Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 377
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास 'कल्पसूत्र' में महाराज सिद्धार्थ की दिनचर्या की एक संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत की गई है। उसमें लिखा है'सूर्योदय के अनन्तर सिद्धार्थ राजा अवनशाला प्रति व्यायामशाला में जाते थे। वहाँ वे कई प्रकार के दण्ड, बैठक, मुद्गर चालन प्रादि व्यायाम करते थे। उसके अनन्तर वे मल्लयुद्ध करते थे। इसमें उनका पर्याप्त परिश्रम हो जाता था। इसके पश्चात् सतपक्व तैल-जो सौ प्रकार के द्रव्यों से निकाला जाता था-और सहस्रपक्व तैल-जो एक हजार द्रव्यों से तैयार किया जाता था-उससे मालिश करवाते थे। यह मालिश रस रुधिर आदि धातुओं को प्रीति करने वाला, दीपन करने वाला, बल की वृद्धि करने वाला और सब इन्द्रियों को पाल्हाद देने वाला होता था। व्यायाम के पश्चात् वे स्नान करते थे। उपरान्त वे देवोपासना (देव पूजा) में समय लगाते थे। फिर शुद्ध सात्विक भोजन करके राजकाज में प्रवृत्त होते थे।' ऐसे शुद्ध सात्विक वातावरण में महावीर की प्रात्मिक साधना सतत सतेज होती जा रही थी। एक दिन कलिंग नरेश जितशत्रु अपनी प्रनिद्यसुन्दरी और यशोदया की सुकुमारी कन्या यशोदा को लेकर कुण्डग्राम पधारे । इन्द्र के समान बल और ऐश्वर्य के धारक एवं अपने सुहद् बन्धु के आगमन से महाराज सिद्धार्थ अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने बहनोई जितशत्रु का हार्दिक स्वागत किया। जितशत्रु महावीर के जन्मोत्सव के पुण्य अवसर पर भी पाये थे। उन्होंने तभी मन में संकल्प कर लिया था कि यदि भाग्य से मेरे घर में पुत्री का जन्म होगा तो मैं उसका विवाह कुमार वर्धमान के साथ करूँगा। उनकी कामना सफल हुई और कुछ वर्षों के अनन्तर सुरबाला सी कमनीय यशोदा नामक कन्या ने जन्म लिया। कन्या क्या थी, मानो रति ही मानवी बनकर अवतरित हुई थी। अपनी उसी कन्या को लेकर जितशत्रु मन में कामना संजोये राजकुमार के लिए समर्पित करने माये थे। उन्होंने महाराज सिद्धार्थ से अपना मनोरथ निवेदन किया । सुनकर महाराज अत्यन्त पाल्हादित हुए। महारानी त्रिशला भी राजकुमारी यशोदा के गुण, शील और सौन्दर्य पर मोहित थीं। उनके मन में ऐसी सुलक्षणा पौर शुभ्र तारिका सी कुमारी को अपनी पुत्र-वधू बनाने की ललक जाग उठी। किन्तु 'विधना के मन कछु और है, मेरे मन कौर।' एक दिन अनुकल अवसर देखकर महाराज सिद्धार्थ अपने प्रिय पुत्र से बोले-'प्रियदर्शी कुमार! प्रब तुम्हारी वय विवाह योग्य हो चुकी है। हमारी इच्छा है कि तुम अब गहस्थाश्रम में प्रवेश करो जिससे वंश परम्परा चले।' कुमार पत्यन्त विनय और शालीनता के साथ कहने लगे-'पूज्यपाद! इस नश्वर जीवन के क्षण क्या भोगों के लिए समर्पित करने से सार्थक हो पायेंगे ? मैं इसी जीवन में प्रमतत्व की प्राप्ति के लिये साश्त करना चाहता है। में विवाह नहा, मायका माशोदि चाहता है कि मैं अपने लक्ष्य की प्राप्ति शीघ्र कर सकूँ।' सुनकर पिता की उमंग पौर माता की ललक पर तुषारपात होगया । महाराज जितशत्रु निराश हो गये । मोर किशोरी यशोदा! उसके सुख-स्वप्न ही मानो टूट गये । कितनी हसरतें लेकर आई थी वह यहाँ पर लेकिन सारी हसरतें विखर गई, सारी तमन्नायें मुरझा गई। राजकुमारी यशोदा को कुमार महावीर के निश्चय से हार्दिक दुःख हमा। उसने सांसारिक भोगों से विरक्त होकर बाद में प्रायिका दीक्षा ले ली। कलिंग नरेश जितशत्र भी महावीर के निर्णय से निराश होकर संसार से विरक्त हो गये । किन्तु लगता है, उन्होंने तत्काल दीक्षा नहीं ली। जन शास्त्रों में ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि तोषल नरेश जितशत्रु ने तीर्थंकर महावीर को अपने प्रदेश में धर्म प्रचार के लिए निमन्त्रण दिया । फलत: प्रभु महावीर तोषल गये पौर वहां से वे मोषल गये और फिर कुमारी पर्वत पर भगवान का धर्मोपदेश हुमा । वहाँ जितशत्रु ने प्रभु के चरण सान्निध्य में दीक्षा ले ली और घोर साधना द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो गये। जैन शास्त्रों के इस उल्लेख से यह निष्कर्ष निकलता है कि भगवान महावीर द्वारा दीक्षा लेने के बहुत वर्षों के पश्चात् जितशत्रु ने दीक्षा ली थी। सम्भव है, कुमारी यशोदा ने भी अपने पिता के साथ ही संयम धारण किया हो किन्तु यह तो निश्चित है कि जब जितशत्रु अपनी पुत्री के विवाह सम्बन्ध के लिये कुण्डग्राम पाये थे, तभी राजकुमारी ने अपने मन में महावीर को पति रूप में स्वीकार कर लिया था और अपने पाराध्यदेव द्वारा प्रस्ताव अस्वीकार किये जाने पर वह अन्य किसी राजकुमार के साथ विवाह करने के लिए उद्यत नहीं हुई और उसने भाजीवन कौमार्य व्रत धारण कर लिया।

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