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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास हो पाया। इस सम्बन्ध में इतना तो विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि प्राजीवक मत के सिद्धान्तों पर जैनधर्म
सिद्धान्तों का प्रभाव था। उसका स्वयं का कोई आधार नहीं था पीर निराधार सम्प्रदाय अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता । श्राजीवक सम्प्रदाय ने भी संघर्ष की परिस्थिति में अपनी उपयोगिता खोदी और उसके अनुयायी जो संख्या की दृष्टि से अत्यन्त अल्प रह गये थे-जैनधर्म के अनुयायी बन गये।
आजाधक मत के सिद्धानों में कोई स्वतन्य ग्रन्थ नहीं मिलता। इसका कारण सम्भवतः यह रहा है कि महावीर के काल में नन्य-रचना की परम्परा प्रचलित नहीं हुई थी। गुरु-मुख से शास्त्रों का अध्ययन होता या । इसी कारण गोशालक ने भी किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की थी। किन्तु फिर भी श्वेताम्बर और बौद्ध ग्रन्थों में उसके सिद्धान्तों और उनके साधुओं की चर्चा के बारे में कुछ स्फुट उल्लेख प्राप्त होते हैं। उनके अनुसार प्राजीवक साधु नग्न रहते थे, हाथों में भोजन करते थे, शिष्टाचारों को दूर रखकर चलते थे। वे अपने लिए बनबाया पाहार नहीं लेते थे। जिस बर्तन में आहार पकाया गया हो, उसमें से उसे नहीं लेते थे। एक साथ भोजन करने वाले युगल से, गर्भवती स्त्री से, दुधमहे बच्चे वाली स्त्री से आहार नहीं लेते थे। जहाँ आहार कम हो, कुत्ता खड़ा हो, मक्खियां गिनभिनाती हों, वहां से ग्राहार नहीं लेते थे। मत्स्य, मांस, मदिरा, मैरेय और खट्टी काजो ग्रहण नहीं करते थे। वे विविध उपवास करते थे। उनके गृहस्थ लोग अरिहन्त को देव मानते थे, माता-पिता की सेवा करते थे । गुलर, बड़, बेर, अंजीर और पिलख इन पांच फलों का भक्षण नहीं करते थे। बैलों के नाक कान नहीं छेदते थे और जिसमें इस प्राणियों की हिसा हो, ऐसा व्यापार नहीं करते थे।
गोशालक नियतिवाद का समर्थक था। उसका सिद्धान्त था-'अपवित्रता के लिए कोई कारण नहीं होता, कारण के बिना ही प्राणी अपवित्र होते हैं । प्राणी की शुद्धि के लिए भी कोई कारण नहीं होता । कारण के बिना ही प्राणी शुद्ध होते हैं। अपनी सामर्थ्य से कुछ नहीं होता, न दूसरे के सामर्थ्य से कुछ होता है । पुरुषार्थ से भी कुछ नहीं होता। सभी प्राणी अवश हैं, बलहीन हैं, सामर्थ्यहीन हैं। वे नियति (भाग्य) और स्वभाव के कारण परिणत होते हैं और सुख-दुःख का उपभोग करते हैं।
ये उच्छेदवाद के प्रवर्तक थे । केशों का बना कम्बल धारण करने के कारण ही ये अजित केशकम्बली कहलाते थे । इनका सिद्धान्त था-"दान, यज्ञ और हवन आदि में कोई सार नहीं है। बुरे या अच्छे कमों का फल
नहीं होता। इहलोक-परलोक, स्वर्ग, नरक आदि कुछ भी नहीं है। मनुष्य चार भूतों का अजित केशकम्बल बना हुआ है। जब वह मरता है, तब उसमें रहने वाली पृथ्वी धातु पच्दी में, जल धातु
जल में, तेजो धातु तेज में और वायु धातु वायु में जा मिलते हैं तथा इन्द्रियां पाकाश में चली जाती हैं। जो कोई ग्रास्तिकवाद बतलाते हैं, उनका कथन मिथ्या और वृथा है। शरीर के नाश के बाद मनुष नष्ट हो जाता है। मृत्यु के अनन्तर उसका कुछ भी शेष नहीं रहता।
कुछ विद्वानों की धारणा है कि अजित केशकम्बली ही नास्तिक दर्शन के प्राद्य प्रवर्तक थे। प्राचार्य वहस्पति ने इनके ही सिद्धान्तों का विकास किया है।
ये परद्ध बक्ष के नीचे पैदा होने के कारण पऋद्ध कात्यायन या प्रक्रुद्ध कात्यायन कहलाते थे। जैन शास्त्रों में इनका नाम प्रक्र द्ध कात्यायन मिलता है। बौद्ध ग्रन्थ इनका नाम पद कात्यायन बतलाते हैं। उनके
मतानुसार प्रऋद्ध उनका नाम था और कात्यायन उनका गोत्र था। इनका सिद्धान्त या प्रऋद्ध कात्यायन -"सात पदार्थ किसी के द्वारा बनाये हुए नहीं हैं। वे कूटस्थ और अचल हैं। वे एक दूसरे
को सुख-दुःख नहीं देते, एक दूसरे पर प्रभाव नहीं डालते । पृथ्वी, पप, तेज, वायु, सुख-दुःख एवं जीव ये सात पदार्थ हैं। इन्हें कोई नष्ट नहीं कर सकता, कोई किसी का सिर नहीं काट सकता, न कोई किसी के प्राण ले सकता है। अस्त्र-शस्त्र मारने का अर्थ है सात पदार्थों के बीच के अवकाश में प्रस्त्र-शस्त्र का प्रविष्ट होना 1 उक्त सातों पदार्थ के संयोग से मनुष्य को सुख होता है और इनके वियोग से दुःख होता है। ये मन्योन्यवादी थे।
संजय बेलहिठपुत्र-सम्भवतः संजय इनका नाम था मौर के लठि के पुत्र थे। बीड अन्थों में ऐसे