 'चउवीसंकुक्कुडिअन्डप्पमाणमेचे कवले' चतुर्विंशतिकुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् 'आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे' आहारमाहरन् - कुर्वन् निर्ग्रन्थः 'तिभागपत्ते सिया ओमोयरिए' त्रिभागप्राप्तः स्यात् ranौदर्य इति कथ्यते । ' एगती संकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे ' एकत्रिंशत् कुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् 'णिग्गंथे' निर्ग्रन्थः 'किंचूणोमोयरिए' किञ्चिदूनाऽवमौदर्यः कथ्यते । 'बत्ती संकुक्कुडिअंड प्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे' द्वात्रिंशत् कुक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् 'णिग्गथे' निर्ग्रन्थः ' प्रमाणपत्ते' प्रमाणप्राप्तः कथ्यतेः । एत्तो एगेणवि कवलेणं ऊणगं आहारं इतः - द्वात्रिंशत्कुक्कु
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भाप्यम्
उद्देशपरिसमाप्तिः १९९ टाण्डप्रमाणात् एकेनापि कवलेन ऊनकं-हीनम् आहारम् आहरन् कुर्वन् 'समणे णिग्गये' श्रमणो निम्रन्थः 'नो पकामभोइ-त्ति वत्तव्वं सिया' नो प्रकामभोजीति वक्तव्यं स्यात्, ततोऽधिकभोजी-प्रकामभोजी कथ्यतेऽतः साधुना नैवं भाव्यमिति भावः ॥ सु० १६ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनाचार्य'–पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचिताया "व्यवहारसूत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायामष्टम उद्देशः समाप्तः ॥८॥
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॥ नवमोद्देशकः॥ व्याख्यातोऽष्टमोद्देशकः, साम्प्रतं नवमः प्रारभ्यते-तत्र अस्य नवमोद्देशकस्यादिसूत्रेण सहाऽष्टमोद्देशकस्य चरमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति संबन्धप्रतिपादनार्थमाह भाष्यकार:'बुत्तो आहारो' इत्यादि । गाथा-वुत्तो आहारो अह, आएसो तं च तत्थ जइ भुंजइ ।
साहूणे तग्गहणे, कप्पाकप्पस्स एत्थ विहो ॥१॥ छाया- उक्त आहारः अथ आदेशस्तं च तत्र यदि भुङ्क्ते ।
साधूनां तद्ग्रहणे, कल्प्याकल्प्यस्य अत्र विधिः ॥१॥ व्याख्या-वुत्तो' इति । अष्टमोद्देशकस्य चरमसूत्रे 'आहारो वुत्तो' आहार उक्तः, आहारप्रमाणं प्रतिपादितम् , तं चाहारम् आदेशः आदिश्यते-सत्कारपुरस्सरम् आहूयते यः स आदेश:-प्राघूर्णकः, ज्ञातकः, स्वजनः, मित्रं, कुलगुर्वादिप्रभुः, परतीथिको वा 'तत्थ' इति-तत्र सागारिकगृहे भुङ्क्ते तदा 'तग्गहणे' तद्ग्रहणे- तस्य तन्निमित्तं कृतस्य ग्रहणे 'साहूणं' साधूनाम् 'कप्पा-कप्पस्स' एत्थ विही कल्प्याऽकल्प्यस्य 'एत्थ' अत्र-नवमोदेशकस्यादिसूत्रे विधिःप्रोच्यते॥१॥
एष एव सम्बन्धः, अनेन सम्बन्धेन आयातस्य नवमोद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम्'सागारियस्स' इत्यादि, ।
सूत्रम्-सागारियस्य आएसे अन्तो वगडाए भुंनइ निहिए निसिटिए पाडिहारिए तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥२० १॥
छाया-सागारिकस्य आदेशः अन्तर्वगडावां भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् प्रातिहारिकान् तस्माद् ददाति नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥सू० १॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' इति । 'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य, य उपाश्रयस्याऽऽज्ञां ददाति स सागारिकः कथ्यते, तस्य 'आएसे' आदेशः यः सत्कारपुरस्सरमादिष्टः-आहूतः स आदेशः कथ्यते, आवेशोवा-य आविशति-भोजनार्थं गृहे प्रविशति स आवेशः भोजनार्थ गृहमागतः, स च प्राघूर्णकादिः 'अंतो वगडाए' अन्तर्वगडायाम्, तत्र वगडानाम-परिक्षेपः गृहमित्यर्थः, तस्य अन्तर्मध्ये-गृहमष्ये 'भुंजई' भुङ्क्ते पदार्थान् ओदनादीन् , किंविशिष्टान् ओदनादीन् भुङ्क्ते ? तत्राह-'निहिए' निष्ठितान्-निष्ठां नीतान् प्राघूर्णकाद्यर्थ निष्पादितान् इत्यर्थः 'निसिद्विए' निसृष्टान्-प्राघूर्णिकादिभ्यो दत्तान् , निष्ठितनिसृष्टयोरयं भेदः-यत् प्रथमं रन्धनक्रियायाम् , द्वितीयं तु-दानक्रियायाम , प्राघूर्णकाद्यर्थं पाचितवान् , तदर्थ दत्तान्, प्रातिहारिकान्-शय्यातरेण प्रातिहारिकरूपेण दत्तान् , शय्यातरः प्राघूर्णकादीन् वक्ति
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भाष्यम् उ०९ सू०२-६
सागरिकमाघूर्णकादेराहारग्रहणाग्रहणविधिः २०१ यथारुचि भुज्यतां शेषं ममेत्येवं रूपेण दत्तान् भुङ्क्ते 'तम्हा दावए' तस्मात् परिनिष्ठितादिविशेषणविशिष्टौदनादिमथ्यात् निष्कास्य यद् ददाति साधवे 'नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए' नो-न तस्य- श्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुं-स्वीकर्तुम् अत्यक्तसत्ताकत्वेन शय्यातरपिण्डत्वात् , अयं भावः- शय्यातरस्य प्रार्णकादिर्घहेभुङ्क्ते, यं शय्यातरः प्राघूर्णकाद्यर्थ कृत्वा प्रघूर्णकाय अवशिष्टग्रहणप्रतिज्ञया प्रयच्छति तं प्राघूर्णको भुङ्क्ते, तद्भुक्तावशिष्टाहारमध्यादाहारं यय्यारः साधवे यदि ददाति तदा तादृश आहारो न कल्पते साधूनाम् । यतः स आहारः श यातरेण प्राघूर्णकादिभ्यः प्रातिहारिको दत्तोऽतः स शय्यातरस्व. त्वेन शय्यातरपिण्ड इति ॥ ० १॥
पूर्वं गृहान्त जिप्रा पूर्णकादिसंबन्धिशय्यातरस्वत्वयुक्ताहारस्य निषेधः प्रोक्तः, साम्प्रतं शय्यातरस्वत्वरहिततादृशाहारत्य ग्रहणविधिमाह-'सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स आएसे अंतो बगडाए मुंजइ निट्ठिए निसिहे अपाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहेत्तए ॥सू० २।
छाया—सागारिकस्य आदेशः अन्तर्वगडायां भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् अप्रातिहारिकान् , तस्मात् ददाति एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २ ॥
__ भाष्यम्- 'सागारियस्स' सागारिकस्य' इत्यादि पूर्वसूत्रवद् व्याख्येयम् , विशेषस्त्वयम्सागारिकभ्य गृहे प्राघूर्णका दर्यान् पदार्थान् भुङ्क्ते तान् पदार्थान् शय्यातरो यदि स्वस्वत्वनिवृत्तिपूर्व प्राघूर्णकादिभ्यो दद्यात् तदा साधोः प्रतिग्रहीतुं कल्पते तदेवाह-'अप्पडिहारिए' इत्यादि, 'अप्पडिहारिए' अप्रातिहारिकान् अपुनर्ग्रहणप्रतिज्ञया दत्तान् स प्राघूर्णकादिर्भुङ्क्ते 'तम्हा दावए' तस्मात् परिनिष्ठितादिविशिष्टौदनादिभोजन जातमध्यात् साधवे दद्यात् , 'एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए' एवम्-अनेन प्रकारेण कल्पते तस्य साधोस्तादृशमाहारजातं प्रतिग्रहीतुम् । शयातरस्य प्राघूर्णकादिस्तस्य गृहे आहारजातं भुङ्क्ते तद् गृहपतिना तदर्थ निपादितं तादृशमाहरजातं गृहपतिर्भोक्तुं प्राघूर्णकादिभ्यो दत्त्वा कथयेत्-भोजनानन्तरं यदवशिष्टं भवेत्रत् त्वदीयमेवे ति, तत् प्राघूर्णकेन न पुनर्गृहपतये समर्पितं भवेत् , तदप्रातिहारिकमुच्यते तादृशमाहारजातं यदि प्राघूर्णकादिः साधवे दद्यात् तदा तादृशमाहारजातं साधूनां प्रतिग्रहीतुं कल्पते इति भावः ॥ सू० २ ॥
संप्रति शय्यातरस्य गृहबहिर्मोजिमाघूर्णकादिसंबन्धिभोजनजातस्य शय्यातरस्वत्वास्वत्वविषये निषेधं विधिं च सूत्रद्वयेनाह-'सागारियस्स आएसे' इत्यादि ।
व्य. २६
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२०२
व्यवहार सूत्रम्-सागारियस्स आएसे बाहि वगडाए भुजइ निहिए निसिटे पाडिहारिए तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू०३॥
सागारियस्स आएसे बाहिं वगडाए निट्ठिए निसिढे अपाडिहारिए, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए । सू० ४॥
छाया-सागारिकस्याऽऽदेशो बहिर्वगडायां भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् प्रातिहारिकान् तस्मात् ददाति, नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३ ॥
सागारिकस्य आदेशो बहिर्वगडायां मुफ्ते निष्ठितान् निसृष्टान् अप्रातिहारिकान् तस्माद् ददाति, एवं कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू४॥
___भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य 'आएसे' आदेशः-प्राधूर्णकादिः 'बाहिं वगडाए' बहिर्वगडायाम् गृहस्य बहिर्भागे इत्यर्थः, शेषं सर्व पूर्वसूत्रद्वयवदेव व्याख्येयम् । तात्पर्यमेतावदेव प्राघूर्णकादिदत्तमाहारं तृतीयसूत्रोक्तं प्रातिहारिकत्वान्न साधूनां कल्पते । चतुर्थसूत्रोक्तं च कल्पते अप्रातिहारिकत्वात्तस्येति विज्ञेयम् ॥ सू० ३-४॥ ___पूर्व प्राघूर्णकादिभ्यो दत्तस्य शय्यातराहारस्य निषेधो विधिश्च प्रदर्शितः, सम्प्रति दासादिभ्यः प्रदत्ताहारविषये निषेधं विधिंच सूत्रद्वयेनाह-'सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स दासेइ वा, पेसेइ वा, भयएइ वा, भइण्णएई वा अंतोवगड़ाए मुंजइ निहिए निसिढे पाडिहारिए तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० ५॥
सागारियस्स दासेइ वा पेसेइ वा भयएइ भइण्णएइ वा अंतो बगडाए मुंजई निहिए निसिढे अप्पाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० ६ ॥
छाया--सागारिकस्य दास इति वा प्रेष्य इति वा भृत्य इति वा भृतक इति वा अन्तर्वगडाय भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् प्रातिहारिकान् तस्माद् ददाति नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ५॥
सागारिकस्य दास इति वा प्रेष्य इति वा भृत्य इति वा भृतक इति वा अन्तर्वगडायां भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् अप्रातिहारिकान् तस्माद् ददाति एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ६॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य 'दासेइ वा' दास इति वाआजन्ममरणावधि किङ्करः । 'पेसेइ वा प्रेष्य इति वा, तत्र-प्रेष्यो यो ग्रामान्तरे प्रेषणार्थ किङ्करः प्रामान्तरसम्बन्धि कार्य करोतीत्यर्थः । 'भयएइ वा' भृत्य इति वा-तत्र-मृत्यः कश्चित्कालं मूल्येन धृतः, 'भइण्णएइ वा' मृतक इति वा प्रभूतकालार्थ क्रयक्रीतः । 'अंतो वगडाए' अन्तर्वगडायाम्
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भाष्यम् उ० ९ सू० ७-९ सागारिकदासादेराहारग्रहणाग्रहणविधिः २०३ गृहमध्ये 'मुंजइ' भुङ्क्ते, इत्यादि सर्व पूर्ववद् व्याख्येयम् । विशेषस्त्वयम्-अस्मिन् पञ्चमे सूत्रे शय्या तरेण प्रातिहारिकतया दत्तत्वात्तदाहारजातं साधूनां न कल्पते तत्र शय्यातरस्वत्वत्वात् ॥ सू० ५॥
षष्ठे सूत्रे च अप्रातिहारिकत्वेन दत्तत्वात्तदाहारजातं कल्पते इत्येतावदेवाऽन्तरं पश्चमषष्ठसूत्रयोरिति ॥ सू० ६ ॥
पूर्व दासादिकमधिकृत्याऽन्तर्वगडासूत्रद्वयं प्रोक्तम्, सम्प्रति बहिर्वगडासूत्रद्वयमाह'सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स दासेइ वा, पेसेइ वा, भयएइ वा भइण्णएइ वा, बाहि वगडाए मुंजइ निट्ठिए निसिहे पाडिहारिए, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥सू०७॥
सागारियस्स दासेइ वा पेसेइ वा भयएइ वा भइण्णएइ वा बाहिं वगडाए जइ निहिए निसिढे अप्पाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥९०८॥
- छाया-सागारिकस्य दास इति वा प्रेष्य इति वा भृत्य इति वा भृतक इति वा बहिर्वगडायांभु ङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् प्रातिहारिकान् तस्मात् ददाति नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ७॥
सागारिकस्य दास इति वा प्रेष्य इति वा भृत्य इति वा-भृतक हात वा बहिर्बगडायां भुङ्क्ते निष्ठितान् निसृष्टान् अप्रातिहारिकान् तस्माद् ददाति, एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ८॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य 'दासे इवा' दास इति वा, इत्यादि पूर्ववदेव वगडाया बहिर्दासादिभोजनग्रहणं सप्तमसूत्रे प्रातिहारिकत्वेन दत्तत्वान्न कल्पते ॥ सू० ७॥
अष्टमसूत्रे च अप्रातिहारिकत्वेन दीयमानत्वात् कल्पते इति भावः ॥ सू० ८॥अत्र सूत्राष्टकस्यायं भावः-अत्रादितश्चत्वारि सूत्राणि बगडाया अन्तर्बहिरादेशमधिकृस्य कथितानि ४ । चत्वारि च वगडाया अन्तर्बहिर्दासादिकमधिकृत्य कथितानि ४ (८) । तत्र-यत्र यत्र प्रातिहारिकं तत्र तत्र शय्यातरस्वत्वत्वात् शय्यातरपिण्ड इति न कल्पते । यत्र यत्र पुनरप्रातिहारिकं तत्र तत्र शय्यातरस्वत्वरहितत्वान्न स शय्यातरपिण्ड इति कल्पते साधूनां प्रतिग्रहीतुम् । यथा प्रथम-तृतीय-पश्चमसप्तमसूत्रेषु शय्यातरपिण्डग्रहणदोषापत्तेरकल्प्यमाहरजातम् । द्वितीय-चतुर्थ-षष्ठाऽष्टमसूत्रेषु शय्यातरस्वत्वरहितत्वान्न तत्र शय्यातरपिण्डत्वमिति तत् कल्प्यमिति ॥
अत्राऽऽशङ्कते शिष्यः चत्वारि सूत्राणि आदेशविषयाणि, चत्वारि च दासादिविषयाणीति अष्टानां सूत्राणां पृथक् पृथक् कथनं निरर्थकम्, आदेशस्य चतुर्वेव सूत्रेषु तेन सार्द्ध दासादीनामपि समावेशसंभवात् ? तत्राऽऽह-शृणु आदेशः कश्चिदपि कदाचिदागच्छति ततस्तस्याऽनि
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૨૦
व्यवहारसूत्रे यतं दीयते, दासादीनां च हस्तोत्पाटितं नियतमेव दीयते, तथा आदेशाय सत्कारपुरस्सरं दीयते, न तथा दासादिकृते, तथा-आदेशस्य भोजनविधिसंपाद नाय महान् प्रयत्नः ससंभ्रम विधीयते, दासादीनांतु न तादृशः प्रयत्नः क्रियते, इत्यत आदेशस्य दासादेश्च सूत्राणां पृथक्करण मुचितमेवेति बोध्यम् ॥ सू० ७ ८॥
उपर्युक्तसूत्राष्टके आदेशादिविषयमधिकृत्य कथितम्, सम्प्रति ज्ञातकमधिकृत्यैकगृहविषयं सूत्रचतुष्टयमाह-'सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् -सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगडाए अंतो एगपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहितए ॥ सू० ९॥
छाया-सागारिकस्य शातकः स्यात् सागारिकस्य-एकवगडायामन्तः एकप्रजायां सागारिकं चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ९॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य, 'नायए सिया' ज्ञातकः-सागारिकस्वजनः स्यात्, तत्र-ज्ञातको नाम-स्वजनः पूर्वसंस्तुतः १, यदि वा पश्चात्संस्तुतः २, यदि वा उभयसंस्तुतः स्वजनः ३, तत्र पूर्वसंस्तुतः-मातापितृपक्षवर्ती १, पश्चात्संस्तुतः कलत्रपक्षगतः २, उभयसंस्तुतः-उभयपक्षवर्ती ३ भवेत्, 'सागारियस्स सागारिकस्य-शय्यातरस्य 'एगवगडाए' एकवगडायाम्-एकस्मिन् गृहे, तस्य गृहस्य-'अंतो' अन्तः- मध्ये, 'एगपयाए' एकप्रजायाम, तत्र प्रजानाम-चुल्ली, तदर्थस्तु-प्रकर्षेण जायते पाकनिष्पत्तिरस्यामिति प्रजाचुल्ही, तस्याम्, अथवा-'एगपयाए' इत्यस्य एकपचायामिति च्छाया, तत्र पच्यते ओदनादिर्यत्र सा पचा चुल्हीत्यर्थः, एका पचा एकपचा तस्याम्, 'सागारियं चोपजीवइ' सागारिकं चोपजीवति, सागारिकमाश्रित्यैव जीवनयात्रां निर्वहति सागारिकस्य काष्ठलवणगोरसमुद्गादिसूपोदकाम्लशाकफलादिग्रहणपूर्वकमुपजीवति 'तम्हा दावए' तस्मात्-तादृशात् सागारिकसंबन्धिस्वजनाशनमध्याद् अशनादिकं दद्यात् 'नो से कप्पइ पडिगाहित्तए' नो तस्य-साधोस्तत कल्पते प्रतिग्रहीतुम्, शय्यातरस्वजनपिण्डस्यापि शय्यातरवस्तुसंयोगात् शय्यातरपिण्डत्वदोष सद्भावात्।
ननु-शय्यातरस्य तज्ज्ञातकस्य च किमर्थमेका चुल्ही भवति ? तत्राह--यतस्तत्र चुल्हीकरं राज्ये गृह्णाति, या या पृथक् चुल्ही भवति तस्यास्तस्याः करमपि पृथग् गृह्णातीति तत्रत्यराज्यनियमात् करभीता लोका एकस्यामेव चुल्हिकायां पाकक्रियां कृत्वा स्वस्वभागं सर्वे गृह्णान्ति ततस्तत्र शय्यातरवस्तुसंमिश्रणप्रसङ्गात्स आहारोऽपि शय्यातरपिण्डदोषदूषितो भवेदिति न कल्पते ॥ सू० ९॥
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भाष्यम् उ० सू० १०-१३
सागारिकातकाहारग्रहणाग्रहणविधिः २०५
सूत्रम् - सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगड़ाए अन्तो सागारियस्स अभिनिप्पयाए सागारियं चोपजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पर पड़िगाहित्तए । सू० १० ॥
छाया - सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्यैकवगडायाम् अन्तः सागारि कस्याभिनिप्रजायां सागारिकं चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥१०॥
भाष्यम् – 'सागारियस्स नायए सिया' सागारिकस्य - शय्यातरस्य ज्ञातकः - पूर्वोक्तस्वरूपः स्यात् स च 'सागारियस्स एगवगड़ाए अन्तो' सागारिकस्य - शय्यातरस्य - एकवगडायाम् - एकस्मिन् गृहे तदन्तः प्रदेशे एव निवसति, तथा - ' सागारियस्स अभिनिपयाए ' अभिनिप्रजायां तत्र-अभि-प्रत्कं नि-नियता विविक्ता प्रजा अभिनिप्रजा पृथक्चुल्होत्यर्थः, तस्याम्, सागारिकादभिनिप्रजायाम्, सूत्रे पञ्चम्यर्थे षष्ठी आर्षत्वात् ततः सागरिकात् शय्यातरात् पृथक्चुल्हिकायां रन्धनादिकं करोति किन्तु - ' सागारियं चोवजीवइ' सागारिकमाश्रित्य चोपजीवति, शय्यतरस्यैव काष्ठलवणादिकं व्यवहरति । ' तम्हा दावए' तस्मात - सागारिकगृहस्थितपृथक्चुल्लिकासंपादितभक्तपानादिकर्तृस्वजनात् अन्नादिकं साधवे दद्यात् 'नो से कप्पइ पड़िगाहित्तए' तदप्याहारजातं नो - कथमपि न 'से' तस्य - श्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् । यद्यपि - शय्यातरगृहे विद्यमानः स्वजनः पृथक् चुल्हिकायां रन्धनादिकं संपादयति तथापि शय्यातरस्य काष्ठादिकं व्यवहरतस्तस्य भक्तादिकमपि शय्यातरपिण्डत्वात् कथमपि साधुभिर्न ग्रहीतव्यमिति भावः ॥ सू० १० ॥
सूत्रम् - सागारियन नायए सिया सागारियस्स एगवगड़ाए बाहिं सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोपजीवइ, तम्हा दावए नो से कपइ पाड़िगाहित्तए । सू० ११ ॥
छाया - सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्य एकवगडायां बहिः सागारि कस्यैकप्रजायां सागारिकं चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ॥
भाष्यम् – 'सागारियस्स' सागारिकस्य - शय्यातरस्य, 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात्, स च ' सागारियस एगवगड़ाए ' सागारिकस्य - शय्यातरस्य एकवगड़ायाम् - एकस्मिन् - गृहे बहिः प्रदेशे 'सागारियस्स एगपयाए ' सागारिकस्य - शय्यातरस्य - एकप्रजायाम् - एकस्यामेव चुल्हिकायाम् भोजनादिकं निष्पादयति 'सागारियं चोवजीवइ' सागारिकमुपजीवति - शय्यातरप्रदत्तकाष्ठजलादिभिराहारं निष्पादयति 'तम्हा दावए' तस्मात् सागारिकोपजीविस्वजन
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२०४
व्यवहारको सम्बन्धिभक्तादितो दद्यात् 'नो से कप्पइ पडिगाहित्तए' नो तादृशमन्नम् 'से' तस्य श्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुं, शय्यातरपिण्डत्वात् ॥ सू० ११॥
सूत्रम्-सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगड़ाए बाहिं सागारियस्स अभिणिपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पड़िगाहित्तए ॥ सू० १२॥
छायासागारिकस्य शातकः स्यात् सागारिकस्य एकवगडायां बहिः सागारिकस्य अभिनिप्रजायां सागारिकं चोपजीवति तस्मात् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥सू०१२॥
- भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात् 'सागारियस्स एगवगड़ाए बाहिं' सागारिकस्य शय्यातरस्य-गृहपतेः एकवगड़ायामेकस्मिन् गृहे बहिः सागारिकस्य गृहादहि गे 'सागारियस्स अभिनिपयाए' सागारिकस्य अभिनिप्रजायां-पृथक् चुल्हिकायां रन्धनादिकं करोति, शेषं सर्व पूर्ववद् व्याख्येयम् ॥
अयं भावः- शय्यातरस्य कश्चित् स्वजनो भवेत् , स च शय्यातरस्य यद् गृहम् तस्य बहिर्भागे पृथक् पृथकू चुल्हिकायां भोजनादिकं संपादयति, परन्तु-शय्यातरस्य जललवणादिना संपादितस्वजनपाकाद् यदि साधवे ओदनादिकं समर्पयति, तादृशमोदनादिकं प्रतिग्रहीतुं श्रमणस्य न कल्पते, तादृशोदनादेरपि शय्यातरपिण्डत्वात् ॥ सू० १२ ॥
पूर्व सागारिकस्य प्रकरणेन-एकं गृहमाश्रित्याऽऽहारस्याऽनादेयत्वं कथितम् सम्प्रतिपृथक् पृथग् गृहमाश्रित्य शय्यातरपिण्डस्य-अनादेयतां कथयितुमाह—'सागारियस्स इत्यादि ।
सूत्रम्--सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिणियगड़ाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए अन्तो सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० १३॥
छाया-सागारिकस्य शातकः स्यात् सागारिकस्य-अभिनिबगड़ायामेकद्वारायाम् एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् अन्तः सागारिकस्यैकप्रजायाम्, सागारिकं चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १३॥
भाष्यम्- 'सागारियस्स' सागारिकस्य-गृहपतेः 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात् । 'सागारियस्स अभिणिवगड़ाए' सागारिकस्य-शय्यातरस्य अभिनिवगडायाम्, तत्र-अभिप्रत्येकं नि-नियता विविक्ता-पृथग्भूता वगड़ा--गृहम् इति -अभिनिवगडा, तस्याम्-शय्यातर
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भाष्यम् उ० ९ सू० १४-१६
सागारिकशातकाहारग्रहणाग्रहणविधिः २०७ गृहात् पृथग्गृहे इत्यर्थः किन्तु 'एगदुवाराए' एकद्वारायाम् एकमेव द्वारं यस्यां सा एकद्वारा तस्यामेकद्वारायामभिनिवगडायाम्, पुनश्च 'एगनिक्खमणपवेसाए' एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् एक एव निष्क्रमणेति निष्क्रमणमार्गः प्रवेशेति प्रवेशमार्गश्च यत्र तथाभूतायाम् अभिनिवगडायाम् 'अन्तो' अन्तमध्ये--एतादृशगृहस्याऽभ्यन्तरे 'सागारियस्स एगपयाए' सागारिकस्य एकप्रजायाम् एकस्यामेव प्रजायां--चुल्हिकायाम् यत्र चुल्हिकायाम् सागारिकः पचति तत्रैव तस्य स्वजनोऽपि रन्धनादिकं करोतीत्यर्थः, 'सागारियं चोवजीवई' सागारिकं--शय्यातरमाश्रित्य उपजीवति-- जीवनं यापयति । शेषं सर्व पूर्वव्याख्यातवदेव बोध्यम् ॥ सू० १३ ॥
सूत्रम्-सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिनिवगड़ाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए अंतो सागारियस्स अभिणिपयाए सागारियं च उवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० १४ ॥
छाया-सागारिकस्य शातकः स्यात् सागारिकस्य अभिनिवगड़ायाम् एकद्वारायाम् एकनिष्क्रणप्रवेशायाम् अन्तः सागारिकस्य अभिनिप्रजायाम् सागारिकं चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १४ ॥
भाष्यम्- 'सागारियस्स' सागारिकस्य 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात् स च स्वजनः 'सागारियस्स अभिनिव्वगडाए' सागारिकस्य अभिनिवगडायाम् पृथग्गृहे इत्यर्थः किन्तु 'एगदुवाराए' एकद्वारायाम्-एकद्वारयुक्तायाम् , 'एगनिक्खमणपवेसाए' एकनिष्कमणप्रवेशायाम्, एक एव निष्क्रमणस्य प्रवेशस्य च मार्गों यत्र तादृश्यामेकवगड़ायाम् । 'अन्तो' अन्तर्मध्ये 'सागारियस्स अभिनिपयाए' सागारिकस्य अभिनिप्रजायाम्-पृथग्भूतायां चुल्हिकायाम्, रन्धनादिकं करोति, इत्यादि सर्वं पूर्ववदेव व्याख्येयम् ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम्-सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए पगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए बाहिं सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० १५॥
छाया-सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्य अभिनिवगडायाम् एकद्वारायाम् एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् बहिः सागारिकस्य एकप्रजायाम् सागारिकं चोपजीवति तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १५॥
भाष्यम्- 'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात् स च 'सागारियस्स' सागारिकस्य 'अभिनिव्वगडाए' अभिनिवगड़ायाम्-पृथग्भूतायां वसतौ पृथक् पृथग गृहे इति यावत् , किन्तु 'एगदुवाराए' एकद्वारायाम् , एगनिक्खमणपवेसाए'
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व्यवहारचे
एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् 'बाहि' बहिर्भागे इत्यर्थः ' सागारियस्स एगपयाए ' सागारिकस्य एकप्रजायाम् एकस्यामपि चुल्हिकायामित्यादिशेषस्य सर्वस्यापि पूर्ववद् व्याख्यानं कर्त्तव्यमिति ॥ १५ ॥
२०८
सूत्रम् - सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए Raftaar dare बाहिं सागारियस्स अभिनिप्पयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए' ।। सू० १६॥
छाया -- सागारिकस्य ज्ञातकः स्यात् सागारिकस्य- अभिनिबगडायाम् पकद्वारायाम् एकनिष्क्रमण प्रवेशायां बहिः सागारिकस्य अभिनिप्रजायाम् सागारिकं चोपजीवति, तस्मात् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १६ ॥
भाष्यम् – 'सागारियस्स' सागारिकस्य 'नायए सिया' ज्ञातकः स्यात् स च सागारिकस्य स्वजनः 'सागारियस्स' सागारिकस्य शय्यातरस्य 'अभिनिव्वगडाए' अभिनिवगड़ायाम्पृथग्वसता किन्तु ' एगदुवाराए' एकद्वारायाम् 'एग निक्खमणपवेसाए' एकनिष्क्रमणप्रवेशायाम् ‘बाहिं' बहिःप्रदेशे 'अभिनिपयाए' अभिनिप्रजायाम् पृथकूचुल्हिकायाम्, शेषं सर्वं व्याख्यातपूर्वसूत्रवद् बोध्यम् ।
अत्र ज्ञातकमधिकृत्य नवमसूत्रादारम्य षोडशसूत्रपर्यन्तानि अष्ट सूत्राणि सन्ति, तत्रादिमानि चत्वारि (९-१२) सूत्राणि सागारिकस्यैकगृहविषयाणि सन्ति, तानि यथा-
"
२ सूत्रद्वयं गृहान्तः एकचुल्हिकाविषयं पृथक्चुल्हिकाविषयं चेति । २ -सूत्रद्वयं च गृहाद्वहिरेक चुल्हिकाविषयं पृथक्चुल्हिका विषयं चेति चत्वारि ४ ।
चरमाणि चत्वारि (१३-१६) सूत्राणि च - एकद्वारैकनिष्क्रमण प्रवेशयुक्तपृथग्गृहविषयाणि सन्ति, तानि यथा-२ सूत्रद्वयं गृहान्तः एकचुल्हिकाविषयं पृथक् चुल्हिकाविषयं । २ सूत्रद्वयं च ग्रहाद्वहिरेक चुल्हिका विषयं पृथक् चुल्हिकाविषयं चेति च
।
,
एवमष्ट सूत्राणि सन्ति, एषु चाष्टस्वपि सूत्रेषु प्रदर्शितमशनादि साधूनां प्रतिग्रहीतुं न कल्पते, तत्र सर्वत्र सागारिकज्ञातयोः परस्परं काष्ठलवणतकादिव्यवहारसम्बन्धेन शय्यातरपिण्डदोषसंभवात् ।
ननु चतुर्षु प्रथम- तृतीय- पश्चम- सप्तमरूपेषु सागारिकज्ञातकयोरेकचुल्होत्वेन तत्र निष्पादिताशनादौ सागारिक पिण्डदोषसम्भवः, किन्तु सागारिककाष्ठलवणादिव्यवहाररहितस्य तत्र निवासमात्रेण स्थितस्य ज्ञातकस्य पृथक्चुल्हीनिष्पादितस्याऽशनादेर्ग्रहणे को दोषः ? येन तदपि अग्राह्यत्वेन भगवता प्रतिपादितम् ? तत्राह तत्रापि भद्रकप्रसङ्गाद्यनेकदोषसम्भवः, भद्रक
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भाष्यम् उ० ९ सू० १७-१८
चक्रिकाशालागतवस्तुग्रहणाग्रहणविधिः २०९ दोषा यथा-भद्रकः सागारिकश्चिन्तयति-यदहं शय्यातरोऽस्मीति साधवो मे भिक्षां न गृह्णन्ति तेनाहं साधुप्रतिलम्भनाद् वश्चितो भवामीति विचार्य तं ज्ञातकं बूते-एते साधवः शय्यातरत्वेन ममाशनादि ग्रहीतुं नेच्छन्ति ततस्त्वमेतेभ्यः प्रभूतमशनादिकं देहि, यत्त्वं दास्यति तदहं तव प्रतिदास्यामीति । ज्ञातकश्चैवं कुर्यात् । अथवा स स्वयं तस्याशनादौ स्वकीयाशनादेः प्रक्षेपणं कुर्यादिति प्रक्षेपादिरूपभद्रकदोषाः संभवन्ति ।
प्रसङ्गदोषा यथा-सागारिकगृहस्थितज्ञातकाशनादेर्ग्रहणे सागारिकगृहप्रसङ्गाल्लोके शय्यातरपिण्डग्रहणाशङ्काऽवश्यम्भाविनीति प्रसङ्गदोषसम्भवः, अतो भगवता-एकगृहपृथग्गृहैकचुल्हीपृथकचुल्हीमिष्पादितं सर्वविधमपि अशनादिकं सागारिकगृहसम्बन्धात् साधूनामकल्प्यत्वेन प्रतिपादितमित्यलं विस्तरेणेत्यष्टसूत्रीभावः ॥ सू० ९-१६ ॥
पूर्व सागारिकगृहस्थितिसंबन्धात्तत्र निवसतस्तत्स्वजनस्याऽपि अशनादि साधूनां प्रतिग्रहीतुं न कल्पते इति प्रोक्तम्, साम्प्रतं पण्यशालास्थितस्य साधुयोग्यवस्तुजातस्य ग्रहणे सागारिकसंबन्धासम्बन्धमधिकृत्य यथायोग विधिनिषेधं प्रदर्शयन् चक्रिकाशालादिषोडशसूत्रीमाह'सागारियस्स चक्कियासाला' इत्यादि ।
सूत्रम्--सागारियस्स चक्कियासाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० १७ ॥
छाया--सागारिकस्य चक्रिकाशाला साधारणावक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १७ ॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य 'चक्कियाशाला' चक्रिकाशाला तैलविक्रयशाला, कीदृशीत्याह-'साहारणवक्कयपउत्ता' साधारणावक्रयप्रयुक्ता, तत्र-सागारिकस्य अन्यस्य भागिकस्य च द्वयोः साधारणः-प्तमानोऽवक्रयः विक्रयणं तेन प्रयुक्तानियोजिता, यत् तस्यां शालायां तिलादि प्रक्षिप्यते, यश्च तत्र लाभो भवेत् तत्सर्वं सागारिकेण भागिकेन च साधारणं-समानं, तज्जातलाभादेः समानो भागो न्यूनाधिको वा भागो भविष्यतीति नियमेन प्रयुक्ता चक्रिकाशाला भवेत्, ‘तम्हा दावए' तस्माद् दद्यात्, तस्मात्-साधारणावक्रयशालागतवस्तुजातमध्याद् यद्वस्तु साधोर्योग्यं तैलादिकं तदन्यद्वा साधवे दद्यात् तदा तद्वस्तु 'नो से कप्पइ पडिगाहित्तए' नो-नैव 'से' तस्य-श्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।
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व्यवहारसूत्रे
अर्थ भावः - - कस्यचित् शय्यातरस्य तैलशाला विद्यते तस्य अन्य एकोऽनेकेवाऽधिकारिणो भवेयुः, शालातस्तैलादीनां विक्रयकरणेन यो लाभो जायते स एकस्य न भवति, किन्तु -अनेकेषु विभज्यते, तत्र यो विक्रेता स यदि साधवे तैलादिकं किमपि दद्यात् तादृशं वस्तु-तैलादिकं साधूनां ग्रहीतुं न कल्पते इति निषेधसूत्रम् ॥ सू० १७ ॥
२१०
अथ विधिसूत्रमाह-- ' सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् -- सागारियस्स चक्कियासाला निस्साहारण वक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप पडिगाहित्तए ॥ सू० १८ ॥
छाया - सागारिकस्य चक्रिकाशाला निस्साधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता, तस्माद् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १८ ॥
भाष्यम् – 'सागारियस्स'
सागारिकस्य - शय्यातस्य - गृहस्थस्य 'चक्कियासाला' चक्रिकाशाला - तैलविक्रयशाला वर्त्तते किन्तु सा 'निस्साहरणवक्कयपउत्ता' निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता निस्साधारणः---सागारिकभागरहितोऽवक्रयो विक्रयणम् अत्र यत्किञ्चित्तैलादि, तत्संजातलाभश्च भविष्यति तत्सर्वं तवैव न मम, इत्येवंरूपेण प्रयुक्ता-नियोजिता भवेत्, स्वतन्त्ररूपेण तस्यैव चक्रिकस्य न तु सागारिकस्य तत्र भागो विद्यते ' तम्हा दावए' तस्मात् तादृशनिःसाधारणचक्रिकाशालामध्यात् यत् साधूचित्तं तैलादिकमन्यद्वा वस्तु आपणस्थविक्रेता दधात् ' एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए' एवंप्रकारेण दीयमानं तैलादिकम् ' से' तस्य - श्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।
9
या खलु शाला साधारणा सागारिकभागयुक्ता भवेत् तन्मध्याद् दीयमानं वस्तु साधूनां न कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति सप्तदशसूत्रस्याशयः । या तु खलु निस्साधारणा - सागारिकभागवर्जिता भाटकेन गृहीता, व्यापारमाश्रित्य चक्रिकस्य स्वतन्त्रा शाला भवेत्तन्मध्याद् दीयमानं तैलादिकं वस्तु साधूनां कल्पते प्रतिग्रहीतुम् । इत्यष्टादशसूत्रस्याशयः, एवमग्रेऽपि गौडिकशालादिसूत्राणि बोध्यानीति ॥ सू० १८ ॥
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भाष्यम् उ० ९ सू० १९-३२ . गौडिकशालादिगतवस्तुग्रहणाग्रहणविधिः २११
अथ गौडिकशालादिचतुर्दशसूत्राण्याह-'सागारियस्स गोलियसाला' इत्यादि ।
सूत्रम्-सागारियस्स गोलियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए । सू० १९॥
सागारियस्स गोलियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिगाहित्तए । सू० २० ॥
सागारियस्स बोधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पड़ पडिगाहित्तए ॥ सू० २१॥
सागारियस्स बोधियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए । सू० २२ ॥
सागारियस्स दोसियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पा पडिगाहित्तए ॥ ० २३॥
सागारियस्स दोसियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता वम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० २४॥
सागारियस्स सोत्तियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० २५॥ - छाया—सागारिकस्य गौडिकशाला साधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात्, नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० १९ ॥
" सागारिकस्य गौडिकशाला निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता, तस्मात् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २०॥ - सागारिकस्य बोधिकशाला साधारणावक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २१ ॥
सागारिकस्य बोधिकशाला निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २२ ॥ ..सागारिकस्य दौषिकशाला साधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २३ ॥
सागारिकस्य दौषिकशाला निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् , एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् । सू० २४॥ - सागारिकस्य सौत्रिकशाला साधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता, तस्माद् दद्यात् , नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २५ ॥
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व्यवहारस्त्रे सागारियस्स सोत्तियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० २६॥
सागारियस्स बोंडयसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० २७॥
सागारियस्स बोडयसाला निस्साहारणबक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० २८॥
सागारियस्स गंधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० २९॥
सागारियस्स गंधियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० ३०॥
सागारियस्स सोडियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पई पडिगाहित्तए ॥ सू० ३१॥
सागारियस्स सोडियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० ३२॥ ... छाया-सागारिकस्य सौतिकशाला निःसाधारणावक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् , एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २६ ॥
सागारिकस्य बोंडजशाला साधारणावक्रयप्रयुक्ता, तस्माद् दद्यात् नो तस्थ कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २७ ॥ .. सागारिकस्य बोंडजशाला निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० २८ ॥ ..... सागारिकस्य गान्धिकशाला साधारणावक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ।। सू० २९ ॥ ....... सागारिकस्य गान्धिकशाला निःसाधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३० ॥
सागरिकस्य शौण्डिकशाला साधारणाऽवक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् मो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३१ ॥ .. सागारिकस्य शौण्डिकशाला निासाधारणावक्रयप्रयुक्ता तस्माद् दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३२ ॥
..
