Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 393
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास पाया। दिगम्बर परम्परा में भगवान के माता और पिता की दीक्षा प्रथवा मत्यु का भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता। उदायन सिन्ध-सौवीर नरेश उदायन के साथ प्रभावती का विवाह हया था। उसकी राजधानी वीतभयपटन थी। प्रभावती प्रतिदिन जीवन्त स्वामी की प्रतिमा की पूजा किया करती थी। जब उसे अपनी ग्रासन्न मत्यु के बारे में निश्चय हो गया तो उसने वह प्रतिमा प्रपनी एक प्रिय दासी को सौंप दी और वह प्रायिका बन गई । एक दिन गान्धार से एक व्यापारी सिन्ध देश आया । वहाँ आकर वह बीमार पड़ गया। उसका उपचार उस दासी ने किया, जिससे प्रसन्न होकर उस व्यापारी ने कुछ प्रभत गोलियां दीं। एक गोषी खाते ही वह अनिन्द्य सुन्दरी बन गई। जब उसने दूसरी गोली स्वाई तो एक देवी उसके समक्ष प्रकट हुई और बोली--पूत्री! बता, तेरी क्या इक्छा है। दासी बोली-आप मेरे उपयुक्त कोई पति तलाश कर दीजिये। देवी बोली-तेरा विवाह प्रवन्ती नरेश चण्डप्रद्योत के साथ होगा। यथासमय चण्ड प्रद्योत माया चौर वह अपने हाथी अनलगिरि पर बैठा कर उस दासी तथा उस मृति को ले गया। कुछ दिनों पश्चात् यह समाचार राजा उदायन को ज्ञात हआ। उसने चण्ड प्रधीत की दासी पार मति बापिस देने का सन्देश भेजा किन्तु उसने देने से इनकार कर दिया। इस उत्तर में कूद्ध होकर उदायन न अवन्ती पर माक्रमण करके चण्ड प्रद्योत को पराजित कर दिया। चण्ड प्रद्योत बन्दी बना लिया गया । दासा भागन में सफल होगई किन्तु मर गई । उदायन ने मूर्ति को ले जाना चाहा, किन्त वह वहां से हिली तक नहीं। तभी प्रभावती जो देवी बनी थी, राजा के समक्ष प्रगट हुई और बोली-"राजन !' इस मति को पट्टन ले जाने का प्रयत्न छोड़ दो क्योंकि तुम्हारी राजधानी तुफान में नष्ट होने वाली है। उदायन चण्डप्रधात को बन्दी बनाकर अपने साथ लेगया। उसने चण्ड के माथे पर एक स्वर्ण पत्र बांध दिया मदासापतिः । मार्ग में दशपुर में सेना ने पड़ाव डाला । उस दिन पर्युषण पर्व था। उदायन ने रसोइया को बुलाकर कहा-'पयूषण के कारण नाज मेरा उपवास हैतम चण्ड प्रद्योत से पूछ लो, वे क्या भोजन करेंगे।' रसोइया ने जाकर यह बात चण्ड प्रद्योत को बताई। उसके मन में सन्देह उत्पन्न होगया क कहा यह कार ।मर भाजन में विष मिलाकर कहीं मुझे मारना तो नहीं चाहता। यह सोचकर वह बोला ____#भी न हूँ। प्राज मेरा भी उपवास है। रसोटया ने यह समाचार राजा उदायन का दिया । सनत हा यह चण्ड प्रद्योत के निकट पाया और अपने दुर्व्यवहार के लिए क्षमा मागते हए बोला-'बन्धुवर ! म अपन करप पर लज्जित हूँ। मुझे ज्ञात नहीं था कि तुम तो मेरे घर्भ-बन्ध हो।' यह कहकर उसने चण्ड प्रद्योत को प्रादरसूचक मुक्त कर दिया और वीतभय पट्टन लौट गया । इस घटना से ज्ञात होता है कि राजा उदायन एक कदर जैन धावक था। रत्नकरण्ड श्रावकाचार तथा कथाकोषों में सम्यग्दर्शन के तृतीय अंग निविचिकित्सा अंग के उदाहरण में उदायन का नाम दिया है। एक देव उनकी परीक्षा लेन दिगम्बर मुनि का वेष बनाकर नाया। सजा उदायन और रानी प्रभावती ने उन्ह भक्तपूर्वक पाहार दिया । तभी मुनिबेषधारी देव ने उनके ऊपर वमन कर दिया। किन्तु राजदम्पति ने कोई ग्लानि नहीं की बल्कि अपना अशुभोदय समझकर मुनि की वैयावत्य को। देव ने प्रगट होकर उनके सम्यग्दर्शन की बड़ी प्रशंसा की। . शतानीक वत्सनरेश शतानीक के साथ सिप्रादेवी (मगावती) का विवाहाना था। उसकी राजधानी कोशाम्बा था। शतानीक ललितकला का शौकीन था। उसके दरबार में उसका एक कृपापात्र चित्रकार रहता था। किसी कारणवश शतानीक ने अप्रसन्न होकर उसे निकाल दिया। चित्रकार के मन में प्रतिशोष की प्राग जलने लगी। उसने महारानी भयावती का एक सुन्दर चित्र बनाया और जाकर प्रवन्ती नरेश चण्ड प्रद्योतको भेट किया। प्रचीत उसे देखते ही मगावती पर मोहित हो गया। उसने शतानीक को सन्देश भेजा-तमया तो ममावती को मुझ सोंप दो अन्यथा युद्ध के लिए तैयार होजाग्रो । शतानीक ने युद्ध करना पसन्द किया। दोनों नरेशों में युद्ध हुआ। इसी युद्ध के दौरान किसी

Loading...

Page Navigation
1 ... 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412