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ब्रह्मदत्त चक्रवती
२२३ नाम गन्धारी था। इनके दो पुत्र थे—संभूत और चित्त । ये दोनों नत्य पौर मान में बड़े निपुण थे और स्त्री वेष धारण करके ये विभिन्न नगरों में नृत्य और गान का प्रदर्शन करते थे। यही उनकी आजीविका का साधन था । एकबार वे दोनों राजगह नगर में पहुंचे। वहां उन्होंने गीत और नृत्य का प्रदर्शन किया । स्त्री का वेष धारण किये हए संभूत का नत्य देखकर वसुशर्मा पुरोहित इसके ऊपर मोहित होगया । बहुत समय पश्चात् उसे ज्ञात हुआ कि यह नर्तकी स्त्री नहीं, कला विज्ञान में निष्णात कोई रूपवान पुरुष है। तब पुरोहित ने प्रसन्न होकर संभूत के साथ अपनी बहन लक्ष्मीमती का विवाह कर दिया। किन्तु जब भाई-बहन को संभूत के कुल गोत्र का पता चला तो उन्हें बड़ी लज्जा आई और वे दोनों वहां से पाटलिपुत्र चले गये। एक दिन, दिन के प्रकाश में लोगों को भी दाढ़ी मूंछ के कारण पता चल गया कि ये दोनों स्त्री नहीं, पुरुष हैं। इससे उनके व्यवसाय को बड़ी क्षति पहुंची।
इन्हीं दिनों काशी में गुरुदत्त नामक एक जैन मुनि पधारे। दोनों भाई भी उनका उपदेश सुनने गये । उपदेश सुनकर वे इतने प्रभावित कर कि उन्होंने पनि तीक्षालेली । उन्होंने समस्त आगमों का अध्ययन किया और घोर तप करने लगे। एक बार बिहार करते हुए वे राजगृही पधारे। संभूत मुनि पक्षोपवास के पारणा के लिए नगर में पधारे। भिक्षा के लिए जाते हए मुनि ने वसूशर्मा पुरोहित को देखा। पुरोहित ने इन्हें पहचान लिया और यह मारने दौड़ा। मुनि भय के कारण भागने लगे। तभी मुनि के मुख से भयानक तेज निकला। उसकी अग्नि से सम्पूर्ण दिशायें व्याप्त हो गई । ज्यों ही इस घटना का पता चित्त मुनिराज को लगा, वे शीघ्रता पूर्वक वहां काये और उन्होंने संभूत मुनि के तेज को रोक दिया । वसुशर्मा इस घटना के कारण इतना भयभीत हो गया कि वह अपने प्राण बचाकर वहां से भाग गया।
एक देवी चक्रवर्ती का रूप धारण करके बड़ी विभूति के साथ मुनिराज की सेवा करने लगी। चक्रवर्ती रूपधारिणी देवी का वैभव देखकर संभूत मुनि ने मूर्खतावश यह निदान किया कि यदि मेरे तप में कोई बल है तो मुझे उसके फलस्वरूप अन्य जन्म में चक्रवर्ती पद की प्राप्ति हो। यह निदान करके संभूत मुनि मरकर सौधर्म स्वर्ग में महद्धिक देव हुए।
कम्पिला नगरी में ब्रह्मरथ नामक राजा राज्य करता था। उसकी महादेवी का नाम रामिल्ला था। उनके एक पुत्र हुमा, जिसका नाम ब्रह्मदत्त रक्खा गया। यह संभूत का ही जीव था, जो आयु पूर्ण होने पर यहाँ उत्पन्न हुमा । जब वह शासन करने योग्य हुआ तो पिता ने उसका तिलक करके राज्य-भार सोप दिया। उसकी पायुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। उसकी सहायता से उसने अल्पकाल में ही सम्पूर्ण भरत क्षेत्र को जीत लिया। वह चक्रवर्ती बन गया। उसके पास चौदह रत्न, नवनिधि और अपार वैभव था। बमुशर्मा पुरोहित संसार में नाना योनियों में भ्रमण करता हुआ चक्रवर्ती की भोजनशाला में मुपकार (रसोइया) बना।
एक दिन चक्रवर्ती भोजन करने बैठा तो उस जयसेन रसोइया ने गर्म-गर्म दूध परोस दिया। चक्रवर्ती ने दूध पिया तो उसकी जीभ जल गई। इससे वह इतना कुपित हुआ कि उसने वह गर्म-गर्म दुध रसोइया के सिर पर उंडेल दिया। उबसते हुए दूध के कारण रसोइया की तत्काल मृत्यु हो गई। मरकर वह लवण समुद्र के रत्न द्वीप में न्यन्तर जाति का देव बना। जब उसे पूर्व जन्म का ज्ञान हुआ तो उसे चक्रवर्ती के ऊपर भीपण क्रोध पाया और उसका प्रतिशोध लेने के लिये चल दिया। वह परिव्राजक का वेष धारण करके नाना प्रकार के फल लाया और उन्हें चक्रवर्ती को भेंट किये। उन्हें स्वाकर चक्रवर्ती अत्यन्त प्रसन्न हुप्रा और बोला--तात! इतने मधुर और स्वादिष्ट फल तुम्हें कहाँ मिले, क्या ऐसे फल और भी हैं ? तापस सविनय बोला-राजाधिराज ! मेरे पास इस समय तो इतने ही फल हैं, किन्तु मेरे मठ में ऐसे अनेक प्रकार के स्वादिष्ट फलों की प्रचुरता है। यदि आप मेरे साथ चलें तो मैं पापको ऐसे फलों से तृप्त कर दूंगा।' चक्रवर्ती उसके साथ अकेला ही जाने के लिए तैयार हो गया। वे मंत्रियों ने बहुत रोका और समझाया, किन्तु उसने किसी की बात नहीं मानी और तापस के साथ एकाकी ही चल दिया । तापस उसे बीच समुद्र में ले जाकर घोर उपसर्ग करने लगा। अब चक्रवर्ती को रहस्य विदित हना। वह प्रत्याख्यान करके णमोकर मंत्र पढ़ने लगा। देव उसका कुछ नहीं बिगाड़ सका। वह समझ गया कि जब तक यह णमोकार मंत्र पढ़ता रहेगा, तब तक इसका कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। अतः वह बोला--प्ररे दुरात्मन् ! त जानता है, मैं वही सूपकारहूं, जिसे तुने उबलता हुया दूध डालकर मार डाला था। मैं तुझे छेड़ नहीं सकता। मैं