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भीष्यम् उ० ९ सू० ३३-३६
औषध्या फलग्रहणाग्रहणविधिः २१३
भाष्यम् – 'सागारियस गोलियसाला' इत्यादीनि एकोनविंशतितमसूत्रादारभ्य द्वात्रिंत्तमसूत्रपर्यन्तानि चतुर्दश सूत्राणि चक्रिकाशालावत् प्रायः समानव्याख्यानानि सन्ति, तत्र विषमपदव्याख्या प्रतन्यते-‘गोलियसाला' गौडिकशाला - गुडविक्रयशाला ॥ सू० १९ ॥२०॥ 'बोधियसाला ' बोधिकशाला - तन्दुलादिक्रयाणकविक्रयशाला ॥ सू० २१।२२ ॥ 'दोसियसाला' दौषिकशाला - वस्त्रविक्रयशाला ॥ सू० २३ । २४ ॥ 'सोत्तियसाला' सौत्रिक - शाला - सुत्रविक्रयशाला ॥ सू० २५।२६ ॥ 'बोंडयसाला' बोण्डजसाला - कर्पासविक्रयशाला ॥ सू० २७।२८ ॥ 'गंधियसाला' गान्धिकशाला - गन्धद्रव्यविक्रयशाला ।। सू० २९ । ३० ।। 'सौडियसाला' शौण्डिकशाला - 'सुखडी' – तिप्रसिद्धमिष्टान्नविक्रयशाला कान्दविकापण इत्यर्थः ॥ सू० ३१।३२ ॥ तथाविधा अन्या अपि शाला भवेयुः, तासु सर्वासु शालासु मध्ये या या 'साहारणवक्कयपउत्ता' साधारणावक्रयप्रयुक्ता - सागारिकभागयुक्ता भवेत्तन्मध्याद्दीयमानं किमपि गुडादिवस्तुजातं साधूनां ग्रहीतुं नो कल्पते, तत्र सागारिकभागसत्वेन शय्यात रपिण्डदोषसद्भावात् । तथा-या या च ' निस्साहारणत्रक्कयपउत्ता' निस्साधारणावक्रयप्रयुक्ता - सागारिक भागवर्जिता स्वतन्त्रा गुडादिविक्रेतुरेव स्वाधीना न तु तत्र कस्याप्यन्यस्य सागारिकस्य वा आंशिकोऽपि भाग वर्त्तते तस्या लाभादिग्राही तदधिकारी च स एक एव भवेत्, अथवा सागारिकव्यतिरिक्ता अनेके वा भागिनो भवेयुः किन्तु यत्र सागारिकभागो न भवेत्तादृश्याः शालाया मध्याद्दीयमानं गुडादिवस्तुजातं साधूनां प्रतिग्रहीतुं कल्पते, तत्र सागारिकभाग रहितत्वान्न तद्ग्रहणे दोषः । इत्येकोनविंशतितमसूत्रादारभ्य द्वात्रिंशत्तमसूत्रपर्यान्तानां चतुर्दशसूत्राणां तात्पर्यम् ॥ एषु चतुर्दशसु सूत्रेषु मध्ये सप्तसु प्रथम- तृतीय - पश्चम-सप्तम नवमै-कादश-त्रयोदश-रूपेषु (१९-२१२३-२५-२७-२९-३१) शय्यातरभाग सत्त्वात्तत्तच्छालातो दीयमानं वस्तुजातं साधूनामकलयम् । तथा सप्तसु - द्वितीय - चतुर्थ - षष्ठाऽष्टम- दशम द्वादश- चतुर्दशरूपेषु (२०-२२-२४-२६२८-३०-३२) शय्यातरभागराहित्येन तत्तच्छालातो दीयमानं वस्तुजातं साधूनां कल्प्यमिति चतुर्दशसूत्राशयः । सू० १९-३२ ॥
पूर्व सागारिकशाला मधिकृत्य कल्पयाकल्प्यविधिः प्रदर्शितः, साम्प्रतं सूपकाररसवत्यां पथ्यमाना औषधीरधिकृत्य सागारिकाऽसागारिकाहारे कल्पयाकल्प्यविधिं सूत्रद्वयेनाह - 'सागा - रियtस ओसहीओ' इत्यादि ।
सूत्रम् - सागारियस्स ओसहीओ संथडाओ तम्हा दावए नो से कप्पर पडिगाहित्तए । सू० ३३ ॥
सागाfरयस्स ओसीओ असंथडाओ तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सु० ३४ ॥
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m
व्यवहार 3 छाया-सागारिकस्य औषधयः संस्तृताः ताभ्यो दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३३ ॥ सागारिकस्य औषधयोऽसंस्तृताः ताभ्यो दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू०३४॥
भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य-शय्यातरस्य 'ओसहीओ' औषधयः--शालिव्रीहिगोधूमादयः, तन्निष्पादितानि भोज्यजातान्यपि औषधिशब्देन व्यवह्रियन्ते तेन शाल्यादिनिष्पादितानि भोज्यजातानि, तदन्या वा ओषधयः सुण्ठ्यादयो या भवन्ति 'संथडायो' संस्तृताः--सूपकाररसवत्या सर्वसाधारणतया संस्कृताः पाचिताः, साधारणा इति यत्राऽन्येपि स्वत्वान्नादिकं पाचयन्ति ततः सर्वेषां संमिलिता इत्यर्थः 'तम्हा दावए' तस्माद्-अओषधिसम्बन्धिभोजनजातात् सूपकारः श्रमणाय दद्यात् 'नो से कप्पइ पडिगाहितए' सादृशं दीयमानमन्नादिकं नो-नैव 'से' सस्य-श्रमणस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३३ ॥
अथ च या औषधयः असंस्तृताः ----असाधारणाः सागारिकभागरहिताः, विभज्य तन्मध्यात् शय्यातरभागो निष्कासितो भवेत्तादृशभोजनमध्याद् यदि सूपकारो दद्यात्तदा कल्पते साधूनां प्रतिग्रहीतुम् । ___ अयं भावः-सूपकारस्य पाकशालायां विवाहादिविविधमहोत्सवप्रसङ्गे लोका विविधा औषधीः पाचयन्ति तत्र सागारिकोऽपि पाचयति, ता द्विप्रकारका भवन्ति संस्तृताः साधारणाः सर्वेषां भागयुक्ताः, असंस्तृता:-असाधारणाः अन्यभागरहिता इति । तत्र या औषधयः शय्यातरेण सह साधारणाः -शय्यासरेणाऽविभक्तीकृताः, ता औषषयो दीयमाना अपि साधूनां न कल्पते प्रतिग्रहीतुम् , सागारिकभागाविभतरवेन तासां सागारिकपिण्डत्वस्यैव सद्भावात्। ता एव विभक्तीकृताः सागारिकपिण्डरूपा न भवन्ति ततश्च ताः प्रतिग्रहीतुं कल्पते साधूनामिति सूत्रत्यभावः ॥ सू० -३४ ॥
पूर्वमोपषिविषयं कल्प्याकल्प्यसूत्रमुक्तम् , साम्प्रतमात्रफलान्यधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधि . सूत्रद्वयेनाह–'सागारियस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् – सागारियस्स अंबफला संथडा तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ सू० ३५॥
सागारियस्स अंबफला असंथडा तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए
छाया-सागारिकस्य--आम्रफलानि संस्तृतानि तेभ्यो दद्यात् नो तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३५ ॥ - सागारिकस्य--आम्रफलानि असंस्कृतानि तेभ्यो दद्यात् एवं तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सू० ३६ ॥
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भाग्यम् ७० ९ सू० ३७
सप्तसप्तकिकाभिक्षुप्रतिमास्वरूपम् २१५ भाष्यम्-'सागारियस्स' सागारिकस्य 'अंबफला' आम्रफलानि शर्करादिशस्त्रपरिजताम्रफलानीत्यर्थः सचित्तानामकल्प्यत्वात् 'संथडा' संस्तृतानि अविभक्तानि यथा-अन्यस्य यत्राधिकारः शय्यातरस्याऽपि तत्राधिकारो भवेत् 'तम्हा दावर' तेभ्यस्तादृशेभ्योऽचित्तफलखण्डेभ्यः साधवे दद्यात् तदा 'नो से कप्पइ पडिगाहित्तए' तादृशानि दीयमानानि आम्रखण्डानि न कथमपि 'से' तस्य श्रमणस्य प्रतिग्रहीतुं--स्वीकर्तुं कल्पते ॥ सू० ३५ ॥
अथ च यदि 'सागारियस्स' सागारिकस्याऽचित्तानि आम्रफलखण्डानि 'असंथडा' असंस्तृतानि-सागारिकभागरहितानि भवेयुः, तदा तन्मध्यादीयमानानि तान्याम्रफलानि साधूनां कल्पते ॥ सू० ३६ ॥
पूर्व शय्यातरपिण्डो न ग्राह्य इति प्रोक्तम् , तस्याऽग्रहणेऽज्ञातभिक्षाग्रहणरूपोऽभिग्रहो जातः, प्रतिमाऽपि चाभिग्रह एवेत्यभिग्रहप्रसङ्गात् प्रतिमा विधिमाह-'सत्तसत्तमिया णं' इत्यादि ।
सूत्रम्-सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एग्णपन्नाए राईदिएहिं एगेण छन्नउएणं भिक्खासरणं अहामुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मकाएणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए अणुपालिया भवइ ॥ सू० ३७ ॥
छाया--सप्तसप्तकिका खलु भिक्षुपतिमा एकोनपञ्चाशता रात्रिंदिवैरेकेन षण्णवतेन भिक्षाशतेन यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग यथातथ्य सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्त्तिता आशया अनुपालिता भवति ॥ सू० ३७ ॥
भाष्यम्-'सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा' सप्तसप्तकिका खलु भिक्षुप्रतिमा, तत्र- सप्त सप्तकानि विद्यन्ते यस्यां सा सप्तसप्तकिका, अथवा-सप्तभिः सप्तकैरन्तः समाप्तियस्याः सा सप्तसप्तकिका, 'सत्तसत्तमिया' इत्यत्र ककारस्य मकारः प्राकृतत्वात् 'णं शब्दो' वाक्यालङ्कारे, सप्तसप्तकिका-सप्तसप्तकदिवसयुक्ता प्रतिमा (४९) एकोनपञ्चाशदिवससंपाधा प्रतिमेत्यर्थः । तदेवाह-सा च प्रतिमा-अभिग्रहविशेषरूपा सप्तसप्तकिका प्रतिमा, 'एगृणपन्नाए राइदिएहि' एकोनपञ्चाशता रात्रिंदिवैः, सप्तानां सप्तभिर्गुणने जायन्ते एकोनपञ्चाशद्रात्रिन्दिवानि, तैः, तथा-'एगेण छन्नउएणं भिक्खासएणं' एकेन षण्णवतेन भिक्षाशतेन, दिनानां सप्तसप्तके एकोनपञ्चाशद् दिवसा भवन्ति, तत्र च पण्णवत्यधिक भिक्षाशतं भवति । तथाहि-प्रथमसप्तके प्रतिदिनमेकैका दत्तिराहारस्य पानस्य च गृह्यते ७ । द्वितीये सप्तके द्वे द्वे दत्ती १४ । तृतीये सप्तके तिस्रस्तिस्रो दत्तयः २१ । चतुर्थे सप्तके चतनश्चतम्रो
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व्यवहारसूत्रे दत्तयः २८ । पञ्चमे सप्तके पञ्च पञ्च दत्तयः ३५, षष्ठे सप्तके षट् षट् दत्तयः ४२ । सप्तमे सप्तके सप्त सप्त दत्तयो गृह्यन्ते ४९। इति सप्तभिः सप्तकैरेकोनपञ्चाशदिवसैर्जायते. षण्णवत्यधिकमेकं शतम् (१९६) भिक्षादत्तीनामिति ।
॥ सप्तसप्तकिकाभिक्षुप्रतिमाकोष्टकम् ॥
संकलनम्
७ ।
दत्तिः
।
दत्तिः
दत्तिः
।
Im]
३
।
३
m|
दत्तिः
४
२८
0|
दत्तिः
5
|
दत्तिः
४२
दत्तिः
४९
संकलनम्
संकलनम् २८ | २८ | २८ | २८ | २८ | २८ | २८ | १९६
एषा च सप्तसप्तकिका भिक्षुप्रतिमा 'अहासुत्तं' यथासूत्रम्-सूत्रमनतिक्रम्य यद् भवतितत् , सूत्रोक्तप्रकारान् अनतिक्रम्येत्यर्थः । 'अहाकप्पं' यथाकल्प-कल्पमनतिक्रम्य साधुकल्पानुसारमित्यर्थः । 'अहामग्गं' यथामार्गम् मार्गः-ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपः, तमनतिक्रम्य यद् भवति तत् , ज्ञान-दर्शन-चारित्राणामविराधनेनेत्यर्थः । 'अहातच्चं' यथातथ्यं , तथ्यं-वास्तविकता, तद् अनतिक्रम्य-एकान्ततः सूत्रानुसारेण संपादितं सत्यतयेत्यर्थः । 'सम्मकाएणं' सम्यग्यथार्थतया कायेन कायग्रहणात् त्रिविधेनापि मनोवाक्काययोगेन ‘फासिया' स्पर्शिताविराधनारक्षणतः सेविता, 'पालिया'पालिता सम्यगूरूपेण परिपालनात् , अत एव 'सोहिया' शोधिता ईषदपि अतिचाराभावत् 'तीरिया' तारिता तीरं-पारं-नीता-प्राप्ता पर्यन्तं नीतेत्यर्थः, 'किट्टिया' कीर्तिता-आचार्याणां पुरतः कथिता यथा मया प्रतिमा समाप्तेति, 'आणाए अणुपा. लिया भवई' आज्ञया-तीर्थकराज्ञया-तीर्थकराज्ञानुसारेण अनुपालिता-सम्यगूरूपेण प्रतिपालिता भवति सा सप्तसप्तकिका भिक्षुप्रतिमा ॥ सू० ३५ ॥
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भाष्यम् उ० ९ सू० ३८-३९
अष्टाष्टकिकां भिक्षुप्रतिमामाह – 'अट्ठअट्ठमिया' इत्यादि ।
सूत्रम् - अअहमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राईदिएहिं दोहि य अट्ठासी र्हि भिक्खा एहिं अहासुतं अहाकप्पं अामगं अहातच्च सम्मकारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए अणुपालिया भवइ || सू० ३८ ॥
छाया - अष्टाष्टकका खलु भिक्षुप्रतिमा चतुष्षष्ट्या रात्रिन्दिवैः द्वाभ्यां चाष्टाशीताभ्यां भिक्षाशताभ्यां यथासूत्रम् यथाकल्पम् यथामार्गम् यथातथ्यम् सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कोर्त्तिता आज्ञयाऽनुपालिता भवति ।। सू० ३८ ।।
भाग्यम्- 'अअहमिया णं भिक्खुपडिम!' अष्टाष्टकिका - अष्ट अष्टकानि दिनानां प्रमाणं यस्यां सा अष्टाष्टकिका एतादृशी भिक्षुप्रतिमा 'चउसठ्ठीए राईदिए हिं' चतुष्षष्ट्या चतुष्षष्टिकैः - चतुष्षष्टिसंख्यकै रात्रिन्दिवैः - अहोरात्रैः, तथा 'दोहि य अट्ठासीएहिं भिक्खास एहिं ' द्वाभ्यामष्टाशीताभ्यां निक्षाशताभ्याम्, तथाहि - अष्ट अष्टकानीति अष्ट अष्टभिर्गुणने चतुष्षष्टिरहोरात्राणि अस्याः स्म्पन्नतायां भवन्ति । एषु चतुष्षष्टिसंख्यकेषु दिवसेषु प्रथमेऽष्टके एकैका दत्तिरिति अष्ट दत्तयः ८, द्वितीयेऽष्टके द्वे द्वे दत्ती इति षोडश दत्तयः १६, तृतीयेऽष्टके तिस्रस्तिस्रो दत्तय इति चतुर्विंशतिर्दत्तयः २४, चतुर्थेऽष्टके चतस्रश्चतस्र इति द्वात्रिंशद् दत्तयः ३२, पञ्चमेऽष्टपञ्च पञ्चेति चत्वारिंशदत्तयः ४०, षष्ठेऽष्ट षट् षडिति अष्टचत्वारिंशदत्तयः ४८, सप्तमेऽष्टके सप्त सप्तेतिं षट्पञ्चाशद्दत्तयः ५६, अष्टमेऽष्टकेऽष्टाष्ट दत्तयो भिक्षाया इति चतुष्षष्टिर्दत्तयः ६४ | आसां सर्व संकलने चतुष्षष्टिदिवसैर्जाते अष्टाशीत्यधिके द्वे शते (२८८) भिक्षादत्तीनामिति । एतावद्भिक्षादत्तिभिरेषा अष्टाष्टकिका भिक्षप्रतिमा यावदाज्ञयाऽनुपालिता भवति । शेषं सर्वं पूर्ववदेव व्याख्येयम् ॥ सू० ३८ ॥
॥ अष्टाष्टकका भिक्षुप्रतिमाकोष्टकम् ॥
१
२
३
४
दत्तिः
१
दत्तिः २
दत्तिः
३
दत्तिः ४
दत्तिः
दत्ति:
दत्ति:
दत्तिः
5/10
67
८
१
२
३
व्य २८
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60
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१
२
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१
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| ० | sw
6.
अष्टाष्टaar-rana ककाभिक्षु प्रतिनि० २१७
८
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G
१
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|
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१
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७
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२४
३२
४०
४८
५६
६४
१९६
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२१८
व्यवहारसूत्रे अथ नवनवकिकां भिक्षुप्रतिमामाह -'नवनवमिया णं' इत्यादि ।
सूत्रम्-'नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एगासीए राइदिएहिं चउहि य पंचुत्तरेहिं भिक्खासरहिं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मकाएणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किटिया आणाए अणुपालिया भवइ ।। सू० ३९ ॥
. छाया-नवनवकिका खलु भिक्षुप्रतिमा एकाशीत्या राबन्दिवैः चतुर्भिश्च पञ्चोसरैभिक्षाशतैः यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग यथातथ्यं सम्यकायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आक्षयाऽनुपालिता भवति ॥ सू० ९॥
भाष्यम्-'नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा' नवनवतिका नवेति नवसंख्यकानि नवकानि यस्यां सा नवनवकिका भिक्षुप्रतिमा 'एगासीए राइंदिरहि' एकाशीत्या रात्रिन्तिदैः एकाशीतिसंख्यकैरहोरात्रैरित्यर्थः 'चउहि य पंचुत्तरेहिं भिक्खासा हि' पञ्चोत्तरैः पचाधिक: चतुर्भिश्च भिक्षाशतैः ।
तथाहि-प्रथमे नवके प्रतिदिनमेकैका दत्तिरिति नव ९, द्वितीये नवके द्वे द्वे दत्ती इति अष्टादश १८, तृतीये नवके तिस्रस्तिस्र इति सप्तविंशतिः २७, चतुर्थे नवके चतस्रश्चतस्र इति षत्रिंशत् ३६, पञ्चमे नवके पञ्च पञ्चे ते पञ्चचत्वारिंशत् ४५, षष्ठे नवके षट् पडिति चतुपञ्चाशत् ५४, सप्तमे नवके सप्त सप्तेति त्रिषष्टिः ६३, अष्टमे नवके अष्टाष्ठेति द्विसप्ततिदत्तयः ७२, नवमे नवके नव नवेति--''कातिर्दत्तयः ८१, आसां सर्वसंकलने एकाशीतिदिवसैः पञ्चोत्तराणि चत्वारि शतानि (४०५) भिक्षाया भवन्ति । एतावा क्षादत्तिभिरेषा नवनवकिका भिक्षुप्रतिमा यावदाज्ञयाऽनुपालिता भवति । शेषं स स सप्तकिकाभिक्षुप्रतिमासूत्रवद् व्याख्येयम् ॥ सू० ३९ ॥
॥ नवनवकिकाभिक्षुप्रतिमाकोष्टकम् ॥ दत्ति: | १ | १ | १ | १ | १ | १ | १ | १ | १ | ९ | दत्तिः | २ | २ | २ | २ | २ | २ | २ | २ | २ | १८
दत्तिः | ३ ३ | ३ | ३ | ३ | ३ | ३ | ३ | ३ | २७ दत्तिः
|
दत्तिः
5
|
03
दत्तिः
|
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
८२
संकलनम्
| ४५/४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५१०५
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भाष्यम् उ० ९ सू० ४०
दशदशकिकाभिक्षुप्रतिमानिरूपणम् २१९ अथ दशदशकिकां भिक्षुप्रतिमामाह- 'दसदसमिया गं' इत्यादि ।
सूत्रम्-दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसएणं अद्धछठेहि य भिक्खासएहिं अहामुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मंकाएणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किटिया आणाए अणुपालिया भवइ । सू०४० ॥
छाया-दशदशकिका खलु भिक्षुप्रतिमा एकेन रात्रिन्दिवशतेन अर्द्धषष्ठेश्च भिक्षाशतैः यथासूत्रम् यथाकल्पम् यथामार्गम् यथातथ्यम् सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्त्तित्ता आशया अनुपालिता भवति ॥ सू० ४० ॥
भाष्यम्-'दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा' दशदशकिका खलु भिक्षुप्रतिमा, तत्र दशदशकिका-दश दशकानि यस्यां सा दशदशकिका, एतादृशी भिक्षुप्रतिमा अभिग्रहविशेषः। सा च भिक्षुप्रतिमा 'एगेणं राइंदिघसएणं' एकेन रात्रिन्दिवशतेन, दश दशभिर्गुणिताः भवति शतमेकं रात्रिन्दिवानामिति रात्रिदिवानामेकशतेन, तथा शतसंख्यकदिवसेषु 'अद्धछटेहि य भिक्खासएहि' अर्द्धषष्ठैश्च भिक्षाशतैः, अर्द्ध पष्ठं शतं भिक्षाणां यत्र तानि अर्द्धषष्ठानि भिक्षाशतानिः, तैः पञ्चाशदधिकैः पञ्चभिः शतै रत्यर्थः (५५०), शतसंख्यकै रात्रिन्दिवैः, तत्संबन्धिभिः पञ्चाशदधिकपञ्चशत( ५५०)संख्यकैः भिक्षाप्रमाणैरेषा दशदशकिका भिक्षुप्रतिमा यथासूत्रं यथाकल्प यथामार्ग यथातथ्यं सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आज्ञया अनुपालिता भवति ।
अथ भिक्षुप्रतिमानां कालप्रमाणं भिक्षाप्रमाणं तत्प्रमाणानयनविधिश्च प्रदर्श्यते, तथाहितत्र सप्तसप्तकिकायाः काल: एकोनपञ्चाशद् रात्रिन्दिवानि ४९ । अष्टाष्टकिकायाः प्रतिमायाः कालः चतुष्षष्टी रात्रिन्दिवागि ६४। नवनवकिकाया एकाशीती रात्रिन्दिवानि ८१। दशदशकिकायाः परिपूर्ण शतं रात्रिन्दिवानाम् १०० । सर्वप्रतिमानामधिकृतसूत्रचतुष्टयोपेतानां पृथक् पृथगेतावानेव भवति काल इति कालप्रमाणम् ।
___ सम्प्रति भिक्षापरिमाणमाह-सप्तसप्तकिकायां भिक्षापरिमाणं षण्णवत्यधिकं शतम् (१९६) भिक्षाणां भवति । अष्टाष्टकिकायाम्-अष्टाशीत्यधिके द्वे शते (२८८) भिक्षाणां भवतः। नवनवकिकायां पञ्चोत्तराणि चत्वारि शतानि (४०५) । दशदशकिकायां प्रतिमायामर्द्धषष्ठानि पञ्च शतानीति पञ्चाशदधिकानि पञ्च शतानि (५५०) भिक्षाणां भवन्ति ।
भिक्षाप्रमाणानयनविधिः प्रदश्यते - तथाहि-सप्तसप्तकवर्गदिवसाः एकोनपञ्चाशत् (४९) ते मूलदिवसैः सप्तभिर्युताः क्रियन्ते, ततो जाताः षट्पञ्चाशत् (५६)। तेऽर्धीक्रियन्ते, ततो जाता अष्टाविंशतिः (२८) । सा मूलेन सप्तकेन गुण्यते, तदा-आगतं षण्णवत्यधिकं शतम् (१९६) । सप्तसप्तकिकाप्रतिमाभिक्षापरिमाणम् ।
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व्यवहारस
तथा–अष्टाऽष्टकवर्गदिवसाः चतुष्षष्टिः (६४) । ते मूलदिवसैरष्टभिः संमिश्रयन्ते
जाता द्वासप्ततिः (७२) । तस्या अर्ध क्रियते, ततो जाताः षत्रिंशत् ( ३६ ) । ते मूलेगुण्यन्ते जाते द्वे शतेऽष्टाशीत्युत्तरे - ( २८८) अष्टाष्टकिकाप्रतिमाभिक्षापरिमागम् ॥
२२०
एवं नवनवकिकायां दशदशकिकायां च भिक्षुप्रतिमायां यथोक्तं भिक्षापरिमाणं ज्ञातव्यम् ॥ सू० ४० ॥
॥ दशदशकिका भिक्षुप्रतिमाकोष्टकम् ॥
१
१
१ १ १
२
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः
दत्तिः १० १०
संकलनम्
४ ন४ | ১০ | 5 | १ ७ ०
गाथा -
२
mr | २० | 5 | u
५
१ ० ० 2
२
| ४ | ० | 5 | १ ० ० ०
२
१०
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सप्तसप्तककादिभिक्षुप्रतिमाचतुष्टयस्य कालभिक्षापरिमाणादिसंग्राहकं गाथापञ्चकमाह - 'पढमाए' इत्यादि ।
- ' पढमाए पडिमाए, कालो एगूणपन्न दिवसागं । बीयाए उसट्टी, एगासीई य तइया ॥ १ ॥ चोत्थी सयमेगं, दिवसाणं होइ चउण्ह परिमाणं । भिक्खाणं परिमाणं, वोच्छं चउसुंपि पडिमासु ॥ २ ॥ दत्ती पढमे एगा, निच्चं वज्जि एवमिक्किक्कं । सत्त-ऽट्ठ-नवम-दसमं ं, सत्तगमाईं च भिक्खाणं ॥ ३ ॥
२०
३०
४०
५०
६०
७०
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भाष्यम् उ० १ सू० ४०
सप्तसप्तककादिप्रतिमानां कालभिक्षापरिमाणनि० २२१ छण्णउयं सयमेगं, अट्टासीई य दो सया या । पंचुत्तरा चउसया, पण्णासऽहिया य पंच सया ॥ ४ ॥ पडिमा चउपि य, भिक्खापरिमाणमेत्थ पुव्वत्तं । कमसो एया सव्वा, आणाए पालिया होंति" ॥ ५ ॥ इति । प्रथमायाः प्रतिमायाः काल एकोनपञ्चाशदिवसानाम् | द्वितीयायाश्चतुष्षष्टिः, एकाशीतिश्व तृतीयायाः ॥ १ ॥ चतुर्थ्याः शतमेकं दिवसानां भवति चतसृप्रतिमानाम् । भिक्षाणां परिमाणं वक्ष्ये चतसृष्वपि प्रतिमासु ॥ २ ॥ दत्तिः प्रथमे एका नित्यं वर्द्धयेद् एवमेकैकाम् । सप्तमाऽष्टम-नवम-दशमं, सप्तकादि च भिक्षाणाम् ॥ ३ ॥ षण्णवतं शतमेकम्, अष्टाशीतिश्च द्वेशे ते ज्ञेये ।
छाया
पञ्चोत्तराणि चतुरशतानि पञ्चाशदधिकानि च पञ्च शतानि ॥ ४ ॥ प्रतिमासु चतसृष्वपि च, भिक्षापरिमाणमत्र पूर्वोक्तम् । क्रमश एताः सर्वाः, आशया पालिता भवन्ति ।। ५ ।। इति ॥
कालः,
व्याख्या - 'पढमाए' इति । प्रथमायाः प्रतिमाया एकोनपञ्चाशदिवसा : ( ४९ ) एकोनपञ्चाशदिवसैः प्रथमा सप्तसप्तकिका भिक्षुप्रतिमा संपद्यते १ । एवं द्वितीया अष्टाऽष्टकिका भिक्षुप्रतिमा चतुष्षष्टिसंख्यकै दिवसैः (६४) संपद्यते २ । तृतीया नवनवत्रिका भिक्षुप्रतिमा एकाशोतिदिवसैः (८१) संपद्यते ३ । गा० १ ॥ चतुर्थी दशदशकिका भिक्षुप्रतिमा शतसंख्यकैर्दिवसैः (१००) संपद्यते । एतत्कालपरिमाणं चतसृष्वपि भिक्षुप्रतिमासु भवति ॥ गा० २ || अथ भिक्षाया दत्तिग्रहणपरिमाणं प्रदर्श्यते - 'दत्ती' इति आसु चतसृष्वपि प्रतिमासु प्रथमे सप्तकादिके इति प्रथमे सप्तके, प्रथमेऽष्टके, प्रथमे नवके, प्रथमे दश एकैका दत्तिर्भोजनस्य एका पानस्य च गृह्यते । एवम् अनेन प्रकारेण नित्यं सदा द्वितीयादिसप्तकादिषु एकैकां दत्ति भिक्षाणां वर्द्धयेत् । कियत्पर्यन्तमित्याह - 'सत्तट्ठ०' इत्यादि, सप्तमा - Sष्टम - नवम - दशमदशकं यावत् ।
अयं भावः - सप्तसप्तकिकायां प्रतिमायां सप्तमं सप्तकं यावदिति सप्तमसप्तकपर्यन्तं वर्द्धयेत् । अष्टाष्टकिकायां प्रतिमायाम् अष्टमाष्टकपर्यन्तं वर्द्धयेत् । नवनवकिकायां प्रतिमायां नवमनवकपर्यन्तं वर्द्धयेत् । दशदशकिकायां प्रतिमायां दशमदशकपर्यन्तमेकैकां दत्ति वर्द्धये - दिति ॥ गा० ३ ॥
अथ - - भिक्षापरिमाणमाह-- ' छण्णउयं' इत्यादि । 'छण्णउयं सयमेगं' इति षण्णवतंषण्णवत्यधिकमेकं शतं (१९६) सप्तसप्तकिकाप्रतिमायां भिक्षाणां भवति १ । 'अट्टासीई य दो सया' इति - अष्टाशीत्यधिकं शतद्वयम् (२८८) अष्टाष्टकिकाप्रतिमायां भिक्षाणां
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२२२
व्यवहारसूत्रे भवति २ । 'पंचुत्तरा चउसया' इति-पञ्चोत्तराणि चत्वारि शतानि (४०५) नवनवकिकाप्रतिमायां भिक्षाणां भवन्ति ३ । 'पण्णासऽहिया य पंच लया' इति-पञ्चाशदधिकानि पञ्च शतानि (५५०) दशदशकिका प्रतिमायां भिक्षाणां भवन्ति ४ ॥ गा० ४ ॥ अत्र-चतसृष्वपि प्रतिमासु 'कमसो' क्रमश:-अनुक्रमेण पूर्वोक्तम्-अनुपददर्शितं भिक्षापरिमाणं भवति । उपसंहरन्नाह-एया' इति-पताः सर्वाः- चतस्रोऽपि सप्तसप्तकिकादयो भिक्षुप्रतिमाः 'आणाए' आज्ञया तीर्थकराज्ञया 'पालिया' पालिता - अनुपालिता भव-तं ति ॥ गा० ५ ॥ इति ॥
। भिक्षुप्रतिमानां दिवसपरिमाणभिक्षापरिमाणकोष्ठकम् ॥ प्रतिमानामानि दिवसपरिमाणम्
भिक्षा परिमाणम् सप्तसप्तकिका
१९६
अष्टाष्टकिका
२८८
नवनवकिका
८१
४०५
दशदशकिका
१००
॥ इति भिक्षुप्रतिमाप्रकरणं समाप्तम् ॥ सू० ४०॥ पूर्व सप्तसप्तकिकाया आरम्य दशदशकिकापर्यन्तं भिक्षुप्रतिमाचतुष्कं प्रदर्शितम्, प्रतिमाप्रसङ्गात् साम्प्रतं मोकप्रतिमाद्वयं प्रदर्शयन्नाह–'दो पडिमाओ' इत्यादि ।
सूत्रम्-'दो पडिमाओ पन्नत्ताओ तंजहा--खुड्डिया वा मोयपडिमा' १, महल्लिया वा मोयपडिमा २ । खुड्डियण्णं मोयपडिमं पडिबन्नस्स अणगारस्रा कप्पइ पढमसरयकालसमयंसि वा चरमनिदाहकालसमयंसि वा बहिया ठावियब्या गामस्स वा जाव रायहाणीए वा वर्णसि वा वणदुग्गंसि वा पब्वयंसि वा पव्ययदुग्गंसि वा, भोच्चा आरुभइ चउद्दसमेणं पारेइ, अमोच्चा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ, जाए जाए मोए आवियत्वे, दिया आगच्छइ आवियव्वे, राई आगच्छइ नो आवियव्वे, सपाणे मत्ते आगच्छइ नो आवियव्वे, अप्पाणे मत्ते आगच्छइ आवियब्बे, सवीए मत्ते आगच्छइ नो आवियत्वे, अबीए मत्ते आगच्छइ आवियव्वे, ससणिद्धे मते आगच्छइ नो आवियव्वे, असणिद्धे मत्ते आगच्छइ आवियव्वे, ससरक्खे मत्ते आगच्छइ नो आवियव्वे, असरक्खे मत्ते आगच्छइ आवियन्वे । जाए जाए मोए आवियव्वे, तंजहा-अप्पे वा बहुए वा । एवं खलु एसा खुढिया मोयपडिमा अहामुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मकारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए अणुपालिया भवइ ॥ सू० ४१ ॥
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भाष्यम् उ० ९ सू० ४१
क्षुद्रिका मोकप्रतिमायालनविधिः २२३
छाया - द्वे प्रतिमे प्रज्ञप्ते तद्यथा क्षुद्रिका वा मोकप्रतिमा १, महतिका वा मोकप्रतिमा २ | क्षुद्रिकां खलु मोकप्रतिमां प्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पते प्रथमशरत्कालसमये वा चरमनिदाघकालसमये वा बहिः स्थापयितव्या, ग्रामस्य वा यावद्राजधान्या वावने व वनदुर्गे वा पर्वते वा पर्वतदुर्गे वा, भुक्त्वा आरोहति चतुर्दशेन पारयति, अभुक्त्वा आरोहति षोडशेन पास्यति, जातं जातं मोकमापातव्यम्, दिवा आगच्छति आपा तव्यम्, रात्रौ आगच्छति तो आपातव्यम्, सप्राणं मात्रम् आगच्छति नो आपातव्यम्, अप्राणं मात्रम् आगच्छति आपातकम् सबीजं मात्रम् आगच्छति नो आपातव्यम्, अबीज़ं मात्रम् आगच्छति आपातव्यम्, सस्निग्धं मात्रम् आगच्छति नो आपातव्यम् अस्निग्धं मात्रम् आगच्छति आपातव्यम्, सरजस्कं मात्रम् आगच्छति नो आपातव्यम्, अरजस्कं मात्रम् आगच्छति आपातव्यम् । जातं जातं मोकमापातव्यम् तद्यथा - अल्पं वा बहुकं वा । एवं खलु पपाद्रिका मोकप्रतिमा यथासूत्रम् यथाकल्पम् यथामार्गम् यथातथ्यम् सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्त्तिता आज्ञया अनुपालिता भवति ॥ सू० ४१ ॥
भाष्यम् – 'दो पडिगाओ पन्नत्ताओ द्वे - द्विप्रकारिके प्रतिमे प्रज्ञप्ते कथिते, 'तंजहा ' तद्यथा - 'खुड्डिया वा मोयपडिगा महल्लिया वा मोयपडिमा ' क्षुद्रिका वा मोकप्रतिमा महतिका वा मोकप्रतिमा । तत्र मोकं कायिकी, तत्प्रधाना प्रतिमा मोकप्रतिमा, मोचयति पापकर्मभ्यः साधुमिति मोकं तत्प्रधाना प्रतिमा गोकप्रतिमा, अस्यां प्रतिमायां सिद्धायां कचिन्मुनिः कालं कुर्वन् कर्मविमुक्तः सिद्धो भवति, देवो वा महर्द्धिको भवति, अथवा रोगाद्विमुच्यते शरीरेण कनकवर्णो जायते । उत्सर्गमार्ग प्रधानेयं प्रतिमा, तां न कातरः पालयितुं शक्नोति । तत्र प्रथमं क्षुल्लिका मोकप्रतिमास्वरूपं प्रदर्शयति- 'खुडियं णं मोयपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स' क्षुद्रिका मोकप्रतिमां प्रतिपन्नस्य प्राप्तस्यान परस्य साधोः 'कप्पड़' कल्पते 'पढमसरयकालसमयंसि वा ' प्रथमशरत्कालसमये- शरत्कालस्य प्रथमसमये - मार्गशीर्षे 'चरम निदाहकालसमयंसि वा' चरमनिदाघकालसमये - उष्णकालस्य चरमसमये आपाढमासे 'बहिया ठावेयव्वा' बहिः स्थापयितव्या बहिर्गत्वा समाचरणीया, कस्य वहिरित्याह- 'गामस्स वा जाव रायहाणीए वा ग्रामस्य वा याव - द्राजधान्या वा बहिः, यावत्पदेन - आकर नगर निगम खेटकर्वटमडम्बद्रोणमुखपत्तनाश्रम संबा हसन्निवेशानां संग्रहस्तेन आकरनगरादिराजमनीपर्यन्तानां बहिरिति भावः । कुत्र स्थाने ? इत्याह- 'वर्णसि वा
दुग्गंसि वा' वने वा - एक नातीय वृक्षसमुदायरूपे, वनदुर्गे वा नानाजातीय सघन वृक्षसमुदायरूपे, 'पन्च वा पव्वयदुग्गंसि वा' पर्वते वा प्रसिद्धे, पर्वतदुर्गे वा अनेकपर्वतसमुदायरूपे गत्वेयं क्षुद्रिका मोकप्रतिमा समाचारणीया भवेत् । भोच्चा आरुभइ' भुक्वा भोजनं कृत्वा आरोहति, तथाहि -मोक प्रतिमाप्रतिपन्नो मुनिर्निषद्यां चोलपट्टे कायिकींपात्रकं च गृहीत्वा ग्रामादेर्बहिर्गत्वा एकान्ते प्रतिमां प्रतिपद्यते । तत्र कायको समागमे तां मात्रके व्युत्सृज्यानापातेऽसंलोके दिशालोकं कृत्वा आपिबेत् । तां प्रतिमां यदि 'भोच्चा आरुमइ' भुक्त्वा स्वीकरोति तदा - 'चउदस मेणं पारेइ' चतुर्दशेनच-तुर्दशभक्तेन
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व्यवहारसूत्रे
षभिरुपवासैः पारयति - पारणां करोति 'अभोच्चा आरुभइ सोलसमेण पारेइ' अथ यदि अभुक्त्वाभोजनमकृत्वा आरोहति प्रतिमां प्रतिपद्यते तदा षोडशेन षोडशभक्तेन सप्तभिरुपवासैः पारयति पारणां करोति । तत्र विधिमाह - प्रतिमासमाचरणकाले ' जाए जाए मोए आविय वे' जातं जातं मोकं मात्रकं प्रस्रवणमित्यर्थः आपातव्यम्, तत्रापि यत् ' दिया आगच्छ आवियव्वे' दिवा दिवसे आगच्छति मोकं तत् आपातव्यम् 'राई आगच्छइ नो आविवे' यत् रात्रौ आगच्छति तद् नो आपातव्यम् रात्रौ वीर्यप्राणादेरदर्शनात् किन्तु परिष्ठापयितव्यम्, एवमग्रेऽपि योज्यम् । मोकं द्विविधं भवति - स्वाभाविकं तदितरद्वा, तत्र स्वाभाविकं प्राणादिवर्जितं तदितरत् प्राणादिसंमिश्रम्, तत्र स्वाभाविकं पातव्यम्, अस्वाभाविकं परिष्ठापनीयम्, तदेवाह - तत्रापि दिवसेsपि यदि 'सपाणे मत्ते आगच्छ नो त्रियव्वे' सप्राणं जीवविशिष्टं मात्रकम् आगच्छति तदा नो आपातव्यं न पातव्यम्, 'अपाणे मत्ते आगच्छइ आवियव्वे' अप्राणम् - प्राणिविवर्जितं मात्रमागच्छति तदा आपातव्यम् । सप्राणं मोकमेवं भवेत् - उदरे कृमयो भवेयुस्ते चोष्णप्रकृत्या तापिताः सन्तो मोकेन सार्द्धमागच्छेयुः, ताँश्च छायायां निःसृजेत्, 'सबीए मत्ते आगच्छइ नो आवियव्वे' सीजं बीजमिति वीर्यम् वीर्यविशिष्टं मात्रकमागच्छति तदा नो आपातव्यम्, 'अबीए मत्ते आगच्छ आवियन्वे' यदि अबीजं वीर्यरहितं मात्रकमागच्छति तदा आपातव्यम् । 'सद्धेि मत्ते आगच्छ नो आवियव्वे' सस्निग्धं स्नेहविशिष्टं चिक्कणं मात्रक मागच्छति तदा नो आपातव्यम्, 'असणिद्धे मत्ते आगच्छइ आवियन्वे' अस्निग्धं चिकणतावर्जितं मात्रकम् आगच्छति तदा आपातव्यम् । शौकाः पुद्गला द्विविधा भवन्ति - चिकणा अचिक्कणाश्च तत्र अचिक्कणा वीर्यरहिता इत्यर्थः, चिक्कणाः सवीर्याः सस्निग्धा उच्यन्ते, ते उभयेऽपि देहस्य “शैथिल्ये तपोजनितौष्ण्येन तापिताः सन्तो मोकेन सार्द्धं प्रपतन्तीति, 'ससरक्खे मत्ते आगच्छ नो आवियव्वे' सरजस्कं रजोविशिष्टं प्रमेह रोगजन्यकणिकामिश्रितं मात्रकमा - गच्छति तदा न आपातव्यम् किन्तु परिष्ठापनीयम् ' असरक्खे मत्ते आगच्छर आवियन्वे' अरजस्कं रजोरहितं मात्रक्रमागच्छति तदा आपातव्यम् । तन्मोकं कियत्परिमितं पातंत्र्यम् अल्पं व सर्वं वा ? तत्राह ' जाए जाए' इत्यादि, 'जाए जाए मोए आवियन्वे' जातं जातं मोकं मात्रकं सर्वमापातव्यम् । ‘तंजा' तद्यथा - 'अप्पे वा बहुए वा' अल्पं वा बहुकं वा तत्सर्वं मोकं पातव्यम् । अथोपसंहरन्नाह
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' एवं खलु एसा खुडिया मोयपडिमा अहासुत्तं' इत्यादि 'जात्र अणुपालिया भवइ' इत्यन्तम् एवम् कथितप्रकारेण खलु एषा क्षुद्रिका मोकप्रतिमा यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्गं यथातथ्यं सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्त्तिता आज्ञया तीर्थकराज्ञया अनुपालिता भवति, एतेषां पदानां व्याख्या पूर्वसूत्रे गता ॥ सू० ४१ ॥
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भाष्यम् उ० ९ सू० ४३
पात्रधारिसंख्यादत्तिकभिक्षुकभिक्षाविधिः २२५
पूर्व क्षुदिकामोकप्रतिमा प्रदर्शिता, साम्प्रतं महतीं मोकप्रतिमां प्रदर्शयति - 'महल्लियं' इत्यादि ।
सूत्रम् — महल्लियं णं मोयपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पड़ से पढमसरयकालसमयसि वा चरम निदाहकालसमयंसि वा बहिया ठावियन्त्रा, गामस्स वा जाव
यहाणीए वा वर्णसि वा वणदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पव्त्रयदुग्गंसि वा, भोच्चा आरुभइ सोलसमेण पारेइ, अभोच्चा आरुभइ अट्ठारसमेण पारेइ, जाए जाए मोए आवियव्वे तह चैव जाव अणुपालिया भवइ ॥ सू० ४२ ॥
छाया - महतीं खलु मोकप्रतिमां प्रतिपन्नस्य अनगारस्य कल्पते तस्य प्रथमशरत्कालसमये वा चरमनिदाघकालसमये वा बहिः स्थापयितव्या ग्रामस्य वा यावद्राजधान्या वा वने वा वनदुर्गे वा पर्वते वा, पर्वतदुर्गे वा भुक्त्वा आरोहति षोडशेन पारयति अभुक्त्वा आरोहति अष्टादशेन पारयति, जातं जातं मोकमापातव्यम् तथैव यावद् अनुपालिता भवति ॥ सू० ४२ ॥
भाष्यम् – 'महल्लियं णं मोयपडिमं महतीं खलु मोकप्रतिमाम् 'पडिवन्नस्स' प्रतिपन्नस्स-प्राप्तस्य 'अणगारस्स' अनगारस्य - श्रमणस्य 'कप्पड़' कल्पते 'से' तस्य श्रमणस्य 'पढमस रयकालसमयसि वा ' प्रथमशरत्कालसमये - मार्गशीर्षमासे वा 'चरमनिदाहकालसमयंसि वा' चरमनिदाघकालसमये वा - आषाढमासे वा 'बहिया ठावेयव्वा गामस्स वा जाव रायहाणीए वा' बहिः स्थापयितव्या - बहिः समाचरणीया भवति, कस्येत्याह-ग्रामस्य वायावद्राजधान्या वा 'वर्णसि वा वणदुग्गंसिवा' वने वा - वनविषये वा वनदुर्गे - वनदुर्गविषये वा, 'पव्वयंसि वा पन्चयदुग्गंसि वा' पर्वते वा पर्वतदुर्गे वा श्रमणस्य प्रतिमां ग्रहीतुं कल्पते इति पूर्वेणान्वयः ।
अथ यदि श्रमणः 'भोच्चा आरुभइ' भुक्त्वा यदि प्रतिमामारोहति - स्वीकरोति तदा 'सोलसमेण पारेइ' षोडशेन - षोडशभक्तेन - सप्तोपवासरूपेण पारयति पारणां करोति 'अभोच्चा आरुभ अङ्कारसमेणं पारेइ' अथ यदि अभुक्त्वा प्रतिमामारोहति - स्वीकरोति तदा - अष्टादशेन भक्तेन अष्टोपवासरूपेण पारयति - पारणां करोति, अस्यां प्रतिमायाम् ' जाए जाए मोए आवियब्वे' जातं जातं मोकं कायिकीत्यर्थः, आपातव्यम् । 'तह चेव' तथैव क्षुद्रिकाप्रतिमावदेव सर्वोऽपि आलापकोऽत्र ग्रहीतव्यः कियत्पर्यन्तमित्याह - 'जाव आणाए अणुपालिया भवइ' यावद आज्ञया अनुपालिता भवति, इति पर्यन्तम् । अत्रस्थानां सर्वेषां पदानां व्याख्या क्षुद्रिकामोकप्रतिमावत् कर्त्तव्या। एते द्वे अपि प्रतिमे धृतिबलसंपन्नस्यैव भवति न तु कातरस्येति ॥ सू० ४२ ॥
स्थ. २९
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व्यवहारस्त्रे पूर्व मोकप्रतिमाद्वयं प्रतिपादितम्, प्रतिमाधारी च दत्तिरूपेण भिक्षां गृह्णाति, तत्र किं नाम दत्तिरिति-दत्तिस्वरूपं प्रदर्शयति--'संखादत्तियस्स णं' इत्यादि ।
सूत्रम्-संखादत्तियस्स णं भिक्खुस्स पडिग्गहधारिस्स गाहावइकुलं पिंडवाय पडिवाए अणुप्पविद्वस्स जावइयं केइ अन्तो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलएज्जा तावइयाओ दत्तीओ वत्तव्वं सिया, तत्थ से केइ छब्बएण वा दूसरण वा चालएण वा अंतो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलएज्जा सावि णं सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया, तत्थ बहवे भुजमाणा सव्वे ते सयं सयं पिंडं साहणिय अंतो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलएज्जा सव्वा विणं सा एगा दत्ती वत्तव्यं सिया ॥ सू० ४३॥
