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भगवान महावीर
भगवान के निर्वाण-गमन के समय अनेक देवी देवताओं के कारण प्रकाश फैल रहा था तथा उस समय प्रतेक राजा वहाँ उपस्थित थे और उन्होंने द्रव्योद्योत किया था, इसका वर्णन करते हुए कल्पसूकार कहते हैं"जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर काल धर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुःख पूर्ण रूप में नष्ट हो गए, उस रात्रि में बहुत से देव और देवियां नीचे आ जा रही थी; जिससे वह रात्रि खून उद्योतमयों हो गई थी ।
"जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर काल धर्म को प्राप्त हुए यावत् उनके सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो गए, उस रात्रि में काशी के तो मत्स और कोसल के नौ लिच्छवी इस प्रकार कुल अठारह गण राजा श्रमावस्था के दिन काठ प्रहर का प्रोपधोपवास करके वहाँ रहे हुए थे। उन्होंने यह विचार किया कि भावोद्यात अर्थात् ज्ञानरूपी प्रकाश चला गया है, अतः हम सब द्रव्योद्योत करेंगे अर्थात् दीपावली प्रज्वलित करेंगे ।"
माचार्य हेमचन्द्र ने 'त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरित' के महावोर चरित भाग के सर्ग १२ में भगवान महावीर के निर्वाण काल की जो रिपोर्ट प्रस्तुत की है, वह विस्तृत तो है ही, उसमें उस समय घदिन सभी घटनाओं का विस्तृत ब्यौरा भी दिया गया है। अतः उसका उपयोगी प्रश पाठकों की जानकारी के लिए यहां दिया जा रहा है"भगवान विहार करते हुए पापा नगरी पहुंचे। अपारापुरी के अधिकारो हांस्तपाल का जब ज्ञात हुआ कि भगवान समवसरण में पधारे हैं तो वह भी उपदेश सुनने वहाँ गया। इसके बाद भगवान समवसरण से निकलकर हस्तिपाल राजा को शुल्कशाला में पधारे। भगवान ने यह जानकर कि आज रात्रि में मेरा निवांग होगा, गोतम का मेरे प्रतिप्रभवों से स्नेह है और उसे श्राज रात्रि के प्रन्स में केवलज्ञान होगा, मेरे वियाग से वह दुखा होगा, भगवान ने गौतम से कहा - " गौतम | दूसरे गाँव में देवशर्मा ब्राह्मण है । उसका तू संवोध था। तेरे कारण उसे ज्ञान प्राप्त होगा ।" प्रभु के प्रादेशानुसार गतिम वहाँ से चले गये ।
"भगवान का निर्वाण हा गया । इन्द्र ने नन्दन आदि बना से लाये हुए गोशांर्ष, चन्दन आदि से चिता चुनी। क्षीर सागर से लाये हुए जल से भगवान को स्नान कराया, दिव्य अंगराग सारं शरार पर लगाया। विमान के प्रकार की शिविका में भगवान को मृत देह रक्खो । उस समय तमाम इन्द्र ओर देवा देवता शाक के कारण रो रहे थे। देवता श्राकाश से पुष्प वर्षा कर रहे थे । तमाम दिव्य बाजे बज रहे थे । शिविका क आग देवियों नृत्य करती चल रही थीं ।
"श्रावक और श्राविकार्य भी शोक के कारण रो रहे थे और रासक गीत गा रहे थे। साधु और साध्वियां भी शोकाकुल थे।"
"तब इन्द्र ने शोकाकुल हृदय से भगवान का शरीर चिता पर रख दिया। अग्निकुमारों ने चिता में भाग लगाई। वायुकुमारों ने आग को हवा दी। देवताओं ने धूप मौर घा के सैकड़ों घड़े चिता में डालें। शरीर के जल जाने पर मेघकुमार देवों ने क्षीर-समुद्र के जल की वर्षा करके चिता का शान्त किया। भगवान के ऊपर को दो बाढ़ सोधर्म और ऐशान इन्द्रों ने लीं भोर नीचे की दोनों दाढ़े चमरेन्द्र और बलोन्द्र ने लो। अन्य दांत और हड्डियां दूसर इन्द्रों और देवों ने लीं। मनुष्यों ने चिता भस्म ली । जिस स्थान पर चिता जुलाई, उस स्थान पर देवों ने रत्नमय स्तूप बना दिया। इस प्रकार देवताओं ने वहां भगवान का निर्वाण महोत्सव मनाया ।"
भगवान की निर्वाण प्राप्ति चरम पुरुषार्थ था । इस अवसर्पिषो काल में अन्तिम तीर्थकर का यह निर्वाण कल्याणक था, अतः देवी-देवताओं के अतिरिक्त असंख्य भक्त पुरुष और स्त्रियाँ भगवान को अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पण करने और उनका निर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाने पावा में एकत्रित हुए थे। भगवान का निर्वाण कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अन्तिम प्रहर में हुआ था । ग्रतः देवों ने रत्नदीप संजोकर अन्धकार का नाश किया और प्रकाश किया । उसी दिन अमावस्या की रात्रि को भगवान के मुख्य गणधर इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान हुआ। मनुष्यों ने दीपावली प्रज्वलित करके श्रौर देवों ने रत्नदीप संजोकर दीपावली को और गौतम स्वामी का केवलज्ञान महोत्सव मनाया। इस प्रकार दो रात्रियों में दोपावलो प्रज्वलित की गई। वन से मनुष्यलोक में दीपावली का पावन पर्व प्रचलित हो गया। प्रतिवर्ष मनुष्य भगवान महावीर के निर्वाण का पोत्सव उल्लासपूर्वक मनाने लगे
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