Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 406
________________ भगवान महावीर के निकट वाला इससे भी दूर । भगवान ने गाय षण्डमन ग्रथवा ज्ञातखण्डवन में दीक्षा ली थी। कुण्डलपुर या लिच्छुबाड़ के निकट कोई ज्ञातखण्डवन नहीं था, यह तो वैशाली के बाहर जातृवंशी क्षत्रियों का उपवन था । ३९१ श्वेताम्बर शास्त्रों के अनुसार भगवान दीक्षा लेकर कमरग्राम, कोल्लाग सन्निवेश, मोराक सन्निवेश होते हुए अस्थिक ग्राम में पहुँचे और वहाँ प्रथम चातुर्मास किया । चातुर्मास के पश्चात् वे मोराक, वाचाला, श्वेतविका होते हुए राजगृह पहुँचे। वे राजगृह गंगा नदी पार करके गये थे। श्वेतविका श्रावस्ती से कपिलवस्तु जाते समय मार्ग में पड़ती थी और वहाँ से राजगृह जाने के लिए गंगा पार करनी पड़ती थी । कुण्डलपुर या लिच्छुगाड़ के निकट न तो श्वेतविका नगरी थी और न उबर से राजगृह जाते समय गंगा पार करनी पड़ती थी । 1 इन प्रमाणों के अतिरिक्त एक प्रमाण सर्वाधिक सबल है, जो भगवान को वैशाली में उत्पन्न हुआ सिद्ध करता है | श्वेताम्बर ग्रन्थों में उन्हें वैशालिक लिखा है । अतः यह निश्चित है कि भगवान महावीर का जन्म वैशाली के कुण्डग्राम अथवा क्षत्रियकुण्ड में हुआ था, न कि कुण्डलपुर या लिच्छुमाड़ म, जैसी कि निराधार कल्पना कर लो गई है । वैशाली के कुण्डग्राम में, जिसका वर्तमान नाम वासुकुण्ड है, भगवान महावीर के जन्म-स्थान की भूमि वहाँ के निवासियों ने शताब्दियों से सुरक्षित रख छोड़ी है। वह भूमि महत्य है अर्थात् वहाँ के कृषकों ने उस भूमि पर आज तक हल नहीं चलाया और शताब्दियों से उस भूमि को पवित्र मानकर वहां को जनता प्रतिवर्ष चैत्र सुदी त्रयोदशी को भगवान को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए उस भूमि पर एकत्रित होती है। इसलिये वैशाली के निकटवर्ती वर्तमान वासुकुण्ड (पूर्व कालीन क्षत्रियकुण्ड) को ही भगवान महावीर का जन्म कल्याणक स्थान मानना तर्कसंगत है । भगवान महावीर के जन्म-स्थान के समान उनके दीक्षा कल्याणक स्थान को भी लोगों ने भुला दिया है । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के ग्रन्थों में भगवान का दीक्षा स्थान णाय पण्डवन या ज्ञातखण्डवन माना है । ज्ञातखण्डवन क्षत्रियकुण्ड की पूर्वोत्तर दिशा में अवस्थित था और वह शातृवंशी दीक्षा कल्याणक स्थान क्षत्रियों का था । उस स्थान का अन्वेषण करने की श्रावश्यकता है। यह तो निर्विवाद है कि यह वन वर्तमान वासुकुण्ड के ईशान कोण में कहीं पर था । श्रन्य कल्याणक स्थानों के समान भगवान का केवलज्ञान कल्याणक स्थान भी अब तक अज्ञात रहा है । दिगम्बर समाज ने तो इस स्थान का बिलकुल हो विस्मरण कर दिया है। श्वेताम्बर समाज ने हजारीबाग जिले में पारसनाथ पहाड़ से दक्षिण-पूर्व में दामोदर नदी के किनारे एक जिनालय बनाकर उसे भगवान केवल ज्ञान कल्याणक का केवल शानोत्पत्ति स्थान मान लिया है। किन्तु वहाँ न जृम्भिक ग्राम है और न ऋजुवालुका नदी । दामोदर ऋजुबालुका का अपभ्रंश भी नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में यह विचारणीय है कि भगवान के केवल ज्ञानोत्पत्ति का स्थान कौनसा होना चाहिए। स्थान इस विषय में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है । वा० कामताप्रसाद करिया नगर को जृम्भक ग्राम मानते हैं और वाराकर नदी को ऋजुकूला नदी मानते हैं। उनका तर्क यह है कि जृम्भिक ग्राम वत्रभूमि में होना चाहिये । मुस्लिमकाल में जैन उस स्थान की यात्रा करते थे, ऐसे उल्लेख मिलते हैं। यद्यपि वे स्वयं इस विषय में असंदिग्ध नहीं हैं। श्री नन्दलाल डें भी झरिया को ही जृम्भिक ग्राम मानते हैं। कुछ लोग सम्मेद शिखर से दक्षिण-पूर्व में लगभग पचास मील पर भाजी नदी के पासवाले जमगाम को प्राचीन जृम्भिक ग्राम बताते हैं । वे आजो नदी को ऋजुवालुका का अपभ्रंश मानते हैं और जमगाम को जृम्भिक ग्राम का प्रपभ्रंश मानते हैं। आगम ग्रन्थों के अनुसार भगवान अपना बारहवाँ चातुर्मास चम्पा में व्यतीत करके चम्पा से विहार कर भियगांव और वहाँ से छम्माणि होकर मध्यमा पावा पहुंचे थे । जभियगांव से मध्यमा पावा बारह योजन ( पड़तालीस कोस ) दूर थी । इसलिये मुनि कल्याणविजय जी की धारणा है कि जंभियगांव, जहां पर भगवान को केवल ज्ञान हुआ था, चम्पा और मध्यमा पावा के मध्य कहीं होना चाहिये । डा० नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य की मान्यता है कि 'महावीर का केवल्य प्राप्ति स्थान वर्तमान मुंगेर से दक्षिण की ओर पचास मील की दूरी पर स्थित जमुई गांव है। यह स्थान वर्तमान विवल नदी के तट पर है। यह नदी ऋजुकूलर का अपभ्रंश है । विवल स्टेशन से जमुई गांव अठारह उन्नीस मील की दूरी पर स्थित है । जमुई से चार मील

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