छाया-संख्यादत्तिकस्य खलु भिक्षोः पतिग्रहधारिणो गाथापतिकुलं पिण्डपात प्रतिक्षया अनुप्रविष्टस्य यावत्कं कश्चित् अन्तः प्रतिग्रहस्य उच्चैः कृत्वा दद्यात् तावत्यो दत्तयो वक्तव्यं स्यात्, तो तस्य कश्चित् छब्बकेण वा दूष्यकेण वा चालकेण वा अन्तः प्रतिग्रहस्योच्चैः कृत्वाः दद्यात् सापि खलु सा एका दत्तिः वक्तव्यं स्यात्, तत्र बहवो भुजानाः सर्वे ते स्वकं स्वकं पिण्डं संहृत्य अन्तः प्रतिग्रहस्य उच्चैः कृत्वा दद्यात् सर्वाऽपि खलु सा एका दत्तिः वक्तव्यं स्यात् ॥ सू०४३॥
भाष्यम्-'संखादत्तियस्स णं' इति । संखादत्तियस्स णं' संख्यादत्तिकस्य खलु संख्या एकद्वित्रादिपरिमाणरूपा, तामाश्रित्य दत्तिः भिक्षाया अव्यवच्छिन्नतया निपातनम् दत्तिरूपाऽन्नस्य पानस्य च भिक्षा यस्य स संख्यादत्तिकः, तस्य संख्यादत्तिकस्य 'भिक्खुस्स' भिक्षोःदत्तिरूपाभिग्रहधारिश्रमणस्य, कीदृशस्य--पडिग्गहधारिस्स' प्रतिग्रहधारिणः-पात्रसहितस्येत्यर्थः, 'गाहावइकुलं' गाथापतिकुलं-गृहस्थगृहम् 'पिंड़वायपड़ियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया-आहारग्रहणेच्छया 'अणुप्पविद्वस्स' अनुप्रविष्टस्य--गृहस्थगृहे गतस्य 'जावइयं यावत्कं-यावद्वारम् आछिद्य आछिद्य द्वित्रादिवारं कृत्वाऽन्न-पानं च 'अन्तो पडिग्गहस्स' अन्तः प्रतिग्रहस्य पात्रस्य मध्ये 'उच्चित्ता' उच्चैः कृत्वा--उपरित उद्धृत्य 'दलएज्जा' दद्यात् 'तावइयाओ दत्तीओ' तावत्य एव दत्तयो भवन्तीति 'वत्तव्यं सिया' वत्तव्यं स्याद् ।
अयं भावः-एकस्यामपि भिक्षायामुपरि उत्पाटितायां यावतो वारान् आच्छिद्य--विच्छिद्य विरम्य विरम्य साधोः पात्रे अन्नं पानं च प्रक्षिपति तावत्यस्तत्र दत्तयो भवन्तीति । तत्र हस्तकेन पात्रकेण वा उत्पाटिता सा भिक्षेति कथ्यते । दत्तयः पुनस्तामेव भिक्षां यावतो वारान् अवच्छिद्य अवच्छिद्य क्षिपति तावत्यो दत्तयो भवन्तीति तात्पर्यम् ।
__ 'तत्थ से केइ' तत्र 'से' तस्य-साधोः कश्चित् श्रावकः, 'छब्बएण वा' छब्बकेन वा वंशदलमयेन पात्रेण 'छाबड़ी' ति लोकप्रसिद्धेन, 'दूसरण वा' दृष्येण-वस्त्रेण वा, 'चालएण वा' चालकेन वा-'चालनी'-ति लोकप्रसिद्धेन पात्रेण 'अंतो पडिग्गहस्स' अन्तः पतद्ग्रहस्य पात्रमध्ये 'उच्चित्ता' उच्चैः कृत्वा भिक्षामुपर्युत्पाट्य 'दलएज्जा' दद्यात् 'सावि णं सा एगा
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भाष्यम् उ० ९ सू० ४४
पाणिपात्रसंख्यादत्तिकभिक्षुभिक्षाविधिः २२७ दत्ती वत्तव्वं सिया' साऽपि खलु सा-एका दत्तिरिति वक्तव्यं स्यात् । इदमेकजनमाश्रित्य कथितम्, सम्प्रति-अनेकजनानाश्रित्य कथयति-'तत्थ से हवे' इत्यादि, 'तत्थ ब ब हवे भुंजमाणा' तत्र-गृहस्थगृहे बहवोऽनेके भुञ्जाना भोजनं कुर्वाणा भवेयुः 'सब्वे ते सयं सयं पिंडं' सर्वे ते स्वकं स्वकं-स्वकीयं स्वकीयं पिण्डमन्नादि 'साहणिय' संहृत्य-एकत्रीकृत्य 'अंतो पडिग्गहस्स' अन्तः पतद्ग्रहस्य पात्रमध्ये 'उच्चित्ता' उच्चैः कृत्वा--उपरितः 'दलएज्जा' दद्यात् 'सव्वावि णं सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया' सर्वाऽपि खलु सा भिक्षा एका दत्तिरिति वक्तव्यं स्यात् ।
अयं भावः-ओदनादिकं ददानो गृहस्थो यावत्कं भोजनजातमेकवारेण पात्रे क्षिपेत् सा एकवारं पतिता भिक्षा दत्तिरुच्यते । पानकस्य च दाने यावत् पानकधारा त्रुटयते तावदेकादत्तिः कथ्यते । आहारजाते एकवारेण पात्रे पतिते--पानकद्रव्यस्य धाराविच्छेदे च यदि दाता पुनर्निक्षिपेत् तदा सा द्वितीया दत्तिर्भवेत् । एवं तृतीयचतुर्थादिवारेण तृतीयचतुर्थादिर्दत्तिर्जायते । तथा-गृहस्थस्य गृहे पथिकाः कर्मकरा वा एकाङ्गणे पृथक् पृथक् उपस्कृत्य भुञ्जते, तेषामेकः परिवेषकः स्यात् , साधुश्च तत्र तत्समये भिक्षार्थमनुप्रविष्टो भवेत् ततः स परिवेषकः 'ददामी'-तेि साधवे निवेदयति तत्समये भुञ्जानास्ते सर्वे वदेयु:- यत् प्रत्येकमस्मदीयभोजनमध्यादपि साध भिक्षां देहीति, ततस्तेन परिवेषकेण तेषां सर्वेषां भोजनमध्याद् गृहीत्वा गृहीत्वा एकत्रीकृत्य तद् भोजनजातं साधोः पात्रमध्येऽवच्छिन्नं प्रक्षिपेत्तदा बहुजनभिक्षासद्भावेऽपि सा एकैव दत्तिर्भवेत् एकेनैव वारेणाऽव्यवच्छिन्नतया पात्रे पतितत्वादिति । अत्र भिक्षा दत्तिश्चेति पदद्वयमधिकृत्य द्विकसंयोगे चतुर्भङ्गी भवति, तथाहि-एका भिक्षा--एका दत्तिः १, एका भिक्षाअनेका द तयः २, अनेका भिक्षा--एका दत्तिः ३, अनेका भिक्षा अनेका दत्तयः ४, इति । अत्र प्रथमभङ्गे दायकेनाऽव्यवच्छिन्ना एकेनैव वारेण दत्ता तत एका भिक्षा-एका दत्तिः १, द्वितीयभङ्गे व्यवच्छिद्य व्यवच्छिद्य दत्तेति-एका भिक्षा-अनेका दत्तयः २, तृतीयभङ्गे अनेका भिक्षा एका दत्तिः, अत्र दायकेन सर्वेषां भोजनजातमेकत्रीकृत्यैकवारेण अव्यवच्छिन्नतया दत्ता, अत्र 'तत्थ बहवे भुंजमाणा' इति सूत्रस्य पूर्वोक्तो भावो घटते ३। चतुर्थे भङ्गे अनेका बहुजनसत्का भिक्षा व्यवच्छिद्य व्यवच्छिद्याऽनेकवारेण दत्तेति-अनेका भिक्षा-अनेका दत्तयः ४, इति भङ्गचतुष्टयस्य स्पष्टीकरणम् ।
एवम्-एकानेकदायक-भिक्षा-दत्तीति पदत्रयमधिकृत्य त्रिकसंयोगे चतुर्भङ्गी प्रदर्श्यते-एको दायकः एका भिक्षा एका दत्तिः, अत्र एको दायक एकां भिक्षामेकवारेणाऽव्यवच्छिन्नतया ददातीति प्रथमो भङ्गः १, एको दायकः एका भिक्षा अनेका दत्तयः, अत्र-एको दायक एका भिक्षा बहुशो वारान् विच्छिद्य विच्छिद्य ददातीति द्वितीयो भङ्गः २, एको दायकः अनेका भिक्षा एका दत्तिः, अत्र
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२२८
व्यवहारसूत्रे एको दायकः अनेकां भिक्षामेकत्रीकृत्य एकवारेणाऽव्यवच्छिन्नतया ददातीति तृतीयो भङ्गः ३, एको दायकः अनेका भिक्षा अनेका दत्तयः, अत्र-एको दायकोऽनेकां भिक्षां बहुशो वारान् विच्छिद्य विच्छिद्य ददातीति चतुर्थो भङ्गः ४, इति ॥ सू० ४३ ॥
___ पूर्वोक्तं सूत्रं पतद्ग्रहमधिकृत्य दत्तिविषयकं कथितम् , सम्प्रति पाणिपतद्ग्रहविषयकं सूत्रमाह'संखादत्तियस्स णं इत्यादि ।
सूत्रम्-संखादत्तियस्स णं भिक्खुस्स पाणिपडिग्गहियस्स गाहाबइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स जावइयं केइ अंतो पाणिस्स उच्चित्ता दलएज्जा तावइयाओ दत्तीओ वत्तव्वं सिया, तत्थ से केइ छब्बएण वा दूसरण वा चालएण वा अतो पाणिस्स उच्चित्ता दलएज्जा सावि णं सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया, तत्थ से बहवे भुंजमाणा सव्वे ते सयं सयं पिंडं समाहणिय अंतो पाणिस्स उच्चित्ता दलएज्जा सव्वावि णं सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया ॥ सू० ४४ ॥
छाया-संख्यादत्तिकस्य खलु भिक्षोः पाणिपतद्ग्रहिकस्य गाथापतिकुलं पिण्डतिपातप्रतिक्षया अनुप्रविष्टस्य यावत्कं कश्चिद् अन्तः पाणेः उच्चैः कृत्वा दद्यात् तावत्यो दत्तयो वक्तव्यं स्यात् , तत्र तस्य कश्चित् छब्बकेन वा दूष्येण वा चालकेन वा अन्तः पाणेः उच्चैः कृत्वा दद्यात् सर्वाऽपि खलु सा एका दत्तिः वत्तव्यं स्यात् , तत्र तस्य बहवो भुजानाः सर्वे ते स्वकं स्वकं पिण्डं संहृत्य अन्तः पाणेः उच्चैः कृत्वा दद्यात् सर्वाऽपि खलु सा एका दत्तिः वक्तव्यं स्यात् ॥ सू० ४४ ॥
भाष्यम्-'संखादत्तियस्स णं भिक्खुस्स' संख्यादत्तिकस्य संख्यामाश्रित्य दत्तिरूपेण भिक्षाग्राहिणः खलु भिक्षोः, कीदृशस्य तस्य ? इत्याह-'पाणिपडिग्गहियस्स' पाणिपतद्ग्रहिकस्य भिक्षोः पाणिरेव पतद्ग्रह-पात्रं यस्य सः पाणिपतद्ग्रहः, स एव पाणिपतद्ग्रहिकः, यः पाणावेव करे एवान्नपानादिकं धृत्वा भुङ्क्ते तस्य 'गाहावइकुलं' गाथापतिकुलं-गृहस्थगृहम् पिंडवायेपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया-आहारग्रहणेच्छया 'अणुप्पविट्ठस्स अनुप्रविष्टस्य गृहस्थगृहे भिक्षार्थ गतस्य 'जावइयं' यावत्कं-यावद्वारमाछियाछिद्य द्वित्रादिवारम् , इत्यादि शेषं सर्वं पूर्वोक्त पतद्ग्रहधारिसुत्रवद् व्याख्येयम् , विशेष एतावानेव-पूर्वसूत्रे 'अंतो पडिग्गहस्स' इत्यस्य स्थाने 'अंतो पाणिस्स' इति पठनीयम् , 'अंतो पाणिस्स' अन्तः पाणेः हस्तस्य मध्ये इति व्याख्या कर्तव्येति ॥ सू०४४ .. पूर्व पतद्ग्रहधारिणः पाणिपतहिकस्य च दत्तिरूपो भिक्षाऽभिग्रहः प्रतिपादितः, साम्प्रतमभिग्रहप्रसङ्गाद् उपहृतमेव गृह्णातोति-उपद्वतस्वरूपमाह-'तिविहे उवहडे' इत्यादि ।
सूत्रम्-'तिविहे उवहडे पन्नत्ते, तंजहा-सुद्धोवहडे, फलिहोवहडे, संसहोवहडे ॥४५॥
छाया-त्रिविधमुपहृतं प्रक्षप्तम् , तद्यथा-शुद्धोपहतं फलिकोपहृतं संसृष्टोपहतम् ॥ सू० ४५॥
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भाष्यम् उ० ९ सू० ४५-४७
उपहृतादिभिक्षाभिग्रहधारिस्वरूपम् २२९
भाष्यम् - उपहृताभिग्रही स उपहृतं गृह्णाति तत् 'तिविह' त्रिविधं - त्रिप्रकारकम् 'उवहडे पन्नत्ते' उपहृतं प्रज्ञप्तम् कथितम्, उप समीपे - अन्यस्य भोक्तुः समीपे परिवेषणार्थं हृतम् गृहीतम् उपहृतं कथ्यते, तत् त्रिविधं प्रज्ञप्तम् तंजहा' - तद्यथा 'सुद्धोवहडे' शुद्धोपहृतम् १, 'फलिहोवहडे' फलिकोपहृतम् २, 'संसट्ठोवह डे' संसृष्टोपहृतम् ३, तत्र शुद्धोपहृतं यथा - यदि व्यञ्जनरहितं केवलं तण्डुलादिकं गृहीत्वा दास्यति तदा ग्रहीष्यामीति शुद्धोपहृतम् १ | फलिकोपहृतं यथा फलिकं काष्ठपात्रम्, यदि काष्ठपात्रे गृहीत्वा दास्यति तदा ग्रहीष्यामि इति फलिकोपहृतम् २ | संसृष्टोपहृतं यथा - यदि 'शाकादिखरंडितपात्रे गृहीत्वा दास्यति तदा ग्रहीष्यामीति संसृष्टोप - तम् ३ । एतत्त्रिविधमुपहृतमुपहृताभिग्रहधारी भिक्षारूपेण गृह्णातीति ॥
अथ शुद्धादिपदानामर्थमाह- अत्र खलु यत् अलेपकृतं काञ्जिकेन पानीयेन वा न सन्मिश्रीकृतं तत्-शुद्धम्, अथवा व्यञ्जनादिरहितं शुद्धोदनं शुद्धम् । तच्च नियमतोऽलेपकृतम् १ । फलिकं नाम यत् काष्ठपात्रे गृहीतम्, अथवा फलितमिति व्यञ्जनैर्नानाप्रकारकै भौज्यवस्तुभिर्विरचितमिति २ । संसृष्टं नाम-भोक्तुकामेन गृहीतम्, यत् स्थाले परिवेषितम् ततो ग्रहणाय हस्ते, क्षिप्तो न तुमुखे प्रक्षिपति, अत्रान्तरे भिक्षार्थं कश्चित् साधुः समागतः यत् शाकादिना लेपकृतमलेपकृतं वा तत् संसृष्टमिति कथ्यते ३ । उपहृतं तु यद् भोक्तुकामेन गृहीतं तदुपहृतमित्युच्यते ॥ सू० ४५ ॥ अथावप्रहिताभिग्रहस्वरूपमाह - 'तिविहे' इत्यादि ।
सूत्रम् - तिविहे ओग्गहिए पण्णत्ते, तं जहा - जं च ओगिण्हइ जं च साइरह जं च आसगंसि पक्खिव एगे एवमाहंसु || सू० ४६ ॥
छाया - त्रिविधमवग्रहितं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - यदवगृह्णाति यच्च संहरति यच्च आस्यके प्रक्षिपति, एके एवमाहुः ॥ सू० ४६॥
भाग्यम् – 'तिविहे' त्रिविधम् - त्रिप्रकारकम्, 'ओग्गहिए पण्णत्ते' अवग्रहितम्, अबग्रहितं नाम अभिग्रहविशेषः प्रज्ञप्तं - कथितम् 'तं जहा ' तद्यथा - 'जं च ओगिण्हइ' यच्चाऽवगृह्णाति - भोज - नार्थं गृह्णाति, ‘जं च साहरइ' यच्च संहरति, यच्च भोजन पात्राद् निष्क्रामयति, 'जं च आसगंसि पक्खिवइ' यच्चाssस्यके मुखे प्रक्षिपति, एवमवग्रहितं त्रिविधं भवति । 'एगे' एके केचन आचार्यां एवं पूर्वोक्तप्रकारेण त्रिविधमवग्रहितम् आहुः - कथयन्तीति ॥ सू० ४६ ॥
अत्रान्याचार्यमतमाह – 'एगे पुण' इत्यादि ।
सूत्रम् - एगे पुण एवमाहंसु - दुविहे ओग्गहिए पन्नत्ते, तंजहा - जं च ओगिण्हs जं च आसगंसि पक्खिवइ ॥ ४७ ॥
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व्यवहार छाया--पके पुनरेवमाहुः-द्विविधमवग्रहितं प्राप्तम्, तद्यथा-यच्चावगृह्णाति यच्चाऽऽस्यके प्रक्षिपति ॥ सू० ४७ ॥
भाष्यम्- 'एगे पुण एवमाइंसु' एके पुनराचार्या अवग्रहितविषये एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति । तथाहि-'दुविहे 'ओग्गहिए पन्नत्ते' द्विविधं द्विप्रकारकमवग्रहितं प्रज्ञप्तं कथितं भगवता, अवग्रहितं नाम अवग्रहविशेषः 'तंजहा' तद्यथा 'जं च ओगिण्हई' यच्चा वगृह्णाति भोजनार्थ स्थापयति, 'जं च आसगंसि पक्खिबई' यच्चाऽऽस्यके मुखे प्रक्षिपति तत् , एव मवग्रहितं द्विविधं भवतीति ॥
ननु पूर्वमत्रावग्रहितं यच्चावगृह्णाति, यच्च संहरति यच्चास्ये प्रक्षिपतीति त्रिविधमुक्त्वा पुनरत्र द्विविधं प्रोकम् तत्कथं शास्त्रे वाक्यद्वैविध्यम् ? अत्राह–अत्र :यद् वाक्यद्वैविध्यं तदादेशान्तरेण भवति । आदेशो नाम यद् बहुश्रुतैराचीर्ण, न च तदन्यैर्युगप्रधानैर्वाधितं भवेत् स भवति नाम आदेश इत्येषः शास्त्रसंमतत्वाद् ग्राह्यः ततो नात्र वाक्यद्वैविध्यं शङ्कनीयमिति ।
___पुनः शङ्कते अत्र यदुक्तम् ‘जं च आसगंसि पक्खिवइ' अस्यायमर्थः यद् आस्यके मुखे प्रक्षिपति तद् गृह्णातीति तदुच्छिष्टं भवेदिति लोके साधोरवहेलना भवेत् यदयं साधुरुच्छिष्टं भुङ्क्ते इति तत् कथं तद् गृह्यते ? अत्राह-मुखे इति स्वमुखे प्रक्षिपतीति न, भोक्तुमुपविष्टानां दत्त्वा परिवेषकोऽवशिष्टं भोजनजातं भूयो भोजनस्थापनपात्रस्य पिठरादेर्मुखे प्रक्षिपति, तत्प्रक्षिपन् साधवे दद्यात् तद् गृह्णातीत्यर्थोऽवसेयः। ततः पिठरादिमुखमधिकृत्येदं सूत्रं प्रवर्तितम् ॥ सू० ४७॥
इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक___ प्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त
"जैनाचार्य" पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालवति-विरचिताया "व्यवहारसूत्रस्य"
भाष्यरूपायां व्याख्यायां नवमोदेशः समाप्तः ॥९॥
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॥ अथ दशमोदेशकः ॥
तदेवं नवममुद्देशं व्याख्याय संप्रति - दशमोदेशकः प्रारभ्यते, अस्य दशमोद्देशकप्रथम. सूत्रस्य नवमोदेशकचरमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ! इत्याह भाष्यकार : - 'पुव्वं ओग्गहियाभिह' इत्यादि ।
गाहा - पुवं ओग्गहियाभिह, अभिग्गहो देसिओ चरमसुते ।
पडिमा अभिग्गहो इह, वुच्चर एसेव संबंधो ॥ भा० गा० ॥ १ ॥ छाया - पूर्वम् अवग्रहिताभिधः अभिग्रहो देशितश्चरमसूत्रे ।
प्रतिमाभिग्रह इह, प्रोच्यते एष एव सम्बन्धः ॥ भा० गा० १ ॥ व्याख्या - पूर्वमिति पूर्वं नवमोद्देशकस्य चरमसूत्रे अवग्रहिताभिधः अवग्रहितनामकः अभिग्रहो देशितः कथितः । इह - दशमोदेशकस्य प्रथमसूत्रे प्रतिमाऽपि अभिग्रह एवेति कृत्वा प्रतिमाभिग्रहः यवमध्य - वज्रमध्य - चन्द्रप्रतिमाद्वयरूपोऽभिग्रहः प्रोच्यते तत एष एव संबन्धो नवमदशमोदेशकयोरिति ॥ भा० गा० १ ॥
अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य दशमोदेशकस्येदमादिमं सूत्रम् - 'दो पडिमाओ' इत्यादि । सूत्रम् - दो पडिमाओ पन्नत्ताओ तं जहा - जवमज्झा य चन्दपडिमा वइरमज्झा य चंदपडिमा । जवमं णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स निच्चं मासं वोसट्टकाए चियदेहे जे के परीसहोवसग्गा समुप्पज्जंति दिव्वा वा मणुस्सगा वा तिरिक्खजोणिया
अणुलोमा वा पडिलोमा वा, तत्थ अणुलोमा ताव वंदेज्जा वा नर्मसिज्जा वा सक्का - रेज्जा वा सम्माणेज्जा वा कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुपासेज्जा, पडिलोमा ताव अन्नयरेणं दंडेण वा अट्ठिणा वा जोत्तेण वा वेत्तेण वा कसेण वा काए आउट्टेज्जा ते सव्वे उपपन्ने सम्मं सहइ खमइ तितिक्खर अहिया सेइ ॥ सू० १ ॥
छाया - द्वे प्रतिमे प्रज्ञप्ते तद्यथा - यवमध्यचन्द्रप्रतिमा च वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा च । यवमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमां प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य नित्यं मासं व्युत्सृष्टकाये त्यक्तदेहे ये केचित्परीषहोपसर्गाः समुत्पद्यन्ते दिव्या वा मानुषका वा तैर्यग्योनिका वा - अनुलोमा वा प्रतिलोमा वा, तत्राऽनुलोमा तावद् वन्देत वा नमस्येद् वा सत्कारयेद्वा संमानयेद् वा कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पर्युपासेत, प्रतिलोमा तावत् अन्यतरेण दण्डेन वा अस्था वा जोत्रेण वा वेत्रेण वा कशया वा कायम् आकुटयेत् तान् सर्वान् उत्पन्नान् सम्यक् सहते क्षमते तितिक्षते अधिसहते ॥ सू० १ ॥
भाष्यम् -'दो पडिमाओ पन्नत्ताओ' - द्विप्रकारिके प्रतिमे प्रज्ञप्ते कथिते, तत्र प्रतिमाया द्वैविध्यं दर्शयितुमाह- 'तं जहा' इत्यादि 'तं जहा' तथथा - 'जवमज्झा य चंद पडिमा वरमज्झा य चंदपडिमा ' यवमध्या च चन्द्रप्रतिमा वज्रमध्या च चन्द्रप्रतिमा, तत्र - यवमध्य
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२३२
व्यवहारस्त्रे चन्द्रप्रतिमाया यवेनोषमा चन्द्रेण चोपमा, यवस्येव मध्यं पृथुलत्वेन यस्याः सा यवमध्या चन्द्राकारा प्रतिमेति व्युत्पत्तेः । एवं वनमध्यचन्द्रप्रतिमायाः वज्रेण 'चन्द्रेण च सादृश्यम् वज्रवद् मध्यभागस्तनुकत्वेन यस्याः सा वजमध्या चन्द्राकारा प्रतिमा वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा, इत्येवं द्विप्रकारिके प्रतिमे इति । तत्र-'जवमझं णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स' यवमध्यां खलु चन्द्राकारां प्रतिमां प्रतिपन्नस्य-प्राप्तस्य-प्रतिपन्नयवमध्यचन्द्रप्रतिमस्याऽनगारस्य भिक्षोः 'निच्चं मासं' नित्यं-सदा दिवा रात्रौ मासम् एकमासं यावत् यावान् प्रतिमाकालस्तावत्कालपर्यन्तम् 'वोसहकाए' व्युत्सृष्टकाये व्युत्सृष्टः ममत्वाभावेन विसर्जितः एतादृशश्चासौ कायश्च अस्थ्यादिचयात्मकत्वात्कायः शरीरमिति व्युत्सृष्टकायस्तस्मिन् ममत्ववर्जिते शरीरे इत्यर्थः । व्युत्सृष्टकायो द्विविधः-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो मलमलिनोऽप्यकृतस्नानः विभूषावर्जितः भूमिशायित्वादिरूपः, भावतो-व्युत्सृष्टकायो यो वातिक-पैत्तिक-श्लैष्मिकरोगातकैः स्पृष्टोऽपि कायममत्वाभावान्न काञ्चिदपि औषधभैषज्यादिना कायविषयां परिचारणादिरूपां चिन्तां करोति यः, एतादृशे ममत्ववर्जिते काये, यतो व्युत्सृष्टकायस्ततः 'चियत्तदेहे' त्यक्तदेहे कायममत्वरहितत्वेन त्यक्त इव त्यक्तश्चासौ देहश्च तस्मिन् त्यक्तदेहभावे परिणतात्मभावे शरीरे । एतादृशं देहं यदि कोऽपि हन्याद् बध्नीयात्, रुन्ध्यात् , ताडयेद्वा तथापि तं न निवारयति प्रत्युत धृतनिर्जराभाव एवं विभावयति-'नेदं शरीरं मम, शरीरमन्यद् अहं चान्योऽतः को मां मारयितुं शक्नोति अजरामरोऽहम् एतेन वघबन्धनादिना मम कर्मनिर्जरा भवति' इति भावनया भावितस्यानगारस्य तादृशे देहे 'जे केइ परीसहोवसग्गा' ये केचित् परीषहोपसर्गाः पहीषहाश्च उपसर्गाश्चेति परीषहोपसर्गाः, तत्र परोषहाः-क्षुत्पिपासादयो द्वाविंशतिविधाः, उपसर्गा देवादिकृतास्त्रिविधाः 'समुप्पज्जति' समुत्पद्यन्ते उपस्थिता भवन्ति, के ते उपसर्गाः ! इति उपसर्गान् प्रदर्शयति - 'दिव्वा वा मणुस्सगा वा तिरिक्खजोणिया वा' दिव्या वा मानुष्यका वा तैयग्योनिका वा, तत्र दिव्या-देवकृता भापनसंहरणादयः, मानुष्यका वधबन्धनादयः, तैर्यग्योनिकाः श्वापदादिकृताः, एते त्रिविधा अपि उपसर्गास्तस्मिन् त्यक्तममत्वे देहे समुत्पद्यन्ते । त इमे त्रयोऽपि परीषहोपसर्गाः प्रत्येकं चतुर्धा भवन्ति, सर्वसङ्कलनया द्वादश, तत्र दिव्या उपसर्गाश्चत्वारः-हासात् प्रद्वेषात् विमर्शतो विमात्रातो वा । एवं मनुष्यकृता अपि चत्वारः-हासात् प्रद्वेषात् विमर्शात् कुशीलप्रतिसेवनात् । तैरश्चा अपि चतुर्विधाः-भयात् प्रद्वेषतः, आहारकारणाद् , अपत्यरक्षाकारणतश्चेति भवेयुः ।
ते पुनः 'अणुलोमा वा' अनुलोमाः-प्रीतिकरा उपसर्गाः, 'पडिलोमा' प्रतिकूला वा । 'तत्थ अणुलोमा ताव' तत्राऽनुलोमप्रतिलोमोपसर्गयोर्मध्ये येऽनुलोमा देवादिकृताः तावत् कोऽपि देवादिः प्रतिमाभ्रंशकरणार्थ साधुम् 'वंदेज्जा' वन्देत वन्दनं कुर्यात् 'नमंसिज्जा' नमस्येत्-नमस्कारं कुर्यात् 'सक्कारेज्जा' सत्कारयेत्-साधोः सत्कारं कुर्यात् 'संमाणेज्जा वा' सम्मानयेत्-संमानं वा कुर्यात् 'कल्याणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुपासेज्जा' कल्याणं
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भाग्यम् उ० १० सु० २
यवमध्यचन्द्रप्रतिमास्वरूपम् २३३ कल्याणकरं, मङ्गलं-मङ्गलस्वरूपं, दैवतं-धर्मदेवस्वरूपं, चैत्य-ज्ञानस्वरूपं भवन्तं पर्युपासे' इत्युक्त्वा पर्युपासेत-समीपोपवेशनादिरूपामुपासनां कुर्यात् । ननु अनुलोमास्तु मनोगम्या भवन्ति तथाऽप्येते उपसर्गाः कथं भवेयुः, उपसर्गास्तु पीडोत्पादका भवन्तीत्यत्राह-प्रतिमाप्रतिपत्तितश्चलितकरणहेतुकत्वादात्मनो भावपीडोत्पादकत्वादेते उपसर्गशब्देन संबोधिता भगवतेति । 'पडिलोमा' प्रतिलोमाः-प्रतिकूला उपसर्गास्तावत् 'अन्नयरेण' अन्यतरेण ताडनसाधनानां मध्ये केनापि-अन्यतरेण एकेन, तथाहि-'दंडेण वा' दण्डेन वा-लकुटेन, 'अट्टिणा वा' अस्थना वा अस्थिरूपताडनसाधनेन, 'जोत्तेण वा' जोत्रेण वा--जोत्रमिति गोबलीवर्दादिबन्धकस्थूलदवरिकारूपेण 'वेत्तेणवा' वेत्रेण वा 'बेंत' इति लोकप्रसिद्धेन वा । 'कसेण वा' कशया वा 'चाबूक' इति लोकप्रसिद्धेन वा, एतादृशैस्ताडनसाधनभूतैः वस्तुभिः साधोः 'काएआउद्देज्जा' कायं--शरीरम्-आकुटयेत् ताड़येत् 'ते सव्वे उप्पन्ने' तान्-उपर्युक्तान् सर्वान् एव समुपस्थितान् 'सम्म' सम्यग् मनोमालिन्यराहित्येन 'सहइ' सहते सहनं करोति 'खमइ क्षमते सत्यामपि निवारणशक्तौ क्षमा करोति 'तितिक्खेई' तितिक्षते-निर्जराभावेन सहते 'अधियासेइ' अधिसहते अधि-निश्चलभावेन वासीचन्दनवृक्षवत् सहते । उक्तञ्च
वासीचंदणकप्पो, जह रुक्खो इय सुहदुहसमो उ ।
रागद्दोसविमुक्को, सहइ अणुलोम-पडिलोमे ॥ १॥ इति ॥ छाया-वासीचन्दनकल्पो, यथा वृक्ष इति सुखदुःखसमस्तु ।।
रागद्वेषविमुक्तः, सहते अनुलोम-प्रतिलोमान् ॥ १ ॥ इति ।। सू० १॥ मथ-यवमध्यचन्द्रप्रतिमायाः प्रतिपत्तिस्वरूपं प्रदर्शयति – 'जवमझं णं' इत्यादि ।
सूत्रम्-जवमझं णं चंदपडिमं पडिवरन्नस्स अणगारस्स सुक्कपक्खस्स पाडिवए कप्पइ एगं दत्तिं भोयणस्स पडिगाहित्तए एगं पाणगस्स, सम्वेहिं दुप्पयचउप्पयाइएहिं आहारकंखीहि सत्तेहिं पडिनियत्तेहिं अन्नायउंछं सुद्धोवहडं णिज्जूहित्ता बहवे समणमाहण-अइहि-किवण-वणीमगा. कप्पइ से एगस्स भुंजमाणस्स पडिगाहित्तए नो दोण्ह नो तिण्हं -नो चउण्डं नो पंचहं नो गुन्विणीए नो वालवच्छाए नो दारगं पेज्जमाणीए । नो से कप्पइ अंतो एलुयस्स दोवि पाए साहटु दलमाणीए. नो वाहिं एलुयस्स दोवि पाए साहटु दलमाणीए, अह पुण एवं जाणेज्जा एगं पायं अंतो किच्चा एगं पायं बाहिं किच्चा एलुयं विक्खंभइत्ता एयाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा आहारेज्जा, एयाए एसणाए एसमाणे नो लभेज्जा नो आहारेज्जा बिइज्जाए से कप्पइ दोण्णि दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तर दोणि पाणगस्स, सव्वेहिं दुप्पयचउप्पयाइएहिं जाव नो आहारेज्जा । एवं तइयार तिण्णि जाव पण्णरसीए पणरस ।
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२३४
व्यवहारसूत्रे बहुलपक्खस्स पाडिवए से कप्पइ चोदसदत्तीओ, बीयाए तेरस जाव चोदसीए एग दत्ति भोयणस्स एगं पाणगस्स सव्वेहिं दुप्षयचउप्पयाइएहिं जाव नो आहारेज्जा, अमावासाए से य अभत्तठे भवइ । एवं खलु एसा जवमज्झचंदपडिमा अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं कारणं फासिया-पालिया सोहिया तीरिया किटिया आणाए अणुपालिया भवइ ॥ सू० २॥
छाया-यवमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमां प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि कल्पते एकां दत्ति भोजनस्य प्रतिग्रहीतुम् एकां पानकस्य सर्वद्विपदचतुष्पदादिभिराहारकांक्षिभिः सत्त्वैः प्रतिनिवृत्तैः अज्ञातोंछ शुद्धोपहृतं निर्युह्य बहून् श्रमण-माहना-ऽतिथिकृपण-वनीपकान , कल्पते तस्यैकस्य भुजानस्य प्रतिग्रहीतुम् नो द्वयोः नो त्रयाणाम् नो चतुर्णाम् नो पञ्चानाम् , नो गुर्विण्याः नो बालवत्सायाः नो दारकं पाययन्त्याः, नो तस्य कल्पते, अन्तरेलुकस्य द्वावपि पादौ संहृत्य ददत्याः, नो बहिरेलुकस्य द्वावपि पादौ संहृत्य ददत्याः, अथ पुनरेवं जानीयात् एकं पादमन्तः कृत्वा-एकं पादं बहिः कृत्वा एलुकं विष्कम्भयित्वा एतया एषणया एषयन् लभेत आहरेत्, एतया एषणया एषयन् नो लभेत नो आहरेत् । द्वितीयायां तस्य कल्पते द्वे दत्ती भोजनस्य प्रतिग्रहीतुम् द्वे पानकस्य सर्वैः द्विपदचतुष्पदादिभिर्यावन्नो आहरेत् । एवं तृतीयायां तिम्रो यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदश। बहुलपक्षस्य प्रतिपदि तस्य कल्पते चतुर्दश दत्तीः, द्वितीयायां त्रयोदश यावच्चतुर्दश्यामेकां दत्ति भोजनस्य, एकां पानकस्य सर्वैद्विपदचतुष्पदादिभिर्यावत् नो हरेत्, अमावास्यायां स चाभक्तार्थों भवति । एवं खलु एषा यवमध्यचन्द्रप्रतिमा यथासूत्र यथाकल्पं यथामार्ग सम्यक कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आशयाऽनुपालिता भवति ॥ सू०२॥
भाष्यम्-'जवमझं णं चंदपडिम' यवमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमाम् , यवमध्यचन्द्रप्रतिमायाः यवेन चन्द्रेण चोपमा यववन्मध्यभागः-पृथुलो यस्या सा यवमध्या । तथा चन्द्राकारा प्रतिमा चन्द्रप्रतिमा- चन्द्रानुसारिणीत्यर्थः ।
अयं भावः-शुक्लपक्षस्य प्रतिपत्तिथौ चन्द्रविमानस्य पञ्चदशभागीकृतस्य एकैव कला दृश्या भवति, द्वितीयायां तिथौ द्वे कले चन्द्रविमानस्य दृश्येते, तृतीयायां तिस्रः, एवं पूर्णिमायां परिपूर्णाः पञ्चदशाऽपि कलाः दृश्यन्ते । ततः कृष्णपक्षस्य प्रतिपदि एकया कलया होनो दृश्यते चन्द्रस्य चतुर्दश कला दृश्यन्ते इत्यर्थः । द्वितीयायां तिथौ त्रयोदश कला दृश्यन्ते, तृतीयायां द्वादशैव, यावदमावास्यायामेकाऽपि कला न दृश्यते । तदेवमयं मासः आदौ ऊनः मध्ये संपूर्णः अन्ते पुनरपि परिहीनः । यद्वा-आदावन्ते च तनुको मध्ये विपुलः । एवं भिक्षुकोऽपि शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि तिथौ एकां दत्तिं भिक्षाया गृह्णाति, द्वितीयायां शुक्लपक्षस्य हे गृह्णाति, तृतीयायां तिस्रो दत्तीः गृह्णाति यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदश दत्तीहाति । कृष्णपक्षस्य प्रतिपदि पुनश्चतुर्दश दत्तीगुहाति, द्वितीयायां त्रयोदश, एवं क्रमेण यावत् चतुर्दश्याभेकैकोनत्वेन एका दतिं गृह्णातीति तेन अमा.
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भाष्यम् उ० १० सू० २
यवमध्यचन्द्रप्रतिमास्वरूपम् २३५
वास्यायां चोपोषितो भवति, चतुर्थभक्तं करोतीत्यर्थः । ततश्चचन्द्राकारतया चन्द्रप्रतिमा आदावन्ते च भिक्षायास्तनुत्वात् मध्ये विपुलत्वात् यवमध्योपमितमध्यभागा, एवम्भूतां यवमध्यचन्द्रप्रतिमाम् 'पडिवन्नस्स' प्रतिपन्नस्य 'अणगारस्स' अनगारस्य - साधोः स्वीकृतयवमध्यचन्द्रप्रतिमस्य भिक्षोः, 'सुक्कपक्खस्त पाडिवए' शुक्लपक्षस्य प्रतिपत्तिथौ ' कप्पड़' एगं दत्तिं भोगणस्स पडिगाहित्तए' कल्पते एकां दति भोजनस्य प्रतिग्रहीतुम्, तथा - ' एगं पाणगस्स' एकां दत्ति पानकस्य प्रतिग्रहीतुं कल्पते । कदा कल्पते ? इत्याह- 'सव्वेहिं' इत्यादि, 'सव्वेहिं दुप्पयच उप्पयाइएहिं आहारकं वीहिं सत्तेहिं पडिणियत्तेहिं' सर्वैर्द्विपदचतुष्पदादिभिराहारकाङ्क्षिभिः सत्त्वैः--प्राणिभिः आहारं कृत्वा प्रतिनिवृत्तैः अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात् तेन सर्वेषु द्विपदचतुष्पदादिषु आहारकाङ्क्षिषु सत्त्वेषु प्रतिनिवृत्तेषु सत्सु इत्यर्थः ।
अयं भावः - : - तस्मिन् समये साधुर्भिक्षार्थं गच्छेत् यदा सर्वेऽति द्विपदचतुष्पदादयो जीवा आहारकांक्षिणः आहारं कृत्वा प्रतिनिवृत्ता भवेयुस्तदवसरे साधुर्भिक्षार्थं परिभ्रमेदिति । कीदृशमाहारं गृह्णीयात्तत्राह-'अन्नायउंछं' अज्ञातोंछम्, अज्ञातस्य - अपरिचितकुलस्य उञ्छम् - अल्पमल्पं 'सुद्धोवहड़' शुद्धोपहृतम् निद षमाहारं दातुमुत्थापितम्, यद्वा शुद्धेन - सचित्तादिसंपर्करहितेन गृहस्थेन उपहृतम्–दातुं हस्ते गृहीतं तत् अन्यस्मै दत्त्वा अवशिष्टं स्याद्भवेत् । 'निज्जू हित्ता बहबे समण-माहण-अहि- किवण- वणीमगा' बहून् श्रमण - माहना ऽतिथि - कृपण-वनीपकान्, तत्रश्रमणः-शाक्य भेक्षुः, माहनो भिक्षावृत्तिको ब्राह्मणः, अतिथिः - प्राघुर्णकादिः, कृपणः दीनः, वनीपको - याचकः, इत्येतान् सर्वान् निर्यूह - - भिक्षाग्रहणप्रवृत्तान् वर्जयित्वा यदा ते भिक्षां गृह्णन्तो भवेयुस्तदा तत्र साधुना निक्षार्थं न गन्तव्यमिति भावः । तत्समये तत्र गतस्य 'कप्पड़ से एगस्स भुंजमाणस्स पडिगाहित्तए' कल्पते तस्य गृहस्थगृहे प्रविष्टस्य, तत्र एकस्य भुञ्जानस्य प्रतिग्रहीतुम्, एक एव पुरुषो या भुङ्क्ते तस्य हस्तादेवान्नपानादिकं प्रतिग्रहीतुं कल्पते किन्तु - 'नो दोण्हं नो तिह नो द्वयोः पुरुषयोर्भुञ्जानयोस्त्रयाणां वा भुञ्जानानाम् एवम्- 'नो चउन्हें नो पंचहे ' नो चतुर्णां नोवा पञ्चानां हस्ताद् भिक्षां प्रतिग्रहीतुं कल्पते, एवम् 'नो गुव्विणीए' नो गुर्विण्या गर्भवत्या हस्त त् 'नो बालबच्छाए' नो बालवत्सायाः यस्य बालोऽव्यक्तः, स न तस्या विरहे तिष्ठति एतादृश्या हस्तात्, एवम्- 'नो दारंग पेज्जमाणीए' नो दारकं पाययन्त्याः - बालकं स्तन्यं धायन्त्याः, या स्त्री बालकं स्तन्यं पायर्याति तद्धस्तादपि भिक्षां ग्रहीतुं न कल्पते, पुनश्च 'नो से कप्पइ अंतो एलयस्स दोवि पाए साहदटु दलमाणीए' न तस्य श्रमणस्य कल्पतेऽन्तर्मध्ये एलुकस्य - गृहदेहल्याः द्रावपि पादौ - चरणौ संहृत्य - स्थापयित्वा ददत्याः, गृहद्वाराभ्यन्तरे पादद्वयं संहृत्य या भिक्षां ददाति तद्धस्तादपि नो ग्रहीतुं कल्पते 'नो बाहिं एलुयस्स दोवि पाए साहहु दलमाणीए' नो-न वा बहि: - बहिर्भागे एलुकस्य - गृहद्वारस्य द्वावपि पादौ संहृत्य भिक्षां ददत्याः, गृहस्य बहिर्भागे चरणद्वयं स्थापयित्वा या भिक्षां ददाति तद्धस्तादपि ग्रहीतुं न कल्पते इति
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२३६
व्यवहारसूत्रे
पूर्वेण सम्बन्धः । तदा कथं कल्पते ? इत्याह- 'अह पुण एवं जाणेज्जा' अथ पुनरेवं जानीयात् - 'एगं पायं अंता किच्चा' एकं पादमन्तर्द्वारस्य कृत्वा, 'एगं पायं बाहि किच्चा' एकं पादमेल्लुकस्य-द्वारस्य बहिः– बहिर्भागे कृत्वा 'एलुयं विक्खभत्ता' एलुकं - गृहद्वारं विष्कम्भयित्वा द्वयोश्चरणयोर्मध्ये कृत्वा ददव्या हस्तात्कल्पते, 'एयाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा एतया एषणया एषयन् यदि लभेत, तदा ' आहा रेज्जा' आहरेत्- आहारं कुर्यात् तादृशमन्नपानादिकं ग्रहीतुं कल्पते इति भाव: 'एयाए एसणाए एसमाणे णो लभेज्जा णो आहारेज्जा' एतया एषणया एषयन् यदि नो लभेत तदा नो आहरेत् आहारं नो कुर्यात् । एषः प्रथमदिनभिक्षाग्रहणविधिरुक्तः, एवंरी - त्यैव द्वितीयादितिथिविषयेऽपि योजनीयमिति । एवम् 'बिइयाए से कप्पर दोणि दत्तीओ भोणस पडिगाहित्तए दो पाणगस्स' द्वितीयायां तिथौ 'से' तस्य यवमध्यचन्द्रप्रतिमां प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य कल्पते द्वे दत्ती भोजनस्य - भक्तौदनादेः प्रतिग्रहीतुं तथा द्वे दत्ती पानकस्य प्रतिग्रहीतुम् । कदा-कल्पते ? तत्राह - - ' सव्वेहिं दुप्पयच उप्पयाइएहिं आहारकंखीहिं सत्तेहिं पडिनियत्तेर्हि' सर्वेषु द्विपदचतुष्पदादिषु आहारकाङ्क्षिषु सत्वेषु - प्राणिषु प्रतिनिवृत्तेषु अनाउंछं सुद्धोवह जाव नो आहारेज्जा' अज्ञातोळं शुद्धोपहृतं यावत् नो आहरेत्, इत्यादि पदानि प्रतिपदालाप कोक्तवद् व्याख्येयानि ।
' एवं तइयाए तिणि जाव पण्णरसीए पण्णरस' एवं तृतीयायां तिथौ तिम्रो यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदश, पूर्वोक्तक्रमेण एकैकां दत्ति वर्द्धयन् पञ्चदश्यां - पूर्णिमायां पञ्चदश दत्तीभजनस्य, पञ्चदश पानकस्य प्रतिग्रहीतुं कल्पते ।
मासस्य शुक्लपक्षे दत्तीनां वर्द्धमानतामुपदर्थ मासस्य कृष्णपक्षे दत्तीनां ह्रासतां दर्शयितुमाह – 'बहुलपक्खस्स' इत्यादि, 'बहुलपक्खस्स पाडिवर से कप्पर चोदस दत्तीओ' बहुलपक्षस्य - कृष्णपक्षस्य प्रतिपदि प्रथमदिवसे तस्य - यवमध्यचन्द्रप्रतिमां प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य चतुर्दश दत्तोर्भोजनस्य तथा चतुर्दश दत्तीः पानकस्य प्रतिग्रहीतुं कल्पते इति भावः । एवम् 'बीयाए तेरस' द्वितीयायां त्रयोदश 'जाव' यावत् यावत्पदेन तृतीयायां द्वादश, चतुर्थ्यामेकादश, पञ्चम्याम् दश, एवं क्रमेण हापयन् 'चोदसीए एगं दर्त्ति भोयणस्स' चतुर्दश्यामेकां दत्ति भोजनस्य 'एगं दर्त्ति पाणगस्स' एकां दत्ति पानकस्य प्रतिग्रहीतुं कल्पते । कदा ? इत्याह – 'दुप्पयचउप्पयाइए हिं' द्विपदचतुष्पदादिषु भोजनकाङ्क्षिषु सत्त्वेषु - प्राणिषु प्रतिवृत्तेषु, इत्यादि 'जाव नो आहारेज्जा' यावत् नो आहरेत्, एतया एषणया एषयन् लभेत आहरेत, एतया एषणया नो लभेत नो आहरेदिति पूर्ववद् व्याख्येयम्, ततः 'अमावासाए से य अभतट्टे भवइ' अमावास्यायां -मासस्य चरमे दिवसे स च अभक्तार्थः, न भक्कमभक्तं - भोजन राहित्यं तदेव प्रयोजनं यस्य सोऽभक्तार्थः, उपोषितो भवतीति । ' एवं खलु एसा एवमुपर्युक्तप्रकारेण एषा - पूर्वप्रदर्शिता यवमध्यचन्द्रप्रतिमा 'अहासुतं'
जवमज्झचंदं पडिमा ' यथासूत्रम् - सूत्रानति -
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भाष्यम् उ० १०. सू० ३
वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमास्वरूपम् २३७ क्रमेण, 'अहाकप्पं यथाकल्पम्-सूत्रोक्तसाधुकल्पानतिक्रमेण, 'जाव अणुपालिया भवई' यावद् अनु पालिता भवति, यावत्पदेन यथामार्ग सम्यक्कायेन स्पर्शिता पालिता शोधिता तीरिता कीत्तिता आज्ञया, इत्येतेषां ग्रहणं भवति । तत्र यथामार्ग ज्ञान-दर्शन-चारित्रानतिक्रमण, सम्यग् निरतिचारं कायेन स्पर्शिता सेवनतः, पालिता जीवरक्षातः, शोधिता गुरुकथनानुसारतो निरतिचाराचरणतः, तीरितापर्यन्तं नीता, कीर्तिता-आचार्याणामने 'मया प्रतिमा संपादिता' इति निवेदिता, तीर्थकराणामाज्ञया अनुपालिता भवतीति ॥ सू० २॥
यवमध्यचन्द्रप्रतिमाकोष्ठकम्
शुक्लपक्षे प्रति. द्वि. तृ. च. पं. ष. स. अ. न. द. एका. द्वा. त्रयो. चतु. पूर्णिमा
१ २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५
कृष्णपक्षे प्रति. द्वि. तृ. च. पं. प. स. अ. न. द. एका. द्वा. त्रयो. चतु. अमा.
