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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास की दूरी पर उत्सर की मोर क्षत्रिय कुण्ड और काकली नामक स्थान है। जमुई और राजगृह के बीच सिकन्दरा गांव है। सिकन्दरा और लक्खीसराय के मध्य में आम्रवन है। कहा जाता है कि इस प्राम्रवन में भगवान महावीर ने तपश्चरण किया था। प्राज भी यहां के निकटवर्ती लोग इस बन को पावन मानकर इसके वृक्षों की पूजा करते हैं। जमुई के दक्षिण में लगभग ४-५ मील की दूरी पर एक केवाली नामक ग्राम है, जो महावीर के केवल ज्ञानो त्पति स्थान को स्मृति को बनाये रखने के लिये ही प्रसिद्ध हुमा होगा। वहां के निवासी भी कहते हैं कि यही केवाली भगवान महावीर का केवलज्ञान स्थान है। वैशाख शुक्ला दशमी के दिन यहाँ सामूहिक रूप से उत्सय भी मनाया जाता है। जमुई से राजगह लगभग ३० मील की दूरी पर है । जमुई चम्पा के भी निकट है।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जमुई का निकटवर्ती केवाली स्थान ही वस्तुत: भगवान महावीर का केवल ज्ञान-प्राप्ति स्थान है।
निर्वाण कल्याणक स्थान-भगवान महावीर का निर्वाण पाया में हुआ था। जैन शास्त्रों में इसे मध्यमा पावा बतलाया गया है। दिगम्बर शास्त्रों में भी मनेक स्थलों पर मध्यमा पावा के नाम से ही महावीर के निर्वाण स्थल का उल्लेख मिलता है।
प्राकृत प्रतिक्रमण में इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उल्लेख प्राप्त होता है'पावाए मज्झिमाए हत्थवालिसहाए णमंसामि अर्थात् मध्यमा पाबा में हस्तिपाल की सभा में स्थित महावीर को मैं नमस्कार करता है। पं० प्राशाधर ने क्रिया कलाप (पु०५६) में इसी बात का समर्थन किया है-- याबायां मध्यमाया हस्तिपानिपानमस्पादि। श्वेताम्वर प्रागमों में तो सर्वत्र मध्यमा पावा के नाम से ही भगवान के निर्वाण-स्थल का उल्लेख मिलता है। 'कल्पसूत्र में बताया है'तत्य ण जे से पावाए मज्झिमाए हस्तिवालस्स रनो रज्जुगसभाए अपच्छिम अंतरावासं उबागए।
मध्यमा पावा कहने का माशय यह निकलता है कि उस समय पावा नामक तीन नगर थे। भागम प्रत्थों और स्थल कोषों के अनुशीलन से इन तीन पाया नगरों की स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। प्रथम पावा उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में सठियांव-फाजिल नगर के स्थान पर मल्लों की पावा थो और यह मालगण संघ को एक राजधानी थी।मरी पावा भगिदेश की राजधानी यो । वर्तमान हजारीबाग और मानभूम जिल इमो में सम्मिलिन थे। तीसरी पावा मगध में थी और यह दोनों पावानी के मध्य में थी। पहलो पावा इसके प्राग्नेय कोण में और दसरा इसके वायव्य कोण में लगभग समदूरी पर थी। इसी कारण यह तीसरी पावा मध्यमा पावा कहलाती थी। " श्वेताम्बर प्रागमों के अनुसार महावीर पावा में दो बार पधारे थे 1 प्रथम बार जंभिक ग्राम में केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात अगले ही दिन यहाँ पधारे। यह जम्भिक ग्राम से बारह योजन दर थी 1 उन दिनों मध्यम पावा में प्रार्य सोमिल बड़ा भारी यज्ञ कर रहा था। उसमें अनेक विद्वान सम्मिलित हुए थे। उन्हें सम्बोधित करने महाबीर जम्भिक ग्राम से चलकर एक दिन रात में पावा पहुंचे । वैशाख शुक्ला १० को जुम्भिक ग्राम में समवसरण लगा और वंशाख शक्ला ११ को मध्यमा पावा के महासेन उद्यान में दूसरा समवसरण लगा। इसमें इन्द्रभूति आदि ग्यारह विद्वान अपने ४४०० शिष्यों के साथ भगवान से शास्त्रार्थ करने पहुंचे। किन्तु वहाँ पहुँचते ही वे भगवान के शिष्य बन गये । इस प्रकार प्रथम दिन ही भगवान के ४४११शिभ्य बने । इसी दिन महावीर ने मध्यमा पाबा के महासेन उद्यान में चतुर्विध संघ की स्थापना की।
दूसरी बार महावीर चम्पा से बिहार कर मध्यमा पावा पहुंचे। इस वर्ष का वर्षावास हस्तिपाल राजा की रज्जुगशाला में किया पौर यहीं उनका निर्वाण हमा।
श्वेताम्बर प्रन्यों के इस विवरण से यह स्पष्ट झात होता है कि जृम्भिक ग्राम से पावा की दूरी इतनी होनी चाहिए, जिसे एक दिन में पूरा करके पावा पहुंचा जा सके । वृम्भिक (वर्तमान अमुई) से बर्तमान पावापुरी को दूरी लगभग ५०-६० मील के लगभग है।