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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
एवं चतुर्दशी को छोटी दोपायलो और अमावस्या को बड़ी दीपावली मनाने लगे । इस प्रकार अब तक भारत में भगवान महावीर के निर्वाण की स्मृति सुरक्षित रूप में चली आ रही है।
भगवान महावीर के यक्ष-यक्षिणी- भगवान महावीर के सेवक यक्ष का नाम मातंग है और सेविका यक्षिणी का नाम सिद्धायनी अथवा सिद्धायिका है ।
प्रतिष्ठा पाठों में इन यक्ष-यक्षिणी का स्वरूप इस प्रकार बताया है-
मातंग यक्ष
" मुद्गप्रभो मूर्द्धनि धर्मचक्र, विश्वत्फलं वामकरेऽथ यच्छन् । वरं करिस्थो हरिकेतु भक्तो, मातङ्गयक्षोऽङ्गसु तुष्टिमिष्टया ||
- वास्तुसार २४ अर्थात् मातंग यक्ष नीला वाला सिर पर धारण करने वाला, यांचे हाथ में विजौरा फल धारण करने वाला और दांया हाथ वरदान मुद्रा में, गज की सवारी करने वाला और भगवान की धर्मध्वजा की रक्षा करने वाला है ।
सिद्धायिका देवी
"सिद्धाविकां सप्तकताङ्ग-जिनाश्रयां पुस्तकदानहस्ताम् ! feat सुभासनमत्र मजे, हेमधुति सिंहर्गात यजेऽहम् ॥
वास्तुसार, २४
वह सुवर्ण वर्णवाली, पुस्तक और दांया हाथ
अर्थात् सात हाथ ऊंचे महावीर स्वामी की शासनदेवी सिद्धायिका नामक देवी है। भद्रासन से बैठी हुई, सिंह की सवारी करनेवाली और दो भुजावाली है। उसके वांये हाथ में वरदान मुद्रा में है ।
यद्यपि यहाँ सिद्धायिका देवी को दो भुजावाली बताया है, किन्तु शिल्पकार ने शास्त्रों के इस बन्धन को na स्वीकार किया है। यद्यपि चक्रेश्वरी, श्रम्बिका श्रौर पद्मावती की अपेक्षा सिद्धायिका की मूर्तियां श्रल्पसंख्या में मिलती हैं, किन्तु जो मिलती हैं, उनमें सर्वत्र यह देवी द्विभुजी नहीं मिलती, वह बहुभुजी भी मिलती है । खण्डगिरि में तो यह षोडशभुजी भी मिली है। शास्त्रों में इन शासन देवताओंों का जो रूप निर्दिष्ट किया है, उसे केवल प्रतीकात्मक ही स्वीकार किया जाना उचित होगा, किन्तु मूर्तिकारों ने शास्त्रीय विधानों की परिधि से धागे बढ़कर और शास्त्रीय बन्धनों से अपने आपको मुक्त करके अपनी इच्छानुसार इनकी मूर्तियां निर्मित की हैं। इस बात को हमें सदा स्मरण रखना चाहिये ।
भगवान महावीर के कल्याणक स्थान
हम पूर्व में कह आये हैं कि भगवान महावीर का जन्म वैशाली गणसंघ के क्षत्रिय कुण्डग्राम में हुआ था । भ्रमवश दिगम्बर समाज ने नालन्दा के निकट कुण्डलपुर को नाम साम्य के कारण कुछ शताब्दियों से भगवान का जन्म स्थान मान लिया है। इसी प्रकार श्वेताम्बर समाज ने लिन्छुग्राड़ को जन्म कल्याणक जन्मकल्याणक स्थान स्थान मान लिया है। दोनों ही समाजों की मान्यता भ्रममूलक है। दोनों ही सम्प्रदायों के शास्त्रों में 'कुण्डग्राम को विदेह में माना है, जबकि कुण्डलपुर मगन में था और लिन्छुग्राड़ अंग देश में । दिगम्बर शास्त्रों के अनुसार भगवान ने प्रथम पारणा कूलग्राम या कूर्मग्राम के राजा कूल के यहाँ किया था । कुण्डलपुर के निकट कूर्मग्राम नामक कोई स्थान नहीं है, जबकि वैशाली के निकट कर्मारग्राम नामक सन्निवेश था । इसी प्रकार श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार भगवान का प्रथम पारणा कोल्लाग सन्निवेश में हुआ था । कोल्लाग नामक सन्निवेश उस समय दो थे- एक वैशाली में और दूसरा गया के पास वर्तमान कुलुहा पर्वत । लिच्छझाड़ से ये दोनों ही कोल्लाग काफी दूर पड़ते थे। वैशालीवाला कोल्लाग लगभग चालीस मील पड़ता था और गया