। । । । । । । । । । । । । । । १४. १३, १२,११, १०, ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २, १, ०
___ अभक्तार्थः
पूर्व शुक्लपक्षमाश्रित्य क्रियमाणा यवमध्यचन्द्रप्रतिमा प्रदर्शिता, साम्प्रतं-बहुलपक्षादारभ्य क्रियमाणां वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमां प्रदर्शयति- 'वइरमझं णं' इत्यादि ।
सूत्रम्-'वइरमज्झं णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स णिच्चं मासं वोसट्टकाए चियत्तदेहे जे केइ परिसहोवसग्गा समुप्पज्जति तंजहा-दिव्वा वा माणुस्सगा वा तिरिक्खजोणिया वा अणुलोमा वा पडिलोमा वा । तत्थ अणुलोमा ताव वंदेज्जा वा नमंसेज्जा वा-सक्कारेज्जा वा संमाणेज्जा वा कल्याणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्जा । पडिलोमा अन्नयरेणं दंडेण वा अद्विणा वा जोत्तेण वा वेत्तेण वा कसेण वा काए आउद्देज्जा ते सव्वे उप्पन्ने सम्मं सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेज्जा अहियासेज्जा ॥सू० ३॥
छाया-वज्रमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमां प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य नित्यं मार्स व्युत्सृष्ट काये त्यक्तदेहे ये केचित् परीषहोपसर्गाः समुत्पद्यन्ते तद्यथा-दिव्या वा-मानुषका वा तिर्यग्योनिका वा अनुलोमा वा प्रतिलोमा वा, तत्राऽनुलोमा तावत् वन्देत नमस्येत् सत्कारयेत् संमानयेत् कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पर्युपासेत । प्रतिलोमा अन्यतरेण--दण्डेन
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२३८
व्यवहारसूत्रे
वा अस्थमा वा जोत्रेण वा वेत्रेण वा कराया वा कायमाकुट्येत, तान् सर्वान् समुत्पन्नान् सम्यक् सहेत क्षमेत तितिक्षेत अधिसहेत ॥ सू० ३ ॥
भाष्यम् – वरमज्झं णं चंदपडिमं' वज्रमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमाम्, तत्र-वज्रस्येव मध्यं यस्याः सा वज्रमध्या चन्द्राकारा - चन्द्रतुल्या प्रतिमा - वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा, वज्रवद् आदौ अन्ते च स्थूला, मध्ये तनुकेत्यर्थः । कृष्णपक्षचन्द्राऽनुसारित्वात् चन्द्रानुसारिणी भवति ।
अयं भावः-वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमायां कृष्णपक्ष आदौ क्रियते तत एवं भावना - कृष्णपक्षस्य प्रतिपत्तिथौ चन्द्रविमानस्य चतुर्दश कला दृश्यन्ते, द्वितीयायां चन्द्रविमानस्य त्रयोदश कला दृश्यन्ते, तृतीयायां द्वादश यावत् चतुर्दश्याम् एकैव कला दृश्यते, अमावास्यायां तु एकापि कला चन्द्रविमानस्य न दृश्यते । ततः पुनरपि शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि चन्द्रविमानस्यैका कला दृश्यते द्वितीयायां द्वे कले दृश्येते, तृतीयायां तिस्रः कला दृश्यन्ते, एवं यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदशाऽपि कला दृश्यन्ते । तदयं मासः आदौ अवसाने च पृथुलो मध्ये तनुकः, वज्रमपि आदावन्ते च विपुलं मध्ये तनुकम् । एवंप्रकारेण श्रमणोऽपि भिक्षां गृह्णाति, कृष्णप क्षस्य प्रतिपदि चतुर्दश, द्वितीयायां त्रयोदश, तृतीयायां द्वादश यावत् चतुर्दश्यामेकैव, अमावास्यायाम् उपोषितो भवति । ततः पुनरपि शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि एकां भिक्षां गृह्णाति, द्वितीयायां द्वे भिक्षे, तृतीयायां तिस्रो भिक्षाः यावत् पञ्चदश्यां पच्चदश । तत एषा कृष्णपक्षगतचन्द्राकारतया चन्द्रप्रतिमा आदावन्ते च विपुलतया मध्ये च तनुतया वज्रमध्योपमितमध्यभागा इति वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा भवतीति । एतादृशीं वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमाम् 'पडिवन्नस्स' प्रतिपन्नस्य 'अणगारस्स' अनगारस्य साधोः 'णिच्चं मासं वोसटुकाए' नित्यं मासं मासपर्यन्तं व्युत्सृष्टकाये - परित्यक्त परिकर्मणि काये अत एव 'चियत्तदेद्दे' व्यक्त देहे त्यतात्मभावे देहे अनयोर्द्वयोः पदयोः सविस्तरमर्थो यवमध्य चन्द्रप्रतिमासूत्रे विलोकनीयः, एतादृशे देहे 'जे कइ परीसहोवसग्गा समुप्पज्जंति' ये केचित् परीषहोपसर्गाः शरीरविघातकाः परीषद्दाः उपसर्गाश्च समुत्पद्यन्ते - समागच्छन्ति तान् सर्वान् एव सोऽधिस हे ते - त्यग्रिमेण सम्बन्धः। ते के परीषहोपसर्गा इति तान् नामग्राहं दर्शयितुमाह - 'तंजहा' इत्यादि, तयथा - 'दिव्वा वा माणुस्सगा वा तिरिक्खजोणिया वा' इत्यादि, शेषं सर्व सूत्रं यवमध्यचन्द्रप्रतिमाबद् व्याख्येयम् ॥ सू० ३ ॥
पूर्वं वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमायाः स्वरूपं प्रदर्शितम्, सम्प्रति तस्याः पालनप्रकारः प्रदर्श्यते - 'वरमज्यं णं' इत्यादि ।
सूत्रम् - वइरमज्झणं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारम्स बहुलपक्खस्स पाडिवए says पन्नरस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए - पन्नरस पाणगस्स, सव्वेहिं दुप्पयच उपयाइएहि आहारकंखीहि जाव णो आहारेज्जा | बितियाए से कप्पर चउद्दस दत्तीओ भोयणस्स, चउद्दस पाणगस्स पडिगाहित्तए जाव णो आहारेज्जा । एवं जाव पणरसीए
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भाष्यम् उ० १० सू० ४
वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमास्वरूपम् २३९ एगा दत्ती। सुक्कपक्खस्स पाडिवए कप्पइ दो दत्तीओ, बीयाए तिण्णि जाव चउद्दसीए पणरस, पुण्णिमाए अभत्तढे भवइ । एवं खलु एसा वइरमज्झा चंदपडिमा अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं जार अणुपालिया भवइ ॥ सू०४॥
छाया-वज्रमध्यां खलु चन्दप्रतिमां प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य बहुलपक्षस्य प्रतिपदि कल्पते तस्य पञ्चदश दत्तीर्भोजनस्य प्रतिग्रहीतुम् पंचदश पानकस्य, सर्वैद्विपदचतुष्पदादिभिराहारकांक्षिभिः यावत् नो आहरेत् । द्वितीयायां तस्य कल्पते चतुर्दश दत्ती - जनस्य प्रतिग्रहीतुं चतुर्दश पानकस्य यावत् नो आहरेत् । एवं यावत् पञ्चदश्याम् (अमावास्यायाम्) एका दत्तिः। शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि कल्पते द्वे दत्ती, द्वितीयायां तिस्रः यावच्चतुर्दश्यां पञ्चदश, पूर्णिमायाम् अभक्तार्थो भवति । एवं खलु एषा वज्रमध्या चन्द्रप्रतिमा यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग यावत् अनुपालिता भवति ॥ सू०४॥
भाष्यम्-'वइरमझ णं चंदपडिम' वज्रमध्यां खलु चन्द्रप्रतिमाम् 'पडिवन्नस्स' अणगारम्स' प्रतिपन्नस्याऽनगारस्य-साधोः 'बहुलपक्खस्स' बहुलपक्षस्य कृष्णपक्षस्येत्यर्थः 'पाडिवए' प्रतिपदि-प्रतिपत्तिथी प्रथमदिवसे इत्यर्थः, 'कप्पइ पन्नरस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए' कल्पते पञ्चदश दत्नी जनस्य-भक्तौदनादेः प्रतिग्रहीतुम्, तथा-'पन्नरस पाणगस्स' पञ्चदश दत्तीः पानकस्यापि प्रतिग्रहीतुं कल्पते, कदा ? इत्याह-'सव्वेहिं दुप्पयचउप्पयाइएहिं आहारकंखीहिं जाव णो आहारेज्जा' सर्वेषु द्विपदचतुष्पदादिषु आहारकांक्षिषु प्रतिनिवृत्तेषु यावद् नो आहरेत्, एतया सूत्रोक्तया एषणया एषयन् यदि लभेत तदा-आहरेत्, एतया एषणया एषयन् नो लभेत तदा नो आहरेदिति सर्वत्रैव योजनीयम् । अत्र-यावत्पदगृहीतस्य सर्वस्यापि पाठस्याओं यवमध्यचन्द्रप्रतिमासूत्रे विलोकनीयः ।
"बितियाए चउद्द सदत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए जाव णो आहारेज्जा' कृष्णपक्षस्य द्वितीयायां तिथौ द्वितीयदिवसे इत्यर्थः 'से' तस्याऽनगारस्य कल्पते चतुर्दश दत्तीर्भोजनस्य-भक्तौदनादेः प्रतिग्रहीतुम् चतुर्दश पानकस्य पानस्यापि चतुर्दशैव दत्तीः प्रतिग्रहीतुं कल्पते, तत्र यदि एतया सूत्रोक्तया एषणया एषयन् लभेत तदा-आहरेत् यदि नो लभेत तदा नो आहरेत् , इति । एवं जाव पणरसीए एगा दत्ती' एवम्-अनेन प्रकारेण यावत् तृतीयात आरभ्य क्रमश एकैकोनत्वेन पञ्चदश्यां तिथौ-अमावास्यायाम् एका दत्तिर्ग्रहीतव्या भवति, एकां दत्ति प्रतिग्रहीतुं कल्पते । तदनन्तरम् 'मुक्कपक्खस्स पाडिवर' शुक्लपक्षस्य प्रतिपत्तिथौ कल्पते साधोः वे दत्ती प्रतिग्रहीतुम्, 'वीयाए तिण्णि' द्वितीयायां तिस्रः 'जाव चउद्दसीए पणरस' यावत् तृतीयात आरभ्य क्रमश एकैकवृद्धया चतुर्दश्यां तिथौ पञ्चदश, 'पुण्णिमाए अभत्तद्वे
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व्यवहारस्त्रे
भवइ' पूर्णिमायां पौर्णमास्यां तिथौ स प्रतिमाधारी साधुः अभक्तार्थः- भक्तप्रयोजनरहितः उपोषितो भवति । एवं खलु एसा वइरमज्झा चंदपड़िमा' एवम् उक्तप्रकारेण एषा - कथितस्वरूपा वज्रमध्या चन्द्रप्रतिमा, 'अहासुतं अहाकप्पं जाव अणुपालिया भवइ' यथासूत्रं यथाकल्पं यावदनुपालिता भवति, एषां पदानामर्थो यवमध्य चन्द्रप्रतिमा सूत्रेऽवलोकनीयः एवं प्रकारेण वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा निरूपिता भवति । एतावानत्र भेदो द्वयोर्यवमव्यवज्रमध्यचन्द्रप्रतिमयोः यत् यवमध्या चन्द्रप्रतिमा आदाववसाने च तनुका मध्ये च विपुला । वज्रमध्यचन्द्र प्रतिमा तु - आदाववसाने च विपुला मध्ये तनुकेति । सूत्रेऽर्थे च सति धृतिबलसंपन्न एव यवमध्यां वज्रमध्यां च चन्द्रप्रतिमां प्रतिपद्यते इति विज्ञेयम् ॥ सू० ४ ॥
२४०
तिथिः
दत्तिः
वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा कोष्टकम् कृष्णपक्षे
प्रति. द्वि. तृ. च. पं. प. स. अ. न. द. एका द्वा. त्र्यो. च. अमा. 111
१५, १४, १३, १२, ११, १०, ९, ८, ७, ६, ५, 8,
| | | | | | | | | | | |
प्रति द्वि. तृ. च. पं. प. स. अ. न.
तिथिः दति: २, ३, ४, ५, ६, ७, ८,
| | | | |
|
शुक्लसुक्षे
|
| │
९, १०,
३, २०
दश. ए. द्वा. त्रयो. च. पू.
11 ११, १२, १३, १४, १५, अभक्तार्थः
1 1 1 1
पूर्वं प्रतिमा प्रोक्ता, प्रतिमां चागमादिव्यवहारकुशल एवं पालयितुं समर्थो भवेदिति पञ्चविधं व्यवहारं प्रदर्शयति – 'पंचविहे ववहारे पन्नत्ते' इत्यादि ।
सूत्रम् - पंचविहे ववहारे पन्नत्ते तं जहा - आगमे १, सुए २, आणा ३, धारणा ४, ate ५ । जत्थेव तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्टवेज्जा, नो से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया सुएणं ववहारं पट्टवेज्जा, नो से तत्थ सुए सिया जहा से are आणा सिया आणाए ववहारं पट्टवेज्जा, नो से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा नो से तत्थ धारणा सिया, जहा से तत्थजीए,
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भाष्यम् उ० १० सू०-५
आगमादिपञ्चविधव्यवहारनिरूपणम् २४१ सिया जीएणं ववहारं पट्टवेज्जा, एएहिं पंचहि ववहारेहिं ववहारं पट्टवेज्जा तंजहा-आगमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं । जहा जहा आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा तहा ववहारं पट्ठवेज्जा । से किमाहु भंते ? आगमबलिया समणा णिग्गांथा । इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तया तया तहिं तहिं अणिस्सिओवस्सियं बवहारं ववहारेमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवइ ॥ सू० ५॥
छाया-पञ्चविधो व्यवहारः प्रज्ञप्तः तद्यथा-आगमः १, श्रुतम् २, आज्ञा ३, धारणा ४. जीतम् ५, यत्रैव तत्रागमः स्यात् । आगमेन व्यवहारं प्रस्थापयेत् १, नो अथ तत्रागमः स्थात् यथा अथ तत्र श्रुतं स्यात् श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेत् २, नो अथ तत्र श्रुतं स्यात् यथा अथ तत्राशा स्यात् आज्ञया व्यवहारं प्रस्थापयेत् ३, नो तत्राशा स्यात् यथा अथ तत्र धारणा स्यात् धारणया व्यवहारं प्रस्थापयेत् ४, नो अथ तत्र धारणा स्यात् यथा अथ तत्र जीतं स्यात् जोतेन व्यवहारं प्रस्थापयेत् ५, । एभिः पञ्चभिर्व्यवहारैर्व्यवहारं प्रस्थापयेत् तद्यथा-आगमेन श्रतेन, आशया, धारणया जीतेन, यथा यथा आगमः श्रतम् आक्षा धारणा जीतम् तथा तथा व्यवहारं प्रस्थापयेत् । अथ किमाहुर्भदन्त !, आगमबलिकाः श्रमणा निर्ग्रन्थाः। इत्येतं पञ्चविधं व्यवहारम् यदा यदा यत्र यत्र तदा तदा तत्र तत्र अनिश्रितोपश्रितं व्यवहारं व्यवहरन् श्रमणो निर्ग्रन्थः आशया आराधको भवति ॥सू०५॥
भाष्यम् - 'पंचविहे ववहारे पन्नत्ते' पञ्चविधः पञ्चप्रकारको व्यवहारः, तत्र-व्यवहरतीति व्यवहारः प्रज्ञप्तः-कथितः, तमेव पञ्चविधत्वं दर्शयितुमाह-'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'आगमे' आगमः, ताऽऽगच्छति प्राप्तो भवति मोक्षरूपोऽर्थोऽनेन, ज्ञानदर्शनचारित्ररूपो वाऽर्थे ऽनेन इत्यागमः द्वादशाङ्गगणिपिटकरूपः साधूनां प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो व्यवहार इत्यर्थः, अत्र गुणगुणिनोरभेदोपचाराद् गुणेन गुणी गृह्यते तेन आगम इति आगमव्यवहारी स च केवलज्ञानी १, मनःपर्यवज्ञानी २, अवधिज्ञानी ३, चतुर्दशपूर्वधरः ४, दशपूर्वधरः ५, नवपूर्वधरश्चेति षडेते आगमव्यवहारिणो भवन्ति ६ ।
एतेषु षट्सु उत्तरोत्तरं ग्राह्यः 'सुए' श्रुतम्-श्रुतव्यवहारी आचारप्रकल्पनिशीथादिसूत्रधारी, सत्र श्रुतशब्देन नवा दिपूर्वाणामपि ग्रहणं भवति, तेन नवपूर्वादिधरा अपि सूत्रव्यवहारिणः कथ्य ते २ । 'आणा' आज्ञा-आज्ञाव्यवहारी, यथा-केचिद्गीतार्था आचार्यादयः दूरदेशस्थिता जाबलक्षीणत्वेन विहृत्यागन्तुं न समर्था भवेयुस्तेषामाज्ञया, तीर्थकराज्ञया शास्त्रद्वारा वा व्यवह ति प्रायश्चित्तादि ददाति स आज्ञाव्यवहारीति ३ । 'धारणा' धारणाव्यवहारी, यो धारणय व्यवहरति स धारणाव्यवहारी, धारणा नाम गीतार्थगुर्वादिभिः कस्मैचिद्दत्ता शोध दृष्ट्वा तद्दत्ता शोधि श्रुत्वा वा धार्यते सा धारणा कथ्यते तया व्यवहा धारणाव्यवहारी प्रोच्यते, यथा-यः कश्चिद् गीतार्थव्यवहारी कस्मैचित् प्रायश्चित्तादि ददाति तच्त्वा -तदुक्तं धारयित्वा यः प्रायश्चितं ददाति स धारणाव्यहारीति कथ्यते ४ । 'जीए' जीतम्-गुरुपरम्परागत- म्य, ३१
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१४२
व्यवहार प्रक्रियारूपं तेन यो व्यवहरति स जीतव्यवहारी, यः पूर्वाचार्य परम्परामनुसृत्य प्रायश्चित्तादि ददाति स जीतव्यवहारी कथ्यते ५ ।
___ एषु पञ्चसु मध्ये एकैकाभावे उत्तरोत्तरेणाऽऽलोचना ग्रहीतव्येति प्रदर्शयति-'जत्थेव तत्थ' इत्यादि, 'जत्थेव तत्थ आगमे सिया आगमेण ववहारं पट्टवेज्जा' यत्रैव यत्र स्थाने आगमः आगमव्यवहारी भवेत् तत्र स्थानविशेषे आगमेन-आगमव्यवहारिणा व्यवहारं प्रस्थापयेत्, तत्र व्यवहारनिर्णयमागमव्यवहारिणैव कारयेत्-आगमव्यवहारिपार्श्व एव आलोचनां गृह्णीया. दिति भावः । आगमव्यवहारिणो जिनेन्द्राणामाज्ञयैव यथावस्थितं व्यवहारं व्यवहरन्ति किन्तुनाधिकं न न्यूनम् , तेषां रागद्वेषविनिर्मुक्तत्वात् । उक्तञ्च
"ते आगमववहारी, हवंति जे रागदोसनिम्मुक्का ।
जिणवरआणाए जे, ववहारं ववहरंति जहतत्थं" ॥१॥ छाया-ते आगमव्यवहारिणो, भवन्ति ये रागद्वेषनिर्मुक्ताः।
जिनवराज्ञया ये व्यवहारं व्यवहरन्ति यथातथ्यम् । १॥ इति । अतः प्रथमं तेषां पार्वे व्यवहारं प्रस्थापयेदिति । 'नो तत्थ आगमे सिया' अथ च यत्र नो आगमः-आगमव्यवहारी न स्यात् न भवेत् तदा 'जहा से तत्थ मुए सिया' अथ यथा तत्र श्रतम्-श्रतव्यवहारी भवेत् तहा 'सुएणं ववहारं पट्टवेज्जा' श्रुतेन श्रुतव्यवहारिणा व्यवहारं प्रस्थापयेत् श्रुतव्यवहारितः प्रायश्चित्तं गृह्णीयादित्यर्थः । 'नो से तत्थ सुए सिया' अथ नो तत्र श्रुतम्-श्रुतव्यवहारी स्यात् किन्तु 'जहा से तत्थ आणा सिया' यथा तत्राज्ञा स्यात् यदि श्रुतव्यवहारी न भवेत् किन्तु-आज्ञाव्यवहारी भवेत् तदा 'आणाए ववहारं पट्टवेज्जा' आज्ञया आज्ञाव्यवहारिणा व्यवहारं प्रस्थापयेत् आज्ञाव्यव. हारिद्वारा प्रायश्चित्तं गृह्णीयादित्यर्थः । 'नो से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया' अथ नो तत्राऽऽज्ञा स्यात् अथ यथा तत्र धारणा स्यात् , यदि कदाचित् यत्राज्ञाव्यवहारी न भवेत् किन्तु धारणाव्यवहारी भवेत् तदा 'धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा' धारणया-धारणाव्यवहारिणा व्यवहारं प्रस्थापयेत् । 'नो से तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ जीए सिया जीएणं ववहारं पट्टवेज्जा' अथ नो तत्र धारणा-धारणाव्यवहारी स्यात् अथ यथा तत्र जीतं-जीतव्यवहारी स्यात् तदा जीतेन जीतव्यवहारिणा व्यवहारं प्रस्थापयेत् , धारणाव्यवहारिणोऽभावे जीतव्यवहारिद्वारेणैव आलोचनाव्यवहारं कुर्यादित्यर्थः । 'एएहिं पंचहि ववहारेहि ववहारं पट्टवेज्जा' एतैः- उपरिदर्शितैः पञ्चभिर्व्यवहारिभिर्व्यवहारं प्रस्थापयेत् कुर्यात् , 'तंजहा' तद्यथा-'आगमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं' आगमेन १, श्रुतेन २ आज्ञया ३, धारणया ४, जीतेन ५ । 'जहा जहा आगमे १, सुए २, आणा ३, धारणा,
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माध्यम् उ० १० सू० ५
आगमादिपञ्चविधव्यवहारनिरूपणम् २४३ जीए' यथ यथा आगमः १, श्रुतम् २, आज्ञा ३, धारणा ४, जीतम् ५ 'तहा तहा ववहारं पट्ट वेज्जा' आगमव्यवहारिणोऽभावे तथा तथा तेन तेन श्रुतव्यवहार्यादिप्रकारेण व्यवहार प्रस्थापयेत् । 'से किमाहु भंत ?' अथ किमेवमाहुर्भदन्त ! हे भदन्त ! कथमेवं कथयसि यत् प्रथममागमव्यवहारिणैव व्यवहार प्रस्थापयेदित्यागमस्य प्राथम्यं ददाति ? तत्राह-'आगमबलिया समणा णिगंथा' आगमबलिकाः आगम एव बलं येषां ते आगमबलिकाः आगमाधारवन्त एव श्रमणा निम्रथा भवन्ति, आगमबलेनैव श्रमणा निर्ग्रन्था आगमेनैव व्यवहरन्ति, आगमस्य तीर्थकरैः स्वमुखाँच्चरितत्वादिति । 'इच्चेयं पंचविहं ववहारं' इत्येतं-पूर्वप्रदर्शितं पञ्चविधं पञ्चप्रकारक व्यवहारम् ; 'जया जया जहि जहि' यदा यदा यत्र यत्र ये ये आगमादिव्यवहाणिो भवन्ति 'तया तया तर्हि तर्हि' तदा गदा तत्र तत्र-तेषां तेषां समीपे, 'अणिस्सिओवस्सियं' अनिश्रितोपश्रितं यथा स्यात्तथा कस्यापि निश्रां वर्जयित्वा-यथा अमुकस्य निश्रयाऽऽलोचनां करोति तदा-स न्यू प्रायश्चित्तं दास्यतीत्येवंरूपां निश्रां विवर्ण्य 'ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवई' व्यवहरन्-व्यवहारं कुर्वन् श्रमणो निम्रन्थः आज्ञायाः-तीर्थकराज्ञाया आराधको भवतीति ।। ___अत्राऽऽगमादिपञ्चसु व्यवहारिषु क्रमेण व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः, यदि व्युत्क्रमेण व्यवहरति तदा चत्वारो गुरुमासाः प्रायश्चित्तं भवति, अयं भावः-आगमे विद्यमाने श्रुतादिभिर्व्यवहारं करोति । श्रुते विद्यमाने आज्ञादिभिर्व्यवहरति । आज्ञाव्यवहारे विद्यमाने धारणाव्यवहारं प्रस्थापयति । धार गायां विद्यमानायां जीतेन व्यवहारं प्रस्थापयति । इत्येवं व्युत्क्रमेण व्यवहारप्रस्थापने साधुश्चतुर्गुरुकादिप्रायश्चित्तभाग् भवतीति विज्ञेयम् । प्रथमं मुख्यतया आगमव्यवहारिसमीपे एवालोचना कर्त्तव्या भवेत् । आगमव्यवहारिणोऽपि षइविधा भवन्ति तत्रापि क्रमेणैव व्यवहारः प्रस्थापनीयः, यथा प्रथमं केवलज्ञानिसमीपे आलोचना कर्त्तव्या, स चालोचकस्य सर्वमतिचारं जानाति, न तस्य समीपे माया कत्तुं शक्यते १, तदभावे मनःपर्यवज्ञानिपाचे २, तदभावेअवधिज्ञानिपश्र्वे ३, तदभावे चतुर्दशपूर्वधरसमीपे ४, तदभावे दशपूर्वधरसमीपे ५, तदभावे नवपूर्वधरसमीपे ६, आलोचना ग्रहीतव्या । पूर्वपूर्वाऽभावे उत्तरोत्तरो ग्राह्यः । एवमग्रे श्रुतव्यवहारादिविषयेऽपि मर्यादा बोध्या ।
ननु यस्मिन् काले भगवन्तो गणधराः 'ववहारे पंचविहे पन्नत्ते' इत्यादि सूत्रं निबद्धवन्तस्तस्मिन् काले बाधितरूपेणाऽऽगम आसीदेव ततः कस्मात् कारणात् आज्ञादयो जीतान्ता व्यवहाराः सूत्रे तैर्निबद्धाः, आगमादेव सर्वव्यवहारसंभवात्, न हि सूर्यप्रकाशसत्तायां चाक्षुष्ककार्यसंपादनाय प्रदीपादीनामल्पप्रकाशानां संग्रहो :भवति ! अत्राह-तेऽवधिज्ञानादिना ज्ञातवन्तः, यत् स एतादृशः कालः समागमिष्यति यस्मिन् काले सूत्रमनागतविषयं भविष्यति आगमस्य
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व्यवहारसूत्रे व्युच्छेदो भविष्यति तदा शेषैर्व्यवहारैर्व्यवहर्त्तव्यं भविष्यतीति कृत्वा श्रुतादिव्यवहारानपि सूत्रे निबद्धवन्तः । तत्रापि व्यवहारः क्षेत्रं कालं च प्राप्य यो यथा संभविष्यति, तेन तथा व्यवहारः करणीयो भविष्यतीति ।
अयं भावः—यस्मिन् यस्मिन् काले यो यो व्यवहारो व्यवच्छिन्नोऽव्यवच्छिन्नो वा भविध्यति तस्मिन् तस्मिन् काले प्रागुक्तक्रमेण साधवो व्यवहारं व्यवहरिष्यन्ति । तथा यस्मिन् यस्मिन् क्षेत्र युगप्रथानैराचार्यादिभियां यां व्यवस्था व्यवस्थापयिष्यन्ति तया तया व्यवस्थया अनिश्रितोपश्रित व्यवहारः प्रवर्तितो भविष्यतीति विचार्य आगमादिपञ्चव्यवहारसूत्रं ते निबद्धवन्त इति ।
____ अपि च-आगमादिका धारणान्ताश्चत्वारो व्यवहाराः यावत्तीर्थप्रवृत्तिस्तावद् भविष्यति, जीतव्यवहारस्तु यावच्चतुर्विधः सङ्घः प्रचलिष्यति तावत्कालपर्यन्तं स्थास्यति तस्मात् कारणात् जीतव्यहारोपादानं कृतमिति विवेकः ।
सूत्रे यदुक्तम्-सूत्रोक्तव्यवहारं व्यवहरन् श्रमणो निर्ग्रन्थ आज्ञया आराधको भवतीति, सा चाऽऽराधना खलु त्रिप्रकारिका भवति यथा-उस्कृष्टाऽऽराधना १, मध्यमाऽऽराधना २, जघन्याऽऽराधना च । तत्रोत्कृष्टाया आराधनायाः फलम्—एको भवः, मध्यमाया आराधनायाः फलम् द्वौ भवौ, जघन्याया आराधनायाः फलम्-त्रयो भवाः । अथवा यदि तद्भवे मोक्षो न जातस्तदा उत्कृष्टाया आराधनायाः फलम्-जघन्यसंसरणम् द्वौ भयो । मधयमाया आराधनायास्त्रयो भवाः, जघन्याया आराधनाया उत्कृष्टा अष्टौ भवा भवेयुरित्याराधनायाः फलं विज्ञेयम् ।
सूत्रोक्तव्यवहारपदव्याख्या यथा-येनाऽऽगमादिना श्रमणो व्यवहरति-व्यवहारं करोति सोऽप्यागमादिर्व्यवहारः, व्यवह्रियतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या-आगमादेरपि व्यवहारस्वात, यद्यपि व्यवहर्त्तव्यं वस्तुप्रतिक्रमणप्रतिलेखनादिकं मुनिर्व्यवहरति सोऽपि व्यवहार एव । व्यवहियते यः स व्यवहार इति कर्मसाधनात् तदेवं करणे कर्मणि उभयत्रापि व्यवहारशब्दः प्रयुज्यते शाब्दिकमर्यादाबलात् ॥ सू० ५॥
पूर्व व्यवहाराः प्रदर्शिताः, ते च पुरुषाधीना भवन्तीति तान् सम्यग्ज्ञानवन्तः पुरुषा एव व्यवहर्तुमर्हन्तीति । पुरुषाश्चार्थकरा मानकरा इति द्विविधा भवन्तीति तेषां चतुर्भङ्गी प्रदर्श्यते'चत्तारि' इत्यादि ।
सूत्रम्-चत्तारि पुरिसजाया पन्नता तंजहा-अट्टकरे नाम एगे नो माणकरे १, माणकरे णामं एगे नो अट्टकरे २, एगे अट्ठकरे वि माणकरे वि ३, एगे नो अट्टकरे नो माणकरे ॥ सू०६॥
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भाष्यम् उ० १० सू. ६-७
चतुष्पुरुषजातप्रकरणम् २४५
छाया-चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अर्थकरो नाम एको नो मानकरः १, मानकरो नाम एको नो अर्थकरः २, एकोअर्थकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको नो अर्थकरो नो मानकरः ४॥ सू० ६॥
भाष्यम्- 'चत्तारि' चत्वारः 'पुरिसजाया' पन्नत्ता' पुरुषजाताः-चतुष्प्रकाराः पुरुषाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, तानेव चतुरो भेदान् दर्शयति-तंजहा' तद्यथा-'अत्थकरे नाम एगे नो माणकरे' अर्थकरो नाम एकः नो मानकरः, तत्रार्थ उपकारः तादृशमथं करोति सोऽर्थकरः परेषां हितकारकोऽहितनिवारको भवेत् किन्तु न मानकरः। परेषामुपकारं कृत्वाऽभिमानं न करोतीति प्रथमः १।
'माणकरे णाम एगे णो अट्टकरे' मानकरो नाम एकः न त्वर्थकरः कश्चिदेतादृश. पुरुषः, यो हि मानं करोति, न पुनः करोति कदाचिदपि कस्यापि कमप्युपकारम्, एष द्वितीयः २ । 'एगे अट्ठकरेवि माणकरेवि' एकोऽर्थकरोऽपि मानकरोऽपि, तृतीयस्तु स हि भवति यो मानं करोति उपकारमपि करोति ३ । 'एगे नो अट्ठकरे नो माणकरे' एकश्चतुर्थः सः, यो नो अर्थकरों नो वा मानकरः उभयमपि न करोति, चतुर्थ प्रकारकः सः, यो न परेषामुपकारं करोति न मानमपि करोति ४ । एते चत्वारः चतुभिर्भदैर्भिन्नाश्चतुर्विधाः पुरुषा भवन्तीति ।
अयं भावः- एकोऽर्थकरः आचार्यस्य वैयावृत्त्यसंपादको न तु मानकरः १। द्वितीयो नार्थकरः केवलं मानकर एव राजवंशीयोऽहम्, धनिकवंशीयोऽहं वेति जातिकुलाद्यभिमानवानेव २। तृतीय उभयकरः अर्थकरोऽपि मानकरोऽपि, मानं कुर्वन्नपि भाचार्यादेः कार्यसंपादकः ३ । चतुर्थो नार्थकरो, न वा मानकरः, अर्थमाचार्यादेन किमपि कार्य करोति, मानम्-अभिमानमपि न करोति है । अत्र-चतुष्प्रकारकेष्वपि पुरुषेषु मध्ये प्रथमतृतीयौ-अर्यकरोभयकरौ सफलौ, इतरौद्वितीयचतुर्थी-मानकरो नो अर्थकरो नोभयकरश्चेत्येतौ द्वितीयचतुथौ पुरुषौ निष्फलौ ।
अथ दृष्टान्तमाह- एकस्मिन् नगरे केचिच्चत्वारः पुरुषाः केनाप्यपराधेन राज्ञा निर्विषयीकृताः सन्तो देशान्तरे गत्वा कस्यचिद्राज्ञः सेवायां स्थितवन्तः । तत्र तेषु चतुषु मध्ये एकस्तस्य राज्ञः कार्य संपादयति नाभिमानं करोति, तथा-राज्ञोऽभ्युत्थानासनदानादिना विनयं च करोति १ । द्वितीयो राज्ञः कार्य तु संपादयति किन्तु-मानं करोति नाभ्युत्थानासनदानादिना कमपि विनयं करोति-'अहमपि राजवंशीयः कुलजात्यादिमानस्मि, अहमपि जातिकुलादिनाऽनेन समान एवाऽस्मी'-त्यभिमानं करोति २ । एतौ द्वौ प्रथमतृतीयभङ्गप्रदर्शितौ पुरुषौ स्तः । शेषयोईयोर्मध्ये एको मानं करोति-'अहमेतादृशोऽस्मि, मम पूर्वजाः समृद्धिशालिन भासन्' इत्यादिरूपेण मानमात्रं करोति किन्तु न राज्ञः कार्य संपादयति १, द्वितीयस्तु राज्ञो
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व्यवहारसूत्र न कमपि कार्य साधयति मानमपि न करोति । एतौ द्वौ द्वितीयचतुर्थभङ्गोक्तौ पुरुषौ स्तः । तत्र राजा च प्रथमतृतीयभङ्गवत्तिषुरुषाभ्यां यथायोगं वृत्तिं दत्तवान् , द्वितीयचतुर्थभङ्गवर्तिपुरुषाभ्यां न कामपि वृत्तिं दत्तवान् । इति दृष्टान्तः ।
एवमेव पुरुषचतुष्टयदृष्टान्तेन कोऽपि साधुराचार्यस्यायं करोति न च मानम्, स चेत्थमाचार्यवैयावृत्त्यादि भेदैर्दशप्रकारं वैयावृत्त्यं संपादयति, अथवा-आचार्यस्य समागच्छतोऽभ्युस्थानम् १, आसनादिदानद् २ कृतिकर्म ३, विश्रामणा ४, उच्चारपात्रकस्य-प्रस्रवणपात्रकस्य श्लेष्मपात्रकस्य चोपनयनम् ७, संस्तारकस्य करणम् ८, आचार्यसमीपे आसनकरणम् ९ इत्यादिप्रयोजनभेदतोऽनेकप्रकारका अर्था भवन्ति, तत्करः अर्थकरः प्रोच्यते १ । द्वितीयो भवति मानकरः, यथा-समागच्छत आचार्यस्याऽभ्युत्थानं न करोति यदि वा-'आचार्येण न मेऽभ्यर्थना कृता न वा मम प्रशंसा कृता' . इत्यादिरूपेण मानं करोति न किञ्चित्कार्य संपादयतीति मानकरो नार्थकरः २ । तृतीय आचार्यस्याऽर्थकरोऽपि मानकरोऽपि आचार्यस्य वैयावृत्त्यादि करोति किन्तु मानवशादभ्युत्थानादि न करोति ३ । चतुर्थो नो अर्थकरो नो वा मानकरः अयमाचार्यस्य द्वयमपि न करोति । तत्र द्वितीयचतुर्थो नो कर्मनिर्जराया लाभवन्तौ भवतः, न तयोराचार्याः सूत्रमर्थमुभयं वा प्रयच्छन्ति । प्रथमतृतीययोस्तु सूत्रार्थतदुभयस्य निर्जरायाश्च लाभो भवति अर्थकारितया आचार्यस्य मनःप्रसादकत्वात् , । तस्मात् प्रथमतृतीयाभ्यामिव वर्तितव्यम् न तु कदाचिदपि द्वितीयचतुर्थाभ्यामिवेति । तदेवं चत्वारः पुरुषजाताः प्रदर्शिताः ॥ सू० ६ ॥
पूर्वमाचार्यस्याऽर्थकरमानकरपुरुषजातचतुर्भङ्गी प्रदर्शिता, सम्प्रति गणमधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह'चचारि' इत्यादि ।
सूत्रम्-चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता तंजहा-गणकरे नाम एगे नो माणकरे १, माणकरे नाम एगे नो गणटकरे २, एगे गणहकरेबि माणकरेवि ३, एगे नो गणटकरे नो माणकरे ॥४॥ सू० ७॥
छाया चत्वारः पुरुषजाताः प्रक्षप्ताः तद्यथा--गणार्थकरो नाम एको, नो मानकरः १, मानकरो नाम एको नो, गणार्थकरः २, एको गणार्थकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको नो गणार्थकरो नो मानकरः ४॥ सू० ७॥
भाष्यम् - 'चत्तारि' चत्वारः-चतुष्प्रकाराः 'पुरिसजाया' पुरुषजाताः-पुरुषप्रकाराः 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ताः । तानेव चतुरो भेदान् दर्शयति-तंजहा' इत्यादि । 'तंजहा' तद्यथा-'गणकरे' णाम एगे नो माणकरे' गणार्थकरो नाम–एको नो मानकरः तत्र-गणो नाम गच्छः-समुदायः तस्य गणस्य योऽर्थः-कार्यम् तस्य गणकार्यस्य करः-संपादको यः स गणार्थकरः गच्छकार्यसंपादक इत्यर्थः, नो मानकरः गणस्य कार्य कृत्वाऽपि मानमभिमानं न करोति, एतादृशः
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माण्यम् उ० १० सू०८-९
चतुष्पुरुषजातप्रकरणम् २४७ पुरुषः प्रथमः १ । 'माणकरे णाम एगे नो गणढ़करे' मानकरो नाम एको नो गणार्थकरः मानं करोति नो करोति गणस्यार्थ-कार्यम् स च द्वितीयः २ । 'एगे गणटकरेवि माणकरेवि ३, एको गणार्थकरोऽपि मानकरोऽपि-गणस्याऽर्थसंपादकोऽपि भवति तथा मानकरोऽपीति तृतीयः ३ । एगे णो गणट्टकरे णो माणकरे' एको नो गणार्थकरो नो मानकरः, न खलु गणस्याऽर्थ-कार्यमेव करोति न वा मानमभिमानं करोतीति चतुर्थः पुरुषः ४
तेषु चतुर्वपि पुरुझजातेषु ये साधोः समानरूपधारिणो मुण्डितशिरस्का भिक्षाटनशीलाः, तथा दैवचिन्तकाः निदर्शनं दृष्टान्तो भवति । तत्र- दैवचिन्तका नाम ते ये शुभाशुभं राज्ञे कथयन्ति, शकुनादिशास्त्रज्ञा इत्यर्थः, त एवात्र दृष्टान्तः, तथाहि-प्रथमः सः यो हि राज्ञा पृष्टोऽपृष्टो वा शुभाशुभं साधयति, किन्तु-मानं न करोति १ । द्वितीयो मानं करोति न च मानादेव किञ्चित् पृष्टोऽपि कथयति २। तृतीयो यदि पृच्छति तदा कथयति नो पृच्छति तदा न कथयति ३ । चतुर्थो न किमपि कथयति न वा मानमेव करोति ४ ।
तत्र द्वौ प्रथमतृतीयौ सफलौ, द्वौ च द्वितीयचतुर्थी विफलौ । एवं दृष्टान्तगतेन प्रकारेण गणेऽपि प्रथमतृतीयौ सफलौ, द्वौ च द्वितीय-चतुर्थो विफलावेव ज्ञातव्यौ । तेषां चतुर्णामपि साधूनां मध्ये प्रथम आहारोपधिशयनासनादिभिर्गच्छस्योपकारं करोति, न च कदाचिदपि मानं करोति १ । द्वितीयो मानं करोति न च गणधरस्योपकारं करोति २ । तृतीयो गच्छस्योपकारमपि करोति मानमपि करोति ३ । चतुर्थस्तु-न गच्छस्योपकारं करोति न वा मानमेव करोति ४ । त इमे चत्वारो मुनिप्रभेदा भवन्तौति ॥ सू० ७ ॥
अथ गणसंग्रहमधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह—'चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि ।
सूत्रम्-चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता तंजहा-गणसंगहकरे नामं एगे नो मानकरे १ एगे माणकरे नो गणसंगहकरे २, एगे गणसंगहकरेवि-माणकरेवि ३, एगे नो गणसंगहकरे नो माणकरे ४ ॥ सू० ८॥
छाया-चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-गणसंग्रहकरो नाम एको न मानकरः १, एको मानकरो नो गणसंग्रहकरः २, एको गणसंग्रहकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको नो गणसंहग्रकरो नो मानकरः ॥ सू० ८॥
भाष्यम्-'चत्तारि पुरिसजाया' चत्वारः पुरुषजाताः, तत्र-चत्वारः-चतुष्प्रकारकाः पुरुषजाताः-पुरुषाः 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ताः, तानेव मेदान् दर्शयितुमाह-'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'गणसंगहकरे णामं एगे नो माणकरे' गणसंग्रहकरो नाम एको न मान
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२४८
व्यवहारसूत्रे
करः, तत्र गणस्य- गच्छस्य संग्रह - द्रव्यभावभेदभिन्नं करोति-संपादयति यः स गणसंग्रह - करः, संग्रहो द्विविधो द्रव्यतो भावतश्च तत्राऽऽहारवस्त्रपात्रादिकं द्रव्यसंग्रहः, सूत्रार्थज्ञानादिकं भावसंग्रहः, तदुभयमपि संग्रहं संपादयति नो मानकरः - नो- न कथमपि मानकरः आहारवस्त्र पात्रादिना ज्ञानादिना च गच्छस्योपग्रहं करोति किन्तु नाभिमानं करोतीति प्रथमः १ । 'एगे माणकरे नो गणसंगहकरे २' एको मानकरो नो गण संग्रहकरः - स्वस्य जातिकुलादे - मनमेव करोति गणसंग्रहं न करोतीति द्वितीयः २ । ' एगे गणसंगहकरेवि माणकरेवि' एको गणसंग्रहकरोऽपि मानकरोऽपि गणस्यापि संग्रहं करोति मानमपि करोतीति तृतीय ३ । 'एगे नो गणसंगहकरे नो माणकरे ४' एको नो गणसंग्रहकरो नो मानकरः, द्वयमपि न करोतीति चतुर्थः ४ ।
अयं भावः तत्र प्रथमभङ्गीयः साधुः द्रव्यत आहारोपधिशय्यादिद्वारा संग्रहकरो भवति, भावतो ज्ञानादिना संग्रहकरो भवति, ग्रणनायके आचार्येऽसमर्थे सति यदा गुरुः शारीरिकादिसामर्थ्याऽभावेन वाचनादाने शक्तो न भवति तदा शिष्यात् प्रातीच्छकात् वाचयति एषः प्रथमः ९ । द्वितीयस्तु - मानं करोति न तु द्रव्यतो भावतो वा गणस्य संग्रहं करोति २ । तृतीयस्तु - गणस्य द्रव्यतो भावतश्च संग्रहं करोति ३ । चतुर्थस्तु न द्रव्यतो न भावतो गणस्य संग्रहं करोति ४ । तदेवं चत्वारः पुरुषा भवन्ति ॥ सू० ८ ॥
अथ गणशोभामधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह - ' चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि ।
सूत्रम् - चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजसो करे १, माणकरे नामं एगे नो गणसोहकरे २, एगे एगे नो गणसोहकरे णो माणकरे ४ ।। सू० ९ ॥
गणहाहकरे नाम एगे नो माण
गण सोहकरेवि माणक रेवि ३,
छाया - चत्वारः पुरुषजाताः प्रशप्ताः, तद्यथा- गणशोभाकरो नाम एको नो मानकरः १, मानकरो नाम एको नो गणशोभाकरः २, एको गणशोभाकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको नो गणशोभाकरो नो मानकरः ४ ॥ सू० ९ ॥
भाष्यम् – ' चत्तारि' चत्वारः 'पुरिसजाया' पुरुषजाताः - पुरुषप्रकाराः 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ताः । तानेव चतुर्भेदान् पुरुषान् दर्शयितुमाह - 'तं जहा ' तद्यथा - ' गण सोहकरे नाम एगे नो माणकरे१' गणशोभाकरो नाम एको नो मानकरः, तत्र गच्छस्य चतुविषसङ्घस्य शोभां गणस्य ख्यातिं प्रवचनप्रभावनारूपां वा करोति स 'गणशोभाकरः, नो मानकरः न तु कदाचिदपि गणस्य शोभाकरणात् स्वमनसि मानम् अभिमानं करोति, एतादृशः प्रथमः पुरुषः १ ।
'माणकरे नाम एगे नो गणसोहकरे२' मानकरो नाम एको नो गणशोभाकरः, मानमेव करोति किन्तु कदाचिदपि गणस्य शोभां न करोति, एष द्वितीयः २ । 'एगे गण
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भाष्यम् उ० १० सू० १०
चतुष्प्रकारपुरुषजातनिरूपणम् २४९ सोहकरेवि माणकरेवि' एकस्तृतीयः सः-यो गणशोभाकरोऽपि मानकरोऽपि शोभामानयोरुभयोरपि कारकः स तृतीयः ३ । 'एगे नो गणसोहकरे नो माणकरे' एकश्चचतुर्थः स पुरुषो यो न कदाचिदपि गणशोभाकरो न वा मानकरो भवति उभयवर्जितश्चतुर्थः ४ । अत्रापि-चतुर्षु भङ्गेषु मध्ये प्रथमतृतीयौ सफलौ, द्वितीयचतुर्थभङ्गौ विफलाविति ॥
