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व्यवहारसूत्रे बहवे आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ णं अहाराइणियाए अन्नमन्नं उसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ सू० ३१ ॥
बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेयया बहवे आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ अहाराइणियाए अन्नमन्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ॥ मू० ३२ ॥
॥ ववहारे चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ ४ ॥ छाया-द्वौ गणावच्छेदको एकतो विहरतः नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपद विहर्तुम् , कल्पते यथा रात्निकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्त्तम् ॥ सू० २७ ॥
द्वावाचार्योपाध्यायौ एकतो विहरतः नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् , कल्पते यथारानिकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य विहर्तुम् ॥ सू० २८ ॥
बहवो भिक्षुका एकतो विहरन्ति नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहत्तुम् , कल्पते यथारानिकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ॥ सू० २९॥
बहवो गणावच्छेदका एकतो विहरन्ति नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् , कल्पते यथारानिकतयाऽन्योन्यमुपस पद्य खलु विहर्त्तम् ॥ सू० ३० ॥ ___ बहव आचार्योपाध्यायाः एकतो विहरन्ति नो खलु कल्पतेऽन्योऽन्यम् उपसंपद्य खलु विहर्त्तम् , कल्पते यथारानिकतयाऽन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ।। सू० ३१ ॥
बहवो भिक्षुकाः बहवो गणावच्छेदकाः बहव आचार्योपाध्यायाः एकतो विहरन्ति नो खलु कल्पते अन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्त्तम्, कल्पते यथारानिकतया अन्योऽन्यमुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ॥सू. ३२॥
॥ व्यवहारे चतुर्थ उद्देशः समाप्तः ॥४॥ भाष्यम्--एतानि 'दो गणावच्छेयया' इत्यादीनि चतुर्थोद्देशसमाप्तिपर्यन्तानि षडपि सूत्राणि षड्विंशतितमभिक्षुसूत्रवदेव व्याख्येयानि । एषाभयं भावः-'दो गणावच्छेयया' इति द्वयोर्गणावच्छेदकयोः एक रत्नाधिकं प्रकल्प्य विहत्तं कल्पते ॥ सू० २७॥ एवमेव 'दो आयरियउवज्झाया' इति द्वयोराचार्ययोः द्वयोरुपाध्याययोरपि एक पर्यायज्येष्ठमाचार्यमुपाध्यायं च स्वीकृत्य विहत्तुं कल्पते ॥ सू० २८ ॥ एवं 'बहवे भिक्खुणो' इति बहूनाम् एकद्वित्रिप्रभृतीनां भिक्षुकाणां यथारास्निकमर्यादया विहत्तुं कल्पते ॥ सू० २९ ॥ तथा 'बहवे गणावच्छेयया' इति बहूनां गणावच्छेदकानां यथारात्निकमर्यादया विहर्तुं कल्पते ॥ सू० ३० ॥ तथा 'बहवे आयरियउव