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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास नहीं कही । विरोध से विरोध उत्पन्न होता है। विरोध कषाय में से निपजता है. और उससे फिर कषाय निपजती है । महावीर तो विरोधों में समन्वय का अमृत तत्व लेकर आये । विरोध पाये और वे समन्वय के चरणों में झक गये। जिसके मन में सम्पूर्ण मानव समाज, मानव ही क्यों, विश्व के प्राणीमात्र की मंगल कामना हो, कल्याणकामना हो, उसका विरोध ही क्यों होगा। जिसने निजता का सर्वथा त्याग कर दिया, उसकी निजता को परिधि असीम अनन्त बन जाती है। जिसके भीतर और बाहर पन्थि नहीं रही, उसका भीतर और बाहर स्वच्छ और निर्मल होता है, उसकी अहंता और ममता नि:शेष हो जाती है, वही तो निग्रन्थ कहलाता है। महावीर ऐसे हो निर्ग्रन्थ थे, निर्ग्रन्थ ही नहीं, महा निर्ग्रन्थ थे । वे जो कहते थे, किसी विशेष जाति, वर्ग, वर्ण, देश, काल और प्राणी के लिए नहीं कहते थे। वे सबके लिये, सबके हित के लिये, सबके सुख के लिए कहते थे, सबकी भाषा में कहते थे, सबके बीच में बैठकर कहते थे । इसलिए उनके निकट सब पहुँचते थे, उनकी बात सब सुनते थे, सब समझते थे और सुनकर सब मानते थे।
अहिंसा माने प्रात्मौपम्य दर्शन अर्थात तुम्हारी पारमा में जो अमृतत्व की शक्ति छिपी है, तुम्हारी प्रात्मा को सुख दुःख की लो अनुभूति होती है, वही शक्ति दूसरी प्रात्मा में भी छिपी हुई है, दूसरी पात्मा को सुख-दुःख को वैसी ही अनुभूति होती है। वह शक्ति एक प्रात्मा अपने भीतर से प्रगट कर सकती है, तो दूसरो प्रात्मा भी अपने भीतर की उस शक्ति को प्रगट कर सकती है और इस तरह सभी प्रात्मायें उस शक्ति को प्रगट कर सकती है। शद्ध संकल्प की पावश्यकता है। इस स्वावलम्बी संकल्प में किसी अन्य शक्ति की अपेक्षा कहाँ ठहरती है। हमारी. शक्ति हमारे ही प्रबल पुरुषार्थ द्वारा जागेगी। स्वावलम्बन के इस तत्त्व से ही स्वाधीनता की उपलब्धि हो सकती है। स्वाधीनता का यही मूल तत्व, स्वाबलम्बन का यही तत्व दर्शन महावीर के उपदेशों का सारतत्व था। जिम प्रमतत्व को उस शक्ति को उजागर करना है, वह दूसरों का विरोध क्यों करेगा। उसको तो जीवन-दृष्टि में हो प्रामूल परिवर्तन आ जायगा। वह मन से, वचन से और कर्म से कोई ऐसी भावना, वचन या कार्य नहीं करेगा, जिससे दूसरे को पीड़ा हो, दूसरे का अहित हो, दूसरे का प्रकल्याण हो।
महावीर के उपदेशों का लोक जीवन पर जो प्रभाव पड़ा, उससे तत्कालीन समाज में प्रचलित विभिन्न सम्प्रदाय और धर्म, देश और जातियाँ भी अछूते नहीं रहे। इतिहासकार भी यह स्वीकार करते हैं कि बैदिक ब्राह्मणों को महावीर की हिंसा और जीवन सिद्धान्तों से प्रभावित होकर यज्ञ यागादि का रूप बदलना पड़ा। तब जो बदिक साहित्य निर्मित हुग्रा, उसमें ज्ञान यज्ञ को प्रमुखता दी गई, कर्मयोग को महत्व दिया गया और प्राधिभौतिक स्वरों के स्थान पर प्राध्यास्मिक स्वर गूंजने लगे। प्राचार और विचार दोनों ही क्षेत्रों में अहिंसा को मान्यता दी गई।
महावीर के सिद्धान्त यात्मवाद पर याधारित थे। वे प्रात्मा की अनन्त शक्तियों पर विश्वास करते थे। अचेतन को चेतन पर हावी नहीं होने देना चाहते थे और इसी प्रकार एक आत्मा पर अन्य किसी आत्मा का अधिकार स्वीकार नहीं करते थे। प्रात्मा के ऊपर किसी अन्य पारमा के अधिकार का अर्थ प्रात्मा की शक्तियों पर अविश्वास मानते थे। उनका यह सन्देश था कि प्रारमा अपने उत्थान और पतन का स्वयं उत्तरदायो है । यह सन्देश सार्वत्रिक और सार्वकालिक था। यह किसी वर्ग, वर्ण, जाति और देश से अतीत था। उन्होंने आत्मा को वर्ण, जाति
और घर्ग की सीमाओं में नहीं जकड़ा, आत्मा की शक्ति को भी इन बन्धनों में नहीं बांधा। महावीर के इस सिद्धान्त ने सभी वर्गों, सभी जातियों, सभी लिगों और सभी क्षेत्रों के निवासियों में अपना चरम और परम उत्कर्ष करने का प्रात्म विश्वास जगाया और सदियों की हीन भावना और परतन्त्रता के संस्कारों से सभी ने मुक्ति प्राप्त की। महावीर के इस प्रात्म समभावी शाश्वत सन्देश ने अन्त्यजों, शूद्रों से लेकर ब्राह्मणों तक, स्त्रियों और पुरुषों, यहाँ तक कि पशु पक्षियों तक में पात्मिक विकास की स्पृहा जगा दी। परिणाम यह हुमा कि महावीर के चरणों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य.वर्ण के पुरुष भी पाये और भील तथा शूद्रों में भी आत्म कल्याण किया। स्त्रियों ने भी प्रायिका दीक्षा लेकर अपने चरम पात्मोत्कर्ष के लिए पथ प्रशस्त किया। यहां तक कि मेंढक भी मुह में कमल की पंखुड़ी दबाये भगवान की पूजा की भावना के, अतिरेक से भगवान के समवसरण की पोर चल पड़ा। महत्त्व शरीर का