Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 380
________________ गवान महावीर करने के लिए अत्यन्त उत्सुक था। वह महाराज उदामन की अनुपस्थिति में सिन्धु सौवीर को राजधानी, वीतभय नगर में पहुँचा और दासी से गुप्त विवाह करके उस मूर्ति को ले प्राया। किंन्तु इस घटना की सूचना मिलते ही महाराज उदायन ने चण्डप्रद्योत पर आक्रमण करके उसे बन्दी बना लिया किन्तु मूर्ति वहीं अचल हो गई। दासी किसी प्रकार बच निकली । मार्ग में जब उदायन को ज्ञात हुआ कि चण्डप्रद्योत जैनधर्मानुयायी है तो उसने उसे मुक्त कर दिया । इसके पश्चात् जीवन्स स्वामी की वह प्रख्यात मूर्ति कहाँ गई, इसकी कोई प्रामाणिक सूचना प्राप्त नहीं होतो । ३६५ कुछ वर्ष पूर्व कोटा से चन्दन की लकड़ी की बनी हुई जीवन्त स्वामी (महावीर) को मूर्ति प्राप्त हुई थो जो प्राजकल बड़ौदा के संग्रहालय में सुरक्षित है । यह प्रतिमा उस समय की बनो मानी जाती हैं, जब राजकुमार महावीर मुनि दीक्षा लेने से एक वर्ष पूर्व अपने प्रासाद में ध्यानमग्न खड़े थे । इसलिये इस मूर्ति में मुकुट, रत्नहार, आभूषण और शरीर के निचले भाग में वस्त्र दिखाये गये हैं। जीवन काल में बनाई हुई प्रतिकृति होने के कारण यह 'जीवन्त स्वामी की प्रतिमा' कहलाई । अर्थात् यह उनके जीवन काल में बनी थी। इसके बाद की ऐसी बनी हुई मूर्तियाँ 'जीवन्त स्वामी प्रतिमायें कहलाई। ऐसी प्रतिमायें और भी कई मिलती हैं । वैराग्य और दीक्षा- भगवान सब प्रायः तीस वर्ष के हो गये थे । एक दिन वे आत्म-चिन्तन में निमग्न थे । वे जन्म से ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के धारक थे । उन्होंने अवधिज्ञान से अपने पूर्वभवों को देखा। उन्होंने पूर्वभवों का ज्ञान करके विचार किया कि जीवन के ये श्रमूल्य तीस वर्ष मैन पारग्रह के इस निस्सार भार को वहन करते हुए अकारण ही गंवा दिये, किन्तु अब मैं एक क्षण भी इस भार को वहन नहीं करूंगा। मुझे श्रात्म कल्याण का मार्ग खोजना है और ग्रात्म साधना द्वारा आत्मसिद्धि का लक्ष्य प्राप्त करना है । 'उनके मन में निर्वेद की निर्मल धारा प्रवाहित होने लगी। तभी लोकान्तिक देव भगवान को सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने भगवान के चरणों में नमस्कार करते हुए कहा-प्रभो ! अब तीर्थ प्रवर्तन का काल आ पहुँचा है । जगत के प्राणी अज्ञान और मिथ्या विश्वासों के कारण राह भटक गये हैं । प्राप कर्म क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त करें और संसार के सन्तप्त प्राणियों को सुख एवं शान्ति का मार्ग दिखावें । यह निवेदन करके और भगवान को नमस्कार करके लौकान्तिक देव अपने आवास को लौट गये । तभी चारों जाति के देव और इन्द्र श्राये । इन्द्र ने भगवान को सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बैठाया। तब उनका कल्याण अभिषेक किया और स्वर्ग से लाये हुए अनर्घ्य रत्नालंकार और वस्त्र पहनाये और उन्हें चन्द्रप्रभा नामक शिविका में प्रारूढ़ किया। अभिनिष्क्रमण करने से पूर्व भगवान ने मधुर वचनों से बन्धुजनों को सन्तुष्ट किया प्रौर उनसे विदाली । तदनन्तर वे पालकी में सवार हुए। उस पालकी को सबसे पहले भूमिगोचरी राजाओं ने, फिर विद्याधर राजाओं ने उठाया और सात-सात पग चले। फिर उसे इन्द्रों ने उठाया और उसे आकाशमार्ग से ले चले। भगवान के दोनों ओर खड़े होकर इन्द्र चमर ढोल रहे थे। अभिनिष्क्रमण को इस पावन वेला में असंख्य देव-देवियां, मनुष्य और स्त्रियां भगवान के साथ चल रहे थे। इस प्रकार भगवान ज्ञातृ षण्ड वन में पहुंचे जो कुण्डग्राम (क्षत्रिय कुण्ड) के पूर्वोत्तर भाग में ज्ञातृवंशी क्षत्रियों का उच्चान था। वहाँ पहुँच कर भगवान पालकी से उतर पड़े और एक शिला पर उत्तराभिमुख होकर बैला का नियम लेकर विराजमान हो गये। इस प्रकार मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन, जबकि निर्मल चन्द्रमा हस्त और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के मध्य था, सन्ध्या के समय उन्होंने वस्त्र, आभूषण और माला प्रादि उतार कर फेंक दिये, ॐनमः सिद्धेभ्यः' कहकर केशलु चन किया। और प्रात्म ध्यान में लोन हो गये । भगवान ने जो वस्त्राभूषण यादि उतार कर फेंके थे, सौधर्मेन्द्र ने वे उठा लिये तथा लुंचन किये हुए केशों को भी इन्द्र ने अपने हाथ से उठाकर मणिमय पिटारे में रक्खा और देवों के साथ स्वयं जाकर उन्हें क्षीरसागर में पथरा दिया । सब देव भगवान की स्तुति करके अपने-अपने स्थान को चले गये । भगवान ने एकाको ही दीक्षा ली थी। सयम धारण करते समय वे ग्रप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान में स्थित थे । उस समय उनकी श्रात्मा में निर्मल परिणामों के कारण परम विशुद्धि थी। फलतः उन्हें तत्काल मनः पर्यय ज्ञान प्रगट हो गया। उन्होंने वस्त्रालंकार उतार कर बाह्य परिग्रह का ही त्याग नहीं किया, बल्कि उन्होंने आभ्यन्तरपरिग्रह का भी त्याग कर दिया। बाह्य परिग्रह का त्याग तो माभ्यन्तर परिग्रह के त्याग का अनिवार्य फल था ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412