तत्र-गणशोभाकरो नाम-यो गणं शोभयति, शोभा खलु वादिजयप्रवचनोड्डाहनिवारणादिभिर्भवति, तथाहि-वादेन वादिनं पराजित्य गणं शोभयति, उत्सूत्रप्ररूपकं सूत्रार्थ सम्यक् प्रदर्य जिनमार्गे स्थापयति, प्रवचनाक्षेपकान् सूत्रप्रमाणं प्रदर्श्य प्रवचनप्रभावनां वर्धयति धर्म-कथादिभिनिमित्तैः, तथा विद्यादिभिश्चोन्मार्गगतान् यथायोगं जिनधर्मे आनयति, इत्येवंप्रकारेण सदा गणं शोभयति ।
अयं भावः- यदा कदाचित् सकलदर्शनपारदृश्वा वादी समागत्य गणनायकस्य पुरत एवं वदति-भो आचार्यमतप्रचारक ! साधो ! यदि त्वयि पाण्डित्यं भवेत् , यदि वा पाण्डित्येन स्वकीयं मतं लोके व्यवस्थापथसि, तर्हि राजादिपरिवृतपरिषदि मया सह वादं कुरु, यदि मां विजेष्यसि तदा त्वन्मतस्य संस्थापनं स्यात्, अहं तव धर्म स्वीकरिष्यामि, नो चेत् केवलं विप्रतारकमेव त्वां मन्ये । तदा यदि प्रतिवादिना वादं कत्तै स गणनायको न शक्को भवेत् तदा महती शासनस्याऽप्रतिष्ठा स्यात् इति मन्यमानो वादनिपुणः साधुस्तं दुर्दान्तवादिनं सर्वज्ञसिद्धान्तोक्तमनेकान्तवादं पुरस्कृत्य पराजयति, पराजित्य च तं वादिनं जिनधर्मे स्थापयित्वा शासनस्य शोभां वर्धयति । एवंप्रकारेण स गणस्य शोभाकरो भवति । न केवलं वादेनैव पराजित्य गणशोभाकरः किन्तु धर्मकथां कृत्वा गणं शोभयति । तथा निमित्तादिशास्त्रं सम्यग् ज्ञात्वा निमित्तादिकथनद्वारा राजानमावर्जयित्वा शासनस्य ख्याति लोके संपादयति । एवं विद्यादिबलात् महतोऽपि सङ्घप्रयोजनस्य साधनाद् गणं शोभयति । यदा कदाचित् सङ्घस्य महत्कार्य समुपस्थितं भवेत् कार्य च तादृशं प्रकारान्तरेण साधितं न भवति, तदा स साधुः विद्यातिशयप्रभावेण सङ्घस्य तादृशं कार्य साधयन् गणशोभाकरो भवतीति ॥ सू० ९॥
अथ-शोधिमधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह-चत्तारि पुरिसजाया' इत्यादि ।
सूत्रम्-चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा गणसोहिकरे णाम एगे नो माणकरे १, एगे माणकरे नो गणसोहिकरे २, एगे गणसोहिकरेवि माणकरेवि ३, एगे नो गणसोहिकरे नो माणकरे ॥ सू० १०॥
छाया-चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-गणशोधिकरो नाम एको नो मानकरः, एको मानकरो नो गणशोधिकरः २, एको गणशोधिकरोऽपि मानकरोऽपि ३, एको न गणशोधिकरो नो मानकरः ।। सू. १० ॥
म्य. ३२
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२५०
व्यवहारसूत्रे भाष्यम् - 'चत्तारि' चत्वारः चतुःसंख्यकाः 'पुरिसजाया पन्नत्ता' पुरुपजाता पुरुषप्रकाराः प्रज्ञप्ताः, तानेव चतुरः प्रकारान् दर्शयितुमाह-'तंजहा' इत्यादि । 'तंजहा' तद्यथा-'गणसोहिकरे णाम एगे नो माणकरे १' गणशोधिकरो नाम एको नो मानकरः । तत्र-गणस्य शोधिं प्रायश्चित्तदानेन धर्मप्ररूपणया च विशुद्धिं करोतीति गणशोधिकरो न तु मानकरः १ । 'एगे माणकरे नो गणसोहिकरे २' एको मानकरो भवति नो न तु कदाचिदपि गणस्य शोधिकरो भवति २। 'एगे गणसोहिकरेवि माणकरेवि ३' एको गणशोधिकरोऽपि मानकरोऽपि ३ । 'एगे नो गणसोहिकरे नो माणकरे ४' एको नो गणशोधिकरो नो मानकरः ४ । अत्रापि प्रथमतृतीयभङ्गो सफलौ, द्वितीयचतुर्थभङ्गो विफलाविति । अत्रायं दृष्टान्तः
एकस्मिन् नगरे जनपदविहारेण विहरन्त आचार्या अनेकैर्मुनिसङ्घाटकैः सह समवसृताः । तत्र साधुसङ्घाटकाः पृथक् २ भिक्षार्थ ग्रामे प्रविष्टवन्तः, तत्रैकस्मिन् गृहस्थगृहे एकः संघाटको भिक्षार्थ गतः, तत्र तस्य गृहे तदा प्राघुणकादिनिमित्तं बहुलं मोदकानां भोज्यं सम्पादितमासीत् ततस्तस्मै साधुसङ्घाटकाय विपुला मोदकाः प्रतिलाभिताः। तदनन्तरमकस्माद् द्वितीयः सङ्घाटकोऽपि तत्रैव गतः, तेनापि विपुला मोदका लब्धाः । एवं तृतीयश्चतुर्थः सङ्घाटकोऽपि तत्र गतः मोदकांश्च लब्धवान् । आगताः सर्वे उपाश्रये, आचार्येभ्यो भिक्षा प्रदर्शिता। सर्वेषां सदृशभिक्षालाभेन तेषां साधूनां मनसि शङ्का जाता यदेतेषां मोदकानामुद्गमा अशुद्धाः संभवेयुः साधूनागतान् श्रुत्वा साध्वर्थमिमे संपादिता इति लक्ष्यते । इति शङ्किते गत्वा तद्गृहं द्रष्टव्यं स प्रष्टव्यश्च भवेत् भो श्रमणोपासक ! अद्य तव गृहे संखडिर्वर्तते प्राधुणका वा समागताः ?, अथवा साधूनां कृते मोदकाः संपादिताः क्रीता वेति । तत्र च गृहे भोजनवेलायां न कोऽपि प्रवेशं लभते, क एतादृशः साहसिकः साधुर्यों भोजनवेलायां गृहस्थगृहे प्रविशेत् , पृच्छां विना एतदशनादि साधुभिर्न भोक्तव्यम् , एष साधुकल्पः । तत्रैकः ओजस्वी साधुः तद्गृहजनानां परिचितश्च स तस्मिन् गृहेऽनिवारितप्रसरस्तद् दुष्प्रवेशं गृहं प्रविशति । प्रविश्य च तेषां मोदकानामुद्गमं पृच्छाप्रतिपृच्छादिना विज्ञाय शुद्ध एषामुद्गमः, इति निशङ्कितं करोति । आगत्याऽऽचार्यपादमूले निवेदयति न मानं करोति, एष प्रथमः पुरुषजातो योऽमानेन गत्वाऽऽहारस्य शोधिं कृतवान् तेनायं शोधिकरो नो मानकर इति १। एवं द्वितीयः केवलं मानकरः किन्तु शोधिकरणेऽसमर्थः २। तृतीयः शोधिमपि करोति, कृत्वा मानमपि करोति ३। चतुर्थस्तु नोभयकरणसमर्थः ४। इति भङ्गचतुष्टयभावना ॥ सू० १०॥
पूर्व शोधिमाश्रित्य चतुर्भङ्गी प्रोक्ता, तत्र शोधिरिति वा धर्म इति वा एकार्थः, धर्मश्च रूपतो भावतश्चेति द्विधा भवति ततो रूपधर्मोभयमधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह-'चन्तारि' इत्यादि ।
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भाष्यम् उ० १० सू० ११-१९
चतुष्प्रकार पुरुषजात निरूपणम् २५१
सूत्रम् - चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा - रूवं नाम एगे जहइ नो धम्मं १, धम्मं नाम एगे जहइ नो रूवं२, एगे रूवंवि जहइ धम्मंवि जहइ३, एगेनो रूवं जes नो धम्मं जह४ ॥ सू० ११ ॥
छाया - चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - रूपं नाम एको जहाति नो धर्मम् १, धर्म नाम एको जहाति नो रूपम् २; एको रूपमपि जहाति, धर्ममपि जहाति ३. एको नो रूपं जहाति नो धर्म जहाति४ || सू० ११ ॥
भाष्यम् - - ' चत्तारि' चत्वारः 'पुरिसजाया' पुरुषजाताः पुरुषप्रकाराः 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ताः, तानेव चतुरो भेदान् दर्शयितुमाह - ' तजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा 'रूवं नाम एगे जहइ नो धम्मं रूपं नाम एको जहाति नो धर्म जहाति, प्रयोजने समुपस्थिते सति रूपं - स्वकीयं लिङ्गं जहाति परित्यजति, स्वलिङ्गं परित्यज्यापि साधयति कार्यम्, किन्तु धर्मं श्रुतचारित्रलक्षणं कदापि न जहाति, इति प्रथमः १ ।
'धम्मं नाम एगे जहइ नो रूवं' धर्म नाम एको जहाति नो रूपम्, यथा-पार्श्वस्थः इति द्वितीयः २ ।
'एगे वंवि जहइ धम्मंवि जहइ' एको रूपमपि जहाति धर्ममपि जहाति, यथा - एकान्ततो मिथ्यादृष्टिरिति तृतीयः ३ ।
'एगे नो रूवं जहइ नो धम्मं जहइ' एको नो रूपं जहाति नो धर्मं जहाति यथाज्ञानादिरत्नत्रयाऽऽराधकः, इति चतुर्थः ४ ।
अत्र यः सदोरकमुखवस्त्रिकारजोहरणादिरूपो मुनिवेषः स रूपमुच्यते, तथा धर्मो ज्ञान-दर्शन- चारित्रलक्षणः, धर्मशब्देन त्रयाणां रत्नानामेव ग्रहणं भवति ।
अयं भावः - कश्चिद् भावतो ज्ञानादिरत्नत्रय समन्वितोऽशिवादि - मिथ्यादृष्टिराजादि-कारणवशाद् अन्यलिङ्गं गृहिलिङ्ग वा प्रतिपद्यमानस्त्यक्तलिङ्गोऽत्यक्तधर्मश्च कथ्यते । अत्र दृष्टान्तः— आसीत् कस्मिंश्चिन्नगरे कनकदत्तो नाम राजा महामिध्यादृष्टिर्नास्तिकवादी वावदूकः वाचालः पण्डिताभिमानी पण्डितैः सह वादं दत्त्वा तद्बुद्धिमेवोपजीव्य पण्डितान् अपमानयति । अथ कदाचित् कालान्तरे प्रवृद्ध मिथ्यावासनः सर्वज्ञमतोपासकान् साधून् अपवद्रावयितुं प्रवृत्तः । स चाह्य साधून् कथयति - यदि युष्माकं धर्मः सत्यस्तर्हि भवद्भिर्मया सह वादः क्रियताम् । यदा साधवो वादाय समागच्छन्ति तदा किञ्चिद्वादं कृत्वा तानपमान्य स्वदेशादेव निष्कासयति । ततस्तस्यैतादृशमपद्रावणकरणेन सर्वेऽपि साधवः श्रावकाश्च परमोद्विग्ना जाताः, परस्परं विचारणां च कुर्युः - कथमेतस्य राज्ञो वादे पराजयः स्यात् अयं पण्डिताभिमानी दुःखायति साधून् । ततस्तत्रासीत् कश्चित् वादलब्धिसम्पन्नः खेचरलब्धिमांश्च साधुः सः 'संघस्य अपमानो
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व्यवहारमो
भवतीति विचार्य स्वकीयलिङ्गं परित्यज्य अन्यलिङ्गं विधाय वादकरणाय राजसमीपं गतवान् । गत्वा च तेन निवेदितम्-यदेकः साधुर्वादाय समागतः । तच्छृत्वा सञ्जातकुतुहलो राजा वादकरणाय साधुमाहूतवान् , समागतः स साधुर्वादाय । तदनन्तरं द्वयोः साधुराज्ञोर्वादः प्रचलितः, प्रचलिते वादे राजाऽल्पमतित्वात् निरुत्तरो जातः । साधुश्च वादलब्धिसम्पन्नो राजानं मूकबद् वचनरहितं कृतवान् । तदनन्तरं स राजाऽल्पशक्तिमत्त्वात् , अल्पमतिकत्वाच्च स्वपक्षं निर्वाहयितुमसमर्थः क्रोधाग्निसंतप्तः साधोर्वचसाऽपमानकरणे प्रवृत्तः । ततो राजसमीपतोऽपमानं ज्ञात्वा स साधुर्वाददर्पस्फोटनाय राज्ञो मस्तकं पादेनाऽऽक्रम्य वायुरिव आकाशे उत्ष्लुत्य तत्स्थानात् पलायनं कृत्वा स्वस्थानमागतः । एष प्रथमः पुरुषत्यक्तस्वलिङ्गोऽत्यक्तधर्मा १। . द्वितीयस्त्यक्तधर्माऽत्यक्तरूपः, स खलु स्वलिङ्गे सति प्रतिपत्तव्यः, स च पार्श्वस्थादीनामन्यतमो निष्कारणप्रतिसेवी अवधावितुकामो वा ज्ञातव्यः, तस्य भावतस्त्यक्तधर्मत्वात् स्वलिङ्गस्य च धारणात् २ । तृतीय उभयत्यक्तः, रूपं साधुवेषमपि त्यजति श्रुतचारित्ररूपं धर्ममपि त्यजति, सञ्जातैकान्तमिथ्यादृष्टिग़हिलिङ्गे वर्तमानो ज्ञातव्यः ३ । चतुर्थस्तु उभयसहितः साधुवेषमपि न त्यजति स्वधर्ममपि न त्यजति, तत्र स्वलिङ्गेन सदोरकमुखवस्त्रिकारजोहरणादिरूपेण युक्तः धर्मेणज्ञान-दर्शन-चरित्र-लक्षणरत्नत्रयेण युक्तः स्वमतसिद्धः श्रमणः ४ ॥ सू० ११ ॥
अथ-गणमर्यादा धर्म चाधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह-'चत्तारि' इत्यादि. ।
सूत्रम्--चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-धम्म नामेगे जहइ नो गणसंठिइं १, गणसंठिई नामेगे जहई नो धम्म २, एगे धम्मपि जहइ गणसंठिइंपि जहइ ३, एगे नो धम्मं जहइ नों गणसंठिई ४ ॥सू० १२॥
छाया—चत्वारः पुरुषजाताः प्रक्षप्ताः, तद्यथा-धर्म नाम एको जहाति नो गणसंस्थितिम् १, गणसंस्थितिं नाम पको जहाति नो धर्मम् २, पको धर्ममपि जहाति गणसंस्थितिमपि जहाति ३, एको नो धर्म जहाति नो गणसंस्थितिम् ४ ॥ सू० १२ ॥
भाष्यम्-'चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता' चत्वारः पुरुषजाताः-पुरुषप्रकाराः प्रज्ञप्ताः। तानेवाह-'तंजहा' तद्यथा--'धम्म नामेगे जहइ नो गणसंठिई'धर्म नाम एको जहाति नो गणसंस्थितिम् । तत्र गणस्य गच्छस्य संस्थितिः-मर्यादा यथा-तीर्थकरस्येयमाज्ञा-यत् अन्यगच्छीयो वाचनाग्रहणयोग्यः साधुर्भवेत्तदा तस्य तीर्थकराज्ञाप्रमाणेन सूत्रवाचनां दातुं कल्पते इति, किन्तु कश्चिद् गच्छः स्वच्छन्दतया तीर्थकराज्ञाविरुद्धां स्वगच्छस्य मर्यादां कुर्यात्- यद् अन्यगच्छीयं योग्यमपि साधुं न वाचयेदिति । एवमेकः पुरुषो धर्म तीर्थकराज्ञारूपं जहातियोग्यमप्यन्यगच्छीयं साधुं न वाचयति, किन्तु गणसंस्थितिम् अन्यगच्छीयसाधुवाचनादाननिषेधरूपां गणमर्यादां न जहाति, एष प्रथमो भङ्गः १ । द्वितीयो गणसंस्थितिं जहाति योग्यमन्यगच्छीयं साधु वाचयति, तेनाऽन्यगच्छीयस्य वाचनादाननिषेधरूपां मर्यादां त्यक्तवान् किन्तु
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भाष्यम् उ १० सू० १३-१४
चतुष्प्रकाराचार्यस्वरूपनिरूपणम् २५३ धर्म जिनाज्ञारूपं यद् योग्यं साधुमन्यगच्छीयं वाचयेदित्येतादृशं धर्म न त्यक्तवान् , एष द्वितीयः २ । तृतीयो धर्म-गणसंस्थितिरूपमुभयमपि जहाति, यथा अयोग्यस्य वाचनादानाद्धर्म त्यक्तवान् , अन्यगच्छीयस्य वाचनादानाद् गणसंस्थितिमपि त्यक्तवान् , एष तृतीयः ३ । चतुर्थः पुनरुभयमपि न त्यजति, यथा-अन्यगच्छीयसाधोः शिष्यम् 'अयं मेधावी प्रवचनोपग्रहकरो भविष्यतीत्यादिगुणयुक्तमुपलभ्य तच्छेदप्रायश्चित्तदानेन स्वशिष्यं कृत्वा वाचयति तेन धर्म तीर्थकराज्ञारूपं न त्यक्तवान् , स्वशिष्यत्वेन कृतस्य वाचनादानाद् अन्यगच्छीयवाचनादाननिषेघरूपां गणमर्यादामपि न त्यक्तवान् , एष चतुर्थः ४ । एतमुभयं-गणसंस्थितिं धर्म चावलम्बमानं महापुरुषं वन्दामहे । इति सूत्रस्पष्टार्थः ॥ सू० १२ ॥
अथ प्रियधर्म-दृढधर्मेतिपदद्वयमधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह-‘चत्तारि' इत्यादि ।
सूत्रम् -चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा -पियधम्मे णामं एगे नो दढधम्मे १, दढधम्मे नाम एगे, नो पियधम्मे २, एगे पियधम्मेवि. दढधम्मे वि, ३, एगे नो पियधम्मे नो दढधम्मे ४, ॥ सू० १३ ॥
छाया-चत्वारः पुरुषजाताः प्राप्ताः, तद्यथा--प्रियधर्मा नामैको नो दृढधर्मा १, दृढधर्मा नामैको नो प्रियधर्मा २, एकः प्रियधर्माऽपि दृढधर्माऽपि ३, एको नो प्रियधर्मा नो दृढधर्मा ॥ सू० १३ ॥ . भाष्यम्-'चत्तारि' चत्वारः 'पुरिसजाया पन्नत्ता' पुरुषजाताः--पुरुषप्रकाराः प्रज्ञप्ताः, तानेव चतुष्प्रकारान् दर्शयितुमाह-'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'पियधम्मे नाम एगे नो दढधम्मे' प्रियधर्मा नामैको नो दृढधर्मा, तत्र- प्रियः-सर्वेभ्योऽपि अभिलाषयोग्यो धर्मो यस्य स प्रियधर्मा, नो दृढधर्मा, धर्मे दृढा-निश्चला मतिर्यस्य स तथा, तादृशो न, सोऽयं प्रथमः १, दढधम्मे णाममेगे नो पियधम्मे २' दृढधर्मा धर्मे दृढा मतिर्भस्य स तथा, तादृशः किन्तु प्रियधर्मा न, धर्मस्तु न तादृशः प्रियः २ । 'एगे प्रियधम्मेवि दढधम्मेवि' एकः प्रियधर्माऽपि दृढधर्माऽपि, स चायं तृतीयः ३ । 'एगे नो पियधम्मे नो दधम्मे ४' एकः पुरुषो न प्रियधर्मा न वा-दृढधर्मा, एष चतुर्थः ४ ॥
अत्रायं भावः-प्रियधर्मा सः यो यस्माद् वाचनादि गृह्णाति तस्य द्रव्यत आहारादिना, भावतो मनःसुप्रणिधानादिना वैयावृत्त्ये उपतिष्ठते न कालान्तरेऽन्यस्योपतिष्ठते, दृढधर्मा तु सर्वेषा मविशेषेण वैयावृत्त्ये उपतिष्ठते सर्वत्र निरतिचारश्चेति, अयं प्रियधर्म-दृढधर्मयोर्विशेषः । प्रथमभङ्गभावना यथा-प्रथमः पुरुषो दशप्रकारकस्य वैयावृत्त्यस्याऽग्रे वक्ष्यमाणस्याऽन्यतमस्मिन् वैयावृत्त्ये प्रियधर्मतया झटित्युद्यमं करोति किन्तु अदृढधर्मतयाऽत्यन्तं न निर्वहति तस्याल्पधृतिवीर्यत्वादिति प्रथमो भङ्गो भवति १ ।
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व्यवहारसूत्रे
द्वितीयस्तु वैयावृत्त्यनिर्वाहकत्वाद् दृढधर्मा यो गृहीतं वैयावृत्त्यं यावत्कालं तदावश्यकता भवेत्तावत्कालपर्यन्तं निर्वाहयति, नो प्रियधर्मा योऽप्रियधर्मतया महता कष्टेन कथं कथमपि प्रथमं वैयावृत्त्यं ग्राह्यते सर्वसाधारणवैयावृत्त्यकरणभावराहित्यात् , स एष द्वितीयभङ्गवर्ती २ । उभयतः कल्याणकरस्तृतीयभङ्गवर्ती ३। चतुर्थस्तु न प्रियधर्मा नापि दृढधर्मा, इत्याकारको गच्छनिराकृतो ज्ञातव्यः ४ ॥ सू० १३ ॥
साम्प्रतमाचार्यपदमधिकृत्य चतुर्मङ्गीमाह-‘चत्तारि' इत्यादि । ।
सूत्रम्-चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तंजहा-पव्यायणायरिए नाम एगे णो उवद्वावणायरिए १, उबढावणायरिए नाम एगे नो पन्वायणायरिए २, एगे पव्वायणायरिएवि उबट्टावणायरिएवि ३, एगे नो पव्वायणायरिए नो उवहावणायरिए ४ धम्मायरिए ४ ॥ सू०१४ ॥
छाया--चत्वार आचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--प्रव्राजनाचार्यों नामैको नो उपस्थापनाचार्यः १, उपस्थापनाचार्यों नामैको नो प्रव्राजनाचार्यः २, एकः प्रव्राजनाचार्योऽपि उपस्थापनाचार्योऽपि ३, एको नो प्रव्राजनाचार्यों नो उपस्थापनाचार्यो धर्माचार्यः ४ ॥सू०१४ ॥
भाष्यम्-'चत्तारि' चत्वारः आयरिया पन्नत्ता' आचार्याः-गणनायकाः तत्र-आचार्यलक्षगं यथा
आचिनोति च शास्त्रार्थम् , आचारे स्थापयत्यपि ।
स्वयमाचरते यस्मात् , तस्मादाचार्य उच्यते ॥१॥ .. अस्यार्थः- यस्मात् कारणात् शास्त्रार्थ-शास्त्रप्रतिपाद्यं वस्तु-पदार्थजातम् आचिनोतिएकत्रीकरोति-शास्त्रप्रतिपादितपदार्थजातं स्वमनसि अवधारयति, तथा शास्त्रप्रतिपादितसाधुमर्यादापरिभ्रष्टान् साधून् आचारे-शास्त्रप्रतिपादितव्यवहारे स्थापयति, शास्त्रप्रतिपादितपदार्थान् जीवाजीवादिकान्-अवबोधयति, तथा स्वयमाचरति-शास्त्रप्रतिपादितं समितिगुप्त्यात्मकं श्रमणधर्ममाचरति, स्वयं पालयति, तस्मात्कारणात् स आचार्य इति कथ्यते ।
एतादृशा आचार्याश्चतुष्प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः । सम्प्रति तानेव चतुरो भेदान् दर्शयितुमाह'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा--'पन्चायणायरिए नामं एगे नो उवट्ठावणायरिए' प्रव्रजनाचार्यों नामैको न तूपस्थापनाचार्यः, केवलं प्रव्राजयति--सम्यक्त्वोत्पादनेन दीक्षोन्मुखं कृत्वा सामायिकचारित्रं ददाति न तु छेदोपस्थापनीयचारित्रे उपस्थापयति स प्रथमः १ । . 'उवट्ठावणायरिए नाममेगे नो पन्चायणायरिए' उपस्थापनाचार्यों नामैको नो प्रव्राजनाचार्यः, सम्यक्त्वे उपस्थितान् पञ्चमहावते उपस्थापयति न प्रव्राजयति-न दीक्षां ददातीति द्वितीयः २।
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भाष्यम् उ० १० सू० १५-१६
चतुर्विधान्तेवासिस्वरूपनिरूपणम् २५५ 'एगे पन्चायणायरिएवि उवट्ठावणायरिएवि ३' एकः प्रव्राजनाचार्योऽपि उपस्थापनाचार्योऽपि, स एव प्रव्राजयत्यपि स एवोपस्थापयत्यपि, इति तृतीयः ३।।
___ 'एगे नो पन्चायणायरिए नो उवहावणायरिए ४, एको नो प्रव्राजनाचार्यों नो न वा उपस्थापनाचार्यः । ननु य उभयविकलः स कथमाचार्यःप्रोच्यते पॉवदुभयचरणहीनत्वात् । तत्राह'धम्मायरिए' धर्माचार्यः, एष नो प्रव्राजयति न वा उपस्थापयति किन्तु केवलं धर्ममेव श्रुतचारित्रलक्षणं ग्राहयति ततो धर्मदेशक्त्वाद् धर्माचार्यः । एष चतुर्थः धर्मोपदेशलब्धिमान् श्रमणो भवतीति ।
___ अयं भावः--प्रथमभङ्गे प्रव्राजनाचार्यः सूचितो भवति १। द्वितीयभङ्गे उपस्थापनाचार्यः सूचितः २ । तृतीयभङ्गे--उभयः सूचितः प्रव्राजनाचार्य उपस्थापनाचार्यश्चेति३, तत्र--प्रथमस्याऽsचार्यस्याऽऽत्मार्थम् परार्थ वा केवलप्रव्राजनाधिकारः, य आत्मनिमित्तं परनिमित्तं वा केवलं प्रवाजयति स प्रथमः प्रव्राजनाचार्यः १ । द्वितीयस्तु प्रबजितं केवलमुपस्थापयति, प्रवजितस्य पुरुषस्योपस्थापनां महाव्रतारोपणरूपां करोति २ । तृतीयस्तु पुनराचार्वः स्वात्मार्थ परार्थ वा प्रव्राजनमुपस्थापनं चोभयमपि करोति ३ । यस्तु-नो प्रव्राजयति न वा महाव्रतेषु उपस्थापयति स चतुर्थः, एष धर्मोपदेशकः केवलं जिनोक्तं धर्म ग्राहयतीति ४ ।
___ अत्रैवं योजना विज्ञेया-एकः कश्चिद् धर्माचार्यः यः प्रथमतया धर्म ग्राहयति १ । द्वितीयः प्रव्राजनाचार्यों यः प्रव्राजयति २ । तृतीयो गुरुरुपस्थापनाचार्यों यो हि प्राणातिपातविरमणादिपञ्चमहावतेषूपस्थापयति ३ । एषु त्रिषु कश्चित् त्रिभिरपि संपन्नो भवति, यथा-कदाचित्स एव धर्मग्राहयति,स एव प्रव्राजयति, स एव उपस्थापयत्यापि महाव्रतेषु कश्चिद् द्वाभ्यामेव संपन्नो भवति, यथा-स एव धर्म ग्राहयति, स एव प्रव्राजयति; अथवा प्रव्राजयति उपस्थापयति च । कश्चिदेकेनैव गुणेन युक्तो भवति, यथा-यो धर्ममेव ग्राहयति, कश्चित् केवलं प्रव्राजयत्येव, कश्चित् केवलमुपस्थापयत्येवेति ॥ सू० १४ ॥
अथ पुनराचार्यप्रकारानेवाधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह-'चत्तारि' इत्यादि ।
सूत्रम्-चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तंजहा--उद्देसणायरिए नाम एगे नो वायणायरिए १, वायणायरिए नामं एगे नो उद्देसणायरिए २, एगे उद्देसणायरिएवि वायणायरिएवि ३, एगे नो उद्देसणायरिए नो वायणायरिए धम्मायरिए ४ ॥ सू० १५ ॥
छाया-चत्वार आचार्याः प्राप्ताः, तद्यथा--उद्देशनाचार्यों नामैको नो वाचना चार्यः १, वाचनाचार्यों नामैको नो उद्देशनाचार्यः २, एक उद्देशनाचार्योऽपि वाचनाचार्यो ऽपि ३, एको नो उद्देशनाचार्यो- नो वाचनाचार्यों धर्माचार्यः ४ ॥ सू० १५ ॥
भाष्यम्-'चत्तारि' चत्वारः 'आयरिया पन्नत्ता' आचार्याः । प्रज्ञप्ताः तानेव चतुरो भेदान् दर्शयति-'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'उद्देसणायरिए नाम एगे नो वायणायरिए १' उद्देशनाचार्यों नाम-एको नो वाचनाचार्यः प्रथमः, य उद्दिशति श्रुतोक्कक्रियाकलापादि
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व्यवहारसूत्रे शिक्षणतो द्वादशाङ्गादिश्रुताध्ययनयोग्यतां संपादयति किन्तु श्रुतं न वाचयति-तादृशश्रुतस्य वाचनां न ददाति १ । 'वायणायरिए नामेगे नो उद्देसणायरिए २' वाचनाचार्यों नामैको नो उद्देशनाचार्यः, श्रुतवाचनां ददाति नतूदिशति-न श्रुताध्ययनयोग्यतां संपादयति २। एगे उद्देसणायरिएवि वायणायरिएवि ३' एक उद्देशनाचार्योऽपि वाचनाचार्योऽपि--उद्दिशत्यपि वाचयत्यपि ३ । 'एगे नो उद्देसणायरिए-नो वायणायरिए-धम्मायरिए ४' एकस्तु नो उद्देशनाचार्यों न वा वाचनाचार्यः किन्तु धर्माचार्यः ।
अयं भावः-तत्रैकः प्रथमः श्रुतमुद्दिशति-श्रुतगुणान् प्रदर्शयति परन्तु न वाचयति, यथामङ्गलबुद्धया प्रथमत आचार्य उद्दिशति १, तदनन्तरमुपाध्यायो वाचयति २। अत्राचार्यः प्रथमभङ्गवर्ती १, उपाध्यायस्तु, द्वितीयभगवर्ती, आचार्येणोद्दिष्टमुपाध्यायो वाचयति २ । य एवोदिशति स एव वाचयति, इति तृतीयो भङ्गः ३ । यो नो उदिशति श्रुतं न वा वाचयति, इत्येषश्चतुर्थः ४ । एष धर्माचार्यो धर्मोपदेशकत्वात्, स पुनः श्रुताध्येता गृहस्थो वा श्रमणो वा ज्ञातव्यः । सू० १५ ॥
अथान्तेवासिनोऽधिकृत्य चतुर्भङ्गीमाह-'चत्तारि' इत्यादि ।
सूत्रम्-धम्मायरियस्स चत्तारि अन्तेवासी पन्नत्ता तंजहा-उद्देसणंतेवासी नाम एगे नो वायणंतेवासी १, वायणंतेवासी नामं एगे नो उदेसणंतेवासी २, एगे उद्देसणंतेवासीवि वायणंतेवासी वि ३, एगे नो उद्देसणंतेवासी नो वायणं तेबासी-धम्मते वांसी ४॥ सू० १६ ॥
छाया-धर्माचार्यस्य चत्वारोऽन्तेवासिनः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-उद्देशनान्तेवासी नामैको नो वाचनान्तेवासी १, वाचनान्तेवासी नामैको नो उद्देशनान्तेवासी २, एक उद्देशनान्तेवासी अपि वाचनान्तेवासी अपि ३, एको नो उद्देशनान्तेवासी नो वाचनान्तेवासी धर्मान्तेवासी ४ ॥सू० १६ ॥
भाष्यम्---'धम्मायरियस्स चत्तारि अंतेवासी पन्नत्ता' धर्माचार्यस्य चत्वारोऽन्तेवासिनः-शिष्याः प्रज्ञप्ताः, तत्र-अन्तं नाम-अन्तिकमध्यास आसन्नं समीपं चेत्येकोऽर्थः, तत्पु. नरन्तः-समीपे वसति-शिक्षाग्रहणाय गुरुसमीपं वसति सोऽन्तेवासी आचार्य प्रतीत्यैव श्रुतग्रहण. नियमात् । तथा चाऽऽचार्यस्याऽन्ते-समीपं वसतीत्येवंशीलो यः सोऽन्तेवासी, ते चान्तेवासिन आचार्यवदेव चतुष्प्रकारका भवन्ति । आचार्यस्य चतुर्विधत्वेन तदन्तेवासिनामपि चतुर्विधत्वसंभवात् , तानेव चतुरो भेदान् दर्शयति-तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'उदेसणंतेवासो नाम एगे नो वायणंतेवासी' उद्देशनान्तेवासी नाम-एको नो वाचनान्तेवामी, तत्र-उद्देशनमुद्देशः सूत्रोकशिक्षेत्यर्थः । केवलमुद्देशमेवाधिकृत्य योऽन्तेवासी स उद्देशनान्तेवासी कथ्यते. एतादृश एकः किन्तु नो वाचनान्तेवासी वाचनामधिकृत्य नो अन्तेवासी वाचनाग्रहणबुद्धयाऽन्तेवासी नेति प्रथमः १।
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भाष्यम् उ० १० सु० १७-१८ त्रिविधस्थविरभूमि-शैक्षभूमिनिरूपणम् २५७ 'वायणंतेवासी नाम एगे नो उद्देसणंतेवासी २, वाचनान्तेवासी नाम-एको न तु उद्देशनान्तेवासी, यः केवलं वाचनामेव गृह्णाति न तूद्देशमिति द्वितीयः २ । 'एगे उद्देसणंतेवासीवि वायणंतेवासीवि' एक उद्देशनान्तेवासी-अपि, वाचनान्तेवासी-अपि, य उभयमपि गृह्णातिउद्देशमपि गृह्णाति तथा श्रुतस्य वाचनामपि गृह्णाति स तृतीयः ३ । 'एगे नो उद्देसणंतेवासी नो वायणंतेवासी धम्मंतेवासी ४' एको नो उद्देशं गृह्णाति, न वा वाचनामेव श्रुतस्य गृह्णाति किन्तु केवलं धर्मश्रवणमात्रमधिकृत्याऽऽचार्यान्तिके वसति स धर्मान्तेवासीति चतुर्थः ४।।
अयं भावः– यो यस्यान्ते-उद्देशनमेवाधिकृत्य वसति स तस्याचार्यस्योदेशनान्तेवासी प्रथमः । यो यस्याचार्यस्य अन्तिके केवलं वाचनामेवाधिकृत्य वसति स तस्य वाचनान्तेवासी द्वितीयः २ । यस्तु यस्याऽऽचार्यस्यान्तिके उद्देशनं वाचनां चेत्युभयमपि अधिकृत्य वसति, स तस्याचार्यस्योभयान्तेवासी, इति तृतीयः ३ । यस्तु यस्याचार्यस्य समीपे नो उद्देशनं नाऽपि वाचनामधिकृत्य वसति, किन्तु-धर्मश्रवणमात्रमधिकृत्यैव वसति, स तं प्रति उभयविकलो धर्मान्तेवासीति चतुर्थः ४ ।
अत्रैवं योजना कर्त्तव्या, तथाहि-प्रथमं कश्चित् धर्मश्रोतृत्वेन धर्मान्तेवासी १। कश्चित् श्रुतोक्तशिक्षाग्रा हित्वेन उद्देशान्तेवासी २ । कश्चित् श्रुतवाचनाग्राहित्वेन वाचनान्तेवासी ३ । कश्चिद् उद्देशनं वाचनां चेत्युभयस्यापि ग्राहित्वेन उभयान्तेवासीति चत्वारोऽन्तेवासिनो भवन्तीति ४ ।
___ अत्र-धर्मादिमिश्रणेनापि पञ्चविधा अन्तेवासिनो भवन्ति, तथाहि-कश्चिद् धमोंदेशनवाचनेतित्रिभिः समन्वितो भवति १ । कश्चिद्धर्मवाचनाभ्यां समन्वितो भवति २ । कश्चिद् धर्मोद्देशनाभ्यां समन्वितो भवति ३ । कश्चिद्वाचनोद्देशनाभ्यां युक्तो भवति ४, कश्चिद्- एकेनैव युक्तो भवति धर्मेण वा उद्देशनेन वा-वाचनया वाऽन्तेवासी भवतीति ॥ सू १६ ॥
पूर्वमन्तेवासिनां चतुर्भङ्गी प्ररूपिता, अन्तेवासिनश्च स्थविराणां भवन्तीति स्थविरवक्तव्यतामाह-'तओ थेरभूमीओ' इत्यादि ।
सूत्रम्-'तो थेरभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहा- जाइथेरे सुयथेरे परियायथेरे य। सहिवासजाए जाइथेरे ठाणसमवायधरे सुयथेरे २, वीसवासपरियाए परियायथेरे ३,॥सू०१७।।
___ छाया--तिनः स्थविरभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-जातिस्थविरः १ श्रुतस्थविरः, २ पर्यायस्थविरश्च ३। षष्टिवर्षजातो जातिस्थविरः १, स्थानसमवायधरः श्रुतस्थविरः २, विंशतिवर्षपर्यायः पर्यायस्थविरः ४ ।। सू० १७ ॥
व्य, ३३
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२५८
व्यवहारस्चे भाष्यम् -'तो' तिस्रः-त्रिप्रकारिकाः 'थेरभूमीओ पन्नत्ताओ' स्थविरभूमयः प्रज्ञप्ताः तत्र-भूमिः स्थानं काल इत्येकार्थः तेनायमर्थः-स्थविरस्य भूमिः-अवस्थारूपः कालः, तास्तिस्रः प्रज्ञप्ताः, ता एवाह–'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'जाइथेरे' जातिस्थविरः, 'सुयथेरे' श्रुतस्थविरः, 'परियायथेरे य' पर्यायस्थविरश्च । तत्रैषां त्रयाणां स्थविराणां व्याख्यानं सूत्रकारः स्वयं करोति-'सहिवासजाए' इत्यादि, 'सद्विवासजाए' षष्टिवर्षजातः-जन्मतः षष्ठिवर्षायुष्कः साधुः 'जाइथेरे' जातिस्थविरः कथ्यते १ 'ठाणसमवायघरे सुयधरे' स्थानसमवायधरः-स्थानाङ्गसमवायाङ्गधरः श्रुतस्थविरः प्रोच्यते २ । 'वीसवासपरियाए परियायथेरे' विंशतिवर्षपर्यायः- विंशतिवर्षदीक्षापर्यायवान् पर्यायस्थविर उच्यते ३ इति ।
__एषां त्रयाणामपि स्थविराणां सत्कारसम्मानादिपूर्वकं तद्योग्यं वैयावृत्त्यमन्यसाधुभिः कर्त्तव्यम्, तथाहि-यो हि जातिस्थविरः षष्टिवर्षजातः, तस्य स्थविरस्य देश-काल-स्वभावानुमताहारपानीयादितव्यः । उपधिर्यावता संस्तरति तावत्प्रमाणको दातव्यः । तथा-शय्यावसतिरनुकूला दातव्या । संस्तारको मृदुको देयः । तथा क्षेत्रान्तरगमनसमये जातिस्थविरस्योपध्यादिकमन्ये वहन्तीति जातिस्थविरस्य वैयावृत्तिप्रकारः १ ।
तथा-श्रुतस्थविरस्य श्रतेन तपसा, वृद्धस्य कृतिकर्म-वन्दनादिकं कर्त्तव्यम्, तस्य छन्दतो ऽनुवर्त्तनं कर्त्तव्यम् । एवमागतस्य श्रुतस्थविरस्याऽभ्युत्थानमभिवादनं पादप्रमार्जनादिकं कर्त्तव्यम् । तद्योग्यमाहारादिकमानीय समर्पणीयम् । तदीयगुणानां प्रशंसनं कर्त्तव्यम् । यत्र श्रुतस्थविर उपविष्टो भवेत् तत्र तदपेक्षया नीचैः शय्यायामुपवेष्टव्यम् । तस्याऽऽज्ञा सर्वदा परिपालनीया । एवंप्रकारेण श्रुतस्थविरस्य संमानपूर्वकं वैयावृत्त्यं विधेयमिति श्रुतस्थविरस्य वैयावृत्त्यप्रकारः २ । तथा पर्यायस्थविरस्य अप्रव्राजकस्यापि वाचनामदातुरपि आगच्छतोऽभ्युत्थानादिकं सहर्ष कर्तव्यम् । योग्यमाहारादिकमानीय तस्मै समर्पणीयमिति पर्यायस्थविरस्य वैयावृत्त्यप्रकार इति ॥ सू० १७॥
पूर्व तिस्रः स्थविरभूमयः प्रदर्शिताः, स्थविराणां वैयावृत्यादिकं शैक्ष एव कर्त्तमर्हतौति शैक्षसूत्रमाह-अथवा स्थविरपक्षाः शैक्षा इति स्थविरसूत्रानन्तरं शैक्षसूत्रमाह--'तो' इत्यादि ।
सूत्रम्--'तो सेहभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-सत्तराइंदिया, चाउम्मासिया, छम्मासिया। छम्मासिया य उक्कोसिया, चाउम्मासिया मज्झमिया, सत्तराइंदिया जहन्ना ॥ सू०१८॥
__ छाया-तिस्रः शैक्षभूमयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सप्तरात्रिंदिवा, चातुर्मासिकी, पाण्मासिकी। पाण्मासिकी चोत्कृष्ट्रा, चातुर्मासिकी मध्यमा, सप्तरात्रिन्दिवा जघन्या' ॥सू०१८॥
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भाष्यम् उ० १० सु. १९-२१
अवस्थामाश्रित्य दीक्षादानविधिः २५९ भाष्यम् ---'तओ सेहभूमीओ पन्नत्ताओ' तिम्रः-त्रिसंख्यकाः शैक्षभूमयः, शैक्षकाणांशिष्याणां भूमयः-उपस्थपनाकालरूपाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, तानेव भेदान् दर्शयितुमाह-'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'सत्तराईदिया' सप्तरात्रिन्दिवा-सप्तरात्रिंदिवप्रमाणा, 'चाउमासिया' चातुर्मासिकी-चतुर्मासप्रमाणा, 'छम्मासिया' पाण्मासिकी षण्मासप्रमाणा, तत्र-तासु तिसृषु मध्ये 'छम्मासिया य उक्कोसिया' पाण्मासिकी, उत्कृष्टा शैक्षभूमिः पाण्मासिकी-भवति । तथा'चाउम्मासिया मज्झमिया' चातुर्मासिकी, मध्यमा शैक्षकभूमिः चातुर्मासिकी भवति । 'सत्तराइंदिया जहन्ना' सप्तरात्रिंदिवा जघन्या, जघन्या शैक्षकभूमिः सप्तरात्रिंदिवप्रमाणा भवति । ता एताः तिस्रः शैक्षकभूमयो भवन्तीति ।
___ अयं भावः--यः शैक्षकः पूर्वं गृहीतप्रव्रज्यः उत्प्रव्रजितो भूत्वा पुनरपि प्रव्रज्यां प्रतिपन्नवान् स शैक्षकः सप्तमे दिवसे उपस्थापनीयः । तस्य हि यावद्भिर्दिनैः पूर्वविस्मृतसाधुसामाचारीरूपघडध्ययनात्मकमावश्यकमधीतं भवेत् तदा दीक्षादिना सप्ममे दिवसे छेदोपस्थापनीये चारित्रे उपस्थापयितव्यः, एषा जघन्या भूमिः। यद्येतावदिनेषु आवश्यकं नाभ्यस्तं भवेत्तदा स चतुर्थे मासे उपस्थापनीयः, एषा मध्यमिका भूमिः । चतुर्भिर्मासैरप्यावश्यकं नाधीतं भवेत् तदा षष्ठे मासे उपस्थापयितव्यः, एषा उत्कृष्टा भूमिः । दुर्मेधसं धर्ममश्रद्दधानं च प्रतीत्य उत्कृष्टा पाण्मासिकी भूमिर्भवतीति ।
अत्रेयं भावना-यदि सप्तसु दिवसेषु आवश्यकमभ्यस्तं न भवेत्तदा चतुर्थमासि उपस्थापयितव्यः । ततोऽपि यदि न भवेदभ्यस्तमावश्यकं तदा षष्ठेमासे उपस्थापयितव्यः । ततोऽपि न भवेत् तदा यदा भवेत्तदोपस्थापयितव्यः। जघन्यभूमिप्राप्तः शैक्षो धर्मश्रद्धापरिणतत्वेन परिणामकः कथ्यते । परिणामको द्विप्रकारको भवति, यथा-आज्ञापरिणामको दृष्टान्तपरिणामकश्च । तत्र आज्ञापरिणामकः आज्ञयैव--जिनाज्ञामात्रेणैव परिणतो भवति 'तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहि पवेइयं तदेव सत्यं निश्शकं यज्जिनैः प्रवेदितम्, इत्येवंप्रकारेण जिनोक्तानि जीवा-जीवादितत्त्वानि निश्शकं श्रद्दधाति न कारणं जानीते न वा कारणं पृच्छति स आज्ञापरिणामकः शैक्षः ।
यस्तु परोक्षहेतुकमर्थं प्रत्यक्षप्रसिद्धदृष्टान्तद्वारा आत्मबुद्धौ-आरोपयति नान्यथा, स दृष्टान्त परिणामकः । दृष्टान्तेन विवक्षितम) परिणमयति स्वबुद्धौ स दृष्टान्तपरिणामक इति ॥ सू० १८ ॥
पूर्व शैक्षकस्योपस्थापनाकालः प्रोक्तः, साम्प्रतं शैक्षकस्याऽवस्थामधिकृत्योपस्थापनाप्रकारमाह-'नो कप्पइ निगंथाण वा' इत्यादि ।
सूत्रम्-नो कप्पइ निग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा खुड्डगं वा खुड्डियं वा ऊणट्ठवासजाय उवट्ठावेत्तए वा संभुजित्तए वा ॥ सू० १९ ॥
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व्यवहारसूत्रे छाया-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लक वा क्षुल्लिका वा ऊनावर्षजातमुपस्थापयितुं वा संभोक्तुं वा ॥ सू० १९ ॥
भाष्यम्-'नो कप्पइ' नो-नैव कल्पते, 'णिग्गंथाण वा' निर्ग्रन्थानां श्रमणानां वा 'णिगंथीण वा' निम्रन्थीनां श्रमणीनां वा 'खुड्डगं वा खुडियं वा' क्षुल्लकं क्षुल्लिका वा-तत्रक्षुल्लकोऽल्पवयस्कः तम्, क्षुल्लिका-अल्पवयस्का ताम्, तादृशं पुनः कथम्भूतम्, तत्राह-'ऊण?' इत्यादि, 'ऊणहवासजायं' ऊनाष्टवर्षजातम् ऊनानि किञ्चिन्न्यूनानि अष्ट वर्षाणि जाते जन्मनि यस्य स ऊनाष्टवर्षजातः-अष्टवर्षाद् अल्पावस्थाकः, तम् , तां वा क्षुल्लकं क्षुल्लिकां वा, 'उवद्वावर' उपस्थापयितुं पञ्चमहाव्रतेषु-उपस्थापयितुं-प्रव्राजयितुमित्यर्थः । तथा--संभुंजित्तए' संभोक्तुं वा एकमण्डल्यां सहोपविश्य तेन सह संभोक्तुम्-आहारादिसंभोगं कर्तुम् श्रमणस्य श्रमण्या वा न कल्पते, यथाहि-अष्टवर्षान्सूनवयस्के बालके उपस्थापितं चारित्रं मतेरपरिपक्वत्वेन न सम्यग् अवतिष्ठते, तदवस्थायाश्चञ्चलस्वभावत्त्वात् , यथा आमे घटे निहितं जलं नावतिष्ठते घटस्याऽऽमत्वेन जलं निशीर्यते तथैवात्रापि विज्ञेयम् ॥ सू० १९ ॥
पूर्वम् ऊनाष्टवर्षजातं क्षुल्लकादिकं न दीक्षयेदित्युक्तं तेनाऽऽयातं पूर्णाष्टवर्षजातं तु दीक्षयेदिति तन्निराकरणाय सूत्रमाह-'कप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम् -कप्पइ णिग्गंथाण वा णिगंथीण वा खुड्डगं वा खुड्डियं वा साइरेगअट्ठवासजायं उबहावेत्तए वा संभुंजित्तए वा ॥ सू० २०॥
छाया-कल्पते निग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लकं वा क्षुल्लिक वा सातिरेकाऽष्टवर्षजातम् उपस्थापयितुवा संभोक्तुं वा ॥ सू० २० ॥
भाष्यम्-'कप्पई' कल्पते, "णिग्गंथाण वा' निर्ग्रन्थानां वा 'णिग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थीनां वा 'खुड्डगं वा' क्षुल्लकं-बालकं वा, 'खुड्डियं वा' क्षुल्लिकां-बालिकां वा, 'साइरेगअवासजायं' सातिरेकाष्टवर्षजातम् ‘जन्मनाऽष्टवर्षादधिकवयस्कम् 'उवट्ठावेत्तए वा' उपस्थापयितुं-प्रव्राजयितुं वा, तथा 'संभुंजित्तए वा' संभोक्तुं वा-तेन तया वा सह आहारादिसंभोगं कत्तु कल्पते, यतः सातिरेकाष्टवर्षायुष्के मतिर्विकसितुं प्रारभते ततो भगवतेदं प्रतिपादितम् ॥ सू० २० ॥
