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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास रखती थी। किन्तु चन्दना इन कष्टों और अपमानों को अपने कर्मों का अनिवार्य फल मागकर शान्ति और धैर्य के साय सहन किया करती थी।
एक दिन भगवान महावीर वत्स देश की राजधानी कौशाम्बी में प्राहार के निमित्त पधारे । वे श्रेष्ठी षभदस के प्रासाद के सामने से निकले। भगवान को चर्या के लिए पाते हए देखकर चन्दना का रोम रोम हर्ष से भर उठा । उसे प्रभी कोदों का भात दिया गया था। वह भक्तिविह्वल होकर भगवान के प्रतिग्रह के लिये प्रागे बढी । वह भूल गई अपनी दुर्दशा; वह भूल गई कि त्रिलोकवन्द्य भगवान के उपयुक्त पाहार वह नहीं दे सकेगी। वह तो त्रिलोकनाथ प्रभु को अपने सात्विक हृदय को भक्ति का अर्घ्य चढ़ाने के लिए पातुर हों उठो। जन्म जन्मान्तरों से संचित प्रभु-भक्ति पाल्हाद में उसके नेत्रों से प्रवाहित होने लगी। उसका मुखमण्डल प्रभु दर्शन के हर्ष से सद्य:विकसित पाप के समान मोद से खिल उठा। उसके कमनीय कपोलों पर हर्ष की प्राभा तैरने लगी। अवरुद्ध पुण्य का स्रोत तीव वेग से खल गया। उसकी लोहे की बेड़ियाँ टूट कर अलग जा पड़ीं। केशविहीन सिर पर काले कुन्तल लहराने लगे । उसका मिट्टी का सकोरा स्वर्ण पात्र बन गया । कोदों का भात सुरभित शालो चाबलों वा भात बन गया। उसके जीर्ण शीर्ण वस्त्र बहमत्य चीनांशुक बन गये । उसने नवधा भक्ति के साथ आगे बढ़कर भगवान को पड़गाया और विधिपूर्वक उन्हें मझा दिया। भगवान ने शासनालयों के राजसो आहार की उपेक्षा करखे एक हतभाग्य दासी द्वारा दिये हए आहार को निविकार भाव से ग्रहण किया । अब तो चन्दना न हतभाग्य थो और न दासो थो। देवों ने उसके पुण्ययोग की सराहना की। प्राकाश में देव दुन्दुभि बजने लगीं। शीतल मन्द सुगन्धित पवन वहने लगा। सुगन्धित जल की वर्षा हई। देवों ने रत्नवर्षा की तथा इस पुण्यप्रद दान, दाता और पात्र को जयजयकार की। भगवान पाहार करके मौन भाव से बिहार कर गये।।
चन्दना द्वारा भगवान को दिये गये इस पाहार को चर्चा सम्पूर्ण कौशाम्बी में होने लगी । इसको मुंज रोज प्रासाद में भी सुनाई दी। वत्स देश को पट्टमषिो मृगावती ने भी यह चर्चा सुनी। वह उस महाभाग्य रमणारत्न से मिलने को उत्सक हो उठी, जिसे भगवान को पाहार देने का पुण्य योग मिला। वह रथ में आरूढ़ होकर सेठ वृषभदत्त के आवास पर पहुंची। सेठ धृषभदत्त भी अपनी व्यापार यात्रा से लौट पाये थे। उन्होंने सब कुछ देखा सुना। वे अपनी धर्मपुत्री के सौभाग्य पर अत्यन्त हर्षित हुए, किन्तु अपनी पत्नी द्वारा उसके साथ किये गये दुर्व्यवहार पर बहुत कुपित हुए। उन्होंने अपनी पत्नी की कड़े शब्दों द्वारा भर्त्सना की। महारानी मृगावती जिस महाभाग रमणी से मिलने पाई थी, उससे मिली। किन्तु वह आश्चर्य और हर्ष से भर उठी। उसने देखा, वह रमणी तो उसको छोटी बहन चन्दनवाला है। वह उससे गले मिली। दोनों बहनें बड़ी देर तक हर्ष विषाद के आंसू बहाती रहीं। मगावती अपनी बहन के दुविपाक की कहानी सुनकर अत्यन्त दुखित हुई। वह बोली-'प्रिय बहन ! जो होना था, वह हो गया उसे एक दुःस्वप्न समझकर भूलने की कोशिश करो। तुम मेरे साथ चलो। मैं पिता जो को समाचार भिजवाये देती हूँ । चन्दना भी अपने घमपिता श्रेष्ठी से आज्ञा लेकर अपनी बड़ी बहन के साथ चली गई। छ समय पश्चात वह अपने बन्धु बान्धवों से जा मिली। किन्तु उसने इतनी अल्पवय में हो जो कष्ट झेने और संसार के वास्तविक रूप के दर्शन किये, उससे उसका मन भोगों से विरक्त हो गया। वह राजमहलों के सुख सुविधापूर्ण वातावरण में भो विरक्त जीवन बिताने लगी और एक दिन भगवान महावीर को केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात वह राजसी जीवन का परित्याग करके भगवान के समीप प्रायिका बन गई मौर अपनी कठोर साधना एवं योग्यता के कारण प्रायिका संघ की गणिनी के पद पर प्रतिष्ठित हुई।
भगवान विभिन्न देशों में बिहार करते हए विविध प्रकार के कठोर तप करते रहे। वे मौन रहकर मात्म विकारों पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहे। इस प्रकार कठोर साधना करते हुए लगभग बारह वर्ष का
लम्बा काल बीत गया। किन्तु अनादिकाल से प्रारमा पर जमे हुए कर्मों के मलिन संस्कारों केवल ज्ञान को मिटाने के लिये बारह वर्ष का काल होता हो कितना है। जैसे सागर में एक बंद। भगकल्याणक
यान विहार करते हुए जम्भिक ग्राम के बाहर ऋजुकला नदी के तट पर पहुंचे। वहाँ मनोरस बन में शालवृक्ष के नीचे एक शिला पर वैला (दो दिन का उपवास) का नियम लेकर प्रतिमा