Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 382
________________ भगवान महावीर - के गणप्रमुख पेटक की सबसे छोटी पुत्री चन्दनवासा जिसे प्यार में चन्दना भी कहते थे -- अपनी सखियों के साथ राजोद्यान में विहार करने के लिए गई । वह कीड़ा में रत श्री । वह एक मुकुमार कली पी जो पुष्प बनने की ओर उन्मुख थी। उसका रूप अत्यन्त स्निग्ध, प्रशान्त किन्तु उन्मादक था वह अनिन्ध सुन्दरी और मोहिनी थी। तभी एक विद्याधर अपने विमान में उद्यान के ऊपर से गुजरा घरमात् हो उसकी दृष्टि उद्यान की घोर गई। वहाँ एक भुवन मोहिनी रूपसी बाला को देखकर वह काबिल हो गया। वह नीने उतरा और बलात् चन्दना का अपहरण करके विमान द्वारा भागा । असहाय चिड़िया बाज के पंजों में फंसी तड़पती रही । उसने करुणाजनक रुदन किया। किन्तु वह अपने शीलयत पर दृढ़ थी और उसे अपने धर्म पर दृढ आस्था थी। तभी विचार की पत्नी विद्याधरी रौद्र रूप धारण करके आती हुई दिखाई दी। विद्याधर का सम्पूर्ण पौरुष अपनी विद्याधरी को देखते ही हिम के समान गवित हो गया। उस कामातुर की दशा दयनीय हो गई। कामातुर अब चिन्तातुर हो गया। वह चन्दना को एक भयानक जंगल में उतारकर अपने प्राण बचाकर भागा। पापियों में साहस नहीं होता। बेचारी चन्दना उस निर्जन वन में रुदन करती हुई घूम रही थी एक भीस कहीं से आ निकला और एक सुन्दरी को एकाकी देखकर पुरस्कार के लोभ में उसे भेंट करने अपने सरदार के पास ले गया। भील सरदार भी उस अक्षतयौवना को देखकर उसके ऊपर मोहित हो गया। वह नाना उपायों से चन्दना को मोहित करने का प्रयत्न करने लगा, किन्तु शीला ग्रही चन्दना को वह किसी प्रकार विचलित न कर सका। तब वह दुष्ट जसे अनेक प्रकार के पास देने लगा। किन्तु जिसे धर्म पर पढ़ आस्था है, वह शारीरिक कष्टों की कर चिन्ता करता है। उसका तो विश्वास होता है कि शान है। एक होगा ही। वह पुनः मिल सकता है। किन्तु यदि धर्म नष्ट हो गया तो वह पुनः नहीं मिलता। उसका पुन. मिलना असंभव नहीं तो बहुत कठिन है । चन्दना कष्टों से तनिक भी विचलित नहीं हुई। उसे अहर्निश चिन्ता भी अपने धर्म को शोल को । भीलराज सभी उपाय करके हार गया । अन्त में निराश होकर उसने बन्दना को दासों के एक व्यापारी के हाथ बेच दिया। वह व्यापारी दासों के रेवड़ के साथ जंजीरों में बांध कर चन्दना को हांकता हुआ कौशाम्बी ले पहुँचा और उसे दासों के हाट में खड़ा कर दिया। उस नरपिशाच को चन्दना के सौदे में अच्छा मुनाफा मिलने की आशा थी । वह सोचता था यह दासी तो राजरानी बनने योग्य है। रूप है, योवन है, सुकुमारता है, अंग सौष्ठव है। राजमहालय का कंचुकी अच्छा मूल्य देकर इसे कम कर लेगा। चन्दना पूर्व जन्म में संचित अशुभ कमों का विपाक समझ कर शान्ति और धैर्य के साथ इन कष्टों और अपमानों को सहन कर रही थी। अभी जिना लय में दर्शन-पूजन से निवृत होकर सेठ वृषभवत्त उधर से निकले। वे एक धर्मपरायण व्यक्ति थे। उनको दृष्टि कुमारी चन्दना पर पड़ी देखते ही मन में करुणा जागृत हुई ये सोचने लगे अवश्य ही यह कन्या किसी भारत कुल की है। दुदेव से यह इन नरपिशाचों के हाथों में पड़ गई है। यह सोचकर व दासों के उस सादागर के पास पहुंचे और यथेच्छत मूल्य देकर चोर उसे अपनी धर्मपुत्री मानकर ले आये पर ले जाकर निरसन्तान पत्नो सुभद्रा से बोले 'दुर्भाग्यवश हमारे कोई सन्तान नहीं थी, किन्तु भाग्य ने हमें एक गुलक्षणा कन्या दे दी है। इसे किसी प्रकार का कष्ट न हो, इसका पूरा ध्यान रखना।' वे श्रेष्ठी चन्दना से पुत्रीवत् व्यवहार करते और उसकी प्रत्येक सुख-सुविधा का ध्यान रखते थे किन्तु सेठानी श्रेष्ठी के इस व्यवहार को कपट व्यवहार समझती थी। वह सोचती थी कि श्र ेष्ठी इस सुन्दर युवती को पत्नी बनाने के लिए लाया है। इसके रहते मेरी स्थिति दयनीय हो जायगी और मेरा पद, मान, अधिकार सब कुछ मेरी इस सपत्नी को मिल जायगा। यह राजरानी बनकर शासन करेगी और मेरे साथ दाशीवत् व्यवहार होने लगेगा। वह यह सोचकर सापल्य द्वेष से दिनरात जलने लगी और चन्दना से प्रतिशोध लेने एवं उसका अपमान करने के लिये उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगी। तभी व्यापारिक कार्यवश श्रेष्ठी को परदेश जाना पड़ा। किन्तु चलते-चलते भी वे अपनी इस धर्मपुत्री का पूरा ध्यान रखने के लिए सेठानी को निर्देश दे गये । श्र ेष्ठी के जाते ही सेठानी ने अपना कल्पित सापल्य द्वेष निकालना प्रारम्भ किया। उसने कैंची से चन्दना के केश काट दिये, जिससे उसका सौन्दर्य विरूप हो जाय। वह उसे मिट्टी के सकोरे में कांजी मिश्रित कोदों का भात खाने के लिए दिया करती थी। संभवतः इससे उसका उद्देश्य यह था कि चन्दना का स्वास्थ्य खराब हो जाय । क्रोधवश वह चन्दना को सदा लोहे की सांकल से बांधे चन्दनबाला का उद्धार

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