पूर्व सातिरेकाष्टवर्षायुष्कं दीक्षयेदिति प्रोक्तम् , सम्प्रति तादृशस्यापि आचारप्रकल्पनामाध्ययनस्य निषेधकालं प्रदर्शयति-'नोकप्पइ' इत्यादि ।
सूत्रम् - नोकप्पई णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा खुडगस्स वा खुडियाए वा अव्वंजण जायस्स आयारकप्पे नामं अज्झयणे उद्दिसित्तए ॥सू० २१॥
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भाष्यम् उ० १० सू० २२-२५
दीक्षा पर्यायमश्रित्य सूत्राध्यापन विधिः २६१
छाया - नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लकस्य वा क्षुल्लिकाया वा अव्यञ्जनजातस्य आचारकल्पो नामाऽध्ययनमुद्देष्टुम् ॥ सू० २१ ॥
भाष्यम् – 'नो कप्पर' नो नैव कल्पते, 'णिग्गंथाण वा निग्गंधीणवा' निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा, 'खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा' क्षुल्लकस्य वा क्षुल्लिकाया वा, 'अव्वंजणजायस्स' अव्यञ्जनजातस्य तत्र व्यञ्जनानि युवत्वसंसूचकक्षालोमादीनि तानि न जातानि न समुत्पन्नानि यस्य यस्या वा सोऽव्यञ्जनजातोऽव्यञ्जनजाता वा, तस्य तस्या वा अप्राप्तषोडशवर्षस्य क्षुल्लकस्य, अप्राप्तयौवनायाः क्षुल्लिकाया वेत्यर्थः ' आयारकप्पे नामं अज्झयणे' आचारकल्पो नामाऽध्ययनम्, अत्र आचारपदेन आचाराङ्गं कल्पपदेन निशीथमिति आचाराङ्गसूत्रं निशीथसूत्रं च ' उद्दिसित्तए' उद्देष्टुं समुपदेष्टुम् । उक्तञ्च —
"यावन्न यौवनाऽऽशंसि, लोमलज्जोद्गमः स्फुटम् । तावन्निशीथसूत्राणां कल्पतेऽध्ययनं नहि" ॥१॥
यावत्कालपर्यन्तं यौवनाऽभिव्यञ्जक लोमराजिः नेत्राद्यङ्गप्रत्यङ्गे लज्जोद्गमः स्फुटं नावभासेत तावत्कालपर्यन्तं बालस्य दीक्षितस्यापि श्रमणस्य श्रमण्या वा निशीथसूत्रादिकमध्यापयितुं श्रमणानां श्रमणीनां वा न कल्पते, अपक्वमतिकाले तदध्ययनस्य निषेधात् ।
यथा-ऊनाष्टवर्षो बालश्चारित्रधारणे समर्थो न भवतीति अप्राप्ताऽष्टमवर्षस्य दीक्षणं प्रतिषिद्धम् । एवमेवाप्राप्तव्यञ्जनस्याऽऽचाराङ्ग - निशीथ - सूत्रादिकं नाऽध्याप्यते, अपरिपक्व बुद्धितयाऽपवादशास्त्रस्य धारणेऽयोग्यतामाकलय्य स्थविरास्तान् अज्ञातव्यञ्जनान् आचाराङ्ग-निशीथसूत्रादिकं नाऽध्यापयन्तीति ॥ सू० २१ ॥
अथाऽऽचारप्रकल्पनामाध्ययनकालमाह - ' कप्पइ णिग्गंथाण वा' इत्यादि ।
सूत्रम् - कप्पर णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा खुड्डगस्स खुड्डियाए वा वंजणजायस्स आयारकप्पे नामं अज्झयणे उद्दित्तिए । सू० २२॥
छाया – कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लकस्य क्षुल्लिकाया वा व्यञ्जनजातस्य आचारकल्पो नामाध्ययनमुद्देष्टुम् ॥ सू० २२ ॥
भाष्यम् – 'कप्पड़' कल्पते 'णिग्गंथाण वा' निर्ग्रन्थानां वा 'णिग्गंथीण वा' निर्ग्रन्थीनां वा 'खुड्डगस्स वा खुड्डियाएवा' क्षुल्लकस्य बालकस्य वा, क्षुल्लिकाया वा, बालिका 'वजण जायस्स' व्यञ्जनजातस्य सञ्जातयुक्त्व सूचककक्षारोमादिव्यञ्जनस्य तादृशस्य श्रमणस्य श्रमण्या वा 'आयारकप्पे नामं अज्झयणे' आचारकल्पो नामाध्ययनं आचाराङ्ग-निशीथ-रूपम् 'उद्दित्तिए' उद्देष्टुं समुदेष्टुम् अध्यापयितुम्, कस्मात्कारणादिति चेद् अत्र ब्रूमः - तादृशो हि
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व्यवहारस्ने युवा परिपक्वबुद्वितयाऽपवादशास्त्रस्याऽपि ज्ञाने समर्थों भवति, अतस्तस्य जातव्यञ्जनस्याऽध्यापन विधीयते इति ॥ सू० २२॥
पूर्व जातव्यञ्जनायाऽऽचारप्रकल्पाध्ययनमुद्देष्टव्यमिति प्रोक्तम्, एतादृशस्तु अल्पकाल. दीक्षितोऽपि भवेत्तदा तादृशाय श्रमणाय तत् समुद्देष्टव्यं न वा ? इति जिज्ञासायां सूत्रकारो दीक्षापर्यायमाश्रित्याऽऽचाराङ्गादिसूत्राध्ययनक्रमं पञ्चदशभिः सूत्रः प्रदर्शयति, तत्र प्रथमं त्रिचतुःपञ्चाष्टादशवर्षपर्यायसंबन्धि सूत्रपञ्चकमाह-'तिवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्- तिवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारकप्पे नामं अज्झयणे उदिसित्तए । सू०२३ ॥
छाया-त्रिवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते आचारकल्पो नामाऽध्ययन मुद्देष्टुम् ॥ सू० २३॥
भाष्यम् -'तिवासपरियायस्स' त्रिवर्षपर्यायस्य त्रीणि वर्षाणि परिपूर्णानि पर्यायस्य दीक्षाकालस्य जातानि यस्य स त्रिवर्षपर्यायः प्रारब्धचतुर्थवर्षपर्याय इत्यर्थः, यस्य दीक्षापर्यायो वर्षत्रयात्मकः परिपूर्णो जातश्चतुर्थश्च प्रविष्टस्तस्य 'समणस्स णिगंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पई' कल्पते 'आयारकप्पे णामं अज्झयणे' आचारकल्पो नामाध्ययनम् आचाराङ्गनिशीथादिसूत्रम्, 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुम् अध्यापयितुम् । जातव्यञ्जनस्यापि त्रिवर्षपर्यायस्यैव श्रमणनिम्रन्थस्य आचारकल्पो नामाऽध्ययनमुद्देष्टव्यं भवेत् नाऽन्यस्येति भावः ॥ सू० २३ ॥
सूत्रम्--चउवासपरियायस्स समणस्स णिगंथस्स कप्पइ सूयगडे नाम अंगे उद्दिसित्तए ॥२४॥
पंचवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ दसाकप्पववहारे उद्दिसित्तए ।॥२५॥ छाया- चतुर्वर्षपर्यायस्य प्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते सूत्रकृतं नामाङ्गमुद्देष्टुम् ॥२४॥ पञ्चवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते दशाकल्पव्यवहारान् उद्देष्टुम् ॥२५॥
भाष्यम् – 'चउवासपरियायस्स' इति, चतुर्वर्षपर्यायस्य परिपूर्णचतुर्वर्षदीक्षाकालस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य 'सूयगडे नाम अंगे' सूत्रकृतं नामाङ्गं-द्वितीयमङ्गसूत्रमुद्देष्टुं कल्पते ॥ सू० २४ ॥ एवम्-'पंचवासपरियायस्स' इति, पञ्चवर्षपर्यायस्य सञ्जातपरिपूर्णपञ्चवर्षदीक्षाकालस्य श्रमणनिम्रन्थस्य 'दसाकप्पयवहारे' दशाकल्पव्यवहारान्-दशाश्रुतस्कन्धः, बृहत्कल्पः, व्यवहारश्चेति व्यवहारसूत्रं चेति त्रीणि सूत्राणि उद्देष्टुं कल्पते, अस्य पश्च-षट्-सप्तवर्षदीक्षापर्यायरूपेषु
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भाष्यम् उ० १० सू० २६-२९ दोक्षापर्यायमाश्रित्य सूत्राध्यापनविधिः २६३ त्रिषु वर्षेषु त्रीणि सूत्राणि उद्देष्टव्यानि येनाऽग्रे स स्थानाङ्ग-समवायाङ्ग-सूत्रोद्देशनयोग्यता प्राप्नुयात्तदर्थम् अग्रिमसूत्रेऽष्टवर्षपर्यायस्य स्थानसमवायोदेशनं प्रतिपादितम् ॥सू०२५॥
अथ--अष्टवर्षपर्यायरूपं चतुर्थसूत्रमाह-'अहवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्अहवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ ठाणसमवाया उद्दिसित्तए ॥ सू० २६॥
छाया-अष्टवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते स्थानसमवायौ उद्देष्टुम् ॥ स्० २६ ॥
भाष्यम्-- 'अहवासपरियायस्स' अष्टवर्षपर्यायस्य, यस्य दीक्षापर्यायोऽष्टवर्षात्मको व्यतीतः नवमे च प्रविष्टस्तस्य तादृशस्य, 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निम्रन्थस्य 'कप्पई' कल्पते 'ठाणसमवाया उदिसित्तए' स्थानसमवायो-स्थानाङ्गं समवायाङ्गं चेति सूत्रद्वयम् उद्देष्टुमध्यापयितुम् । ____ अष्टनवात्मके वर्षद्वये स्थानाङ्गसमवायाङ्गेति सूत्रद्वये उद्दिष्टे सति तस्य व्याख्याप्रज्ञप्त्यङ्गोदेशनयोग्यता स्यात्, अग्रिमसूत्रे दशवर्षपर्यायस्य व्याख्याप्रज्ञप्तेरुद्देशनस्य प्रतिपादितत्वात् ॥सू० २६ ॥
तदेवाह-'दसवास.' इत्यादि ।
सूत्रम्- दसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ विवाहे नामं अंगे उदिसित्तए ॥ सू० २७ ॥
छाया- दशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते विवाहो नामाङ्गमुद्देष्टुम् ॥२७॥
भाष्यम्--'दसवासपरियायस्स' दशवर्षपर्यायस्य, यस्य दीक्षाकालो दशवर्षात्मको व्यतीतस्तादृशस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य-निर्ग्रन्थस्य 'कप्पई' कल्पते, 'विवाहे नामं अंगं उद्दिसित्तए' विवाहनामकमङ्गं-व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र-भगवतीसूत्रापरपर्यायं सूत्रम् उद्देष्टुमध्यापयितुम् ।
त्रिवर्षपर्यायादारभ्य दशवर्षपर्यायपर्यन्तानां पञ्चानां सूत्राणामयं भावः-त्रिवर्षपर्यायस्याऽऽचारप्रकल्पाध्ययनोदेशेन स साध्वाचारस्य सम्यक् परिपालनसमर्थो भवति तत्र साध्वाचारस्य प्रतिपादितत्वात्।।सू० २३॥ चतुर्वर्षपर्यायस्य सूत्रकृताङ्गोद्देशनमनुज्ञातम् , यतश्चतुर्वर्षपर्यायो धर्मे दृढमतिर्भवेत् हीनपर्यायो मतिभेदेन मिथ्यात्वं प्राप्नुयात् , सूत्रकृताङ्गे च त्रिषष्टयधिकानां त्रयाणां पाखण्डिशतानां दृष्टयः प्ररूपिताः, तदध्ययनेन स कुसमयै पहियते ॥ सू० २४ ॥ पञ्चवर्षपर्यायोऽपवादज्ञानयोग्यो भवतीति कृत्वा तस्य दशाश्रुतस्कन्ध-वृहत्कल्प-व्यवहाराध्यापनमनुज्ञातम् ॥ सू०२५॥ एषां त्रयाणां सूत्राणामध्ययनं पञ्चषट्-सप्तेति वर्षत्रयं यावत् करोति ततः स विकृष्टपर्यायो
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२६४
व्यवहारसूत्रे
जायते तेन कारणेन अष्टवर्षपर्यायस्य स्थानाङ्गं समवायाङ्गं चेति सूत्रद्वयस्याऽध्ययनमष्टमनवमेतिवर्षद्वये करोति एतत्सूत्रद्वयस्य द्वादशानामपि, अङ्गानां मध्ये प्रायेण महर्द्धिकत्वात् ॥ सू० २६ ॥ ततस्ताभ्यां परिकर्मितमतेर्दशवर्षपर्यायस्य व्याख्याप्रज्ञप्तिरुद्दिश्यते । इति सूत्रपञ्चकाशयः ॥ सू० २७ ॥
अथैकादशवर्षपर्यायं श्रमणनिम्रन्थमधिकृत्य सूत्रमाह-'एक्कारसवासपरियायस्स' इत्यादि।
सूत्रम्-- एक्कारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ खुड्डियाविमाण पविभत्ती महल्लियाविमाणपविभत्ती अंगचूलिया वंगचूलिया विवाहचूलिया नाम अज्झयणं उदिसित्तए ॥ सू० २८॥
छाया-एकादशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिर्महती विमानप्रविभक्तिरङ्गचूलिकवर्गचूलिका विवाहचूलिका नामाऽध्ययनमुद्देष्टुम् ॥ सू० २८॥
भाष्यम्-'एक्कारसवासपरियायस्स' एकादशवर्षदीक्षापर्यायस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पई' कल्पते खुडियाविमाणपविभत्ती' क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिः, यत्रकल्पेषु विमाना वर्ण्यन्ते, 'महल्लियाविमाणपविभत्ती' महती विमानप्रविभक्तिः, यत्र कल्पेषु विमानान्येव विस्तारपूर्वकं प्रतिपाद्यन्ते, 'अंगचूलिया' अङ्गचूलिका, तत्राऽङ्गानाम् उपासकदशाप्रभृतीनां पञ्चानां चूलिका निरयावलिका इत्यङ्गचूलिका । 'वंगचूलिया' वर्गचूलिका महाकल्पश्रुतस्य चूलिका वर्गचूलिका । 'विवाहचूलिया' विवाहचूलिका-व्याख्याप्रज्ञप्तेश्चूलिका 'नाम अज्झयणं' एतन्नामकमध्ययनं शास्त्रम् 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुमध्यापयितुम् ॥ सू० २८॥
द्वादशवर्षपर्यायमाश्रित्याह--'बारसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्-'बारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ अरुणोववाए गरुलोववाए वरुणोववाए धरणोववाए वेसमणोववाए वेलंधरोववाए नाम अज्झयणं उद्दिसित्तए ॥ सू० २९॥
____ छाया-द्वादशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते अरुणोपपातो गरुडोपपातो वरुणोपपातो धरणोपपातो वैश्रमणोपपातो वेलंधरोपपातो नामाध्ययनमुद्देष्टुम् ॥ सू० २९ ॥
भाष्यम्-'बारसवासपरियायस्स' द्वादशवर्षपर्यायस्य यस्य साधोर्दीक्षापर्यायो द्वादशवर्षात्मको व्यतीतः, येन द्वादशवर्षपर्यन्तं श्रामण्यं पालितं तस्य, तादृशस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पई' कल्पते 'अरुणोववाए' अरुणोपपातः-अरुणोपपातनामकमध्ययनम्, अत्र 'नाम अज्झयणं' इति प्रतिपदे संयोज्यम् । 'गरुलोववाए' गरुडोपपातः-गरुडोपपातनामकमध्यनम् । 'वरुणोववाए' वरुणोपपातः-एतन्नामकमध्ययनम् । 'धरणोववाए' धरणोपपात:
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भाष्यम् उ० १० सू० ३०-३१
दीक्षापर्याक्रमेण सूत्राध्यापनविधिः २६५
एतन्नामक मध्ययनम् । 'वेसमणोववाए' वैश्रमणोपपातः - एतन्नामकोऽध्ययनविशेषः । तथा'वेलंधरोaare नाम अज्झयणं' वेलंधरोपपातो नामाध्ययनम् 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुं वाचयितुमध्यापयितुमित्यर्थः ।
एतेषामरुणोपपातादिनामाऽध्ययनानामधिष्ठातारस्तत्तदध्ययनसदृशनामानोऽरुणादयो देवाः सन्ति तानरुणादिदेवान् हृदये संप्रधार्य ये श्रमणा यदा अरुणोपपातादिकानि अध्ययनानि परावर्त्तन्ते तदा तेषामन्तिके स्वकीयस्वकीयाऽध्ययनपरावर्त्तनाऽनुगृहीतास्ते देवा अञ्जलिमुकुलितहस्ता दशाऽपि दिश उद्योतयन्तः प्रादुर्भवन्ति, प्रादुर्भूय च किङ्करभूताः सन्तोऽध्ययनपरावर्त्तकान् पर्युपासते, वेलन्धरा धरणा वरुणाश्च देवाः वेलन्धरोपपातादिपाठकानामन्तिके गन्धोदकादि वर्षा वर्षान्ति, तथा - अरुणा गरुडा वैश्रमणाश्च देवा अरुणोपपातादिकाssध्ययनपरावर्त्तनेनाssवर्जिताः सन्तः तत्तदन्तिकमुपागत्य सुवर्णरजतादीनां वृष्टि कुर्वाणा दासवद् उपासते ब्रुवते च श्रमणा ! आदिशत किं कुर्मो वयमिति ॥ सू० २९ ॥
अथ -
- त्रयोदशवर्षपर्यायमधिकृत्याह -- ' तेरसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् - तेरसवासपरिया यस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पर उट्ठाणसुए समुट्ठाree देविंदोaare णागपरियावणिया नामं अज्झयणं उद्दित्तिए | सू० ३० ॥
छाया - त्रयोदशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते, उत्थानश्रुतं समुत्थानश्रुतं देवेन्द्रोपपातो नागपर्यापनिका नामाध्ययनमुद्देष्टुम् ॥ सू० ३० ॥
भाष्यम् – 'तेरसवासपरियायस्स' त्रयोदशवर्षपर्यायस्य यस्य दीक्षापर्यायस्त्रयोदशवर्षोत्मकः कालो व्यतीतस्तादृशस्य, 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य ' कप्पड़' कल्पते, 'उद्वाणसु' उत्थानश्रुतम् एतन्नामकमध्ययनम् । तथा - 'समुत्थानसुए' समुत्थानश्रुतम् - एतन्नामकमध्ययनम् । तथा 'देविंदो वाए' देवेन्द्रोपपातः - देवेन्द्रोपपातकनामकमध्ययनम् । 'नागपरि - यावणिया नाम अज्झयणं' नागपर्यापनिकानामकमध्ययनम् ' उद्दिसित्तए' उद्देष्टुम्, त्रयोदशवर्षपय यस्य श्रमणस्य उत्थानश्रुत। दिनामकानि - अध्ययनानि अध्यापयितुं कल्पते ॥
एतेषामध्ययनानामयमतिशयः - त्रयोदशवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थो यत्र स्थानविशेषे सुचे - तसा मनःप्रणिधानपूर्वकम् उत्थानश्रुतं परावर्त्तयति तत्रैव स्थानविशेषे कुलग्रामदेशा उत्तिष्ठन्ति उद्वशीभवन्ति, तदनन्तरं कार्ये निष्पन्ने सति समुत्थानश्रुते परावर्त्त्यमाने पुनरपि ते कुलग्रामदेशा स्वस्थीभूय निवसन्ति । एवमुपर्युक्तप्रकारेण स्वनामसदृशदेवेन्द्रोपपात इति देवेन्द्रपर्यापनिका - नागपर्यापनिकाऽध्ययनात् देवेन्द्रा नागदेवाश्च स्वस्वाध्ययनाध्येतॄणां समीपे समागच्छन्ति, समागत्य च किङ्करवत् तान् पर्युपासते, एष एवातिशय उत्थानादिश्रुतानाम् || सू० ३० ॥
न्य. ३४
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२६६
व्यवहारसूत्रे __चतुर्दशवर्षपर्यायमधिकृत्याह-..'चउद्दसवासपरियायस्स समणस्स' इत्यादि ।
सूत्रम्- चउद्दसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ सुमिणभावणा णाम अज्झयणं उद्दिसित्तए ॥ सू० ३१॥
__ छाया-चतुर्दशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते स्वप्नभावना नामाध्य. यनमुद्देष्टुम् ॥ सू० ३१ ॥
- भाष्यम्-'चउद्दसवासपरियायस्स' चतुर्दशवर्षदीक्षापर्यायस्य-यस्य श्रमणस्य दीक्षापर्यायो-दीक्षाग्रहणकालः चतुर्दशवर्षात्मको व्यतीतः तादृशस्य, 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निम्रन्थस्य 'कप्पई' कल्पते 'सुमिणभावणा णाम अज्झयणं' स्वप्नभावनामाध्ययनम् , । यस्मिन्नध्ययने सामान्यतः त्रिशत्स्वप्नाः विशेषतो द्वा चत्वारिंशत् स्वप्नाः प्रतिपादिताः, कीदृशस्य स्वप्नस्य कीदृशं शुभमशुभं वा फलं भवति, एतत्प्रतिपादकमध्ययनं स्वप्नभावनाध्ययनम् इति कथ्यते । तादृशं स्वप्नभावनानामकमध्ययनम् 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुमध्यापयितुं कल्पते इति ।
अयं भावः- यदा खलु मनो निद्रावस्थायां हृदयेऽवस्थितं भवति तदा दृष्टश्रुतान् अर्थान् पश्यति स स्वप्नः कारणभेदात् त्रिप्रकारको भवति, रोगबलात् वासनाबलात् , अदृष्टबलाच्च । तत्र-रोगस्त्रिविधः पैत्तिको वातिकः प्लैष्मिकश्च । तत्र-ज्वरादिरोगाक्रान्तः स्वप्नेऽग्निदाहादिकं पश्यति । वातरोमाक्रान्तो रात्रौ--आकाशगमनादिकं पश्यति, श्लैष्मिकरोगपीडितस्तु जलसंतरणादिकं पश्यति, सोऽयं स्वप्नो रोगजनितः कथ्यते । वासनाजनितस्तु स यो वासनया समुत्पद्यते, तत्र-वासनादिवसे दृष्टस्य श्रुतस्य वा विषयजातस्य संस्कारवशाद् रात्रौ शयानः तमेव पदार्थजातं पश्यति यः स तादृशः । इमौ द्वावपि स्वप्नौ न फलदायको भवतो वासनाजनितः स्वप्नः कथ्यते ।
तृतीयस्तु -अदृष्टजनितः--भाग्यजनितः स शुभमशुभं वा फलं ददाति । तत्राऽदृष्टजनिताः सामान्यतस्त्रिंशत् स्वप्नाः विशेषतो द्वाचत्वारिंशत् स्वप्नाः, सङ्कलनया द्वासप्ततिसंख्यका भवन्ति । तदुक्तममुकस्वप्नस्य फलम् -
"यदा कर्मसु काम्येषु, स्त्रियं पश्यति पुरुषः ।
अरिष्टं तत्र जानीयात् , तस्मिन्स्वप्ननिदर्शने ॥ १॥ ___ इत्यादिना शुभाशुभफलसूचकत्वं स्वप्नस्य दर्शितम् । स्वप्ने खररोहणादीनि जघन्यानि वस्तूनि पश्यन्ति, तेन 'अशुभफलसूचनं भवति । विशेषतस्तु-स्वप्नाध्यायादेव द्रष्टव्यम् ॥ सू० ३१ ॥
पञ्चदशवर्षपर्यायमधिकृत्याऽऽह--‘पन्नरसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् - पन्नरसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ चारणभावणा णाम अज्झयणं उद्दिसित्तए ॥ सू० ३२॥
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भाग्यम् उ० १० सू० ३२-३७
दीक्षापर्याक्रमेण सूत्राध्यापन विधिः २६७
छाया -- पञ्चदशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते चारणभावना नामाध्ययन मुद्देष्टुम् ॥ सू० ३२ ॥
भाष्यम् – 'पन्न रसवासपरियायस्स' पञ्चदशवर्षपर्यायस्य यस्य पञ्चदशवर्षात्मको दीक्षाकालो व्यतीतस्तादृशस्य, 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य ' कप्पइ' कल्पते, 'चारणभावणा नाम अज्झयणं' चारणभावनानामकमध्ययनम् 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुमध्यापयितुं कल्पते । पञ्चदशवर्षपर्यायस्य साधोः चारणभावनानामकमध्ययनम् अध्यापयितुं कल्पते । अस्यायमतिशयः- चारणभावनानामकाऽध्ययनाध्येतुश्चारणलब्धिरुत्पद्यते, अथवा येन तपोविशेषेण कृतेन जङ्घाचारण- विद्याचारण- लब्धिर्जायते इति तत्रैव वर्णनमुपलभ्यते ॥ सु० ३२ ॥
षोडशवर्ष पर्यायमाश्रित्याह - 'सोलसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् - सोलसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ तेयनिसग्गे नाम अझयणे उद्दित्तिए' || सू० ३३ ॥
छाया - षोडशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते तेजोनिसर्गे नामाध्ययनमुद्देष्टुम् ॥ सू० ३३ ॥
भाष्यम् – 'सोलसवासपरियायस्त' षोडशवर्षपर्यायस्य यस्य साधोदक्षाकालः षोडशवर्षात्को व्यतीतः स षोडशवर्षपर्यायस्तस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पड़' कल्पते तेयनिसग्गे नामं अज्झयणे' तेजोनिसर्गो नामकमध्ययनम् ' उद्दित्तिए ' उद्देष्टुम् - अध्यापयितुम् । तेजोनिसर्गाऽध्ययनाध्येतुस्तेजोनिःसरणं भवति - तेजसो निस्सरणं प्रादुर्भावो जायते, अयमेवातिशयः ॥ सू० ३३ ॥
सप्तदशपर्यायमधिकृत्याऽऽह - 'सत्तरसवासपरिया यस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् -- सत्तरसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ आसीविसभावणा नाम अज्झयणे उद्दिसित्तए ॥ सु० ३४ ॥
छाया - सप्तदशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य नित्थस्य कल्पते आशीविषभावना नामाऽध्ययनमुद्देष्टुम् ॥ ३४ ॥
भाष्यम् – 'सत्तरसवासपरियायस्स' सप्तदशवर्षपर्यायस्य यस्य दीक्षाकालः सप्तदशवर्षात्मको व्यतीतः सः सप्तदशवर्षपर्यायः, तादृशस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पर' कल्पते 'आसी विसभावणा नाम अज्झयणं' आशीविषभावनानामकमध्ययनम् 'उद्दिसित्तए' उद्देष्टुम् - - अध्यापयितुं कल्पते, आशीविषभावनाऽध्ययनपाठकस्य आशीविषलब्धिः
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व्यवहार
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समुत्पद्यते । अथवा यैराचरणैराशीविषत्वेन कर्म बध्यते तेषामाचरणानामुपवर्णनमत्राशीविषभावनाध्ययने समुपलभ्यते । एष एवास्त्यतिशयः ।। सू० ३४ ॥
अष्टादशवर्षपर्यायमाश्रित्याऽऽह – 'अट्ठारसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् - 'अट्ठारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पर दिििवसभावणाणाम अज्झयणं उद्दित्तिए । सू० २५ ॥
छाया - अष्टादशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते दृष्टिविषभावनामाध्य. यन मुद्देष्टुम् ॥ सू० ३५ ॥
भाष्यम् – 'अट्ठारसवासपरियायस्स' अष्टादशवर्षपर्यायस्य यस्य दीक्षाकालोऽष्टादशवर्षात्को व्यतीतः सोऽष्टादशवर्षपर्यायः, तादृशस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप' कल्पते, 'दिडिविसभावणा णामं अज्झयणं' दृष्टिविषभावना नामाऽध्ययनम् 'उद्दि - सित्तए' उेष्टुम् । अस्याध्ययनस्याध्येतुर्दृष्टिविषनाम्नी लब्धिः प्रादुर्भवति, तत्प्रभावादस्य श्रमणस्य दृष्ट्या विषमुपशाम्यति । अथवा यैः समाचरणैर्मनुष्यों दृष्टिविषतया कर्म वध्नातीत्यत्र तद्वर्णनमुपलभ्यते ॥ सू० ३५ ॥
अथैकोनविंशतिवर्षपर्यायसूत्रमाह-- ' एगूणवीसवासपरियायस्स' इत्यादि ।
सूत्रम् -- एगूणवीसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पर दिट्ठिवायं नामे अंगे उद्दिसित्तए | सू० ३६ ॥
छाया--- एकोनविंशतिवर्षपर्यायस्य भ्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते दृष्टिवादं नामाङ्गमुद्देष्टुम् ॥ सू० ३६ ॥
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एकोनविंशतिवर्षपर्यायस्य
भाष्यम् – ' एगूणवीसवासपरियायस्स' यस्य साधोः दीक्षा पर्याय एकोनविंशतिवर्षप्रमाणो व्यतीतो भवेत् स एकोनविंशतिवर्षपर्यायः, तादृशस्य 'समणस्स णिग्गंथस्स' श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य 'कप्पड़' कल्पते 'दिट्टिवायं नामे अंगे उद्दिसित्तए' दृष्टिवादं नामाङ्गं दृष्टिवादाख्यं द्वादशमङ्गम् उद्देष्टुम् अध्यापयितुम् । यो हि श्रमण एकोनविंशति वर्षप्रमाणक दीक्षा पर्यायः स दृष्टिवादनाम कमङ्गमध्येतुं शक्नोति एतावद्वर्षदीक्षापर्यायस्यैव दृष्टिवा - दाध्ययनयोग्यताया भगवता प्रतिपादितत्वात् ॥ सू० ३६ ॥
पूर्व दृष्टिवादाङ्गपर्यन्तश्रुतानामुद्देशनयोग्यता प्रदर्शिता, ततः परं श्रमणः कीदृशीं योग्यतां प्राप्नोतीति प्रदर्शयन्नाह - 'वीसइवासपरियाए ' इत्यादि ।
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भाष्यम् उ० १० सू० ३८
दशविधवैयावृत्त्यनिरूपणम् २६९ सूत्रम्-वीसइवासपरियाए समणे णिग्गंथे सव्वसुयाणुवाई भवइ ॥ सू० ३७ ॥ छाया-विंशतिवर्षपर्यायः श्रमणो निर्ग्रन्थः सर्वश्रुतानुपाती भवति ॥ सू० ३७।
भाष्यम-वीसइवासपरियाए' विंशतिवर्षपर्यायः, यस्य दीक्षापर्यायो विंशतिवर्षप्रमाणको जातस्तादृशः, 'समणे णिग्गंथे' श्रमणो निर्ग्रन्थः 'सव्वसुयाणुवाई भवई' सर्व श्रुतानुपाती भवति, स आचाराङ्गादिद्वादशाङ्गगणिपिटकधारको जायते ।
अयं भावः-अत्राचाराङ्गादिदृष्टिवादपर्यन्तानां योग्यताक्रमेणोद्देशनविधिः प्रदर्शितस्तेन पात्रस्यैव यथोचिते काले तत्तद्योग्यतां विचार्य यस्य यदुचितमङ्गं ज्ञायते तत्तस्य दातव्यं भवेत् न त्वन्यत् । अपात्रे दाने महती श्रुताशातना जायते ॥ सू० ३७॥
पूर्व श्रुताध्ययनयोग्यता प्रदर्शिता, सा च कर्मलाघवेन समुपलभ्यते, कर्मलाघवं चाचार्यादीनां वैयावृत्त्येन जायते, इति साम्प्रतं दशविधवैयावृत्यं तत्फलं च प्रदर्शयति-'दसविहे वेयाबच्चे' इत्यादि ।
सूत्रम्-दसविहे वेयावच्चे पण्णत्ते तंजहा-आयरियवेयावच्चे १, उवज्झायवेयावच्चे २, थेरवेयावच्चे ३, तवस्सिवेयावच्चे ४, सेहवेयावच्चे ५ गिलाणवेयावच्चे ६ साहम्मियवेयावच्चे ७ कुलवेयावच्चे ८ गणवेयावच्चे ९ संघवेयावच्चे १० ॥३८॥
छाया-दशविधं वैयावृत्यं प्रक्षप्तम् , तद्यथा-आचार्यवैयावृत्त्यम् १, उपाध्याय वैयावृत्त्यम् २, स्थविरवैयावृत्त्यम् ३, तपस्विवैयावृत्त्यम् ४, शैक्षवेयावृत्त्यम् ५, ग्लानवैयावृत्त्यम् ६, साधर्मिकवैयावृत्त्यम् ७, कुलवैयावृत्त्यम् ८, गणवैयावृत्त्यम् ९, सवैया. वृत्त्यम् ॥ सू० ३८॥
___ भाष्यम् -'दसविहे वेयावच्चे पन्नत्ते' दशविधं दशप्रकारकं वैयावृत्त्यं प्रज्ञतं कथितम् । तानेव दश भेदान् दर्शयितुमाह-'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा-'आयरियवेयावच्चे' आचार्यवैयावृत्त्यम् , तत्राचार्थस्य गणनायकस्य वैयावृत्त्यं भक्तपानादिना तस्य सेवाकरणमिति प्रथमं वैयावृत्त्यम् १।
'उवज्झायवेयावच्चे' उपाध्यायवैयावृत्त्यम् , तत्रोपाध्यायस्य यस्य-उप-समीपे आगत्याधीयते सूत्रार्थतदुभयमिति स उपाध्यायस्तस्य वैयावृत्त्यमिति द्वितीयं वैयावृत्त्यम् २ ।
'थेरवेयावच्चे' स्थविरवैयावृत्त्यम् स्थविरस्य श्रुतपर्यायावस्थाभेदेन त्रिविधस्य स्थविरस्य वैयावृत्त्यं तृतीयं वैयावृत्यम् ३ ।
'तवस्सिवेयावच्चे' तपस्विवैयावृत्त्यम् , तत्र तपो बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधं, तत्करोति यः स तपस्वी, तस्य तपस्विनो वैयावृत्त्यं चतुर्थे वैयावृत्त्यम् ४ ।
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२७०
व्यवहारसूत्र 'सेहवेयावच्चे' शैक्षवैयावृत्त्यम् , तत्र शैक्षः शिक्ष्यते शास्त्रदर्शितविधिर्ज्ञायते व्रतातिचारादियस्य सः शैक्षः शिक्षयितुं योग्यः शैक्षः, यद्वा ग्रहणासेवनशिक्षायोग्यः शैक्षस्तस्य वैयावृत्यम् समये समये तस्य वैयावृत्त्यं ग्रहणासेवनीशिक्षाप्रदानरूपं पञ्चमं वैयावृत्त्यम् ५ ।
'गिलाणवेयावच्चे' ग्लानवैयावृत्त्यम् तत्र-ग्लानो रोगतपोभेदेन द्विविधः, रोगेण ग्लानस्तपसा वा ग्लानस्तस्य वैयावृत्त्यम् औषधान्नपानादिभिरभिभावनमिति षष्ठं वैयावृत्त्यम् ६ ।
'साहम्मियवेयावच्चे' साधर्मिकवैयावृत्त्यम् , तत्र समान एको धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणो येषां ते साधर्मिकाः समानधर्माचरणशीलाः साधवस्तेषां वैयावृत्यं सप्तमं वैयावृत्त्यम् ७ ।
'कुलवेयावच्चे' कुलवैयावृत्त्यम् तत्र कुलम् एकगुरुपरिवाररूपः साधुसमुदायस्तस्य वैयावृत्त्यम् अष्टमं वैयावृत्त्यम् ८ ।
___ 'गणवेयावच्चे' गणवैयावृत्यम् , गणस्य एकगुरुपरम्परागत साधुसमुदायस्य वैयावृ. स्यं नवमं वैयावृत्यम् ९।
'संघवेयावच्चे' सङ्घवैयावृत्त्यम्, तत्र संघस्य साधुसाध्वीरूपस्य भक्तपानवस्त्रपात्रादिना, चतुर्विधसंघस्य वा परतीर्थिकविवादनिवारणादिना सदुपदेशादिना च वैयावृत्त्यम् दशमं वैयावृत्त्यम् १० । एतद्दशविधं वैयावृत्यं भगवता प्ररूपितमिति ॥ सू० ३८ ॥
पूर्व दशविधं वैयावृत्त्यं नामनिर्देशपूर्वकं प्रदर्शितम् , साम्प्रतं सर्वेषां मुख्यत्वेन प्रथममाचार्यवैयावृत्त्यस्य फलं प्रदर्शयति-'आयरियवेयावच्चं' इत्यादि।
सूत्रम्-आयरियबेयावच्चं करेमाणे समणे णिगंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ सू० ३९ ॥
छाया-आचार्यवैयावृत्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥ सू० ३९॥
'आयरियवेयावच्चे' आचार्यवैयावृत्त्यम् , तत्राचार्यस्य गणनायकस्य वैयावृत्त्य, तच्च त्रयोदशभिः प्रकारैः क्रियते, अत्र गाथाद्वयमाह - भत्तं पाणं च' इत्यादि ।
"भत्तं १ पाणं २ च सेज्जा ३, आसणदाणं ४ तहेव पडिलेहा ५ । पायपमज्जण ६ ओसह ७, अद्धागमणे ८ य रायदुट्टे य ९ ॥१॥ तेणा १० पत्तग्गहणं ११, गेलन्ने १२ पत्तढोयणं १३ चेव । एवं आयरियाण, वेयावचं करेइ मोक्खट्टी" ॥२॥
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भाष्यम् उ० १० सू० ३९-४८
दशविधवैयावृत्त्यफल निरूणम् २७१
छाया - भक्तं पानं शय्या, आसनदानं तथैव प्रतिलेखा । पादप्रमार्जन मौषधः, अध्वगमने च राजद्विष्टे च ॥ १ ॥ स्तेनात् पात्रग्रहणं; ग्लाने पात्रढौकनं चैव । एवमाचार्याणां वैयावृत्यं करोति मोक्षार्थी ॥ २ ॥
"
अयं भावः - भक्तं पानं च यथासमयं दीयते इति २, 'सेज्जा' शय्या संस्तारकं क्रियते ३, समीपागमनेऽभ्युत्थानपूर्वक मासनदानम् ४, एवमेव तेषां क्षेत्रवस्त्रपात्रादीनां प्रतिलेखनाकर - णम् ५, बहिः प्रदेशादागतानां पादप्रमार्जनकरणम् ६, ग्लानत्वे औषधभैषज्यादिना परिचर - णम् ७, अध्वगमने - मार्गगमने तेषामुपधेर्वहनम् विश्रामणयोपष्टम्भनं च ८, राजद्विष्टे - राज्ञि द्विष्टे सति तत्कृतोपद्रवान्निस्तारणम् ९, 'तेणा' स्तेनात् शरीरोपधेः स्तेनाद्रक्षणम् १०, पत्तग्गहणं विचारभूमित आगतानां पात्रादीनां स्वहस्ते धारणम् ११, ग्लाने यद् योग्यं पथ्यादि तदानीय समर्पणम् १२, 'पत्तढोयणं' पात्रढौकनम् - - उच्चार - प्रस्रवण- खेल - सम्बन्धिपात्रत्रिकस्य तदग्रे स्थापनम् १३ । एवं त्रयोदशभिः प्रकारैराचार्याणां वैयावृत्यं यो मोक्षार्थी श्रमणः स करोति तस्य मोक्षप्राप्तिहेतुकत्वात् इति गाथाद्वयार्थः ॥२॥
एवं त्रयोदशप्रकारैर्वैयावृत्त्यम् 'करेमाणे' कुर्वन् निर्जराभावेन संपादयन् 'समणे णिग्गंथे' श्रमणो निर्ग्रन्थः 'महानिज्जरे' महानिर्जरः महती निर्जरा - कर्मशातनारूपा यस्य स महानिर्जरः, आचार्यस्य वैयावृत्त्यक्रियायामायुक्तः श्रमणोऽनुसमयं कर्मकोटिं क्षपयति । यतः कर्मकोटिक्षपकस्ततोऽयम् 'महापज्जवसाणे भाइ' महापर्यवसानो भवति, तत्र महत् पुनरबन्धकत्वेन पर्यवसानं ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मणां परि-समन्तादात्मप्रदेशाद् अवसानम् अन्तो जातो यस्य स महापर्यव सानः सर्वकर्मक्षयकरो भवति जायते स तद्भवे एव मोक्षगामी भवतीति भावः ॥ सू० ३९ ॥
पूर्वमाचार्यवैयावृत्त्यस्य फलमुक्तम्, एवमेव शेषाणामुपाध्यायादीनामपि वैयावृत्त्यकरणे एतदेव फलं भवतीति उपाध्यायादीनां नवानां वैयावृत्यफलं प्रदर्शयन् नवसूत्रीमाह-उवज्झाय ० ' इत्यादि ।
सूत्रम् — उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे
भवइ ॥ सू० ४० ॥
थेरवेयावच्च करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ सू०४१ तवस्सि वेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ४२ छाया - उपाध्यायवैयावृत्यं कुर्वाणः श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो
भवति ॥ सू० ४० ॥
स्थविरवैयावृत्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥ सू०४१ तपस्वि वैयावृत्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥ सू० ४२
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२७२
mmam
व्यवहारसूत्रे सूत्रम-सेहवेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥४३॥ गिलाणवेयावच्चं करेमाणे समणे जिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ॥४४॥ साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गथे महानिज्जरे महापज्वसाणे भवइ ॥ ४५ ॥ कुलवेयावच्चं करेमाणे समणे णिगंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ४६॥ गणवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ४७ ॥ संघवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ४८ ॥
ववहारे दसमो उद्देसो समत्तो ॥१॥ छाया-शैक्षवैयावृत्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥सू० ४३॥ ग्लानवैयावृत्त्यं कुर्वाणः श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्ज़रो महापर्यवसानो भवति ॥४४॥ साधमिकवैयावृत्त्यं कुर्वाणः श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥४५॥ कुलवैयावृत्त्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥४६॥ गणवैयावृत्त्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥४॥ संघवैयावृत्त्यं कुर्वन् श्रमणो निर्ग्रन्थो महानिर्जरो महा पर्यवसानो भवति ॥४॥
भाष्यम् - उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे' इति सूत्रादारभ्य 'संघवेयावच्चं करेमाणे' इति सूत्रपर्यन्तानां नवानामपि सूत्राणां व्याख्या-आचार्यवैयावृत्यसूत्रवदेव कर्त्तव्या।
अयं भावः-आचार्यादीनां दशानामपि वैयावृत्त्यं कुर्वन् श्रमणो निम्रन्थो महानिर्जरी महापर्यवसानो भवति । निर्जराभावेन कृतस्य वैयावृत्यस्य मोक्षप्रापकत्वेन भगवदुपदिष्टत्वात् ॥ सू०४०-४८॥
इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनाचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां"व्यवहारसूत्रस्य" भाष्यरूपायां व्याख्यायां दशम उद्देशः समाप्तः ॥१०॥
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श्री-व्यवहारसूत्रस्य
मूलपाठः सूत्रम्-जे भिक्खू मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं ॥१॥
जे भिक्खू दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंघिय आलोएमाणस्स दोमासियं, पलिउचिप आलोएमाणस्स तिमासियं ॥२॥
जे भिक्खू तेमासिय परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं ॥३॥
जे भिक्खू चाउम्मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं ॥४॥
जे .भिक्खू पंचमासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंघिय आलोएमाणस्स पंचमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स छम्मासियं ॥५॥
तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥६॥ ___ जे भिक्खू बहुसोवि मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं ॥७॥
जे भिक्खू बहुसोवि दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं ॥८॥
जे भिक्खू बहुशोवि सेमासियं परिहारट्टाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलि. उंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं ॥९॥
जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा,. अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं ॥१०॥
जे भिक्खू बहुसोवि पंचमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेविता आलोएज्जा, अपलिउंघिय आलोएमाणस्स पंचमासियं, पलिउंघिय आलोएमाणस्स छम्मासियं ॥११॥ .
