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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
नवल कुमाल की माता भद्रा ने खरीद लिए और अपनी पुत्रवधुओं के लिए उनकी जूतियाँ बनवा दीं।
चम्पा में राजकुमार महाचन्द्र ने भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की। सिन्धु सोयोर के नरेश उद्रायण भगवान के भक्त बन गये । वाराणसी में वहां के नरेश जितशत्रु, चुल्लिनी पिता, उनकी भार्या श्यामा, सुरादेव और उनकी पत्नी धन्याने धावक के व्रत ग्रहण किये। प्रालभिया के नरेश जितवानु भगवान के भक्त बन गए। राजगृह में मंकाई, फिकल अर्जुन माली, काश्यप, गाथापति चरदत श्रादि ने संयम धारण किया । नन्दन मणिकार ने श्रावक के व्रत ग्रहण किए राजगृह में राजा श्रेणिक के परिवार के अनेक राजकुमार और रानियों ने दीक्षा ली। काकन्दी का राजा जितशत्रु भगवान का भक्त बना। सार्थवाह धन्यकुमार अपनी सुन्दर ३२ स्त्रियों का त्याग करके मुनि बना पोलासपुर के सद्दाल पुत्र ने दीक्षा ली। राजगृह के महाशतक गाथापति ने श्रावक धर्म ग्रहण किया। राजगृही में अनेक वैदिक परिभ्राजक दीक्षित हुए। उत्कृष्ट कोटि का विद्वान स्कन्दक मुनि बन गया | चम्पा में मगध सम्राट कुणिक ने भगवान के कुशल समाचार जानने के लिए कर्मचारी नियत कर रखे थे। भगवान के कुशल समाचार सुनकर ही वह भोजन करता था। भगवान जब चम्पा पधारे, तब वह भगवान की वन्दना करने के लिए गया । यहाँ पर क्षणिक के १० पौत्रों और पालित जैसे प्रमुख व्यापारों ने मुनि दीक्षा ली। कुणिक के भाई हल्ल, बेहल्ल मोर १० रानियों ने दीक्षा ले ली । काकन्दी में गाथापति खं पोर तिघर ने प्रभु के पास मुनि दीक्षा ली। चम्पा में जब भगवान पुन पधारे उस समय अजातशत्रु और वैशाली मे युद्ध चल रहा था। उस समय काली प्रादि १० रानियों ने प्रजातशत्रु की श्राज्ञा लेकर श्रार्या चन्दना के निकट मार्या-दीक्षा ले ली।
जब भगवान हस्तिनापुर पधारे, वहाँ हस्तिनापुर का नरेश शिव राजर्षि, जो तापसी बन गया था, भगवान का उपदेश सुनकर मुनि वन गया। पृष्ठ चम्पा का राजा शाल श्रीर युवराज महाशाल मुनि बन गया। दशार्णंपुर के राजा ने मुनि दीक्षा ले ली। वाणिज्य ग्राम का विद्वान् और वेद-वेदांग का ज्ञाता सोमिल भगवान का उपदेश सुन कर उनका उपासक बन गया । कम्पिलपुर का अम्बड़ नामक परिव्राजक अपने सात सौ शिष्यों के साथ भगवान का उपासक बन गया | राजगृह में कालोदायी तैथिक मुनि बना । वाणिज्यग्राम के ही प्रसिद्ध धनपति सुदर्शन ने श्रमणदीक्षा अंगीकार की1 सावेत नरेश शत्रुंजय भगवान का भक्त था । यहाँ कोटिवर्ष का म्लेच्छ नरेश किरातराज श्राया हुआ या । वह भगवान का उपदेश सुनकर दीक्षित हो गया। मिथिला का राजा जितशत्रु भगवान का उपासक था । पावा में पुण्यपाल नरेश ने भगवान के चरणों में संयम धारण करके प्रात्मकल्याण किया ।
इस प्रकार न जाने कितने नर-नारियों ने भगवान का उपदेश सुनकर आत्म कल्याण किया ।
वौद्ध ग्रन्थ 'दीघनिकाय' के 'सामञ्च फलसुत्त' में महावीर (निम्गंठ नातपुत्त) के अतिरिक्त छह और तंथिकों का उल्लेख मिलता है। ये सभी श्रपने को तीर्थंकर या महंत कहते थे। ये प्रभावशाली धर्मनायक थे । इन्होंने नवीन पन्थों की स्थापना की थी । अथवा प्राचीन मतों के नेता बन गये थे। इन पन्थों या मतों का महावीर के सविस्तर विवरण दिगम्बर परम्परा के भावसंग्रह, श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन सूत्रसमकालीन तैथिक कृतांग, भगवती सूत्र, गुणचन्द्र विरचित महावीर चरियं तथा बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय, ममि निकाय आदि में विभिन्न रूपों में मिलता है। इन तेथिकों के नाम इस प्रकार थे- - पूर्ण काश्यप, मंक्खली गोशालक, अजित केशकम्बल, प्रबुद्ध कात्यायन, संजय वेलट्ठपुत्र और गौतमबुद्ध । इन धर्मनायकों में सभी का जीवन-परिचय तो नहीं मिलता, किन्तु इनके द्वारा प्ररूपित या प्रचारित मतों का विवरण अवश्य मिलता है। इनका परिचय इस प्रकार है
पूर्णकाश्यप- अनुभवों से परिपूर्ण मानकर जनता इन्हें पूर्ण मानतो थी और इनका गोत्र काश्यप था। ये नग्न रहते थे । इनके अनुयायियों की संख्या ८० हजार थी। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार ये एक प्रतिष्ठित गृहस्थ के पुत्र थे । एक दिन इनके स्वामी ने इन्हें द्वारपाल का काम सौंपा। इसे इन्होंने अपना अपमान समझा और ये विरक्त होकर वन में चले गए। मार्ग में चोरों ने इनके वस्त्र छीन लिए। तबसे ये नग्न रहने लगे। एकबार लोगों ने इन्हें पहनने के लिये वस्त्र दिए। किन्तु इन्होने वस्त्र वापिस करते हुए कहा -- वस्त्र धारण करने का प्रयोजन लज्जा निवारण है। उल्लेख मिलते हैं कि सारिपुत्र और मौद्गलायन अपने गुरु संजय परिव्राजक को छोड़कर बुद्ध के संघ में पाये ।