Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 409
________________ ३९४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास १. मल्ल और लिच्छवो मगध राज्य के शत्रु थे । वे शत्रु देश मगध में किस प्रकार पा सकते थे ? २. पावा राजगृही के बिलकुल निकट है। तब वहाँ हस्तिपाल राजा कैसे हो सकता था ? ३. पावापुरी में पुरातत्व सम्बन्धी कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती । ४. मगधवासी होने पर भी अजातशत्रु मगधराज्य में स्थित पावा में महावीर के निर्वाणोत्सव में क्यों सम्मिलित नहीं हुआ । इन संभावनाओं अथवा शंकाओं का स्पष्टीकरण इस प्रकार है १. मल्ल और लिच्छवी संघ मगध साम्राज्य के शत्रु देश थे, यह सत्य है । श्रेणिक विम्बसार ने एक बार वैशाली पर श्राक्रमण भी किया था और वह उस अभियान में असफल हुआ था । किन्तु शत्रुता इस सीमा तक नहीं थी कि दोनों ओर के नागरिकों का एक दूसरे प्रदेश में जाना-आना वर्जित हो । पाटलिग्राम में दोनों देशों का सम्मिलित व्यापार था। सीही में आधे भाग में वज्जि संघ का शासन था और प्राधे भाग पर मगध का । दोनों प्रोर के नागरिक एक दूसरे के प्रदेश में निर्वाध आते जाते थे। श्रेणिक के काल में युद्ध काल को छोड़कर शान्ति काल में सम्वन्ध सामान्य थे। दोनों देशों में शत्रुता हुई अजातशत्रु के काल में और वह भी हल्ल, विहल्ल द्वारा भाग कर वैशाली में शरण लेने और प्रजातशत्रु द्वारा उन्हें सचेनक हाथी और रत्नहार समेत वापिस भेजने की मांग को वैशाली के गणपति चेटक द्वारा ठकराये जाने पर । निर्वाण के समय श्रेणिक का शासन था, न कि अजातशत्रु का । २. श्रेणिक विम्बसार के राज्य में ८०००० गांव थे। प्रत्येक गांव का जमींदार ही राजा कहलाता था । हस्तिपाल भी ऐसा ही कोई करद राजा रहा होगा । अतः राजगृही के निकट हस्तिपाल राजा के होने में कोई बाधा नहीं है । ३. पावापुरी में पुरातत्व सामग्री की कोई कमी नहीं है। वहाँ का जल मन्दिर और गांव का मन्दिर ही इसके प्रमाण हैं । जल मन्दिर में जब संगमरमर के पत्थर लगाये जा रहे थे तो मन्दिर की दीवालों में पन्द्रह इंच से बड़ी ईंटें मिलीं। ऐसा प्रत्यक्षदर्शियों का कथन है। इतनी बड़ी ईंटें गुप्तकाल या इससे पूर्व काल में प्रयुक्त होती थीं । इससे तो प्रतीत होता है कि यह मन्दिर गुप्तकाल या उससे भी पूर्ववर्ती है । इसी प्रकार गांव के मन्दिर की मरम्मत समय खुदाई में एक प्राचीन मन्दिर का अवशेष मिला था। वह पर्याप्त प्राचीन लगता है । इन दोनों मन्दिरों के सम्बन्ध में जानकारी रखने वाले प्रत्यक्षदर्शी भव भी मिल सकते हैं । इनके प्रतिरिक्त दिगम्बर जैन मन्दिर में चार मूर्तियाँ विराजमान है जो प्राठवीं शताब्दी की अनुमान की जाती हैं। ये मूर्तियाँ वर्तमान पावा के बाहर पड़ी हुई थीं। वहाँ से लाई गई थी, ऐसा ज्ञात हुआ। मुझे इस स्थान की अपनी शोधयात्रा में यह भी ज्ञात हुआ कि वहाँ अनेक जैन मूर्तियां थीं। उनमें से कुछ बेच दी गई और कुछ को लोग उठा ले गये और गांवों में कहीं किसी पीपल के नीचे विराजमान करके विभिन्न नामों से पूजी जा रही हैं। लगता है, पावापुरी के निकट प्राचीन काल में जैन मन्दिर थे। उन्हीं मन्दिरों की ये मूर्तियाँ हैं । कुछ ऐसे यात्रा विवरण मिलते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि ७-८ वीं शताब्दी में जैन संघ यहां यात्रा करने श्राते रहे हैं। इससे इस क्षेत्र की प्राचीनता में कोई सन्देह नहीं रह जाता । दूसरी ओर सठियांव में आजतक एक भी जैन मूर्ति, शिलालेख अथवा जैन मन्दिरों के कोई चिन्ह तक नहीं मिले। जो लोग संभावना पर जी रहे हैं, उन्हें निराशा भी हाथ लग सकती है। संभावना निश्चय-अनिश्चय रूप द्विमुखी होती है । ४. भगवान महावीर के निर्वाण के समय तत्कालीन शासक श्रेणिक विम्बसार पावा में उपस्थित थे और उन्होंने जनसमूह के साथ इस महोत्सव में भाग लिया था, इस प्रकार का उल्लेख हरिवंश पुराण ६६ / २० में मिलता है । हरिषेण कृत वृहत्कथाकोष के अनुसार श्रेणिक की मृत्यु महावीर निर्वाण के पश्चात् हुई थी। इस प्रकार ऐतिहासिक मौर शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि वर्तमान पावापुरी ही महावीर की निर्वाण-भूमि है ।

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