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तेण परं पलिउँचिए वा अपलिउंचिए वा, ते चेव छम्मासा ॥१२॥
जे भिक्खू मासियं वा, दोमासियं वा, तेमासियं वा चाउमासियं वा, पंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अनयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं पंचमासियं वा छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए बा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥१३॥
जे भिक्खू बहुसोवि मासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा, बहुसोचि तेमासियं वा, बहुसोवि चाउम्मासियं वा, बहुसोवि पंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा, दोमासियं वा, तेमासियं वा; चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा, तेमासिय वा, चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, छम्मासिय वा; तेण परं पलिउंचिए वा, अपलिउंचिए वा, ते चेव छम्मासाः ॥१४॥
जे भिक्खू चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारद्वाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं बा छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेत्र छम्मासा ॥ .. जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं वा, बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारट्टाणाणं अन्नयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचथासियं वा, पलिउंचिय आलोएमा णस्स पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा छम्मासियं वा, तेग परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥१६॥ - जे भिक्खू चाउम्मासियं वा, साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारद्वाणाण अन्नयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलो. एज्जा, अपलिउंचिय आलोएणाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियब्वे या, सिपुव्वं पडिसेवियं पुवं
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आलोइयं १, पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउँचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४। अपलिउंचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सबमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्ठवणाए पट्टविए निविसमाणे पडिसेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥१७॥
जे भिक्खू चाउम्मासियं वा, साइरेगचाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, पलिउंचिय आलोएमाणस ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुव्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं३, पच्छा पडिसेवियंपच्छा आलोइयं ४,। अपलिउंचिए अपलिउंचियं १,अपलिउंचिए पलिउंचियं २,पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४, । पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्टवणाए पट्टविए निव्विसमाणे पडिसेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥१८॥
जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासिंयं वा, बहुसोवि पंचमासि वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणत्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुवं पडिसेविय पुवं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४, अपधिउंचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्टवणाए पट्टविए निव्विसमाणे पडिसेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥१९॥
जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारहाणाणं मन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज
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ठापइत्ता, करणिज्जं वेयावडियं, ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियब्बे सिया, पुन्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेविवं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४ । पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पठवणाए पठबिए निम्चिसमाणे पडिसेवइ. सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियब्वे सिया ॥२०॥
बहवे परिहारिया बहवे अपरिहारिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए नो ण्डं से कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहि यं वा चेइत्तए, कप्पइ ण्हं से थेरे आपुच्छित्ता एगयो अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, थेरा य ण्हं से वियरेज्जा एवं ण्हं कप्पइ एगयओ अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, थेरा य हं से नो वियरेज्जा एवं ण्डं नो कप्पइ एगयो अभिनिसेज वा अभिनिसीहियं वा चेइत्तए । जो ण्हं थेरेहिं अविइण्णे अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा चेएइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥२१॥
परिहारकप्पढिए भिक्खू बहिया थेराण वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए जं णं ज णं दिसं अण्णे साहम्मिया विहरंति तंणं तं गं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्य कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च ण कारणंसि निढियंसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ घा दुरायाओ वा वत्थए, जे तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे ॥२२॥ ___ परिहारकप्पठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, घेरा य से नो सरेज्जा कप्पइ से निव्विसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जंणं ज णं दिसं अन्ने साहम्मिवा विहरंति तं गं तं गं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्य विहारवत्तियं बत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तसि च णं कारणंसि निट्टियंति परो वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा. एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरापं वा वथए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वत्थए, जं तत्थ परं एगरस्याओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥२३॥
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परिहारकप्पट्टिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गज्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा वा नो सरेज्जा वा कप्पइ से निविसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए ज गंजणं दिसं अन्ने साहम्निया विहरंति तं गं तं गं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पई तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तसि च ण कारणंसि निहियंसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं का दुरायं वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थइ, नो से कप्पइ परं एगरायाो वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥२४॥
__भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उपसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दीच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विह रित्तए अत्थि या इत्य सेसे पुणो आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवढाएज्जा ॥२५॥
गणावच्छेयए य गणाओ अवकम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्उित्ता णं विरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जिता णं विहरित्तए पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवठ्ठावेज्जा ॥२६॥
आयरियउवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता गं घिहरेज्जा, से य इच्छेज्चा दोच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवहाएज्जा ॥२७॥
. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म पासत्थविहारपडिमं उपसंपज्जित्ता णं विहरेजा, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं वबसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, अत्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवट्ठावेज्जा ॥२८॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म जहाछंदविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अस्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवट्ठावेज्जा ॥२९॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म कुसीलविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए अस्थि या इत्थ सेसे पुणों आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवट्ठावेज्जा ॥३०॥ - भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओसन्नविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरेजा. से य इच्छेज्जा दोच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए अस्थि या इत्थ सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उपहावेज्जा ॥३॥
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भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म संसत्तविहारपडिमं उर्वसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए अत्थि या इत्य सेसे पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयस्स वा परिहारस्स वा उवहावेज्जा ॥३२॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म परपासंडपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ता णं बिहरित्तए, नत्थि णं तस्स तप्पत्तिए केइ छेए वा परिहारे वा, नन्नत्थ एगाए आलोयणाए ॥३३॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहावेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चंपि तमेव गणं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, नस्थि णं तस्स तप्यत्तिए केइ छेए वा परिहारे वा नन्नत्थ एगाए सेहोवणियाए ॥३४॥
भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं सेवित्ता इच्छेज्जा आलोइत्तए जत्येव अप्पणो आपरियउवज्झाए पासेज्जा तेसतियं आलोज्जा पडिक्कमेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अन्भुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पाय जितं पडिवज्जेज्जा (१)। .. नो चेव अप्पणो आयरियउवज्झाए जत्थेव संभोइयं साहम्मिय पासेज्जा बहुस्सुर्य बन्भागमं तस्संतियं आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए उन्भुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (२) ।
नो चेव संभोइयं साहम्मिय, जत्थेव अन्नसंभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागमं तस्संतियं आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणाए अभुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (३)
नो चेव अन्नसंभोइयं साहम्मियं जत्येव सारूवियं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागभं तस्संतियं आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अब्भुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (४) । ___ नो चेव सारूवियं पासेज्जा बहुस्सुयं बन्भागमं जत्थेव समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागमं तस्संतिए आलोएज्जा पडिक्खमेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अब्भुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (५)।
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.... नो चेव समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागमं जत्थेव सम्मभावियाई चेइयाइं पासेज्जा तेसंतिए आलोएज्जा पडिकक्मेज्जा निदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अन्भुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा (६)। ... नो चेव सम्मंभावियाई चेइयाई पासेज्जा, बहिया गामस्स वा नगरस्स वा निगमस्स वा रायहाणीए वा खेडस्स वा कब्बडस्स वा मडंवस्स वा पट्टणस्स वा दोणमु इस्स वा आसमस्स वा संवाहस्स वा संनिवेसस्स वा पाईणाभिमुहे वा उदीणाभिमुहे वा करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वएज्जा-एवइया मे अवराहा एवइक्खुत्तो अहं अवरद्धो अरहंताणं सिद्धाणं अंतिए आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अब्भुटेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जासि (७) ति बेमि ॥३५॥
॥ ववहारे पढमो उद्देसो समत्तो ॥
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॥ बीओ उद्देसो ॥ . दो साहम्मिया एगयओ विहरंति एगे तत्थ अन्नयरं अकिच्चटाणं पडिसेवित्ता आलोपज्जा ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ॥१॥
दो साहम्मिया एगयओ विहरंति दोवि ते अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेविना आलोएज्जा एगं तत्थ कप्पागं ठावइत्ता एगे णिव्विसेज्जा अह पच्छा सेवि णिन्विसेज्जा ॥२॥ 1. बहवे साहम्मिया एगयो विहरंति एगे तत्थ अण्णयरं अकिच्चहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, तत्थ ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ॥३॥
बहबे साहम्मिया एगयओ विहरंति सम्वेवि ते अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, एग तत्थ कप्पागं ठावइत्ता अवसेसा णिव्विसिज्जा, अह पच्छा सेवि णिबिसेज्जा ॥४॥
परिहारकप्पट्टिए भिक्खू गिलायमाणे अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेविचा आलोएज्जा से य संथरेज्जा ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं,
से य णो संथरेज्जा अणुपारिहारिएणं करणिज्ज वेयावडियं, से य संते बले अणुपारिहारिएणं कीरमाणं वेयावडियं साइज्जेज्जा से य कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥५॥ ___परिहारकप्पट्टियं भिक्खू गिलायमाणं णो कप्पइ तस्य गणावच्छेयगस्स णिज्जूहित्तए अगिलाए तस्य करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकायो विप्पमुक्को, तो पच्छा तस्स अहालहुस्सए नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥६॥
अणवठ्ठप्पं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निजहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सए नामं ववहारे पट्टवियत्वे सिया ॥७॥
पारंचियं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायकाओ विप्पमुक्को तो पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नामं ववहारे पठवियव्वे सिया ॥८॥
खित्तचित्तं भिक्खु गिळायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तो रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सए नामं ववहारे पट्टबियव्वे सिया ॥९॥
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दित्तचित्तं भिक्खं गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नाम ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥१०॥
__जक्खाइट भिक्खू गिलायमाणं नो कप्पइ तस्य गणावच्छेयगस्स निज्नहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तो पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नाम ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥११॥
__उम्मायपत्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा अहालहुस्सगे नाम ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥१२॥
उवसग्गपत्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जवेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥१३॥
साहिगरणं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स, निज्जहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को तओ पच्छा अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया ॥१४॥
सपायच्छित्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नाम ववहारे पट्टवियत्वे सिया ॥१५॥
भत्तपाणपडियाइक्खियं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तो रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा अहालहुस्सगे नाम ववहारे पट्टवियत्वे सिया ॥१६॥
अट्ठजायं भिक्खं गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियन्वे सिया ॥१७॥
अणवटुप्पं भिक्खं अगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयगस्स उवद्यावेत्तए । अणवठ्ठप्पं भिक्खू गिहिभूयं कप्पइ तरस गणावच्छेयगस्स उवट्ठा वित्तए ॥१८॥
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पारंचियं भिक्खु अगिरिभूयं नो कप्पर तस्स गणाचच्छेयगस्स उवद्वावित्तए । पारंचियं भिक्खु गिभूियं कप्पर तस्स गणावच्छेयगस्स उद्वावित्त ॥ १९ ॥
अणवपं भिक्खु पारंचियं वा भिक्खुं गिरिभूयं वा अगिरिभूयं वा कप्पर तस्स गावच्छेयस्स उवावित्तए जहा तस्स गणस्स पत्तियं सिया ॥२०॥
दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, एगे तत्थ अण्णय रं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अहष्णं भंते ! अमुएणं साहुणा सद्धिं इमंमि य कारणंमि मेहुणपडिसेवी, पच्चयहेउ च सयं पडिसेवियं भणइ तत्थ पुच्छियन्वे किं पडिसेवी ? अपडिसेवी ?, से य वएज्जा पडिसेवी परिहारपत्ते । से य वएज्जा णो पडिसेबी णो परिहारपत्ते । जं से पमाणं वयइ से य पमाणाओ घेतव्वे सिया से किमाहु भंते !, सच्चपइण्णा ववहारा ॥२१॥
भिक्खू य गणाओ अवक्म्म ओहाणुपेही वएज्जा, से आहच अणोहाइओ, सेय इच्छेज्जा दोच्चपि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । तत्थ णं थेराणं इमेयारूवे विवाए समुप्पज्जिज्जा इमं अज्जो ! जाणह किं पडिसेवी किं अपडिसेवी ? से य वएज्जा पडि सेवी परिहारपत्ते से य वएज्जा नो पडिसेवी नो परिहारपत्ते, जं से पमाणं वयइ सेय पमाणाओ घेतव्वे से किमाहु भंते !, सच्चपइण्णा ववहारा ||२२||
एगपविखयस्स भिक्खुयस्स कप्पड़ आयरियउवज्झायाणं इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया || २३॥
ard परिहारिया बहवे अपरिहारिया इच्छेज्जा एगयओ एगमासं वा दुमासं वा तिमासं वा चाउम्मासं वा पंचमासं वा छम्मासं वा वत्थए ते अन्नमन्नं संभुजति अन्नमन्नं नो संभुंजंति मासंते तओ पच्छा सव्वेवि एगयओ संभुंजंति ||२४||
परिहारकपट्ठियस्स भिक्खुस्स णो कप्पर असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वादा वा अणुष्पदा वा, थेरा णं वएज्जा इमं ता अज्जो ! तुमं एएसिं देहि वा • अणुप्पदेहि वा एवं से कप्पर दाउँ वा अणुष्पदाडं वा, कप्पर से लेवं अणुजाणावित्तए अणुजाणा भंते ! लेवाए एवं से कप्पर लेवं समासेवित्तए ॥ २५ ॥
परिहारकपट्टिए भिक्खू सरणं पडिम्गहेणं बहिया अप्पणो वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य तं वज्जा - पडिग्गाहेहि अज्जो ! अपि भोक्खामि वा पाहामि वा, एवं णं से कप्पइ पडिग्गाहिंत्तर, तत्थ णो कप्पर अपरिहारिएणं परिहारियस्स
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पडिग्गहंसि असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा भोत्तए वा पायए वा, कप्पइ से सयंसि पडिग्गहंसि सयंसि पलासगसि कमढगंसि वा सयंसि खुव्वगंसि पाणिसि वा उद्धटु उद्धटु वा भोत्तए वा पायए चा, एस कप्पे अपारिहारियस्स पारिहारियओ ॥२६॥
परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू थेराणं पडिग्गहेणं बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा थेरा य वएज्जा पडिग्गाहेहि अज्जो ! तुमंपि एत्थ भोक्खसि वा पाहसि वा, एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए, तत्थ णो कप्पइ पारिहारिएणं अपारिहारियस्स पडिग्गहंसि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोत्तए वा पायए वा, कप्पइ से सयंसि पडिग्गहंसि वा सयंसि पलासगसि कमढगंसि वा संयंसि खुब्वगंसि वा सयंसि पाणिसि का उद्धटु उद्धष्टु भोत्तए वा पायए वा एस कप्पे पारिहारियस्स पारिशारिवओत्ति बेमि ॥२७॥
॥ वक्हारे बीभो उद्देसो समयो ॥२॥
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॥ तइओ उद्देसो ॥ भिक्खू य इच्छेज्जा गणं धारित्तए भगवं च से अपलिच्छण्णे एवं से नो कप्पइ गणं धारित्तए । भगवं च से पलिच्छन्ने एवं से कप्पइ गणं धारित्तए ॥१॥
- भिक्खू य इच्छेज्जा गणं धारित्तए नो से कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता गणं धारित्तए । कप्पइ से थेरे आपुच्छित्ता गणं धारित्तए । थेरा य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ गणं धारित्तए, थेरा य से नो बियरेज्जा एवं से नो कप्पइ गणं धारित्तए । जणं थेरेहिं अविइण्णं गणं धारेज्जा से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥२॥
तिवासपरियाए समणे निग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पन्नत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खयायारे अभिन्नायारे असवलायारे असंकिलिदायारे बडुस्सुए बब्भागमे जहन्नेणं आयारकप्पधरे कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ॥३॥ ___ सच्चेव णं से तिवासपरियाए समणे णिग्गंथे नो आयारकुसले नो संजमकुसले नो पवयणकुसले नो पन्नत्तिकुसले नो संगहकुसले नो उवग्गहकुसले खयायारे भिन्नायारे सबलायारे संकिलिट्ठायारे अप्पमुए अप्पागमे नो कप्पइ उवज्झायत्ताए घिसित्तए ॥४॥
पंचवासपरियाए समणे णिगंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पन्नत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खयायारे असबलायारे असंकिलिट्ठायारे बहुस्सुए बब्भागमे जहन्नेणं दसाकप्पववहारधरे कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उदिसित्तए ॥५॥ ____सच्चेव णं से पंचवासपरियाए समणे णिगंथे नो आयारकुसले नो संजमकुसले नो पवयणकुसले नो पन्नत्तिकुसले नो संगहकुसले नो उवग्गहकुसले खयायारे भिन्नायारे सबलायारे संकिलिट्ठायारे अप्पसुए अप्पागमे नो कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उदिसित्तए ॥६॥
अवासपरियाए समणे णिग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पचयणकुसले पन्नत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खयायारे अभिन्नायारे असबलायारे बहुस्सुए बब्भागमे जहन्नेणं ठाणसमवायधरे कप्पइ आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेयगताए उद्दिसित्तए ॥७॥
सच्चेव णं अट्ठवासपरियाए समणे णिग्गंथे नो आयारकुसले नो संजमकुसले नो पवयणकुसले नो पन्नत्तिकुसले नो संगहकुसले नो उवग्गहकुसले खयायारे भिन्नायारे
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सबलाया कि लिट्ठायारे अप्पसुए अप्पागमे नो कप्पइ आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेयगत्ताए उद्दिसित्तए ||८||
निरुद्धपरियाए समणे णिग्गंथे कप्पर तदिवस आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए, से किमाहु भंते!, अस्थि णं थेराणं तहारूवाणि कुलाणि कडाणि पत्तियाणि थेज्जाणि सासियाणि संमयाणि सम्मुइयकराणि अणुमयाणि बहुमयाणि भवंति, तेहिं कडेहिं तेहिं पत्तिर्हि तेहिं थेज्जेहिं तेहिं वेसासिएहिं तेहिं संमएहिं तेहिं संमुइयकरेहिं तेहिं अणुम ए हिं तेहि बहुमहिं जं से निरुद्धपरियाए समणे णिग्गंथे कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दित्तिए तद्दिवसं ॥९॥
निरुद्धवास परियाए समणे णिग्गंथे कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए समुच्छेयक पंसि तस्स णं आयारपकप्पस्स देसे अवट्ठिए सेय 'अहिज्जिस्सामि'- त्ति अहिज्जेज्जा एवं से कपइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दि सित्तए, से य 'अद्विज्जिस्सामि'-- तिनो अहिज्जेज्जा एवं से नो कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्दित्तिए तद्दिवसं ॥१०॥
णिग्गंथस्स णं नव - डहर - तरुणस्य आयरियउवज्झाए वीसंभेज्जा नो से कप्पइ अणायरियउवज्झायत्ताए होत्तए, कप्पड़ से पुव्वं आयरियं उद्दिसावेत्ता तओ पच्छा उत्र झा, से किमाहु भंते ! दुसंगहिए समणे णिग्गंथे तंजहा आयरिएण उवज्झाएण य ॥११॥
णिग्गंथीए णं नव डहर - तरुणीए आयरियउवज्झाए वीसंभेज्जा नो से कप्पइ अणायरियउवज्जायत्ताए होतए, कप्पर से पुव्वं आयरियं उद्दिसावेत्ता तओ उवज्झायं, तओ पच्छा पवित्तिणि, से किमाहु भंते ! तिसंगहिया समणी निग्गंथी तंजहा - आयरिएणं उवज्झाणं पवित्तिणीए य ॥ १२ ॥
भिक्खू य गणाओ अवक्र्क्रम्म मेहुणं पडिसेवेज्जा तिण्णि संवच्छराणि तस्स तुप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियतं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा, तिहिं संवच्छ रेहिं वीइक्कतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडि विरयस्स गिव्विगारस्स, एवं से कप्पर आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥ १३ ॥
गणावच्छेयए गणावच्छेयगत्तं अणिक्खिवित्ता मेहुणधम्मं पडिसेवेज्जा जावज्जी वाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पर आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगतं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥१४॥
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गणावच्छेयए गणावच्छेयगत्तं णिविखवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहि संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१५॥
आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१६॥
__ आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पचियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कं तेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्रियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स णिबिगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१७॥
भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहाएज्जा, तिणि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पड आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं बीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारिचए वा ॥१८॥
गणावच्छेयए गणावच्छेयगत्तं अणिविखवित्ता ओहाएज्जा जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥
गणावच्छेयए गणावच्छेयगत्तं णिक्खिवित्ता ओहाएज्जा तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा गणावछेयगत्तं वा जाव उदिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्यगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्त वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥२०॥
आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता ओहाएज्जा जावज्जीवाए तस्स पप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥२१॥
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आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता ओहाएज्जा तिण्णि संबच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, तिहिं संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्टियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥२२॥
भिक्खू य बहुस्सुए बब्भागमे बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसा. वाई असुई पापजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥२३॥ ____ गणावच्छेयए बहुस्सुए बभागमे बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसावाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥२४॥
___ आयरियउवज्झाए बहुस्सुए बब्भागमे बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नौ कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥२५॥
बहवे भिक्खुणो बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥२६॥
बहवे गणावच्छेयया बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥२७॥
बहवे आयरियउवज्झाया बहुस्सुया बभागमा बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसावाई अमुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥२८॥
बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेयगा बहवे आयरियउवज्झाया बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहुसु आगाढागाढेसु कारणेसु माई मुसावाई असुई पावजीवी जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥
॥ ववहारे तइओ उद्देसो समत्तो ॥३॥
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॥ चउत्थो उद्देसो॥ नो कप्पइ आयरियउवज्झायस्स एगाणियस्स हेमंतगिम्हासु चरित्तए ॥१॥ कप्पइ आयरियउवज्झायस्स अप्पबिइयस्स हेमंतगिम्हामु चरित्तए ॥२॥ नो कप्पइ गणावच्छेयगस्स अप्पबिइयस्स हेमंतगिम्हासु चरित्तए ॥३॥ कप्पइ गणावच्छेयगस्स अप्पतइयस्स हेमंतगिम्हासु चरित्तए ॥४॥ नो कप्पई आयरियउवज्झायस्स अप्पविइयस्स वासावासं वत्थए ॥५॥ कप्पइ आयरियउवज्झायस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए ॥६॥ नो कप्पइ गणावज्छेयगस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए ॥७॥ कप्पई गणावच्छेयगस्स अप्पचउत्थस्स वासावासं वत्थए ॥८॥
से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संबाहंसि वा संनिवेसंसि बहूणं आयरियउवज्झायाणं अप्पबिइयाणं, बहूणं गच्छावच्छेयगाणं अप्पतइयाणं कप्पइ हेमंतगिम्हासु चरित्तए अन्नमन्ननिस्साए ॥९॥
से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाहंसि वा संनिवेसंसि वा बहूर्ण आयरियउवज्झायाणं अप्पतइयाणं, बहूणं गणावच्छेयगाणं अप्पचउत्थाणं कप्पइ वासावासं वत्थए अन्नमन्ननिस्साए ॥१०॥ ____गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खू जं पुरओ कटु विहरइ से आहच्च वीसंभेज्जा, अस्थि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपज्जणारिहे से उवसंपज्जियव्वे, णत्थि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपज्जणारिहे तस्स अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए जणं जणं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तणं तणं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तिय वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निडियंसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुराय वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥११॥
वासावासं पज्जोसविओ भिक्खू जं पुरओ कटु विहरइ से आहच्च वीसंभेज्जा अत्यि या इत्थ अन्ने केइ उवसंपज्जणारिहे से उवसंपज्जियन्वे, नस्थि या इत्थ अन्ने केइ उव
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संपज्जणारिहे तस्स अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए जणं जण्णं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तण्णं तण्णं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए । तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥१२॥
आयरियउवज्झाए गिलायमाणे अन्नयर एज्जा अज्जो ! ममंसिण कालगयंसि समाणंसि अयं समुक्कसियब्वे, से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे, से य नो समुक्कसणारिहे नो समुक्कसियव्वे, अत्थि या इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियव्वे, नत्थि या इत्थ अन्ने समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियव्वे । तंसि च णं समुकिसि परो वएज्जा दुस्समुक्कि8 ते अज्जो ! निक्खिवाहि, तस्स णं निक्खिवमाणस्स नत्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जे साहम्मिया अहाकप्पेणं नो अब्भुट्टाए विहरंति सव्वेसिं तेर्सि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥१३॥
आयरियउवज्झाए ओहायमाणे अन्नयरं वएज्जा अज्जो ! ममंसि णं ओहावियंसि समाणंसि अयं समुक्कसियव्वे, से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे, से य नो समुक्कसिणारिहे नो समुक्कसियवे, अत्थि या इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियव्वे, नस्थि या इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियव्वे, तंसि च णं समुकिलुसि परो वएज्जा दुस्समुकिटं ते अज्जो ! निविखवाहि, तस्स णं निक्खिवमाणस्स नत्थि केइ छए वा परिहारे वा, जे साहम्मिया अहाकप्पेणं नो अब्भुट्ठाए विहरंति सव्वेसिं तेसिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥१४॥
__ आयरियउवज्झाए सरमाणे परं चउरायपंचरायाओ कप्पागं भिक्खु नो उवट्ठावेइ कप्पाए, अत्थि याई से केइ माणणिज्जे कप्पागे, णत्थि याइं से केइ छेए वा परिहारे वा, णत्थि याइं से केइ माणणिज्जे कप्पाए से संतरा छए वा परिहारे वा ॥१५॥
आयरियउवज्झाए असरमाणे परं चउरायपंचरायाओ कप्पागं भिक्खु नो उवट्ठावेइ कप्पाए, अत्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए नत्थि से केई छेए वा परिहारे वा, नत्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥१६॥
आयरियउवज्झाए सरमाणे वा असरमाणे वा परं दसरायकप्पाओ कप्पागं भिक्खु नो उवट्ठावेइ कप्पाए, अत्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए नत्थि य इत्थ से केइ
व्य. ३
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Ra
छेए वा परिहारे वा, नत्थि य इत्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए संवच्छरं तस्स तप्पत्तियं नो कप्प आयरियतं वा उवज्झायत्तं वा पवत्तयत्तं वा थेरत्तं वा गणित्तं वा गणहरत्तं वा गावच्छे वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥ १७॥
भिक्खू य गणाओ अवकम्म अन्नं गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरेज्जा तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वज्जा - कं अज्जो ! उवसंपज्जित्ता णं विहरसि ? जे तत्थ सव्वराइणिए तं वज्जा, अह भंते ! कस्स कप्पाए ? जे तत्थ बहुस्सुए तं वएज्जा जं वा भगवं वक्खइ तस्स आणाउववायवयणनिदे से चिट्ठिस्सामि ॥ १८ ॥
बहवे साहम्मिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिचरियं चारए णो ण्हं कप्पर थेरे toryच्छित्ता गओ अभिनिचरियं चारए, कप्पइ व्हं थेरे आपुच्छित्ता एगयओ अभिनिचरियं चारए, थेरा य से वियरेज्जा एवं हं कप्पइ एगयओ अभिनिचयिं चारए, राय से नो वियरेज्जा एवं हं नो कप्पड़ एगयओ अभिनिचरियं चारए, जं तत्थ थेरे अविणे एगओ अभिनिचरियं चरंइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ १९ ॥
चरियापविट्ठे भिक्खू जाव चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा सच्चेव आलोयणा सच्चेव पडिक्कमणा सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठा महालंदमवि उग्गहे ॥ २० ॥ चरियापविट्ठे भिक्खू परं चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा पुणो आलोएज्जा पुणो पक्किमे पुणो छेयस्स परिहारस्स उवहाएज्जा भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चंपि ओहे अणुणdeos सिया, कप्पर से एवं वदित्तए - - अणुजाणह भंते ! मिओग्गहं अहालंं धुवं निययं नेच्छइयं वेउट्टियं तओ पच्छा कायसंफासं ॥ २१ ॥
चरियानिट्टे भिक्खू जाव चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा सच्चेव आलोया सच्चेव पडिक्कमणा सच्चेव उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठा आहालंदमवि उग्गहे || चरियानिट्टे भिक्खू परं चउरायपंचरायाओ थेरे पासेज्जा पुणो आलोएज्जा पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवहाएज्जा भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चंपि ओहे अणुण्णवेयव्वे सिया, अणुजाणह भंते ! मिओग्गहं अहालंदं धुवं निययं नेच्छइयं वेउट्टियं तओ पच्छा कायसंफासं ॥२३॥
दो साहम्मिया एगयओ विहरंति तंजहा - सेहो रायणिए य, एत्थ सेहत ए पच्छिन्ने रायणिए अपलिच्छन्ने सेहतराएणं रायणिए उवसंपज्जियच्वे भिक्खोवायं च दलयइ कप्पागं ॥२४॥
दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तंजहा - सेहे य रायणिए य, तत्थ रायणिए पलिच्छपणे सेहराए अपलिच्छपणे, इच्छा रायणिए से हतरागं उवसंपज्जेज्जा, इच्छा
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नो उवसंपज्जेज्जा, इच्छा भिक्खोववायं दलयइ कप्पागं, इच्छा नो दलयइ कप्पागं ॥२५॥
दो भिक्खुणो एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥२६॥ ___दो गणावच्छेयगा एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥२७॥
दो आयरियउवज्झाया एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥२८॥
बहवे भिक्खुणो एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥२९॥
बहवे गणावच्छेयगा एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥३०॥
बहवे आयरियउवज्झाया एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अनमन्नं उपसंपज्जित्ता ण विहरित्तए, कप्पइ णं अहारायणियाए अन्नमन्नं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥३१॥
बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेयया बहवे आयरियउवज्झाया एगयो विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए, कप्पइ अहारायणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥३३॥
॥ ववहारे चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥४॥
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॥ पंचमो उद्देसो ॥ नो कप्पइ पवत्तिणीए अप्पविइयाए हेमंतगिम्हासु चारए ॥१॥ कप्पइ पवत्तिणीए अप्पतइयाए हेमंतगिम्हासु चारए ॥२॥ नो कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पतइयाए हेमंतगिम्हासु चारए ॥३॥ कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थीए हेमंतगिम्हासु चारए ॥४॥ नो कप्पई पवत्तिणीए अप्पतइयाए वासावासं वत्थए ॥५॥ कप्पा पवत्तिणीए अप्पचउत्थीए वासावासं वत्थइ ॥६॥ नो कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थीए वासावासं वत्थए ॥७॥ कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पपंचमाए वासावासं वत्थए ॥८॥
से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाहंसि वा संनिवेसंसि वा बहूणं पत्तिणीणं अप्पतइयाणं, बहूणं गणावच्छेइणीणं अप्पचउत्थीणं कप्पइ हेमंतगिम्हासु चारए अन्नमन्ननिस्साए ॥९॥
से गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पणसि वा दोणमुहंसि वा आसमंसि वा संवाहंसि वा संनिवेसंसि वा बहूणं पवत्तिणीणं अप्पचउत्थोणं, बहूगं गणावच्छेइणीणं अप्पपंचमाणं कप्पइ वासावास वत्थए अन्नमन्ननिस्साए ॥१०॥
गामाणुगाणं दुइज्जमाणा णिग्गंथी य जं पुरओ काउं विहरेज्जा सा य आहच्च वीसंभेज्जा अस्थि य इत्थ काइ अन्ना उवसंपज्जणारिहा सा उवसंपज्जियचा. नस्थि य इत्थ काइ अन्ना उवसंपज्जणारिहा तीसे य अप्पणो कप्पाए असमत्ते एवं से कप्पई एगराइयाए पडिमाए जणं जणं दिसं अन्नाओ साहम्मिणीओ विहरंति तं गं तं गं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च ण कारणंसि निट्ठियंसि परा वएज्जा वसाहि अज्जे ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए. जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा बसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥११॥
वासावासं पज्जोसविया णिगंथी य जं पुरओ काउं विहरइ सा आहच्च वीसंभेजा अत्थि य इत्थ काइ अन्ना उवसंपज्जणारिहा उवसंपज्जियव्वा, नत्थि य इत्य
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काइ अन्ना उवसंपज्जणारिहा तीसे य अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए जणं जं णं दिसं अन्नाओ साहम्मिणीओ विहरंति तं णं तं गं दिसं उवलित्तए, नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि निहियंसि परा वएज्जा वसाहि अज्जे ! एगरायं वा दुगयं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरा. याओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ चा दुरायाभो वा वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥१२॥
पवत्तिणी य गिलायमाणी अन्नयरं वएज्जा मए णं अज्जो ! कालगयाए समाणीए इमा समुक्कसियव्वा, सा य समुक्कसणारिहा समुक्कसियव्वा, सा य नो समुक्कसणारिहा नो समुक्कसियव्वा, अस्थि या इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा समुक्कसियव्वा, नत्थि या इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा सा चेव समुक्कसियव्वा, ताए णं समुक्किछाए परा वएज्जा दुस्समुक्किद्रं ते अज्जे ! निक्खिवाहि, ताए णं निक्खियमाणीए नत्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जाओ साहम्मणीओ अहाकप्पेणं नो अब्भुट्ठाए विहरंति सव्वासि तासि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥१३॥
पवत्तिणी य ओहायमाणी अन्नयरं वएज्जे मए णं अज्ने ! ओहावियाए समाणीए इमा समुक्कसियव्वा, सा य समुक्कसणारिहा समुक्कसियब्वा, सा य नो समुक्कसणारिहा नो समुक्कसियव्वा, अत्थि य इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा सा समुक्कसियव्वा, नत्थि य इत्थ अन्ना काइ समुक्कसणारिहा सा चेव समुक्कसियव्वा, ताए णं समुक्किठाए परा वएज्जा दुस्समुक्किडं ते अज्जे ! निक्खिवाहि, ताए णं निक्खिवमाणीए नस्थि केइ छेए वा परिहारे वा, जाओ साहम्मिणीओ अहाकप्पेणं नो अब्भुदाए विहरंति सव्वासिं तासिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥१४॥
