Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 400
________________ भगवान महावीर पौर लज्मा-निवारण का मूल पाप-प्रवृत्ति है। मैं पाप-प्रवृत्ति से मुक्त हूँ। उनकी यह निस्पृहता देखकर लोग उनके अनुयायी बनने लगे। उनका सिद्धान्त था प्रक्रियावाद । उनका मत था-कोई भी क्रिया की जाय, चाहे हिंसा की जाय, असत्य भाषण किया जाय, दान दिया जाय, यश किया जाय, उसमें न पाप लगता है, न पुण्य । कोई क्रिया सम्यक् या मिथ्या नहीं होती। क्रिया करने की जीव की प्रवृत्ति स्वाभाविक है। उससे कोई कर्मबन्ध नहीं होता। भावसंग्रह में उसका परिचय इस प्रकार दिया गया है मस्करी गोपालक पानाथ परम्परा के मुनि थे। जब भगवान महावीर का प्रथम समवसरण लगा, गोशालक उसमें उपस्थित थे। वे प्रष्ट्रांग निमित्तों और ग्यारह मंगों के धारी थे। प्रथम समवसरण में भगवान का उप. देश नहीं हमा, अतः वे वहां से हष्ट होकर चले गये । सम्भवतः उनके रोष का कारण यह हो मंक्वलि गोशालक कि वे गणधर बनना चाहते थे किन्तु उनकी यह इच्छा पूर्ण नहीं हुई। वे पृथक् होकर श्रावस्ती में पहँचे और वहाँ माजीवक सम्प्रदाय के नेता बन गये। वे अपने प्रापको तीर्थकर कहने लगे और विपरीत उपदेश देने लगे । उनका मत था-शान से मुक्ति नहीं होती, अजान से मुक्ति होती है। देव (भगवान) कोई नहीं है। प्रतः शून्य का ध्यान करना चाहिए। वेताम्बर शास्त्रों के अनुसार उनके पिता का नाम मखली और माता का नाम सुभद्रा था। बे चित्रफलक लेकर घूमा करते पार उससे अपनी प्राजीविका करते। एक बार वे सरवण ग्राम में गोबहल ब्राह्मण की गोपाला में ठहरे। कुछ समय पश्चात् सुभद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया। गोशाला में उत्पन्न होने के कारण उसका नाम गोशालक रक्खा गया। जब वह यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ, वह पानी उद्दण्ड प्रकृतिवश माता-पिता से कलह किया करता था। उसने भी एक चित्रपट तैयार कराया और प्राम-ग्राम में बिहार करता हया नालन्दा में उसी तन्तुवायशाला में ठहरा, जिसमें भगवान महावीर अपना द्वितीय चातुर्मास कर रहे थे। भगवान मासोपवासी थे। उनका पारणा मिला माथापति राहाँ जान देनों पंगाना किये । गोशालक भी दर्शकों में उपस्थित था। भगवान का ऐसा अचिन्त्य प्रभाव देखकर गोशालक भगवान के निकट पहुँचा और बोला-"भगवन ! प्राज से आप मेरे धर्म गुरु और मैं पापका शिष्य । माप मुझे अपनी चरण-सेवा का अवसर प्रदान करें।" किन्तु भगवान मौन रहे। वह प्रभु के साथ इस प्रकार लगा रहा मोर तपस्या करके जब उसे तेजोलेश्या प्राप्त हो गई तो वह अलग हो गया और अपने आपको जिन, केवली और तीर्थंकर कहने लगा। वह प्राजीवक मत का समर्थक बनकर नियतिवाद का प्रचारक बन गया। एक बार उसने क्रोधवश भगवान के ऊपर तेजोलेश्या छोड़ी, जिससे भगवान को छह माह तक दाह जन्य वेदना हुई और रक्तातिसार की बाधा हो गई। गोशालक ने भगवान के ऊपर जो तेजोलेश्या छोड़ी थी, वह भगवान के प्रमिट तेज के कारण उन पर कोई असर नहीं कर सकी, बल्कि वह गोशालक को जलातो हुई उसी के शरीर में प्रविष्ट हो गई। उसी की तेजो लेश्या उसी के लिए घातक सिर हुई। वह वहां से निराश और दाह से पीड़ित होता हुमा वेदना से आनन्दन करता हुआ इधर-उधर फिरने लगा। वह हालाहला कुम्हारिन के कुम्भकारायण में पहुँचा । वह दाह-शान्ति के लिए कच्चा आम चूसता हुअा, मद्यपान करता हुमा, अनर्गल प्रलाप करता हुआ शीतल जल से अपने शरीर का सिंचन करने लगा। उसने प्रलाप करते हुए पाठ चरम बतलाये । किन्तु सातवीं रात्रि को उसका मिथ्यात्व दुर हया और वह पश्चात्ताप करता हुआ कहने लगा -'मैंने अभिमानवश अपने पापको जिन घोषित किया, यह मेरी भूल थी। वस्तुतः महावीर ही जिन हैं। उसी रात्रि में उसकी मृत्यु हो गई। गोशालक द्वारा प्रचारित पाजीवक सम्प्रदाय उसकी मृत्यु के पश्चात् भी पर्याप्त समय तक जीवित रहा । बराबर पहाड़ी पर सम्राट शोक ने माजीवक साधुषों के लिए तीन गुफायें बनवाई थीं। कौशाम्बी के उत्खनन में आजीवकों का एक बिहार निकला है। कहा जाता है, इस बिहार में पांच हजार पाजीवक भिक्ष रहते थे। किन्तु पाणीवक सम्प्रदाय किन परिस्थितियों में किस काल में लुप्त हो गया, यह मभी तक निश्चित नहीं

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