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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
छह जीवनिकाय, पाठ प्रवचन मातका कौन-कौन सी हैं । किन्तु अहंकारवश वे यह बात दूसरे के समक्ष स्वीकार कसे कर सकते थे। अत: उन्होंने विचार कर उत्तर दिया-तुम मुझे अपने गुरु के पास ले चलो। मैं उन्हीं के सामने तुम्हें इस गाथा का अर्थ समझाऊँगा।
इन्द्र इसीलिये तो पाया ही था। वह इन्द्रभूति को लेकर चल दिया। साथ में उनके ५०० शिष्य भो थे। उस समय भगवान राजगृह के विपुलाचल पर्वत पर समवसरण में विराजमान थे। इन्द्र इन्द्रभूति को लेकर वहाँ पहुंचा, जहाँ समवसरण लगा हुया था । इन्द्रभूति ने समवसरण के प्रवेश द्वार से जैसे ही प्रवेश किया, उनको दष्टि मानस्तम्भ के ऊपर पड़ी। मानोन्नत जनों के मान को गलित करने को अद्भुत क्षमता थी इस मानस्तम्भ में । उन्होंने मानस्तम्भ की मोर क्या देघा, ने दखत ही रह गये, जैसे किसी मोहिनी ने उन्हें कोलित कर दिया हो । प्रतिक्षण उनके भावों में परिवर्तन हो रहा था। उनका ज्ञानमद विगलित होरहा था और क्षण प्रतिक्षण उनके अन्तस् में बिनय, बिनम्रता और माल:नता पैदा हो रही थी । जव उनकी दृष्टि मानस्तम्भ के कार से हटी, तब उनका हृदय विनय से भरा हना था 1 वे मागे बड़े । उन्होंने समवसरण की विभूति का अवलोकन किया और मन में भक्ति जागृत हुई-धन्य है वह महाभाग, जिसको विभुति को सीमा नहीं, देव पोर इन्द्र जिसको अर्निश वन्दना करते हैं ! कौन है, बह चराचर वन्दित, जिराकी महिमा का पार नहीं है। इन्द्रभूति समवसरण की विभूति चारों ओर निहारते हए विनीत भाव से आगे बढ़े। अव गन्धकुटो में विराजमान भगवान के दर्शन होने लगे। भगवान के दर्शन हुए मानो मन और सम्पूर्ण इन्द्रियों की सम्पूर्ण शक्ति यांखों में पासमायो हो । वे जब भगवान के समक्ष पहुंचे, तब तक इन्द्रभूति गौतम में प्रासाधारण परिवर्तन दिखाई देने लगा था। वे अहंकारी इन्द्रभूति नहीं रह गये, वरन् वे विनम्र और श्रद्धा की मूति बन गये थे। व आगे बड़े और भगवान के सामने जात ही प्रणिपात करते हुए बोले-- भगवन् ! में ज्ञान के प्रकार में सज्ज्ञान को भूल गया था। मुझे अपने चरणों में शरण दीजिये और मेरा उद्धार कीजिये।' यह कह कर उन्होंने विधिपूर्वक मुनि-दीक्षा ले ली। दीक्षा लेते ही उन्हें परिणामों को विशुद्धि के कारण पाटऋद्धियाँ प्राप्त हो गई, चार ज्ञान (मतिज्ञान, थुतज्ञान, अवधिज्ञान प्रौर मनःपर्ययज्ञान) प्राप्त हो गये।
गौतम स्वामी द्वारा संयम धारण करते ही भगवान को ६६ दिन से रुको हई वाणो-दिव्य ध्वनि प्रकट हुई। भगवान की दिव्यध्वनि में प्रकट हुमा-गीतम । तुम्हारे मन में शंका है कि जीव है या नहीं? इस विषय को लकर भगवान की दिध्य ध्वनि में जीवतत्व का विस्तृत विवेचन हुप्रा । महावीर भगवान के उपदेश से उन्हें श्रावण कुष्णा प्रतिपदा के दिन पूर्वाह काल में समस्त अंगो के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। उसी दिन अपराह कालमें अनुक्रम से पूर्वो के अर्थ और पदों का स्पष्ट बोध होगया । बोध होने पर उन्होंने उसो रात्रि के पूर्व भाग में अंगों को पौर पिछले भाग में पूों को ग्रन्थ रचना की। ये भगवान के प्रथम और मुख्य गणधर बने।
धर्मचक्र प्रवर्तन अथवा तीर्थ स्थापना-पट्टेण्डायम भाग १ ए०६२-६३ में भगवान महावीर के प्रथम उपदेश को तीर्थ-प्रवर्तन की संज्ञा दी है। इस सिद्धान्त अन्य का तत्सम्बन्धी अवतरण इस प्रकार है
इम्मिस्से वसप्पिणीए चउत्थ समयस्स पच्छिमे भाए। चोतीस वास सेसे किचि विसेसूणए संते ॥५५॥ वासस्स पढ़म मासे पढमे पक्खम्मि सावणे पहले। पाडियद पुव्य दिवसे तित्थुप्पत्ती हु अभिजिम्हि ॥१६॥ सावण वठ्ठल परिवदे रुद्द मुहत्ते सुहोवार रविणो ।
प्रभिजिस्स पढ़म जोए जत्य जुगादी मुणेयव्यो ॥५७॥ अर्थात इस अवसपिणो कल्पकाल के दुःषमा सुषमा नाम के चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम चौतीस वर्ष बाकी रहने पर वर्ष के प्रथम मास अर्थात् श्रावण मास में प्रथम पक्ष अर्थात् कृष्ण पक्ष में, प्रतिपदा के दिन प्रातः काल के समय प्राकाश में अभिजित नक्षत्र के उदित रहने पर धर्म-तीर्थ को उत्पत्ति हुई।।
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन रुद्र मुहूर्त में सूर्य का शुभ उदय होने पर और अभिजित नक्षत्र के प्रथम योग में जब युग की आदि हुई, तभी तीर्थ की उत्पत्ति समझनी चाहिये ।