णिग्गंथस्स नवडहरतरुणस्स आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिभट्टे सिया, से य पुच्छियव्वे-केण ते अज्जो ! कारणेणं आयारपकप्पे णामं अज्झयणे परिन्भटे किं आबाहेणं उदाहु पमाएणं ? से य वएज्जा-नो आबाहेणं पमाएणं, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, से य वएज्जा-आवाहेणं नो पमाएणं, से य संठवेस्सामित्ति संठवेज्जा एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, से य संठवेस्सामित्ति न संठवेज्जा एवं से नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए ॥१५॥
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णिग्गथीए णं नवडहरतरुणीए आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिभट्टे सिया, सा य पुच्छियव्वा केणं ते कारणेणं अज्जे ! आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिम्भहे कि आबाहेणं उदाहु पमाएणं ? सा य वएज्जा नो आबाहेणं पमाएणं, जावज्जीवाए तीसे तप्पत्तियं नो कप्पइ पवत्तिणित्तं वा जाव गणावच्छेइणित्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा, सा य वएज्जा-आबाहेणं नो पमाएणं सा य संठवेस्सामित्ति संठवेज्जा, एवं से कप्पइ पवत्तिणितं वा जाव गणावच्छेइणित्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा, सा य संठवेस्सामित्ति नो संठवेज्जा एवं से नो कप्पइ पवत्तिणित्त वा जाव गणावच्छेइणित्त वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१६॥
थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिभट्टे सिया कप्पइ तेसि संठवेत्ताण वा असंठवेत्ताण वा आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेयगत्तं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥१७॥
थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे णाम अज्झयणे परिभ सिया कपइ तेसिं संनिसण्णाण वा संतुयघाण वा उत्ताणयाण वा पासल्लियाण वा आयारपकप्पे नामं अज्झयणे दोच्चंपि तच्चंपि पडिपुच्छित्तए वा पडिसारेत्तए वा ॥१८॥
जे णिग्गंथा णिग्गंधीओ य संभोइया सिया, नो एहं कप्पइ अन्नमन्नस्स अतिए आलोएत्तए, अत्थि या एत्थ केइ आलोयणारिहा कप्पह से तेसि अंतिए आलोएत्तए, नत्थि या एत्य केह आलोयणारिहा एवं ण्डं कप्पइ अन्नमन्नस्स अंतिए आलोएत्तए ॥१९॥
णिग्गंथं च णं रामो वा वियाले वा दीडपट्ठो वा लुसेज्जा इत्थी वा पुरिसस्स ओमावेज्जा पुरिसो वा इत्थीए ओमावेज्जा, एवं से कप्पइ एवं से चिट्ठइ परिहारं च नो पाउणइ एस कप्पे थेरकप्पियाणं । एवं से नो कप्पइ एवं से नो चिट्ठइ परिहारं च नो पाउणइ एस कप्पे जिणकप्पियाणं ति बेमि ॥२१॥
॥ ववहारस्स पंचमो उद्देसो समत्तो ॥५॥
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॥छट्ठो उद्देसो॥ भिक्खू य इच्छेज्जा नायविहिं एत्तए, नो से कप्पई थेरे अणापुच्छित्ता नायविहिं एत्तए, कप्पइ से थेरे आपुच्छित्ता नायविहिं एत्तए, थेरा य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ नायविहिं एत्तए, थेरा य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ नायविहिं एत्तए, जं तत्थ थेरेहिं अविइण्णे नायविहिं एइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥१॥
नो से कप्पइ अप्पमुयस्स अप्पागमस्स एगाणियस्स नायविहिं एत्तए ॥२॥ कप्पइ से जे तत्थ बहुस्सुए बन्भागमे तेण सद्धिं नायविहिं एत्तए ॥३॥
तत्थ से पुव्वागमणेणं पुन्वाउत्ते चाउलोदणे, पच्छाउत्ते भिलिंगसूवे कप्पइ से चाउलोदणे पडिग्गाहित्तए, नो से कप्पइ भिलिंगलवे पडिग्गाहित्तए ॥४॥
तत्थ पुवागमणेणं पुन्वाउत्ते भिलिंगस्वे, पच्छाउत्ते चाउलोदणे, कप्पइ से मिलिंगसूवे पडिग्गाहित्तए, नो से कप्पइ चाउलोदणे पडिग्गाहित्तए ॥५॥
तत्थ से पुव्वागमणेणं दोवि पुव्वाउत्ता कप्पइ से दोवि पडिग्गाहित्तए ॥६॥ तत्थ से पुव्वागमणेणं दोवि पच्छाउत्ता नो से कप्पइ दोवि पडिग्गाहित्तए ॥७॥ जे से तत्थ पुव्वागमणेणं पुव्वाउत्ते, से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥८॥ जे से तत्थ पुन्वागमणेणं पच्छाउत्ते, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ॥९॥
आयरियउवज्झायस्य गणंसि पंच अइसेसा पन्नत्ता, तं जहा-आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाए निगिझिय निगिज्झिय पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा नो अइक्कमइ ॥१०॥
आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ ॥११॥
आयरियउवज्झाए पभू वेयावडियं इच्छा करेज्जा इच्छा नो करेजा ॥१२॥
आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमई ॥१३॥
आयरियउवज्झाए बाहिं उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमई ॥१४॥
गणावच्छेयगस्स णं गणंसि दो अइसेसा पन्नत्ता तं जहा-गणावच्छेयए अंतों उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमइ ॥१५॥
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गणावच्छेयए बाहिं उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे नो अइक्कमइ ॥१६॥
से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगबगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणप्पवेसाए नो कप्पइ बहूर्ण अगडसुयाणं एगयओ वत्थए, अत्थि य इत्थ ण्डं केइ आया. रपकप्पधरे नस्थि य इत्थ ण्हं केइ छेए वा परिहारे वा, नत्थि य इत्थ ण्हं केइ आयारपकप्पधरे से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥१७॥
से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा अभिनिव्वगडाए अभिनिदुवाराए अभिनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ बहूणं अगडसुयाणं एगयओ वत्थए, अत्थि य इत्थ ण्हं केइ आयारपकप्पधरे, जे तइयं रयणि संवसइ, नत्थि य इत्थ केइ छेए बा परिहारे वा, नत्थि य इत्थ केइ आयारपकप्पधरे जे तइयं रयणि संवसइ सव्वेसि तेसिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा ॥१८॥
से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा अभिनिव्वगडाए अभिनिदुवाराए अभिनिक्खमणपवेसाए नो कप्पइ बहुस्सुयस्स बब्भागमस्स भिक्खुयस्स वत्थए, किमंग पुण अप्पागमस्स अप्पसुयस्स ॥१९॥
से गामंसि वा नगरंसि वा जाव रायहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवाराय एगनिक्खमणपवेसाए कप्पइ बहुस्सुयस्स बब्भागमस्स एगाणियस्स भिक्खुस्स वत्थए, दुही कालं भिक्खुभावं पडिजागरमाणस्स ॥२०॥
जत्थ एए बहवे इत्यीओ पुरिसा य पण्हावेंति तत्थ से समणे निग्गंथे अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयंसि मुक्कपोग्गले णिग्यायमाणे हत्थकम्मपडिसेवणपत्ते आवज्जइ मासिय परिहारहाणं अणुग्धाइयं । २१॥
जत्थ एए बहवे इत्थीओ पुरिसा य पण्हावेंति तत्थ से समणे णिग्गंथे अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयसि मुक्कपोग्गले णिग्यायमाणे मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥२२॥
नो कंप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा निग्गंथि अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सबलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरितं तस्स हाणस्स अणालोयावेत्ता अपपडिक्कमावेत्ता अनिंदावेत्ता अगरिहावेत्ता अविउहावेत्ता अविसोहावेत्ता अकरणाए अणभुहावेत्ता अहारिहं पायच्छित्तं तवोकर्म अपडिवज्जावेत्ता उचढावेत्तए वा संभंजित्तए वा संकसिएत्त वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा॥२३॥
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कप्पइ णिगंथाण वा पिबंधीण. वा मिथिअन्नगणाओ आगयं खुयायार सबलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरितं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता पडिक्कमावेत्ता निंदावेत्ता गरिहावेत्ता विउद्यावेत्ता विसोहावेत्ता अकरणार अण्डावेत्ता' अहारिहं पायच्छित्तः तपोकम्भं पडिवज्जाचेता उवट्ठावेत्तए वा सं{भित्तए का, संवसितए का, तीसे इत्तरिवं दिसं वा अणुदिस वा उद्दिसिसए वा धारिसए का ॥२४॥
॥ ववहारे छट्ठो उद्देसो समत्तो ॥७॥
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॥ ससमो उद्देसी ॥
जे निम्गंथा यणिम्गंथीओ य संभोइया सिया नो कप्पड़ णिग्गंथीणं णिगंचे अणापुच्छित्ता णिग्गंथिं अम्नगणाओ आमयं खुयायारं सबलायारं भिन्नायारं संकिलिट्ठायारचरितं तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं अपडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा वाएचए वा उवद्वावेत्तए वा संभुजित्तए वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥१॥
जे णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया कप्पइ निग्गंथीणं णिग्गंथे आपुच्छित्ता णिग्गंथिं अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सबलायरं भिन्नायारं संकि लिट्ठायारचरितं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता जात्र अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा वात्तए वा उवद्वावेत्तए वा संभुंजित्तए वा संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा ॥ २ ॥
जे णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया, कप्पर णिग्गंथाणं णिग्गंथीओ आपुच्छित्ता वा अणापुच्छित्ता वा णिगंर्थि अन्नगणाओ आगयं खुयायारं सबलायारं भिन्नायारं संकि लिट्ठायारचरितं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा वाएतए वा उवट्टावेत्तए वा भुंजित्तएसं वा संवत्तिए वा, तोसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा तं च णिग्गंथीओ नो इच्छेज्जा सेवमेव नियं ठाणं ॥ ३ ॥
जे णिग्गंथाय णिग्गंधीओ य संभोइया सिया, नो हुं कप्पइ परोक्खं पाडि एक्कं संभोयं विसंभोइयं करित्तए, कप्पड़ हं पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा -अहं णं अज्जो ! तुमाए सद्धिं इमंमि कारणमि पच्चवखं पाडिएवकं संभोइयं विसंभोइयं करेमि । से य पडितप्पेज्जा एवं से aratus पच्च पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, से य नो पडितप्पेज्जा एवं से कप पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करिए ॥४॥ ॥
जाओ णिग्गंथीओ वा णिग्गंथा वा संभोइया सिया, नो व्हं कप्पइ पच्चक्खं पाडि - एक्कं संभोइयं विसंभोइयं करित्तए, कप्पइ हं पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करिए, जत्थेव ताओ अप्पणो आयरियउवज्झाए पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा - अहं णं भंते ! अमुगीए अज्जाए सद्धि इमंमि कारणंमि पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसं
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मोइयं करेमि । सा य से पतितप्षेज्जा एवं से नो कप्पइ पारोक्खं पांडिएकक सभोइयं विसंभोइयं करित्तए, सा य से नो पडितप्पेज्जा, एवं से कप्पइ पारोक्लं पाहिएकक संभोइयं क्सिंभोइयं करित्तए ॥५॥
नो कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथिं अप्पणो अढाए पव्वावेचए वा, मुंडावेत्तएमा, मेहावेज़ए वा, उवावेजए वा, सं ज़िनए वा, संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा कादिसं वा उद्दिसित्तए वा धारिचए वा ॥६॥
. काप्या जिग्गवाणं णिग्गथिं अन्नासिं अझए पब्बावेत्तए वा, मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए वा, उक्छाधेत्तए बा, संभुजित्तए वा, संवसिजए वा, तीसे इजरियं दिसंबा अणुदिसं वा, उदिसित्तए वा, धारित्तए वा ॥७॥
मो. कापड णिगवीणं णिगंथं अपणो अटाए पन्चावेत्तए वा मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए ना, उवहावेत्तए वा, संभुंजित्तए.वा, संवसित्तए वा, तस्स इतरिय-दिसंबा, अपदिसंवा उदिखिलए वा ॥८॥
कप्पइ णिग्गंथीणं णिग्गंथ णिग्गंथाणं अट्ठाए पवावेत्तए वा, मुंडावेत्तए ची, सेवेतए वा, उवहावेलए बा, संभुजितए बा, संवसित्तए वा, तस्स-इत्तरियं दिसं वा, अणुदिसं या अदिसित्तए वा धास्तिर वा ॥९॥ ___ नो कप्पइ 'णिगंथीणं 'विइगिठियं दिस वा अणुदिसं वा, उद्दिसित्तए वा चारित्तए वा ॥१०॥
कप्पइ णिग्गंथाणं विइगिट्टियं दिसं वा अणुदिसं वा उदिसित्तए वा धारित्तए वा ॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं विइगिट्ठाई पाहुडाई विओसचित्तए ॥१२॥ कप्पइ णिग्गंधीणं विइगिट्ठाई पाहुडाई विओसवित्तए ॥१३॥ नो कप्पइ णिग्गंथाणं विइगिहे काले सज्झायं करित्तए ॥१४॥ कपइ णिग्गंधीणं दिगिट्टे काले सन्झायं करित्तए णिग्गंथनिस्साए ॥१५॥ णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गयीण वा असज्झाइए सज्झायं करिसए ॥१६॥ कप्पइ णिग्गंथाण वा 'णिग्गंधीण वा सज्झाइए सज्झायं करित्तए ॥१७॥
नो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अप्पणो असज्झाइए सज्झायं करित्तए कप्पइ ण्डे अण्णमण्णस्स वायणं दलइत्तए ॥१८॥
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तिप्रासपेरियार समणे णिगंथे तीसंवासपरियायाए समणीए णिगंथीए कपई उपायत्ताए उधिसित्तए ॥१९॥
पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे सहिवासपरियायाए समणीए निग्गथीए कप्पइ मायरियताए उदिसित्तए ॥२०॥
__गामाणुगाम दुइज्जमाणे भिक्खू य आहच्च वीसभेजा तं च सरीरंग केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पइ से तं सरीरगं न सागारियमिति कटु थंडिले बहुफासुए पडिलेहिता पमज्जित्ता परिहवेत्तए, अस्थि य इत्थ केइ साहम्मियसंतिए उवमरणजाए परिहरणारिहे कप्पइ से सागारकडं गहाय दोच्चंपि ओग्गहे अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरित्तए ॥२१॥
सागारिए उबस्सयं वक्कएणं पउंजेज्जा, से य वक्कइयं वएज्जा इमम्मि य इमम्मि य भीषासे समणा गिगंधा परिवसति से सागारिए परिहारिए. से य नो वएज्जा वक्कइए वएज्जा से सागारिए परिहारिए, दोवि ते एज्जा दोवि साकारिया परिहारिया ॥२२॥
सागारिए उक्स्सयं विक्किणिज्जा से य कइयं वएज्जा इमंमि य इमंमि य ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसति, से य सागारिए परिमारिए, से य मो वएकता कइए वएज्जा से सागारिए परिहारिए. दोवि ते वएज्जा दोवि सागारिया परिहारिया ।।
विहवधूया नायकुलवासिणी सावि यावि ओग्गहं अणुन्नबेयव्वा किमंग ! पुण पिया वा भाया वा पुत्ते वा सेवि यावि ओग्गहं ओगिण्हियव्वे ॥२४॥
पहेवि ओग्गहं अणुन्नषेयव्वे ॥२५॥
से रज्जपरियझेसु संथडेसु अव्वोगडेसु अवोच्छिन्नेसु अपरपरिग्गहिएमु सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुन्नवणा चिटइ अहालंदमवि ओम्गहे ॥२६॥
से रज्जपरियटेम असंथडेसु घोगडेसु वोच्छिन्नेसु परपरिग्गदिएमु भिक्खुभावस्स अट्ठाए ओग्गहे अणुन्नबेयव्वे सिया ॥२७॥
॥ ववहारे सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥७॥
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॥ अट्टमो उदेसो ॥
गाहा उपज्जोसविए ताए गाहाए ताए पएसाए ताए ओवासंतराए जमिणं जमिणं सेज्जासंथारगं लभेज्जा तमिणं तमिणं ममेव सिया, मेरा य से अणुजाणेज्जा तस्सेव सिया, थेरा य से नो अणुजाणेज्जा एवं से कप्पर अहारायणियाए सेज्जासंथारंग डिग्गाहिए || १॥
से य अहालहुस्सगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा जं चक्किया एगेणं इत्थेणं ओगिज्झ जाएगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा परिवहित्तए एस मे हेमंत गिम्हासु भविस्लइ ॥२॥
सेय अहालहुस्सगं सेज्जासंथारंग गवेसेज्जा जं चक्किया एगेण हत्थेण ओगिज्झ जाएगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा अद्धाणं परिवहितए, एस मे वासावासासु भविस्स ॥३॥
सेय अहालहरुसगं सेज्जाकंथारंग गवेसेज्जा जं चक्किया एमेण इत्थेण ओझ जाएमा वा दुयाहं वा तियाहं वा चड्याहं वा संचाई का दुश्मचि परिवहित्तए, एस मे वुइढावासेसु भविस्सइ ||४||
राणं बेरभूमिपत्ताणं कप्पर दंडए वा भंडए वा छत्तर वा मत्सर वा लट्ठियं बा मिसे वा वेले वा चेल चिलिमिली वा चम्मे वा चम्मको सेवा सम्मपलिच्छेयणए वा अत्रिरहिए ओवा से ठवेत्ता गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा पविसित्तए वा निक्खमित्तए वा, sus of संनियचाराणं दो चंपि ओम्ग्रहं अणुनवेत्ता परिहारं परिहरिचर ॥५॥
?
नो कप ग्गिंथाण वा णिग्गंथीण वा वाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जा संथागं दोsपि ओहं अणणुन्नवेसा बहिया नीहरिए ॥६॥
atus णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पाडिहारियं वा साग्रास्यि संतियं वा सेज्यासंarti दोच्चपि ओort अणुनवेत्ता बहिया नीहरितए ||७||
नो कप्पर णिग्गंथाण वा णिम्गंथीण वा पाडिहारियं वा सागारिकसंतियं वा सेज्जासंथारगं सव्वपणा अप्पिणित्ता दोच्चंपि ओहं अगनवेता अत्तिए, कम्पइ
अन्ना ॥८॥
नो as निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुष्वामेव ओम्गंह भोगिव्हिसा तथ पच्छा अन्नवे ||९||
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कप्पइ णिग्गंथाण वा णिगंथीण वा पुष्यामेव ओग्गहं अणुन्नवेत्ता तो पच्छा ओपिण्डिताए ॥१०॥
अह पुण एवं जाणेज्जा इह खलु णिम्पंथाण वा णिग्गथीण वा णो सुलभे पाडिहारिए सेन्मासंथारए-ति कटु एवं हं कप्पइ पुष्यामेव ओग्गहं ओगिण्हिता तो पज्छा अणुन्नवेत्तए, मा दुहओ अज्जो ! वइ अणुलोमेण अणुलोमियव्ये सिया ॥११॥
णिगंथस्स गाहापाइकुलं पिंडवाथपडियाए अणुपविहस्स अहालहुस्सए उपगरणमाए परिभो सिया तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पइ से सागारकडं गहाय जस्थेव अन्नमन्नं वासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-इमे भो अज्जो ! किं परिन्माए ? से य वएज्जापरिन्नाए त्तस्सेव पडिणिज्मायववे सिया, से य वएज्जा-नो परिन्नाए तं नो अप्पमा परिभुंजेज्जा नो अन्नमन्नस्स दावए एगंते बहुफासुए थंडिले परिहवेयव्वे सिया ॥१२॥
निर्णयस्स णं बहिया वियारभूमि पा विहारभूमि वा निक्खंतस्स अहालहुस्सए उवगणनाए परिम सिया तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पइ से सागारकडं गहाय जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-इमे भो अज्जो ! किं परिन्नाए ? से यसएज्जा-परिन्ताए तरसेव पडिणिज्जायन्ये सिया, से य वएज्जा-नो परिन्नाए तं-नो अपमा परि नेज्जा नो अन्नमन्नस्स दाकए गते बहुफासुए थंडिले परिटुवेयवे सिया ॥१३॥
हिमांवरस णं गामाणुगाम दुइज्जमाणस्स अन्नयरे उघगरणजाए परिभाडे सिया तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा कप्पइसे सागारकडं गहाय दूरमेव अद्भाणं परिवहित्तए, जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तस्थेव एवं वएज्जा-इमे भो अज्जो ! किं परित्नाए से य वएज्जा परिन्नाए तस्सेव पडिणिज्जायवे सिया, से य वएज्जा-नो परिन्नाए सं'नो अप्पणा परिमुंजेज्जा नो अन्नमन्नस्स दावए, एगते बहुफासुए थंडिले परिहवेयवे सिया ॥१४॥
कापइ जिग्मंयाण वा, णिग्गंथीण वा अइरेगं पडिग्गहं अन्नमन्नस्स अद्वाए दरमवि श्रद्धागं परिवंहितए था धारितए पा परिग्गहित्तए वा, सो वाणं धारेस्सइ, अहं वा णं धारिस्सामि अन्नो वा गं धारेस्सइ नो से कप्पइ तं अणापुच्छिय अणाम. तिय अन्नमन्तेसिंदाउं वा, अमुप्पदावा, कप्पइ सेतं ..आपुच्छिय आमंतिय अन्नमन्नेसि दाउं वा अणुप्पदाउं वा ॥१५॥
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३१
कुक्कुडिअंड पमाणमेत्ते कवळे आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे अप्पाहारे, दुवालसकुक्कुडिअंडप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे अवड्ढोमोयरिए, सोलसकुक्कुडिअडप्पमाणमेत्ते कवले आहार आहारेमाणे णिग्गंथे दुभागपत्ते, चउवीं संकुक्कुडिअंडपणाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे णिग्गंथे तिभागपत्ते सिया ओमारिए, एगती कुक्कुडिअडप्पमाणमेत्ते कवले आहार आहारैमाणे जिग्ये किणोमोरिए, बत्तीसं कुक्कुजिअंड पमाणमेते कवळे आहारं आहारेमाणे निग्र्गयें पमानपत्ते। एसी एगेणवि कवलेणं ऊणगं आहारं आहारेमाणे समणे णिग्गंथे नौ पकाममोह - सिं वत्तव सिया ॥ १६ ॥ ॥ ववहारे अहमो उद्देसो समत्तो ॥ ८॥
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॥ नवमो उद्देसो ॥
सागारियस्य आएसे अतो वगडाए भुजइ निट्ठिए निसिडे पाडिहारिए तम्हा दावए नों से कप्पर पडिग्गाहित्तए || १ ||
सागारियस आपसे अंतो बगडाए मुंजइ निट्रिट्ठए निसिठे अपाडिहारिए तम्हादाए एवं से कप्पड़ पहिगाहिर ॥२॥
सागारियरस आपसे बाहिं वगड़ाए भुंजई निट्ठिए निसिट्ठे पाडिहारिए तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगा हित्तए ॥ ३ ॥
सागारियस्स आएसे बार्हि वगडाए भुंजइ निट्टिए निसिट्ठे अपाडिहारिए, तम्हा दाव एवं से कप्पर पडिगाहित्तए ॥४॥
सागारियस्स दासेइ वा, पेसेइ वा, भयएइ वा भइण्णएइ वा अंतो वगड़ाए झुंजइ निट्टिए निसि पाsिहारिए तम्हा दावए नो से कप्पर पडिगाहित्तए ||५|| सागारियरस दासे वा पेसेइ वा भयएइ भइण्णएइ वा अंतो बगडाए झुंजइ निट्ठिए निसि अप्पाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पर पडिगाहिए || ६ || सागारियस्स दासेइ वा, पेसेइ वा, भयएइ वा भइण्णएइ वा, बाहिं वगडाए भुंजइ fafe निसि पाडिहारिए, तम्हा दावए नो से कप्पर पडिगाहित्तए ||७|| सागारियस्स दासेइ वा पेसेइ वा भयएइ वा भइण्णएइ वा बाहिं वगडाए मुंजइ free fafe अप्पाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पर पडिगाहिए ||८|
सागारियस नायए सिया सागारियस्स एगवगडाए अंतो एगपयाए सागारियं चोवजीवs तम्हा दावए नो से कप्पर पडिगाहित्तए || ९ ||
सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगड़ाए अंतो सागारियस्स अभिनिष्पयाए सागारियं चोपजीवई तम्हा दावए नो से कप्पइ पड़िगाहित्तए ॥१०॥
सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगबगड़ाए वाहिँ सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोपजीवइ, तम्हा दावए नो से कप्पर पड़िगाहिए ॥११॥
सागारियस नायए सिया सागारियस्स एगवगड़ाए बाहिं सागारियस्स अभिणिपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ १२ ॥
सागारियस नायए सिया सागारियस्स अभिणिव्वगड़ाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए अंतो सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पर पडिंगाहित्तए ॥१३॥
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सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खिमणपवेसाए अंतो सागारियस्स अभिणिपयाए सागारियं च उवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥१४॥
___सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए बाहिं सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥१५॥
सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए बाहिं सागारियस्स अभिनिप्पयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावर नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥१६॥ ____सागारियस्स चक्कियासाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥१७॥
सागारियस्स चक्कियासाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहितए ॥१८॥
सागारियस्स गोलियसाला साहारणवक्यपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥१९॥
सागारियस्स गोलियसाला निस्साहारणवकयषउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पङिगाहित्तए ॥२०॥
___ सागारियस्स बोधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥२१॥
सागारियस्स बोधियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥२२॥
- सागारियस्स दोसियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥२३॥ ____सागारियस्स दोसियसाला निस्साहारणक्क्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पर पडिगाहित्तए ॥२४॥
सागारियस्स सोत्तियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडि गाहित्तए ॥२५॥
सागारियस्स सोत्तियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पड़ पडिगाहित्तए ॥२६॥
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३४
सागारियस बौंडसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पर पडिग हित्तए ||२७|
सागारियस्स बोंडयसाला निस्साहारण बक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पर पडिगाहित्तए ||२८||
सागारिFस गंधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥२९॥
सागारियस्स गंधियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्य ||३०||
सागारियस्स सौंडियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तय ॥३१॥
सागारियस्स सौडियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए । ३२ ||
सागरस्स ओसीओ संथडाओ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ ३३॥ सागारियस ओसीओ असंथडाओ तम्हा दावए एवं से कप्पर पडिगाहित्तए । सांगारियस अंबफला संथडा तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ||३५||
सागारियस्स अंबफला असंथडा तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए || ३६ || सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एगूणपन्नाए राईदिएहिं एगेण छन्नउ एणं भिक्खासणं अहासुयं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्च सम्मं कारण फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए अणुपालिया भवइ ||३७||
अमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइदिएहिं दोहि य अट्ठासी एहिं भिक्खासहिं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए अणुपालिया भवइ ||३८||
नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एगासीए राईदिएहिं चउहि य पंचुत्तरेहिं भिक्खासहितं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए अणुवालिया भवइ ॥ ३९॥
दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राईदियसएणं अद्धछद्वेहि य भिक्खासएहिं अहात्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्च सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया कट्टिया आणre अणुपालिया भवइ ||४०||
दो डिमाओ पन्नत्तओ तंजहा - खुड्डिया वा मोयपडिमा १, महल्लिया वा मोयपडिमा २ | खुड्डियां मोयपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्त कप्पइ पढमसरयकालसमयंसि वा चरम निदाहकालसमयंसि वा बहिया ठावियव्वा गामस्स वा जाव रायहाणीए वा वर्णसि
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वा वणदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पन्वयदुग्गंसि वा, भोच्चा आरुभइ चउद्दसमेणं पारेइ, अभोच्चा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ, जाए जाए मोए आवियव्वे, दिया आगच्छइ आवियव्वे, राई आगच्छइ नो आवियव्वे, सपाणे मत्ते आगच्छइ नो आवियव्वे, अप्पाणे मत्ते आगच्छइ आवियव्वे, सबीए मत्ते आगच्छइ नो आवियत्वे, अबीए मत्ते आगच्छइ आवियवे, ससणिद्धे मत्ते आगच्छइ नो आवियम्वे, असणिद्धे मत्ते आगच्छइ आवियत्वे, ससरक्खे मत्ते आगच्छए नो आवियव्वे, असरक्खे मत्ते आगच्छइ आवियन्वे । जाए जाए मोए आवियवे, तंजहा-अप्पे वा बहुए वा । एवं खलु एसा खुड्डिया मोयपडिमा अहामुक्त अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया नीरिया किट्टिया आणाए अणुपालिय। भवइ ॥४१॥
महल्लियं णं मोयपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पइ से पढमसरयकालसमयंसि वा चरमनिदाहकालसमयंसि वा बहिया ठावियव्वा, गामस्स वा जाव रायहाणीए वा वर्णसि वा वणदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पब्बयदुग्गसि वा, भोच्चा आरुभइ सोलसमेण पारेइ, अभोच्चा आरुभइ अट्ठारसमेण पारेइ, जाए जाए मोए आवियत्वे तह चेव जाव अणुपालिया भवइ ॥४२॥
___ संखादत्तियस्स णं भिक्खुस्स पडिग्गहधारिस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्रस्स जावइयं केइ अंतो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलएज्जा तावइयाओ दत्तीओ वत्तब्वं सिया, तत्थ से केइ छब्बएण वा दूसरण वा चालएण वा अंतो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलएज्जा सावि णं सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया, तत्थ बहवे भुंजमाणा सव्वे ते सयं सयं पिंडं साहणिय अंतो पडिग्गहस्स उच्चित्ता दलएज्जा सव्वा वि णं सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया ॥४३॥
__ संखादत्तियस्स गं भिक्खुस्स पाणिपडिग्गहियस्स गाहाबइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्वस्स जावइयं केइ अंतो पाणिस्स उच्चित्ता दलएज्जा तावइयाओ दत्तीओ वत्तवं सिया, तत्थ से केइ छब्बएण वा दुसरण वा चालएण वा अंतो पाणिस्स उच्चित्ता दलएज्जा सावि णं सा एगा दत्ती वत्तव्यं सिया, तत्थ से बहवे भुंजमाणा सव्वे ते सयं सयं पिंडं साहणिय अंतो पाणिस्स उच्चित्ता दलएज्जा सन्चावि णं सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया ॥४४॥
'तिविहे उवहडे पन्नत्ते, तंजहा-मुद्धोवहडे, फलिहोवहडे, संसहोवहडे ॥४५॥
तिहिवे ओग्गहिए पण्णत्ते, तं जहा-जं च ओगिण्हइ जं च साहरइ जं च आसगंसि पक्खिवइ एगे एवमासु ॥४६॥
एगे पुर्ण एवमाहंसु-दुविहे ओग्गहिए पन्नत्ते तंजहा-जं च ओगिण्हइ जंच आसगंसि पक्खिवइ ॥४७॥
॥ ववहारे नवमो उद्देसो समतो ॥९॥
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॥ दसमो उद्देसो ॥
दो डिमाओ पन्नत्ताओ तं जहा - जबमज्झाय चंदपडिमा वइरमज्झा य चंदपडिमा । जनमज्झं णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स निच्चं मासं वोसकाए चियदेt जे के परीसह वसग्गा समुप्पज्जंति दिव्वा वा माणुस्सगा वा तिरिक्खजोणिया ar अलोमा वा पडिलोमा वा, तत्थ अणुलोमा ताव वंदेज्जा वा नमसिज्जा वा सक्कारेज्जा वा सम्माज्जा वा कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुपासेज्जा, पडिलोमा ताब अन्नयरेण दंडेण वा अहिणा वा जोतेण वा कसेण वा काए आउट्टेज्जा, ते सव्वे उप्पन्ने सम्म सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ ॥१॥
जनमज्झं णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स सुक्क पक्खस्स पाडिवर कप एवं दत्तिं भोयणस्स पडिगाहित्तए एगं पाणगस्स, सवेहिं दुप्पयचउप्पयाइएहिं आहारकंखीहिं सत्तेहिं पडिनियत्तेहिं अन्नायउंछं सुद्धोवहडं णिज्जूहित्ता बहवे समणमाहणअहि वणवणीमा, कप्पर से एगस्स भुंजमाणस्स पडिगाहित्तए नो दोन्हं नो तिह नो उन्हं नो पंच नो गुब्विणीए नो बालवच्छाए नो दारगं पेज्जमाणीए । नो से कप अंतो एलयस्स दोवि पाए साइड दलमाणीए नो बाहिं एलुयस्स दोत्रि पाए साहदड दलमाणीए, अह पुण एवं जाणेज्जा एगं पाये अंतो किच्चा एवं पायं बाहि किच्चा एलयं विक्खभइत्ता एयाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा आहारेज्जा, एयाए एसणार एसमा नो लभेज्जा नो आहारेज्जा । बिइज्जाए से कप्पइ दोणि दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए दोणि पाणगस्स, सव्वेहिं दुप्पयच उप्पयाइएहिं जाव नो आहारेज्जा । एवं तझ्याए तिण्णि जाव पण्णरसीए पणरस । बहुलपक्खस्स पाडिवर से कप्प चोदसदत्तीओ, बीयाए तेरस जाव चोदसीए एवं दर्त्ति भोयणस्स एवं पाणगस्स सहं दुप्पयच उप्पयाइएहिं जाव नो आहारेज्जा, अमावासाए से य अभत्तट्टे भवइ । एवं खलु एसा जवमज्झचंद पड़िमा अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारणं सिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए अणुपालिया भवइ ||२॥
इरम णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स णिच्चं मासं वोसहकार चियत्तदेहे जे केइ परिसहोवसग्गा समुप्पज्जंति तंजहा - दिव्वा वा माणुस्सगा वा तिरिक्खजो - णिया वा अणुलोमा वा पडिलोमा वा । तत्थ अणुलोमा ताव वंदेज्जा वा नमसेज्जा वा सक्कारेज्जा वा समाणेज्जा वा कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्जा । पडिलोमा अन्नयरेणं दंडेण वा अट्टिणा वा जोतेण वा वेत्तेण वा कसेण वा काए आउटेज्जा ते सव् उपपन्ने सम्मं सहेज्जा खमेज्जा तितिक्खेज्जा अहियासेज्जा ॥३॥
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वइरमज्झं णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स बहुलपक्खस्स पाडिवए कप्पड़ पन्नरस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए-पन्नरस पाणगस्स, सव्वेहि दुप्पयचउप्पयाइएहिं आहारकंखीहिं जाव णो आहारेज्जा। वितियाए से कप्पइ चउद्दस दतीओ भोयणस्स, चउद्दस पाणगस्स पडिगाहित्तए जाव णो आहारेज्जा । एवं जाव पणरसीए एगा दत्ती । मुक्कपक्खस्स पाडिवए कप्पइ दो दत्तीओ, बीयाए तिणि जाव चउद्दसीए पलरस, पुणिमाए अमत्तटे भवइ । एवं खलु एसा वइरमज्झा चंदपडिमा अहासुत्तं अहाका अहामगं जाव अणुपालिया भवइ ॥४॥
पंचविहे ववहारे पन्नत्ते तंजहा-आगमे १, सुए २, आणा ३, धारणा ४, जीए ५। जत्थेव तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्टवेज्जा, नो से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया सुएणं ववहारं पट्टवेज्जा, नो से तस्थ मुए सिया जहा से तत्थ आणा सिया आणाए ववहारं पडवेज्जा, नो से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा, नो से तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ जीए सिया जीएणं ववहारं पट्टबेज्जा, एएहि पंचर्हि ववहारेहिं ववहारं पट्टवेज्जा तंजहा-आगमेणं मुरणं आणाए धारणाए जीएणं । जहा जहा आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा बड़ा ववहारं पट्ठवेज्जा । से किमाहु भंते ! आगमबलिया समणा णिग्गंथा । इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तया तया तहि तहिं अणिस्सिओवस्सियं ववहारं ववहारेमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवइ ॥५॥
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता तंजहा-अट्ठकरे नामं एगे नो माणकरे १, माणकरे णाम एगे नो अहकरे २, एगे अटुकरे वि माणकरे वि ३, एगे नो अट्टकरे नो माणकरे ॥६॥
चत्वारि पुरिसजाया पन्नत्ता तंजहा-गणहकरे नाम एगेनो माणकरे १, माणकरे नाम एगे नो गणटकरे २, एगे गणहकरेवि माणकरेवि ३, एगे नो गणटकरे नो माणक ७१
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता तंजहा—गणसंगहकरे नाम एगे नो माणकरे १ एगे माणकरे नो गणसंगहकरे २, एगे गणसंगहफरेवि-माणकरेवि ३, एमे मो गणसंगहरे नो माणकरे ४ ॥८॥
चत्तारि पुरिसजाया पन्नता, तंजहा-गणसोहकरे नाम एगे नो माणकरे १, माणकरे नाम एगे नो गणसोहकरे २, एगे गपसोहकरेवि माणकरेवि ३, एगे नो गणसोहकरे णो माणकरे ४ ॥९॥
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चत्वारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा गणसोहिकरे णामं एगे नो माणकरे १, एगे माणकरे नो गणसोहिकरे २, एगे गणसोहिकरेवि माणकरेवि ३, एगे नो गणसोहिकरे नो माणकरे ॥१०॥
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-रूबं नाम एगे जहइ नो धम्म १, धम्मं नाम एगे जहइ नो रूवं २, एगे रुवंवि जहइ धम्मवि जहइ ३, एगे नो रूवं जहइ नो धम्म जहइ ४ ॥११॥
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-धम्म नामेगे जहइ नो गणसंठिई १, गणसंठिई नामेगे जहइ नो धम्म २, एगे धम्मपि जहइ गणसंठिइंपि जहइ ३, एगे नो धम्म जहइ नो गणसंठिइं ४ ॥१२॥
. चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-पियधम्मे णामं एगे नो दढधम्मे १, दढधम्मे नाम एगे, नो पियधम्मे २, एगे पियधम्मेवि, दढधम्मेवि, ३, एगे नो पियधम्मे नो दडपम्मे ४ ॥१३॥
चत्तारि आयरिया पन्नता, तंजहा-पन्चायणायरिए नाम एगे णो उवट्ठावणायरिए १, उवट्ठावणायरिए नाम एगे नो पचायणायरिए २, एगे पव्वायणायरिएवि उवट्ठावणायरिएवि ३, एगे नो पञ्चायणायरिए नो उबढावणायरिए-धम्मायरिए ४ ॥ - चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, जहा-उद्देसणायरिए नाम एगे नो वायणायरिए १, वायणायरिए नाम एगे नो उद्देसणायरिए २, एगे उद्देसणायरिएवि वायणायरिएवि ३, एगे नो उद्देसणायरिए नो वायणायरिए-धम्मायरिए ४ ॥१५॥
धम्मायरियस्स चत्तारि अंतेवासी पन्नत्ता तंजहा-उद्देसणंतेवासी नाम एगे नो संयणंतेवासी १, वायणंतेवासी नाम एगे नो उद्देसणंतेवासी २, एगे उद्देसणंतेवासीवि वायणंतेवासी वि ३, एगे नो उद्देसणंतेवासी नो वायणं तेवासी-धम्मंतेवासी ४॥१६॥
'तो थेरभूमीओ पन्नत्तभो, तंजहा-जाइथेरे १, सुयथेरे २, परियायथेरे ३, य । सहिचासजाए जाइथेरे १, ठाणसमवायघरे सुयथेरे २. वीसवासपरियाए परियायथेरे ३.
'तओ सेहभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-सत्तराईदिया, चाउम्मासिया, छम्मासिया । छम्मासिया य उक्कोसिया, चाउम्मासिया मज्झमिया, सत्तराईदिया जहन्ना ॥१८॥
नो कप्पइ निमगंयाण वा जिग्गंधीण वा खुड्डगं वा खुडियं वा ऊणवासजाय उपहावेत्तए वा संभंजित्तए वा ॥१९॥
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कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा खुड्डगं वा खुड्डियं वा साइरेगअहवासजाय उबट्ठावेत्तए वा संभुजित्तए वा ॥२०॥
नोकप्पइ णिग्गंथाण वा थिग्गंथीण वा खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा अव्वंजणजायस्स आयारकप्पे नाम अज्झयणे उदिसित्तए ॥२१॥
कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा वंजणजायस्स आयारकप्पे नामं अज्झयणे उदिसित्तए ॥२२॥
तिवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारकप्पे नाम अज्ञयणे उद्दिसित्तए ॥२३॥
चउवासपरियायस्स समगस्स णिग्गंथस्स कप्पइ सूयगडे नाम अंगे उद्दिसित्तए॥२ पंचवासपरियायस्स समणस्स णिगंथस्स कप्पइ दसाकप्पववहारे उदिसित्तए ॥२५ अहवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ ठाणसमवाया उद्दिसित्तए ॥२६॥ दसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ विवाहे नामं अंगे उद्दिसित्तए ॥२७
एकारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ खड्डियाविमाणपविभत्ती महल्लियाविमाणपविभत्ती अंगचूलिया वंगचूलिया विवाहचूलिया नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए ।
'बारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ अरुणोववाए गरुलोववाए वरुणोववाए धरणोववाए वेसमणोववाए वेलंधरोववाए नामं अज्झयणे उद्दिसित्तए ॥२९॥
तेरसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ उट्ठाणमुए समुट्ठाणसुए देवि. दोबवाए णागपरियावणिया नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए ॥३०॥
चउद्दसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ सुमिणभावणा णामं अज्झयणं उद्दिसित्तए ॥३१॥
पन्नरसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ चारणभावणा णाम अज्झयणं उद्दिसित्तए ॥३२॥ ___सोलसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ तेयनिसग्गे नाम अज्झयणे उद्दिसित्तए ॥३३॥ ____सत्तरसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ आसीविसभावणा नाम अज्झयणे उदिसित्तए ॥३४॥
'अट्ठारसवासपरियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ दिद्विविसभावणा नाम अझयण उद्दिसित्तए ॥३५॥
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सित्तए ॥३६॥
V
सदा सपरिवायरस समणस्स निम्मांथस्स करपइ दिट्टिवाए नाम अंगे उद्दि
बीसवासपरियार समणे णिग्गंथे सम्वसुयाणुवाई भवइ ॥३७॥
दसविहे वेयावच्चे पण्णत्ते तंजहा - आयरियवेयावच्चे १, उवज्झायवेयावच्चे २, referred ३, तवसिवेयावच्चे ४, सेहवेयावच्चे ५ गिलाणवेयावच्चे ६ साहम्मि. यवेयावच्चे ७ कुलवेयावच्चे ८ गणवेयावच्चे ९ संघवेयावच्चे १० || ३८ ॥
- आयरियवेयावच्च करेमाणे समने णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ उवज्झायवेयावच्च करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ थैरिवेयावच्च करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ||४१ ॥ datedयावच्च करेमाणे समणे जिमये महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ सेहवेयावच्च करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥४३॥ गिलाण यावच्च करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ || साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे समणे णिम्थे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । कुलवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥४६॥ Tutani करेमा समणे पिम्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवः ॥४७॥ पाव करेमाने समणे णिग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥४८॥ ॥ ववहारे दसों उदेसो समत्तो ॥ १० ॥
॥ इति व्यवहारसूत्रस्य मूलपाठः समाप्तः ॥
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