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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
बनना पड़ा। एक तो सिन्धु-सौवीर के वीतभयपट्टन से जीवन्त स्वामी की प्रतिमा का अपहरण, जिसके कारण उसे बन्दी बनना पड़ा और सिर पर 'मम दासीपतिः, इस लेख से अंकित स्वर्णपत्र लगाना पड़ा। दूसरा श्रविवेकपूर्ण कार्य मृगावती के शील हरण का प्रयत्न । जिसका परिणाम यह हुआ कि भगवान महावीर के उपदेश से उसे न केवल अपने कुटिल इरादों को छोड़ना पड़ा, वरन् अपने हाथों से मृगावती के पुत्र उदयन को राजमुकुट पहनाना पड़ा । इतना ही नहीं, उसके कुत्सित इरादों से क्षुब्ध होकर उसकी शिवादेवी श्रादि आठों रानियां महावीर भगवान के चरणसान्निध्य में प्रायिका बन गई पौर मृगावती ने भी दीक्षा ले ली। उदयन ने भी मपनी माता के अपमान का भयानक प्रतिशोध लिया। उसने चण्ड प्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता के साथ गुप्तरीति से विवाह करके उसका अपहरण कर लिया। यदि चण्ड प्रशांत अपने जीवन में ये अविवेकपूर्ण कार्य न करता तो सम्भवतः इतिहास में उसका गौरवपूर्ण स्थान होता ।
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संस्कृत के प्रसिद्ध नाटककार कषि मास ने चण्ड प्रद्योत की महारानी मृगावती को वैदेहीं कहा है क्योंकि वह विदेह की राजकन्या थी ।
tor प्रद्योत ने प्रवन्ती पर ४८ वर्ष तक शासन किया। उसकी मृत्यु उसी दिन हुई, जिस दिन भगवान महावीर का निर्वाण हुआ और उसी दिन अवन्ती के राजसिंहासन पर पालक राज्यासीन हुआ। वह चण्ड के दो अनुजों में छोटा था। चूँकि बड़ा भाई गोपाल जैन साधु गया था, अतः पालक राजा बना ।
जीवन्धरकुमार
हेमांगद देश के राजपुर नगर के नरेश जीवन्धरकुमार जैन धर्मानुयायी थे। एक बार विहार करते हुए भगवान महावीर वहाँ के सुरमलय नामक उद्यान में पधारे जोवन्बरकुमार सपरिवार भगवान के दर्शनों के लिए गये । वहाँ भगवान का कल्याणकारी उपदेश सुनकर उन्हें भोगों से रुचि हो गई और वे भगवान के समीप मुनि बन गये । उनके साथ उनके भाई नन्दाढ्य, मधुर मादि ने भी दीक्षा ले लो । जीवन्बर को माता विजया तथा उनकी आठों रानियाँ चन्दना के पास प्रार्थिका बन गई। भगवान के मोक्ष प्राप्त कर लेने के बाद मुनि जोवन्धर विपुलाचल पर पहुँचे । वहाँ समस्त कर्मों का नाश करके वे भी मुक्त हो गये। इस प्रकार सुदूर हेमांगद देश (वर्तमान कर्नाटक ) का राज परिवार भी भगवान का भक्त था ।
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उपर्युक्त राजाओं के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों और नगरों के अनेक नरेश समय-समय पर भगवान महावीर का उपदेश सुनने के लिये प्राते थे । अनेक राजपरिवारों में जैनधर्म कुलधर्म था । यंग, बंग, कलिंग, मगध, वत्स, काशी, कोशल, अवन्ती, शूरसेन, नागपुर, अहिच्छत्र, सुदूर-सिन्धु- सौवीर, चेर, पाण्ड्य श्रादि अनेक देशों के राजा भगवान के भक्त थे । वज्जि संघ, मल्ल संघ, काशी- कोल संघ, यौधेय प्रादि गणतंत्रों में महावीर की मान्यता सर्वाधिक थी। भगवान का निर्वाण होने के समय इन गणसंघों के प्रतिनिधि पावा में एकत्रित हुए थे और उन्होंने अपने गणसंघों की ओर से भगवान का निर्वाण महोत्सव मनाया था ।
अन्य नरेश गण
भगवान जब श्रावस्ती पधारे थे, तब वहाँ के राजा प्रसेनजित ने भगवान का पाद-वन्दन किया था और उसकी महारानी मल्लिका ने एक सभागृह बनवाया था. जिसमें तत्वचर्चा होती रहती थी ।
पोलाशपुर में जब भगवान का पदार्पण हुआ, तब वहाँ के राजा विजयन ने समवसरण में भगवान का उपदेश श्रवण किया था और भगवान की बड़ी भक्ति की थी। राजकुमार ऐमत्त तो भगवान का उपदेश सुनकर मुनि
बन गया था।
चम्पा नरेश कुणिक अजातशत्रु (श्रेणिक बिम्बसार का पुत्र ) भगवान के और राजचिन्हों से रहित होकर भगवान की मभ्यर्थना करने नगर के बाहर गया था
चम्पा में पधारने पर नंगे पैरों जब तक भगवान का समय
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