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भगवान ऋषभदेव से पूर्वकालीन परिस्थिति
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बनाई । फिर भी झंझट दूर नहीं हुए तो छटवें कुलकर ने सीमा-चिन्ह लगाये । सातवें कुलकर ने हाथी, घोड़े प्रादि को वश में करके उन पर सवारी करना बताया। पहले माता-पिता बच्चों के उत्पन्न होते ही मर जाते थे, किन्तु प्रब कुछ समय जीवित रहने लगे और अपने शिशुओं का मुख देखकर भयभीत होने लगे तो आठवें कुलकर ने उन्हें समझाकर उनका भय दूर किया।
मासीवावादि ससि पहु दिहि केलि व कविचिविण प्रोत्ति ! पुतहि चिरंजीवण सेदुवहिसावितरणविहि ॥८००॥
नवम कुलकर ने शिशुओं के लिए प्राशीर्वाद देना जताया । नाम ने शिशु के ताल कुन दिन तक कोड़ा करना बताया । एकादश ने पुत्रों के साथ बहुत समय तक रहने का भय निवारण किया । द्वादश ने नदी आदि पार करना सिखाया ।
सिक्खंति जराउ छिदि णाभि विणासिदं चाप तजिवादि । परिमो फलमकवोसहिभुत्ति कम्मावणी तत्तो ॥६०१॥
-तेरहवें कुलकर ने जरायु छेदन बताया। चौदहवें कुलकर ने नाभि-छेदन-विधि सिखाई। बिजली गिरने और बिजली का भय दूर किया, फलाकृतौषध भक्षण करना सिखाया। तदनन्तर कर्मभूमि प्रतित हई।
इन कुलकरों ने समाज-नियमन और अनुशासन के लिये दण्ड-व्यवस्था भी निर्धारित की थी। यदि किसी से कोई अपराध हो जाता था तो प्रथम कुलकर से पांचवें कुलकर तक के काल में अपराधी को 'हा' कहकर दण्ड देते थे। छटवें से दसवें तक कुलकर अपराधी को इससे कुछ कठोर दण्ड देते थे और उससे 'हा मा' कहते थे। ग्यारहवें से चौदहवें कुलकरों ने उस काल की दृष्टि से इससे भी कठोर दण्ड की व्यवस्था की। वे अपराधी को 'हा मा धिक्' कहकर वर्जना करते थे।
युगलिया समाज का वर्णन पढ़कर हमें ऐसा लगता है कि उस समय मनुष्य जंगलों में कवीले बनाकर रहते थे। समाज, राज्य, नगर, जाति और वर्ण-व्यवस्था नहीं थी। अत: ये प्रकृति-पुत्र प्रकृति की गोद में फलते फूलते थे । समाज-व्यवस्था नहीं थी। आवश्यकतायें सीमित थीं; साधन असीम थे । इसलिए शोषण, छीना झपटी, द्वन्द्व प्रादि भी नहीं थे। प्रकृति के अनुरूप उनका जीवन सहज था । इसलिए पुण्य और पाप, धर्म और अधर्म का भी बोध नहीं था। जो चाहते थे,वह मिल जाता था। कर्म जीवन में या नहीं पाया था । अतः इस युग को भोग-युग कहा जाता है।
कुलकरों को मनु भी कहा जाता है। उन मनुओं की सन्तान को ही मानव या मनुष्य कहा जाने लगा है।
प्रकृति का यह वैचित्र्य ही कहना होगा कि उस युग में पुत्र और पुत्री युगल उत्पन्न होते थे। पुत्रोत्पत्ति के तत्काल बाद माता-पिता का देहान्त हो जाता था। प्रकृति में धीरे धीरे परिवर्तन हुना और पुत्रोत्पत्ति के पश्चात् माता-पिता जीवित रहने लगे । मरुदेव कुलकर के काल तक युगल ही उत्पन्न होते रहे। किन्तु उसके पश्चात्
केलो सन्तान भी होने लगी। सर्वप्रथम मरुदेव के एक पुत्र ही उत्पन्न हया । मरुदेव ने उसका विवाह भी किया था। नाभिराज तेरहव कलकर प्रसेनजित क पुत्र थ। व भरत
कर प्रसेनजित के पुत्र थे। वे भरत क्षेत्र में विजयाई पर्वत से दक्षिण की ओर
मध्यम प्रार्यखण्ड में उत्पन्न हुए थे। वे विश्व भर के क्षत्रियों में श्रेष्ठ थे। वे भोगभूमि और अन्तिम कुलकर कर्मभूमि के सन्धि-काल में उत्पन्न हुए थे। उस समय दक्षिण भरत क्षेत्र में कल्पवृक्ष रूप नाभिराज प्रासाद नष्ट हो गये थे । केवल एक ही कल्पवृक्ष रूप प्रासाद अवशिष्ट रह गया था और वह
था नाभिराज का। वह पृथ्वीनिर्मित प्रासाद बन गया था। उस प्रासाद का नाम सर्वतोभद्र था और वह इक्यासी खण्ड का था। उन्होंने ही उत्पन्न बालकों के नाभि-नाल को शस्त्रक्रिया से पृथक करने का परिज्ञान दिया। इसीलिये उन्हें 'नाभि" कहा जाता था।
उनके काल में कल्पवृक्ष निःशेषप्राय हो गये। मानव के समक्ष नये प्रश्न उभरने लगे, उनका हस होना
१. महा पुराण ६२