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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
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अन्त: परिग्रह के त्याग का प्रारम्भ बाध परिग्रह के त्याग से होता है। बाह्य परिग्रह बना रहे और अन्तः परिग्रह समाप्त हो जाय, ऐसा कभी संभव नहीं हो सकता। अन्तःपरिग्रह के त्याग को भावना मन में जागत होते ही बाह्य परिग्रह का त्याग करने की प्रवृत्ति तो स्वतः होती है । बाह्य परिग्रह को रक्षा करके उसको आसक्ति से कसे बचा जा सकता है। तब न बाह्य परिग्रह का ही त्याग हमा और न अन्तःपरिग्रह का त्याग ही हो पायगा। इसीलिये जैन साधु को निर्ग्रन्य कहा जाता है। बौद्ध ग्रन्थों में महावार को निगण्ठ नातपुत कहा गया है। क्योंकि वे अन्तःबाह्य परिग्रह से रहित थे । श्वेताम्बर ग्रन्थों में इन्द्र द्वारा महावीर के कन्धे पर देवदूष्य बस्त्र डालकर उनकी नग्नता छिपाने की कल्पना की गई है । सौधर्मेन्द्र सम्यग्दृष्टि और एकभवावतारी होता है। वह साधु के संयम के विरुद्ध कोई कार्य कर सकता है, ऐसी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। यदि कोई अज्ञानी ऐसा संयमविरोधी कार्य करता है तो साधु उसे उपसर्ग मानता है। यह तो सामान्य साधु की भी चर्या है। फिर महावीर तो तीर्थकर थे जो परम विशुद्धि के घारक थे। उनके लिये ऐसी संयम विरोधी कल्पना की गई, यही पाश्चर्य है।
पारणा के दिन भगवान प्राहार के लिये वन से निकले। वे विहार करके कुलग्राम पहुँचे। वहां के राजा कल ने नवधा भक्ति के साथ भगवान का प्रतिग्रह किया । उसने भक्तिपूर्वक भगवान की तीन प्रदक्षिणायें दी, उनके चरणों में नमस्कार किया और उच्च प्रासन पर बैठाया। अर्घ आदि से उनकी पूजा की ओर मन, वचन, काय की शद्धि के साथ परमान्न (खीर) आहार दिया। भगवान के प्राहार के उपलक्ष्य में देवों ने उस राजा के घर में पचाश्चर्य किये-शीतल मन्द सुगन्धित पवन बहने लगा, सुगन्धित जल की वर्षा हुई, रत्नवर्षा हुई, देव-दुन्दुभि बजने लगी मोर पाकाश मे देवों ने जयध्वनि की-धन्य यह दान, धन्य यह दाता और धन्य यह सुपात्र ।
भगवान पाहार के पश्चात् वहा से बिहार कर गये।
एक बार बिहार करते हुए भगवान उज्जयिनी पहुंचे और नगर के बाहर अतिमुक्तक नामक श्मशान में प्रतिमा योग धारण करके विराजमान हो गए। भगवान को देखकर महादेव नामक रुद्र ने उनके धर्य की परीक्षा
करनी चाही। उसने रात्रि में भगवान के ऊपर भयानक उपसर्ग किये। उसने अपनी चिक्रिया रुकृत उपसर्ग के बल से भयंकर बैतालों का रूप धारण किया। वे भयानक और हृदय को कंपित करने
वाली लीलाएं करने लगे। कभी ये किलकारी लगाते, कभी वीभत्स रूप धारण करके अद्रहास करते, कभी भयंकर नृत्य करने लगते और कभी एक दूसरे के उदर को फाड़कर उसके अन्दर घुस जाते। कभी बह रुद्र सिंह अथवा व्याघ्र का रूप धारण करके वीभत्स गर्जना करने लगता, कभी विकराल सर्प बनकर फुकारने लगता । कभी वह सुन्दर देवी का रूप धारण करके नाना प्रकार के प्रश्लील हाव भाव दिखाता और अपनी मोहिनी द्वारा उन्हें ध्यान से विचलित करने का प्रयत्न करता । इस प्रकार उसने भगवान की समाधि भंग करने की नाना प्रकार की चेष्टायें की किन्तु भगवान तो इन सब उपद्रवों से अप्रभावित रहकर आत्म-ध्यान में सुमेरु पर्वत की तरह पचल रहे। तब रुद्र प्रत्यन्त लज्जित होकर भगवान के चरणों में नतमस्तक हो गया और अत्यन्त विनय एवं भक्ति से भगवान की भावभरी स्तुति करने लगा-'प्रभु ! धन्य हैं पाप । आपकी धीरता और वीरता मनुपम है । आप योगियों के मुकुटमणि हैं। आप वस्तुतः महति और महावीर है । नाथ ! आप महान् हैं । प्रभो ! मुझ अज्ञानी की प्रविनय को प्राप क्षमा करें। आप तो क्षमामूर्ति हैं और मैं कुटिल, पामर और प्रधम हूँ। मैंने माप के प्रति अक्षम्य अपराध किये हैं, मेरी दुष्टता की सीमा नहीं है। मेरा उद्धार कैसे होगा!' यों कहकर प्रायश्चित के उद्वेग से उसके नेत्रों से मश्रुधारा बहने लगी। बहुत देर तक वह अपने सपराधों को मांखों की राह बहाता रहा। जब हृदय का भार कुछ कम हो गया तो वह भक्ति के उद्रेक से नृत्य करने लगा। उसके इस भक्ति नृत्य में पार्वती ने भी साथ दिया । फिर वह भगवान को नमस्कार करके चला गया ।
भगवान की साधना निरन्तर सतेज हो रही थी। वे मात्म-विजय की राह में निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जा रहे थे। वे एक बार विहार करते हुए कौशाम्बी पधारे। तभी एक हृदयद्रावक घटना घटित हई। वैशाली
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